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यग्य की अग्नि से घर की रक्षा होती है

ओउम
यग्य की अग्नि से घर की रक्षा होती है डा अशोक आर्य
हम प्रतिदिन दो काल यग्य करें । यग्य भी एसे करें कि इस के लिए आग को दो अरणियों से रगड़ कर पैदा किया जावे । इस प्रकार की अग्नि से किया गया यग्य , इस प्रकार की प्रशस्त अग्नि से किया गया यग्य घर की रक्षा करता है । इस तथ्य का वर्णन ऋग्वेद के सप्तम मंडल के प्रथम सूक्त के प्रथम मंत्र में इस प्रकार मिलता है :
अग्नि नरो दीधितिभिररण्योर्हस्तच्युती जनयन्त प्रशस्तं |
दूरेद्रशं गृह्पतिमथर्युम ।। ऋग्वेद ,,7.1.1 ||
मनुष्य सदा उन्नति को ही देखना चाहता है । अवन्ती को तो कभी देखना ही नहीं चाहता । मानव सदा आगे बढना चाह्ता है । पीछे लौटने की कभी उस की इच्छा ही नही होती । वह सदा ऊपर ही ऊपर उठना चाहता है नीचे देखना वह पसंद नहीं करता । इस लिए मन्त्र भी यह उपदेश करते हुए मानव को संबोधन कर रहा है कि हे उन्नति की इच्छा रखने वाले मानव ! तू अपने को आगे बढ़ने की चाहना के साथ अपनी अभिलाषा को पूरा करने के लिए , अपने हांथों को गति दे , इन्हें सदा गतिशील रख , कार्य में व्यस्त रख, इन्हें आराम मत करने दे , निरंतर कार्यशील रह । इस प्रकार अपने हांथों को गतिशील रखते हुए , क्रियाशील रखते हुए अपनी अंगुलियों से अरनियों अथवा काष्ठविशेषो में यग्य अग्नि को प्रदीप्त कर , यग्य को आरम्भ कर ।
यग्य की उस अग्नि को प्रदीप्त कर जो प्रशस्त हो , उन्नत हो अथवा उन्नति की और ले जाने वाली हो । । यह अग्नि इतनी तेजस्वी होती है कि इस के प्रकाश मात्र से , गर्मी मात्र से यह रोग के किटाणुओं के नाश का कारण बनती है अथवा युं कह सकते हैं कि यह अग्नि अपनी तेजस्विता से हानिकारक किटाणुओ का नाश कर देती है । यग्य की अग्नि से रोग के कीटो का अंत होता है । अत: यह यग्य रोग के कृमियों के संहार का कारण होता है ।
यह यग्य वर्षा आदि लाभ देने का भी कारण होता है । वर्षा से ही हमारी वनस्पतियां बडी होती हैं तथा हमें फल देती हैं । यदि वर्षा न हो तो हमारी खेतियां लहलहा नही सकती । जब खेती ही नही रहेगी तो हम खावेंगे क्या ? हमारे वस्त्र कहा से आवेंगे ? हमारे जीवन की आवश्यकता कैसे पुर्ण होगी ? इस लिए जब हम यग्य करते है तो वर्षा समय पर होती है । अत: वर्षा आदि का कारण होने से भी यग्य प्रशंसनीय होते हैं ।
जब कहीं पर यग्य हो रहा होता है तो इसे बडी दूर के लोग भी होता हुआ देख लेते हैं । क्यों ? क्योंकि इस की लपटें ऊपर को अच्छी उंचायिओ तक उठती हैं । इस कारण यग्य स्थान
से दूर निवास करने वाले लोग भी इस की अग्नि को देख सकते हैं । इस प्रकार दूर के लोग भी देखते हैं कि अमुक स्थान पर यग्य हो रहा है , जिससे उसे यह ज्ञान होता है कि इस स्थान पर
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निश्चित रूप से किसी का निवास है , निवास ही नही है , वहां निवास करने वाला व्यक्ति जागृत अवस्था में है , इस लिए ही यग्य की अग्नि जला रखी है ,। यह सब जानते हुए वह किसी दुर्भावाना से उस घर में प्रवेश करने का साहस नहीं करता ।
इस सब से स्पष्ट होता है कि यह यग्य घर की रक्षा करने का साधन है, जहां यग्य होता है वह स्थान सदा सुरक्षित रहता है । उस स्थान पर , उस घर में सदा निरोगता बनी रहती है , कोई बीमारी उस घर में नहीं आती , इससे भी वह घर सुरक्षित हो जाता है । इस सब के साथ ही साथ यह घर गति वाला भी होता है । इस घर में सदा उन्नति होती रहती है । सीधी सी बात है , जिस घर में सुरक्षित वातावरण के कारण चोर आदि आने का साहस नहीं करता, रोग का प्रवेश नहीं होता, उस घर में धन का बेकार के कार्यों में प्रयोग नहीं होता , इस कारण इस घर में जीवन रक्षा के उपाय अर्थात रोटी , कपडा आदि की आवश्यक्तायें थोड़े से धन से ही पूर्ण हो जाती हैं । शेष जो धन बच जाता है , वह परिवार की समृद्धि को बढाने का कार्य करता है । इससे परिजन उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं, उत्तम वस्तुओ को खरीद सकते हैं तथा दान देकर अन्य साधन हीन लोगों की सहायता कर अपना यश व कीर्ति को बढा सकते हैं , सर्वत्र सम्मानित स्थान प्राप्त कर सकते हैं ।
अत: जिस यग्य के मानव जीवन में इतने लाभ हैं , उस यग्य को तो प्रत्येक मानव को अपने परिवार में प्रतिदिन दो काल अवश्य करना चाहिए तथा यश प्राप्त करना चाiiiहये ।
हवियों से यग्य अग्नि को बधावें कभी बुझने न दें
यग्य कर्ता जिस यग्य अग्नि को जलाते हैं ,जिस को अपनिअनेक प्रकार की आहुतियां देकर बधाते हैं, वह यग्य अग्नि हमारे परिवार से , हमारे घर से क्भी बुझने न पावे । यह तथ्य्ही इसके दुसरे मन्त्र का मुख्य विशय है , जो इस प्रकार है : –
तमग्निमस्ते वसवो न्य्रण्वन्त्सुप्रतिचक्शमवसे कुतश्चित ।
दक्शाय्यो यो दम आस नित्य: ॥ रिग्वेद ७.१.२ ॥
अपने निवास को जो लोग उत्तम बनाना चाहते हैं, श्रेश्थ बनाना चाहते हैं , वह लोग इस यग्य की अग्नि को अपने निवास पर , अपने घर में स्थापित करते हैं । यग्य की यह अग्नि हम सब का पूरा ध्यान रखती है । यग्य की यह अग्नि हमारे संकटों को दूर करने का सदा यत्न करती रहती है । यदि हमारे घर में कहीं रोग के कीटाणु छुपे हैं , निवास कर रहे हैं , तो यह अग्नि उन किटाणुओं को नश्ट करके बाहर निकालने का कार्य करती है, यदि हमारे घर में दुर्गन्ध है तो यह अग्नि उसे दूर कर पवित्रता लाती है तथा यदि घर का वातावरण अशुद्ध है
तो यह यग्य की अग्नि उसे शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध , पवित्र करती है । घर में होने वाले सब प्रकार के भय को दूर कर हमें निर्भय बनाती है ।

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यग्य की यह अग्नि हवियों से बधती है। हम जो आहुतियां इस आग मे देते हैं , वह आहुतियां इस अग्नि को तीव्र करती हैं । अग्नि की इस तीव्रता से हमारी रक्शा के कार्य, हमें निर्भय करने के कार्य, हमें रोगों से मुक्त करने के कार्य ओर भी तीव्रता से होते हैं ।
जिस यग्य अग्नि के इतने लाभ हैं , जो यग्य अग्नि हमें इतने लाभ देती है , वह यग्य अग्नि हमारे घरों में निरन्तर जलती रर्हे , हम, कभी भी इसे बुझने न दें |
हे यग्य अग्नि ! हम सद तुझे आहुति देते रहें
हम परमपिता से प्रार्थना करते हैं किहेप्रभु ! यह्यगय अग्नि हमारे घरों में सद जलती रहे तथा हम सदा इसे बधानेके लिये इस में आहुती देते रहेम । इस तथ्य प्र इस तीसरे मेन्त्र मेम इस प्रकार प्रकार प्रकाश्डालते हुये कह गया है कि : –
प्रेद्धो अग्ने दीदिह पुरो नो॓॓जस्रया सूम्यी यविश्थ ।
त्वां शश्वन्त उप यन्ति वाजा: ॥ तिग्वेद ७.१.३ ॥
हे अग्नि ॒ खुब प्रकार से दीप्त होकर , तेज होकर तु हमारे सामने प्रकत हो । हे अग्नि तु सब प्रकार के रोगों को दूर करने वाली है , तुं ही सब प्रकार की गन्दी वायु को शुद्ध कर वातावरण को शुद्ध करने वालॊ है , हम एसी पवित्र अग्नि तु कभी न क्शीण होने वालि , कभी न दुर्बल होने वाली , कभीन बुझने वाली ज्वाला से निरन्तर दीप्त होतीरह्म निरन्तर तेज होती रह्, निरन्तर प्रचण्ड होती रह ।
हे अग्नि तुम्हेम अनेक प्रकार की भोज्न सामग्री मिलती है , अनेक प्रकार के अन्न हवि रुप में , आहुति रुप मे प्राप्त होते हैं । तेरे एं अनेक प्रकार के , विविध्प्रकार के अन्नों की आहुतियां डाली जाती हैं । यह जो अनेक प्रकार की वस्तुओं की आहुतियां तुझ में दाली जाती हैं , इन को ही तुणे बधाना है , इस वायु मण्डल में फ़ैलाना है ।
घरों में सब लोग मिलकर यग्य कर अपनी आहुति देते हैं
प्रत्येक घस्र में प्रति दिन यग्य होता ऐ तथा घर के सब लोग मिलकर इस यग्य में मिल कर बैथते हैं तथा मैलकर ही अपनी आहुति देते हैं । घ्गर की पवित्र अग्नि से यग्य अग्नि ओ प्रदीप्त कर , उस अग्नि में यथावश्यक आहुति दालते हैं । इस प्रकर के यग्यों ए द्वारा इस घर के लोग महान अग्निका पूजन करते हैं । इस तथ्य को इस चोथे मन्त्र में इस प्रकार व्युअक्त किया गया है : –
प्रते अग्नयो॓॓ग्निभ्योवरंनि: सुवीरस: शोशुचन्त द्युमन्त: ।
यत्रा नर: समासते सुजाता: ॥ रिग्वेद ७.१.४ ॥
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गार्हपत्य अग्नि अर्थात घर की अग्नि , सदा हम उस अग्नि को प्रणयन करते हैं, बुलाते हैं , जलाते हैं , जिसका हमने आह्वान करना होता है । इस लिये ही कहा जाता है कि हे गार्हपत्य अग्नियों ! तुझ से ही यगय की अग्नियां जला करें । यह अग्नियां अच्छे से ज्योतित हो कर , तेज को धारण कर, तीव्र होकर अच्छी प्रकार से , थीक से रोग के क्रिमियों को , रोग के कीटाणुओं को कम्पित करने वाली, भयभीत करने
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वाली हों, मारने वाली हों । इस प्रकार यह यग्य अग्नि सब प्रकार के भूत आदि को पीछे धकेल दे , भगा दे । किसी प्रकार के भय को रहने ही न दे ।
इस अग्नि अर्थात इस यग्य अग्नि के पास सदा ही उत्तम प्रक्रिति वाले अथवा कुलीन लोग ही रहते हैं, निवास करते हैं । यह सब लोग बडे प्रेम से इस अग्नि के समीप अपना आसन लगा कर रहते हैं । यह लोग ,जिस प्रकार नाभि के आरे होते हैं , वैसे ही इस यग्यग्नि के चारों ओर मिलकर गति करते हुये , कर्म करते हुये, यग्य व्यवहार करते हुये आसीन होते हैं । इस प्रकार यह लोग यग्य की इस अग्नि का पूजन करते हैं तथा इस में यथावश्यक घी तथा सामग्री की आहुति देते हैं ।
यग्यकर्ता को उत्तम सनतान, प्रशस्त जीवन तथा पवित्र धन दे
परमपिता प्रभु नित्य यग्य करने वालों को एसा पवित्र धन दे जो उसे वीर बनावे, उसे उत्तम सन्तान दे, उंचे जीवन वाला बनावे तथा यह धन चॊर आदि चुरा न सकें । इस तथ्य को वेद के इस पांचवें मन्त्र में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
दा नो अग्ने धिया रयिं सूवींर स्वपत्यं सहस्य प्रशस्तम ।
न यं यावा तरति यातुमावान ॥ रिग्वेद ७.१.५ ॥
विगत मन्त्र में यह प्रार्थना कि गयी थी कि हे प्रभो ! हम इस यग्य अग्नि के समीप बैथे परिजन यग्य की समाप्ति पर आप से प्रार्थना करते हैं कि आप हमें आगे ले चलो , उन्नत करो तथा हमने यह जो बुद्धि पूर्वक यग्य कर्म किया है , इसके माधयम से पवित्र कर्मों के कारण हमें अपार धन दीजिये । हमारे काम , क्रोध आदि दुश्ट शत्रुओं का नाश करने वाल प्रभो ! हमें वह धन दीजिये , जो उतम तथा वीर जनों को जन्म देता है । दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हे प्रभो हमें वह धन दीजिये , जो हमें वीर बनाता है , जो हमें उत्तम सन्तान वाला बनाता है , जिस धन की प्राप्ति हमने पवित्र साधनों से ही की है ।
इतना ही नहीं इस मन्त्र में एक ओर प्रार्थना भी की गयी है , जो इस मन्त्र का सब से मुख्य अंग कही जा सकती है , वह यह कि हे प्रभो ! हमें एसा पवित्र धन दीजिये जिसको हिन्सा की भावना से युक्त होकर हम पर आक्र्मण करने वाले शत्रु भी हमारे से छीन न सकें ।

डा अशोक आर्य