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द्रौपदी का चीरहरण – मिथक से सत्यता की ओर

मेरे सभी हिन्दू भाइयो और बहिनो –

जो जो भी व्यक्ति – महाभारत में ऐसा सोचते और समझते हैं की द्रौपदी के “चीर हरण” जैसा कुत्सित और भ्रष्ट आचरण हुआ था –

तो ऐसी विसंगति को दिमाग से पूरी तरह हटा देवे – और जो इस पोस्ट में लिखा जा रहा है – उसे ध्यान पूर्वक पढ़े – निष्पक्ष होकर जांच करे और जो सत्य हो उसे मान लेवे –

यहाँ पोस्ट को बड़ी करने का उद्देश्य नहीं है – इसलिए पॉइंट तो पॉइंट बात लिखूंगा – यदि किसी भाई को स्पष्टीकरण चाहिए तो विषय से सम्बंधित सन्दर्भ दिए गए हैं स्वयं जांच कर लेवे – तब भी कोई शंका शेष हो तो सवाल पूछ लेवे –

पहली बात – जब द्यूतक्रीड़ा महाभारत में आरम्भ हुई और युधिष्ठर ने स्वयं और अपने भाइयो को तथा अपनी “पत्नी द्रौपदी” को दांव पर लगा दिया – और हार गए –
तब यहाँ ये जानना आवश्यक है कि वो क्या हार गए और हारने के बाद क्या बन गए ?

देखिये –

दुर्योधन ने जब देखा की शकुनि ने युधिष्ठर से सब कुछ जीत लिया है तो आदेश दिया –

दुर्योधन बोला – विदुर ! यहां आओ। तुम जाकर पांडवो की प्यारी और मनोनुकूल द्रौपदी को यहाँ ले आओ। वह पापाचारिणी शीघ्र यहां आये और मेरे महल में झाड़ू लगाये। उसे वहीँ दासियों के साथ रहना होगा।

द्यूतपर्व – अध्याय ६६ श्लोक १

यहाँ स्पष्ट है – दुर्योधन ने पांडवो और द्रौपदी को केवल लज्जित ही करना था इसलिए विदुर को बोला गया की द्रौपदी जो एक कुल की रानी थी – को “दासी” और पांडव जो राजा थे उन्हें – “दास” बना कर लज्जित ही करना मात्र दुर्योधन का मंतव्य था –

विदुर के विरोध और नीतिवचन सुनने के बाद दुर्योधन ने “प्रतिकामिन” को आदेश दिया की द्रौपदी को यहाँ ले आवो (दासीरूप में झाड़ू लगाने हेतु)

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक २

प्रतिकामिन ने द्रौपदी से कहा –

द्रुपदकुमारी ! धर्मराज युधिष्ठर जुए के मदसे उन्मत्त हो गए थे। उन्होंने सर्वस्व हारकर आप को दांव पर लगा दिया। तब दुर्योधन ने आपको जीत लिया। याज्ञसेनी ! अब आप धृतराष्ट्र के महल में पधारे। मैं आपको वहां दासी का काम करवाने के लिए ले चलता हूँ।

यहाँ भी बिलकुल स्पष्ट है की द्रौपदी को केवल दासी के काम हेतु महल की सफाई आदि करवाने के उद्देश्य से दुर्योधन ने प्रतिकामिन को भेजा था – ताकि द्रौपदी और पांडवो का मानमर्दन हो सके – अन्य कोई मंतव्य दुर्योधन का नहीं था।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक ४

उपरोक्त श्लोको से स्पष्ट है – दुर्योधन का मंतव्य द्रौपदी का चीरहरण करना तो बिलकुल गलत और समाज को भ्रामित करने वाली बात गढ़ी गयी है।

आगे देखिये –

कुछ मित्र कहते हैं की दुःशासन द्रौपदी को जबरदस्ती पकड़ कर – सभाग्रह ले आया – यहाँ पर भी कुछ शंका खड़ी होती है –

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! दुर्योधन क्या करना चाहता है, यह सुनकर युधिष्ठर ने द्रौपदी के पास एक ऐसा दूत भेजा, जिसे वह पहचानती थी और उसी के द्वारा यह सन्देश कहलाया – “पाँचालराजकुमारी ! यद्यपि तुम रजस्वला और नीवी (नाभि) को नीचे रखकर एक ही वस्त्र धारण कर रही हो, तो भी उसी दशा में रोती हुई सभामे आकर अपने श्वसुर के सामने खड़ी हो जाओ।

“तुम जैसी राजकुमारी को सभा में आई देख सभी सभासद मन ही मन इस दुर्योधन की निन्दा करेंगे।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक १८-२१

यहाँ धर्मराज युधिष्ठर की बात से भी प्रमाण मिलता है की द्रौपदी का चीरहरण जैसी घटना – समाज को भ्रमित करने हेतु कुछ धूर्तो ने रची – यदि दुर्योधन का मंतव्य केवल द्रौपदी का चीरहरण करना ही था – तो युधिष्ठर द्रौपदी को सभा में आने के लिए क्यों कहते ?

जबकि यह स्पष्ट है की द्रौपदी को युधिष्ठर ने सभा में आने के लिए दूत से बुलावा भेज दिया – और द्रौपदी भी सभा में आने को तईयार थी – तब ये कहना की दुःशाशन जबरदस्ती द्रौपदी को पकड़ कर सभा में ले आया संदेह प्रकट करता है – खैर यदि ये मान भी ले की दुःशासन ने द्रौपदी को बाल से खींच घसीट कर सभा में ले आया – तो उसका वृतांत महाभारत में देखिये

दुःशासन के खींचने से द्रौपदी का शरीर झुक गया। उसने धीरे से कहा -‘ओ मंदबुद्धि दुष्टात्मा दुःशासन। में रजस्वला हूँ तथा मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है। इस दशा में मुझे सभा में ले जाना अनुचित है।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३२

दुःशासन बोला – द्रौपदी ! तू रजस्वला, एकवस्त्रा अथवा नंगी ही क्यों न हो, हमने तुझे जुए में जीता है ; अतः तू हमारी दासी हो चुकी है, इसलिए अब तुझे हमारी इच्छा के अनुसार दासियों में रहना पड़ेगा।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३४

यहाँ दुःशासन के बोले शब्द देखिये – दुःशासन का उद्देश्य भी द्रौपदी का चीरहरण करना नहीं था – बल्कि यहाँ भी स्पष्ट है की कौरवो – दुर्योधन आदि को केवल पांडवो और द्रौपदी को “दास” आदि बनाकर भरी सभा में अपमानित ही करना था।

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! उस समय द्रौपदी के केश बिखर गए थे। दुःशासन के झकझोरने से उसका आधा वस्त्र भी खिसककर गिर गया था। वह लाज से गाड़ी जाती थी और भीतर ही भीतर दग्ध हो रही थी। उसी दशा में वह धीरे से इस प्रकार बोली

द्रौपदी ने कहा – अरे दुष्ट ! ये सभा में शास्त्रो के विद्वान, कर्मठ और इंद्र के सामान तेजस्वी मेरे पिता के सामान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सामने इस रूप में कड़ी होना नहीं चाहती।

क्रूरकर्मा दुराचारी दुःशासन ! तू इस प्रकार मुझे ना खींच, ना खींच, मुझे वस्त्रहीन मत कर। इंद्र आदि देवता भी तेरी सहायता के लिए आ जाएँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पांडव तेरे इस अत्याचार को सहन नहीं कर सकेंगे।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३५-३७

यहाँ ही वह शब्द है जहाँ पर द्रौपदी को घसीटने के कारण – द्रौपदी के रजस्वला अवस्था में पहने हुए एक वस्त्र के सरकने से द्रौपदी के चीरहरण की कथा गढ़ ली गयी – जबकि ये चीरहरण नहीं था – केवल द्रौपदी को दुःशासन द्वारा खींचा गया –
घसीटा गया – जिसके परिणामस्वरूप द्रौपदी का एकमात्र पहना हुआ वस्त्र शरीर से थोड़ा सरक गया – जिसके आधार पर पूरी की पूरी मिथ्या कथा बना दी गयी – की द्रौपदी का चीरहरण हुआ –

यदि द्रौपदी का चीरहरण करना उद्देश्य ही नहीं था दुर्योधन का तो चीरहरण जैसी कुत्सित भ्रान्ति क्यों और किसलिए फैलाई गयी ?

इस लेख को ज्यादा बड़ा बनाने का कोई औचित्य नहीं – इसलिए यहाँ से स्पष्ट होगा की द्रौपदी का चीरहरण नहीं हुआ –

अब जो महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण की झूठी और बेबुनियाद कथा जोड़ी गयी है अगले लेख में उसका भंडाफोड़ करेंगे – कैसे “द्रौपदी का चीरहरण” घटना जो महाभारत में जबरदस्ती ठूंसा गया – और क्यों ?

शेष अगले लेख में अगले लेख का इन्तेजार करे –

सीता की उत्पत्ति – मिथक से सत्य की और

जनक के हल जोतने पर भूमि के अन्दर फाल का टकराना तथा उससे एक कन्या का पैदा होना और फिर उसी का नाम सीता रखना आदि असंभव होने से प्रक्षिप्त है । इस विषय में प्रसिध्द पौराणिक विद्वान स्वामी करपात्री जी ने स्वरचित ”रामायण मीमांसा’ में लिखा है – “पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है। जनक पुत्री सीता के नाम को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने वैदिक सीता ( = हलकृष्ट भूमि) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म ही भूमि से हुआ

बता दिया” ( पृ ० 89 ) अथवा यह हो सकता है कि किसी ने कारणवश यह कन्या खेत में फेक दी हो और संयोगवश वह जनक को मिल गई हो अथवा किसी ने ‘खेत में पडी लावारिस कन्या मिली है’ यह कहकर जनक को सौप दी हो फिर उन्होंने उसे पाल लिया हो । महर्षि कण्व को शकुन्तला इसी प्रकार मिली थी। और प्राप्ति के समय पक्षियों द्वारा संरक्षित एवं पालित (न कि प्रसूत) होने से उसका नाम शकुन्तला रख दिया था ।

धरती को फोड़कर निकलने बालों की “उद्भिज्ज” संज्ञा है। तृण, औषधि, तरु, लता आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं । मनुष्य, पश्वादि, जरायुज, अण्डज और स्वेदज प्राणियों के अन्तर्गत है । मनुष्य वर्ग में होने के कारण सीता की उत्पत्ति पृथिवी से होना प्रकृति विरुध्द होने से असंभव है।

सीता की उत्पति पृथिवी से कैसे मानी जा सकती है, जबकि बाल्मीकि रामायण में अनेक स्थलों में उसे जनक की आत्मजा एवं औरस पुत्री तथा उर्मिला की सहोदरा कहा गया है –

वर्धमानां ममात्मजाम् (बाल० 66/15) ;

जानकात्मजे (युद्ध० 115/18) ;

जनकात्मजा (रघुवंश 13/78)

महाभारत में लिखा है –

विदेहराजो जनक: सीता तस्यात्मजा विभो
(3/274/9)

अमरकोश (2/6/27) में ‘आत्मज’ शब्द का अर्थ इम प्रकार लिखा है –

आत्मनो देहाज्जातः = आत्मजः अर्थात जो अपने शरीर से पैदा हो, वह आत्मज कहाता है। आत्मा क्षेत्र (स्त्री) का पर्यायवाची है ; क्षेत्र और शरीर पर्यायवाची है।

क्षीयते अनेन क्षेत्रम

स्त्री को क्षेत्र इसलिए कहते हैं की वह संतान को जनने से क्षीण हो जाती है। पुरुष बीजरूप होने से क्षीण नहीं होता ।

रघुवंश सर्ग 5, श्लोक 36 में लिखा है –

ब्राह्मे मुहूर्ते किल तस्य देबी कुमारकल्पं सुषुवे कुमारम् ।
अत: पिता ब्रह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार ।।

महामना पं ० मदनमोहन मालवीय की प्रेरणा से संवत 2000 में विक्रमद्विसहस्राब्दी के अवसर पर संस्थापित अखिल भारतीय विक्रम परिषद द्वारा नियुक्त कालिदास ग्रंथावली के संपादक मण्डल के प्रमुख साहित्याचार्य पं ० सीताराम चतुर्वेदी ने उक्त श्लोक में आये “आत्मजन्मान्म” का अर्थ रघु की रानी की कोख से जन्मा किया हैं । तव जनक की ‘आत्मजा’ का अर्थ पृथिवी से उत्पन्न कैसे हो सकता है ? ब्रह्म मुहुर्त में जन्य लेने के कारण रघु ने अपने पुत्र का नाम अज (अज ब्रह्मा का पर्यायवाची है, क्योंकि ब्रह्मा का भी जन्म नहीं होता) रखा। अज का अर्थ जन्म न लेने वाला होता है। कोई मूर्ख ही कह सकता है कि अज का यह नाम इसलिए रखा गया था, क्योंकि वह पैदा नहीं हुआ था।

आत्मज या आत्मजा उसी को कह सकते हैं जो स्त्री – पुरुष के रज-वीर्य से स्त्री के गर्म से उत्पन्न हो, इसमें सामवेद ब्राह्मण प्रमाण है-

अंगदङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायते ……. आत्मासि पुत्र।
(1.5.17)

है पुत्र ! तू अंग-अंग से उत्पन्न हुए मेरे वीर्य से और हदय से पैदा हुआ है, इसीलिए तू मेरा आत्मा है । खेत से उत्पन्न होने से तो तृण, औषधि, वनस्पति, वृक्ष, लता आदि सभी आत्मज और आत्मजा हो जाएँगे और बाप-दादा की सम्पत्ति में भागीदार हो जाएंगे।

‘जनी प्रादुर्भावे’ से जननी शब्द निष्पन्न होता है। इससे जन्म देने वाली को ही जननी कहते है। पालन-पोषण करने वाली यशोदा माता कहलाती थीं, परन्तु जन्म न देने के कारण जननी देवकी ही कहलाती थी। बनवास काल में अत्रि मुनि
के आश्रम में अनसूया से हुई बातचीत में सीता ने कहा था –

पाणिप्रदानकाले च यत्पुरा तवाग्निसन्निधौ।
अनुशिष्टं जनन्या में वाक्यं तदपि में घृतम् ।।
अयो० 118/8-9

विवाह के समय मेरी जननी ने अग्नि के सामने मुझे जो उपदेश दिया था, उसे मैं किंचित भूली नहीं हूँ । उन उपदेशों को मैंने हृदयंगम किया है ।

क्या यहाँ विवाह के समय उपदेश देने वाली यह ‘जननी’ पृथिवी हो सकती है ?
और क्या बेटी को विदा करते समय बिलख बिलख कर रोने वाली पृथिवी थी ?
यहाँ माता को ही जननी कहकर स्मरण किया है, पृथिवी को जननी नहीं कहा।

तुलसीदास जी ने तो माता = जननी का नाम भी इस चौपाई
में लिख दिया है :-

जनक वाम दिसि सोह सुनयना ।
हिमगिरि संग बनी जिमि मैना ।।
(रामचरितमानस बालकाण्ड 356/2)

(विवाह वेदी पर) सुनयना (महारानी) महाराजा जनक की बाई और ऐसी शोभायमान थी, मानो हिमाचल के साथ मैना (पार्वती की माता) विराजमान हो।

पाणिग्रहण संस्कार के समय जिस प्रकार रामचन्द्र जी की पीढियों का वर्णन किया गया था उसी प्रकार सीता की भी 22 पीढियों का वर्णन किया गया। यदि सीता की उत्पत्ति पृथिवी ये हुई होती तो पृथ्वी से पहले की पीढ़िया कैसे बनती ?
इसे शाखोच्चार कहते है । राजस्थान में विवाह के अवसर पर दोनो पक्षों के पुरोहित आज भी 22 के ही नहीं, 30-40 पीढ़ियों तक के नामो का उल्लेख करते हैं । साधारणतया सौ वर्ष में चार पुरुष समझे जा सकते हैं। इस प्रकार 40 पीढियों में लगभग एक हजार वर्ष बनते है। अर्थात् सर्वसाधारण लोग भी मुहांमुही सैकडों वर्षो के पारिवारिक इतिहास का ज्ञान रख सकते थे। जिसका 22 पीढ़ियों का क्रमिक इतिहास ज्ञात है उसे कीड़े-मकौडों या पेड़-पौधों की तरह पृथिवी से उत्पन्न हुआ नहीं माना जा सकता। वस्तुतस्तु सीता के पृथिवी से उत्पन्न होने

सम्बन्धी गप्प का स्रोत विष्णु पुराण, अंश 4, अध्याय 4, वाक्य 27-28 है जिसका वाल्मीकि रामायण में प्रक्षेप कर दिया गया है। जन्म को पृथ्वी से मानकर सीता का अंत भी पृथ्वी में समाने की कल्पना करके ही किया गया है ।

अयोनिजा – सीता को अनेक स्थलों में अयोनिजा कहा गया है । पृथिवी से उत्पन्न होने का अर्थ माता-पिता के बिना अर्थात स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना उत्पन्न होना है। इसी को अयोनिज सृष्टि कहते है, क्योंकि इसमें गर्भाशय से
बाहर निकलने में योनि नामक मार्ग का प्रयोग नहीं होता । सृष्टि के आदि काल में समस्त सृष्टि अमैथुनी होती हैं –

अमैथुनी सृष्टि से सम्बंधित पोस्ट का लिंक – यहाँ से पढ़े
https://www.facebook.com/Aryamantavya/photos/a.1418444565059896.1073741828.1418437208393965/1618030795101271/?type=1&theater

यहाँ यह तथ्य जरूर जोड़ा जाता है की सृष्टि चाहे मैथुनी हो अथवा अमैथुनी – प्राणियों के शरीरो की रचना परमेश्वर सदा माता पिता के संयोग से ही करता है।
पर दोनों में अंतर केवल इतना है की आदि सृष्टि में माता (जननी) पृथ्वी होती है और वीर्य संस्थापक सूर्य (ऋग्वेद 1.164.3) में कहा है –

“द्यौर्मे पिता जनिता माता पृथ्वी महीयम”

अर्थात सृष्टि के आदि काल में प्राणियों के शरीरो का उत्पादक पिता रूप में सूर्य था और माता रूप में यह पृथ्वी। परमात्मा ने सूर्य और पृथ्वी – दोनों के रज वीर्य के संमिश्रण से प्राणियों के शरीरो को बनाया। जैसे इस समय बालक माता के गर्भ में जरायु में पड़ा माता के शरीर में रस लेकर बनता और विकसित होता है, वैसे ही आदि सृष्टि में पृथ्वी रुपी माता के गर्भ में बनता रहता है। इसी शरीर को साँचा रुपी शरीर भी कहा जाता है जिससे हमारे जैसे मैथुनी मनुष्य उत्पन्न होते रहते हैं।

सीता का जन्म सृष्टिक्रम चालु होने और साँचे तैयार होने के बाद त्रेता युग में हुआ था, अतः सीता के अयोनिजा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जनक उनके पिता थे और रामचरितमानस के अनुसार सुनयना उनकी माता का नाम था।

मेरी सभी बंधुओ से विनती है, कृपया लोकरीति, मिथक, दंतकथाओं आदि पर आंखमूंदकर विश्वास करने से अच्छा है – खुद अपनी धार्मिक पुस्तको और सत्य इतिहास को पढ़ कर बुद्धि को स्वयं जागृत करते हुए दूसरे हिन्दू भाइयो को भी जगाये – ताकि कोई विधर्मी हमारे सत्य इतिहास और महापुरषो महा विदुषियों पर दोषारोपण न कर सके

आओ लौटे ज्ञान और विज्ञानं की और –

आओ लौट चले वेदो की और

नमस्ते

धर्मात्मा महाराज जटायु कोई पक्षी गिद्ध नहीं – क्षत्रिय वर्ण के मनुष्य थे

महाराज जटायु की वंशावली –

ऋषि मरीचि कुलोत्त्पन्न – ऋषि ताक्षर्य कश्यप

और महाराज दक्ष कुलोत्त्पन्न – विनीता

ताक्षर्य कश्यप और विनीता के दो पुत्र –

गरुड़ और अरुण

अरुण के दो पुत्र हुए –

सम्पात्ति और जटायु

इन सभी महापुरषो का विवरण धीरे धीरे प्रस्तुत किया जायेगा – फिलहाल आज हम चर्चा करेंगे –

धर्मात्मा महाराज जटायु के बारे में –

महाराज जटायु – ऋषि ताक्षर्य कश्यप और विनीता के पुत्र थे, आप गृध्रराज भी कहे जाते हैं, क्योंकि गृध्र एक पर्वत क्षेत्र है – जिसकी आकृति एक गिद्ध की चोंच जैसी है – इनका राज्य – अवध (अयोध्या और मिथिला) के बीच का हिस्सा था – जो एक पहाड़ी क्षेत्र था। ऐसा में कोई भ्रान्ति वश नहीं लिख रहा हु – ना ही मेरी कोई कपोल कल्पना है – आप रामायण में रावण और जटायु का संवाद पढ़े तो स्पष्ट दीखता है – देखिये –

रावण को अपना परिचय देते हुए जटायु ने कहा –

मैं गृध कूट का भूतपूर्व राजा हूँ और मेरा नाम जटायु हैं

सन्दर्भ – अरण्यक 50/4 (जटायुः नाम नाम्ना अहम् गृध्र राजो महाबलः | 50/4)

क्योंकि उस समय में आश्रम व्यवस्था की मान्यता थी जिसकी वजह से समाज और देश व्यवस्थित थे – आज ये वयवस्था चरमरा गयी है जिसके कारण ही देश पतन की और अग्रसर है – खैर – उस समय धर्मात्मा जटायु वानप्रस्थ आश्रम में होंगे – तभी वे अपने राज्य को युवा हाथो में सौंप देश और समाज की व्यवस्था में लग गए – इसका महत्वपूर्ण परिणाम था की माता सीता को रावण से बचाने के लिए अपनी प्राणो की भी बाजी लगा दी –

कुछ लोग धर्मात्मा जटायु को – एक पक्षी – या फिर बहुत बड़ा शरीर वाला गिद्ध समझते हैं – ऐसे लोग केवल वो पढ़ते हैं जिससे उन्हें अपना मनोरथ सिद्ध करना हो – जो सत्य और न्याय से परिपूर्ण हो वो पढ़ना नहीं चाहते – क्योंकि यदि पक्षपात और दुराग्रह त्याग कर – सत्य अन्वेषी बने तो सब कुछ साफ़ और स्पष्ट है की वे एक मनुष्य ही थे – देखिये

1. जैसे की ऊपर वंशावली दी गयी है – धर्मात्मा जटायु – ऋषि मरीचि के कुल में उत्पन्न ताक्षर्य कश्यप ऋषि और महाराज दक्ष के कुल में उत्पन्न विनीता के पुत्र थे – तो भाई क्या एक मनुष्य के गिद्ध संतान उत्पन्न हो सकती है ?

2. प्रभु राम ने धर्मात्मा जटायु को अरण्य काण्ड में “गृध्राज जटायु” अनेक बार बोला है क्योंकि वो उन्हें जान गए थे की वो गृध्र प्रदेश नरेश जटायु हैं।

3. जटायु राज को इसी सर्ग में श्री राम ने द्विज कहकर सम्बोधित किया – जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए ही उपयोग होता है –

4. जटायु राज को श्री राम इसी सर्ग में अपने पिता दशरथ का मित्र बताते हैं।

5. जिस समय रावण सीता का अपहरण कर उसे ले जा रहा था तब जटायु को देख कर सीता ने कहाँ – हे आर्य जटायु ! यह पापी राक्षसपति रावण मुझे अनाथ की भान्ति उठाये ले जा रहा हैं । (सन्दर्भ-अरण्यक 49/38) – यहाँ भी जटायु महाराज को द्विज सम्बोधन है – और यहाँ द्विज किसी भी प्रकार से पक्षी के लिए नहीं हो सकता – क्योंकि रावण को अपना परिचय देते हुए – जटायु महाराज अपने को – गृध्र प्रदेश का भूतपूर्व राजा बता रहे हैं।

6. जटायु राज का इसी सर्ग के बाद अगले सर्ग में दाह संस्कार स्वयं श्री राम ने किया – कुछ लोग ध्यान पूर्वक पढ़ लेवे – क्योंकि बहुत से हिन्दू भाइयो के मन में विचार आता है की जटायु – एक बहुत विशाल – पर्वत तुल्य – और बृहद पक्षी (गिद्ध) थे – तो भाई मुझे केवल इतना बताओ –

यदि जटायु महाराज इतने ही विशाल गिद्ध थे – तो बाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड सर्ग 68 में – प्रभु श्री राम बाल्मीकि के शव को अपनी गोद में रखते हुए बड़े प्रेम से लक्ष्मण को कहते हैं – लक्ष्मण इनका दाह संस्कार हम करेंगे – प्रबंध करो – तब चिता पर जटायु महाराज को चिता पर लेटाकर – उनका दाह संस्कार प्रभु राम ने किया। तो बताओ भाई श्री राम इतने पर्वत तुल्य गिद्ध शरीर – को कैसे उठा कर चिता पर रखकर – दाह किया होगा ?

कुछ भाई अरण्य काण्ड के सर्ग ६७ का एक श्लोक प्रस्तुत करके कहते हैं की – श्री राम ने भी जटायु को गिद्ध ही समझा था – क्योंकि उन्होंने कहा की

“ये पर्वत के किंग्रे के तुल्य ने ही वैदेही सीता खा ली है, इसमें कोई संदेह नहीं।”

यहाँ पर्वत के किंग्रे तुल्य का सही अर्थ ना जानकार व्यर्थ ही आक्षेप करते हैं – पर्वत के किंग्रे तुल्य अर्थ बड़ा डील वाला – यानी औसत शरीर से बड़ा – और यहाँ वैदेही सीता खा ली है से तात्पर्य है की – उस वन में अनेक “जंगली – असभ्य – राक्षस प्रवर्ति के लोग निवास करते थे जो मांसभक्षी थे – इसलिए प्रभु राम ने ऐसी सम्भावना व्यक्त की। भाई कृपया समझ कर पढ़िए –

यदि पर्वत के किंग्रे तुल्य का अर्थ इतना ही बड़ा होगा – तो बताओ कैसे इतने बड़े भरी भरकम शरीर को प्रभु राम ने उठाकर चिता पर रखा होगा ? कैसे अपनी गोद में उस धर्मात्मा जटायु के सर को रखकर लक्ष्मण से वार्ता की होगी ?
इसी दाह संस्कार के बाद प्रभु राम ने – महाराज जटायु के लिए उदककर्म भी संपन्न किया था।

अब जहाँ तक हिन्दुओ को भी पता होगा – ये उदककर्म – मनुष्यो द्वारा – मनुष्यो के लिए ही किया जाता है – अब यदि फिर भी कोई धर्मात्मा जटायु को गिद्ध समझे – तो ये उसकी मूरखता ही सिद्ध होगी।

कृपया अपने महापुरषो के सत्य स्वरुप को जानिये – उनके बल, पराक्रम, शौर्य और वीरता को व्यर्थ ना करे। उनके पुरषार्थ का मजाक न बनाये। उन्हें पशु पक्षी तुल्य जानकार बताकर – समझकर – उनके चरित्र का मजाक ना स्वयं बनाये न किसी को बनाने ही दे।

कृपया वेदो की और लौटिए – सत्य और न्याय की और लौटिए

धन्यवाद

क्या विवाह के समय श्री राम की आयु १६ वर्ष और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी ?

शंका निवारण –

कुछ विशिष्ट जनो को भगवान राम और माँ सीता के विवाह के सन्दर्भ में कुछ भ्रान्ति है. कुछ तर्क वाल्मीकि रामायण से लेकर ये निष्कर्ष निकला जा रहा है की विवाह के वक़्त माँ सीता की उम्र मात्र छ साल की थी, जो सही नहीं है.. बाल्मीकि रामायण से एक श्लोक का प्रमाण निकालकर कुछ लोग ऐसा प्रमाणित करना चाहते हैं की श्रीराम और माता सीता का विवाह “बालविवाह” था – अर्थात – श्री राम की आयु १६ और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी – जबकि ये सत्य नहीं –

आइये बाल्मीकि रामायण में सबसे पहले इसी श्लोक पर चर्चा कर लेते हैं की वहां क्या लिखा है –

उषित्वा द्वादश समाः इक्ष्वाकुणाम निवेशने |
भुंजाना मानुषान भोगतसेव काम समृद्धिनी ||
(अरण्यकाण्ड ४७: ४)

ध्यान दे की इस श्लोक में द्वा और दश शब्द अलग अलग है. येद्वादश यानि बारह नहीं बल्कि द्वा “दो” को और दश “दशरथ” को संबोधित करता है. इसमें माँ सीता, रावन से, कह रही है की इक्ष्वाकु कुल के राजा दशरथ के यहाँ पर दो वर्ष में उन्हें हर प्रकार के वे सुख जो मानव के लिए उपलब्ध है उन्हें प्राप्त हुए है। क्योंकि इस श्लोक में इक्ष्वाकु कुल का नाम सीता जी बोल रही हैं – लेकिन उस कुल में दशरथ पुत्र राम से उनका विवाह हुआ – स्पष्ट है – पुरे श्लोक में दशरथ नाम कहीं और भी नहीं लिखा है – इसलिए “द्वा” दो को और “दश” – महाराज दशरथ को सम्बोधन है।

इसे पूर्ण रूप से न समझ कर – कुछ ऐसा अर्थ किया जाता है – एक उदहारण –

“उस समय छोटे बच्चो को कमरे में बंद रखा जाता था” –
इसे कुछ इस तरह अर्थ किया गया –

“उस समय छोटे बच्चो को कमरे में बंदर खा जाता था” –

श्लोक का अर्थ थोड़ा गलत करने से पूरा मंतव्य ही बदल गया।

मम भर्ता महातेजा वयसा पंच विंशक ||३-४७-१० ||
अष्टा दश हि वर्षिणी नान जन्मनि गण्यते ||३-४७-११ ॥

इस श्लोक में माँ सीता कह रही है की उस समय (वनवास प्रस्थान के समय) मेरे तेजस्वी पति की उम्र पच्चीस साल थी और उससमय मैं जन्म से अठारह वर्ष की हुई थी. इसे ये ज्ञात होता है की वनवास प्रस्थान के समय माँ सीता की उम्र अठारह साल की थी औरवो करीब दो साल राजा दशरथ के यहाँ रही थी यानि माँ सीता की शादी सोलह साल की उम्र के आस पास हुई थी. ये केवल सोच और समझ का फेर है।

सिद्धाश्रम : श्री राम १४-१६वे वर्ष में ऋषी विश्वमित्र के साथ सिद्धाश्रम को गए थे। इस तथ्य की पुष्टि वाल्मीक रामायण के बाल काण्ड के वीस्वें सर्ग के शलोक दो से भी हो जाती है, जिसमे राजा दशरथ अपनी व्यथा प्रकट करते हुए कहते हैं- उनका कमलनयन राम सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ और उसमें राक्षसों से युद्ध करने की योग्यता भी नहीं है।

उनषोडशवर्षो में रामो राजीवलोचन: न युद्धयोग्य्तामास्य पश्यामि सहराक्षसौ॥ (वाल्मीक रामायण /बालकाण्ड /सर्ग २० शलोक २)
चूँकि भगवान राम ऋषि विश्वामित्र के साथ चौदह अथवा सोलह वर्ष की उम्र में गए थे और उसके बाद ही उनका विवाह हुआ था इसे ये सिद्ध हो जाता है की प्रभु रामकी शादी सोलह वर्ष के उपरान्त हुई थी

श्री राम और लक्ष्मण ने – ऋषि विश्वामित्र के आश्रम सिद्धाश्रम में करीब १२ वर्ष तक निवास किया और ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें ७२ शस्त्रास्त्रों का सांगोपांग ज्ञान तथा अभ्यास कराया –

यदि श्री राम की आयु ऋषि विश्वामित्र के साथ उनके आश्रम में जाते समय १६ नहीं १४ भी माने तो ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में विद्या ग्रहण करते हुए १२ साल व्यतीत हुए जिसका योग २६ वर्ष होता है –

उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध है की श्रीराम की आयु मिथिला में स्वयंवर जाते समय २५-२६ वर्ष थी और माता सीता की आयु १६ वर्ष थी।

अब भी यदि कुछ अतिज्ञानी नहीं मानते – तो कृपया बताये –

स्वयंवर के समय श्री राम की आयु यदि १६ वर्ष और माता सीता की आयु यदि ६ वर्ष मानते हो – तो वनवास क्या श्री राम २-४ वर्ष की आयु में गए ?

कृपया सत्य को जाने वेदो की ओर लौटिए –

नमस्ते –

नोट : प्रथम पद में यह द्वी शब्द रहता है – यहाँ पर द्वा द्विवचन का रूप है।

मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था शिवदेव आर्य -कार्यकारी सम्पादक,      गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

वर्णाश्रम व्यवस्था वैदिक समाज को संगठित करने का अमूल्य रत्न है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने समाज को सुसंगठित, सुव्यवस्थित बनाने तथा व्यक्ति के जीवन को संयमित, नियमित एवं गतिशील बनाने के लिए चार वर्णों एवं चार आश्रमों का निर्माण किया। वर्णाश्रम विभाग मनुष्य मात्र के लिए है, और कोई भी वर्णी अनाश्रमी नहीं रह सकता। यह वर्णाश्रम का अटल नियम है।

भारतीय शास्त्रों में व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याणपरक कर्मों का अपूर्व समन्वय दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक वर्ण के सामाजिक कर्तव्य अलग-अलग रूप में निर्धारित किए हुए हैं। वर्णाश्रम धर्म है। प्रत्येक वर्ण के प्रत्येक आश्रम में भिन्न-भिन्न कर्तव्याकर्तव्य वर्णित किये हुए हैं।

भारतीय संस्कृति का मूलाधार है अध्यात्मवाद। अध्यात्मवाद के परिपे्रक्ष्य में जीवन का चरम लक्ष्य है मोक्ष। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार लक्ष्य भारतीय जीवन की धरोहर रूप होते हैं । हिन्दू धर्म के अन्तर्गत आने वाले सभी धर्मों ने उपदेश रूप में अपना लक्ष्य मोक्ष को ही रखा है। यद्यपि उसे अलग-अलग नाम दिये गये हैं। जैसे बौध्द, जैन इसे निर्वाण कहते हैं। शैव तथा वैष्णव को मोक्ष कहते हैं। उद्देश्य और आदर्श सभी के एक हैं। सभी धर्मों ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए समाज की क्रियाओं को एक मार्ग प्रदान किया है। इस हेतु व्यवस्था की गई वर्ण धर्म और आश्रम धर्म की। दोनों का अत्यन्त गूढ़ संबंध होने से इन दोनों को समाज-शास्त्रियों ने एकनाम दिया-वर्णाश्रमधर्म।

प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। जिस प्रकार से सिर, हाथ, पैर, उदर आदि विभिन्न अंगों से शरीर बना है और ये सब अंग पूरे शरीर की रक्षा के लिए निरन्तर सचेष्ट रहते हैं उसी प्रकार आर्यों ने पूरी सृष्टि को, सब प्रकार के जड़-चेतन पदार्थों को उनके गुण१ कर्म और स्वभाव के अनुसार उन्हें चार भाग या चार वर्णों में विभक्त कर दिया गया।

संसार संरचना के बाद इस प्रकार की व्यवस्था से गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार मानव समाज की चार मुख्य आवश्यकताएॅं मान ली गईं- बौध्दिक, शारीरिक, आर्थिक और सेवात्मक। आरम्भ में अवश्य ही मानव जाति असभ्य रही होगी जिससे कुछ में आवश्यकतानुसार स्वतः बौध्दिक चेतना जागृत हुई होगी। उन्होंने बौध्दिकता परक कार्य पढ़ना-पढ़ाना आदि अपनाया होगा, जिससे उन्हें  ब्राह्मण कहा गया। फिर धीरे-धीरे सभ्यता का विस्तार होने से सुरक्षा, भोजन, धन सेवा आदि की आवश्यकता अनुभव होने पर तदनुसार अपने गुण-स्वभाव के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उसी मानवजाति से बने होगें।

मनोवैज्ञानिक सिध्दान्त के अन्तर्गत यह मान्यता स्वीकार की गई है कि मन के मुख्य तीन कार्य हैं, जिसमें से कोई एक प्रत्येक जाति के अन्दर मुख्य भूमिका का निर्वाह करता है। द्विजत्व तीन वर्गों में आते हैं ज्ञान प्रधान व्यक्ति, क्रिया प्रधान व्यक्ति, और इच्छा प्रधान व्यक्ति। इन तीनों से अतिरिक्त एक चैथे प्रकार का व्यक्तित्व भी होता है जो अकुशल या अल्पकुशल श्रमिक कहा जा सकता है।

वैदिककाल से ही समाज में चार वर्गों का उत्पन्न होना स्पष्ट है। इसका संकेत पुरुष सूक्त के प्रसिध्द मन्त्र से मिलता है।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत।।२

पदार्थः- हे जिज्ञासु लोगो! तुम (अस्य) इस ईश्वर की सृष्टि में (ब्राह्मणः) वेद ईश्वर का ज्ञाता इनका सेवक वा उपासक (मुखम्) मुख के तुल्य उत्तम ब्राह्मण (आसीत्) है (बाहू) भुजाओं के तुल्य बल पराक्रमयुक्त (राजन्यः) राजपूत (कृतः) किया (यत्) जो (ऊरू) जांघों के तुल्य वेगादि काम करनेवाला (तत्) वह (अस्य) इसका (वैश्यः) सर्वत्र प्रवेश करनेहारा वैश्य है (पद्भ्याम्) सेवा और अभिमान रहित होने से (शूद्रः) मूर्खपन आदि गुणों से युक्त शूद्र (अजायत्) उत्पन्न हुआ, ये उत्तर क्रम से जानो।३

भावार्थः-जो मनुष्य विद्या और शमदमादि उत्तम गुणों में मुख के तुल्य उत्तम हो वे ब्राह्मण, जो अधिक पराक्रमवाले भुजा के तुल्य काय्र्यों को सिध्द करनेहारे हों वे क्षत्रिय, जो व्यवहारविद्या में प्रवीण हों वे वैश्य और जो सेवा में प्रवीण, विद्याहीन, पगों के समान मूर्खपन आदि नीच गुणों से युक्त हैं वे शूद्र करने और मानने चाहियें।४

उपनिषद् आदि में तो स्पष्ट रूप से वर्ण व्यवस्था की परिपाटी चल पड़ी थी। जैसे ऐतरेय ब्राह्मणग्रन्थ में ब्राह्मणों का सोम भोजन कहा है और क्षत्रियों का न्यग्रोध, वृक्ष के तन्तुओं, उदुम्बर, अश्वत्थ एवं लक्ष के फलों को कूटकर उनके रस को पीना पड़ता था। लेकिन आनुवंशिक होने से भोजन एवं विवाह संबंधी पृथक्त्व उत्पन्न होने का निश्चित रूप से कुछ पता नहीं चलता । धर्मसूत्रों में स्पष्ट रूप से चारों वर्णों का अलग-अलग होना स्पष्ट हो गया था।

वर्णव्यवस्था जन्म से नहीं अपितु कर्म से मानी गयी है। निम्नलिखित आख्यान इसकी यथार्थता को स्पष्ट करता है। ‘जाबाला का पुत्र सत्यकाम अपनी माता के पास जाकर बोला, हे माता! मैं ब्रह्मचारी बनना चाहता हूॅं। मैं किस वंश का हूॅं। माता ने उत्तर दिया कि हे मेरे पुत्र! सत्यकाम! मैं अपनी युवावस्था में जब मुझे दासी के रूप में बहुत अधिक बाहर आना-जाना होता था तो मेरे गर्भ में तू आया था। इसलिए मैं नही जानती कि तू किस वंश का है। मेरा नाम जाबाला है। तू सत्यकाम है। तू कह सकता है कि मैं सत्यकाम जाबाल हूॅं।

हरिद्रुमत् के पुत्र गौतम के पास जाकर उसने कहा भगवन्! मैं आपका ब्रह्मचारी बनना चाहता हूॅं। क्या मैं आपके यहाॅं आ सकता हूॅं ? उसने सत्यकाम से कहा हे मेरे बन्धु! तू किस वंश का है? उसने कहा भगवन् मैं नहीं जानता किस वंश का हूॅं। मैंने अपनी माता से पूछा था और उसने यह उत्तर दिया था कि ‘मैं अपनी युवावस्था में जब दासी का काम करते समय मुझे बहुत बाहर आना-जाना होता था तो तू गर्भ में आया। मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है। मेरा नाम जाबाला है और तू सत्यकाम है।’ इसलिए मैं सत्यकाम जाबाल हूॅं।

गौतम ने सत्यकाम से कहा एक सच्चे ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य कोई इतना स्पष्टवादी नहीं हो सकता । जा और समिधा ले आ। मैं तुझे दीक्षा दूॅंगा। तू सत्य के मार्ग से च्युत नहीं हुआ है।५

वैदिक काल में वर्णव्यवस्था (आज के सदर्भ में) थी अथवा नहीं यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, लेकिन कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था थी यह निश्चित है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के मन्त्र ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्…६से प्रतीति होती है कि अंगगुण के कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था थी। शरीर में मुख का स्थान श्रेष्ठ है जो कि बौध्दिक कर्मों को ही मुख्य रूप से घोषित करता है। अतः ब्राह्मण उपदेश कार्य, समाजोेत्थान आदि के कार्यों को करने वाले हुए । बाहुओं का काम रक्षा करना गौरव, विजय एवं शक्ति संबन्धी कार्य करना है। अतः क्षत्रियों का बाहुओं से उत्पन्न होना कहा है। उदर का कार्य शरीर को शक्ति देना, भोजन को प्राप्त करना है। अतः उदर से उत्पन्न वैश्यों को व्यापारिक कार्य करने वाला कहा गया है। पैरों का गुण आज्ञानुकरण है। अत पैरों से उद्धृत शूद्रों का कार्य श्रम है। जिस गुण के अनुसार व्यक्ति कर्म करता है वही उसका वर्ण आधार होता है। अन्यथा एक गुण दूसरे गुणों में मिल जाता है और कर्म भी इसी प्रकार बदल जाता है। अतः वर्ण भी बदला हुआ माना जाता है, यही गुण कर्म का आधार होता है।

ब्राह्मण कर्म-वर्णव्यवस्था

मनु महाराज जी ब्राह्मणों के लिए कर्तव्यों का नियमन करते हुए लिखते है कि-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।७

अर्थात् अध्ययन करना-कराना, यज्ञ करना- कराना तथा दान लेना तथा देना ये छः कर्म प्रमुख रूप से ब्राह्मणों के लिए उपदिष्ट किये गये हैं।

यहाॅं अध्ययन से तात्पर्य अक्षरज्ञान से लेकर वेदज्ञान तक है।

ब्राह्मणों के कर्म के विषय में गीता में इस प्रकार कहा गया है-

क्षमो दमस्तपः शौचं क्षान्ति….८

क्षमा   मन से भी किसी बुरी प्रवृत्ति की इच्छा न करना।

दम    सभी इन्द्रियों को अधर्म मार्ग में जाने से रोकना।

तप    सदा ब्रह्मचारी व जितेन्द्रिय होकर धर्मानुष्ठान करते रहना चाहिए।

शौच  शरीर, वस्त्र, घर, मन, बुध्दि और आत्मा को शुध्द, पवित्र तथा निर्विकार रहना चाहिए।

शान्ति  निन्दा, स्तुति, सुख-दुःख, हानि-लाभ, शीत-उष्ण, क्षुधा-तृषा, मान-अपमान, हर्ष-शोक का विचार न करके शान्ति पूर्वक धर्मपथ पर ही दृढ़ रहना चाहिए।

आर्जवम्  कोमलता, सरलता व निरभिमानता को ग्रहण करना तथा कुटिलता व वक्रता को छोड़ देना।

ज्ञान          सभी वेदों को सम्पूर्ण अÂों सहित पढ़कर सत्यासत्य का विवेक जागृत करना।

विज्ञान तृण से लेकर ब्रह्म पर्यन्त सब पदार्थों की विशेषता को यथावत् जानना और उनसे यथा योग्य उपयोग लेना।

आस्तिकता वेद, ईश्वर, मुक्ति, पुर्नजन्म, धर्म, विद्या, माता-पिता, आचार्य व अतिथि पर विश्वास रखना, उनकी सेवा को न छोड़ना और इनकी कभी भी निन्दा न करना।

गीता के इन्हीं विचारों को ध्यान में रखते हुए महाभाष्यकार९ कहते है कि-

ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडÂो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च१॰

अर्थात् ब्राह्मण के द्वारा बिना किसी कारण के ही यह धर्म अवश्य पालनीय है कि चारों वेदों को उनके अगों११ तथा उपांगो१२ आदि सहित पढ़ना चाहिए और भली-भाॅति जानना चाहिए। और जो इन कर्मों को नहीं करता है, उसके लिए मनु महाराज कहते हैं कि –

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशुगच्छति सान्वयः।।१३

अर्थात् जो ब्राह्मण वेद न पढ़कर अन्य कर्मों में श्रम करता है, वह अपने जीते जी शीघ्र ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है। इसलिए ब्राह्मणों को अपने वर्णित कर्मों को अवश्य ही करना चाहिए।

क्षत्रिय कर्म-वर्णव्यवस्था

वर्ण विभाजन क्रम में द्वितीय स्थान क्षत्रिय का है। क्षत्रिय की भुजा से उत्पत्ति से तात्पर्य, क्षत्रिय को समाज का रक्षक कहने से है। जिस प्रकार से भुजाएॅं शरीर की रक्षा करती है उसी प्रकार क्षत्रिय भी समाज की रक्षा करने वाला होता है। समाज जब बृहत् रूप धारण करता है तो वहाॅं कुछ दुष्ट, अत्याचारी भी हो जाते हैं, जिनका दमन आवश्यक होता है। अतः समाज के लिए यह आवश्यकता हुई कि कुछ व्यक्ति ऐसे हों, जो  दुष्ट, दमनकारी प्रवृत्ति के लोगों से समाज की रक्षा करना अपना पवित्र कर्तव्य समझें।

मनु महाराज क्षत्रिय के कर्म लक्षण करते हुए लिखते हैं – अपनी प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, विषयों में अनासक्त रहना।

वैश्य कर्म-वर्णव्यवस्था

जिस प्रकार से जंघाएॅं मनुष्य के शरीर का सम्पूर्ण भार वहन करती हैं उसी प्रकार समाज के भरण-पोषण आदि सम्पूर्ण कार्य वैश्य को करने होते हैं। समाज के आर्थिक तन्त्र का सम्पूर्ण विधान वैश्य के हाथ सौंपा गया । पशुपालन, समाज का भरण पोषण, कृषि, वाणिज्य, व्यापार के द्वारा प्राप्त धन को समाज के पोषण में लगा देना वैश्य का कर्तव्य है। धन का अर्जन अपने लिए नहीं प्रत्युत ब्राह्मण आदि की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए होना चाहिए। जैसे- हे ज्ञानी, ब्राह्मण नेता! जिस प्रकार अश्व को खाने के लिए घास-चारा दिया जाता है, उसी प्रकार हम नित्यप्रति ही तेरा पालन करते हैं। प्रतिकूल होकर हम कभी दुखी न हों। तात्पर्य यह है कि धन के मद से मस्त होकर जो पूज्य ब्राह्मणों को तिरस्कार करते हैं, वे समाज में अधोपतन की ओर अग्रसरित होते चले जाते हैं।

शूद्र कर्म-वर्णव्यवस्था

समाज की सेवा का सम्पूर्ण भार  शूद्रों पर रखा गया है। सेवा कार्य के कारण शूद्र को नीच नहीं समझा जाता है, अपितु जो लोग पहले तीन वर्णों के काम करने में अयोग्य होते हैं अथवा निपुणता नहीं रखते हैं, वे लोग शूद्र वर्ण के होकर सेवा कार्य का काम करते हैं। पुरुष सूक्त के रूपक से यह बात बहुत स्पष्ट होती है कि उपर्युक्त चारों वर्णों का समाज में अपना-अपना महत्व है और उनमें कोई ऊॅंच-नीच का भाव नहीं होता।

युजर्वेद में तपसे शूद्रम्’१४ कहकर श्रम के कार्य के लिए शूद्र को नियुक्त करो, यह आदेश दिया गया है। इसी अध्याय में कर्मार नाम से कारीगर, मणिकार नाम से जौहरी, हिरण्यकार नाम से सुनार, रजयिता नाम से रंगरेज, तक्षा नाम से शिल्पी, वप नाम से नाई, अपस्ताप नाम से लौहार, अजिनसन्ध नाम से चमार, परिवेष्टा नाम से परोसने वाले रसोइये का वर्णन है।

मनु महाराज कहते हैं कि यदि ब्राह्मण की सेवा से शूद्र का पेट न भरे तो उसे चाहिए कि क्षत्रिय की सेवा करे, उससे भी यदि काम न चले तो किसी धनी वैश्य की सेवा से अपना जीवन निर्वाह करना चाहिए।

प्रत्येक मनुष्य की प्रकृति अलग-अलग होती है और उस वह अपनी विशिष्ट मनोवृत्तियों के आधार पर रहने, खाने आदि में प्रवृत्त होता है। अतः कहा जा सकता है कि वर्ण विभाग चार व्यवसाय ही नहीं अपितु ये मनुष्य की चार मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियां हैं। व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक को मोक्ष की ओर जाना है। और यह वर्ण व्यवस्था मनुष्य को सामूहिक रूप से शरीर से मोक्ष की तरफ ले जाने का सिध्दान्त है। वर्णव्यवस्था में कार्यानुसार श्रमविभाग तो आ सकता है, लेकिन यदि केवल श्रम विभाग की बात की जाय तो उसमें वर्ण व्यवस्था नहीं आ सकती है। आज का श्रम विभाग मनुष्य की शारीरिक और आर्थिक आवश्यकताएॅं तो पूरी करता है लेकिन आत्मिक, पारमात्मिक आवश्यकता नहीं। जबकि वर्ण व्यवस्था का आधार ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रहा है।

प्राचीन भारतीय संस्कृति ने चारों प्रवृत्तियों के व्यक्तियों के लिए यह निर्देश किया था कि वे अपनी प्रवृत्ति के अनुसार समाज को चलाने में सहयोग करें, समाज की सेवा करें। ब्राह्मण ज्ञान से, क्षत्रिय क्रिया से, वैश्य अन्नादि की पूर्ति करके और शूद्र शारीरिक सेवा से। यह उनका कर्तव्य निश्चित किया गया है। कर्तव्य से यह तात्पर्य नहीं होता है कि मनुष्य कार्य करने के बदले अपनी शारीरिक पूर्ति कर ले। कर्तव्य भावना जब व्यक्ति के अन्दर आ जाती है तब वह समर्पित भावना से कार्य करता है। इससे समाज में यदि कोई व्यक्ति अधिक  धन संपत्ति से युक्त हो भी जाए तो उसके मत में राज्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती।

भारतीय संस्कृति की यह अमूल्य विरासत केवल मात्र एक व्यवस्था ही नहीं है अपितु एक कर्म है, जिस कर्म से कोई नहीं बच सकता है तभी चारों प्रकार के कर्मों को करते हुए मनुष्य अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकेगा।

आदि काल से लेकर आज तक मात्र भारतीय संस्कृति ही अपनी कुछ-कुछ अक्षुण्णता बनाए है, जबकि इस बीच कितनी ही संस्कृतियाॅं आयी और सभी-की-सभी धराशायी होती चली गई। वर्णव्यवस्था की परम्परा हमारे भारतवर्ष में पूर्णरूप से समाप्त नहीं हुई है यदि आज तथाकथित जातियों का समापन करके गुण-कर्म-स्वभाव के अनुरूप वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया जाये तो निश्चित ही सामाजिक विसंगतियों का शमन (नाश) हो सकेगा और भारतीय संस्कृति की पताका पुनः अपनी श्रेष्ठ पदवी को प्राप्त कर सकेगी तथा कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’१५  व वसुधैवकुटुम्बकम्’ की उक्ति चरितार्थ हो सकेगी।

किसी कवि की पंक्तिएॅं यहाॅं सम्यक्तया चरितार्थ होती दिखायी देती हैं-

ऋषि ने कहा वर्ण शारीरिक,

बौध्दिक क्षमता के प्रतिरूप।

गुणकर्माश्रित वर्णव्यवस्था,

है ऋषियों की देन अनूप।।

बौध्दिक बल द्विजत्व का सूचक,

भौतिक बल है क्षात्र प्र्रतीक।

धन बल वैश्यवृत्ति का पोषक,

क्षम बल शूद्र धर्म निर्भीक।।

चारों वर्ण समान रहे हैं,

छोटा बड़ा न कोई एक।

चारों अपने गुण-विवेक से,

करते धरती का अभिषेक।।१६

सन्दर्भ-सूची:-

१. सत्व,रज एवं तम।

२. यजुर्वेद-३१/११।

३. स्वामी दयानन्द यजुर्वेद भाष्य से उद्धृत।

४. स्वामी दयानन्द यजुर्वेद भाष्य से उद्धृत।

५. छान्दोग्य.-४/४।

६. यजु.-३१/११।

७. मनुस्मृति-१/८८।

८. गीता-१८/४२।

९. पत´जलि

१॰. महाभाष्य. पा.।

११. शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष्।

१२. न्याय, सांख्य, वैशेषिक, योग, मीमांसा और वेदान्त।

१३. मनुस्मृति-३/१६८।

१४. यजुर्वेद-३॰/५।

१५. ऋग्वेद-९/६३/५।

१६. अद्यतन हिन्द कविताएॅं, उ.सं.वि.विद्यालय प्रकाशन,  हरिद्वार।

-कार्यकारी सम्पादक,

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

नेपाल त्रासदी और हमारा कर्तव्य

दुर्घटनाएँ संसार में घटती रहती हैं। कभी ये मनुष्यकृत होती हैं तो कभी प्राकृतिक रूप में आती हैं। पिछले दिनों भारत में २७ मार्च को दोपहर के समय भूकम्प के झटकों का अनुभव किया गया। इसका केन्द्र नेपाल में था, अतः इसका प्रभाव नेपाल में अधिक हुआ। एक तो नेपाल में केन्द्र था, दूसरा भूकम्प की तीव्रता का नाप ७.८ था, जो बहुत अधिक था, इसी अनुपात से दुर्घटना का प्रभाव भी उतना ही तीव्र का हुआ। जहाँ हजारों मकान ध्वस्त हो गये, वहाँ अभी तक दस हजार से अधिक लोगों के मरने का अनुमान है। हताहत होने वालों की संख्या कई गुना अधिक है।

इस समय दुर्घटना तो प्राकृतिक थी, परन्तु मनुष्यों द्वारा की जाने वाली क्रिया भी आज चर्चा का विषय है। इस दुर्घटना को जिन्होंने भोगा, अनुभव किया, उनका दुःख अवर्णनीय है। उसे तो वे ही अनुभव कर सकते हैं परन्तु समाज में दूसरे लोग जो इस दुःख का अनुभव कर सकते हैं, वे ही इस कार्य में सहायता के लिये आगे बढ़ते हैं। यह प्रसन्नता और गर्व की बात है कि प्रधानमन्त्री मोदी और उनकी सरकार ने इस मानवीय संवेदना का परिचय दिया, उससे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है। इससे संवेदनशीलता, तत्परता एवं बुद्धिमत्ता का परिचय मिलता है। हमारे ऋषियों ने मनुष्य जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान किया है। समस्या के समाधान को धर्म कहा गया है। जहाँ कहीं समस्या है, वहाँ उसके समाधान के रूप में धर्म उपस्थित होता है। हमारी संस्कृति में सेवा कार्य को धर्म कहा गया है। इससे पता लगता है कि सेवा एक अनिवार्य कार्य है और समस्या का समाधान भी।

इस बात को हम ऐसे समझ सकते हैं। जब मनुष्य समर्थ होता है, युवा होता है, सम्पन्न होता है तो वह समझता है कि मुझे किसी से क्या लेना है, मैं अपने पुरुषार्थ से जो अर्थोपार्जन करता हूँ, वह मेरा है, मैं उसका अपने लिये उपयोग करता हूँ। जैसे मैं अपने उपार्जित धन से अपना काम करता हूँ, उसी प्रकार सबको अपने धन से अपना काम चलाना चाहिए। मैं किसी के लिये कैसे उत्तरदायी हूँ? यह एक बुद्धिमान् व्यक्ति का विचार नहीं हो सकता। मनुष्य जीवन में सदा समर्थ और सम्पन्न नहीं रहता। पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने अपनी आत्मकथा में एक प्रसंग लिखा है कि – मैं पचहत्तर वर्ष की आयु में रोगी हो गया। रोग का आक्रमण लम्बा रहा, शरीर अत्यन्त निर्बल हो गया, परिणामस्वरूप खाना-पीना भी मेरे लिए स्वयं करना सम्भव नहीं रहा। जब मेरे परिवार के लोगों ने मुझे चम्मच से खिलाया, तब मुझे लगा कि केवल बच्चों को ही चम्मच से नहीं खिलाया जाता, बुढ़ापे में भी चम्मच से खिलाना पड़ता है। मनुष्य स्वस्थ, समर्थ एवं सम्पन्न होता है तब उसे किसी की आवश्यकता नहीं लगती परन्तु प्रत्येक मनुष्य के जीवन में शैशवावस्था, रुग्णावस्था, रोग और वृद्धावस्था आती है। इन तीनों के अतिरिक्त दुर्घटना कब, किसके जीवन में आये? नहीं कहा जा सकता। समाज में इन परिस्थितियों में मनुष्य को दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है। शैशव में मनुष्य के बालक का उत्पन्न होने के पश्चात् अकेले जीवित रहना असम्भव है। उसको बचाने के लिए माता-पिता, पालक की आवश्यकता होती है।

हम बचपन से किन-किन की सहायता से जीवित बचे हैं, इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-बोलना, वस्त्र पहनना आदि समस्त जीवन व्यापार दूसरों के आधीन ही होता है। दूसरों की सहायता के बिना हमारा जीवित रहना सम्भव नहीं है। इस प्रकार वृद्धावस्था में हम कितने भी सम्पन्न हों, अशक्त होने की दशा में हमें दूसरों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। जब कभी रोग, शोक, भय आदि से आक्रान्त हो जाते हैं, तब हमारे जीवन में दुर्घटना कब, कहाँ घटित हो जाये, यह निश्चित नहीं। आज समुद्र में तूफान आते हैं, आँधियाँ आती हैं, बाढ़ आती है, सूखा पड़ता है, भूकम्प आता है, वायुयान, रेल, बस आदि की दुर्घटनाएँ होती हैं, आग लग जाती है। ये सब हमारे सामर्थ्य को एक क्षण में व्यर्थ कर देते हैं। हमारी संपत्ति हमारे लिए निरर्थक हो जाती है। हमारी संपत्ति से एक घूँट पानी हम नहीं प्राप्त कर सकते, जेब और बैंक में रखा हुआ धन हमारी असहाय स्थिति को दूर करने का सामर्थ्य खो देता है। इस परिस्थिति में हमारे बचने का क्या उपाय शेष रहता है- वह उपाय है दूसरों के द्वारा दी जाने वाली सहायता, जिसे हम सेवा के रूप में जानते हैं।

सेवा की अनिवार्यता तब समझ में आती है, जब व्यक्ति विवश होता है। मनुष्य किसी स्थान या व्यक्ति से परिचित न हो, भाषा भी न आती हो और जेब में पैसे भी न हों, तब व्यक्ति कैसे जीवित रहेगा? एक विकल्प तो यह है कि ऐसा व्यक्ति मर जाये तो हमारा क्या दोष है? इसके उत्तर में विचार करना चाहिए कि क्या यह परिस्थिति किसी के साथ ही आती है या यह परिस्थिति सबके साथ आ सकती है? तो इसका उत्तर है, यह परिस्थिति किसी के भी जीवन में कभी भी आ सकती है। तो इसका उपाय क्या है? इसका उपाय यह है कि जो भी व्यक्ति वहाँ उपस्थित है, वही हमारी सहायता करे, परन्तु कोई व्यक्ति आपकी सहायता क्यों करे? यहीं उत्तर है कि सेवा करना धर्म है, अतः उस व्यक्ति की सहायता की जानी चाहिए। सामान्य रूप में सभी व्यक्ति एक दूसरे की सहायता या आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। यह पूर्ति का प्रकार दो प्रकार का हो सकता है। हम रेल में यात्रा कर रहे हैं। हमें प्यास लगती है, हम जेब से पैसे निकालते हैं, पानी वाले को देते हैं, वह हमें पानी दे देता है। उसने भी हमारी आवश्यकता की पूर्ति की है। इस कार्य के बदल में कोई कह सकता है कि मैं सेवा कर रहा हूँ, परन्तु यह सेवा नहीं है। सेवा में धन होने की अनिवार्यता नहीं है।

जब हम किसी कार्य को धर्म समझकर करते हैं तो उसमें व्यक्ति की पात्रता, उसकी आवश्यकता पर निर्भर करती है, जबकि व्यवसाय में पात्रता उसकी आवश्यकता पर नहीं, अपितु उसकी आर्थिक सामर्थ्य पर टिकी है। सेवा करने वाला व्यक्ति केवल आवश्यकता को, उसकी पीड़ा को देखता है, जबकि व्यवसाय करने वाला व्यक्ति उसकी आर्थिक क्षमता को देखता है, उसका उसकी पीड़ा या आवश्यकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता। सेवा का उत्कृष्ट स्वरूप होता है जब हम प्राणि मात्र को उसकी पीड़ा से पहचानते हैं, न कि जाति, लिंग, आकृति या हानि-लाभ से। भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों को शिक्षा देकर प्रचार के लिए भेजा। एक शिष्य ने एक शराबी को देखकर उसे उपदेश देने का प्रयास किया, शराबी ने बोतल से उसका सिर तोड़ दिया। शिष्य ने गुरु जी के पास जाकर अपना हाल सुनाया, गुरु जी ने सुन लिया। उस समय कुछ न कहा फिर एक बार उसी शिष्य को लेकर उसी गाँव में गये, जहाँ वही शराबी रोग से दुःखी अकेला पड़ा था। भगवान् बुद्ध उसे उपेदश नहीं दिया, उसकी सेवा की, उसे साफ किया, उसको औषध दी, उसको भोजन-पानी दिया, वह शराबी भगवान् बुद्ध का शिष्य बन गया।

जिस क्षण हम सेवा के बदले में कुछ चाहते हैं, तो वह सौदा हो जाता है। नेपाल के प्रसंग में यह घटना याद करने योग्य है। चर्च ने भूकम्प के समय बाइबिल की एक लाख प्रतियाँ नेपाल में भेजी, यह किसी भी प्रकार से सेवा की श्रेणी में नहीं आता। यह तो मौके का फायदा उठाना है, यह व्यापार है, सौदा है। चर्च कहीं भी सेवा नहीं करता, इस प्रसंग में एक घटना का उल्लेख करना उचित होगा। ईसाई प्रचारक फादर लेसर अब स्वर्गीय हो गये, उन्होंने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए कहा था- हमने भारत में चार सौ वर्षों से सेवा का कार्य किया, परन्तु भारतीय समाज अभी तक हम पर विश्वास नहीं करता। इसके उत्तर में मैंने निवेदन किया कि फादर, ईसाई चर्च कभी भी सेवा कार्य नहीं करता, वह सदा सौदा करता है, वह बदले में ईमान माँगता है। उसके हर सेवा कार्य के पीछे ईसाई बनने की शर्त रहती है। जब कभी हम अपने कार्य के बदले में दूसरे से कुछ चाहते हैं तो वह सेवा न होकर सौदा, व्यापार हो जाता है। हमारे ऋषियों ने सेवा को धर्म कहा है। धर्म स्थान एवं व्यक्ति की योग्यता नहीं देखता, उसकी पात्रता केवल उसकी पीड़ा है और उसका निराकरण का प्रयास सेवा है।

संसार दुःखमय है, इसमें जन्म के साथ ही दुःखों का प्रारम्भ हो जाता है। हमारे मित्र, सहयोगी, सम्बन्धी मिलकर एक-दूसरे के दुःख को दूर करने का प्रयास करते हैं, परन्तु जिनको जीवन में ये साधन नहीं मिले, उनका भी उपाय होना चाहिए, यह उनका अधिकार है। जब हम सेवा करते हैं, तब हम उस पर उपकार नहीं कर रहे होते। हमें उपकार का अवसर मिला है, हम आज पीड़ित नहीं, सेवक हैं। भारतीय संस्कृति में कोई भी कार्य निष्फल नहीं होता, सेवा कार्य भी नहीं। जैसे व्यापार का लाभ तत्काल होता है तो हम कर्म के लिए प्रेरित होते हैं, परन्तु हम भूल जाते हैं कि यदि व्यापार में किया गया कर्म निष्फल नहीं गया तो धर्म में किया गया कर्म कैसे निष्फल हो सकता है? धर्म कार्य में भी कार्य तो हुआ है, हमने इच्छा नहीं की कि हमें कोई पैसा मिले, कोई लाभ मिले, इस परिस्थिति में हमारे दो कार्य होते हैं और उसके दो फल मिलते हैं। एक फल हमारी बदले की इच्छा न होने से सन्तोष की प्राप्ति और अनासक्ति का सुख मिलता है तथा जो हमारे दूसरे की सहायता का कार्य किया है, उसका लाभ हमें तब सहज ही प्राप्त होता है, जब कभी हम किसी संकट या विपत्ति में फँस जाते हैं और कहीं से अज्ञात हाथ आकर हमारी रक्षा करते हैं, हमें बचा लेते हैं। व्यापार के फल को हम जानते हैं कि वह कब मिलेगा, कहाँ मिलेगा, कितना मिलेगा? परन्तु धर्म का फल कहाँ किसको कब मिलेगा हमें पता नहीं चलता। सबको धार्मिक होने की इसीलिये आवश्यकता है कि सभी धार्मिक होंगे, सेवा भावी होंगे तो कोई भी कहीं भी कष्ट में क्यों न हो, जो व्यक्ति जहाँ उपस्थित है, उसके मन में सेवा भाव होगा वह तत्काल सेवा कार्य में जुट जायेगा।

हमें स्मरण रखना चाहिए कि जब हम दुःख में होते हैं, तब परमेश्वर से सहायता की याचना करते हैं। हमें स्मरण रखना होगा कि हर प्राणी उस परमेश्वर की ही सन्तान है, किसी पीड़ित प्राणी की सेवा करना परमेश्वर को प्रसन्न करने का उपाय है। आज कोई व्यक्ति दुःखी को लूटता है, हिंसा करता है, उसकी उपेक्षा करता है तो वह पापी बन जाता है, लोग अपनी पापवृत्ति के कारण बेहोश, मरे, पीड़ित व्यक्ति की सम्पत्ति लूटते हैं, चुराते हैं तो वे किस प्रकार अपने लिए दूसरे की सहायता मिलने की अपेक्षा कर सकते हैं? बहुत सारे लोग इन आपदाओं के लिए परमेश्वर को उत्तरदायी मानते हैं। परमेश्वर उत्तरदायी इसलिये नहीं है कि संसार उसकी व्यवस्था में चल रहा है। जहाँ भी, जब भी व्यवस्था में व्यतिक्रम होता है तो संकट आता है, बहुत बार यह अव्यवस्था के कारण का हमें पता चलता है और बहुत बार हमें पता नहीं चलता। अधिकांश रूप में हम अपनी आवश्यकता और स्वार्थ की पूर्ति के लिए नियमों को तोड़ते हैं, व्यवस्था को भंग करते हैं।

हम वृक्षों को तोड़कर, जलधाराओं को मोड़कर पर्यावरण के सन्तुलन को बिगाड़ देते हैं। स्वार्थ के लिये बड़ी मात्रा में हिंसा करते हैं। जहाँ जड़ पदार्थों के उचित क्रम और व्यवस्था को बिगाड़ना हिंसा है, वहीं प्राणियों का निरन्तर वध करना हिंसा है। उसका हमारे जीवन और पर्यावरण पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। नेपाल में धर्म के नाम पर जितनी जीव हत्या होती है, क्या उसके दण्ड से आप बच सकते हैं? आप पीड़ा नहीं चाहते, आप पीड़ा देने वाले को अपराधी मानते हैं, उसे दण्डित करना चहाते हैं तो क्या निरीह पशुओं को अकारण धर्म के नाम से क्रूरता से संहार करके आप सुरक्षित रह सकते हैं? आज वैज्ञानिकों ने प्रमाणित किया कि प्राणियों की निरन्तर बढ़ती हुई हिंसा वातावरण में भारी उथल-पुथल का कारण है। इसी कारण भूकम्प और प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं। पशु प्राणी सृष्टि-संरचना में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। उसके न रहने पर या क्षतिग्रस्त होने पर समस्त पर्यावरण प्रभावित होता है। हिंसा से मनुष्य में तमोगुण, बढ़कर क्रोध, तनाव, भय, आतंक आदि उत्पन्न करता है। इससे मनुष्य का मन-मस्तिष्क विकृत होकर उसे रोगी, अस्थिरचित्त एवं दुर्बल बना देती है।

केदारनाथ, नेपाल आदि की घटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करके उनके कारणों का हमें पता लगाना चाहिए। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि के पालन से आत्मा में शान्ति, मन में स्थिरता व बुद्धि में सतोगुण बढ़ता है। हिंसा से स्वार्थ एवं परहानि की प्रवृत्ति बढ़ती है। नेपाल में पशुपतिनाथ के नाम पर हम भैसों-बकरों की बलि चढ़ा कर शान्ति से रहना चाहेंगे, यह सम्भव नहीं होगा। जीवन में से किसी भी प्रकार की हिंसा को दूर किये बिना मनुष्य का सुखी होना सम्भव नहीं है। परोपकार सेवा ही पुण्य है और हिंसा तथा स्वार्थ के लिए परहानि करना ही पाप है। प्रकृति की प्राणियों की हिंसा जबतक बढ़ती रहेगी, समाज का सन्ताप, कष्ट, आपत्तियां भी बढ़ती रहेंगी, अतः कहा गया है- पुण्य से सुख मिलता है और पाप से दुःख परोपकार पुण्य है और परपीड़न पाप है-

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।

– धर्मवीर

 

जर्मन संस्कृत विवाद कितना उचित – डॉ धर्मवीर

गत दिनों मोदी सरकार के एक निर्णय को लेकर समाचार-पत्रों में पक्ष-विपक्ष पर बहुत लिखा गया। सामान्य रूप से इस विवाद से ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कोई बहुत बड़ा निर्णय मोदी ने किया है। जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है। बात केवल इतनी सीधी थी कि पिछली सरकार ने एक अवैधानिक और अनुचित निर्णय लिया था, उसको इस सरकार ने वापस कर लिया। हाँ, इतना सच है यदि सोनिया की सरकार सत्ता में आती तो यह निर्णय नहीं लिया जाता। यह निर्णय सोनिया सरकार ने अपनी सरकार की नीति के परिप्रेक्ष्य में लिया था। इस नीति को समझने के लिए गत वर्षों के क्रियाकलाप पर दृष्टि डालना उचित होगा। इस नीति का मूल कारण था चर्च, जिसे अपने काम करने में सबसे बड़ी बाधा लगती है संस्कृत। मैकाले का मानना था कि इस देश को अपने आधीन करने के लिए इसकी जड़ों को काटना आवश्यक है। भारतीय इतिहास और संस्कृति की जड़ संस्कृत में निहित है। इस देश की जीवन पद्धति संस्कृत में रच बस गई है। प्रातःकाल से सायं और जन्म से मृत्यु तक का यहाँ का सामाजिक जीवन संस्कृत से संचालित होता है। मैकाले ने यहाँ की समझ और समृद्धि को समाप्त करने के लिए सरकार का संरक्षण देकर चर्च का प्रचार-तन्त्र खड़ा किया था। सरकार ने ऐसी नीतियाँ बनाई जिससे यहाँ के लोगों को अपने आधार से पृथक् किया जाये और ईसायत के रूप में अपने प्रति निष्ठावान् बनाया जा सके। यह प्रयास नेहरू से सोनिया गाँधी तक निरन्तर चलता आ रहा है। इसी नीति के अनुसार संस्कृत को विभिन्न पाठ्यक्रमों से धीरे-धीरे बाहर कर दिया गया। सन् २००१ में दिल्ली में हुए मानव-अधिकार सम्मेलन में चर्च के सलाहकार और मानव अधिकारवादी शिक्षक कान्ता चैलय्या ने कहा था– इस देश में हमारे लिए सबसे बड़ी रुकावट संस्कृत भाषा है और इसे हम समाप्त करना चाहते हैं। चैलय्या का कहना था- ‘‘वी वाण्ट टू किल संस्कृत इन दिस कण्ट्री’’ इसी नीति का अनुसरण करते हुए और विभागों की तरह केन्द्रीय विद्यालय के पाठ्यक्रम से भी संस्कृत को हटाया गया। पहले बड़ी कक्षाओं से हटाया फिर पूरे विषय को ही पाठ्यक्रम से समाप्त कर दिया गया। यह समाप्त करने की प्रक्रिया ही वर्तमान सरकार के निर्णय का कारण है। समाचार पत्रों में अधिकांश चर्चा बिना वस्तुस्थिति जाने की गई है, अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने और उनके समर्थकों द्वारा मोदी सरकार के निर्णय को गलत सिद्ध करने का धूर्तता पूर्ण प्रयास किया है।

राजीव गाँधी के समय भी संस्कृत को केन्द्रीय विद्यालयों के पाठ्यक्रम से हटाने का प्रयास किया गया था, उस समय संस्कृत-प्रेमियों ने इस निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़ी और सरकार के प्रयास को विफल किया। सरकार ने दूसरी चाल चलकर संस्कृत विभाग से अध्यापकों को उन्नति दे कर विभाग ही समाप्त करा दिये। शिक्षकों के अभाव में छात्रों को संस्कृत पढ़ाता कौन? संस्कृत को समाप्त कर विदेशी भाषाओं को पढ़ाने का प्रावधान सोनिया गाँधी के समय किया गया। उस समय के मानव संसाधन मन्त्रालय के मन्त्री कपिल सि बल ने जर्मनी के साथ समझौता किया, जिसके क्रियान्वयन के लिए केन्द्रीय विद्यालय संगठन ने ५ जनवरी २०११ को एक परिपत्र जारी किया। जिसके चलते २०११-२०१२ के सत्र से कक्षा ६ से ८ तक तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत के स्थान पर जर्मन, फ्रेन्च, चीनी, स्पेनिश जैसी विदेशी भाषायें पढ़ाने के निर्देश दिये गये। जो शिक्षक संस्कृत अध्यापन का कार्य करते थे उन्हें इन भाषाओं का प्रशिक्षण लेने के लिए कहा गया जिससे इन अध्यापकों को इन भाषाओं को पढ़ाने की योग्यता प्राप्त हो सके। यह निर्देश अवैधानिक होने के साथ-साथ अनुचित भी था। जिस व्यक्ति ने जीवन का लम्बा समय जिस भाषा को सीखने और सिखाने में लगाया है उसके इस पुरुषार्थ और योग्यता को नष्ट करना व्यक्ति के साथ तो यह अन्याय है ही इसके साथ ही राष्ट्र की शैक्षणिक और भौतिक सम्पदा को नष्ट करने का अपराध भी है। परन्तु सरकार किसी बात को करने की ठान ले तो फिर उचित-अनुचित के विचार का प्रश्न ही कहाँ उठता है। इस प्रकार संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया और उसके स्थान पर जर्मन पढ़ाना प्रारम्भ हो गया।

यह निर्देश संस्कृत भाषा और संस्कृति के नाश का कारण तो था ही साथ ही साथ यह एक अवैध कदम भी था। असंवैधानिक होने के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध भी था। संविधान के अनुच्छेद ३४३(१) में कहा गया है कि आधिकारिक भाषा देवनागरी लिपि में हिन्दी भाषा होगी। संविधान के अनुच्छेद ३५१ में कहा गया है- हिन्दी के विकास करने के लिए आवश्यकता होने पर प्राथमिक रूप से संस्कृत और बाद में अन्य भाषाओं से श द लिए जायें। संविधान में यह भी कहा गया है- भारत सरकार संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित भाषाओं के विकास के लिए प्रयास करेगी। इसमें किसी भी विदेशी भाषा का उल्लेख नहीं किया गया है अतः संस्कृत को हटाकर जर्मन पढ़ाने का निर्णय किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता। केन्द्रीय विद्यालयों की नियमावली के अनुसार भी यह निर्देश अनुचित है। नियमावली के अध्याय १३ के अनुच्छेद १०८ में कहा गया है कि केन्द्रीय विद्यालयों में जो तीन भाषायें पढ़ाई जायेंगी वे हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत होंगी। इसी प्रकार राष्ट्रीय विद्यालय शिक्षा नीति के प्रावधानों के भी यह विरुद्ध है- नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क फॉर स्कूल एजुकेशन में जो त्रिभाषा सूत्र २-८-५ में कहा गया है, इस त्रिभाषा सूत्र में किसी विदेशी भाषा का समायोजन नहीं किया जा सकेगा। इस प्रकार किसी रूप में सोनिया सरकार द्वारा जारी किये गये परिपत्र को उचित ठहराया नहीं जा सकता। ऐसे परिपत्र के निर्देश को मोदी सरकार हटाती है तो यह कार्य कैसे प्रतिगामी कदम कहा जा सकता है। सरकार के निर्णय द्वारा केवल पुरानी गलती को सुधारा गया है। जब सोनिया सरकार ने संस्कृत हटाने का परिपत्र प्रकाशित किया तब २८ अप्रैल २०१३ को दिल्ली उच्च न्यायालय में इसके विरोध में एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जब सरकार के निर्णय पर तथाकथित प्रगतिवादियों ने शोर मचाया तो सरकार ने न्यायालय में शपथ पत्र देकर अपने पुराने निर्णय को वापस ले लिया। नवम्बर २०१४ में शपथ पत्र दायर कर सोनिया सरकार द्वारा जारी पत्र को वापस ले लिया। साथ ही मोदी सरकार ने सितम्बर २०१४ में गोआ इंस्टीट्यूट, मैक्समूलर भवन के साथ संस्कृत के स्थान पर जर्मन पढ़ाने के समझौते की जाँच के आदेश भी दे दिये तथा समझौते का नवीनीकरण भी नहीं किया गया। जहाँ तक सत्र के मध्य में पाठ्यक्रम बदलने की बात है यह आपत्ति इसलिए निराधार है क्योंकि ८वीं कक्षा तक परीक्षा नहीं होती। छात्रों को बिना परीक्षा के उत्तीर्ण किया जाता है। अतः छात्र के परीक्षा परिणाम पर किसी प्रकार का प्रभाव पड़ने वाला नहीं है।

यह एक बहुत सामान्य बात थी कि एक असंवैधानिक निर्देश से संस्कृत को पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया था, उस निर्देश को सरकार ने वापस ले लिया। इसमें कैसे जर्मन हटाई गई और किसने संस्कृत थोपी, सब कुछ केवल शोर मचाने के लिए है। अंग्रेजी समाचार-पत्रों ने संस्कृत थोपे जाने का जोर-शोर से विरोध किया। अंग्रेजी की महत्व में बड़े-बड़े लेख लिखे गये। पिछलग्गू हिन्दी समाचार पत्रों ने संस्कृत की महत्व पूजा-पाठ के लिए बताते हुए किसी पर भाषा थोपने का विरोध किया। जो तथ्यों से परिचित थे उन्होंने इन तथाकथित प्रगतिशील लोगों का मुँहतोड़ जवाब दिया। तथ्य व वास्तविकता को जनता के सामने रखा। ऐसे धर्मध्वजी लोगों का उत्तर देना आवश्यक भी है। जो लोग संस्कृत थोपने की बात करते हैं यदि उनमें यदि थोड़ी भी नैतिकता होती तो जिस दिन संस्कृत हटाने का परिपत्र प्रकाशित हुआ उन्हें उसका विरोध करना चाहिए था। इन लोगों ने उस दिन मनमोहन सिंह को बधाई दी, लम्बे-लम्बे सम्पादकीय लिखे थे जब एक असंवैधानिक निर्णय सरकार ने किया था जिसमें हिन्दी के विकास के लिए संस्कृत से शब्दों के ग्रहण करने का प्रावधान हटाकर हिन्दी में उर्दू और अंग्रेजी शब्दों की भरमार कर दी थी। जिस मूर्खता को सारे समाचार दिखाने वाले और छापने वाले समाचार पत्र बड़े गर्व से आज भी प्रस्तुत कर रहे हैं।

सोनिया सरकार की कार्य सूची में हिन्दू को समाप्त करने के लिए हिन्दी और संस्कृत को समाप्त करने का प्रस्ताव कार्य सूची में बहुत ऊपर था। आज ऐसे लोग हिन्दी में न केवल अंग्रेजी, उर्दू शब्द अनावश्यक रूप से भाषा में घुसाते हैं अपितु उन्हें रोमन में लिखकर हिन्दी भाषियों को अंग्रेजी सिखाने का भी काम कर रहे हैं। इस देश पर अंग्रेज शासक था उसका अंग्रेजी थोपना समझ में आता है परन्तु स्वतन्त्रता के बाद अंग्रेजी प्रशासन, विधान मण्डल, शिक्षा, न्याय की भाषा बनना यह सबसे बड़ा थोपना है। अंग्रेजी भाषा एक विषय के रूप में पढ़ाई जा सकती है परन्तु इस देश का दुर्भाग्य यह है कि यह हमारी शिक्षा का माध्यम बना दी गई है। हम आज स्वतन्त्र होकर भी अंग्रेजी के ही आधीन हैं। क्या पराधीनता से मुक्त करने का प्रयास करना थोपना कहा जायेगा, संस्कृत को मृत भाषा या संस्कृत को देवी-देवताओं की स्तुति भाषा बताकर उसके महत्व को कम करना नहीं है। जो भाषा इस देश पर दो सौ वर्षों से थोपी जा रही है उसका विरोध तो किया नहीं, संस्कृत के विरोध का बहाना कर लिया। वेद में भाषा के महत्व को रेखांकित करते हुए वेदवाणी को राष्ट्र में ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली कहा है-

अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम्।

– धर्मवीर

 

संस्कृत भाषा की उन्नति के अवसर प्रो धर्मवीर

आज भाषा मनुष्य के जीवन में काम चलाऊ साधन के रूप में उपयोग में आती है। भाषा के महत्व को आज के वैज्ञानिक और तकनीकी युग में गौण समझ लिया गया है, जबकि मनुष्य का जीवन विचारों पर ही निर्भर करता है। मनुष्य का शरीर जैसे भोजन से बनता है, उसी प्रकार मनुष्य का व्यक्तित्व विचारों से बनता है। विचारों की श्रेष्ठता, गम्भीरता, व्यापकता के लिए भाषा अनिवार्य है। भाषा के बिना चिन्तन, भाषण, लेखन, पठन कुछ भी सम्भव नहीं है।

संस्कृत पुरातन काल से विचार व व्यवहार की भाषा रही है, इसलिये उसके पास ज्ञान-विज्ञान का विशाल भण्डार है। इस ज्ञान-विज्ञान तक पहुँचने के लिए संस्कृत भाषा का ज्ञान अनिवार्य है। आज विद्याध्ययन जीविकोपार्जन के लिए स्वीकार किया गया है। विषय का अध्ययन सामाजिक व्यवहार और आजीविका के लिये आवश्यक है, परन्तु पारिवारिक, सामाजिक और व्यक्तिगत निर्णयों के लिए तो विचार की आवश्यकता है, ये विचार हम को भाषा से ही मिलते हैं। संस्कृत मनुष्य के व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों को कैसे परिभाषित करते हैं, उनका आदर्श उदाहरण तैत्तरीयोंपनिषद् की शिक्षावल्ली में देखने में आता है। वहाँ वेद पढ़ के आजीविका कैसी एवं क्या करनी है यह नहीं बताया, परन्तु व्यक्तिगत उन्नति और पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्धों का सफलतापूर्वक निर्वहन करना, शिक्षा का उद्देश्य बताया गया है- जहाँ मातृदेवो भव, पितृदेवो भव आदि विचार व्यक्त किये गये हैं।

सामान्य रूप से इतिहास पढ़ा जाता है, संसार में बहुत सारी भाषायें उत्पन्न हुईं और व्यवहार में न आने के कारण उपयोगिता के अभाव में अतीत के गर्त में समा गईं, समाप्त हो गईं। हम संस्कृत को भी अनुपयोगी होने के कारण समाप्त हो गई है, ऐसा मानते हैं, परन्तु यह कथन सत्य नहीं है। संस्कृत उपयोगिता के अभाव में समाप्त नहीं हुई अपितु हमने संकीर्ण स्वार्थ के कारण उसे नष्ट किया है। महाभारत के पश्चात् हमने वेदों को और संस्कृत को केवल जन्मजात ब्राह्मण लोगों की भाषा बनाकर पूरे समाज को शिक्षा और वेदाध्ययन के अधिकार से वञ्चित कर दिया। मध्यकालीन समाज में और साहित्य में हम देखते हैं कि पुरुष पात्र संस्कृत में बात करते हैं, स्त्री या दास प्राकृत भाषा का उपयोग करते हैं। हजारों वर्षों तक वेदाध्ययन के अधिकार से समाज के बहुसंख्यक वर्ग को दूर करके हमने अपनी भाषा व वैचारिक सम्पत्ति  का अपने ही हाथों विनाश किया है।

वर्तमान इतिहास अंग्रेज शासकों द्वारा विकृत किया गया और इस्लामी पराधीनता में संस्कृत पठन-पाठन समाप्त कर दिया गया। संस्कृत भाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में समाप्त करने में अंग्रेजों के सहयोगी राजा राममोहन राय की महती भूमिका रही है। कोलकाता के विक्टोरिया संग्रहालय में राजा राममोहन राय के चित्र के नीचे लिखा गया– आपने बारह वर्ष तक संघर्ष करके अंग्रेज सरकार को शिक्षा का माध्यम संस्कृत से हटा कर अंग्रेजी करने में सहमत किया। वर्तमान  कांग्रेस और सोनिया सरकार तक संस्कृत को समाप्त करने का योजनाबद्ध प्रयास किया गया। विद्यालयों, महाविद्यालयों से संस्कृत पठन-पाठन की व्यवस्था समाप्त की गई। केन्द्रीय और प्रान्तीय शिक्षा परिषदों ने भी अपने पाठ्यक्रम को समाप्त कर दिया। पंजाब सरकार ने सदा ही हिन्दी-संस्कृत को अपने शिक्षा और प्रशासन व्यवस्था से बहिष्कृत करना उचित समझा। ईसाई और मुस्लिम विद्यालयों में इसे समाप्त कर दिया गया। राजनीति द्वारा इसे साम्प्रदायिक और सवर्णों की भाषा बताकर व्यवस्था से निकाल दिया गया। इस प्रकार पिछले पाँच हजार वर्षों से संस्कृत और वेद को नष्ट करने का प्रयास स्वयं द्वारा, देश के शत्रुओं द्वारा निरन्तर किया जा रहा है। जब भाषा आजीविका और प्रतिष्ठा से दूर हो गई तो उसका अध्ययन-अध्यापन समाज में स्वाभाविक रूप से न्यून हो जायेगा।

एक बार किसी संगोष्ठी में एक महाविद्यालय के प्राचार्य ने अपने भाषण में कहा- संस्कृत कठिन है, इसलिए लोग इसे नहीं पढ़ते। उन्होंने अपने बहुत सारे पाश्चात्य विचारों को प्रस्तुत करते हुए अपने उदार सुझाव भी दे दिये। संस्कृत में दो वचन होने चाहिए, सन्धि-समास कम कर देने चाहिए। व्याकरण की जटिलता समाप्त करनी चाहिए। जब वे नीचे आकर बैठे तो मैंने उनसे पूछा- क्या आपने अंग्रेजी इसलिए पढ़ी है कि यह एक सरल भाषा है? तो उनके पास कोई उत्तर  नहीं था। उसका उत्तर  है- भाषा सरलता या कठिनता के कारण नहीं पढ़ी जाती, भाषा पढ़ी जाती है आजीविका प्राप्ति या सम्मान के लिए। जिस भाषा से आजीविका और सम्मान न जुड़ा हो उस भाषा को कौन पढ़ेगा, वह चाहे कितनी सरल या कठिन हो।

आज मोदी सरकार के आने से सोच और व्यवस्था में परिवर्तन की आशा जगी है। प्रधानमन्त्री और भारत सरकार के मानव संसाधन मन्त्रालय ने संस्कृत की उन्नति का बीड़ा उठाया है, तो सरकार के लिए कुछ सुझाव हैं, जिनको ध्यान में रखने से संस्कृत  भाषा के प्रचार-प्रसार एवं उन्नयन में सहायता मिल सकती हैः-

. विद्यालय के पाठ्यक्रम में पहले संस्कृत थी, परन्तु संस्कृत विरोधी नीति के कारण संस्कृत को हटा दिया गया है। इस भूल को सुधार कर समस्त विद्यालयों के पाठ्यक्रम में कम से कम माध्यमिक (हाई स्कूल) से स्नातक तक संस्कृत भाषा के अध्ययन को अनिवार्य बनाया जाये।

. संस्कृत के पुराने पाठ्यक्रम परिवर्तित कर उसमें जीवन उपयोगी बातों का समावेश किया जाये।

. आगे के पाठ्यक्रम में संस्कृत को ऐच्छिक विषय के रूप में स्थान दिया जाये तथा संस्कृत विषय लेने वाले छात्रों के लिए विद्यालयों में अध्यापन की व्यवस्था की जाये।

. संस्कृत साहित्य में विज्ञान, वाणिज्य आदि जिन विषयों का विस्तार से प्रचुर उल्लेख मिलता है, उस सामग्री का स्नातक और स्नातको   ार पाठ्यक्रम में समावेश किया जाये।

मुझे एक बार महाराष्ट्र के एक महाविद्यालय में जाने का अवसर मिला। वहाँ विज्ञान के छात्रों को शुल्ब सूत्रों का अध्ययन करते देखा था। छात्रों ने बतलाया था कि ये सूत्र ग्रन्थ उनके पाठ्यक्रम में लगाये गये हैं और ये बहुत उपयोगी हैं।

. कला संकाय के महाविद्यालयों में संस्कृत विभाग खोले जाने चाहिए। जहाँ विभाग हैं, उनमें अधिकांश प्राध्यापकों के पद या तो रिक्त हैं या समाप्त कर दिये गये हैं। उनकी यथोचित पूर्ति की जानी चाहिए।

. भारत के सभी विश्वविद्यालयों में संस्कृत विभाग खोले जाने चाहिए। इन विभागों में अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ शोध कार्यों को भी प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

. संस्कृत भाषा के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान एवं मानविकी के विषयों के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था की जानी चाहिए।

. संस्कृत भाषा में जिन विषयों का विस्तार से उल्लेख एवं विवेचन हुआ है, जैसे- राजनीति, धर्म, समाज, न्याय, अर्थशास्त्र, आयुर्विज्ञान आदि ऐसे विषयों का अध्ययन-अध्यापन, अनुसन्धान-विवेचन संस्कृत माध्यम से किया जा सकता है।

. संस्कृत साहित्य की उपेक्षा के कारण ज्ञान-विज्ञान की बहुत सारी सम्पदा नष्ट हो चुकी है, जो शेष है वह विश्व साहित्य में अतुलनीय है। उसके संरक्षण, सम्पादन, प्रकाशन की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। ऐसे कार्य करने वाले संस्थानों और व्यक्तियों को विशेष सहयोग दिये जाने की आवश्यकता है।

१०. संस्कृत के नाम पर रूढ़िगत कर्मकाण्ड के रूप में पौरोहित्य, जीवन में अकर्मण्यता, निराशा और भय उत्पन्न करने वाला फलित ज्योतिष और अवतारवाद, जड़ पूजा जैसे कार्यों को ही संस्कृत मानकर संस्कृत का ह्रास न किया जाये।

इस देश में पठन-पाठन की एक सुदृढ़ परम्परा रही है जो गुरुकुलों, संस्कृत पाठशालाओं, मन्दिरों, मठों तथा पण्डितों के घरों पर चलती रही है, जिसे अंग्रेजों ने योजना पूर्वक नष्ट किया है। यह परम्परा किसी भी सरकारी प्रयास से अधिक शक्तिशाली और व्यापक थी और अब भी हो सकती है। इस परम्परा के संरक्षण और इसको बल देने की आवश्यकता है। गत सरकार में कपिल सिब्बल  द्वारा जब शिक्षा के अनिवार्य करने का बिल पास हुआ था, उस समय संस्कृत पाठशालाओं, विद्यालयों के लिए बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया था। जब अध्यापकों की संख्या, विद्यालय का भवन क्षेत्रफल, धन राशि के प्रतिबन्ध लगाये गये, तब संस्कृत विद्यालय के प्रबन्धकों द्वारा मिलकर माँग की गई तो सरकारी आदेश से मदरसों व संस्कृत पाठशालाओं से इस अनिवार्यता को हटा लिया गया था।

११. आज इन गुरुकुलों, संस्कृत पाठशालाओं और अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों को जीवित रखने व उन्नत करने के लिए इन संस्थाओं को संस्कृत आयोग, संस्कृत विश्वविद्यालय या केन्द्रीय संस्कृत शिक्षा बोर्ड के गठन करने की आवश्यकता है।

१२. इन संस्थानों में अध्यापन करने वाले अध्यापकों को समान वेतन व सुविधायें दी जानी चाहिये।

१३. संस्कृत पाठशाला, गुरुकुल आदि के लिये व्यापक और समस्त वेद एवं संस्कृत साहित्य के विषयों को अपने में  समेटने वाला पाठ्यक्रम बनाया जाना चाहिए तथा परीक्षा उपाधि की व्यवस्था सरकार द्वारा की जानी चाहिए।

१४. ऐसा करने से पठन-पाठन की परम्परा और संस्कृत साहित्य सम्पदा की रक्षा की जा सकती है। इन पाठशालाओं और गुरुकुलों के पाठ्यक्रम में संस्कृत माध्यम से नवीन विषयों का समावेश भी किया जाना चाहिए, जिससे वहाँ के पढ़े छात्रों का ज्ञान अन्य विद्यालयों में पढ़े छात्रों से किसी भी प्रकार कम न हो।

१५. भारत सरकार का संस्थान है सिडको। यदि इसके माध्यम से संस्कृत के विद्वानों को प्रकल्प या योजना का प्रारूप बनाकर दिया जाये तो संस्कृत का संगणक (कम्प्यूटर) प्रयोग करना आने से संस्कृत आजीविका और व्यवहार की भाषा बनाने में सहायता मिल सकती है।

सरकार ने संस्कृत के विकास के लिए सुझाव देने के लिए आयोग बनाया है। संस्कृत प्रेमियों को चाहिए कि वे अपने सुझाव आयोग को भेजे, आपकी सुविधा के लिए ये कुछ सुझाव हैं इनको अधिक विस्तृत और उपयोगी बनाया जा सकता है। इस अवसर का संस्कृत प्रेमियों को उपयोग करना चाहिए।

आयोग का पताः

डॉ. सत्यव्रत, द्वितीय संस्कृत आयोग,

राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय नामित, ५६-५७,

इन्स्टीट्यूशनल एरिया, पंखा रोड, जनकपुरी,

नई दिल्ली-११००५८

आज के लिए यह उक्ति सटीक बैठती है-

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति,

न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।।

– धर्मवीर

राष्ट्रीय पुस्तक क्या हो? डॉ धर्मवीर

समय-समय पर भारतीय गौरव की चर्चा में इस देश के साहित्य की भी चर्चा होती है। अंग्रेजों ने देश को दास बनाने के लिए यहाँ के गौरव को नष्ट किया है, ऐसे समय में किसी गौरव पूर्ण बात की चर्चा अच्छी लगती है। प्रधानमन्त्री मोदी ने जापान जाकर वहाँ के प्रधानमन्त्री को गीता की पुस्तक भेंट की तो गीता पर फिर से चर्चा चलने लगी। लोगों ने गीता के महत्व  को रेखांकित करने के लिए गीता को राष्ट्र ग्रन्थ घोषित करने की माँग कर दी, विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने अपने कार्यक्रम में कह दिया, सरकार तो गीता को राष्ट्र ग्रन्थ मानती है, बस केवल घोषणा करनी शेष है? विदेश मन्त्री के कथन से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों के पेट में दर्द होना स्वाभाविक था। गीता का विरोध प्रारम्भ हो गया। कहा जाने लगा यह देश विभिन्न धर्मों का देश है, किसी एक धर्म पुस्तक को राष्ट्र ग्रन्थ घोषित नहीं किया जा सकता, इस वाद-विवाद में राष्ट्र ग्रन्थ घोषित करने की बात दब गई।

हमारे देश में किसी वस्तु, व्यक्ति, प्राणी को महत्व देने के लिए व्यक्ति, वस्तु आदि को राष्ट्रीय गौरव प्रदान करके राष्ट्र पण्डित, राष्ट्र कवि, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय चिह्न आदि घोषित करते हैं। इस प्रकार देशवासियों के मन में इन का सम्मान बढ़ाते हैं, उनका संरक्षण और प्रचार-प्रसार भी कर देते हैं। इसी क्रम में गीता को राष्ट्र ग्रन्थ बनाने की माँग उठती है। प्रथम तो यह बात ध्यान देने योग्य है कि गीता को धर्म पुस्तक का स्थान दिया गया है। न्यायालय में गीता पर हाथ रखकर शपथ दिलाई जाती है। इसी प्रकार कुरान और बाईबिल की पुस्तक पर हाथ रखकर भी शपथ दिलाई जाती है, शपथ लेने के लिए व्यक्तिगत विश्वास को काम में लिया जाता है। जो लोग नानाधर्मी का देश बताकर गीता का विरोध करते हैं, वे या तो पक्षपाती हैं, उनमें स्वाधीनता और दासता का बोध नहीं है। देश में क्या कुरान को धर्म ग्रन्थ बनाया जा सकता है? हाँ, बनाया जा सकता है जिस दिन इस देश की सत्ता  इस्लाम स्वीकार कर ले। यही परिस्थिति बाईबिल की भी हो सकती है। यदि कभी ऐसा हो भी जाये तो क्या इससे इस देश का गौरव बढ़ेगा? गौरव तो नहीं बढ़ेगा किन्तु दासता का इतिहास बढ़ेगा। यदि यह देश ईसाई बहुल बन जाय तो निश्चित रूप से यहाँ का धर्म ग्रन्थ बाईबिल हो जायेगा। अमेरिका में सभी को अपना धर्म ग्रन्थ मानने की स्वतन्त्रता है परन्तु बाईबिल सर्वोपरि है।

धर्मग्रन्थ को राष्ट्रीय महत्व  देने के पीछे देश के गौरव को प्रदर्शित करने का विचार रहता है। गीता इस देश के इतिहास और परम्परा के प्रतीक  के रूप में स्वीकार की जाती है। इसका कर्म करने, फल में आसक्त न होने का विचार किसी भी बुद्धिमान् व्यक्ति को आकर्षित कर सकता है, वर्तमान में देशी-विदेशी विद्वानों में इसके प्रति रुचि रही है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के नायक लोकमान्य तिलक ने गीता रहस्य लिखकर गीता को समाज का मार्गदर्शक बनाया। महात्मा गाँधी ने भी उसे अपनी प्रेरणा का स्रोत बताया। विदेशी विद्वानों में प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टीन को गीता का प्रेमी बताया जाता है, ऐसे में गीता की बात को साम्प्रदायिकता से या धर्म निरपेक्षता से जोड़कर देखना दास मानसिकता के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। यह विरोध प्रथम तो हिन्दू विरोध को प्रगतिशीलता मानने वालों की मानसिकता है, दूसरा विरोध का कारण अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की प्रवित्ति है। ये दोनों ही बातें बुद्धि और औचित्य से रहित हैं, अतः निन्दनीय हैं।

यही एक और बात पर भी विचार करना उचित होगा क्या गीता भारतीय ज्ञान परम्परा का सर्वोत्कृष्ट और सर्वोच्च ग्रन्थ है? क्या कोई और भी ग्रन्थ हैं। इस पर विचार करते हुए विचारणीय प्रश्नों में पहला प्रश्न है- क्या गीता कोई ग्रन्थ है? क्या गीता श्री कृष्ण की रचना है? पहली बात गीता कोई स्वन्तत्र ग्रन्थ नहीं है। गीता महाभारत के एक छोटे से भाग का नाम है। महाभारत में अनेक गीता विद्यमान हैं, हिन्दू समाज में कृष्णार्जुन संवाद को प्रमुख स्थान मिला है, अतः समाज में इसका प्रचार-प्रसार बहुत हुआ। वर्तमान में गीता प्रेस जैसे संस्थान में गीता के प्रचार-प्रसार में बहुत योगदान दिया है। पठन-पाठन की परम्परा में भी इसे पाठ्यक्रम में स्थान मिला। हिन्दी में रामचरित मानस जैसे ग्रन्थ धर्मग्रन्थ के रूप में प्रचलित हैं, उसी प्रकार उससे पूर्व से गीता का हिन्दू समाज में धर्म ग्रन्थ के रूप में प्रचार-प्रसार चला आ रहा है। गीता के सम्बन्ध में जानने योग्य तथ्य है, गीता कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है, न ही इसके रचयिता श्री कृष्ण, महाभारत काल में युद्ध समय दिये गये उपदेश को महाभारत की रचना करने वाले ने संकलित कर दिया है। जिस प्रकार महाभारत में प्रक्षेप या मिलावट है उसी प्रकार उसी अनुपात में गीता में भी प्रक्षेप मिलावट है। गीता के श्लोकों की संख्या भी कम अधिक देखने में आती है। बाली द्वीप में प्राप्त गीता में केवल अस्सी श्लोक प्राप्त होते हैं जबकि वर्तमान गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित गीता में सात सौ श्लोक मिलते हैं। इनके भाष्यकार बहुत हुए और उन्होंने बहुत तरह से अर्थ किये हैं परन्तु गीता का महत्व पुरुषार्थ करने की प्रेरणा है। गीता को आज वेदान्त का प्रसिद्ध ग्रन्थ माना जाता है। वेदान्त पर व्याख्यान करने वाले, वेदान्त पढ़ने-पढ़ाने वाले, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और गीता को मिलाकर प्रस्थानत्रयी कहते हैं और तीनों में वेदान्त की पूर्णता मानते हैं। वेदान्त के इन तीन ग्रन्थों में सबसे प्राचीन उपनिषद् है फिर इनके व्याख्यान रूप में ब्रह्मसूत्र है और उसके भी बाद गीता का स्थान आता है। जो लोग गीता का महत्व  पढ़ते हैं, उनमें एक श्लोक पढ़ा जाता है- सर्वोपनिषदः गावो– जिसका अर्थ है- सब अर्थात् उपनिषद् गौवें हैं,  श्री कृष्ण गोपाल है, अर्जुन वत्स अर्थात् बछड़ा है और उनका दूध गीतामृत है।  इस क्रम में गीता का स्थान तीसरा, वेदान्त का मूल उपनिषद् है, ब्रह्मसूत्र गीता उसका व्याख्यान है। मूल से कभी व्याख्यान महत्वपूर्ण  हो सकता है परन्तु यहाँ उपनिषदों का महत्वकम नहीं है, संस्कृत के पठन-पाठन की न्यूनता से उनका प्रचार-प्रसार गीता की अपेक्षा कम है। गीता में और उपनिषदों में एक समानता है, वह यह कि गीता भी स्वतन्त्र रचना नहीं है और सभी उपनिषद् भी स्वतन्त्र पुस्तकों के रूप में किसी के द्वारा नहीं लिखी गई हैं। वैसे आज उपनिषद् ग्रन्थों की संख्या सैकड़ों में हैं, परन्तु विद्वत् समाज में दस या ग्यारह उपनिषद् ही स्वीकार्य हैं और सभी ग्रन्थ ब्राह्मण, शाखा ग्रन्थ या वेद के भाग हैं। इनमें ईशोपनिषद् का सबसे अधिक महत्व है और वह इस कारण है कि उपनिषद् के दो मन्त्रों को छोड़ कर सभी मन्त्र यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मन्त्र हैं। इसप्रकार सारी उपनिषदें वैदिक साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों में से आत्मा और परमात्मा को लेकर लिखी गई चर्चा को लेकर पृथक्-पृथक् पुस्तक के रूप दिया गया है। इस प्रकार उपनिषद्, वेदान्त शास्त्र की प्रामाणिक पुस्तकें हैं। स्वाध्यायशील लोग भली प्रकार जानते हैं कि उपनिषदों को वेदान्त नाम क्यों दिया गया है- वेदान्त शब्द  का अर्थ होता है वेद का रहस्य, वेद का प्रयोजन, वेद का प्रयोजन जहाँ संसार में मनुष्य को किसप्रकार जीवनयापन करना चाहिए यह सिखाता है उसीप्रकार हमारे संसार में आने का और मनुष्य जीवन पाने का परम प्रयोजन आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करना है। इस प्रयोजन का नाम ही वेदान्त है। इस प्रयोजन की सिद्धि के बिना- गीता, ब्रह्मसूत्र, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रन्थ या वेद का कोई महत्व नहीं रहता।

गीता की चर्चा करने वालों को ध्यान में रहना चाहिए गीता वेदान्त का ग्रन्थ है, वेदान्त ब्रह्मसूत्र का भी नाम है, ब्रह्मसूत्र उपनिषदों के सन्देह स्थलों की और कठिन शब्दों  की व्याख्या करने वाली पुस्तक उपनिषदों के मूल ग्रन्थ ब्राह्मण ग्रन्थ हैं, जिन ग्रन्थों को तीन भागों में बांटा गया है, सम्पूर्ण ग्रन्थ का नाम ब्राह्मण ग्रन्थ है, उसी के एक भाग को आरण्यक कहते हैं, इसी के एक भाग जिसमें आत्मा-परमात्मा की चर्चा है, उसे उपनिषद् नाम से सम्बोधित किया जाता है। जिन ब्राह्मण ग्रन्थों के भागों को उपनिषद् कहते हैं, उन ब्राह्मण ग्रन्थों को ब्राह्मण इसलिए कहते हैं क्योंकि ब्रह्म वेद को कहते हैं और वेद के व्याख्यान को ब्राह्मण कहते हैं। वेद के व्याख्यान होने के कारण इन्हीं को कहीं वेद भी कह दिया गया है। इस प्रकार गीता का मूल है वेदान्त, वेदान्त का मूल है उपनिषद् ग्रन्थ, उपनिषदों का मूल है ब्राह्मण ग्रन्थ और ब्राह्मण ग्रन्थों के मूल हैं चार वेद संहिता। इतने लम्बे-चौड़े वैदिक साहित्य में गीता का स्थान कहाँ आता है और इसका कितना मह      व है यह विचारशील लोगों के लिए समझना कठिन नहीं है।

हमारे गीता प्रेमी पौराणिक मित्रों का गीता प्रेम आत्मा-परमात्मा का दर्शन को लेकर नहीं है। पौराणिक मित्रों के गीता प्रेम का मुख्य कारण कृष्ण को अवतार और भगवान मानने के कारण है। यदि गीता के एक ही श्लोक को राष्ट्रीय वाक्य बताने के लिए कहा जाये तो वे यदा यदा हिश्लोक को राष्ट्र का आदर्श वाक्य घोषित कर दें। इन मित्रों को गीता के पुरुषार्थ प्रेरणा से उतना प्रेम नहीं है जितना गीता विश्वदर्शन प्रकरण से है वे तो श्री कृष्ण के बाल मुख में विश्वदर्शन से गद्गद् रहते हैं। उन्हें श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्रधारी रूप उतना आकर्षित नहीं करता जितना राधा के साथ बांसुरी बजाने वाला रूप अपनी ओर खींचता है। इन मित्रों का मन्त्र है- राधे-राधे बोल, चले आयेंगे बिहारी। ऐसे प्रेमियों को कर्मण्येव…. अधिकार की पंक्तियाँ कैसे आकर्षित कर सकती हैं। गीता सम्मेलनों में गीता पर माला चढ़ा कर, उसके सामने दीप जला कर अपनी श्रद्धा प्रकाशित करने वालों के मन में गीता को राष्ट्र ग्रन्थ बनाने की इच्छा है तो उसके श्री कृष्ण को भगवान सिद्ध करने वाले प्रकरण से है। गीता की इन प्रक्षिप्त पंक्तियों को निकाल कर गीता को धर्म ग्रन्थ बनाने की चर्चा की जाये तो सम्भवतः उन्हें रुचिकर न लगे। गीता में स्त्रियों को, वैश्यों को अन्त्य=निम्न योनियों में गिनने वाली पंक्तियाँ भी गीता पंक्तियाँ ही लगेंगी या तुलसी की ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी की ग्राह्य व्याख्या करने के प्रयत्न यहाँ भी व्याख्या में लगा लेंगे।

गीता की प्रशंसा और उपयोगिता में कोई बात है तो वह है जिस अर्जुन ने शस्त्र छोड़कर युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। ऐसे अर्जुन को पुनः युद्ध के लिये तैयार कर दिया था। गीता के प्रारम्भ के छः अध्याय और अन्त के छः अध्यायों में उपदेश और दर्शन की बातें कहीं गई हैं, परन्तु मध्य में अवतारवाद और व्यर्थ की बातों की भरमार है। गीता जिस प्रकार वेदान्त की व्याख्या उसके अनुसार गीता का मूल स्वर है बिना किसी भय और पक्षपात के अपने कर्तव्य  का पालन करना। मनुष्य जीवन समाप्ति के भय से, संघर्ष करने से पीछे हट जाता है तथा पक्षपात के भाव से कर्तव्य  की उपेक्षा करता है। श्री कृष्ण ने गीता में- न योत्स्य- मैं नहीं लडूँगा, कहने वाले अर्जुन को- करिष्ये वचनन्तव- जो भी तु कहेगा वह सब करने के लिए तैयार हूँ- यहाँ तक पहुँचा दिया यही और इतनी ही गीता है। गीता के सात सौ श्लोक यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के मात्र दूसरे मन्त्र की व्याख्या है। इस मन्त्र में कहा गया है, मनुष्य को इस संसार में आकर सदा कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करनी चाहिए। इस कर्म करने की शर्त है कर्म करना है परन्तु उसके बन्धन में नहीं पड़ना है, बन्धन का कारण है- फल की इच्छा करना। इच्छा ही बन्धन का मूल है। यदि इच्छा रहित कर्म किया जाय तो बन्धन से मनुष्य बच सकता है इसे ही शास्त्र की भाषा में कर्     ाव्य कहा गया है। कर्       ाव्य करने में भय और पक्षपात नहीं होते, इसे ही गीता की भाषा में अनासक्त कर्म कहा है, आसक्ति का अर्थ है फंसना, न फंसना है अनासिक्त, यही वेद कहता है जिसकी व्याख्या गीता में भी है, अब आपको सोचना है आपका राष्ट्र ग्रन्थ क्या हो? वेद का मन्त्र है-

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।

– धर्मवीर

बोद्ध अष्टांग मार्ग की वैदिक सिद्धांतो से तुलना

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मित्रो बोद्ध ने कोई नया धर्म या मत नही चलाया था उनका धम्म वैदिक धर्म का एक सुधारवादी धम्म था जसी तरह वैदिक धम्म में कई मिलावट , ओर वेद विरुद्ध मत बन गये उन्हें सुधारने का कार्य बुद्ध ने किया लेकिन धीरे धीरे बुद्ध के उपदेशो में भी उनके शिष्यों ने गडबड कर दी ये धम्म भी कई सम्प्रदायों में टूट गया जिनमे अन्धविश्वास ,अश्लीलता ,जातिवाद आदि भर गये …
यहा हम बोद्ध के अष्टांगिक मार्ग की तुलना वेदों के उपदेशो से करेंगे जिससे ये साबित होगा की इस धम्म का मूल वेद ही है जो वेद में है उससे नया किसी मत की पुस्तक में नही है –
बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग धम्म चक्क प्पवत्तन सूक्त में निम्न दिए है –
(१) सम्मादिठ्ठि (सम्यक दृष्टि )- शुद्ध दृष्टि या शुद्ध ज्ञान
(२) सम्मा संकल्प (सम्यक संकल्प )-शुद्ध संकल्प
(३) सम्मा वाचा (सम्यक वाणी )- शुद्ध वाणी
(४) सम्मा कम्मन्त (सम्यक कर्म )- शुभ कर्म
(५) सम्मा आजीविका (सम्यक आजीविका )- शुद्ध जीविका वृति
(६) सम्मा व्यायाम (सम्यक व्यायाम )- शुद्ध उद्योग या परिश्रम
(७) सम्मास्ति (सम्यक स्मृति )- शुद्ध विचार
(८) सम्मा समाधि (सम्यक समाधि )- शुद्ध ध्यान व् मन की शान्ति
इन्हें बुद्ध ने आर्य अष्टांगिक मार्ग नाम दिया था ..
अब प्रत्येक को वेदों से दिखलाते है –
(१) सम्मा दिठ्ठि- ऋग्वेद में भावना से युक्त देखने ओर सुनने का उपदेश है –
भद्र कर्णेभि: श्रृणुयाम देवा भद्र पश्येमाक्षभिर्यजत्रा­:- ऋग्वेद १/८९/८
-मानव देखकर ओर सुनकर ही भद्र या अभद्र भावना वाला बन सकता है |
(२) सम्मा संकल्प – इस पर तो वेदों में कई मन्त्र है लेकिन हम एक ऋचा लिख देते है ताकि समझदार समझ जायेंगे –
तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु -यजु. ३४/१-६
मेरा मन शुभ विचारो .संकल्प वाला हो |
(३) सम्मा वाचा – वेदों में आया है – ” अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत -अर्थव. ३/३०/५ एक दुसरे से मनोहर वचनों का प्रयोग करते हुए मिलो |भूयास मधुसंदृश्य: -अर्थव १/३४/३ -शहद के समान मीठे होए |
(४)सम्मा कममन्त -यजुर्वेद में शुभ कर्म की प्रेरणा देते हुए कहा है – ” परि माग्ने दुश्चरिताद बाधस्व मा सुचरिते भज -यजु ४/२८ है अग्नि ! मुझे दुश्यचरित्र से रोको सुचरित्र या शुभ कर्म के लिए प्रेरित करो |
(५) सम्मा जीविका – अग्ने नय सुपथा राये -यजु ५/३६ ,७/४३ ४०/१६ है ईश्वर हमे धन प्राप्ति हेतु सुपथ मार्ग पर ले चल |
शुद्धो रयि निधारय -ऋग. ८/१५/८ है इंद्र परमएश्वर्य शाली ईश्वर हमे शुभ ऐश्वर्य प्रदान कर | इस तरह शुद्द आजीविका का उलेख वेदों में मिलता है |
(६) सम्मा व्यायाम – ऋग्वेद में श्रम के विषय में कहा है – ” भूम्या अंत प्रयेके चरन्ति रथस्य धूर्षु युक्तासो अस्तु | श्रमस्य दाय विभ्जन्त्येभ्यो यदा यमो भवति हमर्ये हित:||-ऋग्वेद १०/११४ /१० इसका भावार्थ है की परिश्रमी व्यक्ति को यम (ईश्वर ) श्रम दाय अवश्य देते है अर्थात पुरुस्कृत करते है |
(७) सम्मा सति – शुद्ध विचारों या स्मृति का नेतिक जीवन में बहुत महत्व है | वेदों में पवित्रता का उपदेश अनेक जगह हुआ है – ” य: पोता स पुनातु न: -ऋग्वेद ९/६७/२२ -जो पवित्र करने वाले है वे हमे पवित्र करे ..”मा पुनीहि: विश्वत: ” (ऋग ९/६७/२५ ) मुझे सभी ओर से पवित्र करे |
(८) सम्मा समाधि – समाधिस्थ योगीजन के विषय में वेद कहता है – तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवास: समिन्धते| विष्णोर्यत्परम पदम् ||- ऋग १/२२/२१ – जागरूक योगी जन व्यापक परमात्मा को स्वात्मा में पाते है |
उपर हमने बोद्ध मार्गो की वैदिक उपदेशो से तुलना की इन सभी से सिद्ध होता है कि वेद सभी मतो का मूल है ओर बुद्ध ने कोई नये उपदेश नही दिए वो वेद में पहले से ही थे |