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पादरी स्काट के बारे मेंःप्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

पादरी स्काट के बारे मेंः

पादरी स्काट की 1868 में ऋषि से प्रथम भेंट की जीवनियों में चर्चा तथा पश्चिम के स्रोतों में उसके वर्णन पर परोपकारी में कुछ निवेदन करते हुए भारतीय जी के कथन को मैंने सत्य ही बताया, परन्तु जो स्रोत हमें मिला है, उसमें और भारतीय जी के वृत्तान्त व पुस्तक के नाम में भाषा भेद स्पष्ट है। भारतीय जी की पुस्तक भक्त प्रशंसक व सत्संग और परोपकारी में नये दस्तावेज के उद्धरण का मिलान कीजिये। नाम में शद भेद स्पष्ट है । वैसे झगड़ा करते जाओ। क्या घिसता है? इससे इतिहास प्रदूषण का कलङ्क तो नहीं मिटेगा। मैंने जीवन चरित्रों में ककौड़ा की चर्चा में पादरी के नाम का उल्लेख नहीं, यह लिखा है। जीवन चरित्र के बाहर अब किसी पुस्तक पोथी में भारतीय जी ने यह चर्चा की है तो मैं सर्वज्ञ नहीं। मुझे नहीं पता चला । यह मेरा दुर्भाग्य है। ऋषि जीवन का उनका सन् 1983 का वृत्तान्त देख लो। चाँदापुर में पादरी स्काट ने ऋषि जी की इंग्लैण्ड के एक व्यभिचारी को उपमा दी थी। इसको तो आप पचा ही गये या एकदम भूल गये?

माता भगवती का इतिहास में स्थानः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

माता भगवती का इतिहास में स्थानः किसी ने यह रिसर्च आर्यसमाज पर थोप दी कि ‘‘होशियारपुर की लड़की भगवती……’’। पता लगने पर प्रश्नकर्त्ता का उत्तर देते हुए इस विनीत ने परोपकारी में लिखा कि माता भगवती लड़की नहीं, बड़ी आयु की थी। उसे सब माई भगवती या माता भगवती कहा व लिखा करते थे। मेरा लेख छपते ही मेरे कृपालु नई-नई रिसर्च व नये-नये प्रश्नों के साथ इस सेवक व परोपकारी को लताड़ने लग गये। कुछ पत्रों के कृपालु सपादकों ने मेरा उपहास-सा उड़ाने वाले लेख छापे। मैं ऐसे पत्रों का आभारी हूँ। सपादकों को धन्यवाद!

पूज्य पं. हीरानन्द जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, नारी शिक्षण के एक जनक दीवान बद्रीदास जी, भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनी जी, महाशय चिरञ्जीलाल जी प्रेम के मुख से माता भगवती के बारे में जो कुछ सुना, वही तथ्य रखे। दीवान जी, मेहता जी व महाशय जी माता भगवती के क्षेत्र के प्रमुख आर्य कर्णधार रहे। मैंने हरियाणा के समीप जालंधर में शिक्षा पाई। जहाँ इतिहास के बारे कोई समस्या हो, कुछ पूछना हो तो देश भर से नित्य पाँच-सात प्रश्न मुझसे पूछे जाते हैं। बड़े खेद की बात है कि हठ व दुराग्रह से अकारण मेरे प्रत्येक कथन को जिहादी जोश से चुनौती दी गई। चलो! इनका धन्यवाद! ‘इतिहास प्रदूषण’ पुस्तक में यदि प्रदूषण के सप्रमाण दिये गये तथ्यों को कोई झुठला पाता तो मैं मान लेता।

विषय से हटकर वितण्डा किया जा रहा है। माता भगवती लड़की नहीं थी। बड़ी आयु की बाल विधवा थी। विषय तो यह था। एक भद्रपुरुष ने बाल विधवा होने को विवाद का मुद्दा बना लिया। संक्षेप से कुछ जानकारी मूल स्रोतों के प्रमाण से देता हूँ। उन स्रोतों को इस टोली ने देखा, न पढ़ा और न इनकी वहाँ पहुँच है-

  1. माता भगवती का चित्र मैं दिखा सकता हूँ। वह एक बड़ी आयु की देवी स्पष्ट दिख रही है। लड़की नहीं।
  2. वह तब 38-39 वर्ष की थी, जब उसने ऋषि-दर्शन किये। तब 38 वर्ष की स्त्रियाँ दादी बन जाती थीं। श्री इन्द्रजीत जी ने अपने लेख में माई जी के जन्म का वर्ष दे दिया है।
  3. मेरे पास माई जी के निधन के समय लिखा गया महात्मा मुंशीराम जी का लेख है। इससे बड़ा क्या प्रमाण किसी के पास है?
  4. महात्मा जी ने पत्र-व्यवहार में माई जी के लिए ‘श्रीमती’ शद का प्रयोग किया है। पुराने पत्रों के समाचारों में कई बार उसके लिए श्रीमती शद का प्रयोग हुआ है। जो भी चाहे मेरे पास आकर देख ले।
  5. माई जी के निधन पर पंजाब सभा ने ‘माई भगवती विधवा सहायक निधि’ की स्थापना की। देश भर के आर्यों ने उसमें आहुति दी। इससे बड़ा उसके बाल विधवा होने का क्या प्रमाण हो सकता है। उसके पीहर की, भाई की, माता की, जन्म की, कुल की, चर्चा की जाती है, पर उसकी सन्तान की, सास, ससुर व पति की, ससुराल के नगर, ग्राम की कोई चर्चा? ‘श्रीमती’ शद के प्रयोग को कोई झुठला कर दिखाये? ‘माता’ शद का प्रयोग भाई जी के प्राप्त एकमेव साक्षात्कार की दूसरी पंक्ति में स्पष्ट मिलता है। यहाी इन्हें नहीं दिखाई देता। ‘लड़की’ मानने की रिसर्च तो छूटी, अब बाल विधवा नहीं थी, इस रट पर इनका महामण्डल आगे क्या कहता है, पता नहीं।
  6. महात्मा मुंशीराम जी के सपादकीय (श्रद्धाञ्जलि) के प्रथम पैरा में लिखा है कि माई जी ने अपने पीहर में-माता-पिता के घर हरियाणा में प्राण त्यागे। बाल विधवा नहीं थी, तो पतिकुल में अन्तिम श्वास क्यों न लिया? माता भगवती के भाई राय चूनीलाल की चर्चा तो पत्रों में मिलती है, पर पति कुल की कोई चर्चा नहीं। अब पाठक माई जी पर लिखित मेरी पुस्तिका (उनके जीवन चरित्र) की प्रतीक्षा करें। मुझे और कुछ नहीं कहना। फिर निवेदन करता हूँ कि माई जी के जीवन काल में मेहता जैमिनि, दीवान बद्रीदास जी, ला. सलामतराय की दो आबा, पंजाब में घर-घर में धूम मची रहती थी। मैंने इन सबके जी भरकर दर्शन किये। मेरे अतिरिक्त और कोई पंजाब में इनको जानने वाला नहीं। पं. ओम्प्रकाश जी वर्मा ने भी इन सबको निकट से देखा।

परोपकारी महाशय रूपसिंहः- राजेन्द्र जिज्ञासु

– राजेन्द्र जिज्ञासु

परोपकारी महाशय रूपसिंहः आर्य समाज को  दिशाहीन करने वालों ने निजी स्वार्थों व हीन भावना के कारण गोरी चमड़ी वालों, परकीय मतों व कुछ अंग्रेजी पठित अंग्रेज भक्त भारतीय सुधारकों की ऋषि भक्ति पर आवश्यकता से कहीं अधिक बल देकर अनेक सच्चे व समर्पित ऋषि भक्तों की घोर उपेक्षा करके इतिहास ही विकृत कर दिया। ऋषि के पत्र-व्यवहार के नये संस्करण से उनक ो मुखरित करना अब सरल हो गया है। ऐसे परोपकारी ऋषि भक्तों में से एक थे महाशय रूपसिंह जी। आप कहाँ के थे? यह बताना अति कठिन कार्य है। सभवतः कोहाट (सीमा प्रान्त) के निवासी थे। वैसे क्लर्क होने से विभिन्न नगरों में रहे। गुजराँवाला व लाहौर में भी रहे।

प्रतीत होता है, घर से सपन्न थे। बहुत दानी थे। ऋषि जी को परोपकार के कार्यों के लिए उस युग में पचास-पचास, साठ-साठ रुपये भेजते रहे। महर्षि को भेजे गये आपके प्रश्न व उनके उत्तर भी महत्त्वपूर्ण हैं, यथा ऋषि जी ने इनको लिखे पत्र में मांसाहार को बहुत बुरा लिखा है। आप राजस्थान यात्रा के समय (मेवाड़ में) ऋषि जी से मिलने आये थे। जिन्हें ऋषि ने बहुत पत्र लिखे और जो अन्त तक आर्य रहे, उनमें से एक आप भी थे। इस इतिहास पुरुष की ऐतिहासिक समाज सेवा पर गत साठ वर्षों में किसी ने क्या लिखा? सिख परिवार में जन्मे इस ऋषि भक्त ने तथा श्री महाशय कृष्ण जी ने युवा भगवद्दत्त को ऋषि के पत्र-व्यवहार के संग्रह की लगन लगाई। दोनों ने तरुण भगवद्दत्त को महर्षि के कुछ पत्र सौंपकर ऋषि के पत्रों की खोज व संग्रह को आन्दोलन का रूप दिलवाने का गौरव प्राप्त किया।

पं. भगवद्दत्त शोध शतादी वर्ष 2016 के ऋषि मेले तक चलेगा। इस दिशा में अभी बहुत कुछ करना शेष है। श्री डॉ. रामप्रकाश जी का भी इस विषय का छात्र जीवन से ही गभीर अध्ययन है। मेरी इच्छा है कि डॉ. धर्मवीर जी, आचार्य विरजानन्द जी, डॉ. रामप्रकाश जी, श्री सत्येन्द्रसिंह आर्य जी और डॉ. वेदपाल जी भी ऋषि के पत्रों पर दो-दो तीन-तीन लेख लिखें, तभी पं. भगवद्दत्त जी के तर्पण का यश हम प्राप्त कर सकेंगे।

यह सेवक तो अपने अल्पमत के अनुसार इस कार्य में लगा ही है। पण्डित जी से बहुत कुछ सीखा है। उनका प्यार पाया। कुछ तो ऋण चुकता करना चाहिये।

मान्य ओम्मुनि जी ने पत्र-व्यवहार के प्रकाशन से एक कार्य आरभ कर दिया है- ऋषि के सपर्क में आये आर्य पुरुषों के परिवारों की खोज। मुझे भी इस काम में लगा दिया है। पं. भगवद्दत्त जी स्वयं भी एक ऐसे परिवार से थे। इस समय राजस्थान में ऐसे कई परिवारों का पता हमने कर लिया है। कोठारी परिवार, सारड़ा परिवार तथा शाहपुरा, यावर व जोधपुर आदि के ऐसे परिवारों की सूची शीघ्र प्रकाशित हो जायेगी। मेरठ क्षेत्र की सूची बनाने का कार्य डॉ. वेदपाल जी को हाथ में लेना होगा।

एक अलय स्रोतः पश्चिमी उत्तरप्रदेश के राजपूतों ने सरकार को एक स्मरण-पत्र दिया था। उस पर कई प्रतिष्ठित ठाकुरों के हस्ताक्षर हैं। वह चार, छह दिन में मुझे प्राप्त हो जायेगा। ठाकुर मुकन्द सिंह, मुन्नासिंह, भोपालसिंह के हस्ताक्षर तो हैं ही। पढ़ने से पता चलेगा कि शेष हस्ताक्षर कर्त्ता भी क्या ऋषि भक्त ही थे? इस स्मरण पत्र के विषय पर भी फिर ही लिखेंगे। इससे आर्यसमाज के इतिहास पर कुछ नया प्रकाश अवश्य पड़ेगा। दस्तावेज प्राप्त होने दो। आवश्यकता पड़ेगी तो श्री सत्येन्द्रसिंह जी, श्री यशपाल जी और ठाकुर विक्रमसिंह जी को साथ लेकर अलीगढ़ व छलेसर की यात्रा भी करुँगा।

पं. सुधाकर जी चतुर्वेदीः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

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पं. सुधाकर जी चतुर्वेदीः-कर्नाटक के आर्य विद्वान् पं. सुधाकर जी इस समय आर्य समाज ही नहीं देश के सबसे वयोवृद्ध वैदिक विद्वान् हैं। आप इस समय 116-118 वर्ष के होंगे। आप बाल ब्रह्मचारी हैं। कर्नाटक की राजधानी बैंगलूर में रहते हैं। चारों वेदों का अंग्रेजी व कन्नड़ दो भाषाओं में अनुवाद किया है। कन्नड़ में गद्य-पद्य दोनों में लिखा है। अंग्रेजी, हिन्दी में भी लिखते चले  आ रहे हैं। इस विकलाङ्ग कृषकाय मेधावी आर्य विद्वान् ने स्वाधीनता संग्राम मेंाी भाग लिया। पेंशन लेना स्वीकार नहीं किया। सरदार पटेल भी स्वराज्य संग्राम में घायल होने पर अस्पताल में आपका पता करने पहुँचे थे।

आप श्रीमद्दयानन्द उपदेशक विद्यालय लाहौर तथा गुरुकुल काँगड़ी में भी कुछ वर्ष तक रहे। स्वामी श्रद्धानन्द जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, स्वामी वेदानन्द जी आदि महापुरुषों के चरणों में बैठने का, कुछ पाने का आपको गौरव प्राप्त है। सत्यार्थप्रकाश का कन्नड़ भाषा में अनुवाद किया। बहुत कुछ लिखा है। एक बालक को गोद लिया। आर्यमित्र नाम का वह मेधावी बालक कर्नाटक राज्य में उच्च सरकारी पदों पर आसीन रहा। वह कर्नाटक आर्य प्रतिनिधि सभा का भी प्रधान रहा। अनेक बार आपका अभिनन्दन हो चुका है। आर्य समाज श्रद्धानन्द भवन बैंगलूर की हीरक जयन्ती पर आपका अविस्मरणीय अभिनन्दन इसी लेखक की अध्यक्षता में हुआ था। लाहौर में उपदेशक विद्यालय में रहते हुए गुण्डों के  आक्रमण में आप भी पं. नरेन्द्र जी के साथ घायल हुए थे। श्रवन शक्ति अब नहीं रही, तथापि धर्म प्रचार व साहित्य सृजन में सक्रिय हैं।

ऋषि के भक्त : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

ठाकुर रघुनाथ सिंह जयपुरः महर्षि जी के पत्र-व्यवहार में वर्णित कुछ प्रेरक प्रसंगों तथा निष्ठावान् ऋषि भक्तों को इतिहास की सुरक्षा की दृष्टि से वर्णित करना हमारे लिए अत्यावश्यक है। ऐसा न करने से पर्याप्त हानि हो चुकी है। ऋषि-जीवन पर लिखी गई नई-नई पुस्तकों से ऋषि के प्रिय भक्त व दीवाने तो बाहर कर दिये गये और बाहर वालों को बढ़ा-चढ़ा कर इनमें भर दिया गया। ऋषि के पत्र-व्यवहार के दूसरे भाग में पृष्ठ 363-364 पर जयपुर की एक घटना मिलती हैं। जयपुर के महाराजा को मूर्तिपूजकों ने महर्षि के भक्तों व शिष्यों को दण्डित करते हुए राज्य से निष्कासित करने का अनुरोध किया। आर्यों का भद्र (मुण्डन) करवाकर राज्य से बाहर करने का सुझाव दिया गया। महाराजा ने ठाकुर गोविन्दसिंह तथा ठाकुर रघुनाथसिंह को बुलवाकर पूछा- यह क्या बात है?

ठाकुर रघुनाथ सिंह जी ने कहा- आप निस्सन्देह इन लोगों का भद्र करवाकर इन्हें राज्य से निकाल दें, परन्तु इस सूची में सबसे ऊपर मेरा नाम होना चाहिये। कारण? मैं स्वामी दयानन्द का इस राज्य में पहला शिष्य हूँ। महाराजा पर इनकी सत्यवादिता, धर्मभाव व दृढ़ता का अद्भुत प्रभाव पड़ा। राजस्थान में ठाकुर रणजीत सिंह पहले ऋषि भक्त हैं, जिन्हें ऋषि मिशन के लिए अग्नि-परीक्षा देने का गौरव प्राप्त है। इस घटना को मुारित करना हमारा कर्त्तव्य है। कवियों को इस शूरवीर पर गीत लिखने चाहिये। वक्ता, उपदेशक, लेखक ठाकुर रघुनाथ को अपने व्यायानों व लेखों को समुचित महत्त्व देंगे तो जन-जन को प्रेरणा मिलेगी।

ठाकुर मुन्ना सिंहः महर्षि के शिष्यों भक्तों की रमाबाई, प्रतापसिंह व मैक्समूलर के दीवानों ने ऐसी उपेक्षा करवा दी कि ठाकुर मुन्नासिंह आदि प्यारे ऋषि भक्तों का नाम तक आर्यसमाजी नहीं जानते। ऋषि के कई पत्रों में छलेसर के ठाकुर मुन्नासिंह जी की चर्चा है। महर्षि ने अपने साहित्य के प्रसार के लिए ठाकुर मुकन्दसिंह, मुन्नासिंह व भोपालसिंह जी का मुखत्यारे आम नियत किया। इनसे बड़ा ऋषि का प्यारा कौन होगा?

ऋषि के जीवन काल में उनके कुल में टंकारा में कई एक का निधन हुआ होगा। ऋषि ने किसी की मृत्यु पर शोकाकुल होकर कभी कुछ लिखा व कहा? केवल एक अपवाद मेरी दृष्टि में आया है। महर्षि ने आर्य पुरुष श्री मुन्नासिंह के निधन को आर्य जाति की क्षति मानकर संवेदना प्रकट की थी। श्री स्वामी जी का एक पत्र इसका प्रमाण है।

वह कौन स्वामी आया? प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

वह कौन स्वामी आया? :- हरियाणा के पुराने भजनीक पं. मंगलदेव का एक लबा गीत कभी हरियाणा के गाँव-गाँव में गूंजता थाः- ‘‘वह कौन स्वामी आया?’’

सारे काशी में यह रुक्का (शोर) पड़ गया कि यह कौन स्वामी आ गया? ऋषि के प्रादुर्भाव से काशी हिल गई। मैं हरियाणा सभा के कार्यालय यह पूरा गीत लेने पहुँचा। मन्त्री श्री रामफल जी की कृपा से सभा के कार्यकर्ता ने पूरा भजन दे दिया। यह किस लिये? इंग्लैण्ड की जिस पत्रिका का हमने ऊपर अवतरण दिया है, उसमें ऋषि की चर्चा करते हुए सन् 1871 में कुछ इसी भाव के वाक्य पढ़कर इस गीत का ध्यान आ गया। यह आर्य समाज स्थापना से चार वर्ष पहले का लेख है। सन् 1869 के काशी शास्त्रार्थ में पौराणिक आज पर्यन्त ऋषि जी को पराजित करने की डींग मारते चले आ रहे हैं। इंग्लैण्ड से दूर बैठे गोरी जाति के लोगों में काशी नगरी के शास्त्रार्थ में महर्षि की दिग्विजय की धूम मच गई। हमारे हरियाणा के आर्य कवि सदृश एक बड़े पादरी ने काशी में ऋषि के प्रादुर्भाव पर इससे भी जोरदार शब्दों  में यह कहा व लिखा The entire city was excited and convulsed   अर्थात् सारी काशी हिल गई। नगर भर में उत्तेजना फैल गई- ‘‘यह कौन स्वामी आया?’’ रुक्का (शोर) सारे यूरोप में पड़ गया। लिखा है, The reputation of the cherished idols began to suffer, and the temples emoluments sustained a serious deputation in the value प्रतिष्ठित प्रसिद्ध मूर्तियों की साख को धक्का लगा। मन्दिरों के पुजापे और चढ़ावे को बहुत आघात पहुँचा। ध्यान रहे कि मोनियर विलियस के शदकोश में Convulsed  का अर्थ कपित भी है। काशी को ऋषि ने कपा दिया।

जब ऋषि के साथ केवल परमेश्वर तथा उसका सद्ज्ञान वेद था, उनका और कोई साथी संगी नहीं था, तब सागर पार उनके साहस, संयम, विद्वत्ता व हुंकार की ऐसी चर्चा सर्वत्र सुनाई देने लगी।

चाँदापुर का शास्त्रार्थः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

चाँदापुर का शास्त्रार्थः

आश्चर्य है कि इतिहास प्रदूषण पुस्तक से तिलमिला कर चाँदापुर के शास्त्रार्थ पर मेरी मौलिक देन को झुठलाने का दुस्साहस किया गया है। जिस विषय का ज्ञान न हो, उस पर लेखनी चलाना, भाषण देना यहाी तो इतिहास प्रदूषण है। चाँदापुर के शास्त्रार्थ पर प्रदूषण फैलाने वालों की तो वकालत हो रही है और पं. लेखराम जी से लेकर अमर स्वामी, पं. शान्ति प्रकाश पर्यन्त शास्त्रार्थ महारथियों और प्रमाणों के भण्डार ज्ञानियों के लेख व कथन झुठलाये जा रहे हैं। हिण्डौन के वैदिक पथ व दयानन्द सन्देश में छपा है कि कहाँ लिखा है कि हिन्दू व मुसलमान मिलकर ईसाई पादरियों से शास्त्रार्थ करें? ये मेरे इस लेख को मेरे द्वारा मनगढ़न्त कहानी सिद्ध करने की कसरत कर रहे हैं। इनके मण्डल को तो मुंशी प्यारे लाल व मुक्ताप्रसाद के बारे में झूठ गढ़ने का दुःख नहीं।

संक्षेप से मेरा उत्तर नोट कर लें। प्राणवीर पं. लेखराम का चाँदापुर के शास्त्रार्थ पर एक लेख मैं दिखा सकता हूँ। वह ग्रन्थ मेरे पास है। आओ! मैं प्रमाण स्पष्ट शदों में दिखाता हूँ। तुहारी वहाँ कहाँ पहुँच? उसी काल के राधास्वामी गुरु हजूर जी महाराज की पुस्तक के कई प्रमाण चाँदापुर में देता आ रहा हूँ। उस पुस्तक से भी सिद्ध कर दूँगा। हिमत है तो झुठलाकर दिखाओ। मैंने पहली बार मास्टर प्रताप सिंह शास्त्रार्थ महारथी के मुख से सन् 1948 में यह बात सुनी थी। उनकी चर्चा निर्णय के तट पर में है। तबसे मैं यह प्रसंग लिखता चला आ रहा हूँ। अमर स्वामी पीठ थपथपाते थे। यह शोर मचाते हैं। अब आर्य समाज में ‘थोथा चना बाजे घना’……….क्या करें?

स्वामी श्रद्धानन्द जी के लिये कहा क्या था?

स्वामी श्रद्धानन्द जी के लिये कहा क्या था?

दिल्ली से एक युवक ने चलभाष पर यह पूछा है कि यहाँ यह प्रचारित किया गया है कि डॉ. अबेडकर ने स्वामी श्रद्धानन्द जी को दलितों का मसीहा बताया था। क्या डॉ. अबेडकर के यही शब्द  थे? हमने तो आपके  साहित्य में कुछ और ही शब्द  पढ़े थे। मेरा निवेदन है कि मैंने जो कुछ लिखा है पढ़कर, मिलान करके लिखा है, परन्तु मैं आर्य समाज के इन तथाकथित सर्वज्ञ इतिहासकारों को इतिहास प्रदूषण करने से नहीं रोक सकता। इन्हें खुल खेलने की छूट है। डॉ. अबेडकर के शब्द  हैं, स्वामी श्रद्धानन्द दलितों के सबसे बड़े हितैषी हैं। मराठवाडा में डॉ. अबेडकर विद्यापीठ में डॉ. अबेडकर के साहित्य के मर्मज्ञ किसी प्रोफैसर से पत्र-व्यवहार करके मेरे वाक्य की जाँच परख कर लीजिये। मेरी भूल होगी तो दण्ड का भागीदार हूँ।

हृदय की साक्षी-सद्ज्ञान वेदः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

हृदय की साक्षी-सद्ज्ञान वेदः- पं. गंगाप्रसाद जी चीफ जज की पुस्तक ‘धर्म का आदि स्रोत’ की कभी धूम थी। मेरे एक कृपालु मौलाना अदुल लतीफ प्रयाग ने भी इसे पढ़ा है। निश्चय ही वह इससे प्रभावित हैं। ईश्वर सर्वव्यापक है। उसके नियम तथा ज्ञान वेद भी सर्वव्यापक हैं। कोई ऋषि की बात माने अथवा न माने, परन्तु ‘‘दिल से मगर सब मान चुके हैं योगी ने जो उपकार कमाये।’’

देखिये, इस समय मेरे सामने लण्डन की ईसाइयों की सन् 1871 की एक पत्रिका है। इसमें लिखा है, The land is honestest thing in the world, whatever you give it you will get back again:. So in a far more certain sense, is it with the sowing of moral seed the fruit is certain   अर्थात्- भूमि संसार में सबसे प्रामाणिक (सत्यवादी) वस्तु है। आप इसे जो कुछ देंगे, यह आपको उपज के रूप में वही लौटायेगी। इससे भी बड़ा अटल सत्य यह है कि जो नैतिक बीज (कर्म) आप बोओगे, उसका फल भी अवश्य भोगोगे, पाओगे। इस अवतरण का प्रथम भाग वहाँ के कृषकों की लोकोक्ति है। पूरे कथन का अर्थ या सार यही तो है, जो करोगे सो भरोगे। वेद की कई ऋचाओं में कर्मफल सिद्धान्त को कृषि के दृष्टान्त से ही समझाया है। पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय ने वेद प्रवचन में एक मन्त्र की व्याया में लिखा है कि ईश्वर के कर्म फल के अटल नियम का साक्षी, सबसे बड़ा साक्षी और विश्वासी किसान होता है। जुआ व लाटरी में लगे लोग इससे उलट समझिये। ईसाइयों की पत्रिका का यह अवतरण वैदिक कर्मफल सिद्धान्त की गूञ्ज नहीं तो क्या है? धर्म का, सत्य का स्रोत वेद है- यह इससे प्रमाणित होता है। ऐसी-ऐसी कहावतें वैदिक धर्म की दिग्विजय हैं।

हमारी विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज जी ने टी.वी. पर एक करवा चौथ उपवास की बड़े लुभावने शदों में वकालत की थी। दैनिक पत्र-पत्रिकायें भी इसे सुहागनों का त्यौहार प्रचारित करती हैं। पत्नी के कर्मकाण्ड से पति की आयु बढ़ जाती है। कर्म पत्नी ने किया, फल पति को मिलता है। इन्हीं सुषमा जी ने गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करके तालियाँ बटोरी थीं। गीता कर्मफल सिद्धान्त का सन्देश देती है। करवा चौथ जैसे कर्मकाण्ड या इस प्रकार के अंधविश्वासों से गीता के मूल सिद्धान्त का खण्डन है या नहीं? इसी प्रकार पापों के क्षमा होने या क्षमा करवाने की मान्यता का उपरोक्त अवतरण से घोर खण्डन होता है । इस कथन में तो कर्म के फल की प्राप्ति Certain (सुनिश्चित) बताई गई है। कोई मत इस वैदिक सिद्धान्त के सामने नहीं टिकता । इसके अनुसार कुभ स्नान, तीर्थ यात्रायें व हज आदि सब कर्मकाण्ड ईश्वरीय आज्ञा के विपरीत हैं।

ऋषि जीवन विचारः प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु जी

ऋषि जीवन विचारःयह आनन्ददायक लक्षण है कि ‘परोपकारी’ ऋषि मिशन का एक ‘विचारपत्र’ ही नहीं, अब आर्य मात्र की दृष्टि में आर्यों का एक स्थायी महत्त्व का ऐसा शोधपत्र है, जिसने एक आन्दोलन का रूप धारण कर लिया है। इसका श्रेय इसके सपादक, इसके मान्य लेखकों व परोपकारिणी सभा से भी बढ़कर इसके पाठकों तथा आर्य समाज की एक उदीयमान युवा मण्डली को प्राप्त है। परोपकारी की चमक व उपयोगिता को बढ़ाने में लगी पं. लेखराम की इस मस्तानी सेना का स्वरूप अब अखिल भारतीय बनता जा रहा है।

ऋषि जीवन विषयक तड़प-झड़प में दी जा रही नई सामग्री पर मुग्ध होकर अन्य -अन्य पत्रों का प्रबल अनुरोध है कि ऐसे लेख- नये दस्तावेजों का लाभ, हमारे पाठकों को भी दिया करें। एक ऐसा वर्ग भी है, जिसका यह दबाव है कि ये दस्तावेज हमें भी उपलध करवायें। मेरा नम्र निवेदन है कि परोपकारिणी सभा के लिए इन पर कार्य आरभ हो चुका है। दिनरात ऋषि जीवन पर एक नये ग्रन्थ का निर्माण हो रहा है। दस्तावेज अब सभा की सपत्ति हैं। इनके लिये सभा के प्रधान जी व मन्त्री जी से बात करें। ये दस्तावेज अब तस्करी व व्यापार के लिए नहीं हैं। श्री अनिल आर्य, श्री राहुल आर्य, श्री रणवीर आर्य, श्री इन्द्रजीत का भी कुछ ऐसा ही उत्तर है। जिसे इस सामग्री के महत्त्व का ज्ञान है, जो इस कार्य को करने में सक्षम है, उसे सब कुछ उपलध करवा दिया है। वह ऋषि की सभा के लिये जी जान से इस कार्य में लगा है। ऋषि के प्यारे भक्त भक्तिभाव से सभा को आर्थिक सहयोग करने के लिए आगे आ रहे हैं।

पहली आहुति दिल्ली के ऋषि भक्त रामभज जी मदान की है। पं. गुरुदत्त विद्यार्थी के मुलतान जनपद में जन्मे श्री रामभज के माता-पिता की स्मृति में ही पहला ग्रन्थ छपेगा। हरियाणा राजस्थान के उदार हृदय दानी भी अनिल जी के व मेरे सपर्क हैं। आर्य जगत् ऋषि का चमत्कार देखेगा। कुछ प्रतीक्षा तो करनी होगी। हमारे पास इंग्लैण्ड व भारत से खोजे गये और नये दस्तावेज आ चुके हैं। ऋषि के जीवन काल में छपे एक विदेशी साप्ताहिक की एक फाईल भी हाथ लगी है।

प्रो. मोनियर विलियस ने अपनी एक पुस्तक में आर्य सामाजोदय और महर्षि के प्रादुर्भाव पर लिखा है, ‘‘भारत में दूसरे प्रकार की आस्तिकवादी संस्थायें विद्यमान हैं। अभी-अभी एक नये ब्राह्मण सुधारक का प्रादुर्भाव हुआ है। वह पश्चिम भारत में बहुत बड़ी संया में लोगों को आकर्षित कर रहा है। वह ऋग्वेद का नया भाष्य करने में व्यस्त है। वह इसकी एकेश्वरवादी व्याया कर रहा है। उसकी संस्था का नाम आर्यसमाज है। हमें कृतज्ञतापूर्वक इन संस्थाओं के परोपकार के श्रेष्ठ कार्यों के लिए उनका आभार मानना चाहिये। ये मूर्तिपूजा , संर्कीणता, पक्षपात, अंधविश्वासों तथा जातिवाद से किसी प्रकार का समझौता किये बिना युद्धरत हैं। ये आधुनिक युग के भारतीय प्रोटैस्टेण्ट हैं।’’

प्रो. मोनियर विलियस के इस कथन से पता चलता है कि हर कंकर को शंकर मानने वाले मूर्तिपूजक हिन्दू समाज को महर्षि दयानन्द के एकेश्वरवाद ने झकझोर कर रख दिया था। जातिवाद पर ऋषि की करारी चोट का भी गहरा प्रभाव पड़ रहा था। अब पुनः अनेक भगवानों, अंधविश्वासों व जातिवाद को राजनेता खाद-पानी दे रहे हैं। हिन्दू समाज को रोग मुक्त कर सकता है, तो केवल आर्यसमाज ही ऐसा एकमेव संगठन है। इसके विरुद्ध कोई और नहीं बोलता।