हम शरीर , मन व मस्तिश्क से प्रभु स्तवन करें

औ३म
हम शरीर , मन व मस्तिश्क से प्रभु स्तवन करें
डा. अशोक आर्य
मानव के शरीर रुपि घर के तीन निवासी होते हैं । इन तीन के द्वारा ही मानव अपने जीवन के सब कार्यों को पूर्ण करता है । वह अपने शरीर में सोम कणॊं की रकशा कर शक्ति सम्पन्न बनता है मस्तिश्क से ग्यान प्राप्त कर ग्यान का भण्डारी बनता है तथा मन से विभिन्न प्रकार का चिन्तन करता है किन्तु जब इन तीनों शक्तियों को प्रभु स्तवन में लगा देता है तो उसकी सब मनोकामनायें पूर्ण होती हैं । यह तथ्य ही इस सूक्त क मुख्य विशय है । आओ इस सूक्त के विभिन्न मन्त्रों को समझने का यत्न करें ।
सोम की रक्शा से हम इन्द्र व शक्त बनेंगे
हम शत्रुओं का वारण करने वाले संहार करने वाले बनें । इनका वारण करते हुये हम अपने अन्दर सोम की रक्शा करें । यह सोम का रक्शण ही उस परमपिता को पाने का साधन होता है । जब हम सोम का रक्शन करते हैं तो हम भी इन्द्र बनते हैं , सशक्त बनते हैं । इस तथ्य को ही रिग्वेद के मण्डल संख्या ८ के सुक्त संख्या ९१ के प्रथम मन्त्र में इस प्रकार बताया गया है : –
कन्या३ वारवायती सोममपि स्त्रुताविदत ।
अस्तं भरन्त्यब्रवीदिन्द्राय सुनवै त्वाश्क्राय सुन्वै त्वा॥रिग्वेद *.९१.१ ॥
मन्त्र कहता है कि शत्रुओं का वारण करने वाली , शत्रुओं का नाश करने वाली यह कन्या ( कन दीप्तो ) अर्थात कणों को दीप्त करने वाली अथवा सोम कणों को बटाने वाली अथवा दैदिप्यमान जीवन वाली यह बनती है । यह सोम से सुरक्शित होने के कारण काम क्रोध आदि से,( गति करती हुइ ) दूर होती चली जाती है । काम क्रोध से यह सदैव दूर ही रहती है । यह सोम शक्ति काम क्रोध के साथ तो निवास कर ही नहीं सकती । इस कारण इन शत्रुओं से सदा ही दूर रहती है । जहां काम क्रोध आदि शत्रु निवास करते हैं, वहां सोम का सदा नाश ही होता रहता है । शक्ति आ ही नहीं सकती । इस कारण ही यह एसे शत्रुओं से सदा दूर रहती है । यह शक्ति निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर रहती है । इस कारण ही यह सोम को भी प्राप्त करने में सफ़ल हो जाती है । सोम नामक कणों को यह शक्ति अपने अन्दर रक्शित करती है ।
यह शरीर इस शक्ति का निवास है , घर है । अत: यह अपने इस घर रुपि शरीर को सोम कणों से निरन्तर पुशट करती रहती है । सोमकणों से शरीर को निरन्तर पुश्ट करती रहती है । अपने शरीर को इन सोम कणॊं की सहयता से सदा शक्तिशाली बनाते हुये यह सम्बोधन करते हुये कहती है कि हे सोम ! मैं परमएशवर्यशाली को पाना चाहती हूं । उसे पाने के लिये ही मैं तुझे पैदा करती हुं , उत्पन्न करती हुं । जब मेरे में सोम कण रम जावेंगे तो मुझे उस प्रभु को पाने में सरलता होगी । इस लिये मैं तुझे अपने शरीर में अभिशूत करती हू ताकि मुझे (तेरे इस शरीर में रमे होने के कारण ) वह सर्वशक्तिमान प्रभु मिल जावे ।
सोम से मधुरता मिलेगी तथा प्रभु स्तवन करेंगे
जब भी कभी इस शरीर में प्रभु का प्रकाश होता है तो शरीर रूपी यह घर एक विचित्र सी आभा से दीप्त हो जाता है , चमक जाता है तथा जब इस चमक से युक्त शरीर में सोम की रक्षा होती है तो इस शरीर में एक स्थिर शक्ति आती है , विचित्र सा आनंद अनुभव होताहै , मधुरता से भरा हुआ यह शरीर प्रभु स्तवन की और जाता है तथा प्रभु चरणों में रहने की वृति इस शरीर की बनती है । इस तथ्य को ऋग्वेद के मंडल 8 की ऋचा 91 के मन्त्र संख्या 2 में इस प्रकार बताया गया है : –
असॉ य एषे वीरको गृहंगृहं विचाकशत ।
इमं जम्भ्सुतं पिब धा नावन्तं करम्भिणमपुवन्तमुक्थिनम ।।ऋग्वेद8.91.1 ।।
मन्त्र कहता है कि हे परमपिता प्रभु ! आप शत्रुओ को अति शीघ्रता से कम्पित कर देते हो, भयभीत करने वाले हो । आप के सहयोग से हमारे सब शत्रु शीघ्र ही हमारे से दूर भाग जाते हैं , पराजित हो जाते हैं । इस प्रकार आप के सहयोग से यह पराजित शत्रु पुन: हमारे पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं करते । इस प्रकार आप जब हमें प्राप्त होते हैं तो हमारे इस शरीर रूपी गृह का प्रत्येक भाग , प्रत्येक घर आप ही के कारण दीप्त होता है , चमकता है , प्रकाशित होता है । जब हमारे अंत: करण मे , हमारे हृदयों में आप का प्रकाश होता है तब तब हे प्रभु ! हमारा यह् शारीरिक घर दीप्त हो जाता है , चमकने लगता है , सब और से प्रकाशित हो जाता है ।
मन्त्र आगे उपदेश कर रहा है कि हे प्रभु हमारे जबड़े सोम के निर्माण का काम करते हैं । जब हम जबडों से भोजन चबा चबा कर करते हैं तो इन में से सोम पैदा होता है । इस पैदा हुए सोम को यह शरीर ही पी ले एसा अनुग्रह हम पर करिये , एसी कृपा हम पर करें प्रभु । वास्तव में यह सोम ही तो है जो हमारे शरीर को धारण करता है , यह सोम ही है जो आनंद से वशीभूत हो हमारा आलिंगन करता है , यह सोम ही हमारे जीवन को आनंदमय बना कर आनंद से भरता है । यह सोम ही हमारे शरीर में मधु के छत्ते का कार्य करते हुए हमारी वाणी को हमारे व्यवहार को मधु के ही समान मधुर व मीठा बना देता है । यह सोम ही स्तोत्रो वाला होता है । यह सोम ही हमारे शरीर में सुरक्षित होने पर इस की रक्षा करने वाले शरीर अथवा व्यक्ति को प्रभु चरणों में बैठने का प्रभु स्मरण का, प्रभु स्तवन का अधिकारी बना देता है । हमारी वृति इस सोम के ही कारण प्रभु की और लगती है ।
प्रभु को जानने की कामना से सोम रक्षण करें
विषयों में उलझा मानव साधारण रुप में प्रभु को स्मरण नहीं करता । हम सदा प्रभु को जानने की इच्छा करते हुए इस उद्देश्य को पाने के लिए अपने शरीर में सदा सोम की रक्षा करें । इस तथ्य को ऋग्वेद के अष्टम मंडल की ऋचा संख्या 91 के मन्त्र संख्या तीन में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
आ चन त्वा चिकित्सामो$धि चन त्वा नेमसी ।
शनैरिव शनकैरिवेन्द्रायेन्दो परी स्रव ।। ऋग्वेद ८.91.3 ।।
मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे प्रभो ! हम सदा आपको ही जानने की इच्छा करते हैं , आप को ही जानने की कामना करते हैं , आपको ही जानने की अभिलाषा राखते हैं । साधारणतया मानव इस संसार में आकर विषयों में एसा उलझता है कि वह आपको भुल जाता है । उसे स्मरण ही नहीं रहता की वह संसार में किस लिए आया था । इस कारण सांसारिक विषयों में फ़ंसा यह मानव आपको स्मरण नहीं करता, याद नहीं करता । यह सत्य भी है कि जब विषयों का पर्दा पड जाता है तो कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता । जब कुछ भी अच्छा दिखायी नहीं देता तो सर्व श्रेष्ठ होने के कारण विषयों के इस परदे के कारण आप भी दिखायी नहीं देते । आप भी हमारी द्रष्टि से ओझल हो जाते हैं ।
मन्त्र के दूसरे भाग को स्पष्ट करते हुए मन्त्र प्रकाश डालते हुए बता रहा है कि हे सोम ! तू उस परमपिता को प्राप्त कराने का मुख्य साधन है तथा हम प्रभु को पाने के अभिलाषी हैं । इसलिए तुम हमारे शरीर में धीरे धीरे रमण करो , आवो । अत: प्रभु की प्राप्ति के लिए धीरे धीरे ही हमारे शरीर में अपना स्थान बना कर स्थित होवो । इस प्रकार धीरे धीरे विस्तारित होते हुए हमारे सब अंग प्रत्यंगों में व्याप्त हो जावो । जब आप धीरे धीरे शान्ति पूर्वक हमारे शरीर में व्यापत होते हैं तो हमारा जीवन प्रकाश से भर जाता है , सब और प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है , यह शरीर प्रकाशमय बन जाता है, प्रकाश पुञ्ज बन जाता है । तब ही हम उस पिता के दर्शन करने में समर्थ होते हैं ।
इन्द्रियों को विषयों से विमुख करें
जब मानव सोमरस की रक्षा कर लेता है तो उस की शक्ति बढ जाती है । जब मानव सोम का पान करता है तो उसकी वासनायें भी नष्ट हो जाती हीं , वासनाओं को उसके पास आने का साहस ही नहीं होता । इससे उसे प्रशस्त वसुओ की प्राप्ति होती है । मानव को चाहिए की वह विषयों की और आमुख इन्द्रियों को इन्द्रियों से विमुख कर इन्हें प्रभुप्रवण करने का , प्रभु की और लगाने का यत्न करें ।इस तथ्य को इस ऋका के चोथे मन्त्र में बडे सुन्दर धंग से इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
कुविच्छकत्कुवित्करत्कुविन्नो वस्यसस्करत ।
कुवित्पतिद्विषो यतिरिन्द्रेण संगमामहै ।।ऋग्वेद 8.91. 4 ।।
मन्त्र कहता है कि जब हम अपने शरीर में सोम की रक्षा कर लेते हैं , सोम का रक्षण कर लेते हम तो वे प्रभु हमें शक्तिशाली बना देते हैं , शक्ति का भंडार हम में भर देते हैं । इस प्रकार हमें शक्तिशाली बना कर हमारे शत्रुओं को खूब वोषिप्त काटे हैं , परेशान करते हैं तथा इस प्रकार हमारी ख्याति खूब बढाते हैं , हमारी प्रशस्तीकराते हैं व हमें प्रशस्त कर हमें वसुओ से युक्त करते हैं , वसुओ वाला बनात हैं ।
मन्त्र आगे बता रहा है कि हमारी यह जो इन्द्रियां हैं , वह उस पिता की एसी पत्नी के सामान हैं , जो अपने पति के वश में नहीं होती । यह विषयों के अंतर्गत, विषयों के अभिभूत हो इधर उधर भटकती रह्ती हैं । हम अपने शरीर में व्याप्त इस सोम की सहायता से इन से जब युद्ध करते हैं तो यह निश्चय ही पराजित होती हैं । इस प्रकार पराजित हुई इन इन्द्रियों को हम प्रभु की प्रार्थना में लगा दें , प्रार्थना में अर्पित कर दें , प्रभु की संगत में लगा दें । मानव जीवन की यह ही सब से उत्कृष्ट साधना है कि वह अपनी इन्द्रियों को अपने वश में करे , इन्हें विषयों से विमुक्त कर परमपिता प्रभु की और प्रेरित करे , प्रभु के चरणो में लगाने का यत्न करे , प्रभु प्रवण बनाए ।
त्रिलोक उत्कृष्ट हो,ज्ञान का प्रकाश,प्रेम भावना तथा शक्ति का आधार हो:-
हे प्रभु मेरा यह शरीर त्रिलोक पूरी है । आप इसे उत्कृष्ट बनावें । मेरा यह मस्तिष्क द्युलोक के समान है । आप दया करके इसे ज्ञान के प्रकाश से भर दीजिये । इसे इस प्रकाश का मूल बनावें । ह्रदय प्रेम की कृषि भूमि है । इसे प्रेम की भावना से उर्वरक बनाइये । मेरा यह शरीर शक्ति का केंद्र है । इसलिए इस शरीर को शक्ति का आधार बनाईये । इस तथ्य को ऋग्वेद के मंडल आठ के सूक्त 91 के अंतर्गत मन्त्र संख्या पांच में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
इमाणि त्रीणि विश्ट्या तानिन्द्र वि रोहय ।
शिरस्ततस्योर्वरामादिदं म उपोदारे ।।ऋ ग्वेद 8.91.5 ।।
मन्त्र इंगित कर रहा है कि हे प्रभो ! आप ने जो तीन लोक बनाए हैं , उनमें से यह शरीर हमारे लिए पृथ्वीलोक है । हमारे सब आचार व्यवहार ज्ञान का आधार व प्रेम का केंद्र तथा हमारी सब शक्तियो का केंद्र यह शरीर ही तो होता है । इस लिए हम इसे पृथ्वी रूप में ही मानते हैं ।
इस शरीर में जो ह्रदय है , इसे अन्त्रिक्षलोक स्वरूप माना जा सकता है ।जहां पृथ्वी होती है वहां अंतरिक्ष का होना भी आवश्यक ही होता है । प्रथ्वी के ऊपर अन्तरिक्ष में बहुत कुछ विचरण किया करता है । ठीक इस प्रकार ही इस शरीर रूप पृथ्वी पर जो भी हमारे व्यवहार विचरण करते हैं उन सब का केंद्र ह्रदय होने से यह ह्रदय ही हमारे लिए अन्तरिक्ष का कार्य करता है ।
आप ने तीन लोकों में जो तीसरा लोक बनाया है , उसे आपने द्युलोक का नाम दिया है । हमारे शरीर में भी एक द्युलोक है । इस द्युलोक का नाम मस्तिष्क है । द्युलोक में उच्च प्राणी निवास करते हैं , दानशील प्राणी रहते हैं , दुसरों का उपकार करने वाले प्राणी रहते हैं । हमारा यह मस्तिष्क ज्ञान का भंडार है, यह मस्तिष्क ज्ञान को बांटने का कार्य करता है , ज्ञान का दान करता है ,इसलिए हमारे शरीर में यह द्युलोक का ही प्रतिरूप है ।
इस लिए हे प्रभु ! मेरे शरीर के इन तीनो लोको को प्रशस्त करिए , उन्नत करिये, समृद्ध करिए ।
मन्त्र के दूसरे भाग में उपदेश इस प्रकार किया गया है कि मेरे शरीर का जो भाग ज्ञान का केंद्र माना गया है , उसे आप ने मस्तिष्क का नाम दिया है । हे प्रभु ! आप की व्यवस्था के अनुसार सब प्रकार के ज्ञान का केंद्र मस्तिष्क होता ई । इस में उत्तम ज्ञान की सरितायें भी बह सकती हैं तथा हानिप्रद ज्ञान भी इस में भर सकता है । किन्तु प्रभु हमें किसी प्रकार की हांनि न हो , हम किसी की हांनि भी न करें । इस लिए हमारे मस्तिष्क में अत्यंत विस्तृत तथा उत्तम प्रकार के ज्ञान का भण्डार भर दो ।
हे प्रभु ! मेरे ह्रदय रुपि भूमि को आप् भरपूर उर्वरक शक्ति दें । इसे इतना उर्वरक बना दो कि इस में निरसता तो कभी दिखाई ही न दे । यह क्षेत्र स्नेह की भावनाओं से भरपूर उर्वरक कर दो । इस में सदा स्नेह की नदियां बहती रहें ।
प्रभो ! शरीर की शक्ति का सम्बन्ध वीर्य से होता है । इस शरीर को इतना वीर्यवान बना दीजिये कि इस शरीर में यह वीर्य शक्ति समीपता बनाए रखे । इस वीर्य शक्ति का , इस सोम शक्ति का मेरे अन्दर रक्षण करें ।
इस प्रकार मेरे शरीर के तीनों लोक (1) मस्तिष्क ज्ञान का केंद्र हो, (2) ह्रदय में स्नेह भरा हो तथा (3) शरीर वीर्य का ,शक्ति का, सोम का उत्पति स्थल बना रहे ।
हम अपने शरीर के तीनों अंगो से अर्थात मस्तिष्क, हृदय तथा शरीर से सदा प्रभु के स्मरण में, प्रभु स्तुति में, प्रभु स्तवन में लगे रहें । इसलिए हमारा हृदय प्रभु के सच्चे प्रेम से, शरीर प्रभु की दी हुई शक्ति से तथा मस्तिष्क प्रभु के दिए ज्ञान से सदा भरा रहे । इस तथ्य को इस ऋचा के छ्ट्वें मन्त्र में इस प्रकार उपदेश किया गया है : –
असो च या न उर्वरादिमाम तन्वं 1 मामा ।
अथो तातस्य यच्छिर: सर्वा तारोमशा कृधि ।।ऋ ग्वेद 8.91.6।।
मन्त्र बता रहा है कि हे पिता ! हमारी यह जो हृदयस्थली है, यह भरपूर उर्वरक है । विगत मन्त्र में जो बताया गया था कि यह ह्रदय स्थली प्रेम के भावों के लिए अत्यधिक उपजाऊ है , इस में प्रेम का प्रवाह सदा बहता ही रहता है । इस उर्वरक ह्रदय को तथा सब प्रकार के विस्तृत ज्ञान के भण्डार मेरे शिर को अर्थात मेरी सब शक्तियों , ज्ञान, भूमि व शक्ति आदि को प्रभु स्मरण में निवास करने वाला, प्रभु की स्तुति रूप उपासना करने का केंद्र बनाये रखें । हमारे शरीर के प्रत्येक अंग से सदा प्रभु चिंतन हो प्रभु का स्मरण हो ।
प्रभु उपासक को दीप्त कर तेजस्वी बनाते हैं
परम पिता परमात्मा अपने उपासको पर सदा दया करता है । वह अपने उपासक को उसके शरिर ,उसकि इन्दियों तथा उसको मन से दोश्र्हित कर, निर्दोश्कर दिप्त जिवन्वाला, प्रकाशित जीवन से भरपूर बनाते हैं । इस से प्रभु क यह उपासक सुर्य के समान तेजस्वी हो जाता है । इस तथ्य को वेद की इस रिच के इस अन्तिम मन्त्र मे इसप्रकार उपदेश किया गया है : –
खे रथस्य खे॓ नस: खे युगस्य शःशतक्रतो ।
अपालामिन्द्र त्रिश्पूत्व्यक्रिणो: सूर्यत्वचम ॥ रिग्वेद ८.९१.७ ॥
यदि हम शरीर को एक रथ मानें तो इसके छिद्र में प्राणमय कोश के , इन्द्रियों के छिद्र में तथा जो इन्द्र्यों व आत्मा को मिलाने वाला जो मन है ( क्योंकि मन के द्वार ही आत्मा तथा इन्द्रियों क सम्पर्क होता है ) अत: हे अनेक प्रकार के ग्यनों से भर्पुर अर्थात कभी न समाप्त होने वाले प्रग्यान वाले तथा असीमित शक्ति से युक्त , सब प्रकार के एशवर्यों से युक्त , प्र्मैश्वर्य्से सम्पन्न पिता ! सब दोशों को सुदूर वारण करने वाली , दूर करने वाली शरीर , इन्द्रियों व मन से अर्थात तीन बार पवित्र करके तुने सुर्य की त्वचा वला अर्थात तेजस्वी व प्रकाशित कर दिया है तथा इन्हें मन के छिद्र में भर दिया है ।
यह मन्त्र इस सुक्त का अन्तिम मन्त्र होने के कारण पूर्ण सुक्त का निचोड अपने में समेटे है । इस पूर्ण सूक्त में यह बताया गया है कि हम शत्रुओं का वारण करते हुये सोम को अपने शरीर में स्थापित करते हैं , जो प्रभु प्राप्ति का साधन बनेगा तथा हमें भी इन्द्र के समान शक्तिशाली बनावेगा । प्रभु के प्रकाश से हमारा शरीर रुपि घर चमक जाता है , इस में सोम का निवास होने से जीवन स्थिर शक्तिवाला, आनन्दमय हो कर मधुर व प्रभु स्मरण वाला बनता है । विश्य़ी व्यक्ति सामान्यतया प्रभु स्मरण से दूर रहता है प्रभु को जानने की कामना से हम सोम को सुरक्शित करते हैं । सोम रक्शन से शक्ति बट कर वासना रर्हित होती है , जिससे प्रशस्त वसुओं की प्राप्ति होती है । मेरे त्रिलोकी इस शरीर को उत्क्रिश्ट बनावें मस्तिश्क विशाल ग्यान के प्रकाश का आधार,ह्रिदय प्रेम की भावना से उपजाउ तथा शरीर शक्ति का आधार हो । हम इन तीनों से प्रभु स्तवन करें । ह्रिदय प्रेम से, शरीर पिता की शक्ति से तथा मस्तिश्क उस पिता के ग्यान से भ्ररा रहे ।
डा अशोक आर्य

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