Category Archives: महर्षि दयानंद सरस्वती

स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

ओ३म्

अथ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् साम्राज्य सार्वजनिक धर्म जिस को सदा से सब मानते आये, मानते हैं और मानेंगे भी, इसीलिये इस को सनातन नित्यधर्म कहते हैं कि जिस का विरोधी कोई भी न हो सके। यदि अविद्यायुक्त जन अथवा किसी मत वाले के भ्रमाये हुए उस को अन्यथा जानें वा मानें, उस का स्वीकार कोई भी बुद्धिमान् नहीं करते, किन्तु जिस को आप्त अर्थात् सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारक पक्षपातरहित विद्वान् मानते हैं वही सब को मन्तव्य और जिस को नहीं मानते वह अमन्तव्य होने से उसका प्रमाण नहीं होता। अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनिमुनि पर्य्यन्तों के माने हुए ईश्वरादि पदार्थ जिन को कि मैं मानता हूँ सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूँ।

मैं अपना मन्तव्य उसी को जानता हूँ कि जो तीन काल में एक सा सब के सामने मानने योग्य है। मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसको मानना, मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना और छुड़वाना मुझ को अभीष्ट है यदि मैं पक्षपात करता तो आर्य्यावर्त्त में प्रचरित मतों में से किसी एक मत का आग्रही होता किन्तु जो-जो आर्य्यावर्त्त वा अन्य देशों में अधर्मयुक्त चाल चलन है उस का स्वीकार और जो धर्मयुक्त बातें हैं उन का त्याग नहीं करता, न करना चाहता हूँ क्योंकि ऐसा करना मनुष्यधर्म से बहिः है।

मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख दुःख और हानि लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं—कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित हों—उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और [अधर्मी] चाहे चक्रवर्त्ती सनाथ महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवे। इस में श्रीमान् महाराजे भर्तृहरि, व्यास जी [और] मनु ने श्लोक लिखे हैं, उन का लिखना उपयुक्त समझ कर लिखता हूँ—

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा

न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥१॥

—भर्तृहरि [नीतिशतक ८५]

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥२॥

—महाभारत [उद्योगपर्व-प्रजागरपर्व अ॰ ४०। श्लोक ११-१२]

एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः।

शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति॥३॥      —मनु॰ [८।१७]

सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः। येनाऽऽक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥४॥

—मुण्डकोपनिषद् [३।१।६]

न हि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।

नहि सत्यात्परं ज्ञानं तस्मात्सत्यं समाचरेत्॥५॥  —उपनिषदि॥

[तुलना—मनु॰ ८।१२]

इन्हीं महाशयों के श्लोकों के अभिप्राय से अनुकूल निश्चय रखना सबको योग्य है।

अब मैं जिन-जिन पदार्थों को जैसा-जैसा मानता हूँ उन-उन का वर्णन संक्षेप से यहाँ करता हूँ कि जिनका विशेष व्याख्यान इस ग्रन्थ में अपने-अपने प्रकरण में कर दिया है। इन में से प्रथम—

१. ‘ईश्वर’ कि जिसको ब्रह्म, परमात्मादि नामों से कहते हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त परमेश्वर है उसी को मानता हूँ।

२. चारों ‘वेदों’ को विद्या धर्मयुक्त ईश्वरप्रणीत संहिता मन्त्रभाग को निर्भ्रान्त स्वतःप्रमाण मानता हूँ अर्थात् जो स्वयं प्रमाणरूप हैं, कि जिस के प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा न हो जैसे सूर्य्य वा प्रदीप स्वयं अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के प्रकाशक होते हैं वैसे चारों वेद हैं। और चारों वेदों के ब्राह्मण, छः अङ्ग, छः उपाङ्ग, चार उपवेद और ११२७ (ग्यारह सौ सत्ताईस) वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं उन को परतःप्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन हैं उन का अप्रमाण करता हूँ।

३. जो पक्षपातरहित न्यायाचरण सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है उस को ‘धर्म’ और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभङ्ग वेदविरुद्ध है उस को ‘अधर्म’ मानता हूँ।

४. जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है उसी को ‘जीव’ मानता हूँ।

५. जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधर्म्य से भिन्न और व्याप्य व्यापक और साधर्म्य से अभिन्न हैं अर्थात् जैसे आकाश से मूर्त्तिमान् द्रव्य कभी भिन्न न था, न है, न होगा और न कभी एक था, [न] है, न होगा, इसी प्रकार परमेश्वर और जीव को व्याप्य व्यापक, उपास्य उपासक और पिता पुत्रवत् आदि सम्बन्धयुक्त मानता हूँ।

६. ‘अनादि पदार्थ’ तीन हैं। एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरी प्रकृति अर्थात् जगत् का कारण, इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं उन के गुण, कर्म स्वभाव भी नित्य हैं।

७. ‘प्रवाह से अनादि’ जो संयोग से द्रव्य, गुण, कर्म उत्पन्न होते हैं वे वियोग के पश्चात् नहीं रहते, परन्तु जिस से प्रथम संयोग होता है वह सामर्थ्य उन में अनादि है, और उस से पुनरपि संयोग होगा तथा वियोग भी, इन तीन [को] प्रवाह से अनादि मानता हूँ।

८. ‘सृष्टि’ उस को कहते हैं जो पृथक् द्रव्यों का ज्ञान युक्तिपूर्वक मेल हो कर नानारूप बनना।

९. ‘सृष्टि का प्रयोजन’ यही है कि जिस में ईश्वर के सृष्टिनिमित्त गुण, कर्म, स्वभाव का साफल्य होना। जैसे किसी ने किसी से पूछा कि नेत्र किस लिये हैं? उस ने कहा देखने के लिये। वैसे ही सृष्टि करने के ईश्वर के सामर्थ्य की सफलता सृष्टि करने में है और जीवों के कर्मों का यथावत् भोग कराना आदि भी।

१०. ‘सृष्टि सकर्तृक’ है। इस का कर्त्ता पूर्वोक्त ईश्वर है। क्योंकि सृष्टि की रचना देखने, जड़ पदार्थ में अपने आप यथायोग्य बीजादि स्वरूप बनने का सामर्थ्य न होने से सृष्टि का ‘कर्त्ता’ अवश्य है।

११. ‘बन्ध’ सनिमित्तक अर्थात् अविद्यादि निमित्त से है। जो-जो पाप कर्म ईश्वरभिन्नोपासना, अज्ञानादि ये सब दुःखफल करने वाले हैं। इसी लिये यह ‘बन्ध’ है कि जिस की इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है।

१२. ‘मुक्ति’ अर्थात् सब दुःखों से छूटकर बन्धरहित सर्वव्यापक ईश्वर और उस की सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द को भोग के पुनः संसार में आना।

१३. ‘मुक्ति के साधन’ ईश्वरोपासना अर्थात् योगाभ्यास, धर्मानुष्ठान, ब्रह्मचर्य्य से विद्याप्राप्ति, आप्त विद्वानों का संग, सत्यविद्या, सुविचार और पुरुषार्थ आदि हैं।

१४. ‘अर्थ’ जो धर्म ही से प्राप्त किया जाय। और जो अधर्म से सिद्ध होता है उस को ‘अनर्थ’ कहते हैं।

१५. ‘काम’ वह है कि जो धर्म और अर्थ से प्राप्त किया जाय।

१६. ‘वर्णाश्रम’ गुण कर्मों के योग से मानता हूँ।

१७. ‘राजा’ उसी को कहते हैं जो शुभ गुण, कर्म, स्वभाव से प्रकाशमान, पक्षपातरहित न्यायधर्म का सेवी, प्रजा में पितृवत् वर्त्ते और उन को पुत्रवत् मान के उन की उन्नति और सुख बढ़ाने में सदा यत्न किया करे।

१८. ‘प्रजा’ उस को कहते हैं कि जो पवित्र गुण, कर्म, स्वभाव को धारण कर के पक्षपातरहित न्यायधर्म के सेवन से राजा और प्रजा की उन्नति चाहती हुई राजविद्रोहरहित राजा के साथ पुत्रवत् वर्त्ते।

१९. जो सदा विचार कर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करे, अन्यायकारियों को हटावे और न्यायकारियों को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सब का सुख चाहे, उस को ‘न्यायकारी’ मानता हूँ।

२०. ‘देव’ विद्वानों को, और अविद्वानों को ‘असुर’, पापियों को ‘राक्षस’, अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हूँ।

२१. उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री, स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’ कहाती है, इस से विपरीत अदेवपूजा। इन मूर्त्तियों की पूजा कर्त्तव्य, इन मूर्त्तियों से इतर जड़ पाषाणादि मूर्त्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ।

२२. ‘शिक्षा’ जिस से विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और इनसे अविद्यादि दोष छूटें, उस को शिक्षा कहते हैं।

२३. ‘पुराण’ जो ब्रह्मादि के बनाये ऐतरेयादि ब्राह्मण पुस्तक हैं उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी नाम से मानता हूँ, अन्य भागवतादि को नहीं।

२४. ‘तीर्थ’ जिससे दुःखसागर से पार उतरें कि जो सत्यभाषण, विद्या, सत्संग, यमादि योगाभ्यास, पुरुषार्थ विद्यादानादि शुभ कर्म है उसी को तीर्थ समझता हूँ, इतर जलस्थलादि को नहीं।

२५. ‘पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा’ इसलिये है कि जिस से संचित प्रारब्ध बनते जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं। इसी से प्रारब्ध की अपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है।

२६. ‘मनुष्य’ को सबसे यथायोग्य स्वात्मवत् सुख, दुःख, हानि, लाभ में वर्त्तना श्रेष्ठ, अन्यथा वर्त्तना बुरा समझता हूँ।

२७. ‘संस्कार’ उसे कहते हैं कि जिससे शरीर, मन और आत्मा उत्तम होवे। वह निषेकादि श्मशानान्त सोलह प्रकार का है। इसको कर्त्तव्य समझता हूँ और दाह के पश्चात् मृतक के लिये कुछ भी न करना चाहिये।

२८. ‘यज्ञ’ उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थविद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिनसे वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना, उत्तम समझता हूँ।

२९. जैसे ‘आर्य्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ।

३०. ‘आर्य्यावर्त्त’ देश इस भूमि का नाम इसलिये है कि जिस में आदि सृष्टि से पश्चात् आर्य्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्रा नदी है। इन चारों के बीच में जितना देश है उसी को ‘आर्य्यावर्त्त’ कहते और जो इस में सदा रहते हैं उन को भी आर्य्य कहते हैं।

३१. जो साङ्गोपाङ्ग वेदविद्याओं का अध्यापक सत्याचार का ग्रहण और मिथ्याचार का त्याग करावे वह ‘आचार्य’ कहाता है।

३२. शिष्य—उस को कहते हैं कि जो सत्य शिक्षा और विद्या को ग्रहण करने योग्य धर्मात्मा, विद्याग्रहण की इच्छा और आचार्य का प्रिय करने वाला है।

३३. गुरु—माता, पिता। और जो सत्य का ग्रहण करावे और असत्य को छुड़ावे वह भी ‘गुरु’ कहाता है।

३४. पुरोहित—जो यजमान का हितकारी सत्योपदेष्टा होवे।

३५. उपाध्याय—जो वेदों का एकदेश वा अङ्गों को पढ़ाता हो।

३६. शिष्टाचार—जो धर्माचरणपूर्वक ब्रह्मचर्य से विद्याग्रहण कर प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सत्यासत्य का निर्णय करके, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना है यही शिष्टाचार, और जो इसको करता है वह ‘शिष्ट’ कहाता है।

३७. प्रत्यक्षादि आठ ‘प्रमाणों’ को भी मानता हूँ।

३८. ‘आप्त’ कि जो यथार्थवक्ता, धर्मात्मा, सब के सुख के लिये प्रयत्न करता है उसी को ‘आप्त’ कहता हूँ।

३९. ‘परीक्षा’ पाँच प्रकारी है। इस में से प्रथम जो ईश्वर उसके गुण कर्म स्वभाव और वेदविद्या, दूसरी प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण, तीसरी सृष्टिक्रम, चौथी आप्तों का व्यवहार और पांचवीं अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या, इन पाँच परीक्षाओं से सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना चाहिये।

४०. ‘परोपकार’ जिससे सब मनुष्यों के दुराचार, दुःख छूटें, श्रेष्ठाचार और सुख बढ़ें, उसके करने को परोपकार कहता हूँ।

४१, ‘स्वतन्त्र’ ‘परतन्त्र’—जीव अपने कामों में स्वतन्त्र और कर्मफल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र, वैसे ही ईश्वर अपने सत्याचार काम करने में स्वतन्त्र है।

४२. स्वर्ग—नाम सुख विशेष भोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है।

४३ नरक—जो दुःख विशेष भोग और उसकी सामग्री को प्राप्त होना है।

४४. जन्म—जो शरीर धारण कर प्रकट होना सो पूर्व, पर और मध्य भेद से तीनों प्रकार के मानता हूँ।

४५. शरीर के संयोग का नाम ‘जन्म’ और वियोग मात्र को ‘मृत्यु’ कहते हैं।

४६. विवाह—जो नियमपूर्वक प्रसिद्धि से अपनी इच्छा करके पाणिग्रहण करना ‘विवाह’ कहाता है।

४७. नियोग—विवाह के पश्चात् पति के मर जाने आदि वियोग में अथवा नपुंसकत्वादि स्थिर रोगों में स्त्री वा पुरुष आपत्काल में स्ववर्ण वा अपने से उत्तम वर्णस्थ पुरुष [वा स्त्री के] साथ नियोग कर सन्तानोत्पत्ति कर लेवें।

४८. स्तुति—गुणकीर्त्तन, श्रवण और ज्ञान होना, इसका फल प्रीति आदि होते हैं।

४९. प्रार्थना—अपने सामर्थ्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करनी और इसका फल निरभिमान आदि होता है।

५०. ‘उपासना’—जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं वैसे अपने करना। ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के, ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, वैसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात् करना, उपासना कहाती है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।

५१, ‘सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना’—जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उनसे युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं उनसे पृथक् मानकर प्रशंसा करना सगुणनिर्गुण स्तुति कहाती है और शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना सगुणनिर्गुणप्रार्थना और सब दोषों से रहित, सब गुणों से सहित परमेश्वर को मानकर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना निर्गुणसगुणोपासना कहाती है।

ये संक्षेप से स्वसिद्धान्त दिखला दिये हैं। इनकी विशेष व्याख्या इसी ‘सत्यार्थप्रकाश’ के प्रकरण-प्रकरण में है तथा [ऋग्वेदादिभाष्य]-भूमिका आदि ग्रन्थों में भी लिखी है। अर्थात् जो-जो बात सबके सामने माननीय है, उसको मानता अर्थात् जैसा कि सत्य बोलना सबके सामने अच्छा, और मिथ्या बोलना बुरा है, ऐसे सिद्धान्तों को स्वीकार करता हूँ। और जो मतमतान्तर के परस्पर विरुद्ध झगड़े हैं उनको मैं प्रसन्न नहीं करता, क्योंकि इन्हीं मत वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फसा के परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट, सर्व सत्य का प्रचार कर, सब को ऐक्यमत में करा, द्वेष छुड़ा, परस्पर में दृढ़प्रीतियुक्त करा के, सब से सबको सुख लाभ पहुँचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा की कृपा, सहाय और आप्तजनों की सहानुभूति से यह सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल में शीघ्र प्रवृत्त हो जावे और जिससे सब लोग सहज से धर्म्मार्थ काम मोक्ष की सिद्धि करके, सदा उन्नत और आनन्दित होते रहैं, [यही] मेरा मुख्य प्रयोजन है।

अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्य्येषु।

ओ३म्। शन्नो मित्रः शं वरुणः। शन्नो भवत्वर्य्यमा।

शन्न इन्द्रो बृहस्पतिः। शन्नो विष्णुरुरुक्रमः॥

नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मावादिषम्। ऋतमवादिषम्। सत्यमवादिषम्। तन्मामावीत्। तद्वक्तारमावीत्। आवीन्माम्। आवीद्वक्तारम्।

ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

[तैत्तिरीय आरण्यक ७।१२]

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य्याणां परमविदुषां श्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितः स्वमन्तव्यामन्तव्यसिद्धान्तसमन्वितः

सुप्रमाणयुक्तः सुभाषाविभूषितः

सत्यार्थप्रकाशोऽयं ग्रन्थः सम्पूर्तिमगमत्॥

व्रुपासि वास्त्रा वैदिक वाड्.मय में पृथिवी – प्रो.-छाया ठाकुर

            लैटिन भाष के शब्द साइंटिया (Scientia) जिसका अर्थ ज्ञान है से व्युत्पन्न साइंस अर्थात् विज्ञान (विशिष्ट ज्ञानं विज्ञानमिति) प्रयोग और परीक्षण द्वारा सत्यापित ज्ञान है। विज्ञान की दो शाखायें हैं (१) प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) (२) सामाजिक विज्ञान (Human Science)। प्राकृतिक विज्ञान ही वह आधारभूत विज्ञान है जिसमें प्रकृति और पदार्थ का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। प्राकृतिक विज्ञान की एक शाखा भौतिक विज्ञान के अन्तर्गत हम ब्रह्माण्ड में स्थित वस्तुओं, क्रियाओं और उन्हें प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन करते हैं। पदार्थ का अध्ययन करनेवाले समस्त विज्ञानों को भौतिक विज्ञान (Matarial Science) कहते हैं। पदार्थ-विज्ञान के अन्तर्गत ही हम ब्रह्माण्ड में स्थित विभिन्न तत्वों जैसे सूर्य, वायु, मेघ, पृथिवी, प्रकाश आदि का अध्ययन करते हैं।

            वैदिक साहित्य ही ज्ञान विज्ञान की परम्परा का वह उत्स है जो उत्तरोत्तर विकसित और समृद्ध होता गया। धातु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, औषधि विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, गणित, ज्यामितीय, परमाणु विज्ञान और ज्योतिष आदि समस्त विज्ञानों का मूल वैदिक संहिताओं में ही खोजा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान के मूलभूत तत्व हमें वैदिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं। आवश्यकता है, उन्हें ढूँढने की, उस गुह्य-ज्ञान को अनावृत करने की। इस संगोष्ठी पदार्थ-विज्ञान के अन्तर्गत आनेवाले विभिन्न ब्रह्माण्डकीय प्राकृतिक तत्वों के वैदिक स्वरूपों के अध्ययन पर केन्द्रित है। इस संगोष्ठी के लिये निर्धारित विषयों में से मैंने ‘‘वेदों में पृथिवी का स्वरूप’’ इस विषय पर अपना आलेख लिखने का प्रयास किया है।

            प्रस्तुत आलेख में पृथिवी के स्वरूप का अध्ययन तीन दृष्टियों से किया गया है-

            (१) आधुनिक विज्ञान में पृथिवी का स्वरूप

            (२) ऋग्वेद में पृथिवी का स्वरूप

            (३) अथर्ववेद में पृथिवी का स्वरूप

१         आधुनिक विज्ञान में पृथिवी का स्वरूपः

            ब्रह्माण्ड तीन भागों में विभाजित है- (१) पृथ्वी (२) अन्तरिक्ष (३) द्यौः। द्यौः और पृथ्वी के बीच का भाग अन्तरिक्ष कहलाता है। इस ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा हिस्सा है। हमारे सौरमण्डल का केन्द्र सूर्य है। इस सौर परिवार में पृथिवी सहित नौ ग्रह, उपग्रह ग्रहिकायें और पुच्छल तारे हैं। ये सभी सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य के निकटतम बुध (Mercury) है, उसके बाद क्रमशः शुक्र, पृथिवी मंगल, बृहस्पति, शनि, अरूण, वरूण और यम हैं। पृथिवी को अन्य ग्रहों से पृथक् करनेवाली विशेषता यह है कि पृथ्वी पर जीवन है, अन्य ग्रहों में नहीं।

            सौरमंण्डल में सर्वाधिक प्रसिद्ध और मानव तथा जैव जगत् के लिये सर्वाधिक उपादेय ग्रह पृथ्वी ही है। यह बुध, शुक्र, मंगल और कुबेर (यम) से बड़ा और अन्य ग्रहों से छोटा ग्रह है। इसका व्यास १२७६० कि. मी. है। यह सूर्य से १४ करोड़ ८८ लाख कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह अपनी धुरा पर चैबीस घंटों में एक बार घूम जाती है। सूर्य की परिक्रमा करने में इसे ३६५ दिन ६ घंटे लगते हैं। यह अपनी धुरा पर २३ १/२ झुकी हुई है और इस झुकाव के कारण पृथिवी पर सौर ताप की प्राप्ति, वर्षा तथा ऋतुओं पर विशेष प्रभाव पड़ता है।

पृथिवी की उत्पत्तिः

            पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धान्त पर आधुनिक वैज्ञानिकों में मतवैभिन्य है। कुछ वैज्ञानिकों को कथन है कि केवल सूर्य से ही पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है। कुछ कहते हैं कि एक तारा सूर्य से टकराया और इससे होनेवाले बिखराव से पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई। आधुनिक काल में सर्वप्रथम १७४५ में बफन ने, १७५५ में काण्ट और १७९६ में लाप्लास ने पृथ्वी और सौरमण्डल की उत्पत्ति के बारे में विज्ञान सम्मत सिद्धान्त किये। पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धान्त को तीन वर्गों में रखा जा सकता है-

            (१) एक तारक या अद्वैतवादी सिद्धान्त- यह सिद्धान्त बफन, काण्ट लाप्लास, हर्शल एवं रोशे (फ्रांसीसी) ने प्रस्तुत किया।

            (२) द्वैतारक या द्वैतवादी सिद्धान्त- यह सिद्धान्त गोल्टन और चेम्बरलीन (अमेरिकी) जीन्स, जैफ्रे और रसैल नामक विद्वानों ने प्रस्तुत किया।

            (३) आधुनिक सिद्धान्त- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अत्याधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों और ब्रह्माण्ड के संबंध में एकत्रित की गई जानकारी पर ये सिद्धान्त आधारित हैं। इनमें मुख्यतः डॉ. ऑफवन, प्रो. होयल, एवं लिटिलटन (ब्रिटिश) का नोवा तारा सिद्धान्त, राजसन का आवर्तन एवं ज्वारीय सिद्धान्त तथा डॉ. बैनर्जी का सीफिड सिद्धान्त उल्लेखनीय है।

पृथिवी की उत्पत्ति की वैदिक अवधारणाः

            ऋग्वेद में परमेश्वर से ही सृष्टि का विकास माना गया है। स्वयंभू परमेश्वर (पुरूष) ने पहले महान अर्णव में गर्भ धारण किया जिससे प्रजापति उत्पन्न हुआ। ये महदण्ड संख्यातीत थे। इन्हीं अण्डों से अतिदूरस्थं सृष्टियाँ (Galaxy) उत्पन्न हुई। मानवधर्मशास्त्र के अनुसार हिरण्याण्ड के दो शकलों से दिव के और भूमि की उत्पत्ति हुई। तदनुसार पहले भूमि बनी और बाद में दिव के सूर्य आदि अस्तित्व में आये। यही बात शतपथ बाह्मण में भी कही गई है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रजापति ने भू शब्द उच्चारा और उसने भूति उत्पन्न की। प्रजापति अथवा ईश्वर के इस उच्चारण से भूमि आदि सृष्टियाँ बनीं, इस बात की प्रतिध्वनि बाईबिल में भी देखी जा सकती है। त्वष्टा जो जो बोला वही हुआ। बाईबिल का ईश्वर और ब्राह्मण ग्रंथों का त्वष्टा ही प्रजापति है-

१. And God said, Let there be light; ans there was light.

६.  And God said, Let there be a Hrmament (Heaven)

९. And God said, Let the dry land appear

१४. And God said, Let there be lights (Sun, Moon) in the firmament-Ch. १.३ (Old Testament)

यही भाव ऋग्वेद, कठोपनिषद् और गीता में भी व्यक्त हुआ है। यही बात पुराणों में भी दुहरायी गई है-भूरिति व्याहृते पूर्वं भूलोकश्व ततो भवत्।

            उपर्युक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहंचते हैं कि हिरण्यगर्भ से ही भौतिक पदार्थों और सृष्टि (Galaxy) का विकास हुआ। वर्तमान सृष्टि का विकास आज से लगभग १९७.३ करोड़ वर्ष पूर्व आरंभ हुआ, ऐसी प्राचीन ग्रंथों की मान्यता है। पृथ्वी और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की आयु तो इससे भी अधिक है। वर्तमान वैज्ञानिक भी विभिन्न प्रमाणों के आधार पर पृथ्वी की उत्पत्ति को २०० करोड़ वर्ष पूर्व की मानते हैं।

पृथ्वी के स्वरूप की वैदिक धारणाः

बौद्ध दर्शन की मान्यता है कि जिस तरह अन्य ग्रह आधारशून्य होकर भ्रमणशील हैं उसी तरह पृथ्वी भी है और उसमें गुरूत्व भी है जिससे वह निरन्तर नीचे की ओर गतिमान है। उपनिषदों को प्रामाणिक मानकर वेदान्त दर्शन में कहा गया है। कि जल से पृथिवी की उत्पत्ति हुई है। अथर्ववेद में कहा गया है कि जल का आधार पृथिवी है। प्रसिद्ध खगोलशास्त्री आर्यभट्ट  (४७६ ई.) की धारणा है कि पृथ्वी आकाश में निराधार अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है जिससे रात-दिन होते हैं। तत्पश्चात् दूसरे खगोलवैज्ञानिक वराहमिहिर  (५०५ ई.) ने कहा कि पञ्चमहाभूतमयी यह पृथिवी चुम्बक से घिरी होकर आकाश में टिकी है। ११५० ई. में वैज्ञानिक भास्कराचार्य ने भी कहा कि पृथ्वी का कोई आधार नहीं है। यह अपनी शक्ति से ही स्वभाववश आकाश में स्थित है। और सभी प्राणियों का आधार है।

पञ्चमहाभूतमयी पृथिवी में पांच विशिष्ट गुण पाये जाते हैं-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। गन्ध पृथिवी का अतिविशिष्ट गुण है जो अन्य किसी द्रव में नहीं पाया जाता।

२. ऋग्वेद में द्यावापृथिवी का स्वरूपः

ऋग्वेद के अध्ययन से द्यावा-पृथिवी के संबंध में निम्नलिखित वैज्ञानिक तथ्य सामने आते हैं-

(१) द्यावा-पृथिवी की उत्पत्तिः

१.        परमात्मा से ही द्यावापृथिवी की उत्पत्ति हुई है और वह इन दोनों में व्याप्त है।

२.        सूर्य को द्यावापृथिवी का जन्मदाता कहा गया है।

३.        इसके विपरीत एक स्थान पर सूर्य को द्यावापृथिवी का पुत्र कहा गया है।

(२) सूर्य से ही पृथिवी प्रकाशित होती हैः- द्यावापृथिवी के बीच से सूर्य प्रकाश आदि धारण करने के धर्म से गतिशील है।

(३) पृथिवी अत्यधिक विस्तृत हैः- इसके लिये महिनी, अरूव्यचसा (१.१६०.२), उर्वी (विस्तीर्ण) पृथ्वी (फैली हुई) (६.७०.६) ज्येष्ठे मही रूचा द्यावापृथिवी (४.५६.१) कहा गया है।

(४) पृथिवी अपनी धुरी पर घुमती हैः

            ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा है कि पृथिवी अनेक तरह से विचरण करने वाली है (विचारिणी ५.७०.२) ऋतावरी (४.५६.२), घृतवती (६.७०.१) है। वह जल से युक्त, जल की शोभा से युक्त (घृतश्रिया) जल से संबंध रखनेवाली (घृतपृचा), जल का संवर्धन करने वाली है।

३. अथर्ववेद में पृथिवी का स्वरूपः

            वेदों में पृथिवी का कोई मूर्त रूप नहीं है। आधुनिक भूगोल विज्ञान, भूविज्ञान आदि में जो स्वरूप पृथिवी का है, मुख्यतया वही भौतिक स्वरूप हम अथर्ववेद में भी पाते हैं, यद्यपि कुछ वैज्ञानिक तथ्यों को भी उसमें खोजा जा सकता है।?

            अथर्ववेद के १२ वें काण्ड का प्रथम सूक्त, जिसमें ६३ मंत्र हैं, पृथिवी को समर्पित है। यह पृथिवी सूक्त केनाम से विख्यात है। इसे भूमि सूक्त भी कहा जाता है। सभी प्राणी इस पृथिवी की सन्तान है अतः इसे मातृभूमि सूक्त भी कहते हैं। इसमें न केवल पृथिवी के स्वरूप का तथा पृथिवी द्वारा धनधान्य, बल और यश प्रदान करने का उल्लेख है अपितु इसमें मातृभूमि के प्रति कर्त्तव्यपालन करनेवालें के लिये सत्यनिष्ठा, यथार्थबोध, दक्षता, क्षात्रतेज, ब्रह्मज्ञान और त्यागादि गुणों, प्रवृत्तियों और मर्यादाओं का भी उल्लेख है। राष्ट्रीय अवधारणा तथा वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को विकसित और पुष्ट करने के लिये आवश्यक महनीय गुणों का भी समावेश, इसकी उपयोगिता को बढ़ाता है।

            अथर्ववेद में वर्णित पृथिवी सूक्त में पृथिवी के स्वरूप-इसके आधार से अध्ययन किया जा सकता है- (१) पृथ्वी का वैज्ञानिक स्वरूप-इसके आधार पर हम पृथ्वी और सौरमण्डल संबंधी अनेक वैज्ञानिक तथ्यों का अध्ययन कर सकते हैं। (२) पृथ्वी का भौतिक स्वरूप-इसके आधार पर हम भूगोल विज्ञान से संबंधित तथ्यों की पुष्टि कर सकते हैं।

            (१) पृथ्वी का वैज्ञानिक स्वरूप- इसके आधार पर अनेक वैज्ञानिक तथ्य उभरकर सामने आते हैं-

            (क) पृथिवी की उत्पत्ति-‘‘अथर्वा” विश्व के प्रथम वैज्ञानिक हैं जिन्होंने अनेक वैज्ञानिक तथ्यों का उल्लेख अथर्ववेद में किया है। पृथिवी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है, इस तथ्य का उल्लेख १८वें अध्याय के तीसरे सूक्त में किया गया है। इस सूक्त के ग्यारह मन्त्रों में यह कहा गया है कि पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य के हाथों से हुई है। प्रत्येक मन्त्र में इसे बाहुच्युता कहा गया है। ऋग्वेद में एक स्थल पर यह कहा गया है कि वरूण ने सूर्य द्वारा पृथिवी को बनाया या नापा।

            (ख) पृथिवी का केन्द्र बिन्दु सूर्य- हमारे सौरमण्डल का केन्द्र सूर्य ही है और सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं, यह एक वैज्ञानिक तथ्य है जिसे अथर्वा ऋषि ने हजारों वर्ष पूर्व ही कह दिया था कि पृथिवी का केन्द्रबिन्दु (हृदय) आकाश में है- यस्य हृदयं परमे व्योमन्। आकाश में सूर्य के रूप में अग्नि है और अन्तरिक्ष उसी से प्र्रकाशित होता है- अग्निर्दिव आ तपत्यग्नेर्देवस्योर्वऽन्तरिक्षम्।

            (ग) पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है- पृथिवी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने का वैज्ञानिक सिद्धान्त अथर्ववेद के इस मंत्र में भी दृष्टिगत होता है-

पृथिवी सूकराय वि जिहीते मृगाय।

            अथर्ववेद में कहा गया है कि पृथिवी काँपते हुए चलती है। काँपते हुए चलने से तात्पर्य लट्टू की तरह अपने ही चारों ओर घूमते हुए चलने से है। पृथिवी की इस दैनिक गति से दिन और रात होते हैं यह बात भूगोलवत्ता भी जानते हैं। यही तथ्य हजारों वर्ष पूर्व अथर्ववेद में उद्घाटित किया गया है- याऽप् सर्पं विजयमाना विमृग्वरी। रात और दिन का उल्लेख ऋषि ने अहोरात्रे कहकर किया है।

(घ) पृथिवी पञ्चतन्मात्राओं से यूक्त है- पंचमहाभूतमय पदार्थों में पृथिवी ही ऐसा द्रव्य है जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध पाये जाते हैं। पृथिवी का प्रधान गुण गंध है जो अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता अतः उसे गन्धवती पृथिवी कहा गया है-

            यस्ते गंधः पृथिवी सम्बभूव यं बिभ्रत्योषधयो यमाषः

            यं गन्धर्वा अप्सरश्व भेजिरे तेन मा सुरभिं कृणु।।

            पृथिवी सूक्त के १२.१.२४ और २५वें मंत्र में भी पृथिवी के गंधयुक्त होने की बात कही गई है।

(ड.) गुरूत्वाकर्षण शक्ति- महान वैज्ञानिक न्यूटन ने पृथिवी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति के सिद्धान्त को फल के पृथ्वी पर गिरने के प्रयेाग से सिद्ध किया। इस गुरूत्वाकर्षण शक्ति के सिद्धान्त का अथर्वा ऋषि ने हजारों वर्ष पूर्व उद्घाटित किया है- मल्बं बिभ्रती गुरूभृत् कहकर। अर्थात् पृथ्वी में गुरू पदार्थ को अपनी ओर खींचने और धारण करने की शक्ति है।

            पृथिवी की आकर्षण शक्ति का वर्णन पातजंलि (१५०ई. पू.) भास्कराचार्य द्वितीय (१११४ ई.) वराहमिहिर (४७० ई.) और श्रीपति (१०३९ ई.) ने भी किया है, प्रत्येक परमाणु में आकर्षण शक्ति है और इसी शक्ति के कारण पृथिवी सूर्य और चन्द्रमा तीनों एक दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। सभी ग्रह एक-दूसरे के आकर्षण से बंधे हैं, यही कारण है कि वे आकाश में निराधार टिके हैं और नीचे नहीं गिरते।

            (च) पृथिवी का स्वरूप एवं आकार- पृथ्वी सूक्त में पृथिवी के स्वरूप एवं आकार का वर्णन अनेक मंत्रों में मिलता है। पृथिवी लंबी, चौड़ी, विस्तीर्ण, गोल ओर स्थिर है।

            (छ) पृथिवी पहले जलमग्न थी- आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी पहले जलमग्न थी। प्राचीनकाल में पूरा यूरोप और एशिया जलमग्न था। धीरे-धीरे समुद्र हटता गया और कालान्तर में पृथिवी ऊपर आ गई। यही बात अथर्ववेद में भी कही गई है कि पृथिवी पहले समुद्र में मग्न थी और धीरे-धीरे ऊपर आई-यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीत्।

            पृथ्वी संबंधी उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त कुछ सामान्य वैज्ञानिक अवधारणाओं की पुष्टि भी पृथिवी सूक्त करता है-

            (१) ब्रह्माण्ड तीन लोकों में विभाजित है- सभी धर्मशास्त्र और वैज्ञानिकों (खगोल विज्ञान, भूविज्ञान, ज्योतिष्, भूगोल आदि) ने माना है कि यह ब्रह्माण्ड द्यौ, अन्तरिक्ष और पृथ्वी इन तीन लोकों में विभाजित है। अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में हजारों वर्ष पूर्व यही बात कही गई है- द्यौश्व म इदं पृथिवी चान्तरिक्षं च मे व्यचः।

            (२) तीन प्रकार की अग्नि- अथर्वा ऋषि ने तीन प्रकार से अग्नि की उत्पत्ति का वर्णन किया है- १. वृक्ष से अग्नि २. जल के मन्थन से अग्नि ३. भूगर्भीय अग्नि उपर्युक्त तीनों प्रकार की अग्नियों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं- अग्निर्भूम्यामोषधीष्वग्निमापो बिभ्रत्यग्निरश्मसु। अर्थात् अग्नि भूमि में, विद्युत् रूप में मेघ अर्थात् जल में, ओषधियों में तथा पत्थरों में विद्यमान है।

            पृथ्वी अग्निमयी है- अग्निवासाः पृथिवीः अथर्ववेद में ही अन्यत्र अगिन के आविष्कार के तीन चरणों का उल्लेख है, वहां कहा गया है कि अग्नि पत्थर के घर्षण लकड़ी के घर्षण से और जल के घर्षण से उत्पन्न होती है। एक स्थान पर कहा गया है- यत् ते मध्यं पृथिवी यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवः। यहाँ पृथ्वी के गर्भ में स्थित ऊर्जा से तात्पर्य अग्नि से है जो आज की पृथिवी के गर्भ में लावे के रूप में स्थित है। इसके अतिरिक्त प्राणियों में स्थित जठराग्नि का भी उल्लेख किया गया है-अग्निरन्तुः पुरूषेषु गोष्वश्वेष्वग्नयः।

            (३) खनिज संपदा-  यह पृथिवी खनिज सम्पदा से परिपूर्ण है। इसमें सोना, चाँदी, हीरा आदि बहुमूल्य पदार्थ पाये जाते हैं, जिनका उल्लेख भूमिसूक्त में मिलता है- विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षाः। इस मन्त्र में वसुधानी का तात्पर्य खनिजों की खान और हिरण्यवक्षा का तात्पर्य सुवर्ण, चांदी आदि बहुमूल्य धातुओं से है। अन्यत्र भी वे सुवर्णमयी पृथ्वी को नमस्कार करते हैं- तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः। एक स्थल पर कहा गया है कि बहुत तरह की खानों में (बहुधा गुहा) ए (वसु) ए रत्न पन्नां, हीरादि (मणि), सोना, चाँदी आदि (हिरण्यं) की खान (निधिं) को धारण करने वाली पृथिवी हमें धन दे निधिं बिभ्रती बहुधा गुहा वसु मणिं हिरण्यं पृथिवी ददातु में वसूनि नो वसुदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना।

            (४) भूकंप- भूगोल विज्ञान में वर्णित भूकंप का विवरण भी पृथिवी सूक्त में मिलता है- महान् वेग एजथु र्वेपथुष्ते। अर्थात् हे पृथिवी आपका हिलना डुलना अत्यन्त वेगवान होता है। यहाँ पृथ्वी के कंपन से भूकंप का संकेत मिलता है। इसका अन्य अर्थ यह भी है कि पृथ्वी जिस गति से आकाश में कंपित होकर जाती है, वह वेग अत्यन्त तीव्र है अर्थात् वह अपनी धुरा पर तेजी से घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है।

            (५) विभिन्न दिशाओें का विवरण- भूमिसूक्त के इस मंत्र में दसों दिशाओं का विवरण मिलता है-

            ‘‘यास्ते प्राचीः प्रदिशो या उदीचीर्यास्ते भूमे अधरात्” याश्व पश्चात्। आगे वे कहते हैं- हे भूमि पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण चारों दिशाओं में प्रहरी बनकर हमारा संरक्षण करें- ‘‘मा नः पश्चान्या पुरस्तान्नुदिष्ठा मोत्तरादधरादुत।

            (६) जलप्रवाहों का संकेत- एक स्थल पर कहा गया है कि पृथिवी अनेक जलधाराओं से युक्त है- भूरिधारे पयस्वती।

            आधुनिक भूगोल में जिन शीत और उष्णजलधाराओं का वर्णन है, संभवतः उन्हीं जलधाराओं की ओर ऋषि का संकेत है। ये जलधारायें पृथिवी की गति, वायु के दबाव और वेग, भूसंरचना आदि के कारण उत्पन्न होती हैं जो तब भी थीं।

            अभी तक हमने पृथिवी सूक्त में पाये जाने वाले वैज्ञानिक तथ्यों का उल्लेख किया है। अब हम पृथ्वी के भौतिक स्वरूप पर दृष्टिपात करेंगे।

            ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य वैदिक वाड्.मय में यत्र तत्र पृथिवी सम्बन्धी कुछ वैज्ञानिक तथ्य हमारे सम्मुख आते हैं जो नियमानुसार हैं-

            (१) आद्र्रा शिथिला पृथिवी- आधुनिक वैज्ञानिकों की भी यह धारणा है कि पृथिवी पहले जलमग्न थी। प्राचीन काल में पूरा यूरोप और एशिया जलमग्न था। शनैः शनै समुद्र हटता गया और कालान्तर में पृथिवी ऊपर आ गई। यह तथ्य अथर्ववेद में वर्णित है- ‘‘यार्णवेऽधिसलिलमग्र आसीत्।’’ काठक तथा मैत्रायणी संहिता में भी पृथिवी को जलप्रधान, आद्र्रा और शिथिला कहा गया है। वात कभी उसे ऊपर और कभी नीचे ले जाती थी। उत्तर की ओर देवताओं का निवास था और दक्षिण में असुरों का। उत्तर की ओर ले जाने पर देवताओं ने इसे दृढ़ किया। यही कारण है कि पृथिवी का अधिकांश भाग उत्तर दिशा में है और दक्षिण में जलाधिक्य है।

            शतपथ ब्राह्मण (६.१.१) में आगे कहा गया है कि इस आधि पृथिवी पर प्रजापति ने क्रमशः १ फेन २ मृद् ३ शुष्काप ४ ऊष ५ सिकता ६ शर्करा ७ अश्मा ८ अयः और हिरण्य तथा ९ ओषधि और वनस्पति को उत्पन्न किया और वनस्पति से पृथ्वी को आच्छादित कर दिया।

            यह पृथिवी के क्रमशः ठोस व शीतल होने तथा उसमें जीवन के संचार का वैज्ञानिक क्रम है। शीतल होने की प्रक्रिया में अग्नि और जल के मेल से फेन उत्पन्न हुआ, जो न सूखा था न गीला।

            अग्नि और मरूत के संयोग से यह फेन सघन हुआ और पृथिवी का निर्माण हुआ। यही सघन फेन मृत में परिवर्तित होकर पृथिवी के रूप में परिणित हो गया।

            तृतीय अवस्था में सूर्य की भयंकर ऊष्मा से पृथ्वी पर स्थित जल सूखने लगा और वह शुष्कय हो गई। जल के शुष्क हो जाने के फलस्वरूप वह ऊसर अर्थात् ऊष, इस चतुर्थ अवस्था को प्राप्त हुई। तत्पश्चात् पृथिवी में सिकता की उत्पत्ति हुई। सिकता ही अंग्रेजी में सिलिका कहलाती है जिसमें सिलिकोन और ऑक्सीजन होता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी पृथ्वी की भीतरी परतों में सिलिका एल्यूमीनियम तथा ऑक्सीजन होने की पुष्टि की है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (भाग २०,पृ. ५५) में भी ग्रहों के विभिन्न भागों में सिलिका के पाये जानेका उल्लेख है। सिकता से शर्करा की उत्पत्ति हुई। शर्करा का अर्थ है कंकर। शर्करा से पृथ्वी का आन्तरिक भाग भी दृढ़ हो गया। शर्करा के पश्चात् अश्मा (पाषाण) की उत्पत्ति हुई। शर्करा के छोटे-बड़े कण एकत्र हुए और संपीडन द्वारा संहत होकर अश्मा बने। अश्मा के पश्चात् अयः की उत्पत्ति हुई। ‘‘अश्मनो लोहमुत्थितम्” ऐसा उल्लेख महाभारत के उद्योगपर्व में मिलता है। लोहे के पश्चात् रांगा, सीसा सुवर्ण आदि की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् इस ऊसर पृथ्वी पर देवों ने वनस्पति, ओषधियों को उत्पन्न किया। यह पृथिवी वनस्पति व ओषधियों से आवृत्त हो गई।

            (२) अल्पा पृथिवी- तै. संहिता में ऐसा उल्लेख मिलता है कि आरंभ में पृथिवी अल्पा थी और बाद में धीरे-धीरे विस्तृत हुई। आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही मत है कि प्रारंभ में ग्रह छोटे थे और आज भी अपनी आकर्षण शक्ति से अन्तरिक्ष के धूलिकणों को अपनी ओर खींच रहे हैं जिससे अनमें विस्तार हुआ होगा।

            (३) अग्निगर्भा पृथिवी- आधुनिक वैज्ञानिकों का कथन है कि यह पृथिवी प्रारंभ में पिघली चट्टानों का एक गोला था। धीरे-धीरे पृथिवी की ऊपरी सतह ठंडी होकर ठोस हो गई। यह सतह दूध में मलाई की तरह अत्यन्त पतली है। पृथिवी का भीतरी भाग तो अभी भी गर्म पिघली दशा में है। पृथिवी के गर्भ में अभी भी गर्म लावा, उष्ण गैसें और वाष्प हैं। तापमान भी बहुत अधिक है। जितनी गहराई में जाओ उतना अधिक तापमान बढ़ता जाता है।

            संस्कृत वाड्.मय में भी पृथिवी को आग्नेयी कहा गया है। पृथिवी का ९७ प्रतिशत अंश पिघली दशा में है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि प्रवेश हुआ। अध्ययन से ही आग्नेयी थी अथवा उत्तर काल में उसमें अग्नि का प्रवेश हुआ। अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रारंभ में पृथिवी आग्नेयी नहीं थी। यदि आग्नेयी होती तो आद्र्रा न होती। प्रजापति ने इस पर अग्नि का चयन किया और उसे अग्निदाह से बचाने के लिये वनस्पतियाँ व ओषधियाँ उत्पन्न कीं। अश्वस्थ, शमी, वंश आदि वनस्पतियों ने पृथ्वी की अग्नि को अपने में धारण किया। औषधि पद का अर्थ ही है- ‘‘ओषं धय’’ अर्थात् दाहशक्ति को धारण कर। अर्थात् औषधियाँ पृथ्वीगत आग्नेय परमाणुओं को ग्रहण करती रहती हैं। बाद में यह अग्नि पृथिवी में प्रविष्ट हुई।

            तैत्तरीय ब्राह्मण में लिखा है- अग्नि देवेभ्यो निलायन (छिपा) आखरूपं कृत्वा। स पृथिवीं प्राविशत्। यहाँ आखू का तात्पर्य पृथ्वी पर रहनेवाले चूहे से नहीं अपितु अन्तरिक्ष स्थानीय पशु से है जिसका सूक्ष्म अर्थ अग्नि और अपः की अवस्था विशेष है। यह आखु रूद्र का पशु कहा गया है। रूद्र स्वयं अन्तरिक्ष स्थित अग्नि का स्वरूप है। इस प्रकार यह आखु अन्तरिक्षस्थ आग्नेय पशु अथवा विशेष प्रकार के अग्नि के परमाणु हैं जो जंगली चूहे की भाँति पृथ्वी के अन्दर-अन्दर धंसते जाते हैं।

            यह विवेचन अत्यन्त स्पष्ट तो नहीं है किन्तु इससेइतना स्पष्ट है कि आधुनिक विज्ञान की तुलना में यह अतिसूक्ष्म विज्ञान सहस्त्रों गुना गंभीर है।

            (४) परिमण्डला पृथिवी- पृथिवी गोलाकृति है, इसका विवरण भी वैदिक वाड्.मय में उपलब्ध होता है। जैमिनीय ब्राह्मण में लिखा है- ‘‘स एष प्रजापतिः अग्निष्टोमः परिमण्डलो भूत्वा अनन्तो भूत्वा शये। तदनुकृतीदम् अपि अन्या देवताः परिमण्डलाः। परिमण्डल आदित्यः परिमण्डलः चन्द्रमाः, परिमण्डल आदित्यः, परिमण्डलः चन्द्रमाः, परिमण्डला द्यौः, परिमण्डलमन्तरिक्षम् परिमण्डला इयं पृथिवी।”

            परिमण्डल का अर्थ है जिसके सब ओर मण्डल अथवा घेरा (Atmosphare) है। दूसरा अर्थ यह है- जो गोल घेरे में अथवा गोल आवृत्त हो।

            आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों से भी यह सिद्ध है कि पृथिवी गोल है और चारों ओर से वायुमण्डल से आवृत्त है।

            (५) अयस्मयी पृथिवी- यह पृथिवी लोह धातु से परिपूर्ण है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है-ते (असुरा) वा अयस्मयीं एवेमां (पृथिवीं) अकुर्वन्। कौषितकि ब्राह्मण में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। इस विवरण से आधुनिक विज्ञान में वर्णित पृथ्वी के चुम्बकीय शक्ति संपन्न होने का संकेत मिलता है। लोहे के अतिरिक्त अन्य खनिज संपदा (सोना, चांदी आदि) का उल्लेख भी अथर्ववेद में मिलता है।

            (६) धरित्री पृथिवी- प्राणियों को धारण करनेवाली के रूप में विख्यात यह धरित्री, धरा, धरिणी, पूरे सौरमण्डल में एक ही ऐसा ग्रह है जहाँ असंख्य विविध प्राणियों का निवास है। इसके अनेक कारण हैं-

            (क) बुध और चन्द्रमा में सूर्य के सामनेवाल भागों में जहाँ तापमान ८०० सेन्टी. और २०० सेन्टी. तक पहुँच जाता है तो रात्रि में इन ग्रहों में तापमान शून्य से भी १५० सेन्टी. नीचे चला जाता है। इन दोनों ही अवस्थाओं में वहाँ जीवन असंभव है।

            (ख) शुक्र में भूमि पर स्थित वायु की अपेक्षा कई गुना घनी जहरीली गैसें हैं, वनस्पतियों का नितान्त अभाव है और ४७० सेन्टी. की भयंकर ऊष्मा है। अतः ऐसी परिस्थितियों में वहाँ भी जीवन असंभव है।

            (ग) बृहस्पति में पृथ्वी की तुलना में तीन गुनी अधिक गुरूत्वाकर्षण शक्ति है जिससे वहां सीधे खडे़ रहना भी असंभव है। फिर वनज आदि उठाना तो दूर की बात है।

            (घ) प्लूटो और नेपच्यून सूर्य से दूर होने के कारण अत्यन्त शीत हैं। वहाँ मिथेन और अमोनिया जैसी प्राणघातक गैसें हैं। अतः वहाँ भी जीवन असंभव है।

            ठसके विपरीत पृथिवी पर जीवन धारण के लिये आवश्यक ऊष्मा, गुरूत्वाकर्षण प्रभूत जल, वनस्पतियों तथा प्राणवायु है। अतः इस धरा पर ही जीवन संभव है, अन्य ग्रहों में नहीं।

            (७) भूरेखा का उल्लेख- विष्णु पुराण में भूरेखा और उसके चलने का उल्लेख है।

            यदा विजृम्भतेऽनन्तो युदा घुर्णित लोचनः।

            त्दा चलति भूरेखा साद्रिद्वीपब्धिकानना। संभवतः यहाँ भूरेखा से, भूमध्यरेखा कर्क और मकररेखा से तात्पर्य है। इससे अधिक खोज और विश्लेषण की आवश्यकता है।

            निष्कर्ष- उपर्युक्त अध्ययन से, ऋग्वेद के द्यावापृथिवी के छह सूक्तों तथा अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त से, आधुनिक विज्ञान सम्मत जो तथ्य सामने आते हैं,

            वे इस प्रकार हैं-

(१) पृथ्वी सौरमण्डल के नवग्रहों में से एक हैं।

(२) पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है और वह सूर्य से ही प्रकाश पाती है। पृथिवी का केन्द्रबिन्दु सूर्य है और वह गुरूत्वाकर्षण से खिंचकर ब्रह्माण्ड में स्थित है।

(३) पृथ्वी स्थिर नहीं है। वह पश्चिम से पूर्व की ओर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है। वह अपनी धुरा पर घूमती है जिससे दिन और रात होते है।

(४) पृथ्वी में गुरूत्वाकर्षण शक्ति है।

(५) पृथ्वी गोल है।

(६) वह पहले जलमग्न थी।

(७) वह प्रारंभ में अल्पा थी, बाद में विस्तृत हुई।

(८) पृथ्वी आग्नेयी है। उसमें ९८ प्रतिशत लोहा व अन्य भारी पदार्थ है।

(९) वह अपार खनिज संपदा की स्वामिनी है।

(१०) एकमात्रा पृथिवी पर ही जीवन है।

(११) पृथिवी में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध है। गन्ध उसका विशिष्ट गुण है।

(१२) पृथिवी का भौतिक स्वरूप ही प्रधान है, दैवी रूप नहीं।

   इसके अतिरिक्त पृथिवी विश्व का कल्याण करने वाली अन्न, कीर्त्ति, धन और बलप्रदायिनी है। इस प्रकार यह पावन धरा अपने भूमि, क्ष्मा, मही, पृथिवी, उर्वी, उत्ताना, अपारा, धरित्री, विश्वंभरा, वसुधानी, हिरण्यवक्षा, धरिणी, धरती, वसुन्धरा, माता, सुक्षिति और सुक्षेमा सभी नामों को सार्थक करती हुई जगत् का कल्याण करती है अतः संक्षेप में हम सकते हैं-

‘‘विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी’’

संदर्भ- ग्रन्थ

(१) अथर्ववेद संहिता; भाग २, संपा, वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं भगवती देवी शर्मा

(२) अथर्ववेद का सुबोध भाष्य, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

(३) अथर्ववेद संहिता-संपा. रामस्वरूप शर्मा गौड़

(४) ऋग्वेद का सुबोध भाष्य, भाग १, २, ३, ४ श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

(५) ऋक्-सूक्त-संग्रह, व्याख्याकार डॉ. हरिदत्त शास्त्री, डॉ. कृष्णकुमार।

(६) न्यू वैदिक सिलेक्शन, भाग १, डॉ. ब्रजबिहारी चैबे।

(७) भारत और विज्ञान, संपा. डॉ. एस.पी.कोष्ठा।

(८) भारतीय दर्शन तथा आधुनिक विज्ञान, डॉ. सुद्युम्न आचार्य

(९) यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भुज मामोरिया, डॉ. एस.एम. जैन

(१०) वैदिक माइथोलॉजी, डॉ. ए.ए. मैक्डॉनल, अनु. रामकुमार राय

(११) वेद-विद्या-निदर्शन, भगवद्दत्त

(१२) वेदों में विज्ञान, डॉ. कपिलदेव  द्विवेदी

शब्द संकेत-

यजु. – यजुर्वेद

तै. ब्रा. -तैत्तरीय ब्राह्मण

ऋ. – ऋग्वेद

तै. उप. – तैत्तरीय उपनिषद्

अथ. वे. – अथर्ववेद

पाद-टिप्पणी

१.        यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भु ज मामोरिया, एस.एम.जैन, पृष्ठ ८

२.        सुभुः स्वयंभूः प्रथमोऽन्तर्महत्यर्णवे

            दधे गर्भभृत्वियं यतो जातः प्रजापतिः- यजु. २३/६३

३.        अण्डानां तु सहस्त्राणां सहस्त्राण्य युतानि च

            ईदृशानां तथा तत्र कोटि-कोटि शतानि च द्वितीयांश-विष्णु पुराण अध्याय ७

            अण्डानां ईदृशानां तु कोट्यो ज्ञेया सहस्त्रशः

            तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्च कारणाव्ययात्मनः।। वायु पुराण ४९/१५१

४.        भूतस्य प्रथमजा – यजु. ३७.४

            इयं वै पृथिवी भूतस्य प्रथमजा – मा.शत.ब्रा. १४.१.२.१०

५.        स भूरिति व्याहरत। स भूमिमसृजत्- तै. ब्रा. २.२.।४.२

६.        पदभ्यां भूमिः – ऋ. १०.९०.१४

            भूर्जज्ञ उत्तानंपादो भुव आशा अजायन्त – ऋ. १०.७२.४

            ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थ सनातनः – कठो. २.३.१

            ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुख्ययम् – गीता १४.१

७.        वायु पुराण १०१.१८

८.        यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भुज मामोरिया, एस.एम. जैन, पृ. १८

८.        भपञ्जरस्य भ्रमणावलोकादाधारशून्य कुरिति प्रतीतिः

            स्वस्थं न दृष्टं गुरू च क्षमातः खेऽधः प्रयातिति बौद्धः।

            (सिद्धान्तशिरोमणि, भुवनकोश नामक दूसरा अध्याय श्लोक ७)

९.        अग्नेरापः अद्भ्यः पृथिवी-तैत्त. उप. २.१.१

१०.     यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामंत्र कृष्टयः संबभूबुः। अथर्व. १२.१.३

११.     वृत्तभपञ्जरमध्ये कक्ष्यापरिवेष्टित खमध्यगतः

            मृज्जलशिखिवायुमयो भूगोलः सर्वतो वृत्तः।

            (आर्यभट्टीय, गोलपाद श्लोक ६)

१२.     पञ्चभूतमयस्य तारागणपञ्जरे महीगोलः

            खेऽयस्कान्तान्तस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः।

            (पञ्सिद्धान्तिका, त्रैलोक्य संस्थान नामक १३ अ. श्लोक १)

१३.     नान्याधारः स्वशक्त्या वियति च नियतं तिष्ठतीहास्य पृष्ठे

            निष्ठं विश्वञ्च शाश्वत् सदनुजमनुजादित्यदैत्यं समन्तात्।

            (सिद्धान्तशिरोमणि, भुवनकोश नामक दूसारा अ. श्लोक २)

१४.     ऋग्वेद ४.५६,३

१५.     यो जजान रोदसी विश्वशंभुवा – ऋग्वेद १.१६०.४

१६.     स वह्मिः पुत्रः पुत्र्योः – ऋग्वेद १.१६०.३

१७.     धिषणे अन्तरीयते देवो देवी धर्मणाः सूर्यः शुचिः – ऋग्वेद १.१६०.१

१८.     उत मन्ये पितुरदु्रहोमनो मातुर्महिस्वत स्तद्धवीमहि – ऋग्वेद १.२२.१५९.२

१९.     घृतेन द्यावापृथिवी अभीवृत्ते, पृतश्रियां, धृतपृचा घृतवृधा – ऋग्वेद ६.७०.४-५

२०.     बाहुच्युता पृथिवी द्यामिव उपरि – अथर्व. १८.३.२५-३५

२१.     वि यो ममे पृथिवी सूर्येण- ऋग्वेद ५.८५.५

२२.     अथर्ववेद १२.१.८

२३.     -वही- १२.१.२०

२४.     -वही- १२.१.४८

२५.     -वही- १२.१.३७

२६.     -वही- १२.१.३६ अहोरात्रे पृथिवी नो दुहाताम्

            १२.१.५२ अहोरात्रे विहिते भूम्यामधि

२७.     अथर्ववेद १२.१.२३, २४, २५

            तुलना कीजिये – तत्र गंधवती पृथिवी – तर्क संग्रह, द्रव्य लक्षण प्रकरण पृथिवी इतरेभ्यो भिद्यते गन्धवत्वात् – तर्कसंग्रह अनुमान खण्ड

२८.     अथर्ववेद १२.१.४८

२९.     वेदों में विज्ञान, डॉ. कपिलदेव शास्त्री, पृष्ठ २७

३०.     ध्रुवां भूमिं – अथर्व. १२.१.१७, महती बभूविथ १२.१.१८

३१.     अथर्ववेद – १२.१.८

३२.     -वही- १२.१.५३

३३.     -वही- १२.१.१९

३४.     अथर्ववेद १२.१.२१

३५.     यो अश्मनोरन्तरग्निं जजान अथर्व. २०.३४.३

३६.     अरणी यभ्यां निर्मश्यते वसु – अथर्व. १०.८.२०

३७.     अग्ने पित्तमपामसि – अथर्व. १०.८.२०

३८.     अथर्ववेद १२.१.१२

३९.     -वही- १२.१.१९

४०.     -वही- १२.१.६

४१.     -वही- १२.१.२६

४२.     -वही- १२.१.४४

४३.     अथर्ववेद १२.१.१८

४४.     -वही- १२.१.३१ प्रदिशः का अर्थ आग्नेय, नैर्ऋत्य, वायव्य और ईशान है।

४५.     -वही- १२.१.३२

४६.     ऋग्वेद ६.७०.२

४७.     अथर्ववेद १२.१.८

४८.     इयं तर्हि शिथिरासीत् – काठक संहिता ३६.७, मै.सं. १.१०.१३

            शिथिरा वा इयमग्र आसीत् – मैत्रा.सं. १.६.३

४९.     सा हेयं पृथिवी अलेयद् यथा पर्णमेव। तां ह स्म वातः संवहति – शत. ब्राह्मण

            तां दिशोऽनुवातः समवहत् – तै. ब्रा. १.१.३

            अलेलेद वा इयं पृथिवी – काठक संहिता ८.२

५०.     ताः (आपः) अतप्यन्त। ताः फेनमसृजन्त। तस्माद् अपां तप्तानां फेनो जायते-

            शत. ब्राह्मण ६.१.३.२

५१.     न वा एष शुष्को नाद्र्रो व्युष्टासीत् – तै. ब्रा. १.७.१.६-७

            शत. ब्रा. १०.७.३.२

५२.     स (फेनः) यदोपहन्यते मृदेव भवति – शत. ब्रा. ६.१.३.३

            यन्मृद् इयं तत् (पृथिवी) शत. ब्रा. १४.१.२.९

५३.     एता वै शुष्का आपः – मै. सं. ३.६.३

५४.     स (मृद्) अतप्यत सा सिकता असृज्यत- शत. ब्रा. ६.१.३.४

५५.     सिकताभ्यः शर्करा – शत. ब्रा. ६.१.३, ५

५६.     शिथिरा वा इयमग्र आसीत्। तां प्रजापतिः शर्कराभिरहहंत्। मैत्रा. सं. १.६.३

५७.     शर्कराया अश्मानम् (असृजत) तस्मात् शर्कराश्मैव अन्ततो भवति- शत. ब्रा. ६.१.३.३

५८.     ऋक ह वा इयमग्र आसीत्। तस्यां देवा रोहिण्यां वीरूधोऽरोहयत् – मै. सं. १.६.७.२

            इयं वा अलोमिकोवाग्र आसीत् – ऐ. ब्रा. २४.२२। ओषधिवनस्पतयो वै लोमानि।

            जै. ब्रा.२.५४

५९.     वै तर्हि अल्पा पृथिव्यासीद् अजाता ओषधयः – तै. सं. २.१.२

६०.     आग्नेयी पृथिवी – ता. ब्रा. १५.४.८ अग्निवासाः पृथिवी – अथ. १२.१.२१

            आग्नेयो अयं लोकः जै. उप. १.३७.२, अग्निगर्भा पृथिवी – शत. ब्रा. १४.९कृ४.२१

६१.     शत. ब्राह्मण – २.२.४.५

६२.     तै. ब्रा. १.१.३.३

६३.     आखुस्ते रूद्रस्य पशुः – तै. ब्रा. १.६.१०.२

६४.     जैमिनीय ब्राह्मण १.१५७

६५.     परिमण्डल उ वा अयं (पृथिवी) लोकः – शत. ब्रा. ७.१.१.३७

६६.     ऐतरेय ब्राह्मण – १.२३

६७.     (असुराः) अयस्मयीं (पुरीम्) अस्मिन् (अकुर्वत) कौ.ब्रा. ८.८

६८.     २/५/२३ अद्भुद्सागर, पृ. ३८३

६९.     अथर्ववेद १९.३८.१

ऋषिभाष्य की अध्ययनविधि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु

      अब हम यहाँ ऋषिभाष्य के अध्ययन विषयक कुछ विशेष निर्देश[१] कर देना भी आवश्यक समझते हैं, जिससे इस भाष्य का अध्ययन करनेवालों की बाधायें पर्याप्त दूर हो सकती हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. सामान्य निर्देश यह है कि श्री स्वामी जी महाराज अग्नि-वायु-इन्द्र आदि शब्दों से अभिधा (मुख्य) वृत्ति से ही परमेश्वर अर्थ लेते हैं, गौणीवृत्ति से नहीं। यह बात समझकर ही वेदभाष्य का अध्ययन करना चाहिये। जैसा कि हम पूर्व भी दर्शा चुके हैं।]

◼️(१) ऋषि दयानन्दकृत वेदभाष्य का अध्ययन करनेवाले अनेक सज्जनों की एक ही जैसी शङ्कायें हमारे सम्मुख समय-समय पर आती रही हैं –

      ◾️(क) बिना ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का सम्यक् अनुशीलन किये वेदभाष्य समझ में नहीं आ सकता। सर्वप्रथम इस पर अधिकार होना आवश्यक है। 

      ◾️(ख) संस्कृतपदार्थ देखने से मन्त्र का अभिप्राय कुछ भी समझ में नहीं आता। 

      ◾️(ग) संस्कृत और भाषा मेल नहीं खाती। 

      जिन महानुभावों को ऐसी शङ्का होती है, वह उनका भ्रममात्र है। मन्त्र का अभिप्राय अन्वय से ही ज्ञात हो सकता है। इसलिये मन्त्रोच्चारण के पश्चात् अर्थ समझने के लिए सब से प्रथम अन्वय को ही देखना चाहिए। तत्पश्चात् ही संस्कृतपदार्थ को देखने से ज्ञात होगा कि आचार्य ने उक्त अभिप्राय मन्त्र के किन-किन शब्दों से और कैसे-कैसे निकाला। इसका रहस्य आर्षशैली से संस्कृत पढ़े लिखे ही यथावत् रीति से अनुभव कर सकते हैं। 

      इस प्रक्रिया को न समझकर बहुत से संस्कृत पढ़े लिखे भी भूल करते देखे गये हैं। यह भी ज्ञात रहे कि भाषार्थ भाषा जाननेवालों की सुगमता को लक्ष्य में रखकर अन्वय के अनुसार ही किया गया है। “भ्रान्ति निवारण” पृ०६ में ऋषि का लेख निम्न प्रकार है –

      “भाषा में संस्कृत का अभिप्रायमात्र लिखा है। केवल शब्दार्थ ही नहीं, क्योंकि भाषा करने का तो यह तात्पर्य है कि जिन लोगों को संस्कृत का बोध नहीं, उनको बिना भाषार्थ के यथार्थ वेदज्ञान नहीं हो सकता”। 

      इस भाषार्थ को संस्कृत के पढ़े-लिखे अपनी संस्कृत के अभिमान में नही देखते, वास्तव में मन्त्र का अभिप्राय ‘अन्वय’ से याथातथ्य ज्ञात हो जाता है। भाषार्थ देखने से वह और भी स्पष्ट विदित हो जाता है, कुछ भी सन्देह नहीं रह जाता। श्री स्वामी जी महाराज के उक्त अर्थ में प्रमाण क्या हैं, तथा सब प्रक्रियाओं को लक्ष्य में रखते हुए तत्तद पद का अर्थ क्या होगा, बस इसके लिये संस्कृत पदार्थ है। ऋषिभाष्य में यह विशेष रहस्य की बात है, जिसको साधारण संस्कृत पढ़े-लिखे समझ नहीं सकते। वास्तव में संस्कृतपदार्थ ही ऋषि दयानन्द का मुख्य वेदार्थ है, अन्वय उसका एक अंश है, इसी में आचार्य की अपूर्व योग्यता और अगाध पाण्डित्य का परिचय मिलता है। 

      आशा है विज्ञ पाठक इतने से समझ लेंगे कि संस्कृतपदार्थ और भाषार्थ के मेल न मिलने की बात सर्वथा अज्ञतापूर्ण है, तथा संस्कृत में पदार्थ देखने का क्या प्रकार है, यह भी उनकी समझ में आ जायेगा। जिनको इस विषय में सन्देह हो, वे सज्जन मिलकर समझ सकते हैं। 

◼️(२) श्री स्वामीजी के संस्कृतपदार्थ में सब प्रक्रियाओं का अर्थ विद्यमान है, यह समझना चाहिये। जहाँ दो प्रकार का अन्वय है, वहाँ भी कहीं तो अन्वय सबका सब समान है, केवल अर्थभेद दिखा दिया है। जैसे यजु० १।८ पृ० ५७, ५८। कहीं-कहीं तीन प्रकार का अन्वय दिखाया है जेसे १।११ पृ० ६६, ६७। यहाँ तीनों अन्वय भिन्न हैं।

◼️(३) महर्षिकृतभाष्य में जड़पदार्थों के सम्बोधन में सर्वत्र व्यत्यय मानकर विकल्प में प्रथमान्त में अर्थ किया गया है, यह बात प्रत्येक पाठक को ध्यान में रखनी चाहिये। वर्तमान भ्रान्त संसार को जड़पदार्थों की पूजा वा उपासना से अभीष्ट कामनायों की प्राप्ति होती है, इस मिथ्याविचार को दूर करने की भावना से ऋषि दयानन्द ने जड़पदार्थों के सम्बोधन में उपर्युक्त प्रकार वर्ता है, जो वर्तमान अवस्था में तो सर्वोत्कृष्ट प्रकार ही कहा जायगा। हाँ, वेदार्थ का सच्चा ज्ञान होने पर सम्बोधन मान कर भी अर्थ किया जा सकता है। जब हम वेदमन्त्रों का मुख्य अर्थ आध्यात्मिक मानते हैं (जो वास्तव में मुख्य ही है), तो आधिभौतिक अर्थ में स्वभावतः सम्बोधन पदों को प्रथमा में ही समझने से हमें वेद में सब सत्यविद्याओं का ज्ञान उपलब्ध हो सकता है। नहीं तो जैसे विदेशी विद्वान् कहते हैं कि वेद जङ्गलियों की भौतिकपदार्थ सम्बन्धी प्रार्थना मात्र है, यही मानना पड़ेगा, चाहे इसके लिये उन्हें विग्रहवती (शरीरधारी) देवताओं की कल्पना ही करनी पड़ी, जैसा कि पिछले लगभग दो तीन सहस्र वर्ष से की जा रही है, जिन विग्रहवती देवताओं का मीमांसाशास्त्र के आचार्य कुमारिल भट्टादि ने भी स्पष्ट खण्डन किया है (देखो मीमांसा ९।१।५)। 

◼️(४) यजु० १।२ पृ० ३६ आदि में जहाँ-जहाँ “यज्ञो वै वसु” इत्यादि शतपथ तथा अन्य ब्राह्मणों के प्रमाणों में ‘व’ शब्द का प्रयोग है, वहां कोई कोई सज्जन शङ्का उठाया करते हैं कि यह ‘वै’ शब्द अर्थबोधक नहीं है। उनकी जानकारी के लिए हम यहाँ केवल एक ही स्थल उपस्थित करते हैं। लोगाक्षिगृह्यसूत्र का भाषयकार देवपाल पृ० -३२ में लिखता है ‘वैशब्दोऽवधारणार्थः’। 

◼️(५) ◾️(क) पाठकों को विदित होगा कि हमने भाषापदार्थ की सङ्गति, जो पूर्व संस्कृतसङ्गति के साथ ही थी, पाठकों की सुगमता के लिए भाषा पदार्थ से पहिले रखी है। इस विषय में यह विदित रहे कि तीन अध्याय तक की ‘क’ हस्तलेख कापी में भी भाषासङ्गति भाषा पदार्थ से पूर्व में ही है।

      ◾️(ख) भाषार्थ (पदार्थ) के स्थान में ‘पदार्थान्वय भाषा’ ऐसे बहुत से मन्त्रों में उपलब्ध होता है। अर्थात् भाषा ‘पदार्थ’ अन्वय के आधार पर है।

      ◾️(ग) संस्कृतपदार्थ में प्रत्येक व्याख्येय पद के अन्त में [।] इस प्रकार के विराम हैं। सो वे यजु० ५।३४ तक तो हैं, आगे ४०वें अध्याय के अन्त तक नहीं। हाँ, जहाँ प्रमाण पा जाता है, वहाँ तो प्रमाण के अन्त में विराम है। ऋग्वेदभाष्य के आरम्भ-आरम्भ में विराम हैं, आगे अन्त तक प्रमाणमात्र में हैं। भाषापदार्थ में भी यजु० ५।३५ से आगे विराम नहीं हैं। पाठकों को इसका ध्यान रहे। 

     ◾️(घ) द्वितीय अध्याय ६वें मन्त्र से लेकर २०वें मन्त्र तक आचार्य प्रदर्शित मन्त्र की सङ्गति विशेष देखने योग्य है।

◼️(६) वेदमन्त्रों में एक ही मन्त्र के अनेक अर्थ होने में यह हेतु है कि यह सृष्टि जीव के ज्ञान की अपेक्षा अनन्त है। कोई भी एक जीव इसका पारावार नहीं पा सकता, क्योंकि यह उसकी शक्ति से बाहिर है। इस अनन्त सृष्टि में अनन्त पदार्थ हैं, उनमें से यदि एक-एक का वर्णन होने लगे तो एक-एक ग्रन्थ बन जावे। केवल अग्नि, वायु, जल, मिट्टी, तुलसी की पत्ती वा आक (मदार) का ही वर्णन करने लगें तो एक-एक पृथक ग्रन्थ की रचना करनी पड़े। परमात्मा ने जीवों को ऐसा ज्ञान दिया कि एक ही मन्त्र में जिस ऋषि को जिस विषय की प्रौढ़ता प्राप्त थी, उस उस ने उस-उस विषय का ज्ञान उस-उस मन्त्र से उपलब्ध किया। इन्हीं से वेदाङ्ग तथा उपाङ्गों की रचना पृथक्-पृथक् हुई। 

      इस प्रकार ही ज्ञान देने से विश्वभूमण्डल का ज्ञान जीवों को दिया जा सकता था। यह बात तभी हो सकती है, जब एक-एक शब्द के अनेक अर्थ हों। अन्यथा “सर्वज्ञानमयो हि सः” मनु के इस वचनानुसार सम्पूर्ण विद्यानों का समावेश वेद में हो ही कैसे सकता है। सब व्यवहार तथा सर्वविध ज्ञान का भण्डार तो वेद ही है। वेद का स्वाध्याय करने वालों को यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए। 

◼️(७) वेद के प्रत्येक मन्त्र का अर्थ आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधियज्ञपरक होता है, यह हम पृ० ४८-५० तथा ६७, ६८ पर सविस्तर निरूपण कर चुके हैं। याज्ञिक अर्थ मुख्य अर्थ नहीं, यह भी कह चुके हैं। यहाँ इतनी बात ध्यान में रखने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने “यज्ञ” शब्द से देवपूजा, संगतिकरण और दान इन तीनों अर्थों के आधार पर अति विस्तृत अर्थ लिये हैं। संसार के समस्त शुभकार्य “यज्ञ” शब्द के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस भाष्य का स्वाध्याय करते हुये यह बात ध्यान में रखनी अनिवार्य है, तभी इस भाष्य का स्वरूप समझ में आ सकता 

◼️(८) भविष्य में वेदार्थगवेषण का कार्य बहुत ही योग्यता और गम्भीरता से होने की आवश्यकता है। इसके लिए विपुल सामग्री और प्रौढ़ पाण्डित्य चाहिये, तथा अनेक श्रद्धापूर्ण विद्वानों द्वारा निरन्तर परिश्रम से ही यह कार्य हो सकता है। भावी वेदार्थ की खोज में ऋषि का भाष्य प्रकाश का काम देगा, यह हमें पूर्ण विश्वास है। हमारा यह विवरण[२] इस ओर एक छोटा सा यत्न है। विज्ञ पाठक महानुभाव हमारे इस विवरण[२] को इसी दृष्टि से देखने का कष्ट करें, तभी इसकी उपयोगिता का ज्ञान हो सकता है। 

[📎पाद टिप्पणी २. यजुर्वेदभाष्य-विवरण की भूमिका]

      आशा है पाठक ऋषि भाष्य का अध्ययन करते समय हमारे इन निर्देशों पर अवश्य ध्यान देंगे और उनसे अवश्य लाभ उठावेंगे। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य का विद्वानों पर प्रभाव ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

      स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा किये गये वेदभाष्य का प्रभाव अनेक देशी-विदेशी विद्वानों पर पड़ा है। किसी ने उसे स्पष्ट रूप से स्वीकार न करते हुए भी उनके विचारों में जो विशेष परिवर्तन हुआ, उससे आँका है। 

      इसके लिये हम एक भारतीय विद्वान् योगिराज अरविन्द घोष और विदेशी प्रतिप्रसिद्ध विद्वान् मैक्समूलर के विचार उद्धृत करते हैं। 

      श्री अरविन्द घोष ‘युजन’ ( =योगी) व्यक्ति थे। अतः उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती के पारमार्थिक अर्थ के विषय में ही लिखा। योगिराज अरविन्द घोष ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के विषय में वैदिक मैगजीन १९१६ में लिखा था[१] –

[📎पाद टिप्पणी १. आगे उद्धृत श्री अरविन्द का मूल अंग्रेजी लेख और उसका हिन्दी भावांश पं. भगवदत्तजी कृत-वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग २, ‘वेदों के भाष्यकार’ ग्रन्थ से लिया है। द्र॰-पृष्ठ ८८-९२, सन् १९७६ का संस्करण]

      It is objected to the sense Dayananda gave to the Veda that it is no true sense but an arbitrary fabrication of imaginative learning and ingenuity, to his method that it is fantastic and unacceptable to the critical reason, to his teaching of a revealed Scripture that the very idea is a rejected superstition impossible for any enlightened mind to admit or to announce sincerely. 

      I shall only sate the broad principles underlying his thought about the Veda as they present themselves to me. 

      To start with the negation of his work by his critics, in whose mouth does it lie to accure Dayananda’s dealing with the Veda of a fantastic or arbitrary ingenuity? Not in the mouth of those who accept Sayana’s traditional interpretation. For if ever there was a monument of arbitiarily erudite ingenuity, of great learning divorced as great learning too often is, from sound judgment and sure taste and a faithful critical and comparative observation, from direct seeing and often even from plainest common sense or of a constant fitting of the text into the Procrushean bed of preconceived theory, it is surely this commentary, other wise so imposing so useful as first crude material, so erudite and laborious, left to us by the Acharya Sayana. Nor does the reproach lie in the mouth of those who take us final the recent labours of European scholarship. For if ever there was a toil of interpretation in which the loosest vein has been given to an ingenious speculation, in which doubtful indications have been snatched at as certain proofs, in which the boldest conclusions have been insisted upon with the scantiest justification, the most enormous difficulties ignored and preconceived prejudic maintained in face of the clear and often admitted suggestions of the text, it is surely this labour, so eminently respectable otherwise for its industry, good will and power of research, per formed through a long century by European Vedic scholarship. 

      What is the main positive issue in this matter? An interpretation of Veda must stand or fall by its central conception of the Vedic religion and the amount of support given to it by the intrinsic evidence of the Veda itself. Here Dayanada’s view is quite clear its foundation inexpugnable. The Vedic hymns are chanted to the One deity under many names, names which are used and even designed to express His qualities and powers. Was this conception of Dayanada’s arbitrary conceit fetched out of his own too ingenious imagination ? Not at all; it is the explicit statement of the Veda it self; “One existent, sages” not the ignorant, mind you, but seers, the men of knowledge.–“speak of in many ways, as Indra, as Yama, as Matarisvan, as Agni.” The Vedic Rishis ought surely to have known something about their own religion, more, let us hope than Roth or Max Mueller, and this is what they knew. 

      We are aware how modern scholars twist away from the evidence. This hymn, they say, was a late production, this loftier idea which it expresses with so clear a force rose up somehow in the later Aryan mind or was borrowed by those ignorent fire-worshipers, sun worshipers, sky-worshipers from their cultured and philosophic Dravidian enemies. But throughout the Veda we have confirmatory hymns and expressions. Agni or Indra or another is expressly hymned as one with all the other gods. Agni contains all other divine powers within himself, the Maruts are described as all the gods, one deity is addressed by the names of other as well as his own, or, most commonly, he is given as Lord and King of the universe, attributes only appro priate to the Supreme Deity. An, but that cannot mean, ought not to mean, must not mean the worship of One; let us invent a new word, call it henotheism and suppose that the Rishis did not really believe Indra or Agni to be the Supreme Deity but treated any god or every god as such for the nonce, perhaps that he might feel the more flattered and lend a more gracious ear for so hyperbolic a compliment ! But why should not the foundation of Vedic thought be natural monotheism rather than this new fangled monstrosity of henotheism ? Well, because primitive barbarians could not possibly have risen to such high conception and if you allow them to have so risen you imperil our theory of evolutionary stages of the human development and you destory our whole idea about the sense of the Vedic hymns and their place in the history of mankind. Truth must hide herself. common sense disappear from the field so that a theory may flourish ! I ask, in this point, and it is the fundamental point, who deals most straightforwardly with the text, Dayananda or the Western scholars ? 

      But if this fundamental point of Dayanada is granted, if the character given by the Vedic Rishis them selves to their gods is admitted, we are bound. when ever the hymns speak of Agni or another, to see behind that name present always to the thought of Rishis, the one Supreme Deity or else one of His powers with its attendant qualities or workings. Immediately the whole character of the Veda is fixed in the sense Dayananda gave to it; the merely ritual, mythological!, polytheistic interpretation of Sayana collapses, the merely meteorological and naturalistic European interpretation collapses. We have instead a real scripture, one of the world’s sacred books and the divine word of a lofty and noble religion. 

      अर्थात्[२] दयानन्द के वेदभाष्य के सम्बन्ध में अनेक शंकाएँ की जाती हैं। ….. मैं दयानन्द के वेद-भाष्य के आधाररूप उन प्रसिद्ध नियमों का उल्लेख करूँगा, जो मुझे समझ पाए हैं। 

[📎पाद टिप्पणी २. हमने श्री अरविन्द के लेख का भावमात्र दिया है। वैदिक मैगजीन,१९१६]

      सायण-भाष्य को ठीक समझनेवाले व्यक्ति स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य के विषय में कुछ नहीं कह सकते। महाविद्वान् सायण का भाष्य ऊपर से महत्त्व वाला दिखाई देता हुआ भी वेद का यथार्थ और सीधा अर्थ नहीं है। पाश्चात्य विद्वान् भी स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य के विषय में कुछ नहीं कह सकते। उनका परिश्रम, शुभेच्छा, अनुसन्धान शक्ति से एक शताब्दी में किया गया अर्थ भी ठीक नहीं, क्योंकि इसमें पूर्वापर सम्बन्ध का अभाव है और सन्दिग्ध विषयों को प्रमाणभूत मान कर अर्थ किया गया है। 

      वेदार्थ तो वेद से होना चाहिए। इस विषय में स्वामी दयानन्द सरस्वती का विचार सुस्पष्ट है, उसकी आधारशिला अभेद्य है। वेद के सूक्त भिन्न-भिन्न नामों से एक ईश्वर को ही सम्बोधन करके गाए हैं । विप्र, अर्थात् ऋषि एक परमात्मा को ही अग्नि, इन्द्र, यम, मातरिश्वा और वायु आदि नामों से बहुत प्रकार से कहते हैं। वैदिक ऋषि अपने धर्म के विषय में मैक्समूलर या राथ की अपेक्षा अधिक जानते थे। अतः वेद स्पष्ट कहता है कि जितने भी नाम हैं वे सब एक ईश्वर के ही अनेक नाम हैं। 

      हम जानते हैं कि आधुनिक विद्वान् किस प्रकार इस बात को खींच तान करके उलटते हैं। वे कहते हैं, यह सूक्त नये काल का है। ऐसे ऊँचे विचार बहुत प्राचीन आर्य लोगों के मन में नहीं आ सकता था। इसके विपरीत हम देखते हैं कि वेद में अनेक सूक्त इसी भाव को बताते हैं। अग्नि में ही सब दूसरी दैवी शक्तियाँ हैं, इत्यादि। देवताओं के ऐसे विशेषण हैं, जो सिवाय ईश्वर के और किसी के हो नहीं सकते। पाश्चात्य इस बात से घबराते हैं। वेद का ऐसा अर्थ नहीं होना चाहिए, निस्सन्देह ऐसे अर्थ से उनका चिरकाल से पनप रहा विचार नष्ट होता है। अतः सत्य को छिपाना चाहिए। मैं पूछता हूं, इस बात में, इस मौलिक बात में स्वामी दयानन्द सरस्वती वेद का सीधा अर्थ करते हैं या पाश्चात्य विद्वान्। 

      इस एक के समझने से, दयानन्द के इस मौलिक सिद्धान्त के मानने से नहीं, वैदिक ऋषियों के इस विश्वास के जानने से कि सब देवता एक महान् आत्मा के नाम हैं, हम वेद का वास्तविक भाव जान लेते हैं। बस वेद का वही तात्पर्य निकलता है, जो स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इससे निकाला। केवल याज्ञिक अर्थ या सायण का बहुदेवतावाद आदि का अर्थ भस्मीभूत हो जाता है। पाश्चात्यों का केवल अन्तरिक्ष आदि लोकों के देवताओं के सम्बन्ध में किया हुआ अर्थ मलियामेट हो जाता है। इसके स्थान में वेद एक वास्तविक धर्म ग्रन्थ, संसार का एक पवित्र पुस्तक और एक श्रेष्ठ और उच्च धर्म का देवी शब्द हो जाता।

      ◼️प्रा॰ मैक्समूलर[३] और स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य – यद्यपि प्रा॰ मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से ऐसा कुछ नहीं लिखा, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि प्रा॰ मैक्समूलर की स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के सम्बन्ध में क्या धारणा थी अथवा उनके वेदभाष्य का प्रा॰ मैक्समूलर पर क्या प्रभाव पड़ा। इसके लिये यदि हम मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों की उत्तर कालीन विचारों से तुलना करें, तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसके विचारों में जो परिवर्तन दिखाई देता है, उसके पीछे दयानन्द के वेदभाष्य का प्रभाव अवश्य है। एक स्थान पर तो वह स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका की अपूर्वता को हल्के स्वर से स्वीकार भी करता है। उसने नागर प्रशासक के रूप में भारत आनेवाले व्यक्तियों के सम्मुख ७ व्याख्यान दिये थे। उनका विषय था- INDIA WHAT CAN IT TEACH US अर्थात् ‘हम भारत से क्या सीखें’ इसके तीसरे भाषण में कहा था –

      “We may divide the whole of Sanskrit literature, begining with the Rig Veda and ending with Dayanada’s Introduction to his edition of the Rig Veda, his by no means uninteresting Rig-Veda-Bhumika, into two great periods.” 

      अर्थात् ‘ऋग्वेदकाल से प्रारम्भ करके दयानन्द द्वारा स्वसम्पादित ऋग्वेद की भूमिका लिखे जाने के समय तक के साहित्य को हम दो भागों में बाँट सकते हैं। यहाँ यह बात भी बता देना समुचित ही होगा कि दयानन्द द्वारा लिखी गई ऋग्वेद की भूमिका भी कम रुचिपूर्ण नहीं है। (भाषण ३, पृष्ठ १०२)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. प्रा॰ मैक्समूलर ने ऋग्वेद सायणभाष्य के आरम्भ में स्वनाम का ‘मोक्षमूलर’ रूप में संस्कृतीकरण किया था। अतः स्वामी दयानन्द सरस्वती उनका उल्लेख सर्वत्र ‘मोक्षमूलर’ शब्द से ही स्वग्रन्थों में करते थे।]

      प्रा॰ मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों और उत्तरकालीन विचारों का निर्देश हम आगे करेंगे। पहले हम मैक्समूलर और स्वामी दयानन्द सरस्वती के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में लिखते हैं। 

      ◼️स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के नियमित ग्राहक – स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के प्रतिमास छपनेवाले अङ्कों के टाइटल पृष्ठों पर वेदभाष्य के नियमित ग्राहकों के नाम पते छपते थे। उनमें हमने एक स्थान पर प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स के नाम छपे देखे थे। मुशी समर्थदान ने स्वामी दयानन्द सरस्वती की आज्ञानुसार ३० जून १८७९ ई॰ में श्यामजीकृष्ण वर्मा को जो पत्र इङ्गलैण्ड लिखा था, उसमें भी मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स दोनों के वेदभाष्य का नियमित ग्राहक होना सिद्ध होता है । (यह पत्र हम आगे उद्धृत करेंगे।)

      स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने वेदभाष्य में तथा अन्यत्र जब भी अवसर प्राप्त होता, प्रा॰ मैक्समूलर का प्रतिवाद करने में नहीं चूकते थे। इसी प्रकार एक अवसर पर मैक्समूलर ने कहा था- दयानन्द मेरे वेदभाष्य का कितना ही खण्डन क्यों न करें, मेरे द्वारा प्रकाशित ऋग्वेद सायणभाष्य सदा उनकी मेज पर खुला रहता है, (द्र॰-पूर्व पृष्ठ ८६, तथा टि॰ २)। इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे के कार्य से न केवल भले प्रकार परिचित थे, अपितु एक-दूसरे के कार्यों की वास्तविकता को भी समझते थे। फिर भी स्वामी दयानन्द सरस्वती यह स्पष्ट रूप से जानना चाहते थे कि प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स के अपने वेद भाष्य के सम्बन्ध में क्या विचार हैं। मुशी समर्थदान प्रबन्धक वेदभाष्य कार्यालय ने ३० जून १८७९ को स्वामी दयानन्द सरस्वती की आज्ञा[४] से श्यामजी कृष्णवर्मा को आक्सफोर्ड (इङ्गलैण्ड) के पते से एक पत्र लिखा था। उस में लिखा है- प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स दोनों से भिजवा देना और लिखना कि उन लोगों का स्वामीजी और वेदभाष्य के विषय में क्या कहना है। स्वामीजी उनके भाष्य का खण्डन करते हैं, उसके बाबत क्या कहते हैं।[५]

[📎पाद टिप्पणी ४. ‘मैं यह पत्र स्वामीजी की आज्ञानुसार लिखता हूं।’ ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, पृष्ठ २७६, पं॰१०]

[📎पाद टिप्पणी ५. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, भाग १, पृष्ठ २७७, पं॰ ८-११] 

      पुनः प्राषाढ़ सुदि ६, मंगलवार (२३ जुलाई १८८०) को श्यामजी कृष्णवर्मा को लिखे पत्र में स्वामी दयानन्द पूछते हैं-

      श्रीयुत प्रियवराध्यापक मूनियर विलियंस मोक्षमूलराख्यानामधुना वेदादिशास्त्राणां मध्ये कीदृङ् निश्चयः प्रेम तदर्थप्रचाराय चिकीर्षाऽस्ति।[६]

[📎पाद टिप्पणी ६. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, भाग १, पृष्ठ ३४७, पं॰ २३-२४]

      ◼️मैक्समूलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती के महत्त्व को स्वीकारना – हम पहले लिख चुके हैं कि अपने समय के इन दोनों प्रतिवादिभयङ्करों का कभी परस्पर साक्षात् नहीं हुआ परन्तु दोनों एक दूसरे के कार्य से भले प्रकार परिचित थे। 

      ◼️मैक्समूलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती को इङ्गलेण्ड आने का निमन्त्रण –  स्वामी दयानन्द सरस्वती के पं॰ लेखराम-लिखित जीवनचरित से स्पष्ट होता है कि मैक्समूलर ने सन् १८७५ में स्वामी दयानन्द सरस्वती को इंग्लैंड आने का निमन्त्रण भेजा था। उक्त जीवनचरित के पृष्ठ २८७ (हिन्दी अनु॰ प्र॰ संस्क॰) पर मैक्समूलर के पत्र का निम्न सारांश दिया है –

      ‘यदि आप यहां आवें तो बहुत बड़ी कृपा होगी। और वहां के धन्य भाग हैं, जहाँ आपने जन्म लिया है।’ 

      इसके उत्तर में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो पत्र लिखा था, उसका सारांश उसी जीवनचरित के पृष्ठ २८८ में इस प्रकार छपा 

      मेरी इच्छा आने की अवश्य थी, परन्तु यहाँ के लोग अभी मुझे नास्तिक कहते हैं। जब तक में इस देश को अच्छी तरह से न बतादूँ कि में कैसा नास्तिक हूं, तब तक नहीं आ सकता। 

      पं॰ लेखराम ने तो यह भी लिखा है…’वहाँ ( बम्बई) के भाटियों ने जहाज पर ले जाने का वचन भी दे दिया था’ (वही, पृष्ठ २८८)। पुनः पृष्ठ २९३ पर लिखा है- [लखनऊ में] ‘एक बंगाली बाबू को अंग्रेजी पढ़ाने को नौकर रखा था। और पढ़ना आरम्भ किया था।’ इण्डियन मिरर (कलकत्ता), बिहार बन्धु (पटना), हिन्दूबान्धव (लाहौर) के समाचारपत्रों में इस आशय की सूचनाएँ छपी थीं। 

      ‘ईश्वर जो कुछ करता है अच्छा ही करता है’ इस सुभाषित के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती का इङ्गलैण्ड जाना नहीं हुआ, यह अच्छा ही हुआ। अन्यथा पाश्चात्य भक्तों को यह कहने का अवसर मिल जाता कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो कार्य किया है, उसकी प्रेरणा उन्हें पाश्चात्य विचारधारा से मिली है। 

      ◼️स्वा॰ द॰ स॰ का जीवनचरित लिखने की आङ्काक्षा – स्वामी दयानन्द सरस्वती के निधन के कुछ समय पश्चात् प्रा॰ मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित लिखने का संकल्प किया था, और उसके लिये परोपकारिणी सभा के तात्कालिक मन्त्री मोहनलाल विष्णूलाल पाण्डया को पत्र लिखा था। यह वृत्तान्त अजमेर के ‘देश हितैषी’ पत्र के खण्ड ४ अङ्क ४ सं॰ १९४२ (?) के पृष्ठ ८५ से ज्ञात होता है। पाण्ड्याजी ने स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनचरित सम्बन्धी सामग्री स्वयं एकत्र न करके सब आर्यसमाजियों को प्रेरणा दी थी कि जिन्हें स्वामीजी की कोई विशेष घटना ज्ञात होवे, वह प्रा. मैक्समूलर साहब को लिखें। इसी प्रकार का वर्णन ‘फर्रुखाबाद का इतिहास’ के पृष्ठ २५५ पर भी मिलता है। 

      हन्त ! परोपकारिणी सभा के मन्त्री केवल आर्य समाजियों को प्रेरित मात्र करके अपने उत्तरदायित्व से मुक्त न होकर प्रा॰ मैक्समलर को स्वामीजी की जीवनघटनाओं को संग्रहीत करके भेजते तो प्रा॰ मैक्समलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित लिखा जाना एक गौरव की बात होती। अस्तु 

      इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रा॰ मैक्समूलर और स्वामी दयानन्द सरस्वती के मन्तव्यों में वैपरीत्य होते हए भी दोनों में व्यक्तिगत सौहार्द उसी प्रकार का लक्षित होता है, जैसे मोनियर विलियम्स और स्वामी दयानन्द सरस्वती में परस्पर था।

      अब हम प्रा॰ मैक्समूलर के वेदविषयक प्रारम्भिक और उत्तरवर्ती विचारों का संक्षेप से वर्णन करते हैं। इससे स्पष्ट हो जायेगा कि प्रा. मैक्समूलर के विचारों में उत्तरकाल में कितना अधिक परिवर्तन हुआ

था। 

      ◼️प्रारम्भिक विचार- मैक्समूलर के आरम्भिक काल में वेदों के सम्बन्ध में क्या विचार थे, इसके निदर्शनार्थ उसके कुछ उद्धरण नीचे देते हैं –

      मैक्समूलर के कुछ पत्र अपनी पत्नी पुत्र आदि के नाम लिखे हुए उपलब्ध हुए हैं।[७] पत्रलेखक पत्रों में अपने हृदय के भाव बिना किसी लाग लपेट के लिखता है। अतः किसी भी व्यक्ति के लिखे हुए ग्रन्थों की अपेक्षा उसके पत्रों में लिखे विचार अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ७. Life and letters of Frederich Max Muller, Two Vols.]

      ▪️१. सन् १८६६ के एक पत्र में मैक्समूलर अपनी पत्नी को लिखता –

      वेद का अनुवाद और मेरा यह संस्करण[सायणभाष्य सहित ऋग्वेद का संस्करण] उत्तरकाल में भारत के भाग्य पर दूर तक प्रभाव डालेगा। यह उसके धर्म का मूल है। और मैं निश्चय से अनुभव करता हूं कि उन्हें यह दिखाना कि यह मूल कैसा है, गत तीन सहस्र वर्ष में उससे उपजने वाली सब बातों के उखाड़ने का एक मात्र उपाय है।[८]

[📎पाद टिप्पणी ८. ……This adition of mine and the translation of the Veda Will here after tell to a great extent on the fate of India, ……It is the root of their religion and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.] 

      ▪️२. एक पत्र में वह अपने पुत्र को लिखता है –

      ‘संसार की सब धर्मपुस्तकों में से नई प्रतिज्ञा[अर्थात् ईसा की बाईबल] उत्कृष्ट है। इसके पश्चात कुरान जो प्राचार की शिक्षा में नई प्रतिज्ञा का रूपान्तर है, रखा जा सकता है। इसके पश्चात् पुरातन प्रतिज्ञा[अर्थात् यहूदी बाइबल] दाक्षिणात्य बौद्ध पिटक, बेद, और अवेस्ता आदि हैं।'[९] 

[📎पाद टिप्पणी ९. Would you say that anyone sacred book is superior to all others in the world ?……I say the New Testament. After that, I should place the Koran, which in its moral teachings, is hardly more than a later edition of the New Testament. Then would follow,……the old Testament, the Southern Buddhist Tripitika….. The Veda and the Avesta.] 

      ▪️३. १६ दिसम्बर सन् १८६८ में भारत सचिव ड्यूक आफ आर्गाइल को एक पत्र में मैक्समूलर लिखता है –

      ‘भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है और यदि ईसाई धर्म उसका स्थान नहीं लेता तो यह किसका दोष होगा ?'[१०]

[📎पाद टिप्पणी १०. The ancient religion of India is doomed and if Christianity does not step in, whose fault it be ?] 

      ▪️४. मैक्समूलर लिखता है- 

      ‘वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या परम बालिश, जटिल अधर्म और साधारण है।'[११] 

[📎पाद टिप्पणी ११. “Large number of Vedic hymns are childish in the extreme : tedious, low, common place.” Chips from a German Workshop, second edition, 1866, p. 27.]

      ▪️५. मैक्समूलर के नाम उसके घनिष्ठ मित्र ई॰ बी॰ पुसे का पत्र – 

      ‘आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने के यत्न में नवगुण लाने वाला है।'[१२]

[📎पाद टिप्पणी १२. ‘Your work will form a new era in the efforts for the conversion of India……’]

      वाह क्या कहना? जैसा मैक्समूलर वैसा ही उसका मित्र ? ऐसों के लिये ही तो कहावत है- 🔥उष्ट्राणां विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभाः। 

      वस्तुतः इस काल के जो भी ईसाई यहूदी वेद और संस्कृत भाषा पर काम कर रहे थे, उन सबके मस्तिष्क में ईसाई यहूदी मत का पक्षपात कार्य कर रहा था। मोनियर विलियम्स ने संस्कृत अंग्रेजी कोश की रचना की, इसके पीछे भी ईसाईयत की भावना काम कर रही थी। उसने उक्त कोष भारतीयों को ईसाई बनाने में अपने देशवासियों को सहायता पहुंचाने के लिये लिखा था। वह कोश की भूमिका में लिखता है- 

      “That the special object of his munificent bequest was to promote the translation of the scriptures into Sanskrit, so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian Religion.” 

(भूमिका, पृष्ठ९) 

      हमारा प्रयोजन मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों को प्रस्तुत करना था, वह उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट हो गया। अब हम उसके उत्तरकालीन विचारों को प्रस्तुत करते हैं –

      ◼️उत्तरकालीन विचार – मैक्समूलर के उत्तरकालीन विचारों का संकलन हम उसके उन व्याख्यानों से उद्धत करते हैं, जिन्हें उसने भारत में प्रशासकीय सेवा में आनेवाले उम्मीदवारों के सम्मुख सन् १८८२ में “INDIA WHAT CAN IT TEACH US’ (हम भारत से क्या सीखें ? ) शीर्षक व्याख्यानमाला में प्रस्तुत किया था। 

      सबसे पहले तो हमारा ध्यान उक्त व्याख्यानमाला का शीर्षक ही आकृष्ट करता है। यह शीर्षक ही मैक्समूलर के विचारों में पाये परिवर्तन की घोषणा करता है। अन्यथा भारतीयों को असभ्य जाहिल मानने वाले व्यक्ति को तो भारत में प्रशासन चलाने आनेवाले व्यक्तियों को बताना चाहिये था कि तुम्हें वहाँ जाकर असभ्य भारतीयों को कैसे सभ्य बनाना है, न कि उन्हें यह बताया जाये कि ‘हम भारत से क्या सीखें ?’ अब हम इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद[१३] से कतिपय विचार उद्धत करते हैं –

[📎पाद टिप्पणी १३. अनुवादक- श्री कमलाकर तिवारी एवं रमेश तिवारी। प्रकाशक-इतिहास प्रकाशन संस्थान, इलाहाबाद। प्रथम संस्करण, जुलाई १९६४]

      ▪️वैदिक धर्म ने कोई भी बाह्य प्रभाव ग्रहण नहीं किया – 

      “वेदिक साहित्य को ऐतिहासिक महत्त्व देने में जब कोई आपत्ति नहीं मिल सकी तो भी अकारण आलोचकों ने एक महती और अन्तिम आपत्ति उठायी। ऐसे लोगों ने बल देकर कहना आरम्भ किया कि वैदिक काव्य यदि सम्पूर्णरूपेण विदेशी नहीं, तो उस पर विदेशी प्रभाव और विशेषकर सेमेटिक प्रभाव तो अवश्य ही है। संस्कृत विद्वानों ने वेद के अनेक आकर्षक तत्त्वों का वर्णन किया है। उन्हीं के अनुसार वेद का सर्वाधिक आकर्षक तत्त्व यह है कि यह केवल धार्मिक विचारों की प्रति प्राचीन स्थिति से ही हमें परिचित नहीं कराता, वरन् वैदिक धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसने अपने सम्पूर्ण विकासकाल में कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं ग्रहण किया तथा संसार के सभी धर्मों की तुलना में वह सर्वाधिक शताब्दियों तक निर्बाध रूप से चलता रहा है।” (पृष्ठ १३५)। 

      ▪️वैदिक भाषा, साहित्य धर्म वा यज्ञ पर कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं है-  

      “प्राचीन भारतीय साहित्य पर विदेशी प्रभाव सिद्ध करने के लिये जितने तर्क दिये जा चुके हैं, उन सबको कसौटी पर कस लेने के पश्चात् अब हम इस स्थिति में आ गये हैं कि हम कह सकते हैं कि किसी भी प्रकार का बाह्य प्रभाव वैदिक भाषा, साहित्य, धर्म या यज्ञ पर नहीं है। वह जिस किसी भी रूप में हमारे सामने है, उसका उसी रूप और उसी देश में विकास हुआ है, जो उत्तर में अगम्य पर्वत श्रेणियों से, पश्चिम में सिन्ध तथा रेगिस्तान से, दक्षिण में अगाध सागर से एवं पूर्व में गंगा से पूर्ण रूपेण रक्षित था। हमारे सामने एक ऐसा काव्य (वैदिक धर्म) है, जो वहीं जन्मा और वहीं विकसित हुआ।” (पृष्ठ १४५)। 

      ▪️बहुदेवतावाद वा एकदेवतावाद- 

      “यदि आप हमसे यह पूछ बैठे कि वैदिक धर्म एकदेववादी है या बहुदेववादी, तो इसका उत्तर दे सकना मेरे लिए कम कठिन नहीं होगा। एकदेववाद का जो अर्थ लगाया जाता है, उस अर्थ में तो वैदिक धर्म एकदेववादी नहीं है। यद्यपि अनेक ऋचाएँ ऐसी हैं, जिनमें एकदेववाद की बात जितना बल देकर कही गयी है, उतना बल देकर तो ओल्ड टेस्टामेण्ट में भी नहीं कही गयी है। न्यू टेस्टामेण्ट एवं कुरान की भी यही स्थिति है। एक वैदिक ऋषि का कथन है कि “वह एक है, सन्त जन उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं, जैसे अग्नि, यम, मातरिश्वन्”[१४]। पृष्ठ( १४८)। 

[📎पाद टिप्पणी १४. 🔥इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः। ऋ॰ १।१६४।४६] 

      “यदि एकदेववाद या बहुदेववाद में निर्णय करना हो तो प्रथम दृष्टि में तो यही प्रतीत होगा कि वैदिक धर्म बहुदेववादी है, परन्तु बहुदेववाद से हम जो अर्थ लगाते हैं, उस अर्थ में यह शब्द वैदिक धर्म का विशेषण नहीं बन सकता। वास्तव में बहुदेववाद की विचारधारा को हमने ग्रहण किया है रोम और यूनान से। हम समझते हैं कि बहुदेव में देवताओं का एक संगठित रूप होता है, जिनमें प्रत्येक की शक्तिमात्रा दूसरे से भिन्न होती है और वे सब-के-सब उस परमेश्वर के सहायक हैं, जिसे वे जीअस या जुपिटर कहते हैं। वेदों का बहुदेववाद इससे भिन्न है। वह न केवल यूनानियों या रोम वालों से भिन्न है, वरन् वह पालिनेशियन, अमेरिकन तथा अफ्रीकन भावनाओं से भी भिन्न है और यह भिन्नता उसी प्रकार की है जैसे स्वशासनाधिकारप्राप्त ग्रामों का संघ राजतंत्रीय शासन से भिन्न होता है।” (पृष्ठ १४६)। 

      ▪️केवल एक ही देव – “……. उन ऋषियों ने स्पष्ट रूप से समझ लिया था कि यद्यपि ये नाम केवल नाममात्र हैं और जिसके ये नाम हैं, वह एक है और केवल एक है।” (पृष्ठ १५१)। 

      “उसी विद्वान् लेखक (यास्क) का कथन है कि देव तो वास्तव में एक ही है….. ये ढेर सारे देवता उसी आत्मन् के विभिन्न सदस्य हैं।” (पृष्ठ २२३)। 

      ▪️वेद का चरम लक्ष्य – “मैं तो यहाँ तक कह सकता है कि भारत का दर्शनशास्त्र ही वहाँ का सर्वोच्च धर्म है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में प्राचीनतम दर्शनशास्त्र का प्राचीनतम नाम है- वेदान्त अर्थात् वेद का अन्त, वेद का लक्ष्य या वेद का सर्वोच्च उद्देश्य।” (पृष्ठ २२३)। 

      ”लोगों ने वेद की महत्ता को कम करने के कम प्रयत्न नहीं किए हैं, पर उसका महत्त्व आज भी वैसा ही है।” (पृष्ठ २२७) ।

      “वेदान्तदर्शन के अनेक प्रमुख अङ्ग गवई गाँव के निरक्षर व्यक्ति भी पूरी तरह समझते हैं।” (पृष्ठ २२७)। 

      मैक्समूलर ने अपने व्याख्यानों की समाप्ति ‘शापन हावर’ के उपनिषदविषयक उद्गारों को उद्धृत कर इस प्रकार किया। 

      यदि आप ये समझते हों कि मेरे द्वारा प्रस्तुत विवरण अतिरञ्जित हैं, तो मैं आपके समक्ष एक महान दार्शनिक-आलोचक के कुछ शब्द रखूँगा। उस विद्वान् की यही विशेषता थी कि दूसरों के विचारों की व्यर्थ प्रशंसा करना उसके स्वभाव के विपरीत था। इस प्रसिद्ध विद्वान् शापन हावर ने उपनिषदों पर अपना विचार प्रगट करते हुए लिखा है कि-

      “समूचे संसार में कोई भी अध्ययन इतना लाभजनक और ऊँचा उठाने वाला नहीं है, जैसा कि उपनिषदों का अध्ययन। यह मेरे जीवन का संतोष रहा है और यही मेरी मृत्यु का भी सन्तोष रहेगा।” (पृष्ठ २३०)।

      इन उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन व्याख्यानों के समय (सन् १८८२) तक भारत, भारतीय धर्म और वेद के विषय में मैक्समूलर के विचारों में बहुत अन्तर हो गया था। परन्तु यह अन्तर किन कारणों से हुआ, क्या स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य इसमें कारण था वा नहीं, इसका स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्यसम्बन्धी कार्य से मैक्समूलर भली प्रकार परिचित था और स्वामी दयानन्द सरस्वती भी अपने वेदभाष्यसम्बन्धी कार्य के विषय में मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स की प्रतिक्रिया जानने को सदा उद्यत रहते थे, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। और इनके मध्य श्यामजीकृष्णवर्मा, जो संस्कृत अध्यापन के लिये लन्दन गए हुए थे, सम्पर्कमाध्यम के रूप में भूमिका निभा रहे थे। इन सब घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि मैक्समूलर के विचारों में परिवर्तन का प्रमुख कारण स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य अवश्य रहा होगा। इसकी पुष्टि मैक्समूलर के निम्न कथन से भी होती – 

      ‘ऋग्वेदकाल से आरम्भ करके दयानन्द द्वारा सम्पादित ऋग्वेद भाष्य की भूमिका लिखे जाने के समय तक के साहित्य को दो भागों में बाँट सकते हैं। यहाँ यह भी बता देना समुचित ही होगा कि दयानन्द द्वारा लिखी गई ऋग्वेद की भूमिका भी कम रुचिपूर्ण नहीं है।’ हम भारत से क्या सीखें, पृष्ठ १०२। 

      सबसे अधिक खेद का विषय यह है कि भारत के विश्वविद्यालयों में मैक्समूलर के वे ही विचार पढ़ाये जाते हैं, जो उसने प्रारम्भिक काल में ईसाई मत के जोश में लिखे थे। मेरा सुझाव है कि प्रत्येक विश्वविद्यालय में, जिसमें भी संस्कृत भाषा से सम्बद्ध विषय पढ़ाये जाते हों, वहाँ कम से कम मैक्समूलर के INDIA WHAT CAN IT TEACH US ? (हम भारत से क्या सीखें ) शीर्षक व्याख्यानसंकलन पाठ्यपुस्तकों में अवश्य रखा जाय, तभी मैक्समूलर-भक्त अपनी अन्ध भक्ति को त्यागकर कुछ प्रकाश पा सकेंगे। 

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

[ 📖 साभार ग्रन्थ – मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका कार्य ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

पण्डित चमूपति जी की कुरआन-विषयक एक भविष्यवाणी

      “हम भविष्यवाणी करते हैं कि कुरान की जो नई व्याख्या लिखी जायेगी उसके ठीक (दुरुस्त) होने की कसौटी ऋषि दयानन्द की समीक्षा होगी। कुछ अहले इस्लाम अपनी कम फ़हमी (भूल भ्रान्तियों) के कारण सत्यार्थप्रकाश के चौदहवें समुल्लास: का विरोध कर तो बैठते हैं, परन्तु उन्हें ज्ञान ही नहीं कि सत्यार्थप्रकाश का चौदहवाँ समुल्लास: यात्रियों का वह मार्गदर्शक शंखनाद है, जो इस्लाम के काफिले को ठीक मान्यताओं की ओर तेज पग उठाने की प्रेरणा दे रहा है।

      काफ़िले वालो ! शंखनाद की ध्वनि को सुनो तथा ध्येयधाम की ओर पग उठाओ।”

[द्रष्टव्य, चौदहवीं का चाँद (उर्दू पुस्तक) लेखक पण्डित चमूपति, पृष्ठ १८७]

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰

[📖 साभार ग्रन्थ – कवीर्मनीषी पण्डित चमूपति – राजेंद्र जिज्ञासु]

प्रस्तुति –  🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

नारी उत्थान में महर्षि का योगदान : डॉ दिनेश

वर्तमान युग कहने को तो बहुत प्रगतिशील, तर्कवादी और वैज्ञानिक सोच का युग है, परन्तु जब इस युग में प्रभावी समस्याओं पर दृष्टिपात करते हैं, तो बहुत निराशा होती है। राजनीतिक, सामाजिक, वैयक्तिक समस्याओं से व्यक्ति हर स्तर पर जूझ रहा है। इन समस्याओं का समाधान क्या है? इस पर बहुत-से चिंतन और विचार सामने आते हैं, परन्तु कोई भी प्रभावी नहीं हो पाता। इतिहास का सूचना-भंडार हमारे सामने मौजूद हैं, परन्तु इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में समझने का बोध उत्तरदायी या समर्थजनों में शायद नहीं है।

वैदिक दृष्टिकोण से हम आर्यजन प्रत्येक समस्या पर विचार करने के अभ्यस्त हैं। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि हमारा मानना है कि इसी दृष्टिकोण से विचार करने पर हम प्रत्येक समस्या का समुचित निदान पा सकते हैं। वेदों पर आधारित अन्य वैदिक साहित्य और महापुरुषों ने हमें पदे-पदे मार्गदर्शन दिया ही है। अत: हमें उनकी अवहेलना न करते हुए समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए।

आज एक विकराल समस्या महिलाओं के उत्पीडऩ की है। वैज्ञानिक युग में, उदारवादी सोच और विपुल कानूनी प्रावधानों के बावजूद आज भी स्त्री प्रताडि़त और शोषित है, अकल्पनीय अत्याचारों की शिकार है। आखिर दोष कहाँ है? हमारे विचार में दोष सोच में है। विभिन्न संचार-माध्यमों ने नारी के प्रति एक संकुचित और विकृत सोच को जन्म दिया है, जो उसे स्वेच्छाचारिणी और भोग्या के रूप में देखने का संस्कार या विकार शिक्षा एवं समाज में प्रारम्भिक स्तर से उत्पन्न करता है। इस विकृत सोच या मानसिकता को स्त्री-स्वातन्त्र्य का बाना पहनाकर प्रस्तुत किया गया है, ताकि स्त्री इस आकर्षण में आबद्ध रहकर लम्पटों का शिकार बनती रहे।

ऐसे में किसी भी पुरातन या शास्त्रीय विचार को पिछड़ा या प्रतिगामी कहकर तुरन्त खारिज किया जा सकता है या फिर ऐसा विचार देने वालों की बौद्धिक कुटाई-पिटाई की जा सकती है। परन्तु जब तथ्यों और तर्क की कसौटी पर हम शास्त्रीय, विशेषत: वैदिक विचारों को परखते हैं, तो हमें स्पष्ट प्रतीत होता है कि वैदिक मार्ग के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग स्त्री के उद्गार का और उसे न्याय दिलाने का है ही नहीं। विचारिए कि वैदिक साहित्य में नारी ब्रह्मवादिनी है, देवी है, साम्राज्ञी है, शिक्षिका है, विदुषी है, नेत्री है, उपदेशिका है, पूज्या है और प्रकाशिका है। पति की सर्वोत्तम मित्र और सचिव भी वही है। यदि इन गुणों की धारणकत्र्री को आदर्श जानकर चला जाए, तो कौन उसे सम्मान नहीं देना चाहेगा? दुर्भाग्य से मध्यकाल में विपरीत विचारों वाले विदेशी आततायियों का देश में शासन होने पर स्त्रियों की दुर्दशा प्रारम्भ हुई। उनको सहेजकर रखने वाली ‘वस्तुÓ के रूप में रखा गया। उनको बंधन में रखने के लिए स्मृतियों और विधानों की रचना की गई। परन्तु, भारतवर्ष में उन्नीसवीं शताब्दी में उनके एक उद्घाटक का आविर्भाव हुआ, जो मानवमात्र के परम हितैषी सिद्ध हुए। वे ‘ऋषिÓ की पदवी के योग्य महामानव थे।

दयानन्द का ऋषित्व यह था कि वेदार्थ को समझने के अधिकारी होने की योग्यता तो उनमें थी ही, परमात्मा के सत्यस्वरूप और न्यायकारी होने का गुण भी उनमें मानवीय सामथ्र्य की सीमा तक विद्यमान था। वे प्राणिमात्र के प्रति सहानुभूति की भावना को सत्य का ही अंश समझते थे। स्त्री-पुरुष में असमानता का बर्ताव उन्हें असह्य था। महर्षि ने वेदों के प्रमाणों और तर्क के आधार पर पुरुष और नारी की समानता का उद्घोष किया। उनका कथन था ”ईश्वर के समीप स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं। कारण, ईश्वर न्यायकारी है। अत: उसमें पक्षपात का लेश भी संभव नहीं है।ÓÓ पुराकाल में जो स्त्री परिवार की धुरी की भाँति थी, संतति की निर्मात्री थी, जिसके बिना समाज में विद्या और शिक्षा का प्रचार और प्रसार संभव नहीं था। उसे ही विद्या-विहीन और सामाजिक कार्यों से विरत कर घर की सीमा में पशु की भाँति बाँध दिया गया था। महर्षि की विचारधारा ने स्त्री-जगत् को यह साहस दिया कि वह अपनी पीड़ा और अपनी दुरवस्था के विचारों को प्रकट कर सके।

महर्षि दयानन्द ने अपने उद्बोधन, पत्रों तथा अन्यान्य लेखन में सर्वत्र महिला-उत्पीडऩ के विरुद्ध कार्य करने के निर्देश दिए हैं। यद्यपि महाभारत युद्ध के बाद समाज में अनेक दुर्गुणों का समावेश हो गया था और जहाँ राजधर्म विखण्डित हुआ वहीं समाज में विभिन्न प्रकार की दुर्नीतियाँ प्रचलित हो गईं। 8वीं शताब्दी के बाद इस्लामी आक्रमण के प्रारम्भ होने से भारतीय समाज में नारी की दशा और भी दयनीय होती गई। पुरुषों का वर्चस्व और नारी को हेय मानने की प्रवृत्ति बढ़ती ही गई। जबकि प्राचीन भारतीय सत्शास्त्रों में नारी की गौरवमयी स्थिति विद्यमान थी, जिसके अनुसार नारियाँ सभा और समिति में भाग लेती थीं, युद्धों में और खेलों में उनकी भागीदारी थी, विदुषी और ब्रह्मवादिनी महिलाओं के नाम भारतीय इतिहास में बिखरे पड़े हैं। इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सामान्यतया महिलाओं के अधिकार सुरक्षित थे, भले ही वैदिक शास्त्रों से इतर ग्रन्थों में यत्र-तत्र उनके अधिकारों का अतिक्रमण किया गया हो, लेकिन वे वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध होने के कारण स्वीकार नहीं किए जा सकते।

महर्षि ने नारी की दशा को देश में भ्रमण करते हुए अनुभव किया था। इसीलिए उन्होंने स्त्री-शिक्षा, स्त्री के विवाह की उम्र, स्त्री की समाज में सक्रियता, उनकी शिक्षा इत्यादि के संबन्ध में लिखा और अपने भाषणों में भी इस विषय पर पर्याप्त प्रवचन किया। उन्हीं के उपदेशों का अनुसरण कर बाद के आर्य नेताओं ने कन्या-गुरुकुल, कन्या डीएवी कॉलेज, स्त्री आर्यसमाज इत्यादि संगठनों का निर्माण किया और महिलाओं के बीच जागृति उत्पन्न करके उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोडऩे का महनीय कार्य किया।

उदाहरण रूप में हम चर्चा करें, तो एक साहसी महिला थी हरदेवी। इस अप्रसिद्ध-सी विधवा महिला ने 1881 में स्त्री-विलाप नामक एक कविता लिखी थी जिसके द्वारा तत्कालीन महिलाओं की स्थिति को बखूबी समझा जा सकता है। महिला सुधार हेतु उपर्युक्त हरदेवी का योगदान महत्त्वपूर्ण है। ये प्रसिद्ध रायबहादुर कन्हैयालाल की पुत्री थीं। कन्हैयालाल जी लाहौर के आधुनिक भवन-निर्माताओं में से थे। हरदेवी पहली ऐसी महिला थी जिसका महर्षि दयानन्द के उपदेशों के बाद विधवा-विवाह आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान् और एडवाकेट रोशनलाल, बैरिस्टर एट लॉ के साथ बहुत विरोधों के बावजूद हुआ। बाद में रोशनलाल आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के मंत्री चुने गए जिन्होंने इंग्लैण्ड से वकालत की डिग्री प्राप्त की थी। वे गौरक्षक और प्रसिद्ध समाजसुधारक थे। इन्हीं आर्यसमाजी रोशनलाल ने जब समाज के विरोध के बावजूद इस विधवा महिला से विवाह किया तो उसका कारण इस महिला के द्वारा महिला कल्याण के लिए किए जा रहे कार्यों से प्रभावित होना ही था। तत्कालीन एक अन्य प्रसिद्ध महिला जानकी देवी ने हरदेवी के विषय में लिखा था कि ”हरदेवी लाहौर के बैरिस्टर रोशनलाल की पत्नी, समाजसेविका, हिन्दी पत्रिका ‘भारत-भगिनीÓ की सम्पादिका थीं जो क्रांतिकारियों के मुकदमों में धन इक_ा करके सहायता देती रहीं।ÓÓ आर्यसमाज के इतिहास में सत्यकेतु विद्यालंकार ने पटियाला षड्यंत्र केस में हरदेवी द्वारा प्रकाशित समाचारपत्र ‘भारत-भगिनीÓ को राजद्रोहात्मक साहित्य मानकर उसे जब्त करने का उल्लेख किया है तथा रोशनलाल के योगदान को रेखांकित किया। स्पष्टत: हरदेवी ने आर्यसमाज और महर्षि दयानन्द के साथ-साथ पण्डिता रमाबाई से भी महिला कल्याण की प्रेरणा ली थी।

हरदेवी को पढ़ाई के लिए इंग्लैण्ड भेजा गया और यह माना जाता है कि वे पहली ऐसी हिन्दीभाषी महिला थीं जिन्होंने लंदन में जाकर बालिकाओं के लिए किण्डर गार्डन पद्धति से शिक्षा का अध्ययन किया। हरदेवी ने भाग्यवती, सासपतोहु वामाशिक्षक, लंदन यात्रा, हुकुमदेवी-हिन्दू धर्म की उच्चता में एक सच्ची कहानी, सीमन्तनी उपदेश, स्त्रियों पर सामाजिक अन्याय, पुनर्विवाह से रोकना, भारत-भगिनी, स्त्री-विलाप इत्यादि अन्यान्य पुस्तकों और पत्रकों की रचना की।

उपर्युक्त विदुषी महिला श्रीमती हरदेवी का उदाहरण इस कारण प्रस्तुत किया गया है कि तत्कालीन स्त्रीशिक्षा-विरोधी वातावरण में भी महर्षि दयानन्द और उनके अनुयायियों ने किस प्रकार स्त्रीशिक्षा और उनकी अन्य समस्याओं के निराकरण हेतु जो कार्य किया; इसके महत्त्व को आज के शोधार्थी समझें और वर्तमान संदर्भों में वैदिक शिक्षा के दृष्टिकोण को अपनाएँ। स्त्रियों की महत्ता और स्वस्थ समाज के निर्माण में उनकी महती और शाश्वत भूमिका को केवल वैदिक दृष्टि से ही समझा जा सकता है, क्योंकि संस्कारों के सुदीर्घकालीन अभ्यास से ही वैचारिक शुद्धता संभव है, और ऐसी स्थिति का निर्माण होने पर ही स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना का उदय होगा और जिससे उनके प्रति अन्याय समाप्त हो सकेगा। स्त्रियों की शास्त्रोक्त महत्ता को समझना आवश्यक है, जहाँ कहा गया है-

यस्यां भूतं समभवद् यस्यां विश्वमिदं जगत्।

तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्रीणामुत्तमं यश:।।

– दिनेश

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की मूर्ति सही या गलत : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा  समाधान – ११९

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा:- आदरणीय सम्पादक महोदय सादर नमस्ते। निवेदन यह है कि मैंने आर्य समाज मन्दिर में महर्षि दयानन्द जी का एक स्टेचू (बुत) जो केवल मुँह और गर्दन का है जिसका रंग गहरा ब्राउन है, रखा देखा है। पूछने पर पता चला कि यह किसी ने उपहार में दिया है। आप कृपया स्पष्ट करें कि क्या महर्षि का स्टेचू भेंट में लेना, बनाना और भेंट देना आर्य समाज के सिद्धान्त के अनुरूप है? जहाँ तक मेरा मानना है महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने की सख्त मनाही की थी। कृपया स्पष्ट करें।

धन्यवाद, सादर।

– डॉ. पाल

समाधान:- महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन मेंं कभी सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। वे वेद की मान्यतानुसार अपने जीवन को चला रहे थे और सम्पूर्ण विश्व को भी वेद की मान्यता के प्रति लाना चाहते थे। वेद ईश्वर का ज्ञान होने से वह सदा निभ्र्रान्त ज्ञान रहता है, उसमें किसी भी प्रकार के पाखण्ड अन्धविश्वास का लेश भी नहीं है। वेद ही ईश्वर, धर्म, न्याय आदि के विशुद्ध रूप को दर्शाता है। वेद में परमेश्वर को सर्वव्यापक व निराकार कहा है। प्रतिमा पूजन का वेद में किसी भी प्रकार का संकेत नहीं है। महर्षि दयानन्द ने वेद को सर्वोपरि रखा है। महर्षि दयानन्द समाज की अवनति का एक बड़ा कारण निराकार ईश्वर की उपासना के स्थापना पर प्रतिमा पूजन को मानते हैं। जब से विशुद्ध ईश्वर को छोड़ प्रतिमा पूजन चला है तभी से मानव समाज कहीं न कहीं अन्धविश्वास और पाखण्ड में फँसता चला गया। जिस मनुष्य समुदाय में पाखण्ड अन्धविश्वास होता है वह समुदाय धर्म भीरु और विवेक शून्य होता चला जाता है। सृष्टि विरुद्ध मान्यताएँ चल पड़ती हैं, स्वार्थी लोग ऐसा होने पर भोली जनता का शोषण करना आरम्भ कर देते हैं।

महर्षि दयानन्द और अन्य मत सम्प्रदाय में एक बहुत बड़ा मौलिक भेद है। महर्षि व्यक्ति पूजा से बहुत दूर हैं और अन्य मत वालों का सम्प्रदाय टिका ही व्यक्ति पूजा पर है। महर्षि ईश्वर की प्रतिमा और मनुष्य आदि की प्रतिमा पूजन का विरोध करते हैं, किन्तु अन्य मत वाले इस काम से ही द्रव्य हरण करते हैं। इस व्यक्ति पूजा के कारण समाज में अनेक प्रकार के अनर्थ हो रहे हैं। इसी कारण बहुत से अयोग्य लोग गुरु बनकर अपनी पूजा करवा रहे हैं। जीते जी तो अपनी पूजा व अपने चित्र की भी पूजा करवाते ही हैं, मरने के बाद भी अपनी पूजा करवाने की बात करते हैं और भोली जनता ऐसा करती भी है। इससे अनेक प्रकार के अनर्थ प्रारम्भ हो जाते हैं। महर्षि दयानन्द ने जो अपना चित्र न लगाने की बात कही है, वह इसी अनर्थ को देखते हुए कही है। महर्षि विचारते थे कि इन प्रतिमा पूजकों से प्रभावित हो मेेरे चित्र की भी पूजा आरम्भ न कर दें। इसी आशंका के कारण महर्षि ने अपने चित्र लगाने का निषेध किया था।

यदि हम आर्य महर्षि के सिद्धान्तों के अनुसार चल रहे हैं, प्रतिमा पूजन आदि नहीं कर रहे हैं तो महर्षि के चित्र आदि लगाए जा सकते हैं रखे जा सकते हैं। चित्र वा मूर्ति रखना अपने आप में कोई दोष नहीं है। दोष तो उनकी पूजा आदि करने में हैं। महर्षि मूर्ति के विरोधी नहीं थे, महर्षि का विरोध तो उसकी पूजा करने से था। यदि महर्षि केवल चित्र वा मूर्ति के विरोधी होते तो अपने जीवन काल में इनको तुड़वा चुके होते, किन्तु महर्षि के जीवन से ऐसा कहीं भी प्रकट नहीं होता कि कहीं महर्षि दयानन्द ने मूर्तियों को तुड़वाया हो। अपितु यह अवश्य वर्णन मिलता है कि जिस समय महर्षि फर्रुखाबाद में थे, उस समय फर्रुखाबाद बाजार की नाप हो रही थी। सडक़ के बीच में एक छोटा-सा मन्दिर था, जिसमें लोग धूप दीप जलाया करते थे। बाबू मदनमोहन लाल वकील ने स्वामी जी से कहा कि मैजिस्ट्रेट आपके भक्त हैं, उनसे कहकर इस मठिया को सडक़ पर से हटवा दीजिये। स्वामी जी बोले ‘‘मेरा काम लोगों के मनो से मूर्तिपूजा को निकालना है, ईंट पत्थर के मन्दिरों को तोडऩा-तुड़वाना मेरा लक्ष्य नहीं है।’’ यहाँ महर्षि का स्पष्ट मत है कि वे मूर्ति पूजा के विरोधी थे, न कि मूर्ति के।

आर्य समाज का सिद्धान्त निराकार, सर्वव्यापक, न्यायकारी आदि गुणों से युक्त परमेश्वर को मानना व उसकी उपासना करना तथा ईश्वर वा किसी मनुष्य की प्रतिमा पूजन न करना है। इस आधार पर महर्षि का स्टेचू भेंट लेना देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विपरीत नहीं, सिद्धान्त विरुद्ध तब होगा जब उस स्टेचू की पूजा आरम्भ हो जायेगी। आर्य समाज का सिद्धान्त चित्र की नहीं चरित्र की पूजा अर्थात् महापुरुषों के आदर्शों को देखना अपनाना है।

कि सी भी महापुरुष के चित्र वा स्टेचू को देखकर हम उनके गुणों, आदर्शों, उनकी योग्यता विशेष का विचार करते हैं तो स्टेचू का लेना-देना कोई सिद्धान्त विरुद्ध नहीं है। जब हम उपहार में पशुओं वा अन्य किन्हीं का स्टेचू भेंट कर सकते हैं तो महर्षि का क्यों नहीं कर सकते?

घर में जिस प्रकार की वस्तुएँ या चित्र आदि होते हैं उनका वैसा प्रभाव घर में रहने वालों पर पड़ता है। जब फिल्मों में काम करने वाले अभिनेता अभिनेत्रियों के भोंडे कामुकतापूर्ण चित्र वा प्रतिमाएँ रख लेते हैं, लगा लेते हैं तो घर में रहने वाले बड़े वा बच्चों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है आप स्वयं अनुमान लगाकर देख सकते हैं। इसके विपरीत महापुरुषों क्रान्तिकारियों के चित्र घर में होते हैं तो घर वालों पर और बाहर से आने वालों पर कैसा प्रभाव पड़ता होगा। घर में रहने वालों की विचारधारा को घर में लगे हुए चित्र व वस्तुएँ बता देती हैं। अस्तु।

महर्षि ने अपनी प्रतिमा बनाने का विरोध किया था, वह क्यों किया इसका कारण ऊपर आ चुका है। स्टेचू, चित्र आदि का भेंट में लेना-देना आर्य समाज के सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं है। यह लिया-दिया जा सकता है, कदाचित् इसकी पूजा वा अन्य दुरुपयोग न किया जाय तो। इसमें इसका भी ध्यान रखें कि पुराण प्रतिपादित कल्पित देवता जो कि चार-आठ हाथ व चार-ेपाँच मुँह वाले वा अन्य किसी जानवर के  रूप में हों उनसे लेने देने से बचें।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

आज के युग में ऋषि दयानन्द की प्रासंगिकता: राजेन्द्र जिज्ञासु

आर्य वक्ताओं व लेखकों की सेवा में:-कुछ समय से आर्यसमाज के उत्सवों व सम्मेलनों में सब बोलने वालों को एक विषय दिया जाता है, ‘‘आज के युग में ऋषि दयानन्द की प्रासंगिकता’’ इस विषय पर बोलने वाले (अपवाद रूप में एक दो को छोडक़र) प्राय: सब वक्ता ऋषि दयानन्द की देन व महत्ता पर अपने घिसे-पिटे रेडीमेड भाषण उगल देते हैं। जब मैं कॉलेज का विद्यार्थी था तब पूज्य उपाध्याय जी की एक मौलिक पुस्तक सुरुचि से पढ़ी थी। पुस्तक बहुत बड़ी तो नहीं थी, परन्तु बार-बार पढ़ी। आज भी यदा-कदा उसका स्वाध्याय करता हँू। आज के संसार में वैदिक विचारधारा को हम कैसे प्रस्तुत करें, यही उसके लेखन व प्रकाशन का प्रयोजन था।

इसमें दो अध्याय अनादित्त्व पर हैं। सब मूल सिद्धान्तों पर लिखते हुए महान् दर्शनिक की तान यही है कि ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि हैं। ईश्वर का ज्ञान और विद्या भी अनादि है। यह जगत् परिवर्तनशील है, परन्तु इस सृष्टि के नियम जो प्रभु ने बनाये हैं वे सब अपरिवर्तनशील व अनादि हैं, परमेश्वर इन नियमों का नियन्ता है। उसका एक भी नियम ऐसा नहीं जो श्वह्लद्गह्म्ठ्ठड्डद्य अनादि व नित्य (अनश्वर) न हो। ऋषि दयानन्द के वैदिक दर्शन की महानता, विलक्षणता, उपयोगिता तथा प्रासंगिकता का बोध इसी से हो जाता है। हमारे अधिकंाश वक्ता इस विषय पर बोलते हुए इसे छूते ही नहीं।

एक बार नागपुर के एक महासम्मेलन में मुझे भी इसी विषय पर बोलना पड़ा। मैंने पहला वाक्य यह कहा, ‘‘क्या कभी किसी ने यह प्रश्र उठाया है कि आज के युग में चाँद की, सूर्य की, पृथिवी की गति की, सूर्य के पूर्व से उदय होने की, दो+दो=चार, दिन के पश्चात् रात और रात के पश्चात् दिन की, कर्मफल सिद्धान्त की, प्रभु की दया, प्रभु के न्याय की, व्यायाम की, दूध-दही के सेवन की, गणित के नियम की, भौतिकी शास्त्र के नियमों की क्या प्रासंगिकता  है?’’

जो इस प्रश्र को उठायेगा, उसका उपहास ही उड़ाया जायेगा। इस प्रकार त्रैतवादी विचारक महर्षि दयानन्द के सन्देश, उपदेश ‘वेद अनादि ईश्वर का अनादि ज्ञान है’ को सुनकर जो उसकी प्रासंगिकता का प्रश्र उठाता है तो उसे कौन बुद्धिमान् कहेगा? एक सेवानिवृत्त प्राध्यापक मुझे बाजार में मिल गया। वार्तालाप में उसने एक बात कही, ‘‘वैज्ञानिक चाँद पर घूम आये। उपग्रह से भ्रमण करते रहते हैं। कहीं उन्हें नरक व स्वर्ग नहीं दिखे। कहीं किसी ने हूरें नहीं देखीं, फरिश्ते नहीं देखे……..।’’

मित्रो! जो चमत्कार मानते थे उनको लिखित रूप से मानना पड़ रहा है कि किसी पैगम्बर ने कोई चमत्कार नहीं किया। धर्म अनादि काल से है। युग-युग में ईश्वर नया ज्ञान नहीं देता। ऐसा साहित्य छप रहा है। ऐसे लोगों से पूछो कि आज के युग में उनके ग्रन्थों व पन्थों की क्या प्राासंगिकता है? विस्तार से कभी फिर कुछ लिखूँगा। आशा है हमारे बड़े-बड़े विद्वान् नये $फैशन के इस सम्मेलन से समाज को बचायेंगे।

हमारे पूजनीय स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तो पण्डित चमूपति जी की यह तान सुनाया करते थे:-

जुग बीत गया दीन की शमशीर ज़नी का।

है वक्त दयानन्द शजाअत के धनी का।।

महर्षि दयानन्द का राष्ट्र-चिन्तन: – दिनेश

१९ वीं शताब्दी के पुनर्जागरण आन्दोलन मे महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र चिन्तन परवर्ती भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के चिन्तन की आधारशिला बना। महर्षि दयानन्द के राष्ट्र-चिन्तन का आधार वेद था, जिन्हें महर्षि ने सभी सत्यविद्याओं की पुस्तक घोषित किया। किसी भी विषय के  व्यापक विचार-विमर्श के बाद ही उसके क्रियान्वयन और उसके परिणाम की अभिव्यक्ति होती है और यही चिन्तन अन्त:वैश्वीकरण के रूप में युगानुरूप राष्ट्रीय आन्दोलन की बहुआयामी प्रवृत्तियों को अभिव्यक्त करता रहा है। महर्षि दयानन्द सरस्वती के समक्ष विभिन्न प्रकार की चुनौतियाँ थीं। एक ओर ब्रिटिश साम्राज्य की आधीनता, तो दूसरी ओर भारतीय समाज में आई सामाजिक और धार्मिक विकृतियाँ। महर्षि दयानन्द सरस्वती को दुधारी तलवार से सामना करना था। यह कार्य निश्चय ही एक ओर अधार्मिक, अमानवीय और अंधविश्वासी परम्पराओं केा ध्वस्त करना था तो दूसरी ओर नवनिर्माण की आधारशिला पर विश्वग्राम की आधारशिला की संकल्पना को पूर्ण करना था।

महर्षि दयानन्द सरस्वती की राष्ट्रदृष्टि कालजयी तथा सकारात्मक सोच के साथ प्रतिरोध-प्रतिकार के बाद भी नवसंरचना की बुिनयाद पर टिकी थी, यही कारण था कि १८७५ में आर्य समाज की स्थापना के बाद महर्षि दयानन्द ने स्वराज्य, स्वदेश और स्वभाषा का शंखनाद किया था। यद्यपि काँग्रेस की स्थापना उपर्युक्त तीनों मान्यताओं के लिए नहीं हुई थी, तथापि १९०५ में गोपाल कृष्ण गोखले ने काँग्रेस के प्रस्ताव में स्वदेशी को स्वीकार किया और १९०६ में स्वराज्य दादा भाई नौरोजी की अध्यक्षता में स्वीकार किया गया। ‘स्वभाषा’ (आर्य भाषा या हिन्दी) को महात्मा गाँधी ने कालांतर में काँग्रेस के प्रस्ताव में स्वीकार किया। महर्षि दयानन्द सरस्वती का यह कथन स्वदेश के प्रति उनकी तीव्र उत्कंठा को स्पष्ट करता है कि ‘छ: पैसे का चाकू वही काम करता है तो सवा रुपये का विदेशी चाकू क्यों खरीदा जाये’ यह कथन परवर्ती भारतीय राष्ट्रीय एवं स्वदेशी आन्दोलन का प्रबल उद्घोष बना।

महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन आज भी उतना ही प्रासंगिक है, क्योंकि यह धर्म या सम्प्रदाय का नहीं है अपितु यह वेदों से नि:सृत मानव कल्याण का राष्ट्रशास्त्र है। जिसमें मतवाद का दुराग्रह नहीं है। जातिवाद का विध्वंसकारी मतवाद नहीं है, अपितु यह लोकतंत्र की स्वत: उद्भुत विचार-पद्धति है, जिसके विमर्श की आज महती आवश्यकता है।

आर्यसमाज के सभासदों, संन्यासियों, गुरुकुल के आचार्यों, छात्रों सभी ने राष्ट्रयज्ञ में सक्रिय भाग लिया। उन्होंने जहाँ एक ओर क्रान्तिकारी आन्दोलनों में भाग लिया, वहीं दूसरी ओर गाँधी के नेतृत्व में उनके सभी आन्दोलनों में भाग लिया।

आर्यसमाज स्वतन्त्रता से पूर्व जिन उद्देश्यों के लिए समर्पित था, स्वतन्त्रता के बाद भी उनकी महत्त्वपूर्ण आवश्यकता थी। आर्यसमाज एक सशक्त राजनैतिक संगठन के रूप में अन्य राजनैतिक दलों की तरह भले ही प्रस्तुत ना हुआ हो, लेकिन देश के विभिन्न क्षेत्रों में आर्यजन अपनी उल्लेखनीय कार्यक्षमता का परिचय दे रहे हैं।

परन्तु वर्तमान में चुनावों के समय महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन, जिसका उल्लेख ‘सत्यार्थप्रकाश’ जैसी कालजयी रचना में किया गया है, के अनुरूप ही आर्यजनों को मताधिकार का प्रयोग करना चाहिये। धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर मत ना देने का प्रावधान जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा १०३ (३) में दिया गया है। यदि  इनके आधार पर मत देने का आग्रह किया जाता है तो उसे भ्रष्ट आचरण में रखा जाता है। अभी हाल ही में पांच राज्यों पंजाब, गोवा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड और मणिपुर के चुनावों के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने चुनाव को पंथनिर्पेक्ष प्रक्रिया मानते हुए धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रवाद इत्यादि के आधार पर मत देने को भ्रष्ट आचरण घोषित किया और उसे छ: वर्ष तक चुनाव लडऩे के अयोग्य करार देने का फैसला दिया गया।

महर्षि दयानन्द सरस्वती का राष्ट्र-चिन्तन हमारे मत देने के मौलिक अधिकारों को पुष्ट करता है, जिसमें वेद, भारतीय संस्कृति, भाषा, जातिविहीन  समाज-व्यवस्था, छुआछूत का विरोध, भ्रष्टाचार, वंशवाद के विरुद्ध जिस राजनैतिक दल की निष्ठायें हैं, उसी दल को आर्यजन स्वविवेक से अपना मतदान करते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती राजधर्म को एकांगी नहीं मानते थे अपितु उन्होंने संस्कृति के संरक्षणीय मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में राजनीति को विवेचित किया है। पृथ्वी और स्वयं को उसका पुत्र भाव रूपी राष्ट्रधर्म की व्याख्या अथर्ववेद के शब्दों में निम्र प्रकार की गई:-

माता भूमि:पुत्रोऽहं पृथिव्या:।

पर्जन्य: पिता स उ न: पिपर्तृ।

– (१२/१/१२)

सांस्कृतिक उत्थान अक्षत राष्ट्रवाद के मूल में ही संरक्षित एवं पल्लवित होता है। यही आज आर्यजनों को अभीष्ट है।

– दिनेश

महर्षि दयानन्द सरस्वती- सम्पूर्ण जीवन चरित्र: राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

पिछली बार इस ग्रन्थ की मौलिकता तथा विशेषताओं पर हमने पाँच बिन्दु पाठकों के सामने रखे थे। अब आगे कुछ निवेदन करते हैं।

६. इस जीवन-चरित्र में ऋषि जीवन विषयक सामग्री की खोज तथा जीवन-चरित्र लिखने के इतिहास पर दुर्लभ दस्तावेज़ों के छायाचित्र देकर प्रामाणिक प्रकाश डाला गया है। दस्तावेज़ों से सिद्ध होता है कि ऋषि के बलिदान के समय पं. लेखराम जी के अतिरिक्त कोई उपयुक्त व्यक्ति-इस कार्य के लिये ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, डगर-डगर धक्के खाने को तैयार ही नहीं था। सब यही कहते थे कि ऋषि जी की घटनायें उनके घर में मेज़ पर पहुँचाई जायें। ऐसे दस्तावेज़ हमने खोज-खोजकर इस ग्रन्थ में दे दिये हैं। ऋषि का जीवन-चरित्र लिखने में तथा सामग्री की खोज में जो महापुुरुष, विद्वान् और ऋषिभक्त नींव का पत्थर बने, हमने उनके चित्र खोज-खोजकर इस ग्रन्थ में दिये हैं। हमें कहा गया कि महाशय मामराज जी का तो चित्र ही नहीं मिलता। महर्षि के पत्रों की खोज के लिये पं. भगवद्दत्त जी, पूज्य मीमांसक जी के इस अथक हनुमान् का चित्र खोजकर ही चैन लिया। ऋषि जीवनी के एक लेखक जिसको इस अपराध में घर-बार, सगे-सम्बन्धी, सम्पदा तथा परिवार तक छोडऩा पड़ा, उस तपस्वी निर्भीक विद्वान् पं. चमूपति का चित्र इस ऐतिहासिक ग्रन्थ में देकर एक नया इतिहास रचा है। जिस-जिस ने ऋषि जीवन के लिये कुछ मौलिक कार्य किया, सामग्री की खोज की, उन सबके चित्र देने व चर्चा करने का भरपूर प्रयास किया।

७. ऋषि के विषपान, बलिदान व दाहकर्म संस्कार का विस्तृत तथा मूल स्रोतों के आधार पर वर्णन किया गया है। लाला जीवनदास जी ने अरथी को कंधा दिया, ऋषि ने नाई को पाँच रुपये दिलवाये, ऋषि की आँखें खुली ही रह गईं- यह प्रामाणिक जानकारी इसी ग्रन्थ में मिलेगी। प्रतापसिंह की विषपान के पश्चात् ऋषि से जोधपुर में कोई भेंट नहीं हुई और आबू पर भी कोई बात नहीं हुई। ये सब प्रमाण हमने खोज निकाले।

८. जोधपुर के राजपरिवार की कृपा से बलिदान के पश्चात्  परोपकारिणी सभा को कोई दान नहीं मिला। २४०००/- रुपये की मेवाड़ आदि से प्राप्ति के दस्तावेज़ी प्रमाण खोजकर इतिहास प्रदूषण से ऋषि जीवनी को बचाया गया है।

९. ऋषि के बलिदान के समय स्थापित समाजों की दो सूचियाँ केवल इसी ग्रन्थ में खोजकर दी गई है।

१०. ऋषि के पत्र-व्यवहार का सर्वाधिक उपयोग इसी ग्रन्थ में किया गया है। ऋषि के कई महत्त्वपूर्ण पत्रों को पहली बार हमीं ने मुखरित किया है।

११. ऋषि के शास्त्रार्थों के तत्कालीन पत्रों व मूल स्रोतों को खोजकर, छायाचित्र देकर सबसे पहला प्रयास हमीं ने इस जीवन चरित्र में करके इतिहास प्रदूषण का प्रतिकार किया है।

१२. ऋषि के आरम्भिक काल के शिष्यों, अग्नि परीक्षा देने वाले पहले आर्यों, सबसे पहले आर्य शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह जी को मुखरित करके इसी ग्रन्थ में दिया गया है।

१३. पं. श्रद्धाराम फिलौरी के हृदय परिवर्तन विषयक उसके ऋषि के नाम लिखे गये ऐतिहासिक पत्र का फोटो देकर ऋषि-जीवन का नया अध्याय  इसमें लिखा है।

१४. ऋषि के व्यक्तित्व का, शरीर का, ब्रह्मचर्य का सबसे पहले जिस भारतीय ने विस्तृत वर्णन किया, वह बनेड़ा के राजपुरोहित श्री नगजीराम थे। उनकी डायरी के ऐसे पृष्ठों का केवल इसी ग्रन्थ में फोटो मिलेगा। (शेष अगले अंकों में)