व्रुपासि वास्त्रा वैदिक वाड्.मय में पृथिवी – प्रो.-छाया ठाकुर

            लैटिन भाष के शब्द साइंटिया (Scientia) जिसका अर्थ ज्ञान है से व्युत्पन्न साइंस अर्थात् विज्ञान (विशिष्ट ज्ञानं विज्ञानमिति) प्रयोग और परीक्षण द्वारा सत्यापित ज्ञान है। विज्ञान की दो शाखायें हैं (१) प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) (२) सामाजिक विज्ञान (Human Science)। प्राकृतिक विज्ञान ही वह आधारभूत विज्ञान है जिसमें प्रकृति और पदार्थ का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। प्राकृतिक विज्ञान की एक शाखा भौतिक विज्ञान के अन्तर्गत हम ब्रह्माण्ड में स्थित वस्तुओं, क्रियाओं और उन्हें प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन करते हैं। पदार्थ का अध्ययन करनेवाले समस्त विज्ञानों को भौतिक विज्ञान (Matarial Science) कहते हैं। पदार्थ-विज्ञान के अन्तर्गत ही हम ब्रह्माण्ड में स्थित विभिन्न तत्वों जैसे सूर्य, वायु, मेघ, पृथिवी, प्रकाश आदि का अध्ययन करते हैं।

            वैदिक साहित्य ही ज्ञान विज्ञान की परम्परा का वह उत्स है जो उत्तरोत्तर विकसित और समृद्ध होता गया। धातु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, औषधि विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, गणित, ज्यामितीय, परमाणु विज्ञान और ज्योतिष आदि समस्त विज्ञानों का मूल वैदिक संहिताओं में ही खोजा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान के मूलभूत तत्व हमें वैदिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं। आवश्यकता है, उन्हें ढूँढने की, उस गुह्य-ज्ञान को अनावृत करने की। इस संगोष्ठी पदार्थ-विज्ञान के अन्तर्गत आनेवाले विभिन्न ब्रह्माण्डकीय प्राकृतिक तत्वों के वैदिक स्वरूपों के अध्ययन पर केन्द्रित है। इस संगोष्ठी के लिये निर्धारित विषयों में से मैंने ‘‘वेदों में पृथिवी का स्वरूप’’ इस विषय पर अपना आलेख लिखने का प्रयास किया है।

            प्रस्तुत आलेख में पृथिवी के स्वरूप का अध्ययन तीन दृष्टियों से किया गया है-

            (१) आधुनिक विज्ञान में पृथिवी का स्वरूप

            (२) ऋग्वेद में पृथिवी का स्वरूप

            (३) अथर्ववेद में पृथिवी का स्वरूप

१         आधुनिक विज्ञान में पृथिवी का स्वरूपः

            ब्रह्माण्ड तीन भागों में विभाजित है- (१) पृथ्वी (२) अन्तरिक्ष (३) द्यौः। द्यौः और पृथ्वी के बीच का भाग अन्तरिक्ष कहलाता है। इस ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा हिस्सा है। हमारे सौरमण्डल का केन्द्र सूर्य है। इस सौर परिवार में पृथिवी सहित नौ ग्रह, उपग्रह ग्रहिकायें और पुच्छल तारे हैं। ये सभी सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य के निकटतम बुध (Mercury) है, उसके बाद क्रमशः शुक्र, पृथिवी मंगल, बृहस्पति, शनि, अरूण, वरूण और यम हैं। पृथिवी को अन्य ग्रहों से पृथक् करनेवाली विशेषता यह है कि पृथ्वी पर जीवन है, अन्य ग्रहों में नहीं।

            सौरमंण्डल में सर्वाधिक प्रसिद्ध और मानव तथा जैव जगत् के लिये सर्वाधिक उपादेय ग्रह पृथ्वी ही है। यह बुध, शुक्र, मंगल और कुबेर (यम) से बड़ा और अन्य ग्रहों से छोटा ग्रह है। इसका व्यास १२७६० कि. मी. है। यह सूर्य से १४ करोड़ ८८ लाख कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह अपनी धुरा पर चैबीस घंटों में एक बार घूम जाती है। सूर्य की परिक्रमा करने में इसे ३६५ दिन ६ घंटे लगते हैं। यह अपनी धुरा पर २३ १/२ झुकी हुई है और इस झुकाव के कारण पृथिवी पर सौर ताप की प्राप्ति, वर्षा तथा ऋतुओं पर विशेष प्रभाव पड़ता है।

पृथिवी की उत्पत्तिः

            पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धान्त पर आधुनिक वैज्ञानिकों में मतवैभिन्य है। कुछ वैज्ञानिकों को कथन है कि केवल सूर्य से ही पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है। कुछ कहते हैं कि एक तारा सूर्य से टकराया और इससे होनेवाले बिखराव से पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई। आधुनिक काल में सर्वप्रथम १७४५ में बफन ने, १७५५ में काण्ट और १७९६ में लाप्लास ने पृथ्वी और सौरमण्डल की उत्पत्ति के बारे में विज्ञान सम्मत सिद्धान्त किये। पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धान्त को तीन वर्गों में रखा जा सकता है-

            (१) एक तारक या अद्वैतवादी सिद्धान्त- यह सिद्धान्त बफन, काण्ट लाप्लास, हर्शल एवं रोशे (फ्रांसीसी) ने प्रस्तुत किया।

            (२) द्वैतारक या द्वैतवादी सिद्धान्त- यह सिद्धान्त गोल्टन और चेम्बरलीन (अमेरिकी) जीन्स, जैफ्रे और रसैल नामक विद्वानों ने प्रस्तुत किया।

            (३) आधुनिक सिद्धान्त- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अत्याधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों और ब्रह्माण्ड के संबंध में एकत्रित की गई जानकारी पर ये सिद्धान्त आधारित हैं। इनमें मुख्यतः डॉ. ऑफवन, प्रो. होयल, एवं लिटिलटन (ब्रिटिश) का नोवा तारा सिद्धान्त, राजसन का आवर्तन एवं ज्वारीय सिद्धान्त तथा डॉ. बैनर्जी का सीफिड सिद्धान्त उल्लेखनीय है।

पृथिवी की उत्पत्ति की वैदिक अवधारणाः

            ऋग्वेद में परमेश्वर से ही सृष्टि का विकास माना गया है। स्वयंभू परमेश्वर (पुरूष) ने पहले महान अर्णव में गर्भ धारण किया जिससे प्रजापति उत्पन्न हुआ। ये महदण्ड संख्यातीत थे। इन्हीं अण्डों से अतिदूरस्थं सृष्टियाँ (Galaxy) उत्पन्न हुई। मानवधर्मशास्त्र के अनुसार हिरण्याण्ड के दो शकलों से दिव के और भूमि की उत्पत्ति हुई। तदनुसार पहले भूमि बनी और बाद में दिव के सूर्य आदि अस्तित्व में आये। यही बात शतपथ बाह्मण में भी कही गई है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रजापति ने भू शब्द उच्चारा और उसने भूति उत्पन्न की। प्रजापति अथवा ईश्वर के इस उच्चारण से भूमि आदि सृष्टियाँ बनीं, इस बात की प्रतिध्वनि बाईबिल में भी देखी जा सकती है। त्वष्टा जो जो बोला वही हुआ। बाईबिल का ईश्वर और ब्राह्मण ग्रंथों का त्वष्टा ही प्रजापति है-

१. And God said, Let there be light; ans there was light.

६.  And God said, Let there be a Hrmament (Heaven)

९. And God said, Let the dry land appear

१४. And God said, Let there be lights (Sun, Moon) in the firmament-Ch. १.३ (Old Testament)

यही भाव ऋग्वेद, कठोपनिषद् और गीता में भी व्यक्त हुआ है। यही बात पुराणों में भी दुहरायी गई है-भूरिति व्याहृते पूर्वं भूलोकश्व ततो भवत्।

            उपर्युक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहंचते हैं कि हिरण्यगर्भ से ही भौतिक पदार्थों और सृष्टि (Galaxy) का विकास हुआ। वर्तमान सृष्टि का विकास आज से लगभग १९७.३ करोड़ वर्ष पूर्व आरंभ हुआ, ऐसी प्राचीन ग्रंथों की मान्यता है। पृथ्वी और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की आयु तो इससे भी अधिक है। वर्तमान वैज्ञानिक भी विभिन्न प्रमाणों के आधार पर पृथ्वी की उत्पत्ति को २०० करोड़ वर्ष पूर्व की मानते हैं।

पृथ्वी के स्वरूप की वैदिक धारणाः

बौद्ध दर्शन की मान्यता है कि जिस तरह अन्य ग्रह आधारशून्य होकर भ्रमणशील हैं उसी तरह पृथ्वी भी है और उसमें गुरूत्व भी है जिससे वह निरन्तर नीचे की ओर गतिमान है। उपनिषदों को प्रामाणिक मानकर वेदान्त दर्शन में कहा गया है। कि जल से पृथिवी की उत्पत्ति हुई है। अथर्ववेद में कहा गया है कि जल का आधार पृथिवी है। प्रसिद्ध खगोलशास्त्री आर्यभट्ट  (४७६ ई.) की धारणा है कि पृथ्वी आकाश में निराधार अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है जिससे रात-दिन होते हैं। तत्पश्चात् दूसरे खगोलवैज्ञानिक वराहमिहिर  (५०५ ई.) ने कहा कि पञ्चमहाभूतमयी यह पृथिवी चुम्बक से घिरी होकर आकाश में टिकी है। ११५० ई. में वैज्ञानिक भास्कराचार्य ने भी कहा कि पृथ्वी का कोई आधार नहीं है। यह अपनी शक्ति से ही स्वभाववश आकाश में स्थित है। और सभी प्राणियों का आधार है।

पञ्चमहाभूतमयी पृथिवी में पांच विशिष्ट गुण पाये जाते हैं-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। गन्ध पृथिवी का अतिविशिष्ट गुण है जो अन्य किसी द्रव में नहीं पाया जाता।

२. ऋग्वेद में द्यावापृथिवी का स्वरूपः

ऋग्वेद के अध्ययन से द्यावा-पृथिवी के संबंध में निम्नलिखित वैज्ञानिक तथ्य सामने आते हैं-

(१) द्यावा-पृथिवी की उत्पत्तिः

१.        परमात्मा से ही द्यावापृथिवी की उत्पत्ति हुई है और वह इन दोनों में व्याप्त है।

२.        सूर्य को द्यावापृथिवी का जन्मदाता कहा गया है।

३.        इसके विपरीत एक स्थान पर सूर्य को द्यावापृथिवी का पुत्र कहा गया है।

(२) सूर्य से ही पृथिवी प्रकाशित होती हैः- द्यावापृथिवी के बीच से सूर्य प्रकाश आदि धारण करने के धर्म से गतिशील है।

(३) पृथिवी अत्यधिक विस्तृत हैः- इसके लिये महिनी, अरूव्यचसा (१.१६०.२), उर्वी (विस्तीर्ण) पृथ्वी (फैली हुई) (६.७०.६) ज्येष्ठे मही रूचा द्यावापृथिवी (४.५६.१) कहा गया है।

(४) पृथिवी अपनी धुरी पर घुमती हैः

            ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा है कि पृथिवी अनेक तरह से विचरण करने वाली है (विचारिणी ५.७०.२) ऋतावरी (४.५६.२), घृतवती (६.७०.१) है। वह जल से युक्त, जल की शोभा से युक्त (घृतश्रिया) जल से संबंध रखनेवाली (घृतपृचा), जल का संवर्धन करने वाली है।

३. अथर्ववेद में पृथिवी का स्वरूपः

            वेदों में पृथिवी का कोई मूर्त रूप नहीं है। आधुनिक भूगोल विज्ञान, भूविज्ञान आदि में जो स्वरूप पृथिवी का है, मुख्यतया वही भौतिक स्वरूप हम अथर्ववेद में भी पाते हैं, यद्यपि कुछ वैज्ञानिक तथ्यों को भी उसमें खोजा जा सकता है।?

            अथर्ववेद के १२ वें काण्ड का प्रथम सूक्त, जिसमें ६३ मंत्र हैं, पृथिवी को समर्पित है। यह पृथिवी सूक्त केनाम से विख्यात है। इसे भूमि सूक्त भी कहा जाता है। सभी प्राणी इस पृथिवी की सन्तान है अतः इसे मातृभूमि सूक्त भी कहते हैं। इसमें न केवल पृथिवी के स्वरूप का तथा पृथिवी द्वारा धनधान्य, बल और यश प्रदान करने का उल्लेख है अपितु इसमें मातृभूमि के प्रति कर्त्तव्यपालन करनेवालें के लिये सत्यनिष्ठा, यथार्थबोध, दक्षता, क्षात्रतेज, ब्रह्मज्ञान और त्यागादि गुणों, प्रवृत्तियों और मर्यादाओं का भी उल्लेख है। राष्ट्रीय अवधारणा तथा वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को विकसित और पुष्ट करने के लिये आवश्यक महनीय गुणों का भी समावेश, इसकी उपयोगिता को बढ़ाता है।

            अथर्ववेद में वर्णित पृथिवी सूक्त में पृथिवी के स्वरूप-इसके आधार से अध्ययन किया जा सकता है- (१) पृथ्वी का वैज्ञानिक स्वरूप-इसके आधार पर हम पृथ्वी और सौरमण्डल संबंधी अनेक वैज्ञानिक तथ्यों का अध्ययन कर सकते हैं। (२) पृथ्वी का भौतिक स्वरूप-इसके आधार पर हम भूगोल विज्ञान से संबंधित तथ्यों की पुष्टि कर सकते हैं।

            (१) पृथ्वी का वैज्ञानिक स्वरूप- इसके आधार पर अनेक वैज्ञानिक तथ्य उभरकर सामने आते हैं-

            (क) पृथिवी की उत्पत्ति-‘‘अथर्वा” विश्व के प्रथम वैज्ञानिक हैं जिन्होंने अनेक वैज्ञानिक तथ्यों का उल्लेख अथर्ववेद में किया है। पृथिवी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है, इस तथ्य का उल्लेख १८वें अध्याय के तीसरे सूक्त में किया गया है। इस सूक्त के ग्यारह मन्त्रों में यह कहा गया है कि पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य के हाथों से हुई है। प्रत्येक मन्त्र में इसे बाहुच्युता कहा गया है। ऋग्वेद में एक स्थल पर यह कहा गया है कि वरूण ने सूर्य द्वारा पृथिवी को बनाया या नापा।

            (ख) पृथिवी का केन्द्र बिन्दु सूर्य- हमारे सौरमण्डल का केन्द्र सूर्य ही है और सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं, यह एक वैज्ञानिक तथ्य है जिसे अथर्वा ऋषि ने हजारों वर्ष पूर्व ही कह दिया था कि पृथिवी का केन्द्रबिन्दु (हृदय) आकाश में है- यस्य हृदयं परमे व्योमन्। आकाश में सूर्य के रूप में अग्नि है और अन्तरिक्ष उसी से प्र्रकाशित होता है- अग्निर्दिव आ तपत्यग्नेर्देवस्योर्वऽन्तरिक्षम्।

            (ग) पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है- पृथिवी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने का वैज्ञानिक सिद्धान्त अथर्ववेद के इस मंत्र में भी दृष्टिगत होता है-

पृथिवी सूकराय वि जिहीते मृगाय।

            अथर्ववेद में कहा गया है कि पृथिवी काँपते हुए चलती है। काँपते हुए चलने से तात्पर्य लट्टू की तरह अपने ही चारों ओर घूमते हुए चलने से है। पृथिवी की इस दैनिक गति से दिन और रात होते हैं यह बात भूगोलवत्ता भी जानते हैं। यही तथ्य हजारों वर्ष पूर्व अथर्ववेद में उद्घाटित किया गया है- याऽप् सर्पं विजयमाना विमृग्वरी। रात और दिन का उल्लेख ऋषि ने अहोरात्रे कहकर किया है।

(घ) पृथिवी पञ्चतन्मात्राओं से यूक्त है- पंचमहाभूतमय पदार्थों में पृथिवी ही ऐसा द्रव्य है जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध पाये जाते हैं। पृथिवी का प्रधान गुण गंध है जो अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता अतः उसे गन्धवती पृथिवी कहा गया है-

            यस्ते गंधः पृथिवी सम्बभूव यं बिभ्रत्योषधयो यमाषः

            यं गन्धर्वा अप्सरश्व भेजिरे तेन मा सुरभिं कृणु।।

            पृथिवी सूक्त के १२.१.२४ और २५वें मंत्र में भी पृथिवी के गंधयुक्त होने की बात कही गई है।

(ड.) गुरूत्वाकर्षण शक्ति- महान वैज्ञानिक न्यूटन ने पृथिवी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति के सिद्धान्त को फल के पृथ्वी पर गिरने के प्रयेाग से सिद्ध किया। इस गुरूत्वाकर्षण शक्ति के सिद्धान्त का अथर्वा ऋषि ने हजारों वर्ष पूर्व उद्घाटित किया है- मल्बं बिभ्रती गुरूभृत् कहकर। अर्थात् पृथ्वी में गुरू पदार्थ को अपनी ओर खींचने और धारण करने की शक्ति है।

            पृथिवी की आकर्षण शक्ति का वर्णन पातजंलि (१५०ई. पू.) भास्कराचार्य द्वितीय (१११४ ई.) वराहमिहिर (४७० ई.) और श्रीपति (१०३९ ई.) ने भी किया है, प्रत्येक परमाणु में आकर्षण शक्ति है और इसी शक्ति के कारण पृथिवी सूर्य और चन्द्रमा तीनों एक दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। सभी ग्रह एक-दूसरे के आकर्षण से बंधे हैं, यही कारण है कि वे आकाश में निराधार टिके हैं और नीचे नहीं गिरते।

            (च) पृथिवी का स्वरूप एवं आकार- पृथ्वी सूक्त में पृथिवी के स्वरूप एवं आकार का वर्णन अनेक मंत्रों में मिलता है। पृथिवी लंबी, चौड़ी, विस्तीर्ण, गोल ओर स्थिर है।

            (छ) पृथिवी पहले जलमग्न थी- आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी पहले जलमग्न थी। प्राचीनकाल में पूरा यूरोप और एशिया जलमग्न था। धीरे-धीरे समुद्र हटता गया और कालान्तर में पृथिवी ऊपर आ गई। यही बात अथर्ववेद में भी कही गई है कि पृथिवी पहले समुद्र में मग्न थी और धीरे-धीरे ऊपर आई-यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीत्।

            पृथ्वी संबंधी उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त कुछ सामान्य वैज्ञानिक अवधारणाओं की पुष्टि भी पृथिवी सूक्त करता है-

            (१) ब्रह्माण्ड तीन लोकों में विभाजित है- सभी धर्मशास्त्र और वैज्ञानिकों (खगोल विज्ञान, भूविज्ञान, ज्योतिष्, भूगोल आदि) ने माना है कि यह ब्रह्माण्ड द्यौ, अन्तरिक्ष और पृथ्वी इन तीन लोकों में विभाजित है। अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में हजारों वर्ष पूर्व यही बात कही गई है- द्यौश्व म इदं पृथिवी चान्तरिक्षं च मे व्यचः।

            (२) तीन प्रकार की अग्नि- अथर्वा ऋषि ने तीन प्रकार से अग्नि की उत्पत्ति का वर्णन किया है- १. वृक्ष से अग्नि २. जल के मन्थन से अग्नि ३. भूगर्भीय अग्नि उपर्युक्त तीनों प्रकार की अग्नियों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं- अग्निर्भूम्यामोषधीष्वग्निमापो बिभ्रत्यग्निरश्मसु। अर्थात् अग्नि भूमि में, विद्युत् रूप में मेघ अर्थात् जल में, ओषधियों में तथा पत्थरों में विद्यमान है।

            पृथ्वी अग्निमयी है- अग्निवासाः पृथिवीः अथर्ववेद में ही अन्यत्र अगिन के आविष्कार के तीन चरणों का उल्लेख है, वहां कहा गया है कि अग्नि पत्थर के घर्षण लकड़ी के घर्षण से और जल के घर्षण से उत्पन्न होती है। एक स्थान पर कहा गया है- यत् ते मध्यं पृथिवी यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवः। यहाँ पृथ्वी के गर्भ में स्थित ऊर्जा से तात्पर्य अग्नि से है जो आज की पृथिवी के गर्भ में लावे के रूप में स्थित है। इसके अतिरिक्त प्राणियों में स्थित जठराग्नि का भी उल्लेख किया गया है-अग्निरन्तुः पुरूषेषु गोष्वश्वेष्वग्नयः।

            (३) खनिज संपदा-  यह पृथिवी खनिज सम्पदा से परिपूर्ण है। इसमें सोना, चाँदी, हीरा आदि बहुमूल्य पदार्थ पाये जाते हैं, जिनका उल्लेख भूमिसूक्त में मिलता है- विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षाः। इस मन्त्र में वसुधानी का तात्पर्य खनिजों की खान और हिरण्यवक्षा का तात्पर्य सुवर्ण, चांदी आदि बहुमूल्य धातुओं से है। अन्यत्र भी वे सुवर्णमयी पृथ्वी को नमस्कार करते हैं- तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः। एक स्थल पर कहा गया है कि बहुत तरह की खानों में (बहुधा गुहा) ए (वसु) ए रत्न पन्नां, हीरादि (मणि), सोना, चाँदी आदि (हिरण्यं) की खान (निधिं) को धारण करने वाली पृथिवी हमें धन दे निधिं बिभ्रती बहुधा गुहा वसु मणिं हिरण्यं पृथिवी ददातु में वसूनि नो वसुदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना।

            (४) भूकंप- भूगोल विज्ञान में वर्णित भूकंप का विवरण भी पृथिवी सूक्त में मिलता है- महान् वेग एजथु र्वेपथुष्ते। अर्थात् हे पृथिवी आपका हिलना डुलना अत्यन्त वेगवान होता है। यहाँ पृथ्वी के कंपन से भूकंप का संकेत मिलता है। इसका अन्य अर्थ यह भी है कि पृथ्वी जिस गति से आकाश में कंपित होकर जाती है, वह वेग अत्यन्त तीव्र है अर्थात् वह अपनी धुरा पर तेजी से घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है।

            (५) विभिन्न दिशाओें का विवरण- भूमिसूक्त के इस मंत्र में दसों दिशाओं का विवरण मिलता है-

            ‘‘यास्ते प्राचीः प्रदिशो या उदीचीर्यास्ते भूमे अधरात्” याश्व पश्चात्। आगे वे कहते हैं- हे भूमि पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण चारों दिशाओं में प्रहरी बनकर हमारा संरक्षण करें- ‘‘मा नः पश्चान्या पुरस्तान्नुदिष्ठा मोत्तरादधरादुत।

            (६) जलप्रवाहों का संकेत- एक स्थल पर कहा गया है कि पृथिवी अनेक जलधाराओं से युक्त है- भूरिधारे पयस्वती।

            आधुनिक भूगोल में जिन शीत और उष्णजलधाराओं का वर्णन है, संभवतः उन्हीं जलधाराओं की ओर ऋषि का संकेत है। ये जलधारायें पृथिवी की गति, वायु के दबाव और वेग, भूसंरचना आदि के कारण उत्पन्न होती हैं जो तब भी थीं।

            अभी तक हमने पृथिवी सूक्त में पाये जाने वाले वैज्ञानिक तथ्यों का उल्लेख किया है। अब हम पृथ्वी के भौतिक स्वरूप पर दृष्टिपात करेंगे।

            ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य वैदिक वाड्.मय में यत्र तत्र पृथिवी सम्बन्धी कुछ वैज्ञानिक तथ्य हमारे सम्मुख आते हैं जो नियमानुसार हैं-

            (१) आद्र्रा शिथिला पृथिवी- आधुनिक वैज्ञानिकों की भी यह धारणा है कि पृथिवी पहले जलमग्न थी। प्राचीन काल में पूरा यूरोप और एशिया जलमग्न था। शनैः शनै समुद्र हटता गया और कालान्तर में पृथिवी ऊपर आ गई। यह तथ्य अथर्ववेद में वर्णित है- ‘‘यार्णवेऽधिसलिलमग्र आसीत्।’’ काठक तथा मैत्रायणी संहिता में भी पृथिवी को जलप्रधान, आद्र्रा और शिथिला कहा गया है। वात कभी उसे ऊपर और कभी नीचे ले जाती थी। उत्तर की ओर देवताओं का निवास था और दक्षिण में असुरों का। उत्तर की ओर ले जाने पर देवताओं ने इसे दृढ़ किया। यही कारण है कि पृथिवी का अधिकांश भाग उत्तर दिशा में है और दक्षिण में जलाधिक्य है।

            शतपथ ब्राह्मण (६.१.१) में आगे कहा गया है कि इस आधि पृथिवी पर प्रजापति ने क्रमशः १ फेन २ मृद् ३ शुष्काप ४ ऊष ५ सिकता ६ शर्करा ७ अश्मा ८ अयः और हिरण्य तथा ९ ओषधि और वनस्पति को उत्पन्न किया और वनस्पति से पृथ्वी को आच्छादित कर दिया।

            यह पृथिवी के क्रमशः ठोस व शीतल होने तथा उसमें जीवन के संचार का वैज्ञानिक क्रम है। शीतल होने की प्रक्रिया में अग्नि और जल के मेल से फेन उत्पन्न हुआ, जो न सूखा था न गीला।

            अग्नि और मरूत के संयोग से यह फेन सघन हुआ और पृथिवी का निर्माण हुआ। यही सघन फेन मृत में परिवर्तित होकर पृथिवी के रूप में परिणित हो गया।

            तृतीय अवस्था में सूर्य की भयंकर ऊष्मा से पृथ्वी पर स्थित जल सूखने लगा और वह शुष्कय हो गई। जल के शुष्क हो जाने के फलस्वरूप वह ऊसर अर्थात् ऊष, इस चतुर्थ अवस्था को प्राप्त हुई। तत्पश्चात् पृथिवी में सिकता की उत्पत्ति हुई। सिकता ही अंग्रेजी में सिलिका कहलाती है जिसमें सिलिकोन और ऑक्सीजन होता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी पृथ्वी की भीतरी परतों में सिलिका एल्यूमीनियम तथा ऑक्सीजन होने की पुष्टि की है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (भाग २०,पृ. ५५) में भी ग्रहों के विभिन्न भागों में सिलिका के पाये जानेका उल्लेख है। सिकता से शर्करा की उत्पत्ति हुई। शर्करा का अर्थ है कंकर। शर्करा से पृथ्वी का आन्तरिक भाग भी दृढ़ हो गया। शर्करा के पश्चात् अश्मा (पाषाण) की उत्पत्ति हुई। शर्करा के छोटे-बड़े कण एकत्र हुए और संपीडन द्वारा संहत होकर अश्मा बने। अश्मा के पश्चात् अयः की उत्पत्ति हुई। ‘‘अश्मनो लोहमुत्थितम्” ऐसा उल्लेख महाभारत के उद्योगपर्व में मिलता है। लोहे के पश्चात् रांगा, सीसा सुवर्ण आदि की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् इस ऊसर पृथ्वी पर देवों ने वनस्पति, ओषधियों को उत्पन्न किया। यह पृथिवी वनस्पति व ओषधियों से आवृत्त हो गई।

            (२) अल्पा पृथिवी- तै. संहिता में ऐसा उल्लेख मिलता है कि आरंभ में पृथिवी अल्पा थी और बाद में धीरे-धीरे विस्तृत हुई। आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही मत है कि प्रारंभ में ग्रह छोटे थे और आज भी अपनी आकर्षण शक्ति से अन्तरिक्ष के धूलिकणों को अपनी ओर खींच रहे हैं जिससे अनमें विस्तार हुआ होगा।

            (३) अग्निगर्भा पृथिवी- आधुनिक वैज्ञानिकों का कथन है कि यह पृथिवी प्रारंभ में पिघली चट्टानों का एक गोला था। धीरे-धीरे पृथिवी की ऊपरी सतह ठंडी होकर ठोस हो गई। यह सतह दूध में मलाई की तरह अत्यन्त पतली है। पृथिवी का भीतरी भाग तो अभी भी गर्म पिघली दशा में है। पृथिवी के गर्भ में अभी भी गर्म लावा, उष्ण गैसें और वाष्प हैं। तापमान भी बहुत अधिक है। जितनी गहराई में जाओ उतना अधिक तापमान बढ़ता जाता है।

            संस्कृत वाड्.मय में भी पृथिवी को आग्नेयी कहा गया है। पृथिवी का ९७ प्रतिशत अंश पिघली दशा में है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि प्रवेश हुआ। अध्ययन से ही आग्नेयी थी अथवा उत्तर काल में उसमें अग्नि का प्रवेश हुआ। अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रारंभ में पृथिवी आग्नेयी नहीं थी। यदि आग्नेयी होती तो आद्र्रा न होती। प्रजापति ने इस पर अग्नि का चयन किया और उसे अग्निदाह से बचाने के लिये वनस्पतियाँ व ओषधियाँ उत्पन्न कीं। अश्वस्थ, शमी, वंश आदि वनस्पतियों ने पृथ्वी की अग्नि को अपने में धारण किया। औषधि पद का अर्थ ही है- ‘‘ओषं धय’’ अर्थात् दाहशक्ति को धारण कर। अर्थात् औषधियाँ पृथ्वीगत आग्नेय परमाणुओं को ग्रहण करती रहती हैं। बाद में यह अग्नि पृथिवी में प्रविष्ट हुई।

            तैत्तरीय ब्राह्मण में लिखा है- अग्नि देवेभ्यो निलायन (छिपा) आखरूपं कृत्वा। स पृथिवीं प्राविशत्। यहाँ आखू का तात्पर्य पृथ्वी पर रहनेवाले चूहे से नहीं अपितु अन्तरिक्ष स्थानीय पशु से है जिसका सूक्ष्म अर्थ अग्नि और अपः की अवस्था विशेष है। यह आखु रूद्र का पशु कहा गया है। रूद्र स्वयं अन्तरिक्ष स्थित अग्नि का स्वरूप है। इस प्रकार यह आखु अन्तरिक्षस्थ आग्नेय पशु अथवा विशेष प्रकार के अग्नि के परमाणु हैं जो जंगली चूहे की भाँति पृथ्वी के अन्दर-अन्दर धंसते जाते हैं।

            यह विवेचन अत्यन्त स्पष्ट तो नहीं है किन्तु इससेइतना स्पष्ट है कि आधुनिक विज्ञान की तुलना में यह अतिसूक्ष्म विज्ञान सहस्त्रों गुना गंभीर है।

            (४) परिमण्डला पृथिवी- पृथिवी गोलाकृति है, इसका विवरण भी वैदिक वाड्.मय में उपलब्ध होता है। जैमिनीय ब्राह्मण में लिखा है- ‘‘स एष प्रजापतिः अग्निष्टोमः परिमण्डलो भूत्वा अनन्तो भूत्वा शये। तदनुकृतीदम् अपि अन्या देवताः परिमण्डलाः। परिमण्डल आदित्यः परिमण्डलः चन्द्रमाः, परिमण्डल आदित्यः, परिमण्डलः चन्द्रमाः, परिमण्डला द्यौः, परिमण्डलमन्तरिक्षम् परिमण्डला इयं पृथिवी।”

            परिमण्डल का अर्थ है जिसके सब ओर मण्डल अथवा घेरा (Atmosphare) है। दूसरा अर्थ यह है- जो गोल घेरे में अथवा गोल आवृत्त हो।

            आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों से भी यह सिद्ध है कि पृथिवी गोल है और चारों ओर से वायुमण्डल से आवृत्त है।

            (५) अयस्मयी पृथिवी- यह पृथिवी लोह धातु से परिपूर्ण है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है-ते (असुरा) वा अयस्मयीं एवेमां (पृथिवीं) अकुर्वन्। कौषितकि ब्राह्मण में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। इस विवरण से आधुनिक विज्ञान में वर्णित पृथ्वी के चुम्बकीय शक्ति संपन्न होने का संकेत मिलता है। लोहे के अतिरिक्त अन्य खनिज संपदा (सोना, चांदी आदि) का उल्लेख भी अथर्ववेद में मिलता है।

            (६) धरित्री पृथिवी- प्राणियों को धारण करनेवाली के रूप में विख्यात यह धरित्री, धरा, धरिणी, पूरे सौरमण्डल में एक ही ऐसा ग्रह है जहाँ असंख्य विविध प्राणियों का निवास है। इसके अनेक कारण हैं-

            (क) बुध और चन्द्रमा में सूर्य के सामनेवाल भागों में जहाँ तापमान ८०० सेन्टी. और २०० सेन्टी. तक पहुँच जाता है तो रात्रि में इन ग्रहों में तापमान शून्य से भी १५० सेन्टी. नीचे चला जाता है। इन दोनों ही अवस्थाओं में वहाँ जीवन असंभव है।

            (ख) शुक्र में भूमि पर स्थित वायु की अपेक्षा कई गुना घनी जहरीली गैसें हैं, वनस्पतियों का नितान्त अभाव है और ४७० सेन्टी. की भयंकर ऊष्मा है। अतः ऐसी परिस्थितियों में वहाँ भी जीवन असंभव है।

            (ग) बृहस्पति में पृथ्वी की तुलना में तीन गुनी अधिक गुरूत्वाकर्षण शक्ति है जिससे वहां सीधे खडे़ रहना भी असंभव है। फिर वनज आदि उठाना तो दूर की बात है।

            (घ) प्लूटो और नेपच्यून सूर्य से दूर होने के कारण अत्यन्त शीत हैं। वहाँ मिथेन और अमोनिया जैसी प्राणघातक गैसें हैं। अतः वहाँ भी जीवन असंभव है।

            ठसके विपरीत पृथिवी पर जीवन धारण के लिये आवश्यक ऊष्मा, गुरूत्वाकर्षण प्रभूत जल, वनस्पतियों तथा प्राणवायु है। अतः इस धरा पर ही जीवन संभव है, अन्य ग्रहों में नहीं।

            (७) भूरेखा का उल्लेख- विष्णु पुराण में भूरेखा और उसके चलने का उल्लेख है।

            यदा विजृम्भतेऽनन्तो युदा घुर्णित लोचनः।

            त्दा चलति भूरेखा साद्रिद्वीपब्धिकानना। संभवतः यहाँ भूरेखा से, भूमध्यरेखा कर्क और मकररेखा से तात्पर्य है। इससे अधिक खोज और विश्लेषण की आवश्यकता है।

            निष्कर्ष- उपर्युक्त अध्ययन से, ऋग्वेद के द्यावापृथिवी के छह सूक्तों तथा अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त से, आधुनिक विज्ञान सम्मत जो तथ्य सामने आते हैं,

            वे इस प्रकार हैं-

(१) पृथ्वी सौरमण्डल के नवग्रहों में से एक हैं।

(२) पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है और वह सूर्य से ही प्रकाश पाती है। पृथिवी का केन्द्रबिन्दु सूर्य है और वह गुरूत्वाकर्षण से खिंचकर ब्रह्माण्ड में स्थित है।

(३) पृथ्वी स्थिर नहीं है। वह पश्चिम से पूर्व की ओर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है। वह अपनी धुरा पर घूमती है जिससे दिन और रात होते है।

(४) पृथ्वी में गुरूत्वाकर्षण शक्ति है।

(५) पृथ्वी गोल है।

(६) वह पहले जलमग्न थी।

(७) वह प्रारंभ में अल्पा थी, बाद में विस्तृत हुई।

(८) पृथ्वी आग्नेयी है। उसमें ९८ प्रतिशत लोहा व अन्य भारी पदार्थ है।

(९) वह अपार खनिज संपदा की स्वामिनी है।

(१०) एकमात्रा पृथिवी पर ही जीवन है।

(११) पृथिवी में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध है। गन्ध उसका विशिष्ट गुण है।

(१२) पृथिवी का भौतिक स्वरूप ही प्रधान है, दैवी रूप नहीं।

   इसके अतिरिक्त पृथिवी विश्व का कल्याण करने वाली अन्न, कीर्त्ति, धन और बलप्रदायिनी है। इस प्रकार यह पावन धरा अपने भूमि, क्ष्मा, मही, पृथिवी, उर्वी, उत्ताना, अपारा, धरित्री, विश्वंभरा, वसुधानी, हिरण्यवक्षा, धरिणी, धरती, वसुन्धरा, माता, सुक्षिति और सुक्षेमा सभी नामों को सार्थक करती हुई जगत् का कल्याण करती है अतः संक्षेप में हम सकते हैं-

‘‘विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी’’

संदर्भ- ग्रन्थ

(१) अथर्ववेद संहिता; भाग २, संपा, वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं भगवती देवी शर्मा

(२) अथर्ववेद का सुबोध भाष्य, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

(३) अथर्ववेद संहिता-संपा. रामस्वरूप शर्मा गौड़

(४) ऋग्वेद का सुबोध भाष्य, भाग १, २, ३, ४ श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

(५) ऋक्-सूक्त-संग्रह, व्याख्याकार डॉ. हरिदत्त शास्त्री, डॉ. कृष्णकुमार।

(६) न्यू वैदिक सिलेक्शन, भाग १, डॉ. ब्रजबिहारी चैबे।

(७) भारत और विज्ञान, संपा. डॉ. एस.पी.कोष्ठा।

(८) भारतीय दर्शन तथा आधुनिक विज्ञान, डॉ. सुद्युम्न आचार्य

(९) यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भुज मामोरिया, डॉ. एस.एम. जैन

(१०) वैदिक माइथोलॉजी, डॉ. ए.ए. मैक्डॉनल, अनु. रामकुमार राय

(११) वेद-विद्या-निदर्शन, भगवद्दत्त

(१२) वेदों में विज्ञान, डॉ. कपिलदेव  द्विवेदी

शब्द संकेत-

यजु. – यजुर्वेद

तै. ब्रा. -तैत्तरीय ब्राह्मण

ऋ. – ऋग्वेद

तै. उप. – तैत्तरीय उपनिषद्

अथ. वे. – अथर्ववेद

पाद-टिप्पणी

१.        यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भु ज मामोरिया, एस.एम.जैन, पृष्ठ ८

२.        सुभुः स्वयंभूः प्रथमोऽन्तर्महत्यर्णवे

            दधे गर्भभृत्वियं यतो जातः प्रजापतिः- यजु. २३/६३

३.        अण्डानां तु सहस्त्राणां सहस्त्राण्य युतानि च

            ईदृशानां तथा तत्र कोटि-कोटि शतानि च द्वितीयांश-विष्णु पुराण अध्याय ७

            अण्डानां ईदृशानां तु कोट्यो ज्ञेया सहस्त्रशः

            तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्च कारणाव्ययात्मनः।। वायु पुराण ४९/१५१

४.        भूतस्य प्रथमजा – यजु. ३७.४

            इयं वै पृथिवी भूतस्य प्रथमजा – मा.शत.ब्रा. १४.१.२.१०

५.        स भूरिति व्याहरत। स भूमिमसृजत्- तै. ब्रा. २.२.।४.२

६.        पदभ्यां भूमिः – ऋ. १०.९०.१४

            भूर्जज्ञ उत्तानंपादो भुव आशा अजायन्त – ऋ. १०.७२.४

            ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थ सनातनः – कठो. २.३.१

            ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुख्ययम् – गीता १४.१

७.        वायु पुराण १०१.१८

८.        यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भुज मामोरिया, एस.एम. जैन, पृ. १८

८.        भपञ्जरस्य भ्रमणावलोकादाधारशून्य कुरिति प्रतीतिः

            स्वस्थं न दृष्टं गुरू च क्षमातः खेऽधः प्रयातिति बौद्धः।

            (सिद्धान्तशिरोमणि, भुवनकोश नामक दूसरा अध्याय श्लोक ७)

९.        अग्नेरापः अद्भ्यः पृथिवी-तैत्त. उप. २.१.१

१०.     यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामंत्र कृष्टयः संबभूबुः। अथर्व. १२.१.३

११.     वृत्तभपञ्जरमध्ये कक्ष्यापरिवेष्टित खमध्यगतः

            मृज्जलशिखिवायुमयो भूगोलः सर्वतो वृत्तः।

            (आर्यभट्टीय, गोलपाद श्लोक ६)

१२.     पञ्चभूतमयस्य तारागणपञ्जरे महीगोलः

            खेऽयस्कान्तान्तस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः।

            (पञ्सिद्धान्तिका, त्रैलोक्य संस्थान नामक १३ अ. श्लोक १)

१३.     नान्याधारः स्वशक्त्या वियति च नियतं तिष्ठतीहास्य पृष्ठे

            निष्ठं विश्वञ्च शाश्वत् सदनुजमनुजादित्यदैत्यं समन्तात्।

            (सिद्धान्तशिरोमणि, भुवनकोश नामक दूसारा अ. श्लोक २)

१४.     ऋग्वेद ४.५६,३

१५.     यो जजान रोदसी विश्वशंभुवा – ऋग्वेद १.१६०.४

१६.     स वह्मिः पुत्रः पुत्र्योः – ऋग्वेद १.१६०.३

१७.     धिषणे अन्तरीयते देवो देवी धर्मणाः सूर्यः शुचिः – ऋग्वेद १.१६०.१

१८.     उत मन्ये पितुरदु्रहोमनो मातुर्महिस्वत स्तद्धवीमहि – ऋग्वेद १.२२.१५९.२

१९.     घृतेन द्यावापृथिवी अभीवृत्ते, पृतश्रियां, धृतपृचा घृतवृधा – ऋग्वेद ६.७०.४-५

२०.     बाहुच्युता पृथिवी द्यामिव उपरि – अथर्व. १८.३.२५-३५

२१.     वि यो ममे पृथिवी सूर्येण- ऋग्वेद ५.८५.५

२२.     अथर्ववेद १२.१.८

२३.     -वही- १२.१.२०

२४.     -वही- १२.१.४८

२५.     -वही- १२.१.३७

२६.     -वही- १२.१.३६ अहोरात्रे पृथिवी नो दुहाताम्

            १२.१.५२ अहोरात्रे विहिते भूम्यामधि

२७.     अथर्ववेद १२.१.२३, २४, २५

            तुलना कीजिये – तत्र गंधवती पृथिवी – तर्क संग्रह, द्रव्य लक्षण प्रकरण पृथिवी इतरेभ्यो भिद्यते गन्धवत्वात् – तर्कसंग्रह अनुमान खण्ड

२८.     अथर्ववेद १२.१.४८

२९.     वेदों में विज्ञान, डॉ. कपिलदेव शास्त्री, पृष्ठ २७

३०.     ध्रुवां भूमिं – अथर्व. १२.१.१७, महती बभूविथ १२.१.१८

३१.     अथर्ववेद – १२.१.८

३२.     -वही- १२.१.५३

३३.     -वही- १२.१.१९

३४.     अथर्ववेद १२.१.२१

३५.     यो अश्मनोरन्तरग्निं जजान अथर्व. २०.३४.३

३६.     अरणी यभ्यां निर्मश्यते वसु – अथर्व. १०.८.२०

३७.     अग्ने पित्तमपामसि – अथर्व. १०.८.२०

३८.     अथर्ववेद १२.१.१२

३९.     -वही- १२.१.१९

४०.     -वही- १२.१.६

४१.     -वही- १२.१.२६

४२.     -वही- १२.१.४४

४३.     अथर्ववेद १२.१.१८

४४.     -वही- १२.१.३१ प्रदिशः का अर्थ आग्नेय, नैर्ऋत्य, वायव्य और ईशान है।

४५.     -वही- १२.१.३२

४६.     ऋग्वेद ६.७०.२

४७.     अथर्ववेद १२.१.८

४८.     इयं तर्हि शिथिरासीत् – काठक संहिता ३६.७, मै.सं. १.१०.१३

            शिथिरा वा इयमग्र आसीत् – मैत्रा.सं. १.६.३

४९.     सा हेयं पृथिवी अलेयद् यथा पर्णमेव। तां ह स्म वातः संवहति – शत. ब्राह्मण

            तां दिशोऽनुवातः समवहत् – तै. ब्रा. १.१.३

            अलेलेद वा इयं पृथिवी – काठक संहिता ८.२

५०.     ताः (आपः) अतप्यन्त। ताः फेनमसृजन्त। तस्माद् अपां तप्तानां फेनो जायते-

            शत. ब्राह्मण ६.१.३.२

५१.     न वा एष शुष्को नाद्र्रो व्युष्टासीत् – तै. ब्रा. १.७.१.६-७

            शत. ब्रा. १०.७.३.२

५२.     स (फेनः) यदोपहन्यते मृदेव भवति – शत. ब्रा. ६.१.३.३

            यन्मृद् इयं तत् (पृथिवी) शत. ब्रा. १४.१.२.९

५३.     एता वै शुष्का आपः – मै. सं. ३.६.३

५४.     स (मृद्) अतप्यत सा सिकता असृज्यत- शत. ब्रा. ६.१.३.४

५५.     सिकताभ्यः शर्करा – शत. ब्रा. ६.१.३, ५

५६.     शिथिरा वा इयमग्र आसीत्। तां प्रजापतिः शर्कराभिरहहंत्। मैत्रा. सं. १.६.३

५७.     शर्कराया अश्मानम् (असृजत) तस्मात् शर्कराश्मैव अन्ततो भवति- शत. ब्रा. ६.१.३.३

५८.     ऋक ह वा इयमग्र आसीत्। तस्यां देवा रोहिण्यां वीरूधोऽरोहयत् – मै. सं. १.६.७.२

            इयं वा अलोमिकोवाग्र आसीत् – ऐ. ब्रा. २४.२२। ओषधिवनस्पतयो वै लोमानि।

            जै. ब्रा.२.५४

५९.     वै तर्हि अल्पा पृथिव्यासीद् अजाता ओषधयः – तै. सं. २.१.२

६०.     आग्नेयी पृथिवी – ता. ब्रा. १५.४.८ अग्निवासाः पृथिवी – अथ. १२.१.२१

            आग्नेयो अयं लोकः जै. उप. १.३७.२, अग्निगर्भा पृथिवी – शत. ब्रा. १४.९कृ४.२१

६१.     शत. ब्राह्मण – २.२.४.५

६२.     तै. ब्रा. १.१.३.३

६३.     आखुस्ते रूद्रस्य पशुः – तै. ब्रा. १.६.१०.२

६४.     जैमिनीय ब्राह्मण १.१५७

६५.     परिमण्डल उ वा अयं (पृथिवी) लोकः – शत. ब्रा. ७.१.१.३७

६६.     ऐतरेय ब्राह्मण – १.२३

६७.     (असुराः) अयस्मयीं (पुरीम्) अस्मिन् (अकुर्वत) कौ.ब्रा. ८.८

६८.     २/५/२३ अद्भुद्सागर, पृ. ३८३

६९.     अथर्ववेद १९.३८.१

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