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धर्म के लक्षणों की परस्पर उत्तमता, मध्यमता और निकृष्टता का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब धर्मों की उत्तमता, मध्यमता और निकृष्टता का सापेक्ष होना इस पाँचवें प्रकरण में दिखाते हैं- इससे पूर्व धर्म शब्द का व्याकरण और कोष सम्बन्धी दोनों अर्थ दिखाया गया है। अब धर्म के अवान्तर भेद, उसका स्वरूप और उस धर्म के सहायकारी कहने चाहियें। इसके पीछे धर्मों के उत्तम, मध्यम, निकृष्ट होने में सापेक्षता कहेंगे।

इसी मानवधर्मशास्त्र में लिखा है कि ‘सम्पूर्ण वेद धर्म का मूल है’१ इस प्रमाण का आश्रय लेकर वृक्षरूप धर्म का मूल वेद है क्योंकि वेद से ही धर्मरूप वृक्ष उगता है यह विद्वानों का सिद्धान्त है। उस वृक्षरूप धर्म के तीन अवयव या भाग मुख्य हैं। सो ब्राह्मणों या उपनिषदों में ठीक-ठीक कहा है कि ‘धर्म के तीन कांड वा गुद्दे हैं- यज्ञ, अध्ययन और दान’२। वृक्ष में पहले निकलने वाली स्थूल शाखाओं को स्कन्ध (गुद्दा) कहते हैं। वैसे ही धर्म के मुख्य या स्थूल तीन अवयव हैं। अर्थात् धर्म तीन भागों में विभक्त है। यज्ञ शब्द से कर्म, उपासना और ज्ञान इन तीनों का ग्रहण होता हैं। इसीलिये धर्मशास्त्र में लिखा है कि- ‘कोई विद्वान् लोग वाणी में प्राण का और कोई प्राण में वाणी का होम करते हैं’३ अर्थात् यह अध्यात्म यज्ञ है। जो लोग प्राण की क्रिया को वाणी में अर्थात् देखने-सुनने रूप क्रिया को वाणी में समाप्त करते अर्थात् वाणी से पढ़ना-पढ़ाना, धर्म   सम्बन्धी सत्य विषयों का उपदेश करना वा स्तुति-प्रार्थना की प्रवृत्ति बढ़ाना और अन्य इन्द्रियों के कार्य को शिथिल करना जानते हैं, वे ही जानो वाणी में अर्थात् कर्मेन्द्रियों में ज्ञानेन्द्रियों को शिथिल वा लीन करते हैं। और जो प्राण में वाणी का होम करते हैं, वे ज्ञानेन्द्रियों में कर्मेन्द्रियों की वृत्ति को समाप्त करते हैं। क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों की मुख्य प्रवृत्ति करने वाला प्राण है। और वाणी में प्राण का वा प्राण में वाणी का कोई लोग होम करते हैं, इस कथन का मुख्य अभिप्राय तो यही है कि सत्यभाषण और प्राणायामादि धर्म सम्बन्धी कृत्य भी एक यज्ञ ही है। वेदादि शास्त्रों वा उनके अभिप्रायों को सत्यवक्ता विद्वान् के मुख से सुनना और उस सुनने से हुए अच्छे संस्कार वा शुभ गुणों का धारण करना अध्ययनरूप धर्म कहाता है। उन वेदादि के ही सुनने से धारण किये धर्मरूप संस्कारों को परोपकार होने के लिए देना दान कहाता है, अर्थात् शास्त्र की आज्ञानुसार अन्यों को सुख पहुंचाने के लिए विद्या वा धर्म उपदेश करना वाणी का देना है। मन से अन्यों का भला चाहना मन का दान है। और शास्त्र में लिखे अनुसार सुपात्रों का धनादि से यथायोग्य सत्कार करना शरीर से दान है। अर्थात् जिन पदार्थों से अन्य प्राणियों को सुख पहुंचे तथा वे पदार्थ अपने पास हों तो दूसरों को देना मुख्यकर दान है। प्रयोजन यह है कि जिस वस्तु को हम देना चाहते हैं वह याचक के पास भी है और उसके देने से ग्रहीता को विशेष सुख नहीं पहुंचता तो वह मुख्य दान नहीं किन्तु गौण है। इससे सिद्ध हुआ कि जिस वस्तु, गुण, कर्म वा वचन के बिना किसी को दुःख मिल रहा है और वही वस्तु आदि यदि अपने निकट है तो उस मनुष्य को उस वस्तु आदि का अंश उस दुःखी आदि को देना चाहिये यही दान परमधर्म है। और जो दया, क्षमा, जितेन्द्रियतादि अन्य धर्म के अवयव दीख पड़ते हैं, वे इसी तीन प्रकार के अवान्तर भेद हैं। जैसे दान के अन्तर्गत दया घुस जाती है। क्योंकि दया का प्रयोजन है कि दुःखी पर दया करे तो उसको दुःख हटने के लिये औषध देवे कि जिससे उसका दुःख दूर हो तो जानो वह पुरुष दयालु है। दया दान में भेद केवल यही है कि दया केवल मानस धर्म है और दान मुख्यकर वाणी और शरीर से सम्बन्ध रखता है। इसी प्रकार अन्य भी भेद इन्हीं में आ जाते हैं।

मनुस्मृति के षष्ठाध्याय में लिखा है१ कि ‘धृति- धैर्य, क्षमा- सहना, दम- इन्द्रियों की भीतरी वृत्ति को वश में रखना, अस्तेय- आज्ञा के बिना किसी की वस्तु को न लेना, शौच- मन वा शरीर को भीतर-बाहर शुद्ध रखना अर्थात् मिथ्या व्यवहार न करना। इसीलिये पञ्चमाध्याय में लिखा है कि- ‘जो लेन-देनरूप व्यवहार में शुद्ध है, जो कभी मिथ्या व्यवहार वा छल प्रपञ्चादि नहीं करता है, वही शुद्ध है और उसकी अपेक्षा मिट्टी-जल से शुद्ध हुआ वैसा शुद्ध नहीं।’२ अर्थात् इसका यह अभिप्राय नहीं है कि मिट्टी-जल से शुद्धि न करनी चाहिये वा करना अच्छा नहीं, किन्तु अभिप्राय यह है कि एक तो केवल मिट्टी-जल से शरीर को शुद्ध रखता और एक पुरुष शुद्ध सत्य व्यवहार करता, भीतर से किसी प्रकार का छल-कपट नहीं रखता, इन दोनों में व्यवहार की शुद्धि रखने वाला उसकी अपेक्षा अच्छा श्रेष्ठ है। दोनों प्रकार की शुद्धि न रखने की अपेक्षा केवल शरीर को शुद्ध रखने वाला भी उत्तम है परन्तु दोनों प्रकार की भीतर-बाहर शुद्धि रखने वाला केवल व्यवहार की शुद्धि रखने वाले की अपेक्षा अत्यन्त श्रेष्ठ है। इस प्रकार ये सब सापेक्ष हैं।

विषयों पर गिरने से इन्द्रियों को रोकना इन्द्रियनिग्रह कहाता है। धी- कर्त्तव्याकर्त्तव्य को न भूलना या विचार पूर्वक परिणाम को सोचकर कार्य का प्रारम्भ करना, विद्या पढ़ना, सत्य बोलना और क्रोध को छोड़ना ये आध्यात्मिक सामान्यकर धर्म के दश चिह्न हैं।’ ये चिह्न जिसमें हों, वह पुरुष सामान्य कर धर्मात्मा कहाता है। ये सामान्य धर्म के स्वरूप हैं। इनके साथ सामान्य विशेषण इसलिये लगाया है कि ये किसी निज ब्राह्मणादि वर्ण के धर्म नहीं किन्तु सब वर्णों वा सब आश्रमियों को सेवने योग्य हैं। यद्यपि सामान्य धर्म का सेवन किये बिना विशेष का सेवन ठीक-ठीक उपकारी नहीं हो सकता, तथापि यदि दोनों का एक साथ सेवन आ पड़े और एक ही का हो सकता हो तो वहां विशेष का सेवन करना चाहिये और सामान्य को छोड़ देना चाहिये यही विशेष धर्म में विशेषता है। और इसी आशय को लेकर कहा गया है कि- ‘विशेष प्रबल होता है।’१ इसीलिये इस श्लोक से पूर्व ९१वें श्लोक में यह धर्म चारों आश्रम वालों को सेवने योग्य लिखा है।

महाभारत के वनपर्वान्तर्गत यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में लिखा है कि- ‘यशः= अच्छे-अच्छे संसारी मनुष्यों को सुख पहुंचानेरूप धर्मसम्बन्धी कार्यों के करने से संसार में कीर्त्ति होना सत्यम्= मन, वचन, कर्म से सत्य का वर्त्ताव करना दमः= इन्द्रियों के साथ लगी मन की वृत्ति को वश में करना शौचम्= विद्या, तप आदि से भीतरी मन की और मिट्टी-जलादि से बाहरी शरीर की शुद्धि करना आर्जवम्= कोमलता का वर्त्ताव करना अर्थात् गर्व, मान, अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष या क्रोधादि का छोड़ना ह्रीः= बुरे निन्दित काम से लज्जित होना अचापलम्= चपलता का छोड़ना दानम्= सुपात्रों को विद्या, धनादि का यथायोग्य देना दया= चित्त में दूसरों के दुःख हटाने की इच्छा रखना वा अन्य के दुःख में दुःख मानना ब्रह्मचर्यम्= धर्मशास्त्रों में लिखे अनुसार ब्रह्मचर्य आश्रम के नियमों का यथावत् सेवन करना वा गृहाश्रम में भी परस्त्री के साथ व्यभिचार छोड़कर अपनी स्त्री के साथ ऋतुकालाभिगामी होना, ये सब धर्म के शरीर वा स्वरूप हैं।’२ अर्थात् इन सबका होना ही साक्षात्   धर्म का होना है। और ये लक्षण जिसमें हों वही धर्मात्मा कहाता है।

तथा महाभारत के उसी स्थल में यह भी लिखा है कि- ‘अंहिसा= सब काल में सब प्राणियों से सब प्रकार द्रोह न रखना समता= अपने तुल्य सबको समझना जैसे हम अपने लिये किसी प्रकार का दुःख वा दुःख की सामग्री नहीं चाहते वैसे जान लें कि अन्य भी कोई नहीं चाहता होगा। जैसे दुःख देने वाले को हम बुरा समझते हैं, वैसे यदि हम किसी को दुःख दें तो हमको भी वह वैसा ही समझेगा। इसका नाम समता है। इसी को आत्मौपम्यदर्शन भी कहते हैं। शान्तिः= व्याकुल न होना न घबराना तपः= भूख-प्यास, मान-अपमान आदि में हर्ष-शोक न करना शौचम्= पवित्रता रखना अमत्सरः= ईर्ष्या, मत्सरता का छोड़ना, ये सब धर्म के द्वार हैं’१ अर्थात् धर्मरूप दुर्ग में घुसना, चाहे वह इन अहिंसादि का सेवन करे। जो मनुष्य अहिंसादि की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया, वह जानो धर्म के द्वार पर पहुंच गया। परन्तु यह भी सामान्य धर्म है अर्थात् सब मनुष्यमात्र को सेवने योग्य है।

तथा महाभारत उद्योगपर्व के विदुरप्रजागर में यह लिखा है कि- ‘यज्ञ करना, वेदादि का पढ़ना और दान देना, तप- मानापमानादि का सहना, सत्य बोलना, क्षमा करना, बुराई से घृणा रखना, लाभ छोड़के सन्तोष को धारण करना यह आठ प्रकार का धर्म सम्बन्धी मार्ग है।’२ इस पर चलने वाला धर्मनिष्ठ वा     धर्मात्मा कहाता है। यह सब भी उन्हीं तीन यज्ञादि धर्मों का व्याख्यान या विस्तार है। इन पूर्वोक्त धर्म के आठ भेदों में से यज्ञ, अध्ययन, दान, तप ये चार दम्भ के लिये भी सेवन किये जाते हैं। अर्थात् अपने को धर्मात्मा प्रसिद्ध करने के लिये ढोंगलीला करने वाले लोग भी दिखाने मात्र के लिये यज्ञादि करते वा कर सकते हैं। और पिछले सत्यादि चार धर्म के लक्षण दुरात्मा वा अधर्मियों में नहीं ठहर सकते। अर्थात् पिछले चार का सेवन दम्भ से नहीं हो सकता। परन्तु धर्म का मुख्य स्वरूप तो सत्य ही है। इसी कारण शास्त्रों में सर्वोपरि सत्य की प्रशंसा लिखी है कि- ‘सत्य से परे कोई उत्तम धर्म नहीं और मिथ्या व्यवहार से परे बुरा कोई पाप नहीं।’३ तथा ‘जिसमें सत्य का लेश नहीं वह धर्म नहीं है।’४ इससे सत्य और     धर्म का समवाय सम्बन्ध समझना चाहिये कि जहां-जहां सत्य रहता है वहां-वहां धर्म वा जहां-जहां धर्म है वहां-वहां सत्य अवश्य रहता है। इससे ज्ञात होता है कि जहां-जहां छल-कपटादि का प्रवेश है वहां-वहां यज्ञादि को भी धर्म नहीं कह सकते। इसी से अपने तुल्य सबके सुख-दुःख को देखना रूप समता भी धर्म का स्वरूप है, यह सिद्ध हो जाता है। क्योंकि मेरे साथ कोई छल-कपटादि करे, ऐसा कोई नहीं चाहता तो समदर्शी होना भी सत्याचरण के अनुकूल ही बन सकता है। तात्पर्य यह है कि जैसे ‘हाथी के पांव में सबका पांव’ यह जनश्रुति- (कहावत) प्रसिद्ध है वैसे सत्य नामक धर्म के लक्षण में सब लक्षण अन्तर्गत हो जाते हैं। और कहीं आनृशंस्य को परमधर्म माना है। आनृशंस्य नाम दया वा रक्षा करने का है दोनों का तात्पर्य यह है कि दुःखी प्राणी वा मनुष्यों को दुःख से बचाना, इसकी उत्तमता भी सापेक्ष है। सब पर दया वा सबकी रक्षा करने की अपेक्षा मनुष्य की रक्षा करना वा मनुष्य जाति पर दया करना उत्तम है। पर सत्य सब धर्म के अंगों में मिला रहता है। इसी से बनावटी दया वा रक्षा को कभी धर्म नहीं कह सकते। इसलिये सत्य ही मुख्य धर्म का स्वरूप है, अन्य सब उसके सहायकारी हैं।

कहीं माता, पिता और आचार्य की सेवा को परम धर्म माना, यह भी उक्त प्रकार से सापेक्ष है और सत्य के आश्रय है। इत्यादि प्रकार से धर्म के अनेक लक्षणों की यथावसर वा यथाप्रयोजन प्रधानता दिखायी है, वह सबकी प्रधानता सापेक्ष है। निरपेक्ष वा निरतिशय (बेहद) प्रधानता केवल सत्य की है कि जिसके तुल्य धर्म के स्वरूपों में किसी की प्रधानता नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि सत्य ही धर्म का स्वरूप है। कर्म का भी धर्म नाम है यह पहले कह चुके हैं। इसी के अनुसार कह सकते हैं कि- ‘धर्म किया, धर्म करता है, धर्म करेगा, धर्म कर’ इत्यादि, इसी अंश को लेकर मन, वाणी और शरीर के भेद से धर्म वा अधर्म के तीन भेद वात्स्यायन ऋषि ने न्यायभाष्य1 में दिखाये हैं- ‘संसार में तीन दोष हैं जिनका नाम राग, द्वेष और मोह रखा है, अन्य दोष इन्हीं तीन के साथ लग जाते हैं। वैसे काम, मत्सरता, तृष्णा, स्पृहा और लोभ राग के साथी हैं। क्रोध, ईर्ष्या, निन्दा, पिशुनता (चुगली), द्रोह और अमर्ष इत्यादि द्वेष के साथी और मिथ्याज्ञान, सन्देह, अभिमान तथा प्रमाद-आलस्यादि मोह के साथी हैं। इन्हीं दोषों के वशीभूत होने से मनुष्य पाप करता है अर्थात् इन दोषों की प्रेरणा से जो कुछ चेष्टा मनुष्य करता है उसके दश भेद होने से दश नाम पड़ते हैं, जिसमें तीन प्रकार का पाप शरीर से होता है। एक तो वेद की वा धर्मशास्त्र की आज्ञा से विरुद्ध हिंसा करना (अर्थात् किन्हीं प्राणियों को किसी लोभादि के वश होकर मारना वा उनको महाकष्ट पहुंचाने का उद्योग करना। वेदादि के अनुकूल हिंसा करना वैदिकी हिंसा कहाती है, उसका करना पाप के अन्तर्गत नहीं किन्तु धर्म ही माना गया है। जैसे क्षत्रिय लोग संग्राम में एक-दूसरे को निर्भय होकर मारें वहां शत्रुओं को मारने में पाप नहीं। महा अधर्मी मनुष्य को मारने में कदापि पाप नहीं। आततायी- जो सामने शस्त्र लेकर मारने को आता हो, उसके मारने में पाप नहीं। राजा को वध योग्य के मरवा डालने में पाप नहीं। सिंह, व्याघ्र, वृश्चिकादि हिंसक जन्तुओं के मारने में पाप नहीं। इत्यादि प्रकार की हिंसा वेदानुकूल है, इसलिये इसको हिंसा नहीं कहते, किन्तु अहिंसा के तुल्य इसको भी धर्म ही मानना चाहिये)। द्वितीय चोरी- जो स्वामी की आज्ञा के बिना किसी वस्तु को ले लेना। तृतीय निषिद्ध मैथुन करना अर्थात्- माता, भगिनी, गुरुपत्नी आदि से व्यभिचार करना, ये तीन प्रकार के शारीर पाप हैं। तथा मिथ्या बोलना, हृदय में छेद करने वाला कठोर वचन बोलना। सूचना- किसी की किसी से बुराई करना, तथा असम्बद्ध व्यर्थ बहुत बोलना ये चार प्रकार के वाचिक- वाणी से होने वाले पाप हैं। दूसरों को मारने वा दुःख देने की इच्छा रखना, दूसरों के द्रव्य को ले लेने की इच्छा रखना, तथा नास्तिकता कि- जन्मान्तर वा परलोक में जो बुरे कर्र्मों का बुरा ह्ल ल शास्त्रों में लिखा है वा पण्डितों द्वारा सुना जाता है सो ठीक नहीं, यहां निरन्तर आनन्द भोगना चाहिये, परलोक किसने देखा है, आजतक लौटकर किसी ने सन्देश नहीं दिया कि वहां ऐसा नरक भोग मैंने किया, केवल भय दिखानामात्र है इत्यादि प्रकार की इच्छा वा विचार रखना नास्तिकता कहाती है। ये तीन प्रकार के मानस- मन सम्बन्धी महापाप हैं। सो यह सब पापरूप दश प्रकार का कर्म अधर्म बढ़ाने वाला है।

और पूर्वजन्म वा इस जन्मसम्बन्धी अच्छे पुण्य कर्मों से हृदय के बीच जो शुभ संस्कार संचित होते हैं, वही संचित पुण्य है। उसकी प्रेरणा से जो मनुष्य क्रिया करता है, वही दश प्रकार का पुण्य वा धर्म कहाता है, जैसे द्रव्य-धनादि का हाथ से दान देना, शरणागत वा धर्मात्मा मनुष्यों वा उपकारी गौ आदि प्राणियों की सब प्रकार रक्षा करना और माता-पिता वा गुरु आदि की सेवा-शुश्रूषा यथावत् करना, यह तीन प्रकार का शरीर से होने वाला पुण्य वा धर्म है। सत्य बोलना, सबका वा अधिक का हितकारी वचन बोलना, प्रिय बोलना और वेदादिशास्त्र पढ़ना यह चार प्रकार का वाचिक- वाणी से होने वाला पुण्य वा धर्म है। सब पर दया करना, किसी से कुछ लेने की इच्छा न रखना, किन्तु मन में सन्तोष रखना और धर्म सम्बन्धी कामों में तथा परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थनादि शुभ कर्म में श्रद्धा रखना यह तीन प्रकार का मानस धर्म है।

ये ही तीन प्रकार के अधर्म दश भेदों सहित मनुस्मृति के बारहवें अध्याय में लिखे हैं। वहां धर्म के दश भेद यद्यपि नहीं हैं, तो भी एक के कहने से द्वितीय उसका प्रतियोगी उसी में से निकल आता है। जैसे हिंसा कहा तो अहिंसा शारीरिक पुण्य होगा। अहिंसा और परित्राण दोनों का एक ही आशय है अर्थात् अहिंसा में हिंसा का निषेध मात्र कर देने से तात्पर्य नहीं किन्तु उसके प्रतियोगी का ग्रहण अर्थापत्ति से समझना चाहिये। इसी प्रकार परद्रोह रखना मानस पाप और उसके बदले में दया रखना मानस पुण्य तथा झूठ बोलना वाचिक पाप और सत्य बोलना वाणी सम्बन्धी पुण्य है। इस प्रकार एक के कहने से दूसरे अर्थापत्ति से आ सकते हैं। इसलिये मनुस्मृति में दोनों भिन्न-भिन्न नहीं गिनाये।

जितने धर्म और अधर्म के भीतरी भेद हैं, वे सब मुख्य कर दश प्रकार के ही हैं, अन्य भेद इन्हीं में आ जाते हैं। जैसे किसी की निन्दा वा मत्सरतादि का परद्रोह के बीच मेल है अथवा जैसे कृतज्ञतादि का दयादि में मेल हो जाता है। धर्म के सहकारी साधनों का प्रायः इस मानवधर्ममीमांसा भाष्य में व्याख्यान किया जाएगा। जैसे रसोई बनाने के साधन जोड़ने वाले को भी रसोई बनाता कहते हैं, वैसे धर्म के सहकारी साधनों का व्याख्यान होने से भी इसको धर्मशास्त्र ही कहेंगे।

धर्म के मुख्यकर दो ही भेद हैं। एक सामान्य, दूसरा विशेष। अपनी-अपनी कक्षा में दोनों की प्रधानता वा प्रबलता है। सामान्यधर्म वह है जिसका सब मनुष्य मात्र को सेवन करना वा स्वीकार करना योग्य है। इसमें किसी के लिये किसी प्रकार का भेदभाव नहीं। इस पर लिखा भी है कि- ‘अहिंसा, सत्य, चोरी का त्याग, शुद्धि रखना और इन्द्रियों को वश में करना यह संक्षेप से सब वर्णों का सामान्य धर्म है, यह बात मनु जी ने विशेषकर कही है।’१ इत्यादि प्रकार से अनेक स्थलों में व्याख्यान किया गया सामान्यधर्म सबको सेवने योग्य है। और जिनके लिये विशेष धर्म भिन्न-भिन्न कहा गया है, उनको भी कारण रूप सामान्य धर्म सेवने योग्य है। अर्थात् हिंसक वा मिथ्यावादी पुरुष पढ़ने-पढ़ाने और जप-तप आदि   धर्म सम्बन्धी कर्मों का सेवन नहीं कर सकता। कदाचित् दम्भ बढ़ाने को करेगा तो उसकी पोल अवश्य खुल जायेगी। तथा करने पर उसकी सह्ल लता होना दुस्तर है। इसीलिये कारणरूप सामान्यधर्म की मनु जी ने भी प्रधानता दिखायी है कि२- ‘अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन सामान्य कर्त्तव्यरूप यमों का सेवन निरन्तर करे, किन्तु केवल शौचादि नियमों का सेवन न करे, क्योंकि केवल नियमों का सेवन करने से और यमों का सेवन न करने से मनुष्य पतित हो जाता है।’ इससे सिद्ध हुआ कि अहिंसादि यमों का सेवन करता हुआ शौचादि नियमों का सेवन करे इसी में कल्याण है।

विशेषधर्म- किन्हीं निज मनुष्यों को जो कर्त्तव्य हो और जिसके करने योग्य सब न हों वह विशेष धर्म है।

इस पर कोई शटा करे कि धर्म तो सबका एक ही होना चाहिये। धर्म का भेद पड़ने से ही मनुष्यों में ह्लू ट पड़ती है, इसलिये ईश्वर के उपदेश किये धर्म में भेद न होना चाहिये जैसे कि पृथिवी-जलादि में उसने भेद नहीं रखा, सबके चलने- फिरने को एक ही पृथिवी, एक ही वायु-आकाशादि हैं। वैसे ईश्वरोपदिष्ट धर्म भी सबके लिये एकसा होना चाहिये।

इसका उत्तर यह है कि पृथिवी, जल, वायु आदि में भी भेद है। सबके लिये एकसी पृथिवी वा वायु आदि नहीं है। देखो- भंगी पुरीषालय-(पाखाने) के निकट घृणित दुर्गन्धयुक्त पृथिवी में रहता है, जहां होकर श्रीमानों का निकल जाना दुस्तर है। ऐश्वर्यवान् लोग अनेक प्रकार चित्र-विचित्रता से रमणीय स्वर्ग भूमि में रहते हैं, जहां नीचों का पहुंचना असम्भव है। किन्हीं के समीप पुष्पादि का सुगन्धित वायु चल रहा है तथा कहीं ग्रीष्म ऋतु शीतल मन्द सुगन्ध पवन बह रहा है। कहीं दुर्गन्ध युक्त उष्ण लपट चलता है जिससे शरीर जला जाता है। क्या यह पृथिवी, वायु आदि का भेद नहीं है ? और यह भेद अपने-अपने कर्मानुसार ही होता है। कर्म के भेद से ही अधिकारियों का भेद मानना चाहिये। जैसे पुरीषालय के शोधक चाण्डालादि राजा के तुल्य सुख के अधिकारी वा प्रतिष्ठा के अधिकारी नहीं हो सकते। वैसे ही सब मनुष्य सब प्रकार के धर्म का सेवन करने योग्य नहीं हो सकते। सबको सब काम कर सकने की योग्यता हो जावे, ऐसा कभी न हुआ और न होगा। यही कारण अधिकारी और अधिकारों में भेद होने का है। इसी मूल पर वर्र्र्र्णव्यवस्था ठहरती वा माननी पड़ती है और सबको माननी भी चाहिए। संसार में कोई ऐसा समुदाय नहीं जो वर्णव्यवस्था को न मानता हो। हां, केवल मानने में अवान्तर भेद अवश्य हो जाते हैं। यदि कोई कहे कि हम वर्णाश्रम भेद को नहीं मानते तो हम यही उत्तर देंगे कि जैसे सूर्य के प्रकाश बिना कोई मनुष्य नेत्र से कुछ नहीं देख सकता तो भी कोई न माने कि मुझे सूर्य के प्रकाश की कुछ आवश्यकता नहीं, मैं अपने नेत्रों से देखता हूँ। ह्लि र ऐसे हठी मनुष्य से क्या कहा जावे। और उसको कोई पूछे कि यदि तुम नेत्र से ही देखते हो तो अन्धेरी रात में भी बिना दीपकादि के नेत्र से क्यों नहीं देख लेते ? उस समय भी तुम्हारे नेत्र तो बने ही हैं, केवल सहायकारी सूर्यादि का प्रकाश नहीं है, तो क्या उत्तर देगा ? अर्थात् कुछ भी नहीं। इसलिये धर्म में भेद अवश्य मानना चाहिए। और सामान्य धर्म सब मनुष्यों का एक है यही सबमें साधर्म्य है। धर्म के भेद से मनुष्यों में फूट नहीं पड़ती और जिससे फूट पड़ती है, उस पौराणिक मतवाद का नाम धर्म नहीं। यहां शास्त्रीय व्यवस्थानुसार अन्तःकरण से धारण करने योग्य दृढ विचार का नाम धर्म है। सो सबका विचार एकसा नहीं हो सकता। यह धर्मभेद को न मानना एक नास्तिक मत है कि जिनका सिद्धान्त वर्णाश्रम धर्म भेद के न रखने पर है। इसलिये यहां थोड़ा सा लिख दिया है। इसका विशेष विचार वर्णव्यवस्था प्रकरण में किया जायेगा। यहां केवल आशय यही था कि विशेष धर्म ब्राह्मणादि वर्णों का भिन्न-भिन्न है, इसी से उसको विशेष कहते हैं। एक स्थल से विशेषता को हटाया जावे और वह हटाना ठीक हो तो अन्यत्र भी विशेषता के न ठहर सकने से विशेष की अपेक्षा रखने वाला सामान्य भी बिगड़ जायेगा। इसीलिये विशेष धर्म भी मानना चाहिये।

सामान्य और विशेष का भेद अधिकार के भेद से होता है। जैसे सब मनुष्य राजा वा अधिकारी नहीं हो सकते। इससे मेरा यह प्रयोजन नहीं है कि उत्तम   अधिकार मिलने का सब किसी को उपाय ही न करना चाहिये। किन्तु यही मुख्य कर्त्तव्य है कि सब लोग पूर्ण प्रयत्न करें, कर्मानुकूल ही वर्त्तमान अधिकारियों को भी जब अधिकार मिला है तो हमको भी कर्म से अधिकार मिल सकता है। इसलिये उपाय सबको अवश्य करना चाहिए। मनुष्य जैसे शुभ-अशुभ कर्म करता है, वैसी ही वासना और वैसे ही उसके हृदय में संस्कार उत्पन्न होते हैं। वे संस्कार देश-काल और वस्तुओं के भेद से भिन्न-भिन्न हैं। इसी कारण बुद्धि की विचित्रता होने से अधिकारियों का भेद होता है। जैसे यदि युद्ध हो तो क्षत्रियपन की परीक्षा हो सकती है। यदि संग्राम से विमुख हो जावे तो क्षत्रिय समुदाय में गिना जाने पर भी वह क्षत्रिय नहीं, यही मानना पड़ेगा। किन्तु जो निर्भय होकर सम्मुख युद्ध करता-करता शरीर छोड़ दे वा शत्रुओं को जीत ले, वही क्षत्रिय है। यद्यपि क्षत्रिय के अन्य भी विशेष धर्म हैं, तो भी उन सबमें यह और भी अधिक विशेष है। जो दुःख से बचाये अर्थात् प्रबल प्राणियों से निर्बल वा दीनों को दुःख न पहुंचने देवे, वही क्षत्रिय है यह क्षत्रियशब्द के अर्थ से उसका धर्म वा तत्त्व प्रतीत होता है। इस अर्थ से भी यही ज्ञात होता है कि जो युद्ध में मरणभय से न डरे वही क्षत्रिय है, क्योंकि जो आप मारे जाने से डरेगा वह अन्य प्रजा की रक्षा क्या कर सकता है? जो स्वयं डर गया वह अन्य को भय से क्योंकर बचा सकता है ? इसलिये दोनों प्रकार बलवानों से बचाना ही क्षत्रियों का क्षत्रियपन है। यह ब्राह्मणादि वर्णों का   धर्म जन्म से वा कर्म से जिस प्रकार मान सकते हैं, सो ब्राह्मणादि वर्णविचार प्रकरण में कहेंगे।

इस प्रकरण में धर्मों की सापेक्षता का मुख्य विचार करना चाहिये ऐसा प्रस्ताव हो चुका है। किसी लक्षण की अपेक्षा से ही अन्य किसी की उत्तमता वा नीचता हो सकती है। यह ऊंच-नीच का व्यवहार सब वस्तुओं में सापेक्ष होता ही है। जैसे कहा जावे कि देवदत्त उत्तम पण्डित और यज्ञदत्त नीचबुद्धि है। यहां दोनों की ऊंचता वा नीचता सापेक्ष है, क्योंकि देवदत्त से उत्तम और यज्ञदत्त से नीच कोई मनुष्य पृथिवी पर न हो ऐसा हो नहीं सकता वा कह नहीं सकते। और जैसे कौड़ी की अपेक्षा पैसा और पैसा की अपेक्षा चांदी के रुपये, उसकी अपेक्षा सुवर्ण की मुद्रा- मोहर (अशरह्ल ी) की प्रशंसा है, इत्यादि प्रकार से ही सब धन वाचकों में नीचता भी किसी की अपेक्षा से ही होती है। वैसे ही प्रकृत धर्म के लक्षणों के प्रस्तार में भी जहां-जहां किसी की ऊंचता वा नीचता कही जाती है वहां-वहां सापेक्ष ही जानना चाहिये। जैसे माता, पिता और गुरु की सेवा करना वा उनकी आज्ञा का पालन परमधर्म कहा है। पर उसकी प्रशंसा सत्याचरण की अपेक्षा नहीं, किन्तु अन्य सम्बन्धी वा विद्वान् लोगों की सेवा करने की अपेक्षा से प्रशंसा है। सबकी अपेक्षा लेकर योनि-सम्बन्ध में माता-पिता की और विद्यासम्बन्ध में गुरु की आज्ञा का पालन और उनके साथ प्रियाचरण करना ही श्रेष्ठ है। इसीलिये सबके साथ यथायोग्य बर्तना सामान्य धर्म है। माता आदि की सेवा उसकी अपेक्षा विशेष है। तथा सब शास्त्रों का पढ़ना सामान्य से धर्म है उसकी अपेक्षा वेद का पढ़ना विशेष प्रशस्त धर्म कहाता है। किसी को कहीं किसी की अपेक्षा से नीचता कही गयी। उनमें किसी प्रकार अपने-अपने प्रसग् में दोनों का धर्म होना सम्भव हो तो भी जिसकी निकृष्टता वा अकर्त्तव्य होना कहते हैं। जिसका करना उस समय भी किसी की अपेक्षा से हानिकारक है, उसको अधर्म होना कहते हैं और उसको न करने के लिये भयानक वाक्य भी कहे जाते हैं। और जिसके विशेष प्रबल ह्ल ल देने वाले होने से उसका होना कर्त्तव्य इष्ट है। उसका धर्म होना कहा जाता है, उसमें अर्थवादरूप रोचक वचन भी कहे जाते हैं। जिससे उस कृत्य में यह पुरुष प्रवृत्त हो जावे। इस प्रकार रोचक भयानक वचन भी धर्मशास्त्रों में वर्त्तमान हैं, और वे सब सार्थक हैं।

इस पूर्वोक्त कथनानुसार धर्मों की सापेक्ष उत्तमता, मध्यमता वा निकृष्टता को जानकर जिस समय जिसका करना कल्याणकारी हो वा जिसकी अपेक्षा से जिसका करना अधिक सुख-मग्लकारी हो, उस काम को प्रयत्न के साथ करना ही चाहिये। जैसे सब मान्य पुरुषों की सेवा-शुश्रूषा यथायोग्य ठीक-ठीक किसी कारण न हो सके, तो माता, पिता और गुरु की सेवा तो अवश्य करनी चाहिये। यदि सबकी कर सके तो मातादि की विशेष प्रयत्न के साथ वा प्रथम करनी चाहिये। अर्थात् मातादि की सेवा की अपेक्षा अन्य की सेवा दुःखदायी है। माता, पिता वा गुरु की सेवा को छोड़के अन्य की सेवा करने वाला धर्मात्मा नहीं कहावेगा।

धर्म शब्द के अर्थ का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब सामान्य धर्म शब्द पर कुछ विचार करना आवश्यक इसलिये समझा गया कि हमको धर्मशास्त्र की मीमांसा करना है तो प्रथम जान लेना चाहिए कि धर्म किस वस्तु का नाम है ? वस्तु शब्द से यहाँ वाच्यमात्र का विचार है किन्तु द्रव्य का पर्यायवाचक वस्तु शब्द नहीं लेना है। प्रयोजन यह है कि धर्मशब्द का शाब्दिक वा लाक्षणिक अर्थ क्या है ? अर्थात् व्याकरण के नियमानुसार मनुष्य जिसको     धारण करें, वह धर्म है। ऐसा होने पर वेदादि शास्त्रों में जिसका निषेध किया गया, ऐसे चोरी आदि दुष्कर्म को भी कोई धारण करता वा कर सकता है तो क्या उसको भी धर्म कहना ठीक हो सकता है ? ऐसा विरुद्ध निश्चय वा सन्देह हो सकने से इसका यह समाधान कहा जाता है- धृञ् धारणे1 इस धातु से कर्म कारक वा भाव में उणादि मन् प्रत्यय2 हुआ है। सामान्य वा विशेष मनुष्य अथवा चराचर सब वस्तुमात्र जिसको धारण करते, जिसके आधार होते अथवा मनुष्य वा प्राणी-अप्राणियों से जो धारण किया जाता अर्थात् उनको धारण करने पड़ता है, वह धर्म कहाता है। यह धर्म का शाब्दिक अर्थ है। कदाचित् किसी प्रकार अन्य कारकों में भी मन् प्रत्यय हो सके, परन्तु प्रधानता से भाव और कर्म का ही अर्थ मिल सकता है। भाव अर्थ में प्रत्यय करने से धृति- धैर्य, क्षमा आदि धारणरूप हैं। इस कारण इनका भी नाम धर्म हो सकेगा।

और कर्म का अर्थ आगे स्वयमेव लिखा गया है। सब शास्त्रों में जातिशब्द, गुणशब्द और क्रियाशब्द ये तीन ही प्रकार के शब्द माने गये हैं। नैयायिक लोग इन्हीं को द्रव्य, गुण, कर्म शब्दों से व्यवहार में लाते हैं। इसमें धर्मशब्द द्रव्य, गुण और कर्म तीनों का नाम जिस किसी प्रकार व्यवहार में आया दीख पड़ता है। परन्तु प्रधानता से धर्मशब्द गुण और कर्म का वाचक है, अधिक कर इसी दो प्रकार का व्यवहार आता है। इसी कारण व्याकरण अष्टाध्यायी के अर्द्धर्चादिगण3 में     धर्मशब्द का पाठ करने से विद्वान् लोग पुंस्, नपुंसक दोनों लिग् होना मानते हैं। और जहाँ कर्म का वाचक धर्मशब्द है, वहीं प्रायः इसका नपुंसकपन प्रतीत होता है। जैसे यजुर्वेद के ३१वें अध्याय में ‘यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्॰’ यहाँ धर्मशब्द कर्म का पर्याय वाचक है। नपुंसकलिग् में धर्मशब्द का प्रयोग बहुत न्यून आता है, किन्तु प्रायः पुल्ँिलग् में ही लोक-वेद में प्रयोग किया वा लिखा जाता है, वह गुणवाचक वा स्वभाववाचक धर्मशब्द है। सब प्रकार का धर्मशब्द सुखहेतु गुण, कर्म वा द्रव्य का वाचक अभीष्ट है, किन्तु दुःखहेतु गुणादि का वाचक नहीं। जहाँ दुःख का हेतु धर्मशब्द आता है, वहाँ उसमें नञ् अव्यय संयुक्त करके अधर्म कहते हैं। वहाँ सुख से विरुद्ध दुःख का हेतु गुण, स्वभाव, द्रव्य वा कर्म अधर्मशब्द का वाच्यार्थ यथासम्भव जानना चाहिये। और जहाँ पर्युदासार्थ वाचक नञ् अव्यय होता है, वहाँ धर्म से भिन्न धर्म के तुल्य वस्तु का वाचक अधर्मशब्द जानना चाहिये। उसी को विचारशील लोग धर्माभास भी कहते हैं कि जो ऊपर से धर्म के तुल्य प्रतीत हो, परन्तु वास्तव में धर्म न हो।

संसार में मनुष्य से लेकर चींटी पर्यन्त सब प्राणी सुख की ही इच्छा रखते हैं। कोई कदापि दुःख को नहीं चाहता। इसी कारण शास्त्र की आज्ञा से विरुद्ध दुष्ट कर्म का धारण कोई नहीं करता, क्योंकि स्वभाव से ही इसका विरोध है। इसलिये धर्म वही है जिसका धारण, स्वीकार वा स्वभाव से मिलाप हो जावे। जैसे प्रकृति के अनुकूल सुख देने वाले वस्तु का भोजन किया जाय तो वह उदर में जाकर ठहरता वा धारण किया जाता और वहां के धातु उस आहार को अपने तुल्य बनाने का यत्न करते हैं, अर्थात् ठहराते हैं। जैसे मित्र को मित्र प्राप्त होकर प्रसन्नता का कारण होता है, वैसे ही अपने प्रिय सुखप्रद को पाकर धर्मात्मा सुखी वा आनन्दित होता है। यही धारण का लक्षण है। और जैसे भोजनादि के साथ वा अकस्मात् प्रमादादि से पेट में मक्खी आदि विरुद्ध वस्तु चला जाये तो नहीं धारण होता- नहीं ठहरता वा पचता किन्तु वमन का कारण हो जाता है, क्योंकि पक्वाशय उसका   धारण नहीं करता। यदि उसका धारण हो और वमनादिक न हो वा चित्त न बिगड़े, ग्लानि न हो अर्थात् कदाचिद् विरुद्ध खाया मक्खी आदि वमन का हेतु न हो और किसी प्रकार पच भी जावे, तो दुःख के हेतु रोगादि विकारों को अवश्य उत्पन्न करता है। कदाचित् अज्ञान से खाया मक्खी आदि किसी विशेष रोग का कारण न हो तो भी ग्लानि अवश्य उत्पन्न होती है। प्रयोजन यह है कि अनुकूल हितकारी भोजन के तुल्य मक्खी आदि पेट में कदापि न ठहरेगा। तथा जैसे मनुष्य अपने अनुकूल भार को अपनी इच्छा से उठाता है, वह उसको छोड़ता नहीं भले ही उसमें क्लेश हो और जिस भार का उठाना भार नहीं जान पड़ता वही धारण करना है और जहां भार वा दुःख जान पड़े और किसी की लज्जा, शटा, भय वा लोभादि के कारण उठाना पड़े, वह धारण न होने से धर्म नहीं किन्तु अधर्म है। और अन्तरात्मा सदा सत्य को धारण करता है, किन्तु बनावटी मिथ्या को वाणी द्वारा कहते हुए संकुचित होता वा लज्जा, शटा करता है, इस कारण जहां ऐसा होता है, वह     धर्म नहीं और सत्य ही धर्म है। इसी प्रकार निषिद्ध चोरी, व्याभिचारादि दुष्ट कर्म को कोई पुरुष धारण नहीं करता, किन्तु सुख के हेतु अनुकूल को प्रसन्नता से     धारण करता है। निषिद्ध कर्म का सेवन काम, क्रोधाादि के वशीभूत होकर किया जाता है, किन्तु विरुद्ध दुष्ट कर्म बुद्धि से कोई नहीं सेवता अर्थात् चोरी आदि पाप का करने वाला भी उसको पुण्य नहीं मान सकता। चोर निर्भय होकर चोरी आदि कदापि नहीं करता। यदि चोर किसी प्रकार परोपकार में लगे धर्मात्मा के तुल्य चोरी करने में लज्जा-शटा-भयों को छोड़कर प्रवृत्त हो तो विरुद्ध कर्म का भी धारण हो सकने से धर्म कहना प्राप्त हो, सो तो कदापि सम्भव नहीं। तिस से धर्म है धारण किया वा कराया जाता है और जो धारण किया जाता है वही धर्म है इससे व्याकरणानुकूल अर्थ करना ही ठीक है।

इससे यह सिद्ध हुआ कि अनुकूल हितकारी का ही धारण होता है किन्तु प्रतिकूल का नहीं। इस कारण हितकारी गुण-कर्मों को ही धर्म कहना वा मानना सिद्धान्त है। क्योंकि अपने-अपने हितकारी को ही सब लोग स्वीकार करते हैं, किन्तु अपने विरोधी दुःखदायी को कोई नहीं चाहता। और स्वभाव का नाम भी   धर्म है। सो अपनी-अपनी सत्ता को सब चराचर वस्तु धारण करते ही हैं। इस सत्ता को ही भाव भी बोलते हैं कि जिस भाव अर्थ के बोधक व्याकरण में त्व-तल् प्रत्यय१ नियत किये जाते हैं। जैसे ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व वा मनुष्यत्व, पशुत्व, पक्षित्व, एकता इत्यादि शब्दों में ब्राह्मणादि के मुख्य धर्म में त्व आदि प्रत्यय हुआ है। इस अंश में महाभाष्यकार पतञ्जलि ऋषि ने लिखा है कि- ‘यस्य गुणस्य भावाद् द्रव्ये शब्दनिवेशस्तदभिधाने, तस्मिन् गुणे वक्तव्ये प्रत्ययेन भवितव्यम्।’2 अर्थात् ब्राह्मणपदवाच्य व्यक्ति वा जाति में जिस प्रधान गुण की विद्यमानता होने से ब्राह्मणादि पद का प्रयोग वा व्यवहार किया जाता है, उस गुण वा शक्ति का नाम धर्म समझना चाहिये। जिन-जिन शास्त्रों में अर्थात् छह दर्शनों में धर्म-धर्मी के प्रसग् का वर्णन आता है, उन-उन में शक्ति-शक्तिमान् वा गुण-गुणी का व्याख्यान समझा जाता है। और योगशास्त्र के विभूति पाद में भी लिखा है कि- शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी।।14।। भाष्यम्- योग्यतावच्छिन्ना धर्मिणः शक्तिरेव धर्मः।। इत्यादि।। इस योगसूत्र का अभिप्राय यह है कि भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान धर्म वा गुणों के साथ रहने वाला धर्मी वा शक्तिमान् वा गुणी कहाता है। धर्म तीन प्रकार के कालभेद से माने जाते हैं। जो अपनी तरुणावस्था को व्यतीत कर शान्त, तिरोभूत, अप्रकट वा नष्ट हो गया वह भूतधर्म शान्त कहाता है। तथा विरोधी के तिरोहित (दब) जाने वा नष्ट हो जाने से और अपने उत्तेजक हेतुओं से उत्तेजित हुआ धर्म वा गुण वर्त्तमान उदित धर्म कहाता है। तथा भविष्य काल में प्रकट होने वाला गुण अव्यपदेश्य है क्योंकि उसका अनुभव किये बिना वर्णन नहीं किया जा सकता कि इस वर्त्तमान अवस्था के लौटने पर ऐसा होगा। इसीलिये उसका नाम अव्यपदेश्य माना गया है। प्रत्येक वस्तु में इसी तीन प्रकार की दशा के साथ गुण वा धर्म ठहरता है। अपनी योग्यता के साथ अन्य गुण वा धर्मों से पृथक् हुई धर्मी पदार्थ की शक्ति का ही नाम धर्म है, यह व्यासभाष्य का तात्पर्य है। सब वस्तु में सब प्रकार की योग्यता नहीं रहती, इसलिये योग्यता ही सब     धर्म वा शक्तियों की अवच्छेदक- भेदक मानी जाती है। और जिसका जिसके साथ मेल होना वा करना उपयोगी है, उसके साथ उसकी योग्यता समझी जाती है यही योग्यता शब्द का अर्थ है। ऊपर लिखे महाभाष्य और योगसूत्र का एक ही आशय धर्मशब्द पर है, जैसा कि पूर्व से लिखा गया।

पूर्व जो तीन काल के भेद से गुण, धर्म वा शक्ति के तीन भेद कहे गये हैं, उनको लौकिक वा शास्त्रसम्बधी व्यवहार में फैलाकर देखा जाय तो ठीक-ठीक ऐसा ही प्रतीत होता है, जैसे जो पहले से मित्र रहा वह शत्रु और जिसके साथ कुछ सम्बन्ध नहीं रहा वह पुरुष वा स्त्री मित्र बन जाती है। यह धर्मों का परिणाम सदा होता रहता है। अर्थात् सब पदार्थ, सब देश, काल और अवस्थाओं में सबके सर्वथा अनुकूल वा सर्वथा प्रतिकूल नहीं रहते किन्तु जो किसी देश, काल वा वस्तु, अवस्था के सम्बन्ध से अनुकूल हो गया, वही देशादि के लौट-फेर से प्रतिकूल हो जाता है। इसी प्रकार प्रतिकूल हुआ वस्तु कभी अनुकूल भी हो जाता है, यह सब धर्मों का परिणाम है। अभिप्राय यह है कि जिसका परिणाम लौट-पौट होता रहता है, उस गुण का नाम धर्म है। इस पर एक शटा यह रह सकती है कि यदि लौटता रहता है तो उसका नाम स्वभाव क्यों रखा गया, अर्थात् स्वभाव उसी को मानते हैं जिसमें भेद न पड़े। और सनातन धर्म क्या माना जावेगा कि जब धर्मों का सदा परिणाम होता रहता है तो सनातन धर्म कोई क्यों ठहर सकता है ? यद्यपि ये दोनों प्रश्न ऐसे हैं जिन पर कितना ही लिखा जाय पार मिलना दुस्तर है तथापि अतिसूक्ष्मता से इनका समाधान लिखा जाता है-

स्वभाव शब्द का अर्थ यह है कि अपना भाव अर्थात् अपना कारण। अपने कारण से जो गुण कार्य में यथार्थ रूप से चला आता है उसको स्वाभाविक कहते हैं। जैसे दूध का श्वेत गुण दही, मट्ठा आदि सब में यथावत् बना रहता है वा जैसे कपास की श्वेतता रूई, सूत, वस्त्र आदि सब उत्तर-उत्तर कार्य में चली आती है। तो यहां श्वेतता गुण स्वाभाविक माना जाता है, परन्तु दूध, दही, मठा आदि में कोई काला वा अन्य ऐसा रंग डाल सकते हैं कि जिससे उसकी श्वेतता मिट जाय वा जैसे कपड़े को नील आदि से रंग देना, इससे स्वाभाविक को भी कोई लोग अनित्य मानते हैं, परन्तु यह पक्ष इसलिये ठीक नहीं कि वह स्वाभाविक रंग नष्ट नहीं होता किन्तु तिरोभूत (दब) हो जाता है। इसका दृष्टान्त धोबी है कि यदि शिल्पक्रिया प्रवीण धोबी हो तो बनावटी- ऊपर से चढाये पक्के रंग को भी छुड़ा कर ह्लि र उसी श्वेत स्वाभाविक गुण को निकाल देता है। इससे अनुमान होता है कि स्वाभाविक गुण नष्ट नहीं होता, किन्तु तिरोहित (दब) हो जाता है और धोबी के दृष्टान्त को धर्मसम्बन्ध में भी ठीक लगा सकते हैं कि यदि अच्छा धर्मात्मा उपदेशक गुरु मिल जावे जो सब प्रकार से शुद्ध और प्रवीण हो वह काम-   क्रोधादि से लगे दुर्गुणों को छुड़ाकर चेतन आत्मा के स्वाभाविक शुद्ध भावों को प्रकाशित कर देता है। और कदाचित् शिल्पकुशल धोबी न मिले कि जो वस्त्र पर हुए नीलादि रंग को छुड़ा सके तो भी स्वाभाविक को अनित्य न मानना चाहिए। क्योंकि सूर्य का तेज वा प्रकाश स्वाभाविक है, उसके आवरक अन्तरिक्षस्थ मेघ वा धूलि को हम नहीं हटा सकते, तो भी वह अनित्य नहीं। इसी प्रकार यहां भी जानो कि मनुष्यादि में कारण के सम्बन्ध से जो गुण आता है, वही स्वाभाविक है, और उसके कभी तिरोभूत हो जाने वा अन्तर्धान हो जाने वा किसी अज्ञानी के अनित्य मान लेने पर भी वह अनित्य नहीं होता। पर नित्य-अनित्य का विचार लोक में सापेक्ष चलता है। किसी की अपेक्षा कोई नित्य माना जाता है, जिसके स्वरूप में कभी भेद न पड़े किन्तु अनादि, अनन्त काल तक एकरस रहे, ऐसा तो एक परमेश्वर है। और नित्य सन्ध्या वा अग्निहोत्र करता है, ऐसा कहना सापेक्ष अर्थात् जो एक-दो दिन करके छोड़ दे, उसकी अपेक्षा यहां नित्य शब्द का प्रयोग है। किन्तु यह तो सभी जानते हैं कि अति बाल्यावस्था में काई भी सन्ध्याग्निहोत्रादि नहीं करता उत्पत्ति से पहले भी नहीं करता था मरने के पश्चात् भी न करेगा। बीच-बीच में भी कभी-कभी छोड़ने पड़ता है, तो वैसा नित्य अर्थ नहीं तो भी नित्य माना वा कहा जाता है। इसी प्रकार सापेक्ष नित्य वस्तुओं में एक साथ अनित्यता-नित्यता दोनों रहती हैं। परन्तु ठीक नित्य मानने में प्रवाह से किन्हीं को नित्य ठहरा सकते हैं। इसलिये स्वभाव का लौट जाना- तिरोभूत हो जाना मात्र है। और जिसका वस्तुतः लौट जाना होता है, वह स्वभाव नहीं है। किन्तु संयोगी गुण है।

अब रहा सनातन धर्म, सो उसमें भी यही विचार है। उसके तिरोहित हो जाने वा अन्य विरोधी के प्रबल हो जाने से उसका सनातनपन नहीं बिगड़ता। वह सदा कर्त्तव्य उपयोगी ह्ल ल दाता है, इसलिये सनातन कहाता है। यद्यपि अपवाद विषय में उत्सर्ग का प्रवेश नहीं होता१, तो भी वह बहुव्यापी होने से उत्सर्ग वा सामान्य ही कहाता है। जैसे भारतवर्ष का एक राजा हो वह दस-पांच ग्राम का सब     अधिकार किसी को दे देवे, तो भारतवर्ष का राजा कहाना उसका बिगड़ नहीं सकता। इसी प्रकार आपत्काल में सनातन धर्म के किसी अंश का पूरा उपयोग न रहे तो उसका सनातन होना खण्डित नहीं हो सकता। इस अंश का विशेष विचार उत्तम-मध्यम धर्मों में किया जायगा।

यह सब लेख स्वभाव वा गुण को धर्म मानने पर लिखा गया यद्यपि संस्कृत में ऐसा विचार नहीं है तो भी भाषा में समझने वाले अधिक जानकर बढ़ाया गया।

अब प्रकृत यह है कि जब कहा जावे कि यह सज्जन मनुष्य धर्मात्मा है, वहां जिसके चेतनतायुक्त अन्तःकरण में दया कोमलता, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच और इन्द्रियों का वश में करना आदि रूप से धर्म कर्त्तव्य वृत्ति के साथ अवस्थित हैं ऐसा अर्थ करना चाहिये। अथवा शास्त्रों में कहे शुभ कर्र्मों के अनुष्ठान से उत्पन्न होने वाले पुण्यरूप संचित शुभ संस्कार जिसके मन में अवस्थित हैं, वह धर्मात्मा कहाता है। ‘श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन् हि मानव॰’2 [श्रुति-स्मृति में कहा   धर्म…..] ऐसे प्रसग् में श्रौत, स्मार्त्त कर्म ही धर्म कहाता है। कहीं केवल सत्य का ही नाम धर्म है ‘अथातो धर्मजिज्ञासा3 इस मीमांसासूत्र के अनुसार वेदस्थ परमेश्वर की आज्ञा ही धर्म है अर्थात् वेद में जो विधिवाक्य हैं, वे साक्षात् धर्म के बोधक हैं।४ अर्थवाद और अनुवाद वाक्यों की विधिवाक्य के साथ एकवाक्यता होने से सार्थक होते हैं। अतः ये सहकारी कारण हैं। ‘अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः’5 इस वैशेषिक सूत्र में विधि-आज्ञा रूप वेदोक्त धर्म का ही ग्रहण है। इस उक्त प्रकार से पूर्वमीमांसादि षट्शास्त्रों वा षड्दर्शनों में धर्म की शिक्षा वा उपदेश प्रत्यक्ष है। इस कारण उनको धर्मशास्त्र मानना वा कहना सार्थक हुआ।

कहीं लिखा है कि ‘विहितक्रियया साध्यो धर्मः’ अर्थात् विधान किये कर्म के सेवन से सिद्ध होने वाला धर्म है, इत्यादि स्थल में आत्मा भी धर्मशब्द का अर्थ हो सकता है। क्योंकि आत्मा भी विहितानुकूल कर्म करने से ही प्राप्त हो सकता है। मरने पर ‘धर्मस्तमनुगच्छति, धर्मं शनैः सञ्चिनुयात्’ अर्थात् धर्म ही उसके साथ जाता है, धर्म का धीरे-धीरे संचय करें, इत्यादि स्थलों में शुभ कर्मों के सेवन से उपार्जन किया वासनारूप में बंधा पुण्यरूप संचित शुभ कर्म ही धर्म कहाता है। कहीं ‘ज्ञेयस्य ज्ञानं ध्येयस्य ध्यानम्’ अर्थात् ज्ञेय वस्तु का ज्ञान और ध्येय वस्तु का ध्यान करना भी धर्म ही कहाता है। यह उक्त सब धर्म दो प्रकार का है एक संसारी और द्वितीय परमार्थसम्बन्धी। जगत् में सुखभोग के अर्थ जिसका सेवन किया जाता है ऐसा शुभ आचरणरूप वेदोक्त कर्म लौकिक धर्म है। और ह्ल लभोग की अपेक्षा छोड़कर उदासीन वृत्ति से सर्वशक्तिमान् सबके उपास्य ईश्वर की आज्ञा का पालनमात्र अपना कर्त्तव्य वा प्रयोजन मानकर सेवन किया ज्ञान, ध्यानादि परमार्थसम्बन्धी धर्म कहाता है। यह दोनों प्रकार का धर्म श्रौत, स्मार्त्त भेद से और दो प्रकार का होता है। अर्थात् लौकिक श्रौत, स्मार्त्त और वैदिक श्रौत, स्मार्त्त। यद्यपि सब शास्त्रों का धर्म ही मुख्य कर विषय है, क्योंकि जहां कहीं अधर्म को हटाने के उपाय कहे हैं, वह भी धर्म के प्रचार में उपयोगी होने से धर्म है। तथा जो कुछ कर्त्तव्य मानकर उपदेश किया गया वह सब धर्म है, क्योंकि जो सदा कर्त्तव्य वा ग्राह्य हो अर्थात् सुख का कारण हो वह धर्म और जो त्यागने योग्य दुःख का कारण निषिद्ध है उसका त्याग भी धर्म है। इस प्रकार वेद, उपवेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, छह वेदाग्, छह शास्त्र और स्मृति आदि सब सत् शास्त्रों में कर्त्तव्य का विधान और निषिद्ध का त्याग ही मुख्य कर दिखाया गया है। तो भी इस मानवधर्मशास्त्र का मुख्य कर यही विषय है। इससे सामान्य कर उक्त लक्षण वाला धर्म ही इस मानवधर्मशास्त्र में कहा गया है, यह सिद्ध हुआ। इस धर्म विषय का इतना लेख बहुत सूक्ष्म है, सो कुछ तो आगे शेष होगा और कुछ उपयागी समझ कर लिखा गया, वैसे इस महान् विषय का समाप्त होना दुस्तर था।