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चतुर्भुज नारायण के दर्शन (एकादश समुल्लास)

चतुर्भुज नारायण के दर्शन

एक सहजानंद नामा पुरूष अयोध्या के समीप एक ग्राम का जन्मा हुआ था वह ब्रह्मचारी होकर गुजरात, काठियावाड़, कच्छभुज, आदि देशो मे फिरता था उसने देखा कि यह देश मुर्ख और भोला-भाला है चाहे जैसे इनको अपने मत मे झुका ले वैसे ही यें लोग झुक सकते है वहा उन्होंने दो चार शिष्य बनाए उनमे आपस मे सम्मति कर यह प्रसिद्ध किया कि सहजानंद नारायण का अवतार और बड़ा सिध्द पुरूष है और भक्तो को साक्षात शंख, चक्र, गद्या, धारण किए हुए अपने चतुर्भुज रूप मे दर्शन भी देता है एक बार काठियावाड़ मे किसी काठी अर्थात् जिसका नाम दादाखाचर गढ़डे का भूमिया (जमीदार) था उसको शिष्यो ने कहा कि तुम चतुर्भुज नारायण का दर्शन करना चाहो तो हम सहजानंद जी से प्रार्थना करेंगे उसने कहा बहुत अच्छी बात है वह भोला आदमी था । एक कोठरी मे सहजानंद ने सिर पर मुकुट धारण कर और शंख, चक्र अपने हाथ मे ऊपर को धारण किया और दूसरा आदमी उनके पीछे खड़ा रहकर गदा पद्म अपने हाथ मे लेकर सहजानंद की बगल मे से आगे को हाथ निकाल चतुर्भुज नारायण के तुल्य बनठन गए । दादाखाचर से सहजानंद के चेलो ने कहा आंख उठा देखकर फिर आंख मूंद लेना और झट इधर को चले आना जो बहुत देखोगे तो नारायण कोप करेंगे अर्थात् चेले के मन मे यह था कि हमारे कपट की परिक्षा ना लेवे उसको ले गए वह सहजानंद कलाबत्तू और चमचमाते हुए रेशम के कपड़े धारण कर रहा था अंधेरी कोठरी मे खड़ा था उसके चेलो ने एकदम लालटेन से कोठरी की ओर उजाला कर दिया दादाखाचर ने देखा तो चतुर्भुज साक्षात नारायण भगवान दिख गए फिर चेलो ने झट लालटेन को आड़ मे कर दिया वे सब पीछे की ओर गिर, नमस्कार कर दूसरी ओर के रास्ते से निकल चले आए और उसी समय बीच मे बातचीत शुरू कर दी कि तुम्हारा तो धन्य भाग्य है भगवान नारायण ने तुम्हे साक्षात अपने चतुर्भुज रूप मे प्रकट होकर दर्शन दिए है अब तुम महाराज भगवान सहजानंद जी के शिष्य बन जाओ कृपा बरसेगी उसने कहा बहुत अच्छी बात है जब तक वे सहजानंद के कक्ष मे गए उसके पहले ही दूसरे रास्ते से सहजानंद अपने वास्तविक वस्त्र पहन कर कक्ष मे आ बैठा था तब चेलो ने कहा कि देखो अब दूसरा रूप धारण करके यहा विराजमान है ।

(सत्यार्थ प्रकाश एकादश समुल्लास )
प्रस्तुतकर्ता :- दीपक कुमार झा

सांख्यकार कपिल मुनि अनिश्वरवादी नही

क्या सांख्यकार कपिल मुनि अनीश्वरवादी थे?

लेखक- स्वामी धर्मानन्द

प्रस्तुति- दीपक कुमार झा

माननीय डॉ० अम्बेदकरजी से गत २७ फर्वरी को मेरी जब उनकी कोठी पर बातचीत हुई तो उन्होंने यह भी कहा कि सांख्यदर्शन में ईश्वरवाद का खण्डन किया गया है। यही बात अन्य भी अनेक लेखकों ने लिखी है किन्तु वस्तुतः यह अशुद्ध है। सांख्य दर्शन में ईश्वर के सृष्टि के उपादान कारणत्व का निम्न सूत्रों द्वारा खण्डन किया गया है उसका यह अर्थ समझ लेना कि यह ईश्वरवाद मात्र का खण्डन है, अशुद्ध है। उदाहरणार्थ निम्न सूत्रों को देखिए-
तद्योगेऽपि न नित्य मुक्त:।। सांख्य ५/७

अर्थात् यदि ईश्वर को इस सृष्टि का उपादान कारण माना जाएगा तो ईश्वर नित्य मुक्त नहीं समझा जाएगा, क्योंकि उपादान कारण मानने से उसमें रागादि की प्रवृत्ति माननी पड़ेगी जो नित्य मुक्त में नहीं हो सकती।

प्रधान शक्ति योगाच्चेत् संगापत्ति:।। सांख्य ५/८

अर्थात् यदि ईश्वर और प्रकृति की शक्ति का योग मान लिया जाए तो संग की प्राप्ति से अन्योन्याश्रय होगा। ईश्वर को किसी आश्रय की आवश्यकता नहीं।

सत्तामात्राच्चेत् सर्वैश्वर्यम्।। सांख्य ५/९

अर्थात् यदि ईश्वर को इस जगत् का उपादान कारण माना जाए तो ईश्वर में गुण (सर्वज्ञादि) हैं वे इस जगत् में भी होने चाहिये परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता। इसलिये ईश्वर इस सृष्टि का उपादान कारण नहीं, निमित्त कारण मात्र है।

प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धि:।। सांख्य ५/१०

प्रत्यक्ष प्रमाण के न होने से ईश्वर को जगत् का उपादान कारण नहीं किया जा सकता।

सम्बन्धाभावान्नानुमानम्।। सांख्य ५/११
अर्थात् अनुमान प्रमाण द्वारा भी सिद्ध नहीं किया जा सकता कि ईश्वर जगत् का उपादान कारण है क्योंकि बिना प्रयोजन के कोई कार्य नहीं होता और ईश्वर में प्रयोजन का अभाव है। ऐसी अवस्था में ईश्वर को जगत् का उपादान कारण नहीं माना जा सकता।
श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य।। सांख्य ५/१२
अर्थात् श्रुति भी प्रधान व प्रकृति से सृष्टि का होना मानती है।
अजामेकां लोहित शुक्ल कृष्णां बह्वी: प्रजा: सृजमानां स्वरूपा:।
अजोह्येको जुषमाणोऽनु शेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्य:।।
इत्यादि वचनों में प्रकृति को ही जगत् का उपादान कारण बताया गया है न कि परमेश्वर को।

सांख्यशास्त्र में ईश्वर की सत्ता के प्रतिपादक सूत्र

उपर्युक्त सूत्रों के आधार पर किसी को यह भ्रम न हो जाए कि सांख्यदर्शन में ईश्वर के अस्तित्व का खण्डन किया गया है निम्नलिखित सूत्रों का निर्देश करना हमें प्रसङ्ग वश आवश्यक प्रतीत होता है।

अकार्यत्वेऽपितद् योग: पारवश्यात्।। सांख्य ३/५५

प्रश्न यह है कि प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण क्यों माना गया है? इसका उत्तर इस सूत्र में दिया गया है। प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण इसलिये माना गया है क्योंकि वह परवश है और जो परवश होता है उसे ही काम करना पड़ता है इसलिए प्रकृति को ही सृष्टि करने का योग है।

स हि सर्ववित् सर्व कर्ता।। सांख्य ३/५६

अर्थात् (स:) वह परमेश्वर (हि) निश्चय से (सर्ववित्) सर्वज्ञ है (सर्व कर्ता) सबका कर्ता है। प्रकृति तो इस सृष्टि का उपादान कारण है और जो परमात्मा सर्वज्ञ है वह सबका नैमित्तिक कारण है।

ईदृशेश्वर सिद्धि: सिद्धा।। सांख्य ३/५७

अर्थात् इसप्रकार के ईश्वर की सिद्धि सिद्ध है। इस प्रकार के सर्वज्ञ ईश्वर की सिद्धि स्पष्ट है जो इस सृष्टि का नैमित्तिक कारण है, वह सृष्टि का उपादान कारण नहीं।

ईश्वर का स्वरूप

सांख्य दर्शन के निम्न सूत्रों में ईश्वर के स्वरूप का स्पष्ट प्रतिपादन है-
व्यावृत्तोभय रूप:।। सांख्य १/१६०

अर्थात् ईश्वर प्रकृति और पुरुष (आत्मा) से भिन्न है।

साक्षात् सम्बन्धात् साक्षित्वम्।। सांख्य १/१६१

अर्थात् प्रकृति और जीवात्मा के साथ सम्बन्ध होने से और उनका अधिपति होने से ईश्वर उनका साक्षी है- वह उनके कार्य का निरीक्षक है जैसे कि वेद में भी कहा है-

“द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।” ऋ० १/१६४/२

अर्थात् दो पक्षी (परमात्मा और जीवात्मारूपी) अनादि होने से समान प्रकृतिरूप वृक्ष पर मानो बैठे हैं। वे दोनों परस्पर मित्र हैं। उनमें से एक (जीवात्मा) वृक्ष के फल को खा रहा है और दूसरा (परमात्मा) उसे देख रहा है। साक्षी है।
नित्यमुक्तत्वम्।। सांख्य १/१६२

वह ईश्वर नित्य मुक्त है। इस विषय में योगदर्शन में कहा है- “क्लेश कर्म विपाकाशयैर परामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।।”
औदासीन्यं चेति।। सांख्य १/१६३

वह परमात्मा उदासीन वृत्तिवाला है, अर्थात् पक्षपातरहित है। वह न्यायकर्ता है और किसी का पक्ष नहीं लेता।

उपरागात् कर्तृत्वं चित्सान्निध्यात् चित्सान्निध्यात्।। सांख्य १/१६४

अर्थात् प्रकृति और जीवात्मा के साथ सम्बन्ध होने से उस परमात्मा की कर्तृत्व शक्ति का प्रसार दिखलाई देता है, अर्थात् वह ईश्वर इस सृष्टि का कर्ता, पालक, पोषक और संहारक है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन के कर्ता कपिल मुनि अनीश्वरवादी न थे। उनके नाम से अनीश्वरवाद का समर्थन करना उनके साथ घोर अन्याय करना है। सांख्यदर्शन के यथार्थ तत्त्व को जो विशेषरूप से जानना चाहते हैं उन्हें स्वामी हरिप्रसादजी कृत ‘सांख्यसूत्र वैदिक वृत्ति’ और श्री गोपालजी बी०ए० कृत ‘सांख्य सुधा’ (प्राच्य साहित्य मण्डल १५ हनुमान् रोड नई देहली द्वारा प्रकाशित) इत्यादि पुस्तकों का अनुशीलन करना चाहिए। विस्तार भय से हम इस प्रसंगागत विषय को यहीं समाप्त करते हैं।

वैदिक संध्योपासना

वैदिक संध्या पूर्णत वैज्ञानिक और प्राचीन काल से चली आ रही हैं। यह ऋषि-मुनियों के अनुभव पर आधारित हैं वैदिक संध्या की विधि से उसके प्रयोजन पर प्रकाश पड़ता है। मनुष्य में शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित और अहंकार स्थित हैं। वैदिक संध्या में आचमन मंत्र से शरीर, इन्द्रिय स्पर्श और मार्जन मंत्र से इन्द्रियाँ, प्राणायाम मंत्र से मन, अघमर्षण मंत्र से बुद्धि, मनसा-परिक्रमा मंत्र से चित और उपस्थान मंत्र से अहंकार को सुस्थिति संपादन किया जाता है। फिर गायत्री मंत्र द्वारा ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना और उपासना की जाती हैं। अंत में ईश्वर को नमस्कार किया जाता हैं। यह पूर्णत वैज्ञानिक विधि हैं जिससे व्यक्ति धार्मिक और सदाचारी बनता हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करता हैं।
हमें प्रात: व सायं मन, वचन और कर्म से पवित्र होकर संध्योपासना करनी चाहिए | प्रात: काल पूर्व की ओर मुख करके और सायं काल पश्चिम की ओर मुख करके संध्या करनी चाहिए |

|| गायत्री मन्त्र ||

ओ३म् भूर्भुव: स्व: | तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि |
धियो यो न: प्रचोदयात् ||
यजुर्वेद ३६.३

पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (भूः) कर्मकाण्ड की विद्या (भुवः) उपासना काण्ड की विद्या और (स्वः) ज्ञानकाण्ड की विद्या को संग्रहपूर्वक पढ़के (यः) जो (नः) हमारी (धियः) धारणावती बुद्धियों को (प्रचोदयात्) प्ररेणा करे, उस (देवस्य) कामना के योग्य (सवितुः) समस्त ऐश्वर्य के देनेवाले परमेश्वर के (तत्) उस इन्द्रियों से न ग्रहण करने योग्य परोक्ष (वरेण्यम्) स्वीकार करने योग्य (भर्गः) सब दुःखों के नाशक तेजःस्वरूप का (धीमहि) ध्यान करें, वैसे तुम लोग भी इसका ध्यान करो ॥३ ॥
भावार्थभाषाः -इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य कर्म, उपासना और ज्ञान सम्बन्धिनी विद्याओं का सम्यक् ग्रहण कर सम्पूर्ण ऐश्वर्य से युक्त परमात्मा के साथ अपने आत्मा को युक्त करते हैं तथा अधर्म, अनैश्वर्य और दुःखरूप मलों को छुड़ा के धर्म, ऐश्वर्य और सुखों को प्राप्त होते हैं, उनको अन्तर्यामी जगदीश्वर आप ही धर्म के अनुष्ठान और अधर्म का त्याग कराने को सदैव चाहता है |

काव्य रूप मे:- तूने हमें उत्पन्न किया, पालन कर रहा है तू |
तुझ से ही पाते प्राण हम, दुखियों के कष्ट हरता है तू ||
तेरा महान तेज है, छाया हुआ सभी स्थान |
सृष्टि की वस्तु वस्तु में, तू हो रहा है विद्यमान ||
तेरा ही धरते ध्यान हम, मांगते तेरी दया |
ईश्वर हमारी बुद्धि को, श्रेष्ठ मार्ग पर चला ||

|| अथ आचमन मन्त्र ||

निम्न मन्त्र से दायें हाथ में जल ले कर तीन बार आचमन करें |

ओ३म्‌ शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः॥
यजु. ३६.१२

सर्वप्रकाशक और सर्वव्यापक ईश्वर इच्छित फल और आनंद प्राप्ति के लिए हमारे लिए कल्याणकारी हो और हम पर सुख की वृष्टि करे|

(तीन प्रकार की शांति के लिए आचमन भी तीन बार किया जाता है| पहला आचमन अध्यात्मिक शांति के लिए| दूसरा आधि-भौतिक शांति के लिए और तीसरा आचमन आधि-दैविक शांति के लिए)

|| अथ इन्द्रिय स्पर्श ||

अब बायें हाथ में जल ले कर दायें हाथ की अनामिका व मध्यमा उंगलियों से इन्द्रिय स्पर्श करे | ऐसा करते समय ईश्वर से इन्द्रियों में बल व ओज की प्रार्थना करनी चाहिए |

ओ३म्‌ वाक् वाक्, ओ३म्‌ प्राण: प्राण:, ओ३म्‌ चक्षुश्चक्षु:, ओ३म्‌ श्रोत्रम् श्रोत्रम्, ओ३म्‌ नाभि:, ओ३म्‌ हृदयम, ओ३म्‌ कंठ:, ओ३म्‌ शिर:, ओ३म्‌ बाहुभ्यां यशोबलं, ओ३म्‌ करतल करप्रष्ठे |

हे ईश्वर! मेरी वाणी, प्राण, आंख, कान, नाभि, हृदय, कंठ, शिर, बाहु और हाथ के ऊपर और नीचे के भाग (अर्थात) सभी इन्द्रिया बलवान और यश्वाले हो|
|| मार्जन मन्त्र ||

ओ३म्‌ भू: पुनातु शिरसि, ओ३म्‌ भुव: पुनातु नेत्रयो:, ओ३म्‌ स्व: पुनातु कण्ठे, ओ३म्‌ मह: पुनातु हृदये, ओ३म्‌ जन: पुनातु नाभ्यां, ओ३म्‌ तप: पुनातु पादयो:, ओ३म्‌ सत्यम पुनातु पुन: शिरसि, ओ३म्‌ खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र |

हे ईश्वर! आप मेरे शिर, नेत्र, कंठ, हृदय, नाभि, पैर अर्थात समस्त शरीर को पवित्र करे |

|| अथ प्राणायाम मन्त्र ||

इस मन्त्र से तीन बार प्राणायाम करे |

ओ३म्‌ भू: | ओ३म्‌ भुव: | ओ३म्‌ स्व: | ओ३म्‌ मह: | ओ३म्‌ जन: | ओ३म्‌ तप: | ओ३म्‌ सत्यम |

अर्थ:
1: ओम , (मैं ध्यान करता हूं ) भु लोक (भौतिक तल, भौतिक तल की चेतना),
ओम , (मैं ध्यान करता हूं) भुवर लोक (अंतरिक्ष या मध्यवर्ती स्थान, प्राण की चेतना),
ओम , ( मैं ध्यान करता हूं) स्वर लोक (स्वर्ग, स्वर्ग, दिव्य मन की शुरुआत की चेतना),
(उपरोक्त में ध्यान शुरू करने के लिए अपेक्षाकृत स्थूल अभिव्यक्तियाँ हैं; फिर ध्यान सूक्ष्म स्तरों पर जाता है)

2: ओम , (मैं ध्यान द) महार लोक(महान, पराक्रमी, अभी भी सूक्ष्म विमान को सर्वव्यापी चेतना के रूप में महसूस किया गया),
ओम , (मैं ध्यान करता हूं) जनर लोक (उत्पन्न, अभी भी सूक्ष्म विमान को सर्व-सृजनकारी चेतना के रूप में महसूस किया गया),
ओम , (मैं ध्यान करता हूं) तपो लोक (तेजस से भरा हुआ, अभी भी सूक्ष्म विमान दिव्य तेजस या शक्ति की रोशनी से भरा हुआ महसूस किया गया),
ओम , (मैं ध्यान करता हूं) सत्य लोक (पूर्ण सत्य, ब्रह्म की चेतना के साथ विलय करने वाला सबसे सूक्ष्म विमान),

प्राणायाम विधि :

१. पद्मासन या किसी अन्य आसन से, जिससे सुखपूर्वक उस समय तक बिना आसन बदले बैठ सके, जितनी देर प्राणायाम करना इष्ट हो, इस प्रकार बैठ जाये कि छाती, गला और मस्तक तीनो एक सीध में रहे |
२. नाक से धीरे धीरे श्वास बाहर निकले (रेचक) और उसे बाहर ही रोक दे (बाह्य कुम्भक) | ऐसा करते समय मूलेंद्रिय (गुदा इन्द्रिय) को ऊपर की ओर संकुचित करना चाहिए | यदि प्रारम्भ में मूलेंद्रिय का संकोच न हो सके तो कोई चिंता नहीं करनी चाहिए |
३. जब और अधिक देर बिना श्वास लिए न रह सके तो धीरे धीरे श्वास भीतर खीचे (पूरक) और उसे भीतर ही रोक दे (आभ्यन्तरकुम्भक)
४. जब और अधिक समय भीतर श्वास न रोक सके तो फिर से स० (२) के अनुसार रेचक करे|
५. प्रत्येक क्रिया के साथ प्राणायाम मन्त्र का मानसिक जप करे|
|| अथ अघमर्षण मंत्रा: ||

ओ३म्‌ ऋतंच सत्यंचा भीद्धात्तपसोध्य्जायत |
ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रो अर्णव: ||
ओ३म्‌ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत |
अहो रात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ||
ओ३म्‌ सूर्याचन्द्र्मसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत् |
दिवंच प्रथिवीन्चान्तरिक्षमथो स्व: ||

पहले मन्त्र का अर्थ है कि सब जगत का धारण और पोषण करनेवाला और सबको वश में करनेवाला परमेश्वर, जैसा कि उसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत् के रचने का ज्ञान था और जिस प्रकार पूर्वकल्प की सृष्टि में जगत् की रचना थी और जैसे जीवों के पुण्य-पाप थे, उनके अनुसार ईश्वर ने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये हैं। जैसे पूर्व कल्प में सूर्य-चन्द्रलोक रचे थे, वैसे ही इस कल्प में भी रचे हैं जैसा पूर्व सृष्टि में सूर्यादि लोकों का प्रकाश रचा था, वैसा ही इस कल्प में रचा है तथा जैसी भूमि प्रत्यक्ष दीखती है, जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है, जितने आकाश के बीच में लोक हैं, उनको ईश्वर ने रचा है। जैसे अनादिकाल से लोक-लोकान्तर को जगदीश्वर बनाया करता है, वैसे ही अब भी बनाये हैं और आगे भी बनावेगा, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान विपरीत कभी नहीं होता, किन्तु पूर्ण और अनन्त होने से सर्वदा एकरस ही रहता है, उसमें वृद्धि, क्षय और उलटापन कभी नहीं होता। इसी कारण से ‘यथापूर्वम–कल्पयत्’ इस पद का ग्रहण किया है। इस मन्त्र व मन्त्रार्थ में सृष्टि रचना, उसका प्रयोजन, जीवों के पूर्व कर्मों के अनुसार मनुष्यादि देह बनाने पर प्रकाश डाला है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इस सृष्टि का स्वामी ईश्वर है और जीवों के कर्मों के फल, दण्ड-दुःख व सुख, देने के लिए उसने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये है।

अघमर्षण के दूसरे मन्त्र का अर्थ है कि उसी ईश्वर ने सहजस्वभाव से जगत् के रात्रि, दिवस, घटिका, पल और क्षण आदि को जैसे पूर्व थे वैसे ही रचे हैं। इसमें कोई ऐसी शंका करे कि ईश्वर ने किस वस्तु से जगत् को रचा है? उसका उत्तर यह है कि ईश्वर ने अपने अनन्त सामर्थ्य से सब जगत् को रचा है। ईश्वर के प्रकाश से जगत् का कारण प्रकाशित होता और सब जगत के बनाने की सामग्री ईश्वर के अधीन है। उसी अनन्त ज्ञानमय सामर्थ्य से सब विद्या के खजाने वेदशास्त्र को प्रकाशित किया है जैसाकि पूर्व सृष्टि में प्रकाशित था और आगे के कल्पों में भी इसी प्रकार से वेदों का प्रकाश करेगा।
त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज और तमोगुण से युक्त है, जो स्थूल और सूक्ष्म जगत् का कारण है, सो भी कार्यरूप होके पूर्वकल्प के समान उत्पन्न हुआ है। उसी ईश्वर के सामर्थ्य से जो प्रलय के पीछे एक हजार चुतुर्युगी के प्रमाण से रात्रि कहाती है, सो भी पूर्व प्रलय के तुल्य ही होती है। इसमें ऋग्वेद का प्रमाण है कि–‘‘जब जब विद्यमान सृष्टि होती है, उसके पूर्व सब आकाश अन्धकाररूप रहता है, उसी का नाम महारात्रि है।” तदनन्तर उसी सामर्थ्य से पृथिवी और मेघ मण्डल=अन्तरिक्ष में जो महासमुद्र है, सो पूर्व सृष्टि के सदृश ही उत्पन्न हुआ है।

तीसरे मन्त्र में ईश्वर ने मनुष्यों को शिक्षा देते हुए कहा है कि उसी समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् संवत्सर, अर्थात् क्षण, मुहुर्त, प्रहर आदि काल भी पूर्व सृष्टि के समान उत्पन्न हुआ है। वेद से लेके पृथिवीपर्यन्त जो यह जगत् है, सो सब ईश्वर के नित्य सामथ्र्य से ही प्रकाशित हुआ है और ईश्वर सबको उत्पन्न करके, सबमें व्यापक होके अन्तर्यामिरूप से सबके पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़के सत्यन्याय से सबको यथावत् फल दे रहा है।

तीनो मंत्रो का संयुक्त भावार्थ :- हे ईश्वर, इस संसार में जितने भी ऋतु व सत्य पदार्थ है सब आपके बनाए हुए है | आप ही सूर्य चन्द्र आदि नक्षत्रो को अनादि काल से बना कर धारण कर रहे है |

|| अथ आचमन मन्त्र ||

इस मन्त्र से पुन: तीन बार आचमन करें |

ओ३म्‌ शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये । शंयोरभिस्रवन्तु नः॥
यजु. ३६.१२

सर्वप्रकाशक और सर्वव्यापक ईश्वर इच्छित फल और आनंद प्राप्ति के लिए हमारे लिए कल्याणकारी हो और हम पर सुख की वृष्टि करे|

|| अथ मनसा परिक्रमा मन्त्र ||

ओ३म्‌ प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः|
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु|
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः॥
अथर्ववेद ३/२७/१
ओ३म्‌ दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः|
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु|
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.
अथर्ववेद ३/२७/२
ओ३म्‌ प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः.
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु.
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.
अथर्ववेद ३/२७/३
ओ३म्‌ उदीची दिक् सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताऽशनिरिषवः.
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु.
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.
अथर्ववेद ३/२७/४
ओ३म्‌ ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः.
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु.
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.
अथर्ववेद ३/२७/५
ओ३म्‌ ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः.
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु.
योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.
अथर्ववेद ३ /२७/ ६

मनसा परिक्रमा मन्त्रों के कतिपय शब्दों के अर्थ

• छः दिशाएं

प्राची दिक् – पूर्व अथवा सामने की दिशा
दक्षिणा दिक् – दक्षिण अथवा दाईं दिशा
प्रतीची दिक् – पश्चिम अथवा पीछे की दिशा
उदीची दिक् – उत्तर अथवा बाईं दिशा
ध्रुवा दिक् – नीचे की दिशा
ऊर्ध्वा दिक् – ऊपर की दिशा

• छः दिशाओं के छः अधिपति: अर्थात् स्वामी

प्राची – अग्नि: = ज्ञानस्वरूप ईश्वर
दक्षिणा – इन्द्र: = परमेश्वर्ययुक्त ईश्वर
प्रतीची – वरुण: = सर्वोत्तम ईश्वर
उदीची – सोम: = शान्ति प्रदाता ईश्वर
ध्रुवा – विष्णु: = सर्वव्यापक ईश्वर
ऊर्ध्वा – बृहस्पति: = वेदशास्त्र तथा ब्रह्मांड का पति ईश्वर

• छः दिशाओं के छः रक्षितृ

प्राची – असित: = बन्धन रहित
दक्षिणा – तिरश्चिराजी = कीट-पतंग, वृश्चिक आदि तिर्यक् की राजी = पंक्ति
प्रतीची – पृदाकू = अजगर आदि विषधर प्राणी
उदीची – स्वज: = अजन्मा
ध्रुवा – कल्माषग्रीव: = वृक्ष आदि
ऊर्ध्वा – श्वित्र: = शुद्ध स्वरूप

• छः दिशाओं के छः इषव: = बाण के समान

प्राची – आदित्या: = प्राण, सूर्य की किरणें
दक्षिणा – पितर: = ज्ञानी लोग
प्रतीची – अन्नम् = अन्नादि भोग्य पदार्थ
उदीची – अशनि: = विद्युत्
ध्रुवा – वीरुध = लता, बेल आदि
ऊर्ध्वा – वर्षम् =वर्षा के बिन्दु

• नम: = नमस्कार !

  1. तेभ्य: = उनके (ईश्वर के सब गुणों के) लिए नम: = नमस्कार !
  2. अधिपतिभ्य: = उन सब गुणों के अधिपति = स्वामी के गुणों के लिए नम: = नमस्कार !
  3. रक्षितृभ्य: = रक्षक गुणों के लिए या रक्षक पदार्थों के लिए नम: = नमस्कार !
  4. इषुभ्य: = दुष्टों की ताड़ना और श्रेष्ठों की रक्षा के निमित्त प्रभु के बाणरूप आदि साधनों के लिए नम: = नमस्कार !

हे पावन परमेश्वर ! आप प्राची, प्रतीची आदि समस्त दिशाओं में विध्यमान हो कर हम सब की रक्षा करते है | हम आपके रक्षक स्वरुप को बार बार प्रणाम करते है तथा द्वेष भाव को आपकी न्याय व्यवस्था में समर्पित करते है |
|| उपस्थान मंत्र ||

ओ३म्‌ उद्वयन्तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम् |
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ||
यजुर्वेद ३५/१४
ओ३म्‌ उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः |
दृशे विश्वाय सूर्यम् ||
यजुर्वेद ३३/३१
ओ३म्‌ चित्रं देवानामुद्गादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः |
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष~म् सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ||
यजुर्वेद ७/४२
ओ३म्‌ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् |
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतम् शृणुयाम शरदः
शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं
भूयश्च शरदः शतात् ||
यजुर्वेद ३६/१४

हे पिता ! आपकी दया से हम अज्ञान अन्धकार से ज्ञान व प्रकाश की ओर बढ़े तथा समस्त इन्द्रियों से भद्र आचरण करते हुए तथा आपका स्मरण करते हुए सौ वर्ष तक सुखपूर्वक जीवन यापन करे ||| गायत्री मंत्र ||

ओ३म् भूर्भुव: स्व: | तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि | धियो यो न: प्रचोदयात् ||
यजुर्वेद, ३६/३, ऋग्वेद, ३/६२/१०

हे प्राणस्वरूप, दुःख विनाशक, स्वयं सुखस्वरूप और सुखो को देने वाले प्रभु हम आपके वर्णीय तेज स्वरुप का ध्यान करते है | आप कृपया करके हमारी बुद्धियो को सन्मार्ग में प्रेरित कीजिये |

|| अथ समर्पणम् ||

हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा
धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः॥

हे दयानिधान ! हम आपकी उपासना करते है | आप कृपया करके हमें शीघ्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कराईये |
|| अथ नमस्कार मन्त्र ||

ओ३म् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च |
नमः शंकराय च मयस्कराय च |
नमः शिवाय च शिवतराय च |
यजुर्वेद ६/ ४१

हे सुख़ स्वरुप व सुख़ प्रदाता, कल्याणकारक, मंगलस्वरूप, मोक्ष को देने वाले पूज्य प्रभु, हम पुन: पुन: आपके शिव रूप को प्रणाम करते है |

वैदिकसंध्याउपासनाविधी #संध्योपासना

ब्रह्मयज्ञ

ईश्वरोपासना की वैदिक रीति (अष्टांगयोग)

॥ओ३म्॥

महर्षि पतञ्जलि द्वारा वर्णित अष्टाङ्गयोग के आठ अङ्गब्रह्मरूपी सर्वोच्च सानु-शिखर पर चढ़ने के लिए आठ सीढ़ियाँ हैं।उनके नाम हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

यहां प्रत्येक का संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जाता है-

१– यम पाँच हैं-

(१)अहिंसा- अहिंसा का अर्थ केवल किसी की हत्या न करना ही नहीं अपितु मन,वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार कष्ट न देना,किसी को हानि न पहुंचाना और किसी के प्रति वैरभाव न रखना अहिंसा है।उपासक को चाहिए कि किसी से वैर न रखे,सबसे प्रेम करे।उसकी आँखों में सबके लिए स्नेह और वाणी में माधुर्य हो।पशुओं को मारकर अथवा मरवाकर उनके मांस से अपने उदर को भरनेवाले तीन काल में भी योगी नहीं बन सकते।साधक को प्रत्येक स्थान में,प्रत्येक समय और प्रत्येक परिस्थिति में अहिंसाव्रती होना चाहिए।’अहिंसा परमो धर्म:’अहिंसा परम धर्म है।अहिंसा का उद्देश्य है मनुष्य के अन्दर छिपी हुई उग्र, क्रूर और पाशविक वृत्तियों को जड़मूल से उखाड़ फेंकना।जब मन में हिंसा की छाया तक न दिख पड़े,तब समझना चाहिए कि अहिंसा की सिद्धि हो गई, अहिंसा का फल क्या है?
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-

अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्याग:।
-योगदर्शन साधन० ३५
हृदय में अहिंसा के प्रतिष्ठित होने पर अहिंसक के समीप सांप,बाघ आदि हिंसक प्राणी भी वैरभाव का परित्याग कर देते हैं।
अहिंसा की सिद्धि के बिना अन्य यमों की सिद्धि नहीं हो सकती,इसलिए यमों में इसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है।

(२)सत्य- सत्य द्वितीय यम है।साधक मन,वचन और कर्म से सत्य जाने, सत्य माने,सत्य बोले और सत्य ही लिखे,मिथ्या-असत्य न बोले,न मिथ्या व्यवहार ही करे।सत्यस्वरूप परमेश्वर को पाने के लिए साधक को सर्वथा सत्यनिष्ठ बनना होगा।सत्यस्वरूप प्रभु का साक्षात्कार करने के लिए उपासक को सत्य में ही जीना होगा,सत्यस्वरूप ही बनना होगा और सत्य के प्रति आंशिक नहीं सम्पूर्ण तथा सर्वोपरि लगाव रखना होगा।साधना की नींव रखने के लिए सत्यव्रती बनना अत्यावश्यक है।सत्य सबसे बड़ा व्रत है।
उपासक कहता है-

अहमनृतात्सत्यमुपैमि। -यजु० १/५

मैं असत्य को त्याग कर जीवन में सत्य को ग्रहण करता हूँ।

वेदादिशास्त्र सत्य की महिमा से भरे पड़े हैं।
उपनिषदों में कहा है-

सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा। -मुण्डको० ३/१/५

परमात्मा सत्य और तप से ही प्राप्त होता है।

सत्यमेव जयते नानृतम्। -मुण्डको० ३/१/६

सत्य की ही विजय होती है,असत्य की नहीं।

महाभारत में कहा गया है-

सत्यं स्वर्गस्य सोपानम्। -महा० उद्यो० ३३/४७

सत्य स्वर्ग की सीढ़ी है।

महर्षि मनु का कथन है-

नास्ति सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्। -मनु० ८/८२

सत्य से बढ़कर कोई धर्म और असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं है।

सत्यभाषण का फल बताते हुए महर्षि पतञ्जलि कहते हैं-

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।
-यो० द० साधन० ३६
सत्य में प्रतिष्ठित होने पर व्यक्ति वाक्सिद्ध हो जाता है।

सत्य के महत्त्व को समझकर जीवन में सत्य को धारण करो।सत्य में निवास करो।सत्य में मूर्त्तरूप बन जाओ।मन,वाणी और कर्म से सच्चे रहो।

(३)अस्तेय- यमों में तीसरा यम है अस्तेय।स्तेय का अर्थ है चोरी करना,अस्तेय का अर्थ है मन,वचन और कर्म से चोरी न करना।साधक चोरी न करे,सत्य व्यवहार करे।स्वामी की आज्ञा के बिना किसी पदार्थ को न उठाये।

स्तेयरूपी अवगुण सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है।व्यक्ति के लिए जितना आवश्यक है उससे अधिक पर अधिकार करने के लिए जो भी कार्य किया जाता है वह नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से चोरी ही है।आवश्यकता से अधिक खाना भी चोरी है।बस या रेल में टिकट न लेना और मेरे पास पास(Pass)अथवा ‘सीजनल टिकट’है,ऐसा कहकर निकल जाना चोरी है।खोटा सिक्का चलाना अथवा दुकानदार द्वारा अज्ञान के कारण दिए गए अधिक धन को जेब में रख लेना भी चोरी है।उत्कोच(घूस)देकर काम बना लेना भी चोरी है।

मनुष्य चोरी क्यों करता है?चोरी का वास्तविक कारण मनुष्य की अनगिनत इच्छाएं और अनियन्त्रित इन्द्रियाँ हैं।चोरी से बचने के लिए साधक को अपनी इच्छाओं को नियन्त्रित, इन्द्रियों को अनुशासित और मन को वश में करना होगा।

अस्तेय की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।।
-यो० द० साधन० ३७
मनुष्य के हृदय में अस्तेय की प्रतिष्ठा हो जाने पर उसके सामने संसार के सब रत्न स्वयमेव उपस्थित हो जाते हैं अर्थात् अस्तेय में प्रतिष्ठित व्यक्ति को कभी धन-रत्न का अभाव नहीं रहता।

(४)ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य दो शब्दों के मेल से बना है-ब्रह्म और चर्य।ब्रह्म का अर्थ है ईश्वर, वेद, ज्ञान और वीर्य।चर्य का अर्थ है चिन्तन, अध्ययन, उपार्जन और रक्षण।इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ होगा-साधक ईश्वर का चिन्तन करे, ब्रह्म में विचरे, वेद का अध्ययन करे, ज्ञान का उपार्जन करे और वीर्य का रक्षण करे।

ब्रह्म में विचरण के लिए मन का विषय-वांसनाओं से सर्वथा मुक्त होना अत्यावश्यक है।विषय-वासनाओं में कामवासना सबसे प्रबल और घातक है,अतः ब्रह्मचर्य का अर्थ प्रमुख रूप से वीर्यरक्षण किया जाता है।साधक जितेन्द्रिय हो, लम्पट न हो।

ब्रह्मचर्य का उद्देश्य है- खाये हुए अन्न को ओजशक्ति में परिवर्तित कर देना है।ब्रह्मचर्य का अर्थ है- मनुष्य में विद्यमान पाशविक शक्तियों को संयमित करना, उनका संरक्षण करना, उन्हें उच्च स्तर की ओर उन्मुख करना और खाये हुए अन्न को ओजशक्ति में रूपान्तरित कर देना।

ब्रह्मचर्य की महिमा महान् है।उपनिषदों में कहा गया है-

नाअयमात्मा बलहीनेन लभ्य:। -मुण्डको० ३/२/४

ब्रह्मचर्य से हीन व्यक्ति परमात्मा को नहीं पा सकता।

साधक के लिए ब्रह्मचर्य उसी प्रकार आवश्यक है,जैसे विद्युत से चलनेवाली गाड़ी के लिए विद्युत्।इसके बिना साधक योगमार्ग में उन्नति नहीं कर सकता।ब्रह्मचर्य की शक्ति द्वारा ही चंचल इन्द्रियों और कुटिल मन पर विजय पाई जा सकती है।वेद में ब्रह्मचर्य की महिमा के सम्बन्ध में कहा गया है-

ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाघ्नत।
-अथर्व० ११/५/१९
ब्रह्मचर्य और तप के द्वारा विद्वान् लोग मौत को भी मार भगाते हैं।

महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः। -यो० द० साधन० ३८

ब्रह्मचर्य में प्रतिष्ठित होने पर वीर्यलाभ होता है।अर्थात् ब्रह्मचर्य-प्रतिष्ठित व्यक्ति के देह में परमेश्वर की विमल ज्योति प्रकाशित होती है।

उपस्थेन्द्रीय के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों पर भी नियन्त्रण रखना चाहिए।आंखों के रूप में जाने से,कानों को शब्दों की ओर दौड़ लगाने से,नासिका को गन्ध की ओर भागने से,जिह्व को रसपान से,त्वचा को स्पर्श-आनन्द में मग्न होने से रोको।सभी इन्द्रियों का निरोधरूपी ब्रह्मचर्य साधक को ब्रह्म-साक्षात्कार की ओर ले जाएगा।

(५)अपरिग्रह- अपरिग्रह का अर्थ है-आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह न करना।साधक उतने ही पदार्थों का संग्रह करे जितने सादा जीवन के लिए आवश्यक हैं।किसी भी वस्तु को क्रय करने से पहले गम्भीरतापूर्वक सोच लो।यदि उनके बिना काम न चलता हो तभी खरीदो।पदार्थों के अधिक संग्रह से आज मानव दुःख पा रहा है।

विषयों के अर्जन, रक्षण, क्षय(नाश), सङ्ग(उपभोग), हिंसा(संग्रह में पर-पीड़ा) आदि दोषों को देखकर उनको स्वीकार न करना,उन्हें त्याग देना अपरिग्रह है।

अपरिग्रह का एक अर्थ अभिमान न करना भी है।साधक विनम्र बने।वह निरभिमानी हो,अभिमान कभी न करे।विद्या, धन, जल, बल आदि जिन बातों पर मनुष्य अभिमान करता है,उनमें से एक भी ऐसी नहीं है,जिस पर अभिमान किया जा सके।

अपरिग्रह का फल क्या है?
महर्षि पतञ्जलि लिखते हैं-

अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्ता सम्बोध:।
-यो० द० साधन० ३९
अपरिग्रह में प्रतिष्ठा-दृढ़ता होने पर पूर्वजन्म के कारणों का बोध होता है।

ये पांच यम मिलकर उपासना-योग का प्रथम अङ्ग है।

२– नियम भी पांच हैं-

(१)शौच- शौच के अर्थ है पवित्रता।साधक अन्दर और बाहर से पवित्र रहे।राग-द्वेष के त्याग से आन्तरिक और जलादि के द्वारा बाह्य सम्पादित करनी चाहिए।शरीर की दशा का मन पर बहुत प्रभाव पड़ता है,अतः शरीर को स्नान से पवित्र करना चाहिए।वेश-भूषा भी पवित्र हो रहने का स्थान भी साफ-सुथरा हो।गन्दे और जहां समान अस्त-व्यस्त पड़ा हो ऐसे स्थान पर भी मन नहीं लग सकता।अन्तः शुद्धि का भी ध्यान रखना चाहिए।अण्डा, मांस-मछली खानेवाले, शराब पीनेवाले, सिगरेट, बीड़ी, चरस, गांजा, अफीम सेवन करने वालों का मन भी दूषित हो जाता है।

शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्ग:।
-यो० द० साधन० ४०
पवित्रता में प्रतिष्ठित होने पर अपने अङ्ग से विरक्ति और दूसरे स्त्री-पुरुषों के साथ सङ्गति से भी वितृष्णा हो जाती है।

शौच से बुद्धि की शुद्धि, मन की विमलता, एकाग्रता, इन्द्रियजय और आत्मदर्शन की योग्यता प्राप्त होती है।

(२)सन्तोष- सन्तोष का अर्थ बहुत गलत समझा गया है।सन्तोष का अर्थ हाथ पर हाथ रखकर निठल्ला बैठना नहीं है।सन्तोष का अर्थ है- आलस्य छोड़कर सदा पुरुषार्थ करना।धर्मपूर्वक पुरुषार्थ करके लाभ में प्रसन्न और हानि में अप्रसन्न न होना।’सन्तोष’ सुख और शान्ति प्राप्त करने की कुञ्जी है।महर्षि पतंजलि कहते हैं-

सन्तोषादनुत्तमसुखलाभ:। -यो० द० साधन० ४२

सन्तोष की सिद्धि होने पर ऐसा सुख प्राप्त होता है जिससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है।वह सुख वर्णनातीत है।

महर्षि व्यास लिखते हैं-

यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हत: षोडशीं कलाम्।।
-महा० शान्ति० १७६/४६
इस संसार में काम्य वस्तु का जो उपभोगजनित सुख है अथवा स्वर्ग का जो महान् सुख है, वह तृष्णाक्षय से उतपन्न होने वाले सुख के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं है।

हां, एक बात का ध्यान रखें।सन्तोष सांसारिक बातों में ही करना चाहिए, साधना में नहीं।साधना में तो असीम असन्तोष होना चाहिए।साधक को प्रभु के प्रति अपनी भक्ति और प्रेम से कभी सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए।

(३)तप- तप के सम्बन्ध में भी अनेक भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं।कोई समझता है कि एक पाँव पर खड़े रहना अथवा एक या दोनों हाथ ऊपर खड़े रखने का नाम तप है।कोई समझता है कि शीत ऋतु में ठण्डे पानी में खड़ा रहना तप है।कोई समझता है कि ग्रीष्मकाल में पञ्चाग्नि तपना तप है।किसी के अनुसार स्वयं को पृथिवी में गाड़ देना तप है।किसी के मत में कीलों पर लेटना तप है।वस्तुतः यह सब-कुछ तप नहीं है।तप का वास्तविक अर्थ है-‘द्वन्द्वसहनं तप:’-कष्ट आने पर भी धर्मकार्यों को करते जाना तप है।हानि-लाभ, जीवन-मरण, सुख-दुःख, भूख-प्यास, हर्ष-शोक में सम रहने का नाम तप है।

तप का धातु-अर्थ है-‘तप दाहे’-जलना-जलाना।अग्नि के दो गुणों का सदा ध्यान रखना चाहिए-यह पदार्थों को शुद्ध करती है और तेजयुक्त है।तप भी एक प्रचण्ड प्रक्रिया है जो मनुष्य के मलों को जलाकर उसे आत्मचैतन्य के प्रकाश से उद्भासित करती है।

तप का फल है बल की प्राप्ति।जिस तप से शरीर में कान्ति, ओज और तेज की वृद्धि नहीं होती,वह तप नहीं है।

तप न करने पर योग में गति नहीं हो सकती।जैसा कि कहा गया है-

नातपस्विनो योग: सिध्यति।

जो तपस्वी नहीं है,उससे योग में सिद्धि-लाभ नहीं हो सकता।

उपनिषदों में कहा गया है-

तपसा चीयते ब्रह्म। -मुण्डको० १/१/८

ब्रह्म की प्राप्ति तप द्वारा ही सम्भव है।

वेद में कहा है-

अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते। -ऋ० ९/८३/१

जिसने तप की भट्टी में अपने शरीर को तपाया नहीं है,ऐसा कच्चा व्यक्ति उस प्रभु को नहीं पा सकता।

महर्षि पतंजलि ने लिखा है-

कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपस:।
-यो० द० साधन० ४३
तप से अशुद्धि का नाश होकर शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि मिलती है।तप के द्वारा शारीरिक क्रान्ति और इन्द्रियों में सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।

(४)स्वाध्याय- नियम का चतुर्थ अङ्ग है स्वाध्याय।स्वाध्याय का अर्थ है-वेद का अध्ययन-अध्यापन और ऋषि-मुनियों द्वारा लिखित सत्यशास्त्रों को पढ़ना-पढ़ाना।वेद परमात्मा का दिव्यज्ञान है।यह मानव-कर्त्तव्यों का बोधक शास्त्र है,ज्ञान और विज्ञान का अगाध भण्डार है।अपने कर्त्तव्यों को जानने के लिये वेद का स्वाध्याय करना ही चाहिए।ऋषि-मुनिकृत ग्रन्थों में वेदों का व्याख्यान है,इसलिए उन्हें भी पढ़ना चाहिए।इस विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती लिखते हैं-

“महर्षि लोगों का आशय जहां तक हो सके वहां तक सुगम और जिसके ग्रहण में समय थोड़ा लगे,इस प्रकार की रचना करने का होता है और क्षुद्राशय लोगों की मनसा ऐसी होती है कि जहां तक बने वहां तक कठिन रचना करनी,जिसको बड़े परिश्रम से पढ़के अल्प-लाभ उठा सकें;जैसे पहाड़ का खोदना,कौड़ी का लाभ होना,और आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि एक गोता लगाना,बहुमूल्य मोतियों का पाना।”
सत्यार्थप्रकाश,तृतीय समुल्लास
मोक्ष-विधायक ग्रन्थों का पढ़ना ही स्वाध्याय है।समाचार-पत्र पढ़ना,नावल,किस्से,कहानियां और अश्लील पुस्तकें पढ़ना स्वाध्याय नहीं है।साधक को सदा उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिए।
उपनिषदों में कहा है-

स्वाध्यायान्मा प्रमद:। -तैत्तिरीयोप० शिक्षा ११

स्वाध्याय में, वेद के अध्ययन में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए।स्वाध्याय का अर्थ है सत्पुरुषों का सङ्ग।साधक को सदा सज्जनों की संगति में रहना चाहिए।सत्सङ्ग से मनुष्य ऊंचा उठता है।महर्षि दयानन्द सरस्वती का सत्सङ्ग पाकर नास्तिक, शराबी और कबाबी मुंशीराम परम आस्तिक स्वामी श्रद्धानन्द बन गए।महता अमीरचन्द भी बदल गए।पं० लेखराम आर्यमुसाफिर, पं० गुरुदत्त जी विद्यार्थी आदि कितनों के जीवन पलट गए।

स्वाध्याय का एक और अर्थ है-प्रतिदिन परमात्मा के सर्वोत्तम नाम ‘ओ३म्’ का अर्थपूर्वक जप करना।
वेद में कहा है-

ओ३म् क्रतो स्मर। -यजु० ४०/१५

हे कर्मशील जीव!तू ओ३म् का स्मरण कर।
और
ओ३म् प्रतिष्ठ। -यजु० २/१३

तू ओ३म् में प्रतिष्ठित हो जा अथवा ओ३म् को ओ३म् नामक परमात्मा को अपने हृदय-मन्दिर में बिठा ले।

महर्षि पतंजलि में स्वाध्याय का फल बताते हुए कहा है-

स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोग:। -यो० द० साधन० ४४

स्वाध्याय से इष्ट देवता-परमेश्वर का दर्शन,साक्षात्कार होता है।

(५)ईश्वरप्रणिधान- नियमों में ईश्वरप्रणिधान का स्थान सर्वोच्च है।ईश्वरप्रणिधान के दो अर्थ हैं-एक,बिना किसी इच्छा, आकांक्षा और मांग के अपने-आपको,अपने सब कामों को,अपने सब संकल्पों को प्रभु को समर्पित कर देना।जो परमात्मा से कुछ मांगते हैं,उन्हें तो प्रभु केवल वही वस्तु देता है,जो वे मांगते हैं,परन्तु जो कुछ नहीं मांगते,उन्हें परमेश्वर सब-कुछ देता है।और अन्त में अपने आपको भी दे देता है,अपना साक्षात्कार भी करा देता है।दूसरा अर्थ है-हृदय में ईश्वर का प्रेम रखते हुए,ईश्वर की विशेष भक्ति या उपासना करते हुए ईश्वर की कृपा,दया और प्रसन्नता का पात्र बनना।ईश्वरप्रणिधान से अहं-भाव नष्ट होता है और जीवन में नम्रता आती है।इसका फल क्या है?

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्। -यो० द० साधन० ४५

ईश्वरप्रणिधान से योग के सर्वोच्च फल समाधि की सिद्धि होती है।

ये पांच नियम मिलकर उपासना योग का दूसरा अङ्ग कहलाता है।

३– आसन- यह योग का तीसरा अंग है।महर्षि पतंजलि के अनुसार आसन का अर्थ है-

स्थिरसुखमासनम्। -यो० द० साधन० ४६

शरीर न हिले,न डुले,न दुखे और चित्त में किसी प्रकार का उद्वेग न हो,ऐसी अवस्था में दीर्घकाल तक सुख से बैठने को आसन कहते हैं।

साधक को ऐसे आसन में बैठना चाहिए जिसमें कष्ट न होकर स्थिर सुख की प्राप्ति हो।आसन के दृढ़ होने पर उपासना सरल हो जाती है।एक आसन में निश्चलतापूर्वक बैठने से श्वास-प्रश्वास की गति संयत होने लगती है और मन भी लय होने लगता है।आसन निरन्तर अभ्यास से ही सिद्ध किया जा सकता है।बिना हिले-डुले तीन घण्टे तक एक ही आसन में बैठना आसनजय कहलाता है।आसनजय के पश्चात् साधक योग के श्रेष्ठ और गुरुतर विषय प्राणायाम की ओर अग्रसर होने लगता है।योगसाधना के लिए मुख्यासन चार हैं–सिद्धासन, पद्मासन, स्वस्तिकासन और सुखासन।

४– प्राणायाम- प्राणायाम राजयोग का चौथा अङ्ग है।प्राण और मन का घनिष्ठ सम्बन्ध है।जहां-जहां प्राण जाता है,वहां-वहां मन भी जाता है।यदि प्राण वश में हो जाए तो मन बिना प्रयास के स्वयं वश में हो जाता है।

प्राणायाम क्या है?
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-

तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:।
-यो० द० साधन० ४९
आसन सिद्ध होने पर श्वास और प्रश्वास की गति को रोकने का नाम प्राणायाम है।

महर्षि मनु ने प्राणायाम की महत्ता के सम्बन्ध में लिखा है-

दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मला:।
तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषा: प्राणस्य निग्रहात्।।
-मनु० ६/७१
जैसे अग्नि में तपाने से स्वर्णादि धातुओं के मल नष्ट होकर वे शुद्ध हो जाते हैं,वैसे ही प्राणायाम के द्वारा मन आदि इन्द्रियों के दोष दूर होकर वे निर्मल हो जाती हैं।

५– प्रत्याहार- प्रत्याहार का अर्थ है-पीछे लौटाना।इन्द्रियों को उनके भोंगों से लौटाने का नाम प्रत्याहार है।जब आंखें खुली रहने पर भी रूप को देखना बन्द कर दें,कान शब्दों का सुनना बन्द कर दें,नासिका गन्ध का ग्रहण न करे,जिह्वा रस को न चखे और त्वचा स्पर्श का अनुभव न करे,उस अवस्था का नाम प्रत्याहार है।
मोटे शब्दों में कहें तो मन को एक लक्ष्य पर एकाग्र करने के लिए उसे बाह्य विषयों से समेटने का नाम प्रत्याहार है।बाह्य विषयों से हटने पर ही मन को ध्यान-लक्ष्य पर केन्द्रित किया जा सकता है प्रत्याहार वह महान् कुञ्जी है जो धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारों को खोल देती है।

६– धारणा- अष्टाङ्ग योग के पूर्वकथित यमादि पांच अङ्ग योग का बहिरङ्ग है,भूमिकामात्रा है,वास्तविक योग नहीं है।योग का आरम्भ धारणा से होता है।धारणा का अर्थ है-मन को एकाग्र करना,मन को किसी एक विषय पर केन्द्रित करना।
महर्षि पतंजलि लिखते हैं-

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। -यो० द० विभूति० १

चित्त को किसी देश-स्थानविशेष में,शरीर के भीतर या बाहर बांधने-लगाने का नाम धारणा है।

नाभिचक्र, हृदय, भ्रूमध्य, नासिकाग्र या ब्रह्मरन्ध आदि किसी स्थान पर चित्त को ठहरा रखने का नाम धारणा है।

७– ध्यान- धारणा की परिपक्वता का नाम ही ध्यान है-

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। -यो० द० विभूति० २

धारणा में प्रत्यय-ज्ञान का एक-सा बना रहना ही ध्यान है।जिस स्थान पर चित्त को एकाग्र किया गया है,उस एकाग्रता का ज्ञान तैलधारावत् निरन्तर एक-सा बना रहे और उस समय अन्य किसी प्रकार का ज्ञान या विचार चित्त में न आने पाए, इस अवस्था को ही ध्यान कहते हैं।

८– समाधि- निरन्तर अभ्यास और वैराग्य में सम्यक् अवस्थिति होने से एकाग्रता बढ़ती है तथा अखण्ड क्रम से गतिमान रहती है,फिर अन्ततः प्रगाढ़ ध्यान में निमग्न होने की अवस्था आती है,जो राज-योग की आठवीं अवस्था है।इसी को समाधि कहते हैं।
पतंजलिजी कहते हैं-

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:।-यो० द० विभूति० ३

ध्यान में जब अर्थ-ध्येयमात्र का प्रकाश रह जाए और ध्याता(उपासक)अपने स्वरूप से शून्य-सा हो जाये,उस अवस्था का नाम समाधि है।

योग के इन आठ अङ्गों को साधे बिना कोई भी साधक साधना में सफल नहीं हो सकता,अतः प्रत्येक उपासक, साधक, भक्त को इनका अभ्यास करना चाहिए।

यहां प्रार्थना की एक रूपरेखा दी जा रही है-

योगेयोगे तवस्तरं वाजेवाजे हवामहे।
सखाय इन्द्रमूतये।। -ऋ० १/३०/७

हे सच्चिदानन्दस्वरूप! हे सर्वाधार! हे करुणामृतवारिधे! हे सर्वशक्तिमन्! हे न्यायकारिन्! हे परमदेव प्रभो! आप ज्योतिपुत्र और आनन्द के अथाह सागर हो। देव! आपको मेरा नमस्कार हो,बारम्बार नमस्कार हो।

ओ३म्। भूर्भुवः स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।। -यजु०३६/३

हे सर्वरक्षक! सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर! आप सकल जगत् के उत्पादक और वरण करने योग्य हैं। हम आपसे कामना करने योग्य, आनन्दप्रद, शुद्ध एवं तेजस्वरूप का ध्यान करते हैं। आप हमारी बुद्धियों को श्रेष्ठ मार्ग की ओर प्रेरित करें।

निराकार ईश्वर से साकार जगत की उत्पत्ति कैसे

शंका- ईश्वर निराकार है तो ईश्वर द्वारा साकार जगत की रचना कैसे हुई?

समाधान- ईश्वर निराकार अर्थात आकार रहित है। इसमें कोई शंका नहीं है। जहाँ तक साकार जगत की रचना का प्रश्न है हम एक उदाहरण के माध्यम से उसे समझने का प्रयास करते है। विचार दो प्रकार के है व्यक्त एवं अव्यक्त। मान लीजिये एक व्यक्ति दूर से पुकार कर मुझे मेरे नाम से बुला रहा है। मैंने अपनी इन्द्रिय जैसे कि कान की सहायता से उसके विचार को सुना। यह व्यक्त विचार था जो वाह्य था और इन्द्रिय की सहायता से सुना गया। अब मैं अपना ही नाम अपने मन में पुकारता हूँ। किसी भी वाह्य इन्द्रियों का कोई प्रयोग नहीं हुआ। यह अव्यक्त विचार था। जो विचार अव्यक्त था वह बिना इन्द्रियों कि सहायता के संपन्न हुआ क्योंकि वह शरीर के भीतर ही हुआ । अब ईश्वर के गुण जानिये। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ईश्वर के विराट शरीर है। यजुर्वेद 40/5 में लिखा है ईश्वर सबके भीतर ओतप्रोत है अत: उसे अपने से बाहर कोई भी क्रिया नहीं करनी पड़ती। फिर उसे इन्द्रियों की क्या आवश्यकता है? श्वेताश्वतरोपनिषद् 3/19 में कहा है ईश्वर के हाथ-पैर नहीं है इसके बिना ही वह सर्वत्र प्राप्त है और सबको थाम रहा है। जिस प्रकार से मुख और प्राणादि साधनों के बिना भी ईश्वर मुख और प्राण आदि के कार्य कर सकता है उसी प्रकार के बिना हाथ के ईश्वर सृष्टि का निर्माण भी कर सकता है। यह सब निर्माण ईश्वर के भीतर ही हो रहा है। इसलिए अव्यक्त विचार के समान ईश्वर को इन्द्रिय आदि की कोई सहायता की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर के साकारत्व और सावयवत्व में संयोग होने से वियोग होना अनिवार्य होगा, क्योंकि संयोग और वियोग दोनों सहचर है। तब तो ईश्वर की मृत्यु भी माननी होगी जो असंभव है। इसलिए निराकार ईश्वर द्वारा सृष्टि की अपने भीतर रचना करना बिना इन्द्रियों द्वारा संभव एवं युक्तिसंगत है।

डॉविवेकआर्य

मूर्तिपूजा खण्डन

हमारे कुछ पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है।
अब आइये सत्य की ओर चलते हैं।
जाने सत्य क्या है?
वेदों में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है और तो और पुराण भी मूर्तिपूजा करने को मना करता है।

वेद तो घोषणापूर्वक कहते हैं-

न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।।
(यजु० अ० ३२ । मं० ३ ।।)

शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है।(यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ,ऐसा जो प्रसिद्ध है।

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।
(यजु० ४०/८)

भावार्थ:-वह सर्वशक्तिमान्,शरीर-रहित,छिद्र-रहित,नस-नाड़ी के बन्धन से रहित,पवित्र,पुण्य-युक्त,अन्तर्यामी,दुष्टों का तिरस्कार करने वाला,स्वतःसिद्ध और सर्वव्यापक है।वही परमेश्वर ठीक-ठीक रीति से जीवों को कर्मफल प्रदान करता है।

यद् द्याव इन्द्र ते शतं शतं भूमिरुत स्युः।
न त्वा वज्रिन्सहस्रं सूर्या अनु न जातमष्ट रोदसी।।
(अथर्व० २०/८१/१)

भावार्थ:-सैंकड़ों आकाश ईश्वर की अनन्तता को नहीं माप सकते।सैकड़ों भूमियाँ उसकी तुलना नहीं कर सकतीं।सहस्रों सूर्य,पृथिवी और आकाश भी उसकी तुलना नहीं कर सकते।

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।
(श्वेता० ६/१२)

भावार्थ:-एक परमात्मा ही सब पदार्थों में छिपा हुआ है।वह सर्वव्यापक है और सब प्राणियों का अन्तरात्मा है।वही कर्मफल प्रदाता है।सब पदार्थों का आश्रय है।वही सम्पूर्ण संसार का साक्षी है,वह ज्ञानस्वरुप,अकेला और निर्गुण-सत्व,रज और तमोगुण से रहित है।

अब प्रश्न ये उठता है कि इस देश में मूर्तिपूजा कब प्रचलित हुई और किसने चलाई?
महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश के एकादश समुल्लास में प्रश्नोत्तर रूप में इस सम्बन्ध में लिखते हैं-
“प्रश्न- मूर्तिपूजा कहाँ से चली?
उत्तर- जैनियों से।
प्रश्न- जैनियों ने कहां से चलाई?
उत्तर- अपनी मूर्खता से।”

पण्डित जवाहरलाल नेहरू के अनुसार,मूर्तिपूजा बौद्धकाल से प्रचलित हुई।वे लिखते हैं-
“यह एक मनोरंजन विचार है कि मूर्तिपूजा भारत में यूनान से आई।वैदिक धर्म हर प्रकार की मूर्ति तथा प्रतिमा-पूजन का विरोधी था।उस काल(वैदिकयुग)में देवमूर्तियों के किसी प्रकार के मन्दिर नहीं थे।…प्रारम्भिक बौद्धधर्म इसका घोर विरोधी था…पीछे से स्वयं बुद्ध की मूर्तियां बनने लगीं।

फारसी तथा उर्दू भाषा में प्रतिमा अथवा मूर्ति के लिए अब भी बुत शब्द प्रयुक्त होता है जो बुद्ध का रूपान्तर है।”
हिन्दुस्तान की कहानी,पृ०172
एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं-
“ग्रीस और यूनान आदि देशों में देवताओं की मूर्तियां पुजती थीं।वहां से भारत में मूर्तिपूजा आई।बौद्धों ने मूर्तिपूजा आरम्भ की।फिर अन्य जगह फैल गई।”
विश्व इतिहास की झलक,पृ०694
इन उद्धरणों से इतना निश्चित है कि मूर्तिपूजा जैन-बौद्धकाल से आरम्भ हुई।जिस समय भारत में मूर्तिपूजा आरम्भ हुई और लोग मन्दिरों में जाने लगे तो भारतीय विद्वानों ने इसका घोर खण्डन किया।मूर्तिपूजा के खण्डन में उन्होंने यहां तक कहा-
गजैरापीड्यमानोअपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्।
भविष्य० प्रतिसर्गपर्व 3-28-53
यदि हाथी मारने के लिए दौड़ा आता हो और जैनियों के मन्दिर में जाने से प्राणरक्षा होती हो तो भी जैनियों के मन्दिर में नहीं जाना चाहिए।

ब्राह्मणों, उपदेशकों और विद्वानों के कथन का साधारण जनता पर कोई प्रभाव न पड़ा तो उन लोगों ने भी मन्दिरों का निर्माण किया।जैनियों के मन्दिरों में नग्न मूर्तियां होती थीं,इन मन्दिरों में भव्यवेश में भूषित हार-श्रृंगारयुक्त मूर्तियों की स्थापना और पूजा होने लगी।पूजा करनेवाले पूजारि कहलाये।

पूजारि का अर्थ है-पूजा+अरि अर्थात् पूजा एक शत्रु।पूजारि सचमुच पूजा का शत्रु है।
आइये आपके समक्ष एक छोटी-सी कहानी प्रस्तुत करता हूं जिसे पढ़कर आपमें समझदारी तो आएगी ही साथ-ही-साथ मूर्तिपूजा के प्रति आपके मन में विभिन्न प्रश्न भी आने लगेंगे और आप ये साकार मूर्ति को न मानकर निराकार ईश्वर के उपासक बनेंगे।

एक बार किसी युवक ने पूजारिजी से कहा-“आप तो मूर्तिपूजा का खण्डन करते थे अब स्वयं ही पूजना आरम्भ कर दिया।यह क्या बात है?” पूजारिजी ने कहा।”मैं तो पूजा का शत्रु ही हूँ।कल प्रातः काल आना समझाऊँगा।”
दूसरे दिन युवक मन्दिर में पहुंचा।प्रातः काल का समय था।सूर्योदय हो चुका था।सूर्य के प्रकाश में पूजारिजी ने एक दीपक प्रज्ज्वलित किया जिसमें सात बत्तियाँ थीं।अपने हाथ में एक घण्टी ली।एक व्यक्ति को नगाड़ा कौर दूसरे को घड़ियाल बजाने का आदेश दिया।पूजारिजी मूर्ति के समक्ष खड़े हुए और उस दीपक को मूर्ति के पैरों पर ले-जाकर उस युवक को दिखाने लगे और मौन भाषा में कहने लगे,ध्यानपूर्वक देखो यह पत्थर है।फिर वे उसे दीपक को हाथ के पास लाकर और हाथ को दिखाते हुए मौन भाषा में ही संकेत करने लगे कि ध्यानपूर्वक देख लो यह पत्थर ही है।पुनः वे उस दीपक को मूर्ति के मुख पर लाये।यदि कोई व्यक्ति सो रहा हो और उसकी आँखों पर तीव्र प्रकाश ले-जाया जाए तो उसकी आंखें कुछ-न-कुछ झपकेंगी।पूजारिजी मूर्ति की आंखों को दिखाते हुए कहता है-
“ध्यानपूर्वक देखो,यह पत्थर है।”फिर पूजारिजी मूर्ति के दूसरे हाथ पर दीपक ले-जाकर उसे भी दिखाते हैं और अन्त में पुनः पैरों पर आ जाते हैं।इस क्रिया को पूजारि एक-दो बार नहीं बल्कि सात बार दोहराता है और मौन उपदेश करते हुए कहता है”ध्यानपूर्वक देख लो यह ऊपर से नीचे तक पत्थर ही पत्थर है।”युवक सो न जाए, अतः एक ओर घड़ियाल और नगाड़ा बजा रहा है तो दूसरी ओर पूजारिजी स्वयं घण्टी बजा रहे हैं।युवक यह सब-कुछ देखकर भी हाथ जोड़े खड़ा है।अब पूजारि एक चुल्लू पानी लेकर उसके ऊपर फेंकता है और अपनी मौन भाषा में कहता है कि अब भी नहीं समझा तो एक चुल्लू पानी में डूब मर!

इस प्रकार क्रियात्मक रूप में विद्वानों ने मूर्तिपूजा का घोर खण्डन किया।

स्वयं पुराणों में मूर्तिपूजा का घोर खण्डन किया गया है।
अरे भाई!हां, ये सच है जब पुराणों में भी मूर्तिपूजा का खण्डन है तो तुम ऐसी मूर्खता क्यों कर रहे हो?
मैं प्रमाण दे रहा हूँ,
पुराणों में भागवत पुराण का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है,अतः सबसे पूर्व मैं उसी का प्रमाण दे रहा हूं-

यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुके
स्वधी: कलत्रादिषु भौम इज्यधी:।
यत्तीर्थबुद्धि: सलिले न कर्हिचिज्।
जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखर:।।
-श्रीमद्भागवत 10-84-13
जो वात,पित और कफ-तीन मलों से बने हुए शरीर में आत्मबुद्धि रखता है,जो स्त्री आदि में स्वबुद्धि रखता है,जो पृथिवी से बनी हुई पाषाण-मूर्तियों में पूज्य बुद्धि रखता है और जो पानी में ही तीर्थबुद्धि रखता है,ऐसा व्यक्ति गोखर-गौओं का चारा उठाने वाला गधा है।

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामया:।
ते पुनन्त्यपि कालेन विष्णुभक्ता: क्षणादहो।।
-देवी० भा० 9-7-42
पानी के तीर्थ नहीं होते तथा मिट्टी और पत्थर के देवता नहीं होते।विष्णुभक्त तो क्षणमात्र में पवित्र कर देते हैं।परन्तु वे किसी काल में भी मनुष्य को पवित्र नहीं कर सकते।

दर्शनों में भी मूर्तिपूजा का निषेध किया हुआ है।प्रमाण प्रस्तुत है

न प्रतीके न हि स:।
-वेदान्त 4-1-4
प्रतीक में,मूर्ति आदि में परमात्मा की उपासना नहीं हो सकती,क्योंकि प्रतीक परमात्मा नहीं है।

बात है भी ठीक।ईश्वर के स्थान पर अन्य की पूजा करना मूर्खता है।श्री कपिल देवजी की,जिन्हें सनातनी अवतार मानते हैं,स्पष्ट घोषणा है-

अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थित: सदा।
तमवज्ञाय मां मर्त्य: कुरुतेऽर्चाविडम्बनम्।।
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम्
हित्वार्चां भजते मौढ्याद् भस्मन्येव जुहोति स:।।
-श्रीमद्भा० 3-29-21,22
मैं सर्व प्राणियों में जीवात्मा रूप में व्याप्त रहता हूं।जो मेरा अपमान करके मूर्तिपूजा करते हैं यह विडम्बना है।मैं सबकी देह में रहनेवाला हूँ।जो मनुष्य मुझे छोड़कर मूर्तियों की पूजा करते हैं वे अपनी अज्ञानता से राख में ही हवन करते हैं।

संसार के सभी महापुरुषों और सुधारकों ने भी मूर्तिपूजा का खण्डन किया है।श्री शंकराचार्यजी परापूजा में लिखते हैं-

पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम्।
स्वच्छस्य पाद्यमर्घ्यं च शुद्धस्याचमनं कुत:।।

ईश्वर सर्वत्र परिपूर्ण है फिर उसका आह्वान कैसा?जो सर्वाधार है उसके लिए आसन कैसा?जो सर्वथा स्वच्छ एवं पवित्र है उसके लिए पाद्य और अर्घ्य कैसा?जो शुद्ध है उसके लिए आचमन की क्या आवश्यकता?

निर्लेपस्य कुतो गन्धं पुष्पं निर्वसनस्य च।
निर्गन्धस्य कुतो धूपं स्वप्रकाशस्य दीपकम्।।

निर्लेप ईश्वर को चन्दन लगाने से क्या?जो सुगन्ध की इच्छा से रहित है उसे पुष्प क्यों चढ़ाते हो?निर्गन्ध को धूप क्यों जलाते हो?जो स्वयं प्रकाशमान है उसके समक्ष दीपक क्यों जलाते हो?

वृद्ध चाणक्यजी ने मूर्तिपूजा को मूर्खों के लिए बताया है-

अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा स्वल्पबुद्धिनां सर्वत्र समदर्शिन:।।
-चाणक्यनीति 4-19
अग्निहोत्र करना द्विजमात्र(ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य)का कर्तव्य है।मुनि लोग हृदय में परमात्मा की उपासना करते हैं।अल्प बुद्धिवाले लोग मूर्तिपूजा करते हैं।बुद्धिमानों के लिए तो सर्वत्र देवता है।

कबीरदासजी ने इस पाखण्ड का खण्डन करते हुए कहा था-

पाहन पूजे हरि मिले तो हम पूजे पहार।
ताते तो चाकी भली पीस खाये संसार।।

दादूजी का कथन है-

मूर्त गढ़ी पाषाण की किया सृजन हार।
दादू साँच सूझे नहीं यूँ डूबा संसार।

एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है-

दादू दुनिया बावरी मरहठियाँ पूजें ऊत।
आप मुये जग छाँड़ उनसे माँगे पूत।।

मूर्तिपूजा की पद्धति ही गलत है।पाठक पूछ सकते हैं कैसे?लीजिए, पढिये और मनन कीजिए-

एक नौजवान हनुमान्जी के मन्दिर में जाने लगा।प्रतिदिन हनुमान्जी के समक्ष दण्डवत् होकर दण्ड और बैठक लगाता, प्रार्थना करता और घर चला आता।हनुमान्जी की पूजा करते हुए छह मास व्यतीत हो गये परन्तु युवक की मन:कामना पूर्ण नहीं हुई।युवक के उदास मुखमण्डल को देखकर एक दिन पूजारिजी ने पूछा-“क्या बात है तुम्हारा मुखमण्डल प्रतिदिन मुरझाया जाता है?”युवक ने कहा-“क्या बात है,मेरी सगाई आती है और छूट जाती है।मैं मन्दिर में आकर प्रतिदिन हनुमान्जी से प्रार्थना करता हूँ कि कृपा करो जिससे मेरा विवाह शीघ्र सम्पन्न हो जाए।”यह सुनकर पूजारिजी ने कहा-“तुम्हारी पूजा की विधि ही गलत है।अरे!इसका तो स्वयं का विवाह नहीं हुआ,यह तुम्हारा विवाह कैसे करा सकता है?” अस्तु।

गुरु नानकदेवजी का उपदेश है-

पात्थर ले पूजहि मुगध गंवार।
ओहिजा आपि डुबो तुम कहा तारनहार।।

सन्त रैदासजी कहते हैं-

राम में पूजा कहाँ चढ़ाऊँ,
फल और फूल अनूप न पाऊँ
थन हर दूध जो बहरु झुटारी,
पहुप भँवर जल मीन बिगाड़ी।
मन ही पूजा मन ही धूप,
मन ही सेऊँ सहज स्वरूप।।

गुरु नानक देव जी की मूर्तिपूजा विषयक मत-

एके पाथर कीजे भाड
दूजे पाथर धरिये पाड
जे ओह देउता ओह भी देवा।

  • राग गुजरी नाम देव
    घर महि ठाकुर नदर न आवे,
    गल महि पाहन लै लटकावे।
    जिस पाहन कउ ठाकुर कहता।
    ओह पाहन लै उसको डूबता।
    गुनहगार, लूण हरामी।
    पावन नाव न पार गिरामी
    -राम सूही म ५ (गू अर्जुन)

जो पाथर को कहते देव
ताकि विरथा होव सेव
न पाथर बोले न किछ देइ।
फोकट धर्म निष्फल है सेव।

  • राग भैरव म ५ (कबीर )

पाहन परमेश्वर किया पूजे सब संसार।
इस भावा से जो रहे बूडे काली धार। (कबीर)
माटी के कर देवी देवा
काट काट जीव देइया जी।
जो तुहरा हैं साचा देवा
खेत चरन क्यों न लेइया जी।
-कबीर बीजक पृष्ठ २२६ शब्द ७६

जल पीवे पाषाण धोय,
सोतो आदि अंत पाषाण होय।
आकाश शीस पाताल पाप,
सो संपुट में कैसे आप।

  • रामस्नेही धर्म प्रकाश
    पत्थर पूजियां हर न मिलेरे,
    सब कोई पूजो जाय।
    पूजो नी घररी घरटिया,
    तब जग पीसर खाय।
  • रामस्नेही धर्म प्रकाश

पत्थर पीजै घोय कर, पत्थर पूजे प्राण।
अंत काल पथर भए, बहु बूड़े इह ज्ञान।
-दादूजी १४०

पीतल ही का थाल हैं, पीतल का लोटा।
जड़ मूरत को पूजते, आवेगा टोटा।
पीतल चमचा पूजिए, जो खान परोसे।
जड़ मूरत किस काम की, मत रहो भरोसे।

  • गरीबदास

इस प्रकार से अनेक उदहारण समाज सुधारकों जैसे आसाम के शंकरदेव, कर्णाटक में लिंगायत सम्प्रदाय के बसवा , नाथ सम्प्रदाय के गोरखनाथ आदि की लेखावली से पढ़ने में आते हैं जो की मूर्ति पूजा का खंडन करते हैं।

किस महात्मा ने कहा है-

पत्थर को तू भोग लगावे वह क्या भोजन खावे रे।
अन्धे आग दीपक बाले वृथा तेल जलावे रे।।

“मूर्ति जड़ है,उसे ईश्वर मानोगे तो ईश्वर भी जड़ सिद्ध होगा।अथवा ईश्वर के समान एक और ईश्वर मानो तो परमात्मा का परमात्मापन नहीं रहता।यदि यह कहो कि प्रतिमा में ईश्वर आ जाता है तो ठीक नहीं।इससे ईश्वर अखण्ड सिद्ध नहीं हो सकता।भावना में भगवान् है यह कहो तो मैं कहता हूँ कि काष्ठ-खण्ड में इक्षु-दण्ड की और लोष्ठ में मिश्री की भावना करने से क्या मुख मीठा हो सकता है?मृगतृष्णा में मृग जल की बहुतेरी भावना करता है परन्तु उसकी प्यास नहीं बुझती है।विश्वास,भावना और कल्पना के साथ सत्य का होना भी आवश्यक है।”
-दयानन्दप्रकाश,पृ० 264

आर्यजगत् के सुप्रसिद्ध कवि स्वर्गीय नाथूराम शंकर एक बार एक शिव-मंदिर में पहुंचे।वहां कुछ साथियों ने कहा कि आप भी अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कीजिए।तब उन्होंने निम्न शब्दों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की-

शैल विशाल महीतल फाड़,
बढ़े तिनको तुम तोड़ कढ़े हो।
लै लुढ़की जलधार धड़ाधड़,
ने धर गोल मटोल गढ़े हो।।
गुणविहीन कलेवर धार विराज रहे,
न लिखे न पढ़े हो।
हे जड़ देव!शिलासुत शंकर!
भारत पै करि कोप चढ़े हो।।

यहां इतना और लिख देना आवश्यक है कि शिवलिंग शिवजी की मूत्रेन्द्रिय है।यही कारण है कि शिवलिंग पर चढ़े हुए पदार्थ अग्राह्य हैं।
शिवपुराण में कहा है-

लिंगोपरि च यद् द्रव्यं तदग्राह्यं मुनीश्वरा:।
सुपवित्रं च तज्ज्ञेयं यल्लिंगस्पर्शबाह्यत:।।
-शि. विद्येश्वर संहिता 22-20

हे मुनीश्वरो!लिंग पर जो पदार्थ चढ़ा दिया गया हो वह ग्रहण करने योग्य नहीं है।जिसका शिवलिंग से स्पर्श न हुआ हो वही वस्तु पवित्र है।

किसी उर्दू भाषा के कवि ने कहा है-

बुतपरस्तों का है दस्तूर निराला देखो।
खुद तराशा है मगर नाम खुदा रखा है।।

किसी अन्य कवि ने कहा है-

सच तो यह है खुदा आखिर खुदा और बुत हैं बुत।
सोच खुद मालूम होगा यह कहाँ और वह कहां।।

प्रायः सभी गीताओं में मूर्तिपूजा का खण्डन किया गया है।विस्तारभय से अधिक न लिखते हुए यहां केवल अवधूत गीता का एक श्लोक प्रस्तुत कर रहा हूं-

नावाहनं नैव विसर्जनं वा पुष्पाणि पत्राणि कथं भवन्ति।
ध्यानानि मन्त्राणि कथं भवन्ति समासमं चैव शिवार्चनं च।।
-अवधूत गीता 4-1

दत्तात्रेयजी कहते हैं-“जब ईश्वर सर्वत्र व्यापक है तब उसका आवाहन और विसर्जन कैसे बना सकता है?जो शरीर रहित होने के कारण घ्राणेन्द्रिय आदि से रहित है उसे पत्र-पुष्प आदि समर्पण करना कैसे बन सकता है?जब उसका आवाहन और विसर्जन नहीं हो सकता तो उसका ध्यान और मन्त्र कैसे बन सकते हैं?प्राणिमात्र में एक आत्मा का दर्शन ही वस्तुतः शिवपूजन है।”

गांधी जी ने भी मूर्तिपूजा का निषेध किया है।वे लिखते हैं-“कुछ लोग सार्वजनिक स्थानों पर मेरी मूर्ति खड़ी करना चाहते हैं,कुछ तस्वीरें चाहते हैं और कई हैं जो जन्मदिन को आम छुटी का दिन बना देना चाहते हैं।मूर्ति,चित्र और ऐसी चीजें का आज दिन नहीं है।जिस एक प्रशंसा को मैं पसन्द करूंगा और कीमती समझूंगा वह तो उन प्रवृत्तियों में योगदान देना है,जिनमें मेरी जिन्दगी लग गई है।हर एक स्त्री-पुरुष जो साम्प्रदायिक मेल पैदा करने या अस्पृश्यता के कलंक को मिटाने या गांव का हित साधन करने का कोई एक भी काम करता है,वह मुझे सच्चा सुख और शान्ति पहुंचाता है।”
-गांधी अभिनन्दन ग्रन्थ,पृष्ठ 7

कुछ प्रश्न व उत्तर सत्यार्थप्रकाश से प्रस्तुत कर रहा हूँ-

1.प्रश्न- मूर्तिपूजा सीढ़ी है।मूर्तिपूजा करते-करते मनुष्य ईश्वर तक पहुंच जाता है।
उत्तर- मूर्तिपूजा परमात्मा-प्राप्ति की सीढ़ी नहीं है।हाँ, हिमालय पर्वत की प्राप्ति की सीढ़ी यह हो सकती है।सीढ़ी तो गन्तव्य स्थान पर पहुंचने के पश्चात छूट जाती है परन्तु हम देखते हैं कि एक व्यक्ति आठ वर्ष की अवस्था से मूर्तिपूजा आरम्भ करता है।और अस्सी वर्ष की अवस्था में मरते समय तक भी इस दलदल से निकल नहीं पाता।
एक बच्चा दूसरी कक्षा में पढ़ता है,उसे पांच और छह का जोड़ करना हो तो वह पहले स्लेट अथवा कापी पर पाँच लकीरें खेंचता है,फिर उनके पास छह लकीरें खेंचता है,उन्हें गिनकर वह ग्यारह जोड़ प्राप्त करता है।परन्तु तीसरी अथवा चौथी कक्षा में पहुंचने पर वह अंगुलियों पर गिनने लग सकता है और पांचवी-छठी में पहुंचकर वह मानसिक गणित से ही जोड़ लेता है।यदि मूर्तिपूजा सीढ़ी होती तो मूर्तिपूजक उन्नति करते-करते मन में ही ध्यान करने लग जाते परन्तु ऐसा होता नहीं,अतः महर्षि दयानन्दजी ने लिखा है-

“नहीं-नहीं,मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमें गिरकर(मनुष्य)चकनाचूर हो जाता है,पुनः इस खाई से निकल नहीं सकता किन्तु उसी में मर जाता है।”
-सत्यार्थप्रकाश, एकादश समुल्लास

2.प्रश्न- महाभारत में लिखा है कि एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर शस्त्र-विद्या सीखी थी,अतः मूर्तिपूजा में कोई दोष नहीं है।
उत्तर- प्रथम तो एक मूर्ख भील का कर्म ज्ञानियों के लिए अनुकरणीय नहीं हो सकता।दूसरे एकलव्य को शस्त्र-विद्या निरन्तर अभ्यास करने के कारण हस्तगत हुई थी।यदि सनातनियों का विचार है कि मूर्ति की पूजा से ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है तो उन्हें मूर्तियों से वेद पढ़कर दिखाना चाहिए।

3.प्रश्न- ईश्वर सर्वत्र व्यापक है,अतः वह मूर्ति में भी है,फिर उसकी पूजा करने में क्या दोष है?
उत्तर- निःसन्देह ईश्वर सर्वत्र व्यापक है,अतः वह मूर्ति में भी विद्यमान है,परन्तु उपासना वहां हो सकती है जहां उपासक और उपास्य दोनों विद्यमान हों।मूर्ति में ईश्वर तो है परन्तु आत्मा नहीं है,अतः मूर्ति में ईश्वर की उपासना नहीं हो सकती।ईश्वर की पूजा और उपासना तो हृदय-मन्दिर में ही हो सकती है।मूर्ति में आत्मा का अभाव है किन्तु आपके शरीर में आत्मा और परमात्मा दोनों ही विराजमान हैं, अतः अपने शरीरस्थ आत्मा द्वारा परमात्मा की पूजा करो।

3.प्रश्न- यह तो हम भी मानते हैं कि मूर्ति भगवान् नहीं है।हम तो उसमें भगवान् की भावना करके पूजा करते हैं इसमें क्या दोष है?
उत्तर- दोष है।यदि भावना फल देनेवाली हो तो पीतल में सोने की भावना करो और उसे सोने के भाव बेचो,फिर देखो क्या अवस्था होती है?यमुना की रेती में चीनी की भावना करो और उसे दूध में डालकर पी लो,फिर देखो कैसा आनन्द आता है?जिसे तुम भावना कहते हो वह वस्तुतः भावना नहीं अभावना है।जो वस्तु जैसी है उसे वैसा हो जाने और मानने का नाम भावना है।जैसे अग्नि में अग्नि की और जल में जल की भावना तो ठीक है परन्तु जल में अग्नि की और अग्नि में जल की भावना भावना नहीं अभावना है।यदि भावना से ईश्वर चक्कर और धोखे में आ सकता है तो यमुना की रेती में खाँड की और कंकर-पत्थरों में मिश्री की भावना करके उन्हें खाँड और मिश्री क्यों नहीं बना लेते?

कोई भक्त पंसारी के यहां मिश्री लेने गया।पंसारी ने भूल में फिटकरी दे दी।पूजारिजी ने शुद्ध भाव से भोग लगाकर प्रसाद बाँटा परन्तु सब खानेवालों के मुंह कड़वे हो गए।भावना तो मिश्री की थी,अतः लोगों के मुंह कड़वे नहीं होने चाहिए थे,अतः सिद्ध हुआ कि भावना से वस्तु के गुणों में परिवर्तन नहीं हो सकता।जैसे अंधेरे में पड़ी रस्सी को सांप समझने से उसमें विष व्याप्त नहीं होता उसी प्रकार जड़ मूर्ति को ईश्वर समझने से वह ईश्वर नहीं हो सकती।

प्रातःकाल का समय था।मार्ग में धुन्ध एवं कुहरा छाया हुआ था।ऐसे समय में विनोबाजी प्रातः भ्रमण के लिए जा रहे थे।मार्ग में एक मूर्ति आई।विनोबाजी ने प्रणाम किया और तीन प्रदक्षिणा करके आगे चल दिये।जब वापस लौटे तो एक भक्त ने कहा-“अनर्थ हो गया!अपने गांधीजी के स्थान पर एडवर्ड की मूर्ति को प्रणाम किया और उसकी प्रदक्षिणा भी की।”परन्तु मैं पुछता हूँ कि क्या भावना करने से वह मूर्ति गांधी की बन गई थी?अतः जो पदार्थ जैसा हो उसमें वैसी ही भावना करनी चाहिए।

4.प्रश्न- मूर्ति को देखकर उसमें व्यापक ईश्वर में ध्यान लग जाता है।
उत्तर- मूर्ति ध्यान लगाने में सहायक नहीं हो सकती।यदि मूर्ति ध्यान लगाने में सहायक होती तो यह सारा जगत् ही मूर्तिमान् है उसमें ध्यान लगाने से सबका ध्यान लग जाना चाहिए था,परन्तु इस संसार के पदार्थों से तो हम विचलित हो रहे हैं।ध्यान तो तभी लग सकता है जब मन विषयों से रहित हो जाय- ध्यानं निर्विषयं मन:(सांख्यदर्शन 6-25)।यदि मूर्ति से ही ध्यान लगता है तो अपने पुत्र अथवा पत्नी को समक्ष रखकर उनका ध्यान कर लो।

5.प्रश्न- जैसे लड़कियां पहले गुड्डे-गुड़ियों से खेलती हैं,जब उनका विवाह हो जाता है तो छोड़ देती है,ऐसे ही मूर्तिपूजा करते-करते जब हमें ईश्वर के दर्शन हो जाएंगे तो हम भी मूर्तिपूजा छोड़ देंगे।
उत्तर- गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेलने से किसी का विवाह नहीं होता।क्या आज तक किसी लड़की का विवाह गुड़ियों से खेल-खेल कर हुआ है?यदि गुड़िया खेलने से ही विवाह हो जाता तो कोई माता-पिता अपनी पुत्री के विवाह की चिन्ता नहीं करता।इसी प्रकार चाहे मूर्तिपूजा करते-करते जीवन व्यतीत हो जाये मूर्तिपूजकों को ईश्वर के दर्शन नहीं हो सकते,क्योंकि वे ईश्वरप्राप्ति के उपाय यम-नियम आदि का पालन नहीं करते।

भारत के पराधीन होने का कारण क्या था?
मूर्तिपूजा।

आइए,तनिक इतिहास के पन्ने पलटें।

सन् 712 में मुहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध के प्रसिद्ध नगर देवल पर चढ़ाई की।इस समय कासिम की अवस्था बीस वर्ष और उसके पास छह सहस्र सेना तथा तीन हजार ऊंट थे।जब राजा दाहर को पता लगा तो उसने तीस सहस्र सैनिकों को लेकर उसका सामना किया।18 दिन तक खूब लोहे से लोहा बजा, घमासान का युद्ध हुआ, खून की नदियाँ बह गईं, मुहम्मद बिन कासिम और उसकी सेना के पैर उखड़ गए।वह हारकर भागने ही वाला था कि एक देशद्रोही पूजारि उससे जा जिला और कहा कि यदि तुम विजय प्राप्त करना चाहते हो तो सामने मन्दिर पर जो ध्वज दिखाई दे रहा है उसे गिरा दो, झण्डा गिराते ही वे परास्त हो जाएंगे।ऐसा ही किया गया।मन्दिर का ध्वज गिरा दिया गया।दाहर की सेना के घुटने टूट गए।वे अपनी पराजय मानकर भाग खड़े हुए।देवल पर मुसलमानों का अधिकार हो गया।उसी पूजारि ने कुछ दक्षिणा के लोभ में एक गुप्त खजाने का पता भी बताया जिसमें सोने की चालीस देगें रखी थीं।इनमें 1720 मन सोना था।इनके अतिरिक्त 6,000 ठोस स्वर्णमूर्तियां भी थीं जिनमें सबसे बड़ी तीन मन की थी।हीरा,पन्ना,माणिक,मोती इतने थे कि उन्हें कई ऊँटों पर लादकर ले जाया गया।

सोमनाथ के मन्दिर की कहानी भी कम रोमांचक नहीं है।सन् 1024 में महमूद गजनवी ने सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण किया।सोमनाथ के मन्दिर की रक्षा के लिए एक बहुत बड़ी सेना तैयार खड़ी थी,परन्तु ज्योतिषियों ने कहा-“इस समय तो भद्रा है,लग्न और मुहूर्त ठीक नहीं है।”पूजारियों ने कहा-“आपको कुछ करने की आवश्यकता नहीं,मूर्तियां स्वयं शत्रु को परास्त कर देंगी।”परिणाम तो जो कुछ होना था वही हुआ।महमूद गजनवी बिना किसी प्रतिरोध के मन्दिर में प्रविष्ट हो गया।मन्दिर में चालीस मन भारी सोने की जंजीर में एक भारी घण्टा लटक रहा था।एक लोहे की विशाल मूर्ति ऊपर-नीचे चुम्बक पत्थर के आकर्षण से अधर लटक रही थी।जब महमूद गजनवी ने उस मूर्ति को तोड़ना चाहा तो पूजारियों में उसे न तोड़ने के लिए बहुत अनुनय-विनय की तथा उसके बदले में बहुत सारा धन देने का प्रलोभन भी दिया परन्तु उसने यह कहकर कि मैं बुतफरोश(मूर्ति-विक्रेता)नहीं,अपितु बुतशिकन(मूर्ति-भञ्जक)हूँ-उस मूर्ति को गदा के एक ही वार से तोड़ दिया।उस मूर्ति को वह अपने साथ गजनी ले गया और उसके टुकड़े-टुकड़े करके एक टुकड़ा मस्जिद की सीढ़ियों में और दूसरा महल की सीढ़ियों में लगवा दिया।

यहां केवल दो घटनाओं का उल्लेख किया हूं तो, अब तो जागो और इस पाखण्ड को छोड़ो।

दो शब्द-
यह क्या कर रहे हो किधर जा रहे हो।
अन्धेरे में क्यों ठोकरें खा रहे हो।।
बनाया है स्वयं जिसको हाथों से अपने।
गजब है प्रभु उसको बतला रहे हो।।

इस लेख से मैंने मूर्तिपूजा जैसे अन्धविश्वाश(जो समाज में बीमारी की तरह फैल गया है)को हटाने का प्रयत्न किया है।
लेख पढ़कर भी पौराणिक भाइयों अगर मूर्ति पूजा करते हो तो फिर यही कहूंगा कि अब उल्लू को दिन में न दिखे तो इसमें सूर्य का क्या दोष!

।।ओ३म्।।

अष्टाादशपुराणसमीक्षा

*अष्टाादशपुराणसमीक्षा

नोट :- यह किसी को चिढ़ाने अथवा नीचा दिखाने के उद्देश्य से नही किंतु जिज्ञासु और विद्वानो के मध्य सत्य असत्य का निर्णय कराने हेतु है

प्रश्न — अष्टादशपुराणानां कर्त्ता सत्यवतीसुतः ॥१॥ [रेवाखण्ड]
इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत ॥२॥ महाभारत [आदिपर्व १| २६७]
पुराणानि खिलानि च ॥३॥ मनु○[३|२३२]
इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः ॥४॥ छान्दोग्य○ [७|१|४]
दशमेऽहनि किंचित्पुराणमाचक्षीत ॥५॥ [तुलना — शतपथ १३|३|१|१३]
पुराणविद्या वेदः ॥६॥ सूत्रम् [तु○–शतपथ १३|३|१|१३]

अठारह पुराणो के कर्ता व्यासजी है व्यास वचन का प्रमाण अवश्य करना चाहिए ॥१॥
इतिहास महाभारत अठारह पुराणो से वेदो का अर्थ पढ़े क्योंकि इतिहास और पुराण वेदो ही के अर्थ और अनुकूल है ॥२॥
पितृकर्म मे पूराण और खिल अर्थात् हरिवंश की कथा सुने ॥३॥
इतिहास और पूराण पञ्चमवेद कहाते है ॥४॥
अश्वमेध की समाप्ति मे दशमें दिन थोड़ी सी पुराण कथा सुने ॥५॥
पुराणविद्या वेदार्थ के जानने ही से वेद है ॥६॥

इत्यादि प्रमाणो से पुराणो का प्रमाण और इनके प्रमाणो से मूर्तिपूजा और तिर्थो का भी प्रमाण है क्योंकि पुराणो मे मूर्तिपूजा और तीर्थों का विधान है

उत्तर — जो अठारह पुराणो के कर्त्ता व्यासजी होते तो उनमे इतने गपोड़े न होते क्योंकि शारीरिकसूत्र , योगशास्त्र के भाष्य आदि व्यास मुनि कृत्त ग्रंथो को देखने से विदित होता है कि व्यासजी बड़े विद्वान सत्यवादी धार्मिक योगी थे वे ऐसी मिथ्या कथा कभी ना लिखते और इससे यह सिध्द होता है कि जिन संप्रदायी परस्पर विरोधी लोगो ने भागवतादि नवीन कपोल्कल्पित ग्रंथ बनाए है उनमे व्यासजी के गुणो का लेशमात्र भी नही था और वेद शास्त्र विरुद्ध असत्यवाद लिखना व्यासजी सदृश विद्वानो का काम नही किंतु यह काम विरोधी स्वार्थी अविद्वानो पामरों का है इतिहास और पुराण शिवपुराण आदि का नाम नही किंतु —
ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथानाराशंसीरिति
—यह ब्राह्मण और सूत्रो का वचन है [तैत्ति○ आरण्यक २|९ आशवलायन गृहासूत्र ३|३|१
ऐतरेय, शतपथ , साम और गोपथ ब्राह्मण ग्रंथो ही के इतिहास पुराण कल्प गाथा और नाराशंसी ये पांच नाम है (इतिहास) जैसे जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद (पुराण ) जगदुत्पत्ति आदि का वर्णन आख्यान (कल्प) वेद शब्दो के सामर्थ्य का वर्णन अर्थ निरूपण करना (गाथा) किसी का दृष्टांत दार्ष्टान्त रूप कथा प्रसंङग् कहना (नाराशंसी) मनुष्यो के प्रशंसनीय व अप्रशंसनीय कर्मो का कथन करना इन्ही से वेदार्थ का बोध होता है
“पितृकर्म ” ज्ञानियो के प्रसंग मे कुछ सुनना अश्वमेध के अंत मे इन्ही का सुनना लिखा है क्योंकि जो व्यासकृत ग्रंथ है उनका सुनना सुनाना व्यासजी के जन्म के पश्चात् हो सकता है पूर्व नही जब व्यासजी का जन्म भी नही था तब वेदार्थ को पढ़ते पढ़ाते सुनते सुनाते थे इसलिए सबसे प्राचीन ब्राह्मण ग्रंथो ही मे यह सब घटना हो सकती है इन श्रीमद्भागवत शिव पुराण आदि मिथ्यावाद दूषित ग्रंथो मे नही घट सकती जब व्यासजी जी ने वेद पढ़े और पढ़ाकर वेदार्थ फैलाया इसलिए उनका नाम वेदव्यास हुआ क्योंकि व्यास कहते है वार-पार की मध्य रेखा को अर्थात् ऋग्वेद के आरम्भ से लेकर अथर्ववेद के पार पर्यन्त चारो वेद पढ़े थे और शुकदेव तथा जैमिनी आदि शिष्यो को पढ़ाए भी थे नही तो उनके बचपन का नाम कृष्णद्वैपायन था जो कोई यह कहते है कि वेदो को व्यासजी ने इकट्ठे किए यह बात झूठी है क्योंकि व्यासजी के पिता पितामह और प्रपितामह, पराशर ,शक्ति , और वशिष्ठ और ब्रह्मा जी आदि ने भी चारो वेद पढ़े थे,

प्रश्न : पुराणो मे सब बाते झूठी है, वा कोई सच्ची भी है
उत्तर : बहुत सी बाते झूठी है और कोई घुणाक्षरन्याय से सच्ची भी है जो सच्ची है वो वेदादि सत्य शास्त्रो की है और जो झूठी है वो उन पाखंडी पौराणिको के घर की है
जैसे शिव पुराण मे शैवो ने शिव को परमेश्वर मान के विष्णु ब्रम्हा इन्द्र गणेश और सुर्यादि को उनके दास ठहराए वैष्णवो ने विष्णु पुराण आदि मे विष्णु को परमात्मा माना और शिव आदि को विष्णु के दास देवी भागवत मे देवी परमेश्वरी और शिव विष्णु को उनके किक्ङर बनाए गणेशखण्ड मे गणेश को ईश्वर और शेष को दास बनाए भला यह बात इन संप्रदायी पंडितो की नही तो किनकी है? एक मनुष्य के बनाने मे ऐसी परस्पर विरोधी बात नही होती तो विद्वान के बनाए मे भी कभी नही आ सकती इसमे एक बात को सच्ची माने तो दूसरी झूठी और जो दूसरी को सच्ची माने तो अन्य सब झूठी होती है शिव पुराण वाले शिव से विष्णु पुराण वाले विष्णु से देवी पुराण वाले देवी से गणेशखण्ड वाले गणेश से सुर्यपुराण वाले सुर्य से और वायुपुराण वाले वायु से सृष्टि की उत्पत्ति प्रलय लिखके पुनः एक एक से एक एक को जगत के कारण लिखे उनकी उत्पत्ति एक एक से लिखी कोई पूछे कि जो जगत की उत्पत्ति स्थिति प्रलय करने वाला है वह उत्पन्न और जो उत्पन्न होता है वह सृष्टि का कारण कभी हो सकता है वा नही? तो शिवाय चुप रहने के कुछ भी नही कह सकते । और इन सबके शरीर की उत्पत्ति भी इसी से हुई होगी फिर वे आप सृष्टि पदार्थ और परिच्छिन्न होकर संसार की उत्पत्ति के कर्ता क्योकर हो सकते है? और उत्पत्ति भी विलक्षण विलक्षण प्रकार से मानी है जो सर्वथा असंभव है जैसे —

शिवपुराण मे शिव ने इच्छा की मै सृष्टि करू तो एक नारायण को जलाशय से उत्पन्न कर उसकी नाभि से कमल, कमल मे से ब्रह्मा उत्पन्न हुआ उसने देखा कि सब जलमय है जल की अञ्जलि उठा देख जल मे पटक दिया उससे एक बुलबुला और बुलबुले से एक पुरुष हुआ उसने ब्रह्मा से कहा कि हे पुत्र सृष्टि कर ब्रह्मा ने कहा मै तेरा पुत्र नही तु मेरा पुत्र है उनमे विवाद हुआ और दिव्य सहस्त्रो वर्ष पर्यन्त दोनो जल मे लड़ते रहे तब महादेव ने विचार किया की जिनको सृष्टि करने के लिए भेजा था वे दोनो आपस में लड़ रहे है तब उन दोनो के बीच मे तेजोमय लिंग उत्पन्न हुआ और वह शीघ्र आकाश में चला गया उसको देखकर दोनो साश्चर्य हो गए विचारा की इसका आदि अंत लेना चाहिए जो आदि अंत लेकर पहले आवे वह पिता और जो पीछे और थाह लेके ना आवे वह पुत्र कहावे विष्णु कूर्म का स्वरूप धरके नीचे चला और ब्रह्मा हंस का शरीर धारण कर उपर को उड़ा दोनो मनोवेग से चले दिव्य सहस्त्रो वर्ष पर्यन्त दोनो चलते रहे तो भी उसका अंत ना पाया तब नीचे से ऊपर विष्णु और ऊपर से नीचे ब्रह्मा चला ब्रह्मा ने विचारा की जो वह छेड़ा ले आया होगा तो पुत्र बनना पड़ेगा ऐसा सोच रहा था कि तभी एक गाय और केतकी का वृक्ष ऊपर से उतर आया उनसे ब्रह्मा ने पुछा कि तुम कहा से आए हो उन्होंने कहा हम सहस्त्रो वर्षो से इस लिंग के आधार से चले आते है ब्रह्मा ने पूछा इस लिंग का थाह है वा नही उन्होंने कहा कि नही ब्रह्मा ने उनसे कहा कि तुम हमारे साथ चलो और ऐसी साक्षी दो की मै इस लिंग के सिर पर दूध की धारा वर्षाती थी और वृक्ष कहे कि मै फुल वर्षाता था उन्होंने कहा कि हम झूठी साक्षी नही देंगे तब ब्रह्मा कुपित होकर बोला कि मै तुम दोनो को अभी भस्म कर देता हु तब दोनो ने डरकर कहा हम जैसी तुम कहते हो वैसी ही साक्षी देंगे
तब तीनो नीचे की ओर चले विष्णु पहले ही पहुंच चुके थे विष्णु से पूछा तू थाह ले आया वा नही? तब विष्णु बोला मुझको थाह नही मिला ब्रह्मा ने कहा मै ले आया और झूठी साक्षी भी दिलवा दिए तब लिंग मे से शब्द निकला तू झूठ बोला इसलिए तेरा फुल मुझ पर कभी नही चढ़ेगा गाय से कहा तु झूठ बोली इसलिए सदा जुठा खाया करेंगी ब्रह्मा से कहा तेरी पूजा कभी नही होगी और विष्णु को वर दिया कि तू सच बोला इसलिए तेरी सर्वत्र पूजा होगी तभी उस लिंग से शिवजी निकले और कहा तुमदोनो ने अबतक सृष्टि क्यो नही रची विष्णु ने कहा हम बिना सामग्री सृष्टि कैसे रचे महादेव ने अपने जटा से भस्म का गोला निकाल कर दिया और कहा जाओ इसमे से सब सृष्टि बनाओ

कोई इन पुराण बनाने वाले पाखंडी पौराणिको से पूछे कि जब सृष्टि तत्व और पंचमहाभूत भी नही थे तो ब्राह्मा विष्णु महादेव के शरीर जल कमल लिंग गाय और केतकी का वृक्ष और भस्म क्या तुम्हारे बाबा के घर से आ टपके
?

वैसे ही भागवत मे विष्णु की नाभि से कमल कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा के दाहिने पग के अंगूठे से स्वायंभुव और बाए अंगुठे से सत्यरूपा राणी ललाट से रूद्र और मरीची आदि दश पुत्र उनसे दक्ष प्रजापति उनकी तेरह लड़कीयो का विवाह कश्यप से उनमे से दिति से दैत्य दनु से दानव अदिति से आदित्य विनता से पक्षी कद्रू से सर्प सरमा से कुत्ते स्याल आदि और अन्य स्त्रीयो से हाथी घोड़े ऊंट गधा भैसा घास फूस और बबूर का वृक्ष कांटे सहित उत्पन्न हो गया

वाह रे! भागवत बनाने वाले लालबुझक्कर? तुम को ऐसी बाते करते हुए शर्म नही आई भला स्त्री पुरुष के रज वीर्य से तो मनुष्य देह बनते ही है परन्तु परमेश्वर वेद और सृष्टि क्रम से विरूद्ध पक्षी सर्प कभी उत्पन्न नही हो सकते हाथी ऊंट शेर के स्थित होने का अवकाश स्त्री के गर्भाशय मे हो सकता है? और शेर आदि उत्पन्न होकर अपने माता-पिता को क्यो नही खा गए इत्यादि झूठ बातो को वे अंधे पौराणिक और भीतर बाहर की आख फुटे हुए उनके चेले सुनते मानते है यह पूराण आदि रचने वाले लोग जन्मते ही मर क्यो नही गए कम से कम हमारा सनातन वैदिक राष्ट्र अंधविश्वास मे फंसने से तो बचा रहता

प्रश्न इन बातो मे विरोध नही आ सकता क्योंकि जिसका विवाह उसी के गीत जब विष्णु की स्तुति करने लगे तब विष्णु को परमेश्वर अन्य को दास जब शिव के गुण गाने लगे तब शिव को परमात्मा अन्य को किंकङ बनाया और परमेश्वर की माया मे सब बन सकता है देखो विना कारण अपनी माया से सब सृष्टि खड़ी कर दी है उसमे कौन सी बात अघटित है, जो करना चाहे सो सब कर सकता है

उत्तर– अरे भोले विवाह मे जिसके गीत गाते है उसको बड़ा और दूसरो को छोटा वा निन्दा अथवा उसको सबका बाप तो नही बनाते कहो पौराणिक पंडो तुम भाट और खुशामदी चारणो से बढ़कर गप्पी हो अथवा नही? कि जिसके पीछे लगो उसी को सबसे बड़ा बनाओ और जिससे विरोध करो उसको सबसे नीच ठहराओ तुमको सत्य और धर्म से क्या प्रयोजन किन्तु तुमको तो अपने स्वार्थ ही से काम है माया मनुष्य मे हो सकती है जो छली कपटी है उसी को मायावी कहते है परमेश्वर मे छल कपटादि दोष ना होने से उसको मायावी नही कह सकते जो आदि सृष्टि मे कश्यप और कश्यप की स्त्रीयो से पशु पक्षी सर्प वृक्षादि हुए होते तो आजकल भी वैसे संतान क्यो नही होते सृष्टि क्रम जो पहिले लिख आए वही ठीक है और अनुमान है कि पंडित जी यही से धोखा खाकर बके होंगे
तस्मात् काश्यप्य इमाः प्रजाः ॥ [तुलना शत ७|४|१|५]
शतपथ मे यह लिखा है कि यह सब सृष्टि कश्यप की बनाई हुई है
कश्यपः कस्मादत् पश्यको भवतीति –निरू○[अ○२|खं○१,तुलना –तै○आ○१|८]
सृष्टिकर्ता परमेश्वर का नाम कश्यप इसलिए है कि पश्यक अर्थात् पश्यतीति पश्यः, पश्य एव पश्यकः जो निभ्रम होकर चराचर जगत् सब जीव और इनके कर्म सकल विद्याओ को यथावत् देखता है और ‘आद्यन्तविपर्ययश्च’ इस महाभाष्य [३|१|२३] के वचन से आदि का अक्षर अन्त और अंत का वर्ण आदि मे आने से पश्यक से कश्यप बन गया है इसका अर्थ न जानकर भांग के लोटे चढ़ा अपना जन्म सृष्टि विरूद्ध कथन करने मे नष्ट कर दिया ।
जैसे ‘मार्कण्डेयपुराण’ के दुर्गापाठ मे देवो के शरीरो से तेज निकल के एक देवी बनी उसने महिषासुर को मारा रक्तबीज के शरीर से एक बिन्दु भूमि पर पड़ने से उसके सदृश रक्तबीज के उत्पन्न होने से सब जगत् मे रक्तबीज भर जाना रूधिर की नदिया चलनी आदि गपोड़े बहुत से लिख रखे है जब रक्तबीज से सब जगत् भर गया था तो देवी का सिंह और देवी कहा ठहरी थी? जो कहो कि देवी से दूर-दूर रक्तबीज थे तो सब जगत् रक्तबीज से नही भरा था? और सब जंगली पशु समुद्र की मच्छिया पक्षी वृक्ष आदि कहा रहे थे? यहा यही निश्चित जानना कि दुर्गा पाठ बनानेवालो के घर मे स्थित होंगे देखिए क्या ही असंभव कथा का गपौड़ा भंङगी लहरी मे उड़ाया है जिनका ठौर न ठिकाना जिसको श्रीमद्भागवत पुराण कहते है उसकी लीला सुनो ब्रह्मा जी को नारायण ने चतुः श्लोकी भागवत का उपदेश किया है ज्ञानं परमगुहां मे यद्विज्ञानसमन्वितम् सरहस्यं तदङग्ञ्च गृहाण गदितं मया
—भागवत [स्कं○२|९|३०]
हे ब्रह्मा जी तू मेरा परमगुहा ज्ञान जो विज्ञान और रहस्ययुक्त और धर्मार्थ , काम, मोक्ष का अग्ङ साधन है उसी का मुझसे ग्रहण कर । जब विज्ञान युक्त ज्ञान कहा तो ‘परम’ अर्थात् ज्ञान का विशेषण रखना व्यर्थ है और गुहा विशेषण से रहस्य भी पुनरूक्त है जब मूल श्लोक अनर्थक है तो ग्रंथ अनर्थक क्यो नही? जब भागवत का मूल ही झूठा है तो उसका वृक्ष झूठा क्यो नही होगा? ब्रह्मा जी को वर दिया कि —
भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ॥
—भागव○[स्कं○२|९]श्लोक [३६]
आप ‘कल्प’ सृष्टि और विकल्प प्रलय मे मोह को प्राप्त कभी नही होंगे ऐसा लिखकर पुनः दशमस्कन्ध मे मोहित होके वत्सहरण किया इन दोनो मे से एक बात सच्ची दूसरी झूठी ऐसा होकर दोनो बात झूठी सिध्द होती है जब वैकुण्ठ मे राग-द्वेष क्रोध ईष्र्या दुख नही है तो सनकादिको को वैकुण्ठ के द्वार मे क्रोध क्यो हुआ? जो क्रोध हुआ तो वह स्वर्ग नही । जब जय विजय द्वार पाल थे स्वामी जी की आज्ञा पालनी अवश्य थी उन्होंने सनकादिको को रोका तो क्या अपराध हुआ? इस पर बिना अपराध शाप ही नही लग सकता जब शाप लगा कि तुम पृथ्वी मे गिर पड़ो इसके कहने से यह सिद्ध होता है कि वहां पृथ्वी ना होगी आकाश वायु अग्नि और जल होगा जो ऐसा था तो द्वार मंदिर और जल किसके आधार थे? पुनः जय विजय ने सनकादिको की स्तुति की महाराज हम पुनः वैकुण्ठ मे कब आवेंगे? उन्होंने उनसे कहा कि जो प्रेम से नारायण की भक्ति करोगे तो सातवे जन्म और जो विरोध मे भक्ति करोगे तो तीसरे जन्म वैकुण्ठ को प्राप्त होगे इसमे विचारना चाहिए कि जय,विजय नारायण के नौकर थे उनकी रक्षा और सहाय करना नारायण का कर्तव्य था जो अपने नौकरो को बिना अपराध दुख देवे उनको उनका स्वामी दण्ड न देवे तो उसके नौकर की दुर्दशा कोई कर डाले नारायण को उचित था कि जय, विजय का सत्कार और सनकादिको को खूब दण्ड देते क्योंकि उन्होंने भीतर आने के लिए हठ क्यो किया? और नौकर से लड़े क्यो शाप दिया? उनके बदले सनकादिको को पृथ्वी मे डाल देना नारायण का न्याय था जब इतना अंधेर नारायण के घर मे है तो उसके सेवक जो वैष्णव कहाते है उनकी जितनी दुर्दशा हो उतनी थोड़ी है ।
पुनः वे हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु उत्पन्न हुए उनमे से हिरण्याक्ष को वराह ने मारा उसकी कथा इस प्रकार से लिखी है कि वह पृथ्वी को चटाई के समान लपेट शिराने धर सो गया विष्णु ने वराह का स्वरूप धारण करके उसके शिर के नीचे से पृथ्वी को मुख मे धर लिया वह उठा दोनो की लड़ाई हुई वराह ने हिरण्याक्ष को मार डाला
इन पंडो से कोई पूछे कि पृथ्वी गोल है वा चटाई के तुल्य? तो कुछ ना कह सकेंगे क्योंकि पौराणिक लोग वेद ज्ञान और भूगोलविद्या के शत्रु है भला जब लपेटकर शिराने धरली आप ही स्वंय किस पर सोया? और वराह जी किस पर पग धर दौड़ आए और फिर पृथ्वी को तो वराह जी ने मुख मे रखी फिर दोनो किस पर खड़े होकर लड़े? वहा और कोई ठहरने की जगह नही थी किंतु भागवतादि पुराण बनाने वाले पंडे की छाती पर खड़े होकर लड़े होंगे? और फिर उस समय पंडा जी किस पर सोया होगा? यह बात गप्पी के घर गप्पी आए बोलो गप्पीजी जब मिथ्या वादियो के घर मे दूसरे गप्पी लोग आते है फिर गप्प मारने मे क्या कमती है इस प्रकार ही है ।
अब रहा हिरण्यकश्यपु उसका लड़का जो प्रह्लाद था वह भक्त हुआ था उसका पिता पढ़ने को भेजता था तब वह अध्यापको से कहता था मेरी पट्टी मे राम राम लिख देओ जब उसके बाप ने सुना उससे कहा तू हमारे शत्रु का भजन क्यो करता है छोकड़े ने ना माना तब उसके बाप ने उसको बांध के पहाड़ से गिराया कूप मे डाला परन्तु उसको कुछ ना हुआ तब उसने एक लोहे का खम्भा आग मे तपाके उससे बोला जो तेरा इष्टदेव राम सच्चा हो तो तू इसको पकड़ने से ना जलेगा प्रह्लाद पकड़ने को चला मन मे शंका हुई कि जलने से बचूंगा वा नही? नारायण ने उस खम्भे पर चीटियो की पंक्ति चलाई प्रह्लाद को निश्चय हुआ वो झट खम्भे को जा पकड़ा खम्भा फटा उसमे से नृसिंह निकला उसके बाप को पकड़ चीरकर मार डाला और तब प्रह्लाद को चाटने लगा प्रह्लाद से कहा वर मांग उसने अपने पिता की सद्गति होनी मांगी नृरसिंह ने वर दिया तेरे इक्कीस पुरूखे सद्गति को गए
देखिए ! यह भी दूसरे गपोड़े का भाई गपौड़ा किसी भागवत बाचने व सुनने वाले को पकड़कर ऊपर पहाड़ी से गिरावे तो कोई ना बचावे किन्तु चकनाचूर होकर मर जावे प्रह्लाद को उसका पिता पढ़ने के लिए भेजता था क्या बुरा काम किया था? और वह प्रह्लाद ऐसा मुर्ख बिना विद्या अध्ययन वैरागी होना चाहता था जो जलते हुए खम्भे से कीड़ी और प्रह्लाद ना जला इस बात को जो सच्ची माने उसको भी खम्भे के साथ लगा देना चाहिए जो यह ना जले तो जानो वह भी ना जला होगा और नृसिंह भी क्यो ना जला? प्रथम तीसरे जन्म मे वैकुण्ठ मे आने का वर सनकादिक का था क्या उसको तुम्हारा नारायण भूल गया? भागवत की रीति से ब्रह्मा प्रजापति कश्यप हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु चौथी पीढ़ी मे होता है इक्कीस पीढ़ी प्रह्लाद की हुई ही नही पुनः इक्कीस पुरूखे सद्गति को गए ऐसा कहना कैसा प्रमाद है और फिर वे ही हिरण्याक्ष हिरण्यकश्यपु रावण कुम्भकरण पुनः शिशुपाल दन्तवक्त्र उत्पन्न हुए तो नृसिंह का वर कहा उड़ गया? ऐसी प्रमाद की बाते प्रमादी करते सुनते और मानते है विद्वान नही
पूतना और अक्रूरजी के विषय मे देखो
रथेन वायुवेगेन [भा○स्कं○१०|पूर्वाध३९|०]
जगाम गोकुलं प्रति [भा○स्कं○१०|३८|१]
अक्रूरजी कंस के भेजने से वायु के समान दौड़ने वाले घोड़ो के रथ मे बैठके सूर्योदय से चले और चार मील गोकुल मे सूर्यास्त समय पहुंचे सायत घोड़े भागवत बनाने वाले की परिक्रमा करते रहे होंगे? वा मार्ग भूलकर भागवत बनाने वाले के घर मे घोड़े हांकने वाले और अक्रूरजी सो गए होंगे?
पूतना का शरीर छः कोश चौड़ा और बहुत सा लम्बा लिखा है मथुरा और गोकुल के बीच मे उसको मारकर श्रीकृष्ण ने डाल दिया जो ऐसा होता तो मथुरा और गोकुल दोनो दबकर इस पुराण के लेखक का घर भी दब गया होगा
‘अजामेल’ की कथा ऊटपटांग लिखी है उसने नारद के कहने से अपने बेटे का नाम नारायण रखा था मरते समय अपने पुत्र को पुकारा बीच मे नारायण कूद पड़े क्या नारायण उसके अन्तःकरण के भाव को नही जानते थे कि वह पुत्र को पुकारता है मुझ को नही ।जो ऐसा ही नाम महात्म्य है तो आजकल भी नारायण का स्मरण करने वालो के दुख छुड़ाने को क्यो नही आता? यदि यह बात सच्ची हो तो कैदी लोग नारायण नारायण करके क्यो नही छूट जाते
ऐसे ही ज्योतिष शास्त्र से विरूद्ध सुमेरू का परिमाण लिखा है प्रियव्रत के रथ के चक्र की लीक से समुद्र हुए उनञ्चास कोटि योजन पृथ्वी है, इत्यादि मिथ्या बातो का भागवत मे कुछ पारावार नही और यह भागवत बोबदेव ने बनाया है जिसके भाई जयदेव ने गीतगोविंद बनाया है उसने देखो ये श्लोक अपने बनाए हिमाद्रि मे लिखे है कि श्रीमद्भागवत मैने बनाया है उस लेख के तीन पत्र हमारे पास थे उनमे से एक पत्र खो गया है उस पत्र मे श्लोको का जो आशय था उसे हमने नीचे लिखा है जिसको विशेष देखना हो वह हिमाद्रि ग्रंथ मे देख लेवे
हिमाद्रेः सचिवस्यार्थे सूचना क्रियतेऽधुना
स्कंधाऽध्यायकथानां च यत्प्रमाणं समासतः ॥१॥
श्रीमद्भागवतं नाम पुराणं च मयेरितम्
विदूषा बोबदेवेन श्रीकृष्णस्य यशोन्वितम् ॥२॥
इसी प्रकार के नष्ट पत्र मे श्लोक थे ।अर्थात् राजा के सचिव हिमाद्रि ने बोबदेव पण्डित से कहा कि मुझको तुम्हारे बनाए श्रीमद्भागवत के सम्पूर्ण सुनने का अवकाश नही है इसलिए तुम संक्षेप से श्लोकबध्द सूची पत्र बनाओ जिसको देखके मै श्रीमद्भागवत की कथा को संक्षेप मे जान सकु । सो नीचे लिखा हुआ सूचीपत्र उस बोबदेव ने बनाया उसमे से उस नष्ट पत्र के दश श्लोक खो गए है, ग्यारहवे श्लोक से लिखते है यह निम्नलिखित बोबदेव के बनाए श्लोक है —
बोधयन्तीति हि प्राहुः श्रीमद्भागवतं पुनः
पञ्च प्रश्नाः शौनकस्य सूतस्यात्रोत्तरं त्रिषु ॥११॥
प्रश्ननावतारयोश्चैव व्यासस्य निवृत्तिः कृतात्
नारदस्यात्र हेतुक्तिः प्रतीत्यर्थं स्वजन्म च ॥१२॥
सुप्तघ्न द्रोण्यभिभवस्तदस्त्रात्पाण्डवा वनम्
भीष्मस्य स्वपदप्राप्तिः कृष्णस्य द्वारकागमः ॥१३॥
श्रोतुः परिक्षितो जन्म धृतराष्ट्रस्य निर्गमः
कृष्णमर्त्यत्यागसूचा ततः पार्थमहापथः ॥१४॥
इत्यष्टादशभिः पादैरध्यायार्थ क्रमात् स्मृतः
स्वपरप्रतिबन्धोनं स्फीतं राज्यं जहौ नृपः ॥१५॥
इति प्रथमः स्कंधः ॥१॥
इत्यादि बारह स्कन्धो का सूचीपत्र इसी प्रकार बोबदेव पण्डित ने बनाकर हिमाद्रि सचिव को दिया

देखो! देवीभागवत मे श्री नामा एक देवी जो श्रीपुर की स्वामिनी लिखी है उसी ने सब जगत् को बनाया और ब्रह्मा विष्णु महादेव को भी उसी ने रचा है जब उस देवी की इच्छा हुई तब उसने अपना हाथ घिसा उससे हाथ मे छाला हुआ उसमे से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई उससे देवी ने कहा कि तू मुझसे विवाह कर ब्रह्मा ने कहा तू मेरी माता है मै तुझसे विवाह नही कर सकता माता को क्रोध चढ़ा उन्होंने ब्रह्मा को जलाकर भस्म कर दिया फिर हाथ घिसकर विष्णु को उत्पन्न किया और उससे भी विवाह का प्रस्ताव रखा विष्णु ने कहा माता से विवाह नही करूंगा फिर देवी ने उसे भी जलाकर भस्म कर दिया पश्चात् महादेव को पैदा किया और कहा कि तू मुझसे विवाह कर महादेव बोला तू पहले दूसरे स्त्री का रूप धारण कर दो स्त्री और उत्पन्न कर ब्रह्मा और विष्णु को जिन्दा कर
देवी ने वैसा ही किया फिर तीनो का तीनो से विवाह हुआ
वाह रे! पौराणिको माता से विवाह ना किया और बहिन से ही विवाह रचा ली क्या इसी को उचित समझना चाहिए?
पश्चात् इन्द्रादि को उत्पन्न किया ब्रह्मा विष्णु रूद्र और इन्द्र इनको पालकी के उठाने वाले कहार बनाया कोई उनसे पूछे की उस देवी का शरीर और उस श्रीपुर का बनाने वाला और देवी का पिता माता कौन थे जो कहो कि देवी अनादि है तो जो संयोगजन्य वस्तु है वो अनादि कभी नही हो सकता जो पुत्र माता से विवाह करने मे डरे जो बहन के साथ विवाह करना कहा से उचित है जैसी इस देवीभागवत मे महादेव विष्णु और ब्रह्मा जी की क्षुद्रता और देवी की बड़ाई लिखी है इसी प्रकार शिव पुराण मे देवी आदि की शुद्रता और शिव की बड़ाई लिखी है

इसी प्रकार अन्य पुराणो की लीला है
देखो! श्रीकृष्ण का इतिहास महाभारत मे अति उत्तम है उनका गुण कर्म स्वाभाव चरित्र आप्त पुरुषो के सदृश है उन्होंने कभी अधर्म का आचरण नही किया श्रीकृष्ण आठ वर्ष की आयु मे दीपांजली मुनि के आश्रम मे विद्या अध्ययन करने गए अड़तालीस वर्ष का ब्रह्मचर्य रखा पश्चात् एक मात्र रुक्मिणी जी से विवाह किया ऐसे महापुरुष को भागवत मे माखन चोर कुब्जादासी से समागम पराई स्त्रीयो से रासमंडल राधा आदि मिथ्या दोषारोपण किया गया है इन पुराणो के पढ़कर मुसलमान ईसाई नास्तिक हमारे आराध्य देव श्रीकृष्ण की निंदा करते है यदि यह भागवत पुराण ना होता तो श्रीकृष्ण सदृश महात्मा की निंदा भी ना होती

शिवपुराण मे बारह ज्योतिर्लिंग लिखे है उनकी कथा सर्वथा असंभव है नाम धरा है ज्योतिर्लिंग जिसमे प्रकाश का लेशमात्र भी नही है रात्रि मे बिना दीपक जलाए शिवलिंग भी अंधेरे मे नही दिखते ये सब पौराणिको की लीला है देखो

अमरनाथ, केदारनाथ, काशी विश्वनाथ व उज्जैन महाकाल में शिवलिंग की पूजा होती है, परन्तु शिवलिंग पूजा कोरा अन्धविश्वास व पाखंड है|

शिव पुराण की दारुवन कथा में शिवलिंग और पार्वतीभग की पूजा की उत्पत्ति- दारू नाम का एक वन था , वहां के निवासियों की स्त्रियां उस वन में लकड़ी लेने गईं , महादेव शंकर जी नंगे कामियों की भांति वहां उन स्त्रियों के पास पहुंच गये ।यह देखकर कुछ स्त्रियां व्याकुल हो अपने-अपने आश्रमों में वापिस लौट आईं , परन्तु कुछ स्त्रियां उन्हें आलिंगन करने लगीं ।उसी समय वहां ऋषि लोग आ गये , महादेव जी को नंगी स्थिति में देखकर कहने लगे कि -‘‘हे वेद मार्ग को लुप्त करने वाले तुम इस वेद विरूद्ध काम को क्यों करते हो ?‘‘यह सुन शिवजी ने कुछ न कहा ,तब ऋषियों ने उन्हें श्राप दे दिया कि – ‘‘तुम्हारा यह लिंग कटकर पृथ्वी पर गिर पड़े‘‘उनके ऐसा कहते ही शिवजी का लिंग कट कर भूमि पर गिर पड़ा और आगे खड़ा हो अग्नि के समान जलने लगा , वह पृथ्वी पर जहां कहीं भी जाता जलता ही जाता था जिसके कारण सम्पूर्ण आकाश , पाताल और स्वर्गलोक में त्राहिमाम् मच गया , यह देख ऋषियों को बहुत दुख हुआ । इस स्थिति से निपटने के लिए ऋषि लोग ब्रह्मा जी के पास गये , उन्हें नमस्ते कर सब वृतान्त कहा , तब ब्रह्मा जी ने कहा – आप लोग शिव के पास जाइये , शिवजी ने इन ऋषियों को अपनी शरण में आता हुआ देखकर बोले – हे ऋषि लोगों ! आप लोग पार्वती जी की शरण में जाइये । इस ज्योतिर्लिंग को पार्वती के सिवाय अन्य कोई धारण नहीं कर सकता । यह सुनकर ऋषियों ने पार्वती की आराधना कर उन्हें प्रसन्न किया , तब पार्वती ने उन ऋषियों की आराधना से प्रसन्न होकर उस ज्योतिर्लिंग को अपनी योनि में धारण किया । तभी से ज्योतिर्लिंग पूजा तीनों लोकों में प्रसिद्ध हुई तथा उसी समय से शिवलिंग व पार्वतीभग की प्रतिमा या मूर्ति का प्रचलन इस संसार में पूजा के रूप में प्रचलित हुआ – ठाकुर प्रेस शिव पुराण चतुर्थ कोटि रूद्र संहिता अध्याय 12 पृष्ठ 511 से 513

प्रश्न जब वेद पढ़ने का सामर्थ्य नही रहा तब स्मृति जब स्मृति पढ़ने की बुध्दि नही रही तब शास्त्र जब शास्त्रो के पढ़ने का सामर्थ्य ना रहा तब पुराण बनाए केवल स्त्री शुद्रो के लिए क्योंकि इनको वेद पढ़ने सुनने का अधिकार नही ।
उत्तर यह बात मिथ्या है क्योंकि सामर्थ्य पढ़ने पढ़ाने ही से होता है और वेद पढ़ने सुनने का अधिकार सबको है देखो गार्गी मैत्रेयी आदि स्त्रीया और छान्दोग्य [प्रपाठक ४|खं○२|प्रवाक २] मे जानश्रुति शुद्र ने भी वेद रैक्यमुनि के पास पढ़ा था और यजुर्वेद के २६वे अध्याय के दूसरे मंत्र मे स्पष्ट लिखा है कि वेदो के पढ़ने सुनने का अधिकार समस्त मनुष्यो को है पुनः जो ऐसे ऐसे मिथ्या ग्रंथ पुराण आदि बना लोगो को सत्य ग्रंथो से विमुख रख जाल मे फंसा अपने प्रयोजन साधते है वे महापापी है ।

पुराणोसेनातातोड़ो #वेदोकीतरफलौटो

वेदोकीओर_लौटो #सत्यार्थप्रकाश

अवतारवाद समीक्षा


अवतारवाद भाग १

ईश्वर इस संसार के स्थान विशेष व काल विशेष मे नही रहता बल्कि वह तो संसार के प्रत्येक स्थान मे विद्यमान है उसने तो कोई कोना रिक्त स्थान खाली छोड़ ही नही रखा वह हर जगह पूर्ण हो रहा है जहा कुछ नही है वहा भी ईश्वर है ।

हम इस बात को बलपूर्वक कह सकते है कि वेदो मे एक मंत्र भी इस प्रकार का नही है जो ईश्वर के अवतार अथवा साकार होने का वर्णन करता हो, अपितु इस प्रकार के सैकड़ो मंत्र वेदो मे मौजूद है जो ईश्वर को निराकार, अजन्मा, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, तथा शरीररहित बताते है रहा आपका यह हेतु की भक्तो की रक्षा करने के लिए ईश्वर अवतार धारण करता है यह भी सत्य नही है क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञा अनुसार चलते है उनके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर मे है क्या ईश्वर के पृथ्वी सूर्य चंद्रादि जगत् को बनाने धारण और प्रलय करने रूप कर्मो से कंस रावणादि का वध बड़े कर्म है?

यह अवतारवाद का सिध्दांत संसार मे पुरूषार्थ का नाश करके आलस्य प्रमाद का फैलानेवाला है क्योंकि अवतारवादी लोग इस आशा मे कि हमारे कष्ट को दूर करने के लिए भगवान स्वंय अवतार लेकर आएंगे स्वंय कोई पुरूषार्थ ना करके हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते है

शिव पुराण मे लिखा है कि वन्दा के शाॅप से श्री राम का जन्म हुआ वह कथा इस प्रकार है विष्णु ने माया से दो बंदरो कि सहायता से वन्दा के साथ छलपूर्वक मैथुन करके उसका पतिव्रत धर्म भंग कर दिया मैथुन के अंत मे वन्दा को पता चला कि यह तो विष्णु है वन्दा ने क्रोध मे आकर विष्णु को श्राप दिया ।

शिव○ रूद्र○ २, युध्दखंड ५, अध्याय २३

रे महाधम दैत्यारे परधर्मविदूषक ।
गृह्मीष्व शठ मद्दतं शापं सर्वविषोल्बणम ॥४३॥
यौ त्वा मायया ख्यातौ स्वकोयौ दर्शितो मम ।
तावेब राक्षसौ भूत्वा भार्या तव हरिष्यतः ॥४४॥
त्वं चापि भार्यादुःखात्तो बने कपिसहायवान् ।
भ्रम सर्पेश्वरणायं यस्ते शिष्यत्व मागतः ॥४५॥

भावार्थ :- रे महापापी राक्षसो के शत्रु दूसरो के धर्म का नाश करनेवाले मेरे दिए हुए तीक्ष्ण विष के समान शाॅप को ग्रहण कर ॥४३॥
जो तूने अपनी माया से प्रकट किए अपने दो साथी मुझे दिखाए वही दोनो राक्षस बनकर तेरी पत्नी को हरेंगे॥४४॥
और तू भी पत्नी के दुःख मे व्याकुल हुआ जंगल मे बंदरो कि सहायता लेकर अपने इस शिष्य शेषनाग के साथ भ्रमण करेगा ॥४५॥

पुराण के इस लेख से स्पष्ट है कि राम का जन्म भक्तो की रक्षा के लिए नही हुआ अपितु वन्दा के शाॅप के कारण हुआ ।
इसी प्रकार से कृष्ण के विषय मे ब्रह्मवैवर्त्त पुराण मे लिखा है कि गोलोक मे कृष्ण को राधा ने क्रोध मे आकर शाॅप दिया —

ब्रह्मवैवर्त्त○ कृष्णजन्म खण्ड ४ पूर्वार्ध अध्याय ३

हे कृष्ण वृजाकान्त गच्छ मृत्युरतो हरे ।
कथं दुनोषि मां लोल रतिचौरातिलम्टा ॥५९॥
शीघ्र पद्मांवती गच्छ रलमालां मनोरमाम् ।
अथवा बनमालां का रूपेणाप्रतिमां व्रज ॥६०॥
हे नदीकान्त देवेश देवानां च गुरोगुरों।
मया ज्ञातोउसि भद्रं ते गच्छगच्छ ममाश्रमात् ॥६१॥
शश्वत्ते मानुषाणां च व्यवहारस्य लम्पटा ।
मानुषीं योनिं गोलोकाद् ब्रज भारतम् ॥६२॥
हे सुशीले शशिकले हे पद्मांवती माधवि ।
निवार्चतां च द्यूत्तोउयं किम स्यात्र प्रयोजनम् ॥६३॥

अर्थ :- हे कृष्ण हे हरे हे वृजा के प्यारे मेरे सामने से चला जा हे चंचल मुझे क्यो दुख देता है हे अति लम्पट और कामचोर मुझे क्यो कष्ट देता है ॥५९॥
शीघ्रता से पद्मांवती के पास जा अथवा सुन्दरी रत्नमाला के पास जा अथवा अनुपम रूपवाली वनमाला के पास जा ॥६०॥
हे वृजा के प्यारे हे देवेश हे देवो के गुरू के गुरू मैने आपको जान लिया है तेरा कल्याण हो जा जा मेरे आश्रम से चला जा ॥६१॥
हे चूंकि आप मनुष्यो की भांति मैथुन करने मे लम्पट है अतः आपको मनुष्य योनि मिले आप गोलोक से भारतलोक मे चले जावें ॥६२॥
हे सुशीले हे शक्तिकले हे पद्मांवती हे माधवि यह धूर्त है इसको यहा से दूर करो इसका यहा क्या प्रयोजन है ॥६३॥

इससे सिध्द है कि कृष्ण का जन्म भक्तो की रक्षा के लिए नही अपितु राधा के शाॅप के कारण हुआ था ।
दूसरे स्थान पर इस प्रकार से वर्णन मौजूद है कि गोलोक मे एक बार राधा की श्रीदामा से लड़ाई हो गई तब श्रीदामा ने राधा को श्राप दिया कि तू पृथ्वी पर मनुष्य योनि को प्राप्त हो राधा ने कृष्ण के पास जाकर पूरी घटना बताई तब कृष्ण ने उत्तर दिया तू चिंता मत कर मै भी भूतल पर जाकर तुम्हारे पास आउंगा देखिए—

ब्रह्मवैवर्त्त कृष्णजन्म ४ पूर्वा○अ○ २

अतो हेतोर्जगन्नाथो जगाम नन्दगोकुलम् ॥१६॥
कि वा तस्य भयं कंसाध्दयान्तकारकस्य च ।
मयाभयाच्छलेनैव जगाम राधिकान्तिकम् ॥१७॥

अर्थ :- इस कारण से जगत के नाथ कृष्ण नन्द के गोकुल मे गए ॥१६॥
उनको कंस से क्या भय हो सकता था क्योंकि वह तो भय का स्वंय अंत करनेवाले है वह तो माया और भय का छल करके वास्तव मे राधा के पास ही गए थे ।

कहिए महाराज अब तो स्पष्ट हो गया राम तथा कृष्ण का जन्म भक्तो की रक्षार्थ नही अपितु शाॅप के कारण हुआ था अतः पुराणो के लेखानुसार भी भक्तो की रक्षार्थ ईश्वर का अवतार होना मिथ्या ही है–
आज सूर्योदय से पहले ही हजारो गायो बकड़ीयो की गर्दन पर छुड़ा चल जाता है कोई अवतार इनकी रक्षा के लिए क्यो नही आता? तो इससे यह सिध्द हुआ की यह अवतारवाद ढ़कोसला ही है कि परमात्मा अपने भक्तो की रक्षा के लिए जन्म धारण करता है अथवा अवतार लेता है ईश्वर न्यायकारी है पर वो अवतार लेकर या शरीर धारण कर एकदेशी अल्पज्ञ अल्पसामर्थवान और साकार नही बनता यदि किसी दुष्ट को मारना हो तो ईश्वर को अवतार लेने की क्या आवश्यकता वह तो सर्वशक्तिमान है ।


अवतारवाद भाग २

वेद ने परमेश्वर को सर्वव्यापक कहा है वेदानुकूल सभी शास्त्रो मे परमात्मा को सर्वव्यापक कहा है एक स्थान विशेष पर परमेश्वर को कोई सिध्द नही कर सकता ना ही शद प्रमाण और ना ही युक्ति तर्क से हाॅ ईश्वर शद प्रमाण और युक्ति तर्क से विभु=सर्वत्र व्यापक तो सिध्द हो रहा है हो सकता है ।वेद मे कहा है

एतावानस्य महिमातो ज्या याॅश्च पुरूषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्या मृतं दिवि ॥
पु○ ३१.३
भावार्थ :- इस पुरूष की इतनी महिमा है कि यह सारा ब्राह्मंड परमेश्वर के एक अंश मे है । अर्थात् वह ईश्वर इस समस्त ब्रह्माण्ड मे समाया हुआ अनन्त है एक समस्त जगत परमात्मा के एक भाग मे है अन्य तीन भाग तो परमात्मा के अपने स्वरूप मे प्रकाशित है । अर्थात् परमात्मा अनंत है । अर्थात् सर्वत्र विद्यमान है उसको किसी एक स्थान पर नही कह सकते ।

नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः ।
जेषः स्वर्वतीरपः सं गा अस्मयं धूनुहि॥
ऋ○१.१०.८
भावार्थ :- इस मंत्र के भावार्थ मे महर्षि दयानंद लिखते है -“जब कोई पूछे कि ईश्वर कितना बड़ा है तो उसको यही उत्तर देना कि जिसको सब आकाश तथा बड़े बड़े पदार्थ भी घेरे मे नही ला सकते है क्योंकि वह अनंत है इससे सब मनुष्यो को उचित है की उसी परमात्मा को सेवन उत्तम उत्तम कर्म करने और श्रेष्ठ पदार्थो की प्राप्ति के लिए उसी से प्रार्थना करते रहे जब जिसके गुण और कर्मो की गणना कोई नही कर सकता तो अंत पाने का सामर्थ्य भला कैसे हो सकता है ।

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं
शुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्
व्यदधाच्छाश्वतीश्यः समायः ॥
–य○४०.८
भावार्थ :- इस मंत्र मे परमेश्वर को सब मे व्याप्त कहा है इस व्याप्ति से ज्ञात हो रहा है कि परमात्मा किसी एक स्थान विशेष पर नही अपितु सर्वत्र है इस प्रकार परमेश्वर के सर्वत्र व्यापक स्वरूप को सिद्ध करने के लिए शास्त्रोक्त अनेक प्रमाण दिए जा सकते है किंतु कोई प्रमाण ऐसा उपलब्ध नही होता जो परमात्मा को एकदेशीय सिध्द करता हो

पौराणिको द्वारा ईश्वर के अवतार को मानने के मुल आधार यें दो श्लोक है

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजायहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दृष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥
भावार्थ :- जब जब धर्म की हानि होगी तब तब धर्म के उत्थान और अधर्म के नाश के लिए तथा श्रेष्ठो के परित्राण/रक्षा और दुष्टो के नाश के लिए मै अवतार/शरीर धारण लेता हु ।
समीक्षा :- यदि इस श्लोक का ऐसा अर्थ करोगे तो यह वेद विरूद्ध होने के कारण प्रमाण नही रह जाएगा अब यहा विचारणीय है कि जिस परमात्मा ने बिना शरीर के सब ब्रम्हांडो को रच डाला हम सब प्राणियो के शरीर की रचना की उस परमात्मा को कुछ दुष्ट राक्षसो को मारने के लिए शरीर धारण करना पड़े यह बात बुध्दिमानी की नही है इससे तो ईश्वर का ईश्वरत्व ना रहकर लघुत्व सिध्द हो रहा है यदि परमात्मा को यही करना है तो वह इस प्रकार के कार्य बिना शरीर के भी कर सकता है क्योंकि वह पूर्ण समर्थ है —-हाॅ इस श्लोक मे शायद श्रीकृष्ण ये कहना चाहते हो कि युगो युगो तक धर्म की हानि होने पर भारत मे ही जन्म लेकर मै दुष्टो का नाश और श्रेष्ठो की रक्षा करू तब कोई दोष नही क्योकि परोपकाराय संता विभूतयः परोपकार के लिए सतपुरूषो का तन,मन,धन होता है तथापि इसमे श्रीकृष्ण ईश्वर नही हो सकते ।

यथार्थ मे तो ईश्वर के किसी भी रूप मे जन्म धारण करने की कल्पना ही युक्ति व शास्त्र विरुद्ध है क्योंकि ईश्वर को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नही चाहे वह सहारा किसी शरीर का हो अथवा किसी अन्य प्राणी का परमेश्वर अपने सब काम करने मे समर्थ है उसको कोई अवतार लेने की आवश्यकता नही वेदो मे ईश्वर को “अकायमव्रणमस्नाविरम्” कहा है वह परमात्मा अकायम सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बंधन से रहित नित्य, शुध्द, बुध्द, और मुक्त है अर्थात् वह इन सांसारिक बंधनो मे नही पड़ता ।

श्वेताश्वतरोपनिषद् मे ऋषि ने कहा है —

वेदाहमेत मजरं पुराणं सर्वात्मानं सर्वगतं विभुत्वात् ।
जन्म निरोधं प्रवदन्ति यस्य ब्रह्मवादिनो हिप्रवदन्ति नित्यम् ॥४.२१॥
अर्थात् वह परमात्मा अजर है, पुरातन सनातन है सर्वन्तर्यामी है, विभु और नित्य है, ब्रह्मवादी सदा उसका बखान करते है वह कभी जन्म नही लेता

उपरोक्त सभी प्रमाणो से सिद्ध हो रहा है कि परमात्मा जीव के कर्मानुसार उसके भोग के लिए शरीर स्थान समुदाय आदि देता है ना कि अपनी इच्छा से किसी का नाश व रक्षा के लिए उसको भेजता है और इसी प्रकार स्वंय भी अवतार लेकर कुछ नही करता अर्थात् स्वंय शरीर धारण करके किसी की रक्षा व नाश नही करता ।

अंधविश्वास की कथा

एक विधवा बहू ने अपनी सास को बताया कि वह तीन माह के गर्भ से है. परिवार में हंगामा मच गया, समाज में भूचाल आ गया, लोगों ने पंचायत जुटाई और उस बहू से बच्चे के बाप का नाम जानना चाहा, भरी पंचायत में बहु ने बताया कि तीन माह पूर्व मैं प्रयाग राज त्रिवेणी संगम स्नान करने गई थी, स्नान के समय मैंने गंगा का आहवान करते हुए तीन बार गंगा जल पिया था, हो सकता है उसी समय किसी ऋषि महात्मा,महापुरुष का गंगा में धातु स्खलन हो गया और वो आहवान के साथ मैं पी गयी, उसी से मैं गर्भवती हो गई| सरपंच जी ने कहा- ” यह असंभव है, ऐसा कभी हो नहीं सकता कि धातु किसी के मुंह से पी लेने से कोई गर्भवती हो जाय|”

उस महिला ने सरपंच को जवाब दिया और कहा- “हमारे धर्म ग्रंथों में यही बात तो दिखाई गई है कि विभँडक ऋषि के वीर्य स्खलन हो जाने से श्रृंगी ऋषि पैदा हुए, हनुमान जी का पसीना मछली ने पी लिया तो वह गर्भवती हुई और मकरध्वज पैदा हुए,सूर्य के आशीर्वाद से कुंती गर्भवती हो गई और कर्ण पैदा हुए,मछली के पेट से सत्यवती पैदा हुई, खीर खाने से राजा दशरथ के तीनों रानियां गर्भवती हई और चार पुत्र पैदा हो गये,जमीन के अंदर गड़े हुए घडे से सीता पैदा हुई, ये सारी बातें संभव है, किऩ्तु मेरी बात असंभव है? वैसे मैं बताना चाहती हूं कि मैं गर्भवती नहीं हूं,मैंने यह नाटक इसलिए किया था कि इस पाखंडी समाज कीऑख खुल जाय,आप लोग ऐसे पुराणो की कथाओ को आग लगा दीजिये|”

अंधविश्वास #पाखंड_खण्डन

भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व अध्याय १८ – क्यां ब्रह्माने अपनी पुत्री, विष्णुने अपनी माता, शिवने अपनी भगीनी तथा सूर्यने अपनी भतीजी से विवाह किया था?

आर्यसमाज द्वारा पुराणो की अश्लीलता पर प्रकाश डालने का फायदा यह हुवा की आज पौराणिक भी वहा छीपी नग्न अश्लीलता से शरमा कर उसे अच्छे शब्दो के आवरणमें ढांक देना शुरु कर दिया। ऐसा ही कुछ हाल भविष्यपुराण प्रतिसर्गपर्व ४ अध्याय १८ का है। 

अध्याय का मूल विषय

यह अध्यायमें विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के स्वयंवर का वर्णन है। जहां उसका अपहरण हो जाता है। विवस्वान् सूर्य उसकी रक्षा कर के उसके पिता विश्वकर्मा को सोंपते है। संज्ञा जो सूर्य की भतीजी है। सूर्यने एक पति की तरह संज्ञा की रक्षा करी थी इसीलिये संज्ञाने उनसे विवाह करने का कहाँ। भतीजी के साथ विवाह कैसे किया जाय उसका समाधान देते हुवे यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और शिवका उदाहरण दिया है जिन्होने क्रमशः अपनी पत्नी, माता और भगीनी का वरण किया था। यह सुनकर विवस्वान् संज्ञा से विवाह कर लेते है तथा सन्तान उतपन्न करते है।

अध्याय का मूल विषय अपनी भतीजी के साथ विवाह करने का है जीस पर पौराणिक मौन साध लेते है।

यह लेखमें शब्दो का मायाजाल रचकर यह कुकर्म पर परदां डालने की कोशिश करी है। आइये यह पाखण्ड का खण्डन करते है।

पौराणिक – आर्यसमाजीयोने २६वा श्लोक बदल दिया है। उसके स्थान पर २८वां श्लोक २६वा श्लोक कहकर प्रस्तुत किया है। 

वैदिकधर्मी (हमारा उत्तर) – हमने यह पाठ भविष्यपुराण – अनुवादक पण्डित बाबुराम उपाध्याय की पुस्तक से लिया है, जीसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा २०१२में प्रकाशीत किया था। क्यां यह आर्यसमाजी संस्था है? आप स्वयं पाठ देख लिजीये। हमने अपने ट्वीटर पर यही पाठ दिया था। कृपया दूसरो का लेख कोपी करने से पहले देख तो लिजीये की हम जीस पुस्तक का संदर्भ दे रहे है वह आर्यसमाज द्वारा प्रकाशीत है की नहीं।

तमोभूता च सा कन्या तस्यै देव्यै नमो नम। यह पद २४वे श्लोक के उत्तरार्धमें है तथा बहवः पुरुषा ये वै निर्गुणाश्चैकरूपिणः। यह पद २५ वे श्लोक के पूर्वाध में है।  पौराणिक इसे २६ वा श्लोक दिखा रहे है। अगर आप को पाठ से आपत्ति है तो आप पण्डित बाबुराम उपाध्याय अथवा हिन्दी साहित्य सम्मेलन को लिखे। बिना कारण आर्यसमाज को क्युं बीच में ला रहे है?

पौराणिक – शास्त्रका अर्थ निर्णय करने की एक शास्त्रीय पद्धति होती है। जीस को यह पद्धति का ज्ञान नहीं होता वह ऐसा ही अशुद्ध अर्थ करते है जैसा आर्यसमाज ने किया।

वैदिकधर्मी – चलो अच्छा है की पौराणिकोने शास्त्रका अर्थ करने की पद्धति का स्वीकार तो किया। अन्यथा पौराणिक समाज वेदोमें प्रतिमा शब्द देखकर ठूमके लगाने लगता था। फिर चाहे वह प्रतिमा शब्द का कोइ और अर्थ क्यों ना हो। वानर अर्थात् वनवासी का अर्थ बन्दर करने वाला पौराणिक समाज आज अशुद्ध अर्थ का दोष आर्यसमाज पर देना चाहता है वह ॑उलटा चौर कोटवाल को दण्ड दे॑ ऐसी बात है।

पौराणिक – पौराणिक मुनियोने स्त्रीयों को रत्न समजा है तथा ऐसी स्त्री का कोइ बलात्कार भी कर दे तो उसका मूल्य समाप्त नहीं होता। नारी के पति ऐसा सन्मान देनेवाला भविष्यपुराण पर ऐसा आक्षेप करनेवाले भविष्यपुराण पर ऐसे आक्षेप लगाने वाले लोग किस स्तर के है हमे कहने की आवश्यकता नहीं।

वैधिकधर्मी – आज तो कौंआ भी कोयल की तरह मधूर बोलने का प्रयत्न कर रहा है ना। पौराणिक समाजने नारी को रत्न नहीं वस्तु समजा है। जरा बतायीये? सतीप्रथा का समर्थन कौन कर रहा है? आठवर्ष की कन्या का विवाह करने का आदेश कौन दे रहा है? विधवाविवाह का विरोध किसने किया? स्त्रीओ को वेदकी पढाई करने का निषेध कौन कर रहा है? स्त्रीयों को केवल दासी मान के उसका शोषण करनेवाला पौराणिक समाज आज उसका हितेषी बनने का दावा करे ये तो हँसने की बात है। आर्यसमाजने हम्मेशा स्त्रीयो के हीत की बात की। उनहे जनेऊं तथा वेदाध्यन कराया। विवधाविवाह अथवा नियोग की बात की। बालविवाह का विरोध किया। जब आर्यसमाज यह सब कर रहा था तब पौराणिक उसका विरोध करते थे। आज खुद सारा श्रेय लेना चाहते है?

पौराणिक – यह श्लोक का सही अर्थ है ‘पूर्वश्लोक में सुता, माता व भगीनीरूपेण अभिहित कार्यात्मक सत्वगुण, रजोगुण व तमोगुण को ग्रहण करके ही ब्रह्मा, विष्णु और शम्भु श्रेष्ठता को प्राप्त हुवे।

वैदिकधर्मी – आप का अर्थ गलत है। उसके अनेक कारण है।

१. हम पहले ही बता चूके की हमने जो पाठ दिया था उस पाठमें आप जीसे २६वा श्लोक बता रहे है वह श्लोक २४वे तथा २५वे श्लोक का भाग है। इस लिये उसे २वे श्लोक का पूर्वश्लोक मानना स्वयं पौराणिक समाज ही नहीं स्वीकार रहा।

२. हम मूल संस्कृत श्लोक उद्बोधित कर उसकी व्याख्या करते है।

आलोके पापजास्तर्वे देवब्रह्मसमुद्भवाः।

या तु ज्ञानमयी नारी वृणेद्यं पुरुषं शुभम्।।

कोऽपि पुत्रः पिता भ्राता स च तस्याः इतिर्भवेत्।। २६॥

स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विष्णुदेवः स्वमातरम्।

भगीनीं भगवाञ्छम्भ्उर्गृहीत्वा श्रेष्ठतामगात्॥

पदविन्यास –  या तु ज्ञानमयी नारी अद्य शुभं पुरषं वृणे। स तस्याः पुत्रः पिता भ्राता च कोऽपि इति भवेत्। 

ध्यान देने की बात यह है कि वृणे शब्द का प्रयोग हुवा है जीसका अर्थ है पसन्द करना। क्यां स्त्री पिता, भ्राता या पुत्र का चयन करती है? नहीं। चयन सिर्फ पति का किया जाता है। 

तथा यह अध्यायमें यह श्लोक किस परिपेक्षमें प्रयोग हुवा उसे भी ध्यान देना जरुरी है। प्रश्न यह था की सूर्य को अपनी भतीजी से विवाह करना चाहीये की नहीं चाहीये। उसके उत्तरमें लिखा गया है की ब्रह्मा स्वकीयां सुतां, विष्णुदेवः स्वमातरं, भगवान् शम्भु भगीनीं गृहित्वा श्रेष्ठम् गात्। 

अगर प्रश्न भतीजी को पत्नी बना सकते है या नहीं उसका उत्तर यह कैसे हो सकता है की ब्रह्माने पुत्री से सत्वगुण, विष्णुने माता से रजोगुण तथा शिवने भगीनी से तमोगुण ग्रहण किया। यह तो पसंग के विरुद्ध होता। लेकिन पुराणकारने यहाँ वह आचरण का भतीजी को पत्नी स्वीकारने के विषयमें सन्दर्भ दिया उसका यही तात्पर्य है की जैसे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवने अपनी पुत्री, माता और बहन (यानी नीकट सम्बन्धी) को पत्नी बनाया वैसा ही तुम करो(तथा अन्य नीकट सम्बन्धी भतीजी को पत्नी बनावो)। तथा यह सुन के सूर्यने संज्ञा को अपनी पत्नी बना लिया। यानी त्रिदेव के अनुसार उसने भी नीकट सम्बन्धी से विवाह करने का आचरण किया।

यहां श्लोकमें सत्व, रजो तथा तमोगुण की चर्चा ही नहीं है। लेकिन पौराणिकने लोगो को गुमराह करने के लिये तथा नीकट सम्बन्धी से विवाह देने वाले यह श्लोक से शरमाते हुवे उसका अर्थ ही बदल देने का प्रयास किया। इस से यह भी सिद्ध होता है कि पुराणोमें दिये गये वर्णनो से पौराणिक समाज भी लज्जित होता है। लेकिन अपने स्वार्थवश उसे त्यागना नहीं चाहता।

तथा यहां पौराणिकने प्रयत्नपूर्वक अपने अर्थमें सत्वगुण पुत्री से, रजोगुण माता से तथा तमोगुण भगीने के साथ जोडा है। हम इसी अध्याय का २३वा और २४वा श्लोक उद्बोधित करते है।

ध्यान से पढे। मूल संस्कृत श्लोकमें सत्वगुण भगीनी के साथ, रजोगुण गृहिणी के साथ तथा तमोगुण कन्या के साथ जोडा है। माता को नित्य सनातन प्रकृति कहा गया है। तो लेखक ने किस आधार पर अपने अर्थमें सत्वगुण पुत्री से, रजोगुण माता से तथा तमोगुण बहन के साथ जोडा?
यह सब छल तब चल जाता था जब लोग शास्त्र नहीं पढते थे तथा संस्कृत का ज्ञान सामान्य नहीं था। आर्यसमाज के प्रयत्नो से शास्त्र सब पढ रहे है तथा संस्कृत का भी प्रसार हो रहा है। इस लिये अर्थ को बदलने वाला छल अब ज्यादा नहीं चल सकता।
भतीजी के साथ विवाह करने के विषय पर मौनपौराणिक समाजने माता, पुत्री तथा बहन आदि से विवाह करने कि बात तो अर्थ को तोडमरोड के बचा ली। लेकिन यह जो मूल प्रश्न था जहाँ से यह चर्चा शुरु हुइ उसपे तो अभी तक मौन ही है। वह है सूर्य का अपनी भतीजी के साथ विवाह। 
क्यां पौराणिक समाज भतीजी के साथ विवाह को मान्यता देता है? हमने तो अभीतक मुस्लिम समाज में चाचाभतीजी के बीचमें विवाह का सूना था। लेकिन यहां तो आप का पुराण उसकी मान्यता दे रहा है तथा प्रमाणमें त्रिदेव का आचरण उद्बोधीत कर रहा है।
अब इस के उत्तरमें यह तर्क ना लाना की सूर्य और विश्वकर्मा के बीच खुन का रिश्ता नहीं था इस लिये वह सगे चाचाभतीजी नहीं थे आदि। अगर ऐसा होता तो सूर्य को यह सन्देह क्युं उतपन्न होता की भतीजी के साथ विवाह करे या न करे। तथा पुराणकार भी उत्तरमें यह रक्तसम्बन्ध का ही तर्क देते। लेकिन यह तर्क न दे कर उन्होने अन्य नीकट सम्बधी से विवाह करनेवाले लोगो का आचरण प्रमाण के रूपमें दिया यही बात सिद्ध करता है की संज्ञा और सूर्य नीकट सम्बन्धी थे।
उपसंहार
आर्यसमाज ब्रह्मा, विष्णु और शिव को महान् मानता है तथा वह ऐसा घृणित आचरण नहीं कर सकते यह भी मानता है। लेकिन उनके चरित्र पे डाघ हमारे पुराणोने लगाया है। हमारे पुराणोमें वर्णित ऐसी घृणित तथा अश्लील बातो का आर्यसमाजने हम्मेशा विरोध किया है। इसी लिये आर्यसमाज पुराण को प्रमाण नहीं मानते। अब पौराणिक समाज भी इसमें वर्णवीत अश्लीलता से शरमा रहा है तथा शब्दो का जाल रचकर उसे छीपाने का प्रयत्न कर रहा है। लेकिन जब आकाश फटा हो तब एकाद जोड करने से क्यां फायदा? एक अश्लीलता को छूपावोगे हजारो अन्य बहार आयेगी।
इस लिये उपर्युक्त यही होगा की माता, पुत्री, बहन, भतीजी से विवाह करने की बात करनेवाले पुस्तको को मानना बन्ध कर परमात्मा की दिव्यवाणी वेद का पठन करे।
॥ओ३म॥
ता.क.
पौराणिक का हाल छछुन्दर निगल गये साँप जैसा हो गया है। वह यह श्लोक को स्वीकार नहीं सकते ना ही नकार सकते। यह श्लोक का अर्थ बदलने के लिये कुछ नयां तर्क लेके आये है। उसका भी खण्डन कर देते है।
पौराणिक –  यह सब बात मनुष्यों की नहीं रही है। यह बात देवो की हो रही है। इस लिये हमे यह सब विषय पर आपत्ति नहीं उठानी चाहिये।
वैदिकधर्मी –  देव शब्द का अर्थ पहले ठीक से पढ लेते। लेकिन अभी बह चर्चा का विषय नहीं है। अगर एक क्षण के लिये मान भी ले की देवयोनी मनुष्ययोनी से अलग है तो आप क्यां यह कहना चाहते हो कि देवता अपनी माता, पुत्री, बहन और भतीजी आदिसे विवाह कर सकते है? क्यां ऐसा आचरण करनेवाले को देव मानना योग्य रहेगा? अगर देव ही ऐसा अधर्म आचरण करे तो मनुष्य से क्यां अपेक्षा रखनी चाहीये।
पौराणिक – सूर्यने संज्ञा को ग्रहण किया लेकिन मैथुन नहीं किया। यम और यमी अमैथुनी है।
वैदिकधर्मी – अगर मैथुन न करे तो यानी भतीजी से शादि करना आप को स्वीकार्य है? हमने तो दोनो के बिच मैथुन की बात ही नहीं करी। हमने तो केवल उन के विवाह का उल्लेख किया था। आप यह प्रतिज्ञा लिख दो की ॑पौराणिकधर्म के अनुसार भतीजी से विवाह कर सकते है लेकिन मैथुन नहीं करते तो कोइ दोष नहीं लगता॑। यह व्यवस्था देने को तैयार हो?
और रहा सवाल दोनो के बिच मैथुन होता था या नहीं। तो पौराणिक अपने पुराण तो ठीक से पढे। अब तो परिस्थ्तिति यह हो गई है कि हमे बताना पड रहा है की आप के पुराणमें क्यां लिखा है क्युं की आप पुराण का भी स्वाध्याय नहीं करते।

यह श्लोक ३८ से ३९ पढो। यहां स्वयं लिखा है कि संज्ञा को देखकर सूर्य कामातुर हुवा तथा दोनो एक साथ रमण करने लगे। तत्पश्चात् संज्ञाने गर्भधारण किया। अगर वह सूर्य और संज्ञा मैथुन करे बिना पुत्र उत्पन्न कर लेते थे तो कामातुर होने की जरूरत क्यां थी? या फिर पौराणिक का तर्क है कि रमण यानी मौजमजा करने के लिये मैथुन करते थे लेकिन जब सन्तान उत्पन्न करथी होती थी तब अमैथुनी उत्पन्न कर देते थे। धन्य हो!
पौराणिक – ब्रह्मा, विष्णु और शिव रजवीर्य से उत्पन्न नहीं हुवे। वह दिव्यगुणी थी। इस लिये सत्व, तमो और रजस् गुण की बात की।
वैदिकधर्मी – गुण की बात करने से पहले यह तो उत्तर दे दो की आपने अपनी व्याख्यामें पुत्री को सत्यगुणी, माता को रजोगुणी और भगीनी को तमोगुणी किस आधार पे बोला। क्युं की पुराणमें तो अन्य व्याख्या दि गइ है।
रही बात रजवीर्य से उत्पन्न नहीं होने की। वैसे भी पौराणिक कहाँ प्राकृतिक तरीके से सन्तान पैदा करते है। वे तो घडे से, चरु से, लोटे से, दृष्टि से, खीर से सन्तान पेदा करते थे। एक क्षण के लिये मान भी ले की ब्रह्मा, विष्णु और शिव अमैथुनी सृष्टि के थे तो फिर उनकी माता और बहन कहां से आ गई? क्युं की अमैथुनी सृष्टिमें तो कोइ रजवीर्य से पैदा नहीं होता। माता और बहन होना तभी सम्भव है जब आप में रजवीर्य का सम्बन्ध हो। तो क्यां यह पुराणमें ब्रह्मा की पुत्री, विष्णु की माता और शिव की भगीनी आदिका जो उल्लेख है वह पुराणकारने गलती से किया है? यहाँ स्वमाता, स्वकीयां सुतां आदि पद का प्रयोग हुवा है जो यह स्पष्ट करता है की यहाँ खुद की माता और पुत्री की बात हो रही है, कोई रजोतमो आदि गुणोयुक्त माता, पुत्री, बहन आदि के सम्बन्ध की नहीं। क्युं कि यहां माता और पुत्री शब्द से सामान्य अर्थमें माता और पुत्री का अर्थ करना होता तो उसके आगे ॑स्व॑ शब्द नहीं लगाते।
उपसंहार
हमे भी पता है की आप यह अश्लीलता से लज्जीत है। तो उसे नकारने का साहस रखे। जो गलत है वह गलत है। उसे शब्दो का मायाजाल पहना के सही साबित करने का प्रयत्न न करे।