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हीन कर्मों से वर्णपतन : डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) उत्तमानुत्तमान् गच्छन् हीनान् हीनांश्च वर्जयन्।

    ब्राह्मणः   श्रेष्ठतामेति   प्रत्यवायेन   शूद्रताम्॥ (4.245)

    अर्थ-ब्राह्मण-वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ-अतिश्रेष्ठ व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच-नीचतर व्यक्तियों का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है, अर्थात् ब्राह्मणत्व का बोधक श्रेष्ठाचरण होता है, जब तक श्रेष्ठाचरण है तो वह ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है। निन वर्ण का आचरण होने पर वही ब्राह्मण शूद्र कहलाता है।

(ख) न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।

    स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥ (2.103)

    अर्थ-जो द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य प्रातःकालीन संध्या नहीं करता और जो सायंकालीन संध्या भी नहीं करता। वह शूद्र के समान है, उसको द्विजों के सभी अधिकारों या कर्त्तव्यों से बहिष्कृत कर देना चाहिए अर्थात् उसे ‘शूद्र’ घोषित कर देना चाहिए।

(ग) योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

    स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥ (2.168)

    अर्थ-जो द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वेदाध्ययन का त्याग कर अन्य विद्याओं में ही परिश्रम करता रहता है, वह जीते-जी अपने आश्रित परिजनों के सहित शूद्रता को प्राप्त हो जाता है। क्योंकि, उसका ब्राह्मणत्व प्रदान करने वाला वेदाध्ययन छूटने से उसके आश्रित परिजनों का भी छूट जाता है, अतः वह परिवार शूद्र कहलाता है।

(घ)     यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।

         नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः॥     (2.126)

    अर्थ-‘जो द्विजाति अािवादन के उत्तर में अभिवादन करना नहीं जानता अर्थात् अभिवादन का विधिवत् उत्तर नहीं देता, बुद्धिमान् को उसे अभिवादन नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैसा शूद्र होता है वह वैसा ही है। अर्थात् उसको शूद्र समझना चाहिए, चाहे वह किसी भी उच्चवर्ण का हो।’ इससे यह भी संकेत मिलता है कि शिक्षितों की परपरा को न जानने वाला अशिक्षित व्यक्ति शूद्र होता है। निष्कर्ष यह है कि शूद्रत्व मुयतः अशिक्षा पर आधारित होता है।

(ङ) अब वर्णपतन का एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण लीजिए। मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था में केवल वर्णपरिवर्तन और वर्णपतन ही नहीं होता था अपितु बालक या युवक वर्णव्यवस्था से बाह्य भी हो जाता था अर्थात् आर्यत्व से ही पतित हो जाता था। मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था में शिक्षा का बहुत महत्त्व था और उसे सर्वोच्च प्राथमिकता थी। निर्धारित आयु में उपनयन संस्कार न कराने वाला और किसी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा न प्राप्त करने वाला युवक आर्य वर्णों से बहिष्कृत कर दिया जाता था और उसके सभी वैधानिक व्यवहार वर्जित हो जाते थे। जन्म से वर्ण मानने पर ऐसा विधान करना संभव नहीं हो सकता, अतः यह कर्म पर आधारित वर्णव्यवस्था की प्रक्रिया थी-

अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः।

सावित्रीपतिता व्रात्याः भवन्त्यार्यविगर्हिताः।। (2.39)

नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि   हि कर्हिचित्।

ब्राह्मान्यौनांश्च सबन्धानाचरेद् ब्राह्मणः सह॥ (2.40)

    अर्थ-निर्धारित अधिकतम आयु में भी शिक्षाप्राप्ति के लिए उपनयन संस्कार न कराने वाले युवक सावित्रीव्रत से पतित (उपनयन के अधिकार से वंचित) हो जाते हैं। ये ‘व्रात्य’ आर्यों द्वारा निन्दित एवं बहिष्कृत होते हैं। कोई भी द्विज इन पतितों के साथ वैधानिक अध्ययन-अध्यापन एवं विवाह सबन्धों को न रखे।’

आर्य वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत या पतित ये व्यक्ति यदि पुनः किसी वर्ण में शिक्षार्थ दीक्षित होना चाहते थे तो उसका अवसर भी उन्हें प्राप्त था। ये प्रायश्चित्त करके वर्णव्यवस्था में समिलित हो सकते थे (मनु0 11.191-192, 212-214)।