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दयामय ! प्रभु आप मेरे बने रहो

दयामय ! प्रभु आप मेरे बने रहो
भक्त भगवान् से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान हो | आप हम सब को सब कुछ देने वाले हो | आप दाता हो | आप की दया को पाने के लिए हम सदा तरसते रहते हैं , हम सदा लालायित रहते हैं | हम पर दया करो , हम पर कृपा करो | ताकि हम आपको सरलता से पा सकें | इसलिए हे प्रभो | आप सदा मेरे बने रहो , सर्वदा सर्वत्र उपलब्ध रहो | इस बात को यजुर्वेद का यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है :
अदित्यै रास्नासि विष्णोर्वेष्पोस्यूर्ज्जे त्वाऽदब्धेन त्वा चक्षुषावपश्यामि।
अग्नेर्जिह्वासि सुहूर्देवेभ्यो धाम्ने धाम्ने मे भव यजुषे यजुषे॥यजु. १.३०॥
१ हे प्रभु ! मैं सदा आप का बनकर रहूँ
मानव परमपिता परमात्मा का संदेशवाहक होता है | वह उस पिता के सन्देश को ( जिसे वेद भी कहते हैं ) सदा जन – जन तक पहुंचाने का काम कारता है | इस लिए यह सन्देश वाहक इस मन्त्र के माध्यम से प्रभु से प्रार्थना कर रहा है कि हे प्रभो मे भव अर्थात् हे प्रभो ! आप मेरे बनिए , आप मेरे हो जाइए | मैं कभी प्रकृति के विभिन्न आकर्षणों में फंस कर उनमें लिप्त न हो जाऊं बल्कि सदा आप का ही बना रहूँ | आप की ही शरण में रहूँ | आप का ही स्तुतिगान करूँ अथवा आपका ही बन कर रहूँ |
मानव अथवा जीव प्रभु का बनकर क्यों रहना चाहता है ? वह प्रभु की शरण क्यों चाहता है ? वह प्रभु की पवित्र गोद को क्यों प्राप्त करना चाहता है | हम जानते हैं कि प्रभु सर्वशक्तिमान होने के कारण सब प्रकार के सुखों को देने वाले हैं | जब उसकी शरण मात्र में ही हमें सब सुख प्राप्त हो जाते हैं तो फिर हम उस प्रभु से दूर क्यों रहें ? जब उसकी गोद का अधिकार मात्र पाने से ही हम धन – धान्य संपन्न हो सकते हैं तो हम उस प्रभु से दूर कैसे रह सकते हैं ? इसलिए हम कभी प्रकृति के विभिन्न पदार्थों के सौदर्य में न उलझ कर , उन में न फंस कर अपना समय नष्ट न करें अपितु सदा प्रभु के बनकर उसके पास रहते हुए , उसकी गोदी को पाने का सदा यत्न करते हैं |
२. सदा प्रभु की शक्तियों को पाने का यत्न करूँ
मन्त्र आगे उपदेश कर रहा है कि धाम्ने – धाम्ने अर्थात् मैं प्रभु की एक एक शक्ति को पाने में सक्षम बनूँ | मानव की , जीव की सदा यह इच्छा रहती है कि वह शनै:- शनै: आगे बढे , निरंतर उन्नति पथ पर बढ़ता रहे | विश्व की सब सफलताएं उसके चरणों को चूमें किन्तु यह सब पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की शक्तियां प्राप्त करनी होती हैं | यह ईश्वरीय शक्तियां प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त होने से ही मिला पाती हैं | इसलिए मानव के लिए आवश्यक है कि वह सदा ईश्वर की छत्रछाया में रहते हुए धीरे धीरे ईश्वर की वह सब शक्तियां , जो प्राप्त कर पाना संभव है , उन्हें प्राप्त करने का सदा प्रयास करते हुए सफलता पाता रहे |
३ मेरे कर्म यज्ञरूप हों
मानव जब ईश्वरीय शक्तियां पाने का अभिलाषी होता है तो उसे अपने आप को यज्ञरूप बनाना होता है | बिना यह रूप धारण किये अर्थात् परोपकार के यह ईश्वरीय शक्तियाँ नहीं मिल पातीं | इसलिए मन्त्र कहता है कि यजुषे – यजुषे अर्थात् मैं अपने प्रत्येक कर्म को यज्ञात्मक बनाऊं | भाव यह है कि परोपकार मेरा मुख्य ध्येय हो | दूसरों की सेवा , दूसरों की सहायता ही मेरा मुख्य कर्म हो | यह सब करने वाला ही प्रभु का सच्चा सेवक होता है , सच्चे अर्थों में प्रभु के चरणों को पाने का अधिकारी होता है | इसलिए उस प्रभु की समीपता पाने के लिए हमें यज्ञरूप बनना होगा | एसा बने बिना हम प्रभु की निकटता पाने के अधिकारी नहीं हो सकते | इस लिए हम अपने आप को यज्ञमय बनावें | न केवल स्वयं को यज्ञमय ही अनावें अपितु स्वयं ही यज्ञ बन जावें |
परमपिता परमात्मा का आशीर्वाद पाने के लिए उस को प्रसन्न करना आवश्यक होता है | जब वह हम पर प्रसन्न हो जाता है तो वह अपने सब वैभव हम पर लुटाने के लिए सदा तैयार रहता है | प्रभु के पास बहुत से दिव्य – गुणों का भण्डार होता है | इन दिव्य – गुणों को पाने के लिए हम सदा लालायित रहते है | यह मंत्र भी हमें उपदेश करते हुए कह रहा है कि देवेभ्य: अर्थात् जीव मात्र की सदा यह अभिलाषा रहती है कि वह अनेक प्रकार के दिव्य-गुणों का स्वामी बनकर देवत्व के स्थान पर आसीन हो |
जीव देवत्व के पद को पाने के लिए सदा दिव्य-गुणों की प्राप्ति के लिए जूझता रहता है , लड़ता रहता है , संघर्ष करता रहता है | इस संघर्ष के परिणाम स्वरूप ही , उसके इस पुरुषार्थ के परिणाम स्वरूप ही वह कुछ दिव्य – गुण प्रभु के प्राप्त आशीर्वाद से पाने में सफल हो जाता है | यदि उसे प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त न हो , यदि प्रभु की दया – दृष्टि का हाथ उसके सर पर न हो तो उसे यह कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता | इसलिए ही मन्त्र ने अपने उपदेश में कहा है के हे प्राणी ! देवेभ्य: तूं दिव्य-गुणों को धारण करने वाला बन | इसलिए ही जीव मन्त्र के इस शब्द के माध्यम से परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करता है कि हे प्रभु ! मैं निरंतर दिव्यगुणों का स्वामी बनना चाहता हूँ | यह दिव्य – गुण आपकी शरण के बिना , आपके आशीर्वाद के बिना संभव नहीं हैं | मुझे आप का स्नेह चाहिए , मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए | मुझे आपकी चरण-धूली चाहिए | मैं यह सब कुछ आपका बनकर ही प्राप्त कर सकता हूँ |
मेरी इस लालसा को पूर्ण करने के लिए हे प्रभु मैं सदा आप की सेवा में रहता हूँ | सदा आपकी चरण – धूलि को पाने का प्रयास करता हूँ | इस लिए हे प्रभु ! इन दिव्य – गुणों को पाने के लिए मेरी यही अभिलाषा है , मेरी यही कामना है , मेरी यही चाहना है कि आप मेरे बनो , मेरे बने रहो | इतना ही नहीं मैं भी सदा आप का ही बना रहूँ , आपके ही चरणों में निवास करते हुए सदा आप ही के गुणों का गान करते हुए इन गुणों को ग्रहण करुं , इन गुणों को अपने जीवन में धारण करते हुए आपके इन दिव्य – गुणों को प्राप्त करने का अधिकारी बनूँ |
परमात्मा की निकटता पाने से हमारी शक्तियां विकसित होती हैं | हम दिव्य – गुणों के स्वामी बनाते हैं | इससे केवल हमारी शक्तियां ही नहीं बढ़तीं बल्कि हमारा प्रत्येक कर्म यज्ञीय भावना से ओत – प्रोत हो जाता है | हमारे कर्मों में परोपकार की, प्रभु आराधना की , दूसरों की सेवा की , दूसरों की सहायता की , दीन – दु:खियों को उठाने की भावना बलवती होती है | इस प्रकार हमारा प्रत्येक कर्म पवित्र हो जाता है |
दूसरी और यदि हम प्रभु से विमुख होते हैं तो हमें इन दिव्य शक्तियों में से कुछ भी प्राप्त नहीं होता | हम यज्ञीय नहीं बन पाते | परोपकार हमारे जीवन का भाग नहीं होता | इस कारण हम सदा दु:खों में , कष्ट – क्लेशों में डूबते हुए कभी खुश – प्रसन्न नहीं हो पाते | इस विपरीत प्रभाव से बचने के लिए हमें अपने जीवन को इस मन्त्र के उपदेश के अनुरूप बनाना आवश्यक हो जाता है |
अत: हम सदा इस पयत्न में रहें कि हम उस प्रभु को पाने के लिए , उस के आशीर्वाद में रहने के लिए , उस के आदेशों का पालन करते हुए सदा यज्ञमय बनने का , सदा पुरुषार्थी बनने का , सदा दिव्य-गुणों को पाने का प्रयास करते रहें | एसा करने से ही हमें अनेक प्रकार के दिव्यगुणों की प्राप्ति होगी | इससे ही हमें अनेक प्रकार के दिव्य-गुणों की प्राप्ति के साथ हमारी शक्तियों में वृद्धि होगी तथा हमारा जीवन यज्ञमय बनेगा | हम अन्यायपूर्ण ढंग से केवल अर्थ संचय की और न जाकर पुरुषार्थ से दिव्यगुणों के अधिकारी बनेंगे |

डा. अशोक आर्य

मनुर्भव

मनुर्भव

– कन्हैयालाल आर्य

जब एक बार कुछ लोगों ने प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन से संसार में व्याप्त दुःख एवं अशान्ति को दूर करने का उपाय पूछा तो वैज्ञानिक ने उत्तर दिया- ‘‘श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण करो’’। आइन्स्टीन ने जो उत्तर दिया वही कार्य तो आर्यसमाज अपने जन्मकाल से ही वेदोक्त ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’का उच्च घोष करके कर रहा है, जिससे आज राष्ट्र ही नहीं, विश्व में भी मानव-निर्माण की लहर दिखाई दे रही है।

आर्यसमाज विश्व का हित चाहता है, इसलिए उसने ‘मनुर्भव’ का वैदिक सन्देश पूरे विश्व को दिया। आजकल पशुओं की भी नस्ल सुधारने की योजना बनाई जाती है, किन्तु मनुष्य समाज के सुधारने की योजनाओं का कहीं नाम तक भी नहीं सुनाई देता।

यूनान देश के एक दार्शनिक के बारे में प्रसिद्ध है कि एक दिन वह चमकते सूर्य के प्रकाश में लालटेन लिये घर से बाहर निकल पड़ा। उसे इस प्रकार दिन में जलती लालटेन हाथ में लिये देखकर लोगों ने पूछा-‘क्या आप की कोई वस्तु खो गई है, आप इतने विद्वान् होकर भी सूर्य के प्रकाश में लालटेन लिये क्यों घूम रहे हो?’ दार्शनिक ने गमभीरता से उत्तर दिया- ‘‘मैं मानव को ढूँढ़ रहा हूँ।’’ इस पर लोगों ने पूछा- ‘‘क्या हम मानव नहीं हैं?’’ दार्शनिक ने उत्तर दिया- ‘‘नहीं, तुम मानव नहीं हो, तुममें से कोई व्यापारी है, कोई ग्राहक है, कोई मालिक है, कोई मजदूर है, कोई किसान है और कोई कर्मचारी। तुम में से मनुष्य कोई नहीं।’’

विश्व में वेद ही ऐेसा सर्वोत्तम शिक्षा-दायक धार्मिक ग्रन्थ है, जिसमें मानव जीवन को सार्थक एवं सफल बनाने के लिए उपदेश दिया गया है। वेद में उपदेश है- ‘मनुर्भव’ अर्थात् मनुष्य बन-

‘‘तन्तु तन्वरन्रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः

पथो रक्ष धिया कृतान्। अनुल्बणं वयत

जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्।।’’

(ऋग्वेद मण्डल 10, सूक्त 43, मन्त्र 6) शदार्थ-रजसः (अपनी ज्योति में ज्ञान-प्रकाश के), तन्वन् (तनता हुआ तू), भानुम् (द्युलोक तक) अनु, इहि (अनुसरण करता जा, चला जा), (इस तरह), धिया कृतान् (कलाविदों या ज्ञानियों के बुद्धि कौशल से बनाये गये), ज्योतिष्मतः पथः (ज्ञान प्रकाशमय प्रणालियों की, मार्गों की), रक्ष (तू रक्षा कर), (इस ताने में) जोगुवाम (भक्तों के), अपः (व्यापक कर्मों को), अनुल्वणम् (उलझन रहित), वयत (विस्तृत कर, बुन), (इन उपायों से), मनुःभव (मनुष्य=मननशील बन), दैव्यम् जनम् (इस दैव्यजन रूपी वस्त्र को), जनय (उत्पन्न कर, बना) अर्थात् श्रेष्ठ, गुणवान् सन्तान को उत्पन्न कर।

आचार्य अभयदेव जी ने इस मन्त्र की बहुत सुन्दर व्याखया इस प्रकार की है-

‘‘हे जीव! तू हमेशा कुछ न कुछ बुनता रहता है, अपने भाग्य को, भविष्य को, अपने जीवन को बुनता रहता है। जीवन इसके अतिरिक्त और क्या है कि मनुष्य अपने ज्ञान (समझ) के अनुसार कुछ दूर तक देखता है और फिर उसके अनुसार कर्म करता है। इस तरह जीव अपने ज्ञान के ताने में कर्म का बाना डालता हुआ निरन्तर अपने जीवन-पट को बनाया करता है, किन्तु हे जीव (जुलाहे)! अब तू अपना यह मामूली रद्दी कपड़ा बुनना छोड़कर दिव्य जीवन का खद्दर बुन, ‘‘दैव्य जन’’ को उत्पन्न कर। इसके लिए तुझे बड़ी सुन्दर और लमबी तानी करनी पड़ेगी। द्युलोक तक विस्तृत प्रकाशमान ताना तान। ऐसे दिव्य वस्त्र बनाने की लुप्त हुई कला की रक्षा इस प्रकार हो सकती है, अतः इस उद्योग में पड़कर तू उन ज्ञान-प्रकाश प्रणालियों की रक्षा कर, जिन्हें कि कलाविदों ने अपनी कुशल बुद्धि द्वारा बड़े यत्न से अविष्कृत किया था। ज्ञान के इस दिव्य ताने को तू फिर भक्ति के कर्म द्वारा बुन। इस ताने में भक्ति-रस से भिगोया हुआ अपने व्यापक कर्म का बाना डालता जा और ध्यान रख, तेरी बुनावट एकसार हो, कभी ऊँची-नीची या गठीली न हो। सावधान रहते हुए सदा उस ज्ञान के अनुसार ही तेरा ठीक-ठीक कर्म चले और वह कर्म सदा भक्ति से प्रेरित हो। इस सावधानी के लिए तुझे पूरा मननशील होना पड़ेगा, सतत विचार-तत्पर होना होगा, तभी यह दिव्य जीवन का सुन्दर पट तैयार हो सकेगा। अतः हे जीव! तू दिव्य जीवन बुनने के लिए उठ और इस लुप्त हो रही अमूल्य दिव्य कला की रक्षा कर।’’

लोक परलोक की सभी समस्याओं का समाधान वेदों में प्रस्तुत है। उन्हें पढ़िए, मनुष्य बनिये ‘मनुर्भव’। यह वेद का, मानवता का अमर सन्देश सारे विश्व के लिए है। अरबों वर्षों तक सारे संसार में यह मानवता का शुभ सन्देश प्रचारित एवं प्रसारित किया जाता रहा। आर्यावर्त्त (भारत) के अनेक ऋषि-मुनियों ने इसे प्रचारित करने के लिए अपने जीवन को आहूत कर दिया।

परमपिता परमात्मा का आदेश है कि हे पुरुष! तू उठ, तुझे दिनों-दिन उन्नत होना है, तू इस सृष्टि में मुरझाया हुआ क्यों रहता है। वेद में कहा है-

उद्यानं ते पुरुष नावयानं जीवातुं ते दक्षतातिं कृणोमि।

आ हि रोहेमममृतं सुखं रथमथ जिर्विविर्दथमावदासि।।

(अथर्ववेद काण्ड 8, सूक्त 1, मन्त्र 6)

हे पुरुष (इस देवपुरी में निवास करने वाले पुरुष) ते उद्यानम् (तेरी उन्नति ही हो), न अवयानम् (कभी तेरी अवनति न हो), ते (तेरे लिए), जीवातुम् दक्षतातिम् कृणोमि (जीवन-औषध, बल की वृद्धि करता हूँ), अर्थात् तेरे लिए नीरोगता तथा शक्ति प्राप्त कराता हूँ। तू अमृतम् (अमर, रोगरहित), सुखम् रथम् आरोह (उत्तम इन्द्रियों वाले रथ पर आरोहण कर), अथ (अब उत्तम जीवन यात्रा के अन्तिम भाग में), जिर्वि (पूर्ण अवस्था को प्राप्त हुआ तू), विदथम् आवदासि (सब ओर) से ज्ञान का प्रचार करने वाला है अपने ज्ञान व अनुभवों से औरों को लाभ पहुँचाने वाला है। अर्थात् हम ऊपर उठें, अवनत न हो। जीवन-शक्ति व बल प्राप्त करें। नीरोग, स्वस्थ इन्द्रियों वाले शरीर-रथ में जीवन यात्रा करते हुए जीवन के अन्तिम भाग में ज्ञान का प्रसार करें।

महर्षि यास्क ने मनुष्य का लक्षण लिखते हुए अपने निरुक्तशास्त्र में कहा है-

मत्त्वा कर्माणि सीव्यति, मनुष्यमानेन सृष्टाः।

मनस्यतिः पुनर्मनस्वीभावे। मनोरपत्यं वा।।

(3.37)

जो विचार कर कर्म करे, उसे मनुष्य कहा जाता है। कर्म करने से पूर्व जो अच्छे प्रकार से विचार करे कि मेरे इस कर्म का फल क्या होगा? किस-किस पर इस कर्म का प्रभाव पड़ेगा? मेरे इस कर्म से किस का भला और किस का बुरा होगा? साथ  ही यह भी सोचना चाहिए कि बुरे कर्म का बुरा फल होगा और अच्छे कर्म का फल अच्छा होगा। अच्छे और बुरे कर्म ही जीवन में सुख-दुःख का कारण होते हैं, जो जीव को अवश्यमेव भोगने पड़ते हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने मनुष्य के लक्षण इस प्रकार बताए हैं-

‘‘मनुष्य उसी को कहना कि मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से डरता रहे। इतना ही नहीं, किन्तु अपने सर्वसामर्थ्यों से धर्मात्माओं की, चाहे वे महाअनाथ निर्बल और गुणरहित क्यों न हों, उनकी रक्षा, उन्नति तथा प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हों तथापि उनका नाश अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करें। अर्थात् जहाँ तक हो सके, अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करें। इस काम में चाहे कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो। चाहे प्राण भले ही चले जाएँ, परन्तु इस मनुष्यपन रूप धर्म से पृथक् कभी न होवे।’’

महर्षि दयानन्द जी ने कितनी सुन्दर, सुव्यवस्थित, मर्यादापालक, सत एवं अनुशासित व्याखया की है! महर्षि दयानन्द जी का जीवन इस ‘मनुष्यपन’ की व्याखया के अनुसार था। वे महान् मनीषी महर्षि थे, उन्होंने मनुष्यपन धर्म के अनुसार ही जीवन में आये संकटों का भी सामना किया था। महर्षि जी अपनें जीवन में किस प्रकार अकेले ही अंग्रेज साम्राज्य के विरुद्ध लिखते रहे व बोलते रहे। 1957 की क्रान्ति के विफल हो जाने के पश्चात् महारानी विक्टोरिया ने भारतीयों के नाम अपना आदेश जारी करते हुए लिखा था- ‘‘यद्यपि ईसाइयत में हमारा पूर्ण विश्वास है, फिर भी हम अपनी प्रजा पर अपने विश्वासों को थोपना नहीं चाहते। हम किसी भी भारतीय के धार्मिक विश्वासों और पूजा-पद्धति में भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे और न किसी के द्वारा किया जायेगा। जो भी ऐसा करेगा, वह हमारे कोप का भाजन होगा।’’

महारानी विक्टोरिया की यह घोषणा भारतीयों को बहकाने के लिए पर्याप्त थी, किन्तु महर्षि दयानन्द जी की दूरदर्शिता ने इसके परिणामों को भाँप लिया था। उन्होंने तुरन्त ही इस घोषणा का प्रतिवाद करते हुए सत्यार्थप्रकाश में लिखा-

‘‘कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है अथवा मत-मतान्तर के आग्रह-रहित, अपने और पराये का पक्षपात-शून्य प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य सुखदायक नहीं है।’’

इस प्रकार महर्षि जी ने सारा जीवन इस मनुष्यपने के धर्म का पालन करते हुए ही देशधर्म की बलिवेदी पर स्वयं को न्यौछावर कर दिया था। ‘मनुर्भव’ की महर्षि दयानन्दकृत व्याया ही सर्वोत्तम धर्म की मानवीय व्याखया है। महर्षि जी द्वारा प्रतिपादित ‘मनुर्भव’ की व्याखया से प्रेरणा पाकर हजारों भारतीय राष्ट्रवादी युवक स्वतन्त्रता के लिए फाँसी पर चढ़ गये।

वेद की सबसे बड़ी विशेषता यही है और मनुष्य को इसका सर्वप्रथम उपदेश यह है कि वह विचारपूर्वक अपने और संसार के कल्याण के मार्ग पर चले। वह हिन्दू, मुसलमान और ईसाई न बने, मनुष्य बने। आप कहेंगे कि वेद तो आर्य बनने की बात कहता है। ठीक है, किन्तु आर्य का अभिप्राय भी तो श्रेष्ठ मनुष्य है। ‘‘आर्यः ईश्वरपुत्रः’’आर्य ईश्वर पुत्र को कहते है। वह पिता का अनुव्रती होकर प्राणिमात्र के हित का ध्यान रखता है।

वेद कहता है-‘‘अहं भूमिमददाम् आर्याय (ऋग्वेद 4/26/2) मैं यह पृथिवी आर्यों को देता हूँ। वस्तुतः सुख और शान्ति के लिए इस भूमि पर आर्यों का अर्थात् ऐसे लोगों का आधिपत्य होना चाहिए जो जीव के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझकर व्यवहार करें।’’

आर्यों की इस उदार आदर्शवादिता को ध्यान में रखकर ही वेद ने कहा- ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’’-संसार को आर्य बनाओ। प्रश्न है कि आर्य बनाने का उपाय क्या है-इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः अपघ्नन्तो अराव्णः अर्थात् श्रेष्ठ गुणों से युक्त विशिष्ट व्यक्तियों का संरक्षण करो, इनको बढ़ाओ और कृपण, अनुदार, ईर्ष्यालु और स्वार्थियों का सर्वदा उच्छेद करो। दूसरे शबदों में जो इन्द्र हैं, वे आर्य हैं और जो अदानी आदि दुर्गुण युक्त हैं, वे दस्यु हैं, अनार्य हैं। संसार में शान्ति के साम्राज्य के लिए आर्यों की वृद्धि होनी चाहिए और दस्युओं का विनाश होना चाहिए।

मनुष्य कब बनता है, इसके लिए हमें ऋग्वेद के मण्डल 1 सूक्त 70 मन्त्र 1 की शरण में जाना होगा-

वनेम पूर्वीरर्यो मनीषा अग्निः सुशोको विश्वान्यश्याः।

आ दैव्यानि व्रता चिकित्वाना मानुषस्य जनस्य जन्म।।

जिस प्रकार, दैव्यानि (देवत्व प्राप्त कराने वाले), व्रतानि (समपूर्ण सत्य व्यवहार आदि श्रेष्ठ व्रतों को), अचिकित्वान् (भली भाँति जानने वाला), अग्नि (सर्वज्ञ), सुशोकः (उत्तम प्रकाशमय), अर्यः (जगदीश्वर), विश्वानि अश्याः (सबको प्राप्त है), उसी प्रकार हम भी (मनीषा, पूर्वीः) (मननशक्ति से बुद्धियों का) आ वनेम (उत्तमता से आदरपूर्वक सेवन करें) यही मनुष्यस्य, जनस्य, जन्म (मनुष्य जाति के प्राणी का उत्पन्न होना है)।

मन्त्र में दो बातें मुखय रूप से कही गई हैं कि संसार के व्यवस्थापक प्रभु के दिव्य गुणों को मनुष्य समझें। दूसरी यह कि उन गुणों को समझकर अपने जीवन में धारण करें, तभी इस शरीर में मनुष्यता का जन्म होता है, केवल मानव आकृति धारण करने से नहीं।

इस विचित्र संसार के उत्पादक, धारक, संहारक प्रभु के असीम बुद्धि कौशल, नियम-निष्ठा तथा परम ज्ञानैश्वर्य को मनुष्य ज्यों-ज्यों समझता है, त्यों-त्यों उसके ज्ञान की भूख उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। यदि वह इन दिव्य गुणों के  आंशिक भाग को भी अपने आचरण में ले आता है, तो भी उसमें दिव्यता आ जाती है और उसका पशुता से पिण्ड छूटता जाता है। ज्ञान का लाभ तभी है, जब वह अपने आचरण का अंग बन जावे। जो ज्ञान कर्म के साथ नहीं जुड़ता, वह निरर्थक है, वाहक के ऊपर लदे बोझ के समान है।

आज संसार को सुख और शान्ति का धाम बनाने का प्रयत्न तो हो रहा है, किन्तु मानवता की प्रगति के लिए जिस संयम और वशित्व की आवश्यकता है, उस ओर लोगों को ध्यान ही नहीं है, इसलिए संसार को सुख और शान्ति का धाम बनाने के लिए सर्वप्रथम मनुष्य को मनुष्य बनाना आवश्यक है।

एक बार किसी पत्रिका में एक शिक्षाप्रद चुटकुला पढ़ा था। एक बाबू अपने कार्यालय से बचे हुए काम को पूरा करने के लिए कुछ फाइलें रविवार को अपने घर ले आता था। एक दिन घर में अवकाश पाकर जब वह फाइल लेकर बैठा तो चौथी-पाँचवी कक्षा में पढ़ने वाला उसका पुत्र कमरे में आकर शरारतें करने लगा। बाबू ने एक-दो बार टोका, किन्तु बच्चे भला कहाँ मानते हैं? इतने में बाबू को एक बात सूझी। कमरे की दीवार पर संसार का एक मानचित्र टँगा हुआ था, उसने उसको फाड़कर टुकड़े कर दिये और बच्चे के सामने फेंकते हुए कहा- ‘‘तेरी योग्यता हम तब जानेंगे, जब इन टुकड़ों को ठीक स्थान पर जोड़कर इसे पूरा बना देगा।’’ बच्चा इन टुकड़ों को जोड़ने में लग गया। घण्टों हो गये, टुकड़े जुड़ने में नहीं आ रहे थे। कभी नीचे का टुकड़ा ऊपर और कभी ऊपर का नीचे चला जाता था। कई बार यही उलझनें दाएँ और बाएँ टुकड़ों में भी थीं। बाबू प्रसन्न था कि उसे निर्बाध काम करने का समय मिल गया। इतने में वायु के झोकों से नक्शे का एक टुकड़ा उड़कर उलट गया। बच्चे ने देखा कि उस टुकड़े के पृष्ठ भाग में मनुष्य के हाथ का पंजा बना हुआ था। उसने यह देखकर सारे टुकड़े पलट डाले तो उन सभी पर मनुष्य के चित्र का कोई-न-कोई भाग था। बच्चे ने संसार के नक्शे को जोड़ने की चिन्ता छोड़कर मनुष्य का चित्र जोड़ना प्रारमभ किया तो पाँच मिनट में चित्र के सब अंग यथा स्थान जोड़ दिये और मनुष्य के बनने के साथ विश्व का पूरा नक्शा भी बन चुका था। विश्व को बनाने का रहस्य भी इसी में है। संसार को सुखद बनाने के लिए प्रथम मनुष्य का निर्माण आवश्यक है।

मनुष्य जीवन के निर्माण एवं उन्नति में वैदिक सोलह संस्कारों का विशेष स्थान है, विशेष महत्त्व है। मनुष्य की शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक उन्नति के लिए जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त भिन्न- भिन्न अवसरों पर संस्कारों की व्यवस्था प्राचीन ऋषि-मुनियों ने समाज सुधार के लिए सुन्दर ढंग से की है। ‘संस्कारों’ के अनुष्ठान से मनुष्य को सुसंस्कारों की प्राप्ति हो जाती है। महर्षि मनु ने इस विषय में सत्य लिखा है-

वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्।

कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च।।

(मनुस्मृति 2-26)

डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी (मनुस्मृति विशेषज्ञ) ने इस श्लोक का अर्थ और अनुशीलन इस प्रकार किया है-

सब मनुष्यों को उचित है कि वैदिकैः, पुण्यैः, कर्मभिः (वेदोक्त, पुण्यरूप कर्मों से), द्विजन्मनाम् (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अपने सन्तानों का) निषेकादिः शरीरसंस्कारः कार्यः (निषेकादि=गर्भाधान आदि संस्कार करें जो), इह च प्रेत्य पावनः (इस जन्म वा परजन्म में पवित्र करने वाला है)।

संस्कारों के उद्देश्य और लाभ पर प्रकाश डालते हुए संस्कार विधि की भूमिका में महर्षि दयानन्द लिखते हैं-‘‘जिस करके शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त हो सकता है और सन्तान अत्यन्त योग्य होते हैं। अतः संस्कारों का करना मनुष्यों को उचित है। अर्थात् इस लोक और परलोक में पवित्र करने वाले संस्कार हैं।’’

महर्षि दयानन्द जी ने संस्कारों को परमोपयोगी समझकर ही प्राचीन ऋषि-मुनियों की पद्धति का अनुसरण करके संस्कार-विधि की रचना की थी। माता-पिता के शुद्ध आहार एवं शुद्ध विचारों का बालक पर बहुत प्रभाव होता है। संस्कारों में प्रथम तीन संस्कार गर्भाधान, पुंसवन तथा सीमन्तोनयन संस्कार तो बच्चे के जन्म से पूर्व ही किये जाते हैं, जिनका पूर्ण उत्तरदायित्व माता-पिता पर ही होता है। यदि बच्चे के पूर्व जन्म के संस्कार उत्तम हों, गर्भावस्था में माता-पिता के उत्तम संस्कार पड़े हों और जन्म के बाद भी उत्तम वातावरण प्राप्त हो जाये, तो ऐसे बच्चे महाभाग्यशाली होते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने इनके विषय में लिखा है-

‘‘वह सन्तान बड़ा भाग्यवान् है, जिनके माता-पिता विद्वान् और धार्मिक हों’’ (सत्यार्थप्रकाश द्वितीय समुल्लास) ऐसे उत्तम एवं श्रेष्ठ दिव्य सन्तान को ही जन्म देने का वेद आदेश देते हैं- ‘‘जनया दैव्यं जनम्’’।

चरक ऋषि ने संस्कार का लक्षण लिखते हुए क हा है-‘‘संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते’’ अर्थात् पहले से विद्यमान दुर्गुणों को हटाकर उनकी जगह सद्गुणों का आधान-धारण कराने को ‘संस्कार’ कहते हैं।

संस्कारों द्वारा मनुष्य निर्माण की योजना ही सर्वोत्तम योजना है, जिसके द्वारा श्रेष्ठ एवं दिव्य सन्तान की प्राप्ति होती है, इसलिए वेद ने संस्कारों की महत्ता एवं दिव्य जन की उत्पत्ति का आदेश दिया है। वेद के अनुसार ही तो वैदिक संस्कृति ने मानव-निर्माण की योजना को तैयार किया था। इस योजना को सफल बनाने के लिए ही संस्कारों की पद्धति को प्रचलित किया था। संस्कारों से ही ‘‘मनुर्भव जनया दैव्य जनम्’’ का सुन्दर आयोजन जीवन में सफल हो सकता है। वैदिक संस्कृति की विचारधारा सब संस्कारों द्वारा जीवात्मा को पवित्र बनाने का कार्यक्रम है, जीवन निर्माण की पद्धति है, प्रक्रिया है, मानव-मर्यादा है।

 

लोक हित के कामों से उन्नति सम्भव

लोक हित के कामों से उन्नति सम्भव
डा. अशोक आर्य
संसार में हमारी जितनी भी कृयाएं हैं , उन सब में हमारा दृष्टीकोण ” प्राण शक्ति की रक्षा, तीनों प्रकार के तापों से निवृति तथा लोक हित होना चाहिये । यदि हम एसा कर पाये तो निश्चय ही हमारे घर उच्चकोटि के निवास के योग्य , मंगल से भरपूर, सुखकारी , लोगों के विश्राम के योग्य , सब प्रकार के बलों व प्राण – शक्ति से सम्पन्न तथा सब प्रकार की वृद्धि , उन्नति का कारण बनेंगे ।” यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का यह २७ वां मन्त्र इस तथ्य पर ही प्रकाश डालते हुए कह रहा है कि :-
गायत्रेण त्वा छन्दसा परिगृह्णामि त्रैष्टुभेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि जागतेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि। सुक्ष्मा चासि शिवा चासि स्योना चासि सुषदा चास्यूर्जस्वती चासि पयस्वती च॥27॥
मानव के लिए उसकी तीन क्रियाओं का विशेष महत्व होता है । इनमें एक प्राण शक्ति की रक्षा करना, दूसरे त्रिविध अर्थात् तीनों प्रकार के तापों से निवृति तथा जनकल्याण या लोकहित के कार्य करना । जब इस प्रकार के कार्य होंगे तो हमारे घर , जिन्हें निवास भी कहते हैं , यह उत्तम प्रकार के निवास के योग्य होंगे , सुखकारक होंगे, लोगों के विश्राम के योग्य होंगे, यह बल तथा प्राण शक्ति से सम्पन्न होंगे । इस प्रकार यह सब प्रकार की वृद्धि , उन्नति का कारण होंगे ।
आओ अब हम इस मन्त्र के विस्तृत भाव को समझने का प्रयास करें ।
प्रभु की सम्पतियों को किस स्वीकारें :-
इस मन्त्र में प्रथम बात की चर्चा करते हुए कहा गया है कि हम इस संसार में आये हैं । हमारे लिए इस संसार में परम पिता परमात्मा ने अनेक वस्तुएं भी बना रखी हैं । यह हमारे ऊपर है कि हम इन वस्तुओं को किस रुप में लें अथवा किस प्रकार स्वीकार करें ?, या यूं कहें कि हम इन वस्तुओं को किस दृष्टिकोण से लें अथवा प्रयोग करें ? इस विषय का उतर देते हुए प्रभु ने चार बिन्दुओं को सामने रखा है :-
१. हम प्राणशक्ति के लिए ग्रहण करें :-
मन्त्र उपदेश करते हुए कह रहा है कि मानव जब इन पदार्थों की आवश्यकता अनुभव करता है तो यह विचार कर इन्हें प्राप्त करता है कि वह जो भी वस्तु ईश की दी हुई प्राप्त कर रहा है , वह केवल प्राणॊं की रक्षा के लिए प्राप्त कर रहा है । मानव के लिए प्राण ही इस शरीर में सब से महत्व पूर्ण होते हैं । जब तक इस शरीर में प्राण गति कर रहे हैं , तब तक ही शरीर गति करता है । ज्यों ही इस से प्राण निकल जाते हैं , त्यों ही शरीर उपयोग के लिए नहीं रहता । अब तो परिजन भी इस शरीर से मोह नहीं करते तथा अब वह इसे शीघ्र ही परिवार से दूर एकान्त में जा कर सब के सामने इस का अन्तिम संस्कार कर देते हैं , दूसरे शब्दों में इसे अग्नि की भेंट कर देते हैं ।
इस लिए मन्त्र में कहा गया है कि हम इस पदार्थ को प्राणशक्ति की रक्षा के लिए प्रयोग कर रहे हैं , ग्रहण कर रहे हैं । अत: हम इस वस्तु को अपने प्राणों की रक्षा की भावना से , रक्षा की इच्छा से प्राप्त कर रहे हैं । इस के लिए कुछ अन्य धारणाएं इस प्रकार दी हैं :-
क). खुला व हवादार घर बनावें :-
मानव को अन्य पशु व पक्षियों की भान्ति नहीं रहना होता । इसलिए कहा जाता है कि प्रत्येक मानव के लिए सर छुपाने के लिए छत की आवश्यकता होती है । अपने साधनों को ध्यान में रखते हुए घर का निर्माण किया जाता है , इस कारण किसी का घर बडा होता है और किसी का छोटा । यह मन्त्र हमारे निवास के लिए बनाए जाने वाले घर के लिए उपदेश कर रहा है कि हमारा घर एसा हो , जिसमें हमारे प्राण शक्ति की बडी सरलता से वृद्धि हो सके । सूर्य सब रोगों का विनाश करने वाला होता है , इसलिए घर एसा हो कि जिसमें सूर्य की किरणें सरलता से प्रवेश कर सकें । इस के साथ ही साथ इस घर की छत ऊंची हो, खूब खिडकियां व खुले दरवाजे बनाये जावें ताकि खुली वायु का प्रवेश इस घर में सरलता से हो सके । यह वायु और सूर्य का प्रकाश व किरणें यदि घर में सरलता से प्रवेश करेंगे तो हमारे प्राणशक्ति बढने से हमारी आयु भी लम्बी होगी ।
ख). पौषक भोजन :-
प्रत्येक प्राणी के लिए क्षुद्धा शान्ति के लिए भोजन की आवश्यकता होती है । भोजन तो कोई भी किया जा सकता है किन्तु यदि भोजन की व्यवस्था सोच समझ कर न की जावेगी तो यह रोग का कारण भी बन सकता है तथा प्राण – शक्ति के नाश का भी , जब कि भोजन प्राण – शक्ति की रक्षा के लिए किया जाता है । इसलिए हम सदा खाद्य पदार्थ लाते समय यह ध्यान रखें कि हम अपने घर वह ही खाद्य सामग्री लावें , जिसमें पौष्टिकता की प्रचुर मात्रा हो, ताकि प्राण – शक्ति की वृद्धि हो सके ।
ग). प्राणशक्ति बढाने वाले कार्य करें :-
मनुष्य कुछ न कुछ कार्य करता ही रहता है , वह खाली , निठल्ला बैठ ही नहीं सकता । यदि वह निठल्ला बैठता है तो वह बेकार हो जाता है , शारीरिक श्रम करने की शक्ति क्षीण हो जाती है तथा प्राणशक्ति कम हो कर उसकी आयु भी कम हो जाती है । जो मनुष्य श्रम करते हैं , कोई न कोई काम करते रहते हैं , उनके लिए मन्त्र आदेश देता है कि वह सदा एसा कार्य करें , एसा श्रम करें , एसी सीद्धियां पाने का यत्न करें , जो प्राण शक्ति को बढाने वाली हों ।
घ). सत्संग में रहें :-
मानव का रहन – सहन दो प्रकार का होता है । एक सत्संग के साथ तथा दूसरा बिना सत्संग अर्थात् कुसंग के साथ । कुसंग नाश का कारण होता है तो सत्संग निर्माण का कारण होता है । कुसंग में रहने वाला व्यक्ति बुरे कार्य करता है , मद्य , मांस व नशा आदि का सेवन करता है । इन वस्तुओं के सेवन से उसकी प्राणशक्ति का नाश होता है तथा वह जल्दी ही भायानक रोगों का शिकार हो कर मत्यु को छोटी आयु में ही प्राप्त हो जाता है ।
इस सब के उलट जब वह सत्संग में रहता है , उत्तम आचरण में रहता है तो कुसंग में व्यर्थ होने वाला धन बच जाता है । यह धन प्रयोग करके वह अति पौष्टिक पदार्थ अपने परिवार व स्वयं के लिए लेने में सक्षम हो जावेगा , जिससे उसके प्राणशक्ति विस्तृत होंगे । इस के अतिरिक्त उसके पास दान देने की शक्ति भी बढ जावेगी । इस धन से दूसरों को भी ऊपर उठाने में भी सहायक हो सकता है । इससे उसकी ख्याति भी बटती है , जो खुशी लाने का कारण बनती है । इस खुशी से भी प्राणशक्ति बढ जाती है । जब सत्संग में रहते हुए सत्य पर आचरण करेंगे तो उसकी मनोवृतियां भी उत्तम बन जावेंगी । यह वृतियां भी उसकी प्राणशक्ति बढाने का कारण बनेगी ।
२.त्रिविध दु:खों की निवृति के लिए ग्रह्ण कर :-
मानव सब प्रकार के दु:खों से दूर तथा सुखों के साथ रहने की सदा अभिलाषा करता है । इस के लिए उसे कई प्रकार के यत्न करने होते हैं । इसलिए मन्त्र कह रहा है कि हमारे उपभोग में आने वाले सब पदार्थ हम सब लोगों को प्राणशक्ति को सम्पन्न करने वाले हों । इन के प्रयोग से सब लोगों की प्राणशक्ति सम्पन्न हो । इसलिए ही हम पदार्थों को ग्रहण करंन । हम इस इच्छा से , इस भावना से इन पदार्थों को , इन वस्तुओं को ग्रहण करें कि जिनके सेवन से हम त्रिविध तपों को प्राप्त कर सकें । यह त्रिविध तप हैं , आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक तप । इन त्रिविध तपों से हमारे सब प्रकार के दु:खों का नाश होता है ।
दूसरे शब्दों में हम यूं कह सकते हैं कि हम इस इच्छा से , इस भावना से तुझे ग्रहण करते हैं ताकि मेरे घर परिवार में तीनों अर्थात् प्रकृति , जीव और परमात्मा का स्तवन हो, यह तीनों ही प्राणशक्ति का आधार हैं । इसलिए इन तीनों का ठीक से विचार करना आवश्यक हो जाता है ।
३. जनहित के लिए पदार्थों का सेवन करें :-
मानव का कल्याण तब ही होता है , मानव का हित तब ही होता है , जब इस जगती का हित हो । इसलिए हमें वह ही कार्य करना चाहिये तथा वह ही पदार्थ प्रयोग करने चाहियें , जिनसे जगती का हित हो । अत; हम जो भी पदार्थ ग्रहण करें , वह जगती के हितकामना से , हित की इच्छा से ही ग्रहण करें । हमारे अन्दर सदा लौकिक व जनहित की भावना का होना आवश्यक है । अत; हम जो भी पदार्थ ग्रहण करें । उसे लोकहित के लिए समर्थ होने के लिए ही पाना होगा । स्वयं को लोकहित के लिए अधिक समर्थ होने का हम सदा यत्न करें ।
भोजन भी हम स्वस्थ रहने के लिए करते हैं । इसलिए हम सदा इस प्रकार का भोजन करें , जो सुपाच्य हो , पौष्टिक हो तथा जो भोजन हमें स्वस्थ भी रखे । हम सदा एसा भोजन करें कि जिससे हम दीर्घजीवी बन सकें तथा सदा लोक – संग्रहक , लोक – कल्याण के कार्यों में लगे रहें ।
४. गायत्र, त्रैष्टुप व जागत श्रेणी का घर बनावें :-
जब हमारा दृष्टिकोण इस मन्त्र के उपदेशों के अनुरुप बन जावेगा तो यह “गायत्र,त्रैष्टुप व जागत” की श्रेणी में ही होगा । हमारा घर सब प्रकार की प्राणशक्ति को प्राप्त करने वाला होकर हम अपने घर के बारे में इस प्रकार कह सकेंगे कि :-
क).
हे भवन ! तूं उत्तम निवास के योग्य बन गया है ।
ख).
हे भवन ! तूं कल्याण रूप भी है ।
ग).
हे भवन ! तूूं यह सब सुख देने वाला भी है ।
घ).
इतना ही नहीं हे भवन ! तूं सब लोगों की उतमता के लिए ठीक से बैठने के लिए भी अच्छा व उत्तम है ।
ड).
इस प्रकार हे भवन ! तूं प्राण – शक्ति से सम्पन्न है और हमें भी उत्तम प्राण – शक्ति देने वाला है ।
च).
हे भवन ! तेरे अन्दर खुली हवा , खुली सूर्य की किरणें आ सकती हैं । इस कारण तेरे में प्राणशक्ति को बढाने की खूब क्षमता होने से , इस के सब निवासियों को उन्नत करने वाला है ।
इस प्रकार इस मन्त्र में प्राण – शक्ति को बढाने के लिए उन्नत करने के लिए सुपाच्य भोजन व सत्संग के साथ ही साथ उत्तम भवन जिसमें खुली वायु व सूर्य की किरणें आती हों तथा जो प्राणशक्ति को बढाकर उन्नत करने वाले हो तथा त्रिविध सुखों को देने वाला हों , एसा होना चाहिये ।

डा. अशोक आर्य

चिंतन , मनन ही मन का कार्य

ओउम
चिंतन , मनन ही मन का कार्य
डा. अशोक आर्य
मानव का मन ही उसके सब क्रिया कलापों का आधार है | शुद्ध व पवित्र मन से सब कार्य उतम होते हैं तथा जिसका मन अशुद्ध होता है , जिसका मन अपवित्र होता है उसके कार्य भी अशुद्ध व अपवित्र ही होते हैं | मानव का मुख्य उद्देश्य भगवद प्राप्ति है , जो शुद्ध मन से ही संभव है | सब प्रकार के ज्ञान प्राप्ति का स्रोत भी शुद्ध मन ही होता है | मानव में विवेक की जाग्रति का आधार भी मन की शुद्धता ही होती है | यह शुद्ध मन ही होता है, जिससे शुद्ध कार्य होता है तथा उसके द्वारा किये जा रहे शुद्ध कार्यों के कारण उसकी मित्र मंडली में उतामोतम लोग जुड़ते चले जाते हैं | यह सब मित्र ही उसकी ख्याति , उसकी कीर्ति, उसके यश को सर्वत्र पहुँचाने का कारण होते हैं | अथर्ववेद के प्रस्तुत मन्त्र में इस विषय पर ही चर्चा की गयी है : –
मनसा सं कल्पयति , तद देवां अपि गच्छति |
अथो ह ब्राह्माणों वशाम, उप्प्रयान्ति याचितुम ||
मन से ही मनुष्य संकल्प करता है | वह माह देवों अर्ह्थात ज्ञानेन्द्रियों तक जाता है | इसलिए विद्वान लोग बुद्धि को माँगने के लिए देवों अर्थात गुरु के पास जाते हैं |
इस मन्त्र में बताया गया है कि मन का मुख्य कार्य मनन है , चिंतन है , सोच – विचार है | जब मानव अपना कार्य पूर्ण चिंतन से ,पूर्ण मनन से , पूर्ण रूपेण सोच. विचार कर करता है तो उसे सब प्रकार की सफलताएं, सब प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है | इन सुखों को पा कर मनुष्य की प्रसन्नता में वृद्धि होती है तथा उसकी आयु भी लम्बी होती है | यह मनन व चिंतन मन का केवल कार्य ही नहीं है अपितु मन का धर्म भी है | जब हम कहते हैं कि यह तो हमारा कार्य था जो हम ने किया किन्तु कार्य में मानव कई बार उदासीन होकर उसे छोड़ भी बैठता है | इसलिए मन्त्र कहता है कि यह मन का केवल कार्य ही नहीं धर्म भी है तो यह निश्चित हो जाता है कि धर्म होने के कारण मन के लिए अपनी प्रत्येक गति विधि को आरम्भ करने से पूर्व उस पर मनन चिंतन आवश्यक भी होता है |
मनन चिंतन पूर्वक जो भी कार्य किया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह नहीं रह जाता | मनन चिंतन से उस कार्य में जो भी नयुन्तायें दिखाई देती हैं , उन सब का निवारण कर, उन्हें दूर कर लिया जाता है | इस प्रकार सब गतिविधियों व सब तरह की व्यवस्थाओं को परिमार्जित कर उन्हें शीशे की भाँती साफ़ बना कर उससे जो भी कार्य लिया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह शेष नहीं रह पाता | परिणाम
स्वरूप प्रत्येक कार्य में सफलता निश्चित हो जाती है | अत: मन के प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व उसके मनन व चिंतन रूपी धर्म का पालन आवश्य ही करना चाहिए अन्यथा इस की सफलता में , इस के सुचारू रूपेण पूर्ति में संदेह ही होता है |
मन के कार्यों को संचालन के लिए जब धर्म को स्वीकार कर लिया गया है तो यह भी निश्चित है कि इस के संचालन का भी तो कोई साधन होगा ही | इस विषय पर विचार करने से पता चलता है कि इसके संचालन के लिए ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रमुख भूमिका निभाती है | ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन भी कहा जा सकता है | जब तक किसी कार्य को करने सम्बन्धी ज्ञान ही नहीं होगा तब तक उस कार्य की सम्पन्नता में, सफलता पूर्वक पूर्ति में संदेह ही बना रहेगा | जब तक मानव की क्षुधा ही शांत न होगी तब तक वह कोई भी कार्य करने को तैयार नहीं होता | अत: मन का भोजन ज्ञान है , जिसे पा कर ही वह उस कार्य को करने को अग्रसर होता है | इस लिए ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन कहा है | इन ज्ञानेन्द्रियों से मन दो प्रकार का सहयोग प्राप्त करता है | प्रथम तो ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से मन वह सब सामग्री एकत्रित करता है , जो उस कार्य की सम्पन्नता में सहायक होती है दूसरा इस सामग्री को एकत्र करने के पश्चात प्रस्तुत सामग्री को किस प्रकार संगठित करना है , किस प्रकार जोड़ना है तथा किस प्रकार उस कार्य की सपन्नता के लिए उस सामग्री का प्रयोग करना है , यह सब कुछ भी उसे मन ही बताता है | अत: बिना सोच विचार , चिन्तन ,मन व मार्ग दर्शन के मन कुछ भी नहीं कर पाता, चाहे इस निमित उपयुक्त सामग्री उसने प्राप्त कर ली हो | अत: किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए साधन स्वरूप सामग्री का एकत्र करना तथा उस सामग्री को संगठित कर उस कार्य को पूर्ण करना ज्ञानेन्द्रियों का कार्य है | इस लिए ही मनको प्रत्येक कार्य का धर्म व ज्ञानेन्द्रियों को प्रत्येक कार्य को करने का साधन अथवा भोजन कहा गया है कहा गया है |
इस जगत में परमपिता परमात्मा ने अनेक प्रकार के फल ,फूल, नदियाँ नाले, जीव जंतु ,स्त्री पुरुष को बनाया है, पैदा किया है , उत्पन्न किया है | इन सब के सम्बन्ध में मन जो कुछ भी देखता व सुनता है, वह सब देखने व सुनने के पश्चात ज्ञानेन्द्रियों के पास जाता है | मन द्वारा कुछ भी निर्णय लेने के लिए जब यह सब सामग्री, सब द्रश्य बुद्धि को दे दिये जाते हैं तो बुद्धि सब को जांच , परख कर जो भी निर्णय लेती है, वह उस निर्णय से मन को अवगत करा देती है तथा आदेश भी देती है कि अब यह कार्य करणीय है | अब मन पुन: ज्ञानेन्द्रियों को अपने निर्णय से अवगत कराते हुए आदेश देता है कि प्रस्तुत कार्य की परख हो चुकी है | यह कार्य उतम है , करने योग्य है , इस को तत्काल सम्पन्नं किया जावे | इस आदेश के साथ मन ज्ञानेन्द्रियों को यह भी बताता है कि इस कार्य को किस रूप में संपन्न करना है ? इस प्रकार मन अपने प्रत्येक कार्य को संपन्न करने के लिए ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग प्राप्त करता है तथा उनके सहयोग से ही सब कार्य संपन्न करता है | मन के संकल्प क्या हैं तथा उस कार्य के विकल्प क्या हैं यह सब ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ही निर्धारित किये जाते हैं , प्रस्तुत किये जाते है | अत: ज्ञानेन्द्रियों के साह्योग से ही मन के सब कार्यों को व्यवस्थित कर उनकी दिशा निर्धारित की जाती है तथा इन के द्वारा ही उन्हें सम्पन्नं किया जाता है |
इस सब से जो बात स्पष्ट होती है वह यह है कि प्रत्येक कार्य को करने के लिए मन चुन कर उस पर ज्ञानेन्द्रियाँ मनन व चिन्तन कर अपने सुझावों के साथ मन को लौटा देती हैं | मन उस पर निर्णय लेकर उसे करने के अनुमोदन के साथ पुन: करने का आदेश देते हुए पुन: ज्ञानेन्द्रियों को लौटा देता है तथा ज्ञानेन्द्रियाँ उस आदेश का पालन करते हुए उस कार्य को संपन्न ती है | अत: कोई भी कार्य करने से पूर्व उस पर मनन चिन्तन सुचारू रूप से होता है तब ही वह उतम प्रकार से सफल हो पाता है |

डा.अशोक आर्य

जयपुर में स्थापित मनु प्रतिमा विषयक वाद-विवाद

मनुस्मृति विषयक आर्यसमाज तथा डॉ0 अम्बेडकर की भूमिकाओं के इस स्थूल अध्ययन के बाद एक नजर जयपुर उच्च न्यायालय में स्थापित उस मनु प्रतिमा पर भी डाल लेते हैं जिस कारण मनु, मनुस्मृति या मनुवाद विषयक चर्चा समाचार-पत्रों के माध्यम से और अधिक तीव्र स्वर में हुई है। घटना की पृष्ठभूमि निम्न प्रकार है –

2 मई 1987 को जयपुर उच्च न्यायालय के सन्निकट स्थिति चैक में तत्कालीन राष्ट्रपति आर0 वेंकटरमण के कर-कमलों से डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर की प्रतिमा का अनावरण हुआ। कहते हैं, यातायात में असुविधा होने के बहाने बहुत दिनों तक इस प्रतिमा को कोई समुचित स्थान ही नहीं मिल पाया था। तत्पश्चात् लगभग दो साल बाद जयपुर के प्रथम वर्ग के न्यायाधिकारी श्री पद्मकुमार जैन ने उच्च न्यायालय परिसर का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए मनु की प्रतिमा स्थापित करने का लिखित अनुरोध मुख्य न्यायाधीश श्री नरेन्द्र कासलीवालजी से 2 फरवरी 1989 को किया। उनकी सम्मति तथा कांग्रेस के महामन्त्री श्री राजकुमार काला और स्थानीय लाइंस क्लब की सहायता से 4 फुट ऊँची प्रतिमा बनवाई गई और उसे न्यायालय के सामने चबूतरे पर 28 जून, 1989 को स्थापित कर दिया गया।

उक्त समाचार के फैलते ही दलित समाज में प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने विविध संगठनों की सहायता से ’मनु ˗प्रतिमा हटाओ संघर्ष समिति‘ बनाई, जो श्री रामनाथ आर्य के नेतृत्व में क्रियाशील हुई थी। 10 जुलाई से प्रतिमा हटाओ आन्दोलन शुरु हुआ। इसी बीच श्री नरेन्द्र मोहन कासलीवाल सेवानिवृत्त हुए और उनके स्थान पर श्री मिलापचन्द जैन की नियुक्ति हुई। 28 जुलाई को जोधपुर में उच्च न्यायालय के 18 न्यायाधीशों की एक बैठक हुई, जिसमें निर्णय किया गया कि मनु के सन्दर्भ में किसी भी प्रकार का वाद-विवाद निर्माण न हो, अतः मनु की प्रतिमा ही हटा दी जाए। पर शासन द्वारा इस निर्णय के क्रियान्वित करने से पहले ही बजरंग दल के धमेन्द्र महाराज और सोमेन्द्र शर्मा ने न्यायालय में उक्त निर्णय के विरुद्ध स्थगन याचिका प्रस्तुत की, जिसे न्यायाधीश श्री सुरेशचन्द्र अग्रवाल ने दाखिल कर लिया, और कालान्तर में निर्णय देते हुए कहा-’इस समस्या का हल प्रशासनिक तौर पर किया जाना चाहिए। मनु के पीछे व्यापक जन-मानस है और विविध प्रकार की महत्त्वपूर्ण मान्यताएँ हैं। इस केस में मनु प्रतिमा को यथावत् रखने के पक्ष में एडवोकेट श्री सी0 के0 गर्ग सक्रिय रहे तो ’मनु प्रतिमा हटाओ संघर्ष समिति‘ के वकील श्री भँवर बागड़ी थे। इसी बीच सौ वकीलों ने इस आशय का अर्ज दे दिया कि-मनु की प्रतिमा हटाने से मानवता का अपमान होगा। इस सन्दर्भ में आर्यसमाज नया बाँस, दिल्ली के श्री धर्मपाल आर्य, झज्जर-हरियाणा के प्रा0 डॉ0 श्री सुरेन्द्रकुमार और परोपकारिणी सभा-अजमेर के संयुक्त मंत्री प्रो0 डॉ0 धर्मवीर आदि ने मनु सम्मान को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए संरक्षणात्मक मोर्चे की भूमिका निभायी। मनु प्रतिष्ठा संघर्ष समिति ने आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित, डॉ0 सुरेन्द्रकुमार द्वारा लिखित अनुसंधनात्मक मनुस्मृति को न्यायालय में प्रस्तुत कर प्रतिमा को यथावत् बनाये रखने के लिए स्थगनादेश प्राप्त कर लिया।

उपरोक्त घटना के 11 साल बाद लगा कि यह मसला अब शान्त हो गया है, पर महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकत्र्ता डॉ0 बाबा आढ़ाव ने महाड़ से जयपुर तक ’मनु प्रतिमा हटाओ यात्रा‘ निकाली, जो 26 जनवरी 2000 को महाड़ (महाराष्ट्र) से चली और 25 मार्च को जयपुर पहुँची। जयपुर के डॉ0 अम्बेडकर चैक पर धरना देते हुए इन्होंने नारा दिया-’मनुवाद मिटाओ, मनु प्रतिमा हटाओ, अम्बेडकर प्रतिमा लगाओ‘ इसी बीच श्री शरद पंवार के सहयोग से महाराष्ट्र से चुनकर आये रिपब्लिकन पार्टी के संसद सदस्य श्री रामदास आठवले के नेतृत्व में एक यात्रा दिनांक 8 मार्च 2000 की उक्त माँग को लेकर ही निकाली गई थी, जिसने राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री को मनु प्रतिमा हटाने के पक्ष में ज्ञापन दिया।

प्रतिमाओं को हटाने और बिठाने के पक्ष में कोई भी नेतृत्व जितनी आसानी और उत्साह से भीड़ इकट्ठी कर लेता है। उतनी आसानी और उत्साह से उस भीड़ को वह शास्त्राध्ययन की दिशा में उन्मुख नहीं कर पाता। निष्पक्ष, दलविहीन, स्वार्थी राजनीति से ऊपर उठकर तलस्पर्शी अध्ययन के माध्यम से उस भीड़ को समस्या की गहराई में जाने की प्रेरणा नहीं दी जाती। स्वार्थी राजनीति ने हर मुख्य सवाल को गौण और हर गौण समस्या को मुख्य बना दिया है। हिन्दी साहित्यकार अज्ञेयजी के शब्दों में-‘आत्मा का तेज हमें सहन नहीं होता, अस्थियों के लिए हम मंजुषाएँ बनाते हैं।‘ (गद्य के विविध रंग-पृष्ठ 117: सम्पादक-दूधनाथसिंह)।

डॉ0 मदनमोहन जावलिया के अनुसार-‘धर्मशास्त्रकार, विधि प्रणेता तथा वेदानुमोदित स्मृति प्रदाता महर्षि मनु पर पंक उछालनेवाले लोग राजनीति, आंबेडकरवादी बौद्ध मत और न ही दलितों का कोई भला कर रहे हैं। मनु की मूर्ति हटाने एवं उसके स्थान पर अम्बेडकर की मूर्ति लगाने की माँग हठधर्मिता एवं अलोकतान्त्रिकता की परिचायक है। न्यायालय में मनु ही क्या राम-कृष्ण, शंकराचार्य-बुद्ध, महावीर, अम्बेडकर की भी मूर्तियाँ लगें। पर खेद है कि दलितों के नाम से निर्मित दलों एवं राजनीतिक दलों ने ’दलित वोट बैंक‘ को हथियाने के लोभ में सवर्ण-हिन्दुओं को अपमानित करने का कुचक्र रचा है, जिसमें प्रत्यक्ष-परोक्षरूप से साम्यवादी तथा मुस्लिम संगठन भी शामिल हो गये हैं। हमारी दृष्टि में राजनीतिक व्यूह रचकर भोले-निर्धन हिन्दुओं और तथाकथित दलितों को बहकाने का मार्ग त्यागकर इन तथाकथित दलित नेताओं को शुद्ध हृदय से विशुद्ध मनुस्मृति का अध्ययन करना चाहिए। स्थान-स्थान पर मूर्तियों के अम्बार लगाने की अपेक्षा उस शक्ति को शास्त्राध्ययन की परिपाटी में लगाना ज्यादा जरूरी है। राजनीति के नाम पर अराजकता पूर्ण नीति से पृथक् होना अत्यावश्यक है।‘ (लेख-राजर्षि मनु, मनुस्मृति और मनु की प्रतिमा: आर्यजगत्-साप्ताहिक: 21 मई 2000, पृष्ठ-5)।

महाराष्ट्र के महाड़ से राजस्थान के जयपुर तक की 1600 किलोमीटर अन्तर की ’मनु प्रतिमा हटाओ यात्रा‘ निकालनेवाले डॉ0 बाबा आढ़ाव ने अपने आक्रोश भरे तेवर में यह प्रतिप्रश्न उपस्थित किया है कि-स्त्रियों तथा शूद्रातिशूद्रों से मनुस्मृति पढ़े जाने संबंधी धृष्टतापूर्वक सवाल भला पूछे ही कैसे जाते हैं ?‘ (पुरोगामी सत्यशोधक: त्रैमासिक-अक्टूबर से मार्च 2000 तक की संयुक्त अंक-पृष्ठ 45)। डॉ0 आढ़ाव का उक्त कथन वर्तमान सन्दर्भ में ठीक नहीं लगता। जब महात्मा फुले और स्वामी दयानन्द के प्रयत्नों से अध्ययन-अध्यापन के दरवाजे स्त्री शूद्रों के लिए भी खुल गये हैं, तब पठन-पाठन की परम्परा की संप्रति क्यों न प्रोत्साहित किया जाए? डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर के अनुयायी हों, या आर्यसमाज के अथवा अन्य किसी संगठन के सभी लोगों द्वारा शास्त्राध्ययन की परम्परा को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। तभी वैचारिक मतभेद रखते हुए भी वाद-विवाद के स्थान पर वाद-संवाद की स्थिति बन सकती है। कम-से-कम जिन मुद्दों पर हम सहमत हैं, उन पर  तो कदम-से-कदम मिलाकर प्रगति की दिशा में एक साथ आगे बढ़ सकते हैं। एक और एक दो नहीं, अपितु ग्यारह बनकर समाज-सुधार के रथ और दलितोद्धार के चक्र को और अधिक गति देने में समर्थ हो सकते हैं।

मतभेद होते हुए भी जब हमारे प्रेरणास्रोत महात्मा फुले और स्वामी दयानन्द पुणे में एक-दूसरे को सहयोग करते हुए दिखलाई देते हैं, जब उनमें भाईचारा था, एक-दूसरे को समझने की तैयारी थी तो हम अनुयायियों में भी वह सहयोग भावना क्यों न हो ? स्वामी दयानन्द 16 जुलाई 1875 को महात्मा फुलेजी के जुनागंज पेठ स्थित शूद्रातिशूद्रों के स्कूल में वेदोपदेश दे रहे हैं, तो महात्मा फुले बुधवार पेठ और छावनी में जाकर स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रवचन सुन रहे हैं। 5 सितम्बर 1875 को पुणे में जब स्वामी दयानन्द सरस्वती की विदाई के उपलक्ष्य में शोभा यात्रा निकाली जा रही थी, तो प्रतिगामी शक्तियाँ किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाएँ, इसलिए महात्मा फुले अपने अखाड़े के नौजवान अनुयायियों के साथ सिर हथेली पर लेकर चल रहे हैं। आखिर डॉ0 अम्बेडकर भी आर्यसमाज को उदारमतवाद की घुट्टी पिलानेवाली संस्था मानते थे। पुणे में डॉ0 अम्बेडकर की प्रेरणा से संचालित ’पार्वती मन्दिर प्रवेश सत्याग्रह‘ में आर्यसमाज के स्वामी योगानन्दजी 13 अक्टूबर 1929 को रूढ़िवादियों के प्रहार से क्षति-विक्षत होना पसन्द करते हैं, पर आन्दोलन से विमुख नहीं होते (बहिष्कृत भारत-साप्ताहिक 15 नवम्बर 1929, पृष्ठ 10)।

सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री आर्यसमाजी संस्कारों में पालित-पोषित थे। उनके पिताजी अपने समय में ’नमस्तेजी‘ के नाम से प्रसिद्ध रहे। चतुरसेन शास्त्री ने ’अम्बपालिका‘, ’प्रबुद्ध‘, ’भिक्षुराज‘ जैसी बौद्ध कहानियाँ लिखीं और बुद्धकालीन इतिहास रस प्रस्तुत करने वाला ’वैशाली की नगर वधू‘ जैसा बौद्ध उपन्यास लिखा। काशी के सुप्रसिद्ध लेखक श्री शिवप्रसाद गुप्त ने भगवान बुद्ध की जीवनी और उपदेश में उस समय का वर्णन किया है, जब एक ही घर में ब्राह्मण और बौद्ध रहा करते थे। (पृष्ठ-8)। महात्मा फुलेजी ने भी ’सार्वजनिक सत्य धर्म‘ पुस्तक में ऐसे घर की कल्पना की है, जिसमें एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग साम्प्रदायिक विचारधारा के होते हुए भी सद्भाव-समन्वय और भाईचारे से रह रहे हैं। भदन्त आनन्द कौसल्यायन ने कभी सोचा था ’आर्यसमाज के निराकार ईश्वर और बुद्ध को साथ-साथ रखूँ (जिनका मैं कृतज्ञ: राहुल सांकृत्यायान-पृष्ठ 164) प्रा0 राजेन्द्रजी जिज्ञासु ने समाज में भाईचारे की प्राथमिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कभी लिखा था, ’उलझन भरी दार्शनिक विषयों को सुलझाने का काम हमें अपने-अपने क्षेत्र के विद्वान् बाबाओं पर छोड़ देना चाहिए।‘ मुख्य उद्देश्य तो हर हाल में आपसी स्नेहभाव, शान्ति और भाईचारे को बनाये रखना ही होना चाहिए। आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती लिखते हैं-”जब तक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद वा लेखन न किया जाए, तब तक सत्य-असत्य का निश्चय नहीं हो सकता। जब विद्वान् लोगों मं सत्यासत्य का निश्चय नहीं होता, तभी अविद्वानों को महा अन्धकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है, इसलिए सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ, मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति के मुख्य काम हैं, यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो।“ (सत्यार्थप्रकाश: सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक: द्वादश समुल्लास: पृष्ठ 607-8)।

इस प्रकार के संवाद हेतु वातावरण उत्पन्न करने के लिए सामाजिक सौहार्द अत्यावश्यक है, अतः यह आशा की जाती है कि सामाजिक सौहार्द को और अधिक व्यापक बनाने में समाज-सुधार और प्रगतिशीलता में आस्था रखनेवाले स्वामी दयानन्द और डॉ0 बाबासाहब अम्बेडकर के अनुयायी मिल-जुलकर अपना-अपना योगदान देंगे। तभी शब्द, वेद प्रामाण्यवाद, विषमता के विविध रूप, मनुस्मृति, पुनर्जन्म, आरक्षण, आस्तिकता जैसे गहन विषयों पर सुसंवाद और अंतिम निर्णय होना सम्भव है।

अजेयता के तप लिए आवश्यक

ओउम
अजेयता के तप लिए आवश्यक
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
यह तप ही है जो मानव को अजेय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को अघर्श्नीय बनाता है | यह तप ही है जो मानव को सब सुखों की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो ज्ञान आदि की प्राप्ति कराता है | यह तप ही है जो सब प्रकार की सफलता का साधन है | इस तथ्य को ऋग्वेद के अध्याय १० मंडल १५४ के मन्त्र संख्या २ मैं इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : तपसा ये अनाध्रिश्यास्तपसा ये स्वर्ययु: |
तपो ये चक्रिरे महास्तान्श्चिदेवापी गच्छतात || ऋग. १०.१५४.२ ||
हे (मर्त्य ) मनुष्य (ये ) जो (तपसा) तपस्या से (अनाध्रिश्या:) अघर्शनीय हैं ( ये) जो (तपसा) तपस्या से (स्व: ) सुख को (ययु:)प्राप्त हुए हैं (ये) जिन्होंने (माह: ) महान (तप: ) तपस्या ( चक्रिरे) की है ( तान चिद एव ) उनके पास ही (अपि गच्छतात) जाओ |
भावार्थ : –
हे मनुष्य इस संसार मे जो अघर्श्नीय हैं , जो तप से सुखों को प्राप्त कर चुके हैं , जिन मनुष्यों ने महान तप किया है , ज्ञान आदि प्राप्त करने के लिए उनके ही समीप जाओ |
मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफल हो | वह जानता है कि सफलता से ही यश मिलता है ,सफलता से ही कीर्ति मिलती है तथा सफलता से ही उस की ख्याति दूर दूर तक जा पाती है , जो कभी सफलता के दर्शन ही नहीं करता , उस को कोंन याद करेगा, उसका उदहारण कोंन अपने बच्चों को देगा | उस का कोंन अनुगामी बनेगा , कोई भी तो नहीं | इस लिए मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा रहती है कि वह प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करे ताकि उसका यश व कीर्ति दूर दूर तक जा पावे | लोग उसके अनुगामी बन उसके पद – चिन्हों पर चलें | इस सब के लिए जीवन की सफलता का रहस्य का ज्ञान होना आवश्यक है | जिसे सफलता के रहस्य का ज्ञान ही नहीं , वह कहाँ से सफलता प्राप्त कर सकेगा | अत: हमें यह जानना आवश्यक है कि हम सफलता के रहस्य को समझें |
जीवन की सफलता का रहस्य : –
जीवन कि सफलता का रहस्य है तप और साधना |
साधना किसे कहते हैं :
जब व्यक्ति अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लेता है तथा उस लक्ष्य को पाने के लिए एकाग्रचित हो निरंतर लग जाता है तो इसे साधना कहते हैं | तप भी इसे ही कहा जाता है |

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इससे एक बात सपष्ट है कि मनुष्य को किसी भी प्रकार की साधना के लिए , किसी भी प्रकार का तप करने के लिए सर्व प्रथम एक लक्ष्य निर्धारित करना आवश्यक है | यह लक्ष्य ही है जो हमें निरंतर अपनी और खिंचता रहता है | यदि लक्ष्य ही हमने नहीं निश्चित किया तो किसे पाने के लिए हम प्रयास करेंगे ? जब हमें पता है कि हमने पांच किलोमीटर चलना है तो इस मंजल को पाने के लिए आगे बढ़ते चले जावेंगे तथा कुच्छ दूरी पर ही हमें आभास होगा कि अब हमारा लक्ष्य समीप चला आ रहा है किन्तु यदि हमें अपने लक्ष्य का पता ही नहीं कि हमने कितने किलोमीटर जाना है , तो हम किस लक्ष्य को पाने के लिए आगे बढेंगे | इससे यह तथ्य सपष्ट होता है कि किसी भी सफलता को पाने के लिए प्रयास आरम्भ करने से पूर्व हमें एक लक्ष्य निश्चित करना होगा |
दृढ संकल्प : –
जब हमने कोई कार्य करने के लिए लक्ष्य निर्धारित कर लिया तो उस लक्ष कि प्राप्ति के लिए दृढ संकल्प का होना भी आवश्यक है , अन्यथा हमारा लक्ष्य केवल हवाई किला ही सिद्ध होगा |
अनुष्ठान : –
जब एक लक्ष्य निर्धारित हो गया तथा इसे पूर्ण करने का दृढ संकल्प भी हो गया तो इसे अनुष्ठान कहते है | दृढ निश्चय से यह एक अनुष्ठान बन जाता है | इस अनुष्ठान या व्रत को विधि पूर्वक संपन्न करने का प्रयास ही या इसे पूर्णता पर पहुंचाना ही साधना है | इस प्रयास को तप भी कहा जाता है | साधना ही तप का वास्तविक रूप होता है |
लक्ष्य तो प्रत्येक व्यक्ति का ही बड़ा उंचा होता है किन्तु वह इसे पाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , मेहनत नहीं करता , साधना नहीं करता, तप नहीं करता तो यह लक्ष्य उसे कैसे मिलेगा | यह द्रढ संकल्प ही है , जो मनुष्य को साधना करने की प्रेरणा देता है , जो हमें तप करने की प्रेरणा देता है , जो हमें पुरुषार्थ के मार्ग पर ले जाता है | दृढ निश्चय व कतिवद्धता के बिना लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता |
दृढ निश्चय तथा कतिबधता ; –
लक्ष्य की प्राप्ति के इच्छुक व्यक्ति में दृढ निश्चय तथा उसे पूर्ण करने के लिए कटिबद्धता का होना भी आवश्यक है | अन्यथा यदि हम ने बहुत ही उंचा लक्ष्य निर्धारित कर लिया किन्तु उसे प्राप्त करने के लिए हम दृढ संकल्प नहीं कर पाए , अन्यमनसक से हो कर कभी प्रयास किया कभी छोड़ दिया तो उसे कैसे पावेंगे ? और यदि संकल्प भी दृढ कर लिया किन्तु कटिबद्ध होकर कार्य में जुटे ही नहीं तो भी कार्य की सम्पान्नता संभव नहीं | लक्ष्य से भटक कर लक्ष्य को नहीं प्राप्त किया जा सकता | अत: लक्ष्य चाहे छोटा हो यहा बड़ा , उसे पाने के लिए निश्चय का दृढ होना तथा उसे पाने के लिए प्रयास करना या कटिबद्ध होना भी आवश्यक है |
जब मनुष्य दृढ निश्चय से कार्य में जुट जाता है तो वह शनै: शनै: सफलता प्राप्त करते हुए अंत में उन्नति कि पराकाष्ठा तक जा पहुंचेगा | तभी तो कहा है कि जब अभ्यास सत्य ह्रदय से होता है तो उसे करने वाला व्यक्ति सिद्ध तपोनिष्ठ हो कर अजेय व अघर्शनीय बन जाता है अर्थात वह अपने कार्य
में इतना सिद्ध हस्त हो जाता है कि कभी कोई उसका प्रतिस्पर्धी हो ही नहीं पाता | वह अजेय हो जाता है | अब उसे जय करने की क्षमता किसी अन्य में नहीं होती | सब प्रकार कि सीढियां उसे अपने कार्य में धीरे धीर मिलती ही चली जाती हैं | जिस कार्य को वह अपने हाथ में लेता है , उस कार्य में सफलता दौड़े हुए उसके पास चली आती है |
यह मन्त्र इस उपर्युक्त तथ्य पर ही प्रकाश डालता है कि जो व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित कर लेता है , उस लक्ष्य को पाने के लिए दृढ संकल्प होता है तथा वहां तक पहुँचने के लिए कटिबद्ध हो पुरुषार्थ करता है तो सब सिद्धियाँ उसे निश्चय ही प्राप्त होती हैं | अपने प्रत्येक कार्य में उसे सफलता मिलती है , मानो सफलता स्वागत के लिए उस के मार्ग पर खड़ी पहले से ही प्रतीक्षा – रत हो | इस तथ्य को ही मन्त्र में स्पष्ट किया है तथा कहा है कि किसी भी प्रकार की सफलता के लिए तप का होना आवश्यक है | बिना तप के कुछ भी मिल पाना संभव नहीं है | अत: हे मानव उठ ! अपना लक्ष्य निर्धारित कर , दृढ संकल्प हो उसे पाने के लिए प्रयास कर , तुझे सफलता निश्चित ही मिलेगी |
डा. अशोक आर्य

हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

हम पवित्र ह्रदय के स्वामी हों

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
अग्नि तेज का प्रतीक है, अग्नि एश्वर्य का प्रतिक है, अग्नि जीवन्तता का प्रतिक है | अग्नि मैं ही जीवन है , अग्नि ही सब सुखों का आधार है | अग्नि की सहायता से हम उदय होते सूर्य की भांति खिल जाते हैं , प्रसन्नचित रहते हैं | जीवन को धन एश्वर्य व प्रेम व्यवहार लाने के लिए अग्नि एसा करे | इस तथ्य को ऋग्वेद के ६-५२-५ मन्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है : –
विश्वदानीं सुमनस: स्याम
पश्येम नु सुर्यमुच्चरनतम |
तथा करद वसुपतिर्वसुना
देवां ओहानो$वसागमिष्ठ: || ऋग.६-५२-५ ||
शब्दार्थ : –
(विश्वदानीम) सदा (सुमनस:) सुन्द व पवित्र ह्रदय वाले प्रसन्नचित (स्याम) होवें (न ) निश्चय से (उच्चरंतम) उदय होते हुए (सूर्यम) सूर्य को (पश्येम) देखें (वसूनाम) घनों का (वसुपति: ) धनपति , अग्नि (देवां) देवों को (ओहान:) यहाँ लाता हुआ (अवसा) संरक्षण के साथ (आगमिष्ठा:) प्रेमपूर्वक आने वाला (तथा) वैसा (करत ) करें |
भावार्थ :-
हम सदा प्रसन्नचित रहते हए उदय होते सूर्य को देखें | जो धनादि का महास्वामी है , जो देवों को लाने वाला है तथा जो प्रेम पूर्वक आने वाला है , वह अग्नि हमारे लिए एसा करे |
यह मन्त्र मानव कल्याण के लिए मानव के हित के लिए परमपिता परमात्मा से दो प्रार्थनाएं करने के लिए प्रेरित करता है : –
१. हम प्रसन्नचित हों
२. हम दीर्घायु हों
मन्त्र कहता है की हम उदारचित ,प्रसन्नचित , पवित्र ह्रदय वाले तथा सुन्दर मन वाले हों | मन की सर्वोतम स्थिति हार्दिक प्रसन्नता को पाना ही माना गया है | यह मन्त्र इस प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए ही हमें प्रेरित करता है | मन की प्रसन्नता से ही मानव की सर्व इन्द्रियों में स्फूर्ति, शक्ति व ऊर्जा आती है |
मन प्रसन्न है तो वह किसी की भी सहायता के लिए प्रेरित करता है | मन प्रसन्न है तो हम अत्यंत उत्साहित हो कर इसे असाध्य कार्य को भी संपन्न करने के लिए जुट सकते है, जो हम साधारण अवस्था में करने का सोच भी नहीं सकते | हम दुरूह कार्यों को सम्पन्न करने के लिए भी अपना

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हाथ बढ़ा देते हैं | यह मन के प्रसन्नचित होने का ही परिणाम होता है | असाध्य कार्य को करने की भी शक्ति हमारे में आ जाती है | अत्यंत स्फूर्ति हमारे में आती है | यह स्फूर्ति ही हमारे में नयी ऊर्जा को पैदा करती है | इस ऊर्जा को पा कर हम स्वयं को धन्य मानते हुये साहस से भरपूर मन से ऐसे असाध्य कार्य भी संपन्न कर देते हैं , जिन्हें हम ने कभी अपने जीवन में कर पाने की क्षमता भी अपने अंदर अनुभव नहीं की थी |
मन को कभी भी अप्रसन्नता की स्थिति में नहीं आने देना चाहिए | मन की अप्रसन्नता से मानव में निराशा की अवस्था आ जाती है | वह हताश हो जाता है | यह निराशा व हताशा ही पराजय की सूचक होती है | यही कारण है की निराश व हताश व्यक्ति जिस कार्य को भी अपने हाथ में लेता है, उसे संपन्न नहीं कर पाता | जब बार बार असफल हो जाता है तो अनेक बार एसी अवस्था आती है कि वह स्वयं अपने प्राणांत तक भी करने को तत्पर हो जाता है | अत: हमें ऐसे कार्य करने चाहिए, ऐसे प्रयास करने चाहिए, एसा पुरुषार्थ करना चाहिए व एसा उपाय करना चाहिए , जिससे मन की प्रसन्नता में निरंतर अभिवृद्धि होती रहे |
मन की पवित्रता के लिए कुछ उपाय हमारे ऋषियों ने बताये हैं , जो इस प्रकार हैं : –
१. ह्रदय शुद्ध हो : –
हम अपने ह्रदय को सदा शुद्ध रखें | शुद्ध ह्रदय ही मन को प्रसन्नता की और ला सकता है | जब हम किसी प्रकार का छल , कपट दुराचार ,आदि का व्यवहार नहीं करें गे तो हमें किसी से भी कोई भय नहीं होगा | कटु सत्य को भी किसी के सामने रखने में भय नहीं अनुभव करेंगे तो निश्चय ही हमारी प्रसन्नता में वृद्धि होगी |
२. पवित्र विचारों से भरपूर मन : –
जब हम छल कपट से दूर रहते हैं तो हमारा मन पवित्र हो जाता है | पवित्र मन में सदा पवित्र विचार ही आते है | अपवित्रता के लिए तो इस में स्थान ही नहीं होता | पवित्रता हमें किसी से भय को भी नहीं आने देती | बस यह ही प्रसन्नता का रहस्य है | अत; चित की प्रसन्नता के लिए पवित्र विचारों से युक्त होना भी आवश्यक है |
३. सद्भावना से भरपूर मन : –
हमारे मन में सद्भावना भी भरपूर होनी चाहिए | जब हम किसी के कष्ट में उसकी सहायता करते है , सहयोग करते हैं अथवा विचारों से सद्भाव प्रकट करते हैं तो उसके कष्टों में कुछ कमीं आती है | जिसके कष्ट हमारे दो शब्दों से दूर हो जावेंगे तो वह निश्चित ही हमें शुभ आशीष देगा | वह हमारे गुणों की चर्चा भी अनेक लोगों के पास करेगा | लोग हमें सत्कार देने लगेंगे | इससे भी हमारी चित की प्रसन्नता अपार हो जाती है | अत: चित की प्रसन्नता के लिए सद्भावना भी एक आवश्यक तत्व है |
इस प्रकार जब हम अपने मन में पवित्र विचारों को स्थान देंगे , सद्भावना पैदा करेंगे तथा ह्रदय को शुद्ध रखेंगे तो हम विश्वदानिम अर्थात प्रत्येक अवस्था में प्रसन्नचित रहने वाले बन जावेंगे | हमारे प्राय:
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सब धर्म ग्रन्थ इस तथ्य का ही तो गुणगान करते है | गीता के अध्याय २ श्लोक संख्या ६४ व ६५ में भी इस तथ्य पर ही चर्चा करते हुए प्रश्न किया है कि
मनुष्य प्रसन्नचित कब रहता है ?
इस प्रश्न का गीता ने ही उतर दिया है कि मनुष्य प्रसन्नचित तब ही रहता है जब उसका मन राग , द्वेष रहित हो कर इन्द्रिय संयम कर लेता है |
फिर प्रश्न किया गया है कि प्रसन्नचित होने के लाभ क्या हैं ?
इस का भी उतर गीता ने दिया है कि प्रसन्नचित होने से सब दु:खों का विनाश हो कर बुद्धि स्थिर हो जाती है | अत: जो व्यक्ति प्रसन्नचित है उसके सारे दु:ख व सारे क्लेश दूर हो जाते हैं | जब किसी प्रकार का कष्ट ही नहीं है तो बुद्धि तो स्वयमेव ही स्थिरता को प्राप्त कराती है |
जब मन प्रसन्नचित हो गया तो मन्त्र की जो दूसरी बात पर भी विचार करना सरल हो जाता है | मन्त्र में जो दूसरी प्रार्थना प्रभु से की गयी है , वह है दीर्घायु | इस प्रार्थना के अंतर्गत परमपिता से हम मांग रहे हैं कि हे प्रभु ! हम दीर्घायु हों, हमारी इन्द्रियाँ हृष्ट – पुष्ट हों ताकि हम आजीवन सूर्योदय की अवस्था को देख सकें | सूर्योदय की अवस्था उतम अवस्था का प्रतीक है | उगता सूर्य अंत:करण को उमंगों से भर देता है | सांसारिक सुख की प्राप्ति की अभिलाषा उगता सूर्य ही पैदा करता है | यदि हम स्वस्थ हैं तो सब प्रकार के सुखों के हम स्वामी हैं | जीव को सुखमय बनाने के लिए होना तथा स्वस्थ होना आवश्यक है | अत: हम एसा पुरुषार्थ करें कि हमें उत्तम स्वास्थ्य व प्रसन्नचित जीवन प्रन्नचित मिले |

डा. अशोक आर्य ,

लम्बी व दीर्घ आयु के लिए अच्छे व शुभ कर्म

ओउम
लम्बी व दीर्घ आयु के लिए अच्छे व शुभ कर्म
आवश्यक
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
मनुष्य की यह स्वाभाविक इच्छा होती है कि वह कम से कम एक सो वर्ष की आयु तो अवश्य ही प्राप्त करे | हमारे शास्त्रों ने भी उसकी आयु सो वर्ष निर्धारित की है किन्तु हम देखते हैं कि बहुत कम लोग ऐसे होते है, जो सौ वर्ष की आयु पाते हैं | साधारनतया चालीस से स्तर वर्ष की आयु में ही इस संसार को छोड़ जाते हैं | जो सौ वर्ष की आयु परमपिता परमात्मा ने हमारे लिए निश्चित की थी , अपने जीवन की गल्तियों के कारण वह निरंतर हमारे से छिनती ही चली जाती है | यदि हम जीवन में भूलें न करते , यदि हम जीवन में आपराधिक कर्म न करते, यदि हम जीवन में सदा अच्छे कर्म करते, शुभ कर्म करते तो हम निश्चित रूप से सौ वर्ष से भी अधिक आयु प्राप्त करते | वेद इस बात का अनुमोदन करता है कि जो अच्छे कर्म करता है , जो शुभ कर्म करता है , प्रभु उसे ही दीर्घ आयु देता है | यजुर्वेद मन्त्र २५.२१, ऋग्वेद मन्त्र १.८९.८ सामवेद मन्त्र १८७४ तथा तैतिरीय व आरण्यक उपनिषद् १.१.१ में इस तथ्य को ही स्पष्ट किया गया है | मन्त्र इस प्रकार है : –
भद्रं कर्नेभि: श्रुणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्रा: |
स्थिरैरान्गैस्तुश्तुवान्सस्तानुभी –
व्येशेमही देवहितं यदायु: ||यजु . २५.२१, ऋग . १.८९.८ साम. १८७४ , तैती. आरं. १.१.१ ||
शब्दार्थ : –
(यजत्रा: ) हे पूजनीय (देवा: ) देवो, हम ( कर्नेभि:) कानों से (भद्रं) शुभ व मंगलमय (श्रुणुयाम) सुनें (अक्षभि:) देखें (स्थिरे) दृढ व् पुष्ट (अंगे:) अंगों से (तुष्ट्वांस: ) स्तुति करते हुए (तनुभि:) अपने शरीरों से (देवहितं) देवों के लिए निर्धारित या हितकर ( यत आयु:) जो आयु है, उसे (व्यशेमही ) पावें |
भावार्थ : –
हे प्रभो ! हम दोनों कानों से शुभ ही शुभ सुनें, दोनों आँखों से शुभ ही शुभ सुनें, हृष्ट – पुष्ट अंगों से आप की स्तुति करते हुए , इस शरीर के द्वारा देवों के लिए हितकर दीर्घ आयु प्राप्त करैं |
मानव सदा सुखों का अभिलाषी होता है | उसकी कामना होती है कि उसे अपार सुख मिलें | वह पूर्णतया सुखी रहने की अभिलाषा , इच्छा रखता है | इतना ही नहीं वह आजीवन निरोग भी रहने की कामना रखता है | इस प्रकार की इच्छाओं की कामना रखने वालों के लिए जीवन यापन के कुछ नियम
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भी होते हैं , जिन पर चलने से ही जीवन सुखी होता है तथा दीर्घ व स्वस्थ आयु मिलती है जब तक इन नियमों को अपने जीवन का अंग बनाकर इन पर चला नहीं जाता तब तक न तो जीवन स्वस्थ होता है, न ही सुखी तथा न ही शतवर्षीय आयु ही मिलती है | अत: इन नियमों का पालन आवश्यक होता है यह नियम सरल भी होते हैं तथा कठोर भी | अर्थात यह नियम दोनों प्रकार के गुण संजोये रहते हैं | नियम तो सरल ही होते हैं किन्तु उनके लिए, जिन के विचार सुलझे हुए होते हैं , जिन्होंने अपने मन को पूरी तरह से अपने वश में कर रखा हो , जिन्होंने अपनी इन्द्रियों पर पूरी तरह से अधिकार कर रखा हो ,जिन में सात्विक भाव जागृत होते हैं | इस प्रकार के लोगों को इन नियमों के पालन में कुछ भी कठिनाई नहीं होती | ऐसे लोगों के लिए ये नियम सरला होते हैं |
इच्छा तो है सुखी जीवन की किन्तु खाते हैं मांस , तो जीवन सुखी कैसे होगा ? चाहते तो है जीवन सुखमय किन्तु पूरा दिन शराब के नशे में धुत हो कर गाली – गलोज व मार r -पीट करते रहते हैं तो सुख मय जीवन कैसे होगा, जीवन में खुशियाँ कैसे आवेंगी तथा आयु दीर्घ कैसे होगी ? जीवन में खुशियाँ भरने के लिए काम भी तो ऐसे ही करने चाहियें , जिन से खुशियाँ मिलें , तब ही तो जीवन खुश होगा अन्यथा यह कैसे संभव है | किसी को मार कर खाने वाला जब किसी मारते हुए भयभीत नहीं होता तो फिर अपने जीवन में सुख मांगे , खुशियों की कामना करे, किन्तु उसे यह सब मिलना संभव नहीं | अत: जीवन को खुशियों से भरने के लिए , जीवन को अच्छी प्रकार जीने के लिए तथा दीर्घ आयु पाने के लिए सात्विक जीवन , द्रिध्विचार ,व वशीभूत मन का होना आवश्यक है |
विश्रिन्खल चितवृतियों वाले इन नियमों को सदा कठोर समझते हुए इन पर चलने से बचने का यत्न करते हैं | परन्तु जब तक इन नियमों का कठोरता से पालन नहीं होता, तब तक सच्चे सुख व दीर्घायु की प्राप्ति नहीं होती | जब हम ने दिल्ली जाना है तो हमें टिकट भी दिल्ली की लेनी होगी तथा गाडी भी दिल्ली की लेनी होगी, तब ही तो हम दिल्ली जा सकेंगे अन्यथा नहीं | अत: जो हम पाना चाहते है , उस के अनुरूप कर्म भी तो करेंगे तब ही वह हमें मिलेगा अन्यथा केवल अभिलाषा मात्र से तो कुछ मिलने वाला नहीं | वेद का यह मन्त्र भी तो इन दो तथ्यों पर, इन दो बातों पर ही प्रकाश डालता है, इन दो नियमों का ही तो उल्लेख करता है : –
१. कान से अच्छी बातें सुनें : –
हम अपने कान से अच्छी बातें सुनें, अच्छी चर्चाएँ सुनें, हमारे कानों में अच्छे स्वर ही पड़ें | लडाई – झगडा, कलह- क्लेश , म,आर – पीट व् कतला आदि के शब्द हमारे कानों में कभ न पड़ें | जब हम अच्छी अच्छी चर्चाएँ सुनेंगे तो हमारा मन प्रसन्न रहेगा , जब हम सब के सुख का ध्यान रखेंगे तो भी मन प्रसन्न रहेगा , जब हम किसी के जीवन की रक्षा करेंगे तो भी मन प्रसन्न रहेगा | जब हम राग – द्वेष को

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अपने ह्रदय में घर न करने देंगे तो भी हमारा मन प्रसन्न रहेगा , इस प्रकार के विचार आने से ह्रदय में पवित्रता आवेगी अत: जब हमारा मन पवित्र होगा तो कोई संकट हम पर आ ही नहीं सकेगा क्योंकि पवित्रता से ही सब खुशियाँ मिलाती हैं |
२. आँख से अच्छा देखें : –
जब हम आँख से सदा अच्छा ही अच्छा देखना चाहेंगे, बुरे भावों से दूर रहेंगे, कुवासना व बुरी वृतियों को अपने पास नहीं आने देंगे ,बुरे चित्रों व् चरित्रों से दूर रहेंगे, दृष्टि में कभी कुवासना के भाव नहीं आने देंगे तो निश्चित ही लोग अपने परिवार के लोगों को हमारा उदाहरण देते हुए परिजनों को भी हमारे पदचिन्हों पर चलने के लिए प्रेरित करेंगे | जहां भी व जब भी कभी अच्छे लोगों की गणना होगी तो हमारा नाम सर्वप्रथम लिया जावेगा तो निश्चित ही हमारे मित्रों की मंडली में वृद्धि होगी | हमारे सहयोगी व हमारे हितैषी सदा हमारे साथ होंगे | इस प्रकार की अवस्था पाने के लिए यह आवश्यक है कि घृणा, कटुता, सब प्रकार के मनोमालिन्य को हम अपने पास न आने दें | सत्य तो यह है कि जब हम सुपथ पर चल रहे होते हैं तो इस प्रकार के दुर्भाव हमारे पास आने का साहस ही नहीं कर पाते | हम स्वयमेव ही इन कुविचारों से बच जाते हैं |
जब हम परमपिता परमात्मा द्वारा दर्शाए इन दो नियमों का पालन पूरी लगन व उत्कट इच्छा से करते हैं तो हमारे संयम की पुष्टि होती है , संयम पुष्ट होने से हमारा शरीर भी स्वस्थ रहेगा, जब शरीर स्वस्थ होगा तो मन भी तो प्रसन्न रहेगा | यही दीर्घायु की कुंजी है ” स्वस्थ शरीर व मन प्रसन्न | अत: जब हमारा शरीर पूर्णतया स्वस्थ व मन पूर्णतया प्रसन्न है तो हमारी आयु निश्चित रूप से लम्बी होगी, दीर्घ होगी , इस तथ्य को कोई झुठला नहीं सकता | अत: दीर्घायु की कामना करने वाले को सचरित्र रहते हुए मन की पुष्टि प्राप्त कर शरीर स्वस्थ बनाना होगा ताकि मन प्रसन्न रहे |

डा. अशोक आर्य

गृह की शोभा गृहिणी से ही है

ओउम
गृह की शोभा गृहिणी से ही है

डा. अशोक आर्य ,
वेद में नारी को समाज में ऊँचा स्थान दिया गया है | इसे माता कहा गया है | माता उसे कहते हैं ,जो निर्माण करे | माता संतान को पैदा ही नहीं करती, उसका निर्माण भी करती है | माता ही संतान को सुसंतान बना कर उन्नत मार्ग पर अग्रसर करती है तथा माता जब कुमाता बन जाती है तो संतान का विनाश भी करती है ,किन्तु ऐसी बुद्धिहीन ,कर्तव्य विहीन माता वास्तव में माता कहलाने का अधिकार नहीं रखती | जो माता संतान को ऊँचे आसन तक पहुँचाने के लिए तप करती है, सुख सुविधाओं को त्याग, भूखे रह कर भी उसके सुखों में कमीं नहीं आने देती , माता तो वह ही है | एसा कार्य जग की प्रत्येक माता करना चाहती है , इस कारण ही वह माता है | इस कारण ही विश्व में नारी का सम्मान है किन्तु मध्य युग में नारी के सम्मान का ह्रास हुआ है | इस का कारण गुलामी तथा वेद विद्या का अभाव ही कहा जा सकता है | वेद में नारी को जग की जननी तथा त्याग की मूर्ति कहते हुए इसे उच्च आसन देने का आदेश किया है | नारी को प्रशस्ति पूर्ण स्थान देने के लिए वेद में अनेक विध नारी का गुण गान किया गया है | ऋग्वेद ३.५३.४ में कहा गया है कि गृहिणी अर्थात नारी ही गृह है, घर है | नारी के बिना गृह की कल्पना भी नहीं की जा सकती | मन्त्र इस प्रकार दिया है : –
जायेदसत्न मघवन त्सेदु योनी: –
तदित तवा युक्ता हरयो वहन्तु |
यदा कदा च सुनवाय सोमम
अग्निष्ट्वा दूतो धन्वात्यच्छ ||ऋग ३.५३.४ ||
शब्दार्थ : –
हे (मघवन) हे एश्वर्य युक्त इंद्र (जाया इत) पत्नी ही (असतं) घर है (उ) और ( सा इत ) वह ही (योनि:) संतान उत्पादन का आधार है (तट इत ) उसी घर में वही (युक्ता:) जूते हुए (हरय:) घोड़े (त्वा) तुझ को (वहन्तु ) ले जावें (यदा कदा च) और जब कभी (सोमम) सोम रस को (सुनवाम ) निकालेंगे ( दूत:अग्नि: ) तब तुम्हारा दूत अग्नि (त्वा ) तेरे (अच्छ) पास (धन्वाती) दौड़कर जाएगा |
भावार्थ : –
हे इंद्र ! पत्नी ही घर है | कुलवृद्धि का आधार भी वही है | तुझे उसी घर में जूते हुए घोड़े लावें | तुम्हारा दूत अग्नि तब ही तुम्हारे पास जाएगा , जब हम सोमरस निकालेंगे |
यह मन्त्र हमें बताता है कि गृहस्थ का आधार क्या है ? उसका मूल क्या है ? तथा उसके मूल में क्या पदार्थ डालने की आवश्यकता है ? इन बातों का उत्तर देते हुए मन्त्र कहता है कि : –
पत्नी ही घर का आधार है | संस्कृत मई कहा भी है कि :”न गृहं गृहमित्याहू: , गृहिणी गृहमुच्याते ” अर्थात घर को घर नहीं कहते अपितु गृहिणी कि ही घर कहते हैं | कहा भी है कि गृहिणी के बिना घर में भुत का डेरा होता है | गृह में क्या कार्य होता है ? गृह में मुख्य कार्य होता है गृह कि सुरक्षा , गृह कि व्यवस्था, गृह का संचालन, गृह का निरिक्षण तथा समुन्नयन | यह सब कार्य गृहपत्नी अथवा नारी ही कराती है | पुरुष तो गृह व्यवस्था के साधन अर्थात धनोपार्जन के लिए प्राय अधिकाँश समय गृह से बाहर ही रहता है | इस कारण इन सब कार्यों को वह नहीं कर सकता | इन कार्यों को करने के लिए अधक समय वहां उपस्थित होना आवश्यक होता है , किन्तु ओउरुष के लिए एसा संभव न हो पाने के कारण यह सब व्यवस्था पत्नी ही देखती है | अत: पत्नी के बिना यह सब कार्य व्यवस्था ठीक से नहीं हो पाती , इस कारण गृह के इन कार्यों के लिए पत्नी का विशेष महत्व इस मन्त्र में बताया गया है | यदि गृहिणी न हो तो गृह कि यह सब व्यवस्था छीन भिन्न हो जाती है | तभी टी गृहिणी के बिना घर को भुत बंगला अथवा भूतों का निवास कहा गया है |
मन्त्र न केवल पत्नी के कर्तव्यों पर ही प्रकाशः डालता है अपितु उस के महत्व का भी वर्णन करता है | यदि हम गृहस्थ को एक वृक्ष मानें तो पत्नी उस वृक्ष का मूल अर्थात जड़ होती है | जब तक मूल नहीं है , तब तक वृक्ष का अस्तित्व ही नहीं होता | मूलाधार ही समग्र वृक्ष का भार वहन करता है | इस आधार पर हम कह सकते हैं कि नारी गृह का मूल आधार होता है | उस के कन्धों पर ही पूरा परिवार खड़ा होता है | नारी के बिना यह स्वपन साकार नहीं हो सकता | वृक्ष की जड़ तो केवल वृक्ष को खड़ा रखने तथा उसे भोजन पहुँचाने का कार्य करती है किन्तु नारी न केवल जड़ का अर्थात परिवार का आधार अथवा परिवार के खड़े होने की परिकल्पना को साकार करने वाली होती है अपितु संतानोत्पति का कार्य अर्थात बीज व भूमि का कार्य भी करती है | नारी ही गृह की सश्रीकता का आधार है | नारी के बिना संतानोत्पति संभव नहीं | नारी के बिना परिवार की समृद्धि भी संभव नहीं | अत: नारी परिवार की अच्छी समृद्धि का कारण होती है | एक उत्तम नारी ही परिवार में सुखों की वर्षा करती है | तभी तो इसे योनि अथवा मूल कहा गया है | यह परिवार का मूल कारण होती है | परिवार के सुखों की वृद्धि का चिंतन नारी को ही होता है | नारी के बिना किसी प्रकार के सुख व समृद्धि की कल्पाना ही नहीं की जा सकती |
ऊपर कहा गया है कि नारी गृह की सश्रीकता होती है | इस का उत्तर देते हुए मन्त्र कहता है कि यह सोम से आती है | सश्रीकता के लिए सौम्य गुणों का होना आवश्यक है } सौम्य गुण ही इस का मूल आधार हैं | यह सौम्यगुण ही परिवार की श्रीवृद्धि करते हैं , क्योंकि यह कार्य नारी करती है , इसलिए नारी का सौम्यगुणों से युक्त होना आवश्यक है | यदि नारी बात बात पर झगड़ती है तो परिवार का संचालन, परिचालन व व्यवस्था ढीली हो जाती है | यह सुव्यवस्था न रह कर कुव्यवस्था हो जाती है | सुव्यवस्था के लिए सौम्यता आवश्यक है | अत: नारी में सौम्य गुण की प्रचुर मात्रा आवश्यक है | इंद्र तथा
जीवात्मा की उपस्थिति भी सौम्यगुन के साथ ही होती है | वहीँ आत्मिक बल होता है तथा जहाँ इंद्र वा जीवात्मा तथा आत्मिक बल हो वहां श्रीवृद्धि भी निरंतर होती रहती है |
अत: इस मन्त्र के आधार पर हम संक्षेप में कह सकते हैं कि नारी ही गृह का आधार है, गृह अथवा परिवार का मूल भी नारी ही है , सौम्य गुण इस मूल को पुष्ट करते हैं | यह पुष्टि का ही परिणाम होता है कि आत्म बल, सात्विकता, पवित्रता ,सुशीलता, तथा विनय आदि गुणों का आघान होता है | अत: परिवार के निर्माण व पुष्टि के लिए सौम्यता का होना आवश्यक है | यह सौम्यता नारी में विपुल मात्रा में होने के कारण ही नारी को ही गृहिणी को ही गृह अर्थात घर कहा गया है | इस के बिना घर की कल्पना भी संभव नहीं | इसलिए परिवार में नारी का सम्मान हो ताकि वह खुश रहते हुए सौम्यगुणों को बढाती रहे
डा. अशोक आर्य ,

सुशील नारी ही गृह लक्ष्मी होती है

ओउम
सुशील नारी ही गृह लक्ष्मी होती है

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
मानव सुन्दरता का पुजारी है | यही कारण है कि वह सुन्दरता की खोज में भटकता रहता है तथा प्रयास करता है कि वह प्रतिक्षण सुन्दर दृश्यों में ही अपना समय बितावे | यह ही वह कारण है कि आज का मानव न केवल सुन्दर अपितु सुशील युवती को पाकर अति प्रसन्न होता है | यदि उस की सुन्दरता में कुछ कमीं अनुभव करता है तो उसे वह वर्तमान युग में कृत्रिम साधनों से दूर करने का प्रयास करता है | ठीक इसी प्रकार मनुष्य सोम के जल को पा कर भी आनंद का अनुभव करता है , उसे पवित्र करता है | इस तथ्य की चर्चा ऋग्वेद के मन्त्र १०.३०.५ में की गयी है | जो इस प्रकार है : –
याभी: सोमां मोदते हर्षते च
कल्यानिभिर्युवतिभिर्ण मर्य: |
टा अघ्वर्यो अपो अच्छा परेहि
यदासिन्चा ओशधिभी: पुनितात || ऋग. १०.३०.५ ||
शब्दार्थ : –
(सोम:) सोम (याभि) जिनसे ( मोदतेहर्षते च ) प्रसन्न होता है (कल्यानीभी:) सुशील (युवातिभी:) स्त्रियों से (मर्य: न ) जैसे मनुष्य ( हे अध्वर्यो )हे यज्ञकर्ता ( ता: अप : अच्छ) उन जालों को प्राप्त करने के लिए (परेहि) जाओ (यात) जब (असिन्वा:) सींच,तब (ओशधिभी:) ओषधियों अर्थात सोमलता सोमरस और जल से ( पुनितात) पवित्र करे –
सुन्दर व् सुशील युवतियों से जिस प्रकार मनुष्य प्रसन्न होता है , उसी प्रकार सोम जल से आनंदित और प्रसन्न होता है | हे अघ्वर्यु ! उस जल के पास जाओ | जब तुम उस जल से सोम्लाता को सींचते हो तो सोम ओषधियों से पवित्र करता है |
सरल, सुशील और विनीत स्त्री अपने सौम्य तथा विनीत भाव से घर को स्वर्ग बना देती है | घर में किसी प्रकार का कलह, द्वेष नहीं रहता | इस का कारण है कि जहाँ सुशील और कल्याणकारी पत्नी है, वहां स्वर्ग होता है | जिस प्रकार स्वर्ग की कल्पना की गयी है कि वहां किसी को किसी प्रकार का अभाव नहीं होता , सब लोग सुख पूर्वक रहते हैं | कोई किसी से झगड़ता नहीं, कोई लड़ता नहीं, कोई किसी से द्वेष नहीं रखता , सब प्रकार के सुख, सब प्रकार की संपतियां, सब प्रकार के सुख के साधन वहां उपलब्ध होते हैं | ठीक इस प्रकार जहाँ सुशील, विनीत व् सरल स्वभाव पत्नी होती है , वहाँ इस प्रकार के सुखों की आनंदों की वर्षा प्रतिक्षण होती रहती है | सब परिजन परस्पर मिलकर आनंद से प्रसन्नता से

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रहते हैं | सुशील पत्नी सौभाग्य से ही प्राप्त होती है | इस तथ्य को ही मन्त्र स्पष्ट करता है | इस सुशील पत्नी को पाकर मनुष्य आनंद, प्रसन्न व सुखी रहता है |
सुशील स्त्री हर्ष व आमोद का कारण होती है तो इस से विपरीत गुणों वाली पत्नी जिसे हम दू:शील कह सकते हैं , परिवार के लिए दु:ख व कष्ट और क्लेश ही पैदा करती है | ऐसी पत्नी एक सुन्दर व संपन्न घर को तबाह कर देती है | वह घर में लडाई, झगडा, कलह क्लेश का कारण बनती है | ऐसे परिवार से सुख सम्पति, धन वैभव व प्रसन्नता भाग जाती है | परिवार रसातल की और बढ़ता चला जाता है | इस लिए गृह पत्नी का सुशील, विनीत होना गृह शोभा का कारण होता है | तब ही तो कहा गया है कि विवाह करते समय गुण, कर्म, स्वभाव की परख कर सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए | बेमेल सम्बन्ध जोड़ना , परिवार के नाश का कारण होता है |
जिस प्रकार किसी वृक्ष को जल मिल जाने से वृक्ष हरा भरा व् प्रसन्न रहता है , ठीक उस प्रकार ही सुशील स्त्री व् पुरुष के मिलन से परिवार के सुखों के कारण परिवार की ख्याति दूर दूर तक फ़ैल जाती है | इस तथ्य को मन्त्र में बड़े ही सुन्दर ढंग से समझाया गया है | वृक्ष की ही भाँती सुशील पत्नी को पा कर पुरुष फलता व फूलता है, सदा प्रसन्न रहता है | जंगल की लताएं जल को पाकर स्वयं ही फलती फूलती व बढती हैं , उस प्रकार ही सुन्दर सुशील स्त्री को पा कर परिवार की भी श्रीवृद्धि होती है | परिवार भी न केवल धन धान्य से बल्कि उत्तम सुसंतान से भर जाता है | तब ही तो सुशील ,विनीत पत्नी को परिवार की लक्ष्मी कहा गया है | जब स्त्री परिवार की लक्ष्मी है तो उस के आने से परिवार में धन धान्य की , सुखों की , प्रसन्नता की, वैभव की वर्षा तो होगी ही | इस प्रकार यह परिवार उस युवती के कारण , जो पत्नी बनकर परिवार में आयी है , संपन्न बन जावेगा | \
अत: मन्त्र के आश्य के अनुसार गृह पत्नी सुशील व प्रसन्न रहते हुए परिवार में खुशियाँ व संपतियां लाने का प्रयास करे तो उस की ख्याति बढ़ेगी | उसकी ख्याति के साथ ही परिवार की ख्याति भी बढ़ेगी तथा सुखों की गणना करते समय लोग इस परिवार का उदाहरण देने लगें गे |
डॉ. अशोक आर्य