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धर्म के लक्षणों की परस्पर उत्तमता, मध्यमता और निकृष्टता का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब धर्मों की उत्तमता, मध्यमता और निकृष्टता का सापेक्ष होना इस पाँचवें प्रकरण में दिखाते हैं- इससे पूर्व धर्म शब्द का व्याकरण और कोष सम्बन्धी दोनों अर्थ दिखाया गया है। अब धर्म के अवान्तर भेद, उसका स्वरूप और उस धर्म के सहायकारी कहने चाहियें। इसके पीछे धर्मों के उत्तम, मध्यम, निकृष्ट होने में सापेक्षता कहेंगे।

इसी मानवधर्मशास्त्र में लिखा है कि ‘सम्पूर्ण वेद धर्म का मूल है’१ इस प्रमाण का आश्रय लेकर वृक्षरूप धर्म का मूल वेद है क्योंकि वेद से ही धर्मरूप वृक्ष उगता है यह विद्वानों का सिद्धान्त है। उस वृक्षरूप धर्म के तीन अवयव या भाग मुख्य हैं। सो ब्राह्मणों या उपनिषदों में ठीक-ठीक कहा है कि ‘धर्म के तीन कांड वा गुद्दे हैं- यज्ञ, अध्ययन और दान’२। वृक्ष में पहले निकलने वाली स्थूल शाखाओं को स्कन्ध (गुद्दा) कहते हैं। वैसे ही धर्म के मुख्य या स्थूल तीन अवयव हैं। अर्थात् धर्म तीन भागों में विभक्त है। यज्ञ शब्द से कर्म, उपासना और ज्ञान इन तीनों का ग्रहण होता हैं। इसीलिये धर्मशास्त्र में लिखा है कि- ‘कोई विद्वान् लोग वाणी में प्राण का और कोई प्राण में वाणी का होम करते हैं’३ अर्थात् यह अध्यात्म यज्ञ है। जो लोग प्राण की क्रिया को वाणी में अर्थात् देखने-सुनने रूप क्रिया को वाणी में समाप्त करते अर्थात् वाणी से पढ़ना-पढ़ाना, धर्म   सम्बन्धी सत्य विषयों का उपदेश करना वा स्तुति-प्रार्थना की प्रवृत्ति बढ़ाना और अन्य इन्द्रियों के कार्य को शिथिल करना जानते हैं, वे ही जानो वाणी में अर्थात् कर्मेन्द्रियों में ज्ञानेन्द्रियों को शिथिल वा लीन करते हैं। और जो प्राण में वाणी का होम करते हैं, वे ज्ञानेन्द्रियों में कर्मेन्द्रियों की वृत्ति को समाप्त करते हैं। क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों की मुख्य प्रवृत्ति करने वाला प्राण है। और वाणी में प्राण का वा प्राण में वाणी का कोई लोग होम करते हैं, इस कथन का मुख्य अभिप्राय तो यही है कि सत्यभाषण और प्राणायामादि धर्म सम्बन्धी कृत्य भी एक यज्ञ ही है। वेदादि शास्त्रों वा उनके अभिप्रायों को सत्यवक्ता विद्वान् के मुख से सुनना और उस सुनने से हुए अच्छे संस्कार वा शुभ गुणों का धारण करना अध्ययनरूप धर्म कहाता है। उन वेदादि के ही सुनने से धारण किये धर्मरूप संस्कारों को परोपकार होने के लिए देना दान कहाता है, अर्थात् शास्त्र की आज्ञानुसार अन्यों को सुख पहुंचाने के लिए विद्या वा धर्म उपदेश करना वाणी का देना है। मन से अन्यों का भला चाहना मन का दान है। और शास्त्र में लिखे अनुसार सुपात्रों का धनादि से यथायोग्य सत्कार करना शरीर से दान है। अर्थात् जिन पदार्थों से अन्य प्राणियों को सुख पहुंचे तथा वे पदार्थ अपने पास हों तो दूसरों को देना मुख्यकर दान है। प्रयोजन यह है कि जिस वस्तु को हम देना चाहते हैं वह याचक के पास भी है और उसके देने से ग्रहीता को विशेष सुख नहीं पहुंचता तो वह मुख्य दान नहीं किन्तु गौण है। इससे सिद्ध हुआ कि जिस वस्तु, गुण, कर्म वा वचन के बिना किसी को दुःख मिल रहा है और वही वस्तु आदि यदि अपने निकट है तो उस मनुष्य को उस वस्तु आदि का अंश उस दुःखी आदि को देना चाहिये यही दान परमधर्म है। और जो दया, क्षमा, जितेन्द्रियतादि अन्य धर्म के अवयव दीख पड़ते हैं, वे इसी तीन प्रकार के अवान्तर भेद हैं। जैसे दान के अन्तर्गत दया घुस जाती है। क्योंकि दया का प्रयोजन है कि दुःखी पर दया करे तो उसको दुःख हटने के लिये औषध देवे कि जिससे उसका दुःख दूर हो तो जानो वह पुरुष दयालु है। दया दान में भेद केवल यही है कि दया केवल मानस धर्म है और दान मुख्यकर वाणी और शरीर से सम्बन्ध रखता है। इसी प्रकार अन्य भी भेद इन्हीं में आ जाते हैं।

मनुस्मृति के षष्ठाध्याय में लिखा है१ कि ‘धृति- धैर्य, क्षमा- सहना, दम- इन्द्रियों की भीतरी वृत्ति को वश में रखना, अस्तेय- आज्ञा के बिना किसी की वस्तु को न लेना, शौच- मन वा शरीर को भीतर-बाहर शुद्ध रखना अर्थात् मिथ्या व्यवहार न करना। इसीलिये पञ्चमाध्याय में लिखा है कि- ‘जो लेन-देनरूप व्यवहार में शुद्ध है, जो कभी मिथ्या व्यवहार वा छल प्रपञ्चादि नहीं करता है, वही शुद्ध है और उसकी अपेक्षा मिट्टी-जल से शुद्ध हुआ वैसा शुद्ध नहीं।’२ अर्थात् इसका यह अभिप्राय नहीं है कि मिट्टी-जल से शुद्धि न करनी चाहिये वा करना अच्छा नहीं, किन्तु अभिप्राय यह है कि एक तो केवल मिट्टी-जल से शरीर को शुद्ध रखता और एक पुरुष शुद्ध सत्य व्यवहार करता, भीतर से किसी प्रकार का छल-कपट नहीं रखता, इन दोनों में व्यवहार की शुद्धि रखने वाला उसकी अपेक्षा अच्छा श्रेष्ठ है। दोनों प्रकार की शुद्धि न रखने की अपेक्षा केवल शरीर को शुद्ध रखने वाला भी उत्तम है परन्तु दोनों प्रकार की भीतर-बाहर शुद्धि रखने वाला केवल व्यवहार की शुद्धि रखने वाले की अपेक्षा अत्यन्त श्रेष्ठ है। इस प्रकार ये सब सापेक्ष हैं।

विषयों पर गिरने से इन्द्रियों को रोकना इन्द्रियनिग्रह कहाता है। धी- कर्त्तव्याकर्त्तव्य को न भूलना या विचार पूर्वक परिणाम को सोचकर कार्य का प्रारम्भ करना, विद्या पढ़ना, सत्य बोलना और क्रोध को छोड़ना ये आध्यात्मिक सामान्यकर धर्म के दश चिह्न हैं।’ ये चिह्न जिसमें हों, वह पुरुष सामान्य कर धर्मात्मा कहाता है। ये सामान्य धर्म के स्वरूप हैं। इनके साथ सामान्य विशेषण इसलिये लगाया है कि ये किसी निज ब्राह्मणादि वर्ण के धर्म नहीं किन्तु सब वर्णों वा सब आश्रमियों को सेवने योग्य हैं। यद्यपि सामान्य धर्म का सेवन किये बिना विशेष का सेवन ठीक-ठीक उपकारी नहीं हो सकता, तथापि यदि दोनों का एक साथ सेवन आ पड़े और एक ही का हो सकता हो तो वहां विशेष का सेवन करना चाहिये और सामान्य को छोड़ देना चाहिये यही विशेष धर्म में विशेषता है। और इसी आशय को लेकर कहा गया है कि- ‘विशेष प्रबल होता है।’१ इसीलिये इस श्लोक से पूर्व ९१वें श्लोक में यह धर्म चारों आश्रम वालों को सेवने योग्य लिखा है।

महाभारत के वनपर्वान्तर्गत यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में लिखा है कि- ‘यशः= अच्छे-अच्छे संसारी मनुष्यों को सुख पहुंचानेरूप धर्मसम्बन्धी कार्यों के करने से संसार में कीर्त्ति होना सत्यम्= मन, वचन, कर्म से सत्य का वर्त्ताव करना दमः= इन्द्रियों के साथ लगी मन की वृत्ति को वश में करना शौचम्= विद्या, तप आदि से भीतरी मन की और मिट्टी-जलादि से बाहरी शरीर की शुद्धि करना आर्जवम्= कोमलता का वर्त्ताव करना अर्थात् गर्व, मान, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष या क्रोधादि का छोड़ना ह्रीः= बुरे निन्दित काम से लज्जित होना अचापलम्= चपलता का छोड़ना दानम्= सुपात्रों को विद्या, धनादि का यथायोग्य देना दया= चित्त में दूसरों के दुःख हटाने की इच्छा रखना वा अन्य के दुःख में दुःख मानना ब्रह्मचर्यम्= धर्मशास्त्रों में लिखे अनुसार ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का यथावत् सेवन करना वा गृहाश्रम में भी परस्त्री के साथ व्यभिचार छोड़कर अपनी स्त्री के साथ ऋतुकालाभिगामी होना, ये सब धर्म के शरीर वा स्वरूप हैं।’२ अर्थात् इन सबका होना ही साक्षात्   धर्म का होना है। और ये लक्षण जिसमें हों वही धर्मात्मा कहाता है।

तथा महाभारत के उसी स्थल में यह भी लिखा है कि- ‘अंहिसा= सब काल में सब प्राणियों से सब प्रकार द्रोह न रखना समता= अपने तुल्य सबको समझना जैसे हम अपने लिये किसी प्रकार का दुःख वा दुःख की सामग्री नहीं चाहते वैसे जान लें कि अन्य भी कोई नहीं चाहता होगा। जैसे दुःख देने वाले को हम बुरा समझते हैं, वैसे यदि हम किसी को दुःख दें तो हमको भी वह वैसा ही समझेगा। इसका नाम समता है। इसी को आत्मौपम्यदर्शन भी कहते हैं। शान्तिः= व्याकुल न होना न घबराना तपः= भूख-प्यास, मान-अपमान आदि में हर्ष-शोक न करना शौचम्= पवित्रता रखना अमत्सरः= ईर्ष्या, मत्सरता का छोड़ना, ये सब धर्म के द्वार हैं’१ अर्थात् धर्मरूप दुर्ग में घुसना, चाहे वह इन अहिंसादि का सेवन करे। जो मनुष्य अहिंसादि की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया, वह जानो धर्म के द्वार पर पहुंच गया। परन्तु यह भी सामान्य धर्म है अर्थात् सब मनुष्यमात्र को सेवने योग्य है।

तथा महाभारत उद्योगपर्व के विदुरप्रजागर में यह लिखा है कि- ‘यज्ञ करना, वेदादि का पढ़ना और दान देना, तप- मानापमानादि का सहना, सत्य बोलना, क्षमा करना, बुराई से घृणा रखना, लाभ छोड़के सन्तोष को धारण करना यह आठ प्रकार का धर्म सम्बन्धी मार्ग है।’२ इस पर चलने वाला धर्मनिष्ठ वा     धर्मात्मा कहाता है। यह सब भी उन्हीं तीन यज्ञादि धर्मों का व्याख्यान या विस्तार है। इन पूर्वोक्त धर्म के आठ भेदों में से यज्ञ, अध्ययन, दान, तप ये चार दम्भ के लिये भी सेवन किये जाते हैं। अर्थात् अपने को धर्मात्मा प्रसिद्ध करने के लिये ढोंगलीला करने वाले लोग भी दिखाने मात्र के लिये यज्ञादि करते वा कर सकते हैं। और पिछले सत्यादि चार धर्म के लक्षण दुरात्मा वा अधर्मियों में नहीं ठहर सकते। अर्थात् पिछले चार का सेवन दम्भ से नहीं हो सकता। परन्तु धर्म का मुख्य स्वरूप तो सत्य ही है। इसी कारण शास्त्रों में सर्वोपरि सत्य की प्रशंसा लिखी है कि- ‘सत्य से परे कोई उत्तम धर्म नहीं और मिथ्या व्यवहार से परे बुरा कोई पाप नहीं।’३ तथा ‘जिसमें सत्य का लेश नहीं वह धर्म नहीं है।’४ इससे सत्य और     धर्म का समवाय सम्बन्ध समझना चाहिये कि जहां-जहां सत्य रहता है वहां-वहां धर्म वा जहां-जहां धर्म है वहां-वहां सत्य अवश्य रहता है। इससे ज्ञात होता है कि जहां-जहां छल-कपटादि का प्रवेश है वहां-वहां यज्ञादि को भी धर्म नहीं कह सकते। इसी से अपने तुल्य सबके सुख-दुःख को देखना रूप समता भी धर्म का स्वरूप है, यह सिद्ध हो जाता है। क्योंकि मेरे साथ कोई छल-कपटादि करे, ऐसा कोई नहीं चाहता तो समदर्शी होना भी सत्याचरण के अनुकूल ही बन सकता है। तात्पर्य यह है कि जैसे ‘हाथी के पांव में सबका पांव’ यह जनश्रुति- (कहावत) प्रसिद्ध है वैसे सत्य नामक धर्म के लक्षण में सब लक्षण अन्तर्गत हो जाते हैं। और कहीं आनृशंस्य को परमधर्म माना है। आनृशंस्य नाम दया वा रक्षा करने का है दोनों का तात्पर्य यह है कि दुःखी प्राणी वा मनुष्यों को दुःख से बचाना, इसकी उत्तमता भी सापेक्ष है। सब पर दया वा सबकी रक्षा करने की अपेक्षा मनुष्य की रक्षा करना वा मनुष्य जाति पर दया करना उत्तम है। पर सत्य सब धर्म के अंगों में मिला रहता है। इसी से बनावटी दया वा रक्षा को कभी धर्म नहीं कह सकते। इसलिये सत्य ही मुख्य धर्म का स्वरूप है, अन्य सब उसके सहायकारी हैं।

कहीं माता, पिता और आचार्य की सेवा को परम धर्म माना, यह भी उक्त प्रकार से सापेक्ष है और सत्य के आश्रय है। इत्यादि प्रकार से धर्म के अनेक लक्षणों की यथावसर वा यथाप्रयोजन प्रधानता दिखायी है, वह सबकी प्रधानता सापेक्ष है। निरपेक्ष वा निरतिशय (बेहद) प्रधानता केवल सत्य की है कि जिसके तुल्य धर्म के स्वरूपों में किसी की प्रधानता नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि सत्य ही धर्म का स्वरूप है। कर्म का भी धर्म नाम है यह पहले कह चुके हैं। इसी के अनुसार कह सकते हैं कि- ‘धर्म किया, धर्म करता है, धर्म करेगा, धर्म कर’ इत्यादि, इसी अंश को लेकर मन, वाणी और शरीर के भेद से धर्म वा अधर्म के तीन भेद वात्स्यायन ऋषि ने न्यायभाष्य1 में दिखाये हैं- ‘संसार में तीन दोष हैं जिनका नाम राग, द्वेष और मोह रखा है, अन्य दोष इन्हीं तीन के साथ लग जाते हैं। वैसे काम, मत्सरता, तृष्णा, स्पृहा और लोभ राग के साथी हैं। क्रोध, ईर्ष्या, निन्दा, पिशुनता (चुगली), द्रोह और अमर्ष इत्यादि द्वेष के साथी और मिथ्याज्ञान, सन्देह, अभिमान तथा प्रमाद-आलस्यादि मोह के साथी हैं। इन्हीं दोषों के वशीभूत होने से मनुष्य पाप करता है अर्थात् इन दोषों की प्रेरणा से जो कुछ चेष्टा मनुष्य करता है उसके दश भेद होने से दश नाम पड़ते हैं, जिसमें तीन प्रकार का पाप शरीर से होता है। एक तो वेद की वा धर्मशास्त्र की आज्ञा से विरुद्ध हिंसा करना (अर्थात् किन्हीं प्राणियों को किसी लोभादि के वश होकर मारना वा उनको महाकष्ट पहुंचाने का उद्योग करना। वेदादि के अनुकूल हिंसा करना वैदिकी हिंसा कहाती है, उसका करना पाप के अन्तर्गत नहीं किन्तु धर्म ही माना गया है। जैसे क्षत्रिय लोग संग्राम में एक-दूसरे को निर्भय होकर मारें वहां शत्रुओं को मारने में पाप नहीं। महा अधर्मी मनुष्य को मारने में कदापि पाप नहीं। आततायी- जो सामने शस्त्र लेकर मारने को आता हो, उसके मारने में पाप नहीं। राजा को वध योग्य के मरवा डालने में पाप नहीं। सिंह, व्याघ्र, वृश्चिकादि हिंसक जन्तुओं के मारने में पाप नहीं। इत्यादि प्रकार की हिंसा वेदानुकूल है, इसलिये इसको हिंसा नहीं कहते, किन्तु अहिंसा के तुल्य इसको भी धर्म ही मानना चाहिये)। द्वितीय चोरी- जो स्वामी की आज्ञा के बिना किसी वस्तु को ले लेना। तृतीय निषिद्ध मैथुन करना अर्थात्- माता, भगिनी, गुरुपत्नी आदि से व्यभिचार करना, ये तीन प्रकार के शारीर पाप हैं। तथा मिथ्या बोलना, हृदय में छेद करने वाला कठोर वचन बोलना। सूचना- किसी की किसी से बुराई करना, तथा असम्बद्ध व्यर्थ बहुत बोलना ये चार प्रकार के वाचिक- वाणी से होने वाले पाप हैं। दूसरों को मारने वा दुःख देने की इच्छा रखना, दूसरों के द्रव्य को ले लेने की इच्छा रखना, तथा नास्तिकता कि- जन्मान्तर वा परलोक में जो बुरे कर्र्मों का बुरा ह्ल ल शास्त्रों में लिखा है वा पण्डितों द्वारा सुना जाता है सो ठीक नहीं, यहां निरन्तर आनन्द भोगना चाहिये, परलोक किसने देखा है, आजतक लौटकर किसी ने सन्देश नहीं दिया कि वहां ऐसा नरक भोग मैंने किया, केवल भय दिखानामात्र है इत्यादि प्रकार की इच्छा वा विचार रखना नास्तिकता कहाती है। ये तीन प्रकार के मानस- मन सम्बन्धी महापाप हैं। सो यह सब पापरूप दश प्रकार का कर्म अधर्म बढ़ाने वाला है।

और पूर्वजन्म वा इस जन्मसम्बन्धी अच्छे पुण्य कर्मों से हृदय के बीच जो शुभ संस्कार संचित होते हैं, वही संचित पुण्य है। उसकी प्रेरणा से जो मनुष्य क्रिया करता है, वही दश प्रकार का पुण्य वा धर्म कहाता है, जैसे द्रव्य-धनादि का हाथ से दान देना, शरणागत वा धर्मात्मा मनुष्यों वा उपकारी गौ आदि प्राणियों की सब प्रकार रक्षा करना और माता-पिता वा गुरु आदि की सेवा-शुश्रूषा यथावत् करना, यह तीन प्रकार का शरीर से होने वाला पुण्य वा धर्म है। सत्य बोलना, सबका वा अधिक का हितकारी वचन बोलना, प्रिय बोलना और वेदादिशास्त्र पढ़ना यह चार प्रकार का वाचिक- वाणी से होने वाला पुण्य वा धर्म है। सब पर दया करना, किसी से कुछ लेने की इच्छा न रखना, किन्तु मन में सन्तोष रखना और धर्म सम्बन्धी कामों में तथा परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थनादि शुभ कर्म में श्रद्धा रखना यह तीन प्रकार का मानस धर्म है।

ये ही तीन प्रकार के अधर्म दश भेदों सहित मनुस्मृति के बारहवें अध्याय में लिखे हैं। वहां धर्म के दश भेद यद्यपि नहीं हैं, तो भी एक के कहने से द्वितीय उसका प्रतियोगी उसी में से निकल आता है। जैसे हिंसा कहा तो अहिंसा शारीरिक पुण्य होगा। अहिंसा और परित्राण दोनों का एक ही आशय है अर्थात् अहिंसा में हिंसा का निषेध मात्र कर देने से तात्पर्य नहीं किन्तु उसके प्रतियोगी का ग्रहण अर्थापत्ति से समझना चाहिये। इसी प्रकार परद्रोह रखना मानस पाप और उसके बदले में दया रखना मानस पुण्य तथा झूठ बोलना वाचिक पाप और सत्य बोलना वाणी सम्बन्धी पुण्य है। इस प्रकार एक के कहने से दूसरे अर्थापत्ति से आ सकते हैं। इसलिये मनुस्मृति में दोनों भिन्न-भिन्न नहीं गिनाये।

जितने धर्म और अधर्म के भीतरी भेद हैं, वे सब मुख्य कर दश प्रकार के ही हैं, अन्य भेद इन्हीं में आ जाते हैं। जैसे किसी की निन्दा वा मत्सरतादि का परद्रोह के बीच मेल है अथवा जैसे कृतज्ञतादि का दयादि में मेल हो जाता है। धर्म के सहकारी साधनों का प्रायः इस मानवधर्ममीमांसा भाष्य में व्याख्यान किया जाएगा। जैसे रसोई बनाने के साधन जोड़ने वाले को भी रसोई बनाता कहते हैं, वैसे धर्म के सहकारी साधनों का व्याख्यान होने से भी इसको धर्मशास्त्र ही कहेंगे।

धर्म के मुख्यकर दो ही भेद हैं। एक सामान्य, दूसरा विशेष। अपनी-अपनी कक्षा में दोनों की प्रधानता वा प्रबलता है। सामान्यधर्म वह है जिसका सब मनुष्य मात्र को सेवन करना वा स्वीकार करना योग्य है। इसमें किसी के लिये किसी प्रकार का भेदभाव नहीं। इस पर लिखा भी है कि- ‘अहिंसा, सत्य, चोरी का त्याग, शुद्धि रखना और इन्द्रियों को वश में करना यह संक्षेप से सब वर्णों का सामान्य धर्म है, यह बात मनु जी ने विशेषकर कही है।’१ इत्यादि प्रकार से अनेक स्थलों में व्याख्यान किया गया सामान्यधर्म सबको सेवने योग्य है। और जिनके लिये विशेष धर्म भिन्न-भिन्न कहा गया है, उनको भी कारण रूप सामान्य धर्म सेवने योग्य है। अर्थात् हिंसक वा मिथ्यावादी पुरुष पढ़ने-पढ़ाने और जप-तप आदि   धर्म सम्बन्धी कर्मों का सेवन नहीं कर सकता। कदाचित् दम्भ बढ़ाने को करेगा तो उसकी पोल अवश्य खुल जायेगी। तथा करने पर उसकी सह्ल लता होना दुस्तर है। इसीलिये कारणरूप सामान्यधर्म की मनु जी ने भी प्रधानता दिखायी है कि२- ‘अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन सामान्य कर्त्तव्यरूप यमों का सेवन निरन्तर करे, किन्तु केवल शौचादि नियमों का सेवन न करे, क्योंकि केवल नियमों का सेवन करने से और यमों का सेवन न करने से मनुष्य पतित हो जाता है।’ इससे सिद्ध हुआ कि अहिंसादि यमों का सेवन करता हुआ शौचादि नियमों का सेवन करे इसी में कल्याण है।

विशेषधर्म- किन्हीं निज मनुष्यों को जो कर्त्तव्य हो और जिसके करने योग्य सब न हों वह विशेष धर्म है।

इस पर कोई शटा करे कि धर्म तो सबका एक ही होना चाहिये। धर्म का भेद पड़ने से ही मनुष्यों में ह्लू ट पड़ती है, इसलिये ईश्वर के उपदेश किये धर्म में भेद न होना चाहिये जैसे कि पृथिवी-जलादि में उसने भेद नहीं रखा, सबके चलने- फिरने को एक ही पृथिवी, एक ही वायु-आकाशादि हैं। वैसे ईश्वरोपदिष्ट धर्म भी सबके लिये एकसा होना चाहिये।

इसका उत्तर यह है कि पृथिवी, जल, वायु आदि में भी भेद है। सबके लिये एकसी पृथिवी वा वायु आदि नहीं है। देखो- भंगी पुरीषालय-(पाखाने) के निकट घृणित दुर्गन्धयुक्त पृथिवी में रहता है, जहां होकर श्रीमानों का निकल जाना दुस्तर है। ऐश्वर्यवान् लोग अनेक प्रकार चित्र-विचित्रता से रमणीय स्वर्ग भूमि में रहते हैं, जहां नीचों का पहुंचना असम्भव है। किन्हीं के समीप पुष्पादि का सुगन्धित वायु चल रहा है तथा कहीं ग्रीष्म ऋतु शीतल मन्द सुगन्ध पवन बह रहा है। कहीं दुर्गन्ध युक्त उष्ण लपट चलता है जिससे शरीर जला जाता है। क्या यह पृथिवी, वायु आदि का भेद नहीं है ? और यह भेद अपने-अपने कर्मानुसार ही होता है। कर्म के भेद से ही अधिकारियों का भेद मानना चाहिये। जैसे पुरीषालय के शोधक चाण्डालादि राजा के तुल्य सुख के अधिकारी वा प्रतिष्ठा के अधिकारी नहीं हो सकते। वैसे ही सब मनुष्य सब प्रकार के धर्म का सेवन करने योग्य नहीं हो सकते। सबको सब काम कर सकने की योग्यता हो जावे, ऐसा कभी न हुआ और न होगा। यही कारण अधिकारी और अधिकारों में भेद होने का है। इसी मूल पर वर्र्र्र्णव्यवस्था ठहरती वा माननी पड़ती है और सबको माननी भी चाहिए। संसार में कोई ऐसा समुदाय नहीं जो वर्णव्यवस्था को न मानता हो। हां, केवल मानने में अवान्तर भेद अवश्य हो जाते हैं। यदि कोई कहे कि हम वर्णाश्रम भेद को नहीं मानते तो हम यही उत्तर देंगे कि जैसे सूर्य के प्रकाश बिना कोई मनुष्य नेत्र से कुछ नहीं देख सकता तो भी कोई न माने कि मुझे सूर्य के प्रकाश की कुछ आवश्यकता नहीं, मैं अपने नेत्रों से देखता हूँ। ह्लि र ऐसे हठी मनुष्य से क्या कहा जावे। और उसको कोई पूछे कि यदि तुम नेत्र से ही देखते हो तो अन्धेरी रात में भी बिना दीपकादि के नेत्र से क्यों नहीं देख लेते ? उस समय भी तुम्हारे नेत्र तो बने ही हैं, केवल सहायकारी सूर्यादि का प्रकाश नहीं है, तो क्या उत्तर देगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं। इसलिये धर्म में भेद अवश्य मानना चाहिए। और सामान्य धर्म सब मनुष्यों का एक है यही सबमें साधर्म्य है। धर्म के भेद से मनुष्यों में फूट नहीं पड़ती और जिससे फूट पड़ती है, उस पौराणिक मतवाद का नाम धर्म नहीं। यहां शास्त्रीय व्यवस्थानुसार अन्तःकरण से धारण करने योग्य दृढ विचार का नाम धर्म है। सो सबका विचार एकसा नहीं हो सकता। यह धर्मभेद को न मानना एक नास्तिक मत है कि जिनका सिद्धान्त वर्णाश्रम धर्म भेद के न रखने पर है। इसलिये यहां थोड़ा सा लिख दिया है। इसका विशेष विचार वर्णव्यवस्था प्रकरण में किया जायेगा। यहां केवल आशय यही था कि विशेष धर्म ब्राह्मणादि वर्णों का भिन्न-भिन्न है, इसी से उसको विशेष कहते हैं। एक स्थल से विशेषता को हटाया जावे और वह हटाना ठीक हो तो अन्यत्र भी विशेषता के न ठहर सकने से विशेष की अपेक्षा रखने वाला सामान्य भी बिगड़ जायेगा। इसीलिये विशेष धर्म भी मानना चाहिये।

सामान्य और विशेष का भेद अधिकार के भेद से होता है। जैसे सब मनुष्य राजा वा अधिकारी नहीं हो सकते। इससे मेरा यह प्रयोजन नहीं है कि उत्तम   अधिकार मिलने का सब किसी को उपाय ही न करना चाहिये। किन्तु यही मुख्य कर्त्तव्य है कि सब लोग पूर्ण प्रयत्न करें, कर्मानुकूल ही वर्त्तमान अधिकारियों को भी जब अधिकार मिला है तो हमको भी कर्म से अधिकार मिल सकता है। इसलिये उपाय सबको अवश्य करना चाहिए। मनुष्य जैसे शुभ-अशुभ कर्म करता है, वैसी ही वासना और वैसे ही उसके हृदय में संस्कार उत्पन्न होते हैं। वे संस्कार देश-काल और वस्तुओं के भेद से भिन्न-भिन्न हैं। इसी कारण बुद्धि की विचित्रता होने से अधिकारियों का भेद होता है। जैसे यदि युद्ध हो तो क्षत्रियपन की परीक्षा हो सकती है। यदि संग्राम से विमुख हो जावे तो क्षत्रिय समुदाय में गिना जाने पर भी वह क्षत्रिय नहीं, यही मानना पड़ेगा। किन्तु जो निर्भय होकर सम्मुख युद्ध करता-करता शरीर छोड़ दे वा शत्रुओं को जीत ले, वही क्षत्रिय है। यद्यपि क्षत्रिय के अन्य भी विशेष धर्म हैं, तो भी उन सबमें यह और भी अधिक विशेष है। जो दुःख से बचाये अर्थात् प्रबल प्राणियों से निर्बल वा दीनों को दुःख न पहुंचने देवे, वही क्षत्रिय है यह क्षत्रियशब्द के अर्थ से उसका धर्म वा तत्त्व प्रतीत होता है। इस अर्थ से भी यही ज्ञात होता है कि जो युद्ध में मरणभय से न डरे वही क्षत्रिय है, क्योंकि जो आप मारे जाने से डरेगा वह अन्य प्रजा की रक्षा क्या कर सकता है? जो स्वयं डर गया वह अन्य को भय से क्योंकर बचा सकता है ? इसलिये दोनों प्रकार बलवानों से बचाना ही क्षत्रियों का क्षत्रियपन है। यह ब्राह्मणादि वर्णों का   धर्म जन्म से वा कर्म से जिस प्रकार मान सकते हैं, सो ब्राह्मणादि वर्णविचार प्रकरण में कहेंगे।

इस प्रकरण में धर्मों की सापेक्षता का मुख्य विचार करना चाहिये ऐसा प्रस्ताव हो चुका है। किसी लक्षण की अपेक्षा से ही अन्य किसी की उत्तमता वा नीचता हो सकती है। यह ऊंच-नीच का व्यवहार सब वस्तुओं में सापेक्ष होता ही है। जैसे कहा जावे कि देवदत्त उत्तम पण्डित और यज्ञदत्त नीचबुद्धि है। यहां दोनों की ऊंचता वा नीचता सापेक्ष है, क्योंकि देवदत्त से उत्तम और यज्ञदत्त से नीच कोई मनुष्य पृथिवी पर न हो ऐसा हो नहीं सकता वा कह नहीं सकते। और जैसे कौड़ी की अपेक्षा पैसा और पैसा की अपेक्षा चांदी के रुपये, उसकी अपेक्षा सुवर्ण की मुद्रा- मोहर (अशरह्ल ी) की प्रशंसा है, इत्यादि प्रकार से ही सब धन वाचकों में नीचता भी किसी की अपेक्षा से ही होती है। वैसे ही प्रकृत धर्म के लक्षणों के प्रस्तार में भी जहां-जहां किसी की ऊंचता वा नीचता कही जाती है वहां-वहां सापेक्ष ही जानना चाहिये। जैसे माता, पिता और गुरु की सेवा करना वा उनकी आज्ञा का पालन परमधर्म कहा है। पर उसकी प्रशंसा सत्याचरण की अपेक्षा नहीं, किन्तु अन्य सम्बन्धी वा विद्वान् लोगों की सेवा करने की अपेक्षा से प्रशंसा है। सबकी अपेक्षा लेकर योनि-सम्बन्ध में माता-पिता की और विद्यासम्बन्ध में गुरु की आज्ञा का पालन और उनके साथ प्रियाचरण करना ही श्रेष्ठ है। इसीलिये सबके साथ यथायोग्य बर्तना सामान्य धर्म है। माता आदि की सेवा उसकी अपेक्षा विशेष है। तथा सब शास्त्रों का पढ़ना सामान्य से धर्म है उसकी अपेक्षा वेद का पढ़ना विशेष प्रशस्त धर्म कहाता है। किसी को कहीं किसी की अपेक्षा से नीचता कही गयी। उनमें किसी प्रकार अपने-अपने प्रसग् में दोनों का धर्म होना सम्भव हो तो भी जिसकी निकृष्टता वा अकर्त्तव्य होना कहते हैं। जिसका करना उस समय भी किसी की अपेक्षा से हानिकारक है, उसको अधर्म होना कहते हैं और उसको न करने के लिये भयानक वाक्य भी कहे जाते हैं। और जिसके विशेष प्रबल ह्ल ल देने वाले होने से उसका होना कर्त्तव्य इष्ट है। उसका धर्म होना कहा जाता है, उसमें अर्थवादरूप रोचक वचन भी कहे जाते हैं। जिससे उस कृत्य में यह पुरुष प्रवृत्त हो जावे। इस प्रकार रोचक भयानक वचन भी धर्मशास्त्रों में वर्त्तमान हैं, और वे सब सार्थक हैं।

इस पूर्वोक्त कथनानुसार धर्मों की सापेक्ष उत्तमता, मध्यमता वा निकृष्टता को जानकर जिस समय जिसका करना कल्याणकारी हो वा जिसकी अपेक्षा से जिसका करना अधिक सुख-मग्लकारी हो, उस काम को प्रयत्न के साथ करना ही चाहिये। जैसे सब मान्य पुरुषों की सेवा-शुश्रूषा यथायोग्य ठीक-ठीक किसी कारण न हो सके, तो माता, पिता और गुरु की सेवा तो अवश्य करनी चाहिये। यदि सबकी कर सके तो मातादि की विशेष प्रयत्न के साथ वा प्रथम करनी चाहिये। अर्थात् मातादि की सेवा की अपेक्षा अन्य की सेवा दुःखदायी है। माता, पिता वा गुरु की सेवा को छोड़के अन्य की सेवा करने वाला धर्मात्मा नहीं कहावेगा।

विधि, निषेध, सिद्धानुवाद और अर्थवाद का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब विधि, निषेध, अनुवाद वा सिद्धानुवाद और अर्थवाद, जिनका उद्देश्य चतुर्थ संख्या में लिख चुके हैं, उनका विचार किया जाता है। इनमें विधि नाम आज्ञा (हुक्म) का है कि ऐसा करो, और ऐसा मत करो, यह निषेध है, सो भी विधि के साथ ही लग जाता है। अनुवाद- कही बात वा विषय को ह्लि र से कहना। सिद्धानुवाद- एक अनुवाद का ही भेद है। जो वस्तु वा कार्य लोक की वर्त्तमान परिपाटी के अनुसार वा स्वभाव से संसार में होता है, उसका कहना सिद्धानुवाद कहाता है। वेद और वेदानुकूल शास्त्रों में जिसके लिये कहा गया कि यह इस प्रकार कर्त्तव्य कहा है, वह कर्म और उस कर्म के सेवन से संचित हुए शुभ संस्कार भी धर्मसंज्ञक हैं, यह पूर्व भी कह चुके हैं, तिससे सिद्ध हुआ कि जिसके करने वा न करने की आज्ञा दी गयी, उसका वैसा ही करना वा न करना धर्म कहाता है। शुभ की विधानपूर्वक निषिद्ध की निषेधपूर्वक करने, न करने की आज्ञा देना ही धर्म है। जैसे जिससे दुःखी हो उससे भी मर्मच्छेदन करने वाले, कठोर वाक्य न बोले, यहां मर्मच्छेदन न करना भी धर्म ही है। अथवा ‘कठोर मर्मच्छेदक वाक्य न बोले चाहे दुःखी भी हो’ यह वाक्य अधर्म को हटाने वाला होने से     धर्मशास्त्र वा धर्मशासक है। ऐसा होने से विधिवाक्य ही धर्म को जताने वाले हो सकते हैं, अन्य नहीं, यह सिद्ध हुआ।

श्रेष्ठ लोगों के माने हुए वा बनाये हुए गद्य-पद्यक्रम वाक्य समुदायों से बने वेदादि सम्पूर्ण शास्त्रों में मुख्यकर तीन प्रकार के ही वाक्य प्राप्त होते हैं। सो न्यायदर्शन वात्स्यायनभाष्य1 में लिखा है कि एक जो प्ररेणा करने वाले वाक्य हैं, उन्हीं को नियामक वा आज्ञा भी कहते हैं। जैसे ‘स्वर्ग- सुखविशेष की कामना रखने वाला पुरुष अग्निहोत्र करे’ यह विधिवाक्य है।

द्वितीय प्रकार के अर्थवाद वाक्य कहाते हैं। विधि वा आज्ञा के अर्थ नाम प्रयोजन को कहने वाले होने से उनका नाम अर्थवाद है। इस अर्थवाद के अवान्तर भेद चार हैं। स्तुति, निन्दा, परकृति और पुराकल्प। विधि के ह्ल ल को दिखाने वाली प्रशंसा स्तुति कहाती है। विधि के ह्ल ल को दिखाने से कर्त्ता को प्रतीति या विश्वास हो सकता है कि इसको करना चाहिये, निष्ह्ल ल नहीं है। अच्छा ह्ल ल दिखा देने से कर्ता की श्रद्धा भी होती है, इसी कारण स्तुति ही उस कार्य में प्रवृत्ति कराती है, क्योंकि अच्छा ह्ल ल सुनकर कार्य में मनुष्य प्रवृत्त होता है। अनिष्ट ह्ल ल कहना निन्दा कहाती है, उस दुष्ट काम से होने वाले निकृष्ट ह्ल ल के दिखाने से कर्त्ता की अरुचि हो जावे, जिससे निन्दित बुरे काम को न करे। जैसे कि ‘गौ को नहीं मारना चाहिए’ यह विधि है, गौ के मारने से जो बुरा ह्ल ल होगा उसका दिखाना और ‘गौ रक्षणीय है’ इस विधिवाक्य पर गौ की रक्षा से जो अच्छा ह्ल ल होगा उसका दिखाना निन्दा-स्तुतिरूप अर्थवाद कहाता है। अन्य किसी ने अच्छा वा बुरा किया उसको वैसा ह्ल ल मिला, यह दृष्टान्त दिखाना परकृति है। जैसे ‘सत्य बोलना चाहिये और मिथ्या बोलना नहीं चाहिये’। ये दोनों विधिवाक्य हैं, सत्य बोलने में यह-यह लाभ और मिथ्या बोलने में ऐसी-ऐसी हानि वा बुराई है। देखो युधिष्ठिर सत्य बोलने से ऐसे प्रतिष्ठित धर्मात्मा कहाये और एक बार मिथ्या बोलने से उनको अमुक बुरा ह्ल ल मिला, यह परकृति है। और इतिहास सम्बन्धी विधि पुराकल्प कहाता है। अर्थात् परम्परा से अनेक शुभ कर्म होते आते हैं, उनको परम्परा के प्रमाण से कर्त्तव्य ठहराना पुराकल्प कहाता है। ये चारों प्रकार के अर्थवाद विधि की पुष्टि करते हैं वा सेवक के तुल्य हैं। परन्तु विधिवाक्य ही मुख्य प्रधान हैं। जिस कर्त्तव्य की विधि- आज्ञा वेद में नहीं उनके अर्थवाद भी नहीं आते। क्योंकि अर्थवाद विधि के आश्रय चलते हैं।

अब तीसरे प्रकार के अनुवाद वाक्य हैं। अनुवाद दो प्रकार का होता है। एक तो शब्द को द्वितीय बार बोलना शब्दानुवाद और अर्थ नाम वाच्य को द्वितीय बार कहना अर्थानुवाद कहाता है। अनुवाद शब्द का मुख्य अर्थ यही है कि कहे को फिर से कहना। अब यह शटा है कि जिसको एक बार विधान कर चुके वा एक शब्द बोलकर जिसकी आज्ञा दे चुके उसको ह्लि र क्यों कहते हैं ? इसका     समाधान यह है कि जिसको द्वितीय बार कहा जाता है वह अति प्रशस्त वा अवश्य कर्त्तव्य कार्य माना जाता है अर्थात् द्वितीय बार कहने से विधि की प्रशंसा होती है। जिसका अनुवाद किया जाय उस कर्म को निस्सन्देह उत्तम वा कल्याण का मार्ग समझ कर करना चाहिये। जैसे शास्त्रों में तीन प्रकार के वाक्य आते हैं वैसे ही लोक के व्यवहार में सर्वसाधारण (जिन्होंने शास्त्र नहीं पढ़ा) भी इन्हीं तीन प्रकार के वाक्यों से व्यवहार करते हैं। यथा- ‘भात पकाओ वा रोटी बनाओ’ इत्यादि विधि वाक्य कहाते हैं। क्योंकि आयु, तेज, बल, सुख और स्मरणशक्ति की वृद्धि तत्काल पकाये अन्न के भोजन से होती है यह अर्थवाद। ‘पकाईये-पकाईये वा जाओ-जाओ, बैठो-बैठो, वा शीघ्र-शीघ्र पकाईये’ इत्यादि अनुवाद कहाता है। यह सब न्यायदर्शन के वात्स्यायनभाष्य का आशय लिखा है। इन तीनों सूत्रों (२.२.६२-६४) पर जितना भाष्य था वह सब हमने यहां नहीं लिखा, किन्तु प्रसग् के अनुसार जितना प्रयोजन था उतना लिखा है, शेष छोड़ दिया है। उक्त तीन प्रकार के वाक्य प्रायः ब्राह्मणादि वेद सम्बन्धी पुस्तकों में आते और संघटित होते हैं। तथा परकृति और पुराकल्प नामक दोनों अर्थवाद ब्राह्मण पुस्तकों में ही घटते हैं। किन्तु अपौरुषेय सनातन वेद में नहीं घटते। अनुवाद शब्द का अर्थ जैसा वात्स्यायन ऋषि भाष्यकार ने दिखाया है वैसा वेद सम्बन्धी ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रायः आता है।

और सिद्धानुवाद वा भूतानुवाद यह भी एक प्रकार का अनुवाद है। यह लोक में भी प्रसिद्ध है और शास्त्रों में भी इसका प्रचार दीखता है। जब तीन वा चार प्रकार के वाक्य हैं तो एक विधिवाक्यों के सार्थक होने से अन्यों का व्यर्थ होना प्राप्त हुआ और यही बात पूर्वमीमांसा1 में भी कही है कि वेद के आज्ञारूप वाक्यों से कर्त्तव्य का उपदेश होने से जिसमें कर्त्तव्य का उपदेश नहीं उन अक्रियार्थ वाक्यों की अनर्थकता होगी। इस कारण विधिवाक्यों को अनित्य समझना चाहिये। ऐसा पूर्व पक्ष करके वहीं उत्तर दिया है कि विधिवाक्यों के साथ अर्थवाद वाक्यों का एक कार्य में योगरूप सम्बन्ध रहने से अर्थवादादि व्यर्थ नहीं किन्तु सार्थक हैं क्योंकि कोई सुखभोग चाहने वाला पुरुष अर्थवाद के बिना आज्ञा का सेवन वा निषिद्ध का त्याग नहीं कर सकता। और ह्ल लभोग से विरक्त पुरुष को भी अर्थवाद अवश्य जानना चाहिये क्योंकि विहित का सेवन करे अन्य का नहीं, यह भी अर्थवाद से ही जताया जाता है, इससे वहां भी अर्थवाद सार्थक हैं।

अब इस मानवधर्मशास्त्र में ‘वेद सम्बन्धी पुण्य के उत्पन्न कराने वाले कर्मों से ब्राह्मणादि तीनों वर्णों के शरीरों के संस्कार करने चाहियें जिससे इस जन्म और जन्मान्तर में पवित्रता होती है।’२ यह विधि तथा सामान्य से किसी कार्य का     विधान कर पीछे उसकी प्रशंसा वा ह्ल ल दिखाना अर्थवाद है। जैसे- ‘गर्भाधानादि संस्कारों में होने वाले होम और मन्त्रपूर्वक धारण किये चिह्नों से द्विजों- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के बीज सम्बन्धी वा गर्भ सम्बन्धी मलिनता के सब दोष छूट जाते हैं।’३ अर्थात् संस्कारों में ओषधियों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया है, उससे तथा अन्य पवित्रता के उपाय संस्कारों में होने से अपवित्रता दूर होती है। यह पूर्वोक्त विधि पर अर्थवाद तथा ‘कल्याण चाहने वाले पिता आदि पुरुषों को श्रेष्ठ धर्मज्ञा स्त्रियों का सत्कार और उनको भूषित करना चाहिये’१ यह विधि वा आज्ञा है। इसी पर ‘जिन घरों में सती स्त्रियों की पूजा होती है वहां श्रेष्ठ सज्जन लोग निवास कर प्रसन्न होते हैं। और जिन घरों में स्त्रियों का सत्कार नहीं वहां श्रेष्ठ लोग दुःखी होकर नहीं ठहरते अर्थात् विरक्तादि हो जाते हैं’२। तथा ‘अति भोजन न करे, झूठे कहीं न जावे। दुःख प्राप्ति में भी मर्मभेदी वचन न कहे, दूसरों से वैर विरोध करने में बुद्धि न लगावे।’३ इत्यादि कथन बुराई से बचने की आज्ञारूप विधि है तथा ‘आलस्य निद्रा को छोड़कर धर्म के मूल श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण का सेवन करे।’४ इत्यादि सीधा कर्तव्य का विधान है। इस उक्त प्रकार से अर्थवाद वाक्य विधिवाक्य की ही रक्षा और पुष्टि करतें है। सिद्धानुवाद रूप वचन जो अनुवाद सम्बन्धी वाक्यों के अन्तर्गत हैं, उनका प्रयोग मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों और वेदों में मिलता है। वेद में लिखा है कि- ‘सूर्य एक बिना किसी का सहाय लेकर अपनी कक्षा में डोलता और चन्द्रमा बार-बार घटता-बढ़ता अग्नि पाले का औषध और भूमि सब से बड़ा खेत है।’५ इत्यादि सिद्ध बातों का कथन है किन्तु कुछ नवीनता नहीं, इससे इसका नाम सिद्धानुवाद है। धर्मशास्त्रों में सृष्टि का वर्णन सिद्धानुवाद वा भूतानुवाद है। स्वाभाविक वर्तमान द्रव्य, गुण, कर्मों का विभाग पूर्वक दिखाना भी सिद्धानुवाद का विषय है। और जब सिद्ध को ही जानने के विचार से कहते हैं तब वहां भी विधि ही जानना चाहिये। तथा- ‘चेतन का अन्न- भक्ष्य, जड़, दांत वाले प्राणियों के बिना दांत वाले, हाथ वालों के बिना हाथ वाले और शूरवीर सिंहादि प्राणियों का भक्ष्य- अन्न डरपोक प्राणी हैं।६ ‘सत्त्वगुण को   धारण करने वाले देवता, रजोगुण को धारण करने वाले मनुष्य और तमोगुणधारी जीव-जन्तु-पशु-पक्षी आदि योनि को प्राप्त होते हैं।’७ इस प्रकार तीन गुणों के भेद से मुख्य कर तीन भेद वाले सब प्राणी हैं। गुणों के अवान्तर भेद एक-एक में अनेक होने से योनियों में अवान्तर भेद पड़ते हैं। इत्यादि अनेक वचन सिद्धानुवादपरक आते हैं। स्वाभाविक सिद्धानुवाद इसलिये कहा जाता है कि उसमें विधि-निषेध की उदासीनता समझी जावे, क्योंकि जो गुणादि स्वाभाविक अच्छा बुरा है उसमें कुछ हेर-ह्ले र न हो सकने से विधि-निषेधरूप प्रयत्न करना कदापि सह्ल ल नहीं हो सकता। स्वाभाविक गुणादि उस वस्तु की पूर्ण आयु तक रहता है और कहीं-कहीं शुभ-अशुभ लोक के वर्त्ताव को जताकर [कि ऐसा-ऐसा करने वाले ऐसा-ऐसा फल भोगते हैं) विधि-निषेध की ओर मनुष्यों को झुकाने के लिए सिद्धानुवाद कहे जाते हैं, वैसे शीत वा पाले की ओषधि जो जानता है वही शीत सम्बन्धी दुःख से बच सकता है। सब सिद्ध वस्तु को सब कोई नहीं जानता। इसलिये शास्त्रकार उनको जताने के अर्थ सिद्धानुवाद कहते हैं कि जिससे सृष्टि के क्रमानुकूल गुणकर्मों का बोध हो जावे, जिससे उसके अनुसार वर्त्ताव करके मनुष्यों को सुख प्राप्त हो और दुःखों से बचें, यही सिद्धानुवाद का प्रयोजन है। अब यह सिद्ध हो गया कि वाक्य समुदायरूप सब मान्यशास्त्रों में चार ही प्रकार के वाक्य हैं।

ये तीन वा चार प्रकार के वाक्य जो दिखाये गये, इससे शास्त्रों के अभिप्राय अच्छे प्रकार और शीघ्र बुद्धि में जम जाते हैं। इस प्रकार वाक्यविभाग न दिखाया जाय तो ठीक-ठीक सिद्धान्त का बोध नहीं हो सकता, इसलिये वाक्यविभाग दिखाना आवश्यक है। जहां-जहां इस पुस्तक में जो-जो वाक्य आवेंगे वहां भाष्य में विधि आदि करके लिख दिया जायगा कि यह विधि, अर्थवाद वा अनुवाद अथवा सिद्धानुवाद है। जिससे सर्वसाधारण लोगों को ज्ञात हो जायगा कि धर्मशास्त्र बनाने वाले ने हमको अमुक-अमुक आज्ञा दी है तथा अमुक-अमुक अर्थवाद आदि से उसको सार्थक ठहराया है। इस विषय पर अधिक लेख बढ़ सकता था परन्तु प्रयोजनमात्र समझाना उचित समझ कर अधिक नहीं बढ़ाया गया।

धर्म शब्द के अर्थ का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब सामान्य धर्म शब्द पर कुछ विचार करना आवश्यक इसलिये समझा गया कि हमको धर्मशास्त्र की मीमांसा करना है तो प्रथम जान लेना चाहिए कि धर्म किस वस्तु का नाम है ? वस्तु शब्द से यहाँ वाच्यमात्र का विचार है किन्तु द्रव्य का पर्यायवाचक वस्तु शब्द नहीं लेना है। प्रयोजन यह है कि धर्मशब्द का शाब्दिक वा लाक्षणिक अर्थ क्या है ? अर्थात् व्याकरण के नियमानुसार मनुष्य जिसको     धारण करें, वह धर्म है। ऐसा होने पर वेदादि शास्त्रों में जिसका निषेध किया गया, ऐसे चोरी आदि दुष्कर्म को भी कोई धारण करता वा कर सकता है तो क्या उसको भी धर्म कहना ठीक हो सकता है ? ऐसा विरुद्ध निश्चय वा सन्देह हो सकने से इसका यह समाधान कहा जाता है- धृञ् धारणे1 इस धातु से कर्म कारक वा भाव में उणादि मन् प्रत्यय2 हुआ है। सामान्य वा विशेष मनुष्य अथवा चराचर सब वस्तुमात्र जिसको धारण करते, जिसके आधार होते अथवा मनुष्य वा प्राणी-अप्राणियों से जो धारण किया जाता अर्थात् उनको धारण करने पड़ता है, वह धर्म कहाता है। यह धर्म का शाब्दिक अर्थ है। कदाचित् किसी प्रकार अन्य कारकों में भी मन् प्रत्यय हो सके, परन्तु प्रधानता से भाव और कर्म का ही अर्थ मिल सकता है। भाव अर्थ में प्रत्यय करने से धृति- धैर्य, क्षमा आदि धारणरूप हैं। इस कारण इनका भी नाम धर्म हो सकेगा।

और कर्म का अर्थ आगे स्वयमेव लिखा गया है। सब शास्त्रों में जातिशब्द, गुणशब्द और क्रियाशब्द ये तीन ही प्रकार के शब्द माने गये हैं। नैयायिक लोग इन्हीं को द्रव्य, गुण, कर्म शब्दों से व्यवहार में लाते हैं। इसमें धर्मशब्द द्रव्य, गुण और कर्म तीनों का नाम जिस किसी प्रकार व्यवहार में आया दीख पड़ता है। परन्तु प्रधानता से धर्मशब्द गुण और कर्म का वाचक है, अधिक कर इसी दो प्रकार का व्यवहार आता है। इसी कारण व्याकरण अष्टाध्यायी के अर्द्धर्चादिगण3 में     धर्मशब्द का पाठ करने से विद्वान् लोग पुंस्, नपुंसक दोनों लिग् होना मानते हैं। और जहाँ कर्म का वाचक धर्मशब्द है, वहीं प्रायः इसका नपुंसकपन प्रतीत होता है। जैसे यजुर्वेद के ३१वें अध्याय में ‘यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्॰’ यहाँ धर्मशब्द कर्म का पर्याय वाचक है। नपुंसकलिग् में धर्मशब्द का प्रयोग बहुत न्यून आता है, किन्तु प्रायः पुल्ँिलग् में ही लोक-वेद में प्रयोग किया वा लिखा जाता है, वह गुणवाचक वा स्वभाववाचक धर्मशब्द है। सब प्रकार का धर्मशब्द सुखहेतु गुण, कर्म वा द्रव्य का वाचक अभीष्ट है, किन्तु दुःखहेतु गुणादि का वाचक नहीं। जहाँ दुःख का हेतु धर्मशब्द आता है, वहाँ उसमें नञ् अव्यय संयुक्त करके अधर्म कहते हैं। वहाँ सुख से विरुद्ध दुःख का हेतु गुण, स्वभाव, द्रव्य वा कर्म अधर्मशब्द का वाच्यार्थ यथासम्भव जानना चाहिये। और जहाँ पर्युदासार्थ वाचक नञ् अव्यय होता है, वहाँ धर्म से भिन्न धर्म के तुल्य वस्तु का वाचक अधर्मशब्द जानना चाहिये। उसी को विचारशील लोग धर्माभास भी कहते हैं कि जो ऊपर से धर्म के तुल्य प्रतीत हो, परन्तु वास्तव में धर्म न हो।

संसार में मनुष्य से लेकर चींटी पर्यन्त सब प्राणी सुख की ही इच्छा रखते हैं। कोई कदापि दुःख को नहीं चाहता। इसी कारण शास्त्र की आज्ञा से विरुद्ध दुष्ट कर्म का धारण कोई नहीं करता, क्योंकि स्वभाव से ही इसका विरोध है। इसलिये धर्म वही है जिसका धारण, स्वीकार वा स्वभाव से मिलाप हो जावे। जैसे प्रकृति के अनुकूल सुख देने वाले वस्तु का भोजन किया जाय तो वह उदर में जाकर ठहरता वा धारण किया जाता और वहां के धातु उस आहार को अपने तुल्य बनाने का यत्न करते हैं, अर्थात् ठहराते हैं। जैसे मित्र को मित्र प्राप्त होकर प्रसन्नता का कारण होता है, वैसे ही अपने प्रिय सुखप्रद को पाकर धर्मात्मा सुखी वा आनन्दित होता है। यही धारण का लक्षण है। और जैसे भोजनादि के साथ वा अकस्मात् प्रमादादि से पेट में मक्खी आदि विरुद्ध वस्तु चला जाये तो नहीं धारण होता- नहीं ठहरता वा पचता किन्तु वमन का कारण हो जाता है, क्योंकि पक्वाशय उसका   धारण नहीं करता। यदि उसका धारण हो और वमनादिक न हो वा चित्त न बिगड़े, ग्लानि न हो अर्थात् कदाचिद् विरुद्ध खाया मक्खी आदि वमन का हेतु न हो और किसी प्रकार पच भी जावे, तो दुःख के हेतु रोगादि विकारों को अवश्य उत्पन्न करता है। कदाचित् अज्ञान से खाया मक्खी आदि किसी विशेष रोग का कारण न हो तो भी ग्लानि अवश्य उत्पन्न होती है। प्रयोजन यह है कि अनुकूल हितकारी भोजन के तुल्य मक्खी आदि पेट में कदापि न ठहरेगा। तथा जैसे मनुष्य अपने अनुकूल भार को अपनी इच्छा से उठाता है, वह उसको छोड़ता नहीं भले ही उसमें क्लेश हो और जिस भार का उठाना भार नहीं जान पड़ता वही धारण करना है और जहां भार वा दुःख जान पड़े और किसी की लज्जा, शटा, भय वा लोभादि के कारण उठाना पड़े, वह धारण न होने से धर्म नहीं किन्तु अधर्म है। और अन्तरात्मा सदा सत्य को धारण करता है, किन्तु बनावटी मिथ्या को वाणी द्वारा कहते हुए संकुचित होता वा लज्जा, शटा करता है, इस कारण जहां ऐसा होता है, वह     धर्म नहीं और सत्य ही धर्म है। इसी प्रकार निषिद्ध चोरी, व्याभिचारादि दुष्ट कर्म को कोई पुरुष धारण नहीं करता, किन्तु सुख के हेतु अनुकूल को प्रसन्नता से     धारण करता है। निषिद्ध कर्म का सेवन काम, क्रोधाादि के वशीभूत होकर किया जाता है, किन्तु विरुद्ध दुष्ट कर्म बुद्धि से कोई नहीं सेवता अर्थात् चोरी आदि पाप का करने वाला भी उसको पुण्य नहीं मान सकता। चोर निर्भय होकर चोरी आदि कदापि नहीं करता। यदि चोर किसी प्रकार परोपकार में लगे धर्मात्मा के तुल्य चोरी करने में लज्जा-शटा-भयों को छोड़कर प्रवृत्त हो तो विरुद्ध कर्म का भी धारण हो सकने से धर्म कहना प्राप्त हो, सो तो कदापि सम्भव नहीं। तिस से धर्म है धारण किया वा कराया जाता है और जो धारण किया जाता है वही धर्म है इससे व्याकरणानुकूल अर्थ करना ही ठीक है।

इससे यह सिद्ध हुआ कि अनुकूल हितकारी का ही धारण होता है किन्तु प्रतिकूल का नहीं। इस कारण हितकारी गुण-कर्मों को ही धर्म कहना वा मानना सिद्धान्त है। क्योंकि अपने-अपने हितकारी को ही सब लोग स्वीकार करते हैं, किन्तु अपने विरोधी दुःखदायी को कोई नहीं चाहता। और स्वभाव का नाम भी   धर्म है। सो अपनी-अपनी सत्ता को सब चराचर वस्तु धारण करते ही हैं। इस सत्ता को ही भाव भी बोलते हैं कि जिस भाव अर्थ के बोधक व्याकरण में त्व-तल् प्रत्यय१ नियत किये जाते हैं। जैसे ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व वा मनुष्यत्व, पशुत्व, पक्षित्व, एकता इत्यादि शब्दों में ब्राह्मणादि के मुख्य धर्म में त्व आदि प्रत्यय हुआ है। इस अंश में महाभाष्यकार पतञ्जलि ऋषि ने लिखा है कि- ‘यस्य गुणस्य भावाद् द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने, तस्मिन् गुणे वक्तव्ये प्रत्ययेन भवितव्यम्।’2 अर्थात् ब्राह्मणपदवाच्य व्यक्ति वा जाति में जिस प्रधान गुण की विद्यमानता होने से ब्राह्मणादि पद का प्रयोग वा व्यवहार किया जाता है, उस गुण वा शक्ति का नाम धर्म समझना चाहिये। जिन-जिन शास्त्रों में अर्थात् छह दर्शनों में धर्म-धर्मी के प्रसग् का वर्णन आता है, उन-उन में शक्ति-शक्तिमान् वा गुण-गुणी का व्याख्यान समझा जाता है। और योगशास्त्र के विभूति पाद में भी लिखा है कि- शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी।।14।। भाष्यम्- योग्यतावच्छिन्ना धर्मिणः शक्तिरेव धर्मः।। इत्यादि।। इस योगसूत्र का अभिप्राय यह है कि भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान धर्म वा गुणों के साथ रहने वाला धर्मी वा शक्तिमान् वा गुणी कहाता है। धर्म तीन प्रकार के कालभेद से माने जाते हैं। जो अपनी तरुणावस्था को व्यतीत कर शान्त, तिरोभूत, अप्रकट वा नष्ट हो गया वह भूतधर्म शान्त कहाता है। तथा विरोधी के तिरोहित (दब) जाने वा नष्ट हो जाने से और अपने उत्तेजक हेतुओं से उत्तेजित हुआ धर्म वा गुण वर्त्तमान उदित धर्म कहाता है। तथा भविष्य काल में प्रकट होने वाला गुण अव्यपदेश्य है क्योंकि उसका अनुभव किये बिना वर्णन नहीं किया जा सकता कि इस वर्त्तमान अवस्था के लौटने पर ऐसा होगा। इसीलिये उसका नाम अव्यपदेश्य माना गया है। प्रत्येक वस्तु में इसी तीन प्रकार की दशा के साथ गुण वा धर्म ठहरता है। अपनी योग्यता के साथ अन्य गुण वा धर्मों से पृथक् हुई धर्मी पदार्थ की शक्ति का ही नाम धर्म है, यह व्यासभाष्य का तात्पर्य है। सब वस्तु में सब प्रकार की योग्यता नहीं रहती, इसलिये योग्यता ही सब     धर्म वा शक्तियों की अवच्छेदक- भेदक मानी जाती है। और जिसका जिसके साथ मेल होना वा करना उपयोगी है, उसके साथ उसकी योग्यता समझी जाती है यही योग्यता शब्द का अर्थ है। ऊपर लिखे महाभाष्य और योगसूत्र का एक ही आशय धर्मशब्द पर है, जैसा कि पूर्व से लिखा गया।

पूर्व जो तीन काल के भेद से गुण, धर्म वा शक्ति के तीन भेद कहे गये हैं, उनको लौकिक वा शास्त्रसम्बधी व्यवहार में फैलाकर देखा जाय तो ठीक-ठीक ऐसा ही प्रतीत होता है, जैसे जो पहले से मित्र रहा वह शत्रु और जिसके साथ कुछ सम्बन्ध नहीं रहा वह पुरुष वा स्त्री मित्र बन जाती है। यह धर्मों का परिणाम सदा होता रहता है। अर्थात् सब पदार्थ, सब देश, काल और अवस्थाओं में सबके सर्वथा अनुकूल वा सर्वथा प्रतिकूल नहीं रहते किन्तु जो किसी देश, काल वा वस्तु, अवस्था के सम्बन्ध से अनुकूल हो गया, वही देशादि के लौट-फेर से प्रतिकूल हो जाता है। इसी प्रकार प्रतिकूल हुआ वस्तु कभी अनुकूल भी हो जाता है, यह सब धर्मों का परिणाम है। अभिप्राय यह है कि जिसका परिणाम लौट-पौट होता रहता है, उस गुण का नाम धर्म है। इस पर एक शटा यह रह सकती है कि यदि लौटता रहता है तो उसका नाम स्वभाव क्यों रखा गया, अर्थात् स्वभाव उसी को मानते हैं जिसमें भेद न पड़े। और सनातन धर्म क्या माना जावेगा कि जब धर्मों का सदा परिणाम होता रहता है तो सनातन धर्म कोई क्यों ठहर सकता है ? यद्यपि ये दोनों प्रश्न ऐसे हैं जिन पर कितना ही लिखा जाय पार मिलना दुस्तर है तथापि अतिसूक्ष्मता से इनका समाधान लिखा जाता है-

स्वभाव शब्द का अर्थ यह है कि अपना भाव अर्थात् अपना कारण। अपने कारण से जो गुण कार्य में यथार्थ रूप से चला आता है उसको स्वाभाविक कहते हैं। जैसे दूध का श्वेत गुण दही, मट्ठा आदि सब में यथावत् बना रहता है वा जैसे कपास की श्वेतता रूई, सूत, वस्त्र आदि सब उत्तर-उत्तर कार्य में चली आती है। तो यहां श्वेतता गुण स्वाभाविक माना जाता है, परन्तु दूध, दही, मठा आदि में कोई काला वा अन्य ऐसा रंग डाल सकते हैं कि जिससे उसकी श्वेतता मिट जाय वा जैसे कपड़े को नील आदि से रंग देना, इससे स्वाभाविक को भी कोई लोग अनित्य मानते हैं, परन्तु यह पक्ष इसलिये ठीक नहीं कि वह स्वाभाविक रंग नष्ट नहीं होता किन्तु तिरोभूत (दब) हो जाता है। इसका दृष्टान्त धोबी है कि यदि शिल्पक्रिया प्रवीण धोबी हो तो बनावटी- ऊपर से चढाये पक्के रंग को भी छुड़ा कर ह्लि र उसी श्वेत स्वाभाविक गुण को निकाल देता है। इससे अनुमान होता है कि स्वाभाविक गुण नष्ट नहीं होता, किन्तु तिरोहित (दब) हो जाता है और धोबी के दृष्टान्त को धर्मसम्बन्ध में भी ठीक लगा सकते हैं कि यदि अच्छा धर्मात्मा उपदेशक गुरु मिल जावे जो सब प्रकार से शुद्ध और प्रवीण हो वह काम-   क्रोधादि से लगे दुर्गुणों को छुड़ाकर चेतन आत्मा के स्वाभाविक शुद्ध भावों को प्रकाशित कर देता है। और कदाचित् शिल्पकुशल धोबी न मिले कि जो वस्त्र पर हुए नीलादि रंग को छुड़ा सके तो भी स्वाभाविक को अनित्य न मानना चाहिए। क्योंकि सूर्य का तेज वा प्रकाश स्वाभाविक है, उसके आवरक अन्तरिक्षस्थ मेघ वा धूलि को हम नहीं हटा सकते, तो भी वह अनित्य नहीं। इसी प्रकार यहां भी जानो कि मनुष्यादि में कारण के सम्बन्ध से जो गुण आता है, वही स्वाभाविक है, और उसके कभी तिरोभूत हो जाने वा अन्तर्धान हो जाने वा किसी अज्ञानी के अनित्य मान लेने पर भी वह अनित्य नहीं होता। पर नित्य-अनित्य का विचार लोक में सापेक्ष चलता है। किसी की अपेक्षा कोई नित्य माना जाता है, जिसके स्वरूप में कभी भेद न पड़े किन्तु अनादि, अनन्त काल तक एकरस रहे, ऐसा तो एक परमेश्वर है। और नित्य सन्ध्या वा अग्निहोत्र करता है, ऐसा कहना सापेक्ष अर्थात् जो एक-दो दिन करके छोड़ दे, उसकी अपेक्षा यहां नित्य शब्द का प्रयोग है। किन्तु यह तो सभी जानते हैं कि अति बाल्यावस्था में काई भी सन्ध्याग्निहोत्रादि नहीं करता उत्पत्ति से पहले भी नहीं करता था मरने के पश्चात् भी न करेगा। बीच-बीच में भी कभी-कभी छोड़ने पड़ता है, तो वैसा नित्य अर्थ नहीं तो भी नित्य माना वा कहा जाता है। इसी प्रकार सापेक्ष नित्य वस्तुओं में एक साथ अनित्यता-नित्यता दोनों रहती हैं। परन्तु ठीक नित्य मानने में प्रवाह से किन्हीं को नित्य ठहरा सकते हैं। इसलिये स्वभाव का लौट जाना- तिरोभूत हो जाना मात्र है। और जिसका वस्तुतः लौट जाना होता है, वह स्वभाव नहीं है। किन्तु संयोगी गुण है।

अब रहा सनातन धर्म, सो उसमें भी यही विचार है। उसके तिरोहित हो जाने वा अन्य विरोधी के प्रबल हो जाने से उसका सनातनपन नहीं बिगड़ता। वह सदा कर्त्तव्य उपयोगी ह्ल ल दाता है, इसलिये सनातन कहाता है। यद्यपि अपवाद विषय में उत्सर्ग का प्रवेश नहीं होता१, तो भी वह बहुव्यापी होने से उत्सर्ग वा सामान्य ही कहाता है। जैसे भारतवर्ष का एक राजा हो वह दस-पांच ग्राम का सब     अधिकार किसी को दे देवे, तो भारतवर्ष का राजा कहाना उसका बिगड़ नहीं सकता। इसी प्रकार आपत्काल में सनातन धर्म के किसी अंश का पूरा उपयोग न रहे तो उसका सनातन होना खण्डित नहीं हो सकता। इस अंश का विशेष विचार उत्तम-मध्यम धर्मों में किया जायगा।

यह सब लेख स्वभाव वा गुण को धर्म मानने पर लिखा गया यद्यपि संस्कृत में ऐसा विचार नहीं है तो भी भाषा में समझने वाले अधिक जानकर बढ़ाया गया।

अब प्रकृत यह है कि जब कहा जावे कि यह सज्जन मनुष्य धर्मात्मा है, वहां जिसके चेतनतायुक्त अन्तःकरण में दया कोमलता, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच और इन्द्रियों का वश में करना आदि रूप से धर्म कर्त्तव्य वृत्ति के साथ अवस्थित हैं ऐसा अर्थ करना चाहिये। अथवा शास्त्रों में कहे शुभ कर्र्मों के अनुष्ठान से उत्पन्न होने वाले पुण्यरूप संचित शुभ संस्कार जिसके मन में अवस्थित हैं, वह धर्मात्मा कहाता है। ‘श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन् हि मानव॰’2 [श्रुति-स्मृति में कहा   धर्म…..] ऐसे प्रसग् में श्रौत, स्मार्त्त कर्म ही धर्म कहाता है। कहीं केवल सत्य का ही नाम धर्म है ‘अथातो धर्मजिज्ञासा3 इस मीमांसासूत्र के अनुसार वेदस्थ परमेश्वर की आज्ञा ही धर्म है अर्थात् वेद में जो विधिवाक्य हैं, वे साक्षात् धर्म के बोधक हैं।४ अर्थवाद और अनुवाद वाक्यों की विधिवाक्य के साथ एकवाक्यता होने से सार्थक होते हैं। अतः ये सहकारी कारण हैं। ‘अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः’5 इस वैशेषिक सूत्र में विधि-आज्ञा रूप वेदोक्त धर्म का ही ग्रहण है। इस उक्त प्रकार से पूर्वमीमांसादि षट्शास्त्रों वा षड्दर्शनों में धर्म की शिक्षा वा उपदेश प्रत्यक्ष है। इस कारण उनको धर्मशास्त्र मानना वा कहना सार्थक हुआ।

कहीं लिखा है कि ‘विहितक्रियया साध्यो धर्मः’ अर्थात् विधान किये कर्म के सेवन से सिद्ध होने वाला धर्म है, इत्यादि स्थल में आत्मा भी धर्मशब्द का अर्थ हो सकता है। क्योंकि आत्मा भी विहितानुकूल कर्म करने से ही प्राप्त हो सकता है। मरने पर ‘धर्मस्तमनुगच्छति, धर्मं शनैः सञ्चिनुयात्’ अर्थात् धर्म ही उसके साथ जाता है, धर्म का धीरे-धीरे संचय करें, इत्यादि स्थलों में शुभ कर्मों के सेवन से उपार्जन किया वासनारूप में बंधा पुण्यरूप संचित शुभ कर्म ही धर्म कहाता है। कहीं ‘ज्ञेयस्य ज्ञानं ध्येयस्य ध्यानम्’ अर्थात् ज्ञेय वस्तु का ज्ञान और ध्येय वस्तु का ध्यान करना भी धर्म ही कहाता है। यह उक्त सब धर्म दो प्रकार का है एक संसारी और द्वितीय परमार्थसम्बन्धी। जगत् में सुखभोग के अर्थ जिसका सेवन किया जाता है ऐसा शुभ आचरणरूप वेदोक्त कर्म लौकिक धर्म है। और ह्ल लभोग की अपेक्षा छोड़कर उदासीन वृत्ति से सर्वशक्तिमान् सबके उपास्य ईश्वर की आज्ञा का पालनमात्र अपना कर्त्तव्य वा प्रयोजन मानकर सेवन किया ज्ञान, ध्यानादि परमार्थसम्बन्धी धर्म कहाता है। यह दोनों प्रकार का धर्म श्रौत, स्मार्त्त भेद से और दो प्रकार का होता है। अर्थात् लौकिक श्रौत, स्मार्त्त और वैदिक श्रौत, स्मार्त्त। यद्यपि सब शास्त्रों का धर्म ही मुख्य कर विषय है, क्योंकि जहां कहीं अधर्म को हटाने के उपाय कहे हैं, वह भी धर्म के प्रचार में उपयोगी होने से धर्म है। तथा जो कुछ कर्त्तव्य मानकर उपदेश किया गया वह सब धर्म है, क्योंकि जो सदा कर्त्तव्य वा ग्राह्य हो अर्थात् सुख का कारण हो वह धर्म और जो त्यागने योग्य दुःख का कारण निषिद्ध है उसका त्याग भी धर्म है। इस प्रकार वेद, उपवेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, छह वेदाग्, छह शास्त्र और स्मृति आदि सब सत् शास्त्रों में कर्त्तव्य का विधान और निषिद्ध का त्याग ही मुख्य कर दिखाया गया है। तो भी इस मानवधर्मशास्त्र का मुख्य कर यही विषय है। इससे सामान्य कर उक्त लक्षण वाला धर्म ही इस मानवधर्मशास्त्र में कहा गया है, यह सिद्ध हुआ। इस धर्म विषय का इतना लेख बहुत सूक्ष्म है, सो कुछ तो आगे शेष होगा और कुछ उपयागी समझ कर लिखा गया, वैसे इस महान् विषय का समाप्त होना दुस्तर था।

सामान्यकर शास्त्र के विषय का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

तीसरी कोटि में सामान्यकर शास्त्र के विषय को विचारना चाहिए यह लिख चुके हैं। वात्स्यायन ऋषि ने न्यायसूत्र के भाष्य में लिखा है कि ‘परस्पर सम्बद्ध प्रयोजनीय सुख के हेतु साधनों का जिसमें उपदेश किया जाय, वह शास्त्र है।’ इसी के अनुसार शास्त्र के विषय का विचार किया जाता है। प्रथम तो जानना अति आवश्यक है कि सब शास्त्र सुख तथा सुख के साधनों को प्राप्त करने की इच्छा और दुःख तथा दुःख के कारणों को छोड़ने की इच्छा को आगे कर बनाये गये, बनाये जाते और बनाये जावेंगे। इसमें सुख, सुख के कारण; दुःख, दुःख के कारण और इनकी प्राप्ति वा त्याग के भिन्न-भिन्न होने वा नाना प्रकार होने और कर्त्ताओं के भेद से शास्त्र अनेक होते हैं। और नीच प्रकृति वालों ने जो वेदविरुद्ध पुस्तक बनाये जिनमें प्रायः तमोगुण सम्बन्धी विषयों का वर्णन है। वे भी दुःख और दुःख के साधनों को प्राप्त होने की इच्छा से बनाये गये ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि सब कोई पुरुष अपने वा अन्य के लिये दुःख तथा दुःख के साधनों को नहीं चाहता। यद्यपि कोई दुष्ट नीच प्रकृति वाला मनुष्य अपने से प्रतिकूल अन्य के लिये दुःख वा दुःख के कारणों का सञ्चय करते हैं तो भी उसके लिये संसारी व्यवहार के लिये यत्न करते हैं किन्तु वैसी द्वेषबुद्धि रखकर शास्त्र बनाने से वह प्रयोजन सिद्ध होना सुगम नहीं प्रतीत होता। और जो दूसरे के मत खण्डन करना रूप उद्देश वा प्रयोजन को लेकर शास्त्र बनाया जाता है वहाँ भी अपने मत में दोष देने वाले हेतुओं के खण्डन से अपने दुःख का निवारण तथा अपने मत के गुणों के प्रकाशित करने से अपने को सुख पहुँचाना ही मुख्य प्रयोजन है। अर्थात् सब स्थलों में विचार कर देखा जाय तो अविद्याग्रस्त पुस्तक भी केवल किसी को दुःख मात्र पहुँचाने के लिये नहीं बनाये जा सकते। हां किसी समुदाय वा निज को उससे भले ही दुःख हो इसके अनेक कारण हो सकते हैं। अर्थात् सब शास्त्रों के बनाने वालों का मुख्य प्रयोजन वा विषय यही होता है कि कारणों के सहित दुःख को हटाकर सुख और सुख के साधन धनादि वस्तु प्राप्त हों। परन्तु अपना दुःख हटाकर सुख प्राप्ति का उपाय रचना सर्वत्र प्रधान रहता है, और जहाँ केवल परोकार दृष्टि से शास्त्र बनाया जाता है किन्तु उसमें किसी प्रकार के स्वार्थ का उद्देश नहीं रखा जाता वहाँ भी उस कर्म के द्वारा ईश्वर की व्यवस्था से शुभ फल की प्राप्ति होना ही स्वार्थ सिद्धि प्रयोजन है। यदि कहीं साधनों सहित सुख की प्राप्ति और दुःख को निर्मूल हटाने के लिये भी बनाया शास्त्र उस अंश में बनाने वाले के अविद्वान् होने से दुराचार का प्रवृत्त करने वाला ग्रन्थ हो जावे तो भी दुःख वा दुःख के साधनों को लेकर ग्रन्थ बनाया ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि ऐसा मन में रखकर कोई पुरुष बनाने के लिये प्रवृत्त नहीं होता इसलिये उक्त सिद्धान्त ही श्रेष्ठ है। और अज्ञानी लोगों के बनाये ग्रन्थों को शास्त्र भी इसलिये नहीं कह सकते कि वेदमूलक शिक्षा उनमें नहीं पायी जाती। और जहाँ-जहाँ वेदमूलक शिक्षा प्राप्त होती है, वहाँ-वहाँ सुखों की प्राप्ति और दुःखों के हटाने की इच्छा प्रकट दीख पड़ती है। इसलिये सब शास्त्रों का सामान्य कर सुखों की प्राप्ति और दुःखों के हटाने का कारण ही विषय वा प्रयोजन है। उसमें अवान्तर- भीतरी- अन्तरग् भेद बहुत हैं। सबके तुल्य इस मानव धर्मशास्त्र का भी सामान्य कर वही विषय है।

यद्यपि प्राणी और सुख-दुःखादि के साधनों के नाना प्रकार होने से विषयों के भी अनेक भेद होना सुगमता से ही कहा जा सकता है, तो भी सब शास्त्रों के तीन भागों में विभक्त होने से मुख्य विषय तीन ही हैं। सो न्यायसूत्र के भाष्य में वात्स्यायन ऋषि ने लिखा है कि “मन्त्र और ब्राह्मण का विषय यज्ञ, लोक के व्यवहार की व्यवस्था करना धर्मशास्त्र का विषय और संसारी मनुष्यों के वर्त्ताव वा चरित्रों का वर्णन करना वा इस जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय का वर्णन करना इतिहास-पुराणों का विषय है।”१ इसका तात्पर्य यह है कि कर्म, उपासना और ज्ञान यही मुख्य कर वेद का विषय है। यज्ञ शब्द प्रत्येक कर्मादि के साथ सम्बन्ध रखता है। जैसे- विधियज्ञ, योगयज्ञ वा ज्ञानयज्ञ इत्यादि। योग और उपासना शब्द वास्तव में एकार्थ ही हैं। कर्म दो प्रकार का है- एक धर्म के लिये किया धर्मसम्बन्धी, द्वितीय शिल्प की सिद्धि के लिये धनसम्बन्धी कर्म है। यद्यपि इससे भिन्न अन्य कर्म भी कामादि के लिये होते हैं, तो भी मुख्य ये ही दो हैं। सब कर्म मन, वाणी और शरीर इन तीनों से ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये उनके तीन भेद हैं। और सुख का हेतु शुभ कर्म तथा दुःख का हेतु अशुभ कर्म ये अन्य दो प्रकार हैं। वेदोक्त कर्म प्रायः सबका उपयोगी और स्मार्त्त कर्म वैदिक की अपेक्षा स्वार्थ साधक है। कर्म, उपासना और ज्ञान में सब विषय अन्तर्गत हैं। कोई इससे भिन्न विषय नहीं जिसका अन्य शास्त्र में विलक्षण वर्णन हो और इन तीनों का मूल वेद से है। इसलिये वेद सब विद्या और धर्मों का भण्डार है यह कहना सत्य है। ऐसा होने पर भी यदि कोई कहे कि फिर वेद से भिन्न धर्मशास्त्र का कौन विषय है ? तो उत्तर यह देना चाहिए कि वेद से भिन्न धर्मशास्त्र का विषय हमको इष्ट भी नहीं, किन्तु वेद से भिन्न उचित उपदेश का नाम धर्मशास्त्र है। जैसे मूल रूप व्याख्येय से व्याख्यान सदैव भिन्न और मिला रहता है, वैसे ही धर्मशास्त्र का विषय वेद से भिन्न-अभिन्न दोनों है। कर्म-उपासना-ज्ञानों से भिन्न कोई विषय धर्मशास्त्रों में नहीं है। इस कारण वेद से भिन्न विषय न हुआ। और कर्मादि के अवान्तर भेद होने से भिन्न है। इसी से यह व्यवहार करना बनता है कि यह श्रौत वा वैदिक तथा यह स्मार्त्त कर्म है। वेद में जो साक्षात् कहा गया वह वैदिक और वेद में जिसका मूल रूप से संकेत मात्र सूचना से उपदेश किया और स्मृतियों में जिसको कर्त्तव्य मानकर स्पष्ट विस्तार पूर्वक उपदेश किया वह स्मार्त्त कर्म कहा गया।

संसार में मनुष्य वेद की आज्ञा से विरुद्ध और उसके अनुकूल दोनों प्रकार से जगत् का प्रबन्ध चलाने के अर्थ कर्म कर सकता है। उसमें वेद की आज्ञा के पुष्ट करने वाले व्यवहार को करे, किन्तु किसी दशा में वेद से विरुद्ध आचरण न करे, यह धर्मशास्त्र का अभिप्राय है। क्योंकि यद्यपि वेद से विरुद्ध और अनुकूल दोनों प्रकार का व्यवहार हो सकता है, तो भी वेद के अनुकूल करने में कल्याण और विरुद्ध करने में अकल्याण वा दुःख प्राप्त होना सम्भव है। इसी विषय पर व्याकरण-महाभाष्यकार पतञ्जलि ऋषि ने भी लिखा है कि- एवं क्रियमाणमभ्युदयकारि भवतीति।1 अर्थात् वेद की आज्ञा के अनुकूल करना कल्याण का हेतु होता है। और इस प्रकार किया हुआ व्यवहार वेद के अनुकूल तथा इस प्रकार वेद से विपरीत होगा, यही विषय मुख्यकर धर्मशास्त्रों में वर्णन किया गया है। वेद के अनुकूल किया व्यवहार ही सुख का देने और दुःख का नाश करने वाला होता है।

अब एक शटा लोगों को और भी उपस्थित हो सकती है कि जब सब शास्त्र तीनों ही प्रकारों में हैं। जैसा कि पूर्व [श्रुति, स्मृति, इतिहासादि नाम से] लिखे गये, तो छह दर्शन२ और उपवेद३ आदि ग्रन्थों की क्या दशा होगी ? अर्थात् क्या षड्दर्शनादि शास्त्र नहीं, और हैं तो इनका विषय क्या है ? आजकल सामान्यकर शास्त्र शब्द के व्यवहार करने से मुख्य तो ये ही समझे जाते हैं, वेद तथा स्मृतियाँ वैसे शास्त्र नहीं समझे जाते ? इसका उत्तर यह है कि वेदार्थ का विशेष प्रचार करने के लिये वा वैदिक सिद्धान्त में पड़ने वाले विघ्नों को हटाने के लिये ऋषि-महर्षि- महात्मा लोगों ने जो-जो शास्त्र वेद का आशय लेकर परोपकारार्थ बनाये वे सब   धर्मशास्त्र वा स्मृति शब्द करके लोक में वा शास्त्रकारों की मार्यादा में प्रचरित हैं किन्तु मनुस्मृति आदि [कि जिनको आजकल लोग १८ वा २८ स्मृति कहते हैं] पद्य ग्रन्थों में स्मृति शब्द रूढि रूप से बंधा नहीं है, किन्तु कपिल की स्मृति सांख्य शास्त्र, योगस्मृति- पातञ्जल योगशास्त्र इत्यादि शब्दों से शटर स्वामी ने भी शारीरक मीमांसा में व्यवहार किया है। और वैसे ही अन्य सूत्रकार वा भाष्यकार स्मृति शब्द से व्यवहार करते ही हैं, यह बात विद्वानों को छिपी नहीं है। और मुख्य कर तो शास्त्र एक वेद है पर उसके व्याख्यान रूप भी ग्रन्थ स्मृति नामक शास्त्र है। इसलिये दो प्रकार के शास्त्र मुख्य कहे जाते हैं। एक श्रुति- वेद, द्वितीय स्मृति धर्मशास्त्र हैं। किन्तु इतिहास-पुराण वास्तविक शास्त्र नहीं हैं। किसी समयविशेष में उत्पन्न हुए मुख्य शिष्ट सज्जन पुरुषों का चरित्र वर्णन करने से इतिहास-पुराण किसी प्रकार साधारण बुद्धि वाले मनुष्यों को बोधित करते हैं। इससे वे सर्वथा व्यर्थ नहीं हैं। परन्तु उन इतिहासादि में जो धर्मसम्बन्धी उपदेश हैं वे यदि वेदमूलक हैं तो वे अंश धर्मशास्त्रों में अन्तर्गत हो जायेंगे। और यदि वेद से विपरीत हों तो वे अंश त्यागने योग्य हैं। यह सब विद्वानों वा शास्त्रकारों के सम्मत है।     धर्म का सेवन और अधर्म का त्याग करने वालों के लिये इतिहास-पुराण एक दृष्टान्त रूप हैं। अर्थात् सप्रयोजन होना हम खण्डित नहीं करते। अब इस सब कथन से सिद्ध हो चुका कि कर्म-उपासना-ज्ञान ही सामान्य कर सब शास्त्रों का विषय है। उन कर्मादि के उपदेश का मूल वेद है और ऋषियों के बनाये स्मृति नामक ग्रन्थ व्याख्यान रूप हैं। और इन कर्म-उपासना-ज्ञान को ही धर्म कहते हैं।

कब और किसने इस मनुस्मृति को पुस्तकाकार में बनाया ? पण्डित भीमसेन शर्मा

मनु कौन है इसका प्रतिपादन करके अब द्वितीय प्रकरण का विचार किया जाता है कि किस समय, किसलिये, किस पुरुष ने यह धर्मशास्त्र बनाया ? लोक में मनुस्मृति वा मानव धर्मशास्त्र नाम से यह पुस्तक प्रचरित है। इसका अभिप्राय यह है कि मनु अर्थात् ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में सब वेदों का अनुसन्धान- पूर्वापर विचार करके संसार के व्यवहार की व्यवस्था करने और अच्छे आचरणों का प्रचार करने के लिये सूत्रादि रूप वाक्यों में धर्म का उपदेश किया, किन्तु उस समय कुछ भी विषय पुस्तकाकार से लिखा नहीं गया था। उस उपदेश को शास्त्र करके मानना वा कहना विरुद्ध इसलिये नहीं है कि शास्त्रशब्द का व्यवहार लेखनक्रिया की अपेक्षा नहीं रखता। महर्षि वात्स्यायन जी ने न्याय सूत्र के भाष्य में शास्त्र का लक्षण भी यही किया है कि ‘परस्पर सम्बन्ध रखने वाले अर्थसमूह का उपदेश शास्त्र है।’१ इससे लिखे वा छपे पुस्तक का नाम शास्त्र नहीं आता। मनु नाम ब्रह्मा जी ने वेद के अर्थ का अनुसन्धान करके वेद को मूल मानकर व्यवहार की व्यवस्था करने के लिये जो विचार किया वह मनुस्मृति कहाती है। और मनु नाम ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आरम्भ में कहा मानव धर्म उसका उपदेश जिसमें है, वह पद और वाक्यादि रूप मानवधर्म शास्त्र कहाता है। अथवा मनु जी के अनुभव से सिद्ध हुआ मानवधर्म, वह जिसमें कहा गया, वह मानवधर्मशास्त्र कहाता है। प्रोक्तार्थ में प्रत्यय करने से प्रतीत होता है कि मानवधर्म का मूल वेद है। क्योंकि किसी सनातन धर्मशास्त्र का आश्रय लेकर शास्त्र बनाया जाय, उसी में प्रोक्त प्रत्यय होता है। इसी कारण प्रोक्ताधिकार२ के पीछे ‘कृते ग्रन्थे3 प्रकरण पाणिनि ने रखा है। और प्र उपसर्ग पूर्वक वचधातु४ से सिद्ध हुए प्रयोगों की पढ़ाने, प्रचार करने, विशेष लुप्त हुए शास्त्रों को निकाल कर चलाने और प्रकारान्तर से व्याख्यान कर सबको जताने, अर्थ में यथासम्भव प्रवृत्ति होती है। यह महाभाष्यकार पतञ्जलि महर्षि का आशय५ प्रोक्ताधिकार के व्याख्यान से प्रतीत होता है। ऐसा मानने से ही वेदों की संहिता के माध्यन्दिनीय और वाजसनेयी आदि नाम निर्दोष बन सकते हैं। अर्थात् माध्यन्दिन, वाजसनेय आदि ऋषियों के नाम से वेद की संहिताएं प्रसिद्ध हैं। इसका अभिप्राय यही है कि जिन-जिन ऋषि जनों ने उन-उन संहिताओं का विशेषकर अध्यापन वा उपदेश आदि द्वारा प्रचार कराया उन-उन के नाम से वे-वे पुस्तक प्रचरित हो गये। किन्तु उन पुस्तकों को ऋषियों ने बनाया नहीं। यदि प्रोक्त अधिकार को नवीन कृत्य माना जावे तो ‘कृते ग्रन्थे’ प्रकरण पुनरुक्त होने से व्यर्थ हो जावे, इस कारण प्रोक्त का वही अर्थ ठीक है कि जो ऊपर लिखा गया है।

पहले सृष्टि के आरम्भ में गुरु-शिष्य की निरन्तर चलने वाली परम्परा के साथ वाक्य, पद और मन्त्ररूप से ही वेदों के उपदेश का प्रचार चलता था। एक ने अपने गुरु से यथावत् सुनकर अन्य अपने शिष्यों को किया। इस प्रकार वेद और धर्मशास्त्र सम्बन्धी सूत्रादि रूप वाक्य सब पढ़ने-पढ़ाने वालों को कण्ठस्थ रहते थे। और शास्त्र के कण्ठस्थ होने से पढ़ने-पढ़ाने वालों को विद्या का जैसा ह्ल ल होना सम्भव है वैसा पुस्तकस्थ पाठ से नहीं हो सकता। इस पर किसी विचारशील पुरुष ने कहा है कि- ‘पुस्तक में पड़ी विद्या और पराये हाथ में गया धन, ये दोनों ही समय पर उपयोगी नहीं होते।’1 इससे विचारशीलों को जान लेना चाहिये कि कण्ठस्थ करना सर्वोत्तम है। ऐसा विचार के ही उस समय के लोगों ने लिखने की प्रवृत्ति नहीं चलाई थी। क्योंकि यदि पुस्तकें लिखी जावें तो विद्यार्थी ‘पुस्तकस्थ अपने पाठ को यथावकाश हम देख सकते हैं’, ऐसा मानकर शास्त्र को कण्ठस्थ न करेंगे, ऐसा विचार के लेखन प्रक्रिया का चलाना हानिकारक समझते थे। और यह कदापि कहना ठीक नहीं बनता कि उस समय के लोगों को लिखने का सामान नहीं मिला अथवा उनको लेखन क्रिया ज्ञात नहीं थी। क्योंकि वेद द्वारा परमेश्वर ने सब क्रियाओं का उपदेश पहले ही किया है।२ जैसी लिखने की परिपाटी इस समय है वैसी पहले न हो, यह हो सकता है, तो भी अभाव नहीं कह सकते। क्योंकि अभाव से भाव नहीं होता। किन्तु संसार के कार्यों का प्रकार बदलता रहता है। इसी के अनुसार पूर्वकाल में अन्य प्रकार का लिखना था। अर्थात् पुस्तकें नहीं लिखी जाती थीं, तो भी भित्ति आदि पर प्रतिबिम्ब रखना, वस्त्रों पर अनेक चित्र काढ़ना या छापना वा किसी में मोहर लगाना वा किसी को अटित करना इत्यादि सब काम लिखने के अन्तर्गत ही समझे जाते हैं। और जब पूर्वकाल सृष्टि के आरम्भ में ही अकारादि वर्णों की आकृति विद्वान् लोगों ने बनाई, तो ह्लि र लेखन- क्रिया नहीं थी, यह कहना ठीक नहीं, किन्तु अपने ही कथन को काटना है। अब यह प्रकरणान्तर है इसलिये इस पर विशेष न लिखकर मुख्य प्रकरण की बात करनी चाहिये। अर्थात् पहले सृष्टि के आरम्भ में शास्त्रों को पुस्तकाकार में लिखने की प्रवृत्ति नहीं थी, यह बहुत कारणों से प्रतीत होता है।

सृष्टि के आरम्भ में शास्त्र भी बहुत नहीं थे, किन्तु वेद से भिन्न कोई ही शास्त्र बना था, उन थोड़ों का कण्ठस्थ करना भी सहज ही था। और जो वेद से भिन्न धर्मसूत्रादि रूप से शास्त्र बने थे, वे छोटे-छोटे थे, इस कारण उनका कण्ठस्थ करना सुलभ था। पीछे जब धीरे-धीरे समय के अनुसार व्यवहार चलाने और वेद के आशय का विशेष प्रचार कराने के लिए आवश्यकता के अनुसार विद्वान् लोगों ने अन्य शास्त्र बनाये तब अनेक शास्त्रों के बढ़ जाने से कण्ठस्थ करना दुस्तर था, इस कारण क्रमशः विद्याधर्मादि का न्यून सेवन हो सकने की शटा से आगे होने वाले शक्तिहीन पुरुषों के उपकार के लिए बने हुए शास्त्र पुस्तकाकार किये गये।१ पहले समय में सत्त्व गुण के प्रचार की अधिकता से रजोगुणी पुरुष बहुत नहीं थे।२ और सत्त्वगुणी पुरुषों का यह स्वाभाविक धर्म है कि वे अपना नाम प्रसिद्ध करने के लिए विशेष प्रयत्न न करके अन्य प्रथमोपदेष्टा पुरुषों के नाम से ही अपने निमित्तमात्र कामों को भी प्रचरित करते थे। वैसे ही यह मनुस्मृति सृष्टि के आरम्भ में सूत्रादिस्थ वाक्यरूपों से मनु जी ने उपदेश की, उसके पीछे भृग जी ने अपने शिष्यों को उपदिष्ट की और भृगु जी ने ही पद्यरूप से क्रमबद्ध आकार में बनायी।

कोई लोग कहते हैं कि भृगु के किसी शिष्य ने यह पुस्तक बनाया और ऐसा मानने पर ही ‘स्वयम्भुवे0’ [अमित तेज वाले स्यम्भू ब्रह्मा जी को नमस्कार करके, मनु के द्वारा प्रणीत विविध शाश्वत धर्मों को कहूँगा।] यह प्रारम्भ में धरा गया किन्हीं-किन्हीं पुस्तकों में प्राप्त होने वाला श्लोक सार्थक हो सकता है। सो यदि इस पक्ष को सत्य माना जावे कि भृगु के किसी शिष्य का बनाया यह मनुस्मृति पुस्तक है, तो जिनका मत है कि भृगुप्रोक्त यह संहिता है, वह विरुद्ध पड़ेगा। और यह श्लोक भी सब पुस्तकों में नहीं मिलता। इससे इसका एकदेशी होना सिद्ध ही है। तथा व्यूलर ने भी यही कहा है कि कहीं-कहीं मिलने वाला यह श्लोक पीछे किन्हीं लोगों ने मिलाया है। यदि यह श्लोक पहले से होता तो सब पुस्तकों में मिलना चाहिए था। इससे अधिकांश सम्मति के अनुसार मेरी भी सम्मति यही है कि यह पुस्तक भृगु का बनाया है और ‘स्वयम्भुवे0’ यह श्लोक किन्हीं का पीछे से मिलाया हुआ है। भृगु के द्वारा बनाया होने पर भी सृष्टि के आरम्भ में मनु ही इस धर्म के आशय के प्रवर्त्तक हैं, कि जिसको मैंने श्लोकबद्ध किया। मेरा कुछ इनमें नवीन कृत्य नहीं, ऐसा मन में विचार के उन्होंने मनु के नाम से ही प्रचरित की, और यह बात सत्य भी है। क्योंकि ऐसा होने पर ही वेदों को ईश्वर का वाक्य कह सकते हैं अर्थात् ईश्वर का ज्ञान मात्र वेद हैं, उसने पुस्तकाकार वेद नहीं बनाये। किन्तु महर्षि लोगों ने पुस्तकाकार किये हैं। तो भी परमात्मा से वेद उत्पन्न हुए, ऐसा कहा वा माना जाता है। किन्तु किसी महर्षि ने वेद बनाये, ऐसा प्रसिद्ध नहीं। इसी प्रकार मनु नामक ब्रह्मा ने इसका स्मरण किया और भृगु ने विशेषदशा में पद्यरूपाकार से बनाया। तो भी जैसा मनु ने स्मरण किया था, वही आशय पुस्तकाकार में लाया गया, इसलिये इस पुस्तक को मनुस्मृति कहना वा मानना ठीक ही है, किन्तु निरर्थक नहीं। तथा अन्य स्मृतियों का पीछे बनना, आधुनिक होना, उन-उन के आशयों और उनमें इसी का अनुवाद दीख पड़ने से प्रतीत होता है। और यह मनुस्मृति पुरानी है, तो भी जहां-तहां बीच-बीच में इतिहासादि सम्बन्धी अनेक श्लोक किन्हीं मतवादियों ने मिला दिये हैं, इससे अत्यन्त नवीन प्रतीत होती है। ऐसी ही बातों को देखकर व्यूलर साहब को भी भ्रान्ति हो गई, जिससे उन्होंने इसको अतिनवीन ठहराया है। उनको भ्रान्ति होने में अनुमान से यह भी कारण जान पड़ता है कि जैसे ईसाई मत अतिनवीन है, इससे थोड़ा इधर-उधर तक का समाचार उन्होंने लगा पाया है। जैसे दो-तीन सहस्र वर्ष से पूर्व हमारे मत या कुटुम्ब के नाम तक का पता नहीं, वैसे ही अन्य भी कोई मत पहले नहीं था। इन लोगों के मत वा सिद्धान्त से चार, पांच वा छह सहस्र वर्षों के पूर्व सृष्टि भी नहीं थी और न कोई शास्त्र था। परन्तु यह उन लोगों का विचार ठीक नहीं, क्योंकि इस आर्यावर्त्त देश में सूर्यसिद्धान्त नामक एक पुस्तक है जो वर्तमान इस चतुर्युगी के त्रेतायुग में बनाया गया। उसमें स्पष्ट लिखा है कि इस अट्ठाईसवीं चतुर्युगी में से अब तक केवल सद्युग बीत गया। उस पुस्तक को बने कई लाख वर्ष बीत गये। इसी प्रकार उससे भी अत्यन्त प्राचीन पुस्तकें इस देश में हैं। तथा काल का परिमाण, काल के अवयवों का वर्णन और कल्प तथा प्रलयादि का वर्णन सूर्यसिद्धान्तादि आर्यों के पुस्तकों में मिलता है। उससे सिद्ध है कि इस सृष्टि को उत्पन्न हुए अरब से ऊपर-ऊपर वर्ष बीत चुके हैं। तब से लेकर क्या मनुष्य विद्या, धर्म आदि से रहित ही थे, और ऐसा कथन कोई बुद्धिमान् मान सकता है ? कदापि नहीं। यदि कोई सनातन ईश्वर माना जावे, तो उसने सृष्टि के आरम्भ में ही मनुष्यों को कुछ ज्ञान दिया, ऐसा मानना चाहिये। अन्यथा परमेश्वर में दोष आवेगा। और परमेश्वर के किसी काम में भूल है नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि मनुस्मृति भी सृष्टि के आरम्भ से ही रूपान्तर में थी, वह कुछ काल पीछे भृगु ने पद्यरूप में बनायी। तब मनु जी के अभिप्रायानुकूल होने से मनुस्मृति नाम रखा गया। इस आर्यावर्त्त देश में पहले श्लोक बनाने की परिपाटी वा ज्ञान नहीं था यह भी किसी का मानना वा कहना सम्भव नहीं। क्योंकि वेद में सब प्रकार की छन्दरचना प्रत्यक्ष दीखती है। जब वेद में परमेश्वर ने श्लोक बनाने की प्रक्रिया पहले ही दिखा दी है, तो उन्हीं वेदों के पढ़ने-पढ़ाने-जानने और प्रचार करने वाले ब्रह्मादि लोग श्लोक-रचना की रीति न जानते हों, यह कदापि सम्भव नहीं। परन्तु यह सत्य है कि प्रायः उस समय के लोग आजकल के तुल्य श्लोक-रचना नहीं करते थे। उसका अभिप्राय यह था कि बहुत अर्थ जिसमें से निकले ऐसा छोटा शास्त्र बने, ऐसी लाघवबुद्वि से थोड़े अक्षरों तथा गम्भीर वा बहुत अर्थ वाले सूत्ररूप ग्रन्थों को प्रायः रचते थे। जिससे विद्यार्थी लोग ब्रह्मचर्य आश्रम के समय में ही सब शास्त्रों को पढ़ सकें। पर तो भी सर्वथा पद्यरचना का अभाव नहीं था, अर्थात् कोई-कोई श्लोकबद्ध भी शास्त्र बनाते थे। जैसे भृगु जी ने यह स्मृति बनायी वा जैसे त्रेतायुग में सूर्यसिद्धान्त पद्यरूप से बनाया गया। अब यह सिद्ध हो गया कि सृष्टि के आरम्भ में वेद के आश्रय से सांसारिक व्यवहार को ठीक व्यवस्था चलाने के लिये सूत्रादि वाक्यरूपों से मनु जी ने इस स्मृति का उपदेश किया, उसके पीछे भृगु ने श्लोकरूप से बनाया। जैसे इस समय बनने वाले पुस्तकों में संवत्सर का नाम रखा जाता है कि अमुक संवत् में अमुक पुरुष ने यह पुस्तक बनाया, वैसी परिपाटी पहले नहीं थी और कदापि हो तो भी किन्हीं लोगों ने पीछे नष्ट कर दी। इसी से किस संवत् में यह पुस्तक बना, यह कहना नहीं बन सकता। तो भी अनुमान से हम जान सकते हैं कि इस कल्प में संसार की उत्पत्ति होने के पश्चात् परमेश्वर से वेद का उपदेश पाकर अन्य शास्त्र बनने से पूर्व ही मनु जी ने पहले इस धर्मशास्त्र का उपदेश किया। उस समय यह धर्मशास्त्र पुस्तकाकार से नहीं लिखा था। पीछे अनुमान से दो सौ वर्ष के भीतर भृगु जी ने श्लोक रूप से बनाया। उसके पीछे कुछ काल बीतने पर किन्हीं अन्य ऋषि लोगों ने पुस्तकाकार किया। उससे पूर्व श्लोकरूप का ही निरन्तर चलने वाली गुरु-शिष्य की पठन-पाठन प्रणाली से प्रचार था। और प्रचार के अनुसार ही पहले लिखी गयी। पीछे कहीं-कहीं बीच में किन्हीं लोगों ने कुछ-कुछ मिला दिया यही इस प्रसग् में मुख्य और दृढ़ सिद्धान्त है।

और यदि किसी प्रकार व्यूलर साहब आदि के कहने के अनुसार किसी ने दो सहस्र वर्ष के भीतर ही इस धर्मशास्त्र को बनाया, ऐसा सिद्धान्त ठीक हो तो भी हमारा मत यह है कि यदि इस पुस्तक में अन्य स्मृतियों की अपेक्षा गम्भीराशय के साथ पक्षपात को छोड़ के वेदानुकूल वर्णाश्रमादि धर्म का वर्णन किया गया है और अन्य-अन्य प्राप्त होने वाली स्मृतियों में वैसा धर्म का उपदेश नहीं प्राप्त होता है तो वेद के अनुकूल होना ही इस मानवधर्मशास्त्र की उत्तमता में हेतु होगा। यह सब सज्जनों का मत है कि जो वेदानुकूल है, वही श्रेष्ठ है। और यदि किसी प्रकार इसका नवीन बनना सिद्ध हो जावे, तो भी मनुस्मृति नाम रखना विरुद्ध नहीं है। क्योंकि कारण के बिना जब कोई कार्य नहीं होता तो मनु जी ने उपदेश किया सूत्रादि वाक्याकार पुरातन धर्म गुरु-शिष्य की परम्परा से प्रचरित चला आता था, उसी के आश्रय से किसी विद्वान् ने श्लोकरूप से बनाया उसमें भी आदि कर्त्ता मनु की प्रधानता से मनुस्मृति कहना सम्भव है। और इसको आधुनिक मानना हमारा पक्ष नहीं है किन्तु अन्य लोगों के समयानुसार किसी प्रकार कोई इसको आधुनिक मान लें तो भी समूलक वा वेदमूलक होने से प्रशंसा के योग्य अवश्य माननी चाहिये, यह अभिप्राय है। और मैंने तो अपनी सम्मति पूर्व ही लिख दी है।

वे मनु कौन थे जिन्होंने इस धर्मशास्त्र का उपदेश किया ? पण्डित भीमसेन शर्मा

वे मनु कौन थे, जिन्होंने सबसे पहले धर्मशास्त्र का उपदेश मनुष्यों को दिया ? इस विषय में- मनु नामक कोई निज (खास) मनुष्य थे जो वेद की अनेक शाखाओं के पढ़ने, जानने और उनमें लिखे अनुसार आचरण करने में तत्पर और स्मृतियों की परम्परा से प्रसिद्ध हैं, यह मेधातिथि का लेख है। कुल्लूक भट्ट कहते हैं कि सम्पूर्ण वेदों के अर्थ आदि का मनन, विचार करने से उनका नाम मनु हुआ। नन्दन कहते हैं कि स्वायम्भुव का नाम मनु है। और गोविन्दराज ने लिखा है कि सम्पूर्ण वेद के अर्थ आदि को जानने से मनु संज्ञा को प्राप्त हुए, शास्त्रों की परम्परा से सब विद्वान् जिनके नाम को बराबर सुनते, जानते आये और परमेश्वर ने संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने के लिए जिनको नियत किया, ऐसे महर्षि का नाम मनु था। और व्यूलर साहब (इंग्लेण्ड देश निवासी जिन्होंने अंग्रेजी में मनुस्मृति पर भाष्य किया है) लिखते हैं कि कहीं तो ब्रह्मा का पौत्र मनु लिखा, कहीं मनु को प्रजापति माना गया, तथा कहीं (७.४२) मनु नाम राजा था ऐसा लिखा है, और कहीं (१२.१२३) मनु को साक्षात् ब्रह्म करके लिखा है, इसी मनुस्मृति में, ऐसे परस्पर विरुद्ध अनेक प्रकार के लेख हैं, जिससे यह निश्चय हो सकना कठिन है कि इस धर्मशास्त्र का बनाने वाला मनु कौन था। परन्तु व्यूलर साहब ने आगे यह भी लिखा है कि इस देश में सर्वोपरि धर्म का जानने वाला कोई मनु पहले हुआ जिसके नाम से ही धर्म की प्रशंसा चली आती है।

इस प्रसग् में इत्यादि प्रकार के लेख अलग-अलग लोगों के मिलते हैं, जिनमें सबकी एक सम्मति नहीं जान पड़ती। इस विषय में मैं अपनी सम्मति से निश्चय सिद्धान्त लिखता हूं, उसको सुनना चाहिये। सृष्टि के प्रारम्भ में पहले कल्प के अच्छे संस्कारों से जिनका आत्मा शुद्ध था, पहले जन्मों में अभ्यास की हुई विद्या से वेदार्थ के जानने में जिनकी बुद्धि तीव्र थी, पहले कल्प में सेवन किये पुण्य के समुदाय से जिनका अन्तःकरण शुद्ध था, इसी कारण तेजधारी चारों वेदों के ज्ञाता, सब संसार और परमार्थ के कर्त्तव्य को ठीक-ठीक जानने वाले मनुष्यों में सूर्य के तुल्य तेजस्वी तपस्या और योगाभ्यास करने में तत्पर विचारशील मनु नामक महर्षि हुए, उन्हीं का दूसरा नाम ब्रह्मा भी था, यह बात अनेक प्रमाणों वा कारणों से निश्चित सिद्ध है। इसी कारण उन मनु का स्वायम्भुव नाम भी विशेष कर घटता है, क्योंकि स्वयम्भू नाम परमेश्वर का इसलिए माना जाता है कि वह सृष्टि रचने के अर्थ स्वयमेव प्रकट होता है, अर्थात् सृष्टि के लिए उसको कोई प्रेरणा वा उद्यत नहीं करता। प्रलयदशा में रचना के सम्बन्धी कार्यों के न रहने से रचने से पहले रचना के आरम्भ का उद्योग करना ही उसका प्रकट होना कहाता है। इसी से उसको स्वयम्भू कहते हैं। चारों वेदों के जानने वाले देहधारी मनुष्य का तो स्वयम्भू नाम नहीं हो सकता, क्योंकि उस ब्रह्मा की उत्पत्ति परमेश्वर से अनेक ग्रन्थों में दिखाई गई है। यदि उन ब्रह्मा की स्वयमेव उत्पत्ति होती, तो परमात्मा के बिना अन्य मनुष्यादि की भी उत्पत्ति हो सकना सम्भव है (इस प्रसग् में अनेक लोगों का ऐसा मत है कि परमात्मा ने स्वयमेव ब्रह्मरूप बनकर संसार को उत्पन्न किया। इस अंश पर यहां विशेष विचार इसलिए नहीं लिखता कि यह प्रकरणान्तर है, और प्रकरणान्तर पर विचार चल जाने से मुख्य प्रकरण छूट जाता है, परन्तु इतना अवश्य कहता हूं कि परमेश्वर परस्पर विरुद्ध दो धर्मों को धारण कभी नहीं करता, वह सदा निराकार है, साकार कभी नहीं होता। वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव है, कभी शरीरादि में बद्ध नहीं होता, इसीलिये वेद में उसको अकाय१ लिखा है। तथा योगभाष्य में व्यास जी ने लिखा है कि- ‘वह सदैव मुक्त और सदा अनन्तशक्ति रहता है’२, शरीर धारण करे तो मनुष्यों के तुल्य शरीर में बद्ध और अल्पशक्ति अवश्य हो जावे, क्योंकि शरीर के परिच्छिन्न वा अन्तवाला होने से शरीर कदापि अमर्यादशक्ति वाला नहीं हो सकता। इत्यादि कारणों से स्वयम्भू का वैसा अर्थ करना ठीक नहीं हो सकता। किन्तु वही अर्थ ठीक है जो पूर्व लिखा गया) और परमेश्वर के बिना यदि अन्य मनुष्यादि की उत्पत्ति हो जावे, तो निरीश्वरवाद भी आ सकता है, क्योंकि फिर किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं रहेगी। और ब्रह्मा को मनु मानने से ही प्रथमाध्याय के इक्यावनवें (५१) श्लोक पर पं॰ नन्दन का किया व्याख्यान अच्छा प्रतीत होता है। क्योंकि वहां अचिन्त्यपराक्रम शब्द से नन्दन ने परमेश्वर का ग्रहण किया है तथा अन्य भाष्यकारों की सम्मति से ब्रह्म का ग्रहण होना प्रतीत होता है। परन्तु परमेश्वर का ग्रहण होना ही अति उचित है, इसी से मनु नाम ब्रह्मा का रचने वाला परमेश्वर हो सकता है। और यदि किन्हीं लोगों के मतानुसार चार वेदों के जानने वाले देहधारी ब्रह्मा का पौत्र मनु माना जावे तो परमेश्वर ने मनु को उत्पन्न किया, यह कहना व्यर्थ हो जायगा। क्योंकि मनु ब्रह्मा के पौत्र हुए तो उनके उत्पादक पिता विराट् हुए। यदि कहा जावे कि परमेश्वर ही सबको जन्म-मरण देता है, इस कारण ब्रह्मा का पौत्र होने पर भी परमेश्वर ने उत्पन्न किया, कह सकते हैं और पिता निमित्तमात्र है तो ठीक है, परन्तु मनु को ही परमेश्वर ने उत्पन्न किया, यह कैसे ? क्या अन्यों को नहीं किया और उस श्लोक का यह तात्पर्य नहीं हो सकता, क्योंकि वहां मैथुनी सृष्टि का प्रसग् नहीं है, किन्तु ईश्वर ने जैसे सबको रचा वैसे ही मुझको भी बनाया, यह कथन है। इसलिए ब्रह्मा का ही नाम मनु रखना उचित है, क्योंकि उस पक्ष में यह कोई विवाद नहीं उठता। और अचिन्त्यपराक्रम शब्द से जो भाष्यकार लोग ब्रह्मा का ग्रहण करना चाहते हैं, उनके मत में देहधारी ब्रह्मा से परमात्मा में कुछ विशेषता सिद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि जब ब्रह्मा ही अनन्तशक्तिधारी हो गये तो उनके उत्पादक पिता में क्या अधिकता रही, और शरीरधारी का अनन्तशक्ति होना ठीक भी नहीं अर्थात् असम्भव है। तथा भाष्यकारों के सम्पूर्ण वेद को जाने से वा मनन करने से मनु नाम हुआ इत्यादि वचन ब्रह्मा को ही मनु मानने पर सार्थक हो सकते हैं। क्योंकि सृष्टि के आरम्भ में ही एक साथ सम्पूर्ण वेदार्थ को जानने, समझने वाले दो पुरुष नहीं हो सकते।

तथा प्रजापति शब्द भी ब्रह्मा का विशेषण प्रायः दीख पड़ता है, सो ब्रह्मा को मनु मानने पर मनु का विशेषण प्रजापति सहज में हो सकेगा। अन्यथा सन्देह पड़ना सम्भव है कि दोनों का नाम प्रजापति क्यों रखा गया ? ब्रह्मा को प्रजापति इसलिए कहा गया कि वे विद्या और धर्म की व्यवस्था चलाकर प्रजा की रक्षा करते थे। वेद के अर्थ की वृद्धि अर्थात् प्रचार बढ़ाने से ब्रह्मा और वेद के आशयों का अन्तःकरण में मनन करने से एक ही पुरुष का मनु नाम जगत् में विख्याति को प्राप्त हुआ। एक वस्तु के अनेक नाम होना लोक में भी प्रसिद्ध ही है। अर्थात् यह शटा नहीं हो सकती कि एक के दो नाम क्यों रखे गये ? एक वस्तु के अनेक नाम अनेक गुणों के होने से रखे जाते तथा उन एक-एक नामों से उस-उस प्रकार के गुण लोकव्यवहार में जताये जाते हैं। इसी धर्मशास्त्र में जो वचन इस सिद्धान्त से विरुद्ध जान पड़ेंगे उनका समाधान यथावसर किया जायगा।

एक शब्द एक ही वस्तु का वाचक हो यह भी नियम नहीं दीखता। जैसे देवदत्त संज्ञा बहुत मनुष्यों की एक समय वा समयान्तर में हुई, होती और होगी। इसी प्रकार मनु यह नाम अन्य वाच्य पुरुषों का भी हुआ है और होगा। वाच्य वस्तुओं के उत्पत्ति-विनाश धर्मयुक्त होने से नाम भी पहिये के तुल्य लौट-पौट होते रहते हैं। मनु नामक कोई राजा भी हुआ। जिसका नाम इसी पुस्तक के सप्तमाध्याय१ में आया है। यदि वेद में मनु नाम राजा का आवे तो वहां मनु नामक परमेश्वर ही राजा माना जाएगा। क्योंकि इसी पुस्तक के अध्याय बारह में मनु नाम परमेश्वर का आया है कि उसी एक सर्वनियन्ता के मनु, अग्नि और प्रजापति आदि नाम हैं।२ सब चराचर जगत् को तात्त्विक रूप से जानता है इसलिए उसका नाम मनु है। ऐसा मानकर ही मनु शब्द से मनुष्य और मानुष शब्द बने हैं “मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च”3 इस पाणिनिकृत सूत्र में अपत्य अर्थ अपेक्षित नहीं है, किन्तु जाति होने से सिद्ध शब्द रुढ़ि माने जावेंगे। उनमें स्वरादि का ज्ञान कराने के लिए जिस किसी प्रकार सिद्धि दिखाई है। उस सिद्धि करने का अभिप्राय यह है कि मनु नामक परमेश्वर ने विचार करने की सामग्री से धर्म-अधर्म का विवेक करने के लिए रचा समुदाय मनुष्य वा मानुष जाति कहाती है।४ अपत्य अर्थ की यहां अपेक्षा नहीं, यह काशिकाकार जयादित्य5 आदि का भी सम्मत है। यदि आदि पुरुष देहधारी मनु से मनुष्य अर्थ में प्रत्यय है, ऐसा किसी का मत हो तो अपत्य अर्थ में प्रत्यय की उत्पत्ति अवश्य माननी चाहिए। सो यह सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर की ओर से यदि एक ही कोई पुरुष उत्पन्न किया गया माना जावे तो उसी के सन्तान सब आगे होने वाले प्राणी हों। इस प्रकार मानने से मनुष्य और मानुष शब्द जातिवाचक मनु के सन्तान सार्थक हो सकते हैं। परन्तु यह वेद से विरुद्ध है। अथर्ववेद6 में लिखा है कि पितृ, देव, मनुष्य, पशु आदि अनेक-अनेक प्राणी परमेश्वर से प्रथम उत्पन्न हुए। इसी प्रकार अन्य वेदों7 में भी सैकड़ों प्रमाण मिलते हैं, कि जिनमें परमेश्वर से बहुत मनुष्यादि की उत्पत्ति स्पष्ट दिखायी गयी है। और उपनिषदों8 में भी स्पष्ट लिखा है कि उस परमेश्वर से अनेक प्रकार के सूर्य, चन्द्रमादि देव अनेक मनुष्य, पशु और पक्षी आदि उत्पन्न हुए। इससे यह सिद्ध और सत्य है कि सृष्टि के आरम्भ में बहुत से मनुष्यादिकों की एक साथ उत्पत्ति हुई। और विचारपूर्वक ध्यान देने से भी यही प्रतीत होता है कि परमेश्वर ने प्रत्येक वस्तु आरम्भ में अनेक बनाये। यदि एक वस्तु वा मनुष्य को बनाता तो इतनी बड़ी पृथिवी पहले शून्य ही होती और एक मनुष्य से इतनी वृद्धि भी लाखों वर्षों में नहीं हो सकती। जैसे एक मनुष्य से कुछ सृष्टि बढ़ेगी वैसे जन्म के साथ मरण भी लगा है, ह्लि र ऐसी दशा में सप्तद्वीपा वसुमती१ पर एक मनुष्य के सन्तानों का इतना फैलाव होना दुस्तर है। इसलिए अनेक मनुष्यों की उत्पत्ति प्रारम्भ में मानना ठीक सिद्ध है। और जब यह सिद्ध हो चुका कि सृष्टि के आरम्भ में बहुत मनुष्य रचे गये तो मनु नामक पुरुष के सन्तानों की ही मनुष्य संज्ञा हो, अन्य के सन्तानों की न होनी चाहिये सो यह कदापि ठीक नहीं हो सकता कि किसी गोत्र के पुरुष ही मनुष्य कहावें और सबका नाम मनुष्य न पड़े। इसलिए सृष्टि के आरम्भ में एक साथ बहुत मनुष्यादिकों की उत्पत्ति हुई, यह वेदोक्त सिद्धान्त ही ठीक है और परमेश्वर के वाची मनु शब्द से ही मनुष्य, मानुष शब्दों का बनना ठीक है। और जहां पुरुष वाचक मनु शब्द से अपत्य अर्थ में प्रत्यय होता है तब “तस्यापत्यम्”2 इस पाणिनीय सूत्र से अण् प्रत्यय होकर मनु के सन्तानों का नाम मानना पड़ता है। ऐसा होने पर जो लोग मनुष्य का पर्यायवाची मानकर मानव शब्द का प्रयोग करते हैं, वहां अज्ञान ही कारण जान पड़ता है। क्योंकि मनुष्य शब्द के तुल्य मानव शब्द जातिवाचक नहीं है। किन्तु सृष्टि के आरम्भ में वा पीछे हुए मनु नामक पुरुष के कुल में उत्पन्न हुए पुत्र-पौत्रादि का नाम मानव हो सकता है। कोशकारों3 ने भी अपने-अपने पुस्तकों में मानव शब्द को मनुष्य पर्याय बुद्धि से रखा है, इसलिए वहां भी भ्रान्ति ही जाननी चाहिये। जाति अर्थ में अण् और यत् प्रत्यय के ही विधान करने से मानव शब्द में अजाति में अण् प्रत्यय का होना अर्थापत्ति से ही सिद्ध है। और जो मानव शब्द धर्म या धर्मशास्त्रादि का विशेषण है, वहां “तस्येदम्”4 सूत्र से सामान्य सम्बन्धार्थ में अण् प्रत्यय जानना चाहिए। मनु शब्द साधारण मनुष्य का भी नाम हो सकता है, यह लिख भी चुके हैं। अधिकांश में इसी पक्ष का आश्रय लेकर महाभाष्कार ने यह कारिका पढ़ी है कि-

अपत्ये कुत्सिते मूढे मनोरौत्सर्गिकः स्मृतः।

नकारस्य च मूर्द्धन्यस्तेन सिध्यति माणवः।।5

‘मनु शब्द से निन्दित अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय और नकार को मूर्द्धन्य णकारादेश हो जाता है। जिससे माणव शब्द बनता है।’ इससे मनु नामक पुरुष के निन्दित सन्तान की माणव संज्ञा है। मानव शब्द किसी प्रकार गोत्र जाति के तुल्य अवान्तर जाति का वाचक हो जावे तो कभी एक प्रकार की उत्पत्ति वाले एक जाति कहाते हैं, जैसे मनुष्य, पशु, पक्षी आदि इस जातिलक्षण को मानकर सिद्ध किये मनुष्य, मानुष शब्दों की अपेक्षा मानव शब्द का जातिवाचक नहीं होना ही कह सकते हैं।

और यदि माणव शब्द में परमेश्वरवाची मनु शब्द से ही निन्दित अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय हो तो भी कोई दोष नहीं। इसी प्रकार मनुष्य, मानुष शब्दों से भी अपत्य अर्थ मानने पर भी दोष नहीं। क्योंकि हम सब उसी सर्वशक्तिमान् परमात्मा के सन्तान ही हैं। वह हमारा पिता है, सृष्टि के आरम्भ में हम सबको उसी ने उत्पन्न कर रक्षा की, उस समय वही हमारा माता-पिता था, इस कारण उत्पादक और रक्षक होने से वह सबका पिता है। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल1 के अस्सीवें सूक्त के सोलहवें मन्त्र में ‘मनुष्पिता’ इत्यादि शब्दों से सब चराचर जगत् का पिता मनु है, ऐसा स्पष्ट कहा है। इसी प्रकार अन्य शाखा ब्राह्मणों2 में भी सैकड़ों प्रमाण ऐसे मिलते हैं, जिनसे सबका उत्पादक मनु नामक परमात्मा ही सिद्ध होता है।

उस परमेश्वर की सृष्टि में सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म आदि का सामान्य प्रकार से मनन करने वाले स्त्री-पुरुष मनुष्य और अपने कर्त्तव्य से पतित हुए, निन्दित मनुष्य माणव कहाते हैं। ऐसा होने पर कोशकर्त्ताओं3 ने माणव शब्द को बालक का पर्याय वाचक कहा है सो उनका लेख प्रामादिक प्रतीत होता है, क्योंकि बालकों को निन्दित इसलिये नहीं ठहरा सकते कि जो उस काम के करने में समर्थ होकर न करे, वह निन्दित कहाता है परन्तु बालक लोग धर्म-अधर्म का विवेक करने का सामर्थ्य ही नहीं रखते, इसलिये माणव शब्द का प्रयोग धर्महीन पशुओं के समान वर्त्ताव करने वाले निन्दित मनुष्यों में करना चाहिए। कोई कहे कि बालक भी अज्ञानी का नाम है, वैसे माणव भी मान लिया जाय तो यह किसी प्रकार बन सकता है, परन्तु बालक शब्द अज्ञानी का वाचक वास्तव में नहीं, किन्तु गौण प्रयोग है कि बालक भी अज्ञानी होता है। इसलिये जवान होकर भी अज्ञानी रहे, तो बालक के तुल्य अज्ञानी वा अनधिकारी माना जाता है।४ इस प्रकार यहां माणव शब्द बालक के साथ गौणार्थ में भी नहीं लिया जा सकता, क्योंकि बालकों का निन्दित होना स्थिर नहीं और कोई बाल्यावस्था में निन्दित होकर भी आगे सम्हल जाते हैं, इस कारण निन्दित कहना ठीक नहीं और वही पूर्वोक्त पक्ष ठीक है। इस उक्त प्रकार से समय और अवसर के अनुसार बहुतों का नाम मनु आता है। परन्तु जो धर्म की व्यवस्था करने वालों में सबका गुरु धर्म के उपदेशकों में मुख्य मनु हुआ उसी का नाम ब्रह्मा भी था। मैत्रायणीय ब्राह्मणोपनिषद्5 और तैत्तिरीय कृष्णयजुःसंहिता1 में मनु और ब्रह्म एक ही के नाम हैं, यह स्पष्टता से दिखाया गया है। इसलिये विद्वान् लोगों को विचारना चाहिये कि पहले हुए शिष्ट लोगों के अनुकूल यह सिद्धान्त है। किन्तु मैंने नवीन कल्पित नहीं मान लिया है। यदि कोई कहे कि यहां स्मृति के प्रसग् मे भी ब्रह्मा नाम से ही व्यवहार क्यों नहीं किया गया, जिससे सन्देह ही न होता ? इसका उत्तर यह है कि उस पुरुष ने वेद के अर्थ का मनन, स्मरण किया, इससे मनु नाम रखा गया। शटा के भय से कोई काम रोके नहीं जाते। जिस-जिस का सेवन किया जाता वा शास्त्र बनाया जाता है उन सबमें थोड़ी बुद्धि वालों को सन्देह हुआ करते हैं, विद्वान् लोग ओषधि से रोग के तुल्य सिद्धान्तरूप वचनों से सन्देहों को निवृत्त कर देते हैं। और मनुस्मृति का ब्रह्मस्मृति नाम भी है, परन्तु उसका विशेष प्रचार उस नाम से नहीं है। अब यह सिद्ध हो गया कि मनु नाम से प्रसिद्ध ब्रह्मा है, उसी ने इस धर्मशास्त्र का उपदेश सृष्टि के आरम्भ में किया। इसलिए यह विषय समाप्त हो जाता है।

मानवधर्म शास्त्र का सार: पण्डित भीमसेन

विद्या यस्य सनातनी सुविमला, दुःखौघविध्वंसिनी।

वेदाख्या प्रथितार्थधर्मसुगमा, कामस्य विज्ञापिका।

मुक्तानामुपकारिणी सुगतिदा, निर्बाधमानन्ददा।

तस्यैवानुदिनं वयं सुखमयं भर्गः परं धीमहि।।1।।

यस्माज्जातमिदं विश्वं यस्मिंश्च प्रतिलीयते।

यत्रेदं चेष्टते नित्यं   तमानन्दमुपास्महे।।2।।

यदेव वेदाः पदमामनन्ति तपांसि यस्यानुगतास्तपन्ति।

शास्त्रं यदाप्तुं मुनयः पठन्ति, तस्यैव तेजः सुधियानुचिन्त्यम्।।3।।

दिक्कालाकाशभेदेषु परिच्छेदो न विद्यते।

यस्य चिन्मात्ररूपस्य नमस्तस्मै महात्मने।।4।।

सर्वासां सत्यविद्यानां मूलं वेदो निरुच्यते।

तस्यापि कारणं ब्रह्म तेन सृष्टौ प्रचारितः।।5।।

तस्य वेदस्य तत्त्वं हि मनुना परमर्षिणा।

तपः परं समास्थाय योगाभ्यासगतात्मना।।6।।

सारांशमखिलं बुद्ध्वा लोकानां हितकाम्यया।

धर्मः सनातनः स्मृत आपद्धधर्मश्च कालिकः।।7।।

प्रचाराधिक्यमापन्नः पुरा धर्मः सनातनः।

आसीदास्थाय सत्यां तां गुरुशिष्यपरम्पराम्।।8।।

या पश्चाज्छललोभाभ्यां मोहेन कलहेन वा।

अविद्योपासनेनापि   ब्रह्मचर्यादिवर्जनात्।।9।।

स्वार्थसाधनरागेण धर्मस्य परिवर्जनात्।

अधर्मसेवनेनापि नष्टा सत्या परम्परा।।10।।

तदा नानामतान्यासन् मनुष्याणामितरेतरम्।

श्रौतस्मार्त्तस्य धर्मस्य नाशस्तेनाभवत्पुनः।।11।।

स्वस्य स्वस्य मतस्यैव प्रचाराय पुनस्तदा।

विरुद्धपक्षसंसक्तैर्ग्रन्थानां निर्मितिः कृता।।12।।

ये च वेदानुगा ग्रन्थाः शुद्धा दृष्टा मतानुगैः।

तत्रापि सज्जितं वाक्यं स्वमतस्यैव पोषकम्।।13।।

तस्माच्च शुद्धग्रन्थानामार्षाणां श्रौतधर्मिणाम्।

धृतवर्णाश्रमतत्त्वानामद्य प्राप्तिः सुदुर्लभा।।14।।

यादृशाश्चोपलभ्यन्ते ग्रन्थाः परमर्षिनामतः।

तत्रापि निर्मितं भाष्यं तैरेव स्वमतानुगम्।।15।।

धर्मस्य वर्णनं तत्र सम्यङ् नैवोपलभ्यते।

मतवादं पुरस्कृत्य पक्षपातश्च वर्णितः।।16।।

तर्केणानुसन्धानं   मनूक्तं   नोपलभ्यते।

श्रौतस्मार्त्तस्य धर्मस्य तेषु भाष्येषु पश्यतः।।17।।

अतोऽहं बहुभिराज्ञप्तः सज्जनैर्धर्मवेदिभिः।

स्वयं चाप्यनुसन्धाय दृष्ट्वा च धर्मविप्लवम्।।18।।

मानवस्यास्य शास्त्रस्य वेदानामनुगामिनः।

भाष्यारम्भं करोम्यद्य लोकानां हितमाचरन्।।19।।

भियःषुग्वे1त्यपादाने2 निष्पन्ना षुगभावतः।

तादृशी यस्य सेनास्ति तन्नाम्नेदं वितायते।।20।।

यद्यप्येतादृशी शक्तिर्मयि मन्दे न विद्यते।

तथापि तर्त्तुमिच्छामि सत्यप्लवेन सागरम्।।21।।

सत्यो हि जगदाधारस्तस्य चैवानुचिन्तनात्।

सत्यधर्मप्रचाराय बुद्धिं मे प्रेरयिष्यति।।22।।

नराणामल्पशक्तित्वात्सर्वज्ञो नास्ति कश्चन।

विद्याब्धिवेदमूलेन विना चिन्मात्रमूर्त्तिना।।23।।

तस्मात्क्वापि विरुद्धं चेत्प्रमादादिसुदूषितम्।

गुणानुरागिभिस्त्याज्यं ज्ञात्वा नीचैरुपासितम्।।24।।

अब प्रस्तावना लिखने के पश्चात् मानव धर्मशास्त्र की मुख्य भूमिका का प्रारम्भ किया जाता है। इसलिये शिष्ट लोगों की परिपाटी अर्थात् ऋषि-महर्षि लोगों की आज्ञानुसार कि सब शुभ कार्यों के प्रारम्भ में सबके स्वामी परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना वा ध्यान करना चाहिये कि जिससे उसकी कृपा होकर बुद्धि निर्मल वा शुद्ध हो सकती है। इसी कारण उस कार्य का अच्छा बन जाना सम्भव है। इसलिये हमको भी प्रथम परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना करनी चाहिये, इस कारण पहले मग्लाचरण किया है।

सब दुःखों के समुदाय का ध्वंस- नाश करने वाली, जिसके होने से धनादि पदार्थ और सुगम रीति से धर्म प्राप्त हो सकता है, जिसमें धर्मानुकूल स्त्री सम्बन्ध रूप काम की आज्ञा है। जो ठीक-ठीक तत्त्वज्ञान होने से मुक्तों का उपकार करने वाली उसके अनुकूल चलने वाले संसारी जनों को जन्मान्तर में अच्छी गति देने वाली और सब बाधाओं से रहित आनन्द की दाता निर्मल शुद्ध सनातन वेद नामक जिसकी विद्या संसार में प्रकट हुई है, उसके सुखस्वरूप सर्वोत्तम ज्ञानमय तेज का हम लोग प्रतिदिन ध्यान वा धारणा करें।।१।। जिस सर्वनियन्ता परमेश्वर से यह प्रत्यक्ष चित्र-विचित्र अनेक प्रकार की शिल्पविद्या का दिखाने वाला जगत् उत्पन्न हुआ, जिसमें नियमपूर्वक स्थित होकर चेष्टा करता और जिसमें सब लय हो जाता है, उस आनन्द स्वरूप ब्रह्म की हम लोग उपासना करें।।२।। जिसके अधिकार या महत्त्व का सब वेद वर्णन करते अर्थात् कहीं साक्षात् और कहीं परम्परा से सब वेदों में जिसका वर्णन है, और जिसको प्राप्त होने की इच्छा से जिज्ञासु लोग तप करते तथा जिसको प्राप्त होने के लिए ऋषि-मुनि जन वेदाादि शास्त्रों को पढ़ते हैं, विचारशील पुरुषों को उसी के तेज का चिन्तन करना चाहिये।।३।। दिशा, काल और आकाश के भेदों में जिसका परिच्छेद नहीं अर्थात् किसी निज पूर्वादि दिशा, किसी निज क्षणादि काल और किसी निज अवकाश में जो नहीं रहता, किन्तु सब दिशा, काल और अवकाशों में विद्यमान है, उस चेतनमात्र स्वरूप सर्वव्याप्त परमेश्वर को हमारा नमस्कार प्राप्त हो।।४।। सब सत्य विद्याओं का मूल वेद माना जाता है, उस वेद का भी मूल कारण ब्रह्म है क्योंकि उसी परमेश्वर ने संसार में वेदों का प्रचार कराया।।५।। योगाभ्यास में तत्पर महर्षि मनु महाराज ने प्रबल उत्कृष्ट तप का आशय लेकर और उस वेद का मुख्य सारांश अभिप्राय जानकर संसार के उपकार की कामना से सनातन धर्म का तथा समयानुकूल आपत्काल में सेवने योग्य आपद्धर्म का स्मरण अर्थात् वेद से विचारकर प्रकट किया है।।६,७।। वह सनातन धर्म पूर्वकाल में गुरु-शिष्य की उस सत्य परम्परा के आश्रय से   अधिक कर प्रचरित था। अर्थात् पूर्वकाल में सृष्टि के आरम्भ से पुस्तकों के बिना ही वेदादिस्थ विद्या और धर्म के उपदेश में सृष्टि की निरन्तर चलने वाली प्रणाली से चलते थे।।८।। जो परम्परा पीछे छल, कपट, लोभ, मोह, कलह, अविद्या के सेवन, ब्रह्मचर्यादि के छोड़ने, स्वार्थ साधन में तत्पर होने, धर्म के छोड़ देने और अधर्म का सेवन करने से वह सत्य परम्परा नष्ट हो गई।।९,१०।। उस समय परस्पर मनुष्यों में नाना प्रकार के मत चले उससे वैदिक और स्मार्त्त धर्म का और भी नाश हुआ।।११।। उस समय परस्पर विरुद्ध मतों में आसक्त लोगों ने अपने-अपने मत का प्रचार करने के लिए अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार ग्रन्थों का निर्माण किया।।१२।। और मतवादी लोगों ने जो वेदानुकूल शुद्ध ग्रन्थ देखे, उनमें भी अपने-अपने मत के पोषक वाक्य मिला दिये।।१३।। इसी कारण से जिनमें वर्णाश्रम धर्म का स्पष्ट आशय धरा गया था, ऐसे वैदिक धर्म के ऋषिप्रणीत शुद्ध ग्रन्थों का मिलना अब दुर्लभ हो गया।।१४।। शुद्ध ग्रन्थों में मतवादियों ने इसलिए अपने-अपने मत के पोषक वचन मिलाये कि जिससे हमारा मत निर्मूल न समझा जावे, किन्तु प्रतिष्ठित वेदमूलक ग्रन्थों में मिल जाने से सनातन माना जावे और हमको कोई न पकड़ सके। अब जैसे कुछ ग्रन्थ ऋषियों के नाम से मिलते हैं, उन पर भी उन्हीं लोगों ने अपने-अपने मत की पुष्टिपरक व्याख्या बनाई। यद्यपि व्याख्या करने वालों का भीतरी अभिप्राय यह नहीं था कि हम इस शास्त्र में अपना मत घुसेड़ें, तो भी उन-उन का अन्तःकरण उस-उस मत के रंग से रंगा होने के कारण वैसे ही भाष्य भी बनाये गये।।१५।। उन भाष्यों में ठीक-ठीक धर्म का वर्णन जैसा होना चाहिये, प्राप्त नहीं होता। और कहीं-कहीं अपने-अपने मत के आश्रय से पक्षपात भी वर्णन किया गया है।।१६।। इस मानवधर्मशास्त्र में तर्कपूर्वक धर्म का निर्णय करने के लिए “यस्तर्केणानुसन्धत्ते0”1 इत्यादि वचनों में स्पष्ट आज्ञा लिखी है, उसके अनुसार वेद सम्बन्धी और धर्मशास्त्र सम्बन्धी धर्म का वर्णन उन भाष्यों में देखने वाले को प्राप्त नहीं होता, जिससे आजकल के धर्म का निर्णय चाहने वाले मनुष्यों को सन्तोष हो।।१७।। इसी से अनेक धर्मज्ञ और सज्जन लोगों ने मुझको आज्ञा वा सम्मति दी तथा मैंने भी विचार किया कि वास्तव में ऐसी दशा होने से मुझको इस पर यथाशक्ति विचार करना चाहिये और मैंने यह भी विचारा कि ऐसा न करने से अब दिन-दिन धर्म की हानि होती जाती है। धर्मशास्त्र में आज्ञा है कि- ‘धर्म की हानि होती हो तो ब्राह्मण भी शस्त्र को ग्रहण करें।’२ और ‘विद्वानों का शस्त्र वाणी वा विद्या ही है कि जिससे अधर्म का ध्वंस हो सकता है।’३

इत्यादि प्रकार के विचार से लोक का उपकार होना मानकर मैं अब वेदों के अनुयायी इस मानव धर्मशास्त्र के भाष्य का प्रारम्भ करता हूं।।१८,१९।। बीसवें श्लोक में मेरा नाम (भीमसेन शर्मा) व्याकरण के अनुसार दिखाया गया है।।२०।। यद्यपि मुझ मन्दबुद्धि में ऐसी शक्ति नहीं है जो वेदानुकूल धर्म का ठीक-ठीक निर्णय कर सकूं, तो भी सत्यरूप नौका के आश्रय से इस मानव धर्मशास्त्र रूप समुद्र के पार होना चाहता हूं।।२१।। और वही सब जगत् का आधार सर्वान्तर्यामी परमेश्वर ही मुख्य कर सत्य है, उसका स्मरण, ध्यान, स्तुति, प्रार्थनादि करने से सत्य धर्म का प्रचार होने के लिए वह परमेश्वर मेरी बुद्धि को अवश्य प्ररेणा करेगा।।२२।। सब विद्याओं का सागर जो वेद उसके कर्त्ता चेतनमात्र स्वरूप एक परमेश्वर को छोड़कर अन्य कोई भी सर्वज्ञ नहीं है, किन्तु सभी मनुष्य अल्पज्ञ हैं। इस कारण मेरे भाष्य में प्रमादादि से कहीं विरुद्ध वा दूषित लेख किन्हीं महाशयों वा विद्वानों को जान पड़े तो गुणानुरागी लोगों को वह दोष छोड़ देना चाहिये, क्योंकि अच्छे लोगों का स्वाभाविक धर्म यही है कि वे दूसरे के गुणों को अच्छा समझ के उसके सहकारी बनते हैं। और कोई दोष जान पड़ता है तो छोड़ देते हैं, क्योंकि दोषों का ग्रहण करना नीच पुरुषों का काम है। और यह भी हो सकता है कि जैसे प्रमादाादि से मेरा लेख कहीं दूषित हो जाये, वैसे प्रमादादि के होने से मेरे निर्दोष लेख को भी कोई विरुद्ध मान सकता है, इसलिये विचारशीलों को उचित है कि यदि कहीं विरुद्ध जान पड़े तो प्रथम मुझसे ही पूछ देखें, यदि भूल होगी तो मैं स्वयं मान लूंगा। और वह ठीक हो जायगा।।२३,२४।।

मारा हुआ धर्म कहीं तुम्हें न मार दें !

ओ३म्

मारा हुआ धर्म कहीं तुम्हें न मार दें !

जिस प्रकार प्राणों के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता, उसी प्रकार धर्म (नैतिक आचरण) के बिना मनुष्य का भी कोई महत्त्व नहीं।

धर्म आचरण की वस्तु है।धर्म केवल प्रवचन और वाद-विवाद का विषय नहीं।केवल तर्क-वितर्क में उलझे रहना धार्मिक होने का लक्षण नहीं है।धार्मिक होने का प्रमाण यही है कि व्यक्ति का धर्म पर कितना आचरण है। व्यक्ति जितना-जितना धर्म पर आचरण करता है उतना-उतना ही वह धार्मिक बनता है।’धृ धारणे’ से धर्म शब्द बनता है, जिसका अर्थ है धारण करना।

तैत्तिरीयोपनिषद् के ऋषि के अनुसार ―
*धर्मं चर !*―(तै० प्रथमा वल्ली, ११ अनुवाक)

अर्थात् तू धर्म का आचरण कर !
इसमें धर्म का आचरण करने की बात कही गई है, धर्म पर तर्क-वितर्क और वाद-विवाद करने की बात नहीं कही गई ।

निर्व्यसनता नैतिकता को चमकाती है।आध्यात्मिकता सोने पर सुहागे का काम करती है।नैतिकता+निर्व्यसनता+आध्यात्मिकता का समन्वय ही वास्तव में मनुष्य को मनुष्य बनाता है।

धर्म मनुष्य में शिवत्व की स्थापना करना चाहता है।वह मनुष्य को पशुता के धरातल से ऊपर उठाकर मानवता की और ले जाता है और मानवता के ऊपर उठाकर उसे देवत्व की और ले-जाता है।यदि कोई व्यक्ति धार्मिक होने का दावा करता है और मनुष्यता और देवत्व उसके जीवन में नहीं आ पाते, तो समझिए कि वह धर्म का आचरण न करके धर्म का आडम्बर कर रहा है।

*मनु महाराज के अनुसार धर्म की महिमा*

वैदिक साहित्य में धर्म की बहुत महिमा बताई गई है।मनु महाराज ने लिखा है―

*नामुत्र हि सहायार्थं पितामाता च तिष्ठतः ।*
*न पुत्रदारं न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः ।।*
―(मनु० ४/२३९)
*अर्थात्―*परलोक में माता, पिता, पुत्र, पत्नि और गोती (एक ही वंश का) मनुष्य की कोई सहायता नहीं करते।वहाँ पर केवल धर्म ही मनुष्य की सहायता करता है।

*एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते ।*
*एकोऽनुभुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम् ।।*
―(मनु० ४/२४०)
*अर्थ―*जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है।अकेला ही पुण्य भोगता है और अकेला ही पाप भोगता है।

*एक एव सुह्रद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः ।*
*शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति ।।*
―(मनु० ८/१७)
*अर्थ―*धर्म ही एक मित्र है जो मरने पर भी आत्मा के साथ जाता है; अन्य सब पदार्थ शरीर के नष्ट होने के साथ ही नष्ट हो जाते हैं।

*मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ ।*
*विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ।।*
―(मनु० ४/२४१)
*अर्थ―*सम्बन्धी मृतक के शरीर को लकड़ी और ढेले के समान भूमि पर फेंककर विमुख होकर चले जाते हैं, केवल धर्म ही आत्मा के साथ जाता है।

*धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्विषम् ।*
*परलोकं नयत्याशु भास्वन्तं खशरीरिणम् ।।*
―(मनु० ४/२४३)
*अर्थ―*जो पुरुष धर्म ही को प्रधान समझता है, जिसका धर्म के अनुष्ठान से पाप दूर हो गया है, उसे प्रकाशस्वरुप और आकाश जिसका शरीरवत् है, उस परमदर्शनीय परमात्मा को धर्म ही शीघ्र प्राप्त कराता है।

धर्म के आचरण पर मनु महाराज ने बहुत बल दिया है―
*अधार्मिको नरो यो हि यस्य चाप्यनृतं धनम् ।*
*हिंसारतश्च यो नित्यं नेहासौ सुखमेधते ।।*
―(मनु० ४/१७०)
*अर्थ―*जो अधर्मी, अनृतभाषी, अपवित्र व अनुचित रीत्योपार्जक तथा हिंसक है, वह इस लोक में सुख नहीं पाता।

*न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत् ।*
*अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन्विपर्ययम् ।।*
―(मनु० ४/१७१)
*अर्थ―*धर्माचरण में कष्ट झेलकर भी अधर्म की इच्छा न करे, क्योंकि अधार्मिकों की धन-सम्पत्ति शीघ्र ही नष्ट होती देखी जाती है।

*नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव ।*
*शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति ।।*
―(मनु० ४/१७२)
*अर्थ―*संसार में अधर्म शीघ्र ही फल नहीं देता, जैसे पृथिवी बीज बोने पर तुरन्त फल नहीं देती।वह अधर्म धीरे-धीरे कर्त्ता की जड़ों तक को काट देता है।

*अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।*
*ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति ।।*
―(मनु० ४/१७४)
*अर्थ―*अधर्मी प्रथम तो अधर्म के कारण उन्नत होता है और कल्याण-ही-कल्याण पाता है, तदन्नतर शत्रु-विजयी होता है और समूल नष्ट हो जाता है।

*धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।*
*तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।।*
―(मनु० ८/१५)
*अर्थ―*मारा हुआ धर्म मनुष्य का नाश करता है और रक्षा किया हुआ धर्म मनुष्य की रक्षा करता है।इसलिए धर्म का नाश नहीं करना चाहिए, ऐसा न हो कि कहीं मारा हुआ धर्म हमें ही मार दे !

*वृषो हि भगवान् धर्मस्तस्य यः कुरुते ह्यलम् ।*
*वृषलं तं विदुर्देवास्तस्माद्धर्मं न लोपयेत् ।।*
―(मनु० ८/१६)
*अर्थ―*ऐश्वर्यवान् धर्म सुखों की वर्षा करने वाला होता है।जो कोई उसका लोप करता है, देव उसे नीच कहते हैं, इसलिए मनुष्य को धर्म का लोप नहीं करना चाहिए।

*चला लक्ष्मीश्चला प्राणाश्चलं जीवितयौवनम् ।*
*चलाचले हि संसारे धर्म एको हि निश्चलः ।।*

*अर्थ―*धन, प्राण, जीवन और यौवन―ये सब चलायमान हैं। इस चलायमान संसार में केवल एक धर्म ही निश्चल है।

प्रश्न उठता है कि जिस धर्म की इतनी महिमा कही गई है, वह धर्म क्या है ? इस सन्दर्भ में मनु महाराज का श्लोक ध्यान देने योग्य है―

*धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।*
*धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।*
―(मनु० ६/९२)
*अर्थ―*धीरज, हानि पहुँचाने वाले से प्रतिकार न लेना, मन को विषयों से रोकना, चोरी न करना, मन को राग-द्वेष से परे रखना, इन्द्रियों को बुरे कामों से बचाना, मादक द्रव्य का सेवन न करके बुद्धि को पवित्र रखना, ज्ञान की प्राप्ति, सत्य बोलना और क्रोध न करना―ये धर्म के दस लक्षण हैं।

भूपेश  आर्य

‘मांसाहार और मनुस्मृति’

ओ३म्

मांसाहार और मनुस्मृति

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्राचीन काल में भारत में मांसाहार नहीं होता था। महाभारतकाल तक भारत की व्यवस्था ऋषि मुनियों की सम्मति से वेद निर्दिष्ट नियमों से राजा की नियुक्ति होकर चली जिसमें मांसाहार सर्वथा वर्जित था। महाभारतकाल के बाद स्थिति में परिवर्तन आया। ऋषि तुल्य ज्ञानी मनुष्य होना समाप्त हो गये। ऋषि जैमिनी पर आकर ऋषि परम्परा समाप्त हो गई। उन दिनों अर्थात् मध्यकाल के तथाकथित ज्ञानियों ने शास्त्र ज्ञान से अपनी अनभिज्ञता, मांसाहार की प्रवृति अथवा किसी वेद-धर्मवेत्ता से चुनौती न मिलने के कारण अज्ञानवश वेदों के आधार पर शास्त्रों में प्रयुक्त गोमेघ, अश्वमेघ, अजामेघ व नरमेध आदि यज्ञों को विकृत कर उनमें पशुओं के मांस की आहुतियां देना आरम्भ कर दिया था। ऐसा होने पर भी हमें लगता है कि यज्ञ से इतर वर्तमान की भांति पशुओं की हत्या नहीं होती थी। जिन पशुओं को यज्ञाहुति हेतु मारा जाता था, ऐसा लगता है कि उस मृतक पशुओं का सारा शरीर तो यज्ञ में प्रयुक्त नहीं हो सकता था, अतः यज्ञशेष के रूप में यज्ञकर्ताओं द्वारा यज्ञ में आहुत उस पशु के मांस का भोजन के रूप व्यवहार किया जाना भी सम्भव है। कालान्तर में इसके अधिक विकृत होने की सम्भावना दीखती है। अतः कुछ याज्ञिकों की अज्ञानता के कारण यज्ञों में पशु हिंसा का दुष्कृत्य हमारे मध्यकालीन तथाकथ्ति विद्वानों ने प्रचलित किया था। इन लोगों ने अपनी अज्ञानता व स्वार्थ के कारण प्राचीन धर्म शास्त्रों की उपेक्षा की। यदि वह मनुस्मृति आदि ग्रन्थों को ही देख लेते तो उनको ज्ञात हो सकता था कि न केवल यज्ञ अपतिु अन्यथा भी पशुओं का वध घोर पापपूर्ण कार्य है।

 

भारत से दूर अन्य देशों के लोगों के पास वेद और वैदिक साहित्य जैसे न तो ग्रन्थ थे, न आचार्य व गुरु थे और न ही श्रेष्ठ परम्परायें थी। अतः उन लोगों का मांसाहार करना शास्त्र, गुरु, आचार्य व ज्ञान के अभाव में अनुचित होते हुए भी वहां मांसाहार का प्रचलन अधिक हुआ। भारत में जब विदेशी आक्रमण हुए तो यह मांसाहार भी आक्रान्ताओं के साथ आया। आक्रान्ताओं का एक कार्य भारत के लोगों का मतान्तरण या धर्मान्तरण करना भी था। अतः भारत के मांस न खाने वाले लोगों को मृत्यु का भय दिखाकर मुट्ठी भर संख्या में आये आक्रान्ताओं ने असंगठित लोगों का धर्मान्तरण करने के साथ उन्हें मांसाहारी भी बनाया। इतिहास में इन घटनाओं के समर्थक अनेक उदाहरण सुनने व पढ़ने को मिलते हैं। अतः भारत में मांसाहार की प्रवृत्ति में वृद्धि का कारण मांसाहारी विदेशियों का आक्रामक के रूप में भारत आना प्रमुख कारण बना।

 

वेदों में यज्ञ को अध्वर कहा गया है जिसका तात्पर्य ही यह है कि जिसमें नाम मात्र भी हिंसा न की जाये। इस दृष्टि से यज्ञ में मांस का विधान करने वाले हमारे मध्यकालीन विद्वानों की बुद्धि पर हमें दया आती है। इन लोगों ने देश व संसार सहित वैदिक धर्म को सबसे अधिक हानि पहुंचाई हैं। मांसाहार के सन्दर्भ में वेदों में पशुओं की रक्षा करने के स्पष्ट विधान हैं। यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही ‘‘यजमानस्य पशुन् पाहि कहकर यजमान के पशु गाय, घोड़ा, बकरी, भैंस आदि की रक्षा व हिंसा न करने की बात कही गई है। प्राचीन वैदिक परम्परा में धर्म व आचार विषयक किसी भी प्रकार की शंका होने पर वेद वचनों को ही परम प्रमाण माने जाने की परम्परा भारत में रही है जिसका समर्थन मनुस्मृति से भी होता है। इस लेख में हम मनुस्मृति में मांसाहार विरोधी महाराज मनु जी का एक महत्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी।

संस्कर्त्ता चोपहत्र्ता खादकश्येति घातकः।।               मनुस्मृति 5/51

 

पौराणिक पं. हरगेविन्द शास्त्री, व्याकरण-साहित्याचार्य-साहित्यरत्न इस मनुस्मृति के श्लोक का अर्थ करते हुए लिखते हैं कि ‘‘अनुमति देने वाला, शस्त्र से मरे हुए जीव के अंगों के टुकड़ेटुकड़े करने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने या लाने वाला और खाने वाला यह सभी जीव वध में घातकहिसक होते हैं।

 

इस पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए वैदिक विद्वान आचार्य शिवपूजन सिंह जी लिखते हैं कि अनुमन्ता-जिसकी अनुमति के बिना उस प्राणी का वध नहीं किया जा सकता, वह क्रय-विक्रयी वा खरीदकर बेचने वाला, मारने वाला हन्ता, धन से खरीदने वाला, धन लेकर बेचने वाला और उसमें प्रवृत्ति करने वाला तथा मांस पकाने वाला घातक वा प्राणी हिंसा करने वाले होते हैं। खरीदने (खाने) वाले तथा बेचने वाले दोनों पापभागी होते हैं। यह घातक (हिंसक) दोष शास्त्रोक्त विधि से हिंसा है। शास्त्र के विधि-निषेध उभयपदक होते हैं तथा मांस-भक्षक के लिए अन्यत्र प्रायश्चित कहा गया है।

 

मनुस्मृति के श्लोक 11/95 ‘‘यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांस सुरा ऽऽ सवम्। सद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः। में कहा गया है कि ‘‘मद्य, मांस, सुरा और आसव ये चारों यक्ष, राक्षसों तथा पिशाचों के अन्न (भक्ष्य पदार्थ) हैं, अतएव देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मणों को उनका भोजन (पान) नहीं करना चाहिये। अतः मनुस्मृति में राजर्षि मनु बता रहे हैं कि जो मनुष्य मांसाहार करता है वह राक्षस व पिशाच कोटि का मनुष्य है। ब्राह्मण व अन्य मनुष्यों का भोजन तो देवताओं को दी जाने वाली गोघृत, अन्न, ओषधि, नाना प्रकार के फल व शाकाहारी पदार्थों की आहुतियां ही हैं।

 

हम समझते हैं कि मांसाहार का सेवन मनुष्य के आचरण से जुड़ा कार्य है। प्राणियों की हिंसा होने से इसे सदाचार कदापि नहीं कह सकते। बहुत से लोगों कि यह मिथ्या धारणा है कि मांसाहार से शारीरिक बल में वृद्धि होती है। यह मान्यता असत्य व अप्रमाणिक है। हमारे महापुरुष, राम, कृष्ण, दयानन्द, हनुमान, भीम, चन्दगीराम व अन्य अनेक शारीरिक बल में संसार में श्रेष्ठतम रहे हैं। यह सभी शाकाहारी गोदुग्ध, गोघृत, अन्न व फल आदि का सेवन ही करते थे। यह भी सर्वविदित है कि मांसाहार से अनेक प्रकार के रोगों की संभावना होती है। मनुष्य के शरीर की आकृति, इसके खाद्य व पाचन यन्त्र भी शाकाहारी प्राणियों के समान ईश्वर ने बनाये है। मांसाहारी पशु केवल मांस ही खाते हैं, उन्हें अन्न अभीष्ट नहीं होता। यदि मनुष्य अन्न का त्याग कर पशुओं की भांति केवल मांसाहार करें तो अनुमान है कि वह अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकेंगे। अन्न खाना मनुष्य के लिए आवश्यक व अपरिहार्य है। महर्षि दयानन्द जी द्वारा गोकरुणानिधि में किया गया यह प्रश्न भी समीचीन व महत्वपूर्ण है कि जब मांसाहार के कारण सभी पशु आदि समाप्त हो जायेंगे तब क्या मांसाहारी मनुष्य मांस की प्रवृत्ति के कारण अपने आस पास के मनुष्यों को मारकर खाया करेंगे? मांसाहार करना अमनुष्योचित कार्य है। इससे मनुष्य के स्वभाव में हिंसा की प्रवृत्ति व क्रोध का प्रवेश होता है। मनुष्यों में ईश्वर ने दया व करूणा का जो गुण दिया है वह भी मांसाहार से बाधित, न्यून व समाप्त होता है। परमात्मा ने मनुष्यों के लिए प्रचुर मात्रा में अन्न व अन्य भोज्य पदार्थ बनायें हैं जो भूख वा क्षुधा को शान्त करने, बल व आरोग्य देने सहित सर्वाधिक स्वादिष्ट भी होते हैं। यह पदार्थ शीघ्र ही पच जाते हैं। शाकाहारी मनुष्य आयु की दृष्टि से भी अधिक जीते हैं। महाभारत काल में भीष्म पितामह, श्री कृष्ण व अर्जुन आदि योद्धा 120 से 180 वर्ष बीच की आयु के थे। शाकाहारी मनुष्य शाकाहारी पशुओं के समान फुर्तीला होता है। यह मांसाहारियों से अधिक कार्य कर सकता है। यदि सभी शाकाहारी होंगे तो बल-शक्ति-आयु में अधिक होने से देश को अधिक लाभ होगा। चिकित्सा पर व्यय कम होगा और अधिक शारीरिक क्षमता से देश व समाज की उन्नति अधिक होगी। शाकाहार पर्यावरण सन्तुलन के लिए भी आवश्यक है। यदि मांसाहार जारी रहा तो हो सकता है कि भविष्य में पृथिवी पशु व पक्षियों से रहित हो जाये और तब मनुष्य का जीवन भी शायद् सम्भव नहीं होगा। एक घटना को देकर हम इस लेख को विराम देते हैं। एक बार हम अपने एक मित्र के परिवार सहित उत्तर पूर्वी प्रदेशों की यात्रा पर गये।एक बंगाली बन्धु की टैक्सी में जब हम शिलांग घूम लिये तो अनायास उस बन्धु ने हमसे पूछा कि क्या आपने यहां कोई पक्षी देखा? हमने कुछ क्षण सोचा और न में उत्तर दिया तो उन्होंने कहा कि यहां के लोग पक्षियों को मार कर खा जाते हैं जिससे यहां सभी पक्षी समाप्त हो गये हैं। कहीं यही स्थिति भविष्य में समस्त भारत व विश्व में न आ जाये, इसके लिए हमें ईश्वर की वेद में की गई वेदाज्ञा का पालन करते हुए मांसाहार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। इसी में हमारी और हमारी भावी पीढ़ियों की भलाई है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

मनु का विरोध क्यों? डॉ. सुरेन्द्र कुमार

ओ३म्

मनु का विरोध क्यों?

लेखक

डॉ. सुरेन्द्र कुमार

‘मनुस्मृति-भाष्यकार एवं प्रक्षेपानुसन्धानकर्ता’

आचार्य (संस्कृत, व्याकरण, साहित्य दर्शन)

एम.ए. (संस्कृत, हिन्दी), पी-एच.डी.

 

आजकल हवा में एक शब्द उछाल दिया गया है-‘मनुवाद’, किन्तु इसमा अर्थ नहीं बताया गया है| इसका प्रयोग भी उतना ही अस्पष्ट और लचीला है, जितना राजनीतिक शब्दों का| मनुस्मृति के निष्कर्ष के अनुसार मनुवाद का सही अर्थ है-‘गुण-कर्म-योग्यता के श्रेष्ठ मूल्यों के महत्त्व पर आधारित विचारधारा’, और तब, ‘अगुण-अकर्म-अयोग्यता के अश्रेष्ठ मूल्यों पर आधारित विचारधारा’ को कहा जायेगा-गैर मनुवाद|

अंग्रेज-आलोचकों से लेकर आजतक के मनुविरोधी भारतीय लेखकों ने मनु और मनुस्मृति का जो चित्र प्रस्तुत किया है, वह एकांगी, विकृत, भयावह और पूर्वाग्रहयुक्त हैं | उन्होंने सुन्दर पक्ष की सर्वथा उपेक्षा करके असुन्दर पक्ष को ही उजागर किया है| इससे न केवल मनु की छवि को आघात पहूंचता है, अपितु भारतीय धर्म, संस्कृति-सभ्यता, साहित्य, इतिहास, विशेषतः धर्मशास्त्रों का विकृत चित्र प्रस्तुत होता है, उससे देश-विदेश में उनके प्रति भ्रान्त धारणाएं बनती हैं| धर्मशास्त्रों का वृथा अपमान होता है| हमारे गौरव का हस होता हैं|

इस लेख के उद्देश्य हैं-मनु और मनुस्मृति की वास्तविकता का ज्ञान कराना, सही मूल्यांकन करना, इस सम्बन्धी भ्रान्तियों को दूर करना और सत्य को सत्य स्वीकार करने के लिए सहमत करना| इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जन्मना जाति-व्यवस्था से हमारे समाज और राष्ट्र का हस एवं पतन हुआ है, और भविष्य के लिए भी यह घातक है| किन्तु, इस एक परवर्ती त्रुटि के कारण समस्त गौरवमय अतीत को कलंकित करना और उसे नष्ट-भ्रष्ट करने का कथन करना भी अज्ञता, अदूरदर्शिता, दुर्भावना और दुर्लक्ष्यपूर्ण है| यह आर्य (हिन्दू) धर्म, संस्कृति-सभ्यता और अस्तित्व की जडों में कुठाराघात के समान है|

 

संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत खरी और सर्वमान्य नहीं होती| परवर्ती जातिव्यवस्था की तरह आज की व्यवस्था भी पूर्ण नहीं है| यदि कोई त्रुटि आ जाये तो उसका परिमार्जन किया जा सकता हैं| हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने इसके लिए एक उदार मूलमन्त्र बहुत पहले से दे रखा है-

‘‘यानि अस्माकं सुचरितानि, तानि त्वया उपास्यानि, नो इतराणि|’’

(तैतिरीय उप.१.११.२)

अर्थात्-हमारे जो उत्तम आचरण हैं, उन्हीं का अनुसरण करना, अन्य का नहीं |

इसका पालन करके हम अनुत्तम का परित्याग कर उत्तम को बनाये रख सकते हैं| उत्तम ही सत्य है, शिव है| उसका परित्याग करना मूर्खता हैं| आशा है, पाठक इसे पढकर मनु-सम्बन्धी भ्रान्तियों से बच सकेंगे, और मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों से अवगत हो सकेंगे तथा उसे ग्रहण करने के लिए उद्यत होंगे |

निवेदक: डॉ. सुरेन्द्रकुमार

 

 

मनु का विरोध क्यों?

अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजी-शासन के हितों से जुडे और ईसाईयत में दीक्षित कुछ पाश्‍चात्य लेखकों ने पहले-पहल, भारतीयों के मन में प्रत्येक उस वस्तु और व्यक्ति के प्रति योजनाबद्ध रुप से विरोधी संस्कार भरने का और उनकी आस्था भंग करने का षड्यन्त्र किया, जिनका परम्परागत रुप से भारत की अस्मिता, गरिमा और महिमा से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था | इस प्रकार नींव पडी भारतीयता-विरोध परम्परा की| अंग्रेजी शासन के प्रभाव, ‘फूट डालो और राज करो’ की कूट राजनीति और मैकाले द्वारा प्रवर्तित कूट शिक्षानीति के सहारे वे कुछ भारतीयों को अपने रंग में रंगने में सफल हो गये | उन्होंने इस परम्परा को निभाया और आगे बढाया| इसी परम्परा में उभरे कुछ वे लोग और वर्ग जिन्होंने सर्वप्रथम समाजव्यवस्थापक, आदि विधिनिर्माता महर्षि मनु और उनके आदि विधानशास्त्र मनुस्मृति को अपनी निंदात्मक आलोचनाओं का केन्द्र बनाया| आज स्थिति यह है कि अंग्रेजी परम्परा में लिखी आलोचनाओं और सुनी-सुनायी बातों के आधार पर मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करना कुछ सामाजिक वर्गों का एक लक्ष्म बन बया है, तो अंग्रेजीदां लोगों की परिपाटी और कुछ राजनीतिक दलों का चुनाव जीतने का मुद्दा | हमारे राजनीतिक लोगों की बात सबसे निराली है|  अभी पिछले वर्षो में कुछ लोग पार्टी विभाजन होते ही एक ही रात में ‘मनुपुत्र’ से ‘गैरमनुपुत्र’ बन गये और सार्वजनिक मंचों से लगे मनु, मनुस्मृति और मनुपुत्रों को कोसने | एक राजनीतिक दल ने सत्ता प्राप्त करने के लिए ‘मनुवाद’ जैसे नये मुद्दे का आविष्कार कर डाला | कुछ वर्ष पूर्व जयपुर स्थित उच्च न्यायालय के परिसर में जब आदि विधिप्रणेता होने के कारण मनु की प्रतिमा स्थापित की गयी, तो कुछ लोगों को उस जड प्रतिमा को ही विवाद का विषय बना डाला, जो आज एक प्रकरण के रुप में उसी न्यायालय में विचाराधीन है| जबकि वास्तविकता यह थी कि प्रतिमा-विरोध को कुछ लोग अपनी राजनीतिक पहचान बनाने का सुअवसर समझकर उसका अधिकाधिक लाभ उठाने की ताक में थे|

आश्‍चर्य तो तब होता है जब हम ऐसे लोगों को मनुस्मृति का विरोध करते हुए पाते हैं, जिन्होंने मनुस्मृति के पढने की बात तो दूर, उसकी आकृति तक देखी नहीं होती | एक दिन मुझे एक उच्चतर डिग्रीधारी ऐसे व्यक्ति मिले जो तुलसीदास की चौपाई ‘‘ढोल, गंवार, शूद्र पशु नारी, ये सब ताडन के अधिकारी’’ को मनु का श्‍लोक कहकर मनु की आलोचना करने लगे | इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मनु का विरोध करनेवालों में मनु और मनुस्मृति के विषय में सामान्य ज्ञान का कितना अभाव हैं |

सामान्य व्यक्तियों की बात छोड दीजिये, डॉ. अम्बेडकर जैसा व्यापक अध्येता भी मनु-विरोध के प्रवाह में इतना बहक गया है कि उन्हें प्रत्येक शूद्र-विरोध मनुविहित नजर आता हैं|  शंकराचार्य द्वारा लिखित शूद्रविरोधी वचनों को भी उन्होंने मनुस्मृति-प्रोक्त कहकर मनु के खाते में जोड दिया हैं |  साधारण लेखकों में मनु के नाम पर जो अराजकता पायी जाती हैं, उसका विवरण लम्बा है| ये सब बातें इंगित करती हैं कि मनुस्मृति को गम्भीरता से पढा नहीं जाता |

ऐसा देखरे में आया है कि मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करनेवालों में प्रमुखतः तीन प्रकार के व्यक्ति हैं | एक तो वे, जिन्होंने मनु को पूर्वाग्रहग्रस्त अंग्रेजी अलोचनाओं और उस परम्परा के माध्यम से पढा है, और जो प्राचीन भारतीय साहित्य में कालक्रम से हुए परिवर्तनों-प्रक्षेपों से परिचित नहीं हैं| दूसरे वे, जिन्होंने मनुस्मृति के मौलिक और प्रक्षिप्त, दोनों पक्षों को चिन्तन-मनन पूर्वक नहीं पढा हैं| तीसरे वे, जिन्होंने किन्हीं भ्रान्तियों, पूर्वाग्रहों और निंहित स्वार्थो के कारण मनु के विरोध को अपना लक्ष्य बना लिया हैं | किन्तु वास्तविकता यह है कि महर्षि मनु का व्यक्तित्व और कृतित्व निंदा और विरोध करने का पात्र नहीं हैं| वे भारत और भारतीयता के लिए गर्व और गौरव के विषय हैं |

भारत में मनु की प्रतिष्ठा

महर्षि मनु ही पहले वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने संसार को एक व्यवस्थित,नियमबध्द,नैतिक एवं आदर्श मानवीय जीवन जीने की पध्दति सिखायी है| वे मानवों के आदि पुरुष हैं, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि विधिदाता (लॉ गिवर), आदि समाज और राजनीति व्यवस्थापक, आदि राजर्षि हैं | मनु ही वह प्रथम धर्मगुरु हैं, जिन्होंने यज्ञपरम्परा का प्रवर्तन किया | उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र, जिसको कि आज मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है, सबसे प्राचीन स्मृतिग्रन्थ है| अपने साहित्य और इतिहास को उठाकर देख लीजिए, वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक एक सुदीर्घ परम्परा उन शास्त्रकारों, साहित्यकारों,लेखकों,कवियों और राजाओं की मिलती हैं, जिन्होंने मुक्तकण्ठ से मनु की प्रशंसा की है | वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणग्रन्थों में मनु के वचनों को ‘‘औषध के समान हितकारी और गुणकारी’’ कहा है| महर्षि वाल्मीकि रामायण में मनु को एक प्रामाणिक धर्मशास्त्रज्ञ के रुप में उध्दृत करते हैं और हिन्दुओं में भगवान् के रुप में पूज्य राम अपने आचरण को शास्त्रसम्मत सिध्द करने के लिए उसके समर्थन में मनु के श्‍लोकों को उध्दृत करते हैं| महाभारत में अनेक स्थलों पर मनु का सर्वोच्च धर्मशास्त्र और न्यायशास्त्री के रुप में उल्लेख करते हुए उनके धर्मशास्त्र को परीक्षासिध्द घोषित किया हैं| अनेक पुराणों में मनु को आदि राजर्षि, शास्त्रकार आदि विशेषणों से विभूषित करके उन्हें लोक हितकारी व्यक्तित्व के रुप में वर्णित किया हैं | निरुक्त में आचार्य यास्क ने मनु के मत को उध्दृत करके ‘पुत्र-पुत्री के समान दायभाग’ के विषय में प्रामाणिक माना है| कौटिल्य अर्थशास्त्र में चाणक्य ने मनु के मत को प्रमाण रुप में उध्दृत किया हैं | स्मृतिकार बृहस्पति मनु की स्मृति को सबसे प्रामाणिक स्मृति मानकर उसके विरुध्द स्मृतियों को अमान्य घोषित करते हैं | बौध्द कवि अश्‍वघोष ने अपनी कृति ‘वज्रकोपनिषद्’ में मनु के वचनों को प्रमाणरुप में उध्दृत किया है| याज्ञवल्क्यस्मृति, मनुस्मृति पर ही आधारित हैं|  सभी धर्मसूत्रों और स्मृतियों में मनु के वचनों को समर्थन में प्रस्तुत किया है| वलभी के राजा धारसेन के ५७१ ईस्वी के शिलालेख में मनुधर्म को प्रामाणिक घोषित किया हैं| बादशाह शाहजहां के लेखक पुत्र दाराशिकोह ने मनु को वह प्रथम मानव कहा है, जिसे यहूदी, ईसाई,मुसलमान आदम कहकर पुकारते हैं| गुरु गोविन्दसिंह ने ‘दशम ग्रन्थ’ में मनु का मुक्तकण्ठ से गुणगान किया हैं|

आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने वेदों के बाद मनुस्मृति को ही धर्म में प्रमाण माना है| श्री. अरविन्द ने मनु को अर्धदेव के रुप में सम्मान दिया है| श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर, डॉ.राधाकृष्णन, जवाहरलाल नेहरु आदि राष्ट्रनेताओं ने मनु को आदि ‘लॉ गिवर’ के रुप में उल्लिखित किया है| अनेक कानूनविदों जस्टिस डी.एन.मुल्ला, एन.राघवाचार्य आदि ने स्वरचित हिन्दु लॉ सम्बन्धी ग्रन्थों में मनु के विधानों को ‘अथारिटी’ घोषित किया हैं| मनु की इन्हीं विशेषताओं के आधार पर, लोकसभा में भारत का संविधान प्रस्तुत करते समय जनता और पं.नेहरु ने तथा जयपुर में डॉ.अम्बेडकर की प्रतिभा का अनावरण करते समय तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन ने डॉ. अम्बेडकर को ‘आधुनिक मनु’ की संज्ञा से गौरवान्वित किया था|

विदेशों में महर्षि मनु की प्रतिष्ठा

मनु की प्रतिष्ठा, गरिमा और महिमा का प्रभाव एवं प्रसार विदेशों में भी भारत से कम नहीं रहा हैं| ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मन से प्रकाशित ‘इन्साइक्लोपीडिया’ में मनु को मानवजाति का आदि पुरुष, आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि न्यायशास्त्री और आदि समाजव्यवस्थापक वर्णित किया हैं| मनु के मन्तव्यों का समर्थन करते हुए अपनी पुस्तकों में मैक्समूलर, ए.ए.मैकडानल,ए.बी.कीथ,पी. थामस,लुईसरेनो आदि पाश्‍चात्य लेखकों ने मनुस्मृति को धर्मशास्त्र के साथ-साथ एक ‘लॉ बुक’ भी माना है और उसके विधानों को सार्वभौम, सार्वजनिक तथा सबके लिए कल्याणकारी बताया है| भारतीय सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज सर विलियम जोन्स ने तो भारतीय विवादों के निर्णय में मनुस्मृति की अपरिहार्यता को देखकर संस्कृत सीखी और मनुस्मृति को पढकर उसका सम्पादन भी किया| जर्मन के प्रसिध्द दार्शनिक फ्रीडरिच नीत्से ने तो यहां तक कहा कि ‘‘मनुस्मृति बाइबल से उत्तम ग्रन्थ है’’ बल्कि ‘‘उससे बाइबल की तुलना करना ही पाप है|’’ अमेरिका से प्रकाशित ‘इन्साइक्लोपीडिया आफ दि सोशल साइंसिज’, ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया’, कीथरचित ‘हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर’, भारतरत्न पी.बी. काणे रचित ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ डॉ. सत्यकेतु रचित ‘दक्षिण-पूर्वी और दक्षिण एशिया में भारतीय संस्कृति’ आदि पुस्तकों में विदेशों में मनुस्मृति के प्रभाव और प्रसार का जो विवरण दिया गया है, उसे पढकर प्रत्येक भारतीय अपने अतीत पर गर्व कर सकता हैं|

बालिद्वीप, बर्मा, फिलीपीन, थाइलैंड, चम्पा(दक्षिणी वियतनाम),कम्बोडिया, इन्डोनेशिया,मलेशिया,श्रीलंका,नेपाल आदि देशों से प्राप्त शिलालेखों और उनके प्राचीन इतिहास से ज्ञात होता है कि वहां प्रमुखतः मनु के धर्मशास्त्र पर आधारित-कर्मानुसारी वर्णव्यवस्था रही हैं| मनु के विधानों को सर्वोच्य महत्त्व दिया जाता था और उन्हीं के अनुसार न्याय होता था| शिलालेखों में मनुस्मृति के अनेक श्‍लोक उत्कीर्ण पाये गये हैं| राजा लोग स्वयं को मनु का अनुयायी अथवा मनुमार्गगामी कहने में गर्व अनुभव करते थे और मनु की उपाधि धारण करके स्वयं को गौरवान्वित मानते थे| चम्पा (दक्षिणी वियतनाम) में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार राजा जयइन्द्रवर्मदेव मनुमार्ग का अनुसरण करनेवाला था| कम्बोडिया के राजा उदयवीर वर्मा के ‘सदोक काकथोम’ से प्राप्त अभिलेख में ‘मानवनीतिसार’ ग्रन्थ का उल्लेख है, जो मनुस्मृति पर आधारीत था | ‘प्रसत कोमपन’ से प्राप्त राजा यशोवर्मा के अभिलेख में मनुस्मृति का २.१३६ श्‍लोक उध्दृत मिलता है| राजा जयवर्मा के अभिलेख में मनुसंहिता के विशेषज्ञ एक मन्त्री का उल्लेख है| बालिद्वीप में आज भी मनु-व्यवस्था है| उक्त देशों की आचारसंहिताएं/संविधान मनुस्मृति पर ही आधारित थे और बहुत कुछ अब भी है| फिलीपीन के निवासी मानते हैं कि उनकी आचार संहिता के निर्माण के निर्माण में मनु और लाओत्से की स्मृति का प्रमुख योगदान है, इस कारण वहां की विधानसभा के द्वारपर इन दोनों की मूर्तियां स्थापित की गयीं|

हम मनु का कितना ही विरोध कर लें और चाहे कितनी ही निन्दा करलें, मनु का हम से जो सम्बन्ध बन चुका है, वह जब तक इतिहास और यह समाज रहेगा, तब तक मिट नहीं सकता |  आदिवंश प्रवर्तक होने के कारण मनु को न कभी त्यागा जा सकता है, न भुलाया जा सकता हैं|

भारतीय साहित्य और समाज मनु को अपना आदि-पुरुष मानता हैं| सभी मनुष्य मनु की सन्तान हैं| इसी कारण आदमी के वाचक जितने भी नाम हैं, वे ‘मनु’ शब्द से बने हैं, जैसे-मनुष्य,मनुज,मानव,मानुष आदि| इसीलिए निरुक्तकार ने इनकी व्युत्पत्ति करते हुए कहा हैं-

‘‘मनोः अपत्यम्, मनुष्यः’’ (३.४)

अर्थात्–‘मनु की सन्तान होने से हमें मनुष्य कहा जाता है|’ ब्राह्मणग्रन्थों में भी ‘‘मानव्यः प्रजाः’’ कहकर इसी तथ्य को प्रस्तुत किया गया है| यूरोपीय विद्वानों ने भाषा विज्ञान के आधार पर राह सिध्द कर दिया है कि कभी युरोप, ईरान और भारतीय उपमहाद्वीप निवासी एक ही परिवार के सदस्य थे| इन सबकी भाषाओं में मनुष्यवाचक जो शब्द प्रचलित हैं, वे मनुमूलक शुरों के अपभ्रंश हैं | जैसे, ग्रीक और लैटिन में माइनोस, जर्मनी में मन्न,स्पेनिश में मन्नाःअंग्रेजी तथा उसकी बोलियों में मैन,मेनिस,मनुस,मनेस,मनीस आदिः ईरानी-फारसी में नूह (मनुस् के स् को ह होकर और म का लोप होकर) कहा जाता हैं| इन देशों के ऐतिहासिक उल्लेखों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है| ईरानवासी आज भी स्वयं को आर्यवंशी मानते हैं और अपना मूल उद्रम आर्यो के ‘सप्तसिन्धु’ देश से मानते हैं| कम्बोडिया के निवासी स्वयं को मनु की सन्तान कहते हैं| थाईलैंड के निवासी स्वयं को सूर्यवंशी राम के वंशज मानते हैं| राम और कृष्ण दोनों हो मनु की वंशपरम्परा में आते हैं | इस विवरण को पढकर हम कह सकते हैं कि अतीत मएक धर्मशास्त्रकार और विधिदाता (लॉ गिवर) के रुप में महर्षि मनु को जो प्रतिष्ठा और महत्त्व मिला है, वह किसी अन्य को नहीं मिला|

मनु और मनुस्मृति पर आक्षेप

आइये, अब मनु और मनुस्मृति पर लगाये जानेवाले आक्षेपों पर विचार करें| मुख्यरुप से उन्हें तीन वर्गों में बांटा जा सकता है-

(क)   मनु ने जन्म पर आधारित जाति-पांति व्यवस्था का निर्माण किया|

(ख)  उस व्यवस्था में मनु ने शूद्रों अर्थात् दलितों के लिए पक्षपातपूर्ण एवं

अमानवीय विधान किये हैं, जबकि सवर्णों, विशेषतः ब्राह्मणों को

विशेषाधिकार प्रदान किये हैं| इस प्रकार मनु शूद्रविरोधी थे|

(ग)   मनु स्त्रीविरोधी थे| उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार नहीं दिये| मनु ने स्त्रियों की निन्दा की हैं |

इन तीनों आक्षेपों के समाधान के लिए बाह्य प्रमाणों और मतों की अपेक्षा अन्तःसाक्ष्य अधिक प्रामाणिक रहेंगे, अतः यहां मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्यों के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाते हैं-

 

(क)   मनु की वर्णव्यवस्था का वास्तविक स्वरुप

 

१.    मनु की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित और वेदमूलक-मनुस्मृति में वर्णित गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित वेदमूलक हैं| यह मूलतः तीन वेदों (ऋग् १०.९०.११-१२;यजु. ३१.१०-११;अथर्व. १९.६.५-६) में पायी जाती हैं| मनु वेदों को धर्म में परम प्रमाण मानते हैं, अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था को धर्ममूलक व्यवस्था मानकर उसे वेदों से ग्रहण करके अपने शासन में क्रियान्वित किया तथा धर्मशास्त्र के द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किया|

 

२.    वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में अन्तर और परस्परविरोध-मनु की वैदिक वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित हैं,जन्म पर आधारित नहीं| यह समझ लेना आवश्यक है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं हैं| एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती| इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता हैं| वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख हैं और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् ‘जन्म’ प्रमुख हैं| जिन्होंने इनका समानार्थ में प्रयोग किया है उन्होंने स्वयं को और पाठकों को भ्रान्त कर दिया| ‘वर्ण’ शब्द ‘वृत्र्-वरणे’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-‘जिसको वरण किया जाये’ वह समुदाय| निरुक्त में आचार्य यास्क ने इसके अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया हैं-

‘‘वर्णः वृणोतेः’’ (२.१४) = वरण करने से ‘वर्ण’ कहलाता है|

जबकि जाति का अर्थ है-जन्म | इस अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग मनुस्मृति में हुआ हैं-

‘‘जाति-अन्धबधिरौ’’ (१.२०१) = जन्म से अन्धे-बहरे |

‘‘जातिं स्मरति पौर्विकीम्’’ (४.१४८) = पूर्वजन्म को स्मरण करता है|

‘‘द्विजातिः’’ (१०.४) = द्विज,क्योंकि उसके दो जन्म होते हैं|

‘‘एकजातिः’’ (१०.४) = शूद्र,क्योंकि उसका विद्याजन्म नहीं होता|

एक जन्म ही होता हैं |

वैदिक वर्णव्यवस्था में समाज को ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र,इन चार समुदायों में व्यवस्थित किया गया हैं| जब तक गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर व्यक्ति इन समुदायों का वरण करते रहे, तब तक वह वर्णव्यवस्था कहलायी | जब जन्म से ब्राह्मण, शूद्र आदि माने जान लगे तो वह जातिव्यवस्था बन गयी | वर्ण शब्द का धातु-प्रत्यमूलक अर्थ ही यह संकेत देता है कि जब यह व्यवस्था बनी तब यह गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार वरण की जाती थी, जन्म से नहीं थी|

 

३.    वर्णों में जातियों का उल्लेख नहीं-मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था का साधक एक बहुत बडा प्रमाण यह है कि मनु ने केवल चार वर्णों का उल्लेख किया है, किन्हीं जातियों अथवा गोत्रों का परिगणन नहीं किया है| इससे दो तथ्य स्पष्ट होते हैं | एक-मनु के समय जन्मना कोई जाति नहीं थी | दो-जन्म अथवा गोत्र का वर्णव्यवस्था में कोई महत्त्व नहीं था और न उसके आधार पर वर्ण की प्राप्ति होती थी | यदि मनु के समय जातियां होतीं और जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता तो वे उन जातियों का परिगणन अवश्य करते और बतलाते कि अमुक जातियां या गोत्र ब्राह्मण हैं और अमुक शूद्र| मनु, जन्माधारित महत्ताभाव को कितना उपेक्षणीय समझते हैं, इसका ज्ञान उस श्‍लोक से होता है जहां भोजनार्थ कुल-गोत्र का कथन करनेवाले को उन्होंने ‘वान्ताशी = वमन करके खानेवाला’ जैसे निन्दित विशेषण से अभिहित किया है (३.१०९) | और आदरन्चडप्पन के मानदण्डों में कुल-गोत्र जाति का उल्लेख ही नहीं है, केवल गुण-कर्मो का हैं|

 

४.    मनु को जातिव्यवस्थापक मानने से मनुस्मृति-रचना व्यर्थ-यदि हम मनु को जन्मना वर्णव्यवस्था का प्रतिपादक मान लेते हैं तो इससे मनुस्मृतिरचना का उद्देश्य ही व्यर्थ हो जायेगा, क्योंकि मनुस्मृति में पृथक्-पृथक् वर्णों के लिए पृथक् कर्मों का विधान किया गया हैं| यदि कोई व्यक्ति जन्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कहलाने लगता है, तो वह विहित कर्म करे या न करे, वह उसी वर्ण में रहेगा | उसके लिए कर्मों का विधान निरर्थक हैं| मनु ने जो पृथक् कर्मों का निर्धारण किया है, वही यह सिध्द करता है कि वे कर्म के अनुसार वर्णव्यवस्था को मानते हैं, जन्म से नहीं |

 

५.    वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन का विधान-वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में एक बहुत बडा अन्तर यह है कि वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन हो सकता है और व्यक्ति को वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता होती है, जबकि जातिव्यवस्था में जहां जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त वही जाति रहती है| मनु की व्यवस्था वर्णव्यवस्था थी, जिसमें व्यक्ति को वर्ण परिवर्तन की स्वतन्त्रता थी | इस विषय मेंमनुस्मृति का एक महत्त्वपूर्ण श्‍लोक प्रमाणरुप में उध्दृत किया जाता है जो सभी सन्देहों को दूर कर देता है-

 

शूद्रो ब्राह्मणताम् एति, ब्राह्मणश्‍चैति शूद्रताम् |

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च ॥

(अ.१०, श्‍लोक ६५)

अर्थात् –‘गुण,कर्म,योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र बन जाता है और शूद्र ब्राह्मण| इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों में भी वर्णपरिवर्तन हो जाता हैं |’

 

६.    निर्धारित कर्मों के त्याग से वर्णपरिवर्तन-मनुस्मृति में दर्जनों ऐसे श्‍लोक हैं, जिनमें निर्धारित कर्मों के त्याग से और निकृष्ट कर्मों के कारण द्विजों को शूद्र कोटि में परिगणित करने का विधान किया है (द्रष्टव्य २| ३७,४०,१०३,१६८;४ | २४५ आदि श्‍लोक)| और शूद्रों को श्रेष्ठ कर्मों से उच्चवर्ण की प्राप्ति का विधान है (९.३३५)|

 

७.    महाभारत काल तक वर्णव्यवस्था का प्रचलन-उ़क्त प्रमाणों और यु़िक्तयों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मनु द्वारा विहित वर्णव्यवस्था में सभी व्यक्तियों को गुण-कर्मानुसार वर्ण में दीक्षित होने के समान अवसर प्राप्त थे | ऋग्वेद से लेकर महाभारत (गीता) पर्यन्त यह कर्माधारित वर्णव्यवस्था चलती रही है | गीता में स्पष्ट शुरों में कहा गया है-

 

‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’’ (४ | १३)

 

अर्थात्-गुण-कर्म-विभाग के अनुसार चातुर्वर्ण्यव्यवस्था का निर्माण किया गया है| जन्म के अनुसार नहीं|

 

८.    वर्ण परिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण-भारतीय इतिहास में, सैंकडों ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं, जो कर्म पर आधारित वर्णव्यवस्था की पुष्टि करते हैं, जो यह सिध्द करते हैं कि किसी भी वर्ण को जन्म के आग्रह से नहीं जोडा गया | जैसे-(१) दासी का पुत्र ‘कवष ऐलूष’ और ‘शूद्रापुत्र’ ‘वत्स’ मन्त्रद्रष्टा होने के कारण दोनों ऋग्वेद के ऋषि कहलाये | (२) क्षत्रिय कुल में उत्पन्न राजा विश्‍वामित्र ब्रह्मर्षि बने | (३) अज्ञात कुल के सत्यकाम जाबाल ब्रह्मवादी ऋषि बने| (४) चंडाल के घर में उत्पन्न ‘मातंग’ एक ऋषि कहलाये | (५) (कुछ कथाओं के अनुसार) निम्न कुल में उत्पन्न वाल्मीकि, महर्षि वाल्मीकि की पदवी को प्राप्त कर गये | (६) दासीपुत्र विदुर राजा धृतराष्ट के महामन्त्री बने और महात्मा कहलाये | (७) दशरथ पुत्र श्री राम और यदु कुल में उत्पन्न श्रीकृष्ण ‘भगवान’ माने गये | वे ब्राह्मणों के भी पूज्य बने, जबकि उनका कुल क्षत्रिय था | इसके विपरीत कर्मों के ही कारण, (८) पुलस्त्य ऋषि का वंशज लंकाधिपति रावण ‘राक्षस’ कहलाया| (९) राम के पूर्वज रघु का ‘प्रवृध्द’ नामक पुत्र नीच कर्मों के कारण क्षत्रियों से बहिष्कृत होकर ‘राक्षस’ बना | (१०) राजा त्रिशंकु चंडालभाव को प्राप्त हुआ | (११) विश्‍वामित्र के कई पुत्र शूद्र कहलाये |

 

९.    जातियों के वर्णपरिवर्तन-व्यक्तिगत उदाहरणों के अतिरिक्त, इतिहास में पूरी जातियों का अथवा जाति के पर्याप्त भाग का वर्णपरिवर्तन भी मिलता है| महाभारत और मनुस्मृति में कुछ पाठभेद के साथ पाये जानेवाले श्‍लोकों से ज्ञात होता हैं कि निम्न जातियॉं पहले क्षत्रिय थीं किन्तु अपने क्षत्रिय कर्तव्यों के त्याग के कारण और ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्‍चित्त न करने के कारण वे शूद्रकोटि में परिगणित हो गयीं-

 

शनकैस्तु क्रियालोपादिमा क्षत्रियजातयः |

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥

पौण्ड्रकाश्‍चौड्रद्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः |

पारदाः पहृवाश्‍चीनाः किराताः दरदाः खशाः ॥ (१०.४३-४४)

 

अर्थात्-अपने निर्धारित कर्तव्यों का त्याग कर देने के कारण और फिर ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्‍चित्तों को न करने के कारण धीरे-धीरे ये क्षत्रिय जातियां शूद्र कहलायीं-पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज,यवन,शक,पारद,पहृव,चीन,किरात, दरद,खश॥ महाभारत अनु.३५.१७-१८ में इनके अतिरिक्त मे कल,लाट,कान्वशिरा, शौण्डिक,दार्व,चौर,शबर,बर्बर जातियों का भी उल्लेख हैं|

बाद तक भी वर्णेंपरिवर्तन के उदाहरण इतिहास में मिलते हैं| जे.विलसन और एच.एल.रोज के अनुसार राजपूताना,सिन्ध और गुजरात के पोखरना या पुष्करण ब्राह्मण, और उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिला के आमताडा के पाठक और महावर राजपूत वर्णपरिवर्तन से निम्न जाति से ऊंची जाति के बने (देखिए हिन्दी विश्‍वकोश भाग४)|

१०.   चारों वर्णों में पाये जानेवाले समान गोत्रों का रहस्य-ब्राह्मणों, क्षत्रिय जातियों, वैश्य और दलित जातियों में समान रुप से पाये जाने वाले गोत्र, ऐतिहासिक वंश परम्परा के पुष्ट प्रमाण हैं, जो यह सिध्द करते हैं कि वे सभी एक ही मूल परिवारों के वंशज हैं | पहले वर्णव्यवस्था में जिसने गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वे उस वर्ण के कहलाने लगे | बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा-नीचा वर्णपरिवर्तन होता रहा| किसी क्षेत्र में वही ब्राह्मण वर्ण में रह गया तो कहीं क्षत्रिय, तो कहीं शूद्र कहलाया| कालक्रमानुसार जन्म के आधार, पर उनकी जाति रुढ हो गयी|

११.   वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व-मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व हैं-गुण,कर्म-योग्यता | मनु व्य़िक्त अथवा वर्ण को महत्त्व और आदर-सम्मान नहीं देते अपितु उक्त गुणों को देते हैं | जहॉं इनका आधिक्य है, उस व्यक्ति और वर्ण का महत्त्व, आदर-सम्मान अधिक है, न्यून होने पर न्यून हैं| आज तक संसार की कोई भी सभ्य व्यवस्था इन तत्त्वों को न नकार पायी है और न नकारेगी| इनको नकारने का अर्थ है-अन्याय, असन्तोष,आक्रोश,अव्यवस्था और अराजकता| मुहावरों की भाषा में इसी स्थिती को कहते हैं ‘घोडे-गधे को एक समझना’ या ‘सभी को एक लाठी से हांकना|’ इसका परिणाम होता है, कोई भी समाज या राष्ट्र न विकास कर सकता है, न उन्नति; न समृध्द हो सकता है, न सम्पन्न; न सुखी हो सकता है, न संतुष्ट; न शान्त रह सकता है, न अनुशासित; न व्यवस्थित रह सकता है, न अखण्डित | ऐसी व्यवस्था अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती| वर्तमान में निश्‍चित सर्वसमानता का दावा करने वाली साम्यवादी व्यवस्था भी इन तत्त्वों से स्वयं को पृथक् नहीं रख सकी| उसमें भी गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार पद और सामाजिक स्तर हैं| उन्हीं के अनुरुप वेतन, सुविधा और सम्मान में अन्तर हैं|

हमारी आजकल की प्रशासनिक और व्यावसायिक व्यवस्था की तुलना करके देखिए, मनु की बात आसानी से समझ आ जायेगी और ज्ञात होगा कि मनु की और आज की इन व्यवस्थाओं में मूलभूत समानता है| सरकार की प्रशासन व्यवस्था में चार वर्ग हैं- १. प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, २. द्वितीय श्रेणी राजपत्रित अधिकारी, ३-४ तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी | इनमें प्रथम दो वर्ग अधिकारी हैं, दूसरे कर्मचारी | यह विभाजन गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर है और इसी आधार पर इनका महत्त्व, सम्मान एवं अधिकार हैं | इन पदों के लिए योग्यताओं का प्रमाणीकरण पहले भी शिक्षासंस्थान (गुरुकुल,आश्रम,आचार्य) करते थे और आज भी शिक्षासंस्थान (विद्यालय,विश्‍वविद्यालय आदि) ही करते हैं | शिक्षा का कोई प्रमाणपत्र नहीं होने से, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति सेवा और शारीरिक श्रम के कार्य ही करता है और वह अन्तिम कर्मचारी श्रेणी में आता है| पहले भी जो गुरु के पास जाकर विद्या प्राप्त नहीं करता था, वह इसी स्तर के कार्य करता था और उसकी संज्ञा ‘शूद्र’ थी | शूद्र के अर्थ हैं-‘निम्न स्थितिवाला’ ‘आदेशवाहक’ आदि | नौकर, चाकर, सेवक, प्रेष्य, सर्वेंट, अर्दली, निम्न श्रेणी कर्मचारी, आदि संज्ञाओं में कितनी अर्थसमानता है आप स्वयं देख लीजिये | व्यवसायों के निर्धारण में भी बहुत अन्तर नहीं हैं | शिक्षासंस्थानों से डाक्टर, वकील, अध्यापक, आदि की डिग्री प्राप्त करके ही व्यवसाय की अनुमति है, उसके बिना नहीं | सबके नियम-कर्तव्य निर्धारित हैं| उनकी पालना न करनेवाले को व्यवसाय और पद से हटा दिया जाता हैं |

१२.   शूद्रों को वर्ण परिवर्तन के व्यावहारिक अवसर-जो लोग अपने आपको ‘शूद्र’ समझते हैं और अभी तक किसी कारण से स्वयं को ‘शूद्रकोटि’ में मानकर मानवीय अधिकारों से वंचित रखा हुआ है, मनु को धर्मगुरु माननेवाला और मनु के सिध्दान्तों तथा व्यवस्थाओं पर चलनेवाला ‘आर्यसमाज’ योग्यतानुसार किसी भी वर्ण में दीक्षित होने का उनका आव्हान करता है और उन्हें व्यावहारिक अवसर देता हैं| जब आज का संविधान नहीं बना था, उससे बहुत पहले महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आदेशों के परिप्रेक्ष्य में छूत-अछूत, ऊंच-नीच, जाति-पांति, नारी-शुद्रों को न पढाना, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, बहु-विवाह, सती प्रथा, शोषण आदि को सामाजिक बुराइयॉं घोषित करके उनके विरुध्द संघर्ष किया था | नारियों के लिए गुरुकुल और विद्यालय खोले | अपनी शिक्षा संस्थाओं में शूद्रों को प्रवेश दिया, परिणामास्वरुप वहॉं शिक्षित सैंकडों-दलित संस्कृत एवं वेद-शास्त्रों के विद्वान् स्नातक बन चुके हैं| दलित जाति के लोग क्यों भूलते हैं कि उनकी ‘अस्पृश्य’ बन गये थे, किन्तु उन्होंने संघर्ष को नहीं छोडा| इन घटनाओं से अनभिंज्ञ दलित-लेखक आर्यसमाज को भी रंगीन चश्मे से देखते हैं| क्या उनकी यह अकृतज्ञता नहीं है?

१३.   व्यवस्था का सही मूल्यांकन-मनुका समय अति प्राचीन है| यद्यपि उन्होंने मनुस्मृति में जो आदर्श जीवनमुल्य, मर्यादाएं और धर्म का स्वरुप प्रस्तुत किया है, वह सार्वभौम एवं सार्वकालिक है, किन्तु जो देश-काल-परिस्थितियों पर आधारित व्यवस्थाएं हैं, वे तदनुसार परिवर्तनीय हैं | मनु ने अपने समय जिस सामाजिक व्यवस्था को ग्रहण किया वह उस समय की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था थी| यही कारण है वह व्यवस्था अत्यन्त व्यापक प्रभाववाली रही और हजारों वर्षों तक वह प्रचलित होती आयी है| इस कालचक्र में कुछ व्यवस्थाएं अपने मूल स्वरुप को खोकर विकृत हो गयीं | समयानुसार अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ| किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्राचीनता हमारे लिए पूर्णतः अग्राह्य और अपमान की वस्तु बन गयी| यदि हमारी यही सोच उभरती है तो प्राचीन गौरव से जुडी प्रत्येक वस्तु जैसे-महापुरुष, वीर पुरुष, कवि, लेखक, नगर, तीर्थ, भवन, साहित्य, इतिहास सभी कुछ निन्दा की चपेट में आ जायेगा| किसी भी व्यवस्था, वस्तु, व्यक्ति का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जाना चाहिए, वही सही मूल्यांकन माना जा सकता है|

महर्षि मनु और डॉ.अम्बेडकर

१४.   भारतीय लेखकों में मनु के विरोध की परम्परा के प्रमुख संवाहक और प्रेरणास्त्रोत डॉ. भीमराव अम्बेडकर थे| यद्यपि जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूत-अछूत जैसी कुप्रथाओं के कारण अपने जीवन में उन्होंने जिन उपेक्षाओं, असमानताओं, यातनाओं और अन्यायों को भोगा था, उस स्थिति में कोई भी स्वाभिमानी शिक्षित वही करता, जो उन्होंने किया; किन्तु मनु और मनुस्मृति को गम्भीरता एवं पूर्णता से समझे बिना, पूर्वाग्रहों के कारण, उन्होंने मनु के विषय में जो व्यवहार किया, वह भी सर्वथा अनुचित एवं अन्यायपूर्ण था | एक कानूनविद् होने के नाते उन पर इस अनौचित्य की जिम्मेदारी अधिक आती है| उन्होंने संविधान में प्रावधान किया है कि ‘अनुचित निर्णय से निरपराध को दण्ड नहीं मिलना चाहिए, चाहे अपराधी मुक्त हो जाये|’ किन्तु उन्होंने अपने जीवन में इसका पालन नही किया| परवर्ती समाज द्वारा बनायी गयी जन्माधारित सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोंपकर अनावश्यक रुप से उन्हें दोषी घोषित करते रहे और उनके विरुध्द निंदा अभियान चलाते रहे, आर्य (हिन्दु) समाज में प्रतिष्ठित एक महर्षि के लिए बेहद कटु वचनों का प्रयोग करते रहे| हालांकि तत्कालीन बहुत से व्यक्ती उनका ध्यान बार-बार इस तथ्य की ओर आकर्षित करते रहे कि मनु के विषय में अभी उनकी कुछ भ्रान्तियॉं और पूर्वाग्रह हैं, वे उन्हें दूर कर लें, किन्तु वे पूर्वाग्रहों पर अडे रहे| उसके कई कारण थे| जो कुछ तब वे मनु के विषय में लिख चुके थे, शायद उसको छोडना नहीं चाहते थे, और उन्हीं के शब्दों में ‘‘उन पर मनु का भूत सवार था और उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वे उसे उतार सकें|’’ सत्य है, उस भूत को वे जीवन-पर्यन्त नहीं उतार सके और जीवन के उपरान्त उसे अपने अनुगामियों पर छोड गये| लेकिन क्या ‘भूत सवार होना’ सामान्य स्थिति, संतुलित विचार, विवेकपूर्ण सही समीक्षा का परिचायक माना जा सकता है?

यह भी उनके जीवन की वास्तविकता है कि डॉ.अम्बेडकर संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे| जैसा कि उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है, उन्होंने मनुसम्बन्धी समस्त अध्ययन-विश्‍लेषण अंग्रेजी भाषा में लिखी आलोचनाओं के माध्यम से ग्रहण किया है, अतः वे मौलिक-प्रक्षिप्त आदि पहलुओं, श्‍लोकों के प्रसंगों आदि पर विचार नहीं कर सके| जो अंग्रेजी समालोचनाओं में पढा, वही धारणाएं बन गयीं| डॉ.अम्बेडकर के समय तक मनुस्मृति के प्रक्षेपों पर कोई शोधकार्य भी नहीं हुआ था, अतः उन्हें मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों में भेद करने का कोई स्त्रोत नहीं मिला | यदि उक्त कारण न होते तो शायद वे मनु और मनुस्मृति का इतना अविचारित विरोध नहीं करते|

१५.   डॉ. अम्बेडकर के, मनु की वैदिक वर्णव्यवस्था विषयक, आधारभूत मन्तव्यों को यहां प्रस्तुत करके उन पर चर्चा करना इसलिए आवश्यक प्रतीत होता है कि उससे उनकी समीक्षा के साथ-साथ इस लेख को एक नया प्रमाण मिलेगा | वे लिखते हैं-

ह्न   ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया और न वह ऐसा कर सकता था| जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी|’’ (भारत में जातिप्रथा पृ० २९)

ह्न   ‘‘यह निर्विवाद है कि वेदों में चातुर्वर्ण्य के सिध्दान्त की रचना की है, जिसे पुरुषसूक्त के नाम से जाना जाता हैं |’’ (हिन्दुत्व का दर्शन पृ० १२२)

ह्न   ‘‘कदाचित् मनु जाति के निर्माण के लिए जिम्मेदार न हो परन्तु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश किया है| वर्ण जाति की जननी है और इस अर्थ में, मनु जाति व्यवस्था का लेखक न भी हो, परंतु उसका पूर्वज होने का उस पर निश्‍चित ही आरोप लगाया जा सकता है|’’ (हिन्दुत्व का दर्शन पृ० ४२)

ह्न   ‘‘मैं मानता हूँ कि स्वामी दयानन्द व कुछ अन्य लोगों ने वर्ण के वैदिक सिध्दान्त की जो व्याख्या की है, वह बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है| मैं यह व्याख्या नहीं मानता कि जन्म किसी व्यक्ति का समाज में स्थान निश्‍चित करने का निर्धारक तत्व हो| वह केवल योग्यता को मान्यता देती है|’’ (जातिप्रथा उन्मूलन, पृ० ११९)

ह्न   ‘‘वेद में वर्ण की धारणा का सारांश यह है कि व्यक्ति वह पेशा अपनाए, जो उसकी स्वाभाविक योग्यता के लिए उपयुक्त हो|’’ (वही पृ० ११९)

ह्न   ‘‘जाति का आधारभूत सिध्दान्त वर्ण के आधारभूत सिध्दान्त से मूल रुप से भिन्न है, न केवल मूलरुप से भिन्न है, बल्कि मूल रुप से परस्पर विरोधी है| पहला सिध्दान्त (वर्ण) गुण पर आधारित है|’’ (वही पृ० ८१)

१६.   प्रस्तुत उध्दरणों में डॉ.अम्बेडकर स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि वर्णव्यवस्था की रचना वेदों से हुई| मनु इसके निर्माता नहीं, केवल पोषक हैं| वेदों की वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित है, जो बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है| वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी हैं| मनु जाति व्यवस्था के निर्माता भी नहीं हैं| इस प्रकार मनु वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के निर्माता के आरोप से मुक्त हो जाते हैं| वर्णव्यवस्था के पोषक होने के कारण उन पर यह भी आरोप नहीं बनता कि उन्होंने जन्मना जातिवाद का पोषण किया | यदि वर्णव्यवस्था बुध्दिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है, तो व्यवस्था का पोषण करके उन्होंने उत्तम कार्य ही किया है, अपराध नहीं किया| मनु वैदिक धर्मावलम्बी होने से वेदों को परम प्रमाण मानते हैं| अपने धर्मग्रन्थों के आदेशों का पालन करते हुए उन्होंने उसकी अच्छी व्यवस्थाओं का प्रचार-प्रसार किया तो यह कोई दोष नहीं| सभी धर्मावलम्बी ऐसा करते हैं| बौध्द बनने के बाद डॉ.अम्बेडकर ने भी बौध्द विचारों का प्रचार-प्रसार किया है| यदि उनका यह कार्य उचित है, तो मनु का भी उचित है| इतनी स्वीकारोक्तियॉं होने के उपरान्त भी, आश्‍चर्य है कि डॉ.अम्बेडकर मनु को स्थान-स्थान पर जातिवाद का जिम्मेदार ठहरा कर उनकी निन्दा करते हैं| परवर्ती सामाजिक व्यवस्थाओं को मनु पर थोंपकर उन्हें कटु वचन कहना कहॉं का न्याय हैं?

संविधान में चवालीस वर्षों में अस्सी के लगभग संशोधन किये जा चुके हैं, जिनमें कुछ संविधान की मूल भावना के प्रतिकुल हैं, जैसे-अंग्रेजी की अवधि बढाना,मुसलमानों में गुजाराभत्ता की शर्त हटाना आदि, क्या इन परवर्ती संशोधनों का, और भावी संशोधनों का जिम्मेदार डॉ.अम्बेडकर को ठहराया जा सकता है? यदि नहीं, तो हजारों वर्ष परवर्ती विकृत व्यवस्थाओं के लिए मनु को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता हैं?

१७.   डॉ.अम्बेडकर का मानना है कि वर्णव्यवस्था जातिव्यवस्था की जननी है, क्योंकि वर्णव्यवस्था का मनु ने पोषण किया था, इसलिए मनु दोष के पात्र हैं| कितना अटपटा और लचीला तर्क है यह! ठीक जातिवाद जैसा| जैसे-किसी ने श्राध्द नहीं किया तो वह पिछली छह पीढियों के पूर्वजों सहित नरक में जायेगा, क्योंकि वे उसके जनक और पोषक हैं| किसी ने श्राध्द किया तो उसकी पिछली छह-पीढियॉं तर जायेंगी, क्योंकि वे उसकी ‘जनक’ हैं| ऐसे ही, जातिव्यवस्था दोषपूर्ण है, अतः उसकी पूर्वव्यवस्था और उनके पोषक मनु भी दोषी हैं| आश्‍चर्य तो यह है कि कानूनवेत्ता एक कानूनदाता के लिए ऐसे आरोपों का प्रयोग कर रहा हैं| संविधान में तो डॉ.अम्बेडकर ने ऐसा कानून नहीं बनाया कि किसी अपराधी को दण्ड देने के साथ-साथ उसके माता-पिता, दादा आदि को भी अपराधी घोषित कर दिया जाये, इसलिए कि वे उसके जनक हैं | विगत को अपराधी घोषित करके उन्हें दण्डित और नष्ट-भ्रष्ट करने के इस सिध्दान्त को यदि कुछ राष्ट्रीय मामलों के लिए भी संविधान में भी लागू कर देते तो इससे उन राष्ट्रवादियों को सन्तोष होता, जिनकी यह विचारधारा रही है कि देश स्वतंत्र होने के बाद उन लोगों को अपराधी घोषित करके दण्डित किया जाना चाहिए, जिन्होंने विगत में राष्ट्रदोह और स्वतन्त्रता द्रोह किया था, जिन्होंने विदेशी शासकों का सहयोग किया, गुप्तचरी की, देशभक्तों को फांसी दिलवायी | वे लोग मुरब्बे, पद पैसे पाकर तब भी सम्पन्न-सुखी थे, आज भी हैं और स्वतन्त्रतासेनानी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं| शायद ही ऐसी छूट किसी व्यवस्था-परिवर्तन ने दी हो| यदि वैसा होता तो गद्दारों को सबक मिलता और भावी राष्ट्रीय एकता-अखण्डता और स्वतन्त्रता के हित में होता|

१८.   वर्ण को जाति का जनक मानकर मनु को इस तरह दोषी ठहराया जा रहा हैं, जैसे मनु पहले ही जानते थे कि भविष्य में वर्ण से जाति का जन्म होगा, और इस आशा में वे जान बुझकर वर्ण का पोषण कर रहे थे| डॉ.अम्बेडकर ने वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था का पोषण किया है| क्या वे जानते थे कि इससे भविष्य में कौन सी व्यवस्था का जन्म होगा? बिल्कुल नहीं| इसी प्रकार मनु को भी नहीं पता था कि वर्णव्यवस्था का भविष्य में क्या रुप होगा|

१९.   डॉ.अम्बेडकर वर्तमान जाति-पांति रहित संविधान के निर्माता एवं पोषक हैं| दुर्भाग्य से, सैकडों वर्षों के बाद यदि यह जातिवादी रुप ले जाये तो क्या डॉ. अम्बेडकर उस के जनक होने के जिम्मेदार बनेंगे? सभी कहेंगे-नहीं, वे तो जातिवाद के विरोधी हैं, उन्हें जनक क्यों कहा जाये| इसी प्रकार जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था की विरोधी व्यवस्था है| मनु को अपनी वर्णव्यवस्था की विरोधी जातिव्यवस्था का जनक कैसे कहा जा सकता है? इस प्रकार उन पर जातिव्यवस्था का जनक होने का आरोप सरासर गलत हैं| सच यह है कि बाद के समाज ने मनु की वर्णव्यवस्था को विकृत कर दिया और उसे जातिव्यवस्था में बदल दिया, अतः वही समाज इसका जनक भी है, दोषी भी|

२०.   जो यह कहा गया है कि ‘अकेला मनु न तो जातिव्यवस्था को बना सकता था और न लागू कर सकता था|’ यह तो स्वयं ही डॉ.अम्बेडकर ने मान लिया कि इन दोनों बातों के लिए मनु जिम्मेदार नहीं है| इसका अर्थ यह निकला कि पहले से ही समाज में वर्णव्यवस्था प्रचलित थी और समाज ने उसे स्वयं स्वीकृत किया हुआ था| वह लोगों के दिल-दिमाग में रची-बसी व्यवस्था थी, लोगों द्वारा उत्तम मानी हुई व्यवस्था थी और सर्वस्वीकृत थी| मनु द्वारा थोपी नहीं गयी थी| समाज द्वारा स्वीकृत व्यवस्था थी, उसमें मनु का क्या दोष? आपने जनता द्वारा स्वीकृत वर्तमान व्यवस्था का पोषण किया हैं, मनु ने समाज द्वारा स्वीकृत अपने समय की वर्ण व्यवस्था का पोषण किया था | इसमें दोष या दोषी होने का अवसर ही कहॉं हैं?

२१.   संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत मान्य और खरी नहीं होती| अतः कुछ कमियों के आधार पर परवर्ती जातिव्यवस्था (हिन्दु व्यवस्था) की निन्दा और अपमान करना कदापि उचित नहीं माना जा सकता | आज की संवैधानिक व्यवस्था, जिसका न्याय, समानता आदि का दावा है, क्या सम्पूर्ण हैं? अभी ही वह न जाने कितने विवादों से घिरी हैं| सामायिक आवश्यकता के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया है, फिर भी आज उस पर उग्र विवाद है| आज के सैकडों वर्ष पश्‍चात् जब ये परिस्थितियॉं विस्मृत हो जायेंगी, तब जो इस व्यवस्था का इतिहास लिखा जायेगा, शायद वह आरक्षित जातियों के लिए भी वैसा ही लिखा जायेगा, जो ब्राह्मणों के सन्दर्भ में आज प्राचीन धर्मशास्त्रों का लिखा जा रहा हैं |

वर्तमान संवैधानिक व्यवस्थाओं में, उच्चतम अधिकारी से लेकर निम्नतम कर्मचारी तक के लिए परीक्षाओं-उपाधियों के अनुसार नियुक्ति का प्रावधान हैं| कुछ स्थान मनोनयन से भरे जाते हैं| थोडे से वर्षों में ही स्थिति यहां तक पहुँच गयी है कि प्रशासनिक पदों के मनोनयन में, सत्ता में बैठे नेताओं, अधिकारियों के सम्बन्धी या सिफारिशी ही अधिकांशतः लिये जाते हैं, योग्यता का पैमाना भुला दिया गया है| साक्षात्कार योग्यता की जांच के लिए आयोजित होते हैं, किन्तु वहॉं भी हजारों नौकरियॉं सिफारिश और पैसें के आधार पर दी जा रही हैं| न्यायालयों द्वारा रद्द अनेक चयनसूचियां इसकी सत्यापित प्रमाण हैं| राजनीतिक क्षेत्र के पदों के मनोनयन में योग्यता नाम की कोई वस्तु दिखायी नहीं पडती | वहॉं अपने-परायें का नग्न रुप हैं| कल्पना कीजिए, जिसकी कि संभावनाएं प्रबल दिखायी पड रही हैं, सैंकडो वर्ष बाद ये व्यवस्थाएं और अधिक विकृत होकर यदि जन्माधारित रुप ले गयीं तो क्या उसकी जिम्मेदारी डॉ.अम्बेडकर और उनकी संविधान-सभा की मानी जायेगी? क्या उन द्वारा प्रदत्त व्यवस्था उस भावी विकृत व्यवस्था की जननी मानी जानी चाहिए? यदि नहीं, तो मनु को भी जाति- व्यवस्था का जनक और जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता|

२२.   इनसे भी अधिक अविचारित और खतरनाक बात जो डॉ.अम्बेडकर ने कही है, वह है-‘‘यदि आप जातिप्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगाना होगा|’’ (जातिप्रथा उन्मूलन पृ.९९)| एक ओर वे मानते हैं कि वेदों में जातिव्यवस्था न होकर वर्ण व्यवस्था हैं और वर्ण व्यवस्था गुण-कर्म पर आधारित होने से बुध्दिमत्तापूर्ण है, घृणास्पद नहीं, फिर भी वेदों में डायनामाइट लगाने की अनुचित और उत्तेजक बात कहते हैं | कितना परस्पर विरोधी वक्तव्य है उनका! वेद,धर्मशास्त्र,रामायण,महाभारत,पुराण, गीता सभी को नष्ट-भ्रष्ट करने और उनसे नाता तोडने की बात कही है उन्होंने! धर्मजिज्ञासा, साहित्य, संस्कृति, सभ्यता, आचार-व्यवहार, जीवनमूल्य सभी के आश्रय और प्रेरणा स्त्रोत होते हैं धर्मशास्त्र | उनको नष्ट करने का अभिप्राय है आर्य (हिन्दु) संस्कृति-सभ्यता, धर्म, सब कुछ को नष्ट करना | क्या डॉ.अम्बेडकर यही चाहते थे? यदि डॉ.अम्बेडकर हिन्दू धर्म में रहकर पीडित थे और उन्हें वह छोडना था, तो वे उसे छोडकर केवल ‘मनुष्य’ के नाते भी रह सकते थे, किन्तु धर्म के आश्रय के बिना वे नहीं रह सके | उन्होंने बौध्द धर्म का आश्रय लिया और बौध्द धर्मशास्त्रों को प्रमाण माना जबकि हिन्दुओं को वे धर्म और धर्मशास्त्रों का त्याग करने को कहते हैं| यहां मैं महात्मा गांधी द्वारा उस समय दिये गये उत्तर को उध्दृत करना चाहूंगा-‘जैसे कोई कुरान को अस्वीकार कर मुसलमान नहीं हो सकता, बाइबल को अस्वीकार कर ईसाई नहीं हो सकता, वैसे ही वेदों-शास्त्रों को अस्वीकार कर कोई हिन्दू कैसे हो सकता है?’ डॉ.अम्बेडकर की यह सोच ठीक वैसी ही है जैसे किसी के हाथ-पैर में फोडा हो जाये तो उसका आप्रेशन कर उसको निकाल देने के बजाय उस आदमी को जान से ही मार दिया जाये |

२३.   वेदों में जाति व्यवस्था का नामोनिशान तक नहीं है| फिर भी डॉ.अम्बेडकर ने वेदों की अकारण आलोचना की, उनको नष्ट करने की बात कही, उनके महत्त्व को अंगीकार नहीं किया| बौध्द होकर भी उन्होंने ऐसा ही किया है| उन्होंने बौध्द-शास्त्रों की और अपने गुरु की अवज्ञा की है, क्योंकि बौध्द शास्त्रों में महात्मा बुध्द ने वेदों और वेदज्ञों की प्रशंसा करते हुए धर्म में वेदों के महत्त्व को प्रतिपादित किया है| कुछ प्रमाण देखिए-

(अ)   ‘‘विद्वा च वेदेहि समेच्च धम्मम् |

न उच्चावचं गच्छति भूरिपत्र्वो |’’ (सुत्तनिपात २९२)

 

अर्थात्-महात्मा बुध्द कहते हैं-‘जो विद्वान् वेदों से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है, वह कभी विचलित नहीं होता|’

(आ)  ‘‘विद्वा च सो वेदगू नरो इध, भवाभवे संगं इमं विसज्जा |

सो वीतवण्हो अनिघो निरासो, अतारि सो जाति जरांति ब्रूमीति ॥

(सुत्तनिपात १०६०)

अर्थात्-‘वेद को जाननेवाला विद्वान् इस संसार में जन्म और मृत्यु की आसक्ति का त्याग करके और इच्छा, तृष्णा तथा पाप से रहित होकर जन्म-मृत्यु से छूट जाता है|’ अन्य श्‍लोक द्रष्टव्य हैं-३२२,४५८,५०३,८४६,१०५९आदि|

२४.   डॉ.अम्बेडकर की मनु-विरोध परम्परा में डॉ.भदन्त आनन्द कौसल्यायन द्वारा ‘राष्ट्रीय कर्तव्य’ के नाम से किया गया मनुस्मृति-‘विरोध’ केवल विरोध के लिए ही है, जो अत्यन्त सतही है| उसमें न तर्क है, न सम्यक् विश्‍लेषण | अपव्याख्या और अपप्रस्तुति का आश्रय लेकर अच्छे को भी बुरा सिध्द करने का प्रयास है| उन्हें जहां इस बात पर आक्रोश है कि मनु ने नारियों की निन्दा की है, तो इस बात पर भी दुःख है कि उन्हें ‘‘पूजार्ह = सम्मानयोग्य’’ क्यों कहा गया! इसी को कहते है ‘चित भी मेरी पट भी मेरी|’ उनकी स्थिति विरोधाभासी है | महात्मा गांधी के प्रशंसक हैं, किन्तु उनके निष्कर्षों को नहीं मानते | बौध्द हैं, किन्तु बौध्द साहित्य में वर्णित वेद-वेदज्ञ आदि के महत्व को स्वीकार नहीं करते| स्वयं को गर्व से अवैदिक=अहिन्दू घोषित करते रहे, किन्तु हिन्दुओं के शास्त्रों के तथाकथित उध्दार में और हिन्दुओं में पूज्य महापुरुषों मनु, राम आदि की निन्दा-आलोचना में लगे रहे|

२५.   मनुस्मृति-विरोधी सभी लेखकों में कुछ एकांगी और पूर्वाग्रहयुक्त बातें समानरुप से पायी जाती हैं |  उन्होंने कर्मणा वर्णव्यवस्था को सिध्द करनेवाले आपत्तिरहित श्‍लोकों, जिनमें स्त्री-शूद्रों के लिए हितकर और सद्भावपूर्ण बाते हैं, जिन्हें कि पूर्वापर प्रसंग से सम्बध्द होने के कारण मौलिक माना जाता है, को उध्दृत ही नहीं किया| केवळ आपत्तिपूर्ण श्‍लोकों, जिन्हें कि प्रक्षिप्त माना जाता है, को उध्दृत करके निन्दा-आलोचना की है| उन्होंने इस शंका का समाधान नहीं किया है कि एक ही पुस्तक में, एक ही प्रसंग में स्पष्टतः परस्पर विरोधी कथन क्यों पाये जाते हैं? और आपने दो कथनों में से केवल आपत्तिपूर्ण कथन को ही क्यों ग्रहण किया? दूसरों की उपेक्षा क्यों की? यदि वे लेखक इस प्रश्‍न पर चर्चा करते तो उनकी आपत्तियों का उत्तर उन्हें स्वयं मिल जाता | न आक्रोश में आने का अवसर आता, न विरोध का, अपितु बहुत-सी भ्रान्तियों से बच जाते|

(ख)  मनुस्मृति में शूद्रों की स्थिति

आइये, अब विचार करते हैं मनुस्मृति के सबसे अधिक चर्चित और विवादास्पद शूद्र सम्बन्धी विषय पर| मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्यों पर दृष्टिपात करने पर हमें कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं आधारभूत तथ्य उपलब्ध होते हैं जो शूद्रों के विषय में मनु की भावनाओं का संकेत देते हैं| वे इस प्रकार हैं-

१.    दलितों-पिछडों को शूद्र नहीं कहा-आजकल की दलित, पिछडी और जनजाति कही जानेवाली जातियों को मनुस्मृति में कहीं ‘शूद्र’ नहीं कहा गया हैं| मनु की वर्णव्यवस्था है, अतः सभी व्यक्तियों के वर्णों का निश्‍चय गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर किया गया है, जाति के आधार पर नहीं | यही कारण है कि शूद्र वर्ण में किसी जाति की गणना करके यह नहीं कहा है कि अमुक-अमुक जातियॉं ‘शूद्र’ हैं| परवर्ती समाज और व्यवस्थाकारों ने समय-समय पर शूद्र संज्ञा देकर कुछ वर्णों को शूद्रवर्ग में सम्मिलित कर दिया| कुछ लोग भ्रान्तिवश इसकी जिम्मेदारी मनु पर थोंप रहे हैं| विकृत व्यवस्थाओं का दोषी तो है परवर्ती समाज, किन्तु उसका दण्ड मनु को दिया जा रहा है| न्याय की मांग करनेवाले दलित प्रतिनिधियों का यह कैसा न्याय है?

२.    मनुकृत शूद्रों की परिभाषा वर्तमान शूद्रों पर लागू नहीं होती| मनु द्वारा दी गयी शूद्र की परिभाषा भी आज की दलित और पिछडी जातियों पर लागू नहीं होती| मनुकृत शूद्र की परिभाषा है–जिनका ब्रह्मजन्म = विद्याजन्म रुप दूसरा जन्म होता है, वे ‘द्विजाति’ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं | जिसका ब्रह्मजन्म नहीं होता वह ‘एकजाति’ रहनेवाला शूद्र है| अर्थात् जो बालक निर्धारित समय पर गुरु के पास जाकर संस्कारपूर्वक वेदाध्ययन वेदाध्ययन, विद्याध्ययन और अपने वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करता है, वह उसका ‘विद्याजन्म’ नामक दूसरा जन्म है, जिसे शास्त्रों में ‘ब्रह्मजन्म’ कहा गया है| जो जानबूझकर, मन्दबुध्दि होने के कारण अथवा अयोग्य होने के कारण ‘विद्याध्ययन’ और उच्च तीन द्विज वर्णों में से किसी भी वर्ण की शिक्षा-दीक्षा नहीं प्राप्त करता, वह अशिक्षित व्यक्ति ‘एकजाति=एक जन्मवाला’ अर्थात शूद्र कहलाता हैं| इसके अतिरिक्त उच्च वर्णों में दीक्षित होकर जो निर्धारित कर्मों को नहीं करता, वह भी शूद्र हो जाता है (मनु० २.१२६,१६९,१७०,१७२; १०.४ आदि) इस विषयक एक-दो प्रमाण द्रष्टव्य हैं-

(अ)   ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः, त्रयो वर्णाः द्विजातयः |

चतुर्थः एकजातिस्तु, शूद्रः नास्ति तु पंचमः ॥ (मनु० १०.४)

 

अर्थात्-ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,इन तीन वर्णों को द्विजाति कहते हैं, क्योंकि इनका दूसरा विद्याजन्म होता है| चौथा वर्ण एकजाति=केवल माता-पिता से ही जन्म प्राप्त करनेवाला और विद्याजन्म न प्राप्त करनेवाला, शूद्र है | इन चारों वर्णों के अतिरिक्त कोई वर्ण नहीं है|

(आ)  शूद्रेण हि सपस्तावद् यावद् वेदे न जायते | (२.१७२)

अर्थात्-जब तक व्यक्ति का ब्रह्मजन्म = वेदाध्ययन रुप जन्म नहीं होता, तब तक वह शूद्र के समान ही होता है|

(इ)   न वेत्ति अभिवादस्य.. .. यथा शूद्रस्तथैव सः | (२.१२६)

अर्थात्-जो अभिवादन विधि का ज्ञान नहीं रखता, वह शूद्र ही है|

(ई)   ‘‘प्रत्यवायेन शूद्रताम्’’ (४.२४५)

अर्थात्-ब्राह्मण, हीन लोगों के संग और आचरण से शूद्र हो जाता है|

बाद तक भी शूद्र की यही परिभाषा रही है-

(उ)   जन्मना जायते शूद्रः, संस्काराद् द्विज उच्यते | (स्कन्दपुराण)

अर्थात्-प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है, उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता हैं|

मनु की यह व्यवस्था अब भी बालिद्वीप में प्रचलित हैं| वहॉं ‘द्विजाति’ और ‘एकजाति’ संज्ञाओं का ही प्रयोग होता है| शूद्र को अस्पृश्य नहीं माना जाता|

३.    शूद्र अस्पृश्य नहीं-अनेक श्‍लोकों से ज्ञात होता है कि शूद्रों के एति मनुं की मानवीय सद्भावना थी और वे उन्हें अस्पृश्य, निन्दित अथवा घृणित नहीं मानते थे | मनु ने शूद्रों के लिए उत्तम, उत्कृष्ट, शुचि जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है, ऐसा विशेष्य व्यक्ति कभी अस्पृश्य या घृणित नहीं माना जा सकता (९.३३५) | शूद्रों को द्विजाति वर्णों के घरों में पाचन, सेवा आदि श्रमकार्य करने का निर्देश दिया है (१.९१;९.३३४-३३५)| किसी द्विज के यहां यदि कोई शूद्र अतिथिरुप में आ जाये तो उसे भोजन कराने का आदेश है (३.११२)| व्दिजों को आदेश है कि अपने भृत्यों को, जो कि शूद्र होते थे, पहले भोजन कराने के बाद, भोजन करें (३.११६)| क्या आज के वर्णरहित सभ्य समाज में भृत्यों को पहले भोजन कराया जाता है? और उनका इतना ध्यान रखा जाता है? कितना मानवीय, सम्मान और कृपापूर्ण दृष्टिकोण था मनु का|

वैदिक वर्णव्यवस्था में परमात्मापुरुष अथवा ब्रह्मा के मुख,बाहु,जंघा, पैर से क्रमशः ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र की आलंकारिक उत्पत्ति बतलायी है(१.३१)| इससे तीन निष्कर्ष निकलते हैं| एक, चारों वर्णों के व्यक्ति परमात्मा की एक जैसी सन्तानें हैं| दूसरा, एक जैसी सन्तानों में कोई अस्पृश्य और घृणित नहीं होता| तीसरा, एक ही शरीर का अंग ‘पैर’ अस्पृश्य या घृणित नहीं होता है| ऐसे श्‍लोकों के रहते कोई तटस्थ व्यक्ति क्या यह कह सकता है कि मनु शूद्रों को अस्पृश्य और घृणित मानते थे?

४.    शूद्र को सम्मान व्यवस्था में छूट-मनु ने सम्मान के विषय में शूद्रों को विशेष छूट दी हैं| मनुविहित सम्मान-व्यवस्था में प्रथम तीन वर्णों में अधिक गुणों के आधार पर अधिक सम्मान देने का कथन है जिनमें विद्यावान् सबसे अधिक सम्मान्य है (२.१११,११२,१३०)| किन्तु शूद्र के प्रति अधिक सद्भाव प्रदर्शित करते हुए उन्होंने विशेष विधान किया है कि द्विज वर्ण के व्यक्ति वृध्द शूद्र को पहले सम्मान दें, जबकि शूद्र अशिक्षित होता है| यह सम्मान पहले तीन वर्णों में किसी को नहीं दिया गया हैं-

‘‘मानार्हः शूद्रो ऽपि दशमीं गतः’’ (२.१३७)

अर्थात्-वृध्द शूद्र को सभी द्विज पहले सम्मान दें| शेष तीन वर्णों में अधिक गुणी पहले सम्मान का पात्र है|

५.    शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता-‘‘न धर्मात् प्रतिषेधनम्’’ (१०.१२६) अर्थात्-‘शूद्रों को धार्मिक कार्य करने का निषेध नहीं है’ यह कहकर मनु ने शूद्र को धर्मपालन की स्वतन्त्रता दी है| इस तथ्य का ज्ञान उस श्‍लोक से भी होता है जिसमें मनु ने कहा है कि ‘शूद्र से भी उत्तम धर्म को ग्रहण कर लेना चाहिए’ (२.२१३) | वेदों में शूद्रों को स्पष्टतः यज्ञ आदि करने और वेदशास्त्र पढने का अधिकार दिया हैं–

(अ)   यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः |

ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ॥ २६.२)

 

अर्थात्-मैंने इस कल्याणकारिणी वेद वाणी का उपदेश सभी मनुष्यों-ब्राह्मण,क्षत्रिय,शूद्र,वैश्य,स्वाश्रित स्त्री-भृत्य आदि और अतिशूद्र आदि के लिए किया है|

(आ)  यज्ञियासः पश्‍चजनाः मम होत्रं जुषध्वम् | (ऋग्० १०.५३.४)

पश्‍चजनाः = चत्वारो वर्णाः, निषादः पश्‍चमः | (निरुक्त ३.८)

 

अर्थात्-‘यज्ञ करने के पात्र पांच प्रकार के मनुष्य अग्निहोत्र किया करें|’ चार वर्ण और पांचवां निषाद, ये पश्‍चजन कहलाते हैं|

मनु की प्रतिज्ञा है कि उनकी मनुस्मृति वेदानुकूल है, अतः वेदाधारित होने के कारण मनु की भी वही मान्यताएं हैं| यही कारण है कि उपनयन प्रसंग में कहीं भी शूद्र के उपनयन का निषेध नहीं किया है, क्योंकि शूद्र तो तब कहाता है, जब कोई उपनयन नहीं कराता |

६.    दण्डव्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड-पाठकवृन्द! आइये, अब मनुविहित दण्डव्यवस्था पर दृष्टिपात करते हैं| यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की हैं| मनु की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं-गुण-दोष, और आधारभूत तत्व हैं-बौध्दिक स्तर, सामाजिक स्तर, पद, अपराध का प्रभाव | मनु की दण्डव्यवस्था है, जो मनोवैज्ञानिक है| यदि मनु वर्णों में गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर उच्च वर्णों को अधिक सम्मान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने पर उतना ही अधिक दण्ड भी देते हैं| इस प्रकार मनु की यथायोग्य दण्ड व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक; राजा को यथायोग्य दण्ड व्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मण को सबसे अधिक; राजा को उससे भी अधिक| मनु की यह सर्वसामान्य दण्डव्यवस्था है, जो सभी दण्डस्थानों पर लागू होती हैं-

अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्

षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च ॥

ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्|

द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविध्दि सः ॥

 

अर्थात्-किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अठ्ठाईसगुणा दण्ड करना चाहिए क्योकिं उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भलीभांति समझनेवाले हैं|

इसके साथ ही मनु ने राजा को आदेश दिया है कि उक्त दण्ड से किसी को छूट नहीं दी जानी हैं, चाहे वह आचार्य, पुरोहित और राजा के पिता-माता ही क्यों न हों| राजा दण्ड दिये बिना मित्र को भी न छोडे और कोई समृध्द व्यक्ति शारीरिक अपराधदण्ड के बदले में विशाल धनराशि देकर छूटना चाहे तो उसे भी न छोडे (८.३३५, ३४७)

देखिए, मनु की दण्डव्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक, न्यायपूर्ण, व्यावहारिक और श्रेष्ठप्रभावी है| इसकी तुलना आज की दण्डव्यवस्था से करके देखिए, दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जायेगा | आज की दण्डव्यवस्था का नारा हैं-‘कानून की दृष्टि में सब समान हैं|’ पहला विरोध यही हुआ कि पदस्तर और सामाजिक स्तर के अनुसार सम्मान व्यवस्था तो पृथक्-पृथक् हैं और दण्ड एक जैसा| दूसरा, यथायोग्य दण्ड नहीं| इसे यों समझिए कि खेत चर जाने पर मेमने को भी एक डण्डा लगेगा, भैंसे, हाथी को भी| इसका प्रभाव क्या होगा? बेचारा मेमना डण्डे के प्रहार से मिमियाने लगेगा, भैंसे में कुछ हलचल होगी, हाथी को अनुभूति ही नहीं होगी| क्या यह वास्तव में समान दण्ड हुआ? समान दण्ड तो वह हैं, जो लोकव्यवहार में प्रचलित हैं | भैंसे को लाठी से, हाथी को अंकुश से और शेर को हण्टर से वश में किया जाता हैं| दूसरा उदाहरण लीजिए-एक अत्यन्त गरीब एक हजार के दण्ड को कर्ज लेकर चुका पायेगा, मध्यमवर्गीय थोडा कष्ट अनुभव करके और समृध्द-सम्पन्न जूती की नोक पर रख कर देगा | इसी अमनोवैज्ञानिक दण्डव्यवस्था का परिणाम है कि दण्ड की पतली रस्सी में आज गरीब तो फंस जाते हैं, धन-पद-सत्ता-सम्पन्न शक्तिशाली लोग उस रस्सी को तुडा कर निकल भागते हैं| आंकडे इकठ्ठे करके देख लीजिए, स्वतन्त्रता के बाद कितने गरीबों को सजा हुई है, और कितने धन-पद-सत्ता-सम्पन्न लोगों को| आर्थिक अपराधों में समृध्द लोग अर्थदण्ड भरते रहते हैं, अपराध करते रहते हैं | मनु की यथायोग्य दण्ड-व्यवस्था में ऐसा असन्तुलन नहीं है|

मनु की दण्डव्यवस्था अपराध की प्रकृति पर निर्भर है| वे गम्भीर अपराध में यदि कठोर दण्ड का विधान करते हैं तो चारों वर्णों को ही, और यदि सामान्य अपराध में सामान्य दण्ड का विधान करते हैं, तो वह भी चारों वर्णों के लिए सामान्य होता हैं| शूद्रों के लिए जो कठोर दण्डों का विधान मिलता है वह प्रक्षिप्त श्‍लोकों में है| उक्त दण्डनीति के विरुध्द जो श्‍लोक मिलते हैं, वे मनुरचित नहीं हैं|

७.    शूद्र दास नहीं है-शूद्र से दासता कराने अथवा जीविका न देने का कथन मनु के निर्देशों के विरुध्द है| मनु ने सेवकों, भृत्यों का वेतन, स्थान और पद के अनुसार नियत करने का आदेश राजा को दिया है और यह सुनिश्‍चित किया है कि उनका वेतन अनावश्यक रुप से न काटा जाये (७.१२५-१२६-;८.२१६) |

८.    शूद्र सवर्ण हैं-वर्तमान मनुस्मृति को उठाकर देख लीजिए, उनकी ऐसी कितनी ही व्यवस्थाएं हैं, जिन्हें परवर्ती समाज ने अपने ढंग से बदल लिया है| मनु ने शूद्र सहित चारों वर्णों को सवर्ण माना है, चारों से भिन्न को असवर्ण (१०.४,४५), किन्तु परवर्ती समाज शूद्र को असवर्ण कहने लग गया| मनु ने शिल्प, कारीगरी आदि के कार्य करनेवालें लोगों को वैश्य वर्ण के अन्तर्गत माना है (३.६४;९.३२९;१०.९९;१०.१२०), किन्तु परवर्ती समाज ने उन्हें भी शूद्रकोटि में ला खडा कर दिया| दूसरी ओर, मनु ने कृषि, पशुपालन को वैश्यों का कार्य माना है (१.९०), किन्तु सदियों से ब्राह्मण और क्षत्रिय भी कृषि-पशुपालन कर रहा हैं, उन्हें वैश्य घोषित नहीं किया| इनको मनु की व्यवस्था कैसे माना जा सकता हैं?

इस प्रकार मनु की व्यवस्थाएं न्यायपूर्ण हैं| उन्होंने न शूद्र और न किसी अन्य वर्ण के साथ अन्याय या पक्षपात किया है|

 

(ग)   मनुस्मृति में नारियों की स्थिति

मनुस्मृति के अन्तःसाक्ष्य कहते हैं कि मनु की जो स्त्री-विरोधी छवि प्रस्तुत की जा रही है, वह निराधार एवं तथ्यों के विपरीत है| मनु ने मनुस्मृति में स्त्रियों से सम्बन्धित जो व्यवस्थाएं दी हैं वे उनके सम्मान, सुरक्षा, समानता, सद्भाव और न्याय की भावना से प्रेरित हैं| कुछ प्रमाण प्रस्तुत हैं-

१.    नारियों को सर्वोच्य महत्त्व-महर्षि मनु संसार के वह प्रथम महापुरुष हैं, जिन्होंने नारी के विषय में सर्वप्रथम ऐसा सर्वोच्च आदर्श उद्घोष दिया है, जो नारी की गरिमा, महिमा और सम्मान को असाधारण ऊंचाई प्रदान करता है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः|

यत्रैताः तु न पूज्यन्ते सर्वाः तत्राफलाः क्रियाः॥ (३.५६)

 

इसमा सही अर्थ है-‘जिस परिवार में नारियों का आदर-सम्मान होता है, वहां देवता=दिव्य गुण,कर्म,स्वभाव,सन्तान,दिव्य लाभ आदि प्राप्त होते हैं और जहां इनका आदर-सम्मान नहीं होता, वहां उनकी सब क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं|’

स्त्रियों के प्रति प्रयुक्त सम्मानजनक एवं सुन्दर विशेषणों से बढकर, नारियों के प्रति मनु की भावना का बोध करानेवाले प्रमाण और कोई नहीं हो सकते| वे कहते हैं कि नारियां घर का भाग्योदय करनेवाली, आदर के योग्य, घर की ज्योति, गृहशोभा, गृहलक्ष्मी, गृहसंचालिका एवं गृहस्वामिनी, घर का स्वर्ग, संसारयात्रा की आधार हैं (९.११,२६,२८;५.१५०)| कल्याण चाहनेवाले परिवारजनों को स्त्रियों का आदर-सत्कार करना चाहिये, अनादर से शोकग्रस्त रहनेवाली स्त्रियों के कारण घर और कुल नष्ट हो जाते हैं| स्त्री की प्रसन्नता में ही कुल की वास्तविक प्रसन्नता है (३.५५-६२)| इसलिए वे गृहस्थों को उपदेश देते हैं कि परस्पर संतुष्ट रहें एक दूसरे के विपरीत आचरण न करें और ऐसा कोई कार्य न करें जिससे एक-दुसरे से वियुक्त होने की स्थिति आ जाये (९.१०१-१०२)| मनु की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए एक श्‍लोक ही पर्याप्त है-

 

प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हाः गृहदीप्तयः|

स्त्रियः श्रियश्‍च गेहेषु न विशेषो ऽस्ति कश्‍चन ॥ १.२६)

 

अर्थात्-सन्तान उत्पत्ति के लिए घर का भाग्योदय करनेवाली, आदर-सम्मान के योग्य, गृहज्योति होती हैं स्त्रियां| शोभा-लक्ष्मी और स्त्री में कोई अन्तर नहीं है, वे घर की प्रत्यक्ष शोभा हैं|

२.    पुत्र-पुत्री एक समान-मनुमत से अनभिज्ञ पाठकों को यह जानकर सुखद आश्‍चर्य होगा कि मनु ही सबसे पहले वह संविधान निर्माता हैं| जिन्होंने पु-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है-

‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनु० ९.१३०)

अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है| वह आत्मारुप है, अतः वह पैतृकसम्पत्ति की अधिकारिणी है|

३.    पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार-मनु ने पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री को समान अधिकारी माना है| उनका यह मत मनुस्मृति के ९.१३०, १९२ में वर्णित है| इसे निरुक्त में इस प्रकार उध्दृत किया गया हैं-

अविशेषेण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः |

मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत्॥ (३.१.४)

अर्थात्-सृष्टि के प्रारम्भ में स्वायम्भुव मनु ने यह विधान किया है कि दायभाग = पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री का समान अधिकार होता है| मातृधन में केवल कन्याओं का अधिकार विहित करके मनु ने परिवार में कन्याओं के महत्त्व में अभिवृध्दि की है (९.१३१)|

४.    स्त्रियों के धन की सुरक्षा के विशेष निर्देश-स्त्रियों को अबला समझकर कोई भी, चाहे वह बन्धु-बान्धव ही क्यों न हों, यदि स्त्रियों के धन पर कब्जा कर लें, तो उन्हें चोर सदृश दण्ड से दण्डित करने का आदेश मनु ने दिया है (९.२१२;३.५२;८.२;८.२९)|

५.    नारियों के प्रति किये अपराधों में कठोर दण्ड-स्त्रियों की सुरक्षा के दृष्टिगत नारियों की हत्या और उनका अपहरण करनेवालों के लिए मृत्युदण्ड का विधान करके तथा बलात्कारियों के लिए यातनापूर्ण दण्ड देने के बाद देश निकाला का आदेश देकर मनु ने नारियों की सुरक्षा को सुनिश्‍चित बनाने का यत्न किया है(८.३२३;९.२३२;८.३५२)| नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये हैं| पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें (४.१८०), इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है(८.२७५,३८९;९.४)|

६.    वैवाहिक स्वतन्त्रता एवं अधिकार-विवाह के विषय में मनु के आदर्श विचार हैं| मनु ने कन्याओं को योग्य पति का स्वयं वरण करने का निर्देश देकर स्वयम्वर विवाह का अधिकार एवं उसकी स्वतन्त्रता दी हैं (९०९०-९१)| विधवा को पुनर्विवाह का भी अधिकार दिया है, साथ ही सन्तानप्राप्ति के लिए नियोग की भी छूट है (९.१७६,९.५६-६३)| उन्होंने विवाह को कन्याओं के आदर-स्नेह का प्रतीक बताया है, अतःविवाह में किसी भी प्रकार के लेन-देन को अनुचित बताते हुए बल देकर उसका निषेध किया है(३.५१-५४)| स्त्रियों के सुखी-जीवन की कामना से उनका सुझाव है कि जीवनपर्यन्त अविवाहित रहना श्रेयस्कर है, किन्तु गुणहीन,दुष्ट पुरुष से विवाह नहीं करना चाहिए(९.८९)|

७.    सहभागिता तथा धर्मानुष्ठान में अपरिहार्यता-विश्‍व के सभी धर्मों में से केवल वैदिक धर्म में और सभी देशों में से भारतवर्ष में स्त्रियों को पुरुष के कार्यों में जो सहभागिता प्राप्त है वह अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती| यहां का कोई भी धार्मिक, सामाजिक या पारिवारिक आयोजन-अनुष्ठान स्त्री को साथ लिए बिना सम्पन्न नहीं होता| यही मनु की मान्यता है| इसलिए धर्मानुष्ठान के प्रबन्ध का दायित्व स्त्री को सौंपा है और उसकी सहभागिता से ही प्रत्येक अनुष्ठान करने का निर्देश दिया है(९.११,२८,९६)| वैदिक काल में स्त्रियों को वेदाध्ययन, यज्ञोपवीत, यज्ञ आदि के सभी अधिकार प्राप्त थे| वे ब्रह्मा के पद को सुशोभित करती थीं| उच्च शिक्षा प्राप्त करके मन्त्रद्रष्टी् ऋषिकाएं बनती थी | वेदों को धर्म में परम प्रमाण माननेवाले ऋषि मनु वेदानुसार स्त्रियों के सभी धार्मिक अधिकारों तथा उच्च शिक्षा के समर्थक हैं| तभी उन्होंने स्त्रियों के अनुष्ठान मन्त्रपूर्वक करने और धर्मकार्यों का अनुष्ठान स्त्रियों के अधीन घोषित किया है(२.४;३.२८)|

८.    स्त्रियों को प्राथमिकता-‘लेडीज फस्ट’ की सभ्यता के प्रशंसकों को यह पढकर और अधिक प्रसन्नता होनी चाहिए कि मनु ने सभी को यह निर्देश दिया है कि ‘स्त्रियों के लिए पहले रास्ता छोड दें| नवविवाहिताओं,कुमारियों,रोगिणी, गर्भिणी,वृध्दा आदि स्त्रियों को पहले भोजन करा के फिर पति-पत,नी को साथ भोजन करने का कथन है(२.१३८;३.११४,११६)| मनु के ये सब विधान स्त्रियों के प्रति सम्मान और स्नेह के द्योतक हैं|’

९)    स्त्रियों की अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षघर नहीं-यहां प्रसंगवश यह स्पष्ट कर देना उपयोगी रहेगा कि मनु गुणों के प्रशंसक हैं और अवगुणों के निन्दक| गुणियों को सम्मानदाता हैं, अवगुणियों को दण्डदाता| यदि उन्होंने गुणवती स्त्रियों को पर्याप्त सम्मान दिया है, तो अवगुणवती स्त्रियों की निन्दा की है और दण्ड का विधान किया है| मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं| इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है(५.१४९;९.५-६)| इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी हैं| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथमं सामाजिक आवश्यकता है-सुरक्षा की| वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य| भोगवादी आपराधिक प्रवृत्तियां उसके स्वयं के सामर्थ्य को सफल नहीं होने देती| उदाहरणों से पता चलता है कि शस्त्रधारिणी डाकू स्त्रियों तक को भी पुरुष-सुरक्षा की आवश्यकता रही है| मनु के उक्त कथन को आज की राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में देखना सही नहीं है| आज देश में एक शासन है और कानून उसका रक्षक है| फिर भी हजारों नारियां अपराधों की शिकार होकर जीवन की बर्बादी की राह पर चलने को विवश हैं| प्रतिदिन बलात्कार, नारी-हत्या जैसे जधन्य अपराधों की हजारों घटनाएं होती रहती हैं| जब राजतन्त्र में उथल-पुथल होती रहती है, कानून शिथिल पड जाते हैं, जब क्या परिणाम होगा, उस स्थितिमें मनु के वचनों के महत्त्व को आंककर देखना चाहिये| तब यह मानना पडेगा कि वे शतप्रतिशत सही हैं|

उपर्युक्त विश्‍लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री-शूद्रविरोधी नहीं हैं, वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं| मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो|

मनुस्मृति में प्रक्षेप

अब प्रश्‍न उठता है, कि ठीक है, मनुस्मृति में उत्तम विधानों के श्‍लोक हैं, किन्तु मनु-विरोधी लेखकों द्वारा प्रस्तुत श्‍लोक भी तो मनुस्मृति के ही हैं, जो सर्वथा आपत्ति योग्य हैं| इस प्रकार बडी उलझनभरी स्थिती ज्ञात होती हैं मनुस्मृति की| उसमें एक ही साथ न्यायपूर्ण श्रेष्ठ विधान भी हैं और अन्यायपूर्ण निन्द्य विधान भी! लेकिन क्या मौलिक रुप से यह स्थिति संभव मानी जा सकती है? जब एक प्रबुध्द सामान्य लेखक की रचना में भी इस प्रकार के परस्पर विरोध नहीं मिलते तो एक धर्मवेत्ता, विधिवेत्ता ऋषि के धर्म और विधिशास्त्र में ऐसे विरोध कैसे हो गये? इसका सीधा-स्पष्ट और निर्विवाद उत्तर है कि जो न्यायपूर्ण,श्रेष्ठ और गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित विधान हैं, वे मनु के मौलिक श्‍लोक हैं, जो इनके विरुध्द अन्याय और पक्षपातपूर्ण हैं, वे प्रक्षिप्त हैं अर्थात् समय-समय पर बाद के लोगों ने रचकर मनुस्मृति में मिला दिये हैं| इस उत्तर की पुष्टि मनुस्मृति पर आधारित मादडण्डों से ही हो जातीं है| मौलिक श्‍लोक पूर्वापर प्रसंगों से, विषयों से जुडे हुए हैं और गुण-कर्म-योग्यता के सिध्दान्त पर आधारित गम्भीर शैली में हैं, जबकि प्रक्षिप्त श्‍लोक प्रसंग और विषयविरुध्द तथा भिन्न शैली के हैं| इन आधारों के अनुसार अब हम कह सकते हैं कि इस लेख में उध्दृत श्‍लोक मौलिक हैं और इनकी भावना के विपरीत श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं, जिन्हें कि मनु-विरोधी लेखकों ने विरोध का आधार बनाया हैं| संक्षेप में, प्रस्तुत विषय के मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोक इस प्रकार हैं-

१.    मनु की व्यवस्था ‘वैदिक वर्णव्यवस्था’ है (डॉ.अम्बेडकर ने भी इसे स्वीकार किया हैं), अतः गुण-कर्म-योग्यता के सिध्दान्त पर आधारित जो श्‍लोक हैं, वे मौलिक हैं| इनके विरुध्द जन्मना जातिविधायक और जन्म के आधार पर पक्षपात का विधान करनेवाले श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

मनु के समय जातियॉं नहीं बनी थीं| यही कारण है कि मनु ने वर्णों में जातियों की गणना नहीं दर्शायी हैं| इस शैली और सिध्दांन्त के आधार पर वर्णसंस्कारों से सम्बन्धित श्‍लोक भी प्रक्षिप्त हैं|

२.    इस लेख में उध्दृत मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था, जो कि उनका ‘जनरल कानून’ है, मौलिक है; इसके विरुध्द पक्षपातपूर्ण कठोर दण्डव्यवस्था विधायक श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

३.    इस लेख में उध्दृत शूद्र की परिभाषा, शूद्रों के प्रति सद्भाव, शूद्रों के धर्मपालन, वर्णपरिवर्तन आदि के विधायक श्‍लोक मौलिक हैं; उनके विपरीत जन्मना शूद्रनिर्धारक, स्पृश्यापृश्य, ऊंच-नीच, अधिकारों के शोषण आदि के विधायक श्‍लोक प्रक्षिप्त हैं|

४.    इस लेख में उध्दृत नारियों के सम्मान, स्वतन्त्रता, समानता, शिक्षा विधायक श्‍लोक मौलिक हैं, इसके विपरीत प्रक्षिप्त हैं|

इन श्‍लोकों की मौलिकता और प्रक्षिप्तता को यदि पाठक, और अधिक गम्भीरता तथा विस्तार से जानना चाहें, तो वे ‘आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, ४५५-खारी बावली, दिल्ली’ से प्रकाशित मनुस्मृति (सम्पूर्ण) का अध्ययन कर सकते हैं| इसमें कृतित्व पर आधारित सर्वसामान्य मानदण्डों के आधार पर मौलिक और प्रक्षिप्त श्‍लोकों को पृथक् दर्शा कर उन पर युक्ति-प्रमाण सहित समीक्षा दी गयी है| मनुस्मृति की मौलिक विषयवस्तु की जानकारी देने, प्रक्षिप्त श्‍लोकों को कारणपूर्वक समझाने और मनुस्मृति सम्बन्धी भ्रान्तियों के निराकरण के दृष्टिकोण से यह संस्करण पर्याप्त उपयोगी सिध्द होगा| प्रक्षिप्तों पर यह नवीनतम शोधकार्य हैं|

यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्रक्षिप्त श्‍लोक अब विवाद नहीं रह गये हैं, अपितु एक निर्णय के रुप में मान्य हो गये हैं कि अधिकांश प्राचीन संस्कृत साहित्य में समय-समय पर प्रक्षेप होते रहे हैं| महाभारत के उल्लेख के अनुसार, दस हजार श्‍लोकों का काव्य बढते-बढते एक लाख श्‍लोकों का संग्रह बन गया| एक हजार वर्ष पुरानी हस्तलिखित रामायण से जो नेपाल के अभिलेखागार में सुरक्षित है, आज की रामायण में सैंकडों श्‍लोक अधिक पाये जाते हैं| यही स्थिति मनुस्मृति की है, अपितु इसमें अधिक परिवर्तन-परिवर्धन-प्रक्षेप हुए हैं| कारण, इसका मनुष्य के दैनिक आचार-व्यवहार से अधिक सम्बन्ध था, अतः स्वार्थवश उतनी ही अधिक छेडछाड की गयी| मनुस्मृति में हुए प्रक्षेपों के विषय में सभी वर्गों के विद्वान् एकमत हैं| इसकी टीकाएं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं| बाद-बाद की टीका में अधिक श्‍लोक पाये जाते हैं| मेधातिथि (९ वीं शताब्दी) की तुलना में कुल्लूकभट्ट (१२ वीं शताब्दी) की टीका में एक सौ सत्तर श्‍लोक अधिक हैं| वे तब तक धुल-मिल नहीं पाये थे, अतः बृहत् कोष्ठक में दिये गये हैं| अन्य टीकाओं में भी श्‍लोक संख्या में अन्तर हैं|

अंग्रेज शोधकर्ता वूलर, जे, जौली, कीथ, मैकडानल और इन्साइक्लोपीडिया (अमेरिका) के लेखक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मनुस्मृति में प्रक्षेप होते रहे हैं|

आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने प्रक्षेप रहित मनुस्मृति को प्रमाण माना है| उन्होंने कुछ प्रक्षिप्त श्‍लोकों को छांटा हैं और छांटने की प्रेरणा दी हैं|

महात्मा गांधी ने अपनी ‘वर्ण व्यवस्था’ नामक पुस्तक में स्वीकार किया है कि मनुस्मृति में पायी जानेवाली आपत्तिजनक बातें बाद में की गयी मिलावटें हैं| डॉ.राधाकृष्णन, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि राष्ट्रनेता एवं विद्वान भी यही मानते हैं|

अतः आवश्यकता इस बात की है कि मनु एवं मनुस्मृति को मौलिक रुप में समझा जाये और प्रक्षिप्त श्‍लोकों के आधार पर किये जाने विरोध का परित्याग किया जाये | मनु एवं मनुस्मृति गर्व करने योग्य हैं, निन्दा करने योग्य नहीं| भ्रान्तिवश हमें अपनी अमूल्य एवं महत्वपूर्ण धरोहर को निहित स्वार्थमयी राजनीति में घसीटकर उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये|