Category Archives: Manu Smriti

अनार्यों को आर्य बनाने सबन्धी डॉ अबेडकर का मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) ‘‘आर्यों ने हमेशा अनार्यों को आर्य बनाने का प्रयत्न किया अर्थात् उन्हें आर्य संस्कृति का अनुयायी बनाने का प्रयत्न किया।’’ (वही, खंड 7, पृ. 326)

(ख) ‘‘आर्य न केवल अपने ढंग से इच्छुक अनार्यों को अपनी जीवनपद्धति में परिवर्तित कर रहे थे, जो आर्यों की यज्ञ-संस्कृति और चातुर्वर्ण्य सिद्धान्त और यहां तक कि वे उनके वेदों तक के विरोधी थे।’’ (वही, खंड 7, पृ0 327)

इन श्लोकार्थों को पढ़कर कौन पाठक यह मानने के लिए विवश नहीं होगा कि ‘डॉ. अबेडकर मनुस्मृति में वर्णपरिवर्तन का विधान मानते हैं।’ यदि वे अन्यत्र अपने ही इन कथनों के विरुद्ध कुछ कहते हैं तो इसका अभिप्राय है कि उनके लेखन में परपरविरोध है। उक्त श्लोकार्थ डॉ0 अबेडकर ने प्रमाण के रूप उद्धृत किये हैं। किसी भी लेखक के द्वारा किसी संदर्भ को प्रमाण रूप में उद्धृत करने का भाव यह होता है कि लेखक उनको प्रामाणिक मानता है। यहां मनु के वर्णपरिवर्तन के सिद्धान्त को भी डॉ0 अबेडकर ने स्वीकार कर लिया है। वर्णपरिवर्तन का निर्दोष सिद्धान्त है, स्वतन्त्रता और उदारता का सिद्धान्त है, जो सर्वथा आपत्तिरहित है। यह जातिव्यवस्था में संभव नहीं होता। फिर भी मनु का विरोध क्यों? इसका उत्तर उपर्युक्त संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में डॉ0 अबेडकर को देना चाहिए था, अथवा अब उनके अनुयायियों को देना चाहिए।

डॉ अबेडकर का वर्णपरिवर्तन समर्थक मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ. अबेडकर ने अपनी समीक्षाओं में वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन के सिद्धान्त को स्वीकार करके उसे उत्तम व्यवस्था माना है और जातिव्यवस्था से भिन्न अपितु परस्परविरोधी व्यवस्था माना है। इस विषयक डॉ0 अबेडकर के उद्धरण पूर्व उद्धृत किये जा चुके हैं। यहां वर्णपरिवर्तन विषयक उनके मन्तव्यों को तथा मनुस्मृति के उन श्लोकार्थों को उद्धृत किया जाता है जिन्हें डॉ0 अबेडकर ने अपने ग्रन्थों में प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया है-

(क) ‘‘अन्य समाजों के समान भारतीय समाज भी चार वर्णों में विभाजित था, ये हैं-1. ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग, 2. क्षत्रिय या सैनिक वर्ग 3. वैश्य अथवा व्यापारिक वर्ग, 4. शूद्र तथा शिल्पकार और श्रमिक वर्ग। इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा कि आरंभ में यह अनिवार्य रूप से वर्ग-विभाजन के अन्तर्गत व्यक्ति की दक्षता के आधार पर अपना वर्ण बदल सकता था और इसीलिए वर्णों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी’’

(डॉ0 अबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ 30)

(ख) ‘‘इस बात की पुष्टि के लिए परपरा के आधार पर पर्याप्त प्रमाण हैं, जिनका उल्लेख धार्मिक साहित्य में हुआ है……… इस परपरा के अनुसार किसी भी व्यक्ति के वर्ण का निश्चय करने का काम अधिकारियों के एक दल द्वारा किया जाता था, जिन्हें ‘मनु’ और ‘सप्तर्षि’ कहते थे। व्यक्तियों के समूह में से ‘मनु’ उनका चुनाव करता था, जो क्षत्रिय और वैश्य होने के योग्य होते थे और ‘सप्तर्षि’ उन व्यक्तियों को चुनते थे जो ब्राह्मण होने के योग्य होते थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने के लिए ‘मनु’ और ‘सप्तर्षियों’ द्वारा व्यक्तियों का चुनाव करने के बाद बाकी व्यक्ति जो नहीं चुने जा सकते थे, वे शूद्र कहलाते थे।…….हर चौथे वर्ष अधिकारियों का नया दल नया चुनाव करने के लिए नियुक्त होता था, जिसकी पद संज्ञा वही ‘मनु’ और ‘सप्तर्षि’ होती थी। इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गये होते थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे।’’     (वही, खंड 7, पृ0 170)

(ग) ‘‘जिस प्रकार कोई शूद्र ब्राह्मणत्व को और कोई ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न शूद्र भी क्षत्रिय और वैश्यत्व को प्राप्त होता है।’’ [मनु0 10.65] (वही, खंड 13, पृ0 85)

(घ) ‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकाररहित है, और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है।’’ [मनु0 9.335] (वही, खंड 9, पृ0 117)

(ङ)  ‘‘बड़ों के साथ सबन्ध करता हुआ और नीचों का त्याग करता हुआ ब्राह्मण श्रेष्ठता को पाता है। इसके विरुद्ध आचरण करता हुआ शूद्रता को पाता है।’’ [मनु0 4.245] (वही, खंड 6, पृ0 144)

(च) ‘‘लेकिन जो प्रातःकाल इसका खड़े होकर और संध्या समय में बैठकर पाठ नहीं करता है, उसे शूद्र समझकर प्रत्येक द्विज कर्म से बहिष्कृत कर देना चाहिए।’’ [मनु0 2.103] (वही, खंड 7, पृ0 245)

(छ) ‘‘कोई द्विज यदि वेदाध्ययन नहीं करता है और अन्य (सांसारिक ज्ञान) के अध्ययन में रत रहता है तो वह शीघ्र ही, अपितु अपने जीवन काल में ही शूद्र की स्थिति प्राप्त करता है और उसके बाद उसकी सन्तति भी (मनुस्मृति 2.168)। (वही, खंड 8, पृ0 209, 256 तथा अन्य)

सवर्ण-असवर्ण जातियों में गोत्रों की एकरूपता का कारण ‘वर्णपरिवर्तन’: डॉ सुरेन्द्र कुमार

भारत की गोत्रपद्धति नृवंश के इतिहास पर प्रकाश डालने वाली अद्भुत परपरा है। इससे मूलपिता तथा मूल परिवार का ज्ञान होता है। वर्तमान में ब्राह्मण-जातियों, क्षत्रिय-जातियों, वैश्य-जातियों और दलित-जातियों में समान रूप से पाये जाने वाले गोत्र, उस ऐतिहासिक वंश-परपरा के पुष्ट प्रमाण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि वे सभी एक ही पिता के वंशज हैं। पहले वर्णव्यवस्था में जिसने गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वे उस वर्ण के कहलाने लगे। बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा-नीचा वर्णपरिवर्तन होता रहा। किसी क्षेत्र में किसी गोत्र-विशेष का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण में रह गया, तो कहीं क्षत्रिय, तो कहीं शूद्र कहलाया। कालक्रमानुसार जन्म के आधार पर उनकी जाति रूढ़ और स्थिर हो गयी।

आज हम देखते हैं कि सब वर्णों के गोत्र प्रायः सभी जातियों में हैं। कौशिक ब्राह्मण भी हैं, क्षत्रिय भी। कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण भी हैं, राजपूत भी, पिछड़ी जाति वाले भी। वसिष्ठ ब्राह्मण भी हैं, दलित भी। दलितों में राजपूतों और जाटों के अनेक गोत्र हैं। सिंहल-गोत्रीय क्षत्रिय भी हैं, बनिये भी। राणा, तंवर, गहलोत-गोत्रीय जाटाी हैं, राजपूत भी। राठी-गोत्रीय जन जाट भी हैं, बनिये भी। गोत्रों की यह एकरूपता सिद्ध करती है कि कभी ये लोग एक पिता के वंशज या एक वर्ण के थे। व्यवस्थाओं और परिस्थितियों ने उनको उच्च-निन स्थिति में ला दिया और जन्मना जातिवाद ने उसे सुस्थिर कर दिया।

हीन कर्मों से वर्णपतन : डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) उत्तमानुत्तमान् गच्छन् हीनान् हीनांश्च वर्जयन्।

    ब्राह्मणः   श्रेष्ठतामेति   प्रत्यवायेन   शूद्रताम्॥ (4.245)

    अर्थ-ब्राह्मण-वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ-अतिश्रेष्ठ व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच-नीचतर व्यक्तियों का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है, अर्थात् ब्राह्मणत्व का बोधक श्रेष्ठाचरण होता है, जब तक श्रेष्ठाचरण है तो वह ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है। निन वर्ण का आचरण होने पर वही ब्राह्मण शूद्र कहलाता है।

(ख) न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।

    स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥ (2.103)

    अर्थ-जो द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य प्रातःकालीन संध्या नहीं करता और जो सायंकालीन संध्या भी नहीं करता। वह शूद्र के समान है, उसको द्विजों के सभी अधिकारों या कर्त्तव्यों से बहिष्कृत कर देना चाहिए अर्थात् उसे ‘शूद्र’ घोषित कर देना चाहिए।

(ग) योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

    स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥ (2.168)

    अर्थ-जो द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वेदाध्ययन का त्याग कर अन्य विद्याओं में ही परिश्रम करता रहता है, वह जीते-जी अपने आश्रित परिजनों के सहित शूद्रता को प्राप्त हो जाता है। क्योंकि, उसका ब्राह्मणत्व प्रदान करने वाला वेदाध्ययन छूटने से उसके आश्रित परिजनों का भी छूट जाता है, अतः वह परिवार शूद्र कहलाता है।

(घ)     यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।

         नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः॥     (2.126)

    अर्थ-‘जो द्विजाति अािवादन के उत्तर में अभिवादन करना नहीं जानता अर्थात् अभिवादन का विधिवत् उत्तर नहीं देता, बुद्धिमान् को उसे अभिवादन नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैसा शूद्र होता है वह वैसा ही है। अर्थात् उसको शूद्र समझना चाहिए, चाहे वह किसी भी उच्चवर्ण का हो।’ इससे यह भी संकेत मिलता है कि शिक्षितों की परपरा को न जानने वाला अशिक्षित व्यक्ति शूद्र होता है। निष्कर्ष यह है कि शूद्रत्व मुयतः अशिक्षा पर आधारित होता है।

(ङ) अब वर्णपतन का एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण लीजिए। मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था में केवल वर्णपरिवर्तन और वर्णपतन ही नहीं होता था अपितु बालक या युवक वर्णव्यवस्था से बाह्य भी हो जाता था अर्थात् आर्यत्व से ही पतित हो जाता था। मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था में शिक्षा का बहुत महत्त्व था और उसे सर्वोच्च प्राथमिकता थी। निर्धारित आयु में उपनयन संस्कार न कराने वाला और किसी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा न प्राप्त करने वाला युवक आर्य वर्णों से बहिष्कृत कर दिया जाता था और उसके सभी वैधानिक व्यवहार वर्जित हो जाते थे। जन्म से वर्ण मानने पर ऐसा विधान करना संभव नहीं हो सकता, अतः यह कर्म पर आधारित वर्णव्यवस्था की प्रक्रिया थी-

अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः।

सावित्रीपतिता व्रात्याः भवन्त्यार्यविगर्हिताः।। (2.39)

नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि   हि कर्हिचित्।

ब्राह्मान्यौनांश्च सबन्धानाचरेद् ब्राह्मणः सह॥ (2.40)

    अर्थ-निर्धारित अधिकतम आयु में भी शिक्षाप्राप्ति के लिए उपनयन संस्कार न कराने वाले युवक सावित्रीव्रत से पतित (उपनयन के अधिकार से वंचित) हो जाते हैं। ये ‘व्रात्य’ आर्यों द्वारा निन्दित एवं बहिष्कृत होते हैं। कोई भी द्विज इन पतितों के साथ वैधानिक अध्ययन-अध्यापन एवं विवाह सबन्धों को न रखे।’

आर्य वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत या पतित ये व्यक्ति यदि पुनः किसी वर्ण में शिक्षार्थ दीक्षित होना चाहते थे तो उसका अवसर भी उन्हें प्राप्त था। ये प्रायश्चित्त करके वर्णव्यवस्था में समिलित हो सकते थे (मनु0 11.191-192, 212-214)।

शूद्र द्वारा उच्च वर्ण की प्राप्ति का मनुप्रोक्त विधान: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वैदिक अर्थात् मनु की वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में एक बहुत बड़ा अन्तर यह है कि व्यक्ति को आजीवन वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता होती है। वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन हो सकता है जबकि जातिव्यवस्था में जहां जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त वही जाति रहती है। मनु की व्यवस्था वर्णव्यवस्था थी, क्योंकि उसमें व्यक्ति को आजीवन वर्ण-परिवर्तन की स्वतन्त्रता थी। इस विषय में पहले मनुस्मृति का एक महत्त्वपूर्ण श्लोक प्रमाणरूप में उद्धृत किया जाता है जो सभी सन्देहों को दूर कर देता है-

(अ)    शूद्र से ब्राह्मणादि और ब्राहमण से शूद्र आदि बनना-

शूद्रो ब्राह्मणताम्-एति, ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च॥ (10.65)

    अर्थात्-‘ब्राह्मण के गुण, कर्म, योग्यता को ग्रहण करके शूद्र, ब्राह्मण बन जाता है और हीन कर्मों से ब्राह्मण शूद्र बन जाता है। इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों से उत्पन्न सन्तानों में भी वर्णपरिवर्तन हो जाता है।

(आ) शूद्र द्वारा उच्च वर्ण की प्राप्ति का मनुप्रोक्त विधान-

(क) श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण और श्रेष्ठाचरण का पालन करके शूद्र उच्च वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का अधिकारी बन जाता है-

    शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः       मृदुवागनहंकृतः।

    ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥       (9.335)

    अर्थ-तन और मन से शुद्ध-पवित्र रहने वाला, उत्कृष्टों के सान्निध्य में रहने वाला, मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्तम वर्णों-वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के यहां सेवाकार्य करने वाला शूद्र अपने से उत्कृष्ट=वैश्य, क्षत्रिय या ब्राह्मण वर्ण को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् वह जिस वर्ण की योग्यता अर्जित कर लेगा उसी वर्ण को धारण करने का अधिकारी बन जायेगा। (यहां जाति शब्द का अर्थ ‘वर्ण’ है। प्रमाण के लिए इसी अध्याय में देखिए-‘मनुस्मृति में जाति शब्द वर्ण और जन्म का पर्याय’ शीर्षक पृ0 90-91 पर)

(ख) मनुस्मृति में, उपर्युक्त सिद्धान्त को नष्ट करने के लिए इससे पहले एक श्लोक प्रक्षिप्त कर दिया है जिसमें यह दिााया गया है कि वर्णपरिवर्तन सातवीं पीढ़ी में होता है। ऐसा विचार मनु की मान्यता के विरुद्ध है। पीढ़ियों का हिसाब संभव भी नहीं है।

वर्णपरिवर्तन के उदाहरण भी भारतीय प्राचीन इतिहास में मिलते हैं और इस सिद्धान्त की पुष्टि-परपरा भी। मनुस्मृति के उक्त श्लोकों के भावों को यथावत् वर्णित करने वाले श्लोक महाभारत में भी उपलध होते हैं। यहां उस प्रसंग की कुछ पंक्तियां उद्धृत की जा रही हैं जिनसे मनुस्मृति की परपरा की पुष्टि होती है-

‘‘कर्मणा दुष्कृतेनेह स्थानाद् भ्रश्यति वै द्विजः।’’

‘‘ब्राह्मण्यात् सः परिभ्रष्टः क्षत्रयोनौ प्रजायते।’’

‘‘स द्विजो वैश्यतां याति वैश्यो वा शूद्रतामियात्।’’

‘‘एभिस्तु कर्मभिर्देवि,   शुभैराचरितैस्तथा।’’

शूद्रो ब्राह्मणतां याति वैश्यः क्षत्रियतां व्रजेत्।

(महाभारत, अनुशासन पर्व अ0 143, 7, 9, 11, 26)

    अर्थात्-दुष्कर्म करने से द्विज वर्णस्थ अपने वर्णस्थान से पतित हो जाता है।……क्षत्रियों जैसे कर्म करने वाला ब्राह्मण भ्रष्ट होकर क्षत्रिय वर्ण का हो जाता है।……..वैश्य वाले कर्म करने वाला द्विज वैश्य और इसी प्रकार शूद्र वर्ण का हो जाता है। हे देवि! इन अच्छे कर्मों के करने और शुभ आचरण से शूद्र, ब्राह्मणवर्ण को प्राप्त कर लेता है और वैश्य, क्षत्रिय वर्ण को। इसी प्रकार अन्य वर्णों का भी परस्पर वर्ण-परिवर्तन हो जाता है।

(ग) महाभारत का एक अन्य श्लोक जो दो स्थानों पर आया है मनुस्मृति की कर्माधारित वर्णव्यवस्था की पुष्टि करता है तथा कर्मानुसार वर्णपरिवर्तन के सिद्धान्त को प्रस्तुत करता है-

शूद्रे तु यत् भवेत् लक्ष्म द्विजे तच्च न विद्यते।

न वै शूद्रो भवेत् शूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः॥

(वनपर्व 180.19; शान्तिपर्व 188.1)

    अर्थात्-शूद्र में जो लक्षण या कर्म होते हैं वे ब्राह्मण में नहीं होते। ब्राह्मण के कर्म और लक्षण शूद्र में नहीं होते। यदि शूद्र में शूद्र वाले लक्षण न हों तो वह शूद्र नहीं होता और ब्राह्मण में ब्राह्मण वाले लक्षण न हों तो वह ब्राह्मण नहीं होता। अभिप्राय यह है कि लक्षणों और कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति उस वर्ण का होता है जिसके लक्षण या कर्म वह ग्रहण कर लेता है।

(घ) यह परपरा सूत्र-ग्रन्थों में भी मिलती है। आपस्तब धर्मसूत्र में बहुत ही स्पष्ट शदों में उच्च-निन वर्णपरिवर्तन का विधान किया है-

धर्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ।

अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ॥

(1.5.10-11)

    अर्थ-निर्धारित धर्म के आचरण से निचला वर्ण उच्च वर्ण को प्राप्त कर लेता है, उस-उस वर्ण की वैधानिक दीक्षा लेने के बाद। इसी प्रकार अधर्माचरण करने पर उच्च वर्ण निचले वर्ण में चला जाता है, आचरण के अनुसार वर्णपरिवर्तन की वैधानिक स्वीकृति या घोषणा होने के बाद।

वर्णों के नामों का अर्थ एवं व्युत्पत्ति-डॉ सुरेन्द्र कुमार

व्याकरण की भाषा में कहें तो वर्णों के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम यौगिक पद हैं और गुणवाचक हैं। इन नामों में ही इनके कर्त्तव्यों का संकेत निहित है। वैदिक संस्कृत के इन शदों की रचना और व्युत्पत्ति इस प्रकार है-

    (क) ब्राह्मण-‘ब्रह्मन्’ पूर्वक ‘अण्’ प्रत्यय के योग से ‘ब्राह्मण’ पद बनता है। ब्रह्म के वेद, ईश्वर, ज्ञान आदि अर्थ हैं।        ब्रह्मणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन सह वर्तमानः ब्राह्मणः=ब्रह्म अर्थात् वेदपाठी, परमेश्वर के उपासक और ज्ञानी गुण वाले वर्ण या व्यक्ति को ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है। जिसमें ये गुण नहीं, वह ब्राह्मण नहीं है।

    (ख) क्षत्रिय-‘क्षत’ पूर्वक ‘त्रै’ धातु से ‘उ’ प्रत्यय होकर ‘क्षत्र’ पद बनता है। क्षत्र ही क्षत्रिय कहलाता है। ‘क्षदति रक्षति जनान् सः क्षत्रः’ = जो प्रजा की सुरक्षा, संरक्षा करता है, उस गुणवाले को ‘क्षत्रिय’ या ‘क्षत्रियवर्ण’ कहते हैं। आज उसे राजा, राजनेता, सेनाधिकारी या सैनिक कहते हैं।

    राजन्य-यह क्षत्रिय का पर्याय है। ‘राजन्’ पूर्वक ‘यत्’ प्रत्यय से यह सिद्ध होता है। प्रजाओं की रक्षा करने वाले ‘राजन्य’ कहलाते हैं। ये प्रजाओं की रक्षा के लिए सदा उद्यत रहते हैं।

    (ग) वैश्य-‘विश’ से ‘यत्’ और ‘अण्’ प्रत्यय होकर ‘वैश्य’ पद की रचना होती है। ‘विशति पण्यविद्यासु सः वैश्यः’ = जो वाणिज्य विद्याओं में प्रविष्ट रहता है, संलग्न रहता है, उस गुण वाले को वैश्यवर्ण या वैश्य कहते हैं। आज उसे व्यापारी कहते हैं। जिसमें ये गुण नहीं वह वैश्य नहीं कहला सकता।

    (घ) शूद्र-‘शु अव्यय पूर्वक ‘द्रु गतौ’ धातु से’ ‘ड’ प्रत्यय के योग से ‘शूद्र’ बनता है ‘शु द्रवति इति’= जो स्वामी की आज्ञा से इधर-उधर आता-जाता है अर्थात् जो सेवा या श्रम का कार्य करता है। अथवा, ‘शुच्-शोके’ धातु से औणादिक ‘रक्’ प्रत्यय और च को द होकर शूद्र शब्द बनता है [उणादि0 2.19]। ‘शोच्यां स्थितिमापन्नः’ = जो अपनी निन जीवन स्थिति से चिन्तायुक्त रहता है कि मैं निन वर्ण का क्यों रहा, उच्च वर्ण का क्यों नहीं हुआ! इस कारण चतुर्थ वर्ण का नाम ‘शूद्र’ है। यह ‘एक-जाति’ अर्थात् एक जन्म वाला (दूसरे ‘विद्या जन्म’ से रहित) होने से अनपढ़ या विधिपूर्वक अशिक्षित होता है। आज उसे सेवक, चाकर, परिचारक, अर्दली, श्रमिक, सर्वेंट, पीयन आदि कहते हैं। विधिवत् शिक्षित और उपर्युक्त तीन वर्णों का कार्य करने वाले शूद्र नहीं कहे जा सकते

    (ङ) डॉ0 अबेडकर का मत-डॉ0 अबेडकर ने मनुस्मृति के श्लोक ‘‘वैश्यशूद्रौ प्रयत्नेन स्वानि कर्माणि कारयेत्’’ (8.418) का अर्थ करते हुए शूद्र का ‘मजदूर’ अर्थ स्वीकार किया है-

‘‘राजा आदेश दे कि व्यापारी तथा मजदूर अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करें।’’ (अबेडकर वाङ्मय, खंड 6, पृ. 61)

डॉ0 अबेडकर का यह सही अर्थ है। ऐसी मान्यता स्वीकार कर लेने पर ‘शूद्र’ शब्द को घृणास्पद मानने का कोई औचित्य नहीं।

महर्षि मनु द्वारा निर्धारित वर्णों के अनिवार्य कर्तव्य-डॉ सुरेन्द्र कुमार

वेदवर्णित इन मन्त्रों को आधार बनाकर पहले ब्रह्मा ने और फिर मनु ने चार वर्णों (समुदायों) के कर्तव्य -कर्म निर्धारित किये। इसका भाव यह है कि जो व्यक्ति जिस वर्ण का चयन करेगा उसको विहित कर्मों का पालन करना होगा। निर्धारित कर्मों का पालन न करने वाला व्यक्ति उस वर्ण का नहीं माना जायेगा। इसी प्रकार किसी वर्ण-विशेष के कुल में जन्म लेने मात्र से भी कोई व्यक्ति उस वर्ण का नहीं माना जा सकता। जैसे कोई अध्यापन बिना अध्यापक, चिकित्सा बिना डॉक्टर, सेना बिना सैनिक, व्यापार बिना व्यापारी, श्रमकार्य बिना श्रमिक नहीं कहला सकता, उसी प्रकार निर्धारित कर्मों के किये बिना कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नहीं माना जा सकता।

(क)    ब्राह्मण वर्ण का चयन करने वाले स्त्रियों और पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजन तथा।      

दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥     (1.88)

    अर्थ-ब्राह्मण वर्ण में दीक्षा लेने के इच्छुक स्त्री-पुरुषों के लिए ये कर्तव्य और आजीविका के कर्म निर्धारित किये हैं-‘विधिवत् पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना तथा दान प्राप्त करना और सुपात्रों को दान देना।’ इन कर्मों के बिना कोई ब्राह्मण-ब्राह्मणी नहीं हो सकता।

(ख)    क्षत्रिय वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्रियों-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।      

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥     (1.89)

    अर्थ-विधिवत् पढ़ना, यज्ञ करना, प्रजाओं का पालन-पोषण और रक्षा करना, सुपात्रों को दान देना, धन-ऐश्वर्य में लिप्त न होकर जितेन्द्रिय रहना, ये संक्षेप में क्षत्रिय वर्ण को धारण करने वाले स्त्री-पुरुषों के कर्तव्य हैं। विस्तार से इनके कर्तव्य मनुस्मृति के अध्याय 7, 8, 9 में बतलाये हैं। वहां देखे जा सकते हैं।

महर्षि दयानन्द ने क्षत्रिय के कर्त्तव्यों के अन्तर्गत ‘इज्या’ शब्द के अर्थ ‘यज्ञ करना और कराना’ दोनों किये हैं (समु0 4)। यह वर्णव्यवस्था के अनुसार सही है। यज्ञानुष्ठान क्षत्रिय और वैश्य भी करा सकते हैं क्योंकि वे प्रशिक्षित और वेदवित् होते हैं, किन्तु वे इसको नियमित आजीविका नहीं बना सकते, क्योंकि वह केवल ब्राह्मण के लिए ही निर्धारित है। इसी प्रकार एक मतानुसार क्षत्रिय और वैश्य अपने तथा अपने से निन वर्ण का उपनयन संस्कार भी करा सकते हैं-

    ‘‘ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्त्तुमर्हति, राजन्यो द्वयस्य, वैश्यस्य, शूद्रमपि कुल-गुण-सपन्नं मन्त्रवर्जमुपनीतमध्यापये-दित्येके।’’ (सुश्रुत संहिता, सूत्रस्थान, अ0 2)

अर्थात्-‘ब्राह्मण अपने सहित तीन वर्णों का, क्षत्रिय अपने सहित निन दो का, वैश्य अपने सहित निन एक वर्ण का उपनयन करा सकता है।’ यह संस्कार यज्ञपूर्वक ही होता है।

(ग) वैश्य वर्णेच्छुक स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्तव्य –

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च।    

वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥   (1.90)

    अर्थ-पशुओं का पालन-पोषण एवं संवर्धन करना, सुपात्रों को दान देना, यज्ञ करना, विधिवत् अध्ययन करना, व्यापार करना, याज से धन कमाना, खेती करना, ये वैश्य वर्ण को ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म हैं।

(घ) शूद्र वर्णधारक स्त्री-पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-

एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।      

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥ (1.91)

    अर्थ-परमात्मा ने वेदों में शूद्र वर्ण ग्रहण करने वाले स्त्री-पुरुषों के लिए एक ही कर्म निर्धारित किया है, वह यह है कि ‘इन्हीं चारों वर्णों के व्यक्तियों के यहां सेवा या श्रम का कार्य करके जीविका करना।’ क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति शूद्र होता है अतः वह सेवा या श्रम का कार्य ही कर सकता है, अतः उसके लिए यही एक निर्धारित कर्म है।

मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था की वेदमूलकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु स्वयं स्वीकार करते हैं कि मनुस्मृति में वर्णित गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित वर्णव्यवस्था वेदमूलक है। इसका वर्णन तीन वेदों (ऋग्0 10.90.11-12; यजु0 31.10-11; अथर्व0 19.6.5-6) में पाया जाता है। मनु वेदों को धर्म में परमप्रणाम मानते हैं, अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था को वेदों से ग्रहण करके, उसे धर्ममूलक व्यवस्था मानकर अपने शासन में क्रियान्वित किया तथा अपने धर्मशास्त्र के द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किया।

पाठक इस तथ्य की ओर गभीरतापूर्वक ध्यान दें कि वेदों तथा मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के प्रसंग में वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्ति का नहीं। वहां यह बतलाया गया है कि किस अंग की समानता के आधार पर किस वर्ण की कल्पना की गई अर्थात् किस वर्ण का कैसे नामकरण किया गया। उत्पत्ति सबन्धी मन्त्रों और श्लोकों की व्याया में अनेक व्यायाकार भ्रमित होकर ब्राह्मण, शूद्र आदि व्यक्तियों की उत्पत्ति वर्णित करते हैं, जो वर्णव्यवस्था के मूल सिद्धान्त के ही विरुद्ध है। वेदमन्त्रों का सही अर्थ इस प्रकार है-

प्रश्न    यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।

         मुखं किमस्य, कौ बाहू, का ऊरू पादौ उच्येते ॥

उत्तर        ब्राह्मणो-अस्य मुाम् आसीद् बाहू राजन्यःकृतः।

         ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्यां शूद्रो अजायत ॥

(ऋग्0 10.90.11-12)

    प्रश्न-प्रश्न है कि (यत् पुरुषं वि-अदधुः) जिसको ‘पुरुष’ कहते हैं, उसकी अथवा समाजरूपी पुरुष की किस प्रतीक के रूप में कल्पना की गयी? वह (कतिधा अकल्पयन्) वह कल्पना कितने प्रकार से की गयी? (अस्य मुां किम्) इस समाज या पुरुष का मुख क्या है? (कौ बाहू) भुजाएं क्या हैं? (का ऊरू, पादौ उच्येते) जंघाएं अर्थात् मध्यमार्ग और पैर क्या कहे जाते हैं?

    उत्तर-इस पुरुष का, अथवा समाजरूपी पुरुष का (ब्राह्मणः मुखम् आसीत्) ब्राह्मण नामक वर्ण मुख = मुखमण्डल हुआ अर्थात् मुखमण्डल के गुणों के आधार पर प्रथम वर्र्ण का ‘ब्राह्मण वर्ण’ नाम रखा गया (बाहू राजन्यः कृतः) भुजा ‘क्षत्रिय वर्ण’ को बनाया गया अर्थात् भुजाओं के गुणों के अनुसार ‘राजन्य=क्षत्रिय वर्ण’ नाम रखा गया (यद् वैश्यः तद् अस्य ऊरू) जो ‘वैश्य वर्ण’ है, वह इसका मध्यभाग या जंघा रूप कहा गया अर्थात् पेट आदि मध्यभाग के गुणों के अनुसार ‘वैश्य वर्ण’ नाम रखा गया (शूद्रः पद्याम् अजायत) ‘शूद्रवर्ण’ पैरों की तुलना से निर्मित हुआ अर्थात् पैरों के गुणों के अनुसार ‘शूद्रवर्ण’ का नाम रखा गया।

    प्रश्न -आपने वर्णव्यवस्था का विधान करने वाले वेदमन्त्रों का अर्थ वर्ण की उत्पत्तिपरक किया है जबकि अन्य व्यायाकार वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्तिपरक अर्थ करते हैं। इनमें से किस व्याया को ठीक मानें? मनुस्मृति में किस प्रकार उत्पत्ति बतायी है?

    उत्तर     -यहां प्रस्तुत व्याया ही ठीक तथा शास्त्रानुकूल है। सबसे पहले इसमें वेदों के व्यायाग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण का प्रमाण देता हूं। वहां एक आयापिका में वर्णों की उत्पत्ति बतलाते हुए पहले वर्णों की उत्पत्ति ही कही है-

‘‘ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव…….तत् असृजत् क्षत्रम्…… स विशमसृजत् सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’ (14.4.2.23-25)

यहां उत्पत्ति-प्रक्रिया में स्पष्टतः वर्णों की उत्पत्ति पहले कही है। तर्क के आधार पर भी उक्त व्याया सही है। इसमें पहला तर्क यह है कि जब पहले वर्ण उत्पन्न होंगे तभी तो व्यक्ति उनमें प्रवेश करेगा। जैसे, पहले आश्रमों, संस्कारों का अविष्कार हुआ। फिर उनमें व्यक्तियों का प्रवेश हुआ। जैसे पहले कक्षा का नाम (मैट्रिक, बी.ए., एम. ए., आचार्य) रखा जाता है। बाद में उसमें प्रवेश होता है। यहां दूसरा तर्क यह है कि उत्पत्ति एक बार ही हुआ करती है। जबकि वर्र्णपरिर्वतन होकर लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र बार-बार बनते रहते हैं। कभी स्वेच्छा से तो कभी दण्डस्वरूप वर्णपतन होता है। यदि ब्राह्मण को मुख से उत्पन्न हुआ कहा जाता है तो वह जब शूद्र घोषित होगा तो दोबारा उसकी उत्पत्ति पैरों से कैसे होगी? वह तो पहले ही उत्पन्न हो चुका है। तीसरा तर्क यह है कि एक वर्ण में करोड़ों लोग हैं, इतनी बड़ी संया में वे कैसे उत्पन्न होंगे? और रोज-रोज कैसे होते रहेंगे? अतः इसे आलंकारिक लाक्षणिक शैली का वर्णन मानना चाहिए। इस प्रकार यहां प्रस्तुत ‘वर्णों की उत्पत्ति’ वाला अर्थ ही तर्कसंगत है।

इस प्रसंग में बहुत-से लोग गलत अर्थ करके और फिर दूसरे उसे पढ़कर भ्रान्ति का शिकार हो जाते है और यह समझते हैं कि पुरुष से सीधे व्यक्तियों की उत्पत्ति बतलायी हैं, अतः वर्णव्यवस्था में सभी लोगों का वर्ण जन्म से ही निर्धारित होता है। यहा्रान्ति अपव्याया से उत्पन्न होती है। महर्षि मनु ने गत वेदमन्त्रों को सही अर्थ में समझा था, अतः उन्होंने भी पहले वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन किया है-

लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुख-बाहूरूपादतः।      

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्॥  (1.31)

    अर्थ- ‘समाज की विशेष उन्नति-समृद्धि के लिए परमात्मा ने मुख, बाहु, जंघा और पैरों के कार्यों की तुलना से क्रमशः ब्राह्मणवर्ण, क्षत्रियवर्ण, वैश्यवर्ण और शूद्रवर्ण को निर्मित किया। वर्णों का निर्माण करके फिर उनके कर्मों का निर्धारण इस प्रकार किया-

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः      

मुखबाहूरुपज्जानां पृथक् कर्माण्यकल्पयत्॥     (1.87)

    अर्थ- ‘इस सपूर्ण संसार की सुरक्षा एवं पालन-पोषण के लिए उस महातेजस्वी परमात्मा ने मुख, बाहु, ऊरु और पैरों की तुलना से निर्मित क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों के पृथक्-पृथक् कर्म निर्धारित किये। उसके बाद 1.89-92 में एक-एक वर्ण के कर्मों का वर्णन है। उन कर्मों को अपनाने के बाद ही व्यक्ति फिर उस-उस वर्ण का नाम धारण करता है। क्योंकि बिना वर्णनाम निर्धारित हुए और बिना कर्मों को धारण किये कोई ब्राह्मण नहीं कहला सकता। इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी नहीं कहला सकते। इस प्रकार वर्णस्थ व्यक्ति बनने का क्रम तो वणर्ोत्पत्ति और कर्म निर्धारण के पश्चात् तीसरे क्रम पर आता है। अतः पहले वर्णोत्पत्ति का होना ही अभीष्ट एवं बुद्धिसंगत है।

एक ही पुरुष से चार वर्णों की उत्पत्ति होने से वर्णों में ऊंच-नीच का भाव भी नहीं हो सकता है। यह केवल योग्यता का क्रम वर्णित है। पैरों के गुणों की समानता से शूद्रवर्ण की उत्पत्ति में भी नीचता या हीनता का भाव नहीं है। वैदिक साहित्य में पूषा देव, पृथ्वी, मन्त्रों की उत्पत्ति पैरों से कही गयी है। क्या इन देवों और मन्त्रों को हम नीच मान लेंगे? इसी प्रकार शूद्र वर्ण में भी नीचता का भाव नहीं समझना चाहिए। (विस्तृत विवेचन अ0 चार में पढ़िए।)

मनुस्मृति में ‘जाति’ शब्द ‘वर्ण’ और ‘जन्म’ का पर्याय: डॉ सुरेन्द्र कुमार

पाठकों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि मनुस्मृति में अनेक श्लोकों में वर्ण के बजाय ‘जाति’ शब्द का प्रयोग है। क्या मनु ‘जाति’ को स्वीकार करते हैं?

(अ) इसका उत्तर पूर्वोक्त ही है कि जाति का ‘जन्मना’ ‘जाति’ अर्थ नहीं है, क्योंकि वर्णव्यवस्था में जन्मना जाति स्वीकार्य नहीं थी और न मनु के समय जातियों का उद्भव ही हुआ था। उस समय ‘जाति’ शब्द भी वर्ण या समुदाय के पर्याय के रूप में ही प्रयुक्त होता था, जैसे-

(क) ‘‘आचार्यस्त्वस्य यां जातिम्……उत्पादयति सावित्र्या।’’

(2.148)

अर्थ-आचार्य बालक-बालिका के जिस वर्ण का गायत्रीपूर्वक निर्धारण करता है।

(ख)    ‘‘जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्’’ (4.141)

अर्थ-अपने से निन वर्ण वालों पर कभी कटाक्ष न करे।

(ग) ‘‘मुखबाहूरूपज्जानां या लोके जातयो बहिः।’’  (10.45)

अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण-व्यवस्था से जो समुदाय बाहर हैं, वे सब दस्यु हैं।

(घ) ‘‘जातिं वितथेन ब्रुवन् दाप्यः’’ (8.273)

अर्थ-अपना वर्ण झूठ बतलाने वाला दण्डनीय है।

(आ) इसके अतिरिक्त मनुस्मृति में जाति शब्द का प्रयोग ‘जन्म’ के पर्याय रूप में हुआ है ‘जन्मना जाति’ के अर्थ में नहीं। कुछ उदाहरण हैं-

(क) ‘‘एकजातिः’’ = एक जन्म वाला अर्थात् शूद्र वर्ण, जिसका विद्याजन्म रूपी दूसरा जन्म नहीं हुआ (10.4)।

(ख) ‘‘द्विजातिः’’ = जिसके शारीरिक तथा विद्याजन्म, ये दो जन्म हुए हैं, वे वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हैं (10.4)।

(ग) ‘‘जात्यन्धबधिरौ’’ = जन्म से अन्धे और बहरे (9.201)।

(घ) ‘‘जातिं स्मरति पौर्विकीम्’’ = योगी पूर्व जन्म को स्मरण कर लेता है (4.148)

मनुस्मृति के मौलिक प्रसंगों में पठित जाति शब्द का जाति-पांति व्यवस्था से कोई सबन्ध नहीं है।

डॉ अबेडकर के मतानुसार वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ. अबेडकर वर्णव्यवस्था एवं जातिव्यवस्था को परस्पर विरोधी मानते हैं और वर्णव्यवस्था के मूलतत्त्वों की प्रशंसा करते हैं। उन्हीं के शदों में उनके मत उद्धृत हैं-

(क) ‘‘जाति का आधारभूत सिद्धान्त वर्ण के आधारभूत सिद्धान्त से मूलरूप से भिन्न है, न केवल मूल रूप से भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर-विरोधी है। पहला सिद्धान्त (वर्ण) गुण पर आधारित है’’ (अबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ. 81)

(ख) वर्ण और जाति दोनों का एक विशेष महत्त्व है जिसके कारण दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। वर्ण तो पद या व्यवसाय किसी भी दृष्टि से वंशानुगत नहीं है। दूसरी ओर, जाति में एक ऐसी व्यवस्था निहित है जिसमें पद और व्यवसाय, दोनों ही वंशानुगत हैं, और इसे पुत्र अपने पिता से ग्रहण करता है। जब मैं कहता हूं कि ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया, तब मेरा आशय यह है कि इसने पद और व्यवसाय को वंशानुगत बना दिया।’’ (वही खंड 7, पृ0 169)

(ग) ‘‘वर्ण निर्धारित करने का अधिकार गुरु से छीनकर उसे पिता को सौंपकर ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया।’’ (वही, खंड 7, पृ0 172)

(घ) ‘‘वर्ण और जाति, दो अलग-अलग धारणाएं है। वर्ण इस सिद्धान्त पर टिका हुआ है कि प्रत्येक को उसकी योग्यता के अनुसार, जबकि जाति का सिद्धान्त है कि प्रत्येक को उसके जन्म के अनुसार। दोनों में इतना ही अन्तर है जितना पनीर और खड़िया में।’’ (वही, खंड 1, पृ0 119)

(ङ) ‘‘वर्ण के अधीन कोई ब्राह्मण मूढ़ नहीं हो सकता। ब्राह्मण के मूढ़ होने की संभावना तभी हो सकती है, जब वर्ण जाति बन जाता है, अर्थात् जब कोई जन्म के आधार पर ब्राह्मण हो जाता है।’’ (वही, खंड 7, पृ0 173)

(च) ‘‘जाति और वर्ण में क्या अन्तर है, जो महात्मा (गांधी) ने समझा है? जो परिभाषा महात्मा ने दी है उसमें मैं कोई अन्तर नहीं पाता हूं। जो परिभाषा महात्मा ने दी है उसके अनुसार तो वर्ण ही जाति का दूसरा नाम है, इसका सीधा कारण यह है कि दोनों का सार एक है अर्थात् पैतृक पेशा अपनाना। प्रगति तो दूर, महात्मा ने अवनति की है। वर्ण की वैदिक धारणा की व्याया करके उन्होंने जो उत्कृष्ट था उसे वास्तव में उपहासप्रद बना दिया है।…..(वह वैदिक वर्णव्यवस्था) केवल योग्यता को मान्यता देती है। वर्ण के बारे में महात्मा के विचार न केवल वैदिक वर्ण को मूर्खतापूर्ण बनाते हैं, बल्कि घृणास्पद भी बनाते हैं। वर्ण और जाति, दो अलग-अलग धारणाएं हैं। अगर महात्मा विश्वास करते हैं, जो वह अवश्य करते हैं कि प्रत्येक को अपना पैतृक पेशा अपनाना चाहिए, तो निश्चित रूप से जातपांत की वकालत कर रहे हैं तथा इसको वर्णव्यवस्था बताकर न केवल परिभाषिक झूठ बोल रहे हैं, बल्कि बदतर और हैरान करने वाली भ्रांति फैला रहे हैं। मेरा मानना है कि सारी भ्रान्ति इस कारण से है कि महात्मा की धारणा निश्चित और स्पष्ट नहीं है कि वर्ण क्या है और जाति क्या है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 119)

उपर्युक्त बहुत-से उद्धरणों में हमने देखा कि डॉ0 अबेडकर जाति और वर्ण को बिल्कुल भिन्न मानते हैं और वर्ण को श्रेष्ठ तथा आपत्तिरहित भी मानते हैं। मनु की व्यवस्था भी वर्णव्यवस्था है, जाति व्यवस्था नहीं। फिर भी मनु का विरोध क्यों?