Category Archives: Manu Smriti

मनुस्मृति में पति-पत्नी को त्यागने की परिस्थितियों का वर्णन: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) मुयतः मनु का यही आदेश है कि विवाह सोच-विचार कर तथा पारस्परिक प्रसन्नता से समान, योग्य युवक और युवती से करें। विवाह के पश्चात् यह आदेश है कि पति पत्नी को और पत्नी पति को संतुष्ट और प्रसन्न रखे। इस प्रकार रहते हुए उन्हें निर्देश है कि वे सदा यह प्रयास रखें कि आजीवन एक-दूसरे से बिछुड़ने का अवसर न आये। मनु का यह प्रथम सिद्धान्त है-

(क) अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः।

       एषः धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः॥ (9.101)

(ख)    तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ।

       यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तौ इतरेतरम्॥ (102)

    अर्थ-‘पति और पत्नी का संक्षेप में सबसे प्रमुख धर्म यह है कि दोनों सदा यह प्रयत्न करें कि मृत्युपर्यन्त दोनों का मर्यादा-अतिक्रमण और पार्थक्य (तलाक) न हो।’

‘विवाह करने के बाद स्त्री और पुरुष सदा ऐसा यत्न करें जिससे वे एक-दूसरे से पृथक् न हों और ऐसे कार्य तथा व्यवहार करें जिससे घर में पृथकता का वातावरण ही न बने।’

(आ) किन्तु इन्हीं श्लोकों की भाषा से यह ध्वनित होता है कि किन्हीं विशेष कारणों से अलग होने का अवसराी अपवाद रूप में होता था। कुछ स्थितियां मनुस्मृति में वर्णित भी हैं जब पति या पत्नी एक दूसरे को छोड़ सकते हैं-

(क) पत्नी को निम्न स्थितियों में छोड़ा जा सकता है-

वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्यादे दशमे तु मृतप्रजा।        

एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥   (9.81)

    अर्थात्-‘स्त्री वन्ध्या हो तो आठ वर्ष पश्चात्, स्त्री को सन्तान होकर मर जाती हों तो दश वर्ष पश्चात्, और पत्नी कटुवचन बोलने वाली हो तो उसको शीघ्र ही छोड़ा जा सकता है।’

(ख) पति को निन स्थितियों में छोड़ा जा सकता है

       प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः।

       विद्यार्थं षट् यशोऽर्र्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान्॥ (9.76)

    अर्थात्-‘यदि पति परदेस जाकर निनलिखित अवधि तक न लौटे तो पत्नी को दूसरा पति करने का अधिकार है-धर्मकार्य के लिए आठ वर्ष तक, विद्याप्राप्ति अथवा प्रसिद्धि प्राप्ति के लिए छह वर्ष तक, धन प्राप्ति के लिए तीन वर्ष तक।’

(इ) किन्तु निर्दोष अवस्था में एक-दूसरे को त्यागने पर दोषी व्यक्ति राजा द्वारा दण्डनीय है-

न माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागमर्हति।      

त्यजन्नपतितानेतान्, राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट्॥       (8.389)

    अर्थ-‘बिना गभीर अपराध के माता, पिता, पत्नी, पुत्र का त्याग नहीं किया जा सकता। ऐसा करने पर राजा द्वारा त्यागकर्त्ता को छह सौ पण दण्ड देना चाहिए और त्यक्त परिजनों को साथ रखने का आदेश देना चाहिये।’

स्त्रियों की सुरक्षा के विशेष नियम: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) स्त्रियों के धन की सुरक्षा के विशेष निर्देश

    स्त्रियों को अबला समझकर कोई भी, चाहे वह बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, यदि यिों के धन पर अधिकार कर लें, तो मनु नेउन्हें चोर सदृश दण्ड से दण्डित करने का आदेश दिया है

(9.212; 3.52; 8.28; 8.29)। कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं-

वन्ध्याऽपुत्रासु चैवं स्याद् रक्षणं निष्कुलासु च।

पतिव्रतासु च स्त्रीषु विधवास्वातुरासु च॥ (8.28)

जीवन्तीनां तु तासां ये तद्धरेयुः स्वबान्धवाः।

तान् शिष्यात् चौरदण्डेन धार्मिकः पृथिवीपतिः॥ (8.29)

    अर्थ-‘सन्तानहीन, पुत्रहीन, जिसके कुल में कोई पुरुष न बचा हो, पतिव्रत धर्म पर स्थिर, विधवा और रोगिणी, इन स्त्रियों के धन की रक्षा करना राजा का कर्त्तव्य है।’

‘यदि जीते-जी इनके धन को इनके परिजन या सगे-सबन्धी ले लें तो उनको धार्मिक राजा चोर के समान मानकर उसी दण्ड से दण्डित करे और उक्त स्त्रियों का धन दिलवाये।’

(आ) नारियों के प्रति किये अपराधों में कठोर दण्ड

    यिों की सुरक्षा के दृष्टिगत नारियों की हत्या और उनका अपहरण करने वालों के लिए मृत्युदण्ड का विधान करके तथा बलात्कारियों के लिए यातनापूर्ण दण्ड देने के बाद देश-निकाला का आदेश देकर मनु ने नारियों की सुरक्षा को सुनिश्चित बनाने का यत्न किया है। नारियों के जीवन में आने वाली प्रत्येक छोटी-बड़ी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये हैं। पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगड़ा न करें (4.180)। नारियों पर मिथ्या दोषारोपण करने वालों, नारियों को निर्दोष होते हुए त्यागने वालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभाने वालों के लिए दण्ड का विधान है।

(क) स्त्रियों के अपहरण पर दण्ड-

पुरुषाणां कुलीनानां नारीणां च विशेषतः।  

मुयानां चैव रत्नानां   हरणे वधमर्हति॥      (8.323)

    अर्थ-‘स्त्रियों का विशेष रूप से तथा कुलीन पुरुषों का अपहरण करने पर अपराधी को मृत्युदण्ड देना चाहिए। इसी प्रकार रत्न आदि प्रमुख पदार्थों की चोरी-डकैती के अपराध में भी मृत्युदण्ड होना चाहिए।’

(ख) स्त्रियों से बलात्कार करने पर यातनापूर्ण दण्ड-

परदाराभिमर्शेषु प्रवृत्तान् नृन् महीपतिः।      

उद्वेजनकरैः दण्डैः छिन्नयित्वा प्रवासयेत्॥  (8.352)

    अर्थ-‘राजा, स्त्रियों से बलात्कार और व्याभिचार में संलग्न लोगों के हाथ, पैर काटना आदि यातनापूर्ण दण्ड देकर उन्हें अपने देश से निकाल दे।’

(ग) स्त्रियों की हत्या करने पर दण्ड-

    ‘‘स्त्रीबालब्राह्मणघ्नांश्च हन्याद् द्विट्सेविनस्तथा।’’ (9.232)

    अर्थ-‘स्त्रियों, बालकों, सदाचारी ब्राह्मणविद्वानों की हत्या करने वालों और शत्रुओं के सहयोगी लोगों को राजा मृत्युदण्ड से दण्डित करे।’

दायभाग में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

संसार के प्रथम विधिनिर्माता महर्षि मनु ने पैतृक सपत्ति में पुत्र-पुत्री को समान अधिकारी माना है। उनका यह मत मनुस्मृति के 9.130, 192 में वर्णित है। मनु के उस मत को प्रमाण मानकर आचार्य यास्क ने निरुक्त में इस प्रकार उद्धृत किया गया है-

(क) अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः।

       मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायभुवोऽब्रवीत्॥   (3.4)

    अर्थात्-‘सृष्टि के प्रारभ में स्वायभुव मनु ने यह विधान किया है कि धर्म अर्थात् कानून के अनुसार दायभाग = पैतृक सपत्ति में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार होता है।’ इसी प्रकार मातृधन में केवल कन्याओं का अधिकार विहित करके मनु ने परिवार में कन्याओं के महत्त्व में अभिवृद्धि की है (9.131)। इस विषय में महर्षि मनु का स्पष्ट मत यह है-

(ख)    यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा।

       तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत्॥   (9.129)

    अर्थ-‘पुत्र अपने आत्मा का ही एक रूप होता है, उस पुत्र के समान ही पुत्री भी आत्मारूप होती है, उनमें कोई भेद नहीं। जब तक आत्मारूप पुत्र और पुत्री जीवित हैं तब तक माता-पिता का धन उन्हें ही मिलेगा, अन्य कोई उसका अधिकारी नहीं है।’

(ग) एक अन्य धन-विभाजन में माता और भाई के धन में क्रमशः पुत्र-पुत्रियों और भाई-बहनों का समान भाग वर्णित किया है –

जनन्यां संस्थितायां तु समं सर्वे सहोदराः।      

भजेरन् मातृकं रिक्थं भगिन्यश्च सनाभयः॥    (9.192)

सोदर्या विभजेरन् तं समेत्य सहिता समम्।      

भ्रातरो ये च संसृष्टा भगिन्यश्च सनाभयः॥     (9.212)

    अर्थ-‘माता के देहान्त के पश्चात् सभी सगे भाई और सगी बहनें मातृधन को बराबर बांट लें।’

‘इसी प्रकार किसी अविवाहित भाई के मर जाने पर सभी सगे भाई व बहनें मिलकर उसके धन को बराबर बांट लें।’

इन प्रमाणों से ज्ञात होता है कि मनु ऐसे पहले संविधान-निर्माता हैं जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के पुत्र-पुत्री को समान माना है और बराबर दायभाग प्रदान किया है।

युवतियों को वैवाहिक स्वतन्त्रता: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) स्वयवर विवाह का अधिकार

महर्षि मनु, युवतियों को वैवाहिक स्वतन्त्रता का अधिकार देते हैं। विवाह के विषय में मनु के विचार आदर्श हैं। वे कन्याओं के लिए सोलह वर्ष से अधिक आयु को विवाह-योग्य मानते हैं और सहमतिपूर्वक विवाह को उत्तम मानते हैं। मनु ने कन्याओं को योग्य पति का स्वयं वरण करने का निर्देश देकर स्वयवर विवाह का अधिकार एवं उसकी स्वतन्त्रता दी है (9.90-91)। विधवा को पुनर्विवाह का भी अधिकार दिया है तथा साथ ही सन्तानप्राप्ति के लिए नियोग की भी छूट है (9.176, 9.56-63)। उन्होंने विवाह को कन्याओं के आदर-स्नेह का प्रतीक बताया है, अतः विवाह में किसी भी प्रकार के लेन-देन को अनुचित बताते हुए बल देकर उसका निषेध किया है (3.51-54)। यिों के सुखी-जीवन की कामना से उनका सुझााव है कि जीवनपर्यन्त अविवाहित रहना श्रेयस्कर है, किन्तु गुणहीन और दुष्ट पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए (9.89)। कुछ प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

त्रीणि   वर्षाण्युदीक्षेत   कुमार्यृतुमती सती।  

ऊर्ध्वं तु कालादेतस्मात् विन्देत सदृशं पतिम्॥ (9-90)

अदीयमाना भर्तारमधिगच्छेद् यदि स्वयम्।  

नैनः किंचिदवाप्नोति न च यं साऽधिगच्छति॥ (9-91)

    अर्थ-विवाह करने की इच्छुक कन्या स्वयवर विवाह कर सकती है। ऋतुमती होने के तीन वर्ष बाद तक वह विवाह की प्रतीक्षा करे। उसके बाद उसे स्वयं पति का वरण करके विवाह करने का वैधानिक अधिकार है।

उस अवस्था में यदि वह विधिवत् स्वयवर विवाह करती है तो न तो उस कन्या को दोषी माना जायेगा और न पति को दोषी माना जायेगा।

(आ) गुणहीन पुरुष से विवाह नहीं

महर्षि मनु पुरुष-पक्षपाती और अन्धश्रद्धा पर आधारित आदेश-निर्देश देने वाले विधिदाता नहीं हैं। वे दुष्ट पति को भी पति-परमेश्वर मानने के पक्षधर बिल्कुल नहीं है। उनके आदेश यथायोग्य न्याय पर आधारित होते हैं। मनु का आदेश है कि कन्या चाहे आजीवन कुंवारी रह जाये किन्तु उसे गुणहीन पुरुष से न तो विवाह करना चाहिए और न ऐसे पुरुष को पति स्वीकारना चाहिए-

    काममामरणात्तिष्ठेत्   गृहे   कन्यर्तुमत्यपि।  

    न चैवेनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्॥   (9.89)

    अर्थ-ऋतुमती होने के बाद तीन वर्ष बीत जाने पर भी चाहे कन्या आजीवन कुंवारी रही रहे किन्तु गुणहीन पुरुष से उसको विवाह कदापि नहीं करना चाहिए।

पुत्र-पुत्री में भेदभाव नहीं: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

मनुमत से अनभिज्ञ पाठकों को यह जानकर सुखद आश्चर्य होना चाहिये कि मनु ही सबसे पहले वह संविधान-निर्माता हैं जिन्होंने पुत्र-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रूप दिया है-

    ‘‘यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा’’   (मनु0 9.130)

    अर्थात्-‘‘पुत्री, पुत्र के समान होती है क्योंकि वह भी पुत्र के समान आत्मारूप है। इस प्रकार पुत्र और पुत्री में कोई भेद नहीं है। अतः उसके साथ कोई भेदभाव भी नहीं किया जाना चाहिए।’’

नारी का परिवार में महत्त्व: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु के अनुसार नारी का परिवार में महत्त्वपूर्ण स्थान है। महर्षि मनु परिवार में पत्नी को पति से भी अधिक महत्त्व देते हैं। वे पति-पत्नी को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से एक दूसरे को संतुष्ट रखने का दायित्व सौंपते हैं। इसी स्थिति में वे परिवार का निश्चित कल्याण मानते हैं। मनु के कुछ मन्तव्य इस प्रकार हैं-

(अ)   पति-पत्नी की पारस्परिक संतुष्टि से ही कुल का कल्याण संतुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च।

      यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्॥     (3.60)

    अर्थ-‘जिस कुल में भार्या=पत्नी के व्यवहार से पति संतुष्ट रहता है और पति के व्यवहार से पत्नी सन्तुष्ट रहती है, उस परिवार का निश्चय ही कल्याण होता है।’

(आ) नारी की प्रसन्नता में परिवार की प्रसन्नता निहित है-

   स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद् रोचते कुलम्।    

   तस्यां त्वरोचमानायां सर्वमेव न रोचते॥ (3.62)

   तस्मादेताः सदा पूज्याः भूषणाच्छादनाशनैः।  

   भूतिकामैर्नरैः नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च॥ (3.59)

   पितृभिः भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा।  

   पूज्याः भूषयितव्याश्च बहुकल्याणभीप्सुभिः॥ (3.55)

    अर्थ-‘स्त्री के प्रसन्न रहने पर ही सारा कुल प्रसन्न रह सकता है। उसके अप्रसन्न रहने पर सारा परिवार प्रसन्नता-विहीन हो जाता है।’

‘इस कारण अपना और अपने परिवार का कल्याण चाहने वालों का कर्त्तव्य है कि वे सत्कार के अवसर पर और खुशियों के अवसर पर स्त्रियों का आभूषण, वस्त्र, खान-पान आदि के द्वारा सदा सत्कार व आदर किया करें।’

‘अपना और अपने परिवार का अधिक कल्याण चाहने वाले पिता आदि बड़ों, भाइयों, पति और देवरों का यह कर्त्तव्य है कि वे नारियों का सदा आदर करें और आभूषण, वस्त्र आदि द्वारा उनको सुशोभित रखें।’

(इ)     पत्नी के शोकग्रस्त होने से कुल नाश-

शोचन्ति जामयो यत्र विनशत्याशु तद्कुलम्।  

   न शोचन्ति तु यत्रैताः वर्धते तद्धि सर्वदा॥ (3.57)

   जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः।  

   तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः॥ (3.58)

    अर्थ-‘पत्नियों का आदर क्यों चाहिए? क्योंकि जिन कुलों में अनादरपूर्ण व्यवहार से पत्नियां शोकग्रस्त रहती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। जहां शोकग्रस्त नहीं रहती अर्थात् प्रसन्न रहती हैं वह कुल उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है।’

‘अनादर के कारण शोकपीड़ित रहने वाली स्त्रियां जिन घरों को अभिशाप देती हैं अर्थात् कोसती हैं यह समझो कि वह परिवार इस प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे किसी घातक विपदा से लोग नष्ट हो जाते हैं। उस परिवार का चहुंमुखी पतन हो जाता है।’

(ई) पत्नी परिवार के सुख का आधार

       अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषारतिरुत्तमा।    

       दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितृणामात्मनश्च ह॥       (9.28)

    अर्थ-‘सन्तानोत्पत्ति, धर्म कार्यों का अनुष्ठान, उत्तम सेवा, उत्तम रतिसुख, अपना तथा घर के बड़े-बुजुर्गों का सुख और सेवा, निश्चय ही ये सब पत्नी के अधीन हैं अर्थात् पत्नी से ही संभव हैं।

(उ) माता, बहन, पुत्री, भार्या से कलह न करें-

नारियों के समान की रक्षा करते हुए मनु ने परिवार में उनकी स्थिति को सुरक्षित एवं सयतापूर्ण बनाया है। उनके साथ मारपीट की बात तो दूर है, उनके साथ विवाद=कलह अथवा व्यर्थ की बहस भी करने का निषेध किया है-

    ‘‘माता पितृयां……भार्यया, दुहित्रा विवादं न समाचरेत्।’’       (4.180)

    अर्थ-‘माता, पिता, पत्नी पुत्री आदि के साथ कलह न करें। उन पर कोई आरोप न लगायें।’ ऐसा करने पर पुरुषों को दण्डित करने का आदेश मनु ने दिया है-

‘‘मातरं पितरं जायाम्……आक्षारयन् शतं दण्ड्यः।’’ (8.180)

    अर्थ-‘माता,पिता, पत्नी पर मिथ्या आरोप लगाने वालों को एक सौ पण का दण्ड दिया जाना चाहिए।’

(ऊ) माता, स्त्री आदि का त्याग नहीं किया जा सकता

समाज में स्वार्थी, लोभी मनुष्य भी रहते हैं। वे कभी-कभी स्वार्थ और लोभ से प्रेरित होकर माता, पिता, पत्नी आदि को छोड़ देते हैं। सेवा-संभाल न करनी पड़े, कभी इस कारण उनको अपने से पृथक् कर देते हैं। मनु का यह आदेश है कि माता आदि को किसी भी रूप में नहीं छोड़ा जा सकता। छोड़ने वाला व्यक्ति दण्डनीय होगा। उनके जीवन को सुरक्षित बनाने के लिए मनु का यह आदेश है-

माता न पिता न स्त्री न पुत्रस्त्यागमर्हति।

त्यजन्-अपतितान् एतान् राज्ञा दण्ड्यः शतानि षट्॥ (8.389)

    अर्थ-बिना गभीर अपराध के माता, पिता, पत्नी, पुत्र का त्याग नहीं किया जा सकता। इनको छोड़ने वाला व्यक्ति राजा द्वारा छह सौ पण के द्वारा दण्डनीय होगा और त्यागे हुए परिजनों को पुनः साथ रखकर उनकी सेवा-संभाल करनी होगी।

नारियों को सर्वोच्च सम्मान दाता मनु: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) नारियों को सर्वोच्च सम्मान दाता मनु

वैदिक परपरा में ‘माता’ को प्रथम गुरु मानकर सम्मान दिया जाता था। मनु उसी परपरा के हैं। महर्षि मनु विश्व के वे प्रथम महापुरुष हैं जिन्होंने नारी के विषय में सर्वप्रथम ऐसा सर्वोच्च आदर्श उद्घोष दिया है, जो नारी की गरिमा, महिमा और समान को सर्वोच्चता प्रदान करता है। संसार के किसी पुरुष ने नारी को इतना गौरव और समान नहीं दिया। मनु का वियात श्लोक है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।      

यत्रैताः तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफला क्रियाः॥   (3.56)

अर्थ-इसका सही अर्थ है- ‘जिस समाज या परिवार में नारियों का आदर-समान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्य गुण, दिव्य सन्तान, दिव्य लाभ आदि प्राप्त होते हैं और जहां इनका आदर-समान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों की सब गृह-सबन्धी क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं।’

नारियों के प्रति मनु की भावना का बोध कराने वाले, स्त्रियों के लिए प्रयुक्त समानजनक एवं सुन्दर विशेषणों से बढ़कर और कोई प्रमाण नहीं हो सकते। वे कहते हैं कि नारियां घर का भाग्योदय करने वाली, आदर के योग्य, घर की ज्योति, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, गृहसंचालिका एवं गृहस्वामिनी, घर का स्वर्ग और संसारयात्रा की आधार होती हैं-

    प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हाः   गृहदीप्तयः।

    यिःश्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन॥ (मनु0 9.26)

    अर्थात्- ‘सन्तान उत्पत्ति करके घर का भाग्योदय करने वाली, आदर-समान के योग्य, गृहज्योति होती हैं यिां। शोभा, लक्ष्मी और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है, वे घर की प्रत्यक्ष शोभा हैं।’

(आ) स्त्रियों को सम्मान में प्राथमिकता

‘लेडीज फस्ट’ की सयता के प्रशंसकों को यह पढ़कर और अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए कि महर्षि मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि ‘यिों के लिए पहले रास्ता छोड़ दें। और नवविवाहिताओं, कुमारियों, रोगिणी, गर्भिणी, वृद्धा आदि यिों को पहले भोजन कराने के बाद फिर पति-पत्नी को साथ भोजन करना चाहिए।’ मनु के ये सब विधान यिों के प्रति समान और स्नेह के द्योतक हैं।’ कुछ श्लोक देखिए –

चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः।  

स्नातकस्य च राज्ञश्च पंथा देयो वरस्य च॥ (2.138)

सुवासिनीः कुमारीश्च रोगिणी गर्भिणी स्त्रियः।  

अतिथियोऽग्र एवैतान् भोजयेदविचारयन्॥ (3.114)

    अर्थ-‘स्त्रियों, रोगियों, भारवाहकों, नबे वर्ष से अधिक आयु वालों, गाड़ी वालों, स्नातकों, वर और राजा को पहले रास्ता देना चाहिए।’

‘नवविवाहिताओं, अल्पवय कन्याओं, रोगी और गर्भिणी स्त्रियों को, आये हुए अतिथियों से भी पहले भोजन करायें। फिर अतिथियों और भृत्यों को भोजन कराके द्विज-दपती स्वयं भोजन करें।’

समान और शिष्टाचार का परिचय ऐसे ही अवसरों पर मिलता है। मनु ने नारी के प्रति शिष्टाचार को बनाये रखा है।

डॉ अम्बेडकर द्वारा मनुप्रोक्त वर्णपरिवर्तन का समर्थन: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर  ने कई स्थलों पर प्राचीन काल में वर्णपरिवर्तन के अवसरों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। वर्णपरिवर्तन का स्पष्ट अभिप्राय है कर्मणा वर्णव्यवस्था, और कर्मणा वर्णव्यवस्था का अभिप्राय है जन्मना जातिवाद का अस्तित्व न होना। इस प्रकार वैदिक और मनु की वर्णव्यवस्था में कहीं भी आपत्ति करने की गुंजाइश नहीं रहती है। वे लिखते हैं-

(क) ‘‘इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य होने के लिए चुन लिए जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गए होते थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 170)

इस सन्दर्भ के अतिरिक्त डॉ0 अम्बेडकर र ने ऊपर तथा अन्य उन उद्धृत श्लोकों के अर्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है जिनमें मनु ने वर्णपरिवर्तन का विधान किया है। इसका अभिप्राय यह निकला कि वे श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र को सिद्धान्त रूप में मान्य हैं-

(ख) ‘‘जिस प्रकार कोई शूद्र ब्राह्मणत्व को और कोई ब्राह्मण शूद्रत्व को प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न भी प्राप्त होता है।’’ (मनुस्मृति 10.65) (वही, खंड 13, पृ0 85)

(ग) ‘‘प्रत्येक शूद्र जो शुचिपूर्ण है, जो अपने से उत्कृष्टों का सेवक है, मृदुभाषी है, अहंकाररहित है, और सदा ब्राह्मणों के आश्रित रहता है, वह उच्चतर जाति प्राप्त करता है।’’ (मनुस्मृति 9.335)(वही, खंड 9, पृ0 117)

मनु की वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र वर्णपरिवर्तन करके उच्च वर्ण प्राप्त कर सकते थे, मनु के इस सिद्धान्त का डॉ0 अम्बेडकर र स्पष्ट समर्थन कर रहे हैं। मनु आपत्तिरहित सिद्धान्त के प्रदाता हैं, फिर भी मनु का विरोध क्यों? अपने इस परस्परविरोध का उत्तर डॉ0 अम्बेडकर र को देना चाहिए था किन्तु उन्होंने कहीं नहीं दिया क्या अब डॉ0 साहब के अनुयायी या अन्य मनुविरोधी, शूद्र-सबन्धी परस्परविरोधों का उत्तर देने का साहस करेंगे?

 

मनु की वर्णव्यवस्था में सबको वर्णपरिवर्तन का अधिकार: डॉ. सुरेन्द्र कुमार

(अ) शूद्रों को उच्चवर्ण की प्राप्ति के अवसर

मनु की कर्म पर आधारित वैदिक वर्णव्यवस्था की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि वे प्रत्येक वर्ण को जीवन भर वर्ण-परिवर्तन का अवसर देते हैं। जन्मना जातिवाद के समान जीवन भर एक ही जाति नहीं रहती। शूद्र कभी भी उच्चवर्ण की योग्यता प्राप्त कर उच्चवर्ण में स्थान पा सकता है। देखिये, मनु का कितना स्पष्ट मत है जिसको पढ़कर तनिक भी संदेह नहीं रहता-

(क) शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।

       क्षतियात् जातमेवं तु विद्यात् वैश्यात् तथैव च॥ (10.65)

    अर्थ-‘शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण के गुण, कर्म, योग्यता को अर्जित कर ब्राह्मण बन सकता है और ब्राह्मण, गुण, कर्म, योग्यता से हीन होने पर शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में उत्पन्न सन्तानों का भी वर्णपरिवर्तन हो जाता है।’

(ख) शूद्र द्वारा उत्तम वर्ण की प्राप्ति का निर्देश तथा उत्तम वर्णों की प्राप्ति के उपायों का वर्णन मनु ने इस श्लोक में भी किया है-

       शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः     मदुवागनहंकृतः।

       ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥     (9.335)

    अर्थ-‘सदा शुद्ध-पवित्र रहने वाला, अपने से उत्तम जनों या वर्णों की संगति में रहने वाला, मृदुभाषी, अहंकाररहित, ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों के सेवा कार्य में संलग्न रहने वाला शूद्र अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त कर लेता है।’ अर्थात् वह वर्णपरिवर्तन की योग्यता अर्जित करके उत्तम वर्ण को प्राप्त करके द्विजाति वर्ण का हो जाता है।

(शूद्रों द्वारा वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण ‘वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन’ शीर्षक में पृ0 104-108 पर द्रष्टव्य हैं)

डॉ अम्बेडकर का मनु-समर्थक मत-डॉ. सुरेन्द्र कुमार

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)

पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।

नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)

कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।

तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)

उपर्युक्त चारों श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र ने अपने ग्रन्थों में अनेक बार प्रमाण रूप में उद्धृत किये हैं और इनका अर्थ भी लगभग ठीक दिया है (द्रष्टव्य-डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खण्ड 7, पृ0 250)

इसका अर्थ यह हुआ कि डॉ0 साहब इनको सही मानते हैं। यथायोग्य दण्डव्यवस्था में किसी को आपत्ति भी क्या हो सकती है? डॉ0 अम्बेडकर र को आपत्ति उन श्लोकों पर है जो पक्षपातपूर्ण दण्ड- व्यवस्था का विधान करते हैं। अब प्रश्न यह है कि इन यथायोग्य दण्डविधानों के होते हुए और उनको प्रमाणरूप में उद्धृत करने पर भी, इनके विरुद्ध श्लोकों को प्रमाण मानकर मनु का विरोध क्यों किया जा रहा है? तर्कसंगत सिद्धान्तों का विरोध करने का क्या औचित्य है? क्या यह डॉ0 अम्बेडकर र का परस्परविरोध नहीं है?

    प्रश्न-मनु की न्याय और दण्डव्यवस्था से क्या आज की न्यायपद्धति और दण्डव्यवस्था अच्छी नहीं है? आज कानून की दृष्टि में सब बराबर हैं, यह कितना न्यायपूर्ण विधान है। मनु ने सबके लिए समान दण्ड क्यों नहीं रखा?

    उत्तर-महर्षि मनु की न्याय और दण्ड-व्यवस्था आज की दण्ड और न्याय-व्यवस्था से उत्तम, यथायोग्य, और मनोवैज्ञानिक है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

मनु की दण्डव्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और श्रेष्ठप्रभावी है, इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा। आज की दण्डव्यवस्था का सिद्धान्त है-‘कानून की दृष्टि में सब समान हैं।’ पहला परस्परविरोध यही हुआ कि पदस्तर और सामाजिक स्तर के अनुसार सुविधा एवं समान-व्यवस्था तो पृथक्-पृथक् हैं और दण्ड एक जैसा। इसे न्याय नहीं कहा जा सकता। उच्च पद और उच्च स्तर पर बैठा व्यक्ति अधिक बौद्धिक विवेक रखता है अधिक सामाजिक सुविधाओं और समान का उपभोग करता है। उसके द्वारा किये गये अपराध का दुष्प्रभाव भी उतना ही तीव्र एवं व्यापक होता है। इस आधार पर यथायोग्य दण्डव्यवस्था यह कहती है कि उसे दण्ड भी अधिक मिलना चाहिए। अधिक सुविधा और समान है तो दण्ड कम क्यों? एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी और एक प्रथम श्रेणी अधिकारी या शासक समानप्राप्ति में बराबर नहीं तो दण्डप्राप्ति में बराबर कैसे माने जा सकते हैं?

दूसरा परस्परविरोध यह है कि ‘समान दण्ड का सिद्धान्त’ क्षमता (धन, बल, पद, प्रभाव) की दृष्टि से यथायोग्य दण्ड नहीं है। इसे भी न्याय नहीं माना जा सकता। इसे यों समझिए कि खेत चर जाने पर मेमने को भी एक डण्डा लगेगा, भैंसे, हाथी और शेर को भी। इसका प्रभाव क्या होगा? बेचारा मेमना डण्डे के प्रहार से मिमियाने लगेगा, भैंसे में कुछ हलचल होगी, हाथी और शेर उलटा मारने दौडेंगे। क्या यह वास्तव में समान दण्ड हुआ? नहीं!! समान दण्ड तो वह है, जो लोकव्यवहार में प्रचलित है। मेमने को डंडे से, भैंसे को लाठी से, हाथी को अंकुश से और शेर को हण्टर से वश में किया जाता है। दूसरा उदाहरण लीजिए-एक अत्यन्त गरीब एक हजार के दण्ड को कर्ज लेकर चुका पायेगा, मध्यवर्गीय थोड़ा कष्ट अनुभव करके चुकायेगा और समृद्ध-सपन्न जूती की नोंक पर रख देगा। यह समान दण्ड नहीं है। इसी अमनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था का परिणाम है कि दण्ड की पतली रस्सी में आज गरीब तो फंसे रहते हैं, किन्तु धन-पद-सत्ता-सपन्न शक्तिशाली लोग उस रस्सी को तोड़ कर निकल भागते हैं। आंकड़े इकट्ठे करके देख लीजिए, स्वतंत्रता के बाद कितने गरीबों को सजा हुई है, और कितने धन-पद-सत्ता-सपन्न लोगों को! आर्थिक अपराधों में समृद्ध लोग अर्थदण्ड भरते रहते हैं और अपराध करते रहते हैं। मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में ऐसा असन्तुलन और दोष नहीं है।

मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति, अपराधी का पद और अपराध के प्रभाव पर निर्भर है। वे गभीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही करते हैं और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता है। शूद्रों के लिए जो पक्षपातपूर्ण कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह केवल प्रक्षिप्त श्लोकों में है। वे श्लोक मनुरचित नहीं है, बाद के लोगों द्वारा मिलाये गये हैं।