नेपाल त्रासदी और हमारा कर्तव्य

दुर्घटनाएँ संसार में घटती रहती हैं। कभी ये मनुष्यकृत होती हैं तो कभी प्राकृतिक रूप में आती हैं। पिछले दिनों भारत में २७ मार्च को दोपहर के समय भूकम्प के झटकों का अनुभव किया गया। इसका केन्द्र नेपाल में था, अतः इसका प्रभाव नेपाल में अधिक हुआ। एक तो नेपाल में केन्द्र था, दूसरा भूकम्प की तीव्रता का नाप ७.८ था, जो बहुत अधिक था, इसी अनुपात से दुर्घटना का प्रभाव भी उतना ही तीव्र का हुआ। जहाँ हजारों मकान ध्वस्त हो गये, वहाँ अभी तक दस हजार से अधिक लोगों के मरने का अनुमान है। हताहत होने वालों की संख्या कई गुना अधिक है।

इस समय दुर्घटना तो प्राकृतिक थी, परन्तु मनुष्यों द्वारा की जाने वाली क्रिया भी आज चर्चा का विषय है। इस दुर्घटना को जिन्होंने भोगा, अनुभव किया, उनका दुःख अवर्णनीय है। उसे तो वे ही अनुभव कर सकते हैं परन्तु समाज में दूसरे लोग जो इस दुःख का अनुभव कर सकते हैं, वे ही इस कार्य में सहायता के लिये आगे बढ़ते हैं। यह प्रसन्नता और गर्व की बात है कि प्रधानमन्त्री मोदी और उनकी सरकार ने इस मानवीय संवेदना का परिचय दिया, उससे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी है। इससे संवेदनशीलता, तत्परता एवं बुद्धिमत्ता का परिचय मिलता है। हमारे ऋषियों ने मनुष्य जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान किया है। समस्या के समाधान को धर्म कहा गया है। जहाँ कहीं समस्या है, वहाँ उसके समाधान के रूप में धर्म उपस्थित होता है। हमारी संस्कृति में सेवा कार्य को धर्म कहा गया है। इससे पता लगता है कि सेवा एक अनिवार्य कार्य है और समस्या का समाधान भी।

इस बात को हम ऐसे समझ सकते हैं। जब मनुष्य समर्थ होता है, युवा होता है, सम्पन्न होता है तो वह समझता है कि मुझे किसी से क्या लेना है, मैं अपने पुरुषार्थ से जो अर्थोपार्जन करता हूँ, वह मेरा है, मैं उसका अपने लिये उपयोग करता हूँ। जैसे मैं अपने उपार्जित धन से अपना काम करता हूँ, उसी प्रकार सबको अपने धन से अपना काम चलाना चाहिए। मैं किसी के लिये कैसे उत्तरदायी हूँ? यह एक बुद्धिमान् व्यक्ति का विचार नहीं हो सकता। मनुष्य जीवन में सदा समर्थ और सम्पन्न नहीं रहता। पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी ने अपनी आत्मकथा में एक प्रसंग लिखा है कि – मैं पचहत्तर वर्ष की आयु में रोगी हो गया। रोग का आक्रमण लम्बा रहा, शरीर अत्यन्त निर्बल हो गया, परिणामस्वरूप खाना-पीना भी मेरे लिए स्वयं करना सम्भव नहीं रहा। जब मेरे परिवार के लोगों ने मुझे चम्मच से खिलाया, तब मुझे लगा कि केवल बच्चों को ही चम्मच से नहीं खिलाया जाता, बुढ़ापे में भी चम्मच से खिलाना पड़ता है। मनुष्य स्वस्थ, समर्थ एवं सम्पन्न होता है तब उसे किसी की आवश्यकता नहीं लगती परन्तु प्रत्येक मनुष्य के जीवन में शैशवावस्था, रुग्णावस्था, रोग और वृद्धावस्था आती है। इन तीनों के अतिरिक्त दुर्घटना कब, किसके जीवन में आये? नहीं कहा जा सकता। समाज में इन परिस्थितियों में मनुष्य को दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है। शैशव में मनुष्य के बालक का उत्पन्न होने के पश्चात् अकेले जीवित रहना असम्भव है। उसको बचाने के लिए माता-पिता, पालक की आवश्यकता होती है।

हम बचपन से किन-किन की सहायता से जीवित बचे हैं, इसकी हम कल्पना नहीं कर सकते। खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-बोलना, वस्त्र पहनना आदि समस्त जीवन व्यापार दूसरों के आधीन ही होता है। दूसरों की सहायता के बिना हमारा जीवित रहना सम्भव नहीं है। इस प्रकार वृद्धावस्था में हम कितने भी सम्पन्न हों, अशक्त होने की दशा में हमें दूसरों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। जब कभी रोग, शोक, भय आदि से आक्रान्त हो जाते हैं, तब हमारे जीवन में दुर्घटना कब, कहाँ घटित हो जाये, यह निश्चित नहीं। आज समुद्र में तूफान आते हैं, आँधियाँ आती हैं, बाढ़ आती है, सूखा पड़ता है, भूकम्प आता है, वायुयान, रेल, बस आदि की दुर्घटनाएँ होती हैं, आग लग जाती है। ये सब हमारे सामर्थ्य को एक क्षण में व्यर्थ कर देते हैं। हमारी संपत्ति हमारे लिए निरर्थक हो जाती है। हमारी संपत्ति से एक घूँट पानी हम नहीं प्राप्त कर सकते, जेब और बैंक में रखा हुआ धन हमारी असहाय स्थिति को दूर करने का सामर्थ्य खो देता है। इस परिस्थिति में हमारे बचने का क्या उपाय शेष रहता है- वह उपाय है दूसरों के द्वारा दी जाने वाली सहायता, जिसे हम सेवा के रूप में जानते हैं।

सेवा की अनिवार्यता तब समझ में आती है, जब व्यक्ति विवश होता है। मनुष्य किसी स्थान या व्यक्ति से परिचित न हो, भाषा भी न आती हो और जेब में पैसे भी न हों, तब व्यक्ति कैसे जीवित रहेगा? एक विकल्प तो यह है कि ऐसा व्यक्ति मर जाये तो हमारा क्या दोष है? इसके उत्तर में विचार करना चाहिए कि क्या यह परिस्थिति किसी के साथ ही आती है या यह परिस्थिति सबके साथ आ सकती है? तो इसका उत्तर है, यह परिस्थिति किसी के भी जीवन में कभी भी आ सकती है। तो इसका उपाय क्या है? इसका उपाय यह है कि जो भी व्यक्ति वहाँ उपस्थित है, वही हमारी सहायता करे, परन्तु कोई व्यक्ति आपकी सहायता क्यों करे? यहीं उत्तर है कि सेवा करना धर्म है, अतः उस व्यक्ति की सहायता की जानी चाहिए। सामान्य रूप में सभी व्यक्ति एक दूसरे की सहायता या आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। यह पूर्ति का प्रकार दो प्रकार का हो सकता है। हम रेल में यात्रा कर रहे हैं। हमें प्यास लगती है, हम जेब से पैसे निकालते हैं, पानी वाले को देते हैं, वह हमें पानी दे देता है। उसने भी हमारी आवश्यकता की पूर्ति की है। इस कार्य के बदल में कोई कह सकता है कि मैं सेवा कर रहा हूँ, परन्तु यह सेवा नहीं है। सेवा में धन होने की अनिवार्यता नहीं है।

जब हम किसी कार्य को धर्म समझकर करते हैं तो उसमें व्यक्ति की पात्रता, उसकी आवश्यकता पर निर्भर करती है, जबकि व्यवसाय में पात्रता उसकी आवश्यकता पर नहीं, अपितु उसकी आर्थिक सामर्थ्य पर टिकी है। सेवा करने वाला व्यक्ति केवल आवश्यकता को, उसकी पीड़ा को देखता है, जबकि व्यवसाय करने वाला व्यक्ति उसकी आर्थिक क्षमता को देखता है, उसका उसकी पीड़ा या आवश्यकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता। सेवा का उत्कृष्ट स्वरूप होता है जब हम प्राणि मात्र को उसकी पीड़ा से पहचानते हैं, न कि जाति, लिंग, आकृति या हानि-लाभ से। भगवान् बुद्ध ने अपने शिष्यों को शिक्षा देकर प्रचार के लिए भेजा। एक शिष्य ने एक शराबी को देखकर उसे उपदेश देने का प्रयास किया, शराबी ने बोतल से उसका सिर तोड़ दिया। शिष्य ने गुरु जी के पास जाकर अपना हाल सुनाया, गुरु जी ने सुन लिया। उस समय कुछ न कहा फिर एक बार उसी शिष्य को लेकर उसी गाँव में गये, जहाँ वही शराबी रोग से दुःखी अकेला पड़ा था। भगवान् बुद्ध उसे उपेदश नहीं दिया, उसकी सेवा की, उसे साफ किया, उसको औषध दी, उसको भोजन-पानी दिया, वह शराबी भगवान् बुद्ध का शिष्य बन गया।

जिस क्षण हम सेवा के बदले में कुछ चाहते हैं, तो वह सौदा हो जाता है। नेपाल के प्रसंग में यह घटना याद करने योग्य है। चर्च ने भूकम्प के समय बाइबिल की एक लाख प्रतियाँ नेपाल में भेजी, यह किसी भी प्रकार से सेवा की श्रेणी में नहीं आता। यह तो मौके का फायदा उठाना है, यह व्यापार है, सौदा है। चर्च कहीं भी सेवा नहीं करता, इस प्रसंग में एक घटना का उल्लेख करना उचित होगा। ईसाई प्रचारक फादर लेसर अब स्वर्गीय हो गये, उन्होंने अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए कहा था- हमने भारत में चार सौ वर्षों से सेवा का कार्य किया, परन्तु भारतीय समाज अभी तक हम पर विश्वास नहीं करता। इसके उत्तर में मैंने निवेदन किया कि फादर, ईसाई चर्च कभी भी सेवा कार्य नहीं करता, वह सदा सौदा करता है, वह बदले में ईमान माँगता है। उसके हर सेवा कार्य के पीछे ईसाई बनने की शर्त रहती है। जब कभी हम अपने कार्य के बदले में दूसरे से कुछ चाहते हैं तो वह सेवा न होकर सौदा, व्यापार हो जाता है। हमारे ऋषियों ने सेवा को धर्म कहा है। धर्म स्थान एवं व्यक्ति की योग्यता नहीं देखता, उसकी पात्रता केवल उसकी पीड़ा है और उसका निराकरण का प्रयास सेवा है।

संसार दुःखमय है, इसमें जन्म के साथ ही दुःखों का प्रारम्भ हो जाता है। हमारे मित्र, सहयोगी, सम्बन्धी मिलकर एक-दूसरे के दुःख को दूर करने का प्रयास करते हैं, परन्तु जिनको जीवन में ये साधन नहीं मिले, उनका भी उपाय होना चाहिए, यह उनका अधिकार है। जब हम सेवा करते हैं, तब हम उस पर उपकार नहीं कर रहे होते। हमें उपकार का अवसर मिला है, हम आज पीड़ित नहीं, सेवक हैं। भारतीय संस्कृति में कोई भी कार्य निष्फल नहीं होता, सेवा कार्य भी नहीं। जैसे व्यापार का लाभ तत्काल होता है तो हम कर्म के लिए प्रेरित होते हैं, परन्तु हम भूल जाते हैं कि यदि व्यापार में किया गया कर्म निष्फल नहीं गया तो धर्म में किया गया कर्म कैसे निष्फल हो सकता है? धर्म कार्य में भी कार्य तो हुआ है, हमने इच्छा नहीं की कि हमें कोई पैसा मिले, कोई लाभ मिले, इस परिस्थिति में हमारे दो कार्य होते हैं और उसके दो फल मिलते हैं। एक फल हमारी बदले की इच्छा न होने से सन्तोष की प्राप्ति और अनासक्ति का सुख मिलता है तथा जो हमारे दूसरे की सहायता का कार्य किया है, उसका लाभ हमें तब सहज ही प्राप्त होता है, जब कभी हम किसी संकट या विपत्ति में फँस जाते हैं और कहीं से अज्ञात हाथ आकर हमारी रक्षा करते हैं, हमें बचा लेते हैं। व्यापार के फल को हम जानते हैं कि वह कब मिलेगा, कहाँ मिलेगा, कितना मिलेगा? परन्तु धर्म का फल कहाँ किसको कब मिलेगा हमें पता नहीं चलता। सबको धार्मिक होने की इसीलिये आवश्यकता है कि सभी धार्मिक होंगे, सेवा भावी होंगे तो कोई भी कहीं भी कष्ट में क्यों न हो, जो व्यक्ति जहाँ उपस्थित है, उसके मन में सेवा भाव होगा वह तत्काल सेवा कार्य में जुट जायेगा।

हमें स्मरण रखना चाहिए कि जब हम दुःख में होते हैं, तब परमेश्वर से सहायता की याचना करते हैं। हमें स्मरण रखना होगा कि हर प्राणी उस परमेश्वर की ही सन्तान है, किसी पीड़ित प्राणी की सेवा करना परमेश्वर को प्रसन्न करने का उपाय है। आज कोई व्यक्ति दुःखी को लूटता है, हिंसा करता है, उसकी उपेक्षा करता है तो वह पापी बन जाता है, लोग अपनी पापवृत्ति के कारण बेहोश, मरे, पीड़ित व्यक्ति की सम्पत्ति लूटते हैं, चुराते हैं तो वे किस प्रकार अपने लिए दूसरे की सहायता मिलने की अपेक्षा कर सकते हैं? बहुत सारे लोग इन आपदाओं के लिए परमेश्वर को उत्तरदायी मानते हैं। परमेश्वर उत्तरदायी इसलिये नहीं है कि संसार उसकी व्यवस्था में चल रहा है। जहाँ भी, जब भी व्यवस्था में व्यतिक्रम होता है तो संकट आता है, बहुत बार यह अव्यवस्था के कारण का हमें पता चलता है और बहुत बार हमें पता नहीं चलता। अधिकांश रूप में हम अपनी आवश्यकता और स्वार्थ की पूर्ति के लिए नियमों को तोड़ते हैं, व्यवस्था को भंग करते हैं।

हम वृक्षों को तोड़कर, जलधाराओं को मोड़कर पर्यावरण के सन्तुलन को बिगाड़ देते हैं। स्वार्थ के लिये बड़ी मात्रा में हिंसा करते हैं। जहाँ जड़ पदार्थों के उचित क्रम और व्यवस्था को बिगाड़ना हिंसा है, वहीं प्राणियों का निरन्तर वध करना हिंसा है। उसका हमारे जीवन और पर्यावरण पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। नेपाल में धर्म के नाम पर जितनी जीव हत्या होती है, क्या उसके दण्ड से आप बच सकते हैं? आप पीड़ा नहीं चाहते, आप पीड़ा देने वाले को अपराधी मानते हैं, उसे दण्डित करना चहाते हैं तो क्या निरीह पशुओं को अकारण धर्म के नाम से क्रूरता से संहार करके आप सुरक्षित रह सकते हैं? आज वैज्ञानिकों ने प्रमाणित किया कि प्राणियों की निरन्तर बढ़ती हुई हिंसा वातावरण में भारी उथल-पुथल का कारण है। इसी कारण भूकम्प और प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं। पशु प्राणी सृष्टि-संरचना में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। उसके न रहने पर या क्षतिग्रस्त होने पर समस्त पर्यावरण प्रभावित होता है। हिंसा से मनुष्य में तमोगुण, बढ़कर क्रोध, तनाव, भय, आतंक आदि उत्पन्न करता है। इससे मनुष्य का मन-मस्तिष्क विकृत होकर उसे रोगी, अस्थिरचित्त एवं दुर्बल बना देती है।

केदारनाथ, नेपाल आदि की घटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करके उनके कारणों का हमें पता लगाना चाहिए। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि के पालन से आत्मा में शान्ति, मन में स्थिरता व बुद्धि में सतोगुण बढ़ता है। हिंसा से स्वार्थ एवं परहानि की प्रवृत्ति बढ़ती है। नेपाल में पशुपतिनाथ के नाम पर हम भैसों-बकरों की बलि चढ़ा कर शान्ति से रहना चाहेंगे, यह सम्भव नहीं होगा। जीवन में से किसी भी प्रकार की हिंसा को दूर किये बिना मनुष्य का सुखी होना सम्भव नहीं है। परोपकार सेवा ही पुण्य है और हिंसा तथा स्वार्थ के लिए परहानि करना ही पाप है। प्रकृति की प्राणियों की हिंसा जबतक बढ़ती रहेगी, समाज का सन्ताप, कष्ट, आपत्तियां भी बढ़ती रहेंगी, अतः कहा गया है- पुण्य से सुख मिलता है और पाप से दुःख परोपकार पुण्य है और परपीड़न पाप है-

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।

– धर्मवीर

 

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