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डॉ अबेडकर का वर्णपरिवर्तन समर्थक मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ. अबेडकर ने अपनी समीक्षाओं में वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन के सिद्धान्त को स्वीकार करके उसे उत्तम व्यवस्था माना है और जातिव्यवस्था से भिन्न अपितु परस्परविरोधी व्यवस्था माना है। इस विषयक डॉ0 अबेडकर के उद्धरण पूर्व उद्धृत किये जा चुके हैं। यहां वर्णपरिवर्तन विषयक उनके मन्तव्यों को तथा मनुस्मृति के उन श्लोकार्थों को उद्धृत किया जाता है जिन्हें डॉ0 अबेडकर ने अपने ग्रन्थों में प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया है-

(क) ‘‘अन्य समाजों के समान भारतीय समाज भी चार वर्णों में विभाजित था, ये हैं-1. ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग, 2. क्षत्रिय या सैनिक वर्ग 3. वैश्य अथवा व्यापारिक वर्ग, 4. शूद्र तथा शिल्पकार और श्रमिक वर्ग। इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा कि आरंभ में यह अनिवार्य रूप से वर्ग-विभाजन के अन्तर्गत व्यक्ति की दक्षता के आधार पर अपना वर्ण बदल सकता था और इसीलिए वर्णों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी’’

(डॉ0 अबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ 30)

(ख) ‘‘इस बात की पुष्टि के लिए परपरा के आधार पर पर्याप्त प्रमाण हैं, जिनका उल्लेख धार्मिक साहित्य में हुआ है……… इस परपरा के अनुसार किसी भी व्यक्ति के वर्ण का निश्चय करने का काम अधिकारियों के एक दल द्वारा किया जाता था, जिन्हें ‘मनु’ और ‘सप्तर्षि’ कहते थे। व्यक्तियों के समूह में से ‘मनु’ उनका चुनाव करता था, जो क्षत्रिय और वैश्य होने के योग्य होते थे और ‘सप्तर्षि’ उन व्यक्तियों को चुनते थे जो ब्राह्मण होने के योग्य होते थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने के लिए ‘मनु’ और ‘सप्तर्षियों’ द्वारा व्यक्तियों का चुनाव करने के बाद बाकी व्यक्ति जो नहीं चुने जा सकते थे, वे शूद्र कहलाते थे।…….हर चौथे वर्ष अधिकारियों का नया दल नया चुनाव करने के लिए नियुक्त होता था, जिसकी पद संज्ञा वही ‘मनु’ और ‘सप्तर्षि’ होती थी। इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गये होते थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे।’’     (वही, खंड 7, पृ0 170)

(ग) ‘‘जिस प्रकार कोई शूद्र ब्राह्मणत्व को और कोई ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न शूद्र भी क्षत्रिय और वैश्यत्व को प्राप्त होता है।’’ [मनु0 10.65] (वही, खंड 13, पृ0 85)

(घ) ‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकाररहित है, और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है।’’ [मनु0 9.335] (वही, खंड 9, पृ0 117)

(ङ)  ‘‘बड़ों के साथ सबन्ध करता हुआ और नीचों का त्याग करता हुआ ब्राह्मण श्रेष्ठता को पाता है। इसके विरुद्ध आचरण करता हुआ शूद्रता को पाता है।’’ [मनु0 4.245] (वही, खंड 6, पृ0 144)

(च) ‘‘लेकिन जो प्रातःकाल इसका खड़े होकर और संध्या समय में बैठकर पाठ नहीं करता है, उसे शूद्र समझकर प्रत्येक द्विज कर्म से बहिष्कृत कर देना चाहिए।’’ [मनु0 2.103] (वही, खंड 7, पृ0 245)

(छ) ‘‘कोई द्विज यदि वेदाध्ययन नहीं करता है और अन्य (सांसारिक ज्ञान) के अध्ययन में रत रहता है तो वह शीघ्र ही, अपितु अपने जीवन काल में ही शूद्र की स्थिति प्राप्त करता है और उसके बाद उसकी सन्तति भी (मनुस्मृति 2.168)। (वही, खंड 8, पृ0 209, 256 तथा अन्य)