*पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-११*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
-कार्तिक अय्यर
ओ३म्
प्रिय पाठकगण! सादर नमस्ते।पिछली पोस्ट पर हमने महाराज दशरथ व उनके परिजनों एवं मंत्रिगणों का संक्षिप्त चरित्र चित्रण किया।इस पोस्ट में पेरियार साहब के *दशरथ* नाम से किये ३२ आक्षेपों की समीक्षा का क्रम आगे बढ़ाते हैं।पाठकगण आलोचनाओं को पढ़ें और आनंद ले।
*आक्षेप १* *कैकेई के ब्याह के पहले दशरथ ने उससे प्रतिज्ञा की थी कि उससे उत्पन्न पुत्र को अयोध्या की राजगद्दी दी जाएगी ।कुछ कथाओं में वर्णन किया गया है ब्याह के बाद दशरथ ने अपना राज्य के कई को सौंप दिया था और दशरथ उसका प्रतिनिधि मात्र बनकर शासन करता था।*
*समीक्षा*:- पेरियार साहब ने अपने इस प्रश्न का करके कोई श्लोक प्रमाण नहीं दिया आगे जिस प्रकार की रीति आपने अपना ही है कम से कम उस की तरह ही कोई झूठा पता लिख देते! खैर हम आप की समीक्षा करते हैं यह कहना कि “कैकई के ब्याह करने के पहले महाराज दशरथ ने कैकई राज से प्रतिज्ञा की थी कि कैकई से उत्पन्न संतान ही अयोध्या की राजगद्दी पर विराजमान होगी” यह बात रामायण में प्रक्षिप्त की गई है इस बात का प्रबल प्रमाण हम देते हैं । पहले निम्न हेतुओं पर प्रकाश डालते हैं:-
१. प्रथम तो इक्ष्वाकु कुल की परंपरा थी कि राजा का ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य सिंहासन पर बैठेगा महाराज दशरथ इस परंपरा के विरुद्ध केकई के पिता को ऐसा अन्यथा वचन नहीं दे सकते।
२. यदि मान लिया जाए कि महाराज दशरथ ने ऐसा कोई वचन दिया भी था तो राम जी के राज्याभिषेक के समय में यह बात मंथरा और कैकई को याद नहीं थी? मंथरा को तो यह कहना था कि हे कैकेई राजा अपना वचन भंग करके श्रीराम को राजा बना रहे हैं उनको वह वचन याद दिलाओ जो उन्होंने तुम्हारे पिता को विवाह के समय दिया था ,परंतु मंथरा ऐसा नहीं करती मंथरा कहती है कि राजा दशरथ ने तुमको जो दो वरदान दिए थे उनका प्रयोग करो। कैकेई उसकी बात को मान भी जाती है इससे यह सिद्ध है केकयराज को राजा दशरथ ने कोई वचन नहीं दिया।
३. कैकई मंथरा के मुख से श्रीराम के राज्याभिषेक की घोषणा सुनकर बहुत प्रसन्न हो जाती है और कहती है कि राम मुझे अपनी मां कौसल्यासे भी अधिक सम्मान देता है।यही नहीं वह कहती है कि राजा भरत बने या राम बने कोई भी बने उसके लिए दोनों समान हैं। यदि कोई प्रतिज्ञा राजा ने की होती तो कह कई खुश होने के बजाए गुस्से में आ जाती की राजा भरत को राजगद्दी देने की जगह श्री राम को दे रहे हैं।कैकेई मंथरा को खुश होकर अपने गले का एक बहूमूल्य हार भेंट भी करती है।
४.महाराज दशरथ जब सभी जनपदों के राजाओं की सभा में जब श्रीराम के राज्याभिषेक की घोषणा की तब सभी राजाओं और मंत्रियों ने महाराज का अनुमोदन किया तब किसी भी मंत्री या राजाने इस प्रस्ताव का विरोध नहीं किया इससे सिद्ध है कि किसी भी मंत्री,ऋत्विक या राजा को भारत को राजगद्दी देने का वचन के बारे में ज्ञान नहीं था ,और होगा भी कैसे जब ऐसा वचन दिया ही नहीं गया!
५. भारत के ननिहाल जाने और भारत और श्री राम के वन में मिलाप के प्रसंग में जब भारत श्री रामचंद्र जी को अयोध्या वापस लौटने का आग्रह करते हैं उसे समय श्रीराम ने वचन वाली कही थी। वह पूरा प्रकरण प्रक्षेपों से भरा है एक जगह जाबाल नामक ऋषि रामजी से नास्तिक कथन कहते हैं उत्तर में श्री राम आस्तिक मतका मंडन और नास्तिक मत का खंडन करते हैं,साथ ही बौद्ध तथा चार्वाक मत की निंदा भी करते हैं जबकि रामायण में कई बार यह आया है की उस समय कोई भी व्यक्ति नास्तिक या वेद विरोधी नहीं था और ना ही बौद्ध गया चार्वाक रामायण काल में थे। इससे यह सिद्ध है कि यह पूरा प्रकरण का बौद्ध काल में किसी हिंदू पंडित ने नास्तिक मत की निंदा करने के लिए रामायण में प्रक्षिप्त किया है।
आगे इन बिंदुओं पर वाल्मीकि रामायण से प्रमाण लिखते हैं:-
*सुमंत्र ने कैकेयी से कहा*
यथावयो हि राज्यानि प्राप्नुवन्ति नृपक्षये ।
इक्ष्वाकुकुलनाथेऽस्मिम्स्तल्लोपयितुमिच्छसि ॥अयोध्याकांड-३५-९॥
अर्थात्, ” देख! राजा दशरथ के मरने पर राज्य का स्वामी अवस्था अनुसार जेष्ठ पुत्र होता है। क्या तुम महाराज दशरथ के जीवित रहते ही इक्ष्वाकु कुल की इस प्राचीन व्यवस्था का लोप करना चाहती हो?”।।९।।
भरत,जिसके लिए कैकई इतना प्रपंच कर रही थी,वह भी इसी परंपरा का अनुमोदन करते हैं:-
अस्मिन् कुले हि सर्वेषाम् ज्येष्ठो राज्येऽभिषिच्यते ।
अपरे भ्रातरस्तस्मिन् प्रवर्तन्ते समाहिताः ॥अयोध्याकांड ७३-२०॥
अर्थात,”रघुवंश के यहां परंपरा है कि बड़ा भाई ही राज्य का अधिकारी होता है और छोटे भाई उसके अधीन सब कार्य करते हैं”।।२०।।
शाश्वतो ऽयं सदा धर्म्म: स्थितो ऽस्मासु नरर्षभ ।
ज्येष्ठपुत्रे स्थिते राजन्न कनीयान् नृपो भवेत् ।। अयोध्याकांड १०२.२ ।।(कुछ संस्करणों में सर्ग १०२ श्लोक २ में यह श्लोक है।यहां हम गीताप्रेस संस्करण के अनुसार संदर्भ दे रहे हैं)
अर्थात्, ” हे पुरुष श्रेष्ठ! हमारे कुल में तो यही सनातन नियम है की जेष्ठ पुत्र के समक्ष छोटा पुत्र राजा नहीं होता”।।२।।
रघुकुल के कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ भी कहते हैं:-
पितुर्व्म्शचरित्रज्ञः सोऽन्यथा न करिष्यति ॥अयोध्याकांड ३७-३१॥
अर्थात् “अपने पितृ कुल के आचार्य को जानने वाले भरत कुलाचार के विरुद्ध आचरण कभी न करेंगे” ।।३१।।
अतः इस परंपरा के विरुद्ध दशरथ कोई भी वचन नहीं दे सकते।
अयोध्याकांड सर्ग 7,8और 9 में वर्णन है वह संक्षेप में कहते हैं।
जब मंथन राम माता कौसल्या का धनवान तथा अयोध्या वासियों को आनंदित होते देखती है तब श्री राम की भाई से इस विषय के बारे में पूछती है। धात्री कहती है कि प्रातः काल पुष्य नक्षत्र में महाराज श्रीराम को युवराज पद पर अभिषिक्त करेंगे। यह समाचार सुनकर क्रोध में जलती हुई मंथरा कैकेई के शयनागार की ओर गई और कैकई को जगा कर उससे बोली,” हे मुढे!उठ! पड़ी-पड़ी क्या सो रही है तेरे ऊपर को बड़ा भारी भय आ रहा है। इत्यादि वचन कैकेयी से कहने लगी। मंथरा के वचन सुनकर हर्ष परिपूर्ण सुंदर मुखी कैकेयी शय्या से उठी।
अतीव सा तु संहृष्टाअ कैकेयी विस्मयान्विता ।
एकमाभरणं तस्यै कुब्जायै प्रददौ शुभम् ॥२-७-३२॥
अर्थात उसने अत्यंत हर्षित होकर एवं आश्चर्यचकित हो कर अपना एक बहुमूल्य आभूषण कुब्जा को प्रदान किया।।३२।। और मंथरा से बोली,” हे मंथरे! तूने मुझे परम प्रिय संवाद सुनाया है इसके लिए मैं तुझे क्या उपहार दूं इत्यादि।” मंथरा कैकई को भड़काते हुए बहुत सी बातें कहती हैं जैसे, राम के राजा बनने पर है कि वह भारत की दुर्गति होगी इत्यादि। जब मंथन आने के कई को इस प्रकार पट्टी पढ़ाई तो क्रोध के मारे लाल मुख करके एक ही ने उसे कहा ,”मैं आज ही राम को वन में भेजती हूं और शीघ्र ही भरत को युवराज पद पर अभिषिक्त कर आती हूं।” मैं जब कह कर उससे इसका उपाय पूछती है तो मंथरा देवासुर संग्राम में कैकई का राजा दशरथ के प्राण बचाने का वृतांत सुनाती है ,फिर कहती है कि जब राजा ने प्रसन्न होकर तुझे दो वर दिए थे तब तूने कहा था कि जब आवश्यकता होगी तब मांग लूंगी। उन चारों में से तू भरत का राज्याभिषेक और श्रीराम का १४ वर्ष का वनवास मांग ले। (सर्ग ९/३०)
इस पूरे प्रकरण में मंथरा राजा दशरथ की कैकयराज को दी हुई प्रतिज्ञा का उल्लेख नहीं करती उसे दो वरदानों के अलावा पिता को दिए वचन दुबारा स्मरण कराने की आवश्यकता थी। दशरथ ने कैकई को कहना था ,”हे राजन्! मेरे पिता के समक्ष आपने जो वचन दिया था उसे याद कर आप भारत को युवराज बनाइए। पर ऐसा नहीं हुआ ।कैकेई देवासुर संग्राम में रक्षा करते करने के कारण मिले दो वरदान मांगती है इससे सिद्ध है कि कैकयराज अश्वपति को कोई वचन नहीं दिया गया था पूरा प्रकरण पीछे से रामायण में मिलाया गया है।
यदि कैकयराज वाले वचन की बात सत्य मान ली जाए तो फिर भी कैकेई राजा दशरथ से उक्त दो वरदान पूर्ण करने की आशा कैसे कर सकती थी? जो व्यक्ति उसके पिता को दिए वचन से मुकर गया वह भला कैकई को दिए वचनों को भला क्या खाकर पूरा करेगा? अतः कैकयराज के वचन वाली बात झूठी और कपोलकल्पित है।
इस वचन की बात “श्रीराम भरत- मिलन” के प्रकरण में आती है।
अयोध्या कांड सर्ग १०२ में भरत श्री राम से पुनः राज्य ग्रहण करने का अनुरोध करते हैं। साथ ही उनके पिता की मृत्यु के लिए शोक ना करने का उपदेश देते हैं और पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए ही राज्य ग्रहण ना करके वन में रहने का ही दृढ़ निश्चय करते हैं।
यत्राहमपि तेनैव नियुक्त: पुण्यकर्मणा ।
तत्रैवाहं करिष्यामि पितुरार्य्यस्य शासनम् ।।
न मया शासनं तस्य त्यक्तुं न्याय्यमरिन्दम ।
तत् त्वयापि सदा मान्यं स वै बन्धु: स न: पिता ।।
तद्वच: पितुरेवाहं सम्मतं धर्मचारिण: ।
कर्मणा पालयिष्यामि वनवासेन राघव ।।
धीर्मिकेणानृशंसेन नरेण गुरुवर्त्तिना ।
भवितव्यं नरव्याघ्र परलोकं जिगीषता ।। २.१०५. ४१-४४ ।।
अर्थात्,”उन पुण्य कर्मा महाराज ने मुझे जहां रहने की आज्ञा दी है वहीं रह कर मैं उन पूज्य पिता के आदेश का पालन करूंगा ।शत्रु दमन!भरत पिता की आज्ञा की अवहेलना करना मेरे लिए कदापि उचित नहीं है वह तुम्हारे लिए भी सर्वदा सम्मान के योग्य है क्योंकि वही हम लोगों के हितैषी बंधु और जन्मदाता थे। रघुनंदन! मैं इस वनवास रूपी कर्म के द्वारा पिताजी के ही वचन का जो धर्मात्माओं को भी मान्य है, पालन करूंगा। नरश्रेष्ठ!परलोक पर विजय पाने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को धार्मिक क्रूरता से रहित और गुरुजनों का आज्ञापालक होना चाहिए।” ४१-४४।।
यहां पर श्री राम कैकयराज को दिए वचन की कोई बात नहीं करते।आगे सर्ग १०६ में भरत पुनः बहुत सी बातें कहकर श्रीराम को मनाने का प्रयास करते हैं।तब सर्ग १०७ में श्रीराम भरत के नाना कैकयराज को दिये वचन का उल्लेख करते हैं।
सर्ग १०७:
जब भारत पुनः इस प्रकार प्रार्थना करने लगे तब कुटुंबीजनों के बीच में सत्कार पूर्वक बैठे हुए लक्ष्मण के बड़े भाई श्री रामचंद्र जी ने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया-
उपपन्नमिदं वाक्यं यत्त्वमेवमभाषथा: ।
जात: पुत्रो दशरथात् कैकेय्यां राजसत्तमात् ।। २.१०७.२ ।।
पुरा भ्रात: पिता न: स मातरं ते समुद्वहन् ।
मातामहे समाश्रौषीद्राज्यशुल्कमनुत्तमम् ।। २.१०७.३ ।।
इन दो श्लोकों में श्री राम कहते हैं कि, महाराज दशरथ के द्वारा राज्य कन्या कैकई के गर्भ से उत्पन्न हुए हो। आज से पहले की बात है- पिताजी का जब तुम्हारी माताजी के साथ विवाह हुआ था तभी तुम्हारे नाना से कैकेयी के पुत्र को राज्य देने की उत्तम शर्त कर ली थी।।२-३।।
इसके बाद पुनः कैकई को दो वरदानों का वर्णन है।
पूरा प्रकरण पढ़कर लगता है कि व्यर्थ ही बात को यों खींचा जा रहा है। सर्ग १०४ में श्रीराम इस वचन की बात नहीं करते प्रत्युत कैकेयी को दिये दो वरदानों(प्रतिज्ञाओं) की ही बात करते हैं।अब अचानक सर्ग १०७ में भरत के नाना को दिये वचन को कहते हैं और कैकेयी के वरदानों की बाद उसके बाद कहते हैं। प्रश्न यह है कि श्रीराम पहले इस वचन का उल्लेख क्यों नहीं करते? दरअसल यह पूरा स्थल प्रक्षेपों से भरा हुआ है ।सर्ग १०७ के आगे के दो सर्ग पूरी तरह से प्रक्षिप्त है। सर्ग १०८ में जाबालि नामक एक ऋषि श्रीराम से नास्तिकमत का अवलंबन लेकर श्रीराम को समझाते हैं।उनकी सारी दलीलें बौद्ध और चार्वाकमत से मिलती हैं। सर्ग १०९ में श्रीराम जाबालि के नास्तिक मत का खंडन और आस्तिक मत का मंडन करते हैं।विस्तारभय से हम उनको पूरा नहीं लिख रहे हैं।मात्र एक श्लोक लिखकर उसका अर्थ देते हैं:-
यथा हि चोर: स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि ।
तस्माद्धि य: शङ्क्यतम: प्रजानां न नास्तिकेनाभिमुखो बुध: स्यात् ।। २.१०९.३४ ।।
‘ जैसे चोर दंडनीय होता है उसी प्रकार वेद विरोधी बुद्ध (बौद्ध मतावलंबी)भी दंडनीय है तथागत (नास्तिक विशेष) और नास्तिक (चार्वाक)को भी इसी कोटि में समझना चाहिए। इसीलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके,उसे तो चोर के समान दंड दिलाया ही जाय परंतु जो वश के बाहर हो ,उस नास्तिक के प्रति विद्वान ब्राह्मण कभी उन्मुख ना हो।३४।।
इस प्रकरण में बौद्ध मत का नाम आया है।इससे यह सिद्ध है कि यह श्लोक बौद्ध काल में ही किसी पौराणिक पंडित ने रामायण में बौद्धों की निंदा करने के लिये प्रक्षिप्त किया है।क्योंकि रामायण में कई बार आया है कि उस समय कोई भी नास्तिक नहीं था,और बौद्ध और चार्वाकमत भी रामायण से कई सदियों बाद अस्तित्व में आये।ये पूरे दो सर्गों का ड्रामा केवल इस श्लोक के लिये प्रक्षिप्त किया गया ताकि श्रीराम के मुख से बौद्ध मत की निंदा कहलाई जाये।अतः भरत के नाना को दिये वचन वाली बात भी प्रक्षेपों के इस अंबार में से ही है।अतः राजा दशरथ ने कैकेयी के पिता को कोई वचन नहीं दिया था।
अब रही कैकेयी के रानी बनने की बात,तो पेरियार साहब ने इसका कोई प्रमाण नहीं दिया।रामायण में कहीं नहीं लिखा कि राजा दशरथ ने अपना राज्य कैकेयी को सौंप दिया था।दावा बिना किसी सबूत के होने से खारिज करने योग्य है।
पाठकगण! पेरियार के पहले बिंदु की आलोचना हमने भली भांति की।इसका उद्देश्य यह था कि बाकी के कई प्रश्नों के उत्तप इसी से आ जायेंगे। इतना विस्तृत लेख अब आगे लिखने से बचेंगे।आगे के बिंदुओं की समीक्षा छोटी-बड़ी होगी।विस्तार कम करने का पूरा प्रयास रहेगा।अगले लेख में बिदु २-५ का खंडन किया जायेगा।
पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें।
क्रमशः
नमस्ते ।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र जी की जय।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य टीम या पंडित लेखराम वैदिक मिशन उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |