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सच्ची रामयण का खंडन भाग-१७

सच्ची रामयण का खंडन भाग-१७*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! आगे पेरियार साहब के साक्षी आयंगर साहब के आक्षेपों का उत्तर गतांक से आगे-
*आक्षेप-२१-प्रश्न-७-* इन पापों ने दशरथ द्वारा भारत को गति देने के असंभव वचनों को निरस्त कर दिया।
*समीक्षा-* कृपया बताइए कि महाराज दशरथ ने कौन से पाप कर दिए ? क्या कह कई को इनाम के रूप में वरदान देना पाप है ? क्या कहती का परंपरा के विरुद्ध मूर्खतापूर्ण और स्वार्थपूर्ण वरदान मांगना  पाप नहीं था।सच कहो तो यह नहीं कहा जा सकता कि उनके लिए वचन निरस्त हो गए क्योंकि श्रीराम ने फिर भी अपने पिता को सच्चा साबित करने के लिए भारत का राज्य ग्रहण और वनवास स्वीकार कर लिया। राजा दशरथ के असंभव वचनों को श्री राम ने संभव करके दिखा दिया।
*आक्षेप-२२-प्रश्न-८-* वशिष्ठ ने परामर्श दिया था कि इक्ष्वाकु वंशी य परंपरा अनुसार परिवार के जेष्ठ पुत्र को राजगद्दी मिलनी चाहिए किंतु कैकई के प्रेम में पागल दशरथ ने
उस परामर्श को लात मारकर अलग कर दिया।
*समीक्षा-* यह सत्य है कि महाराज दशरथ कैकई से बहुत प्रेम करते थे और यह भी सत्य है कि इक्ष्वाकु वंश की परंपरा के अनुसार परिवार का ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनता है इसीलिए कैकई का वरदान मांगना अनुचित था। सच कहें तो महाराज दशरथ ने अपने वंश की परंपरा को लात मार कर अलग नहीं किया था वह तो अंत तक कैकई से कहते रहे कि यह वरदान देने में मैं असमर्थ हूं क्योंकि उन्होंने श्रीराम के राज्याभिषेक की घोषणा भरी सभा में की थी और उसके विरुद्ध कैकेई ने वरदान मांग ली है। जब श्रीराम महाराज दशरथ और कैकई से मिलने गए थे तब कह के ही नहीं वरदान की बात श्रीराम से कही थी और कहा था कि महाराज ने तुमको 14 वर्ष का वनवास दिया है;श्रीराम ने बहुत अच्छा कहकर आज्ञा शिरोधार्य कर ली।महाराज दशरथ अंत तक श्री राम के वनवास का विरोध करते रहे उन्होंने कैकेई को समझाने की कोशिश की उसको कई दुर्वचन भी कहे किंतु वह अपनी बात से नहीं डिग्गी और अंततः श्री राम ने अपने पिता को सत्य सिद्ध करने के लिए वनवास स्वीकार कर लिया। इस प्रकार से महाराज दशरथ को आप प्यार में अंधा है पागल नहीं कह सकते इक्ष्वाकु वंश की परंपरा यह भी थी भले ही प्राण चले जाएं किंतु दिया हुआ वचन खाली नहीं जाना चाहिए राज्य अभिषेक की घोषणा से बढ़ कर दिया हुआ वचन था इसलिए घोषणा से ऊपर वचन को माना गया।
*आक्षेप-२३-प्रश्न-९-* दशरथ को अपनी मूर्खता का प्रायश्चित तथा कुछ मूल्य चुकाना चाहिए था; इसके विपरीत उसने कैकई को श्राप दिया।
*समीक्षा-* हम चकित है कि कैकेई के पारितोषिक रूप में उसे दिए गए दो वरदानों को आप पागलपन और मूर्खता कैसे बता रहे हैं ।वरदान देना महाराज दशरथ का कर्तव्य था और वरदान मांगना कैकई का अधिकार था। कैकई ने रघु कुल की परंपरा के विरुद्ध प्रजा महाराज जनपत राजाओं की इच्छाओं के विरुद्ध वरदान मांगा ।उसको सत्य सिद्ध करने के लिए श्री राम वनवास को चले गए अपने पुत्र का वियोग सहन कर लिया क्या महाराज दशरथ ने कम मूल्य चुकाया? महाराज दशरथ ने घोषणा के विरुद्ध श्री राम को वनवास दे दिया कैकई को प्रसन्न करने के लिए भारत को सिंहासन दे दिया। क्या महाराज दशरथ ने अपने वचन पूरे करके भी कम मूल्य चुका है सच कहें तो कैकई को मूर्खतापूर्ण वरदान मांगने के लिए प्रायश्चित करना था परंतु उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया और आप ऐसे महिला की तरफदारी कर रहे हैं आपकी बुद्धि पर शोक करने के अलावा और क्या किया जा सकता है।
*आक्षेप-२४-प्रश्न-१०-* वह भूल गया कि मैं कौन और क्या हूं तथा मेरी स्थिति क्या है और कैकई के पैरों पर गिर पड़ा।पड़ा।
*समीक्षा-* महाराज दशरथ को अपनी गरिमा का पूरा ध्यान था ।कैकेई से वार्तालाप करते समय वह एक चक्रवर्ती राजा नहीं ,अपितु एक पति थे। पति-पत्नी एक-दूसरे के आधे शरीर माने जाते हैं ।यदि महाराज दशरथ ने कैकई के चरण छू भी लिए तो इस पर आपको क्या तकलीफ है? मुहावरे के रूप में कहा जाता है कि “मैं तेरे हाथ जोड़ता, हूं तेरे पैर पड़ता ह”ूं पर सच में कोई हाथ पांव नहीं पड़ता।यहां भी मुहावरे दार भाषा ही समझनी चाहिये और महाराज ने कैकई के चरण पकड़ भी रही है तो इसमें कोई दोष नहीं एक तरफ तो आप लोग महिलाओं के अधिकारों की वकालत करते हैं और जब महाराज दशरथ अपनी पत्नी के चरणों में झुक कर महिला उत्थान कर रहे है तो उनको नामर्द बताते हैं इस दोगलेपन के लिए क्या कहा जाए!
*आक्षेप-२५-प्रश्न-११-* सुमंत्र और वशिष्ठ दशरथ के वचनों से अवगत थे। कैकेई के प्रति के वचनों की ओर संकेत कर सकते थे ।दशरथ को सचेत कर डालते थे। राम को राजगद्दी ना देने का परामर्श देसकते थे।- पर उन्होंने ऐसा नहीं किया
*समीक्षा-* यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि कैकेई के प्रति दिए गए वचन के बारे में महर्षि वशिष्ठ और सुमंत्र को पता था। यदि मान भी लें तो भी महाराज दशरथ को सचेत करके वह क्या कर सकते थे? उनको थोड़े मालूम था कि कैकेयी उनसे श्री राम का वनवास और भरत के लिये राज्य मांग लेगी। आपका प्रश्न ही मूर्खतापूर्ण है !कैकेयी कुछ और भी मांग सकती थी।
और वशिष्ठ और सुमंत्र श्रीराम को राजगद्दी ना देने का परामर्श भला किसलिए करेंगे ?ऊपर आप ही स्वीकार कर चुके हैं कि इक्ष्वाकु कुल की परंपरा के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र को राज्य मिलता था और केकई के पिता को महाराज दशरथ ने उससे उत्पन्न पुत्र को राजगद्दी देने का कोई वचन नहीं दिया यह हम पहले आक्षेप के उत्तर में ही सिद्ध कर चुके हैं। तो इस प्रकार का परामर्श वे महाराज दशरथ को कैसे दे सकते थे? वैसे भी वचन तो दशरथ ने दिए थे,उन्हें पूर्ण करने का दायित्व उनका था यहां वशिष्ठ और सुमंत्र भला क्या कर सकते थे? इस विषय में हस्तक्षेप करने का उन्हें क्या अधिकार था? आप का तो प्रश्न ही अशुद्ध है ।लगता है भंग की तरंग में ही यह प्रश्न लिख मारा है।
*आक्षेप-२६-प्रश्न-१२-* वशिष्ठ ने जो कि ,भविष्यवक्ता थे राम राज्य- तिलकोत्सव के शुभ-अवसर  को शीघ्रता से निश्चय कर दिया-यद्यपि वह भलीभांतु जानता था ,कि यह योजना निष्फल हो जायेगी।
*समीक्षा-* आयंगर साहब कितने बेतुके आक्षेप लगा रहे हैं हम इस बात पर आश्चर्य चकित हैं!” वशिष्ठ जी भविष्यवक्ता थे और वे जानते थे कि राज्याभिषेक की तैयारी निष्फल हो जाएगी”- जरा बताइए कि वाल्मीकि रामायण में इसका उल्लेख कहां है ?बिना प्रमाण दिये सुनी-सुनाई बात लिख मारी।सच कहें तो वाल्मीकि रामायण में इस बात की गंध तक नहीं है। यह महाशय का अपने घर का गपोड़ा है।यह ते सत्य है कि ज्योतिष और पदार्थ विद्या  द्वारा सूर्य-ग्रहण,मौसम,ऋतुचक्र,दैवीय आपदाआदि का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है,परंतु किसी का भविष्य देखना सर्वथा असंभव और निराधार गप्प है।वाल्मीकि रामायण में इसका वर्णन न होने से आक्षेप निर्मूल सिद्ध हुआ।
*आक्षेप-२७-प्रश्न-१३-* कैकेई अपना न्याय संगत स्वत्व  एवं अधिकार मांगती रही किंतु सिद्धार्थ सुमंत्र और वशिष्ठ उसे विपरीत परामर्श देने उसके पास दौड़ गए। इस पर निष्फल होने पर उन्होंने उसे फटकारा।
*समीक्षा-* यह सत्य है कि महाराज दशरथ से वरदान मांगना कैकेई का अधिकार था, किंतु उसका प्रजा की रुचि के और रघु कुल की परंपरा के विरुद्ध वरदान मांगना अनुचित था। सिद्धार्थ सुमंत्र और महर्षि वशिष्ठ ने कैकेई को यही बात समझाने का प्रयास किया कि रघु कुल की परंपरा के विरुद्ध श्री राम को वनवास और भारत को राज्य देना गलत है ।परंतु मूढ़मति कैकेयी फिर भी ना मानीऔर इस कारण केवल उन तीनों ने ही नहीं ,अपितु सारी प्रजा ने कैकई को धिक्कारा हम इन तीनों को दोषी मान सकते हैं पर क्या आप अयोध्या की जनता भी दोषी है?जो स्त्री अपने अधिकृत वचनों का अनैतिक और अनुचित प्रयोग करेगी,उसका इसी प्रकार तिरस्कार किया जायेगा।ऐसी किसी स्त्री को कोई फूलमाला न पहनावेगा।
क्रमशः…….
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मित्रों! अगली पोस्ट में अंतिम ७ आक्षेपों का उत्तर देकर *दशरथ महाराज* विषय का समापन करेंगे और उसके बाद श्रीराम पर लगे आक्षेपों का खंडन करेंगे।
आप लोगों का हमारी लेख श्रृंखला को पसंद एवं शेयर करने के लिये हमारी ओर से बहुत-बहुत आभार।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र जी की जय।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : पति के अधिकार

पति के अधिकार

 

मैथुन के मामले में एक पति को अपनी पत्नी पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है। ”तुम्हारी बीवियां तुम्हारे द्वारा जोती जाने वाली जमीनें हैं; तुम जितनी बार चाहो उन्हें जोत सकते हो“ (3363)। यहां विचार कुरान में भी पाया जाता है (2/223)। इसी प्रकरण की एक अन्य हदीस हमें बतलाती है कि कोई पति ”यदि वह चाहे तो बीवी के साथ सामने से या पीछे से किसी भी प्रकार मैथुन कर सकता है। किन्तु मैथुन एक ही छेद में होना चाहिए“ (3365)। टीकाकार हमें समझाते हैं कि यहां आशय सिर्फ योनि से है।1

 

  1. क्या इस निषेध का पैगम्बर की जिन्दगी की किसी घटना से ताल्लुक है ? जब उन्होंने अबू बकर की बेटी आयशा से शादी की तो अबू बकर को उम्मीद थी कि मुहम्मद अपनी बेटी फातिमा उनको ब्याह देंगे। पर मुहम्मद ने जवाब दिया-”मैं एक इलहाम के इंतजार में हूं।“ जब अबू बकर ने ये शब्द उमर को सुनाए, तो उमर बोले-”उन्होंने तुम्हारी दरख्वास्त नामंजूर कर दी“ (मीरखोंद, रौजत अस-सफा, जिल्द 1, भाग 2 पृष्ठ 269)

 

  1. हमें बतलाया जाता है कि यह निर्देश तलाक को निरूत्साहित करने के लिए दिया गया था। क्योंकि फिर से सहवास लगाव होने के कारण लोग तलाक को सहज समझने लगे थे। किसी भी जोड़ी को यह समझ लेना चाहिए कि शादी का रिश्ता गम्भीर बात है और उसे तोड़ने के पहले दो बार (दरअसल तीस बार) विचार करना चाहिए। लेकिन मनुष्य प्रगल्म प्राणी है और वह अल्लाह की मरजी को उलटता रहता है। नये विधान ने दूसरी ही तरह की कुरीति को जन्म दिया। इससे एक अस्थायी पति बनाने की परम्परा पड़ी। पहला पति किसी कुरूप पुरुष को किराए पर लेकर यह व्यवस्था करने लगा कि उसके साथ किया गया विवाह औरत को न भाए और नई शादी जल्दी टूट जाए।

 

बीबी का फर्ज़ है कि वह पति के सभी प्रस्तावों के प्रति अनुकूल रहे। ”जब एक औरत अपने पति के बिस्तर से दूर रात बिताती है, तो फरिश्ते सवेरे तक उसे शाप देते रहते हैं“ (3366)।

 

author : ram swarup

मैं तो भिक्षा का भोजन ही करूँगा

मैं तो भिक्षा का भोजन ही करूँगा

हमारे ऋषियों ने जीवन-निर्माण के लिए कई ऐसे आदेशनिर्देश दिये हैं, जिनका पालन करना तो दूर रहा, आज के भौतिकवादी युग में उनकी गौरवगरिमा को समझना ज़ी हमारे लिए कठिन हो

गया है। ब्रह्मचारी भिक्षा माँगकर निर्वाह करे और विद्या का अज़्यास करे, यह भी एक आर्ष आदेश है। अब बाह्य आडज़्बरों से दबे समाज के लिए यह एक हास्यास्पद आदेश है फिर भी इस युग में आर्यसमाज के लौहपुरुष स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी, स्वामी वेदानन्दजी से लेकर स्वामी सर्वानन्द जी ने भिक्षा माँगकर अनेक विद्यार्थियों को विद्वान् बनाया है। दीनानगर दयानन्द मठ में अब भी एक समय भिक्षा का भोजन आता है।

जब पं0 ब्रह्मदज़जी ‘जिज्ञासु’ पुल काली नदीवाले स्वामी सर्वदानन्दजी महाराज के आश्रम में पढ़ाते थे तो आप ग्रामों से भिक्षा माँगकर लाते थे। दोनों समय भिक्षा का अन्न ही ग्रहण किया करते थे। वीतराग स्वामी सर्वदानन्दजी ने कई बार आग्रह किया कि आप आश्रम का भोजन स्वीकार करें, परन्तु आपका एक ही उज़र होता था कि मैं तो ऋषि की आज्ञानुसार भिक्षा का ही भोजन करूँगा।

कितना बड़ा तप है। अहंकार को जीतनेवाला कोई विरला महापुरुष ही ऐसा कर सकता है। दस वर्ष तक श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज श्रीमद्दयानन्द उपदेशक विद्यालय लाहौर के आचार्य

पद को सुशोभित करते रहे परन्तु एक बार भी विद्यालय का भोजन ग्रहण नहीं किया। भिक्षा का भोजन करनेवाले इस आचार्य ने पण्डित रामचन्द्र (स्वामी श्री सर्वानन्दजी) व पण्डित शान्तिप्रकाश जी शास्त्रार्थ महारथी जैसे नररत्न समाज को दिये। पण्डित ब्रह्मदज़जी ‘जिज्ञासु’ ने पूज्य युधिष्ठिरजी मीमांसक- जैसी विभूतियाँ मानवसमाज को दी हैं। हम इन आचार्यों के ऋण से

मुक्त नहीं हो सकते। पण्डित हरिशंकर शर्माजी ने यथार्थ ही लिखा है-

निज उद्देश्य साधना में अति संकट झेले कष्ट सहे। पर कर्ज़व्य-मार्ग पर दृढ़ता से वे अविचल अड़े रहे॥

पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१६

पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१६
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! आगे पेरियार साहब ने किसी श्रीनिवास आयंगर की पुस्तक “अयोध्या कांड पर टिप्पणी” का प्रमाण देकर दशरथ पर १२ आक्षेप लगाये हैं।जैसे ऊतनाथ वैसे भूतनाथ! जैसे पेरियार साहब वैसे उनके साक्षी! अब आयंगर जी के आक्षेपों पर हमारी आलोचनायें पढें और आनंद लें:-
*आक्षेप-१५- प्रश्न-१*दशरथ ने बिना विचार किये कैकेयी को दो वरदान देने की भूल की।
*समीक्षा*- आप इसे महाराज दशरथ की भूल कैसे कह सकते हैं?देवासुर संग्राम में कैकेयी ने महाराज दशरथ की जान बचाई थी।इसलिये प्रसन्न होकर दशरथ जी ने उसे दो वरदान दिये।कैकेयी अपने काम के लिये पारितोषिक की अधिकारिणी थी। दशरथ ने उनको वरदान दिये कैकेयी ने कहा कि समय आने पर मांग लूंगी।हम मानते हैं कि कैकेयी को उसी समय वरदान मांगते थे और दशरथ को भी उसी समय पूर्ण करना था।पर दो वरदान देना गलत नहीं कहा जा सकता।हां,कैकेयी का मूर्खतापूर्ण वरदान मांगना अवश्य भूल थी।
*आक्षेप-१६-प्रश्न-२* कैकेयी के विवाह करने के पूर्व दशरथ ने उससे उत्पन्न पुत्र को राजगद्दी देने की भूल की।
*समीक्षा-*हम पहले बिंदु के उत्तर में सिद्ध कर चुके हैं कि महाराज दशरथ ने कैकेयी के पिता को ऐसा कोई वचन नहीं दिया था।अतः आक्षेप निर्मूल है।इक्ष्वाकुकुल की परंपरानुसार ज्येष्ठ पुत्र ही राजा बनता था।इसके विरुद्ध राजा दशरथ ऐसा अन्यथा वचन नहीं दे सकते।
*आक्षेप-१७-प्रश्न-३* साठ वर्ष का दीर्घ समय व्यतीत कर चुकने के पश्चात भी अपने पशुवत विचारों का दास बने रहने के दुष्परिणाम स्वरूप अपनी प्रथम स्त्री कौसल्या तथा द्वितीय स्त्री सुमित्रा के साथ वह व्यवहार न कर सका जिनकी वो अधिकारिणी थीं।
*समीक्षा-* यह आक्षेप निर्मूल है। महाराज दशरथ पशुवत विचारों के नहीं थे,अपितु महान मानवीय विचारों के स्वामी थी।उनके गुणों का वर्णन हम पीछे कर चुके हैं।क्या ६० वर्ष के बाद वानप्रस्थ की इच्छा करना और अपने ज्येष्ठ पुत्र को राजगद्दी देना भी पशुवत व्यवहार है?,यदि उनका व्यवहार पशुवत था तो उनको मरते दम तक राज्य भोग करना था पर उन्होंने ऐसा नहीं किया।महाराज दशरथ जितेंद्रिय, वेदज्ञ,अश्वमेधादि यज्ञ करने वाले और श्रेष्ठ प्रजापालक थे। उनके पशुवत कहने वाले स्वयं पशुओं के बड़े भाई हैं ।
आपको प्रमाण देना चाहिये कि दशरथ ने कौसल्या और सुमित्रा से यथायोग्य व्यवहार नहीं किया। वे सभी रानियों से यथायोग्य प्रेम करते थे।यह ठीक है कि कैकेयी से उनका विशेष स्नेह था पर यह सत्य नहीं कि उन्होंने कौसल्या और सुमित्रा से यथायोग्य व्यवहार नहीं किया। क्या कौसल्या के पुत्र श्रीराम को राजगद्दी देना कौसल्या का सम्मान नहीं है?क्या पुत्रेष्टि यज्ञ की खीर का अतिरिक्त भाग सुमित्रा को देना उनका उनके प्रति प्रेम सिद्ध नहीं करता?आपका आक्षेप निर्मूल है।
*आक्षेप-१८-प्रश्न-४-*कैकेयी को दिये मूर्खतापूर्ण वचनों से उससे कैकेयी से अपनी खुशामद करवाई।
*समीक्षा-*कैकेयी को वरदान देना राजा का कर्तव्य था और कैकेयी को यह पारितोषिक मिलने का अधिकार था।वरदान देना मूर्खता नहीं अपितु कैकेयी द्वारा अनुचित वर मांगना मूर्खतापूर्ण था।कैकेयी कोे दिये वरदानों को पूरा करने में असमर्थ होने से राजा दशरथ ने उसे अवश्य मनाया,समझाया कि वो ऐसे अन्यथा वरदान न माने।क्या एक पति अपनी पत्नी को मना भी नहीं सकता?क्या इसे भी आप खुशामद कहेंगे?आपको भला पति-पत्नी के मामले के बीच में टीका-टिप्पणी करने क्या अधिकार है?राजा दशरथ का कैकेयी के चरण पकड़ने आदि का पीछे उत्तर दे चुके हैं।
*आक्षेप-१९-प्रश्न-५-*अपनी प्रज्ञा के समक्ष राम को राजतिलक करने की घोषणा कैकेयी व उसके पिता को दिये वचनों का उल्लंघन है।
*समीक्षा-*हम चकित हैं कि आप कैसे बेहूदा आक्षेप लगा रहे हैं!हम पहले सिद्ध कर चुके हैं कि राजा दशरथ ने कैकेयी के पिता कोई वचन नहीं दिया।और राम दी के राजतिलक की घोषणा पहले हुई।उसके बाद में कैकेयी ने यह वरदान मांगे कि ,”राम को दंडकारण्य में वास मिले और जिन सामग्रियों से राम का राज्याभिषेक होने वाला था उनसे भरत का राज्याभिषेक हो।”
कैकेयी के वरदानों के बाद राम राज्याभिषेक की घोषणा की बात कहना मानसिक दीवालियापन और रामायण से अनभिज्ञता दर्शाता है।
पेरियार साहब! आपका *”हुकुम का इक्का तो चिड़ी का जोकर निकला”* श्रीमन्!नकल के लिये भी अकल की जरूरत पड़ती है जो आप जैसे अनीश्वरवादियों से छत्तीस का आंकड़ा रखती है।
*आक्षेप-२०-प्रश्न-६-*कैकेयी की स्वेच्छानुसार उसे दिये गये वरदानों के फल-स्वरूप राम को गद्दी देने की अपनी पूर्ण घोषणा से वह निराश हो गया।
*समीक्षा-*राजा दशरथ ने   श्रीराम को गद्दी देने की भरी सभी में घोषणा की थी। अयोध्या की जनता,मंत्रीगण और समस्त जनपदों के राजा भी इसके पक्ष में थे।ऐसे में कैकेयी ने मूर्खतापूर्ण वरदान मांगे जिसमें राम को वनवास देना भी एक वचन था।महाराज दशरथ ने पहले भरी सभा में राज्याभिषेक की घोषणा की थी कि श्रीराम को राजगद्दी मिलेगी।कैकेयी के वरदान के कारण उनकी घोषणा मिथ्या हो जाती।अयोध्या की जनता भी अपने होने वाले शासक से वंचित हो जाती ।दशरथ का बहुत अपयश होता।वैसे भी,१४वर्ष तक पुत्र से वियोग के दुख के पूर्वाभास के कारण ऐसा कौन पिता होगा जो निराश न होगा?अतः आक्षेप पूर्णरूपेण अनर्गल है।
…………क्रमशः
पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें। अगले लेख में अगले ७ प्रश्नों का उत्तर दिया जायेगा।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र जी की जय।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : निषेध

निषेध

यह नियम बहुत उदार प्रतीत होता है। पर यह पूरी तरह ऐसा है नहीं। संख्या, सगोत्रता, सजातीयता, मजहब, पद-प्रतिष्ठा इत्यादि के आधार पर बहुत से प्रतिबंध हैं। उदाहरण के लिए, एक आदमी एक बार में चार से ज्यादा औरतों से शादी नहीं कर सकता (कुरान 4/3)-गुलाम रखैलों की संख्या के बारे में कोई प्रतिबन्ध नहीं है। साथ ही अपनी बीबी के पिता की बहन से अथवा उसकी मां की बहन से भी कोई शादी नहीं कर सकता (3228-3272)। अपने दूधभाई की लड़की के साथ भी कोई शादी नहीं कर सकता और अगर किसी की बीबी जिन्दा है और उसने तलाक नहीं लिया है, तो उस बीवी की बहन से भी शादी नहीं हो सकती (3412-3413)।

 

गैर-मुस्लिम से शादी करना भी मना है (कुरान 2/220-221)। बाद में इस प्रतिबंध में ढील दे दी गयी और एक मुसलमान मरद किसी यहूदी या ईसाई औरत से शादी कर सकता था (कुरान 5/5)। किन्तु एक मुस्लिम औरत किसी भी हालत में किसी गैर-मुस्लिम से शादी नहीं कर सकती।

 

अगर दोनों पक्ष पद और हैसियत (कफाह) में समान नहीं है तो भी शादी की इजाजत नहीं है, यद्यपि पद की परिभाषा अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग तरह से की गई है। सामान्यतः एक अरब को किसी गैर-अरब से ऊंचा माना जाता है। अरबों में पैगम्बर के रिश्तेदार सबसे ऊंचे माने जाते हैं। जिस व्यक्ति ने कुरान का कोई हिस्सा याद कर लिया हो उसे खुद मुहम्मद ने उपयुक्त वर माना था। एक औरत उनके पास आई और उसने अपने आप को उन्हें सौंप दिया। उन्होंने “सिर से पैर तक उस पर एक नजर डाली ….. पर कोई फैसला“ नहीं किया। एक साथी जो वहां खड़ा था, बोला-”रसूल-अल्लाह ! अगर आपको इसकी जरूरत नहीं है तो मुझसे इसकी शादी कर दीजिए।“ पर उस शख्स के पास कुछ भी नहीं था। दहेज में देने के लिए लोहे की अंगूठी तक नहीं। अतः वह निराश हो चला था कि मुहम्मद ने उससे पूछा कि क्या तुम कुरान की कुछ आयतें जानते हो और उन्हें बोल सकते हो ? उस आदमी ने हां कहा तब मुहम्मद ने निर्णय किया और वे बोले-”चलो, कुरान का जो हिस्सा तुम जानते हो, उसके बदले में मैंने इसे तुम्हें शादी के लिए दिया“ (3316)।

 

किसी को (एक औरत के लिए) अपने भाई से बढ़ कर बोली नहीं लगानी चाहिए। ”एक मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है। इसलिए किसी मुसलमान के लिए अपने भाई से बढ़कर बोली लगाना अनुचित है, और अगर उसके भाई ने कोई इकरार कर लिया हो, तो जब तक वह उसे तोड़ न दे तब तक (दूसरे मुसलमान को) वह इकरार नहीं करना चाहिए“ (3294)।

 

शिगार शादी भी मना है (3295-3301)।1 यह वह शादी है जिसमें यह व्यवस्था है कि तुम मुझे अपनी बेटी या बहन ब्याहो, बदले में मैं तुमसे अपनी बेटी या बहन ब्याह दूंगा।

 

जब कोई तीर्थ-यात्रा का आनुष्ठानिक पहनावा पहन ले, तब उसे शादी नहीं करनी चाहिए। पैगम्बर का हवाला देते हुए उस्मान बिन अफ्फान कहते हैं-”एक मुहरिम को न तो शादी करनी चाहिए और न ही शादी का पैगाम भेजना चाहिए“ (3281)। लेकिन यह मुद्दा विवादस्पद है। क्योंकि खुद मुहम्मद ने ”मैमूना से उस वक्त शादी की थी जब वे एक मुहरिम थे“ (3284)।

 

कोई व्यक्ति अपनी तलाकशुदा बीबी से तब तक दोबारा शादी नहीं कर सकता, जब तक कि वह औरत किसी दूसरे मर्द से शादी न कर ले और नया पति उसके साथ मैथुन करके उसे तलाक न दे चुका हो (3354-3356)। एक तलाकशुदा औरत ने शादी कर ली। फिर उसने अपने पुराने पति के पास वापस जाने का विचार किया। इसके लिए उसने पैगम्बर की इजाजत चाही और पैगम्बर को बतलाया कि उसके नए पति के पास जो कुछ है वह ”किसी वस्त्र की किनारी की तरह है“ (यानी वह यौनदृष्टि से कमजोर है)। पैगम्बर ”हंसे“ पर उन्होंने इजाज़त नहीं दी। उन्होंने उससे कहा-”तुम ऐसा तब तक नहीं कर सकतीं जब तक कि तुम उसकी (नये पति की) मिठास का मजा न ले लो और वह तुम्हारी मिठास न चख ले“ (3354)। 2

author : ram swarup

 

पूज्य उपाध्यायजी की महानता

पूज्य उपाध्यायजी की महानता

1956 ई0 की वर्षाऋतु की बात है। मैं दिल्ली गया। पूज्य पण्डित गंगाप्रसादजी उपाध्याय भी किसी सामाजिक कार्य के लिए दिल्ली आये। श्री सन्तलालजी विद्यार्थी सज़्पादक ‘रिफार्मर’ की

प्रार्थना पर उपाध्यायजी ने ‘पयामे हयात’ नाम से एक उर्दू पुस्तक लिखी। पुस्तक की पाण्डुलिपी दिवंगत श्री विद्यार्थी जी को दे दी।

श्री विद्यार्थीजी ने उपाध्यायजी को बताया कि आपका शिष्य (राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’) भी यहीं आया हुआ है। उपाध्यायजी ने उन्हें कहा- ‘‘यह पाण्डुलिपि उसे दिखा दो और कहो कि इसमें कोई त्रुटि

हो तो सुधार कर दे। जो घटाना बढ़ाना हो कर ले।’’

श्री विद्यार्थीजी ने यह सन्देश मुझे दिया तो मुझे विश्वास नहीं हुआ कि श्री उपाध्यायजी ने मुझे कोई ऐसी आज्ञा दी होगी। मैंने विद्यार्थीजी से कहा भी कि आप तो उपहास के लिए ऐसा कह रहे हैं। उन्होंने बहुत कहा पर मुझे विश्वास न आया।

मैं पूज्य उपाध्यायजी के दर्शनार्थ दयानन्द वाटिका (अब दयानन्द वाटिका नहीं) गया। पूज्यपाद उपाध्यायजी ने मिलते ही कहा कि विद्यार्थी जी मिले ज़्या? पाण्डुलिपि ले आये? उस पुस्तक को

देखो, कोई त्रुटि हो तो ठीक कर दो। मुझे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने एक फ़ारसी लोकोक्ति कही जिसका भाव है कि ‘‘कब आये और कब गुरु बन बैठे।’’ मेरा अभिप्राय स्पष्ट ही था और है।

श्रद्धेय उपाध्यायजी इस युग के एक महान् मनीषी, दार्शनिक, लेखक व नेता थे और मैं अब भी एक साधारण लेखक हूँ। तब तो और भी छोटा व्यक्ति था। मैंने कहा भी कि मुझे ज़्या आता है जो आपकी पुस्तक में दोष निकालूँ?

मैं तो कहता ही रहा परन्तु महापुरुष की आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने पुस्तक ‘पयामे हयात’ की पाण्डुलिपि देखी। कुछ सुझाव भी दिये जो लेखक ने स्वीकार किये, परन्तु न जाने पुस्तक कहाँ छुप गई जो अब तक नहीं छपी। 24 दिसज़्बर 1959 ई0 के दिन मथुरा में पूज्य उपाध्यायजी ने कहा-‘‘मैं पुस्तक उनसे वापस लूँगा फिर वे भूल गये। इस संस्मरण को यहाँ देने का प्रयोजन यही है कि पाठक अनुभव करें कि ऋषि दयानन्द का वह महान् शिष्य कितने उच्चभावों से विभूषित था। अहंकार तो उनमें था ही नहीं। विद्या का मद न था। छोटे-छोटे लोगों को आगे लाने का यही तो ढंग है। मथुरा में भी इस पुस्तक के बारे एक विशेष बात कही जो गंगा-ज्ञान सागर

चौथे भाग में दी गई है।

पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१५

*पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१५*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते पाठकों!अब तक सच्ची रामायण खंडन संबंधी १४ पोस्ट आपने मनोयोग से पढ़ी और प्रचारित की।अब १५वीं पोस्ट में आपका स्वागत है। दशरथ शीर्षक द्वारा महाराज दशरथ पर किये आक्षेपों के क्रम में आज आक्षेप बिंदु १० से १४ तक का खंडन किया जायेगा।
*आक्षेप-१०* …..जब अंत में अंत में दशरथ के सारे प्रयास निष्फल हो गए तब दशरथ ने राम को अपने पास बुलाकर कानों में चुपके से कहा मेरा कोई बसना चलने के दुष्परिणाम स्वरूप अब मैं भारत को राज तिलक करने को तैयार हो गया हूं ।अब तुम्हारे ऊपर कोई बंधन नहीं है तुम मुझे गद्दी से उतार कर अयोध्या के राजा हो सकते हो। इत्यादि।
*समीक्षा*- यह ठीक है कि राजा दशरथ ने श्रीराम से यह बात कही। श्री रामचंद्र राजगद्दी के असली अधिकारी थे,(ज्येष्ठ पुत्र होने से)। कैकेई के पिता को वचन वाली बात हम झूठी सिद्ध कर चुके हैं यही नहीं अयोध्या की जनता, मंत्रिमंडल और राजा महाराजा ,जनपद सब श्रीराम को राजा बनाना चाहते थे। क्योंकि भरी सभा में घोषणा करने के बाद भी राजा दशरथ अपना वचन निभाने के कारण श्री राम को वनवास देते हैं उनकी श्री राम को गति देने की प्रतिज्ञा मिथ्या हो जाएगी। महाराज दशरथ वृद्ध हो चुके थे, अतः श्री राम का अधिकार था कि दशरथ को गद्दी से उठाकर स्वयं राज गद्दी पर विराजमान हो जाए ।महाराज दशरथ ने कैकई को जो दो वरदान दिए थे उनको पूर्ण करने का दायित्व उन पर था श्री राम को वनवास दे ने का वचन महाराज दशरथ ने दिया था,श्रीराम उसे मानने के लिए बाध्य नहीं थे अतः श्री राम बलपूर्वक राजगद्दी पर अधिकार कर सकते थे और कोई उनका विरोध भी नहीं करता और ना ही कोई अधर्म होता। परंतु श्रीराम ने अपने पिता को सत्यवादी सिद्ध करने के लिए हंसते-हंसते बनवास ग्रहण कर लिया,देखिये:-
अहं राघव कैकेय्या वरदानेन मोहितः ।
अयोध्यायां त्वमेवाद्य भव राजा निगृह्य माम् ॥ २६ ॥
‘राघव ! मैं कैकेयीको दिये वर के कारण मोह में पड़नहीं।
। तुम मुझे कैद करके स्वतः अयोध्या के  राजा बन जाओ ॥२६॥(अयोध्याकांड ३४-२६)
उत्तर मैं श्रीराम ने कहा:-
भवान् वर्षसहस्राय पृथिव्या नृपते पतिः ।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि न मे राज्यस्य काङ्‌क्षिता ॥ २८ ॥
“महाराज ! आप सहस्रों(अर्थात् अनेक) वर्षों तक इस पृथ्वीके अधिपति होकर रहें ।मैं तो अब वनमें ही  निवास करूंगा।मुझे राज्य लेने की इच्छा नहीं ॥२८॥
नव पञ्च च वर्षाणि वनवासे विहृत्य ते ।
पुनः पादौ ग्रहीष्यामि प्रतिज्ञान्ते नराधिप ॥ २९ ॥
“नरेश्वर ! चौदह वर्षों तक वन में घूम-फिरकर आपकी प्रतिज्ञा पूरी करके बादमें मैं पुनः आपके युगल चरणों में  मस्तक नवाऊंगा ॥२९॥(अयोध्याकांड सर्ग ३४)
यह था श्रीराम का आदर्श!
*आक्षेप-११* सभी प्रयत्न निष्फल हो चुकने के बाद दशरथ ने सुमंत्र को आज्ञा दी की कोषागार का संपूर्ण धन खेतों का अनाज व्यापारी प्रजापत वेश्याएं राम के साथ वन में भिजवाने का प्रयत्न करो।(अयोध्याकांड ३६)
*आक्षेप-१२* कैकेई नहीं इस पर भी आपत्ति प्रकट की और विवादास्पद पर उपस्थित करके दशरथ को असमंजस में डाल दिया -“तुम केवल देश चाहते हो ना कि उसकी पूरी संपत्ति” ।
*समीक्षा*- यह सत्य है कि महाराज दशरथ ने श्रीराम के साथ समस्त कोषागार का धन व्यापारी ,अन्न भंडार, नर्तकियां(देहव्यापार वाली वेश्यायें नहीं,अपितु परिचारिकायें)आदि भेजने की बात कही। अयोध्याकांड सर्ग ३६ श्लोक १-९ में यह वर्णन है। कैकेयी ने इस बात का विरोध भी किया और श्रीराम ने भी इन सबको अस्वीकार कर दिया ।महाराज दशरथ पुत्रवियोग के कारण विषादग्रस्त स्थिति में थे।उनके पुत्रों और बहू को वन में कोई दुविधा न हो इसके लिये वे सब उपयोगी सामान श्रीराम को देना चाहते थे।एक पिता अपनी संतान को सब सुख-सुविधायें देना चाहता है। अपने जीवन भर की जमा-पूंजी वह अपने पुत्र के लिये ही संचित करता है।पुत्रवियोग से विषादग्रस्त होकर उन्होंने यदि ऐसी बात कह भी दी तो भी इसमें आपत्ति योग्य कुछ भी नहीं है।
देखिये-
अनुव्रजिष्याम्यहमद्य रामं
     राज्यं परित्यज्य सुखं धनं च ।
सर्वे च राज्ञा भरतेन च त्वं
     यथासुखं भुङ्क्ष्व चिराय राज्यम् ॥ ३३ ॥
‘अब मैं भी ये राज्य, धन और सुख छोड़कर रामके पीछे-पीछे निकल जाऊंगा।ये सब लोगभी उनके ही साथ जायेंगे। तू अकेली राजा भरत के साथ चिरकालपर्यंत सुखपूर्वक राज्य भोगती रह’ ॥३३॥
अब राजा ने यहां अपनी आज्ञा वापस लेली।साथ ही समस्त अयोध्या वासी श्री राम के पीछे चल पड़े।श्रीराम ने भी समस्त सेना आदि लेने से मना कर दिया:- अयोध्याकांड सर्ग ३७
त्यक्तभोगस्य मे राजन् वने वन्येन जीवतः ।
किं कार्यमनुयात्रेण त्यक्तसङ्गस्य सर्वतः ॥ २ ॥
‘राजन् ! मैं भोगों का परित्याग कर चुका हूं। मुझे जंगलके फल-मूलों से  जीवन-निर्वाह करना है।यदि मैंने सब प्रकारसे  अपनी आसक्ति नहीं छोड़ीे तो मुझे सेनाका क्या प्रयोजन है?॥२॥इत्यादि।
लीजिये,अब संतुष्टि हुई?श्रीरान ने भी ऐश्वर्य लेने से मना कर दिया।केवल वल्कल वस्त्र और कुदाली मांगी-
सर्वाण्येवानुजानामि चीराण्येवानयन्तु मे ॥ ४ ॥
खनित्रपिटके चोभे समानयत गच्छत ।
चतुर्दश वने वासं वर्षाणि वसतो मम ॥ ५ ॥ (अयोध्याकांड सर्ग ३७)
अब तसल्ली हुई महाशय? यहां महाराज दशरथ पर कोई दोष नहीं आता।
*आक्षेप-१३* दशरथ ने कोषागार में रखे हुए सभी आभूषण सीता सौंप दिये।
*समीक्षा*-क्यों महाशय?सीता जी को आभूषण और वस्त्र देने में आपको क्या आपत्ति है?क्या वनवास सीताजी को मिला था?वनवास केवल श्री राम को मिला था,मां सीता पतिव्रता होने के कारण उनके साथ जा रही थीं।यदि वे आभूषण ले भी जायें तो क्या दोष है?
महाराज दशरथ कैकेयी से कहते हैं:-
चीराण्यपास्याज्जनकस्य कन्या
     नेयं प्रतिज्ञा मम दत्तपूर्वा ।
यथासुखं गच्छतु राजपुत्री
     वनं समग्रा सह सर्वरत्‍नैः ॥ ६ ॥
‘जनकनंदिनी आपने चीर-वस्त्र उतारे। ‘ये इस रूपमें वनामें जाये’ ऐसी कोईभी प्रतिज्ञा मैंने प्रथम नहीं की;और किसीको ऐसा वचनभी नहीं दिया। इसलिये राजकुमारी सीता संपूर्ण वस्त्रालंकारों से संपन्न होकर सब प्रकार के रत्‍नों के साथ, जिस प्रकार से वो सुखी रह सकेगी, उस प्रकारसे वनको जा सकती हैं॥६॥(अयोध्याकांड ३८)
वासांसि च वरार्हाणि भूषणानि महान्ति च ।
वर्षाण्येतानि सङ्ख्याय वैदेह्याः क्षिप्रमानय ॥ १५ ॥
‘(सुमंत्र से)आप वैदेही सीताके धारण करने योग्य बहुमूल्य वस्त्र और महान आभूषण,जो चौदह वर्षोंतक पर्याप्त हों ऐसे, चुनकर शीघ्र ले आइये’ ॥१५॥
व्यराजयत वैदेही वेश्म तत् सुविभूषिता ।
उद्यतोंऽशुमतः काले खं प्रभेव विवस्वतः ॥ १८ ॥
उन आभूषणों से विभूषित होकर वैदेही, प्रातःकाली उदय मान अंशुमाली सूर्यकी प्रभा आकाश को जिस प्रकार प्रकाशित करतीे है उसी प्रकार सुशोभित होने लगी॥१८॥
(अयोध्याकांड सर्ग ३९)
अतः आपका आक्षेप निर्मूल है।सीता वन को वल्कल वस्त्र पहनकर जाये ऐसी कोई प्रतिज्ञा राजा दशरथ ने नहीं थी।इसलिये सीताजी को आभूषण और वस्त्र देने में कोई दोष नहीं।
*आक्षेप १४*- राम और सीता को वनवास भेजने के कारण दशरथ ने कैकई के ऊपर गालियों की बौछार कर दी।किंतु दशरथ को राम के साथ लक्ष्मण को वनवास भेजने में कोई बेचैनी नहीं हुई। लक्ष्मण की स्त्री का कहीं कोई वर्णन नहीं।
*समीक्षा*- राजा दशरथ को अपने चारों पुत्रों से बराबर स्नेह था परंतु श्रीराम उनको चारों में अत्यंत प्रिय थे।श्री राम यदि वनवास जाते तो उनके अनुचर होने के कारण लक्ष्मण जी भी स्वतः उनके साथ चलेंगे-यह राजा दशरथ को मालूम था।इसलिये उन्होंने श्रीराम को रोकने की कोशिश की।यदि श्रीराम वनको न जाते तो लक्ष्मण और मां सीता भी अयोध्या में ही रहते,कहीं न जाते।श्रीराम को रोकने से लक्ष्मण स्वतः रुक जाते क्योंकि वे “श्रीराम के शरीर के बाहर विचरण करने वाले प्राण थे” ।अतः जितनी बेचैनी उनको श्रीराम के वन जाने में थी,उतनी ही लक्ष्मण और मां सीता के प्रति भी थी।उसमें भी श्रीराम की उनको अधिक परवाह थी क्यों कि उनके जाने पर एक तो उनकी घोषणा मिथ्या हो जाती और साथ ही पुत्र वियोग और अयोध्या को अपने प्रिय राजा का वियोग भी सहना पड़ता।अतः श्रीराम के प्रति भी दशरथ को लक्ष्मण जितनी ही परवाह थी।
लक्ष्मण जी की स्त्री-उर्मिला का वर्णन वनगमन के समय वाल्मीकीय रामायण में नहीं है।पर इससे क्या फर्क पड़ता है? रामायण के प्रधान नायक श्रीराम है,लक्ष्मण जी तो उनके सहायक नायक हैं।इसलिये उनके गौण होने से उर्मिला वर्णन नहीं है। निश्चित ही उर्मिला ने अपने पति की अनुपस्थिति में ब्रह्मचर्य पालन करके भोगों से निवृत्ति कर ली होगी।कई रामकथाओं में यह वर्णन है भी।
पाठकगण!पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें।
अगली पोस्ट में हम पेरियार साहब द्वारा किन्हीं “श्रीनिवास आयंगर” के १२ आक्षेपों का खंडन आरंभ करेंगे,जिनका संदर्भ वादी ने दिया है।आक्षेप क्या हैं,पेरियार साहब ने अपने आक्षेपों को ही अलग रूप से दोहराया है और कुछ नये आक्षेप हैं।इनका उत्तर हम अगले लेख में देना प्रारंभ करेंगे ।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र की जय।
योगेश्वर कृष्ण चंद्र की जय।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : अस्थायी शादी (मुताह)

अस्थायी शादी (मुताह)

मुहम्मद ने अस्थायी शादियों की इज़ाज़त दी है। अब्दुल्ला बिन मसूद कहते हैं-”हम सब अल्लाह के पैगम्बर के साथ एक चढ़ाई पर गए थे और हमारे साथ औरतें नहीं थीं। हम बोले-क्या हमें अपने आपको बधिया नहीं करा लेना चाहिए ? पाक पैगम्बर ने ऐसा करने से मना किया। फिर उन्होंने हमें इज़ाज़त दे दी कि हमें एक विशेष अवधि के लिए अस्थायी शादी कर लेनी चाहिए और इसके लिए (दहेज़ के रूप में) उसे एक पहनने का वस्त्र दे देना चाहिए।“ इस पर अब्दुल्ला खुश हो गये और उन्हें कुरान की यह आयत याद आ गयी-”मोमिनो ! जो पाकीजा चीजें तुम्हारे लिए अल्लाह ने हलाल की हैं, उनको हराम न करो और हद से न बढ़ो। अल्लाह हद से बढ़ने वाले को पसंद नहीं करता“ (3247; कुरान 5/87)।

 

जाबिर कहते हैं-”हमने दहेज़ के रूप में कुछ खजूर और आटा देकर अस्थायी शादियां की (3249)। उन्होंने कुछ अन्य लोगों से कहा-”हां हम सब पाक पैगम्बर के जीवनकाल में इस अस्थायी शादी से फायदा उठाते रहे हैं और अबू बकर तथा उमर के वक्त में भी“ (3248)। इयास बिन सलमा अपने पिता के प्रमाण से बतलाते हैं कि ”अल्लाह के रसूल ने औतास के साल (हुनैन की लड़ाई के बाद हिजरी सन् 8) में तीन रातों के लिए अस्थायी शादी करने की मंजूरी दी और बाद में उसके लिए मना कर दिया“ (3251)।

 

सुन्नी पंथमीमांसक इस तरह की शादी को अब वैध नहीं मानते। पर शिया लोग उनसे मतभेद रखते हैं और ईरान में अभी भी इसका रिवाज है। शिया पंथमीमांसक इसके पक्ष में कुरान की एक आयत का हवाला देते हैं-”शादीशुदा औरतें भी तुम्हारे लिए (हराम) हैं, सिवाय उनके जो बांदियों के तौर पर तुम्हारे कब्जे में आ जायें …. और उसके अलावा तुम्हें इज़ाज़त है कि तुम अपना धन खर्च करके बीवियां ढूंढ लो, विनम्र व्यवहार के साथ और व्यभिचार के बिना। और जिनके साथ तुमने मैथुन किया है उन्हें उनका दहेज़ दो, यह कानून है। लेकिन अगर कानून से बाहर तुम आपस में रजामंदी कर लो तो कोई गुनाह नहीं होगा। बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला (और) बुद्धिमान है“ (कुरान 4/24)।

author : ram swarup

बड़ों का बड़पन

बड़ों का बड़पन

आर्यसमाज गणेशगंज लखनऊ का उत्सव था। विद्वान् लोग डी0ए0वी0 कॉलेज के भवन में ठहरे हुए थे। रात्रि को श्री सत्याचरणजी का व्याज़्यान था। उन्हें दूसरे दिन प्रयाग के स्कूल में जाना था। यह तभी सज़्भव था यदि कोई उन्हें प्रातः 3 बजे जगा दे।

महात्मा नारायण स्वामीजी ने यह उज़रदायित्व स्वयं सँभाला। दूसरे दिन प्रातःकाल उपाध्यायजी यह सुनकर चकित रह गये कि श्री सत्याचरण को जगाने के लिए महात्माजी स्वयं सारी रात न सो सके।

यह घटना छोटी होते हुए भी महात्मा नारायण स्वामीजी की महानता को प्रकट करती है।

मैं कैसे कहूँ कि न पहनो

मैं कैसे कहूँ कि न पहनो

हिन्दी सत्याग्रह के पश्चात् 1958 ई0 में एक बार हम यमुनानगर गये। तब स्वामी श्री आत्मानन्दजी अस्वस्थ चल रहे थे। उन्हें शरीररक्षा के लिए रुई की जैकट बनवाकर दी गई।

किसी आर्यपुरुष ने उनके आश्रम में सब ब्रह्मचारियों के लिए रुई की जैकटें बनवाकर भेज दीं। गुरुकुलों के ब्रह्मचारी प्रायः सर्दी-गर्मी के अज़्यासी होते हैं, अतः कोई जैकट न पहनता था। एक बार रिवाज पड़ जावे तो फिर प्रतिवर्ष सबके लिए सिलानी पड़ें। एक ब्रह्मचारी (श्री आचार्य भद्रसेनजी होशियारपुरवाले) ने स्वामीजी से कहा-‘‘अमुक सज्जन ने जैकटें भेजी हैं। आप उन्हें कह दें कि ये नहीं चाहिएँ। आप कह दें कि-ब्रह्मचारियों को इसकी ज़्या आवश्यकता है?’’

पूज्य स्वामी जी तब अपनी कुटिया में जैकट पहने ही बैठे थे। आपने कहा-‘‘मैं कैसे कह दूँ कि न पहनो। मैंने तो अब स्वयं जैकट पहन रखी है।’’

लेखक इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी है। बड़े व छोटे व्यक्ति में यही तो अन्तर है। बड़ों की पहचान इसी से होती है। आर्यसमाज के बड़ों ने अपनी कथनी से करनी को जोड़ा। ऋषि ने तो प्रार्थना से पूर्व भी पुरुषार्थ का होना आवश्यक बताया है। आइए! हम भी कुछ सीखें।