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बृह्दारण्यक उपनिषद् और पुराणं शब्द

 छान्दोग्य उपनिषद् पर पुराण शब्द की मीमांसा से हार चुका पौराणिक समाज अपने अष्टादशपुराणो को वेदानुकूल सिद्ध करने like a headless chicken यहाँ से वहाँ मारामारा फिर रहाँ है। हालत ऐसी हो गई है की कहीं पे भी शास्त्रोमें पुराण शब्द मिल जाये तो उस शब्द का अर्थ अष्टादशपुराण ही है वह सिद्ध करने के लिये उतावला हो रहा है।

यही प्रक्रीया के अन्तर्गत ‘डूबते को तिनके का सहारा’ इस मुताबित बृहदारणकोपनिषद् में पुराण शब्द ढूंढ लाया। देख कर ठूमके लगा कर नाँचने लगा। यह भी समजने की कोशिश नहीं करी के यह शब्दका अर्थ क्यां है।

बृहदारण्यक उपनिषद का जो मन्त्र पौराणिको ने दिया उसे हम उद्बोधित करते है।

स यथार्द्रैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानीष्ट हुतमाशितं पायितमयं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतान्यस्यैवैतानि सर्वाणि निश्वसितानि॥ ४.५.११॥

स यथाऽऽर्द्रैधाग्नेरभ्याहितात्पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येव वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानन्यस्यैवैतानि सर्वाणि निश्वसितानि॥ २.४.१०॥यह दो मन्त्रमें पुराणं शब्द है। लेकिन यहाँ प्रयोग हुवे पुराण शब्द का अर्थ १८ पुराण तो बिलकुल नहीं है। आर्यसमाज के पुस्तक को तो प्रमाण मानोगे नहीं। आप कम से कम शाङ्करभाष्य ही देख लेते। मन्त्र ४.५.११ के भाष्यमें शङ्कराचार्यने लिखा है की इस का अर्थ हम २.४.१० में समजा चूके है। इस लिये अब मन्त्र २.४.१०में पुराण शब्द का क्यां अर्थ है वह समजना जरुरी है।

पुराण शब्द की व्याख्या में शङ्कराचार्यने तैत्तिरीय उपनिषद् का उदाहरण दिया है। अर्थात् वह उसे पुराण मानते थे। १८ पुराण को नहीं। यह व्याख्या से सिद्ध होता है की बृहदारण्यक उपनिषद् से १८ पुराण शास्त्रोक्त सिद्ध नहीं होते।

अब पौराणिको का तर्क है की शङ्कराचार्य ने कभी १८ पुराणो का खण्डन ही नहीं किया।  इस लिये वह उनको मान्य थे। मूर्ख! सारे पुराण शङ्कराचार्य के पश्चात् लिखे गये थे। तो वह उनका खण्डन कैसे कर सकते है? शङ्कराचार्यने तो रविन्द्र नाथ टैगोर की गीताञ्जली का भी खण्डन नहीं किया। तो क्यां उससे गीताञ्जली उनहे मान्य है ऐसा सिद्ध हो गयाँ? यह तर्क करना ही मूर्खता है।

यहाँ पर ध्यान देनेवाली बात है की उनहोने इतिहास शब्द की व्याख्यामें ‘उर्वशीहाप्तसराः’ आदि ब्राह्मणग्रन्थो को इतिहास माना है। महर्षि दयानन्दने भी सत्यार्थ प्रकाशमें ब्राह्मणग्रन्थो का इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा, नाराशंसी इत्यादि पाञ्च नाम है ऐसा कहाँ था। तब पौराणिक उसे नहीं मान रहे थे। लेकिन यहाँ शङ्कराचार्यने स्पष्ट तरीके से ब्राह्मणग्रन्थ को इतिहास बतायाँ है। हमे देखन है की पौराणिक समाज अब क्यां उत्तर देता है!

छान्दोग्य उपनिषद् के भाष्यमें शङ्कराचार्यने जो अर्थ किया है हम उससे सहमत नहीं है और उसका जवाब हम उपरोक्त लेखमें दे चूके है। महाभारत केवल ५००० वर्ष पूर्व की धटना है। जब की सनातनधर्म की वर्तमान परम्परा पाञ्च हजार वर्षो से भी अनेक हजार वर्ष पहले से है।। और यह प्राचीन इतिहास हमारे उपनिषद्, ब्राह्मणग्रन्थ तथा गाथा में लिखा गया है। अब हजारो वर्ष पुराने इतिहास की तुलनामें ५००० वर्ष पुराना महाभारत आधुनिक ही माना जायेगा ना। इसमें हमने क्यां गलत कहाँ? महाभारत तो रामायण की तुल्नामें भी आधुनिक है। यह तुल्नात्मक वचन है। 

क्यां पौराणिक समाज भारतीय इतिहास का आरम्भ केवल रामायण और महाभारत से मानता है? इस का उत्तर दे।

उपसंहार

पुराण को वेदानुकूल सिद्ध करने के लिये पौराणिक जीतना प्रयत्न करते है उतना स्वयं मूर्ख सिद्ध होते है। लेकिन अपनी मुर्खता छीपाने के लिये काशी शास्त्रार्थ की कपोळकल्पित कहानी लिख देते है। जो पौराणिक समाज हमारे जैसे अल्पमति के सामने अभी तक जीत नहीं सका वह ऋषि दयानन्द के सामने कहाँ टीक पाते होंगे?॥ ओ३म्॥

छान्दोग्य उपनिषद् में रहे ‘इतिहासपुराणम्॑ पाठ की मीमांसा

कुछ समय पहले श्री भावेश मेरजा द्वारा लिखीत ‘काशीनो शास्त्राथ’ पुस्तक पढने का मौका मिला। मूर्तिपूजा पर हुवे यह शास्त्रार्थमें पौराणिक समाज मूर्तिपूजा के समर्थनमें कोई प्रमाण देने में विफल रहाँ था।

शास्त्रार्थमें पुराण शब्द के विषयमें चर्चा हुइ थी। चर्चामें स्वामी दयानन्दनें पुराण शब्द को इतिहास का विशेषण बताया तथा छान्दोग्य उपनिषद् का पाठ ‘इतिहासः पुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः’ पाठ उद्बोधित किया। तब पौराणिक समाजने कहां की ‘इतिहासपुराणम्’ यही पाठ सर्वत्र है। तब स्वामीजीने घोषणा करी के यदी ‘इतिहासः पुराणः’ यह पाठ ना मिले तो उनकी पराजय हो तथा मिल जाये तो पौराणिक मत की पराजय हो। पौराणिक समाज हम्मेशा की तरह मौन साधे रहाँ।

हमने जिज्ञासावश छान्दोग्य उपनिषद् का स्वाध्याय किया। उसमें दोनो पाठ थे। दोनो मन्त्र यहा प्रस्तुत करते है।

ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदँ सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यँ राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्याँ सर्पदेवजनविद्यामेतद्भगवोऽध्येमि ॥ ७.१.२ ॥

नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद आथर्वणश्चतुर्थ इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः पित्र्यो राशिर्दैवो निधिर्वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्या ब्रह्मविद्या भूतविद्या क्षत्रविद्या नक्षत्रविद्या सर्पदेवजनविद्या नामैवैतन्नामोपास्स्वेति ॥ ७.१.४ ॥

अब फिर से पौराणिक समाज ७.१.२ का पाठ दिखा के अपने व्याकरण का ज्ञान दे रहा है की स्वामीजी गलत थे। ‘पुराणम्’ जो नपुसंकलिङ्ग शब्द है वह ‘इतिहासः’ जो पुल्लिङ्ग शब्द का विशेषण नहीं हो सकता। और यही तर्क से वह इतिहास तथा पुराण को पृथक साबित करते है तथा पुराण शब्द से अष्टादश पुराण को मानते है।

लेकीन यहाँ पर उन का व्याकरण का ज्ञान कितना अल्प है वह सिद्ध होता है।

जिज्ञासा तो यह होनी चाहीये थी के एक ही अध्यायमें ‘इतिहासपुराणम्’ तथा ‘इतिहासपुराणः’ ऐसे दो पाठ क्युं है? इस का हम समाधान देते है।

मन्त्र ७.१.२में ‘अध्येमि’ पद के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग हुवा है। आप देखे तो ऋग्वेदं, यजुर्वेदं आदि सर्व पद द्वितिया विभक्तिमें है। इसको अगर सरल संस्कृतमें पढे तो अर्थ होगा की (अहं) ऋग्वेदम् अध्येमि, (अहं) यजुर्वेदं अध्येमि, (अहं) इतिहासपुराणं अध्येमि। यानी हम ऋग्वेद पढते है, हम यजुर्वेद पढते है, हम इतिहासपुराण पढते है।

यहाँ इतिहासपुराण एक शब्द है क्युं की अगर दो शब्द होते ‘इतिहासः तथा पुराणम्’ तो उनकी द्वितीया विभक्ति होती ‘इतिहासपुराणे’। लेकिन मन्त्रमें ‘इतिहासपुराणम्’ पाठ ही है। जो यह सिद्ध करता है की दोनो शब्द अलगअलग नहीं परन्तु एक शब्द है।

कुछ मूर्खोने द्वितीया विभक्ति का प्रयोग तो स्वीकार लिया लेकिन यह तर्क दिया कि ‘इतिहासंपुराणम्’ यह पाठ होना चाहीये। अब इनके संस्कृत के ज्ञान को क्यां कहना। विशेषण और विशेष्य को जब एक शब्द कर के समास बना देते हो तो बीच में विभक्ति संज्ञा नहीं आती।

उदाहरण देखिये –

अहं मूर्खं बालकं पश्यामि। यहाँ पर मूर्ख और बालक शब्द अलग अलग है इसलिये दोनो पर विभक्ति का प्रयोग हुवां।

अहं मुर्खबालकं पश्यामि। यहाँ पर मूर्खबालक को एक शब्द बना दिया गयां। तो उसकी विभक्ति ‘मूर्खंबालकं’ नहीं होती परन्तु ‘मूर्खबालकम्’ होती है।

अब प्रश्न यह है कि इतिहास और पुराण के समास में कौन किस का विशेषण और कौन किस का विशेष्य है। उसका उत्तर मन्त्र ७.१.४ का पाठ देखने से मिलेगा।

मन्त्र ७.१.४में सभी पद प्रथमा विभक्तिमें है। ऋग्वेदः नाम इति। यजुर्वेदः नाम इति। इतिहासपुराणः नाम इति। अर्थात् (वह विद्या का) ऋग्वेद नाम है, यजुर्वेद नाम है, इतिहासपुराण नाम है।

यहाँ पर उसका उत्तर आपको ‘इतिहासपुराणः’ शब्द से मिलेगा। अगर पुराण शब्द विशेष्य होता तो बाकी सारे पदों की तरह वह भी प्रथमा विभक्तिमें आता और सर्व को पता है की पुराण शब्द की प्रथमा विभक्ति पुराणम् होती है। लेकिन यहां पर ‘पुराणः’ पाठ है। वह तभी सम्भव है जब पुराण शब्द इतिहास का विशेषण हो। ‘इतिहासः’ यह पुल्लिङ्ग शब्द का विशेषण भी ‘पुराणः’ होगा तभी ‘इतिहासपुराणः’ पाठ सिद्ध होता है।

अतः सर्व प्रकार से यह सिद्ध होता है की दोनो मन्त्रोमें पुराण शब्द इतिहास का विशेषण है।

शाङ्करभाष्यमें भी इतिहासपुराण को एक शब्द माना गया है। शाङ्करभाष्य स्पष्ट कहता है की ऋग्वेदादि चार वेद और इतिहासपुराण नाम का ‘पाञ्चवाँ वेद’ (यह केवल मन्त्र का भाष्य किया गया है। वेद केवल चार ही है।) । अगर इतिहास और पुराण दोनो अलग अलग होता तो शाङ्करभाष्यमें चारवेद तथा इतिहास और पुराण आदि कुल छः ‘वेद’ हो जाते। लेकिन मन्त्रमें तथा शाङ्करभाष्यमें कुल पाञ्च वेद का उल्लेख है। यह तभी शक्य है जब ‘इतिहासपुराण’ एक शब्द माना जाये। अर्थात् शाङ्करभाष्य भी महर्षी दयानन्द के तर्क का समर्थन करता है।

तथा शाङ्करभाष्यमें ‘इतिहासपुराण’ शब्द का जो उदाहरण दिया है वह भारत अर्थात् महाभारत का दिया गया है। महाभारत इतिहासग्रन्थ है, पुराणग्रन्थ नहीं। अगर पुराणशब्द का सम्बन्ध अष्टादशपुराण से होता तो शङ्कराचार्य वहा उदाहर के रूपमें कोई एक पुराण का नाम लिखते। लेकिन उनहोने इतिहासग्रन्थ का नाम लिखा। अर्थ स्पष्ट है की वे भी ‘इतिहासपुराणम्’ शब्द से इतिहास को ही ग्रहण करते थे।

लेकिन शाङ्करभाष्यमें एक क्षति है। इतिहास के उदाहरणमें महाभारत शब्द का उपयोग अयोग्य है क्युं की छान्दोग्य उपनिषद् का काल महाभारत से अनेकवर्ष पूर्व का है। तो फिर छान्दोग्य उपनिषद् के कर्तानें वहाँ महाभारत आदि के लिये ‘इतिहासपुराणम्’ शब्द का प्रयोग कैसे किया होता? यह असभ्मव है। महाभारत तो आधूनिक इतिहास है। लेकिन सनातनधर्म का इतिहास अनेक साल पुराणा है। महाभारत से पहले भी सनातनधर्म था। इसलिये इतिहास शब्द से महाभारत को ग्रहण करना योग्य नहीं है। लेकिन यह अलग विषय है।

हम सर्वप्रकार से सिद्ध कर चूके है कि ‘इतिहासपुराणम्’ शब्द प्राचीन इतिहास के सन्दर्भ में प्रयोग हुवा है, अष्टादशपुराण के लिये नहीं। दयानन्दजी का मत आज भी अजेय है तथा पौराणिको के पास आज भी इसका कोई उत्तर नहीं।

||ओ३म॥

अनवर जमाल को जवाब -१ “आर्यसमाज पर १०८ प्रश्नों का धारदार जवाब”

लेखक- सी.ए.ए CAA (Pt. Chamupati Ki Atma)

अनवर जमाल जी की भूमिका-१ (लेख १)

∆ भूमिका-

मुस्लिम पक्षकारों व प्रचारकों में से के एक लेखक डॉ अनवर जमाल जी ने आर्यसमाज व महर्षि दयानंद पर एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है ‘स्वामी दयानंद ने क्या पाया क्या खोया: आर्यसमाज से १०८ सवाल’। यह पुस्तक पहले संक्षिप्त ब्लॉग व पुस्तक रूप में थी। श्री राजवीर आर्य जी ने उस पुस्तक का जवाब ‘किताबुल्ला वेद या कुरान’ में दिया था। आज तक इस पुस्तक पर जमाल जी की लेखनी चली हो, ऐसा अब तक देखने में नहीं आया। इसी तरह ब्लॉग रूप में तत्कालीन संक्षिप्त पुस्तक के अनुसार इनका खंडन श्री अनुज जी ने किया था। परंतु उसके बाद जमाल साहब ने अपनी पुस्तक का विस्तृत संस्करण लाया। यह ब्लॉग रूप में भी उपलब्ध है। अब तक आर्यसमाज के किसी लेखक ने इस पुस्तक पर लेखनी नहीं उठाई है। दरअसल इनकी पुस्तक में उत्तर देने लायक विशेष कुछ नया न था। वही पौराणिकों और मुसलमान की १५० सालों से चल रहे घिसे-पिटे आक्षेपों का संकलन है। इसलिये आर्यसमाज के शीर्षस्थ विद्वानों ने इसकी प्रायः उपेक्षा ही की है। परंतु मुसलमानों को इस पुस्तक पर ऐसा दंभ जाग गया, मानो आर्यसमाजी इनसे पूरी तरह निरुत्तर ही हो गये हैं! अतः हमने इस पुस्तक पर लेखनी उठाने की सोची। लगभग चार माह के लगातार परिश्रम से यह पुस्तक अब पाठकों के समक्ष है।श्री अनुज जी ने कुछ आरंभिक आक्षेपों का जवाब दिया है, उन्हीं के अनुसार हमने विस्तार कर हमने समाधान दिया है।
बाकी कई समाधान हमने अलग से दिये हैं। पुस्तक में स्थान-स्थान पर इस्लाम पर भी आलोचना की गई है ताकि आर्यसमाज पर वार करने वाले मुसलमानों को इस्लाम की असली तस्वीर दिहो।
ऐसी आपत्तियाँ पहले डॉ अली सीना, इब्ने वराक,अली असगर,एम.ए खान,अबुल कासिम,अनवर शेख प्रभृति पूर्व मुस्लिम विद्वानों ने भी उठाई हैं। हम उनके शोध का भी आभार व्यक्त करते हैं। श्री बृजनंदन शर्मा जी के ‘भंडाफोडू’ ब्लॉग की भी सामग्री का प्रयोग किया गया है। ये ऐसी आपत्तियाँ हैं, जिनसे मुसलमान सदा ही दूर भागते हैं। इन सभी लेखकों को हम धन्यवाद देते हैं।

हमने कई जगह अनवर जमाल जी के लेख का पूरा भाग लिया है,तो सहीं केवल उसका सारांश लिखकर उत्तर दिया है,ताकि पाठकों को सुविधा हो।बाकी वे डॉ अनवर जमाल जी के ब्लॉग पर उनकी पुस्तक पीडीएफ व पोस्ट रूप में देख सकते हैं। आलोच्य विषय, जोकि जमाल जी की पुस्तक में हैं, वे रोमन क्रमांकों में हैं और जो क्रमांक देवनागरी में हैं,वे हमने दिये हैं ताकि पुस्तक के विषयों में तारतम्यता हो तथा पाठकों को पढ़ने में सरलता हो।

प्रश्न-१-
सच्चा योगी गुरू न मिला, नशे की लत पड़ी-

वह स्वयं कहते हैं-
‘दुर्भाग्य से इस स्थान पर मुझे एक बड़ा व्यसन लग गया अर्थात् मुझको भंग सेवन करने का अभ्यास पड़ गया और प्रायः उसके प्रभाव से मैं मूर्च्छित हो जाया करता था।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित्र, पृ.50, षष्टम् संस्करण, मूल्यः250 रुपये, प्रकाशकः आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट 455 खारी बावली, दिल्ली 110006, दूरभाषः 23958360)
   
उत्तर-
आपने यहां पर ईमानदारी से काम नहीं लिया। महर्षि दयानंद को सच्चे परमात्मा की खोज में कई संप्रदायों व गुरुओं की शरण में जाना पड़ा। इसी तरह एक बार उनको भांग पीने की लत लग गई थी। इस भूल को उन्होंने सहर्ष स्वीकार भी किया था। यह एक महापुरुष की निष्पक्षता को ही दर्शाता है। अनवर जी बिना पूरी बात बताये असूया वृत्ति से आक्षेप कर रहे हैं।
आपने यह नहीं बताया कि महर्षि दयानंद ने उसके बाद सदा के लिये नशा करना छोड़ दिया था,देखिये:-
“आगे कोे भांग का सेवन बिलकुल त्याग दिया।”
( पं लेखराम कृत महर्षि जीवनचरित्र पेज नंबर ३८, प्रथम पैराग्राफ अंतिम पंक्ति)

मेरे पास जो महर्षि दयानंद का सम्पूर्ण जीवन चरित्र, पं लक्ष्मण जी कृत रखा है, उसमें यों लिखा है:-

“फिर स्वामी जी ने भांग का प्रयोग सर्वथा त्याग दिया।”

श्री स्वामीजी ने वाणी व लेखनी से सब मादक पदार्थों के सेवन के विरुद्ध प्रबल आंदोलन चलाया ।आप ने सरकार से कहा -“इससे तो यह उचित है कि मध्य अफीम गांजा भांग इनके ऊपर चौगुना कर ( यानी चार गुना टैक्स लगाया जाये) स्थापन किया जाए क्योंकि नशादिकों का कि छूट जाना ही अच्छा है और जो मद्य आदि बिल्कुल ही छूट जाए तो मनुष्य का बड़ा अहोभाग्य ।(सत्यार्थ प्रकाश प्रथम संस्करण समुल्लास 11)

( महर्षि दयानंद सरस्वती:- सम्पूर्ण जीवनचरित्र, भाग-१, पेज ८३, पैराग्राफ २, अंतिम पंक्ति)

यहां साफ है कि महर्षि दयानंद भांग के नशे को गलत मानते थे। इसलिये इसे लत कहा, और कहा कि ये दुर्भाग्य से ऐसा हुआ। फिर संकल्प करके इस लत को छोड़ दिया।
पाठकगण! आर्यसमाज तो स्पष्ट रूप से मानता है कि महर्षि दयानंद को कुछ समय के लिये भांग पीने की लत लगी थी, जो बाद में सदैव के लिये खत्म हो गई। आपने जबरन पाठकों ते सामने यह तथ्य न रखकर उनकी आंखों में धूल झोंकने का काम किया है।

और फिर आप खुद ही लिखते हैं कि सत्य खोजने में कुछ छद्म गुरु भी हमें मिल जाते हैं-

“मक़सद और तरीक़ा, दोनों ग़लत” शीर्षक से-

“जब कोई मनुष्य गुरू की खोज में निकलता है तो उसे ऐसे बहुत से नक़ली गुरु मिलते हैं जिन्हें खुली आँखों से नज़र आने वाली चीजों तक की सही जानकारी नहीं होती लेकिन वे ईश्वर और आत्मा जैसी हक़ीक़तों के बारे में अपने अनुमान को ज्ञान बताकर लोगों को भटका देते हैं।”

अतः बहुत समय तक वे भ्रमित रहे,पर अंततः उनको सत्य का ज्ञान हो ही गया।

प्रश्न-२-
“क्या दयानंद जी ने अधूरे में शिक्षण छोड़ दिया?”

योगी गुरू की खोज में असफल होने के बाद वह मथुरा में विरजानन्द स्वामी जी से मिले। विरजानन्द स्वामी जी कहते थे कि ‘तीन वर्ष में व्याकरण आता है’। स्वामी दयानन्द जी ने उनसे व्याकरण भी पूरे तीन साल नहीं पढ़ा। यहां रहने के दौरान भी स्वामी जी को सत्य-असत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाया।

उत्तर-
महर्षि दयानंद ने व्याकरण पूरे तीन साल नहीं पढ़ा,बीच में ही छोड़ दिया- ऐसा आपने कोई प्रमाण नहीं दिया। उन्होंने उपदेश मंजरी में अपना स्वकथित जीवनचरित्र सुनाया था,उसमें उन्होंने कहा है-

“….मैं मथुरा में आया। वहाँ मुझे एक धर्मात्मा संन्यासी गुरु
मिले । उनका नाम स्वामी विरजानन्द था, वे पहले अलवर में रहते थे।इस समय उनकी अवस्था ८१ वर्ष की हो चुकी थी। उन्हें अभी तक वेद,शास्त्र आदि आर्ष ग्रन्थों में बहुत रुचि थी। ये महात्मा दोनों आँखो से अन्धे थे और इनके पेट में शूल रोग था। ये कौमुदी और शेखर आदि नवीन ग्रन्थों को नहीं अच्छा समझते थे और भागवत आदि पुराणों का भी खण्डन करते थे। सब आर्ष ग्रन्थों के वे बड़े भक्त थे। उनसे भेंट होने पर उन्होंने कहा कि तीन वर्ष में व्याकरण आ जाता है । मैंने उनके पास पढ़ने का पक्का निश्चय कर लिया। …….
विद्या समाप्त होने पर मैं आगरे में दो वर्ष तक रहा, परन्तु पत्रव्यवहार के द्वारा या कभी-कभी स्वयं गुरु की सेवा में उपस्थित होकर अपने सन्देह निवृत्त कर लेता था। आगरे से मैं ग्वालियर को गया, वहाँ कुछ-कुछ वैष्णव मत का खण्डन आरम्भ किया, वहाँ से भी स्वामी जी को पत्रादि भेजा करता था। “
( उपदेश मंजरी, उपदेश १५, पृ.१०९)

यहाँ पर स्वामीजी के लेख से तो इतना समझ में आ रहा है कि,प्रथम तो, उनका शिक्षण पूरा हो चुका था,यानी तीन सालों तक उनका अध्ययन हुआ ही!यदितीन वर्ष न भी मानो, तो महर्षि दयानंद एक प्रतिभावान छात्र थे। वे पहले ही कौमुदी आदि क्रम से व्याकरण पढ़ चुके थे। ऐसे विद्यार्थी को महाभाष्य जल्दी हस्तगत हो ही जाता है। यदि आपको विश्वास नहीं तो आर्यसमाज के गुरुकुलों में पूछ आइये। रोजड़,रेवली और तेलंगाना में ऐसे गुरुकुल बहुत प्रसिद्ध हैं।
कई छात्र कम आयु में आईएएस व आईआईटी जैसी परीक्षायें उत्तीर्ण कर लेते हैं। ऐसी असाधारण प्रतिभा महर्षि में भी थी।
उपरोक्त प्रमाण से यह भी पता चला कि विद्या पूरी होने के बाद भी वे गुरु के सान्निध्य में ही रहे। तब उनकी विद्या कैसे पूरी न बुई होगी?

दूसरे, वे बराबर पत्राचार व प्रत्यक्ष उपदेश सुन कर शंकासमाधान आदि कर भी लेते थे, अर्थात् उनका अध्ययन तब सतत् चल रहा था।असल में व्यक्ति जीवनभर कुछ न कुछ सीखते ही रहता है। फिर भी, व्याकरण का अध्ययन उन्होंने पूरा कर ही लिया था। व्याकरण के विषय में उनकी टक्कर का कोई विद्वान उनके गुरु के सिवा उस काल में न था।

∆ मुहम्मद साहब की विद्या-

इस्लाम वालों के अनुसार मुहम्मद साहब एक अनपढ़ व्यक्ति थे—

क्यों जी! महर्षि दयानंद तो आपके रसूल से अधिक ही जानते थे,जो वो कई सालों तक व्याकरण,वेद,योग आदि विद्या पढ़ते रहे और जीवनभर स्वाध्यायशील रहे। कम-से-कम आपके उम्मी रसूल से तो बेहतर ही थे।
( वो बात अलग है कि बाद में मुहम्मद साहब कुछ लिख पढ़ लिये थे,ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं।)

प्रश्न-३-
विद्या पाकर स्वामी जी ने शैव की स्थापना की?

मथुरा के बाद वह 2 वर्ष आगरा में रहे। इसके बाद वह ग्वालियर और करौली पहुंचे और फिर वह जयपुर पहुंच गए। इतनी लंबी यात्रा करने और इतनी विद्या पाने के बाद भी स्वामी जी को धर्म और सत्य का कुछ पता न चल पाया था। स्वामी जी कहते हैं-
‘वहां से आगे जयपुर को गया-वहां एक हरिश्चन्द्र विद्वान पंडित था। वहां मैंने प्रथम वैष्णवमत का खंडन करके शैवमत की स्थापना की। जयपुर के राजा महाराजा रामसिंह ने भी शैवमत को ग्रहण किया। इससे शैवमत का विस्तार हुआ और सहस्रों मालाएं मैंने अपने हाथ से दीं। वहां शैवमत इतना पक्का हुआ कि हाथी, घोड़े आदि सबके गले में भी रूद्राक्ष की मालाएं पड़ गईं।’ (म.द.स. का जी.च., पृ.53-54)
    विदा होते समय विरजानन्द स्वामी जी द्वारा उन्हें आर्ष ग्रन्थों के प्रचार की आज्ञा देना बताया जाता है, उसका क्या हुआ?

उत्तर-

महोदय! महर्षि दयानंद जी पहले शैव,वाममार्ग,योग,अद्वैत आदि कई मत-सम्प्रदायों में रहे और उन्होंने उनको पढ़ा भी। धीरे-धीरे शुद्ध वेदोक्त धर्म की ओर अग्रसर हुये। ऐसे में बचपन में शैव मत के संस्कारों का उनपर कुछ-कुछ प्रभाव रहा होगा। परंतु हम ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं, विरजानंद जी से उनका संवाद बाद में भी होता था और वे शंकासमाधान भी किया करते थे। इसी प्रकार उन्होंने अपने विचारों में परिष्कार किया और बाद में शैवमत का भी खंडन किया-

“शैवमत के फैलने पर हजारों रुद्राक्ष की मालायें मैंने अपने हाथों से लोगों को पहनाई। वहाँ शैवमत का इतना प्रचार हुआ कि हाथी घोड़ों के गले में भी रुद्राक्ष की माला पहनाई गई।
जयपुर से मैं पुष्कर को गया, वहाँ से अजमेर आया। अजमेर
पहुँचकर शैवमत का भी खण्डन करना आरम्भ किया। इसी बीच में जयपुर के महाराजा साहब लाट साहब से मिलने के लिए आगरे जाने वाले थे। इस आशंका से कि कहीं वृन्दावन निवासी प्रसिद्ध रंगाचार्य से शास्त्रार्थ न हो जावे, राजा रामसिंह ने मुझे बुलाया और मैं भी जयपुर पहुँच गया, परन्तु यह मालूम होने पर कि मैंने शैवमत का खण्डन आरम्भ
कर दिया है, राजा साहब अप्रसन्न हुए। इसलिए मैं भी जयपुर छोड़कर मथुरा में स्वामीजी के पास गया और शंका-समाधान किया। वहाँ से फिर हरद्वार को गया, वहाँ अपने मठ पर पाखण्ड-मर्दन लिखकर झण्डा खड़ा किया। वहाँ वाद-विवाद बहुत-सा हुआ। फिर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि सारे जगत् से विरुद्ध होकर भी गृहस्थों से बढ़कर
पुस्तक आदि का जंजाल रखना ठीक नहीं है। इसलिए मैंने सब कुछ छोडकर केवल एक कौपीन (लंगोट) लगा लिया और मौन धारण किया। इस समय जो शरीर में राख लगाना शुरू किया था, वह गत वर्ष बम्बई मे आकर छोड़ा। वहाँ तक लगाता रहा था।”
( उपदेश मंजरी, प्रवचन १५, स्वामीजी की आत्मकथा, पृ.११०)

यह पढ़कर स्पष्ट होता है कि स्वामीजी ने वैष्णवमत की तरह शैवमत का भी खंडन किया। हाँ, उनको कुछ शंका होने के कारण उनको यह शैवमत सही लगा होगा,पर बाद में उन्होंने इसका भी मिथ्यात्व जाना व इसका भी खंडन किया। यदि ऐसा भी मान लें तो महर्षि दयानंद की परिष्कार वृत्ति ती सराहना होनी चाहिये।
यह भी सिद्ध होता है कि वे बीच-बीच में अपने गुरु से शंका समाधान आदि करते रहते थे। इसी से उनकी विचारधारा में परिष्कार आया।

महर्षि दयानंद के जीवनी-ग्रंथ के लेखक पं लक्ष्मण जी के अनुसार, ऋषि ने शैवमत स्थापन वैष्णव मत के पाखंड के खंडन में किया था। यह एक तरह की कूटनीति थी-

“१६. कूटनीति (पालिसी) धर्म विरुद्ध है
थियासोफिकल सोसाइटी वालों को जब स्वामी जी ने नई
पोलिसी पर कार्य करते हुए समझा तो उनसे सम्बंध विच्छेद की घोषणा करने लगे परन्तु सामाजिक सदस्य चाहते थे कि आप नीति से कार्य लेवें। स्वामी जी ने कहा, “मैं अब तुम्हारी बात नहीं मानूँगा। पालिसी से कार्य करना धर्म विरुद्ध है।पहले जयपुर में महाशयों की प्रेरणा पर हमने वैष्णव के सामने शैवमत को अच्छा सिद्ध किया तो वहाँ सब मनुष्यों तथा राजगृह के हाथी घोड़ों तक को रुद्राक्ष पहनाय गए। अब तक पुराना कोई कोई व्यक्ति जब मिलता है तो रुद्राक्ष दिखाकर चिढ़ाता है कि यह वहीं है जिसके गुण आपने गाये थे। अत: धर्म विषय में अब तो हम कदापि पालिसी का हस्तक्षेप न होने देंगे। और शुद्ध सत्य ही कहेंगे।”
( महर्षि दयानंद के प्रेरक प्रसंग, लेखक- पं लक्ष्मण जी आर्योपदेशक,प्रथम खंड,पाँचवाँ सर्ग, पृ.७७)

अतः इसके बाद स्वामीजी ने कूटनीति के अनुसार चलना छोड़ दिया। मेला चांदापुर में भी कुछ लोग उनके साथ मुसलमानों के साथ मिलकर ईसाइयों के खंडन करने का प्रस्ताव रखा था।पर स्वामीजी ने केवल सत्य बोलना ही उचित समझा और यहां पर कूटनीति नहीं अपनाई। यह विवरण उक्त पृष्ठ ७७ की पादटिप्पणी में है।

रही बात आपके आर्ष ग्रंथों के प्रचार की,तो स्वामीजी शैवमत में रुद्राक्ष धारण व भस्मधारण आदि को कदाचित् कालाग्निरुद्रोपनिषद व यजुर्वेद के कुछ मंत्रों के अनुसार सही मान रहे थे। यानी उनको लगता था कि शैवमत की यह परंपरा आर्ष ही है। परंतु बादमें उनको सत्य का ज्ञान हुआ, और उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में लिखा-

(प्रश्न) कालाग्निरुद्रोपनिषद् में भस्म लगाने का विधान लिखा है। वह क्या झूठा है? और ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः०’ यजुर्वेदवचन। इत्यादि वेदमन्त्रें से भी भस्म धारण का विधान और पुराणों में रुद्र की आंखों के अश्रुपात से जो वृक्ष हुआ उसी का नाम रुद्राक्ष है। इसीलिये उसके धारण में पुण्य लिखा है। एक भी रुद्राक्ष धारण करे तो सब पापों से छूट स्वर्ग को जाय। यमराज और नरक का डर न रहै।

(उत्तर) कालाग्निरुद्रोपनिषद् किसी रखोड़िया मनुष्य अर्थात् राख धारण करने वाले ने बनाई है। क्योंकि ‘याऽस्य प्रथमा रेखा सा भूर्लोक ’ इत्यादि वचन उस में अनर्थक हैं। जो प्रतिदिन हाथ से बनाई रेखा है वह भूलोक वा इस का वाचक कैसे हो सकते हैं। और जो ‘त्र्यायुषं जमदग्नेः०’ इत्यादि मन्त्र हैं वे भस्म वा त्रिपुण्ड्र धारण के वाची नहीं किन्तु ‘चक्षुर्वै जमदग्नि ’ शतपथ। हे परमेश्वर! मेरे नेत्र की ज्योति (त्र्यायुषम्) तिगुणी अर्थात् तीन सौ वर्ष पर्यन्त रहै और मैं भी ऐसे धर्म के काम करूँ जिससे दृष्टिनाश न हो। भला यह कितनी बड़ी मूर्खता की बात है कि आंख के अश्रुपात से भी वृक्ष उत्पन्न हो सकता है? क्या परमेश्वर के सृष्टिक्रम को कोई अन्यथा कर सकता है? जैसा जिस वृक्ष का बीज परमात्मा ने रचा है उसी से वह वृक्ष उत्पन्न हो सकता है अन्यथा नहीं। इससे जितना रुद्राक्ष, भस्म, तुलसी, कमलाक्ष, घास, चन्दन आदि को कण्ठ में धारण करना है वह सब जंगली पशुवत् मनुष्य का काम है। ऐसे वाममार्गी और शैव बहुत मिथ्याचारी, विरोधी और कर्त्तव्य कर्म के त्यागी होते हैं। उन में जो कोई श्रेष्ठ पुरुष है वह इन बातों का विश्वास न करके अच्छे कर्म करता है। जो रुद्राक्ष भस्म धारण से यमराज के दूत डरते हैं तो पुलिस के सिपाही भी डरते होंगे!! जब रुद्राक्ष भस्म धारण करने वालों से कुत्ता, सिह, सर्प्प, बिच्छू, मक्खी और मच्छर आदि भी नहीं डरते तो न्यायाधीश के गण क्यों डरेंगे?

( सत्यार्थप्रकाश, एकादश समुल्लास, शैवमतखंडन विषय)

यहाँ पर भी स्वामीजी का परिष्कार सिद्ध है।
ऐसा कभी नहीं होता कि आप गुरु के पास कुछेक साल रहें, और आपके आचरण और ज्ञान में तुरंत परिष्कार आ जाये। यह सैद्धांतिक परिपक्वता धीरे-धीरे, साधना,स्वाध्याय व सत्संग से आती है। एक रात में ऐसा ब्रह्मज्ञान नहीं मिल जाता।

अनवर साहब! आपको महर्षि के सत्याग्रही चरित्र की प्रशंसा करनी चाहिये,कि सत्य जानकर वे तुरंत झूठ को त्याग देते थे।परंतु आप तो आलोचना करने बैठ गये!

∆ मुहम्मद साहब का हलाल-हराम विषयक भ्रांति ∆

रसूलुल्लाह को हराम और हलाल विषयक भ्रांति थी। खैबर के युद्ध में वे कभी गधा खाने से मना करते थे,कभी घोड़ा खाने से।कभी दोनों को ही एक साथ खाते थे।

गधा मार कर खाया-
“अब्दुल्लाह  बिन अबू   कतदा ने  कहा  कि खैबर    के  समय  हम  लोग  इहराम   की  हालत  में ,  और  दुश्मन  छुपे  हुए थे   तभी हमारी   नजर एक   गधे  पर  पड़ी  हमने उसे  भाले  से   मार   दिया  और काट कर  उसका गोश्त  पका  कर रसूल  के साथ  मिल  कर   खा  लिया “
” we saw a  ass. and  attacked It with a spear and we ate its meat.”
सही मुस्लिम – किताब 7 हदीस 2710

गधा नही घोड़ा  खाओ-
“जबीर  बिन  अब्दुल्लाह  ने  कहा  कि  खैबर  की लड़ाई   के समय रसूल  ने कहाथा कि गधे   का  गोश्त खाना  गैर कानूनी   है इसलिए  तुम घोड़े का  गोश्त  खाया  करो। “
“Allah’s Messenger  made donkey’s meat unlawful and allowed the eating of horse flesh “

सही बुखारी – जिल्द 7 किताब 67 हदीस 429

गधे  के साथ  घोड़ा  भी   खाया-
“अबू  जुबैर   और  जबीर  बिन अब्दुल्लाह  ने   बताया  कि  खैबर  में  हमने  गधे  के साथ घोड़े  का गोश्त भी  खाया था। 
“At the time of Khaibar we ate horses and  donkeys.”

 सुन्नन  इब्ने  माजा (अरबी संदर्भ)- किताब 27   हदीस 3312(दारुस्सलाम के अनुसार सही हदीस)
English reference : Vol. 4, Book 27, Hadith 3191
Arabic reference : Book 27, Hadith 3312

प्रतीत होता है कि रसूल साहब खुद पता नहीं लगा पाये कि हलाल और हराम असल में है क्या? ये वही मुहम्मद साहब हैं, जिनके जीवन की सेक्स-लाइफ़ तक पर अल्लाह आयतें उतारता था परंतु उनको हलाल-हराम का भी ठीक-ठीक ज्ञान न दे सका! इससे पता चला कि हजरत विषमस्थबुद्धि थे। आप अपने ‘कयामत तक सर्टिफाइड रसूल’ के चरित्र की मीमांसा कर लीजिये,फिर महर्षि पर कुछ लिखिये। महर्षि जी कोई सृृष्टि बनने से पहले ही सर्टिफाइड एकमात्र गुरु नहीं थे जिनके ‘अगले और पिछले पाप माफ हो गये थे’।

देखिये-
अबू हुरैरा कहते हैं सहाबा ने कहा अल्लाह के रसूल आप नबूवत के मनसब ( नबी के पद में ) से कब नवाज़े गए ( या कब से आसीन हैं ) ? रसूल ने फरमाया जब आदम शरीर और आत्मा के बीच में थे।

यहां पर अबू हुरैरा ने कहा कि आदम के जन्म से पहले मुहम्मद साहब को नबूवत मिल गई थी। मगर किस कर्म के अनुसार उनको यह फल मिला? बिना कर्म के किसी को भी नबी बना दो, कैसा न्याय है?
( मिश्काल अल मसाबीह, हदीस ५७५८)

जबकि इसके विपरीत महर्षि दयानंद एक आम इंसान थे, जिन्होंने मूलशंकर से लेकर महर्षि दयानंद तक का सफर तय किया और निरंतर परिष्कार करते रहे।

प्रश्न-४-

स्वामी जी की राय शैवमत के बारे में

(आगे सत्यार्थप्रकाश से शैवमतखंडन विषय का उद्धरण देकर कहा है-)

स्वामी जी ने स्वयं भी एक शैव परिवार में जन्म लिया था। विजानन्द स्वामी जी से व्याकरण पढ़ने के बाद भी उन्हें यह पता नहीं चला था कि ‘मैं कौन हूँ’, जो कि उनके द्वारा विरजानन्द जी से पूछना बताया जाता है।

उत्तर-
डॉक्टर साहब! क्या आपको लगता है कि ‘मैं कौन हूँ’ का ज्ञान इतनी आसानी से व्यक्ति के आचरण में आ जाता है? जी नहीं। यह एक जटिल प्रक्रिया है। केवल उपनिषद आदि पढ़कर तो यह सिद्धांत पता लग जाता है, पर आत्मसाक्षात्कार योगी स्वयं ही योगसाधना व यथार्थ ज्ञान के द्वारा करता है। इस ज्ञान को निरंतर श्रवण,मनन और निदिध्यासन से साधा जाता है।तब कहीं जाकर यह ज्ञान व्यक्ति के आचरण में आता है। उपनिषद कहते हैं कि विरला ही व्यक्ति उस परमात्मा तक पहुंचने के मार्ग पर चल पाता है और विरला आदमी ही उसका साक्षात्कार कर पाता है।
महर्षि दयानंद ने यह ज्ञान पाया,परंतु एक रात में नहीं। सतत् स्वाध्याय,शंकासमाधान,साधना आदि से इसे प्राप्त किया। इस बीच कुछ गलतियां उनसे हुईं , उन्होंने उनको सुधारा और आगे बढ़े।
हाँ, आपके हजरत मुहम्मद भले ही सृृष्टि बनने के पहले से सर्टिफाइड नबी थे, उसके बाद भी ४० साल की अवस्था तक उन पर नबूवत नाजिल न हुई। इसका क्या कारण हा?

∆ मुहम्मद साहब के अगले और पिछले गुनाह ∆

‘ताकि अल्लाह तुम्हारे अगले और पिछले गुनाहों को क्षमा कर दे और तुमपर अपनी अनुकम्पा पूर्ण कर दे और तुम्हें सीधे मार्ग पर चलाए।’
( कुरान सूरा फतह ४८/२)

Indeed, We have given you, [O Muhammad], a clear conquest.That Allah may forgive for you what preceded of your sin and what will follow and complete His favor upon you and guide you to a straight path.
( Sahih International Quran translation 48:1,2)

आयशा ने कहा कि -“रसूलुल्लाह (स.) जब भी मुसलमानों को कुछ करने का आदेश देते थे,तब वे उनको ऐसे कर्म करने का आदेश देते थे जो उनके लिये आसान थे (उनके शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार) । वे बोले-‘ऐ रसूलुल्लाह! हम आपकी तरह नहीं हैं। अल्लाह ने आपके अगले और पिछले पाप क्षमा कर दिये हैं।’ तो रसूल क्रुद्ध हो गये और यह उनके चेहरे पर स्पष्ट दिख रहा था। उन्होंने कहा-‘मैं अल्लाह से सबसे अधिक डर रखने वाला हूं और तुमसे बेहतर अल्लाह को जानता हूं।”
[( सही बुखारी, जिल्द १ किताब २ हदीस १९)
Reference : Sahih al-Bukhari 20In-book reference : Book 2, Hadith 13USC-MSA web (English) reference : Vol. 1, Book 2, Hadith 20  (deprecated numbering scheme)]

महर्षि दयानंद ऐसा दावा कभी नहीं करते थे कि उनको ईश्वर ने मुहर लगाकर ऋषि-मुनि के रूप में भेजा है। उन्होंने अपनी विद्या और तपःसाधना से ऋषित्व प्राप्त किया। कठोर परिश्रम के बाद ही उनको सच्चे शिव व ‘मैं कौन हूँ’ का ज्ञान मिला। महोदय! छांदोग्योपनिषद में श्वेतकेतु भी गुरुकुल से ब्रह्मविद्या सीखकर भी ब्रह्मज्ञानी न बने। उनको अपने पिता से उपदेश लेना पड़ा। महाभारत, मोक्षधर्मपर्व में शुकदेव जी भी व्यास मुनि से पहले विद्या पढ़ते हैं। जब उनकी संतुष्टि नहीं हुई, तब उनको राजा जनक के पास उपदेश हेतु भेजा गया। इससे पता चला कि मात्र गुरुमख से सुनकर ब्रह्मज्ञान नहीं होता। तदनुकूल आचरण व कठोर परिश्रम भी जरूरी होता है।

∆ इस्लाम की सस्ती मुक्ति-

हाँ, इस्लामी जन्नत बहुत आसानी से प्राप्त हो जाती है।कोई व्यक्ति चाहे कितना ही पापी हो, रसूलुल्लाह पर ईमान लाकर मुक्ति मिल जाती है। ध्यान से पढ़िये-

अबू ज़र ने कहा कि रसूलुल्लाह ने कहा- मेरे अल्लाह की ओर से कोई आया और उसने मुझे यह खुशखबरी दी कि,” मेरे अनुयायियों में से यदि कोई अल्लाह को छोड़कर किसी की उपासना नहीं करता,वो हर तरह से जन्नत जायेगा।” मैंने पूछा, “तब भी जन्नत जायेगा यदि उसने नियमविरुद्ध संभोग ( व्यभिचार) और चोरी की हो ?” उन्होंने जवाब दिया,” हाँ,तो भी जन्नत जायेगा यदि व्यभिचार और चोरी की हो।”
( सही बुखारी, जिल्द २ किताब २३ हदीस ३२९)

Narrated Abu Dhar:

Allah’s Messenger (ﷺ) said, “Someone came to me from my Lord and gave me the news (or good tidings) that if any of my followers dies worshipping none (in any way) along with Allah, he will enter Paradise.” I asked, “Even if he committed illegal sexual intercourse (adultery) and theft?” He replied, ” Even if he committed illegal sexual intercourse (adultery) and theft.”

Sahih al-Bukhari 1237 /In-book : Book 23, Hadith 1 /USC-MSA web (English) : Vol. 2, Book 23, Hadith 329  (deprecated)

इसका अर्थ यह है कि मात्र अल्लाह पर ईमान लाकर जन्नत मिल सकती है। चाहे कोई मोमिन व्यभिचारी और चोर ही क्यों न हो! वाह! इससे सस्ता सौदा क्या होगा!! जमाल साहब! वैदिक धर्म के अनुसार मुक्ति के लिये बहुत परिश्रम करना होता है,कई नियम पालन करने होते हैं; यह नहीं कि रसूल और अल्लाह पर ईमान ले आओ और मुक्ति हो जाये।
ऊपर वाली हदीस के अनुसार ही आतंकवादी चोर,बलात्कारी होकर भी जन्नत जायेंगे। ओसामा बिन लादेन,याकूब मेमन और बगदादी जैसे नरपिशाच भी जन्नती होंगे, क्योंकि वो कुरानी अल्लाह पर ईमान रखते थे।

अनवर जमाल की भूमिका-१ (लेख २)

प्रश्न-५-स्वामी जी ने जिस उद्देश्य के लिए घर छोड़ा उसे पूरा न कर पाए । न उन्हें शिव मिला और न ही मृत्यु से बच पाए ।

जवाब :-
स्वामी जी के घर छोड़ने के दो कारण थे-एक तो सच्चे शिव की खोज ,दूसरा था कि मृत्यु से कैसे तरा जाए ।दयानंद जी ने अपने दोनों लक्ष्य को प्राप्त किया और उसके बाद ही समाज सुधार और पाखंड खंडन में लगे ।
उनका पहला लक्ष्य सच्चे शिव की खोज करना था । वह शिव कैसा है ,क्या-क्या उसके गुण हैं? गुरु विरजानंद जी से वेदादि शास्त्रों की विद्या प्राप्त करके उन्हें सच्चे शिव का बोध हुआ,जिसका वर्णन वेदों में है कि वह शिव तो निराकार,निर्विकार,अजन्मा,अजर,अमर,सर्वव्यापक,न्यायकारी और चेतन सत्ता है।वह ईंट पत्थर की मूर्तियों की पूजा करने से नहीं मिलता,बल्कि योग समाधि से प्राप्त होता है ।स्वामी दयानंद जी ने उस सच्चे शिव को जानकर योग समाधि द्वारा उस सच्चे शिव की उपासना की ।
उनका घर छोड़ने का दूसरा कारण मृत्यु आदि दुखों से बचना था । मृत्यु का दुःख मनुष्य को तब होता है जब वो शरीर को ही सब कुछ मान बैठता है और आत्मा के स्वरूप को नहीं जान पाता । मूलशंकर जी भी उस अबोध आयु में समय शरीर को ही सब कुछ समझते थे इसलिए उन्होंने मृत्यु से बचने का उपाय ढूँढने के लिए घर छोड़ा ,लेकिन जब उन्हें आत्मा के सत्य स्वरूप बोध हुआ ;तब उन्होंने जाना की ये शरीर मैं नहीं हूँ ,मैं तो इस शरीर के अंदर वास करने वाली आत्मा हूँ –जो अजर- अमर है ,मुझे कोई मार नहीं सकता ,मुझे कोई जला नहीं सकता । तब उनको समझो मृत्यु के दुःख से छुटकारा मिल गया । इसीलिये ऐसी मौत के बावजूद भी उनके चेहरे पर दुःख नहीं था कोई पीड़ा नहीं थी और उन्होंने मुस्कुराते हुए प्राण त्याग दिए । अर्थात् जिन दो कारणों से उन्होंने घर छोड़ा उन दोनों को उन्होंने प्राप्त किया । इसलिए डॉ.अनवर साहब का ये दावा बिलकुल मिथ्या है की स्वामी जी ने जिस चीज के लिए घर छोड़ा उसे पा न सके । भला जो व्यक्ति अपने लक्ष्य के लिए अपना सब कुछ त्याग देता है वो बिना लक्ष्य प्राप्त किये आराम से बैठ सकता था ? जिसने हजारों मील की पैदल यात्रायें सत्य की खोज के लिए की हो,वो बिना लक्ष्य प्राप्ति के चैन से बैठ सकता था ?

महर्षि दयानंद ने गृहत्याग करके ईश्वरप्राप्ति का मार्ग चुना।यह मार्ग बहुत जटिल है।यदि वे गृहत्याग व वैराग्य धारण न करते,तो मुक्ति पा न सकते। इस पर उपनिषद भी कहता है-

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिंगात् ।
एतैरुपायैर्यतते यस्तु विद्वान्स्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम ।।4।।
( मुंडकोपनिषद , मुंडक ३ खंड २)

अर्थ – यह आत्मा बलहीन को प्राप्त नहीं होती है, न ही धनसंपदा, परिवार के विषयों में लिप्त रहने वाले को, और न तपस्यारत किंतु संन्यासरहित व्यक्ति को । जो विद्वान एतद्विषयक उपायों को प्रयास में लेता है उसी की आत्मा परब्रह्मधाम में प्रवेश करती है ।

अतः ब्रह्म को पाने हेतु उन्हें संन्यास लेना जरूरी था। एक मुमुक्षु को जब वैराग्य हो जाता है, तब मां-बाप,घर-परिवार आदि का मोह उसे छोड़ना पड़ता है।यही काम महर्षि दयानंद ने किया।

∆ मुहम्मद साहब क्या दुःखों से बच पाये?∆

अब एक नजर हजरत पैगम्बर मुहम्मद जी के जीवन पर भी डाल लेते है।
हजरत तो स्वयं को अल्लाह का एजेंट होने का दावा करते थे। यहाँ तक की जन्नत की रिजर्वेशन का जिम्मा भी हजरत के हाथों में था वे भी दुखों से न बच पाए । अपने पुत्र की मृत्यु पर फूट-फूट कर रोना हजरत के दुखों को साफ़ दर्शाता है।आप तो ऊपर उनके संबंधियों की मृत्यु होने के विषय में लिख ही चुके हैं,दयानंद जी तो बालक होने के बावजूद भी अपने परिवार वालों की मौत पर नहीं रोये । हजरत मुहम्मद साहब ये जानते हुए भी की उनका बेटा जन्नत मे मौज करेगा ,तब भी फूट-फूट कर रोये । इसका क्या कारण हो सकता था ? यही कि हजरत को अंदाजा था ,कि जन्नत एक कोरी कल्पना है । वरना मुहम्मद साहब अल बुराक अर्थात् उड़ने वाले गधे ( या शायद खच्चर!) पर बैठ के जन्नत में अपने बेटे से मिल के आ सकते थे,फिर वो आँसू किस लिए बहाते थे?

यहाँ तक हजरत स्वंय की मृत्यु के समय रो रहे थे ,दर्द से । उन्हें शायद इस बात का दुःख रहा होगा की हजरत आयशा को भरी जवानी में तन्हा छोड़ के जा रहे है थे!यदि हजरत ने भी शरीर को सब कुछ न समझ कर आत्मा के अमरत्व को जाना होता, तो ऐसे पुत्र और मृत्यु दुःख के कारण आँसू न बहाते । इससे पता चला कि मुहम्मद साहब खुद ही न अमरत्व (मोक्ष) पा सके और न ही मृत्यु आदि दुखों से बच पाये।तब भला उन पर ईमान लाना और नमाजों में उनके नाम से प्रार्थना करना– यह मुसलमानों को आखिर क्या देगा?

प्रश्न-६-
स्वामी दयानंद जी का मकसद और तरीका दोनों गलत थे ।

जवाब :-
अनवर साहब पेशे से डॉक्टर हैं,इसलिए हमें उनसे ऐसे आक्षेप की उम्मीद बिलकुल न थी । अनवर साहब!जब मूलशंकर ने गृह त्याग किया उस समय उनकी आयु बहुत कम थी।वो इस गूढ़ रहस्य को नहीं जानते थे।वे उस समय अबोध थे।जिसके समक्ष दो परिचितों को मृत्यु हो चुकी थी । एक अनजान व्यक्ति के समक्ष ये प्रश्न खड़ा होना लाजिमी है कि वो मृत्यु से कैसे बच पाए ? जिसने घर त्यागा था ,वो मूलशंकर थे, न की महाविद्वान दयानंद जी । एक जिज्ञासु वही करता है जो उस समय मूलशंकर ने किया । अर्थात् सत्य की खोज के लिए गृह त्याग । ऐसा केवल मूलशंकर के साथ नहीं हुआ बल्कि इतिहास के बहुत से महापुरुषों के साथ ये घटना घटित हुई जैसे सिद्धार्थ , शंकराचार्य जी इत्यादि ।
यदि आपने वैदिक मान्यताओं और सिद्धांतों को पढ़ा होता तो आपको पता चलता की मनुष्य जीवन का उद्देश्य ही जन्म- मरण के बंधन से छूटना अर्थात् मोक्ष है।वही मकसद स्वामी जी का था । लेकिन न मालूम आपको क्या सूझी की बिना वैदिक मान्यताओं को जाने लेखनी चला दी और अतिरिक्त समय की बर्बादी के कुछ न किया ।
आप स्वंय लिखते है की ” जिन्दगी का मकसद और उसे पाने का तरीका सच्चा गुरु ही बता सकता है ” तो क्या मूलशंकर ने सच्चे गुरु की खोज नहीं की ? क्या मूलशंकर ने 10 सालों से ज्यादा तक सच्चे गुरु की खोज नहीं की ? और अंत में उनकी वो खोज भी पूरी हुई स्वामी विरजानंद जी के आश्रम पहुँच कर । उस सच्चे गुरु ने ही दयानंद जी को वेदों के यथार्थ शिव का बोध कराया उसे वेदों की सत्य विद्याओं से अवगत कराया। जिन्हें मूलशंकर ने केवल बचपन में पढ़ा था,लेकिन समझा नहीं था, उन विद्याओं को उन्होंने जिया!
इससे स्पष्ट है की स्वामी जी का उद्देश्य भी सही था और तरीका भी क्योंकि कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है । वैराग्य से बड़ा कोई तप नहीं होता । मूलशंकर ने सब सुख सम्पन्न होते हुये भी वैराग्य का रास्ता अपनाया इससे बढ़कर उनकी श्रेष्ठता ,क्या हो सकती थी?

महर्षि दयानंद ने जो मुक्ति का मार्ग अपनाया,वो बिलकुल सत्य व वेदशास्त्र सिद्ध था-

“अब मुक्ति बन्ध का वर्णन करते हैं-

(प्रश्न) मुक्ति किसको कहते हैं?
(उत्तर) ‘मुञ्चन्ति पृथग्भवन्ति जना यस्यां सा मुक्तिः’ जिस में छूट जाना हो उस का नाम मुक्ति है।
(प्रश्न) किस से छूट जाना?
(उत्तर) जिस से छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं?
(प्रश्न) किस से छूटने की इच्छा करते हैं?
(उत्तर) जिस से छूटना चाहते हैं?
(प्रश्न) किस से छूटना चाहते हैं।
(उत्तर) दुःख से।
(प्रश्न) छूट कर किस को प्राप्त होते और कहां रहते हैं?
(उत्तर) सुख को प्राप्त होते और ब्रह्म में रहते हैं।
(प्रश्न) मुक्ति और बन्ध किन-किन बातों से होता है?

(उत्तर) परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म्म, अविद्या, कुसंग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने; पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने; विद्या पढ़ने, पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने; सब से उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करे। इत्यादि साधनों से मुक्ति और इन से विपरीत ईश्वराज्ञाभंग करने आदि काम से बन्ध होता है।”

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयँ्सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।
-यजुः० अ० ४०। मं० १४।।

जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है वह अविद्या अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तर के विद्या अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है।

( सत्यार्थप्रकाश, नवम समुल्लास, मुक्ति विषय)

इससे पता चला कि स्वामी को लक्ष्य और उसे प्राप्त करने का तरीका यथावत् पता था और उसके अनुसार आचरण(जो हम ऊपर लिख चुके हैं) करके सफल भी हुये।

मृत्यु के समय में उन्होंने योगविद्या से ब्रह्मरंध्र से प्राण छोड़ दिये। उपनिषद इसे मुक्ति पाने का लक्षण कहता है।

प्रश्न- ७-
क्या स्वामी जी ने सीधे संन्यास लेकर मुक्ति की सीढ़ियों को तोड़ा?

¤ सीढ़ी तोड़ने के कारण स्वामी जी को न परमेश्वर मिला और न सुयोग्य शिष्य
माता, पिता, आचार्य, अतिथि और पुरुष के लिए पत्नी की अहमियत बताते हुए स्वामी जी कहते हैं- ‘ये पाँच मूर्तिमान् देव जिनके संग से मनुष्‍यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश को प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त होने की सीढ़ियाँ हैं।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृष्‍ठ 216 30वां संस्करण प्रकाशक : आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली 6)
माता-पिता को छोड़कर तो वह खुद ही निकल गए थे। विवाह उन्होंने किया नहीं इसलिए पत्नी भी नहीं थी। वह ख़ुद दूसरों पर आश्रित थे और न ही कभी उन्होंने कुछ कमाया। इस तरह उन्होंने अतिथि सेवा का मौक़ा भी खो दिया। सीढ़ी के चार पाएदान तो उन्होंने खुद अपने हाथों से ही तोड़ डाले। आचार्य की सेवा उन्होंने ज़रुर की, लेकिन वह उनके नियम भंग कर देते थे तब आचार्य  इतने ज़ोर से उन्हें डण्डा मारता था कि उसका निशान उनके शरीर पर हमेशा के लिए छप जाता था। एक बार तो विरजानन्द जी ने अपनी अवज्ञा के कारण अपनी पाठशाला से उनका नाम ही काट दिया था। इसी सीढ़ी के टूटे होने के कारण न उन्हें परमेश्वर मिला, न गुरू का प्यार मिला और न ही कोई अच्छा शिष्‍य मिल पाया। वह स्वयं कहा करते थे-
‘मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा। इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121, प्रथम संस्करण जुलाई 1994, मूल्य:  20 रुपये, लेखक : डा. नरेन्द्र कुमार, गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर उत्तराखण्ड में अध्यापक, प्रकाशक: मधुर प्रकाशन 2804 गली आर्य समाज, बाज़ार सीताराम नई दिल्ली 110006, दूरभाष : 3268231, 7513206)

अपनी सीढ़ी तोड़ डालने वालों को नादान समझना चाहिए, गुरु नहीं। भारत को विश्वगुरु के महान पद से गिराने में ऐसे अज्ञानियों का बहुत बड़ा हाथ है, जो पहले अपनी सीढ़ी तोड़ बैठे और फिर जीवन भर भटकते रहे और दूसरों को भी भटकाते रहे। स्वामी जी जैसे लोगों के जीवन से यही शिक्षा मिलती है कि लोगों को अपनी सीढ़ी की रक्षा करनी चाहिए अर्थात् अपने माता-पिता और अपने आश्रितों की सेवा करते रहना चाहिए। जो कि स्वामी जी नहीं कर पाए।

उत्तर-
आपने केवल एक पक्ष को उठा लिया और महर्षि दयानंद पर ‘सीढ़ियाँ तोड़ने’ का कल्पित आरोप लगा दिया। आपने सत्यार्थप्रकाश आदि महर्षि कृत ग्रंथों को भी ढंग से न पढ़ा।यदि पढ़ा भी है तो हठ व दुराग्रह से बस हृदय की अग्नि शाँत करने के लिये आक्षेप किये हैं।

देखिये, महर्षि ने क्या लिखा है-

“….यह नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्त्रियों का है जो विवाह करना ही न चाहैं वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले हीे रहैं परन्तु यह काम पूर्ण विद्या वाले जितेन्द्रिय और निर्दोष स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन काम है कि जो काम के वेग को थाम के इन्द्रियों को अपने वश में रखना।”
( सत्यार्थप्रकाश, चतुर्थ समुल्लास, ब्रह्मचर्य प्रकरण)

संन्यास विषय पर भी ऋषि का लेख देखिये-

“यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेद्वनाद्वा गृहाद्वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्।।
-ये ब्राह्मण ग्रन्थ के वचन हैं।
जिस दिन वैराग्य प्राप्त हो उसी दिन घर वा वन से संन्यास ग्रहण कर लेवे। पहले संन्यास का पक्षक्रम कहा। और इस में विकल्प अर्थात् वानप्रस्थान न करे, गृहस्थाश्रम ही से संन्यास ग्रहण करे और तृतीय पक्ष है कि जो पूर्ण विद्वान् जितेन्द्रिय विषय भोग की कामना से रहित परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरुष  हो, वह ब्रह्मचर्याश्रम ही से संन्यास लेवे । “
( सत्यार्थप्रकाश,पंचम समुल्लास, संन्यास प्रकरण)

इससे स्पष्ट होता है कि जितेंद्रिय और वैराग्यवान व्यक्ति बिना विवाह के सीधे संन्यासी बन सकता है। इसलिये पंचमहायज्ञ व पंचदेव पूजा आदि विधान उनके लिये सीढ़ी नहीं थे। इनका पालन आम लोगों को करना होता है, संन्यासी को इनकी बाध्यता नहीं होती।
इसी के अनुसार महर्षि को माता-पिता की सेवा की बाध्यता न थी। न ही उनको विवाह करने की जरूरत थी। रही बात अतिथि सेवन की,तो संन्यासी खुद ही अतिथि होता है और राजा,गृहस्थी आदि को ऐसे वैरागी ,सदुपदेशक, धर्मप्रचारक संन्यासी का पालन खुद करना पड़ता है, नाकि संन्यासी को किसी अतिथि का सेवन करना पड़ता है। रही बात आचार्य की,तो विरजानन्द जी त्रुटि होने, पाठ भूल जाने आदि के कारण अनुशासित करने हेतु दंड तो देंगे ही। ऐसा तो हर विद्यालय में होता है कि गुरु शिष्य को अनुशासित करने हेतु डाँट-मार का प्रयोग करता है।इसमें कुछ आपत्तिजनक नहीं है। विद्यार्थी जीवन में हमने भी दंड पाया है,आपने भी पाया होगा।फिर दयानंद जी पर आपत्ति क्यों?
विरजानन्द जी महर्षि दयानंद को राष्ट्र में फैले पाखंड का खंडन व वैदिक ग्रंथों के मंडन करने का महान् दायित्व सौंपते हैं। उन्होंने स्वामीजी से गुरुदक्षिणा में भी जीवनभर आर्षविद्या के प्रचार करने का वचन मांगा। यदि विरजानन्द जी उन पर इतना ढृढ़ विश्वास न होता,तो फिर उन पर इतना भरोसा ही नहीं करते कि यह व्यक्ति धर्म प्रचार करेगा। इसलिये वे स्वामी जी को तन,मन,विद्या – हर तरह से परिपक्व करने में लगे रहते थे। अतः स्वामी जी ने बखूबी आचार्य की सेवा की और इसलिये वे उनके इतने विश्वासपात्र बने। यह मार-पीटकर दंड देना आदि तो बहुत छोटी बातें हैं।

महर्षि ने तो अपनी व आर्ष ग्रंथों की परिपाटी अपनाई, अपना सीढ़ी नहीं तोड़ी– बल्कि उस पर चढ़कर अपने परमलक्ष्य को प्राप्त किया। परंतु आपने बिना पूरी तरह महर्षि दयानंद के ग्रंथ व आर्ष साहित्य को पढ़े उनको ‘नादान’ व ‘अज्ञानी’ लिख मारा,इसे आपकी नादानी क्यों न माना जाये?

∆ मुहम्मद साहब की मातृभक्ति ∆

मुहम्मद साहब ने अपनी माता की मृत्यु के बाद भी उनके लिये प्रार्थना नहीं की। उनको कभी अपनी माँ की सेवा करने का मौका तो न मिला,मगर प्रतीत होता है कि बचपन में वो उन्हें पर्याप्त माँ का प्रेम न दे सकीं थीं इसलिये मुहम्मद साहब का उनके प्रति ऐसा रवैया था। ऐसा लगता है कि मृत्यु के बाद भी अपनी माँ को वे क्षमा नहीं कर पाये थे न अपनी जननी के प्रति उनमें कुछ कृतज्ञता थी। अतः न तो उन्होंने अपनी माँ से कोई विशेष प्रेम किया , न कभी सेवा की और न ही उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। शायद इसलिये क्यों कि वो बिना मुसलमान रहे मरी थीं। जबकि स्वामीजी ने कभी वेदविरुद्ध या पौराणिक विचारों वाला होने के कारण अपने माता-पिता को कहीं नहीं कोसा।
सच पूछो तो मुहम्मद साहब को यह पता ही नहीं था कि उनका असली पिता कौन है! पाठकों को आश्चर्य हो रहा होगा, परंतु इस पर हम किसी और लेख/पुस्तक में विस्तार से लिखेंगे। फिलहाल तो सही बुखारी में देखिये,कि मुहम्मद साहब अपनी माँ के प्रति कितने भक्त थे—

मुहम्मद साहब अपने सहाबों से कहते हैं,कि मैंने अपनी माँ के लिये दुआ करनी चाहिये,परंतु अल्लाह ने मेरी दुआ कबूल नहीं की।
(Tabaqat Ibn Sa’d p. 21 )

हाँ, वो अलग बात है कि उनकी माँ काफिरा थीं, उसके बाद भी उन्होंने कुरान के विरुद्ध जाकर उनके लिये दुआ पढ़ने की कोशिश की। ऐसा लगता है कि बचपन में पर्याप्त प्रेम न मिलने के कारण मुहम्मद साहब ने जीवनभर अपनी माँ को माफ नहीं किया था। अपने पूरे बचपन में उनको एक माँ का प्यार पूपी तरह नसीब न हो सका। रही बात पिता की, तो उनके तथाकथित पिता अब्दुल्ला उनके जन्म के चार साल पहले मर चुके थे। वे तो कुल मिलाकर दोनों की सेवा न कर सके। शायद इसलिये उनका कोई वंशधर न हुआ!

प्रश्न-८-

प्रकरण-१
¤ स्वामी जी की असफलता का कारण  –

माता पिता आदि को छोड़कर और झूठ बोलकर सन्यास लेने वाले एक उपदेशक के मत की पोल खोलते हुए स्वामी जी कहते हैं-
‘देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।’ (सत्यार्थप्रकाश, एकादशसमुल्लास, पृ.251)
स्वामी जी को उनके पिता जी ने ‘कुल को कलंक लगाने वाला’ और ‘निर्मोही’ आदि जो कुछ कहा है। वह तो स्वामी जी ने बता दिया है लेकिन धोखा देकर पुनः भाग जाने पर जो कुछ कहा होगा, उसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। पिता का विश्वास भंग करने वाले को विश्वस्त सेवक न मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं है। स्वामी जी के अन्तिम दिनों के दुखद हालात का वर्णन इस प्रकार मिलता है-
    ‘हमने सुना है कि स्वामी जी पहरे वालों और दारोगा आदि पर जब ताड़ना करते थे तो ये स्वामी जी के सामने हाथ जोड़ ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहते थे, पश्चात् परस्पर हंसते थे। स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
(1) माँ-बाप को जीते जी ही मार डालने वाला आदमी समाज को जीने की सही राह कैसे दिखा सकता है?
(2) स्वामी जी ने सत्य की खोज का आरम्भ ही असत्य से किया तो वह असत्य के सिवा और क्या पा सकते थे?
जिस काम की शुरूआत असत्य और धोखाधड़ी से की जाती है, उसमें असफलता ही मिलती है। अपनी असफलता और उसके कारण के विषय में स्वामी जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि
‘मैंने अनेक पाठशालाएं खोलीं। पंडितों को शिष्य बनाया। पर वे लोग मेरे सामने वेद मार्ग पर चलते हैं। तत्पश्चात् पौराणिक बन जाते हैं। वे मेरे प्रतिकूल ताना-बाना बुनते हैं। मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि मुझे इस जन्म में सुयोग्य शिष्‍य नहीं मिलेगा।
इसका प्रबल कारण यह भी है कि मैं तीव्र वैराग्यवश बाल्यकाल में माता पिता को छोड़कर सन्यासी बन गया था। माँ की ममता का मैंने ध्यान नहीं किया। पितृऋण भी नहीं उतार सका। यही ऐसे कर्म हैं, जो मुझे सच्चे शिष्य मिलने में बाधक हैं।’  (युगप्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती, पृ.121)

उत्तर-
महर्षि दयानंद ने जिस उपदेशक को झूठा और कपटी कहा है, वो व्यक्ति घर से भागकर ,समाज को धर्म के नाम पर लूटने का कार्य करता था । जबकि महर्षि दयानंद बिना भेदभाव के सत्य धर्म व देशभक्ति का प्रचार करते थे। स्वामी जी ने कन्या शिक्षा,विधवाविवाह,दलितोद्धार आदि कार्य किये।उनका कोई भी कार्य कुत्सित भोगों के लिये न था। इसलिये उनका गृहत्याग करना उचित ही था।

आपने जिस उपदेशक के विरुद्ध महर्षि का वचन लिखा है, उससे उन पर कोई दोष नहीं आता। स्वामीजी ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था उस उपदेशक से मिलता-जुलता हो। देखिये, स्वामीजी ने गोकुलिये गोसाइयों के मत का खंडन करते हुये तैलंगी लक्ष्मणभट्ट की कथा लिखी है-

“यह मत ‘तैलंग’ देश से चला है। क्योंकि एक तैलंगी लक्ष्मणभट्ट नामक ब्राह्मण विवाह कर किसी कारण से माता पिता और स्त्री को छोड़ काशी में जा के उस ने संन्यास ले लिया था और झूठ बोला था कि मेरा विवाह नहीं हुआ। दैवयोग से उस के माता, पिता और स्त्री ने सुना कि काशी में संन्यासी हो गया है। उसके माता-पिता और स्त्री काशी में पहुंच कर जिस ने उस को संन्यास दिया था उस से कहा कि इस को संन्यासी क्यों किया?

देखो! इस की यह युवती स्त्री है और स्त्री ने कहा कि यदि आप मेरे पति को मेरे साथ न करें तो मुझ को भी संन्यास दे दीजिये। तब तो उस को बुला के कहा कि-तू बड़ा मिथ्यावादी है। संन्यास छोड़ गृहाश्रम कर क्योंकि तूने झूठ बोल कर संन्यास लिया। उसने पुनः वैसा ही किया। संन्यास छोड़ उस के साथ हो लिया। देखो! इस मत का मूल ही झूठ कपट से जमा।”
( सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास, गोकुलिये गोसाइयों के मत के खंडन में)

पूरा प्रकरण पढ़कर स्पष्ट है कि लक्ष्मणभट्ट ने विवाहित होकर भी खुद को अविवाहित बताकर संन्यास दीक्षा ली। वो अपनी युवती पत्नी को गृहस्थाश्रम में छोड़कर संन्यासी बन गया था। परंतु महर्षि ने ऐसा कुछ नहीं किया। उन्होंने झूठ बोलकर किसी संन्यासी दीक्षागुरु से संन्यास नहीं ग्रहण किया। अतः उन पर दोष नहीं आता। आप ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर’ आक्षेप लगा रहे हैं।

(१)- माता-पिता को जीते-जी मारने वाला व्यक्ति मूलशंकर था, नाकि योगिराज महर्षि दयानंद । युवापन में बिना उचित मार्गदर्शन और तीव्र वैराग्य के कारण उन्होंने गृहत्याग कर दिया। भले उन्होंने अपने माता -पिता को दुख दिया हो, परंतु देश के हजारों माता-पिताओं व उनकी संतानों तो धर्म और देशभक्ति का पाठ पढ़ाया। सोई हुई आर्यजनता को जगाया, स्वतंत्रता हेतु विद्रोह करने की अलख जगाई, समाज में व्याप्त कुरीतियों का खंडन किया इस पर तो आप भी सहमत हैं, कि उनका कार्य बहुत महान् था। एक तरफ उनके कार्य को अच्छा बता रहे हैं, और दूसरी तरफ यह आरोप लगा रहे हैं वह व्यक्ति समाज को राह कैसे दिखा सकता है? क्या आपके लेख में व्याघात दोष नहीं है।

(२)- स्वामीजी तब अबोध थे, अतः धोखा देकर गृहत्याग कर आये। उनको इस कार्य का फल ईश्वर ने यथायोग्य दिया ही होगा। यह भी कोई बात नहीं है,कि महान् कार्य करने हेतु उन्होंने असत्य का सहारा लिया तो जीवनभर सत्य न पा सके। महोदय! उन्होंने पूरा जीवन सत्य जानने हेतु बिता दिया। सत्य की खोजमें वे दर-बदर भटके। अंततः उनको वेद विद्या व ब्रह्मसंबंधी ज्ञान मिल ही गया। तभी वे आर्ष पद्धति से वेदभाष्य, संस्कार विधि, व्याकरण आदि पर प्रामाणिक लेखन कर सके। सत्य के लिये उन्होंने कई बार विष पिया, डंडे-पत्थर खाये और अपमानित हुये। परंतु वे सत्य बोलने व करने से पीछे नहीं हटे। अतः आपका यह हेतु गलत है कि उनको असत्य ही मिला।

रही बात सच्चे शिष्य मिलने की बात,तो यह बात उन्होंने अपने प्रयास व्यर्थ होते देख कही थी। जरूरी नहीं कि यह पितृऋण न चुका पाने का फल हो, किसी और कर्म का भी फल हे सकता है। दरअसल उस समय स्वार्थी लोग छद्मवेष धरकर बाहर से आर्य,पर अंदर से घोर विरोधी लोग उनके शिष्य बन जाते थे। वे उनके लेखन में मिलावट भी कर देते थे। ऐसे धोखेबाज छली-कपटी शिष्य शंकराचार्य जी के भी बन गये थे। परंतु महर्षि को आगे चलकर आर्यसमाज में पं गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानंद, स्वामी श्रद्धानंद, पं लेखराम, पं युधिष्ठिर मीमांसक, पं ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं चमूपति, पं शिवशंकर शर्मा ‘काव्यतीर्थ’ आदि सुयोग्य शिष्य भी मिले। यही नहीं, १९० वर्षों से भी अधिक समयकाल में कई प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सफल शिष्य आर्यसमाज में ऋषि दयानंद के हुये हैं।
यहाँ पर ऐसा लग रहा है,मानो आप केवल शिष्य बनाना ही उनकी सफलता का पैमाना मान रखा है। जबकि उनकी सफलता सत्यधर्म के ज्ञान व ईश्वरप्राप्ति के साथ-साथ धर्म प्रचार आदि में निहित थी। उन्होंने जिस कार्य हेतु गृहत्याग किया, उसे भली-भाँति निभाया।
आप बस उनकी निराशाजनक टिप्पणी को इतना बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं।

∆ मुहम्मद साहब के सहाबी ∆

हाँ, मुहम्मद साहब के भी कई सहाबी इस्लाम छोड़ मुर्तद हो गये । उस पर क्या विचार है?

अबू हुरैरा ने कहा कि रसूलुल्लाह ने फ़रमाया कि जब वे सो रहे थे, तब फरिश्ते ने आकर उन्हें सहाबाओं के विषय में बताया कि वे नरक में हैं। रसूल ने पूछा कि ऐसा क्यों? इस पर फरिश्ते ने कहा कि यह सहाबा इस्लाम से विमुख हो जायेंगे और बिना चरवाहे के ऊंट की तरह हो जायंगे
“They turned apostate as renegades after I left, who were like camels without a shepherd.”

( सही बुखारी, जिल्द ७ ,किताब ७६, हदीस ५८७)

यह बात शिया हदीस रज्जल कशी ( رجال ‏الكشي ) में इस तरह बयान की गयी है ” रसूल की मौत के बाद सहाबा सहित सभी लोग काफिर हो गए थे ,सिवाय सलमान फ़ारसी ,मिक़दाद और अबू जर के , लोगों ने कहा कि हमने सोच रखा था अगर रसूल मर गए या उनकी हत्या हो गयी तो हम इस्लाम से फिर जायेंगे-
“All people (including the Sahaba) became apostates after the Prophet’s death except for three.” Al-Miqdad ibn Aswad, Abu Dharr (Zarr), and Salman (Al-Farsi,When asked they replied, “. ‘If he (Muhammad) dies or is killed, we will turn from Islam ‘

– أبو الحسن و أبو إسحاق حمدويه و إبراهيم ابنا نصير، قالا حدثنا محمد بن عثمان، عن حنان بن سدير، عن أبيه، عن أبي جعفر (عليه السلام) قال : كان الناس أهل الردة بعد النبي (صلى الله عليه وآله وسلم) إلا ثلاثة.

منهم سلمان الفارسي و المقداد و أبو ذر

(Rijal Al-Kashshi – رجال ‏الكشي – p.12-13)

ये सहाबी अल्लाह के आखिरी पैगंबर के अनुयायी थे। वो पैगंबर, जो ‘संसार भर के आदर्श व दया की मूर्ति’ कहे जाते थे।फिर भी,उनके सीथ रहकर वे कभी एक न रह सके।
मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद इस्लाम शिया और सुन्नी में बँट गया और इनमें बहुत मारकाट हुई। प्रथम चार सर्वश्रेष्ठ खलीफा आपस में सत्ता पाने हेतु लड़ते थे। इन सबका विवेचन इस्लामी ग्रंथों के अनुसार पं देवप्रकाश,मौलवी फाजिल जी ने ‘कुरान परिचय-भाग-३'( अमर स्वामी प्रकाशन, गाज़ियाबाद उ.प्र) ने किया है। अधिक जानकारी हेतु श्री Silas की पुस्तक “Islam’s Royal family” पढ़िये।
सोचिये! आखिरी पैगंबर के करीबी लोगों में से कोई भी निःस्वार्थ व निर्लोभी व्यक्ति न हुआ। सब नंबर एक के अय्याश,हत्यारे,लंपट और लुटेरे थे। उसका एक उदाहरण देखिये-

~हजरत उमर दासी से संभोग करते थे-

“उमर एक औरत को सम्भोग के लिए बुलाये ,लेकिन वह इस के लिए अग्रिम पैसा चाहती थी .जब उमर ने उसके साथ सम्भोग करना चाहा तो वह बहाने करने लगी ,की मेरा मासिक चल रहा है .उमर को पता चल गया कि औरत झूठ बोल रही है .तो वह रसूल के पास गए और शिकायत की ,रसूल ने कहा औरत को पचास दीनार अधिक दे दो।”

Umar bin al-Khatab may Allah be pleased with had a slave girl who used to hate men. Whenever Umar wanted to have sexual intercourse with her, she apologized by advancing an excuse that she was having a period, hence Umar thought that she was telling lie, then (when he had sexual intercourse with her) he found that she was telling the truth. He then he went to the prophet (pbuh) and He ordered him to pay fifty dinars as charity.
( Tabaqat Ibn Saad, Volume 6 page 195:
तबकाते इब्ने साद -जिल्द 6 पेज 195)

~ इस्लाम विरोधी-

इतिहास की किताबों में सहबियों की आपसी लड़ाइयों के बारे में जो प्रामाणिक हदीसों में रावियों द्वारा बयान की हैं ,उसके अनुसार अधिकांश सहाबी मुख्य मार्ग से हट गए थे .और जालिम और फासिक बन गए थे .क्योंकि वह इर्ष्या ,नफ़रत ,और लालच से भर गए थे .कई लोगों ने तो रसूल को देखा भी नहीं था .यह सभी पूरी तरह से निष्पाप नहीं थे .
The battles (between the Sahaba) as its recorded in history books & narrated by reliable narrators serve as proof that some companions left the right path and became Zaalim and Fasiq because they became affected by jealousy, hatred, stubbornness, a desire for power and indulgence because the companions were not infallible , nor was every individual that saw Rasulullah (s), good”.
Imam Dhahabi stated in his book Marifat al-Ruwah, page 4:
अल सियूती ने कहा कि वह एकदूसरे को काफ़िर कहते थे .
Al-Suyuti writes:
“Some of the Sahaba issued Takfeer against one another”
(Al-Dur al-Manthur, Volume 2 page 361)

बड़े अचरज की बात है! ये सब उनके निकटतम लोग थे। इनमें अली उनके दामाद व अबू बकर उनके ससुर थे। महर्षि दयानंद से मात्र एकाध बार दर्शन पाने के बाद पं लेखरामजी जैसा व्यक्ति आर्यपथिक बन गया। उनके सान्निध्य में पं गुरुदत्त विद्यार्थी जी महापंडित बन गये। इन आर्यविद्वानों के जीवनचरित्र भी उनकी सच्चरित्रता,त्याग,तप,विद्या अादि से पटे पड़े हैं । पर मुहम्मद साहब का हाल देखकर नहीं लगता कि वे कोई असाधारण योगी या तपस्वी थे,वरना उनके परिवार में ही ऐसा अनाचार न होता।

¤ विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले-

आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट ने भी उनके विश्वस्त सेवकों के विषय में यही बताया है-
‘विश्वस्त सेवक भी सब निकम्मे निकले-स्वामी जी के पास जितने मनुष्य भरोसे के थे, सब निकम्मे निकले।’ (महर्षि दयानन्द सरस्वती का जीवन चरित्र, पृष्ठ 820)
‘स्वामी जी का उन सब पर से विश्वास उठ गया।’ (हवाला उपरोक्त)
स्वामी जी को विश्वस्त और कर्मठ सेवक न मिल पाने का कारण भी माता-पिता के विश्वास को भंग करना है।

उत्तर—उत्तर उपरोक्त समान ही है। यह भी माता-पिता की आज्ञा का भंग करने का फल है या नही्, यह ईश्वर ही सही-सही बता सकता है। बाकी इसका कारण उनका कर्म है, तो यह भी ईश्वर की न्याय व्यवस्था है। चाहे उन्होंने माता-पिता का विश्वास तोड़ा हो, इससे उनका योगदान व्यर्थ नहीं कहा जा सकता।

क्रमशः…

कुन फ़यकून इंसान व शैतान [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-४] ✍🏻 पण्डित चमूपति

[मौलाना सनाउल्ला खाँ कृत पुस्तक ‘हक़ प्रकाश’ का प्रतिउत्तर]

      दर्शन व धर्म के सामने एक प्रश्न सदा से चला आया है वह यह कि संसार में वर्तमान पदार्थों की उत्पत्ति कैसे हुई? सभी धर्म जो परमात्मा की सत्ता मानने वाले हैं परमात्मा की सत्ता को नित्य मानते हैं उसका प्रारम्भ कभी नहीं हुआ। आर्यसमाज ईश्वरेत्तर तत्त्वों की सत्ता भी अनादि अर्थात् सदा से मानता है, परन्तु इस्लाम की मान्यता इसके विपरीत है। इस्लाम में प्राकृतिक वस्तुओं और चेतन पदार्थों को सदा रहने वाली तो माना है, परन्तु वे सदा से (अनादि) ही हैं ऐसा नहीं माना गया।[१] इस्लाम की मान्यता है कि परमात्मा ने कहा- कुन (हो जा) और सब कुछ उत्पन्न हो गया। इसीलिए सूरते बकर में आया है –

      🔥बदीअस्समावातेज़वल अरजे व इज़ाकज़ा अपरन फ़इन्नमा यकूलो लहू कुन फ़यकून। [बकर आयत ११७]

      (खुदा) बनाने वाला आसमानों व भूमि का और जब चाहता है करना कोई काम तो एक ही तरीका है वह उसको कहे कि हो जा बस हो जाता है। 

      आयत में लिखा है- ‘उस’ को कहता है हो जा। किसको कहता है? अनुपस्थित को? यह ‘हो जा’ भूतकाल में ही हो लिया। या अब भी यह आदेश दिया जाता है। वाक्य शैली से तो ज्ञात होता है कि यह आदेश सदा दिया जाता है। परन्तु क्या वर्तमान काल में कोई वस्तु इस आदेश को कारण बनाकर कार्यरूप में परिणित होती है? अब नहीं होती, तो पहले भी किस प्रकार होती होगी? आदेश अन्य कारण की उपस्थिति में दिया जाता तो कल्पना सम्भव थी। इसके विपरीत नहीं। अकारण कार्य के लिए प्रमाण चाहिए। 

[📎 पाद टिप्पणी १. विज्ञान भी प्रकृति को अनादि व नित्य मानता है। जिसका अन्त नहीं वह अनादि होगा ही। जो अनादि है वही नित्य होगा। यह दर्शनशास्त्र मानता है। -‘जिज्ञासु’]

      🔥फ़इन्नमा यकूलोलहू कुन फ़यकून। [अल इमरान आयत ४७]       

      🔥इन्नमा कौलना लिशैयिन इजाअरदनाहो अननकूलो लहुकुन फ़यकून। [सूरत नहल आयत ४०] 

      यही कथन हमारा किसी वस्तु को जब हम निश्चय करते हैं, इसके अतिरिक्त हम उससे कहें हो जा बस वह हो जाती है। 

      🔥इन्नमा अमरहु इजा अरादा शंअन अन यकूलोलहू कुन फ़यकून। [सूरते यासीन आयत ८२]

      इसके अतिरिक्त उसका आदेश नहीं कि जब वह कोई चीज़ चाहे, यह कहता है उसको हो जा, बस वह हो जाती है।

      इसके विपरीत निम्नलिखित आयतों में कुछ और ही दशा है –

      🔥इन्ना रब्बुकुमुल्लाहो अल्लज़ी ख़लक्स्समावातेवलअरज़े फ़ी सित्तते अय्यामिन सुम्मस्तवा अलल अरशे। [आयत ५२; सूरते यूनस आयत ३] 

      वास्तव में पालनहार तुम्हारा अल्ला है जिसने बनाया आसमानों व ज़मीन को छह दिन में फिर ठहर गया सिंहासन के ऊपर। 

      कोई प्रश्न कर सकता है कि उस समय सूरज तो था नहीं जो दिनों का हिसाब उससे हो जाता। फिर दिनों का अनुमान कैसे हुआ। 

      तफ़सीरे जलालैन में इसका उत्तर दिया है –

      छह दिन से आशय उतनी मात्रा है। क्योंकि उस समय सूरज न था। जो उनका हिसाब उससे होता। 

      कोई पूछे ६ दिन क्यों लगा दिए? लिखा है –

      और इसका कारण छह दिन में बनाया यद्यपि उसकी सामर्थ थी कि यदि चाहता तो एक क्षण में बना डालता यह है कि धीरे-धीरे व जल्दी न करना सिखलाए। 

      तफ़सीरे हुसैनी में कहा है –

      मकरे शैतानस्त ताजीलदर शताब। 

      खूए रहमानस्त सबरो हिसाब॥ 

      शैतान का स्वभाव है शाघ्रता दयालु प्रभु का स्वभाव है धीरज से व विधि से 

      तो यह कुन भी जल्दी न कहा जाता होगा। धैर्य व हिसाब से कहा जाता होगा। अर्थात् छह दिन में। 

      सूरते हम सजदा में फ़रमाया है –

      🔥कुलअइन्नकुमलतकफ़रुना बिल्लज़ी ख़लकत अरज़ा फ़ीयौमेने व…..कद्दराफीहा अकवातहाफ़ी अरबअते अय्यामिन फ़कजाहुना सबआ समावातेफ़ीयोमेने। [हा-मीम सजदा ९।१०।१२] 

      अर्थात् कह क्या तुम कुफ्र करते हो उससे जिसने बनाया ज़मीनों को दो दिन में.और निश्चित किए उसमें भोज्य पदार्थ ४ दिन में…फिर बनाए सात आसमान दो दिन में। 

      लीजिए अब तो दिनों की संख्या आठ हो गई। तफ़सीरे जलालैन में इस कठिनाई का समाधान किया है –

      ज़मीन दो दिन में रविवार व सोमवार को बनाई गई, उसमें सब वस्तुएँ मंगल व बुधवार में और आसमान जुमेरात (बृहस्पतिवार) व जुमा (शुक्रवार) की पिछली रात में काम पूरा हुआ और उसी समय बनाया गया आदम को। 

      भोजन सामग्री जो चार दिनों में उत्पन्न की थी उनके दो दिन भूमि की उत्पत्ति में सम्मिलित कर लिए इस प्रकार कुल संख्या फिर छह की छह रही। 

      यह हुई अचेतन सृष्टि की उत्पत्ति, अब मनुष्यों की भी सुन लीजिए। यह तो तफ़सीरे जलालैन ने ही बता दिया कि जुमा (शुक्रवार) की पिछली रात आदम का पुतला घड़ा गया था। घड़ा किससे गया? कैसे गया? 

      🔥ख़लकंतहु मिनतीन (स्वाद) 

      उत्पन्न किया उसको मिट्टी से। 

      🔥ख़लकतो बियदय्या (स्वाद) 

      बनाया मैंने दोनों हाथों से। 

      फ़इज़ा सवेतुहा बनफ़रवता फ़ीहे मिरुही। [सूरते हजर आयत २७] 

      ◾️अल्लाह के दो हाथ हैं – जब मैं ठीक कर लूँ (पैदा) उसको फूंक दूं उसमें रुह (आत्मा) अपनी। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि इन्सान का उपादान कारण मिट्टी है। कुछ स्थानों पर गन्दी मिट्टी कहा है, उसे अल्लाहताला ने दोनों हाथों से ठीक किया है और उसमें अपनी रुह (आत्मा) फूँकी है। क्या वास्तव में मानव शरीर की रचना मिट्टी से ही हुई है ? क्या उसको बनाने वाला दो हाथों वाला है ? यह प्रश्न हमारे इस अध्याय के विषय से बाहर है। यहाँ केवल यह देखना अद्दिष्ट है कि मानव की अपनी स्वयं सत्ता कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं। मिट्टी वह है जो कुन के कहते ही ज़मीन के साथ पैदा हुई है चाहे वह कुन एक क्षण में कहा गया हो चाहे दो दिन में या छह दिन में। रुह (आत्मा) अल्लाह मियाँ की अपनी है। इसके अर्थ चाहे यह करो कि अल्लाह ने अपने शरीर में से मानव के शरीर में जीवन का सांस फूंका जैसा इञ्जील में वर्णन किया गया है और चाहे स्वामी दयानन्द की शंका की सार्थकता के आगे नतमस्तक हो जाओ और रुही (मेरी आत्मा) का अर्थ करो ‘अल्लाह मियाँ की प्यारी रुह’ रुह (आत्मा) या तो अल्ला मियाँ के अन्दर से निकली है या अभाव से भाव की गई है। इस प्रकार की मिट्टी और आत्मा कर्म में स्वतन्त्र नहीं हो सकती।[२] जो गुण व स्वभाव स्वतन्त्र कर्ता ने इसमें केन्द्रित कर दिये। उसके अनुसार वह कर्म करती जाएँगी फिर अल्लाह मियाँ की यह शिकायत कि –

      🔥इन्नल इन्सानो लिजुलूमिन कुफ्फारुन। [सूरते इब्राहिम आयत २७] 

      वास्तव में मनुष्य अत्याचारी व काफ़िर है, असंगत है, क्योंकि यह अत्याचार वृत्ति व कुफ्र की प्रकृति को उसके स्वभाव में अल्लाह द्वारा प्रदान किया गया है। आश्चर्य तो यह है कि कुछ मनुष्य इस ईश्वरीय देन के विरुद्ध न्याय व ईमान का प्रदर्शन करते हैं, परन्तु वह भी तो उनका चमत्कार नहीं, बनाने वाले ने ऐसा बना दिया। 

[📎पाद टिप्पणी २. अधिक जानने के इच्छुक हमारी पुस्तक पं० रामचन्द्र देहलवी और उनका वैदिक दर्शन अवश्य पढ़ें। -‘जिज्ञासु’] 

      उत्पत्ति के इस सिद्धान्त पर शंका यह होती है कि जब नित्य सत्ता ईश्वरीय सत्ता के अतिरिक्त और कोई अन्य नहीं और अल्लाह पूर्ण है, पवित्र है, नेक है तो उसकी रचना में दोष, पाप व कमजोरियाँ प्रवेश कैसे पा गईं ? 

      पाप का आदि स्रोत कौन है? कुरान में इस प्रश्न को यों समाधान किया गया है –

      🔥वइजा कुलना लिलमलाइकते स्जिदू अलआदमा फ़सजद इल्ला इबलीस, अबा व स्तकबराब काना मिनलकाफ़िरीन। [सूरते बकर आयत ३४] 

      जब कहा हमने फ़रिश्तों को, नतमस्तक हो आदम के प्रति तो उन्होंने आदम के प्रति सिर झुकाया, परन्तु शैतान ने नहीं झुकाया। उसने घमण्ड किया और वास्तव में वह काफ़िरों में से था। 

      प्रश्न यह है कि जब शैतान भी अल्लाह ताला की ही रचना है और अल्लाह उसे जैसा चाहता बना सकता था तो उसे काफ़िर क्यों बनाया? 

      लीजिए गुनाह (पाप) की कहानी आगे चलती है –

      🔥वकुलना यादमो उसकुन अन्ता व जोजकल जन्नता व कुला मिनहारगवन हैसो शियतुमा बलातकरिवा हाजिहिश्शजरता फ़तकूना मिनज्ज़वालिमीन।फअजल्लाहुमश्शैतानो अन्हा फ़अखरजहुमा मिम्मा काना फ़ीहे वकुलन हबितू बअज़कुमलिबाज़े उदव्वुन । वलकुम फ़िलअरज़े मुस्तकरुन व मताउन इललहीन। [सूरते बकर आयत ३५-३६] 

      और कहा हमने ए आदम रहो तुम और तुम्हारी पत्नी स्वर्ग में और खाओ इच्छानुसार जैसा चाहो और न निकट जाओ उस वृक्ष के। पापी हो जाओगे, परन्तु पथ-भ्रष्ट किया उनको शैतान ने और निकाल दिया उनमें से जिसमें वह थे और कहा हमने उतरो तुममें से कुछ लोग एक दूसरे के शत्रु हैं और तुम्हारे लिए भूमि पर ही ठिकाना है और कुछ समय लाभ है। 

      यहाँ से पाप का प्रारम्भ होता है। अल्लाह मियाँ ने तो आदम और उसकी पत्नी को स्वर्ग में डाल ही दिया था। कोई पूछे किन कर्मों के पुरस्कार स्वरूप? कहा जाएगा कर्मों के अभाव में। शैतान ने उनको बहकाया वह किसकी मेहरबानी से? बहिश्त कहा था? जहाँ से उतरने का आदेश हआ। फिर परस्पर शत्रु भी बना दिया यह वह गुण है जिसको ऊपर जुल्म और कुफ्र के नाम से वर्णन किया गया है। शैतान की उत्पत्ति प्रारम्भिक पाप है किसका? सूरते स्वाद में उपरोक्त वार्तालाप और भी विस्तार से वर्णन किया है –

      🔥काला या इब्लीसा मामनअका अनतसजुदाइम्मा ख़लकतो बियदय्या, अस्तकबरता अमकुन्ता मिनलआलीना काला अना खैरुन मिनहो, ख़लकतनी मिन नारिन व खलकतहू मिनतीने कालाफ़अखरजमिन्हा फ़इन्नका रजीमुनाव इन्ना अलैका लअनती इला योमिद्दीना, काला रब्बा फ़न्जुरनी इलायोमि युबअसूना, काला फ़इन्नका मिनलमुन्ज़रीन इलायोमिल वक्तिल मालूम। काला फ़बिइज्जतिका लउगवन्नहुम अजमईन। [सूरत स्वाद आयत ७५-७६, ७७, ७८,७९, ८० तथा ८१ तक]

      (अल्लाह ने कहा) ऐ शैतान क्या बात मना करती है तुझको उसके सामने नतमस्तक होने से जिसे स्वयं मैंने अपने दोनों हाथों से उत्पन्न किया है। तूने घमण्ड किया या था तू उच्च श्रेणी वालों में से था। (शैतान बोला) कहा मैं श्रेष्ठ हूँ इससे कि बनाया तूने मुझको अग्नि से और बनाया इसको मिट्टी से। (ख़ुदा बोले) अच्छा तू इन आसमानों में से निकल जा। वास्तव में तू सड़ा-गन्दा है। वास्तव में तुझ पर लानत फटकार है मेरी न्याय के दिन (कयामत) तक। कहा ए रब ढील दे मुझे उस दिन तक कि उठाए जाएँगे मुर्दे। कहा कि अच्छा तू ढील दिए गयों में से है दिन निश्चित तक। (शैतान बोला) अच्छा सोगन्ध है तेरी प्रतिष्ठा की पथ-भ्रष्ट करूँगा इनको सम्मिलित (रूप से)। 

      शैतान को तो उत्पन्न किया ही था और वह भी अग्नि से अब जब वह अपनी स्वाभाविक प्रकृति के चमत्कार को दिखाने लगा तो अल्ला मियाँ रुष्ट हुए। क्या जानते न थे कि है ही ऐसा? प्रश्न हो सकता है कि जब यह अल्लाह के अपने अधिकार क्षेत्र में था कि सबको अधीनस्य उत्पन्न करता तो शैतान को क्यों विद्रोही स्वभाव का उत्पन्न कर दिया या भूलचूक से ऐसा हो गया। यदि भूल नहीं हुई, अपितु इच्छा से उसे घमण्डी बनाया गया तो रुष्ट होने और डराने धमकाने से क्या तात्पर्य है? बेचारे को फटकारा तक गया है। फिर भी रहमानियत (कृपालुता) का गौरव है कि उसने मौहलत (अवसर) माँगा तो दे दिया गया। वह किस बात की? प्रलयकाल तक लोगों को मनुष्यों को पथ-भ्रष्ट करने की। भला मनुष्य पर यह कृपा क्यों की? घमण्ड करे शैतान उसका दण्ड मिले मनुष्यों को। विचित्र कृपालुता है! 

      परन्तु नहीं लगे हाथों मनुष्य को शिक्षा भी दे दी है –

      🔥वला तत्तबिऊ खुतवातिश्शैताने इन्नहूलकुम उदुव्वुन मुबीन, इन्नमा यामुरकुम बिस्सूएवल फुहशाए। [सूरते बकर आयत १६८-१६९[

      और मत पीछे चलो शैतान के। सचमुच वह तुम्हारे लिए बड़ा शत्रु है वह और कुछ नहीं (करेगा) तुम्हें बुराई व लज्जाजनक कार्यों का ही आदेश देगा। 

      या अल्ला ! इसे पैदा ही नहीं करना था, किया था तो हमारा शत्रु न बनाना था। उसने आज्ञा का उल्लंघन किया उस पर लानत (फटकार) हुई। था बुद्धिमान् कि मुहलत (अवसर) माँग ली। कृपालुता का सहारा ले लिया कि उसे अवसर दिया जाए इसमें हमें शंका आपत्ति नहीं। परन्तु हमें पथ-भ्रष्ट करने की सामर्थ्य क्यों प्रदान की गई? उसकी शैतानियत का कोई और उपयोग हो जाता। 

      इसी सूरते स्वाद का कथानक सूरते ऐराफ के प्रारम्भ में आया है अवसर प्राप्त होने पर शैतान ने अपनी इस महत्वाकाँक्षा की महानता का कि वह प्रलय के दिन तक लोगों को पथ-भ्रष्ट करेगा कारण बताया है –

      🔥काला फ़बिमा अग़वतीनीलअकदन लहमसिरातन मुस्तकाम, सुम्मालआतैनहम मिनबैने ऐदैहिम व मिन ख़लफ़हिम व अनईमा निहिम व अनशुमाइलहिम व ला तजिदो अकसरहुन शाकिरौन। काला अख़रज़ो मिन्हा मजओम्मान मदहूरा।लमनतबइका मिन्हुम लअमलअन्ना जहन्नमा मिन्कुम अजमईन। [सूरते आराफ १६, १७, १८] 

      (शैतान) ने कहा (ए ख़ुदा) चूँकि तूने पथभ्रष्ट किया मुझे अलबत्ता (निश्चय ही) मैं उनके लिए तेरे सीधे रास्ते पर बैठूंगा। फिर उनके आगे से, पीछे से, दाएँ से, बाएँ से और तू उन्हें प्रायः धन्यवादी नहीं पाएगा, (ख़ुदा ने) कहा-निकल यहाँ से लज्जित व फटकारे हुए। जो उन (लोगों) में से तेरे पीछे लगेंगे वास्तव में भरूँगा दोजख़ को तुम सबसे। 

      शैतान कहता ही तो है कि अल्लाह ने मुझे पथ-भ्रष्ट किया है। जब उसकी सत्ता अभाव से हुई है और जब वह अल्लाह के आदेश का सब प्रकार से पालक है तो उसमें शैतानियत का सामर्थ्य उत्पन्न ही किसने की है? फिर अल्लाताला हैं कि बजाए इसके कि कुन कहकर उसे शैतान से भला मानस बना दें विपरीत इसके शैतान को प्रलयकाल तक खुली पथ-भ्रष्टता का अवसर देते हैं और इस पथ-भ्रष्टता का लक्ष्य किसे बनाते हैं? बेचारे मनुष्यों को वह भी तो जैसे अल्लाह ने बना दिए बन गए। किसी के भाग्य में पथ-भ्रष्टता लिखी गई किसी के भाग्य में शैतान से बचा रहना लिखा गया फिर यह झाड़-झपट (लानत-फटकार) क्यों? कि दोज़ख़ को भर दूंगा। पहले ही आज्ञा हो गई कि दोज़ख़ भरा जाना है। इसलिए सबको सन्मार्ग नहीं दिखाया जाएगा। इस शाश्वत इच्छा के मार्ग में बाधा कौन उत्पन्न कर सकता है ? अब कहिए भलाई बुराई की कल्पना भ्रम है या कुछ और? 

      इस पर अल्ला मियाँ फरमाते हैं –

      🔥या मूसा इन्नहू अनल्लाहुल अजोजुलहकीम। [सुरते नहल आयत ९] 

      ए मूसा सचमुच मैं ख़ुदा हूँ बड़ी कार्य कुशलता वाला। 

      शैतान के सम्बन्ध में तो न प्रौढ़ता का ही प्रमाण दिया और न कार्य कुशलता का। हाँ यह और बात है कि अपने आपको कुछ कह लें। 

      ऐसे ही कुरान के सम्बन्ध में फ़रमाया है –

      🔥ला रैबा फ़ीहे हुदन लिल मुत्तकीन। [बकर आयत १] 

      इसमें सन्देह नहीं मार्गदर्शन करती है परहेज़गारों को। 

      परहेज़गार पहले ही निर्मित है, मार्गदर्शन किसका हुआ? लेखक के कथन का तात्पर्य क्या हुआ? दूसरे भी ऐसा ही कहें तब कोई अर्थ हुआ। 

      सूरते हजर में शैतान ने फिर यह कथन दुहराया –

      🔥काला रब्बे बिमाअगवैतनी लउजय्यनना लहूमफ़िल अरजे वलउग़वयन्नुमहुम अजमईन। [सूरते हजर आयत ३९]

      कहा ए रब (ख़ुदा) चूँकि पथ-भ्रष्ट किया है तूने मुझे निश्चय ही सजाऊँगा (उनको गुनाहों से) मैं ज़मीन पर उन सबको पथ-भ्रष्ट करूँगा। 

      यह सजाना (जीनत देना) क्या है ? दोज़ख़ के लिए संवारना? अल्लाह मियाँ की शाश्वत वाणी की ही तो आज्ञा पालना हो रही है। 

      लीजिए अल्लाह मियाँ स्वयं फ़रमाते हैं –

      🔥अलमतरअन्ना अरसलन्नश्शैताना अललकाफ़िरीना तवज्जुहम अज्जन। [सूरते मरियम आयत ८४] 

      क्या नहीं देखा तूने हमने भेजा शैतानों को काफ़िरों के ऊपर बहकाते हैं उनको उभार (उत्तेजित) कर।[३]

[📎पाद टिप्पणी ३. Saheeh International, Yusuf Ali, वाले अंग्रेज़ी कुरान व फ़ारुकी जी के हिन्दी कुरान में आयत की संख्या ८३ दी है। -‘जिज्ञासु’ ]

      हम ऊपर निवेदन कर चुके हैं कि नित्य सत्ता अनादि केवल अल्लाताला की ही होने से वास्तविक कर्ता उसी को मानना पड़ेगा। कोई बुरा है तो इसलिए नहीं कि उसने जानबूझकर किसी कानून का उल्लंघन किया है, अपितु इसलिए कि उसे ऐसा बनाया गया है। और यहाँ तो आदम को पढ़ाया भी अल्ला ने स्वयं ही है। फ़रिश्तों को नतमस्तक भी स्वयं ही बना दिया है और फिर पथ-भ्रष्ट भी स्वयं ही करा दिया है। शैतान की यह स्वीकारोक्ति भी सत्यता पर आधारित है कि मैं अल्लाहताला द्वारा ही पथ-भ्रष्ट किया हूँ। या तो उसे बनाने में अल्लाह मियाँ से भूल हो गई और समय पर उस भूल को सुधारा नहीं गया या फिर अल्लाह मियाँ की प्रारम्भ से इच्छा ही यही रही थी कि प्रायः मनुष्य अकृतज्ञ हों और उनसे दोज़ख़ भर जाए। सर्वशक्तिमान् ख़ुदा के सामने ननुनच करने की तो सामर्थ्य ही किसे है ? बिना शैतान से पथ-भ्रष्ट हुए भी दोज़ख़ में जाने का आदेश हो तो आज्ञा पालन करना ही होगा। यह भी तो अल्लाह की ही चाहना है कि हम दोज़ख़ में जाएँ। परन्तु अपने कर्मों के फलस्वरूप। हम उन कर्मों को करने पर विवश हैं। कर लेंगे, परन्तु एक बात कहेंगे और अवश्य कहेंगे कि बलात् कराए गए कर्मों का फल दण्ड व पुरस्कार नहीं होता। दोज़ख़ को दण्ड और स्वर्ग को पुरस्कार कहना भूल है, हाँ अल्लाह की शक्ति और इच्छा के आगे नतमस्तक हैं।

◾️एकाएक सृष्टि क्यों बना दी?- दर्शन शास्त्र में आगे एक और प्रश्न वह यह कि उत्पन्न करना जब अल्लाह मियाँ के स्वभाव में नहीं तो एकाएक उससे यह सृष्टि उत्पन्न कैसे हो गई। अल्लाह का अपना इसमें कोई लाभ नहीं और हो भी तो एक असीमित समय तक मात्र एकत्व में रहने के पश्चात् सृष्टि के इतने पदार्थों की बहुलता की सामर्थ्य उसमें कहाँ से आ गई? यदि सृष्टि बनाने का ज्ञान अल्लाह मियाँ की बुद्धि में पहले से था तो उसका प्रयोग इससे पूर्व कभी क्यों नहीं हुआ? और इस सृष्टि रचना के पश्चात् फिर भी इसके प्रयोग की क्या कभी संभावना है

      🔥अल्लाहो यब्दुअल ख़लका सुम्मायुईदुहूसुम्मा इलैहे तुरजऊन। [सूरते रूम आयत १०]

      अल्लाह पहली बार उत्पत्ति करता है, दोबारा करेगा, फिर लौटाए जाओगे। 

      कुरान के भाष्यकारों की सम्मति में प्रथम सृष्टि उत्पत्ति हो चुकी। दूसरी सृष्टि प्रलय (न्याय का दिन-कयामत) के दिन होगी और उसके पश्चात् उत्पत्ति का क्रम समाप्त हो जाएगा। तो इसके पश्चात् परमात्मा की सृष्टि उत्पत्ति की शक्ति किस काम आएगी। अल्लाह मियाँ की शक्ति में यह ह्रास व निरस्तीकरण क्या दोष नहीं कि उसकी अनादि व अनन्त सत्ता में केवल दो बार ही उसकी यह शक्ति काम में आई। जब गुण समाप्त हो गया तो गुणी भी समाप्त हो जाएगा। 

      मनोविज्ञान विशेषज्ञ जानते हैं कि चेतन सत्ताओं का ज्ञान अभ्यास व अनुभव के अनुसार होता है। अल्लाह मियाँ का वर्तमान सृष्टि से पूर्व का अनुभव तो बेकारी का है। फिर अनायास यह नूतन अभ्यास उसे कैसे प्राप्त हुआ कि सारे पदार्थ उसने उत्पन्न कर दिए? 

जैसे कि लिखा है –

      🔥वलइन अरसलनारीहन फ़रउहूमुसफ़रैन। [सूरते रूम आयत ५०]

      यदि हम एक वायु भेज दें तो देखें खेती पीली हुई। क्या अल्लाह मियाँ ने इससे पहले कहीं पीली खेतियाँ बनाकर देखी थीं कि उनका वर्णन लोहे महफूज़ (परमात्मा के ज्ञान) की शाश्वत पुस्तक पर नित्य वाणी के रूप में लिखकर रख दिया। यदि यही सृष्टि पहली व अन्तिम है तो इससे पहले पीलापन विद्यमान नहीं था। इसका ज्ञान अल्लाह मियाँ को कैसे हुआ? कहा जा सकता है कि वर्तमान सृष्टि के पदार्थ ज्ञान का परिणाम हैं। यहाँ समस्या यह है कि अल्लाह मियाँ के ज्ञान और कर्म में से पहले कौन था और पीछे कौन? मनोविज्ञान ज्ञान तत्त्व के अनुसार यह दोनों ही एक दूसरे के पूर्ववर्ती भी हैं और पश्चात्वर्ती भी। अल्लाह मियाँ का कौन-सा गुण पहले आता है? ज्ञान का गुण कि कर्म का गुण? दर्शन शास्त्र का यह गम्भीर प्रश्न है जिसका समाधान केवल नित्यकर्म के विश्वासुओं के पास ही है। मध्य में कार्य प्रारम्भ मानने से प्रश्न होता है इससे पूर्व तो यह कार्य हुआ नहीं फिर यह मस्तिष्क में (अल्लाह मियाँ के) कैसे आया और यदि उसके मस्तिष्क में था तो कर्म रूप में परिवर्तित होने में उसके क्या कारण बाधक था? [४]

[📎 पाद टिप्पणी ४. ऋषि दयानन्द की यह वेदोक्त दार्शनिक देन अत्यन्त युक्तियुक्त, मौलिक व बेजोड़ है कि ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव नित्य हैं। ज्ञान व कर्म दोनों ही अनादि होने से पहले व पीछे होने का यहाँ प्रश्न ही नहीं उठता। वेद का मन्त्र सन्ध्या में हम नित्य प्रति पाठ करते हैं, दोहराते हैं – 🔥”यथा पूर्वमकल्पयत्” ईश्वर अनादि काल से सृष्टि और प्रलय का चक्र चला रहा है। यथापूर्व यह सृष्टि रची गई है। -‘जिज्ञासु’ ]

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰ 

📖 ‘चौदहवीं का चाँद’ पुस्तक से संकलित

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

तकदीर (भाग्य) [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-३] । ✍🏻 पण्डित चमूपति जी

[मौलाना सनाउल्ला खाँ कृत पुस्तक ‘हक़ प्रकाश’ का प्रतिउत्तर]

      इस्लाम की एक मान्यता पर कुछ अन्य मतों को आपत्ति है, वह है भाग्य के सम्बन्ध में उसकी मान्यता। जिसके अर्थ यह हैं कि संसार में जो कुछ अच्छा-बुरा होता है अल्लाहताला के आदेश से होता है। अल्लाहताला नित्य सत्ता है उसके अतिरिक्त सारी सृष्टि उत्पन्न की हुई है। अर्थात् वे अभाव से भाव में आए हैं। उनका अस्तित्व व गुण अल्लाहताला द्वारा निर्मित है, कोई नेक हुआ तो उसका कारण यह है कि अल्लाहताला ने उसे नेक बनाया है उसका कारण यह नहीं कि वह अपनी इच्छा से या प्रयत्न से नेक बन गया प्रत्युत इसका कारण यह है कि अल्ला ने उसे भला बनाया। इसी प्रकार, इस पर आर्यसमाज की आलोचना यह है कि यदि हमारे नेक व बुरे कर्म हमारी ‘इच्छा से नहीं अपितु परमात्मा की इच्छा से होते हैं और हम कर्म करने में केवल विवश हैं तो न्याय का निर्णय यह है कि हमारे बुरे-भले का उत्तरदायित्व हम पर न डाला जाए। अपितु उसके वास्तविक कर्ता (परमात्मा) को ही उसका उत्तरदायी मानना चाहिए और दोज़ख़ व जन्नत हमारे लिए निर्धारित न किए जावें’। इस्लाम अपनी इस भाग्य की मान्यता के दार्शनिक परिणाम को स्वीकार करता है कि अल्लाहताला ने न केवल हमारे स्वभाव सृष्टि के आरम्भ से ही निश्चित कर दिए हैं, न केवल हमारे अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों के कर्मों को लेखबद्ध लोहे महफूज़ (परमात्मा के पास सुरक्षित भाग्य पुस्तक) में पहले से ही लिख रखा है, अपितु हममें से कुछ को स्वर्ग (बहिश्त) के लिए व कुछ को दोज़ख़ (नरक) में रहने के लिए विशेषतया नियुक्त कर दिया है। इस सिद्धान्त के होते शुभ कर्मों का प्रयत्न, महत्वाकांक्षा, किसी महान् कार्य की लक्ष्य प्राप्ति का कोई अवसर ही नहीं रह जाता। हम इस सिद्धान्त को कुरान व उसके भाष्यकारों के अपने शब्दों में प्रस्तुत करेंगे। 

      सूरते फ़ातिह में आया है –

      🔥सिरातुल्लजीना अनअमतांअलैहिम गैरिलमग़जूबी अलैहिम व लज्ज्वाल्लीन। 

      मार्ग इन लोगों का जिन पर उपहार दिया है तूने, न कि उनका जिन पर अत्याचार किया गया न उनका जो पथभ्रष्ट हैं। 

      इस पर तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है –

      न राहे आं कसानेकि ख़श्म गिरफ़्ता बर एशां यानी कबल अज़ वजूद बमअरज़े गज़बे तो आमदा अन्द व बदां सबब बर कुफ़र इकदाम नमूदा। 

      न उन लोगों का मार्ग जिन पर तूने क्रोध किया, अर्थात् उत्पन्न होने से पूर्व ही तेरे क्रोध के पात्र बने और इस कारण काफ़िर (गैर मुस्लिम) बने। 

      यदि इस्लाम व कुफ्र को अल्लाहताला ने पहले से कुछ व्यक्तियों के लिए विशेष निश्चित कर दिया है तो फिर अब इस्लाम धर्म के प्रचार के क्या अर्थ हुए? और काफ़िरों का क्या दोष है कि वे इस्लाम को स्वीकार नहीं करते। उपरोक्त वाक्य में मौजूद होने से पहले और इस कारण यह दो शब्द विशेषतया पाठकों को ध्यान देने योग्य हैं। 

      सूरते बकर में इसी विषय को और स्पष्ट किया है – 

      🔥इन्नल्लज़ीना कफ़रु सवाउन अलैहुम अन्ज़रतहुम अमलम तन्ज़िरुहुम ला योमिनून। ख़तमल्लाहो अलाकुलूबिहिम व अला समइहिम व अला अबसारिहिम गिशावतुन वलहुम अज़ाबुन अज़ीमुन। [सूरते बकर आयत ७] 

      जो काफ़िर हों, बराबर है उनके लिए तू डराए या न डराए वह ईमान न लाएँगे। सील लगा दी अल्लाह ने उनके दिलों पर और कान पर और उनकी आँखों पर परदा है और उनके लिए बड़ा दण्ड है।

      तफ़सीरे जलालैन में “जो काफ़िर हुए” के बाद लिखा है –

      जैसे अबूजहल अबूलहब और जिनके भाग्य में काफ़िर होना लिखा गया। 

      यदि काफ़िर होना भाग्य में लिखा गया है और वह अटल है तो किसी भी नियम प्रणाली से उन काफ़िरों को अपराधी नहीं कहा जा सकता और यदि दण्ड भी उसी प्रकार पहले से लिखा गया है तो उन्हें किसी न्याय व्यवस्था के अनुसार दण्ड का भागी नहीं मानना चाहिए। हाँ! विधाता की अवैधानिक रचना का प्रमाण भले ही हो जाए। 

      फिर फ़रमाया है –

      🔥फ़ी कुलुबिहिम मरजुन फ़ज़ादाहुमुल्लाहो मरजा। [सूरते बकर आयत १०] 

      उन लोगों के दिलों में बीमारी है फिर अल्लाह ने उनकी बीमारी और बढ़ा दी। 

      यह रोग वही है जिसका वर्णन हुआ कि उनके भाग्य में काफ़िर होना निश्चित हुआ था। तफ़सीरे जलालैन में लिखा है –

      अल्लाह ने उनके रोग को बढ़ाया इस प्रकार कि जो आदेश अल्लाह ने उतारे उनके लिए विद्रोही हुए। 

      यह हुआ कुफ्र पर कुफ्र और यह सब अल्लाह के आदेश से, मूज़िहुलकुरान में इन पीड़ाओं की और व्याख्या की है वह यह कि –

      एक पीड़ा यह थी कि जिस दीन (मत) को दिल न चाहता था स्वीकार करना पड़ा। दूसरा कष्ट अल्लाह ने दिया कि आदेश दिया धर्मयुद्ध (जिहाद) का जिनके शुभचिन्तक थे उनसे लड़ना पड़ा। 

      इस्लाम के समुदाय में प्रारम्भिक प्रवेश किस प्रकार हुआ इस पर इन वृद्ध महाशय की सम्पत्ति विचारणीय है – सर्वप्रथम बलपूर्वक इस्लाम को स्वीकार करना फिर बलपूर्वक धर्मयुद्ध में सम्मिलित होना और ये दोनों अल्लाहताला के आदेश से – हाय रे भाग्य! 

      सूरते बकर में लिखा है –

      🔥बल्ला हो यल्तस्सो बिरहमतिही मन्यशाओ। [सूरते बकर आयत ८६] 

      अल्लाह विशेषतया निश्चित करता है कि अपनी कृपा जिसको वह चाहता है। इस पर तफ़सीरे हुसैनी की टिप्पणी है  –

      इख़्तिसास मे दिहदब नूबव्वुत व वही ए ख़ुद हर किरा ख्वाहद, 

      विशेष करता है नूबव्वुत (ईश्वरीय दूत) व वही (ईश्वरीय सन्देश) के लिए जिसको चाहता है। 

      कारण? वर्तमान समय के कुछ मुसलमान विद्वानों ने स्वामी दयानन्द की शंका की सत्यता के आगे सिर झुकाया है। एक साहब लिखते हैं –

      अल्लाहो अअलमो हैसायजअला रिसालतिन 

      जिस व्यक्ति को ख़ुदा नबी बनाता है उसकी दशा से भली भाँति परिचित होता है। 

      श्रीमान् जी! यह दशा किसकी बनाई हुई है। अल्लाह मियाँ की या विशिष्ट बनाए व्यक्ति की अपनी? दूतत्व (नबीपन) के लिए विशेषता अभाव से भाव में लाने से पूर्व होती है या पश्चात् ? 

पूर्व होता है तो विशेषता प्राप्त व्यक्ति के स्वेच्छापूर्वक किए कार्यों पर निर्भर न हुई। अल्लाहताला की इच्छा पर निर्भर हुई तो विशेषता प्राप्ति की निर्भरता अल्लाह की इच्छा पर हुई। किसी की अपनी योग्यता पर नहीं हुई। 

      इससे भी बढ़कर लिखा गया है –

      अल्लाहो यज्तबी मिन्रुसिलिहीमन्यशाओ। [आले उमरान आयत १७३] अल्लाह पसन्द करता है अपने पैग़म्बरों में से जिसको चाहता है। 

      सूरते बकर में आया है –

      🔥धलकदस्तफ़ीनहु फ़िदुनियां वइन्हूफ़िल आख़िरतिलमिनस्सालिहीन। [आयत १३०] 

      और निश्चय ही हमने पसन्द किया उसको दुनिया में व निश्चय ही वह न्याय के दिन नेकों में है। 

      मौलवी सनाउल्ला जी न्याय के दिन नेकों में होना ही इब्राहिम के “चुने जाने का कारण” नियत करते हैं और स्वामी दयानन्द के इस कथन पर साक्षी देते हैं कि “जो धर्मात्मा है वही परमात्मा को प्यारा है।” अब प्रश्न यह होगा कि आया पुण्य या पाप अपनी स्वेच्छानुसार किए कर्मों के आधार पर होता है या जैसे तफ़सीरे हुसैनी के लेखक का विश्वास है – ख़ुदा पहले से ही किसी को श्रेष्ठ व किसी को पापी निश्चित कर देता है ? यदि प्रत्येक मनुष्य की योग्यता समान है तो क्या दूसरे “धर्मात्मा” भी ईश्वरीय दूत (पैग़म्बर) हो सकते हैं या नहीं? यदि प्रत्येक “धर्मात्मा” इतना पवित्र हो सकता है जितना इब्राहिम तो उसे ईश्वरीय दूत पैग़म्बर भी हो सकना चाहिए। यदि दूसरों में इतना पवित्र होने का सामर्थ्य नहीं तो यह अल्लाह मियाँ का अन्याय है और यदि सामर्थ्य होते हुए भी ईश्वरीय दूत बनने के गौरव से वंचित है तो यह इससे भी बढ़कर अन्याय है। अन्याय नहीं अत्याचार है। 

      अल्लाह फ़रमाता है –

      🔥फ़मिनहुम मन आमनाव मिनहुममन कफ़रावलौ शाअल्ला हो माक्ततिलूव लाकिन्नल्लाहो यफ़अलोमा युरीदो। [सूरते बकर आयत २४८] 

      उनमें से कोई (इस्लाम पर) ईमान लाया और कोई काफ़िर हुआ यदि अल्लाह चाहता तो न लड़ते, परन्तु अल्लाहै करता है जो चाहता है। 

      यह लड़ाने की इच्छा भी निराली है ! 

      तफ़सीरे जलालेन में इसी स्थान पर लिखा है –

      जिस को चाहे भले कामों की सामर्थ्य दे और जिसको चाहे लज्जित करे, सामर्थ्य न दे। आगे लिखा है –

      🔥युअति अलहिकमतो मंय्यशाओ। [सूरते बकर आयत २६४]    

      देता है कर्मकुशलता जिसे चाहता है। 

      🔥फ़यन्फरालिमंय्याशाओ व यअजिबा मंय्यशाओ बल्लाहो अला कुल्ले शैइन कदीर। [बकर २८०] 

      फिर क्षमा करेगा जिसको चाहेगा और दण्ड देगा जिसे चाहेगा और अल्लाह सब बातों पर समर्थ है। 

      यह बात है तो कर्मों का विवाद किस बात का है और क्यों उत्पन्न किया है ? 

      सूरते रअद में है –

      इन्नअल्लाहा युज़िल्लो मन्यशाओ व यहदी इलेहे मनअताबा। [सूरते रअद आयत २६] 

      वास्तव में ख़ुदा गुमराह करता है जिसे चाहता है और राह दिखाता है अपनी ओर जो खिचता है। (प्रायश्चित करता है इस्लाम पर ईमान लाता है)। 

      इस पर मूज़हुल कुरान में लिखा है कि –

      यही स्वीकार है कि कोई बच ले और कोई राह पाए और जिसका हृदय प्रवृत हुआ, यह संकेत है कि उसको ख़ुदा ने समझाना चाहा। 

      आशय यह है कि पथ-भ्रष्ट होना या सन्मार्ग पर आना अपने प्रयत्न से नहीं अल्लाह मियाँ की इच्छा पर आधारित है तो पुरस्कार व दण्ड का पात्र कौन हुआ? और इस कथन के क्या अर्थ है ? 

      🔥लिय बलूकुम अय्युकुम अहसनो अमलन। [सूरते हूद आयत ७] 

      परीक्षा ले तुम्हारी कि कौन उत्तम है तुममें से कर्म करने में। 

      कार्यों का निर्धारण भी स्वयं करते हो फिर परीक्षा भी लेते हो। क्या सन्देह है कि भाग्य के अनुसार कार्य नहीं होगा? 

      सूरते बनी इसराईल में है –

      🔥व कुल्ला इन्सानिन अलज़मनहताइरहफ़ी उनकिही वयखरि जोलह योमल कमायते किताबन यलकहू मन्शूरा। [बनी इसराईल आयत १३] 

      और प्रत्येक व्यक्ति के लिए लटका दिया है हमने उसका कर्मों का हिसाब उसकी गर्दन के बीच और निकालेंगे उसके लिए न्याय के दिन एक पुस्तक खुली हुई देखेगा। 

      इस आयत की व्याख्या में तफ़सीरे जलालैन में लिखा है –

      मुजाहिद ने कहा कि कोई बच्चा भी ऐसा नहीं कि उसकी गर्दन में एक कागज न हो कि उसमें लिखा हुआ होता है कि यह सौभाग्यशाली है या दुर्भाग्यशाली? 

      यही कथन हुसैनी में उद्धृत करके आगे लिखा है –

      यानी आंचे तकदीर करदा अंद अज़ रोज़े अज़ल अज़ किरदारे ओ। लाज़िम साख्ता एम दर गर्दने ओ। यानी रा चारानेस्त अजां 

      अर्थात् जो कुछ भाग्य में लिख दिया है पहले से ही उसके कर्मों के सम्बन्ध में निश्चित किया है। उसकी गर्दन में, अर्थात् उससे बचने का कोई मार्ग नहीं है। 

      लीजिए हमारे कर्म तो पहले से ही निश्चित हो चुके, हमारी सद्भाग्यशीलता व दुर्भाग्यशीलता हमारे अस्तित्व में आने से पहले ही निश्चित हो चुकी। अब हमें इस भाग्य से या कर्म लेख के अनुसार ही काम कर देना है। कर्म में हमारा अधिकार ही कहाँ रहा? और जब हमारा कोई अधिकार ही नहीं तो पुरस्कार या दण्ड कैसा? 

      स्वयं कुरान कहता है –

      🔥बलौशिअना लाअतैना कुल्लानफ्सिन हुदाहावलाकिन हक्कल कोले मिन्नीलअम्तअन्ना जहन्नमा मिनलजन्नते वन्नासे अजमईन। [सूरते सिजदा आयत १२] 

      अर्थात् और यदि हम चाहते तो प्रत्येक व्यक्ति को सन्मार्ग दिखाते, परन्तु सच्चा है वचन मेरा कि निश्चय ही भरूँगा दोज़ख़ को जिन्नों व इन्सानों से इकट्ठा। 

      तफ़सीरे हुसैनी में इसका अनुवाद इस प्रकार किया है –

      व अगर मे ख्वास्तेम हर आईना दादेम दर दुनियां हर नफ़स रा आंचे राह याफ्ती आं बसूए ईमान व अमल सालिह व लेकिन साबित शुदा अस्त ईं हुकमे मन कि हर आईना पुर साजेम[१] दोज़ख़ रा अज़कुफ़्फ़ार व देव व आदमी बहर एशां। 

[📎पाद टिप्पणी १. मूल में ‘साज़म’ शब्द है जिसका अर्थ है मैं पूरा भरता हूँ, परन्तु आरम्भ में मे ‘ख्वास्तेम’ हम चाहते हैं को देखकर अनुवादक ने आगे ‘साजेम’ बहुवचन में ही कर दिया है। -‘जिज्ञासु’] 

      इस अनुवाद में दोज़ख़ की भरती में काफ़िरों की वृद्धि हुसैनी का अपना आविष्कार है, इस पर किसी काफ़िर को आपत्ति हो सकती है। लेकिन यह बात तो कुरान के अपने शब्दों में अंकित है कि अल्लाह सन्मार्ग दर्शन हर एक को करा सकता था, लेकिन नहीं कराता इसलिए कि उसने दोज़ख़ को बनाया है और उसे भरना है। 

      इस कथन के पश्चात् जहाँ-जहाँ यह वर्णन है कि अल्लाह गुनहगारों को सत्प्रेरणा नहीं करता जैसे यह कुरान केवल परहेज़गारों को मार्गदर्शन के लिए है जैसे बकर-सूरा-२ में वहाँ इस कथन के अर्थ यही करने होंगे कि गुनाहगार और परहेज़गार पहले से ही निर्धारित हैं और स्वामी दयानन्द की आपत्ति कि परहेज़गार तो सीधे रास्ते पर हैं ही और गुनाहगारों के लिए सत्प्रेरणा नहीं तो कुरान के उतरने का लाभ किसे है ? उत्तर रहित प्रश्न है। कुरान न होता तो भी परहेज़गार परहेज़गारी के लिए निर्धारित थे और गुनहगार गुनहगारी के लिए।[२]

[📎पाद टिप्पणी २. यह प्रश्न आज इस्लाम में गूञ्ज रहा है। ‘सोज़ो साज़’ में भी यही प्रश्न उठाया गया है। -‘जिज्ञासु’]

      यह हुआ भाग्य निर्णय कर्मों का कि हमारे लिए भले और बुरे कर्म पहले से ही निश्चित हैं और हम भाग्य लेख को पूरा करते हैं। दूसरा हमारा भाग्य लेख दुःख और सुख का है। कोई उत्पन्न होते ही दुःखी है कोई पैदा होते ही सुखी। यह भेद भाव क्यों? आर्यसमाज के सिद्धान्तों के अनुसार सुख-दुःख कर्मों का दण्ड व उपहार है। पर जो लोग इस जीवन से पूर्व किसी जीवन के पक्षधर नहीं वह वर्तमान जीवन के प्रारम्भ होते ही विभिन्न व्यक्तियों के किए हुए दुःख सुख की भिन्नता व स्तर की असमानता का क्या कारण बता सकते हैं? वर्तमान जीवन के कार्यों का फल दण्ड या पुरस्कार उन्होंने स्वर्ग या नरक को निर्धारित किया है। यद्यपि उपरोक्त भाग्य की मान्यता ने दण्ड व पुरस्कार का सिद्धान्त ही निराधार बना दिया है। इस पर भी यदि थोड़ी देर के लिए इस कठिनाई पर ध्यान न भी दें तो वर्तमान असमानता का दार्शनिक निदान क्या है ? न्याय दिन के सुख और दुःख का कारण वर्तमान कर्म तभी हो सकते हैं जब वर्तमान जीवन के सुख और दुःख इससे पूर्व किए गए कर्मों का फल हों। अन्यथा कर्मों और सुख-दुःख में कारण व कार्य का सम्बन्ध ही न होगा। यदि इस संसार में दुःख-सुख बिना पूर्ववर्ती कर्मों के दिए जाते हैं तो न्याय के दिन के स्वर्ग व नरक भी बिना कर्मों के क्यों न मिलेंगे? भाग्य के सम्बन्ध में जो चर्चा हमने ऊपर की है इससे स्पष्ट सिद्ध है कि इस्लाम के मतानुसार कर्म केवल दिल बहलाने की वस्तु है उनमें हमारी स्वेच्छा वृत्ति को कोई स्थान नहीं। हम अच्छा करने पर भी विवश हैं और बुरा करने पर भी। फिर स्वर्ग-नरक में जाने पर भी वैसे ही विवश हैं अल्लाह मियाँ का कथन अनादि है कि दोज़ख़ भरा जाएगा और वह पूरा होना है। हमारी विवेकशीलता इसी में है कि उस वचन को (सत्य सिद्ध कर दिखावें) करें। भला इससे बढ़कर इस्लाम क्या हो सकता है कि अल्लाताला का नित्य वचन हमारे कर्मों के कारण सत्य सिद्ध हो? फिर कर्म क्षमा भी किए जा सकते हैं। अल्लाह जिसे चाहे बिना कर्मों के स्वर्ग में ले जाए। फलतः मौलवी सनाउल्ला जी लिखते –

      “बेचारे अवयस्क बच्चों को तो इस बात की ख़बर भी नहीं कि शिरक (इस्लाम से विरोध) कुफ़र (स्पष्ट अमुस्लिम होना) क्या होता है इसलिए वे जन्नत में जाने से न रोके जाएँगे।” [हक प्रकाश पृष्ठ २२७-२२८] 

      यही सिद्धान्त इस्लाम का है। अब तो और भी कर्मों से मुक्ति हुई। मौलाना सनाउल्ला के समविचारक लोग यदि यह इच्छा करें और इस इच्छा को कार्यान्वित करें कि हर बच्चा जो बगैर शिरक और कुफ़र के विवेक के मर जाया करे तो अल्लाह मियाँ का यह वचन कि दोज़ख़ को भरना है, सम्भव है, पूरा हो ही न पाए। इस्लाम के प्रचार का यह निराला ढंग विचित्र है। परन्तु नहीं, मौलाना मुसलमान हैं और उन्हें अल्लाहमियाँ का आदेश कार्यान्वित कराना है। परमात्मा उन्हें पुरस्कृत करें अस्तु। 

      अब हम कुरान-करीम की उन वाणियों का दिग्दर्शन करायेंगे जिनमें इस संसार की (सम्पदा) भाग्य रेखा के हाथों बिना प्रयत्न व कर्मों के या अन्य किसी उपाय के बहुत सस्ती कर दी गई है। फ़रमाया है – 

      🔥अल्लाहो यरज़िको मनय्यशाओ बगैर हिसाब। [सूरते बकर आयत २१२] 

      अल्लाह दौलत देता है जिसे चाहता है बिना हिसाब के।

      🔥अल्लाहो यब्सतोरिज़का लिमन्यशाओ व यकदिरो। [सूरते रअद आयत २२] 

      अल्लाह विस्तार करता है धन-दौलत जिसके लिए चाहता है और तंग करता है। 

      🔥अल्लज़ी ख़लकनी फ़हुवा यहदिनीनवल्लज़ी हुवा युतमइनी व यसकीने। [सूरते शुअरा आयत ७८-७९] 

      जिसने उत्पन्न किया मुझको इसलिए वही मार्गदर्शन करता है और जो खिलाता है मुझको व पिलाता है मुझको। 

      जब खिलाना व पिलाना पूर्व कर्मों का फल नहीं तो उसमें समानता क्यों नहीं? हमारा वैभव व हमारी रिक्तता अल्लाह मियाँ की देन है। फिर हमारे लेख भी सदा से निश्चित होकर हमारी गर्दन में बाँध दिये गये हैं। अतः खाने-पीने में अनियमितता भी हमारे ऊपर नहीं आती और उसका परिणाम जो रोग उत्पन्न हो जाते हैं उसके उत्तरदायी विवशता के कारण हम नहीं। अल्लाह की बिना शर्त के पुरस्कार के अर्थ तो यह थे कि बराबर सबको पुरस्कृत करता और यदि संसार में रंगा-रंगी लाने के लिए असमानता आवश्यक थी तो वह असमानता हमें पीड़ित किए बिना भी तो हो सकती थी। असमानता केवल सुखों की हो जाती। हमारे खाने-पीने में रोग उत्पन्न करने का गुण ही न रखता। 

      बिना पूर्व जन्म के माने हमारी बीमारी हमारे पुराने कर्मों का फल तो हो नहीं सकती और वर्तमान जीवन के कर्मों में भी हम भाग्य के आगे नतमस्तक हैं तो क्या रोग भी अल्लाह मियाँ की देन समझी जाए। यह देन उसके कृपापूर्ण गौरव के सर्वथा उपयुक्त है! 

      जीवन का एक उपहार है पुत्र व पुत्रियाँ इस पर अल्लाहताला ने फ़रमाया है –

      यहबो लिमन्यशाओ इनासन व यहवोलिमन्यशा अज्जकूर ओ यज्ज़िहिम् ज़िकरानम व अनासन व यजअलोमन्यशाओ अकीमन। [सूरते शुरा आयत ४८] [३]

      देता है जिसे चाहता है बेटियाँ और देता है और कर देता है जिसे चाहता है। सन्तान रहित।

[📎पाद टिप्पणी ३. Saheeh International व फ़तह-उल-हमीद आदि में ये दो आयतें हैं। इनकी संख्या ४९ व ५० दी गई है। -‘जिज्ञासु’]

      इस आयत पर भी प्रश्न वही है जब प्राणियों में सम्भोग का फल प्रायः सन्तान होती है और मनुष्यों का प्रायः सम्भोग कर्म निष्प्रभावी क्यों रहे? क्या सन्तान होने न होने में कोई विधान काम करता है? या केवल अनियमितता है ? इसी प्रकार पुत्र या पुत्री उत्पन्न होने में कोई नियम है या केवल अनियमितता है? हमारी सन्तान हीनता का कारण या तो हमारा सृष्टि नियम के विपरीत कर्म हो सकता है या गत जीवन के कुकर्म जिसके दण्ड स्वरूप हमें निःसन्तान किया  जाता है। इस्लाम में अतीत काल के जीवन का सिद्धान्त नहीं और वर्तमान जीवन में मनुष्य की इच्छा का हस्तक्षेप न होने से कोई फल उत्पन्न होने का सामर्थ्य नहीं, सब कुछ अल्लाहताला पर निर्भर है। इस पर प्रश्न उठता है कि बिना किसी कर्म के ही सन्तान उत्पन्न क्यों नहीं कर देता? मौलाना सनाउल्ला जी इस प्रश्न पर बिगड़े हैं। पूछते हैं कि क्या किसी आस्तिक (ईश्वर को मानने वाले) का यह प्रश्न हो सकता है ? हज़रत ईसा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अपने मत पर विचार कर लें। यदि वह मत आस्तिकों का है तो यह प्रश्न आस्तिकों का क्यों नहीं? स्वामी दयानन्द को आपत्ति है इस्लाम के भाग्य के सिद्धान्त पर जिसके अनुसार अल्लाह मियाँ ही वास्तविक कर्ता है। हम सब उसकी कठपुतलियाँ हैं। इस दशा में सन्तान की उत्पत्ति पर माता-पिता की ओर से किसी कर्म की शर्त उचित नहीं। एक ओर भाग्य लेख और दूसरी ओर कानून परस्पर विरोधी सिद्धान्त हैं। और तो और सहीह बुखारी में अंजल की आज्ञा इसी आधार पर दी गई है कि सन्तान होना माता-पिता के कर्मों का फल ही नहीं केवल परमात्मा की देन है। 

      वास्तव में मनुष्य का न केवल दण्ड या पुरस्कार के भुगतने के हेतु अपितु उनकी अनुकूलता या प्रतिकूलता के अनुसार कर्मों के लिए विवश होना एक तर्क संगत परिणाम है। इसी सिद्धान्त का कि अल्लाहताला नित्य सत्ता है और शेष सभी सृष्टि अभाव से भाव में लाई गई है। अभाव से भाव में लाए पदार्थों की निजी अपने अस्तित्व सहित सत्ता हो ही नहीं सकती है। महाकवि जौक ने कहा ही तो है –

      अपनी खुशी न आए न अपनी खुशी चले। अच्छा बुरा नहीं हो सकता, बुरा अच्छा नहीं हो सकता जैसा बनाने वाले ने बना दिया बन गए फिर पुरस्कार या दण्ड कैसा? अभाव से भाव के सम्बन्ध में हम एक नया अध्याय लिखेंगे। सम्प्रति इस विषय के १-२ उद्धरण लिखे जा रहे हैं –

      कहा है –

      🔥वरब्बुका यख़्लको मायशाओव यख़्तारो। [सूरते कसस आयत ६८]

      और तेरा पालनहार जो चाहता है, पसन्द करता है वही उत्पन्न करता है। 

      🔥बदीअस्समावाते वलअरजे व इज़ाकज़ा अमरन फ़इन्नमा यकूलोकुन फ़यकूनः।[४] [सूरते बकर आयत ११८] 

      उत्पन्न करने वाला आसमानों और ज़मीनों का। जब वह चाहता है कोई काम करना तो एक ही उसका तरीका है कि कहता है हो जा और वह हो जाता है। 

[📎पाद टिप्पणी ४. फारुखी जी वाले हिन्दी कुरान में इस आयत की संख्या ११७ है।]

      यह सारी सृष्टि जब अल्लाह के एक आदेश का परिणाम है। इस आदेश से पूर्व इस सृष्टि का केवल अभाव था तो इसका कारण केवल अल्लाताला का आदेश ही तो हुआ। इस दशा में इस सृष्टि की अच्छाई-बुराई अल्लाहताला के आदेश की ही अच्छाई या बुराई है । हम सुख व दुःख भोगने में विवश हैं। अच्छे-बुरे काम करने में विवश हैं और अन्त में दोज़ख़ व जन्नत में जाने को भी विवश हैं। अल्लाह को दोज़ख़ व जन्नत को भरना है। स्वेच्छा से पैग़म्बर (ईश्वरीय दूत) बनाने हैं उनमें से चुनाव करना है और इसमें नियम है उसकी शर्त रहित बेरोक-टोक इच्छा का, फिर शिक्षा क्या और उपदेश के क्या अर्थ? सब खेल ही तो है। अल्लाह समर्थवान् सही पर हमारा उत्तरदायित्व कुछ नहीं। इस एक मान्यता से, आचार, दर्शन, विधान सब निराधार होकर रह जाते हैं। 

      तकदीर (भाग्य) के अर्थ हैं अल्लाहताला की असीम शक्ति का प्रयोग, अर्थात् उस सामर्थ्य की जिस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं। प्रश्न होता है कि क्या अल्लाह पाप कर सकता है ? अर्थात् कोई ऐसा कर्म जो मनुष्य करे तो पाप कहलाए।न कर सके तो सर्वशक्तिमान् न रहा। तभी तो लिखा है –

      🔥वमकरु वमकरल्लाहो वल्लाही खैरुल माकरीन।[५] [सूरते आले इमरान आयत ५०]

      उन्होंने छल किया और छल किया अल्लाहै ने और अल्लाह सबसे बड़ा छल करने वाला है।

[📎पाद टिप्पणी  ५. फ़ारुकी जी के हिन्दी कुरान, फ़तह उलहमीद व Saheeh International में इस आयत की संख्या ५४ है। -‘जिज्ञासु’]

      इस आयत का विवरण तफ़सीरे हुसैनी में इस प्रकार का वर्णन किया गया है। 

      बअनवाए हील ईसा रा बदस्त आवुरदन्द व दर ख़ानाए महबूस साख्तन्द……..अलस्सुबाह महतर खुद कि यहूदा नाम दाश्त बदाँ खाना फ़िरस्तादन्द……हकताला दरां शब ईसा रा बर आसमान बुरदा बुवद……..यहूदा ईसारा नदीदव हकताला शबीह ईसा बरो……..फ़गन्द……..व अज़ दारश दर आवेख़्ता तीर बारां नमूदन्द। 

      भाँति-भाँति के बहानों से ईसा को पकड़ा और घर में बन्दी बनाया…….प्रातः अपने में से बड़े वृद्ध व्यक्ति को जिसका नाम यहूदा था घर के अन्दर भेजा………अल्लाहताला ने रात-रात में ईसा को आसमान पर उठा लिया था। ……..पर यहूदा ने……..ईसा को न देखा और अल्लाताला ने उसे ईसा की शक्ल दे दी। उसे फाँसी पर लटकाकर उस पर तीर बरसाए। 

      यहूदा को ईसा के रूप में प्रकट करके उसे मरवाना छल होता है, यही अर्थ निम्नलिखित आयत का है –

      🔥व यमकरुल्लाहो वल्लाहो खैरुलमाकरीन। [सूरते इन्फ़ाल आयत ३०]

      छल करता था अल्लाह और अल्लाह उच्च कोटि का छल करने वाला है। 

      🔥इन्नहुम याकैदूना कैदन व कैदू कदन। [सूरते तारिक आयत १५-१६] 

      वास्तव में मकर करते हैं एक मकर और मैं मकर करता हूँ एक मकर। 

      यही व्यवहार फ़रिश्तों से हुआ था कि उन्हें तो नाम सिखाए नहीं। आदम को सिखा दिए। फिर उनका मुकाबिला करा दिया। आदम अधिक विद्वान् निकला। जब अल्लाह ने अधिक ज्ञान दिया तो उसमें आदम की श्रेष्ठता क्या हुई? फ़रिश्तों को सिखा देता तो वे फ़ाज़िल हो जाते। 

      🔥व अल्लमा आदमल अस्मा आकुल्लबा सुम्मा अरजहुम अललमलाइकते, फ़काला अम्बिऊनी बिइस्म ए हाउलाए इन कुन्तुम सादिकीन…………कालू या आदमो अन्बइर्हमबिस्माइहिम काल अलम अकुल्लकुम इन्नीअलमौ रौबस्समावाते वलअरज़े। [सूरते बकर आयत ३१ व ३३] 

      और सिखाए आदम को सारे नाम। फिर किया सामने फ़रिश्तों के फिर कहा मुझे इनके नाम बताओ अगर सच्चे हो, कहा ए आदम बता दे इनके नाम। फिर जब बता दिए उनके नाम तो कहा क्या मैंने तुमसे न कहा था कि निश्चय ही मैं जानता हूँ गुप्त वस्तु को ज़मीन व आसमान की? 

      इसी प्रकार निम्नलिखित वचन हैं –

      🔥फ़यस्त्रवरुना मिनफहुम मस्खरल्लाहो मिनफहुम। [सूरते तौबा आयत ७९] 

      फिर ठट्ठा करते हैं और अल्लाह भी उनसे ठट्ठा करता है।       

      🔥इन्नलमुनाफ़िकूना युखाद ऊनल्लाहा व हुवाख़ाद अहुम। [नसा आयत १४२] 

      वास्तव में मुनाफिक (इस्लाम के विरोधी) धोखा देते हैं अल्लाह को और वह धोखा देता है उनको। 

      अल्लाह के धोखे में आ जाने की पराकाष्ठा यह है कि उत्तर में वह भी धोखा देने लगे। जैसा कि ईसा की कहानी में ऊपर वर्णन किया गया है। 

      सूरते बकर में आया है –

      🔥अल्लाहो उदुव्वुनलिल काफिरीन। [सूरते बकर आयत ९८]

      और अल्लाह है शत्रु काफ़िरों का। 

      लीजिए अब शत्रुता भी करने लगे, एक तो काफ़िर पैदा करना फिर शत्रुता पर तुल जाना। 

      सूरते निसा में लिखा है –

      🔥वल्लाहोअरकसहमबिमा कसबू, अतुरीदूना अन तहदू मन अज़ल्ललाहो वमन्यजुल्लिल्लाहो फ़लन तजिदालहूसबीला। [सूरत निसा आयत ८८]

      और अल्लाह ने उल्टा किया उन्हें साथ उसके जो उन्होंने किया। क्या तुम चाहते हो कि राह पर लाओ उसको जिसे पथ-भ्रष्ट किया अल्लाह ने और जिसे पथ-भ्रष्ट किया अल्लाह ने कदापि न पाएगा तू उसके लिए मार्ग। 

      इसकी विगत तफ़सीरे जलालैन में इस प्रकार दी गई है –

      जंगे उहद (इस्लाम के प्रारम्भिक युद्धों में से एक) से एक समूदाय गैर मुस्लिमों का भाग गया था। मुसलमान परेशान थे, अर्थात् उन्हें चिन्ता हुई कि उन्हें फिर मुसलमान बनावें तब अल्लाताला ने कहा कि इन्हें पथ-भ्रष्ट हमने किया है तुम इन्हें सन्मार्ग नहीं दिखा सकते। क्या ही अच्छा होता! कि इस्लाम मानने वाले भाग्य के इस चमत्कार के मानने वाले होते और शुद्धि को अल्लामियाँ की इच्छा मानकर उसके विरुद्ध शोर न मचाते। 

      कुरान स्वयं कहता है –

      🔥इन्नल्लजीना आमनू सुम्मा कफ़रु सुम्मा आमनू सुम्मा कफ़रु सुम्मा अज़दादू कुफ़रा, लमयकु निल्लाहो लियग़फ़रि लहुम वला लियहदीहिम सबीला। [सूरते निसा आयत १३७] 

      वास्तव में जो मुसलमान बने फिर काफ़िर हुए, फिर ईमान लाए, फिर काफ़िर हुए। फिर कुफ्र में वृद्धि की। अल्लाह उनको क्षमा नहीं करता और उन्हें मार्ग नहीं दिखाता। 

      इस आयत की व्याख्या तफ़सीरे हुसैनी में इस प्रकार है –

      वास्तव में जो लोग मूसा अलैहस्सलाम पर। ईमान लाए अर्थात् यहूदी फिर काफ़िर बन गए। गोसाला (बछड़ा) पूजने के कारण। फिर ईमान लाए और तौबा की फिर काफ़िर हो गए। ईसा अलैहिस्सलाम की शान में……….फिर ज्यादा किया उन्होंने कुफ्र मुहम्मद सल्लेअल्ला व सल्लम से इंकार करके….नहीं बख्शेगा अल्ला उन्हें, हकताला ने जान लिया है कि उनकी समाप्ति कुफ्र पर है। 

      ◾️यह व्यर्थ प्रयत्न क्यों? – इसका अर्थ यह है कि जिनके पूर्वज हज़रत मूसा पर ईमान लाकर फिर उनसे व उनके पश्चात् हज़रत ईसा व हज़रत मुहम्मद से भी विरोधी रहे उनके लिए न इस्लाम है और न जन्नत। हम आश्चर्यचकित हैं कि यह मुसलमान लोग इस्लाम के प्रचार का व्यर्थ का प्रयत्न ही क्यों करते हैं ?[६]

[📎 पाद टिप्पणी ६. पण्डितजी का भाव यह है कि जब अल्लाह को अपना दोज़ख़ भरना ही है और वह जिसे चाहता है मार्गभ्रष्ट करता है फिर इस्लाम के प्रचार का प्रयास ही व्यर्थ है। -‘जिज्ञासु’] 

      भाग्य-लेख की समस्या की विशेषता यह है कि मनुष्य मात्र तो उससे बन्ध गये हैं, यह और बात है कि कानून के साथ नहीं, अल्लाह मियाँ की अनियमित और अवैधानिक इच्छाओं के साथ मगर अल्लाह मियाँ स्वयं स्वतन्त्र हैं। किसी आचार संहिता व तर्क के बन्धन में नहीं।  

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰ 

📖 ‘चौदहवीं का चाँद’ पुस्तक से संकलित

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

अल्लाह-ताला एक सीमित व्यक्ति है [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-२] । ✍🏻 पण्डित चमूपति

[मौलाना सनाउल्ला खाँ कृत पुस्तक ‘हक़ प्रकाश’ का प्रतिउत्तर]

      प्रत्येक धर्म में सर्वोच्चकोटि की कल्पना परमात्मा के सम्बन्ध में है। कुरान शरीफ़ में उसे अल्लाहताला कहा गया है। कुरान के कुछ वर्णनों पर विचार करने से विदित होता है कि इस्लाम में परमात्मा की कल्पना किसी असीम शक्ति की नहीं है, अपितु स्थान, समय व शक्ति के रूप में एक सीमित व्यक्ति की कल्पना है। स्थानीयता की सीमा के साक्षी निम्नलिखित उद्धरण हैं। शेष प्रकारों की सीमा का वर्णन आगे चलकर किया जाएगा। 

      🔥इन्ना रब्बुकुमुल्लाहोल्लज़ी ख़लकस्समावात् वलअरज़ाफ़ि सित्तते अय्यामिन सुम्मस्तवा अलल अरशे। [सूरते यूनिस आयत ३] 

      वास्तव में पालनहार तुम्हारा अल्लाह है। जिसने उत्पन्न किया आकाशों को और भूमि को छह दिन में फिर स्थिरता धारण की ऊपर अर्श (अल्लाह का सिंहासन) पर। 

      तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है –

      मा बदो ईमान दारेम व तावीले आं बहक गुज़ारेम 

      व्याख्या अल्लाह पर छोड़ो – हम इस पर ईमान (श्रद्धा विश्वास) रखते हैं और उसकी व्याख्या अल्लाह मियाँ पर छोड़ते हैं। 

      सूरते हूद में आया है – 

      🔥व हुव ल्लज़ी ख़लकस्ममावाते वलअरज़े फ़ीसित्तते अय्यमिन व काना अरशहू अललमाए। [सूरते हूद आयत ७] 

      और जिसने उत्पन्न किया आकाशों को और भूमि को छह दिन में और है उसका अर्श (सिंहासन) पानी पर। 

      इस पर तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है –

      दर बरखे अज़ तफ़ासीर आवुर्दा कि हकताला दर मबदए आफ़रीनशं याकूते सब्ज बयाफ़रीद व बनज़र हैबत दरां निगरीस्त, आं जौहर आब शुद पस हक सुबहाना वताला बाद रा बयाफरीद व आब रा बर बालाए ओ बदाश्त व अर्श रा बर ज़बर आब जाए दाद, 

      अर्थात् कुछ कुरान के भाष्यों में वर्णन है कि अल्लाहताला ने सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भ में एक हरे रंग का याकूत (कीमती जवाहर पत्थर) बनाया और उसे आतंकपूर्ण दृष्टि से देखा। वह जौहर पानी हो गया फिर अल्लाहताला ने वायु बनाई और पानी को उस पर रखा। और अपने अर्श को (सिंहासन को) पानी के ऊपर स्थान दिया। 

      ◾️अल्लाह ऊपर ही है – इन उद्धरणों से सिद्ध हुआ कि अर्श कोई साकार वस्तु है। और अल्लाताला उस पर स्थित होने से साकार प्रतीत होता है। वायु के ऊपर जल है। जल के ऊपर अर्श है और अर्श के ऊपर अल्लामियाँ। निचला भाग स्वाभाविक रूप से अल्ला से रिक्त होगा। 

      सूरते हाका में इस स्थानीय सीमितता को स्वयं कुरान शरीफ़ के शब्दों में स्पष्ट किया गया है –

      🔥व यहमिलु अरशा रब्बुका फ़ौकहुम योमइज़िन समानियतन 

      और उठाएँगे तेरे रब (पालनहार) के सिंहासन को अपने ऊपर उस दिन आठ व्यक्ति। 

      जिसे आठ व्यक्ति उठाएँगे उसके साकार होने में क्या सन्देह रहा? यह आठ कौन हैं ? तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है 

      दर मआलिम आवुर्दा कि दरां रोज़ हमलाए अर्श हश्त बाशन्द ब सूरते बुज़ कोही, अज़ सुम्महाए एशां ता बज़ानू मसाफ़ते आं मिकदारे बुवद कि अज़ आसमाने ता ब आसमाने। 

      अर्थात् मआलिम (कुरान भाष्य) में लिखा है कि उस दिन तख़्त के उठाने वाले आठ होंगे जिन की सूरत पहाड़ी बकरे की होगी। उनके सुम्मों (एड़ियों) से घुटनों तक इतनी दूरी होगी जितनी एक आकाश से दूसरे आकाश तक (होती है)। 

      सूरते सिजदा में लिखा है –

      🔥युदब्बिरुल अमरा मिनस्समाए इललअरजे सुम्मा यअरुजो, फ़ीयीमिन काना मिकदारहू अलफ़ा सिनतिन मिम्मा तउद्दून, 

      व्यवस्था करता है हर बात की भूमि की ओर फिर चढ़ जाता है आसमान की ओर एक दिन में, (ख़ुदाई दिन) जिसका अनुमान तुम्हारी गणना में एक हजार वर्ष है। 

      ◾️इतनी दूर! – आसमान से भूमि की समस्याओं की देखभाल करने वाला फिर हज़ार वर्ष में ऊपर चढ़ने वाला शरीर रहित कैसे हो सकता है ? कुछ लोगों का ऐसा विचार है कि यहाँ चढ़ना अल्लाहमियाँ का नहीं, अपितु फ़रिश्तों का वर्णन है। फिर भी अल्लाहताला भूमि से इतना दूर तो है ही कि फ़रिश्तों को उसके पास जाते हज़ार वर्ष लगते हैं। वह भी तो शरीरधारी ही हुआ। 

      सूरते मआरिज में कहा है –

      🔥तअरजुल मलाइकतो वर्रुहोइलैहि फ़ीयोमिन काना मिकदारहू ख़मसीना अलफ़ा सिनतुन [सूरते मआरिज आयत ४] 

      चढ़ते हैं फ़रिश्ते और रूह उसकी ओर में उस दिन में जिसकी सीमा है पचास हजार वर्ष। 

      एक हजार और पचास हजार के अन्तर को ध्यान में न भी लावें तो अल्लाहताला की दूरी और सीमितता का वर्णन यहाँ भी स्पष्ट शब्दों में हुआ है। 

      ◾️अर्श का वाम दक्ष! सूराए वाकिया की प्रारम्भिक आयतों में बहिश्त में (स्वर्ग में) व दोज़ख़ (नरक) में रहने वालों का वर्णन है। बहिश्त में रहने वालों को असहाबुलमैमना अर्थात् ख़ुदा के दाहिनी ओर रहने वाले और दोज़ख़ में रहने वालों को असहाबुल मशीमता अर्थात् ख़ुदा के बाएँ तरफ़ रहने वाले कहा गया है। तफ़सीरे हुसैनी में इन शब्दों की व्याख्या करते हुए लिखा है कि – (असहाबुलमैमना) ब बहिश्तरवन्द व आँ दर यमीन अर्श अस्त, अर्थात् वे बहिश्त में जाएँगे और बहिश्त अर्श के दाएँ ओर है और (असहाबुलमशीमता) ब दोज़ख़ बरवन्द दोज़ख़ बर चपे अर्श अस्त, अर्थात् उन्हें दोज़ख़ ले जाएँगे और दोज़ख़ अर्श के बाएँ ओर है । जब अर्श के दाएँ और बाएँ दो दिशाएँ हैं और इस प्रकार वहाँ जाने वालों को दाएँ ओर के लोग व बाएँ ओर के लोग कहा जाता है तो अर्श को सीमा रहित कौन कह सकता है? सीमित स्थान का निवासी होने से अल्लाहमियाँ भी सीमित ही हुए। 

      सूरते ऐराफ़ में आया है – 

      🔥फलम्मा तजल्ला रब्बुहूलिलजबलेजअलहूदक्कन व ख़र्रामूसा सअकन। [सूरते आराफ़ आयत १४३] 

      फिर जब दर्शन किया स्वामी उसके ने पहाड़ की ओर किया उसे टुकड़े-टुकड़े और गिर पड़ा मूसा बेहोश। 

      यहाँ परमात्मा की उस ज्योति का वर्णन नहीं जो है तो समस्त ब्रह्माण्ड को घेरे हुए। परन्तु मनुष्य दृष्टि-दोष के कारण उसे पहचानता नहीं, बल्कि किसी ऐसी ज्योति का वर्णन है जिससे प्रकट होने से पहाड़ टूट गया, यह ज्योति जिसका प्रभाव शारीरिक है। आध्यात्मिक नहीं शारीरिक होगा, अर्थात् बिजली की भाँति का जिसका प्रकटीकरण सीमित है और उसे देखकर मूसा बेहोश हुआ। दूसरे शब्दों में परमात्मा की ज्योति आँखों की दृष्टि का आकर्षण भी है जैसे कि मूज़िहुलकुरान में इसी आयत पर लिखा है – 

      “इससे ज्ञात हुआ कि हकताला (परमात्मा) को देखना सम्भव है।” इस ज्योति को सीमित न कहें तो क्या कहें ? 

      सूरते नूर में फ़र्माया है –

      🔥अल्लाहो नूरु स्समावाते वल अरजे मस्सल नूरिही कमिश्कातिन फ़ीहा मिस्ब्बाहुन अलमिस्बाहे फ़जुजाजतिजुजाते। कअन्नहा कोकबुन योकदो मिनशजरतिन मुबा रिकतिन जैतूनतिन लाशर कियतुवला ग़रबियतुनयकादो जैतुहा युज़ियो व लौलम तमस्सहू नारुन। [सूरत नूर आयत ३५] 

      अल्लाह ज्योति है आसमानों की व ज़मीन की, उस (ताक) की भाँति (धनुष सरीखा) जिसमें दीपक हो और वह दीपक शीशे में हो वह शीशा एक तारा है प्रकाशमान है एक वृक्ष के तेल से कि मुबारिक जैतून का है न पूर्व का है न पश्चिम का है। निकट है तेल उसका कि प्रकाशमान हो जाए, यद्यपि उसको आग न लगे। 

      ◾️क्या समझे? – अनेक कुरान के भाष्य देखने पर भी समझ में नहीं आया कि उदाहरण पर उदाहरण पर इस वाक्य का आशय क्या है? हाँ यह स्पष्ट है कि अल्लाहताला का वर्णन शारीरिकता से ऊपर उठ नहीं सका। ताक (तिरवाल) क्या है ? दीपक क्या? शीशा क्या? जैतून का तेल क्या? अल्लाह नूर (ज्योति) है और ताक के सदृश है और तेल बिना अग्नि के प्रकाशमान होने वाला है कुछ रहस्य-सा है जिसकी सूक्ष्मता हमारी मोटी समझ में नहीं आती। 

      सूरते बकर की आयतें – ३३ से ३९, सूरते एराफ़ की आयतें ९ से १५, सूरते स्वाद की आयतें-७० से ७८ आदि स्थानों पर अल्लाहमियाँ का फ़रिश्तों, आदम और शैतान से वार्तालाप वर्णित है। इस वार्तालाप में आदम को शिक्षा देकर स्वर्ग में प्रविष्ट किया है। फ़रिश्तों ने पहले तो घमण्ड किया है, परन्तु फिर नतमस्तक (सिजदा) करने को तैयार हो गए हैं और शैतान आदि से अन्त तक विद्रोही बना रहा। और उसे तीन दिन तक अवसर दिया गया। वार्तालाप की प्रक्रिया एक शरीरधारी मनुष्य की-सी है जो डराता है, धमकाता है और फिर असहाय होकर घटनाओं के बहाव को उसके अपने ढंग से बहने देता है इस वार्तालाप के उद्धरण मनुष्य और शैतान के अध्याय में लिखे गए हैं वहाँ देखिए। 

      सुरते स्वाद में आदम को उत्पन्न करने की युक्ति बताई है 

      🔥ख़लकतो बियदय्या 

      बनाया मैंने दोनों हाथों के द्वारा। 

      यदि यहाँ हाथों का प्रयोग उदाहरण के रूप में हुआ है तो इससे आदम की उत्पत्ति की कोई विशेषता नहीं रही, क्योंकि बनाया तो औरों को भी अल्लाह ने ही है तो वे अभिवादनीय क्यों नहीं? दो हाथों की विशेषता वास्तविक हाथों पर प्रयुक्त है, जो शारीरिक होने 

की निशानी है।  

      सूरते शूरा में लिखा है – 

      🔥व मा कान लिबशरिन अन युकल्लिमहुल्लाहो इल्ला वहयन       

      ओमिन वराए हिजाबिन और युरसिलो रसूलन [सूरते शूरा आयत ५१]

      और नहीं है (सम्भव) किसी मनुष्य के लिए कि अल्लाह बात करे उससे, परन्तु संकेत से या पर्दे के पीछे से या भेजे सन्देश लाने वाला। 

      यदि परमात्मा मनुष्य के अन्दर विद्यमान है तो उसकी बात बिना किसी माध्यम के होनी चाहिए। संकेत, परदा और फ़रिश्ता (सन्देशवाहक-जिबरील की भाँति) सर्वव्यापक परमात्मा किस लिए प्रयुक्त करेगा? 

      तफ़सीरे हुसैनी में इसी आयत की व्याख्या करते हुए लिखा है –

      दर मूज़िह आवुरदा कि ख़ुदा बा रसूलिल्लाह सलअम सखुन गुफ्त अज़ो वराए हिजाबैन यानी हज़रत रसूल पनाह दर दो हिजाब बूद। कि सखुने ख़ुदा शुनीद, हिजाबे अज़ सुर्ख व हिजाबे अज़ मरवारीद सफ़ेद व मसीरत दरमियान हर दो हिजाब हफ़्ताद साला राह बूद। 

      मूज़िह में लिखा है कि ख़ुदा ने रसूलिल्लाह के साथ दो परदों के पीछे से कलाम किया, अर्थात् हज़रत दो पर्दो के बीच में थे जब उन्होंने ख़ुदा का कलाम सुना, एक पर्दा सुर्ख जरी का था और एक पर्दा सफ़ेद मोतियों का था और उन दोनों की दूरी एक दूसरे से सत्तर साल के सफ़र जितनी थी। 

      परदा ख़ुदा और उसके अतिरिक्त के बीच दूरी की सीमा के अतिरिक्त और क्या काम दे सकता है? रसूल ने पर्दे में ख़ुदा से बातचीत की तो ख़ुदा भी तो उसी परदे में होगा। 

      सूरते निसा में कहा है –

      🔥या अय्युहहन्नासू कद जाअकुमुर्रसूलो बिलहक्के मिन रब्बिकुम फ़आमिनू। [सूरत निसा] 

      ऐ लोगो! निःसन्देह आया तुम्हारे पास पैग़म्बर साथ सच्ची बात के तुम्हारे रब (पालनहार) के पास से अतः ईमान लाओ। 

      पैग़म्बर भी मनुष्य है और जब वह कोई सत्य की बात लाता है तो उसका माध्यम उपरोक्त तीन माध्यमों में से एक होगा। या तो वह अल्लाह मियाँ का संकेत पकड़ेगा या पर्दे में होकर बात करेगा या फ़रिश्ते (सन्देशवाहक) के द्वारा वाणी सुनेगा। दूसरे शब्दों में अल्लाह किसी मकान में सीमित रहेगा। वह अन्य संसार से पृथक् है और वह रसूल से बिना माध्यम के बात नहीं करता। 

      सूरते कदर में लिखा है –

      🔥तनज़्ज़लुल मलाइकतोवर्रूहो बिइज़नेरब्बिहिम मिनकुल्ले अमरिन। [सूरते कदर आयत ४] 

      उतरते हैं फ़रिश्ते और आत्माएँ अपने रब के आदेश के साथ प्रत्येक कार्य के लिए। 

      सूरते फ़जर में जिक्र है –

      🔥व जाआ रब्बुका वलमलको सफ़्फ़न सफ़्फ़न, व जाआ योमइज़िन बिजहन्नमा। [सूरते फ़जर आयत २२] 

      और आएगा रब तेरा और फ़रिश्ते सफ़ (लाइन) बाँधकर और लाया जाएगा उस दिन दोज़ख़। 

      यह वर्णन कयामत (प्रलय-न्याय का दिन) का है उस दिन गुनहगार व बेगुनाह सबके सामने रब आएगा। जिससे सिद्ध हुआ कि इस प्रकटीकरण का अर्थ ऐसा प्रकटीकरण नहीं जो साधक लोगों को हृदय-शुद्धि द्वारा प्राप्त होता है और सामान्य लोग अपने हृदय की बुराइयों के कारण उससे वंचित होते हैं, क्योंकि पापियों का हृदय तो उस समय भी शुद्ध न होगा। उनका हृदय का दर्पण जंग लगा हुआ होगा और उनके सामने रब आएगा। यह शारीरिक प्रकटीकरण है। तफ़सीरे हुसैनी में इसे और स्पष्ट कर दिया है। लिखा है –

      (दोजख रा) बर चपे अर्श बदारन्द, अर्थात् दोज़ख़ को अर्श के बाएँ रखेंगे। 

      जब अर्श का दायाँ-बायाँ है तो स्पष्ट ही वह शारीरिक ही हुआ। वह दायाँ-बायाँ वास्तव में अर्श पर बैठने वाले का ही होगा। उपरोक्त उद्धरणों से अल्लाहताला की सीमित अवस्था स्वयं सिद्ध है इस पर किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। ज़मीन व आसमान बनाकर अर्श पर विराजमान होना, अर्श का पानी पर रखा जाना, आठ फ़रिश्तों से उठाया जाना, हज़ार या पचास हजार वर्ष में स्वयं अल्लाह मियाँ का ज़मीन से आसमान तक या फ़रिश्तों का यह दूरी सफ़र करके उसकी ओर जाना, अर्श या अर्श पर बैठने वाले के दाएँ स्वर्ग और बाएँ नरक का होना, अल्लाह का आग की भाँति चमकना और पहाड़ का टुकड़े करना व मूसा को बेहोश करना, ताक चिराग जैतून का तेल या उनका नूर होना, डराना, धमकाना फिर चुप हो रहना, दो हाथों से पुतला तैयार करना, संकेत परदा या फ़रिश्ते के माध्यम से बात करना, फ़रिश्तों आदि का उसकी ओर से आना-जाना, न्याय के दिन उसका विशेषरूप से प्रकट होना, सीमा व उसके सीमाबद्ध व शरीरी होने के स्पष्ट चिह्न हैं। 

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰ 

📖 ‘चौदहवीं का चाँद’ पुस्तक से संकलित

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

क़ुर्आन का प्रारम्भ ही मिथ्या से [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-१] । ✍🏻 पण्डित चमूपति

[मौलाना सनाउल्ला खाँ कृत पुस्तक ‘हक़ प्रकाश’ का प्रतिउत्तर]

      वर्तमान कुरान का प्रारम्भ बिस्मिल्ला से होता है। सूरते तौबा के अतिरिक्त और सभी सूरतों के प्रारम्भ में यह मंगलाचरण के रूप में पाया जाता है। यही नहीं इस पवित्र वाक्य का पाठ मुसलमानों के अन्य कार्यों के प्रारम्भ में करना अनिवार्य माना गया है। 

      ऋषि दयानन्द को इस कल्मे (वाक्य) पर दो आपत्तियाँ हैं। प्रथम यह कि कुरान के प्रारम्भ में यह कल्मा परमात्मा की ओर से प्रेषित (इल्हाम) नहीं हुआ है। दूसरा यह कि मुसलमान लोग कछ ऐसे कार्यों में भी इसका पाठ करते हैं जो इस पवित्र वाक्य के गौरव के अधिकार क्षेत्र में नहीं। 

      पहली शंका कुरान की वर्णनशैली और ईश्वरी सन्देश के उतरने से सम्बन्ध रखती है। हदीसों (इस्लाम के प्रमाणिक श्रुति ग्रन्थ) में वर्णन है कि सर्वप्रथम सूरत ‘अलक’ की प्रथम पाँच आयतें परमात्मा की ओर से उतरीं। हज़रत जिबरील (ईश्वरीय दूत) ने हज़रत मुहम्मद से कहा – 

      🔥’इकरअ बिइस्मे रब्बिका अल्लज़ी ख़लका’ 

      पढ़! अपने परमात्मा के नाम सहित जिसने उत्पन्न किया। इन आयतों के पश्चात् सूरते मुज़मिल के उतरने की साक्षी है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ –

      🔥या अय्युहल मुज़म्मिलो 

      ऐ वस्त्रों में लिपटे हुए! 

      ये दोनों आयतें हज़रत मुहम्मद को सम्बोधित की गई हैं। मुसलमान ऐसे सम्बोधन को या हज़रत मुहम्मद के लिए विशेष या उनके भक्तों के लिए सामान्यतया नियत करते हैं। जब किसी आयत का मुसलमानों से पाठ (किरअत) कराना हो तो वहाँ ‘इकरअ’ (पढ़) या कुन (कह) भूमिका इस आयत के प्रारम्भ में ईश्वरीय सन्देश के एक भाग के रूप में वर्णन किया जाता है। यह है इल्हाम ईश्वरीय सन्देश कुरान की वर्णनशैली जिस से इल्हाम प्रारम्भ ही हुआ था। 

      अब यदि अल्लाह को कुरान के इल्हाम का आरम्भ बिस्मिल्लाह से करना होता तो सूरते अलक के प्रारम्भ में हज़रत जिबरील ने बिस्मिल्ला पढ़ी होती या इकरअ के पश्चात् बिइस्मेरब्बिका के स्थान पर बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम कहा होता। 

      मुज़िहुल कुरान में सूरत फ़ातिहा की टिप्पणी पर जो वर्तमान कुरान की पहली सूरत है, लिखा है – 

      यह सूरत अल्लाह साहब ने भक्तों की वाणी से कहलवाई है कि इस प्रकार कहा करें। 

      यदि यह सूरत होती तो इसके पूर्व कुल (कह) या इकरअ (पढ़) जरूर पढ़ा जाता। 

      कुरान की कई सूरतों का प्रारम्भ स्वयं कुरान की विशेषता से हुआ है। अतएव सूरते बकर के प्रारम्भ में, जो कुरान की दूसरी सूरत है प्रारम्भ में ही कहा – 

      🔥’ज़ालिकल किताबोला रैबाफ़ीहे, हुदन लिलमुत्तकीन’ 

      यह पुस्तक है इसमें कुछ सन्देह (की सम्भावना) नहीं। आदेश करती है परहेज़गारों (बुराइयों से बचने वालों) को। तफ़सीरे इत्तिकान (कुरान भाष्य) में वर्णन है कि इब्ने मसूद अपने कुरान में सूरते फ़ातिहा को सम्मिलित नहीं करते थे। उनकी कुरान की प्रति का प्रारम्भ सूरते बकर से होता था। वे हज़रत मुहम्मद के विश्वस्त मित्रों (सहाबा) में से थे। कुरान की भूमिका के रूप में यह आयत जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है, समुचित है। ऋषि दयानन्द ने कुरान के प्रारम्भ के लिए यदि इसे इल्हामी (ईश्वरीय रचना) माना जाए यह वाक्य प्रस्तावित किये हैं। यह प्रस्ताव कुरान की अपनी वर्णनशैली के सर्वथा अनुकूल है और इब्ने मसूद इस शैली को स्वीकार करते थे। मौलाना मुहम्मद अली अपने अंग्रेज़ी कुरान अनुवाद में पृष्ठ ८२ पर लिखते हैं –

      कुछ लोगों का विचार था कि बिस्मिल्ला जिससे कुरान की प्रत्येक सूरत प्रारम्भ हुई है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में बढाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं। 

      एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढ़ाने का समर्थन करती है वह है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में बढ़ाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं। 

      एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढाने का समर्थन करती है वह है सूरते तौबा के प्रारम्भ में कल्माए तस्मिआ (बिस्मिल्ला)का वर्णन न करना। वहाँ लिखने वालों की भूल है या कोई और कारण है जिससे बिस्मिल्ला लिखने से छूट गया है। यह न लिखा जाना पढ़ने वालों (कारियों) में इस विवाद का भी विषय बना है कि सूरते इन्फाल और सूरते तौबा जिनके मध्य बिस्मिल्ला निरस्त है दो पृथक् सूरते हैं या एक ही सूरत के दो भाग-अनुमान यह होता है कि बिस्मिल्ला कुरान का भाग नहीं है। लेखकों की ओर से पुण्य के रूप (शुभ वचन) भूमिका के रूप में जोड़ दिया गया है और बाद में उसे भी ईश्वरीय सन्देश (इल्हाम) का ही भाग समझ लिया गया है। 

      यही दशा सूरते फ़ातिहा की है, यह है तो मुसलमानों के पाठ के लिए, परन्तु इसके प्रारम्भ में कुन (कह) या इकरअ (पढ़) अंकित नहीं है। और इसे भी इब्ने मसूद ने अपनी पाण्डुलिपि में निरस्त कर दिया था। 

      स्वामी दयानन्द की शंका एक ऐतिहासिक शंका है यदि बिस्मिल्ला और सूरते फ़ातिहा पीछे से जोड़े गए हैं तो शेष पुस्तक की शुद्धता का क्या विश्वास? यदि बिस्मिल्ला ही अशुद्ध तो इन्शा व इम्ला (अन्य लिखने-पढ़ने) का तो फिर विश्वास ही कैसे किया जाए? 

      कुछ उत्तर देने वालों ने इस शंका का इल्ज़ामी (प्रतिपक्षी) उत्तर वेद की शैली से दिया है कि वहाँ भी मन्त्रों के मन्त्र और सूक्तों के सूक्त परमात्मा की स्तुति में आए हैं और उनके प्रारम्भ में कोई भूमिका रूप में ईश्वरीय सन्देश नहीं आया। 

      ◾️वेद ज्ञान मौखिक नहीं – वेद का ईश्वरीय सन्देश आध्यात्मिक, मानसिक है, मौखिक नहीं। ऋषियों के हृदय की दशा उस ईश्वरीय ज्ञान के समय प्रार्थी की दशा थी। उन्हें कुल (कह) कहने की क्या आवश्यकता थी। वेद में तो सर्वत्र यही शैली बरती गई है। बाद के वेदपाठी वर्णनशैली से भूमिकागत भाव ग्रहण करते हैं। यही नहीं, इस शैली के परिपालन में संस्कृत साहित्य में अब तक यह नियम बरता जाता है कि बोलने वाले व सुनने वाले का नाम लिखते नहीं। पाठक भाषा के अर्थों से अनुमान लगाता है। कुरान में भूमिका रूप में ऐसे शब्द स्पष्टतया लिखे गए हैं, क्योंकि कुरान का ईश्वरीय सन्देश मौखिक है जिबरईल पाठ कराते हैं और हजरत मुहम्मद करते हैं। इसमें ‘कह’ कहना होता है। सम्भव है कोई मौलाना ( इस्लामी विद्वान्) इस बाह्य प्रवेश को उदाहरण निश्चय करके यह कहें कि अन्य स्थानों पर इस उदाहरण की भाँति ऐसी ही भूमिका स्वयं कल्पित करनी चाहिए। निवेदन यह है कि उदाहरण पुस्तक के प्रारम्भ में देना चाहिए था न कि आगे चलकर, उदाहरण और वह बाद में लिखा जाये यह पुस्तक लेखन के नियमों के विपरीत है। 

      ऋषि दयानन्द की दूसरी शंका बिस्मिल्ला के सामान्य प्रयोग पर है। ऋषि ने ऐसे तीन कामों का नाम लिया है जो प्रत्येक जाति व प्रत्येक मत में निन्दनीय हैं। कुरान में मांसादि का विधान है और बलि का आदेश है। इस पर हम अपनी सम्मति न देकर शेख ख़ुदा बख्श साहब एम० ए० प्रोफ़ेसर कलकत्ता विश्वविद्यालय के एक लेख से जो उन्होंने ईदुज्ज़हा के अवसर पर कलकत्ता के स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित कराई थी, निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत किए देते हैं –

      ◾️ख़ुदा बख्श जी का मत – “सचमुच-सचमुच बड़ा ख़ुदा जो दयालु व दया करने वाला है वह ख़ुदा आज खून की नदियों का चीखते हुए जानवरों की असह्य व अवर्णनीय पीड़ा का इच्छुक नहीं प्रायश्चित?…. वास्तविक प्रायश्चित वह है जो मनुष्य के अपने हृदय में होता है। सभी प्राणियों की ओर अपनी भावना परिवर्तित कर दी जाए। भविष्य के काल का धर्म प्रायश्चित के इस कठोर व निर्दयी प्रकार को त्याग देगा। ताकि वह इन दोनों पर भी दयापूर्ण घृणा से दृष्टिपात करे। जब बलि का अर्थ अपने मन के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु या अन्य सत्ता का बलिदान है।” [- ‘माडर्न रिव्यु से अनुवादित’]

      दयालु व दया करने वाले परमात्मा का नाम लेने का स्वाभाविक परिणाम यह होना चाहिए था कि हम वाणी हीन जीवों पर दया का व्यवहार करते, परन्तु किया हमने इसके सर्वथा विरोधी कार्य…..। यह बात प्रत्येक सद्बुद्धि वाले मनुष्य को खटकती है। 

      ◾️मुजिहुल कुरान में लिखा है –

      जब किसी जानवर का वध करें उस पर बिस्मिल्ला व अल्लाहो अकबर पढ़ लिया करें। कुरान में जहाँ कहीं हलाल (वैध) व हराम ( अवैध) का वर्णन आया है वहाँ हलाल (वैध) उस वध को निश्चित किया है जिस पर अल्लाह का नाम पढ़ा गया हो। कल्मा पवित्र है दयापूर्ण है, परन्तु उसका प्रयोग उसके आशय के सर्वथा विपरीत है। 

      ▪️(२) इस्लाम में बहु विवाह की आज्ञा तो है ही पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों की भी परम्परा है। लिखा है – 

      🔥वल्लज़ीन लिफ़रूजिहिम हाफ़िजून इल्ला अललअज़वाजुहुम औ मामलकत ईमानु हुम। सूरतुल मौमिनीन आयत ऐन 

      और जो रक्षा करते हैं अपने गुप्त अंगों की, परन्तु नहीं अपनी पत्नियों व रखैलों से। तफ़सीरे जलालैन सूरते बकर आयत २२३       

      🔥निसाउकुम हर सुल्लकुम फ़आतू हरसकुम अन्ना शिअतुम 

      तुम्हारी पत्नियाँ तुम्हारी खेतियाँ हैं जाओ अपनी खेती की ओर जिस प्रकार चाहो। तफ़सीरे जलालैन में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है –

      बिस्मिल्ला कहकर – सम्भोग करो जिस प्रकार चाहो, उठकर, बैठकर, लेटकर, उल्टे-सीधे जिस प्रकार चाहो .. सम्भोग के समय बिस्मिल्ला कह लिया करो। 

      बिस्मिल्ला का सम्बन्ध बहु विवाह से हो रखैलों की वैधता से हो। इस प्रकार के सम्भोग से हो यह स्वामी दयानन्द को बुरा लगता है।

     ▪️(३) सूरते आल इमरान आयत २७ – 

      🔥ला यत्तख़िजु मौमिनूनलकाफ़िरीना औलियाया मिनदूनिल मौमिनीना………इल्ला अन तत्तकू मिनहुम तुकतुन 

      न बनायें मुसलमान काफ़िरों को अपना मित्र केवल मुसलमानों को ही अपना मित्र बनावें। 

      इसकी व्याख्या में लिखा है –

      यदि किसी भय के कारण सहूलियत के रूप में (काफ़िरों के साथ) वाणी से मित्रता का वचन कर लिया जाए और हृदय में उनसे ईर्ष्या व वैर भाव रहे तो इसमें कोई हानि नहीं…….जिस स्थान पर इस्लाम पूरा शक्तिशाली नहीं बना है वहाँ अब भी यही आदेश प्रचलित है। 

      स्वामी दयानन्द इस मिथ्यावाद की आज्ञा भी ईश्वरीय पुस्तक में नहीं दे सकते। ऐसे आदेश या कामों का प्रारम्भ दयालु व दयाकर्ता, पवित्र और सच्चे परमात्मा के नाम से हो यह स्वामी दयानन्द को स्वीकार नहीं। [इस्लामी साहित्य व कुर्आन के मर्मज्ञ विद्वान् श्री अनवरशेख़ को भी करनी कथनी के इस दोहरे व्यवहार पर घोर आपत्ति है। -‘जिज्ञासु’]

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰ 

📖 ‘चौदहवीं का चाँद’ पुस्तक से संकलित

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ ओ३म् ॥

यज्ञ में मन्त्रों से आहुति क्यों? – शिवदेव आर्य

‘यज्ञ’ शब्द यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु धातु से नङ्प्रत्यय करने से निष्पन्न हुआ है। जिस कर्म में परमेश्वर का पूजन, विद्वानों का सत्कार, संगतिकरण अर्थात् मेल और हवि आदि का दान किया जाता है, उसे यज्ञ कहते हैं। यज्ञ शब्द के कहने से नानाविध अर्थों का ग्रहण किया जाता है किन्तु यहाँ पर यज्ञ से अग्निहोत्र का तात्पर्य है।  अग्नेः होत्रम् अग्निहोत्रम्, अग्नि और होत्र इन दोनों शब्दों के योग से अग्निहोत्र शब्द निष्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ होगा कि जिस कर्म में अत्यन्त श्रद्धापूर्वक निर्धारित विधिविधान के अनुसार मन्त्रपाठसहित अग्नि में जो ओषधयुक्त हव्य आहुत करने की क्रिया की जाये, उसे अग्निहोत्र कहते हैं।

                महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में अग्निहोत्र के लाभ बताते हुए कहा है कि – ‘सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख़ और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीयसमुल्लास) आगे भी कहा है – ‘देखो! जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो के फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।’ (सत्यार्थप्रकाश, तृतीयसमुल्लास)

                इसी प्रकरण में प्रश्न उठाते हुए महर्षि स्वामी दयानन्द जी कहते हैं कि ‘जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और इतर आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा।’ इसके उत्तर में लिखते हैं कि – ‘उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु को प्रवेश करा सके क्योंकि उस में भेदक शक्ति नहीं है और अग्नि ही का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकाल कर पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है।’(सत्यार्थप्रकाश,तृतीयसमुल्लास)

                अग्निहोत्र की प्रक्रिया में मन्त्रोच्चारण की क्या आवश्यकता है? यदि अग्निहोत्र में बिना मन्त्रों से आहुति दे दी जाये तो क्या हानि? क्या मन्त्रों के स्थान पर अर्थों को पढ़कर आहुति दी जा सकती है? अंग्रेजी, ऊर्दू आदि के शब्दों को बोलकर क्या आहुति दी जा सकती है? इन समस्त जिज्ञासाओं का समाधान लोग अपने-अपने निज-आग्रह के आधार पर करते हैं किन्तु इन शंकाओं का समाधान हमारे वैदिक वाङ्मय में पहले से ही उपलब्ध है। अतः शास्त्रमर्यादाविहीन निज-आग्रह को छोड़ सत्यान्वेषी होना आवश्यक है।

                यज्ञ के प्रबल पोषक महर्षि देव दयानन्द सरस्वती जी ने शास्त्रानुशीलन कर ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के वेदविषयविचार में कहा है कि – वेदमन्‍त्रोच्चारणं विहायान्यस्य कस्यचित्पाठस्तत्र क्रियते तदा किं दूषणमस्तीति? अत्रोच्यते – नान्यस्य पाठे कृते सत्येतत्प्रयोजनं सिध्यति। कुतः? ईश्वरोक्ताभावान्निरतिशयसत्यविरहाच्च….। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदविषयविचारः)

                अर्थात् यज्ञ में वेदमन्त्रों को छोड़ के दूसरे का पाठ करें तो क्या दोष है? अन्य के पाठ में यह प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। ईश्वर के वचन से जो सत्य प्रयोजन सिद्ध होता है, आप्त पुरुषों के ग्रन्थों का बोध और उनकी शिक्षा से वेदों को यथावत् जानके कहता है, उसका भी वचन सत्य ही होता है। और जो केवल अपनी बुद्धि से कहता है वह ठीक-ठीक नहीं हो सकता। इससे यह निश्चय है कि जहाँ-जहाँ सत्य दीखता और सुनने में आता है, वहाँ वेदों में से ही फैला है, और जो जो मिथ्या है सो सो वेद से नहीं, किन्तु वह जीवों ही की कल्पना से प्रसिद्ध हुआ है। क्योंकि ईश्वरोक्त ग्रन्थ से सत्य प्रयोजन सिद्ध होता है, सो दूसरे से कभी नहीं हो सकता।

                महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने मन्त्रों से ही यज्ञों का विधान किया है, इसका प्रमाण ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में पुनः प्राप्त होता है – अग्निहोत्रकरणार्थं ताम्रस्य मृत्तिकाया वैकां वेदिं सम्पाद्य, काष्ठस्य रजतसुवर्णयोर्वा चमसमाज्यस्थलीं च संगृह्य, तत्र वेद्यां पलाशाम्रादिसमिधः संस्थाप्याग्निं प्रज्वाल्य, तत्र पूर्वोक्तद्रव्यस्य प्रातः सायंकालयोः प्रातरेव वोक्तमन्त्रैर्नित्यं होमं कुय्‍र्यात्। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, पंचमहायज्ञविषयः) इसमें स्पष्ट शब्दों में कहा है कि मन्त्रैर्नित्यं होमं कुय्‍र्यात् अर्थात् मन्त्रों से नित्य होम को करें। अतः स्पष्ट सिद्ध है कि यज्ञ वेद मन्त्रों से ही होना अनिवार्य है।

                 लब्धप्रतिष्ठित वैदिक विद्वान् आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी ने सामवेद भाष्य में – उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये। आरे अस्मे च शृण्वते।। (सामवेद-1379) इस मन्त्र का व्याख्यान करते हुए लिखा है कि ब्रह्मयज्ञ वा देवयज्ञ करते हुए मनुष्य मन्त्रोच्चारणपूर्वक परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभावों का ध्यान किया करें और उससे शिक्षा-ग्रहण किया करे।

                आर्य संन्यासी स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती जी श्रीमद्भगवद्गीता का भाष्य करते हुए कहते हैं कि-

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।

           श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।। (गीता-17/13)

                अर्थात् जो शास्त्र-विधि से हीन हो, जिसमें लोक-कल्याणार्थ अन्न तक न दिया गया हो, जो मन्त्रोच्चारणरहित हो, जिसमें कार्यकर्त्ताओं को दक्षिणा न दी गई हो, जो श्रद्धारहित मन से किया गया हो, उस यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं। इससे स्पष्ट है कि मन्त्रहीन यज्ञ तामससंज्ञक है, पुनः तामस यज्ञ विश्वकल्याण के लिए क्यों कर हो सकता है?

                महर्षि दयानन्द सरस्वती जी यजुर्वेद भाष्य में कहते हैं –

उपप्रयन्तोSअध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये।

आरेSअस्मे च  शृण्वते।। (यजुर्वेद-3/11)

                अर्थात् मनुष्यों को वेदमन्त्रों के साथ ईश्वर की स्तुति वा यज्ञ के अनुष्ठान को करके जो ईश्वर भीतर-बाहर सब जगह व्याप्त होकर सब व्यवहारों को सुनता वा जानता हुआ वर्त्तमान है, इस कारण उससे भय मानकर अधर्म करने की इच्छा भी न करनी चाहिये। जब मनुष्य परमात्मा को जानता है, तब समीपस्थ और जब नहीं जानता तब दूरस्थ है, ऐसा निश्चय जानना चाहिए।

                वैदिक विद्वान् हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी ने यजुर्वेद के भाष्य करते हुए –

यज्ञ यज्ञं गच्छ यज्ञपतिं गच्छ स्वां योनिं गच्छ स्वाहा।

                                एष ते यज्ञो यज्ञपते सहसूक्तवाकः सर्ववीरस्तं जुषस्व स्वाहा।। (यजुर्वेद – 08/22)

                प्रस्तुत मन्त्र एष ते यज्ञो यज्ञपते सहसूक्तवाकः का अर्थ कहते हुए स्पष्ट संकेत किया है कि ‘यह यज्ञ आपका ही है। इसके करने वाले आप ही हैं, हम लोग तो निमित्तमात्र हैं। यह यज्ञ ऋग्, यजुः आदि के सूक्तों से उच्चारण युक्त है।’

                पद्मभूषण डॉ.  श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी ने यजुर्वेद के सुबोध भाष्य में –

समुद्रे ते हृदयमप्स्वन्तः सं त्वा विशन्त्वोषधीरुतापः।

                                                यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत् स्वाहा।।

                                                                                                                                                                (यजुर्वेद – 08/25)

                प्रस्तुत मन्त्र यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत् स्वाहा का अर्थ – ‘हे यज्ञ के पालक! जिसमें वेद के सूक्त कहे जायें, ऐसे उत्तम यज्ञ कार्य में और वैदिक वचनों के उच्चारण में जो हवन योग्य पदार्थ हैं, वह तुझे हम अर्पण करें’ किया है।

                शतपथब्राह्मण में यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत् स्वाहा की व्याख्या – ‘यज्ञस्य त्वा यज्ञपते सूक्तोक्तौ नमोवाके विधेम यत्स्वाहेति तद्यदेव यज्ञस्य साधु तदेवास्मिन्नेतद्दधाति।’ (शतपथ ब्राह्मण – 4/4/5/20) की है।

                मन्त्रों के बिना यज्ञ के स्वरूप की तथा उसकी पूर्णता की कल्पना नहीं जा सकती है, क्योंकि त्रयी विद्या रूप मन्त्र, यज्ञ से अभिन्न हैं – सैषा त्रयी विद्या ऋक्यजूंषिनामानि। (शतपथ ब्राह्मण – 1/1/4/3)

                शतपथ ब्राह्मण में आगे कहा गया है –

‘वागेवSर्चश्च सामानि च मन एव यजूंषि’ (शतपथ ब्राह्मण – 1/1/4/3)

                अर्थात् वाचा, मनसा, कर्मणा यज्ञानुष्ठान के लिए मन्त्रों का विनियोग आवश्यक है।

                छान्दोग्य ब्राह्मण ग्रन्थ में वेदमन्त्रों से यज्ञादि कर्म का प्रतिपादन किया गया है –

यो ह वा अविदिताSर्षेयच्छन्दो दैवताविनियोगेन ब्राह्मणेन मन्त्रेण याजयति वाSध्यापयति वा स स्थाणुं वर्च्छति गर्त्तं वा पद्यते, प्रमीयते वा पापीयान् भवति यातयामान्यस्यच्छन्दांसि भवन्ति।

(छान्दोग्य ब्राह्मण-3/7/5)

                इसका भाव यह है कि जो याजक वैदिक छन्द को बिना जाने ही केवल देवता सम्बन्धी विनियोगपूर्वक ब्राह्मण ग्रन्थीय मन्त्र से यजन कराता है, अध्यापन करता है, वह मन्त्र प्रयोक्ता याजक या अध्यापक वृक्ष, लता आदि जड़ योनि को प्राप्त होता है अथवा दुःखालयाSत्मक नरक को प्राप्त करता है। इसप्रकार  यदि कोई करता है तो उसे छान्दोग्य ब्राह्मण में पापियों में अतिनिकृष्ट कहा है।

                इसी तथ्य का प्रतिपादन करते हुए सर्वाSनुक्रम सूत्र में महर्षि कात्यायन जी कहते हैं कि –

‘छन्दांसि गायत्र्‍यादीनि एतान्यविदित्वा योSधीतेSनुब्रूते जपति, जुहोति, यजते याजयते तस्य ब्रह्म निर्वीर्यं यातयामं भवति। अथाSन्तरा श्वगर्तं वा पद्यते स्थाणुं वर्च्छति प्रमीयते वा पापीयान् भवति।’

(सर्वाSनुक्रम सूत्र)

                अर्थात् जो व्यक्ति गायत्री आदि छन्दों के ज्ञान से रहित होकर वेदाध्ययन करता है, वेदमन्त्रों का अभ्यास करता है, यज्ञकर्म में वेदमन्‍त्रों को उच्चारित करता है, यागक्रिया करता व कराता है तो वह व्यक्ति पाप का भागी होता है। अतः महर्षि कात्यायन के अनुसार सिद्ध है कि यज्ञ मन्त्र के सम्यक् उच्चारण व विधिविधान से होना चाहिए।

                महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में यज्ञ में मन्त्रों के उच्चारण का उद्देश्य दर्शाते हुए कहा है कि इससे मन्त्रों की रक्षा भी होती हैं। इसी तथ्य को महर्षि पतंजलि ने व्याकरणमहाभाष्य के प्रथम पस्पशाह्निक में उल्लेख किया है कि – ‘रक्षार्थं वेदानामध्येयं व्याकरणम्’  अर्थात् वेदों की रक्षा के लिए व्याकरण का अध्ययन करें। वेदाध्यय के द्वितीय प्रयोजन में महर्षि पतंजलि ने व्याकरणमहाभाष्य में लिखा है कि – ‘ऊहः खल्वपि – न सर्वैर्लिङ्गैर्न च सर्वाभिर्विभक्तिभिर्वेदे मन्त्र निगदिताः। ते चावश्यं यज्ञगतेन यथायथं विपरिणमयितव्याः। तान्नावैयाकरणः शक्नोति यथायथं विपरिणमयितुम्।’ (व्याकरणमहाभाष्य, प्रथम पस्पशाह्निक) उक्त प्रयोजन में भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि वेदमन्त्रों से यज्ञकर्म होना चाहिए।

                आगे एक प्रयोजन को महर्षि पतंजलि उद्धृत करते हुए कहते हैं कि –

     विभक्तिं कुर्वन्ति – याज्ञिकाः पठन्ति – प्रयाजाः सविभक्तिकाः कार्या इति। न चान्तरेण व्याकरणं प्रयाजाः सविभक्तिकाः शक्याः कर्तुम्। विभक्तिं कुर्वन्ति। (व्याकरणमहाभाष्य, प्रथम पस्पशाह्निक) यहॉँ पर प्रयाजाः शब्द से वेदमन्त्र का ग्रहण किया गया है। अतः स्पष्ट है कि वेद मन्त्रों से यज्ञ होना आवश्यक है।

                प्रयाजा शब्दात्मक ऋग्वेद में दो मन्त्र प्राप्त होते हैं –

प्रयाजान्मे अनुयाजाँश्च केवलानूर्जस्वन्तं हविषो दत्त भागम्।

घृतं चापां पुरुषं चौषधीनामग्नेश्च दीर्घमायुरस्तु देवाः।।

तव प्रयाजा अनुयाजाश्च केवल ऊर्जस्वन्तो हविषः सन्तु भागाः।

           तवाग्ने यज्ञो यमस्तु सर्वस्तुभ्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्रः।। (ऋग्वेद- 10/51/8-9)

                पाणिनीय व्याकरण के ओमभ्यादाने (अष्टाध्यायी-8/2/87)  इस सूत्र में कहा है कि मन्त्रों के उच्चारण से पूर्व जो ओ३म् है, उसको प्लुत हो जाता है। प्रणवष्टेः (अष्टाध्यायी-8/2/89)  इस सूत्र के अनुसार यज्ञकर्म में वेदमन्त्रों के टि भाग को ‘ओ३म्’ आदेश का विधान कर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है – अपां रेतांसि जिवन्तो३म्। इससे स्पष्ट होता है कि पाणिनीय काल में वेदमन्त्रों से यज्ञ करने का विधान था।

                ‘पुरुषविद्यानित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रे वेदे’ (निरुक्त) आचार्य यास्क के अनुसार पुरुष की विद्या अनित्य है और मन्त्र परमात्मा की वाणी होने से नित्यज्ञान है। अतः अग्निहोत्रादि कर्म नित्यज्ञान से युक्त युक्त वेदमंत्रें से करने चाहिए। उपरोक्त वैदिक प्रमाणों से यह ज्ञात होता है कि महर्षि देव दयानन्द सरस्वती जी ने आर्षशास्त्र मर्यादा का अनुशीलन कर शास्त्रपरम्परा को अक्षुण्य बनाने का मार्ग प्रशस्त किया है, हमें इसी शास्त्रपरम्परा के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

– गुरुकुल पौन्धा,

देहरादून (उत्तराखण्ड)

हम हिन्दू है वा आर्य ? । ✍🏻 पण्डित चमूपति एम॰ए॰

[यह “आर्य” का सम्पादकीय लेख का अंश है जो की आषाढ़ सम्वत् १९८२ (जुलाई सन् १९२५) अंक में छपा था]

      आर्यसमाज की स्थापना हुए ५० साल से ऊपर हो चुके हैं और तभी से उसका यह दावा रहा है कि हमारे प्राचीन साहित्य में सर्वत्र स्थान-स्थान पर इस देश के रहने वाले लोगों के लिये ‘आर्य’ शब्द ही का प्रयोग होता रहा है और ‘हिन्दू’ शब्द हमारे विरोधी यवन लोगों का ही चलाया हुआ है। इस पर समय-समय पर हिन्दू (सनातनी) लोगों की ओर से यह कहा जाता रहा कि यह सब कार्यवाही इने गिने कुछेक आर्यसमाजियों की है और इसका उद्देश्य गुप्त रूप से आर्यसमाज का प्रचार करना है। अब भी कुछेक ऐसे व्यक्ति हैं जो निष्काम भाव से इस बात का विश्वास रखते हैं और हृदय से इसे स्वीकार करते हैं कि इस देश का नाम हिन्दू है। किन्तु उन्हें यह याद रखना चाहिए कि यह प्रश्न कोई आर्यसमाजियों का उठाया हुआ नहीं है। आज से ५५ साल पूर्व (जब आर्यसमाज की इस रूप में स्थापना भी नहीं हुई थी) भी काशी के विद्वानों में इस प्रश्न ने खलबली पैदा की थी। उस समय उन विद्वानों ने इस विषय में जो व्यवस्था दी थी इसे अभी स्वामी श्रद्धानन्दजी ने पुराने कागजों से निकाल कर पत्रों में प्रकाशित कराया है। वह निम्न प्रकार है – 

      🤔प्रश्न – श्रीमद्भागवत, एकादश स्कन्ध, सत्रहवें अध्याय में लिखा है कि सतयुग हंसवर्ण सब कोई कहाबते थे; और त्रेता में हंसाक्त चार वर्ण, चार आश्रम का विभाग होता गया। इस कारण वर्णाश्रमी कहाये। अब सब कोई हिन्दू नाम करके ख्याल करते हैं। सो हिन्दू शब्द की चर्चा कोई शास्त्र में नहीं मिलती। इस हेतु हम यह जानना चाहते हैं, कि हिन्दू कहावना उचित वा अनुचित है? 

      🌺उत्तर – वर्णाश्रमी देश बोधक जो हिन्दू शब्द है सो यवन-संकेतित है। वर्णाश्रमी बोधक जो हिन्दू शब्द है, यह भी यवन-सङ्केतित है। इस कारण हिन्दू कहावना सर्वथा अनुचित है। यह निर्णय श्रीकाशी मध्य टेढ नीम तले श्रीमहाराजाधिराज काशीराज महाराज संरक्षित धर्म-सभा में सब लोगों ने किया। हस्ताक्षर –

      (१) श्री विश्वनाथ शर्मा …………….(४५) श्रीबाबा शास्त्री। 

      🔥हिन्दूशब्दो हि यवनेष्वधर्मिजनबोधकः। 

      अतो नाहति तच्छब्द बोध्यतां सकलो जनः। 

      पापिनां पानी यवनः संकेत कृतवान्नरः। 

      नोचितः स्वीकृतोस्माभिर्हिन्दूशब्द इतीरितः॥ 

      काफ़िर को हिन्दू कहत, यवर स्व-भाषा मांहि। 

      ताते हिन्दू नाम यह, उचित कहइवो नांहि॥

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰

[📖 साभार ग्रन्थ – विचार वाटिका(भाग-२) – राजेंद्र जिज्ञासु]

प्रस्तुति –  🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्।

भुद्राऽउते प्रशस्तयो भद्रं मनः कृणुष्व वृत्रतूर्ये येना समत्सु सासर्हः ।

-यजु० १५ । ३९

हे वीर! तू ( वृत्रतूर्ये ) पापी के वध में ( मनः) मन को ( भद्रं कृणुष्व ) भद्र रख, ( येन ) जिस मन से तू ( समत्सु ) युद्धों में ( सासहः ) अतिशय पराजयकर्ता [होता है] ।।

हे वीर! तू पापी का वध करने के लिए क्यों प्रवृत्त हुआ है? तेरा उद्देश्य तो पाप का वध करना है। यदि पापी का वध किये बिना पाप का वध हो सके, तो क्या यह मार्ग तुझे स्वीकार नहीं है? प्रेम से या साम, दान, भेद रूप उपायों से भी तो पापी के हृदय को शुद्ध और निष्पाप किया जा सकता है। हाँ यदि इस प्रकार के सभी उपाय निष्फल हो जाएँ तब पापी से संघर्ष करना, युद्ध करना, उसे पराजित करना, दण्डित करना या उसका समूल नाश कर देना भी अनिवार्य हो सकता है। याद रख, वृत्रतूर्य में भी, पापी के साथ संग्राम में भी अपने मन को भद्र ही रखना है, मन को क्रोध, विद्वेष आदि से अभद्र या मलिन करके उससे युद्ध नहीं करना है। युद्ध में यही भावना रखनी है कि यदि शत्रु पाप करना छोड़कर धर्ममार्ग पर आ जाता है, हम-जैसा भद्र बन जाता है, तो युद्ध बन्द करके उससे सन्धि करनी अधिक उचित है।

संग्राम में विजयी होने के अनन्तर जो तेरा स्वागत हो, कविजन तेरे लिए प्रशस्तिगीतियाँ रचें, वे भी भद्र ही होनी चाहिएँ। उनमें तेरी शूरता का, अग्रगामिता का, शत्रुदल के  छक्के छुड़ा देने का, शत्रुसेना को आगे बढ़ने देने से रोक कर पीछे खदेड़ देने आदि को ही वर्णन होना चाहिए। उसमें तेरी इस यद्धनीति की चर्चा होनी चाहिए कि शत्र ने जब अपनी हार मानकर शस्त्र नीचे रख दिये, तब तूने भी युद्ध बन्द करके उनके साथ भद्रता का व्यवहार किया। ऐसा प्रशस्तिगान नहीं होना चाहिए कि कुछ ही शत्रुओं को कैद करके या मारकर भी युद्ध जीता जा सकता था, फिर भी तूने समस्त शत्रुओं का उच्छेद कर डाला। यदि तेरी ऐसी प्रशस्ति होती है कि एक भी शत्रु का वध किये बिना तूने युद्ध जीत लिया, तो हमें तुझ पर गर्व होगा। यदि शत्रु भी तेरी जय बोलते हुए तेरे स्वागत में हमारे साथ सम्मिलित होंगे, तो हम तुझे राजनीतिविशारद कहकर तेरा अभिनन्दन करेंगे। | तेरा मन जहाँ उत्साही, शत्रुविजय के प्रति आशावादी होगा, वहाँ शत्रु के प्रति यदि भद्र और उदार भी होगा, तो तू शत्रुओं को भी अपना मित्र बना सकेगा। जा, युद्ध में अग्रसर हो, सफल संग्रामकर्ता के रूप में प्रशस्ति प्राप्त कर।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वृत्रतूर्य-संग्राम। निचं० २.१७

२. कृणुष्व, कृवि हिंसाकरणयोः, भ्वादिः ।

३. समत्=संग्राम। निघं० २.१७ ४. सासह: अतिशयेन सोढा-द० । षह अभिभवे, छान्दस।

तेरी प्रशस्तियाँ भद्र हों-रामनाथ विद्यालंकार