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हदीस : प्रेरणाएं और दलीलें

प्रेरणाएं और दलीलें

भिक्षा-दान के लिए मुहम्मद एक उदात्त दलील देते हैं। हर एक को दान देना चाहिए, भले ही वह सिर्फ आधा खजूर हो। अबू मसूद बतलाते हैं-”हमें दान देने का आदेश मिला था, यद्यपि हम कुली थे“ (2223)।

 

एक हदीस हमें बतलाती है-”ऐसा कोई दिन नहीं जब (अल्लाह के) सेवक लोग सुबह उठते हों और उनके पास दो फरिश्ते न आते हों। उनमें से एक कहता है-ऐ अल्लाह ! जो खर्च करता है, उसे और दो। और दूसरा कहता है-ऐ अल्लाह ! जो दबा कर रखता है, उस पर तबाही ला“ (2205)। क्या उपदेश का पहला हिस्सा काफी नहीं था ? क्या एक आर्शीवाद के साथ एक शाप भी जरूरी है ?

 

मुहम्मद मोमिनों को सदका करने और उसमें जल्दी करने को कहते हैं, क्योंकि ”एक वक्त आयेगा जब कोई आदमी सोने का सदका लिये भटकेगा, पर उसे लेने वाला कोई भी नहीं मिलेगा।“ वे यही भी कहते हैं कि ”मर्दों की कमी और औरतों की बहुतायत के कारण एक मर्द के पास चालीस औरतें शरण लेती देखी जायेंगी“ (2207)। इसका क्या मतलब है ? अनुवादक इस बयान को एक सच्ची भविष्यवाणी बतलाते हैं। महायुद्ध के बाद के इंग्लैण्ड में मर्दों और औरतों की आबादी के आंकड़े उद्धृत करके और उनके अनुपात में अन्तर दिखाकर वे ”पैगम्बरी बयान की सच्चाई“ सिद्ध करते हैं (टि0 1366)।

1 और निश्चय ही अल्लाह का एकपंथवादी रीति से ही महिमा-गान किया जा सकता है, बहुपंथवादी या सर्वपंथवादी ढंग से नहीं, और अल्लाह की स्तुति में मुहम्मद की स्तुति भी अवश्य शामिल होनी चाहिए।

author : ram swarup

श्री महात्मा नारायण स्वामीजी द्वारा लिखित एक घटना

श्री महात्मा नारायण स्वामीजी द्वारा लिखित एक घटना

1935 ई0 में ज़्वेटा (बलोचिस्तान) में एक भीषण भूकज़्प आया था। इसमें सहस्रों व्यक्ति मर गये थे। इस भूकज़्प से कुछ समय पूर्व ज़्वेटा से एक 23 वर्षीय देवी ने श्री महात्मा नारायण

स्वामीजी को एक पत्र लिखा। उस देवी को किसी ज्योतिषी ने यह बतलाया था कि वह एक वर्ष के भीतर मर जाएगी। उस देवी ने महात्माजी से यह पूछा था कि ज़्या सचमुच वह एक वर्ष के भीतर मर जाएगी। पत्र पढ़कर महात्माजी के अन्तःकरण में यह ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि उसे लिख दूं कि वह नहीं मरेगी। महात्माजी ने दिल्ली से उसे लिख दिया कि वह चिन्ता न करे।

भूकज़्प से पूर्व महात्माजी ज़्वेटा गये। वह देवी अपने पति के साथ श्री महाराज के दर्शन करने पहुँची और पुनः वही प्रश्न किया।

अभी ज्योतिषी की बताई अवधि पूरी नहीं हुई थी। उसका चेहरा मुरझाया हुआ था। महात्माजी ने पुनः बलपूर्वक कहा कि वह कोई चिन्ता न करे। वह नहीं मरेगी। उसका चेहरा खिल उठा। उसे बड़ी सान्त्वना मिली।

ज़्वेटा का भूकज़्प आया। इसमें सहस्रों मनुष्य कीट-पतंग की भाँति मर गये। ज़्वेटा के भूकज़्प से पूर्व ही ज्योतिषीजी का बतलाया हुआ समय एक वर्ष पूरा हो गया। भूकज़्प के पश्चात् उस देवी का महात्माजी को पत्र प्राप्त हुआ कि वह ज्योतिषीजी के बतलाये हुए समय के भीतर नहीं मरी और विनाशकारी भूकज़्प में कितने प्राणी मर गये हैं, कितनों को चोटें आई हैं-इसमें भी वह बच गई है। महात्माजी ने पत्र पाकर देवीजी को उस ज्योतिषी के प्रहार से बचने पर बधाई दी और ईश्वर को अनेक धन्यवाद दिये, ‘‘जिसकी कृपा से, मेरे अन्तःकरण ने मुझे शुद्ध प्रेरणा दी।’’1

न जानें ऐसी अनर्गल भविष्यवाणियाँ करके ज्योतिषी लोग कितने जनों को ठग लेते हैं और कितनों का अहित करते हैं।

हदीस : गम्भीरता पक्ष

गम्भीरता पक्ष

हदीस-संग्रह के लिए वह असाधारण बात भले ही हो, फिर भी कुछ अहादीसों (2197-2204) में दान का गम्भीरता पक्ष भी उल्लिखित है। जो लोग धन नहीं दे सकते, वे निष्ठा और नेक कामों पर दान दिया करें। ”दो आदमियों के बीच न्यायनिर्णय देना भी एक सदक़ा है। और किसी आदमी को उसकी सवारी पर चढ़ने में मदद देना अथवा सवारी पर बोझ लादने में किसी की मदद करना एक सदका है। और अच्छी बात कहना एक सद़का है। और प्रार्थना की तरफ उठाया गया हर कदम एक सद़का है। और रास्ते से हानिकर चीजें हटा देना एक सदका है“ (2204)।

 

ऐसी ही सुन्दर एवं समझबूझ से भरी कुछ अन्य हदीस भी हैं। ईश्वर जिनकी रक्षा करता है, उनमें से एक वह है, ”जो दान देता है और उसे गुप्त रखता है, जिससे कि दायां हाथ जान नहीं पाये कि बांये हाथ ने क्या दिया है“ (2248)। इसी क्रम में मुहम्मद हमें बतलाते हैं कि ”यदि कोई एक खजूर के बराबर सदका देता है ….. तो अल्लाह उसे अपने दाहिने हाथ से मंजूर करेगा।“ (2211)।

 

और एक अन्य हदीस में कहा है-”अल्लाह की स्तुति1 के प्रत्येक उद्घोष में (अर्थात् सुभान अल्लाह कहने में), एक सद़का है……और पुरुष के यौन समागम में (अपनी पत्नी के साथ, ऐसा अनुवादक ने पूरा किया है) एक सदका है“ (2198)।

author : ram swarup

 

हदीस : दान अपने घर से शुरू हो

दान अपने घर से शुरू हो

मुहम्मद के पहले अरब लोगों में बहुत दानशीलता थी। किन्तु कर के रूप में नहीं। मसलन, उन दिनों अरब अपने ऊंटों को हर छठे या सातवें दिन किसी पोखर के किनारे ले जाते थे, वहां उन्हें दुहते थे और दूध जरूरतमन्दों में बांट देते थे (टि0 1329)।

 

इस उदारता की मुहम्मद ने सराहना की पर उन्होंने सिखाया कि दान अपने घर से शुरू होना चाहिए। यह मुद्दा अहादीस (2183-2195) में मिलता है। जिस क्रम से व्यक्ति को अपनी सम्पदा का व्यय करना चाहिए, वह इस प्रकार है-सर्वप्रथम अपने आप पर, फिर अपनी बीबी और बच्चों पर, फिर रिश्तेदारों और दोस्तों पर, और फिर नेक कामों पर। इसे बुद्धिमत्ता की बात ही कहा जाएगा।

 

आम़ रिवाज के मुताबिक, एक अरब ने एक बार यह वसीयत की कि उसकी मौत के बाद उसका गुलाम मुक्त कर दिया जाय। जब मुहम्मद ने यह सुना तो उसे बुलाया और पूछा कि क्या कोई और जायदाद भी उसके पास है। उसने कहा, नहीं। तब मुहम्मद ने उसके गुलाम को 800 दरहम में बेच दिया, और वह रकम उसे दे दी और कहा-”अपने आप से शुरू करो और इसे अपने पर खर्च करो, और कुछ बचे तो तुम्हारे परिवार पर खर्च होना चाहिए, और उससे भी जो बचे, वह तुम्हारे रिश्तेदारों पर खर्च होना चाहिए।“

 

एक और कहानी है, जो यही बात बतलाती है। एक महिला ने अपनी बांदी को आज़ाद कर दिया। पता चलने पर, मुहम्मद ने उससे कहा-”तुमने उससे अपने मामा को दे दिया होता, तो तुम्हें ज्यादा प्रतिफल मिलता“ (2187)।

 

अतएव इस मुद्दे पर मुहम्मद ने जो नैतिकता सिखायी, वह विशेषतः उदात्त तो नहीं थी, पर वह आम दस्तूर के अनुसार अवश्य थी। वह क्रांतिकारी नैतिकता तो कतई नहीं थी। गुलामों की मुक्ति न्याय का नहीं, दान का मामला बन गया और वह दान भी मोमिन के परिवार के कल्याण के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए।

author : ram swarup

लोग ज़्या कहेंगे?

लोग ज़्या कहेंगे?

1967 ई0 की बात होगी। बिहार में भयङ्कर दुष्काल पड़ा। देशभर से अकाल-पीड़ितों की सहायता के लिए अन्न भेजा गया।

उन दिनों हम परिवार सहित दयानन्द मठ दीनानगर की यात्रा को गये। एक दिन श्री स्वामी सर्वानन्दजी महाराज ने कहा, ‘‘आप पठानकोट आर्यसमाज के सत्संग में हो आवें और केरल में वैदिक धर्म के प्रचार व शुद्धि के लिए उनसे सहयोग करने को कहें।’’

उस वर्ष मठ की भूमि में आलू की खेती अच्छी हुई थी। मोटे व अच्छे आलू तो काम में लाये गये। छोटे रसोई के पास पड़े थे।

हम लौटकर आये तो पता चला कि मठ में कुछ ब्रह्मचारियों ने स्वामी श्री सर्वानन्दजी से कहा-‘‘आलुओं का यह ढेर बाहर फेंक दें? इसे ज़्या करना है?’’

श्री स्वामीजी ने इस पर कहा-‘‘देखो! बिहार में दुष्काल से लोग मर रहे हैं। वहाँ खाने को कुछ भी नहीं मिल रहा। ये आलू खराब तो हैं नहीं, न ये सड़े-गले हैं। केवल छोटे ही हैं। देश के अन्नसंकट को ध्यान में रखकर हमें इन्हें फेंकना नहीं चाहिए। इनका सदुपयोग करना चाहिए। उबालकर इनका सेवन किया जा सकता है। यदि हम इन्हें फेंकेंगे तो लोग हमें ज़्या कहेंगे कि आश्रम के साधु ब्रह्मचारी कैसे व्यक्ति हैं?’’

श्रीमति जिज्ञासु ने स्वामीजी तथा ब्रह्मचारियों का यह सारा वार्ज़ालाप सुना।

देश-धर्म व जातिसेवा में एक-एक श्वास देनेवाले एक संन्यासी के हृदय में दूसरों के लिए कितना ध्यान था, यह घटना उसका एक उदाहरण है। सच्च तो यह है कि संसार में धर्म की प्रतिष्ठा इन्हीं तपस्वियों के कारण है। अपने व अपने परिवार के लिए तो सब जीते हैं, धन्य हैं वे लोग जो संसार के लिए जीते हैं। पराई पीड़ को अपनी पीड़ा माननेवाले इन महापुरुषों का ऋण कौन चुका सकता है? पराई आग में जलनेवाले इन पुण्य-आत्माओं के कारण ही ऋषिवर दयानन्द का मिशन फैला है।

 

हदीस : दैवी विधान

दैवी विधान

ज़कात न अदा करने पर दिया जाने वाला दैवी दंड किसी भी मानवीय सत्ता द्वारा दिए जाने वाले लौकिक दंड से अधिक उत्पीड़क है। “यदि सोना या चांदी रखने वाला कोई व्यक्ति अपने द्वारा देय अंश का भुगतान नहीं करता, तो कयामत के रोज़ उसके लिए आग की पट्टियां तैयार की जायेंगी, फिर वे नरक की आग में गरम की जायेंगी और उसकी बाहें, उसका माथा और उसकी पीठ उनसे दागी जायेंगी। और जब वे ठंडी हो जायेंगी तो वही सिलसिला दिन भर दोहराया जायेगा। दण्ड की अवधि पचास हजार बरस की होगी।“ और ऊंटों के उस मालिक के लिए जो अपना कर नहीं देता, “एक इतना बड़ा रेतिला मैदान बनाया जायेगा, जितना कि सम्भव हो“ और उसके ऊंट ”उसे अपने खुरों से खूंदेंगे और मुंह से काटेंगे-पूरे दिन, जो पचास हजार बरस का होगा।“ वही हस्र गायों और भेड़ों के उन मालिकों का होगा, जो कर नहीं देते। ”वे उन्हें अपने सींगों से मारेंगी और खुरों से खूंदेंगी“-उतनी ही अवधि तक (2161)।

author : ram swarup

संन्यास की मर्यादा

संन्यास की मर्यादा

श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज के जीवन की एक प्रेरणाप्रद घटना है कि आप एक बार अजमेर गये। प्रो0 घीसूलालजी के साथ किसी सामाजिक कार्य के लिए कहीं जा रहे थे। होली के दिन थे। बाज़ार में शरारती मूर्ख लोगों ने साधु पर रङ्ग डाल दिया। आप एकदम रुक गये। प्रो0 घीसूलालजी से कहा-‘‘अब वापस चलिए। वस्त्र बदलेंगे। इसपर धज़्बे पड़ गये हैं। मैं तो संन्यासी वेश में ही चल सकता हूँ। साधु पर दाग़ ठीक नहीं।’’

श्री महाराज लौट गये। जहाँ ठहरे थे वहीं पहुँचे। उनके पास और वस्त्र थे ही नहीं। कौपीन लगाकर बैठ गये। आर्यपुरुषों ने उनका कुर्ता सिलवाया। धोती ली। गेरु रङ्ग करवाया। उन्हें पहना

और कार्य पर बाहर निकले। जब तक बिना दाग़ के भगवे वस्त्र तैयार न हुए वे कौपीन धार कर अपने पठन-पाठन में लगे रहे, मिलनेवाले आर्य पुरुषों से बातचीत करते रहे। आर्य साधुओं, महात्माओं व नेताओं ने ऐसी मर्यादाएँ स्थापित की हैं और ऐसे इतिहास बनाये हैं।

हदीस : एक अप्रिय कर

एक अप्रिय कर

एक दिलचस्प हदीस है, जिससे पता चलता है कि सबसे सम्पन्न वर्ग में भी जकात देना अप्रिय था। उमर को ज़कात वसूल करने वाला (अधिकारी) नियुक्त किया गया था। जब उन्होंने रिपोर्ट दी कि खालिद बिन वलीद (जो बाद में एक प्रसिद्ध मुस्लिम सेनापति बने) और पैगम्बर के अपने चचाजान अब्बास तक ने कर देने से इन्कार कर दिया है, तो मुहम्मद ने कहा-”खालिद के प्रति तुम्हारा यह व्यवहार उचित नहीं, क्योंकि उसने अपने शस़्त्रास्त्र अल्लाह के वास्ते सँभाल कर रखे हैं। और जहाँ तक अब्बास की बात है, मैं उसका जिम्मेदार होऊंगा …… उमर ! ध्यान रहे, किसी का चाचा उसके पिता के समान होता है“ (2188)।

 

ज़कात के खिलाफ व्यापक नाराज़गी थी। गैर-मदीनी अरब कबीलों में वह नाराज़गी और भी प्रबल थी, क्योंकि उनके हिस्से इस कर बोझ ही आता था, इसके फायदे उन्हें नहीं पहुँचते थे। वद्दू लोगों ने पैगम्बर से शिकायत की कि ”सदका वसूल करने वाला हमारे पास आया और उसने हमसे अनुचित व्यवहार किया। इस पर अल्लाह के रसूल ने कहा-वसूल करने वाले को खुश रक्खो“ (2168)।

 

लेकिन हालात मुश्किल थे और इतनी आसानी से मुश्किलें हल नहीं होती थीं, जैसा कि यह हदीस इंगित करती है। मक्का-विजय के बाद, जब मुहम्मद की सत्ता सर्वोच्च हो उठी, दशमांश कर (ज़कात) की वसूली की वसूली आक्रामक तरीके से की जाने लगी। हिजरी सन् 9 की शुरूआत में, वसूली करने वालों की टुकड़ियां विभिन्न दिशाओं में भेजी गईं, ताकि किलाब, ग़िफार, असलम, फज़ार और अनेक अन्य क़बीलों से कर वसूला जा सके। ऐसा लगता है कि इस वसूली का वनू तमीम कबीले के एक वर्ग द्वारा कुछ कड़ा विरोध किया गया। इसीलिए मुहम्म्द ने पचास अरबी घुड़सवारों की एक सैनिक टुकड़ी उन्हें दंडित करने के लिए भेजी, जिन्होंने अचानक उस क़बीले को जा दबोचा और पचास औरत-मर्दों तथा बच्चों को बंधक बनाकर मदीना ले आये। उन्हें छुड़ाई देकर छुड़ाना पड़ा और तब से वसूली अपेक्षाकृत सुगम हो गई।

 

इस कर के खि़लाफ़ अरब लोगों की नाराज़गी की शब्द-चातुर्य से भरी एक गवाही खुद कुरान में मिलती है। अल्लाह मुहम्मद को सावधान करते हैं-”अरबी रेगिस्तान के कुछ लोग करों की अदायगी को जुर्माना मानते हैं और तुम्हारी किस्मत पलटने के इन्तजार में हैं। पर उनकी किस्मत ही बुरी बनेगी, क्योंकि अल्लाह सुनता भी है, और जानता भी है“ (9/98)।

 

दरअसल, नाराज़गी इतनी प्रबल थी कि मुहम्मद के मरते ही अरब कबीले उदीयमान मुस्लिम राज्य के विरुद्ध विद्रोह में उठ खड़े हुए और उन्हें दुबारा दबाना पड़ा। उनका विरोध तभी मिटा जब वे मुस्लिम साम्राज्य के विस्तार में साझेदार बने और ज़कात का भार, सैनिक विजय तथा उपनिवेशों से मिलने वाले प्रचूर माल की तुलना में, हल्का हो गया।

author : ram swarup

हदीस : माफ़ी और मुनाफ़ा

माफ़ी और मुनाफ़ा

ज़कात से माफी देने की एक निचली मर्यादा-रेखा थी। ”खजूर या अनाज के पांच वस्कों (1 वस्क = लगभग 425 पौंड) तक, पांच से कम ऊंटों तक और 5 उकिया से कम चांदी तक (1 उकिया = लगभग 10 तोला या 1/4 पौंड) कोई सद़का (ज़कात) देय नहीं है“ (2134)। साथ ही, ”एक मुसलमान से उसके गुलाम या घोड़े पर कोई सद़का नहीं लिया जाता“ (2184)। जिहाद के लिए इस्तेमाल होने वाले घोड़ों पर कोई ज़कात नहीं थी। ”जिहाद में सवारी के काम आने वाला घोड़ा ज़कात के भुगतान से मुक्त होता है“ (टि0 1313)।

author : ram swarup

मैं दुःखी क्यों हूँ?

मैं दुःखी क्यों हूँ?

प्रस्तुत समपादकीय प्रो. धर्मवीर जी के द्वारा उनके निधन से पूर्व लिखा गया था। ये लेख अधूरा है, अगर पूरा होता तो स्वयं एक जीवन-शास्त्र होता। पर जितना भी है, उतना ही उपयोगी है, सारगर्भित है। इस लेख में आचार्य जी ने जीवन जीने की आदर्श शैली की ओर संकेत किया है। इससे पाठकों को अवश्य लाभ मिलेगा।

-समपादक

मुझे लगता है कि संसार में सबसे दुःखी व्यक्ति मैं ही हूँ। सब मुझे सदा दुःख ही देते रहते हैं। भगवान् भी मुझे दुःख ही देता है। मैं अपने माता-पिता से दुःखी हूँ, मुझे लगता है कि घर में मुझसे पक्षपात् होता है और सबकी सुनी जाती है, सबकी इच्छाएँ पूरी होती हैं। मुझे इच्छा करना ही अपराध लगने लगा है। मैं अच्छा करता हूँ, पूरा करने का प्रयत्न भी करता हूँ, पर पूरा न होने पर एक दुःख और अपने दुःख में जोड़ लेता हूँ। इच्छा पूरी न होने का एक दुःख था, उसमें असफलता का दुःख और जोड़ लिया। क्या संसार में मैं दुःख पाने के लिये ही आया हूँ?

मुझे लगता है कि संसार में मेरे चारों ओर मुझे दुःख देने वाले एकत्र हो गये हैं। मुझे लगता है ये लोग गलत हैं, ठीक नहीं हैं। ये सुधर जायें तो सब ठीक हो सकता है। ये बच्चे सुधर जाते तो सब ठीक हो जाता, परन्तु इनको मेरी बात समझ में ही नहीं आती। समझा-समझा कर दुःखी हो गया हूँ। पत्नी है कि सुनती नहीं है, बच्चों को बिगाड़ दिया है। मैं जो कहता हूँ उसका उल्टा करती है, बच्चों को उल्टा सिखाती है। मेरा पड़ौसी नालायक है, गन्दा है, कोई अच्छी आदत ही उसमें नहीं है। गन्दा रहता है, गन्दगी करता है, शराब पीता, गालियाँ देता है, समझाने पर भी समझता नहीं है। मेरे कार्यालय में मेरे साथी चापलूस और कामचोर हैं, अधिकारी रिश्वतखोर, पक्षपाती हैं। संसार में जिधर देखता हूँ, सब बिगाड़-ही-बिगाड़ है। उससे मैं बहुत दुःखी हो गया हूँ।

मुझे लगता है कि लोग मन्दिर जाते हैं, सत्संग करते हैं, प्रवचन सुनते हैं, क्या इनसे दुःख दूर होता है? यदि ऐसा करने से दुःख दूर होता है तो सारे मन्दिर जाने वाले सुखी हो जाते। सारे प्रवचन करने वाले क्या सुखी हैं? सत्संग में सुख होता तो सभी सत्संग करके सुखी हो चुके होते, परन्तु ऐसा लगता नहीं। फिर सोचता हूँ कि यदि इन सबसे सुख नहीं मिलता, तो इतने लोग सुख प्राप्त करने के लिये यहाँ की ओर क्यों दौड़ रहे हैं? सुनने में आता है कि सत्संग सुनकर डाकू सय मनुष्य बन गया, अंगुलीमाल डाकू भगवान् बुद्ध का भक्त बन गया। ये ठीक है, सब तो नहीं सुखी होते, परन्तु कुछ तो सुखी होते देखे जाते हैं। जैसे खेत में डाले गये सारे बीज नहीं उगते। कोई पत्थर पर गिरकर पड़ा सड़ जाता है। किसी को पक्षी खा लेता है, तो कोई कीड़े से नष्ट कर दिया जाता है, कोई उगकर पशु-पक्षियों द्वारा खा लिया जाता है, फिर भी खेती की जाती है और उसी से भूखे मनुष्यों को भोजन मिलता है। लगता है सत्संग की खेती का भी यही हाल है, जो बीज उर्वरा भूमि में गिर जाता है, उसमें बीज पौधा बनकर फल देने लगता है। प्रवचनकर्त्ता सभवतः यही उपदेश कर रहे थे कि दुःख दूर करने का सत्संग ही एक उपाय है।

संसार में दुःख है, लोग इसे दूर भी करना चाहते हैं तो इसका उपाय भी निश्चित होगा। सत्संग में दुःख दूर करने का उपाय बताते हुए यही तो कहा जा रहा था। दुःखी हम इसलिये हैं कि हम अपने से बाहर की वस्तुओं को दुःख का कारण समझ रहे हैं। जब तक मैं दूसरों को दुःख का कारण समझूँगा, तब तक मेरे दुःखों से मुझे छुटकारा नहीं मिलेगा, क्योंकि दुःख का कारण मेरे अन्दर  है। जिन बातों से, जिन वस्तुओं से, जिन व्यक्तियों से मैं दुःखी हूँ, उसका कारण है कि मैं उनसे असन्तुष्ट हूँ। मेरे असन्तोष का मूल मेरी उनसे अपेक्षा है, मैंने सबसे अपेक्षा पाल रखी है। जब मेरी इच्छा पूरी नहीं होती तो मेरे अन्दर असन्तोष जन्म लेने लगता है। यह असन्तोष ही मेरे दुःख का कारण है।

मेरे दुःख का दूसरा कारण है कि मैं सब व्यक्तियों को सुधारना चाहता हूँ। सभी वस्तुओं को अपने अनुकूल बनाना चाहता हूँ। ऐसा करना मेरे सामर्थ्य से परे है। मेरे लिये समभव नहीं है। मैं जिसे सुधारने का यत्न करता हूँ और जिसे मैं सुधार नहीं सकता, उन दोनों में अन्तर होता है। जिसे मैं पहले से सुधारने योग्य नहीं मानता, उनसे मैं दुःखी नहीं होता, उन्हें वैसा ही मानकर व्यवहार करता हूँ, जिनको सुधारने की इच्छा करता हूँ, उनके लिये प्रयत्न करता हूँ, फिर असफल होने पर दुःखी होता हूँ। सुधार का प्रयत्न करना अच्छी बात है, परन्तु असफलता पर दुःखी होना बुरी बात है, जब कोई नहीं सुधरता तो उसको भी उपेक्षा की कोटि में डाल दिया जाए, तो मेरा दुःख दूर हो सकता है।

मैंने दुःखों के नाम रख दिये हैं। ये सास है, ये बहू है, ये देवरानी या जेठानी है, इन नामों से दुःख लगने लगता है, यथार्थ तो यह है कि दुःख व्यवहार में है, संज्ञा में नहीं। दुःख तो बेटे-बेटी से भी होता है। माता-पिता, भाई से भी होता है। संसार में रक्त-समबन्ध को सुख का कारण तथा दूर को दुःख का कारण मानते हैं, परन्तु यथार्थ में जितना दुःख समबन्धियों में, सगे भाइयों में होता है, उतना दुःख किसी और से नहीं मिलता। जितने झगड़े, लड़ाई, मुकद्दमें भाइयों में परस्पर होते हैं, उतने दूसरों से तो नहीं होते। फिर दुःख का कारण व्यक्ति नहीं, विचार है। विचार ठीक न होने की दशा में कोई भी दुःख का कारण बन सकता है, परन्तु मैंने मान लिया कि सास दुःख ही देगी, बहु विरोध ही करेगी।

जिनको मैं बदल नहीं सकता, जिन्हें मैं छोड़ भी नहीं सकता, क्या उनसे लड़ाई, झगड़ा, तनाव करके मैं सुखी रह सकता हूँ? कदापि नहीं। फिर मैं क्या करूँ, जिससे मेरा दुःख दूर हो? इसलिये उनसे मेरा व्यवहार निष्पक्षता का हो, उदासीनता का हो। ………

– धर्मवीर