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मनु की दण्डव्यवस्था और शूद्र: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

पाठकवृन्द! आइये, सबसे अधिक चर्चित मनुविहित दण्डव्यवस्था पर दृष्टिपात करते हैं। यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की हैं। मनु की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं-गुण और दोष; और आधारभूत तत्व हैं-बौद्धिक स्तर, सामाजिक स्तर या पद और उस अपराध का प्रभाव। मनु की दण्डव्यवस्था यथायोग्य दण्डव्यवस्था है, जो मनोवैज्ञानिक है। यदि मनु गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर उच्च वर्णों को अधिक समान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने पर उतना ही अधिक दण्डाी देते हैं।

(अ) शूद्रों को सबसे कम दण्ड का विधान

    मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मणों को सबसे अधिक; राजा को उससे भी अधिक। मनु की यह सर्वसामान्य दण्डव्यवस्था है, जो सैद्धान्तिक रूप में सभी दण्डनीय अवसरों पर लागू होती है-

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)

    अर्थात्-किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अट्ठाईसगुणा दण्ड देना चाहिए, क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भली-भांति समझने वाले हैं।

(आ) उच्च वर्णों को अधिक दण्ड

    मनु की व्यवस्था में जो जितना बड़ा है उसको उतना अधिक दण्ड विहित है-

पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।

नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)

कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।

तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)

    अर्थ-‘जो भी अपने निर्धारित धर्म=कर्त्तव्य और विधान का पालन नहीं करता, वह अवश्य दण्डनीय है, चाहे वह पिता, माता, गुरु, मित्र, पत्नी, पुत्र या पुरोहित ही क्यों न हो। जिस अपराध में सामान्य जन को एक पैसा दण्ड दिया जाये वहां राजा को एक हजार गुणा दण्ड देना चाहिए।’ यहां गुरु और पुरोहित को भी अवश्य दण्ड का विधान है। अतः ब्राह्मण को दण्डरहित छोड़ने का जहां भी कथन है, वह इस मनुव्यवस्था के विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है।

(इ) धन के लोभ में किसी को दण्ड दिये बिना न छोड़े

इसके साथ ही मनु ने राजा को आदेश दिया है कि उक्त दण्ड से किसी को छूट नहीं दी जानी चाहिए, चाहे वह आचार्य, पुरोहित और राजा के पिता-माता ही क्यों न हों। राजा दण्ड दिये बिना मित्र को भी न छोड़े और कोई समृद्ध व्यक्ति शारीरिक अपराधदण्ड के बदले में विशाल धनराशि देकर छूटना चाहे तो उसे भी न छोड़े।

न मित्रकारणाद् राजा विपुलाद् वा धनागमात्।  

समुत्सृजेत् साहसिकान् सर्वभूतभयावहान्॥ (8.347)

    अर्थ-राजा, प्रजाओं में भय उत्पन्न करने वाले अपराधियों को, अपराध के बदले दण्ड रूप में धन की प्राप्ति के लालच में या मित्र होने के कारण भी न छोड़े, अर्थात् उन्हें अवश्य दण्डित करे।

यह कहना नितान्त असत्य है कि मनु ने उच्चवर्णों को दण्ड में छूट दी है और शूद्र के लिए अधिक दण्ड विहित किया है। यहां किसी को भी दण्ड से छूट नहीं है तथा ब्राह्मणों और राजा को शूद्र से बहुत अधिक दण्ड देने का विधान है। मनु की यह दण्डनीति पूर्वा पर प्रसंग से सबद्ध है और कारण-कथनपूर्वक वर्णित है, जो न्याययुक्त और तर्कसंगत है। इससे यह प्रकट होता है कि ये मौलिक श्लोक हैं और इनके विरुद्ध ब्राह्मण को दण्डनिषेध करने वाले श्लोक प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि वे पक्षपात और अन्यायपूर्ण हैं।

मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्रों का सामाजिक सम्मान : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्रों का सामाजिक सम्मान

(अ) समान-व्यवस्था के आधार

    वैदिक या मनु की समान-व्यवस्था में गुणों का ही महत्त्व था। जन्म को बड़प्पन अथवा समान का मानदण्ड कहीं नहीं माना गया है। महर्षि मनु लिखते हैं-

(क) वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी।

       एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम्॥    (2.136)

    अर्थ-धन, बन्धुपन, आयु, श्रेष्ठ कर्म, विद्वत्ता ये पांच समान के मानदण्ड हैं। इनमें बाद-बाद वाला मानदण्ड अधिक महत्त्वपूर्ण है। अर्थात् सर्वाधिक मान्य विद्वान् है, उसके बाद क्रमशः श्रेष्ठ कर्म करने वाला, आयु में बड़ा, बन्धु-बान्धव, धनवान् हैं। यह सामूहिक समान की मर्यादा है। यदि एक वर्ण वाले एकत्र हों तो वहां समान-व्यवस्था इस प्रकार होगी –

(ख)    विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः।

       वैश्यानां धान्यधनतः  शूद्राणामेव जन्मतः॥ (2.155)

    अर्थ-ब्राह्मणों में अधिक ज्ञान से, क्षत्रियों में अधिक बल से, वैश्यों में अधिक धन-धान्य से, शूद्रों में अधिक आयु से बड़प्पन और समान होता है।

(आ) शूद्रों को समान-व्यवस्था में छूट-

    मनु का शूद्रों के प्रति सद्भावपूर्ण एवं मानवीय दृष्टिकोण देखिए कि द्विजवर्णों में अधिक गुणों के आधार पर समान का विधान होते हुए भी उन्होंने शूद्र को विशेष छूट दी है कि यदि शूद्र नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो उसे पहले समान दें-

  पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च।    

  यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः, शूद्रोऽपि दशमीं गतः॥ (2.137)

    अर्थ-तीन द्विज-वर्णों में समान गुण वाले अनेक हों तो जिसमें श्लोक 2.136 में उक्त पांच गुणों में से अधिक गुण हों, वह पहले समाननीय है किन्तु शूद्र यदि नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो वह भी पहले समाननीय है।

देखिए, मनु के मन में शूद्र के प्रति कितनी उदारता एवं आदरभाव है कि वे अल्पगुणों वाला होते हुए भी शूद्र को ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों द्वारा पहले समान दिलवा रहे हैं! क्या ऐसा उदार मनु शूद्रों के प्रति कठोर और अन्यायपूर्ण विधान कर सकता है? कदापि नहीं। यह एक ही तर्क यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि वर्तमान मनुस्मृति में जो शूद्र-विरोधी कठोर श्लोक मिलते हैं, स्पष्टतः वे किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रक्षिप्त हैं। ऐसे उदार हृदय और मानवीय भाव रखने वाले महर्षि मनु का विरोध क्या उचित है?

(इ) शूद्रों का अद्भुत मानवीय समान

शूद्रों के प्रति मनु का कितना अद्भुत मानवीय भाव था इसकी जानकारी हमें मनु के निन आदेश में मिलती है। मनु कहते हैं कि अपने भृत्यों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही द्विज दपती भोजन करें-

भुक्तवत्सु-अथ विप्रेषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि।    

भुंजीयातां ततः पश्चात्-अवशिष्टं तु दपती॥ (3.116)

    अर्थ-द्विजों के भोजन कर लेने के बाद और अपने भृत्यों के (जो कि शूद्र होते थे) पहले भोजन कर लेने के बाद ही शेष बचे भोजन को द्विज दपती खाया करें।

क्या आज के वर्णरहित विश्व के किसीाी सयमानी समाज में मनु जैसा उच्च मानवीय दृष्टिकोण है? क्या आज के किसी समाज में मनु जैसा उदार-अद्भुत आदेश है? ऐसे अनुपम आदेशों के होते हुएाी मनु पर शूद्र विरोध का आरोप लगाना निरी कृतघ्नता नहीं तो और क्या है? मनुस्मृति में डाले गये, शूद्र विरोधी सभी श्लोकों को प्रक्षिप्त सिद्ध करने के लिए, क्या यह अकेला ही श्लोक पर्याप्त नहीं है? मनु द्वारा शूद्रों का अद्भुत समान विहित करने के बादाी मनु का विरोध क्यों?

शूद्रों के धर्माधिकार में मनुकालीन इतिहास और समाज -व्यवस्था के प्रमाण: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

जैसा कि प्रथम अध्याय में प्रमाण-सहित दर्शाया गया है कि मनु की वर्णव्यवस्था का प्रसार आदिकालीन विश्व में व्यापक स्तर पर था। मनु ने अपना प्रमुख राज्य अपने बड़े पुत्र प्रियव्रत को सौंपा था। उसने उसको अपने सात पुत्रों में सात विभाग करके बांट दिया। मनुकालीन उन सात द्वीपों अर्थात् देशों में मनु द्वारा निर्धारित समाज-व्यवस्था व्यवहार में थी। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में जो मनुकालीन इतिहास दिया है और सांस्कृतिक विवरण दिया है उसके अनुसार सभी छह देशों में चारों वर्णों को यज्ञानुष्ठान और धर्मपालन का अधिकार था तथा चारों वर्ण यज्ञ करते थे। प्रमाण सहित उसका वर्णन प्रस्तुत है। पौराणिक जन इस विवरण को ध्यान से पढ़ें क्योंकि वही शूद्रों को यज्ञ आदि का निषेध करते हैं। ये पुराणों के ही प्रमाण हैं-

(क) कुशद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥

तत्र ते तु कुशद्वीपे……..यजन्तः क्षपयन्ति॥

(विष्णु पुराण 2.4.36, 39)

    अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कुशद्वीप में रहते हुए यजन करते हैं और इस प्रकार अपनी दुर्भावनाओं को नष्ट करते हैं।

भागवतपुराण में वर्णन है कि चारों वर्णों के लोग परस्पर कहते रहते थे – ‘‘यज्ञेन पुरुषं यज’’ (5.20.17)= उस परम पुरुष का यज्ञ से यजन करो। वहां चारों वर्णों में यज्ञ बहुप्रचलित था। चारों वर्ण यज्ञप्रेमी थे।

(ख) शाकद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

    शाकद्वीपे तु तैर्विष्णुः यथोक्तैरिज्यते सयक्॥ 64, 70॥

(विष्णुपुराण 2.4.64,70)

    अर्थ-शाकद्वीप में चारों वर्णों के लोग सर्वव्यापक ईश्वर का यज्ञ के द्वाराालीभांति पूजन करते हैं।

भागवतपुराण में कहा है कि शाकद्वीप के चारों वर्णों के लोग ‘‘भगवन्तम्………….परमसमाधिना यजन्ते’’ (5.20.22)= परमात्मा की उत्तम समाधि द्वारा उपासना करते हैं।

(ग) प्लक्षद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

धर्माः पञ्चस्वथैतेषु वर्णाश्रमविभागजाः॥ 15॥

इज्यते तत्र भगवान् तैर्वणैरार्यकादिभिः॥ 19॥

(विष्णुपुराण 2.4.7, 15, 19)

    अर्थ-प्लक्ष द्वीप में वर्ण और आश्रमों के लिए विहित धर्मों का पालन किया जाता है। आर्यक (ब्राह्मण) आदि चारों वर्णों द्वारा यज्ञ करके भगवान् की उपासना की जाती है।

भागवतपुराणकार इससेाी आगे बढ़कर स्पष्ट कथन करता है कि ‘‘त्रय्या विद्यया भगवन्तं त्रयीमयं सूर्यमात्मानं यजन्ते’’ (5.20.4) = ‘प्लक्षद्वीप में चारों वर्ण उस सूर्य संज्ञक परमात्मा का जो स्वयं वेदरूप है, तीनों वेदों के मन्त्रों से उसका यजन करते हैं।’

यहां शूद्रों द्वारा मन्त्रोच्चारण तथा वेदों से यज्ञानुष्ठान का विधान अतिस्पष्ट है। पौराणिक इस पुराण के वचन को पढ़कर सदा के लिए याद रखें।

(घ) क्रौञ्च द्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

  ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥ 53॥

  यागैः रुद्रस्वरूपश्च इज्यते यज्ञसन्निधौ॥ 56॥ (2.4.53, 56)

    अर्थ-क्रौञ्च द्वीप में चार वर्ण हैं। वे रुद्रस्वरूप परमात्मा का अनेक यज्ञों के अनुष्ठानपूर्वक, यज्ञ के माध्यम से यजन करते हैं।

(ङ) जबू द्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

  ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः मध्ये शूद्राश्च भागशः॥ 9॥

  पुरुषैर्यज्ञपुरुषो जबू द्वीपे सदेज्यते॥ 21॥ (2.3.9, 21)

    अर्थ-जबू द्वीप (भारत सहित एशिया) में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र साथ-साथ निवास करते हैं। उन चारों वर्णों के पुरुषों द्वारा परमात्मा का सदा यज्ञ के द्वारा यजन किया जाता है।

(च) शाल्मलिद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-

ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चैव यजन्ति ते॥ 30॥

वायुभूतं मखश्रेष्ठैः यज्विनो यज्ञसंस्थितम्॥ 31॥

(विष्णुपुराण 2.4.30, 31)

    अर्थ-शाल्मलि द्वीप में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी यज्ञशील हैं। वे चारों वर्ण यज्ञ-रूप वायु संज्ञक परमेश्वर की बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा उपासना करते हैं।

यहां अतिस्पष्ट शदों में शूद्रों द्वारा बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करना लिखा है। भागवतपुराण तो इस द्वीप की यज्ञ परपरा का अनुष्ठान स्पष्टतः वेदों द्वारा किया जाना लिखता है। पुराणकार इस वचन के द्वारा निर्विवाद रूप से शूद्रों का वेदाधिकार मानता है –

‘‘तद् वर्षपुरुषाः…भगवन्तं वेदमयं सोममात्मानं वेदेन यजन्ते।’’

(5.20.11)

    अर्थ-‘शाल्मलि द्वीप के चारों वर्णों के लोग वेदों में वर्णित, आत्मा में व्याप्त, सोमस्वरूप भगवान् की उपासना वेदमन्त्रों से यज्ञानुष्ठान सपन्न करके करते हैं।’ यहां भी शूद्रों के वेदपाठ और वेद से यज्ञानुष्ठान का स्पष्ट वर्णन है।

यह मनुस्वायभुव और उसके पौत्रों के काल का इतिहास है। उस काल में शूद्र यज्ञ भी करते थे और वेदमन्त्रों का वाचन करते थे, यह उद्घाटन भागवतपुराणकार कर रहा है। यह इतिहास-प्रमाण यह स्पष्ट करता है कि जिस मनु के शासन में शूद्र यज्ञ और वेदाध्ययन करते थे, वही मनु अपनी स्मृति में उनका निषेध नहीं कर सकता। इससे यह भी संकेत मिलता है कि वर्तमान मनुस्मृति में जहां कहीं शूद्रों के लिए वेद या यज्ञ आदि का निषेध मिलता है, उनका मनु की शासनकालीन व्यवस्था से तालमेल नहीं है, अतः वे सभी श्लोक बाद के लोगों ने रचकर मनुस्मृति में मिलाये हैं।

शूद्रों के धर्माधिकारों की अनवरत प्राचीन परंपरा : डॉ. सुरेन्द्र कुमार

पूर्व प्रदर्शित वेदोक्त मान्यता की परपरा वेदों से लेकर पुराणकाल तक निरन्तर मिलती है, जिसमें शूद्रों के लिए सुस्पष्ट रूप से धर्मानुष्ठानों का विधान और वर्णन है। मनु इसी वैदिक कालावधि के राजर्षि हैं, अतः उनके द्वारा शूद्रों के यज्ञ आदि का निषेध संभव नहीं माना जा सकता। धर्मानुष्ठान में भेदभाव का कथन पुराणों और पुराणाधारित साहित्य की देन है। फिर भी पुराणों में भेदभाव रहित प्राचीन धर्मानुष्ठान-परपरा का उल्लेख प्राचीन अंशों में कहीं-कहीं सुरक्षित है। यह इस तथ्य का संकेत है कि पुराणपूर्व काल में धर्मानुष्ठान के विषय में कोई भेदभाव नहीं था और इसका भी कि सभी पुराण शूद्रों के लिए वेद, यज्ञ आदि धार्मिक अधिकारों का निषेध नहीं मानते। यहां उस परपरा का दिग्दर्शन संक्षेप में कराया जा रहा है जिससे कोई पौराणिक भी यह आग्रह न करे कि शूद्रों के लिए धर्माधिकार के निषेध की परपरा प्राचीन और पुराणसमत है-

(क)    शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ में सोमपान के प्रसंग में शूद्र के लिए भी विधान है-

‘‘चत्वारो वै वर्णाः ब्राह्मणो राजन्यो वैश्यः शूद्रः, न ह एतेषां एकश्चन भवति यः सोमं वमति। स यद् ह एतेषां एकश्चित् स्यात् ह एव प्रायश्चित्तिः।’’ (5.5.4.9)

    अर्थ-वर्ण चार हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें कोई भी यज्ञ में सोम का त्याग नहीं करेगा। यदि एक भी कोई करेगा तो उसको प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।

(ख) ऐतरेय ब्राह्मण में ऐतिहासिक उल्लेख आता है कि कवष ऐलूष नामक व्यक्ति एक शूद्रा का पुत्र था। वह वेदाध्ययन करके ऋषि बना। आज भी ऋग्वेद के 10.30-34 सूक्तों पर मन्त्रद्रष्टा के रूप में कवष ऐलूष का नाम मिलता है (2.29)।

(ग) वाल्मीकीय रामायण में वर्णन है कि दशरथ ने जब अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था तो उसमें शूद्रों को भी बुलाया था। उस समय में वे यज्ञ में उपस्थित होते थे और अन्य वर्णों के साथ पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे (बालकाण्ड 13.14, 20, 21)

इसी प्रकार पांडवों के अश्वमेघ यज्ञ में भी शूद्र जन आमन्त्रित किये गये थे। वहां भी यज्ञ-भोजन की भागीदारी में कोई भेदभाव नहीं था। (महाभारत, अश्वमेध पर्व 88.23; 89.26)

(घ) महाभारतकार कहता है कि कर्मभ्रष्ट होकर निन वर्ण को ग्रहण करने वालों के लिए यज्ञ, धर्मपालन, वेदाध्ययन का निषेध नहीं है –

धर्मो यज्ञक्रिया तेषां नित्यं न प्रतिषिध्यते।

इत्येते चतुरो वर्णांः येषां ब्राह्मी सरस्वती॥

(शान्तिपर्व 188.15)

    अर्थ-वर्णान्तर प्राप्त जनों के लिए यज्ञक्रिया और धर्मानुष्ठान का निषेध कदापि नहीं है। वेदवाणीाी चारों वर्ण वालों के लिए है।

(ङ) महाभारत में तो इससे भी आगे बढ़कर दस्युओं के लिए भी इन कर्मों का विधान किया है-

भूमिपानां च शुश्रूषा कर्त्तव्या सर्वदस्युभिः।

वेदधर्मक्रियाश्चैव तेषां धर्मो विधीयते।।

(शान्तिपर्व 65.18)

    अर्थ-दस्युओं को राजाओं की सेवा पक्ष में युद्ध करके करनी चाहिए। वेदाध्ययन, यज्ञ आदि धर्मानुष्ठानों का पालन करना उनका भी विहित धर्म है।

(च) महाभारत में ही एक अन्य स्थान पर यज्ञ में चारों वर्णों की भागीदारी को स्वीकार किया गया है-

       ‘‘चत्वारो वर्णाः यज्ञमिमं वहन्ति’’ (वनपर्व 134.11)

    अर्थात्-इस यज्ञ का सपादन चारों वर्ण कर रहे हैं।

(छ) भविष्यपुराण शूद्रों को मन्त्र-अध्यापन का आदेश देता है-

‘‘ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राः, तेषां मन्त्राः प्रदेयाः।’’

(उ0 पर्व 13.62)

(ज) वेदोक्त प्राचीन परपरा के आधार पर ही ऋषि दयानन्द ने शूद्रों-स्त्रियों को यज्ञ, वेद आदि के अधिकारों की घोषणा करके इनका अधिकार प्रदान किया। उन्होंने तो दस्यु को भी वेद पढ़ने का निर्देश दिया है (ऋग्वेदभाष्य, 7.79.1, भावार्थ में)।

इस प्रकार शूद्रों द्वारा धर्मानुष्ठान तथा वेदाध्ययन की परपरा आरभिक वैदिक काल से चलती आ रही है। उस काल में शूद्रों पर धार्मिक प्रतिबन्ध का विचार ही नहीं था। अतः उस कालावधि के धर्मप्रवक्ता मनु के वचनों में शूद्रों के धर्माधिकार के निषेध का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। वस्तुस्थिति यह है कि नितान्त नवीन संकीर्ण धारणा प्रक्षेप के रूप में मनु पर थोप दी गयी है।

आन्तरिक प्रमाणों में धर्म और शिक्षा का विधान: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(क) विवाह में यज्ञ और मन्त्रोच्चारण-मनुस्मृति में चार वर्णों के लिए आठ विवाहों का वर्णन किया है जिनमें आर्यों के लिए चार विवाह श्रेष्ठ बताये हैं-ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य

(3.20-42)। ये चारों विवाह यज्ञीय विधि से वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक सपन्न होते हैं (‘‘मङ्गलार्थं स्वस्त्ययनं यज्ञश्चासां प्रजापतेः। प्रयुज्यते विवाहेषु’’ (5.152)=यज्ञानुष्ठान और स्वस्तिवाचक मन्त्रों का पाठ विवाह में किया जाता है)। इस प्रकार शूद्र का विवाह भी यज्ञानुष्ठान और वेदमन्त्रोच्चारणपूर्वक सपन्न करना मनु मतानुसार अनिवार्य है। स्पष्ट है कि इस मौलिक विधि में शूद्रों के लिए धार्मिक अनुष्ठानों का विधान है। मनुस्मृति में इस मौलिक विधान और मूल-भावना के विरुद्ध जो श्लोक वर्णित मिलते हैं, वे परस्पर विरुद्ध होने प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, जो कि बाद के लोगों ने मिलाये हैं।

(ख) मनु ने मनुस्मृति में शूद्रों को धर्म का अधिकार देते हुए कहा है-

               ‘‘न धर्मात् प्रतिषेधनम्’’ (10.126)

    अर्थात्-‘शूद्रों को धार्मिक कार्य करने का निषेध नहीं है’ यह कहकर मनु ने शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता दी है।

(ग) शूद्राी गुरु हो सकता है-इस तथ्य का ज्ञान इस श्लोक से होता है जिसमें मनु ने कहा है कि ‘शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए।’ देखिए, कितना स्पष्ट प्रमाण है-

             ‘‘आददीत-अन्त्यादपि परं धर्मम्॥’’  (2.238)

यदि अन्त्य अर्थात् शूद्र को धर्मपालन का अधिकार नहीं होता तो उससे धर्म-ग्रहण करने का उल्लेख मनु क्यों करते? और कैसे उससे धर्म सीखा जा सकता था? इससे पाठक एक और अनुमान लगा सकते हैं कि आर्यों की वर्णव्यवस्था इतनी उदारतापूर्ण और ज्ञानपिपासु थी कि नवीन व उत्तम शिक्षा प्राप्त करते समय उनके समक्ष छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच आदि कुछ भी आड़े नहीं आता था।

(ग) ब्राह्मणेतर भी गुरु होता है

    यद्यपि व्यावसायिक दृष्टि से अध्यापन कार्य ब्राह्मणों का कर्त्तव्य है किन्तु एकाधिकार नहीं। अन्य वर्णों के प्रशिक्षण के लिए या विशेष विद्या की प्राप्ति के लिए ब्राह्मणेतर भी गुरु हो सकता है। मनु कहते हैं-

       अब्राह्मणादध्ययनम्, आपत्काले विधीयते॥       (2.241)

    अर्थात्-‘ब्राह्मणेतर वर्णस्थ गुरु भी हो सकता है किन्तु उससे आपत्काल अर्थात् ब्राह्मण द्वारा न पढ़ाने पर अथवा गुरु के अभाव में शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।’ अध्यापन-कार्य ब्राह्मणों की आजीविका होने के कारण यह कथन है, सैद्धान्तिक दृष्टि से नहीं।

निष्कर्ष यह है कि शिक्षा तथा धर्मानुष्ठान का विधान शूद्रों के लिए भी है। किन्तु उनको वैधानिक शिक्षण तथा धर्मानुष्ठान का अधिकार इस कारण नहीं है क्योंकि वह विधिवत् शिक्षण एवं धर्मानुष्ठान का प्रशिक्षण नहीं लेता है। इसीलिए वह शूद्र कहाता है। इसे हम आज के डॉक्टरों के उदाहरण से समझ सकते हैं। सब डॉक्टर चिकित्सा तो कर सकते हैं किन्तु सब चिकित्सा प्रमाण पत्र देने के वैधानिक अधिकारी नहीं होते। शिक्षा आज भी सभी प्राप्त कर सकते हैं किन्तु सरकार केवल उन्हें ही नौकरी देती है जो विधिवत् शिक्षित-प्रशिक्षित होते हैं। यही नियम अन्य व्यवसायों पर लागू है। यही प्राचीन काल में शूद्र होने वालों पर लागू था।

वेदों में शूद्रों एवं स्त्रियों को धार्मिक अधिकार: डॉ सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु ने अपनी स्मृति में यह प्रतिज्ञापूर्वक घोषणा की है कि धर्म का मूलस्रोत वेद हैं और मेरी स्मृति वेदों पर आधारित है। देखिए, कुछ प्रमाण-

(क) ‘‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’’ (2.6)

    अर्थात्-सपूर्ण वेद धर्म के मूलस्रोत हैं।

(ख) ‘‘प्रमाणं परमं श्रुतिः’’ (2.13)

    अर्थात्-धर्म निश्चय में सर्वोच्च प्रमाण वेद हैं। इसलिए-

‘‘श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान् स्वधर्मे निविशेत वै।’’ (2.8)

    अर्थात्-विद्वान् वेद को प्रमाण मानकर अपने धर्म का पालन करे।

इन घोषणाओं से स्पष्ट है कि मनु के धर्मवर्णन का आधार वेद हैं और वेद ही परमप्रमाण हैं। वेदों में शूद्रों और स्त्रियों के लिए संध्या, यज्ञ, वेदाध्ययन, उपनयन आदि धार्मिक अनुष्ठानों का स्पष्ट विधान है। उसके विरुद्ध मनु कभी नहीं जा सकते। फिर भी जो शूद्रों और स्त्रियों के वेदाध्ययन, संध्या, यज्ञ आदि निषेधक श्लोक मनुस्मृति में मिलते हैं, वे स्पष्टतः किसी अन्य व्यक्ति द्वारा बाद में मिलाये गये हैं। मनु का तो वही मन्तव्य है जो वेदों में है। वेद में शूद्रों और स्त्रियों के लिए स्पष्ट विधान इस प्रकार हैं-

(ञ)    यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेयः।

       ब्रह्मराजन्यायां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय॥

(यजुर्वेद 26.2)

    अर्थात्-परमात्मा कहता है कि मैंने इस कल्याणकारिणी वेद वाणी का उपदेश साी मनुष्यों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य, स्वाश्रित ी-भृत्य आदि और अतिशूद्र आदि के लिए किया है।

(घ) यज्ञियासः पञ्चजनाः मम होत्रं जुषध्वम्। (ऋग्0 10.53.4)

    ‘‘पञ्चजनाः=चत्वारो वर्णाः, निषादः पञ्चमः।’’ (निरुक्त 3.8)

    अर्थात्-‘यज्ञ करने के पात्र पांच प्रकार के मनुष्य अग्निहोत्र किया करें।’ निरुक्त शास्त्र में कहा है कि चार वर्ण और पांचवां निषाद, ये पञ्चजन कहलाते हैं।

(ङ) मनु की प्रतिज्ञा है कि उनकी मनुस्मृति वेदानुकूल है, अतः मनु की भी वेदोक्त मान्यताएं हैं। यही कारण है कि उपनयन-प्रसंग में कहीं भी शूद्र के उपनयन का निषेध नहीं किया है, क्योंकि शूद्र तो तब कहाता है, जब कोई उपनयन नहीं कराता अथवा उपनयन करने के बाद विधिवत् अध्ययन नहीं करता। वेद के बहुत स्पष्ट आदेश के बादाी जो लोग शूद्रों के लिए वेदाध्ययन और धर्मपालन का निषेध करते हैं, वे वैदिक नहीं हैं, वेद विरोधी हैं और मानवताविरोधी हैं। वर्तमान मनुस्मृति में इस मत के विरुद्ध यदि कोई विधान पाये जाते हैं तो वे परस्परविरुद्ध होने से प्रक्षिप्त हैं।

मनु आदियुग के सर्वजनशिक्षासमर्थक व प्रेरक राजर्षि: डॉ सुरेन्द्र कुमार

सृष्टि के आरभिक युग में विश्व के लिए विद्याओं की अनेक विधाओं के द्वार खोलने वाले, धर्मविशेषज्ञ, महर्षि और राजर्षि मनु पर कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं कि मनु ने शूद्रों और स्त्रियों को शिक्षा से वंचित करके उनको अज्ञानता के गर्त में डाल दिया। उनका कहना है कि मनु ने केवल ब्राह्मणों को शिक्षा का एकाधिकार प्रदान किया है।

मनु पर यह आरोप निराधार है, भले ही कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों के संदर्भ में सरसरी तौर पर यह ठीक लगता हो। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा कथन मनु की मूल भावना के ही विरुद्ध है। मनु तो आदियुग के सर्वशिक्षा समर्थक और सर्वप्रेरक शिक्षाप्रेमी राजर्षि थे। उनके द्वारा द्विजातियों को अधिक महत्त्व दिए जाने और एकजाति (अशिक्षित) को कम महत्त्व देने के मूल में वस्तुतः शिक्षा को ही समान और महत्त्व दिया गया है। आज भी तो यही है। सब जगह उच्चशिक्षितों और प्रशिक्षितों को ही महत्त्व और समान मिल रहा है। सरकार उन्हीं को ऊँची नौकरी देती है।

मनु आदियुग के सर्वजन शिक्षा-समर्थक एवं प्रेरक थे, इस तथ्य की पुष्टि मनुस्मृति के एक अन्तःप्रमाण से हो जाती है। इस प्रमाण के समक्ष कोई दूसरा महान् प्रमाण नहीं हो सकता और न कोई विरोधी प्रमाण सामने टिक सकता है। पाठक तटस्थ भाव से इस प्रमाण पर चिन्तन करें और फिर देखें कि मनु शिक्षा के कितने पक्षधर थे। मनु बिना किसी भेदभाव के पृथ्वी के (विश्व के) सभी मानवों का शिक्षा प्राप्ति के लिए आह्वान करते हुए कहते हैं-

एतद्देशप्रसूतस्य       सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ (2.20)

    अर्थात्-‘पृथिवी पर निवास करने वाले सभी मनुष्यो! आओ, और इस देश में उत्पन्न विद्वान् और सदाचारी ब्राह्मणों से अपने-अपने जीवनयोग्य कर्त्तव्यों एवं व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त कर सुशिक्षित बनो, विद्वान् बनो।’

महर्षि मनु का यह आह्वान कितना महान् है!! इसमें न ब्राह्मण-शूद्र का प्रतिबन्ध है, न स्त्री-पुरुष का भेदभाव है, न आर्य-अनार्य का भेद है, न स्वदेशी-विदेशी का अन्तर है। वह सब मनुष्यों का समान भाव से आह्वान कर रहा है। क्योंकि वह शिक्षा के महत्त्व को समझता है कि शिक्षा के बिना मनुष्य, मनुष्य नहीं बन सकता, कोई उन्नति नहीं कर सकता, परिवार-समाज का कल्याण नहीं हो सकता, राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता, इसलिए मनु के मत में शिक्षा का सर्वोच्च महत्त्व था। उसकी ओर से किसी के लिए कोई बन्धन नहीं है। बस, शिक्षा प्राप्ति का इच्छुक होना चाहिए, चाहे वह पृथ्वी के किसी भाग का निवासी हो। शिक्षा के प्रति इतना उदार भाव रखने वाले राजर्षि से क्या यह आशा की जा सकती है कि वह किसी को शिक्षा से वंचित करेगा? कदापि नहीं। यदि शिक्षा से वंचित करने के या प्रतिबन्ध डालने के वचन वर्तमान मनुस्मृति में पाये जाते हैं तो वे उक्त आह्वान करने वाले मनु स्वायंभुव के नहीं हो सकते। क्योंकि ऋषियों या विद्वानों के कथनों में परस्परविरोध नहीं होता। हाँ, वे किसी स्वार्थी और पक्षपाती के कथन हो सकते हैं, जो उसने स्वार्थपूर्ति के लिए अवसर पाकर प्रक्षिप्त कर दिये।

महर्षि मनु शिक्षा को सर्वोच्च महत्त्व देते थे और वर्णव्यवस्था में उसे आवश्यक मानते थे। इसका एक ठोस प्रमाण वह है। जहां शिक्षा प्राप्ति न करने वालों के लिए मनु ने कठोर विधान किया है। मनु कहते हैं कि अधिकतम निर्धारित आयुसीमा तक भी जो बालक या युवक शिक्षा प्राप्त्यर्थ उपनयन संस्कार नहीं करायेगा, वह आर्य वर्णव्यवस्था से बहिष्कृत हो जायेगा और वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत सुलभ उसके वैधानिक अधिकार नहीं रहेंगे (मनु0 2.38-40)। यह सबके लिए अनिवार्य शिक्षा का संकेत है। ऐसा शिक्षाप्रेमी महर्षि किसी को शिक्षा से वंचित करने का विचाराी नहीं कर सकता।

सबके लिए शिक्षा की अनिवार्यता विषयक मनु के सिद्धान्त की पुष्टि कौषीतकि ब्राह्मण के उन निर्देशों से होती है जिनमें कहा गया है कि बालक-बालिका को आठ वर्ष की आयु तक पाठशाला में अवश्य भेज देना चाहिए, जो न भेजें वे माता-पिता, राजा द्वारा दण्डनीय होंगे (उपदेश मंजरीःस्वामी दयानन्द, उप0 10, पृ0 66)।

वस्तुतः, प्राचीन ऋषियों द्वारा रचित जो आर्षशास्त्र हैं, उनमें कहीं भी किसी मनुष्य को किसी भी प्रकार के धर्मपालन या शिक्षा आदि के अधिकार से वंचित नहीं किया गया है। ये बातें उन नवीन ग्रन्थों में हैं जिनको जन्मना जाति-पांति के समर्थक रूढ़िवादी लोगों ने रचा है। उन्हें शास्त्र ही कहना अनुचित है।

डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुमत का समर्थन: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर र वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्रों को दास के रूप में स्वीकार नहीं करते। उन्होंने प्रमाण के रूप में मनु के निनलिखित श्लोकार्थ उद्धृत किये हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मनु के मतानुसार वेतन ओर जीविका पाने वाला नौकर या सेवक कभी दास नहीं होता। यदि इनके विरुद्ध वर्णन वाले श्लोक मनुस्मृति में पाये जाते हैं तो वे परस्परविरोधी होने से प्रक्षिप्त हैं। डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा प्रस्तुत प्रमाण हैं-

(क) डॉ0 अम्बेडकर र मनुस्मृति की मौलिक व्यवस्थाओं में आये श्लोकों में पठित ‘दास’ शद का अर्थ सेवक ही करते हैं, जो सर्वथा सही है। पूर्व पंक्तियों में उद्धृत नामकरण संस्कार-सबन्धी श्लोक पर –‘‘शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्’’ (2.6-7[2.31-32]) में दास का अर्थ उन्होंने सेवक किया है-

‘‘नाम दो भागों का होना चाहिए….शूद्रों के लिए दास (सेवा)।’’ तथा ‘‘शूद्र का (नाम) ऐसा हो जो सेवा करने का भाव सूचित करे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 6, पृ0 58; खंड 7, पृ0 201)

(ख) ‘‘ब्राह्मणों को चाहिए कि वे अपने परिवार (की संपत्ति) में से उसे (शूद्र को) उसकी योग्यता, उसके परिश्रम तथा उन व्यक्तियों की संया के अनुसार, जिनका उसे (शूद्र को) भरण-पोषण करना है, उचित जीविका निश्चित करें(मनुस्मृति 10.124)।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 318)

(ग) ‘‘(संन्यासी) मरने या जीने की चाह न करे किन्तु नौकर जिस प्रकार वेतन की प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार काल की प्रतीक्षा करता रहे (मनुस्मृति 6.45)।’’ (वही, खंड 8, पृ0 214)

(घ) ‘‘यह सत्य है कि ऋग्वेद में शूद्र का दस्यु या सेवक के अर्थ में उल्लेख हुआ है।……जब तक यह सिद्ध नहीं होता कि ये दोनों (शूद्र, दास) एक ही थे, तब तक ऐसा निर्णय करना कि शूद्र दास बनाए गए, मूर्खता होगी। यह ज्ञात तथ्यों के विरुद्ध भी होगा।’’ (वही, खंड 13, पृ0 86)

जब मनुस्मृति में इतने स्पष्ट वचन हैं जिनसे सिद्ध होता है कि शूद्र ‘दास’ नहीं थे, फिर केवल प्रक्षिप्त श्लोकों के आधार पर मनु का विरोध क्यों? डॉ0 अम्बेडकर र जब उक्त श्लोकार्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत कर रहे हैं तो उसका अभिप्राय है कि उनको वे प्रमाण मान्य हैं जिनमें शूद्रों के दास=गुलाम न होने का कथन है। एकमत होने पर भी मनु का विरोध क्यों? इसका उत्तर अपेक्षित है।

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शूद्रों के लिए दासता का विधान मनुकृत नहीं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

मनु शूद्रों की दासता के पक्षधर या पोषक नहीं हैं। उन्होंने शुद्रों, सेवकों, स्त्री-कर्मचारियों आदि का वेतन, पद और स्थान के अनुरूप देने का आदेश दिया है-

(क) राजा कर्मसु युक्तानां स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च।

       प्रत्यहं कल्पयेद् वृत्तिं स्थानकर्मानुरूपतः॥      (7.125)

    अर्थात्-‘राजा काम पर लगाये जाने वाले श्रमिकों, सेवकों, स्त्रियों का प्रतिदिन का वेतन, काम, पद और स्थान के अनुरूप निर्धारित कर दे।’ इसका स्पष्ट भाव यह है कि मनु के मतानुसार शूद्रों और स्त्रियों से दासता कराना वर्जित है।

(ख) निन श्लोक में विधान है कि रोग आदि होने पर यदि भृत्य दीर्घ अवकाश लेता है तो उसे वेतन मिलना चाहिए। इस विधान का आधार मानवीय है। दास के लिए कभी ऐसा विधान नहीं होता-

       ‘‘स दीर्घस्यापि कालस्य तल्लभेतैव वेतनम्।’’ (8.216)

    अर्थ-यदि अवकाश से लौटने के बाद भृत्य अपने पूर्वनिर्धारित कार्य को पूर्ण कर देता है तो वह लबे अवकाश का वेतन पाने का अधिकारी है अर्थात् भृत्य का दीर्घ अवकाश होने पर भी वेतन दिया जाना चाहिए।

(ग) मनु ने 1.91 श्लोक में शूद्र के कर्त्तव्यों का वर्णन करते हुए कहा है कि तीन द्विज वर्णों अथवा चारों वर्णों की सेवा करना (नौकरी करना) ही शूद्र का कर्त्तव्य है। यहां शूद्र को स्वतन्त्रता दी है कि वह किसी वर्ण के किसी भी व्यक्ति के पास नौकरी करे। यह शूद्र की इच्छा पर निर्भर है। स्वतन्त्रतापूर्वक सेवाकार्य करना दासता का लक्षण नहीं है। मनु की यह मौलिक व्यवस्था सिद्ध करती है कि मनु के मतानुसार शूद्र दास नहीं हो सकता।

(घ) मनुस्मृति 2.6,7 [2.31, 32] में चारों वर्णों के नामकरण का विधान है। वहां शूद्र का नाम ‘‘शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्’’ कहकर ऐसा रखने का विधान किया है जो सेवाभाव का द्योतक हो। व्यायाकारों ने इसके उदाहरण दिये हैं-देवदास, धर्मदास, सुदास आदि। इससे कितनी सरलता से यह स्पष्ट हो रहा है कि वर्णव्यवस्था की विधि के अन्तर्गत ‘दास’ का अर्थ ‘सेवक’ है, गुलाम नहीं।

(ङ) मनु की वर्णव्यवस्था आर्यों की सामाजिक व्यवस्था थी। मुयतः आर्य परिवारों से ही बालक या व्यक्ति गुण, कर्म, योग्यता के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते थे। यह अस्वाभाविक है और सामान्यतः संभव नहीं है कि अपने ही परिवारों के बालकों या व्यक्तियों को कोई दास बनाये और उनके परिवार और उनका समाज उनको स्वीकार कर ले। इससे ज्ञात होता है कि शूद्र दास अर्थात् गुलाम नहीं होते थे, केवल सेवक (नौकर या श्रमिक) होते थे, जिन्हें उस कार्य का उचित वेतन या भरण-पोषण मिलता था।

महर्षि मनु का चरित्र-चित्रण: डॉ सुरेन्द्र कुमार

मनुस्मृति का गंभीर अध्ययन किये बिना अथवा एकांगी अध्ययन के आधार पर जब मनु पर आरोपों का सिलसिला बना तो कुछ लोग जो मन में आया, वही आरोप लगाने लगे। यह भी कहा गया कि मनु ने शूद्रों को दास घोषित किया है। मनु बड़ा क्रूर था, उसने शूद्रों के लिए बर्बरतापूर्ण विधान किये, आदि-आदि।

महर्षि मनु का चरित्र-चित्रण

इस प्रकार के आरोप महर्षि मनु पर सही सिद्ध नहीं होते। क्योंकि मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों के आधार पर जब हम मनु का चरित्र-चित्रण करते हैं, अथवा मनौवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं तो हमें मनु दयालु मानसिकता के व्यक्ति ज्ञात होते हैं। बाह्यग्रन्थों के मनु-विषयक प्रमाण भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं।

सपूर्ण मनुस्मृति में हमें ‘अहिंसा’ का सिद्धान्त सभी विधानों में ओतप्रोत मिलता है। यह कहना चाहिए कि मनुस्मृति ‘अहिंसा’ पर टिकी हुई है। मनु मानवों को तो क्या, कीट-पतंग से लेकर पशुओं तक को पीड़ा देना पाप समझते हैं। पशुहत्या को वे महापाप मानते हैं। (5.51)। उन्होंने ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी चारों आश्रमियों को किसी भी प्रकार की हिंसा न करने और अहिंसा-धर्म का पालन करने का आदेश दिया है। अनजाने में गृहस्थों द्वारा होने वाली कीट-पतंगों की हत्या के प्रायश्चित्त-स्वरूप मनु ने उनको प्रतिदिन पांच यज्ञों को करने का आदेश दिया है (3.67-74)। इसी प्रकार अन्य स्थलों पर किसी भी प्रकार की जीवहत्या होने पर प्रायश्चित्त का निर्देश है। (अध्याय 11.131-144)। मनु हल में जुते बैलों के लिए भी यह निर्देश देता है कि उनको पीड़ा न देते हुए हल जोतना चाहिए (4.67-68)। मनु इस बात का भी आदेश देता है कि मनुष्य ऐसी कोई जीविका न अपनायें जिससे दूसरे मनुष्यों को पीड़ा, हानि या कष्ट हो (4.2, 11, 12)। इतना ही नहीं, वह गुरु-शिष्य को और पति-पत्नी को परस्पर पीड़ा न पहुँचाते हुए प्रसन्न रखने का उपदेश देता है (3.55-62;4.166;2.159)। परिवार के सदस्यों को परस्पर कलह के द्वारा एक दूसरे को कष्ट न देने का विधान करता है (4.179-180)। विकलांगों और निनवर्णस्थों पर आक्षेप न करने का आदेश देता है(4.141)। जो सभी मनुष्यों-प्राणियों से अहिंसा का व्यवहार करने का नियम बना रहा है (‘‘अहिंसयैव भूतानां कार्यं अनुशासनम्’’ 2.159), इन सबसे बढ़कर जो अहिंसा को स्वर्गप्राप्ति का साधन घोषित करता है (‘‘अहिंस्रः जयेत् स्वर्गम्’’ 4.246), वह व्यक्ति कभी किसी मानव के प्रति निर्दयी या क्रूर नहीं हो सकता। वह किसी भी मानव के लिए अत्याचार या अन्यायपूर्ण विधान नहीं कर सकता। वह मानवता के स्तर से कभी नहीं गिर सकता। इसलिए कोई भी अन्याय, अत्याचार का विधान मनु का नहीं हो सकता। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि शूद्र सबन्धी अनुचित विधान भी मनुप्रोक्त नहीं हैं।

मनुस्मृति के अध्ययन से हमें जानकारी मिलती है कि मनु एक न्यायप्रिय, धर्मनिष्ठ और आध्यात्मिक राजर्षि थे। वे अन्याय और अधर्म के घोर निन्दक थे। यहां तक कि अन्याय करने वाले राजा की वह निन्दा करते हैं (8.14,15,18,128, आदि)। ऐसा न्यायप्रिय व्यक्ति स्वयं किसी के साथ भी अन्याय और अधर्म का व्यवहार नहीं कर सकता। मनु इतना आध्यात्मिक धर्मशास्त्रकार है कि वह मन से दूसरे के अनिष्टचिन्तन को भी मानसिक पाप मानता है और कहता है कि ऐसा करने वाले को मानसिक क्लेश के रूप में उसका फल भुगतना पड़ेगा (12.5,8)। इन सब उल्लेखोां से मनु का व्यक्तित्व दयालु, धार्मिक, न्यायप्रिय, धर्मनिष्ठ एवं आध्यात्मिक सिद्ध होता है। महाभारत-पुराणों में भी ‘प्राणिमात्र के प्रति हितैषिता’ मनु की विशेषता बतलायी है-

‘‘मनुः वियातमंगलः…….सर्वभूतहितः सदा’’

(भागवत0 3.22,39)

    अर्थात्-‘मनु वियात कल्याणकारी थे और सब प्राणियों के सदा हितैषी थे।’ ऐसा महर्षि दासता की क्रूर प्रथा का समर्थक नहीं हो सकता।

निष्कर्ष यह है कि शूद्रों के नाम पर मनुस्मृति में पाये जाने वाले पक्षपातपूर्ण, अन्याय-अत्याचारयुक्त विधान मनु के मौलिक न होकर बाद के पक्षपाती व्यक्तियों द्वारा किये गये प्रक्षेप हैं।