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भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व अध्याय १८ – क्यां ब्रह्माने अपनी पुत्री, विष्णुने अपनी माता, शिवने अपनी भगीनी तथा सूर्यने अपनी भतीजी से विवाह किया था?

आर्यसमाज द्वारा पुराणो की अश्लीलता पर प्रकाश डालने का फायदा यह हुवा की आज पौराणिक भी वहा छीपी नग्न अश्लीलता से शरमा कर उसे अच्छे शब्दो के आवरणमें ढांक देना शुरु कर दिया। ऐसा ही कुछ हाल भविष्यपुराण प्रतिसर्गपर्व ४ अध्याय १८ का है। 

अध्याय का मूल विषय

यह अध्यायमें विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा के स्वयंवर का वर्णन है। जहां उसका अपहरण हो जाता है। विवस्वान् सूर्य उसकी रक्षा कर के उसके पिता विश्वकर्मा को सोंपते है। संज्ञा जो सूर्य की भतीजी है। सूर्यने एक पति की तरह संज्ञा की रक्षा करी थी इसीलिये संज्ञाने उनसे विवाह करने का कहाँ। भतीजी के साथ विवाह कैसे किया जाय उसका समाधान देते हुवे यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और शिवका उदाहरण दिया है जिन्होने क्रमशः अपनी पत्नी, माता और भगीनी का वरण किया था। यह सुनकर विवस्वान् संज्ञा से विवाह कर लेते है तथा सन्तान उतपन्न करते है।

अध्याय का मूल विषय अपनी भतीजी के साथ विवाह करने का है जीस पर पौराणिक मौन साध लेते है।

यह लेखमें शब्दो का मायाजाल रचकर यह कुकर्म पर परदां डालने की कोशिश करी है। आइये यह पाखण्ड का खण्डन करते है।

पौराणिक – आर्यसमाजीयोने २६वा श्लोक बदल दिया है। उसके स्थान पर २८वां श्लोक २६वा श्लोक कहकर प्रस्तुत किया है। 

वैदिकधर्मी (हमारा उत्तर) – हमने यह पाठ भविष्यपुराण – अनुवादक पण्डित बाबुराम उपाध्याय की पुस्तक से लिया है, जीसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा २०१२में प्रकाशीत किया था। क्यां यह आर्यसमाजी संस्था है? आप स्वयं पाठ देख लिजीये। हमने अपने ट्वीटर पर यही पाठ दिया था। कृपया दूसरो का लेख कोपी करने से पहले देख तो लिजीये की हम जीस पुस्तक का संदर्भ दे रहे है वह आर्यसमाज द्वारा प्रकाशीत है की नहीं।

तमोभूता च सा कन्या तस्यै देव्यै नमो नम। यह पद २४वे श्लोक के उत्तरार्धमें है तथा बहवः पुरुषा ये वै निर्गुणाश्चैकरूपिणः। यह पद २५ वे श्लोक के पूर्वाध में है।  पौराणिक इसे २६ वा श्लोक दिखा रहे है। अगर आप को पाठ से आपत्ति है तो आप पण्डित बाबुराम उपाध्याय अथवा हिन्दी साहित्य सम्मेलन को लिखे। बिना कारण आर्यसमाज को क्युं बीच में ला रहे है?

पौराणिक – शास्त्रका अर्थ निर्णय करने की एक शास्त्रीय पद्धति होती है। जीस को यह पद्धति का ज्ञान नहीं होता वह ऐसा ही अशुद्ध अर्थ करते है जैसा आर्यसमाज ने किया।

वैदिकधर्मी – चलो अच्छा है की पौराणिकोने शास्त्रका अर्थ करने की पद्धति का स्वीकार तो किया। अन्यथा पौराणिक समाज वेदोमें प्रतिमा शब्द देखकर ठूमके लगाने लगता था। फिर चाहे वह प्रतिमा शब्द का कोइ और अर्थ क्यों ना हो। वानर अर्थात् वनवासी का अर्थ बन्दर करने वाला पौराणिक समाज आज अशुद्ध अर्थ का दोष आर्यसमाज पर देना चाहता है वह ॑उलटा चौर कोटवाल को दण्ड दे॑ ऐसी बात है।

पौराणिक – पौराणिक मुनियोने स्त्रीयों को रत्न समजा है तथा ऐसी स्त्री का कोइ बलात्कार भी कर दे तो उसका मूल्य समाप्त नहीं होता। नारी के पति ऐसा सन्मान देनेवाला भविष्यपुराण पर ऐसा आक्षेप करनेवाले भविष्यपुराण पर ऐसे आक्षेप लगाने वाले लोग किस स्तर के है हमे कहने की आवश्यकता नहीं।

वैधिकधर्मी – आज तो कौंआ भी कोयल की तरह मधूर बोलने का प्रयत्न कर रहा है ना। पौराणिक समाजने नारी को रत्न नहीं वस्तु समजा है। जरा बतायीये? सतीप्रथा का समर्थन कौन कर रहा है? आठवर्ष की कन्या का विवाह करने का आदेश कौन दे रहा है? विधवाविवाह का विरोध किसने किया? स्त्रीओ को वेदकी पढाई करने का निषेध कौन कर रहा है? स्त्रीयों को केवल दासी मान के उसका शोषण करनेवाला पौराणिक समाज आज उसका हितेषी बनने का दावा करे ये तो हँसने की बात है। आर्यसमाजने हम्मेशा स्त्रीयो के हीत की बात की। उनहे जनेऊं तथा वेदाध्यन कराया। विवधाविवाह अथवा नियोग की बात की। बालविवाह का विरोध किया। जब आर्यसमाज यह सब कर रहा था तब पौराणिक उसका विरोध करते थे। आज खुद सारा श्रेय लेना चाहते है?

पौराणिक – यह श्लोक का सही अर्थ है ‘पूर्वश्लोक में सुता, माता व भगीनीरूपेण अभिहित कार्यात्मक सत्वगुण, रजोगुण व तमोगुण को ग्रहण करके ही ब्रह्मा, विष्णु और शम्भु श्रेष्ठता को प्राप्त हुवे।

वैदिकधर्मी – आप का अर्थ गलत है। उसके अनेक कारण है।

१. हम पहले ही बता चूके की हमने जो पाठ दिया था उस पाठमें आप जीसे २६वा श्लोक बता रहे है वह श्लोक २४वे तथा २५वे श्लोक का भाग है। इस लिये उसे २वे श्लोक का पूर्वश्लोक मानना स्वयं पौराणिक समाज ही नहीं स्वीकार रहा।

२. हम मूल संस्कृत श्लोक उद्बोधित कर उसकी व्याख्या करते है।

आलोके पापजास्तर्वे देवब्रह्मसमुद्भवाः।

या तु ज्ञानमयी नारी वृणेद्यं पुरुषं शुभम्।।

कोऽपि पुत्रः पिता भ्राता स च तस्याः इतिर्भवेत्।। २६॥

स्वकीयां च सुतां ब्रह्मा विष्णुदेवः स्वमातरम्।

भगीनीं भगवाञ्छम्भ्उर्गृहीत्वा श्रेष्ठतामगात्॥

पदविन्यास –  या तु ज्ञानमयी नारी अद्य शुभं पुरषं वृणे। स तस्याः पुत्रः पिता भ्राता च कोऽपि इति भवेत्। 

ध्यान देने की बात यह है कि वृणे शब्द का प्रयोग हुवा है जीसका अर्थ है पसन्द करना। क्यां स्त्री पिता, भ्राता या पुत्र का चयन करती है? नहीं। चयन सिर्फ पति का किया जाता है। 

तथा यह अध्यायमें यह श्लोक किस परिपेक्षमें प्रयोग हुवा उसे भी ध्यान देना जरुरी है। प्रश्न यह था की सूर्य को अपनी भतीजी से विवाह करना चाहीये की नहीं चाहीये। उसके उत्तरमें लिखा गया है की ब्रह्मा स्वकीयां सुतां, विष्णुदेवः स्वमातरं, भगवान् शम्भु भगीनीं गृहित्वा श्रेष्ठम् गात्। 

अगर प्रश्न भतीजी को पत्नी बना सकते है या नहीं उसका उत्तर यह कैसे हो सकता है की ब्रह्माने पुत्री से सत्वगुण, विष्णुने माता से रजोगुण तथा शिवने भगीनी से तमोगुण ग्रहण किया। यह तो पसंग के विरुद्ध होता। लेकिन पुराणकारने यहाँ वह आचरण का भतीजी को पत्नी स्वीकारने के विषयमें सन्दर्भ दिया उसका यही तात्पर्य है की जैसे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवने अपनी पुत्री, माता और बहन (यानी नीकट सम्बन्धी) को पत्नी बनाया वैसा ही तुम करो(तथा अन्य नीकट सम्बन्धी भतीजी को पत्नी बनावो)। तथा यह सुन के सूर्यने संज्ञा को अपनी पत्नी बना लिया। यानी त्रिदेव के अनुसार उसने भी नीकट सम्बन्धी से विवाह करने का आचरण किया।

यहां श्लोकमें सत्व, रजो तथा तमोगुण की चर्चा ही नहीं है। लेकिन पौराणिकने लोगो को गुमराह करने के लिये तथा नीकट सम्बन्धी से विवाह देने वाले यह श्लोक से शरमाते हुवे उसका अर्थ ही बदल देने का प्रयास किया। इस से यह भी सिद्ध होता है कि पुराणोमें दिये गये वर्णनो से पौराणिक समाज भी लज्जित होता है। लेकिन अपने स्वार्थवश उसे त्यागना नहीं चाहता।

तथा यहां पौराणिकने प्रयत्नपूर्वक अपने अर्थमें सत्वगुण पुत्री से, रजोगुण माता से तथा तमोगुण भगीने के साथ जोडा है। हम इसी अध्याय का २३वा और २४वा श्लोक उद्बोधित करते है।

ध्यान से पढे। मूल संस्कृत श्लोकमें सत्वगुण भगीनी के साथ, रजोगुण गृहिणी के साथ तथा तमोगुण कन्या के साथ जोडा है। माता को नित्य सनातन प्रकृति कहा गया है। तो लेखक ने किस आधार पर अपने अर्थमें सत्वगुण पुत्री से, रजोगुण माता से तथा तमोगुण बहन के साथ जोडा?
यह सब छल तब चल जाता था जब लोग शास्त्र नहीं पढते थे तथा संस्कृत का ज्ञान सामान्य नहीं था। आर्यसमाज के प्रयत्नो से शास्त्र सब पढ रहे है तथा संस्कृत का भी प्रसार हो रहा है। इस लिये अर्थ को बदलने वाला छल अब ज्यादा नहीं चल सकता।
भतीजी के साथ विवाह करने के विषय पर मौनपौराणिक समाजने माता, पुत्री तथा बहन आदि से विवाह करने कि बात तो अर्थ को तोडमरोड के बचा ली। लेकिन यह जो मूल प्रश्न था जहाँ से यह चर्चा शुरु हुइ उसपे तो अभी तक मौन ही है। वह है सूर्य का अपनी भतीजी के साथ विवाह। 
क्यां पौराणिक समाज भतीजी के साथ विवाह को मान्यता देता है? हमने तो अभीतक मुस्लिम समाज में चाचाभतीजी के बीचमें विवाह का सूना था। लेकिन यहां तो आप का पुराण उसकी मान्यता दे रहा है तथा प्रमाणमें त्रिदेव का आचरण उद्बोधीत कर रहा है।
अब इस के उत्तरमें यह तर्क ना लाना की सूर्य और विश्वकर्मा के बीच खुन का रिश्ता नहीं था इस लिये वह सगे चाचाभतीजी नहीं थे आदि। अगर ऐसा होता तो सूर्य को यह सन्देह क्युं उतपन्न होता की भतीजी के साथ विवाह करे या न करे। तथा पुराणकार भी उत्तरमें यह रक्तसम्बन्ध का ही तर्क देते। लेकिन यह तर्क न दे कर उन्होने अन्य नीकट सम्बधी से विवाह करनेवाले लोगो का आचरण प्रमाण के रूपमें दिया यही बात सिद्ध करता है की संज्ञा और सूर्य नीकट सम्बन्धी थे।
उपसंहार
आर्यसमाज ब्रह्मा, विष्णु और शिव को महान् मानता है तथा वह ऐसा घृणित आचरण नहीं कर सकते यह भी मानता है। लेकिन उनके चरित्र पे डाघ हमारे पुराणोने लगाया है। हमारे पुराणोमें वर्णित ऐसी घृणित तथा अश्लील बातो का आर्यसमाजने हम्मेशा विरोध किया है। इसी लिये आर्यसमाज पुराण को प्रमाण नहीं मानते। अब पौराणिक समाज भी इसमें वर्णवीत अश्लीलता से शरमा रहा है तथा शब्दो का जाल रचकर उसे छीपाने का प्रयत्न कर रहा है। लेकिन जब आकाश फटा हो तब एकाद जोड करने से क्यां फायदा? एक अश्लीलता को छूपावोगे हजारो अन्य बहार आयेगी।
इस लिये उपर्युक्त यही होगा की माता, पुत्री, बहन, भतीजी से विवाह करने की बात करनेवाले पुस्तको को मानना बन्ध कर परमात्मा की दिव्यवाणी वेद का पठन करे।
॥ओ३म॥
ता.क.
पौराणिक का हाल छछुन्दर निगल गये साँप जैसा हो गया है। वह यह श्लोक को स्वीकार नहीं सकते ना ही नकार सकते। यह श्लोक का अर्थ बदलने के लिये कुछ नयां तर्क लेके आये है। उसका भी खण्डन कर देते है।
पौराणिक –  यह सब बात मनुष्यों की नहीं रही है। यह बात देवो की हो रही है। इस लिये हमे यह सब विषय पर आपत्ति नहीं उठानी चाहिये।
वैदिकधर्मी –  देव शब्द का अर्थ पहले ठीक से पढ लेते। लेकिन अभी बह चर्चा का विषय नहीं है। अगर एक क्षण के लिये मान भी ले की देवयोनी मनुष्ययोनी से अलग है तो आप क्यां यह कहना चाहते हो कि देवता अपनी माता, पुत्री, बहन और भतीजी आदिसे विवाह कर सकते है? क्यां ऐसा आचरण करनेवाले को देव मानना योग्य रहेगा? अगर देव ही ऐसा अधर्म आचरण करे तो मनुष्य से क्यां अपेक्षा रखनी चाहीये।
पौराणिक – सूर्यने संज्ञा को ग्रहण किया लेकिन मैथुन नहीं किया। यम और यमी अमैथुनी है।
वैदिकधर्मी – अगर मैथुन न करे तो यानी भतीजी से शादि करना आप को स्वीकार्य है? हमने तो दोनो के बिच मैथुन की बात ही नहीं करी। हमने तो केवल उन के विवाह का उल्लेख किया था। आप यह प्रतिज्ञा लिख दो की ॑पौराणिकधर्म के अनुसार भतीजी से विवाह कर सकते है लेकिन मैथुन नहीं करते तो कोइ दोष नहीं लगता॑। यह व्यवस्था देने को तैयार हो?
और रहा सवाल दोनो के बिच मैथुन होता था या नहीं। तो पौराणिक अपने पुराण तो ठीक से पढे। अब तो परिस्थ्तिति यह हो गई है कि हमे बताना पड रहा है की आप के पुराणमें क्यां लिखा है क्युं की आप पुराण का भी स्वाध्याय नहीं करते।

यह श्लोक ३८ से ३९ पढो। यहां स्वयं लिखा है कि संज्ञा को देखकर सूर्य कामातुर हुवा तथा दोनो एक साथ रमण करने लगे। तत्पश्चात् संज्ञाने गर्भधारण किया। अगर वह सूर्य और संज्ञा मैथुन करे बिना पुत्र उत्पन्न कर लेते थे तो कामातुर होने की जरूरत क्यां थी? या फिर पौराणिक का तर्क है कि रमण यानी मौजमजा करने के लिये मैथुन करते थे लेकिन जब सन्तान उत्पन्न करथी होती थी तब अमैथुनी उत्पन्न कर देते थे। धन्य हो!
पौराणिक – ब्रह्मा, विष्णु और शिव रजवीर्य से उत्पन्न नहीं हुवे। वह दिव्यगुणी थी। इस लिये सत्व, तमो और रजस् गुण की बात की।
वैदिकधर्मी – गुण की बात करने से पहले यह तो उत्तर दे दो की आपने अपनी व्याख्यामें पुत्री को सत्यगुणी, माता को रजोगुणी और भगीनी को तमोगुणी किस आधार पे बोला। क्युं की पुराणमें तो अन्य व्याख्या दि गइ है।
रही बात रजवीर्य से उत्पन्न नहीं होने की। वैसे भी पौराणिक कहाँ प्राकृतिक तरीके से सन्तान पैदा करते है। वे तो घडे से, चरु से, लोटे से, दृष्टि से, खीर से सन्तान पेदा करते थे। एक क्षण के लिये मान भी ले की ब्रह्मा, विष्णु और शिव अमैथुनी सृष्टि के थे तो फिर उनकी माता और बहन कहां से आ गई? क्युं की अमैथुनी सृष्टिमें तो कोइ रजवीर्य से पैदा नहीं होता। माता और बहन होना तभी सम्भव है जब आप में रजवीर्य का सम्बन्ध हो। तो क्यां यह पुराणमें ब्रह्मा की पुत्री, विष्णु की माता और शिव की भगीनी आदिका जो उल्लेख है वह पुराणकारने गलती से किया है? यहाँ स्वमाता, स्वकीयां सुतां आदि पद का प्रयोग हुवा है जो यह स्पष्ट करता है की यहाँ खुद की माता और पुत्री की बात हो रही है, कोई रजोतमो आदि गुणोयुक्त माता, पुत्री, बहन आदि के सम्बन्ध की नहीं। क्युं कि यहां माता और पुत्री शब्द से सामान्य अर्थमें माता और पुत्री का अर्थ करना होता तो उसके आगे ॑स्व॑ शब्द नहीं लगाते।
उपसंहार
हमे भी पता है की आप यह अश्लीलता से लज्जीत है। तो उसे नकारने का साहस रखे। जो गलत है वह गलत है। उसे शब्दो का मायाजाल पहना के सही साबित करने का प्रयत्न न करे।

सत्यार्थ प्रकाश – षष्ठसमुल्लास के विषय में फेलाये जा रहे दुष्प्रचार का खण्डन

सत्यार्थ प्रकाशने पौराणिक समाज के पाखण्ड का पर्दाफाश कर दिया था। इसी लिये इतने वर्ष पश्चात् भी पौराणिक समाज सत्यार्थ प्रकाश पर जुठ्ठे आक्षेप करते है क्युं की सत्यार्थ प्रकाश ने उनके पाखण्ड की नींव हिला डाली थी। 

यही परम्परा का पालन करते हुवे पौराणिक समाज आज ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के षष्ठसमुल्लास पर एक जुठा आरोप कर रहां है । यह प्रकरणमें स्वामीजी ने राजधर्म की चर्चा करी है तथा मनुस्मृति के कई श्लोक प्रमाण के तोर पे दिये है।

यहां पर उनहोने मनुस्मृति का श्लोक ७.९६ उद्बोधित किया है तथा उस की व्याख्या करी है।रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून्स्त्रियः ।सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत् ॥

व्याख्या – इस व्यवस्था को कभी न तोड़े कि जो-जो लड़ाई में जिस-जिस भृत्य वा अध्यक्ष ने रथ घोड़े, हाथी, छत्र, धन-धान्य, गाय आदि पशु और स्त्रियां तथा अन्य प्रकार के सब द्रव्य और घी, तेल आदि के कुप्पे जीते हों वही उस-उस का ग्रहण करे।।

यहां पौराणिक समाज स्वामीजी पर यह आक्षेप लगा रहां है की सत्यार्थ प्रकाशमें स्वामीजीने शत्रु की स्त्रियां जीतकर उनके भोग करने का आदेश दिया है। आप स्वयं देख ले। स्वामीजी की व्याख्यामें भोग शब्द कहीं पर है? उनहोने ग्रहण करने की बात करी है। क्युं की जरुरी है की युद्ध के पश्चात् धन, धान्य और स्त्री की योग्य व्यवस्था करी जाय। अन्यथा युद्ध के पश्चात् जो अराजकता उत्पन्न होती है उसमें इन सब का नाश होने का भय है। इसी लिये यह सब पदार्थ तथा स्त्रीयों को जीतने वाला राजपुरुष ग्रहण कर ले तथा मनुस्मृतिमें आगे जो नियम बतायें हुवे है उसके अनुसार इन सब की योग्य व्यवस्था करे।

यह मिथ्याप्रचार करते हुवे दो लेख आप यहँ देख सकते हो। एक लेख कथित ‘सत्यमार्ग’ का है तथा दुसरा लेख कथित ‘हिन्दू मन्तव्य‘ का है। दोनो लेख मौलिक नहीं लग रहे क्युं की दोनो साईट चलानेवाले व्यक्तियों का बौद्धिकस्तर ही नहीं है ईतनी चर्चा करने का।

पौराणिक अपना अर्थ करते हुवे कह रहे है की अर्थात- राजा द्वारा युद्ध मे शत्रुओं के रथ, घोडे, हाथी, छत्र, धन-धान्य, मादा पशु तथा घी-तेल आदि जो कुछ भी जीता गया है, उचित है कि, वह सब राजा उसी प्रजा को वापस कर दे (जिस राज्य को उसने जीता है)।

पौराणिक मतखण्डन

आप स्वयं संस्कृत श्लोक पढे। यहां पर आप को प्रजा शब्द कहीं पर दिख रहां है? तो फिर आपने प्रजा शब्द का अर्थ कहां से लिया? मूल श्लोकमें कोई भी शब्द नहीं है जिससे प्रजा शब्द को ग्रहण किया जा सके। भाषान्तरमें प्रजा शब्द की वृद्धि करना आप का बौद्धिक छल है। यह छल तब चल जाते थे जब लोग संस्कृत नहीं पढते थे।

संस्कृतमें स्पष्ट लिखा हैं की ‘यः यत् जयति तत् तस्य‘| ईतने सरल संस्कृत का अर्थ करना भी नहीं आता? चलो हम अर्थ कर देते है। ‘जो जिसको जीतता है वह उसका होगा।’

जब मनुने स्पष्ट लिखा है की धन, धान्य, रथ, अश्व, हाथी, पशु, स्त्री, सब पदार्थ, कुप आदि जो जीते वह उस का है तब आप उसे प्रजा को वापस देने की बात ही कहां से लाये? निश्चय ही मनु का मत है की यह सब विजेता को प्राप्त होता है। इस का प्रमाण उसके पश्चात् के श्लोक से मिलता है।राज्ञश्च दद्युरुद्धारमित्येषा वैदिकी श्रुतिः ।राज्ञा च सर्वयोधेभ्यो दातव्यमपृथग्जितम् ॥९७॥यहां पर जीते हुवे पदार्थ का उद्धार भाग (सोलवा भाग) राजा को देने का विधान है। तथा राजा भी उसे कुल जो उद्धारभाग मिलता है उसमें से उद्धारभाग सब योद्धामें बाँटता है। प्रश्न यह है की श्लोक ९६में पौराणिक कह रहे है की सब प्रजा को वापस दे दो। जब सब वापस ही दे दिया था तो अब योद्धा राजा को उद्धारभाग कहाँ से देगा? अपनी जेब से देगा क्यां? श्लोक ९७ का अर्थ भी पौराणिको द्वारा दिये गये श्लोक ९६ की व्याख्या का खण्डन करता है।
कुल्लुल भट्टने भी अपनी टीकामें कही पर उसे प्रजा को वापस देने की बात नहीं लिखी परन्तु अपने राजा को समर्पित करने की बात कही है। मेधातिथि, गङ्गानाथ झा आदि भाष्यकारोने भी यह सब प्रजा को वापस करने की बात नहीं लिखी। 

यह पण्डित गिरिजाप्रसाद द्विवेदी का हिन्दी अनुवाद है। उनहोने भी यह सब विजेता को प्राप्त होने की बात लिखी है।
इस से यह सिद्ध होता है की सारे पुराने तथा आज के टीकाकार यही मानते है की यह सब पदार्थ तथा स्त्रियां विजेता को प्राप्त होती है। प्रजा को वापस देने का कोई विधान मनुस्मृतिमें नहीं है। 
स्वामी दयानन्द सरस्वतीने भी यही अर्थ किया है। तो उनको दोष क्युं दिया जा रहा हैं? उनहोने तो वहीं कहां जो मनुने लिखा था। तथा उनहोने भोग करने की बात ही नहीं करी थी वो भी हम स्पष्ट कर चूके है।
स्त्रियः शब्द का अर्थतो फिर यहां पर स्त्री शब्द से क्यां ग्रहण करना चाहीये? आप स्त्री शब्द सामान्य अर्थ में भी ग्रहण कर सकते है। उसका अर्थ हमने उपर समजा दिया है। फिर से उसे लिखते है – जरुरी है की युद्ध के पश्चात् धन, धान्य और स्त्री की योग्य व्यवस्था करी जाय। अन्यथा युद्ध के पश्चात् जो अराजकता उत्पन्न होती है उसमें इन सब का नाश होने का भय है। इसी लिये यह सब पदार्थ तथा स्त्रीयों को जीतने वाला राजपुरुष ग्रहण कर ले तथा मनुस्मृतिमें आगे जो नियम बतायें हुवे है उसके अनुसार इन सब की योग्य व्यवस्था करे।
उपरोक्त अर्थ मनु के अनुकूल है। कुल्लकभट्टने अपनी टीकामें ‘स्त्रियः‘ शब्द से ‘दास्यादिस्त्रियः’ अर्थात् दासी आदि स्त्रीयां यह अर्थ ग्रहण किया है। डॉ. सुरेन्द्रकुमारने भी अपनी ‘विशुद्ध मनुस्मृति’में नौकर स्त्रियां यही अर्थ लिया है। यह अर्थ भी ले तो भी तात्पर्य यहीं निकलता है की जीते हुवे पदार्थ तथा नौकरस्त्रियां विजेता ग्रहण कर ले तथा उनकी योग्य व्यवस्था करे।
वैदिकधर्म और स्त्रीवैदिकधर्ममें स्त्रियों को उपभोग की वस्तु नहीं माना है। सदा उनका सन्मान किया है। इस लिये यहां स्त्रियों को ग्रहण करने का तात्पर्य केवल उनको अपने अधिकारमें कर के उनकी रक्षाकर योग्य व्यवस्था करने से है। उलटा सत्यमार्ग तथा हिन्दूमन्तव्यने उसका गलत अर्थ कर प्रजा को देने की बात करी है।
उपसंहारस्त्रियों को जीतकर उसको बाँटने की परम्परा पौराणिको की है। यह अश्लील कथाये पढपढ कर उनकी बुद्धि उतनी अश्लील हो चूकी है की मनु जैसे महात्मा के वचन भी उनहे स्त्रियां जीतकर उनहे भोग करने का आदेश लगते है। परन्तु यह तो पौराणिक परम्परा है। एष नः समयो राजन् रत्नस्य सहभोजनम् ।न च तं हातुमिच्छामः समयं राजसत्तम ॥ (महा. गीताप्रेस. आदि.१९४.२५) यह श्लोक बोलकर पौराणिकोने सती द्रौपदीको पाञ्च पुरुष की पत्नी बना ही दिया था ना! वहाँ पर स्त्री को बाँटकर उपभोग करने की बात करी गई है। लेकिन महर्षि दयानन्द सरस्वती यह उपभोग की परम्परा से नहीं थे। इसी लिये उनहोने स्त्रियों की रक्षा और व्यवस्था करने के लिये ग्रहण करने का लिखा, उपभोग करने का नहीं।

बृह्दारण्यक उपनिषद् और पुराणं शब्द

 छान्दोग्य उपनिषद् पर पुराण शब्द की मीमांसा से हार चुका पौराणिक समाज अपने अष्टादशपुराणो को वेदानुकूल सिद्ध करने like a headless chicken यहाँ से वहाँ मारामारा फिर रहाँ है। हालत ऐसी हो गई है की कहीं पे भी शास्त्रोमें पुराण शब्द मिल जाये तो उस शब्द का अर्थ अष्टादशपुराण ही है वह सिद्ध करने के लिये उतावला हो रहा है।

यही प्रक्रीया के अन्तर्गत ‘डूबते को तिनके का सहारा’ इस मुताबित बृहदारणकोपनिषद् में पुराण शब्द ढूंढ लाया। देख कर ठूमके लगा कर नाँचने लगा। यह भी समजने की कोशिश नहीं करी के यह शब्दका अर्थ क्यां है।

बृहदारण्यक उपनिषद का जो मन्त्र पौराणिको ने दिया उसे हम उद्बोधित करते है।

स यथार्द्रैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानानीष्ट हुतमाशितं पायितमयं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतान्यस्यैवैतानि सर्वाणि निश्वसितानि॥ ४.५.११॥

स यथाऽऽर्द्रैधाग्नेरभ्याहितात्पृथग्धूमा विनिश्चरन्त्येव वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राण्यनुव्याख्यानानि व्याख्यानन्यस्यैवैतानि सर्वाणि निश्वसितानि॥ २.४.१०॥यह दो मन्त्रमें पुराणं शब्द है। लेकिन यहाँ प्रयोग हुवे पुराण शब्द का अर्थ १८ पुराण तो बिलकुल नहीं है। आर्यसमाज के पुस्तक को तो प्रमाण मानोगे नहीं। आप कम से कम शाङ्करभाष्य ही देख लेते। मन्त्र ४.५.११ के भाष्यमें शङ्कराचार्यने लिखा है की इस का अर्थ हम २.४.१० में समजा चूके है। इस लिये अब मन्त्र २.४.१०में पुराण शब्द का क्यां अर्थ है वह समजना जरुरी है।

पुराण शब्द की व्याख्या में शङ्कराचार्यने तैत्तिरीय उपनिषद् का उदाहरण दिया है। अर्थात् वह उसे पुराण मानते थे। १८ पुराण को नहीं। यह व्याख्या से सिद्ध होता है की बृहदारण्यक उपनिषद् से १८ पुराण शास्त्रोक्त सिद्ध नहीं होते।

अब पौराणिको का तर्क है की शङ्कराचार्य ने कभी १८ पुराणो का खण्डन ही नहीं किया।  इस लिये वह उनको मान्य थे। मूर्ख! सारे पुराण शङ्कराचार्य के पश्चात् लिखे गये थे। तो वह उनका खण्डन कैसे कर सकते है? शङ्कराचार्यने तो रविन्द्र नाथ टैगोर की गीताञ्जली का भी खण्डन नहीं किया। तो क्यां उससे गीताञ्जली उनहे मान्य है ऐसा सिद्ध हो गयाँ? यह तर्क करना ही मूर्खता है।

यहाँ पर ध्यान देनेवाली बात है की उनहोने इतिहास शब्द की व्याख्यामें ‘उर्वशीहाप्तसराः’ आदि ब्राह्मणग्रन्थो को इतिहास माना है। महर्षि दयानन्दने भी सत्यार्थ प्रकाशमें ब्राह्मणग्रन्थो का इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा, नाराशंसी इत्यादि पाञ्च नाम है ऐसा कहाँ था। तब पौराणिक उसे नहीं मान रहे थे। लेकिन यहाँ शङ्कराचार्यने स्पष्ट तरीके से ब्राह्मणग्रन्थ को इतिहास बतायाँ है। हमे देखन है की पौराणिक समाज अब क्यां उत्तर देता है!

छान्दोग्य उपनिषद् के भाष्यमें शङ्कराचार्यने जो अर्थ किया है हम उससे सहमत नहीं है और उसका जवाब हम उपरोक्त लेखमें दे चूके है। महाभारत केवल ५००० वर्ष पूर्व की धटना है। जब की सनातनधर्म की वर्तमान परम्परा पाञ्च हजार वर्षो से भी अनेक हजार वर्ष पहले से है।। और यह प्राचीन इतिहास हमारे उपनिषद्, ब्राह्मणग्रन्थ तथा गाथा में लिखा गया है। अब हजारो वर्ष पुराने इतिहास की तुलनामें ५००० वर्ष पुराना महाभारत आधुनिक ही माना जायेगा ना। इसमें हमने क्यां गलत कहाँ? महाभारत तो रामायण की तुल्नामें भी आधुनिक है। यह तुल्नात्मक वचन है। 

क्यां पौराणिक समाज भारतीय इतिहास का आरम्भ केवल रामायण और महाभारत से मानता है? इस का उत्तर दे।

उपसंहार

पुराण को वेदानुकूल सिद्ध करने के लिये पौराणिक जीतना प्रयत्न करते है उतना स्वयं मूर्ख सिद्ध होते है। लेकिन अपनी मुर्खता छीपाने के लिये काशी शास्त्रार्थ की कपोळकल्पित कहानी लिख देते है। जो पौराणिक समाज हमारे जैसे अल्पमति के सामने अभी तक जीत नहीं सका वह ऋषि दयानन्द के सामने कहाँ टीक पाते होंगे?॥ ओ३म्॥

छान्दोग्य उपनिषद् में रहे ‘इतिहासपुराणम्॑ पाठ की मीमांसा

कुछ समय पहले श्री भावेश मेरजा द्वारा लिखीत ‘काशीनो शास्त्राथ’ पुस्तक पढने का मौका मिला। मूर्तिपूजा पर हुवे यह शास्त्रार्थमें पौराणिक समाज मूर्तिपूजा के समर्थनमें कोई प्रमाण देने में विफल रहाँ था।

शास्त्रार्थमें पुराण शब्द के विषयमें चर्चा हुइ थी। चर्चामें स्वामी दयानन्दनें पुराण शब्द को इतिहास का विशेषण बताया तथा छान्दोग्य उपनिषद् का पाठ ‘इतिहासः पुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः’ पाठ उद्बोधित किया। तब पौराणिक समाजने कहां की ‘इतिहासपुराणम्’ यही पाठ सर्वत्र है। तब स्वामीजीने घोषणा करी के यदी ‘इतिहासः पुराणः’ यह पाठ ना मिले तो उनकी पराजय हो तथा मिल जाये तो पौराणिक मत की पराजय हो। पौराणिक समाज हम्मेशा की तरह मौन साधे रहाँ।

हमने जिज्ञासावश छान्दोग्य उपनिषद् का स्वाध्याय किया। उसमें दोनो पाठ थे। दोनो मन्त्र यहा प्रस्तुत करते है।

ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदँ सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यँ राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्याँ सर्पदेवजनविद्यामेतद्भगवोऽध्येमि ॥ ७.१.२ ॥

नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद आथर्वणश्चतुर्थ इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः पित्र्यो राशिर्दैवो निधिर्वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्या ब्रह्मविद्या भूतविद्या क्षत्रविद्या नक्षत्रविद्या सर्पदेवजनविद्या नामैवैतन्नामोपास्स्वेति ॥ ७.१.४ ॥

अब फिर से पौराणिक समाज ७.१.२ का पाठ दिखा के अपने व्याकरण का ज्ञान दे रहा है की स्वामीजी गलत थे। ‘पुराणम्’ जो नपुसंकलिङ्ग शब्द है वह ‘इतिहासः’ जो पुल्लिङ्ग शब्द का विशेषण नहीं हो सकता। और यही तर्क से वह इतिहास तथा पुराण को पृथक साबित करते है तथा पुराण शब्द से अष्टादश पुराण को मानते है।

लेकीन यहाँ पर उन का व्याकरण का ज्ञान कितना अल्प है वह सिद्ध होता है।

जिज्ञासा तो यह होनी चाहीये थी के एक ही अध्यायमें ‘इतिहासपुराणम्’ तथा ‘इतिहासपुराणः’ ऐसे दो पाठ क्युं है? इस का हम समाधान देते है।

मन्त्र ७.१.२में ‘अध्येमि’ पद के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग हुवा है। आप देखे तो ऋग्वेदं, यजुर्वेदं आदि सर्व पद द्वितिया विभक्तिमें है। इसको अगर सरल संस्कृतमें पढे तो अर्थ होगा की (अहं) ऋग्वेदम् अध्येमि, (अहं) यजुर्वेदं अध्येमि, (अहं) इतिहासपुराणं अध्येमि। यानी हम ऋग्वेद पढते है, हम यजुर्वेद पढते है, हम इतिहासपुराण पढते है।

यहाँ इतिहासपुराण एक शब्द है क्युं की अगर दो शब्द होते ‘इतिहासः तथा पुराणम्’ तो उनकी द्वितीया विभक्ति होती ‘इतिहासपुराणे’। लेकिन मन्त्रमें ‘इतिहासपुराणम्’ पाठ ही है। जो यह सिद्ध करता है की दोनो शब्द अलगअलग नहीं परन्तु एक शब्द है।

कुछ मूर्खोने द्वितीया विभक्ति का प्रयोग तो स्वीकार लिया लेकिन यह तर्क दिया कि ‘इतिहासंपुराणम्’ यह पाठ होना चाहीये। अब इनके संस्कृत के ज्ञान को क्यां कहना। विशेषण और विशेष्य को जब एक शब्द कर के समास बना देते हो तो बीच में विभक्ति संज्ञा नहीं आती।

उदाहरण देखिये –

अहं मूर्खं बालकं पश्यामि। यहाँ पर मूर्ख और बालक शब्द अलग अलग है इसलिये दोनो पर विभक्ति का प्रयोग हुवां।

अहं मुर्खबालकं पश्यामि। यहाँ पर मूर्खबालक को एक शब्द बना दिया गयां। तो उसकी विभक्ति ‘मूर्खंबालकं’ नहीं होती परन्तु ‘मूर्खबालकम्’ होती है।

अब प्रश्न यह है कि इतिहास और पुराण के समास में कौन किस का विशेषण और कौन किस का विशेष्य है। उसका उत्तर मन्त्र ७.१.४ का पाठ देखने से मिलेगा।

मन्त्र ७.१.४में सभी पद प्रथमा विभक्तिमें है। ऋग्वेदः नाम इति। यजुर्वेदः नाम इति। इतिहासपुराणः नाम इति। अर्थात् (वह विद्या का) ऋग्वेद नाम है, यजुर्वेद नाम है, इतिहासपुराण नाम है।

यहाँ पर उसका उत्तर आपको ‘इतिहासपुराणः’ शब्द से मिलेगा। अगर पुराण शब्द विशेष्य होता तो बाकी सारे पदों की तरह वह भी प्रथमा विभक्तिमें आता और सर्व को पता है की पुराण शब्द की प्रथमा विभक्ति पुराणम् होती है। लेकिन यहां पर ‘पुराणः’ पाठ है। वह तभी सम्भव है जब पुराण शब्द इतिहास का विशेषण हो। ‘इतिहासः’ यह पुल्लिङ्ग शब्द का विशेषण भी ‘पुराणः’ होगा तभी ‘इतिहासपुराणः’ पाठ सिद्ध होता है।

अतः सर्व प्रकार से यह सिद्ध होता है की दोनो मन्त्रोमें पुराण शब्द इतिहास का विशेषण है।

शाङ्करभाष्यमें भी इतिहासपुराण को एक शब्द माना गया है। शाङ्करभाष्य स्पष्ट कहता है की ऋग्वेदादि चार वेद और इतिहासपुराण नाम का ‘पाञ्चवाँ वेद’ (यह केवल मन्त्र का भाष्य किया गया है। वेद केवल चार ही है।) । अगर इतिहास और पुराण दोनो अलग अलग होता तो शाङ्करभाष्यमें चारवेद तथा इतिहास और पुराण आदि कुल छः ‘वेद’ हो जाते। लेकिन मन्त्रमें तथा शाङ्करभाष्यमें कुल पाञ्च वेद का उल्लेख है। यह तभी शक्य है जब ‘इतिहासपुराण’ एक शब्द माना जाये। अर्थात् शाङ्करभाष्य भी महर्षी दयानन्द के तर्क का समर्थन करता है।

तथा शाङ्करभाष्यमें ‘इतिहासपुराण’ शब्द का जो उदाहरण दिया है वह भारत अर्थात् महाभारत का दिया गया है। महाभारत इतिहासग्रन्थ है, पुराणग्रन्थ नहीं। अगर पुराणशब्द का सम्बन्ध अष्टादशपुराण से होता तो शङ्कराचार्य वहा उदाहर के रूपमें कोई एक पुराण का नाम लिखते। लेकिन उनहोने इतिहासग्रन्थ का नाम लिखा। अर्थ स्पष्ट है की वे भी ‘इतिहासपुराणम्’ शब्द से इतिहास को ही ग्रहण करते थे।

लेकिन शाङ्करभाष्यमें एक क्षति है। इतिहास के उदाहरणमें महाभारत शब्द का उपयोग अयोग्य है क्युं की छान्दोग्य उपनिषद् का काल महाभारत से अनेकवर्ष पूर्व का है। तो फिर छान्दोग्य उपनिषद् के कर्तानें वहाँ महाभारत आदि के लिये ‘इतिहासपुराणम्’ शब्द का प्रयोग कैसे किया होता? यह असभ्मव है। महाभारत तो आधूनिक इतिहास है। लेकिन सनातनधर्म का इतिहास अनेक साल पुराणा है। महाभारत से पहले भी सनातनधर्म था। इसलिये इतिहास शब्द से महाभारत को ग्रहण करना योग्य नहीं है। लेकिन यह अलग विषय है।

हम सर्वप्रकार से सिद्ध कर चूके है कि ‘इतिहासपुराणम्’ शब्द प्राचीन इतिहास के सन्दर्भ में प्रयोग हुवा है, अष्टादशपुराण के लिये नहीं। दयानन्दजी का मत आज भी अजेय है तथा पौराणिको के पास आज भी इसका कोई उत्तर नहीं।

||ओ३म॥