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‘महर्षि दयानन्द का नवदम्पत्तियों व गृहस्थियों को वेदसम्मत कर्तव्योपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द महाभारतकाल के बाद संसार में वेदों के सर्वाधिक ज्ञानसम्पन्न विद्वान व ऋषि हुए हैं। उन्होंने वेदों वा वेदों की संहिताओं की खोज कर उनका संरक्षण करने के साथ वेदों पर भाष्य भी किया। मनुष्य जाति मुख्यतः वेदप्रेमियों का यह दुर्भाग्य था कि कुछ पतित लोगों ने उनको विषपान करा कर अकाल मृत्यु का ग्रास बना दिया जिससे उनका वेदभाष्य पूरा न हो सका। उन्होंने जितना वेदभाष्य किया है, वह उपलब्ध वैदिक साहित्य में महत्वूपर्ण एवं वैदिक विद्वानों द्वारा सर्वत्र आदरणीय एवं सम्माननीय है। स्वामीजी ने वेदभाष्य से इतर सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है जिसमें उन्होंने वेद अर्थात् ईश्वर की आज्ञानुसार सभी स्त्री-पुरुषों के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला है। संस्कारविधि ग्रन्थ में उन्होंने मनुष्यों के 16 संस्कारों पर प्रकाश डालने के साथ संस्कारों में प्रासंगिक वेदमन्त्रों का विनियोग कर संस्कार व उससे सम्बन्धित कर्तव्यों की विस्तृत व पूर्ण विधि पर भी प्रकाश डाला है। यह ज्ञातव्य है कि महर्षि दयाननन्द ने समावर्तन, विवाह एवं गृहस्थाश्रम संस्कारों में अनेक वेदमन्त्रों को प्रस्तुत कर उनके अर्थों पर प्रकाश डाला है। यह सभी मन्त्र व उनके अर्थ उनके नवदम्पतियों को वेदोपदेश ही हैं। आईये, गृहस्थ आश्रम पर उनका सम्पादनयुक्त एक उपदेश सुनते हैं।

 

(हे स्त्री-पुरुषों) गृहाश्रमसंस्कार उसे कहते हैं कि जो ऐहिक और पारलौकिक सुखप्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामथ्र्य के अनुसार परोपकार करना, नियतकाल में यथाविधि ईश्वरउपासना, गृहकृत्य करना, सत्य धर्म में ही अपना तनमनधन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पति करना। इसके बाद वेद मन्त्रों को प्रस्तुत कर उन्होंने उनके अर्थ किये हैं जिसमें वह कहते हैं कि सुकुमार, शुभगुणयुक्त, वधू की कामना करनेवाला पति तथा पति की कामना करनेवाली वधू और दोनों श्रेष्ठ, तुल्य गुण-कर्म-स्वभाववाले होवें। ऐसी जो सूर्य की किरणवत् सौन्दर्य गुणयुक्त, पति के लिए मन से गुणकीर्तन करनेवाली वधू है, उसको पुरुष और इसी प्रकार के पुरुष को स्त्री सकल जगत् का उत्पादक परमात्मा देता है अर्थात् बड़े भाग्य से दोनों स्त्रीपुरुषों का जो कि तुल्य गुणकर्मस्वभाव वाले हों, जोड़ा मिलता है।

 

हे स्त्री और पुरुषों ! मैं परमेश्वर आज्ञा देता हूं कि तुम्हारे लिए विवाह में जो प्रतिज्ञा हो चुकी है, जिसे तुम दोनों ने स्वीकार किया है, इसी में तत्पर रहो, इस प्रतिज्ञा से वियुक्त मत होओ। ऋतुगामी होके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सम्पूर्ण आयु जो सौ वर्षों से कम नहीं है, उसे प्राप्त होओ और वैदिक धर्म रीति से पुत्रों और नातियों के साथ क्रीड़ा करते हुए उत्तम गृहवाले आनन्दित होकर गृहाश्रम में प्रीतिपूर्वक निवास करो। वघू को सम्बोधित कर वह कहते है कि हे वरानने ! तू अच्छे मंगलाचरण करने तथा दोष और शोकादि से पृथक् रहनेवाली, गृहकार्यों में चतुर और तत्पर रहकर उत्तम सुखयुक्त होके पति, श्वशुर और सासु (देवर और ननद सहित) के लिए सुखकत्र्री और स्वयं प्रसन्न हुई इन घरों में सुखपूर्वक प्रवेश कर। हे वघू ! तू श्वशुरादि के लिए सुखदाता, पति के लिए सुखदाता, गृहस्थ सम्बन्धियों (देवर ननद आदि) के लिए सुखदायक हो और इस सब प्रजा के अर्थ सुखप्रद और इनके पोषण के अर्थ तत्पर हो। महर्षि दयानन्द कहते हैं कि जो दुष्ट हृदयवाली अर्थात् दुष्टात्मा जवान स्त्रियां (यदि कोई हो) और जो इस स्थान में बू्ढ़ी-वृद्ध स्त्रियां हों, वे भी इस वधू को शीघ्र तेज अर्थात् शुभकामनायें व आर्शीवाद देवें। इसके पश्चात् अपने-अपने घर को चली जायें और फिर इसके पास कभी न आवें। हे वरानने ! तू प्रसन्नचित होकर पलंग पर शयन कर और गृहाश्रम में स्थिर रहकर इस पति के लिए प्रजा को उत्पन्न कर। सुन्दर ज्ञानी उत्तम शिक्षा को प्राप्त सूर्य की कान्ति के समान तू उषःकाल से पहली ज्योति के तुल्य प्रत्यक्ष सब कामों में जागती रह (सजग व सावधान रह)।

 

हे सौभाग्यप्रदे नारी ! जैसे इस गृहाश्रम में प्रथम विद्वान लोग उत्तम स्त्रियों को प्राप्त होते हैं, वैसे तू विविध प्रकार से सुन्दररूप को धारण करनेहारी, सत्कार को प्राप्त होके सूर्य की कान्ति के समान अपने स्वामी के साथ मिलके प्रजा को प्राप्त होनेवाली अच्छे प्रकार हो। हे स्त्री-पुरुषों ! तुम बालकों के जनक गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए सन्तानों को अच्छे प्रकार उत्पन्न करो। हे पुरुष वा पति ! इस अपनी स्त्री को सन्तानों से बढ़ा और दोनों परस्पर मिलकर इस गृहाश्रम में प्रजा को उत्पन्न करो, पालन-पोषण करो और पुरुषार्थ से धन को प्राप्त होओ। हे वृद्धिकारक पुरुष ! जिसमें मनुष्य लोग बीज को बोते हैं, उस अतिशय कल्याण करनेवाली स्त्री को सन्तानोत्पत्ति के लिए प्रेम से प्रेरणा कर। हे स्त्री और पुरुष ! जैसे सूर्य सुन्दर प्रकाशयुक्त प्रभातवेला को प्राप्त होता है, वैसे सुख से घर के मध्य में सन्तानोत्पत्ति आदि की क्रिया को अच्छे प्रकार जाननेवाले, सदा हास्य और आनन्दयुक्त, बड़े प्रेम से अत्यन्त प्रसन्न हुए, उत्तम चालचलन से धर्मयुक्त व्यवहार में अच्छे प्रकार चलनेवाले, उत्तम पुत्रवाले, श्रेष्ठ गृहादि सामग्रीयुक्त उत्तम प्रकार की सत्नानों को धारण करते हुए गृहाश्रम के व्यवहारों को पूरा करो।

 

प्रवचन को जारी रखते हुए महर्षि दयानन्द आगे कहते हैं कि हे परमैश्वर्ययुक्त विद्वान् राजन् ! आप इस संसार में इन स्त्रीपुरुषों को समय पर विवाह करने की आज्ञा और ऐसी व्यवस्था दीजिए कि जिससे कोई स्त्रीपुरुष वैदिक रीति के विपरीत विवाह योग्य आयु से पूर्व वा अन्यथा विवाह कर सकें। वैसे सबको प्रसिद्धि से प्रेरणा कीजिए जिससे ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा को पाकर जाया और पति चकवाचकवी के समान एकदूसरे से प्रेमबद्ध रहें और गर्भाधानसंस्कारोक्त विधि से उत्पन्न हुई प्रजा से ये दोनों सुखयुक्त होके सम्पूर्णसौ वर्षपर्यन्त आयु को प्राप्त होवें। हे मनुष्यों! जैसे विद्यादि उत्तम गुणों का (उपदेश व प्रवचन द्वारा) दान करने वाले उत्तम स्त्री-पुरुष पुत्रोत्पत्ति करते और पुत्र की कामना करते हैं, वैसे हमारे भी सन्तान उत्तम होवें तथा बल, प्राण का नाश न करनेवाले होकर बड़े परोपकार के अर्थ विज्ञान और अन्न आदि के दान के लिए कटिबद्ध सदा रहें, जिससे हमारे सन्तान भी उत्तम होवें। पति अपनी पत्नी को सम्बोधित कर शिक्षा देता है कि हे पत्नि ! तू शतवर्षपर्यन्त वा दीर्घकाल तक जीने के लिए उत्तम बुद्धियुक्त, सद्ज्ञानयुक्त होकर मेरे घरों को प्राप्त हो और मुझ घर के स्वामी की तुझ स्त्री, जैसे तेरा दीर्घकाल-पर्यन्त जीवन होवे, वैसे प्रकृष्ट ज्ञान और उत्तम व्यवहार को यथावत् जान। दम्पति की इस आशा को सब जगत् की उत्पत्ति और सम्पूर्ण ऐश्वर्य को देनेवेाला परमात्मा अपनी कृपा से सदा सिद्ध करे। जिससे वह दोनों सदा उन्नतिशील होकर आनन्द में रहें। ईश्वर गृहस्थों को उपदेश कर कहते है कि हे गृहस्थो ! मैं ईश्वर तुमको जैसी आज्ञा देता हूं, वैसा ही आचरण व व्यवहार करो, जिससे तुम्हें अक्षय सुख हो, अर्थात् जैसे तुम अपने लिए सुख की इच्छा करते और दुःख नहीं चाहते हो, वैसे ही तुम दोनों माता-पिता, सन्तान, स्त्री-पुरुष, भृत्य, मित्र, पड़ोसी और अन्य सबसे समान हृदय रहो। मन से सम्यक् प्रसन्नता और वैर-विरोधादिरहित व्यवहार को तुम्हारे लिए स्थिर करता हूं। तुम (अघ्नया) हनन न करने योग्य गाय जैसे अपने सद्योजात उत्पन्न हुए बछड़े पर वात्सल्यभाव से वर्तती है, वैसे एक-दूसरे से प्रेमपूर्वक कामना (सद्भावना) से वर्ता करो।

 

परमात्मा के गृहस्थियों को उपदेश को जारी रखते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि हे गृहस्थों ! जैसे तुम्हारा पुत्र माता के साथ प्रीतियुक्त मनवाला, अनुकूल आचारणयुक्त, और पिता के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार का प्रेमवाला होवे, वैसे तुम भी अपने पुत्रों के साथ सदा वर्ता करो। पुत्रों के समान व्यवहार ही पुत्रियों के प्रति भी करो। जैसे स्त्री पति की प्रसन्नता के लिए माधुर्यगुणयुक्त वाणी को कहे, वैसे पति भी शान्त होकर अपनी पत्नी से सदा मधुर भाषण किया करे। हे गृहस्थो ! तुम में भाई भाई के साथ द्वेष कभी करे। और बहिन बहिन से द्वेष कभी करे तथा बहिनभाई भी परस्पर द्वेष मत करो, किन्तु सम्यक् प्रेमादि गुणों से युक्त समान गुणकर्मस्वभाववाले होकर मंगलकारक रीति से एकदूसरे के साथ सुखदायक वाणी को बोला करो। हे गृहस्थो !  जिस प्रकार के व्यवहार से विद्वान लोग परस्पर पृथक भाववाले नहीं होते और परस्पर में द्वेष कभी नहीं करते, वही कर्म, मैं ईश्वर, तुम्हारे लिए निश्चित करता हूं। पुरुषों को अच्छे प्रकार चिताता हूं कि तुम लोग परस्पर प्रीति से वर्तकर बड़े धनैश्वर्य को प्राप्त होओ। हे गृहस्थादि मनुष्यो ! तुम उत्तम विद्यादिगुणयुक्त, विद्वान, सद्ज्ञानी, धुरन्धर होकर विचरण करते हुए और परस्पर मिलकर धन-धान्य व राज्यसमृद्धि को प्राप्त होते हुए विरोधी वा पृथक्-पृथक् भाव परस्पर मत करो। एक दूसरे के लिए सत्य, मधुर भाषण करते हुए एक-दूसरे को प्राप्त होओ। इसीलिए समान लाभ व हानि में एक-दूसरे के सहायक तथा एक-मत (समान-मत) वाले तुमको करता हूं अर्थात् मैं ईश्वर तुमको जो आज्ञा देता हूं, इसको आलस्य छोड़कर किया करो (जिससे तुम सुखी, आनन्दित व सम्पन्न हों)।

 

स्वामी दयानन्द जी का गृहस्थियों को यह उपदेश जारी है। यदि हम इसे पूरा प्रस्तुत करें तो इस सामग्री की दुगुगी सामग्री अभी शेष है। अतः हम सभी पाठकों वा गृहस्थियों से निवेदन करते हैं कि वह संस्कारविधि का गृहस्थाश्रम प्रकरण पूरा पढ़े और महीने में एक या दो बार इसे दोहरा लिया करें जिससे इसके पाठ व आचरण से परिवार में प्रेम, सुख, शान्ति व समृद्धि विद्यमान रहे। हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द के इन उपदेश को पसन्द करंेगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘एक ईश्वर, एक संसार और एक ही मनुष्य जाति विषय पर कुछ विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य,

 

यह संसार पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश का जीवों के सुख-दुःख के उपयोग की दृष्टि से समुपयुक्त मिश्रित रूप है। वैदिक मान्यताओं के अनुसार संसार को बने हुए 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इस अवधि में हमने संसार को बांट-बांट कर इस पर दो सौ से अधिक देश बना दिये हैं। इन सभी देशों में भिन्न-भिन्न भाषायें, संस्कृतियां, सभ्यतायें, रीति-रिवाज, धर्म, मत, पंथ, सम्प्रदाय आदि हैं। हमें लगता है कि संसार के बांटने के प्रयास तो बहुत हुए परन्तु बटे हुए भूभागों को जोड़ने वा मिलाने के प्रयास न के बराबर हुए हैं। यदि किसी ने इस प्रश्न को उठाया तो उस पर लोगों का ध्यान या तो गया ही नहीं या समकालीन लोगों ने उसकी उपेक्षा की। हमें लगता है कि आज का संसार मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों के प्रति अधिकांशतः अनभिज्ञ है और उसने सत्य लक्ष्य व उद्देश्यों की उपेक्षा कर केवल सुख के भौतिक साधनों को ही अपना लक्ष्य व उद्देश्य बना लिया है जो कि सत्य से कोसों दूर है। इस सन्दर्भ में विचार करने पर हमें यह तथ्य स्पष्ट होता है कि मनुष्यों ने विगत लगभग 2 अरब वर्षों में पृथिवी को तो बांटा परन्तु वह अन्य चार प्रमुख तत्वों अग्नि, जल, वायु और आकाश को बांटने में सफल नहीं हुए। भारत, पाकिस्तान और चीन को यदि हम लें तो भारत की उष्णता व शीतलता का प्रभाव अन्य दो देशों में और वहां का प्रभाव भारत पर अग्नि संचरण के सिद्धान्त के आधार पर पड़ता है। इसी प्रकार से भारत की वायु अन्य देशों में व वहां की वायु भारत में वायु के प्रवाह की दिशा व भिन्न-भिन्न स्थानों के तापक्रम के अनुसार बहती व संचरण करती है। जल का मुख्य स्रोत समुद्र और नदियां आदि हैं। आज भी अनेक नदियां इन तीनों देशों में बहती है और कुछ ऐसी भी नदियां हैं जिनका उद्गम एक देश में है और उसका जल दूसरे दूशों में भी बह कर जाता है जिससे दोनों ही देश समान रूप से लाभान्वित हो रहे हैं। समुद्र में सूर्य की उष्णता से जो वाष्प बनती है वह सभी देशों में जाकर समान रूप से बिना पक्षपात वर्षा करती है। आकाश भी बंटा हुए कहते अवश्य हैं परन्तु वह बटा हुआ इस कारण से नहीं है कि पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूमती है और अपनी धूरी पर भी घूमती है। आकाश गति नहीं करता, इस कारण सभी देशों का आकाश पृथिवी के भ्रमण के कारण चैबीस घंटे में हर पल व हर क्षण बदलता रहता है। इससे क्या शिक्षा मिलती है? यह विचारणीय है। इससे यही शिक्षा मिलती प्रतीत होती है कि यह पृथिवी ईश्वर द्वारा उत्पन्न सभी मनुष्य व प्राणियों के भोग के लिए बनाई गई है। ईश्वर ने पृथिवी पर एक देश बनाया था परन्तु उसकी योग्य व अयोग्य सन्तानों ने इसके टुकड़े कर दिये हैं। ईश्वर ने इसे किसी एक मनुष्य, मत, सम्प्रदाय, धर्म आदि के पृथिवी व सृष्टि को नहीं बनाया। इसका मालिक ईश्वर व केवल ईश्वर है, न कि किसी मत के लोग व आचार्य आदि हैं। इस तथ्य को सभी मतों के आचार्यों व अनुयायियों को समझना चाहिये और वेदों व सत्शास्त्रों का अध्ययन कर ईश्वर की इच्छा को जानने का प्रयास करना चाहिये। उसके अनुसार आचरण करना चाहिये जिससे यह सृष्टि आजकल नरक का धाम न होकर सुख व स्वर्गधाम बन जाये।

 

इस लेख को लिखने का हमारा अभिप्राय यह है कि संसार के सभी बुद्धिजीवी व पठित व्यक्ति इस सृष्टि के कर्त्ता ईश्वर व सृष्टि रचना के उसके उद्देश्य को सच्ची भावना व स्वार्थों से ऊपर उठकर जानने का प्रयास करें। इस कार्य में उन्हें विचार व चिन्तन करने के साथ प्राचीन वैदिक साहित्य की सहायता लेकर इन प्रश्नों को हल करना चाहिये। मनुष्य जीवन का उद्देश्य बताते हुए वेदों के मर्मज्ञ विद्वान स्वामी दयानन्द ने कहा है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य सत्य व असत्य का निर्णय करने व कराने के लिए है, परस्पर लड़ाई-बखेड़ा करने के लिए नहीं है। यह बात सभी बु़िद्धजीवियों की दृष्टि में सत्य है परन्तु इस पर आचरण शायद ही कोई करता हो अन्यथा संसार की स्थिति ऐसी न होती जैसी की वर्तमान में है।

 

हम पाठकों का ध्यान स्वामी दयानन्द जी द्वारा की गई मनुष्य की परिभाषा पर भी दिलाना चाहते हैं। वह लिखते हैं कि मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुखदुःख और हानिलाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं, कि चाहे वे महा अनाथ निर्बल और गुणरहित क्यों हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको (यथार्थ मनुष्य को) कितना ही दारूण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूपधर्म से पृथक कभी होवे। स्वामी दयानन्द जी ने इन पंक्तियों में मनुष्य के स्वभाव, व्यवहार व कर्तव्यों को चित्रित किया है। संसार के साहित्य में इस परिभाषा व शब्दों को हम अद्वितीय व मनुष्य की परिभाषा को सर्वाधिक उपयुक्त परिभाषा कह सकते हैं। यह सब उनके वेदों के उच्च. कोटि के ज्ञान के कारण सम्भव हुआ है। इससे वेदों के ज्ञान व शिक्षा की दशा व दिशा का अनुमान लगाया जा सकता है।

 

हमने इस लेख में कुछ विषयों वा बिन्दुओं पर विचार किया है। आशा है कि पाठक इसे उपयोगी पायेंगे। महर्षि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश के चैदहवें समुल्लास के अन्तिम कुछ वाक्यों को प्रस्तुत कर हम इस लेख को विराम देते हैं। वह लिखते हैं कि हम तो यही मानते हैं कि सत्यभाषण, अहिंसा, दया आदि शुभ गुण सब मतों में अच्छे हंै और बाकी वाद, विवाद, ईष्र्या, द्वेष, मिथ्याभाषणादि कर्म सब मतों में बुरे हैं। यदि तुमको सत्य मत ग्रहण की इच्छा हो तो वैदिक मत को ग्रहण करो।

 –मनमोहन कुमार आर्य

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‘संन्यास आश्रम की महत्ता पर संन्यासी स्वामी दयानन्द का उपदेश’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ संस्कारविधि है। इस ग्रन्थ में उन्होंने वेदों पर आधारित 16 संस्कारों का व्याख्यान किया है। इस व्याख्यान में सभी संस्कारों के स्वरूप का वर्णन करने के साथ उनकी विधि वा पद्धति भी दी गई है। संस्कारविधि से ही हम उनके संन्यास आश्रम पर उपदेश को पाठकों के लाभ हेतु सम्पादन के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

संन्याससंस्कार उसे कहते हैं कि जिसमें मोह आदि आवरण व पक्षपात छोड़ कर तथा विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरण किया करते हैं। प्रथम वानप्रस्थ आश्रम के प्रसंग में जो बताया गया है कि ब्रह्मचर्य पूरा करके गृहस्थ और गृहस्थ होके वानप्रस्थ तथा वानप्रस्थ होके संन्यासी होवे, यह क्रम संन्यास, अर्थात् अनुक्रम से आश्रमों का अनुष्ठान करता-करता वृद्धावस्था में जो संन्यास लेना है, उसी को क्रमसंन्यास कहते हैं। संन्यास का दूसरा प्रकार यह है कि जिस दिन दृढ़ वैराग्य प्राप्त हो, उसी दिन चाहे वानप्रस्थ का समय पूरा भी न हुआ हो, अथवा वानप्रस्थ आश्रम का अनुष्ठान न करके गृहाश्रम से ही संन्यासाश्रम ग्रहण करें क्योंकि संन्यास में दृढ़ वैराग्य और यथार्थ ज्ञान का होना ही मुख्य कारण है। संन्यास आश्रम का तीसरा प्रकार यह है कि यदि पूर्ण अखण्डित ब्रह्मचर्य, सच्चा वैराग्य और पूर्ण ज्ञानविज्ञान को प्राप्त होकर विषयासक्त की इच्छा आत्मा से यथावत् उठ जावे, पक्षपातरहित होकर सबके उपकार करने की इच्छा होवे और जिसको दृढ़ निश्चय हो जावे कि मैं मरणप्र्यान्त यथावत् संन्यासधर्म का निर्वाह कर सकूंगा तो वह गृहाश्रम करे वानप्रस्थाश्रम, किन्तु ब्रह्मर्याश्रम को पूर्ण करके संन्याश्रम को ग्रहण कर लेवे।

 

वेदों में संन्यास आश्रम ग्रहण करने के प्रमाण उपलब्ध हैं। महर्षि दयानन्द जी ने संस्कारविधि में वेदों के 11 प्रमाण दिये हैं। लेख की सीमा के कारण हम यहां प्रथम दो प्रमाणों के ही उनके किये हुए हिन्दी अर्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। वह वेद मन्त्र का शब्दार्थ करते हुए कहते हैं कि मैं ईश्वर संन्यास लेनेवाले तुझ मनुष्य को उपदेश करता हूं कि जैसे मेघ का नाश करनेवाला सूर्य हिंसनीय पदार्थों से युक्त भूमितल में स्थित सोमरस को पीता है, वैसे संन्यास लेनेवाला पुरुष उत्तम मूल, फलों के रस को पीवे और अपने आत्मा में बड़े सामथ्र्य को उत्पन्न करूंगा, ऐसी इच्छा करता हुआ दिव्य बल को धारण करता हुआ परमैश्वर्य के लिए, हे चन्द्रमा के तुल्य सबको आनन्दित करनेहारे पूर्ण विद्वन् ! तू संन्यास लेके सब पर सत्योपदेश की वृष्टि कर। हे सोमगुण सम्पन्न सत्य से सबके अन्तःकरण को सींचनेवाले, सब दिशाओं में स्थित मनुष्यों को सच्चा ज्ञान देके पालन करनेवाले, शमादिगुणयुक्त संन्यासिन् ! यथार्थ बोलने, सत्यभाषण करने से सत्य के धारण में सच्ची प्रीति और प्राणायाम, योगाभ्यास से, सरलता से निष्पन्न होता हुआ अपने शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि को पवित्र कर। परमैश्वर्ययुक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिए सब प्रकार से प्रयत्न कर।

 

वेदों के प्रमाणों को प्रस्तुत करने के बाद महर्षि दयानन्द जी ने मनुस्मृति के 23 श्लोक प्रस्तुत कर उनके अर्थ दिये गये हैं जिनमें से 17 श्लोकों के अर्थ लेख की सीमा को ध्यान में रखकर प्रस्तुत हैं। यह अर्थ क्रमशः इस प्रकार कहे हैं। (वानप्रस्थ) काल में जंगलों में आयु का तीसरा भाग, अर्थात् अधिक-से-अधिक पच्चीस वर्ष अथवा न्यून-से-न्यून बारह वर्ष तक विहार करके आयु के चैथे भाग, अर्थात् सत्तर वर्ष के पश्चात् सब मोह आदि संगों (परिवार आदि संबंधों) को छोड़कर संन्यासी हो जावे।।1।। विधिपूर्वक ब्रह्मचर्याश्रम में सब वेदों को पढ़, गृहाश्रमी होकर धर्म से पुत्रोत्पत्ति कर, वानप्रस्थ में सामथ्र्य के अनुसार यज्ञ करके मोक्ष, अर्थात् संन्यासाश्रम में मन को लगाये।।2।। प्रजापति परमात्मा की प्राप्ति के निमित्त प्राजापत्येष्टि कि जिसमें यज्ञोपवीत और शिखा को त्याग दिया जाता है, इनका त्याग कर आह्वनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि संज्ञक अग्नियों को आत्मा में समारोपित करके, ब्राह्मण विद्वान गृहाश्रम से ही संन्यास लेवे।।3।। जो पुरुष सब प्राणियों को अभयदान, सत्योपदेश देकर गृहश्रम से ही संन्यास ग्रहण कर लेता है, उस ब्रह्मवादी, वेदोक्त  सत्योपदेशक संन्यासी को मोक्षलोक और सब लोक-लोकान्तर तेजोमय-ज्ञान से प्रकाशमय हो जाते हैं।।4।। जब सब कामों (इच्छाओं, कामनाओं आदि) को जीत लेवे और उनकी अपेक्षा न रहे, पवित्रात्मा और पवित्रान्तःकरण और मननशील हो जावे तभी गृहाश्रम से निकलकर संन्यासाश्रम का ग्रहण करे अथवा ब्रह्मचर्य ही से संन्यास का ग्रहण कर लेवे।।5।।

 

वह संन्यासी अनग्निः अर्थात् आह्वनीयादि अग्नियों से रहित और कहीं अपना स्वाभिमत घर (मठ, आश्रम आदि) भी न बांधे और अन्न-वस्त्रादि के लिए ग्राम का आश्रय लेवे। बुरे मनुष्यों की उपेक्षा करे और स्थिरबुद्धि व मननशील होकर परमेश्वर में अपनी भावना का समाधान करता हुआ विचरे।।6।।  न तो अपने जीवन में आनन्द और न अपने मृत्यु में दुःख माने, किन्तु जैसे क्षुद्र भृत्य अपने स्वामी की आज्ञा की बाट देखता रहता है, वैसे ही काल और मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहे।।7।। चलते समय आगे-आगे देख के पग धरे। सदा वस्त्र से छानकर जल पीवे। सबसे सत्य वाणी बोले अर्थात् सत्योपदेश ही किया करे। जो कुछ व्यवहार करे, वह सब मन की पवित्रता से आचरण करे।।8।। इस संसार में आत्मनिष्ठा में स्थित, सर्वथा अपेक्षारहित, मांसमद्यादि का त्यागी, आत्मा के सहाय से ही सुखार्थी होकर विचरा करे और सबको सत्योपदेश करता रहे।।9।। सब शिर के बाल, दाढ़ी-मूंछ और नखों का समय-समय पर छेदन कराता रहे। पात्री, दण्डी और कुसुंभ के रंगे हुए वस्त्रों को धारण किया करे। सब भूत-प्राणिमात्र को पीड़ा न देता हुआ दृढ़ात्मा होकर नित्य विचरण करे।।10।।

 

जो संन्यासी बुरे कामों से इन्द्रियों के निरोध, रागद्वेषादि दोषों के क्षय और निर्वैरता से सब प्राणियों का कल्याण करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है।।11।। चाहे संन्यासी को संसारी मूर्ख लोग निन्दा आदि से दूषित वा अपमानित भी करें, तथापि वह धर्म ही का आचरण करे। ऐसे ही अन्य ब्रह्मचर्य आश्रम आदि के मनुष्यों को करना उचित है। सब प्राणियों में पक्षपातरहित होकर समबुद्धि रक्खेइत्यादि उत्तम काम करने ही के लिए संन्यासाश्रम का विधान है, किन्तु केवल दण्डादि चिन्ह धारण करना ही संन्यास धर्म का कारण नहीं है।।12।। यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल जल को शुद्ध करनेवाला है तथापि उसके नामग्रहणमात्र से जल शुद्ध नहीं होता, किन्तु उसको ले, पीस, जल में डालने ही से जल शुद्ध होता है। वैसे नाममात्र आश्रम से कुछ भी नहीं होता, किन्तु अपने-अपने आश्रम के धर्मयुक्त कर्म करने ही से आश्रमधारण सफल होता है, अन्यथा नहीं।।13।। इस पवित्र संन्यास आश्रम को सफल करने के लिए संन्यासी पुरुष विधिवत् योगशास्त्र की रीति से सात व्याहृतियों के पूर्व सात प्रणव लगा के  (अर्थात् ओं भूः। ओं भुवः ओं स्वः। ओं महः ओं जनः। ओं तपः। ओं सत्यम्। बोलकर्), उसे मन से जपता हुआ तीन प्राणायाम भी करे तो जानों अत्युत्कृष्ट तप करता है।।14।। जैसे अग्नि में तपाने से धातुओं के मल छूट जाते हैं वैसे ही प्राण के निग्रह से इन्द्रियों के दोष नष्ट हो जाते हैं।।5।। इसलिए संन्यासी लोग प्राणायामों से मन व शरीरादि के दोषों को, धारणाओं से अन्तःकरण के मैल को, प्रत्याहार से संग से हुए दोषों और ध्यान से अविद्या, पक्षपात आदि अनीश्वरता (नास्तिकता) के दोषों को छुड़ाके पक्षपातरहित आदि ईश्वर के गुणों को धारण कर, सब दोषों को भस्म कर देवे।।16।। जो अन्तर्यामी परमात्मा बड़े-छोटे प्राणी और अप्राणियों में अशुद्ध आत्माओं से देखने के योग्य नहीं है, उस परमात्मा की गति व कार्यों को ध्यानयोग से ही संन्यासी देखा करे।।17।।

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वयं संन्यासी थे। उन्होंने अपने जीवन में संन्यास के सभी कर्तव्यों व मर्यादाओं का प्राणपण से पालन किया। उन्होंने जो बातें वेद और मनुस्मृति के आधार पर अपने व्याख्यान में कही हैं, उन सब का आचरण उनके जीवन में परिलक्षित होता है। संन्यास आश्रम पर उनके द्वारा संस्कारविधि में दिये गये प्रमाणों और मनुस्मृति के अन्य उपदेशों को जानने के लिए पाठक महानपुभाव कृपया संस्कारविधि का अध्ययन करें। वैदिक आश्रम व्यवस्था ईश्वर से प्रेरित व स्थापित है और श्रेष्ठ समाज, समुन्नत देश व विश्व तथा मनुष्य की आत्मा की सर्वांगीण उन्नति व जीवन के चरम लक्ष्यों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सफलता की दृष्टि से रची गई है। सृष्टि के आरम्भ काल से महाभारत काल तक यह आश्रम व्यवस्था अपने यथार्थ रूप में प्रचलित रही। उसके बाद इसमें ह्रास की स्थिति उत्पन्न हुई जिसका कारण अज्ञान व अन्धविश्वासों का देश व समाज में प्रसार होना था। इसका परिणाम देश की पराधीनता व सभी मनुष्यादि प्राणियों को नानाविध दुःख के रूप में हुआ। यद्यपि संन्यास आश्रम का पालन कठिन अवश्य है परन्तु असंभव नहीं है। सृष्टि के आरम्भ काल से असंख्य व कोटिशः लोगों ने इसका पालन किया है। आज इसका पर्याप्त संख्या व यथार्थ रूप में पालन न होने से ही विश्व में सर्वत्र अशान्ति व क्लेश का वातावरण है। आज भी आर्यसमाज में सहस्रों संन्यासी हैं जो संन्यास धर्म का पालन करते हुए समाज व देश से अन्धकार दूर करने का प्रयास कर रहे हैं जिसके कारण वैदिक धर्म व संस्कृति जीवित है। लेख को विराम देने से पूर्व हम निवेदन करना चाहते हैं कि सभी बन्धुओं को संस्कारविधि का अध्ययन कर ग्रन्थकर्ता के अभिप्राय, ग्रन्थ की आत्मा व गहराई को समझना चाहिये और अपने हित व अहित को ध्यान में रखकर जो उन्हें ग्राह्य लगे उसे आचरण में लाना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘सन्त रोमां रोल्या के महर्षि दयानन्द विषयक उत्साहवर्धक यथार्थ विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

सन्त रोमां रोल्या (1866-1944) यूरोप के उच्चकोटि के ग्रंथकारों और साहित्यिकों में से थे जो यूरोप के महान् मस्तिष्कों का प्रतिनिधित्व करने के लिए प्रख्यात हैं। उन्हें सन् 1915 का साहित्य का नोबेल पुरुस्कार भी मिला है। फ्रेंच भाषा में उन्होंने श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी लिखी जिसके प्रथम भाग का अंग्रेजी अनुवाद कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रो. ई0एफ0 मलकीलन स्मिथ ने किया और जो सन् 1930 में अद्वैत आश्रम मायावती अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित हुई। इस जीवन चरित्र में विद्वान् ग्रन्थकर्ता ने एकता के निर्माता “Builders of Unity” शीर्षक के अन्तर्गत लगभग 25 पृष्ठों में महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के विषय में आलोचनात्मक दृष्टि से विचार किया है। उनका दृष्टिकोण पाश्चात्य था और भारत से दूर बैठ कर वह लिख रहे थे। वह महर्षि दयानन्द के प्रति सद्भावना रखते हुए भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा का मूल्यांकन करने में कहीं-कहीं असमर्थ रहे। उन्होंने उपलब्ध हुई सामग्री के आधार पर महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा उसका ऐतिहासिक मूल्य है। श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवनी में महर्षि दयानन्द से संबंधित सन्त रोमां रोल्या द्वारा लिखी सामग्र्री के अनुवादक श्री रघुनाथ प्रसाद पाठक ने मार्च, 1957 को लिखा है कि कई स्थलों पर तो संत रोमां रोल्या ने महर्षि दयानन्द के अभिनन्दन में जो शब्द लिखे हैं, उसे पढ़ कर लगता है कि उन्होंने महर्षि की इतनी प्रशंसा की है कि उन्होंने कलम ही तोड़ दी है। इस लेख में हम संत रोमां रोल्या द्वारा कहे गये 8 प्रमुख कथनों को अंग्रेजी भाषा व उसके अनुवाद सहित उद्धृत कर रहें हैं। शेष प्रसंगों को लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए छोड़ दिया है जिसके लिए हम पाठकों से अनुग्रह करेंगे कि वह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली द्वारा प्रकाशित लघु पुस्तक ‘‘भारत का एक ऋषि पढ़ने का कष्ट करें।

 

सन्त रोमां रोल्या लिखते हैं कि  (1) “The man (Dayanand) with the nature of a lion is one of those whom Europe is too apt to forget when she judges India, but whom she will probably be forced to remember to her cost, for he was that rare combination, a thinker of action with a genius for leadership. (p.146)” अर्थात् सिंह समान निर्भीक प्रकृति वाला यह महापुरुष उन व्यक्तियों में था जिन्हें भारत का मूल्यांकन करते समय यूरोप भुलाने की चेष्टा करता हुआ भी भुला सकेगा, क्योंकि ऐसा करना उसके (यूरोप के) लिये महंगा सौदा सिद्ध होगा। इस महान् पुरुष दयानन्द में विचार, कर्म और नेतृत्व की प्रतिभा का अनुपम सम्मिश्रण था।’ 

 

(2) Dayanand was not a man to come to an understanding with religious philosphers imbued with Western ideas. (p.150) अर्थात् दयानन्द पाश्चात्य विचारों से विमोहित दार्शनिकों के साथ समझौता करने वाले महानुभाव थे।

 

(3) It was impossible to get the better of him for he possessed an unrivalled knowledge of Sanskrit and the Vedas while the burning vehemence of his words brought his adversaries to naught.  They likened him to a flood. Never since Shankara had such a prophet of Vedism appeared. (p.150) अर्थात् उन (दयानन्द) पर विजय पाना असम्भव था क्योंकि वे वैदिक वांड्मय और संस्कृत के अनुपम भण्डार थे। उनके शब्दों की धधकती हुई आग से उनके विरोधियों का विरोध भस्मसात हो जाया करता था। वे लोग जल की प्रबल बाढ़ के साथ दयानन्द की तुलना किया करते थे। शंकराचार्य के पश्चात् दयानन्द जैसा वेदवित् भारत भूमि में उत्पन्न नहीं हुआ।

 

(4)  Dayanand’s stern teachings corresponded to the thought of his countrymen and to the first stirrings of Indian nationalism to which he contributed. (p.153) अर्थात् दयानन्द की उग्र और प्रौढ़ शिक्षायें उसके देशवासियों की विचारधारा के अनुकूल थीं और उन शिक्षाओं से भारतीय राष्ट्रीयता का सर्वप्रथम नवजागरण हुआ।

 

(5) The enthusiastic reception accorded to the thunderous champion of the Vedas, a Vedist belonging to a great race and penetrated with the sacred writings of ancient India and with her heroic spirit is then easily explained.  He alone hurled the defiance of India against her invaders. (p.157) अर्थात् महान् वीर योद्धा दयानन्द का उत्साहपूर्वक स्वागत होने का कारण इस पृष्ठभूमि के प्रकाश में सहज ही में समझ में सकता है कि वे स्वयं वेदों के उग्र प्रचारक थे और वीरभावना के साथ प्राचीन भारत के पवित्र ग्रन्थों को साथ लेकर कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने अकेले ही भारत पर आक्रमण करने वालों के विरुद्ध मोर्चा लगाया।

 

(6) He had no pity for any of his fellow countrymen past or present who had contributed in any way to the thousand year decadence of India, at to one time the mistress of the world. अर्थात् दयानन्द ने अपने देश के प्राचीन वा अर्वाचीन किसी भी निवासी को क्षमा नहीं किया जिसने किसी किसी रूप में उस भारत के 1000 वर्ष के हुए पतन में योग दिया था, जो किसी समय संसार का शिरमौर था।

 

(7) It was in truth an epoch making date for India when a Brahman not only acknowledged that all human beings have the right to know the Vedas whose study had been previously prohibited by orthodox Brahmans, but insisted that their study and propaganda was the duty of every Arya (p.159) अर्थात् सत्य यह है कि भारत के लिए वह दिन एक युगप्रवर्तक दिन था जब एक ब्राह्मण ने केवल यह स्वीकार किया कि उस वेदज्ञान पर मानव मात्र का अधिकार है जिनका पठनपाठन उनसे पूर्व के कट्टर पन्थी ब्राह्मणों ने निषिद्ध कर दिया था, अपितु इस बात पर भी बल दिया कि वेदों का पढ़नापढ़ाना और सुननासुनाना सब आर्यो का परम धर्म है। इसके आगे एक अन्य स्थान पर वह लिखते हैं कि (8) दयानन्द ने भारत के निष्प्राण शरीर में अपना अदम्य उत्साह, अपना दृढ़ निश्चयात्मक संकल्प और सिंह जैसा रक्त भर कर उसे सजीव किया। उसके शब्द वीरोचित शक्ति के साथ गूंज गये।

 

संत रोमा रोल्या ने महर्षि दयानन्द जी के जीवन के अनेक प्रसंगों को भी अपनी लेखनी से श्रद्धापूर्ण शब्दों में प्रस्तुत किया है। यहां हम उनके द्वारा लिखित ‘‘काशी शास्त्रार्थ की एक घटना को देकर सन्तोष कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि शास्त्रार्थ में पराजित हुए पौराणिक पंडितों ने दयानन्द को अपने रोम (काशी) में आने के लिए आमंत्रित किया। दयानन्द निर्भयतापूर्वक वहां गए और सन् 1869 के नवम्बर मास के उस महान् शास्त्रार्थ में प्रवृत्त हुए जिसकी तुलना होमर के काव्य में वर्णित संग्राम के साथ की जा सकती है। लाखों आक्रान्ताओं के सामने जो उन्हें परास्त करने के लिए उत्सुक थे, उन्होंने अकेले 300 पंडितों के साथ शास्त्रार्थ किया, दूसरे शब्दों में पोप गढ़ की अग्रगामिनी और सुरक्षित दोनों सेनाओं के साथ दयानन्द ने यह सिद्ध किया कि जिन ग्रंथों पर आचरण किया जाता है वे वेदानुकूल नहीं हैं। उन्होंने अपना आधार वेद को बनाया हुआ था। पंडितों का धीरज टूटते हुए देर लगी। उन्होंने दयानन्द का परिहास और बहिष्कार किया। दयानन्द को अपने चारों ओर निराशा के बादल छाये हुए दिखाई पड़े परन्तु महाभारत जैसे इस संघर्ष की प्रतिध्वनि से समस्त भारत गूंज उठा जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतवर्ष में उनका नाम प्रसिद्ध हो गया।

 

हमने साहित्य का नोबल पुरुस्कार प्राप्त संत रोमां रोल्या जी की पुस्तक से महर्षि दयानन्द विषयक कुछ मुख्य प्रसंगों को प्रस्तुत किया है जिससे एक विदेशी निष्पक्ष विद्वान के शब्दों में महर्षि दयान्द के व्यक्तित्व व कृतित्व का अनुमान लगाया जा सके। महर्षि दयानन्द जैसा विलक्षण वेदभक्त, देशभक्त, ब्रह्मचर्य का आदर्श, वेदों के ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण, अपूर्व समाजसुधारक, पतितोद्धारक धर्मप्रचारक भारत में अभी तक दूसरा उत्पन्न नहीं हुआ। इतना और निवेदन करना चाहते हैं कि महर्षि दयानन्द का वेदों के प्रति कोई परम्परागत व अतार्किक पूर्वाग्रह नहीं था अपितु वेदों के महत्व व विशेषताओं ने ही उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया था। उन्होंने युक्ति व तर्क की कसौटी तथा सृष्टिक्रम के अनुकूल होने के कारण ही वेदों की महत्ता को स्वीकार किया था। वेदों का धर्म व समाज सम्बन्धी विचारों व शिक्षाओं में जो गौरवपूर्ण स्थान है, वह संसार के किसी अन्य ग्रन्थ का उसकी सामग्री की विशेषता की दृष्टि से नहीं है। वेद सार्वभौम धर्मग्रन्थ हैं जो मनुष्यों को सदाचारी और गुणवान बनाते हैं और जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त कराते हैं। अन्य ग्रन्थों में यह बात न होने के कारण ही महर्षि दयानन्द ने वेदों को अपनाया था। संत रोमां रोल्या जी ने स्वामी दयानन्द जी के प्रति जिन भावपूर्ण शब्दों को लिखा वह निष्पक्ष एवं यथार्थ है। महर्षि दयानन्द ऐसे ही थे व इससे भी अधिक महत्वपूर्ण, गौरवशाली व महान थे। वेद और दयानन्द जी की शरण में सच्चे आध्यात्मिक जीवन का ज्ञान प्राप्त करने और अपने जीवन को सफल बनानें के लिए आईये और सफल मनोरथ होइये।  

 –मनमोहन कुमार आर्य

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‘वैदिक आश्रम व्यवस्था श्रेष्ठतम सामाजिक व्यवस्था’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

ईश्वर का स्वभाव जीवों के सुख वा फलोभोग के लिए सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय करना है। सृष्टि की रचना आदि का यह क्रम प्रवाह से अनादि है अर्थात् न तो कभी इसका आरम्भ हुआ और न कभी अन्त होगा, अर्थात् यह हमेशा चलता रहेगा। अपने इस स्वभाव के अनुसार ही ईश्वर ने वर्तमान समग्र सृष्टि को रच कर मनुष्यों सहित सभी प्राणियों को भी रचा और माता-पिता व आचार्य की भांति उनको अपना जीवन सुख पूर्वक व्यतीत करने और जीवन के चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करने के लिए चार वेदों का ज्ञान भी दिया। इन बातों को समझने के लिए हमें ईश्वर के  सत्य व यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा यह प्रक्रिया समझ में नहीं आ सकती। ईश्वर की सत्ता सत्य है और यह सत्ता चेतन है। चेतन सत्ता, ज्ञान व गुणों से युक्त किसी क्रियाशील सत्ता को, जो सोच समझ कर व उचित-अनुचित का ध्यान रखकर कर्म वा क्रिया को करती है, कहते हैं। ईश्वर का प्रत्येक कार्य भी सत्य व न्याय पर आधारित होता है। ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव को जानना और उसके अनुसार ही अपना जीवन बनाना अर्थात् ईश्वर के गुणों के अनुरुप ही कर्म, व्यवहार आचरण करने को धर्म, मानव धर्म वैदिक धर्म कहते हैं। इसके अलावा जितने भी मत, सम्प्रदाय, पन्थ, सेक्ट, रिलीजन आदि हैं वह पूर्ण व शुद्ध धर्म नहीं हैं यद्यपि उनमें किसी में कम व किसी में कुछ अधिक धर्म का भाग होता है परन्तु उनमें धर्म की पूर्णता नहीं है। ईश्वर सत्य व चेतन स्वरूप होने के साथ आनन्दस्वरूप भी है। वह अनादि काल से अब तक सदा-सर्वदा आनन्द की ही स्थिति में रहा है और भविष्य में अनन्त काल तक आनन्दपूर्वक ही रहेगा। इसका कारण उसका निष्काम कर्मों को करना है जिससे वह फल के बन्धन, सुख व दुःख, में नहीं आता। मनुष्य को निद्रा, सुषुप्ति, ध्यान व समाधि की अवस्थाओं में जो आनन्द प्राप्त होता है, वह ईश्वर के सान्निध्य के कारण ही होता है। जिस मात्रा में हमारी आत्मा का, मल, विक्षेप व आवरण की स्थिति के अनुसार, ईश्वर से सान्निध्य व सम्पर्क बनता है, उतनी ही मात्रा में हमें आनन्द की अनुभूति होती है। समाधि में यह सम्पर्क सर्वाधिक होने से सर्वाधिक आनन्द की उपलब्धि होती है। ईश्वर के अन्य गुण, कर्म स्वभावों में उसका सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वांधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकर्ता, जीवों को जन्म देना, कर्मों के सुखदुःखरुपी फल देना, आयु निर्धारित करना, सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति प्रलय करना आदि भी कर्म वा कार्य हैं। ईश्वर के इन गुणों पर चिन्तन-मनन करने सहित वेद व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को पढ़कर ईश्वर से अधिकाधिक परिचित हुआ जा सकता है।

 

ईश्वर सर्वगुणसम्पन्न होने के कारण सृष्टि के आरम्भ से अन्त तक एक आदर्श माता-पिता व आचार्य का कर्तव्य पूरा करता है और सभी प्राणियों की रक्षा के साथ मनुष्यों की बुद्धि की क्षमता के अनुसार अपना जीवन सुचारु व सुव्यवस्थित रुप से चलाने के लिए ज्ञान जिसे वेद कहते हैं, देता है। महर्षि दयानन्द ने सम्पूर्ण वैदिक व अवैदिक साहित्य का अध्ययन करने के बाद सन् 1875 में घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेदों का पढ़ना पढ़ाना तथा सुनना सुनाना सभी आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ गुणों से युक्त एवं जन्म, जाति, मत धर्म के पूर्वाग्रहों से रहित सभी मनुष्यों का परम कर्तव्य वा धर्म है। अतः वेदों में मनुष्येां के लिए श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिए आदर्श सामाजिक, राजनैतिक, शिक्षा व्यवस्था आदि का विस्तृत व पूर्ण ज्ञान है जिसको वैदिक व्याकरण एवं ऋषि-मुनियों के ग्रन्थों के जानकार मनुष्य समाधि अवस्था को प्राप्त होकर न केवल उसे पूर्णतया समझते हैं अपितु अन्य लोगों के हितार्थ वेदों के भिन्न-भिन्न विषयों की सरल भाषा व शब्दों में व्याख्या कर उसे प्रचारित करते हैं। यतः वेदों में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रमों का भी ज्ञान सम्मिलित है जिसका विस्तार ब्राह्मण एवं मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में किया गया है। शतपथ ब्राह्मण काण्ड 14 में ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रर्वजेत्।। में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थ बने, गृहस्थी के बाद वानप्रस्थी और वानप्रस्थी के बाद संन्यासी होवें अर्थात् अनुक्रम से चार आश्रमों का विधान है। आज भारत व विश्व के प्रायः सभी देशों में इस सामाजिक व्यवस्था का कुछ विकृत रूप देखा जाता है। आईये, वैदिक आश्रम व्यवस्था के अनुसार चारों आश्रमों पर एक दृष्टि डाल लें।

 

ब्रह्मचर्याश्रम-आयु का प्रथम व सबसे बड़ा भाग ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य काल शिक्षा, शरीरोन्नति और दीक्षाप्राप्ति के लिए नियत है। शिक्षा जिसको अन्य भाषाओं में ‘‘तालीम और “Education” कहते हैं, आत्मिक शक्तियों के विकास करने को कहते हैं। दीक्षा (तरबियत) = (Ins-truction) बाहर से ज्ञान प्राप्त करके भीतर एकत्र करने का नाम है। मनुष्य का शरीर तीन प्रकार के परमाणुओं से बना है (1) सत्य, (2) रजस् और (3) तमस्। इनमें से तम अन्धकार (Ignorance) को कहते हैं। मनुष्य श्रारीर में जब तमस् परमाणु बढ़ जाते हैं, तब अन्तःकरण पर अन्धकार का आवरण आ जाता है, जिससे मानसिक शक्तियों का विकास नहीं होता, किन्तु उसी अन्धकार के आवरण (परदे) से अन्धकार की ही किरणें निकलकर उसे मूर्ख बनाया करती हैं। ‘‘रजस् अनियमित कर्तव्य (indisciplined activity) कहते हैं। नियमित कर्तव्य को धर्म और अनियमित कर्तव्य को अधर्म कहते हैं। जब ‘‘रज के परमाणु मनुष्य में बढ़ जाते हैं तब यह भी आचरण रूप होकर आत्मिक शक्तियों के विकास में बाधक होते हैं। और बाहर विषय-भोग की कामना में प्रकट हुआ करतें हैं। सत्व प्रकाश को कहते हैं। जब सत्व के परमाणु मनुष्य में बढ़ते हैं तब अन्तःकरण में प्रकाश की मात्रा बढ़ती है, जिससे सुगमता से आत्मिक शक्तियों का विकास होता है। इसलिए शिक्षाप्राप्ति के लिए मनुष्य का यह कर्तव्य हुआ कि तम को दूर, रज को नियमित और सत्य की वृद्धि करे। इस कर्तव्य की पूर्ति के लिए शक्ति (Energy) अपेक्षित होती है, यह शक्ति ब्रह्मचर्य से प्राप्त होती है। इसलिए शिक्षा के लिए ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य से शक्ति किस प्रकार प्राप्त होती है? इसका उत्तर यह है कि मनुष्य शरीर में जब भोजन कई कार्यों, क्रियाओं वा परिवर्तनों के बाद रेत (Albumen) में परिणत होता है और सुरक्षित रहता है तब उसमें क्रमशः अग्नि, विद्युत् व ओज गुण आते हैं। अन्त में वह वीर्य के रूप में हो जाता है। यही वीर्य मनुष्य के शरीर की शक्ति का केन्द्र है। इससे सम्पूर्ण शारीरिक और आत्मिक शक्ति उत्पन्न हुआ करती है। इसी वीर्योत्पत्ति और उसके सुरक्षित रखने की कार्यप्रणाली का नाम ब्रह्चर्य है। इस प्रकार मनुष्य को अपने जीवन के पहले भाग में जिसकी न्यून से न्यून अवधि 25 वर्ष है, ब्रह्मचर्यपूर्वक शिक्षा और दीक्षा प्राप्त करनी चाहिए, सभी विद्याओं, ज्ञान विज्ञान इनके क्रियान्वित ज्ञान का अनुभव प्राप्त करना चाहिये, यही ब्रह्मचर्य का कर्तव्य विधान है। 

 

गृहस्थाश्रम-सांसारिक और पारलौकिक सुख-प्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामर्थ्य के अनुसार परोपकार करना और नियत काल में विधि के अनुसार ईश्वर-उपासना एवं गृह के कर्तव्यों को करके सत्य धर्म में ही अपना तन-मन-धन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पत्ति, उनका पालन करना व उन्हें योग्यतम बनाना, इन मुख्य कार्यों को करने को ही गृहाश्रम कहा जाता है। यही गृहस्थाश्रम है तथा यही इसके उद्देश्य व कर्तव्य हैं। इस आश्रम में रहते हुए स्त्री व पुरुषों को नियमपूर्वक सन्तानोत्पत्ति सहित जीविका भी उपलब्ध करनी चाहिए और सन्तान को अपने से अच्छा बनाने का यत्न करना चाहिए। गृहस्थाश्रम में रहते हुए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तपस्वी शूद्र अपने अपने कर्मों को करते हुए परिवार, समाज व देश को उन्नत व सशक्त बनाते हैं। गृहस्थाश्रम की अवधि सन्तानों का विवाह होने व उनकी सन्तान भी हो जाने तक है। इसके बाद जीवनोन्नति के लिए अगले आश्रम वानप्रस्थ में प्रवेश करना होता है।

 

वानप्रस्थाश्रम-गृहस्थाश्रम में रहने से जो विकार मनुष्य में उत्पन्न हो जाते हैं उनको दूर करके अपने को ब्रह्मचर्याश्रम वालों की भांति स्वच्छ बना लेना, इस आश्रम का मुख्योद्देश्य है। यही आश्रम संन्यासाश्रम में जाने की तैयारी का काम किया करता है। वानप्रस्थ आश्रम नाम से यह विदित होता है कि इस आश्रम में प्रवेश व निवास के लिए स्वगृह व परिवार से दूर वन में जाना है। आजकल वन में जाना व रहना कठिन व सम्भव कोटि में नहीं है। महर्षि दयानन्द ने तो युवावस्था से सीधे ही संन्यास ले लिया था और वह सारा जीवन देश का भ्रमण करते रहे। इसका कारण यह था कि उन्हें ज्ञान की पिपासा थी और इसकी पूर्ति वन आदि किसी एक स्थान पर रहकर पूरी नहीं की जा सकती थी। अतः वानप्रस्थ आश्रम ऐसे स्थान पर करना है जहां इस आश्रम के अन्य लोग हों और उन्हें ईश्वर के ध्यान व समाधि का क्रियात्मक प्रशिक्षण वेद के मर्मज्ञ विद्वानों व अपने सहाध्यायियों से भली प्रकार से मिल सके। वानप्रस्थ आश्रम में वेदों के मर्मज्ञ विद्वान व प्रातः सायं यज्ञ की व्यवस्था भी होनी चाहिये जिनकी संगति व अनुष्ठान करके वानप्रस्थी संन्यास के सर्वथा योग्य बन सकें। इसी क्रम में हरिद्वार-ज्वालापुर में स्थित ‘‘आर्य वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम की चर्चा कर लेना भी उचित होगा। यह आश्रम सम्प्रति नगर के बीच में स्थित है। यहां सैकड़ों वानप्रस्थी व संन्यासी रहते हैं और अच्छे साधकों से भी यह स्थान परिपूर्ण है। यदि यहां रहकर वानप्रस्थ किया जाये, तो हमारी दृष्टि में वह भी उद्देश्य को पूरा करने में सहायक व फलितार्थ हो सकता है।

 

संन्यासाश्रम–मनुष्य को वानप्रस्थ से अन्तिम संन्यासाश्रम में आकर मुक्ति के साधनों को काम में लाते हुए जगत् के सुधार का भी यत्न करना पड़ता है। महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि संन्यास आश्रम में प्रविष्ट मनुष्य मोहादि आवरण व पक्षपात छोड़ कर तथा विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरण करे। यहां विचरण करने से तात्पर्य अविद्यान्धकार, अज्ञान व मिथ्या मान्यताओं का प्रतिकार व प्रतिवाद कर वेद व आर्ष-ज्ञान का प्रचार करे तथा असत्य मत व मान्यताओं का खण्डन भी करें जिससे समाज व देश के सभी मनुष्य असत्य व अज्ञान से पृथक होकर सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों को धारण कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर चलते हुए लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। महर्षि दयानन्द वैदिक मान्यताओं के अनुरुप आदर्श संन्यासी थे। उन्होंने अपने संन्यासी जीवन में ईश्वरोपासना करते हुए ज्ञान का अर्जन किया और समाज के कल्यार्थ वा सुधारार्थ असत्य व अज्ञान का खण्डन करते हुए सत्य पर आधारित वैदिक मान्यताओं का मण्डन व प्रचार किया। इसका अनुकरण करना ही संन्यास का सच्चा स्वरुप व उदाहरण माना जा सकता है।

 

वैदिक धर्म में चार आश्रमों व चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र का विधान मनुष्य की पूर्ण व अधिकतम शारीरिक, सामाजिक, बौद्धिक व आत्मिक उन्नति को ध्यान में रखकर किया गया है। वैदिक विधानों से पूर्ण यह आश्रम व्यवस्था ही संसार की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है जिसमें सभी मनुष्यों की सांसारिक व पारलौकिक दोनों ही उन्नति होती है। यह लक्ष्य अन्य किसी जीवन पद्धति से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः इस व्यवस्था व इसके अनुरुप जीवन व्यतीत करने से मनुष्य अपने उद्देश्य व लक्ष्य प्राप्ति के निकट पहुंच कर उसे प्राप्त करने में समर्थ होता है। आईये ! वैदिक वर्ण-आश्रम व्यवस्था को स्वयं अपनायें व उसका प्रचार कर इसे सर्वत्र स्थापित करने का प्रयास करें।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

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‘महर्षि दयानन्द का आदर्श एवं प्रेरक जीवन’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द वैदिक विचारधारा के ऋषि, विद्वान, आप्तपुरुष, सन्त, महात्मा सहित देश व समाज के हितैषी अपूर्व महापुरुष थे। उनका जीवन सारी मनुष्य जाति के लिए आदर्श, प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय है। आज के लेख में हम उनके जीवन की कुछ महत्वपूर्ण प्रेरणादायक घटनाओं को प्रस्तुत कर रहे हैं। हम आशा करते हैं कि इनके अध्ययन व अनुकरण से सभी को लाभ होगा।

 

पहली घटना हम बरेली में उनके व्याख्यान की ले रहे हैं जिसका वर्णन स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी आत्मकथा कल्याण मार्ग के पथिक में किया है। बरेली में एक दिन स्वामी जी व्याख्यान दे रहे थे। व्याख्यान में नगर के गणमान्य पुरुष और बड़े-बड़े राज-अधिकारी, कमिश्नर आदि सभी उपस्थित थे। व्याख्यान में ईसाई मत की मिथ्या मान्यताओं का खूब खण्डन किया गया। दूसरे दिन व्याख्यान से पूर्व उनसे कहा गया कि आप इतना खण्डन न करें, इससे उच्च अंग्रेज अधिकारी अप्रसन्न होंगे। दूसरे दिन का व्याख्यान प्रारम्भ हुआ। व्याख्यान में कमिश्नर आदि सभी उच्च राज्याधिकारी उपस्थित थे। स्वामीजी ने गरज कर कहा-‘‘लोग कहते हैं कि असत्य का खण्डन कीजिए, पर चाहे चक्रवर्ती राजा भी अप्रसन्न क्यों हो जाए, परिणाम कुछ भी हो, हम तो सत्य ही कहेंगे। अभय से पूर्ण मनुष्य के ऐसे जीवन को ही कहते है ईश्वर की सत्ता और सत्य पर अटल विश्वास।

 

दूसरी घटना कर्णवास में महर्षि दयानन्द के प्रवास की ले रहे हैं। जब स्वामीजी यहां आये थे तो अनूपशहर का एक अच्छा संस्कृतज्ञ विद्वान् पं. हीरावल्लभ अपने कुछ साथियों के साथ शास्त्रार्थ के लिए स्वामीजी के पास आया। सभा संगठित हुई। पं. हीरावल्लभ ने बीच में ठाकुरजी का सिंहासन, जिस पर शालिग्रामादि की मूर्तियां थी, रखकर सभा में प्रतिज्ञा की कि मैं स्वामीजी से इन्हें भोग लगवाकर ही उठूंगा। छह दिन तक बराबर धाराप्रवाह संस्कृत में शास्त्ररार्थ होता रहा। सातवें दिन पण्डित हीरावल्लभ ने सभा में प्रकट कर दिया कि जो कुछ स्वामीजी कहते हैं वही ठीक है और सिंहासन पर वेद की स्थापना की। महर्षि दयानन्द के सभी उपलब्ध शास्त्रार्थ और प्रवचन पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी के ग्रन्थ महर्षि दयानन्द के शास्त्रार्थ और प्रवचन में उपलब्ध हैं। पाठक इस ग्रन्थ का अध्ययन कर इस ज्ञानवर्धक सामग्री से लाभान्वित हो सकते हैं।

 

कर्णवास की ही एक अन्य घटना इस प्रकार है कि एक दिन स्वामीजी गंगा तट पर उपदेश कर रहे थे। बरौली के राव कर्णसिंह अपने कुछ हथियार-बन्द साथियों सहित वहां आए और बातचीत करते-करते बड़े क्रोध में आकर उन्होंने तलवार खींच कर स्वामीजी पर आक्रमण किया। स्वामीजी ने तलवार छीनकर दो टुकड़े कर दिए और राव को पकड़कर कहा कि ‘मैं तुम्हारे साथ इस समय वही सलूक कर सकता हूं जो किसी ‘‘आततायी (आतंकवादी) के साथ किया जा सकता है। परन्तु मैं संन्यासी हूं, इसलिए छोड़ता हूं। जाओ, ईश्वर तुम्हें सुमति देवे।’

 

स्वामी दयानन्द जी का जीवन महान था। उनकी महानता एक उदाहरण तब सामने आया जब उन्होंने अपनी हत्या का प्रयास करने वाले को न केवल क्षमा कर दिया अपितु वैधानिक दण्ड से भी बचाया। यह घटना अनूपशहर की है। वहां स्वामी जी के सच्चे और स्पष्ट उपदेश से अप्रसन्न होकर एक दुष्ट पुरुष ने स्वामीजी के पास आकर नम्रता प्रदर्शित करते हुए एक पान का बीड़ा उनको भेंट किया। स्वामीजी ने लेकर उसे मुंह में रख लिया। मुंह में रखते ही उन्हें मालूम हो गया कि इसमें विष मिला हुआ है। योग सम्बन्धी बस्ती और न्यौली-क्रियाओं को करके उन्होंने उसके प्रभाव को नष्ट कर दिया। जब यह हाल वहां के मजिस्ट्रेट सैयद मुहम्मद को मालूम हुआ तो उसने उस दुष्ट व्यक्ति को पकड़कर हवालात में डाल दिया और स्वामीजी के पास आकर अपनी कारगुजारी प्रकट करने आया तो स्वामीजी ने अपनी अप्रसन्नता प्रकट करके उसे छुड़वा दिया और कहा कि ‘‘मैं दुनिया को कैद कराने नहीं अपितु कैद से छुड़ाने आया हूं।

 

स्वामीजी जब उदयपुर में थे तब वहां एक दिन उदयपुर के महाराजा महाराणा सज्जनसिंह जी को मनुस्मृति का पाठ पढ़ाते हुए कहा कि–‘‘यदि कोई अधिकारी धर्मपूर्वक आज्ञा दे तभी उसका पालन करना चाहिए। अधर्म की बात माननी चाहिए। इस पर सरदारगढ़ के ठाकुर मोहनसिंह जी ने कहा कि महाराणा हमारे राजा हैं, यदि इनकी कोई बात हम अधर्मयुक्त बतलाकर न मानें तो ये हमारा राज छीन लेंगे। इस पर स्वामीजी ने कहा कि –‘‘धर्महीन हो जाने से और अधर्म के काम करके अन्न खाने से तो भीख मांगकर पेट का पालन करना अच्छा है। इस घटना में स्वामीजी ने उदयपुर के महाराजा के भय से सर्वथा शून्य होकर धर्म को सर्वोपरि महत्व दिया। इससे यह भी शिक्षा मिलती है कि किसी भी मनुष्य को अपने आश्रयदाताओं व उच्चतम अधिकारियों की धर्म विरुद्ध आज्ञाओं को न मानना चाहिये भले ही इससे उनकी कितनी भी हानि क्यों न हो।

 

उदयपुर की ही एक अन्य घटना है। वहां एक दिन एकान्त में स्वामीजी से महाराजा सज्जनसिंह जी ने कहा कि महाराज ! आप मुर्तिपूजा का खण्डन करना छोड़ दें। यदि आप इसे स्वीकार कर लें तो एक लिंग महादेव के मन्दिर, जिसके साथ लाखों रुपये की जायदाद लगी हुई है, आपकी होगी, और आप सारे राज्य के गुरु माने जाऐंगे। स्वामीजी ने उत्तर दिया–‘‘आपके सारे राज्य से मैं एक दौड़ लगाकर कुछ समय में बाहर जा सकता हूं परन्तु ईश्वर के संसार से दूर नहीं जा सकता, फिर मैं किस प्रकार इस धर्मविरुद्ध तुच्छ प्रलोभन में आकर ईश्वर की आज्ञा भंग करूं। यह है ईश्वर, उसकी व्यवस्था व धर्म में पूर्ण विश्वास और स्वार्थ से रहित सच्चे त्याग का उदाहरण।

 

प्रयाग की एक घटना है। एक दिन स्वामीजी एक सभा में उपस्थित थे। पं. सुन्दरलालजी आदि कुछ सभ्य पुरुष भी उपस्थित थे। स्वामीजी यकायक हंस पड़े। कारण पूछने पर बतलाया कि एक पुरुष मेरे पास आ रहा है, उसके आने पर एक कौतुक दिखाई देगा। थोड़़ी देर बाद एक व्यक्ति स्वामीजी के लिए कुछ विष मिश्रित मिठाई लाकर कहने लगा कि महाराज इसमें से कुछ भोग लगाएं। स्वामीजी ने थोड़ी सी मिठाई उठाकर लानेवाले को दी, उसे कहा कि इसे तुम खाओ, परन्तु उसने मिठाने लेने और खाने से इन्कार कर दिया। स्वामीजी इस पर हंस पड़े और पं. सुन्दरलालजी आदि पुरुषों से कहा कि देखों यह अपने पाप के कारण स्वयं कांप रहा है और लज्जित है। इसे पर्याप्त दण्ड मिल गया है अब और दण्ड की आवश्यकता नहीं। यह थी स्वामी दयानन्द जी की योग व ईश्वरोपासना की शक्ति और दयालुता।

 

स्वामीजी की मृत्यु जोधपुर में उन्हें विष दिये जाने के कारण हुई थी। स्वामीजी जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह के छोटे भाई कुंवर प्रताप सिंह व महाराजा के निमंत्रण पर पधारे थे। उन्होंने अपने प्रवचनों में राजाओं के दुव्र्यसनों मुख्यतः राजाओं की वेश्याओं में आसक्ति वा वैश्याचारिता का तीव्र खण्डन किया था। अपनी शिक्षाओं में उन्होने वैश्याओं की उपमा कुतिया से और राजाओं की उपमा शेर से दी थी। मत-मतान्तरों की मिथ्या बातों का खण्डन तो वह करते ही थे। अतः एक षडयन्त्र के अंतर्गत उनके विरोधियों ने उनके पाचक को अपने वश में करके उसके द्वारा स्वामीजी को सितम्बर, 1883 के अन्तिम सप्ताह की एक रात्रि को दूध में जहर डलवाकर पिलवा दिया था। स्वामीजी को इसका पता देर रात्रि तब चला जब उन्हें उदरशूल, दस्त होने के साथ वमन आदि की शिकायत हुई। स्वामीजी को सारी स्थिति का पता चल जाने पर उन्होंने अपने पाचक को पास बुलाकर उसे कुछ रूपये देते हुए कहा कि इन्हें लेकर नेपाल के राज्य आदि किसी ऐसे स्थान पर चले जाओ जहां तुझे पकड़ा न जा सके और तुझे अपने प्राण न खोने पड़ें। अपने प्राणहंता की इस प्रकार रक्षा कर उन्होंने इतिहास में एक अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है। ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में दुर्लभ है।

 

स्वामीजी ने पूना में अपने जीवन की घटनाओं विषयक एक उपदेश दिया था। उन्होंने थियोसोफिकल सोसायटी के निवेदन पर अपनी संक्षिप्त आत्मकथा भी लिखी थी। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके अनेक खोजपुर जीवन चरित्र प्रकाश में आये जिनमें पं. लेखराम, पं. गोपालराव हरि, पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, स्वामी सत्यानन्द, मास्टर लक्ष्मण आर्य, श्री हरविलास सारदा, श्री रामविलास शारदा आदि प्रमुख हैं। यह सभी जीवनचरित रामायण एवं महाभारत की ही भांति आदर्श, प्रेरणादायक तथा पाठक में धर्म के प्रति अनुराग व बोध उत्पन्न करने में समर्थ हैं। इन्हें पढ़कर एक दस्यु वृत्ति का मनुष्य भी साधू बन सकता है और सच्चा मानव जीवन व्यतीत कर सकता है। पाठकों को इन जीवन चरितों से लाभ उठाना चाहिये। आशा है कि पाठक लेख को पसन्द करेंगे।

            –मनमोहन कुमार आर्य

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स्तुता मया वरदा वेदमाता: डॉ. धर्मवीर जी

उदसौ सूर्यों अगादुदयं मामको भगः।

अहं तद्विद्वला पतिमयसाक्षि विषासहिः।।

– ऋक्. 10/159/1

वैदिक धर्म और संस्कृतिश्रेष्ठतम विचार है। वैदिक धर्म और संस्कृति के सबन्ध में विचार करते हुए, यदि हम एक बात का स्मरण रखें तो हमारे चिन्तन में दोष आने की सभावना समाप्त हो जाती है। वैदिक धर्म का मूलवेद है। वेद में सिद्धान्त प्रतिपादित है और जानने-मानने वाले को, उस विचार को व्यवहार में लाना होता है, उसपर आचरण करना होता है। हम कितना भी अच्छा क्यों न सोचते हों, हमारी अल्पशक्ति, अल्पबुद्धि कुछ-न-कुछ अनुचित कर बैठती है। यदि मनुष्य के पास पूर्ण ज्ञान और सामर्थ्य होता तो संसार में न तो ईश्वर की आवश्यकता होती और न ही संसार की। मनुष्य की अल्पज्ञता ही संसार और ईश्वर की आवश्यकता की प्रतिपादक है। अल्प और सर्व एक सापेक्ष शद हैं, एक शद के अभाव में दूसरे शद की कोई उपयोगिता नहीं बचती। मनुष्य अल्पज्ञ है, अतः सिद्ध है कि कोई सर्वज्ञ है। इसी प्रकार यदि कोई सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान सर्वत्र है, तो वह एक ही होगा। इसमें विकल्प की कल्पना ही अनेकत्व का कारण बनेगी। ज्ञान का प्रवाह अधिक से कम की ओर होगा, अतः सर्वज्ञ परमेश्वर से अल्पज्ञ मनुष्य की ओर ज्ञान की गति स्वाभाविक है।

इस प्रकार ईश्वर एक है, सबको ज्ञान, सामर्थ्य, ऐश्वर्य का देने वाला है, तो उसके ज्ञान के देने में अन्याय या पक्षपात की बात कैसे सभव है। संसार में मनुष्यों को, प्राणियों को देखकर हमें ऐसा लगता है, जैसे परमेश्वर सबको अलग-अलग देकर अन्याय कर रहा है, परन्तु हम भूल जाते हैं कि देने वाला एक है, उसका देने का प्रकार भी एक ही होगा, अन्तर तो भिन्नता की ओर से होता है, प्राप्त करने वाले मनुष्य पृथक् हैं, अतः देने वाले के दृष्टि में सब एक हैं, परन्तु लेने वाले भिन्न और अनेक हैं, अतः ग्रहण करने के सामर्थ्य में भिन्नता दिखती है।

इतना मान लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि परमेश्वर द्वारा सबके साथ समान व्यवहार ही हो रहा है, फिर चाहे स्त्री हो, पुरुष हो या कुछ और भी हो, जैसे ईश्वर की सत्ता सर्वत्र है, उसका अनुाव जड़ को तो नहीं होता, चेतन को होता है, उसी प्रकार एक चेतन उसकी सत्ता को अपने ज्ञान और योग्यता के अनुसार ही देख पाता है, अनुभव कर सकता है, दूसरा ज्ञान के अभाव से ऐसा करने में समर्थ नहीं हो पाता। यह अन्तर संसार में देखने में आता है, संसार का सारा व्यापार  व्यक्तिपरक है, परमेश्वर सबको यथावत जानता है, अतः सबको उचित ज्ञान और सामर्थ्य देता है। आज इस मनुष्य संसार में स्त्री-पुरुष को लेकर जो जैसा व्यवहार दिखाई दे रहा है, वह सारा मनुष्य बुद्धि का परिणाम है। परमेश्वर सभी मनुष्यों का कल्याण चाहता है। और उनका उपकार करता है। जिस प्रकार एक माता-पिता अपने पुत्र और पुत्री का समान हित चाहते हैं। उसी प्रकार स्त्री पुरुष भी परमेश्वर की पुत्र-पुत्रियाँ हैं वह उनमें भेद और पक्षपात कैसे कर सकता है?

इस सूक्त के मन्त्रों से इस बात को भली प्रकार समझा जा सकता है। यह सूक्त शची पौलीमी कहलाता है, इसका देवता भी यही है, इसका ऋषि भी यही है। यदि कहने वाला किसी बात को कहता है तो कहने वाले को हम ऋषि कहते हैं और कही जाने वाली बात को देवता । ऋषि कभी स्वयं ईश्वर है कभी उसके ज्ञान का कोई प्रवक्ता। ये शद ईश्वर और उसके ज्ञान से सबन्ध रखते हैं अतः यदि मनुष्य के साथ इनको जोड़कर देोंगे तो अर्थ की संगति नहीं लग पायेगी अतः शद को उसके अर्थ की ओर इंगित करने देते हैं तो हमें अर्थ सरलता से समझ में आ जाता है तथा उसक ी संगति भी ठीक लग जाती है। इस सूक्त में एक स्त्री का व्यक्तित्व कैसा होना चाहिए इस बात को समझाया गया है। इस विवरण को व्यक्ति विशेष का वक्तव्य न मानकर स्त्री सामन्य का वक्तव्य मानना उचित होगा। इस विचार से मन्त्र में बताया गया विचार समाज की सभी स्त्रियों का होगा।

वेद उत्साह और आशा की प्रेरणा देता है। वेद में निराशा, पराजय, उदासी की बात नहीं है, यही बात इस सूक्त के मन्त्रों में भी दिखाई देती है। मन्त्र में कहा गया उदसौ सूर्यो अगात् मनुष्य का उत्साह सूर्य के उदय के साथ आगे बढ़ता है, प्रकृति का वातावरण मनुष्य के लिये उत्साह और आनन्द प्राप्त कराता है। प्रत्येक मनुष्य संसार में अपनी भूमिका में स्वयं सुख का अनुभव करता है। और अपने साथ वालों को भी आनन्दित करता है।

‘हमारा गणतन्त्र और समाज’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

गणतन्त्र दिवस के अवसर पर

 

हम सब भारत के नागरिक हैं। हमारा देश 15 अगस्त, 1947 को विगत सैकड़ों वर्षों की दासता के बाद स्वतन्त्र हुआ था। विदेशी दासता से मुक्ति से एक दिन पहले देश के एक तिहाई भाग से अधिक भाग को भारत से अलग कर दिया गया। जिन कारणों से भारत का विभाजन हुआ, उसके बाद भी प्रायः वैसी ही अनेक धार्मिक व सामाजिक समस्यायें आज भी विद्यमान हैं। आजादी से पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे और इससे पूर्व हमें मुसलमानों की दासता और भीषण अत्याचार सहन करने पड़े थे। वैदिक व हिन्दू धर्म के धार्मिक अन्धविश्वासों व तदनुरूप सामाजिक व्यवस्था के कारण मुख्यतः यह पराधीनता व दुःख आये थे। मुसलमानों के देश के बड़े भूभाग पर आधिपत्य से पूर्व भारत में भारतीय आर्य-हिन्दू राजा राज्य करते थे। चाणक्य व विक्रमादित्य के काल में भारत संगठित था और इसकी सीमायें वर्तमान से भी अधिक दूरी तक फैलीं हुईं थीं। किसी समय में अफगानिस्तान, श्रीलंका, नेपाल व बर्मा या म्यमार आदि भी भारत के ही अंग हुआ करते थे। इन सब देशों में एक ही वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति हुआ करती थी। धार्मिक अन्धविश्वास, सामाजिक विषमता व विदेशी दासता का मुख्य कारण महाभारत का महायुद्ध और उसके प्रभाव से देश में अव्यवस्था का उत्पन्न होना था। महाभारत के युद्ध में बहुत से लोग मारे गये थे तथा जो बचे थे उन्हें आलस्यजनित अकर्मण्यता ने अपने नियंत्रण में ले लिया था। महाभारत काल तक व उसके बाद चाणक्य व विक्रमादित्य के काल तक सुदूर पूर्व का भारत वैदिक धर्म और संस्कृति की छत्रछाया में उन्नत व विकसित था। वैदिक धर्म का प्रादुर्भाव सृष्टि के आरम्भ काल, 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 115 वर्ष पूर्व हुआ था। तब से पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध तक विश्व में एक ही धर्म व एक ही संस्कृति थी जिसका आधार वेद, वैदिक ग्रन्थों सहित हमारे पारदृष्टा ऋषि-मुनियों के वचन व मान्यतायें होती थी।

 

देश की आजादी में प्रमुख योगदान महर्षि दयानन्द, उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज और इनके द्वारा किये गये धार्मिक और समाज सुधार के कार्यों को सर्वाधिक है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ही आजादी के प्रणेता थे। सन् 1874 में सत्यार्थ प्रकाश की रचना हुई। इसका संशोधित संस्करण सन् 1883 में तैयार हुआ। इस ग्रन्थ के आठवे समुल्लास में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर रहित, प्रजा पर माता, पिता के समान कृपा न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं होता। सम्पूर्ण भारत के साहित्य में स्वराज्य का सर्वोपरि उत्तम होना सबसे पहले सत्यार्थप्रकाश ने ही देशवासियों को बताया। महर्षि दयानन्द के आर्याभिविनय व संस्कृत वाक्य प्रबोध आदि ग्रन्थों के कुछ अन्य वाक्य भी इसी प्रकार से आजादी के आन्दोलन का मुख्य आधार कहे जा सकते हैं। स्वराज्य सर्वोपरि उत्तम होने का अर्थ है परराज्य या विदेशी राज्य निकृष्ट व बुरा होता है और इसका अनुभव अंग्रेजी राज्य और उससे पूर्व मुस्लिम राज्य में भारत के लोगों ने किया वा भोगा है जो कि इतिहास के पन्नों पर अंकित है। महर्षि दयानन्द जी की एक अन्य बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने मत-मतान्तरों किंवा धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया और वेद व वैदिक धर्म को सत्य की कसौटी पर सिद्ध पाया। उन्होंने इसी कारण वेदों का प्रचार किया और अन्य सभी मतों में विद्यमान असत्य व अविद्याजन्य विचार, मान्यताओं, सिद्धान्तों, आस्थाओं, कर्मकाण्डों, कुरीतियों आदि का दिग्दर्शन कराया और मनुष्य जाति की उन्नति के लिए उनका खण्डन किया। इससे यह सिद्ध हुआ कि विश्व में सुख व शान्ति धर्म व समाज संबंधी सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों के द्वारा और इसके पर्याय वैदिक धर्म की स्थापना से ही लाई जा सकती है। ऐसा होने पर ही सभी मनुष्यों में एक भाव व परस्पर एक सुख-दुःख की उत्पत्ति अर्थात् समाजिक समरसता होनी सम्भव है।

 

महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों व विचारों ने स्वतन्त्रता की भावना को उद्बुध व प्रदीप्त किया। देश में स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन चला। कुछ देशवासियों का विचार था कि आजादी अंहिसक आन्दोलन से मिल सकती है और कुछ विद्वानों व चिन्तकों का विचार था कि क्रान्तिकारी कार्यों को अंजाम देकर ही विदेशी हुकमरानों को देश को स्वतन्त्र करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। दोनों ही आन्दोलन देश में चले। दोनों का अपना महत्व है। क्रान्तिकारियों को अधिक कुर्बानियां देनी पड़ी व असह्य कष्ट उठाने पड़े। क्रान्तिकारियों के कार्यों से अंग्रेज शासक अधिक विचलित, भयभीत व परेशान होते थे और उन्हें दण्ड के रूप में कठोर यातनायें व मृत्यु दण्ड आदि बहुत कड़े दण्ड देते थे। हमें लगता है कि केवल अहिंसात्मक आन्दोलन से ही अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए विवश नहीं किया जा सका था। अतः क्रान्तिकारी आन्दोलन का अपना विशेष महत्व और योगदान है और इस आन्दोलन के सभी नेता व अनुयायी देशवासियों के पूज्य व आदर्श हैं। इन आन्दोलनों व अंग्रेजों की अपनी परिस्थितियों के कारण देश 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्र हुआ। एक दिन पूर्व देश का विभाजन इस आधार पर किया गया कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं और यह साथ मिलकर नहीं रह सकतीं। देश का विभाजन देशभक्तों के लिए दुःखद स्थिति थी। कुछ वरिष्ठ क्रान्तिकारी तो इस सदमे को सहन न कर सके और इस दुःख से पीडि़त होकर कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गई।

 

देश को चलाने के लिए संविधान की आवश्यकता थी। अतः एक संविधान सभा का निर्माण किया गया। भारत के प्रथम कानून मंत्री डा. भीमराव रामजी अम्बेदकर संविधान आलेखन (drafting) सभा के सभापति बनाये गये। संसार के प्रमुख देशों के संविधानों का अध्ययन कर भारत का संविधान बनाया गया जिसे 26 जनवरी, 1952 से लागू किया गया। भारत के संविधान की अनेक विशेषतायें हैं। लोगों को समान अधिकारी दिए गये हैं तथा देशवासियों को किसी भी मत व धर्म को मानने की स्वतन्त्रता दी गई है। इसी के साथ नेताओं द्वारा कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा, कुछ मत व वर्गों को विशेष दर्जा या अधिकार व कुछ के लिए अपना कानून आदि का अधिकार दिया गया जो कि विचारणीय है। जैसा भारत में है, ऐसा शायद विश्व के अन्य किसी देश में नहीं होगा। हमारे देश में अनेक पूर्वाग्रहों से युक्त बुद्धिजीवी हैं। यह अपने-अपने प्रकार से विचार करते हैं। कुछ जो कह देते हैं, उनकी बात सुनी जाती है, कुछ की अनसुनी या सही बातों को भी दबा दिया जाता है। यह सब कुछ प्रायः सत्तारूढ़ दल के मुख्य नेताओं पर निर्भर करता है। हम सब नागरिकों के लिए एक समान रूप से स्वतन्त्रता की बात करते हैं परन्तु कई बार यह बहुत से मामलों में दिखाई नहीं देती। आज देश में एक धनिक और एक निर्धन वर्ग पैदा हो गया। निर्धन वर्ग भी ऐसा कि जिसके पास दो समय का भोजन, अपनी छत व अच्छे वस्त्र व शिक्षा के लिए आवश्यक न्यूनतम धन भी नहीं है और वहीं कुछ लोगों के पास इतना अधिक धन है कि वह उसका दुरुपयोग व कर चोरी करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। कहा जाता है कि संविधान ने सबको समान अधिकार दिये हैं परन्तु समाज में यह देखने को कम ही मिलता है। शिक्षा व चिकित्सा निःशुल्क होनी चाहिये परन्तु यह आज करोड़ो लोगों की क्षमता से बहुत दूर है। सुरक्षा भी ईश्वर के भरोसे है। कई बार बड़े-बड़े हादसे हो जाते हैं, जनता विरोध करती है, कुछ कानूनों में परिवर्तन किया जाता है परन्तु अपराधों में रोक नहीं लगती। समस्याओं के हल करने में भी राजनीतिक दलों की वोट बैंक की नीति आड़े आती है। देश की आजादी को स्वतन्त्रता दिवस से 67 वर्ष से अधिक और गणतन्त्र बनने से 63 वर्ष बीत चुके हैं परन्तु आज का समाज अनेक असमान मान्यताओं वाले मत-मतान्तरों, अन्धविश्वासों, पाखण्डों, अशिक्षा, अज्ञान, शोषण, अन्याय, असुविधाओं, अपराधों, निर्धनता, असमानता व अनेक दुःखों से युक्त है। सभी देशवासी एक विचार, एक भाव, एक सुख दुःख, एक हानि-लाभ, परस्पर भाई बहिन के समान व्यवहार आदि गुणों से युक्त नहीं हो सके और शायद कभी हो भी नहीं सकेंगें।

 

हमें यह भी लगता है कि परिस्थितियोंवश हमारे संविधान का निर्माण करते समय वेदों, दर्शनों, मनुस्मृति व नीति ग्रन्थों का अध्ययन कर उनकी अच्छी बातों को संविधान में सम्मिलित नहीं किया गया, यदि किया जाता तो अच्छा होता। अच्छे विचार व बातें तो कहीं से भी मिलें, ग्रहण की जानी चाहिये। वेदों और दर्शनों का सिद्धान्त है कि जिससे यह संसार बना और चल रहा है, वह एक सत्ता ईश्वर है जो निराकार, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, चेतन-तत्व, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान है। इस शत प्रतिशत सही बात को भी न तो संविधान में स्थान प्राप्त हुआ और न ही देशवासी इसके अनुसार व्यवहार करते हुए दिखाई देते हैं। वैदिक काल में शिक्षा निःशुल्क, अनिवार्य व एक समान होती थी। सबको समान सुविधायें दिये जाने का विधान था तथा किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाता था। यह उच्च आदर्श व नियम मध्यकाल में भुला देने के कारण ही देश का पतन हुआ और पराधीनता का कारण बना। आज हमारे निर्धन देशवासी शिक्षा के अभाव से ग्रस्त है। ईश्वर ने उन्हें मनुष्य जीवन तो दिया परन्तु अनेक व्यक्ति ऐसे भी हैं जो देश व समाज की व्यवस्था के कारण पशुओं जैसा जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। बुन्देलखण्ड के आज भी निर्धन किसान व भूमिहीन साधनों के अभाव में घास की बनी रोटी बिना दाल व सब्जी तथा चावल के खाने के लिए मजबूर हैं। यह कैसा देश है जहां अरबपति व खरब पति लोग रहते हैं और अपने ही देश के बन्धुओं के प्रति उनमें दया, प्रेम, करूणा का भाव नहीं है। इसका अर्थ है कि वह स्वयंभू विचार वाले संवेदनाहीन मनुष्य हैं और अन्य मनुष्यों को अपना परिवार और ईश्वर की सन्तान नहीं मानते। अतः आज आवश्यकता है कि एक स्वस्थ, शिक्षित, शोषण व अन्याय मुक्त, सभी के लिए घर, वस्त्र, भोजन, चिकित्सा, सामाजिक सुरक्षा व सत्य वैदिक ज्ञान से युक्त समाज व देश बनाने की दिशा में हमारे सभी श्रेष्ठ व अन्य बुद्धिजीवी विचार करें और एक आदर्श भारत के निर्माण की रचना व संगठन में अपना योगदान दें।

 

जनतन्त्र व लोकतन्त्र इसी लिए आदर्श माने जाते हैं कि इसमें वैचारिक व क्रियात्मक रूप से जनता को शिक्षा, ज्ञान, पक्षपात व अन्याय मुक्त वातावरण मिलता है। सभी को अपनी आजीविका मिलती है जिससे वह अपने जीवन को स्वस्थ व निरोग रखते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो सकें। इसे अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करने में संलग्न जीवन भी कह सकते हैं। हम जितना भौतिकवादी बनेंगे, जो कि आज बन गये हैं, उतना ही हम जीवन के लक्ष्यों से दूर होते जायेंगे और हमारा यह मनुष्य जीवन उद्देश्य व लक्ष्य से भटका हुआ जीवन ही कहा व माना जायेगा। हम चाहते हैं कि गणतन्त्र दिवस पर समाज में निर्धनता दूर करने, सबको समान, निःशुल्क, अनिवार्य शिक्षा प्राप्त कराने तथा सबके लिए निःशुल्क चिकित्सा, न्याय व सुरक्षा की गारण्टी युक्त वातावरण के निर्माण का प्रयास होना चाहिये। इन विषयों पर बहस हो, योजनायें बनें और सभी देशवासी इस कार्य में जुट जायें। अमीरी व गरीबी की खाई कम होनी चाहिये। अधिक सम्पत्ति वालों पर अधिक कर लगाकर उसे निर्धन जनता के दुःख व दर्द दूर करने में, बिना भ्रष्टाचार किये, व्यय करना चाहिये। सरकार की ओर से ऐसी योजना बने जिससे वेदों और वैदिक साहित्य पर अनुसंधान व उसके मानव जीवन पर प्रभावों का अध्ययन कर उससे लाभ उठाने के लिए प्रभावशाली प्रयत्न किये जायें। हम आशा करते हैं कि पाठक लेख पर सदभावपूर्ण रीति से विचार करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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Yes, the Vedas sanction death of a cow slaughterer: Dr. Dharmveer

The debate on beef is nothing new. The liberals, intellectuals have been creating an uproar about their right to eat beef on a regular basis. Their fight is not about an animal, their main objective today is to be anti Hindu. They will stand up for anything and against anything as long it is against Hinduism. Their overlords have just been thrown out of power after misgoverning India for 60 + years and they are venting out their frustration about anything they can get their hands on. If they really had concern for the Muslim world, they would have raised their voice against what is happening in Syria. They are essentially a bunch of hypocrites who were until now receiving monetary and other benefits for their anti Hindu stance. With the Modi Government coming to power in 2014 this has stopped to a great extent and this is the only way they know, to vent out their frustration. However their anti hindu stance has now morphed into being anti national.

 

According to them, Hindus do not have right priorities. How can killing of a cow be so important. there can hardly be comparison between value of man and a cow. All animals were created for the human beings and it is hence no sin in killing them or eating them. Even if we buy this argument that all animals were created for human beings, it still doesn’t mean that we destroy them altogether and eating them cannot be the only use they can be put to. Firstly all that has been created for human beings is a common resource and belongs to all and should therefore benefit all. They should be used in a way that is most useful and serves everyone. The best utilization of the resources is a measure of human intelligence. One doesn’t burn a house and say that the wood is for fire. It is used for fire but it is useful in construction of a house as well. Putting it to the best is the responsibility and duty of human beings.

 

 

If someone wants to benefit himself at the cost of others, he cannot be given the right to do that.

Personal conduct is everyone’s right but in a society we abide by the rules of the society. Today those who are advocating their right to eat beef will tomorrow ask their right to eat other human beings, will we allow that in the name of personal freedom. This happened in “Nitahari”. The law and the society considered those people to be guilty and punished according to the crime.

Similarly, the hindu society considers the cow “ Aghanya” which means that it should not be killed. The law also forbids it. The so called liberal class wants eat beef  and go against the majority of the population (which is still Hindu) and the law. This is not only against the society but going against the law is betraying the country too.

If one sections is breaking the law and getting away with it, sooner or later the law abiding section will also break the law. If eating beef is the right of “ Engineer Rashid” then punishing the beef eater will become the right of a Hindu. Both these situations of breaking the law would give rise to anarchy and in the country. This is not in the interest of the society. We always have to uphold the interest of society and the country. If one section proves itself powerful by killing a cow and the other creates chaos by using pork, their will tension and both situations are regrettable.

 

The meat eaters, especially the beef eaters have today created a food problem for the entire world.  Beef is a food requirement for a few people but cow milk is for the entire society. children, elderly and the sick especially need milk. It is a requirement of those who eat beef as well.  A large scale consumption of beef has created a shortage for milk. Butter, ghee, sweets all are prepared with milk. Milk shortage has resulted in adulteration in all milk products as the supply can no longer meet the demand.  Due to mass slaughter of cows and other bovine population has brought us to verge of drinking soybean water as milk.

If we remove milk and milk products from our diet, there is hardly anything left in our food. We believe that factories, industries and services are symbols of prosperity. We cannot be more wrong.  The way our needs and requirements are fulfilled by livestock, they cannot be fulfilled by any other source.  The livestock population lies at the real base of our prosperity. Animals are beneficial in life and even after their death. Their natural death also provides us with a lot of things so where is the need to kill them. Cow’s milk is good for the development of brain as well as physical strength whereas the meat is rich in “ Tamo gun” ( which increases aggressive and destructive behavior and anger).  Swami Dayandand had written more than a century ago, that a decline of the livestock population will cause the fall of the king and his subjects.

British rule had understood 2 of our strengths that needed to be destroyed in order to rule India.

The first was our education system which was knowledge, thought and ideal based. The second was a livestock, especially the cow which was central to our prosperity. They left us in poverty by destroying our these 2 strengths. Even today their pimps create ruckus on these issues in order to destroy the remaining social and religious fabric of India.

 

 

Cow is not a symbol of a Hindu or a Muslim identity. It belongs to everyone. Cow gives benefits even when it does not provide us milk. Cow manure is a natural fertilizer and cow urine is known to have medicinal properties. Developed countries are now developing medicines with cow urines to fight cancer. That cow milk enriches our food quality is a well known fact, cow manure is also an excellent natural fertilizer and protects soil quality. Swami Dayanand had made great efforts during his lifetime to protect cows and India’s livestock.  He also started a movement to collect 10 million signatures and send them to Queen Victoria to ban cow slaughter in India.  He understood the importance of cow in India’s Economy and explained it with a small book “ Gau Karunanidhi” or the economics of a cow. He explained that in a life time a cow can feed a much larger population as compared to the meet obtained by slaughtering it.  Hindus consider a cow holy, this is not just a religious belief that they have. It has its roots in the importance of a cow in our life and its basis in our prosperity. While we our busy slaughtering our cows, countries like Denmark are working to protect the Indian breed of cows. This makes the debate of beef in our country both depressing and worrisome. Milk from the Indian breed of cows is of a higher quality as compared to any other cow breed in the world. A large scale research has already proved this fact. This breed is today on the verge of extinction and we are debating our right to slaughter it. In light of these facts the debate on beef doesn’t seem natural but reeks of a concerted effort to destroy the society and halt its progress.

 

The advocates of beef who want to break the law in the name of using their right of freedom to eat food of their choice keep forgetting that this freedom can be exercised when the resource is in plenty and easily available. They feel that they have the right to eat beef, but is their right more important than the right of those who drink milk? The importance of beef over milk is a sign of intellectual bankruptcy, nothing more. The cost of beef eating on health and environment has been widely researched and documented but has gone largely unheeded. There has been an increase in the technology of slaughtering and each development is more cruel than the previous one. A calf is killed while in the womb because the leather so obtained is soft and a very high quality. Animals is tortured before death as the meat so obtained is tastier! This has made humans more cruel. the effect of this is now being seen in our society, in our towns and cities and villages where people are becoming more cruel and more intolerant. The religions which do not have tenets of non violence should not be called religions. Tolerance and non violence are both essential to protect and maintain the limits and boundaries of a society. Raising and protection of cows and other livestock increases qualities of kindness and brings prosperity.

Some people make fun that we call cow our mother. They do not understand the sentiment behind the words. In India when we understand the importance and value of something and earn benefit from it we develop and emotional bond. We love it, value it and protect it.  We call the earth our mother, the teacher’s wife, wife of elderly people and wife of the king are also addressed as mother. The word symbolizes respect and reminds us of our duty towards them.

Those who advocate their right to eat beef but scorn at the mention of pork should be asked that if God created all animals for the consumption of human beings then why are pigs considered impure. Can God ever create pure and impure animals. the purity and impurity of anything that has been created by God is a relative term and has been created by human beings. All creations of the Creator are pure. Those who call certain animals impure should be remade doc the verse from “ Yog Darshana” that the human body is from birth to death synonym of impure. People decide pure and impure according to their knowledge, interest and needs

The need of the hour is to put a complete stop on beef export. Beef traders are trying to make more and more money by exporting beef especially to the Gulf countries. India is a federal State which means that the protection of cow is state subject and not that of the Union Government. A countrywide consensus has therefore not been achieved on the subject of cow protection and faces administrative hurdles. A few BJP states have banned cow slaughter, however a much more concerted effort is needed on allergen scale to protect the Indian cow.

 

The Vedas are quite clear on the concept of giving a death sentence for cow slaughter. What the Vedas say on this subject is therefore hardly a controversial topic. It is ludicrous therefore when people say that there is beef eating in the Vedas. India is however not governed according to the Vedas, and it is not run according to the Quran either, which says killing an infidel is a path to heaven. India is ruled by its Constitution. So whatever the Vedas say or the Quran says is immaterial and we should handle the matter as per the law which prohibits cow slaughter.

 

At the same time we remember what the Vedas say about punishment to a cow slaughterer

“ If someone destroys our cows, horses or people, kill him with a bullet of lead or glass”.

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भयानक षडयन्त्र – राजन स्वामी

 

यद्यपि महाभारत काल के पश्चात् वैदिक शैक्षणिक व्यवस्था के मूल स्वरूप में विकृति प्रारभ हो गई थी। जिसके परिणाम स्वरूप वाम मार्ग का अयुदय होने से नैतिक मूल्यों और संस्कृत के प्रसार में ह्रास होता गया किन्तु मुगल शासन के प्रारभ होते ही द्वेषवश संस्कृत भाषा को मिटा देने का कुचक्र प्रारभ हो गया। इसी कड़ी में अनेक विश्वविद्यालय, पुस्तकालयों तथा पाठशालाओं को नष्ट कर दिया गया।

किन्तु आज स्थिति उससे भी अधिक भयावह है। भारत में मतान्तरण का सपना संजोये मुस्लिम एवं क्रिश्चियन मिशनरियों ने यह धारणा ही बना ली है कि जब तक संस्कृत भाषा रहेगी तबतक भारतीय संस्कृति को मिटाया नहीं जा सकता।

एक नियोजित षड़यन्त्र के अन्तर्गत संस्कृत को मृत भाषा घोषित करने का प्रयास किया जा रहा है। वैदिक (हिन्दू) धर्म के सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं। यदि विश्व की प्राचीनतम एवं वैज्ञानिक भाषा का ही अस्तित्व नहीं रहेगा तो हिन्दू धर्मग्रन्थों की स्थिति क्या होगी? इसे सहज ही समझा जा सकता है।

यह दुर्भाग्य का विषय है कि उत्तर प्रदेश की वर्तमान अखिलेश सरकार ने अरबी फारसी के विकास के लिए 556 करोड़ की राशि इस वर्ष के बजट में निर्धारित की है, जबकि संस्कृत भाषा के लिए एक रुपया भी बजट में नहीं रखा गया है। प्रश्न यह है कि क्या अरबी-फारसी भारत की मूल भाषा है या अरब ईरान (फारस) की भाषा है? संस्कृत भाषा को इतनी घृणा की दृष्टि से देखने का औचित्य क्या है? विगत 12 वर्षों में एक भी गुरुकुल या संस्कृत विद्यालय को मान्यता तक नहीं मिली है, जबकि इसी अन्तराल में सरकारी खजाने से लखनऊ-मलीहाबाद रोड पर भव्य अरबी फारसी विश्वविद्यालय का निर्माण हुआ है। यह तब है जब देश में पहले से ही अरबी-फारसी के कई विश्वविद्यालय मौजूद हैं। अकेले सहारनपुर मण्डल में 42 मदरसे हैं। इन मदरसों में धार्मिक समभाव एवं विज्ञान की कैसी शिक्षा दी जाती है, यह किसी से छिपा नहीं है। अल्पसंयक तुष्टिकरण के लिये सपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रथमा, मध्यमा तथा उत्तर मध्यमा को मिलने वाली मान्यता पर रोक लगा दी गई। कहा गया कि इसके लिये संस्कृत शिक्षा बोर्ड का गठन किया जायेगा। मुलायम एवं मायावती सरकार में लगभग 8 वर्ष बीतने के पश्चात् कुछ माह पूर्व संस्कृत विद्यालयों के लिये संस्कृत शिक्षा बोर्ड का गठन अवश्य हुआ है, किन्तु गुरुकुलों को मान्यता देने की प्रवृत्ति अभी भी देखने में नहीं आ रही है। जब संस्कृत के लिये अखिलेश सरकार के पास एक रुपया भी नहीं है तो मान्यता ही कैसे मिल सकती है? जब सी.बी.एस.ई बोर्ड में उत्तर मध्यमा (इण्टर) से संस्कृत हटा दी गयी है तो स्नातक की परीक्षा कैसे दी जा सकती है? इस देश का यह दुर्भाग्य है कि यहाँ लगभग सभी प्रान्तों में अंग्रेजी को किसी न किसी रूप में अनिवार्य बनाया गया है तथा फ्रेंच, जर्मन एवं अन्य भाषाओं के शिक्षण में काफी राजकीय सहायता दी जा रही है, किन्तु हिन्दी सहित भारत की सभी भाषाओं एवं विश्व की सभी भाषाओं की जन्मदात्री वैदिक संस्कृत को ही समाप्त करने का जो दुष्प्रयास हो रहा है, वह अवांछनीय है तथा देश के बुद्धिजीवी वर्ग को इस विषय पर गहन-चिन्तन करने की आवश्यकता है कि इसका दुष्परिणाम क्या होगा?

– सहारनपुर, उत्तर प्रदेश