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हदीस : पति के अधिकार
पति के अधिकार
मैथुन के मामले में एक पति को अपनी पत्नी पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है। ”तुम्हारी बीवियां तुम्हारे द्वारा जोती जाने वाली जमीनें हैं; तुम जितनी बार चाहो उन्हें जोत सकते हो“ (3363)। यहां विचार कुरान में भी पाया जाता है (2/223)। इसी प्रकरण की एक अन्य हदीस हमें बतलाती है कि कोई पति ”यदि वह चाहे तो बीवी के साथ सामने से या पीछे से किसी भी प्रकार मैथुन कर सकता है। किन्तु मैथुन एक ही छेद में होना चाहिए“ (3365)। टीकाकार हमें समझाते हैं कि यहां आशय सिर्फ योनि से है।1
- क्या इस निषेध का पैगम्बर की जिन्दगी की किसी घटना से ताल्लुक है ? जब उन्होंने अबू बकर की बेटी आयशा से शादी की तो अबू बकर को उम्मीद थी कि मुहम्मद अपनी बेटी फातिमा उनको ब्याह देंगे। पर मुहम्मद ने जवाब दिया-”मैं एक इलहाम के इंतजार में हूं।“ जब अबू बकर ने ये शब्द उमर को सुनाए, तो उमर बोले-”उन्होंने तुम्हारी दरख्वास्त नामंजूर कर दी“ (मीरखोंद, रौजत अस-सफा, जिल्द 1, भाग 2 पृष्ठ 269)
- हमें बतलाया जाता है कि यह निर्देश तलाक को निरूत्साहित करने के लिए दिया गया था। क्योंकि फिर से सहवास लगाव होने के कारण लोग तलाक को सहज समझने लगे थे। किसी भी जोड़ी को यह समझ लेना चाहिए कि शादी का रिश्ता गम्भीर बात है और उसे तोड़ने के पहले दो बार (दरअसल तीस बार) विचार करना चाहिए। लेकिन मनुष्य प्रगल्म प्राणी है और वह अल्लाह की मरजी को उलटता रहता है। नये विधान ने दूसरी ही तरह की कुरीति को जन्म दिया। इससे एक अस्थायी पति बनाने की परम्परा पड़ी। पहला पति किसी कुरूप पुरुष को किराए पर लेकर यह व्यवस्था करने लगा कि उसके साथ किया गया विवाह औरत को न भाए और नई शादी जल्दी टूट जाए।
बीबी का फर्ज़ है कि वह पति के सभी प्रस्तावों के प्रति अनुकूल रहे। ”जब एक औरत अपने पति के बिस्तर से दूर रात बिताती है, तो फरिश्ते सवेरे तक उसे शाप देते रहते हैं“ (3366)।
author : ram swarup
मैं तो भिक्षा का भोजन ही करूँगा
मैं तो भिक्षा का भोजन ही करूँगा
हमारे ऋषियों ने जीवन-निर्माण के लिए कई ऐसे आदेशनिर्देश दिये हैं, जिनका पालन करना तो दूर रहा, आज के भौतिकवादी युग में उनकी गौरवगरिमा को समझना ज़ी हमारे लिए कठिन हो
गया है। ब्रह्मचारी भिक्षा माँगकर निर्वाह करे और विद्या का अज़्यास करे, यह भी एक आर्ष आदेश है। अब बाह्य आडज़्बरों से दबे समाज के लिए यह एक हास्यास्पद आदेश है फिर भी इस युग में आर्यसमाज के लौहपुरुष स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी, स्वामी वेदानन्दजी से लेकर स्वामी सर्वानन्द जी ने भिक्षा माँगकर अनेक विद्यार्थियों को विद्वान् बनाया है। दीनानगर दयानन्द मठ में अब भी एक समय भिक्षा का भोजन आता है।
जब पं0 ब्रह्मदज़जी ‘जिज्ञासु’ पुल काली नदीवाले स्वामी सर्वदानन्दजी महाराज के आश्रम में पढ़ाते थे तो आप ग्रामों से भिक्षा माँगकर लाते थे। दोनों समय भिक्षा का अन्न ही ग्रहण किया करते थे। वीतराग स्वामी सर्वदानन्दजी ने कई बार आग्रह किया कि आप आश्रम का भोजन स्वीकार करें, परन्तु आपका एक ही उज़र होता था कि मैं तो ऋषि की आज्ञानुसार भिक्षा का ही भोजन करूँगा।
कितना बड़ा तप है। अहंकार को जीतनेवाला कोई विरला महापुरुष ही ऐसा कर सकता है। दस वर्ष तक श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज श्रीमद्दयानन्द उपदेशक विद्यालय लाहौर के आचार्य
पद को सुशोभित करते रहे परन्तु एक बार भी विद्यालय का भोजन ग्रहण नहीं किया। भिक्षा का भोजन करनेवाले इस आचार्य ने पण्डित रामचन्द्र (स्वामी श्री सर्वानन्दजी) व पण्डित शान्तिप्रकाश जी शास्त्रार्थ महारथी जैसे नररत्न समाज को दिये। पण्डित ब्रह्मदज़जी ‘जिज्ञासु’ ने पूज्य युधिष्ठिरजी मीमांसक- जैसी विभूतियाँ मानवसमाज को दी हैं। हम इन आचार्यों के ऋण से
मुक्त नहीं हो सकते। पण्डित हरिशंकर शर्माजी ने यथार्थ ही लिखा है-
निज उद्देश्य साधना में अति संकट झेले कष्ट सहे। पर कर्ज़व्य-मार्ग पर दृढ़ता से वे अविचल अड़े रहे॥
पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१६
हदीस : निषेध
निषेध
यह नियम बहुत उदार प्रतीत होता है। पर यह पूरी तरह ऐसा है नहीं। संख्या, सगोत्रता, सजातीयता, मजहब, पद-प्रतिष्ठा इत्यादि के आधार पर बहुत से प्रतिबंध हैं। उदाहरण के लिए, एक आदमी एक बार में चार से ज्यादा औरतों से शादी नहीं कर सकता (कुरान 4/3)-गुलाम रखैलों की संख्या के बारे में कोई प्रतिबन्ध नहीं है। साथ ही अपनी बीबी के पिता की बहन से अथवा उसकी मां की बहन से भी कोई शादी नहीं कर सकता (3228-3272)। अपने दूधभाई की लड़की के साथ भी कोई शादी नहीं कर सकता और अगर किसी की बीबी जिन्दा है और उसने तलाक नहीं लिया है, तो उस बीवी की बहन से भी शादी नहीं हो सकती (3412-3413)।
गैर-मुस्लिम से शादी करना भी मना है (कुरान 2/220-221)। बाद में इस प्रतिबंध में ढील दे दी गयी और एक मुसलमान मरद किसी यहूदी या ईसाई औरत से शादी कर सकता था (कुरान 5/5)। किन्तु एक मुस्लिम औरत किसी भी हालत में किसी गैर-मुस्लिम से शादी नहीं कर सकती।
अगर दोनों पक्ष पद और हैसियत (कफाह) में समान नहीं है तो भी शादी की इजाजत नहीं है, यद्यपि पद की परिभाषा अलग-अलग लोगों द्वारा अलग-अलग तरह से की गई है। सामान्यतः एक अरब को किसी गैर-अरब से ऊंचा माना जाता है। अरबों में पैगम्बर के रिश्तेदार सबसे ऊंचे माने जाते हैं। जिस व्यक्ति ने कुरान का कोई हिस्सा याद कर लिया हो उसे खुद मुहम्मद ने उपयुक्त वर माना था। एक औरत उनके पास आई और उसने अपने आप को उन्हें सौंप दिया। उन्होंने “सिर से पैर तक उस पर एक नजर डाली ….. पर कोई फैसला“ नहीं किया। एक साथी जो वहां खड़ा था, बोला-”रसूल-अल्लाह ! अगर आपको इसकी जरूरत नहीं है तो मुझसे इसकी शादी कर दीजिए।“ पर उस शख्स के पास कुछ भी नहीं था। दहेज में देने के लिए लोहे की अंगूठी तक नहीं। अतः वह निराश हो चला था कि मुहम्मद ने उससे पूछा कि क्या तुम कुरान की कुछ आयतें जानते हो और उन्हें बोल सकते हो ? उस आदमी ने हां कहा तब मुहम्मद ने निर्णय किया और वे बोले-”चलो, कुरान का जो हिस्सा तुम जानते हो, उसके बदले में मैंने इसे तुम्हें शादी के लिए दिया“ (3316)।
किसी को (एक औरत के लिए) अपने भाई से बढ़ कर बोली नहीं लगानी चाहिए। ”एक मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है। इसलिए किसी मुसलमान के लिए अपने भाई से बढ़कर बोली लगाना अनुचित है, और अगर उसके भाई ने कोई इकरार कर लिया हो, तो जब तक वह उसे तोड़ न दे तब तक (दूसरे मुसलमान को) वह इकरार नहीं करना चाहिए“ (3294)।
शिगार शादी भी मना है (3295-3301)।1 यह वह शादी है जिसमें यह व्यवस्था है कि तुम मुझे अपनी बेटी या बहन ब्याहो, बदले में मैं तुमसे अपनी बेटी या बहन ब्याह दूंगा।
जब कोई तीर्थ-यात्रा का आनुष्ठानिक पहनावा पहन ले, तब उसे शादी नहीं करनी चाहिए। पैगम्बर का हवाला देते हुए उस्मान बिन अफ्फान कहते हैं-”एक मुहरिम को न तो शादी करनी चाहिए और न ही शादी का पैगाम भेजना चाहिए“ (3281)। लेकिन यह मुद्दा विवादस्पद है। क्योंकि खुद मुहम्मद ने ”मैमूना से उस वक्त शादी की थी जब वे एक मुहरिम थे“ (3284)।
कोई व्यक्ति अपनी तलाकशुदा बीबी से तब तक दोबारा शादी नहीं कर सकता, जब तक कि वह औरत किसी दूसरे मर्द से शादी न कर ले और नया पति उसके साथ मैथुन करके उसे तलाक न दे चुका हो (3354-3356)। एक तलाकशुदा औरत ने शादी कर ली। फिर उसने अपने पुराने पति के पास वापस जाने का विचार किया। इसके लिए उसने पैगम्बर की इजाजत चाही और पैगम्बर को बतलाया कि उसके नए पति के पास जो कुछ है वह ”किसी वस्त्र की किनारी की तरह है“ (यानी वह यौनदृष्टि से कमजोर है)। पैगम्बर ”हंसे“ पर उन्होंने इजाज़त नहीं दी। उन्होंने उससे कहा-”तुम ऐसा तब तक नहीं कर सकतीं जब तक कि तुम उसकी (नये पति की) मिठास का मजा न ले लो और वह तुम्हारी मिठास न चख ले“ (3354)। 2
author : ram swarup
पूज्य उपाध्यायजी की महानता
पूज्य उपाध्यायजी की महानता
1956 ई0 की वर्षाऋतु की बात है। मैं दिल्ली गया। पूज्य पण्डित गंगाप्रसादजी उपाध्याय भी किसी सामाजिक कार्य के लिए दिल्ली आये। श्री सन्तलालजी विद्यार्थी सज़्पादक ‘रिफार्मर’ की
प्रार्थना पर उपाध्यायजी ने ‘पयामे हयात’ नाम से एक उर्दू पुस्तक लिखी। पुस्तक की पाण्डुलिपी दिवंगत श्री विद्यार्थी जी को दे दी।
श्री विद्यार्थीजी ने उपाध्यायजी को बताया कि आपका शिष्य (राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’) भी यहीं आया हुआ है। उपाध्यायजी ने उन्हें कहा- ‘‘यह पाण्डुलिपि उसे दिखा दो और कहो कि इसमें कोई त्रुटि
हो तो सुधार कर दे। जो घटाना बढ़ाना हो कर ले।’’
श्री विद्यार्थीजी ने यह सन्देश मुझे दिया तो मुझे विश्वास नहीं हुआ कि श्री उपाध्यायजी ने मुझे कोई ऐसी आज्ञा दी होगी। मैंने विद्यार्थीजी से कहा भी कि आप तो उपहास के लिए ऐसा कह रहे हैं। उन्होंने बहुत कहा पर मुझे विश्वास न आया।
मैं पूज्य उपाध्यायजी के दर्शनार्थ दयानन्द वाटिका (अब दयानन्द वाटिका नहीं) गया। पूज्यपाद उपाध्यायजी ने मिलते ही कहा कि विद्यार्थी जी मिले ज़्या? पाण्डुलिपि ले आये? उस पुस्तक को
देखो, कोई त्रुटि हो तो ठीक कर दो। मुझे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने एक फ़ारसी लोकोक्ति कही जिसका भाव है कि ‘‘कब आये और कब गुरु बन बैठे।’’ मेरा अभिप्राय स्पष्ट ही था और है।
श्रद्धेय उपाध्यायजी इस युग के एक महान् मनीषी, दार्शनिक, लेखक व नेता थे और मैं अब भी एक साधारण लेखक हूँ। तब तो और भी छोटा व्यक्ति था। मैंने कहा भी कि मुझे ज़्या आता है जो आपकी पुस्तक में दोष निकालूँ?
मैं तो कहता ही रहा परन्तु महापुरुष की आज्ञा शिरोधार्य कर मैंने पुस्तक ‘पयामे हयात’ की पाण्डुलिपि देखी। कुछ सुझाव भी दिये जो लेखक ने स्वीकार किये, परन्तु न जाने पुस्तक कहाँ छुप गई जो अब तक नहीं छपी। 24 दिसज़्बर 1959 ई0 के दिन मथुरा में पूज्य उपाध्यायजी ने कहा-‘‘मैं पुस्तक उनसे वापस लूँगा फिर वे भूल गये। इस संस्मरण को यहाँ देने का प्रयोजन यही है कि पाठक अनुभव करें कि ऋषि दयानन्द का वह महान् शिष्य कितने उच्चभावों से विभूषित था। अहंकार तो उनमें था ही नहीं। विद्या का मद न था। छोटे-छोटे लोगों को आगे लाने का यही तो ढंग है। मथुरा में भी इस पुस्तक के बारे एक विशेष बात कही जो गंगा-ज्ञान सागर
चौथे भाग में दी गई है।
पेरियार रचित सच्ची रामायण का खंडन भाग-१५
हदीस : अस्थायी शादी (मुताह)
अस्थायी शादी (मुताह)
मुहम्मद ने अस्थायी शादियों की इज़ाज़त दी है। अब्दुल्ला बिन मसूद कहते हैं-”हम सब अल्लाह के पैगम्बर के साथ एक चढ़ाई पर गए थे और हमारे साथ औरतें नहीं थीं। हम बोले-क्या हमें अपने आपको बधिया नहीं करा लेना चाहिए ? पाक पैगम्बर ने ऐसा करने से मना किया। फिर उन्होंने हमें इज़ाज़त दे दी कि हमें एक विशेष अवधि के लिए अस्थायी शादी कर लेनी चाहिए और इसके लिए (दहेज़ के रूप में) उसे एक पहनने का वस्त्र दे देना चाहिए।“ इस पर अब्दुल्ला खुश हो गये और उन्हें कुरान की यह आयत याद आ गयी-”मोमिनो ! जो पाकीजा चीजें तुम्हारे लिए अल्लाह ने हलाल की हैं, उनको हराम न करो और हद से न बढ़ो। अल्लाह हद से बढ़ने वाले को पसंद नहीं करता“ (3247; कुरान 5/87)।
जाबिर कहते हैं-”हमने दहेज़ के रूप में कुछ खजूर और आटा देकर अस्थायी शादियां की (3249)। उन्होंने कुछ अन्य लोगों से कहा-”हां हम सब पाक पैगम्बर के जीवनकाल में इस अस्थायी शादी से फायदा उठाते रहे हैं और अबू बकर तथा उमर के वक्त में भी“ (3248)। इयास बिन सलमा अपने पिता के प्रमाण से बतलाते हैं कि ”अल्लाह के रसूल ने औतास के साल (हुनैन की लड़ाई के बाद हिजरी सन् 8) में तीन रातों के लिए अस्थायी शादी करने की मंजूरी दी और बाद में उसके लिए मना कर दिया“ (3251)।
सुन्नी पंथमीमांसक इस तरह की शादी को अब वैध नहीं मानते। पर शिया लोग उनसे मतभेद रखते हैं और ईरान में अभी भी इसका रिवाज है। शिया पंथमीमांसक इसके पक्ष में कुरान की एक आयत का हवाला देते हैं-”शादीशुदा औरतें भी तुम्हारे लिए (हराम) हैं, सिवाय उनके जो बांदियों के तौर पर तुम्हारे कब्जे में आ जायें …. और उसके अलावा तुम्हें इज़ाज़त है कि तुम अपना धन खर्च करके बीवियां ढूंढ लो, विनम्र व्यवहार के साथ और व्यभिचार के बिना। और जिनके साथ तुमने मैथुन किया है उन्हें उनका दहेज़ दो, यह कानून है। लेकिन अगर कानून से बाहर तुम आपस में रजामंदी कर लो तो कोई गुनाह नहीं होगा। बेशक अल्लाह सब कुछ जानने वाला (और) बुद्धिमान है“ (कुरान 4/24)।
author : ram swarup
बड़ों का बड़पन
बड़ों का बड़पन
आर्यसमाज गणेशगंज लखनऊ का उत्सव था। विद्वान् लोग डी0ए0वी0 कॉलेज के भवन में ठहरे हुए थे। रात्रि को श्री सत्याचरणजी का व्याज़्यान था। उन्हें दूसरे दिन प्रयाग के स्कूल में जाना था। यह तभी सज़्भव था यदि कोई उन्हें प्रातः 3 बजे जगा दे।
महात्मा नारायण स्वामीजी ने यह उज़रदायित्व स्वयं सँभाला। दूसरे दिन प्रातःकाल उपाध्यायजी यह सुनकर चकित रह गये कि श्री सत्याचरण को जगाने के लिए महात्माजी स्वयं सारी रात न सो सके।
यह घटना छोटी होते हुए भी महात्मा नारायण स्वामीजी की महानता को प्रकट करती है।
मैं कैसे कहूँ कि न पहनो
मैं कैसे कहूँ कि न पहनो
हिन्दी सत्याग्रह के पश्चात् 1958 ई0 में एक बार हम यमुनानगर गये। तब स्वामी श्री आत्मानन्दजी अस्वस्थ चल रहे थे। उन्हें शरीररक्षा के लिए रुई की जैकट बनवाकर दी गई।
किसी आर्यपुरुष ने उनके आश्रम में सब ब्रह्मचारियों के लिए रुई की जैकटें बनवाकर भेज दीं। गुरुकुलों के ब्रह्मचारी प्रायः सर्दी-गर्मी के अज़्यासी होते हैं, अतः कोई जैकट न पहनता था। एक बार रिवाज पड़ जावे तो फिर प्रतिवर्ष सबके लिए सिलानी पड़ें। एक ब्रह्मचारी (श्री आचार्य भद्रसेनजी होशियारपुरवाले) ने स्वामीजी से कहा-‘‘अमुक सज्जन ने जैकटें भेजी हैं। आप उन्हें कह दें कि ये नहीं चाहिएँ। आप कह दें कि-ब्रह्मचारियों को इसकी ज़्या आवश्यकता है?’’
पूज्य स्वामी जी तब अपनी कुटिया में जैकट पहने ही बैठे थे। आपने कहा-‘‘मैं कैसे कह दूँ कि न पहनो। मैंने तो अब स्वयं जैकट पहन रखी है।’’
लेखक इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी है। बड़े व छोटे व्यक्ति में यही तो अन्तर है। बड़ों की पहचान इसी से होती है। आर्यसमाज के बड़ों ने अपनी कथनी से करनी को जोड़ा। ऋषि ने तो प्रार्थना से पूर्व भी पुरुषार्थ का होना आवश्यक बताया है। आइए! हम भी कुछ सीखें।