मैं कैसे कहूँ कि न पहनो

मैं कैसे कहूँ कि न पहनो

हिन्दी सत्याग्रह के पश्चात् 1958 ई0 में एक बार हम यमुनानगर गये। तब स्वामी श्री आत्मानन्दजी अस्वस्थ चल रहे थे। उन्हें शरीररक्षा के लिए रुई की जैकट बनवाकर दी गई।

किसी आर्यपुरुष ने उनके आश्रम में सब ब्रह्मचारियों के लिए रुई की जैकटें बनवाकर भेज दीं। गुरुकुलों के ब्रह्मचारी प्रायः सर्दी-गर्मी के अज़्यासी होते हैं, अतः कोई जैकट न पहनता था। एक बार रिवाज पड़ जावे तो फिर प्रतिवर्ष सबके लिए सिलानी पड़ें। एक ब्रह्मचारी (श्री आचार्य भद्रसेनजी होशियारपुरवाले) ने स्वामीजी से कहा-‘‘अमुक सज्जन ने जैकटें भेजी हैं। आप उन्हें कह दें कि ये नहीं चाहिएँ। आप कह दें कि-ब्रह्मचारियों को इसकी ज़्या आवश्यकता है?’’

पूज्य स्वामी जी तब अपनी कुटिया में जैकट पहने ही बैठे थे। आपने कहा-‘‘मैं कैसे कह दूँ कि न पहनो। मैंने तो अब स्वयं जैकट पहन रखी है।’’

लेखक इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी है। बड़े व छोटे व्यक्ति में यही तो अन्तर है। बड़ों की पहचान इसी से होती है। आर्यसमाज के बड़ों ने अपनी कथनी से करनी को जोड़ा। ऋषि ने तो प्रार्थना से पूर्व भी पुरुषार्थ का होना आवश्यक बताया है। आइए! हम भी कुछ सीखें।

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