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अनार्यों को आर्य बनाने सबन्धी डॉ अबेडकर का मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) ‘‘आर्यों ने हमेशा अनार्यों को आर्य बनाने का प्रयत्न किया अर्थात् उन्हें आर्य संस्कृति का अनुयायी बनाने का प्रयत्न किया।’’ (वही, खंड 7, पृ. 326)

(ख) ‘‘आर्य न केवल अपने ढंग से इच्छुक अनार्यों को अपनी जीवनपद्धति में परिवर्तित कर रहे थे, जो आर्यों की यज्ञ-संस्कृति और चातुर्वर्ण्य सिद्धान्त और यहां तक कि वे उनके वेदों तक के विरोधी थे।’’ (वही, खंड 7, पृ0 327)

इन श्लोकार्थों को पढ़कर कौन पाठक यह मानने के लिए विवश नहीं होगा कि ‘डॉ. अबेडकर मनुस्मृति में वर्णपरिवर्तन का विधान मानते हैं।’ यदि वे अन्यत्र अपने ही इन कथनों के विरुद्ध कुछ कहते हैं तो इसका अभिप्राय है कि उनके लेखन में परपरविरोध है। उक्त श्लोकार्थ डॉ0 अबेडकर ने प्रमाण के रूप उद्धृत किये हैं। किसी भी लेखक के द्वारा किसी संदर्भ को प्रमाण रूप में उद्धृत करने का भाव यह होता है कि लेखक उनको प्रामाणिक मानता है। यहां मनु के वर्णपरिवर्तन के सिद्धान्त को भी डॉ0 अबेडकर ने स्वीकार कर लिया है। वर्णपरिवर्तन का निर्दोष सिद्धान्त है, स्वतन्त्रता और उदारता का सिद्धान्त है, जो सर्वथा आपत्तिरहित है। यह जातिव्यवस्था में संभव नहीं होता। फिर भी मनु का विरोध क्यों? इसका उत्तर उपर्युक्त संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में डॉ0 अबेडकर को देना चाहिए था, अथवा अब उनके अनुयायियों को देना चाहिए।