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वृद्धों की दिनचर्या: – राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

वृद्धों की दिनचर्या:- सेवानिवृत्त होने पर क्या करें? समय कैसे बिताया जाये? यह समस्या बहुतों को सताती है। ऐसा इसलिये होता है, क्योंकि अधिकांश लोग उद्देश्यहीन जीवन जीते हैं। वे पैदा हो गये, इसलिये जीना पड़ता है। खाने-पीने के आगे कुछ सोचते ही नहीं। दयानन्द कॉलेज शोलापुर में विज्ञान के एक अत्यन्त योग्य प्राध्यापक टोले साहिब थे। धोती पहने कॉलेज में आते थे। अध्ययनशील थे, परन्तु थे नास्तिक। एक बार वह हमारे निवास पर पधारे। मेरे स्वाध्याय व अध्ययन की उन्होंने वहाँ बैठे व्यक्तियों से चर्चा चला दी। वह सेवानिवृत्त होने वाले थे। उनकी पुत्रियों के विवाह हो चुके थे। अपने बारे में बोले, मेरी समस्या यह है कि रिटायर होकर समय कैसे बिताऊँगा? मैं नास्तिक हूँ। मन्दिर जाना, सन्ध्या-वन्दन में प्रात:-सायं समय लगाना, सत्संग करना, यह मेरे स्वभाव में नहीं।

पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी से प्रात: भ्रमण करते समय एक व्यक्ति ने पूछा, मुझे बताइये मैं रिटायर होने वाला हूँ। रिटायर होकर क्या करूँ? उपाध्याय जी ने कहा, जो आप अब तक करते रहे हो, वही करोगे। यह उत्तर बड़ा मार्मिक है। कई व्यक्ति रिटायर होने पर मुझसे भी यही प्रश्न पूछते हैं कि आप दिनभर व्यस्त रहते हैं, हमें भी कुछ बतायें, हम क्या करें?

डॉ. वसन्त जी का उदाहरण:- परोपकारी के एक प्रेमी पाठक डॉ. स.ल. वसन्त ९२ वर्ष पूरे करने वाले हैं। देश के एक जाने-माने आयुर्वेद के आचार्य रहे हैं। अब बच्चे कोई काम-धंधा नहीं करने देते। कई प्रदेशों में उच्च पदों पर कार्य कर चुके हैं। वह दिनभर गायत्री जप, ओ३म् का नाद और वेद के स्वाध्याय में व्यस्त-मस्त रहते हैं। परोपकारिणी सभा से चारों वेद भाष्य-सहित मंगवाये। डॉ. धर्मवीर जी, आचार्य सोमदेव जी, कर्मवीर जी व लेखक उनके दर्शन करने गये थे। तब एक वेद का स्वाध्याय पूरा करके दूसरे वेद का स्वाध्याय आरम्भ किया था।

अब उन्हें असली महात्मा पुस्तक भेंट करने गया, तो मेरे साथ मेरा नाती पुलकित अमेरिका में एक गोष्ठी में भाग लेने से पूर्व उनका आशीर्वाद लेने गया। हम यह देखकर अत्यन्त दंग रह गये कि आप तब तीन वेद पूरे करके चौथे का पाठ कर रहे थे। अपनी दिनचर्या के कारण वह सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। शरीर में किसी विकार का प्रश्न ही नहीं। परोपकारी के आरपार जाकर उन्हें चैन आता है।

ऐसे ही मैंने आचार्य उदयवीर जी को सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय व अनुसन्धान में डूबा देखा। जीवन की अन्तिम वेला में भी उनकी दिनचर्या सबके लिये एक उदाहरण थी। जो व्यक्ति आनन्दपूर्वक वृद्धावस्था में जीना चाहता है, उसे अपनी शास्त्र-सम्मत दिनचर्या बनानी चाहिये। अमृत वेला में उठना, भ्रमण, प्राणायाम, व्यायाम, उपासना व स्वाध्याय को जीवन का पौष्टिक आहार मानकर जीने वाले सुखपूर्वक जीते मिलेंगे। संसार से सुखपूर्वक विदा होने के इच्छुक भी दिनचर्या बनाकर जीना सीखें और कोई मार्ग है ही नहीं।

विधिहीन यज्ञ और उनका फल: – स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ

स्वामी मुनीश्वरानन्द सरस्वती त्रिवेदतीर्थ आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान् रहे हैं। आपके द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘विधिहीन यज्ञ और उनका फल’ यज्ञ सम्बन्धी कुरीतियों पर एक सशक्त प्रहार है। इसी पुस्तक का कुछ अंश यहाँ पाठकों के अवलोकनार्थ प्रकाशित है।           -सम्पादक

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज की मान्यता है कि श्री कृष्ण जी एक आप्त पुरुष थे। यज्ञ के विषय में इस आप्त पुरुष का कहना है कि-

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्,

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।।

-गीता १७/१३

१. विधिहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

२. असृष्टान्नं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

३. मन्त्रहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

४. अदक्षिणं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

५. श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।

इन पाँच प्रकार के दोषों में से किसी एक, दो, तीन, चार या पाँचों दोषों से युक्त यज्ञ तामसी कहा जाता है। तामसी कर्म अज्ञानमूलक होने से परिणाम में बुद्धिभेदजनक तथा पारस्परिक राग, द्वेष, कलह, क्लेशादि अनेक बुराइयों का कारण होता है।

प्रस्तुत लेख में हम ‘विधिहीनं यज्ञं तामसं परिचक्षते।’ इस एक विषय पर स्वसामथ्र्यानुसार कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं।

१. श्री कृष्ण जी का कहना है कि विधिहीन यज्ञ तामसी होता है। विधि के अनुसार सबसे प्रथम स्थान यजमान का है। जो ‘यष्टुमिच्छति’ यज्ञ करना चाहता है। यज्ञ का सम्पूर्ण संभार तथा व्यय यजमानकर्तृक होता है। अग्नि यजमान की, अग्निशाला (यज्ञशाला) यजमान की, हविद्र्रव्य यजमान का। ऋत्विज् यजमान के। उनका मधुपर्कादि से सत्कार करना तथा उनकी उत्तम भोजन व्यवस्था यजमान कत्र्तृक। उनका शास्त्रानुसार दक्षिणा द्रव्य यजमान का। इतनी व्यवस्था के साथ अग्न्याधान से पूर्णाहुति तक का पूरा अनुष्ठान ऋत्विजों की देखरेख में यजमान करता है। यजमान इस सामथ्र्य से युक्त होना चाहिये। अपरं च पूर्णाहुति के बाद उपस्थित जनता से पूर्णाहुति के नाम से तीन-तीन आहुतियाँ डलवाना पूर्णरूपेण नादानी और अज्ञानता है। इसका विधि से कोई सम्बन्ध न होने से यह भी एक विधिविरुद्ध कर्म है, जिसे साहसपूर्वक बन्द कर देना चाहिए। इस आडम्बर से युक्त यज्ञ भी तामसी होता है। क्या आर्यसमाज संगठन के यजमान तथा ऋत्विक् कर्म कराने वाले विद्वान् इस व्यवस्था तथा यजमान सम्बन्धी इस विधि-विधान के अनुसार यज्ञ करते-कराते हैं। जब पकडक़र लाया हुआ यजमान तथा विधिज्ञान शून्य ऋत्विक् इन बातों को छूते तक नहीं तो केवल विधिविरुद्ध आहुति के प्रकार ‘ओम् स्वाहा’ के लिए ही मात्र आग्रह करना कौनसी बुद्धिमत्ता है। इस उपेक्षित वृत्त को देखकर यही कहा जायेगा कि ऋत्विक् कर्मकत्र्ता सभी विद्वान् इन विधिहीन यज्ञों के माध्यम से केवल दक्षिणा द्रव्य प्राप्त कर अपने आप को धन्य मानते हैं तथा यजमान अपने आप को पूर्णकाम समझता है, विधिपूर्वक अनुष्ठान की दृष्टि से नहीं।

ऐसे यजमान और ऋत्विक् सम्बन्धी-ब्राह्मण में महाराज जनमेजय के नाम से एक उपाख्यान में कहा गया है कि-

‘अथ ह तं व्येव कर्षन्ते यथा ह वा इदं निषादा वा सेलगा वा पापकृतो वा वित्तवन्तं पुरुषमरण्ये गृहीत्वा कर्त (गर्त) मन्वस्य वित्तमादाय द्रवन्ति, एवमेव त ऋत्विजो यजमानं कत्र्तमन्वस्य वित्तमादाय द्रवन्ति यमनेवं विदोयाजयन्ति। अनेवं विदो अभिषेक प्रकारं (अनुष्ठान प्रकारं वा) अजानन्त ऋत्विजोयं क्षत्रियं (यजमान वा) याजयन्ति। तं क्षत्रियं (यजमानं वा) विकर्षन्त्येव विकृष्टमपकृष्टं कुर्वन्त्येव। तत्रेदं निदर्शनमुच्यते।’ – ए.ब्रा. ३७/७

सायण भाष्य:- निषादा नीचजातयो मनुष्या:। सेलगाश्चौरा:। इडाऽन्नं तया सह वत्र्तन्त इति सेडा।

धनिकास्तान् धनापहारार्थं गच्छन्तीति सेलगाश्चौरा:। पाप कृतो हिंसा कारिण:। त्रिविधा: दुष्टा: पुरुषा वित्तवन्तं बहुधनोपेतं पुरुषमरण्यमध्ये गृहीत्वा कत्र्तमन्वस्य कश्मिेश्चिदन्ध कूपादि रूपे गत्र्तेतं प्रक्षिप्य तदीयं धनमपहृत्य द्रवन्ति पलायन्ते। एवमेवानभिज्ञा ऋत्विजो यजमानं नरक रूपं कत्र्तमन्वस्य नरकहेतो दुरनुष्ठानेऽवस्थाप्य दक्षिणारूपेण तदीयं द्रव्यमपहृत्य स्वगृहेषु गच्छन्ति। अनेन निदर्शनेन ऋत्विजामनुष्ठान परिज्ञानाभावं निन्दति।

डॉ. सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी अनुवाद:- इस प्रकार (अभिषेक प्रकार को या अनुष्ठान प्रकार को न जानने वाले ऋत्विज् जिस क्षत्रिय के लिए या जिस यजमान के लिए यजन करते हैं, तो वे उस क्षत्रिय वा यजमान का अपकर्ष भी करते हैं, जिस प्रकार नीच जाति के ये निषाद, चोर और (हिंसा करने वाले शिकारी आदि) पापी पुरुष बहुधन से युक्त पुरुष को अरण्य के मध्य पकडक़र (किसी अन्ध कूपादि) गड्ढे में फेंककर उसके धन का अपहरण करके पलायित हो जाते हैं, उसी प्रकार ये अनुष्ठान प्रकार से अनभिज्ञ ऋत्विज् लोग यजमान को नरकरूप (विधिहीन) अनुष्ठान में स्थापित करके दक्षिणारूपी उसके धन का अपहरण करके अपने घर चले जाते हैं।

आर्यसमाज के क्षेत्र में अनुष्ठीयमान यज्ञों में यह पहले प्रकार का विधिहीनता-रूपी दोष सर्वत्र रहता है। इस प्रकार हमारे ये यज्ञ तामसी कोटि के हो जाते हैं। हमारे ये पारायण-यज्ञ जहाँ से चलकर आर्यसमाज में आए हैं, वहाँ पूर्ण रीति से इनका विधि-विधान लिखा हुआ है। हमारे विद्वान् उसे देखना या उधर के तज्ज्ञ विद्वानों से सम्पर्क करना भी उचित नहीं समझते। हमारी स्थिति तो सन्त सुन्दरदास के कथनानुसार-

पढ़े के न बैठ्यो पास अक्षर बताय देतो,

बिनहु पढ़े ते कहो कैसे आवे पारसी।

इस पद्यांश जैसी है। संस्कार विधि यद्यपि हिन्दी भाषा में है, पर फिर भी इसे समझना आसान काम नहीं है। गुरुचरणों में बैठ, पढक़र ही समझा जा सकता है। हमारा पुरोहित समुदाय ऐसा करना आवश्यक नहीं समझता तो फिर विधिपूर्वक अनुष्ठान कैसे हो सकते हैं और कैसे कर्मकाण्ड में एकरूपता आ सकती है।

ये वेद पारायण-यज्ञ (संहिता स्वाहाकार होम) जहाँ से हमने लिए हैं, वहाँ इनके अनुष्ठान के लिए विधिविधान का उल्लेख करते हुए अपने समय के ब्राह्मण, आरण्यक, श्रौत और गृह्य सूत्रों के उद्भट विद्वान् स्वर्गीय श्री पं. अण्णा शास्त्री वारे (नासिक) अपने ग्रन्थ ‘संहिता स्वाहाकार प्रयोग प्रदीप’ में लिखते हैं कि-

‘तत्र कात्यायनप्रणीतशुक्लयजुर्विधान सूत्रं, सर्वानुक्रमणिकां च अनुसृत्य संहितास्वाहाकार होमे प्रतिऋग्यजुर्मन्त्रे आदौ प्रणव: अन्ते स्वाहाकारश्च। मध्ये यथाम्नायं मन्त्र:। प्रणवस्य स्वाहाकारस्य च पृथक् विधानात् मन्त्रेण सह सन्ध्याभाव:। मन्त्र मध्ये स्वाहाकारे सति तत्रैवाहुति: पश्चान्मन्त्र समाप्ति:। न पुनर्मन्त्रान्ते स्वाहोच्चारणमाहुतिश्च।।  – पृ. २४०

अर्थ:- संहिता स्वाहाकार होम विषय में कात्यायन प्रणीत शुक्ल यजुर्विधान सूत्र और सर्वानुक्रमणिका का अनुसरण करते हुए संहिता स्वाहाकार होम में प्रत्येक ऋग्यजुर्मन्त्र के आदि में प्रणव (ओम्) तथा अन्त में स्वाहाकार, मध्य में संहिता में पढ़े अनुसार मन्त्र। मन्त्र और स्वाहाकार के पृथक् विधान होने से इनकी मन्त्र के साथ सन्धि नहीं होती। मन्त्र के बीच में स्वाहाकार आने पर वहीं आहुति देकर पश्चात् मन्त्र समाप्त करना चाहिए। फिर से मन्त्र के अन्त में स्वाहाकार का उच्चारण कर आहुति नहीं देनी चाहिये।

प्रणव और स्वाहाकार का मन्त्र से पृथक् विधान होने से मन्त्रान्त में ओम् स्वाहा उच्चारण कर आहुति देना नहीं बनता। कात्यायन भिन्न अन्य सभी ऋषि-महर्षियों का भी ऐसा ही मत है। उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत प्रमाण का अवलोकन कीजिए-

सर्व प्रायश्चित्तानि जुहुयात्

स्वाहाकारान्तैर्मन्त्रैर्न चेत् मन्त्रे पठित:।

– आश्वलायन श्रौतसूत्र १/११/१०

आत्मनिवेदन: दिनेश

आचार्य धर्मवीर जी नहीं रहे। यह सुनना और देखना अत्यंत हृदय विदारक रहा है। आचार्य धर्मवीर जी देशकाल के विराट मंच पर महर्षि दयानन्द के विचारों के अद्वितीय कर्मवीर थे। महर्षि दयानन्द के विचारों के विरुद्ध प्रतिरोध की उनकी क्षमता जबर्दस्त थी। वैचारिक दृष्टि से तात्विक चिन्तन का सम्प्रेषण सहज और सरल था, यही उनका वैशिष्ट्य था, जो उन्हें अन्य विद्वानों से अलग खड़ा कर देता है। वे जीवनपर्यन्त संघर्ष-धर्मिता के प्रतीक रहे। ‘परोपकारी’ के यशस्वी सम्पादक के रूप में उन्होंने वैदिक सिद्धान्त ही नहीं, अपितु समसामयिक विषयों पर अपने विचारों को खुले मन से प्रकट किया। वे सत्य के ऐसे योद्धा थे जो महर्षि दयानन्द द्वारा प्रतिपादित पथ के सशक्त प्रहरी रहे और ऐसा मानदण्ड स्थापित कर गये, जो अन्यों के लिये आधारपथ सिद्ध होगा। मानवीय व्यवहारों के प्रति वे सिद्धहस्त थे। भले ही अपने परिवार पर केन्द्रीभूत न हुये हों, परन्तु समस्त आर्यजगत् की आदर्श परोपकारिणी सभा के विभिन्न प्रकल्पों के प्रति वे सर्वात्मना समर्पित रहे।

उन्होंने ‘परोपकारी’ का सम्पादन करते हुए जिन मूल्यों, सिद्धान्तों का निर्भय होकर पालन किया, जिस शैली और भाषा का प्रयोग किया, जिन तथ्यों के साथ सिद्धान्तों को पुष्ट किया, वे प्रभु की कृपा से ही संभव होते हैं। मैं विश्वास दिलाता हँू कि कीर्तिशेष आचार्य धर्मवीर जी ने सम्पादन का जो शिखर निर्धारित किया है वहाँ तक पहुँचना यद्यपि असंभव है तथापि केवल भक्ति-भावना से मैं चलने का प्रयास भी कर लूँ तो भी मेरे लिए परमशुभ हो सकेगा। प्रभु मुझे इसकी शक्ति दे।

‘परोपकारी’ के पाठक विगत लगभग ३३ वर्षों से अमूल्य विरासत से परिपूर्ण तार्किक विश्लेषण से सम्प्रक्त सम्पादकीय पढऩे के आदी हुए हैं, उस स्तर को बनाये रखना यद्यपि मेरे लिये दुष्कर है, लेकिन पाठक हमारे मार्गदर्शक हैं, मैं आचार्य धर्मवीर जी के द्वारा निर्धारित पथ का पथिक मात्र हो सकूं, यही मेरे लिये परम सौभाग्य की बात होगी।

आज चुनौतियाँ हैं, दबाव हैं, सिद्धान्तों के प्रति मतवाद है, फिर भी हमें इन सभी से सामना करना है।

आचार्य धर्मवीर जी ने महर्षि दयानन्द के चिन्तन को सम्पूर्ण रूप में स्वीकार कर उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा की जीवन्तता में अद्वितीय साहस का परिचय दिया। राष्ट्र की आकंाक्षा को दृष्टिगोचर रखते हुए वे अघोषित आर्यनेता के रूप में आर्यजगत् के सर्वमान्य नेतृत्वकर्ता बने। वैदिक संस्कृति और सभ्यता के माध्यम से उन्होंने सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक मूल्यों को समृद्ध ही नहीं किया अपितु अपने व्यक्तित्व से, लेखनी से, वक्तृत्वकला से राष्ट्रीय तत्वों की अग्रि को उद्बुध किया।

आचार्य डॉ. धर्मवीर कुशल संगठनकत्र्ता थे, उन्होंने दृढ़ इच्छाशक्ति और समर्पण से जहाँ परोपकारिणी सभा को आर्थिक स्वावलंबन दिया, वहीं सृजनात्मक अभिव्यक्ति से वैदिक सिद्धान्तों के विरोधियों को भी वैदिक-दर्शन से आप्लावित किया। आचार्य धर्मवीर ने जीवनपर्यंत उत्सर्ग करने का ही कार्य किया, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने स्वयं को परिपूर्ण किया है। वैदिक पुस्तकालय में नित्य नूतन ग्रन्थों का प्रकाशन, वितरण, नवलेखन को प्रोत्साहन, वैदिक साहित्य के अध्येताओं को वैदिक साहित्य पहुँचाना जैसे पुनीत कार्य उनके कत्र्तृत्व के साक्ष्य परिणाम हैं। उन्होंने सारस्वत साधना से विभिन्न विद्वानों, संन्यासियों के व्यक्तिगत पुस्तकालयों को मँगवाकर वैदिक पुस्तकालय को समृद्ध किया है।

आचार्य डॉ. धर्मवीर ने महर्षि दयानन्द के हस्तलेखों, उनके द्वारा अवलोकित ग्रन्थों एवं उनके पत्रों इत्यादि का डिजिटलाईजेशन करने का अभूतपूर्व कार्य किया ताकि आगामी पीढ़ी को उस अमूल्य धरोहर को संरक्षित कर सौंपा जा सके। आर्यसमाज के प्रसिद्ध चिन्तकों को निरन्तर प्रोत्साहन कर लेखन के लिए सहयोग प्रदान करने का उन्होंने जो महनीय कार्य किया है, वह स्तुत्य है।

वैदिक चिन्तन के अध्येता आचार्य धर्मवीर जी ने परोपकारी पत्रिका को पाक्षिक बनाकर उसकी संख्या को १५ हजार तक प्रकाशित कर, देश-विदेश में पहुँचाकर एक अभिनव कार्य संपादित किया। उनकी भाषा में सहज प्रवाह और ओज था। वैदिक विचारों के प्रति वे निर्भीक और ओजस्वी वक्ता के रूप में हमेशा याद किये जाएंगे। उनकी मान्याता थी कि असत्य के प्रतिकार में निर्भय होकर अपने विचारों को व्यक्त करने का अधिकार जन्मजात है। लेकिन संवादहीनता उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। यही कारण था कि वे अजातशत्रु कहलाते थे। परोपकारी के लेखों और संपादकीय के द्वारा आर्यजगत् में उनकी प्रासंगिकता निरन्तर प्रेरणादायी बनी रही। सहज और सरल शब्दों में वैदिक सिद्धान्तों के प्रति कितने ही बड़े व्यक्ति की आलोचना करने में वे कभी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने भारत के समस्त विश्वविद्यालयों के कुलपतियों व कुलसचिवों को परोपकारी पत्रिका नि:शुल्क पहुँचाने का अभिनव कार्य किया।

उन्होंने देवभाषा संस्कृत को जिया और अपने परिवार से लेकर समस्त आर्यजनों को भी आप्लावित किया। यह कहना और अधिक प्रासंगिक होगा कि अष्टाध्यायी-पद्धति के अध्ययन और अध्यापन को महाविद्यालय में ही नहीं अपितु ऋषिउद्यान में संचालित गुरुकुल में पाणिनी-परम्परा का निर्वहन करने का उन्होंने अप्रतिम कार्य किया।

आचार्य धर्मवीर जी ऋषिउद्यान मेें विभिन्न भवनों के नवनिर्माण के प्रखर निर्माता थे, जिन्होंने देश में निरन्तर भ्रमण करते हुए धन का संग्रह कर विद्यार्थियों, साधकों, वानप्रस्थियों और संन्यासियों के लिए श्रेष्ठ  आवास की सुविधा प्रदान की, ताकि ऋषिउद्यान में निरन्तर आध्यात्मिक जीवन का संचार होता रहे एवं चर्चा का कार्य संपादित होता रहे। वे स्पष्ट वक्ता थे। उन्हें कितनी ही बार विभिन्न महाविद्यालयों के प्राचार्य का पद, चुनाव लडऩे, पुरस्कार प्राप्त करने हेतु आग्रह किया गया, लेकिन उनके लिए ये पद ग्राह्य नहीं थे। उनके लिए महर्षि दयानन्द का अनुयायी होना ही सबसे बड़ा पद था।

आचार्य डॉ. धर्मवीर जी, आचार्य की प्रशस्त परम्परा की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। वे अकेले ही अन्याय का प्रतिकार करने में समर्थ थे। वे उन मतवादियों के लिए कर्मठ योद्धा थे, जो भारत विरोधी मत रखते थे। उन्हें यह स्वीकार नहीं था कि लोग क्या कहेंगे अपितु उन्हें यह स्वीकार्य था कि आर्ष परम्परा क्या है। समकालीन प्रख्यात विचारकों, राजनीतिक व्यक्तियों, विद्वानों का वे व्यक्तिश: आदर करते थे, परन्तु वैदिक विचारधारा के विरुद्ध लोगों का खण्डन करने में वे कोताही नहीं बरतते थे। उन्होंने परोपकारिणी सभा के विकल्पों का संवर्धन किया और परोपकारिणी सभा की यशकीर्ति को फैलाने में विशेष योगदान किया। आलोचना और विरोधों का धैर्यपूर्वक सामना करना उनकी विशेषता थी।

वे दिखने में कठोर थे, लेकिन हृदय से अत्यन्त सरल थे। चाहे आचार्य वेदपाल सुनीथ हों या श्री नरसिंह पारीक या डॉ. देवशर्मा या सहायक कर्मचारी सुरेश शेखावत, मैंने ऐसे दृढ़निश्चयी स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की आँखों में उन सबके लिए अश्रुकणों को बहते देखा है। आर्थिक सहयोग करना, बिना किसी को बताये, यह उनकी मानवीय श्रेष्ठता का अद्वितीय उदाहरण है।

ऐसे चिन्तक, विशेषताओं के आगार, वैदिक चिन्तन के सजग प्रहरी तथा विचारों के विरल विश्लेषक आचार्य डॉ. धर्मवीर जी की संपादकीय परम्परा के कार्य का प्रारम्भ करते हुए मैं उन्हें जिन्होंने अनादि ब्रह्म की उपासना के साथ राष्ट्रचेता महर्षि दयानन्द के विचार और आचार से कभी विमुख नहीं हुए, को शत्-शत् नमन करता हुआ उस पथ का अनुयायी बनने का प्रयास करूं, ऐसा विश्वास दिलाता हँू।

आपका

– दिनेश

अब स्मृतियाँ ही शेष: -साहब सिंह ‘साहिब’

पक्षी पिंजड़ा छोडक़र चला गया कोई देश,

डॉ. धर्मवीर की अब स्मृतियाँ ही शेष।

स्मृतियाँ ही शेष नाम इतिहास बन गया,

लेकिन हम लोगों में यह दुख खास बन गया।

लेकिन हमको याद रहे हम जिस पथ के हैं अनुगामी,

देह स्वरूप मरण धर्मा है आत्मा तत्व अपरिणामी।

मन में उनकी ले स्मृतियां याद करें अवदान को,

आर्य समाजी इस योद्धा के ना भूलें बलिदान को।

और सब मिलकर यही प्रार्थना सदा करें भगवान् से,

जो अनवरत् चला करता है चलता जाये शान से।

उनके लक्ष्यों को धारण कर ऐसा इक परिवेश बने,

वेदभक्त हो सकल विश्व यह गुरु फिर भारत देश बने।

कृतज्ञता ज्ञापन

-आनन्दप्रकाश आर्य

जिन क्षेत्रों में आर्य समाज शिथिल था सपने टूट रहे थे।

धर्मवीर जी के उपदेशों से अब वहाँ अंकुर फूट रहे थे।।

समाचार मिला ये दु:खद अचानक कि जहाँ से धर्मवीर गये।

ये शब्द सुने जिस आर्य ने उसका ही कलेजा चीर गये।।

परोपकारिणी सभा में छटा बिखेरी ज्योत्स्नापुंज चमत्कारी थे।

उत्तराधिकारिणी सभा में ऋषि के सच में उत्तराधिकारी थे।।

आर्यसमाज का यशस्वी योद्धा महा विद्वान् रणधीर गया।

दयानन्द के तरकश में से मानो एक अमूल्य तीर गया।।

देह चली गई तो क्या घुल गये हो सबकी आवाजों में।

हे धर्मवीर! तुम रहोगे जिन्दा हर जगह आर्यसमाजों में।।

महर्षि दयानन्दाष्टकम्

टिप्पणी- महामहोपाध्याय श्री पं. आर्यमुनि जी ने यह अष्टक महर्षि का गुणगान करते हुए अपने ग्रन्थ आर्य-मन्तव्य प्रकाश में दिया था। कभी यह रचना अत्यन्त लोकप्रिय थी। ११वीं व १२वीं पंक्ति ऋषि के चित्रों के नीचे छपा करती थी। पूज्य आर्यमुनि जी ने ऋषि जीवन का पहला भाग पद्य में प्रकाशित करवा दिया था, इसे पूरा न कर सके। यह ऐतिहासिक रचना परोपकारी द्वारा आर्य मात्र को भेंट है। – राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

वेदाभ्यासपरायणो मुनिवरो वेदैकमार्गे रत:।

नाम्ना यस्य दया विभाति निखिला तत्रैव यो मोदते।

येनाम्नायपयोनिधेर्मथनत: सत्यं परं दर्शितम्।

लब्धं तत्पद-पद्म-युग्ममनघं पुण्यैरनन्तैर्मया।।

भाषाछन्द-सवैया

१.            उत्तम पुरुष भये जग जो, वह धर्म के हेतु धरें जग देहा।

धन धाम सभी कुर्बान करें, प्रमदा सुत मीतरु कांचन गेहा।

सनमारग से पग नाहिं टरे, उनकी गति है भव भीतर एहा।

एक रहे दृढ़ता जग में सब, साज समाज यह होवत खेहा।।

२.            इनके अवतार भये सगरे, जगदीश नहीं जन्मा जग माहीं।

सुखराशि अनाशी सदाशिव जो, वह मानव रूप धरे कभी नाहीं।

मायिक होय यही जन्मे, यह अज्ञ अलीक कहें भव माहीं।

मत एक यही सब वेदन का, वह भाषा रहे निज बैनन माहीं।।

३.            धन्य भई उनकी जननी, जिन भारत आरत के दु:ख टारे।

रविज्ञान प्रकाश किया जग में, तब अंध निशा के मिटे सब तारे।

दिन रात जगाय रहे हमको, दु:खनाशकरूप पिता जो हमारे।

शोक यही हमको अब है, जब नींद खुली तब आप पधारे।।

४.            वैदिक भाष्य किया जिनने, जिनने सब भेदिक भेद मिटाए।

वेदध्वजा कर में करके, जिनने सब वैर विरोध नसाए।

वैदिक-धर्म प्रसिद्ध किया, मतवाद जिते सब दूर हटाए।

डूबत हिन्द जहाज रहा अब, जासु कृपा कर पार कराए।।

५.            जाप दिया जगदीश जिन्हें इक, और सभी जप धूर मिलाए।

धूरत धर्म धरातल पै जिनने, सब ज्ञान की आग जलाए।

ज्ञान प्रदीप प्रकाश किया उन, गप्प महातम मार उड़ाए।

डूबत हिन्द जहाज रहा अब, जासु कृपा कर पार कराए।।

६.            सो शुभ स्वामी दयानन्द जी, जिनने यह आर्यधर्म प्रचारा।

भारत खण्ड के भेदन का जिन, पाठ किया सब तत्त्व विचारा।

वैदिक पंथ पै पाँव धरा उन, तीक्ष्ण धर्म असी की जो धारा।

ऐसे ऋषिवर की सज्जनो, कर जोड़ दोऊ अब वंद हमारा।।

७.            व्रत वेद धरा प्रथमे जिसने, पुन भारत धर्म का कीन सुधारा।

धन धाम तजे जिसने सगरे, और तजे जिसने जग में सुतदारा।

दु:ख आप सहे सिर पै उसने, पर भारत आरत का दु:ख टारा।

ऐसे ऋषिवर को सज्जनो, कर जोड़ दोऊ अब वंद हमारा।।

८.            वेद उद्धार किया जिनने, और गप्प महातम मार बिदारा।

आप मरे न टरे सत पन्थ से, दीनन का जिन दु:ख निवारा।

उन आन उद्धार किया हमरा, जो गिरें अब भी तो नहीं कोई चारा।

ऐसे ऋषिवर को सज्जनो, कर जोड़ दोऊ अब वंद हमारा।।

आर्य समाज और राजनीति: – भाई परमानन्द

मैंने पिछले ‘हिन्दू’ साप्ताहिक में यह बताने का प्रयत्न किया था कि यदि आर्यसमाज को एक धार्मिक संस्था मान लिया जाये, तब भी आर्यसमाज के नेताओं को उसके उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए यह निर्णय करना होगा कि उनका सम्बन्ध हिन्दू सभा से रहेगा या कांग्रेस की हिन्दू विरोधी राष्ट्रीयता से? इस कल्पित सिद्धान्त को दूर रखकर इस लेख में यह बताने का प्रयत्न करूँगा कि क्या आर्य समाज कोरी धार्मिक संस्था है या उसका राजनीति के साथ गहरा सम्बन्ध और उसका एक विशेष राजनीति आदर्श है।

इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना करने वाली, जैसा मैं कह चुका हूँ, स्वयं सरकार थी। उसके सामने पूर्ण स्वतन्त्रता अथवा उसकी पुष्टि का दृष्टिकोण हो ही नहीं सकता था। उसके सामने सबसे बड़ा उद्देश्य यही था और उसका सारा आन्दोलन इसी आधार पर किया जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य का एक भाग होने से उसे किस प्रकार के राजनीतिक अधिकार मिल सकते हैं और उनको प्राप्त करने के लिये कौन-से साधन काम में लाये जाने आवश्यक हैं? कांग्रेस के पूर्व भारत में जो राजनीतिक आन्दोलन चलाये गये, वे गुप्त रूप से चलते थे और उनका उद्देश्य देश को इंग्लैण्ड के बन्धन से मुक्त करना था। कांग्रेस स्थापित करने का उद्देश्य इस प्रकार के गुप्त आन्दोलनों को रोकना और देश की राजनीतिक रुझान रखने वाली संस्थाओं को एक नया मार्ग बताना था। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे लिए राजनीति के दो भेद हो गये। एक तो बिल्कुल पुराना था, जिसका उद्देश्य स्वतन्त्रता प्राप्त करके हिन्दुस्तान में स्वतन्त्र राज्य स्थापित करना था। दूसरा वह था, जिसका आरम्भ कांग्रेस से हुआ और जिसकी चलाई हुई राजनीति को वर्तमान राजनीति कहा जाता है।

राजनीति के इन दो भेदों को पृथक्-पृथक् रखकर हमें इस प्रश्न पर विचार करने की आवश्यकता है कि आर्यसमाज का इन दोनों के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध था। इस प्रश्न पर विचार करने के लिए मंै उन आर्य समाजियों से अपील करूँगा, जिनका सम्बन्ध आर्यसमाज से पुराना है। दु:ख है इस प्रश्न पर कि वे नवयुवक, जो कांग्रेस के जोर-शोर के जमाने में आर्यसमाज में शामिल हुए हैं, विचार करने की योग्यता नहीं रखते। जहाँ तक मैं जानता हूँ, बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक आर्यसमाजी यह समझते थे कि उनका आन्दोलन केवल धार्मिक सुधार ही नहीं कर सकता, वरन् उसके द्वारा देश को उठाया जा सकता है। उनकी दृष्टि में कांग्रेस का कोई महत्त्व ही न था। कांग्रेस केवल प्रतिवर्ष बड़े दिनों की छुट्टियों में किसी बड़े शहर में अपनी कुछ माँगे लेकर उनके सम्बन्ध में कुछ प्रस्ताव पास कर लिया करती थी। उसके द्वारा जनता में राजनीतिक अधिकारों की चर्चा अवश्य होती थी, परन्तु इससे बढक़र किसी भी कांग्रेसी से देशभक्ति अथवा त्याग की आशा नहीं की जा सकती थी। सन् १९०१ ई. में कांग्रेस का अधिवेशन लाहौर में हुआ। उसके प्रधान बम्बई के वकील चन्द्राधरकर थे। उन्हें लाहौर में ही वह तार मिला कि वह बम्बई हाईकोर्ट के जज बना दिये गये हैं। कांग्रेस के मुकाबले में आर्यसमाजी समझते थे कि धर्म और देश के लिए प्रत्येक प्रकार का बलिदान करना उनका कत्र्तव्य है। आर्यसमाज में स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग का खुलमखुला प्रचार किया जाता था। सन् १८९२ में राय मूलराज एक मासिक पत्र ‘स्वदेशी वस्तु प्रचारक’ निकाला करते थे। आरम्भ से ही आर्यसमाज में एक गीत गाया जाता था, जिसकी टेक थी-

‘अगर देश-उपदेश, हमें ना जगाता।

तो देश-उन्नति का, किसे ध्यान आता।।’

भजनीक अमीचन्द की ये पंक्तियाँ सन् १८९० के लगभग की है। आर्यसमाजी इस बात को बड़े गर्व से याद करते थे कि किसी समय में आर्यों का ही सारे संसार में राज्य था। स्वामी दयानन्द ने अपनी छोटी-सी पुस्तक ‘आर्याभिविनय’ में वेद-मन्त्रों द्वारा ईश्वर से प्रार्थना की है कि हमें चक्रवर्ती राज्य प्राप्त हो। स्वामी जी का ‘सत्यार्थ प्रकाश’ देखिये, उसमें मनुस्मृति के आधार पर आर्यों के राजनीतिक आदर्श बताते हुए लिखा है कि आर्यों का राज्यप्रबन्ध किस लाईन पर हो और उसके चलाने के लिए कौन-कौन सी सभायें हों? मुझे प्रसन्नता है कि आर्यसमाज में अब भी ऐसे व्यक्ति उपस्थित हैं, जो अपने इस आदर्श को भूले नहीं हैं और यदि मैं गलती नहीं करता तो वे इसे स्थापित रखने के लिए राजार्य सभा के नाम से आर्यों की एक राजनीतिक संस्था स्थापित कर रहे है। मैं समझता हूँ कि कोई भी पुराना आर्यसमाजी इस वास्तविकता से इंकार नहीं करेगा, जबकि कांग्रेस को कोई महत्त्व प्राप्त नहीं था, तब आर्यसमाज में देशभक्ति पर व्याख्यान होते थे और आर्यसमाजियों में जहाँ वैदिक धर्म को पुनर्जीवित करने की भावना पाई जाती थी, वहाँ देश को उन्नत करने का भाव भी उनमें बड़े जोरों से हिलोरे लेता दिखाई देता था। हाँ, इस भाव में यह ध्यान अवश्य रहता था कि देश धर्म-प्रचार द्वारा ही उठाया जा सकता है। दो-चार साल बाद आर्यसमाज के जीवन में विचित्र घटना घटी। पाँच-छ: महीने सरकार के विरुद्ध बड़ा भारी आन्दोलन जारी रहा। इसमें लाला लाजपतराय का बहुत बड़ा भाग था। लाला लाजपतराय आर्यसमाज के एक बड़े प्रसिद्ध नेता माने जाते थे। पंजाब सरकार को यह संदेह हुआ कि जहाँ कहीं आर्यसमाज है, वहाँ सरकार के विरुद्ध विद्रोह का एक केन्द्र बना हुआ है। इस आन्दोलन का परिणाम यह हुआ कि लाला लाजपतराय गिरफ्तार करके देश से निकाल दिये गये और सरकार ने आर्यसमाज पर दमन किया। इस पर आर्यसमाज के कुछ नेताओं ने पंजाब के गवर्नर से भेंट करके कहा कि आर्यसमाज का न तो राजनीति से सम्बन्ध है और न लाला लाजपतराय के राजनीतिक कार्यों से। इस समय आर्यसमाजी नेताओं की दुर्बलता पर घृणा प्रकट की जाती थी और कहा जाता था कि उन्होंने लाला लाजपतराय के साथ कृतघ्नता की है और वह सरकार से डर गये हैं। मैं इसके सम्बन्ध में कुछ कहना नहीं चाहता। केवल यही कहना है कि यह एक वास्तविकता थी कि आर्यसमाज की नीति बराबर यही थी कि आर्यसमाज सामयिक आन्दोलन से कोई सम्बन्ध न रखे, यद्यपि महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने बड़े जोर से लिखा था कि लाला लाजपतराय आर्यसमाजी हैं और आर्यसमाज के लिये यह उचित नहीं था कि वह इस समय उन्हें छोड़ दे। इस घटना से और इसके पहले और पीछे की दूसरी घटनाओं से यह प्रभाव पड़ा कि आर्यसमाज राजनीति से पृथक् होकर केवल धार्मिक समस्याओं पर ही अधिक जोर देने लगा। इसका कारण यह था कि आर्यसमाज ने आरम्भिक राजनीति और सामयिक आन्दोलन के भेद को उपेक्षित कर दिया था।

गाँधी जी के कांग्रेस में आ जाने से कांग्रेस और भारत की राजनीति में एक बड़ा भारी परिवर्तन हो गया, स्पष्टत: जिन वस्तुओं ने लोगों को कांग्रेस की ओर खींचा, वह उनका स्वराज्य आन्दोलन और असहयोग आन्दोलन थे। जहाँ-जहाँ जन-साधारण गाँधी जी की ओर आकर्षित हुए, वहाँ-वहाँ आर्य समाजियों पर भी इनके आन्दोलन का प्रभाव पड़ा। जनता साधारणत: युद्ध की भावना को पसन्द करती है, इसलिये उसने गाँधी जी को इन आन्दोलन का नेता मान लिया। प्रारम्भिक दृष्टि से गाँधी जी के विचार आर्यसमाज से विरुद्ध ही न थे, अपितु बहुत ही विरुद्ध थे। इन आन्दोलनों के हुल्लड़ के नीचे यह विरोध छिपा रहा। गाँधी जी आर्य समाज की नीति विशेषता से अनभिज्ञ ही नहीं थे, वरन वह उसे सहन भी नहीं कर सकते थे। उनकी राजनीति का प्रारम्भिक सिद्धान्त यह था कि हिन्दुस्तान में हिन्दू रहे तो क्या और मुसलमान हुए तो क्या? बस, देश को स्वतन्त्र हो जाना चाहिए। उनको  कई ऐसे श्रद्धालु मिल गये, जिन्हें हिन्दूधर्म और हिन्दू संस्कृति से न सम्बन्ध था, न प्रेम था। कांग्रेस के चलाये हुए नये सिद्धान्त ने हिन्दुओं के पढ़े-लिखे भाग पर अपना असर कर लिया। मुझे दु:ख इतना ही है कि आर्यसमाजी भी इस हुल्लड़ के असर से न बच सके। इस प्रभाव में आकर आर्यसमाजी यह समझने लगे हैं कि उनकी राजनीतिक स्वतन्त्रता की समस्या कांग्रेस के हाथ में है। आर्यसमाज का काम धार्मिक है। वह आर्यसमाज का धर्म पालते हुए कांग्रेसी रह सकते हैं। मैं कहता हूँ कि गाँधी जी अथवा पण्डित जवाहरलाल द्वारा दिलायी हुई स्वतन्त्रता हिन्दू धर्म के लिए वर्तमान गुलामी से कही अधिक त्रासदायी सिद्ध होगी, क्योंकि आर्यसमाज की स्वतन्त्रता का आदर्श इन कांग्रेसी नेताओं की स्वतन्त्रता के आदर्श से बिलकुल प्रतिकूल है। यह कांग्रेसी वैदिकधर्म को मिटाकर हिन्दू जाति की भस्म पर स्वतन्त्रता का भवन स्थापित करना चाहते हैं। यदि वैदिक धर्म और हिन्दू जाति न रहे, तो मेरी समझ में नहीं आता कि आर्यसमाजी उनकी राजनीति के साथ कैसे सहानुभूति रख सकते हैं?

हैदराबाद की घटना अभी-अभी हमारे सामने हुई है। कांग्रेस ने आर्यसमाज के आन्दोलन का विरोध किया और वह आरम्भ से अन्त तक विरुद्ध ही रहा। हमारे प्रभाव में आकर आर्यसमाजी पत्रों ने अपनी माँगों का विज्ञापन रोज-रोज करना आवश्यक समझा हमारी तीन माँगें धार्मिक थीं, अर्थात् आर्यसमाज को हवन करने, ओ३म् का झण्डा फहराने और आर्यसमाज के प्रचार करने की स्वतन्त्रता हो। उन्होंने अपने-आपको हिन्दुओं के आन्दोलन से इसलिए पृथक् रखा कि जिससे यह कांग्रेस के हाईकमाण्ड को खुश रख सकें और हिन्दुओं के आन्दोलन के साथ मिल जाने से कहीं आर्यसमाज साम्प्रदायिक न बन जाये। इस मुस्लिम परस्त कांग्रेस से उन्हें इतना डर था कि सार्वदेशिक सभा के दो पदाधिकारी दिन-रात दौड़ते फिरे, जिससे गाँधी जी को यह विश्वास दिला सके कि उनका आन्दोलन पूर्णत: धार्मिक है- वह न राजनीतिक है, न साम्प्रदायिक। इन्होंने छ: महीने में एक हजार रुपया खर्च करके गाँधी जी को यह विश्वास दिलाया कि आर्यसमाजियों का यह आन्दोलन धार्मिक है, इसलिए कुछ आर्यसमाजियों ने उन्हें आकाश पर चढ़ा दिया। गाँधी जी को बार-बार धन्यवाद देना आरम्भ कर दिया कि उन्होंने आर्यसमाज का इस सम्बन्ध में विश्वास करके आर्यसमाज की बड़ी भारी सेवा की। मुझे इससे दु:ख होता है। दु:ख केवल इसलिए है कि ये आर्यसमाजी समझते हैं कि गाँधी जी की राजनीति ईश्वर का इल्हाम है, इसलिए इसके सामने अपने पवित्र सिद्धान्त छोड़ देना आर्यसमाजियों का अनिवार्य कत्र्तव्य है।

आयु को निश्चित मानना वेद विरुद्ध है: -ब्र. वेदव्रत मीमांसक

परोपकारी मासिक, वर्ष २४, अङ्क ११, आश्विन २०३१ वि. में श्री पं. फूलचन्द शर्मा निडर भिवानी वालों का ‘आयु को निश्चित न मानने वालों से कुछ प्रश्र’ शीर्षक एक लेख छपा है। उसमें उन्होंने आयु निश्चित सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।

आर्य विद्वानों में आयु निश्चित है अथवा अनिश्चित। इस विषय में मतभेद है। एक वर्ग वाले मानते हैं कि आयु निश्चित है और दूसरे वर्ग वाले कहते हैं कि अनिश्चित है। इस विषय में दो-बार शास्त्रार्थ हुआ। दूसरी बार का शास्त्रार्थ ‘दयानन्द सन्देश’ वर्ष २, अङ्क ९, १० के विशेषाङ्क के रूप में प्रकाशित हुआ, जिसको देखने से दोनों पक्ष वालों के मूलभूत विचार स्पष्ट होते हैं।

किसी बात को सिद्ध करने के लिए प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन नामक पञ्च अवयवों की आवश्यकता होती है। इन्हीं को प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और प्रमाण कहा जाता है। किसी वस्तु की सिद्धि में हेतु प्रमुख होता है। हेतु के प्रबल होने से पक्ष सिद्ध होता है। हेतु के न होने से अथवा हेत्वाभास से पक्ष सिद्ध नहीं होता। हेतुओं और हेत्वाभासों पर न्यायशास्त्र में अतिसूक्ष्मता से विचार किया गया है। प्रमाणों के द्वारा वस्तु की परीक्षा करना न्याय कहलाता है। महर्षि वात्स्यायन ने न्याय १/१/१ पर लिखा है ‘‘प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानं सा अन्वीक्षा। प्रत्यक्षागमाभ्यामीक्षितस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा तथा प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम्। यत्पुनरनुमानं प्रत्यक्षागमविरुद्धं न्यायाभास: स इति।’’ प्रत्यक्ष और आगम पर आश्रित अनुमान को अन्वीक्षा क हते हैं। प्रत्यक्ष और आगम के द्वारा ईक्षित का पश्चात् ईक्षण अन्वीक्षा है। उसको लेकर जो प्रवृत्त हो, उसको आन्वीक्षिकी, न्यायविद्या, न्यायशास्त्र कहते हैं। जो अनुमान प्रत्यक्ष तथा आगम के विरुद्ध हो, वह न्याय नहीं अपितु न्यायाभास है।

श्री निडर जी आयु के विषय में सत्यासत्य का निर्णय नहीं करना चाहते, क्योंकि वे कहते हैं ‘‘मैं तो न्यायशास्त्र नहीं जानता। न्यायशास्त्र के बिना ही मैं आयु को निश्चित सिद्ध कर दूँगा।’’ भला जो व्यक्ति प्रतिज्ञा को नहीं जानता, हेतु क ो नहीं जानता, हेत्वाभास को नहीं जानता, उदाहरण को नहीं जानता, उपनय और निगमन को नहीं जानता, छल, जाति, निग्रह स्थान को नहीं जानता, वह सत्यासत्य का निर्णय कैसे कर सकता है?

आर्यसमाज सोनीपत का उत्सव हो रहा था। निडर जी के ज्येष्ठ पुत्र मन्त्री थे। मञ्च पर मैं था और निडर जी भी थे। मुझे देखकर आपने मञ्च से यह घोषणा की-ब्रह्मचारी जी उपस्थित हैं। उत्सव भी चल रहा है। आयु विषय पर शास्त्रार्थ हो जाए तो अच्छा रहे। मैंने उसी समय उसको स्वीकार कर लिया, किन्तु आर्यसमाज के अधिकारियों ने शास्त्रार्थ का आयोजन नहीं किया। मैं अब भी निडर जी से अथवा और किसी भी अन्य विद्वान् से इस विषय पर वाद करने को उद्यत हँू। न्यायशास्त्र अनुमोदित प्रक्रिया के अनुसार शास्त्रार्थ हो। यदि न्यायशास्त्र के विरुद्ध कोई वाद करना चाहे तो सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता।

यदि निडर जी जब कभी इस विषय पर लेख लिखें, न्यायानुसार ही लिखें तो विद्वानों में मान्य हो, किन्तु उनके लेख में प्रत्यक्षागम विरुद्ध अनुमान होता है।

आयु के निश्चित न होने में अनेक प्रमाण हैं, उन सबको लिखने की, आवश्यकता नहीं है। उनमें से स्थालीपुलाक न्याय से कुछ प्रस्तुत किय जाते हैं-

१. त्र्यायुषं जमदग्रे: कश्यपस्य त्र्यायुषं यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नो अस्तु त्र्यायुषम् (यजु. ३५/१५)

भावार्थ-ये परमेश्वरेण व्यवस्थापितां धर्मानोल्लङ्घन्ते अन्यायेन परपदार्थान् न स्वीकुर्वन्ति ते अरोगा: सन्त: शतं वर्षाणि जीवितुं शक्रुवन्ति नेतरे ईश्वराज्ञा भङ्क्तार:। ये पूर्णेन ब्रह्मचर्येण विद्या अधीत्य धर्ममाचरन्ति तान् मृत्युर्मध्येनाऽप्रोतीति।

भाषार्थ-जो लोग परमेश्वर के नियम का कि धर्म का आचरण करना और अधर्म का आचरण छोडऩा चाहिए- उल्लङ्घन नहीं करते, अन्याय से दूसरों के पदार्थों को नहीं लेते, वे नीरोग हो कर सौ वर्ष तक जी सकते हैं, ईश्वराज्ञा विरोधी नहीं। पूर्ण ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ कर धर्म का आचरण करते हैं, उनको मृत्यु मध्य में प्राप्त नहीं होती।

२. ‘‘अग्र आयूंषि पवस आसुवोर्जमिषंचन:। आरे बाधस्वदुच्छुनाम्’’ (यजु. ३५/१५)

भावार्थ-ये मनुष्या: दुष्टाचरणदुष्टसङ्गौ विहाय परमेश्वराप्तयो: सेवां कुर्वन्ति ते धनधान्य युक्ता: सन्तो दीर्घायुषो भवन्ति।

भाषार्थ-जो मनुष्य दुष्टाचरण दुष्ट सङ्ग छोड़ परमेश्वर और आप्तों की सेवा करते हैं, वे धन-धान्य से युक्त हो दीर्घायु को प्राप्त करते हैं।

३. ‘‘परं मृत्यो अनुपरे कि पन्थां यस्ते अन्य इतरो देवयानात् चक्षुष्मते शृण्वते ते ब्रवीमि मा न: प्रजां रीरिषो मोत वीरान्’’ (यजु. २५/७)

भावार्थ-मनुष्यैर्यावज्जीवनं तावद्विद्वन्मार्गेण गत्वा परमायुर्लब्धव्यम् कदाचित् विना ब्रह्मचर्येण स्वयंवरं कृत्वा अल्पायुषी: प्रजा नोत्पादनीया।

भाषार्थ-मनुष्यों को चाहिए कि जीवनपर्यन्त विद्वानों के मार्ग से चलकर उत्तम अवस्था को प्राप्त हों और ब्रह्मचर्य पर्यन्त बिना स्वयंवर विवाह करके कभी न्यून अवस्था की प्रजा सन्तानों को न उत्पन्न करे।

४. ‘‘भद्रं कर्णेभि: शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्ष-भिर्यजत्रा: स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवां सस्तनुभिव्र्यशेमहि देवहितं यदायु:’’  -(यजु. २५/२१)

भावार्थ-यदि मनुष्या: विद्वत्सङ्गे विद्वांसो भूत्वा सत्यंशृणुयु: सत्यं पश्येयु: जगदीश्वरं स्तुयुस्तर्हि ते दीर्घायुष: भवेयु:।

भाषार्थ-जो मनुष्य विद्वानों के सङ्ग में विद्वान् होकर सत्य सुनें, सत्य देखें और जगदीश्वर की स्तुति करें तो वे बहुत अवस्थावाले हों।

५. ‘‘अतिमैथुनेन ये वीर्यक्षयं कुर्वन्ति तर्हि ते सरोगा: निर्बुद्धयो भूत्वा दीर्घायुष: कदापि न भवन्ति’’

अतिमैथुन करके जो वीर्य का नाश करते हैं, वे रोगयुक्त निर्बुद्धि हो दीर्घायुवाले कभी नहीं होते। (यजु. २५/२२ ऋ.द.भाष्य)

६. ‘‘यथा रशनया बद्धा प्राणिन: इतस्तत: पलायितुं न शक्नुवन्ति तथा युक्त्या धृतमायुरकाले न क्षीयते न पलायते।’’

जैसे डोर से बन्धे हुए प्राणी इधर-उधर भाग नहीं सकते, वैसे युक्ति से धारण की हुई आयु अकाल में नहीं जाती। (यजु. २२/२ ऋ. द. भाष्य)

७. मनुष्या: आलस्यं विहाय सर्वस्य द्रष्टारं न्यायाधीशं परमात्मानं कत्र्तुमर्हा तदाज्ञा च मत्वा शुभानि कर्माणि कुर्वन्तो अशुभानि त्यजन्तो ब्रह्मचर्येण विद्यासुशिक्षे प्राप्योपस्थेन्द्रयनिग्रहेण वीर्यमुन्नीयाल्पमृत्यं ध्रन्तु। युक्ताहारविहारेण शतवार्षिकमायु प्राप्नुवन्तु। यथा मनुष्या: सुकर्मसु चेष्टन्ते तथा तथा पापकर्मतो बुद्धिर्निवर्तते। विद्या आयु: सुशीलता च वर्धन्ते।

मनुष्य आलस्य को छोड़ कर सब देखनेहारे न्यायाधीश परमात्मा और करने योग्य उसकी आज्ञा को मानकर शुभ कर्मों को करते हुए और अशुभ कर्मों को छोड़ते हुए ब्रह्मचर्य के सेवन से विद्या और अच्छी शिक्षा को पाकर उपस्थेन्द्रिय के रोकने से पराक्रम को बढ़ाकर अल्पायु को हटावें। युक्ताहार विहार से सौ वर्ष क ी आयु को प्राप्त होवें। जैसे-जैसे मनुष्य सुकर्मों में चेष्टा करते हैं, वैसे-वैसे ही पापकर्म से बुद्धि की निवृत्ति होती, विद्या आयु और सुशीलता बढ़ती है। यजु. ४०/२

८. अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम् ।। मनु. २/१२१।।

जो सदा नम्र, सुशील, विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है, उसके आयु, विद्या, कीर्ति और बल ये चार सदा बढ़ते हैं और जो ऐसा नहीं करते उनके आयु आदि नहीं बढ़ते।

९. दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दित:। दु:खभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च।। मनु.

जो दुष्टाचारी पुरुष होता है, वह सर्वत्र व्याधित अल्पायु होता है।

१०. आचाराल्लभते ह्यायु:।। मनु.

धर्माचरण ही से दीर्घायु प्राप्त होती है।

११. हितोपचारमूलं जीवितमतो विपर्ययो हि मृत्यु:। चरक, वि. १-४१।।

जीवन हितकारी चिकित्सा पर है। इसके विरुद्ध चिकित्सा ठीक न होने पर मृत्यु होती है।

१२. द्विविधा तु खलु भिषजो भवन्ति अग्रिवेश। प्राणानां हि एके अभिसरा: हन्तारो रोगाणाम्। रोगाणां हि एके अभिसरो हन्तार: प्राणानामिति ।। चरक।।

हे अग्निवेश, दो प्रकार के वैद्य होते हैं, एक तो प्राणों को प्राप्त कराने वाले और रोगों को मारने वाले और दूसरे वे जो रोगों के लाने वाले और प्राणों को नष्ट करने वाले।

१३. अनशनं आयुह्र्रासकराणाम्।। चरक।।

आयु के ह्रास करनेवाले अनेक कारणों में से अनशन-भोजन न करना सब से प्रबल कारण है।

१४. ब्रह्मचर्यमायुष्याणाम्।। चरक।।

आयु के बढ़ाने वाले अनेक साधनों में से ब्रह्मचर्य सर्वोकृष्ट साधन है।

१५. जिसमें उपकारी प्राणियों की हिंसा अर्थात् जैसे एक गाय के दूध, घी, बैल, गाय आदि उत्पन्न होने से एक पीढ़ी में ४७५६०० मनुष्यों को सुख पहुँचता है, वैसे पशुओं को न तो मारें न मरने दें।

इन स्पष्ट प्रमाणों के लिखने के पश्चात् इनकी व्याख्या की आवश्यता नहीं। निडर जी वा अन्य आयु को निश्चत मानने वाले इन प्रमाणों को छूना ही नहीं चाहते। अतिविस्तृत वैदिक साहित्य में इन प्रमाणों के विरुद्ध आयु को निश्चित मानने वाला एक भी प्रमाण नहीं। आयु को निश्चित माननेवाले इन प्रमाणों के विरुद्ध युक्ति का आश्रय लेते हैं।

आयु को निश्चित माननेवाले ‘‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:’’ (योग. २-१३) इस एक मात्र सूत्र को उपस्थित करते हैं, किन्तु आयु को निश्चित बतलाने वाला इसमें एक शब्द भी नहीं। आयु और आयु की इयत्ता दोनों भिन्न-भिन्न हैं। आयु से जीवनकाल मात्र अभिप्रेत होता है, इयत्ता नहीं। आयु शब्द का अर्थ इयत्तापरक मानना अप्रामाणिक है।

मनुष्य की आयु को पहले कोई भी निश्चित नहीं कर सकता-यह एक उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा। मिट्टी के एक घड़े को लीजिए। उसकी आयु कोई नहीं बतला सकता, न ही कोई जान सकता है कि कितने काल तक सुरक्षित रहेगा और कब टूट-फूट जायेगा? निश्चितवादी यह कहते हैं कि मिट्टी के घड़़े में और शरीर में समानता नहीं है, किन्तु सूक्ष्मता से देखें तो समानता दिखती है। (पूर्व पक्ष के अनुसार जैसे मनुष्य की आयु निश्चित होती है, वैसे घड़े की भी निश्चित ही है। उनके पक्ष में यह दृष्टान्त ही नहीं बनेगा।) वास्तव में शरीर में मिट्टी के घड़े में कोई अन्तर नहीं। यदि कुछ अन्तर है तो यही है कि जीव शरीर के भीतर रहकर शरीर का प्रयोग करता है। शरीर का एवं घड़े का प्रयोग चेतन ही करता है। पूर्व पक्षानुसार घड़ा और शरीर दोनों भाग साधन हैं, इसीलिए दृष्टान्त विषम नहीं है। शरीर की आयु क्षण-क्षण में परिवर्तित होती है। यदि संयम से नीरोग रहता है तो शरीर दीर्घकाल तक रहने योग्य बनता है। असंयम से रोगी बनता रहता है तो शरीर की शक्ति क्षीण होती है। शरीर में दीर्घकाल तक रहने का सामथ्र्य न्यून होता जाता है। इस रूप में आयु घटती है। पौष्टिक आहार से आयु बढ़ती है, नीरस आहार से आयु घटती है। राग, द्वेष, ईष्र्या, चिन्ता, भय, शोक आदि से आयु घटती है तो आनन्द, उत्साह, मैत्री, निश्चिन्तता, धैर्य आदि से आयु बढ़ती है। इसका अपलाप नहीं किया जा सकता। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र होने से उसके कर्मानुसार क्षण-क्षण में उसकी आयु परिवर्तित होती रहती है। यह कहना अयुक्त है कि परमात्मा पहले ही निश्चित आयु देता है।

निडर जी ने लिखा है कि ‘‘महर्षि दयानन्द से भी अधिक कोई ब्रह्मचारी हुआ क्या? तो आदित्य ब्रह्मचर्य के अनुसार उनकी चार सौ वर्ष की आयु क्यों न हुई? वे उन्सठ वर्ष की आयु में ही क्यों चले गए।’’

इससे प्रतीत होता है कि निडर जी अपने पक्ष के व्यामोह के कारण से सत्यासत्य के जानने में असमर्थ हैं। क्या निडर जी यह सिद्ध कर सकते हैं कि महर्षि दयानन्द सरस्वती को ५९ वर्ष ही जीवित रहना था? उनके अनुसार स्वामी दयानन्द जी की आयु निश्चित करते समय विषदाता को भी निश्चित किया होगा और समय पर विष देने के लिए भेजा भी होगा। स्वामी श्रद्धानन्द जी की आयु निश्चित करते समय मुसलमान के हाथ से गोली खाकर मरना भी निश्चित किया होगा। पं. लेखराम जी की आयु निश्चित की होगी। हत्यारे को भी निश्चित किया होगा। परमात्मा ने भारतवालों के लिए यह लिखा होगा कि अंग्रेजों के द्वारा पद दलित होकर नाना दु:खों को भोगते रहेंगे।

निडर जी ने वेदों में विद्यमान प्रार्थनाओं को झूठा लिख दिया है। वास्तव में निडर जी का यह लेख साहसमात्र है। यदि ऐसे व्यक्ति वेद पर लेखनी उठावें तो वेद के साथ अनर्थ के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। क्या परमात्मा ने मनुष्यों के लिए जो आशीर्वाद दिया है, वा मनुष्यों को प्रार्थना का आदेश दिया है, यह सारा व्यर्थ है? निडर जी ने यह आक्षेप किया है कि ‘यदि ईश्वर किसी की प्रार्थना या अशीर्वाद को सुनने लगे तो ईश्वर का कोई भी न्याय या व्यवस्था नहीं चल सकती।’

इससे प्रतीत होता है कि प्रार्थना का अर्थ निडर जी ने समझा ही नहीं। परमात्मा ने प्रार्थना कराने का आदेश दिया है, असम्भव के लिए नहीं। असम्भव की प्रार्थना का उपदेश करना अल्पज्ञ का काम है, सर्वज्ञ का नहीं।

निडर जी ने आयु को अनिश्चित मानना मूर्खता का काम लिखा है। यदि निडर जी निष्पक्ष होकर विचार करें तो ज्ञात हो जायेगा कि उनकी मान्यता वेद-विरुद्ध, वैदिक-साहित्य के विरुद्ध है। आश्चर्य इस बात का है कि वे अपनी मान्यता को सत्य मानते हैं, वेदानुकूल मानते हैं, जबकि उनकी विचारने की शैली अदार्शनिक है। न्याय विरुद्ध है। परमात्मा उनको दार्शनिक प्रक्रिया से विचारने की शक्ति दे।

 

जिज्ञासा समाधान : – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा- कुछ प्रश्रों के द्वारा मैं अपनी शंकाएँ भेज रही हँू। कृपया उनका निवारण कीजिए।

(क) ‘गायत्री मन्त्र’ और ‘शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।’ दोनों मन्त्र सन्ध्या में दो-दो बार आयें हैं इनका क्या महत्त्व है?

(ख) कुछ विद्वानों का कथन है कि प्रात:काल की सन्ध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए और सायंकाल की सन्ध्या पश्चिम दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए। इसमें क्या भेद है?

(ग) दैनिक यज्ञ करने वाला व्यक्ति यदि रुग्ण हो जाये या किसी कारणवश ५-७ दिन के लिए बाहर चला जाये, यज्ञ न कर पाये और घर में दूसरा व्यक्ति यज्ञ करने वाला न हो तो वह क्या दैनिक यज्ञ का अनुष्ठान अपूर्ण हो जाता है? यज्ञकत्र्ता क्या करे?

(घ) परमाणु (सत्व, रज, तम) जड़ हैं और ईश्वर को भी परम-अणु अथवा आत्मा को भी अणु-स्वरूप वैदिक आधार से माना जाता है, जबकि ये दोनों चेतन हैं। कृपया बताइये कि सत्य क्या है?

– सुमित्रा आर्या, सोनीपत।

समाधान- (क) पञ्चमहायज्ञों के अन्तर्गत ‘संध्या’ प्रथम ब्रह्मयज्ञ है। ब्रह्मयज्ञ प्रत्येक आर्य (आत्मकल्याण इच्छुक) को अवश्य करने का निर्देश ऋषियों ने किया है। जो इस महायज्ञ को नहीं करता, उसको हीन माना गया है। महर्षि मनु कहते हैं-

न तिष्ठति तु य: पूर्वां योपास्ते यस्तु पश्चिमाम्।

स साधुभिर्बहिष्कार्य: सर्वस्माद् द्विजकर्मण:।।

भाव यह है कि जो संध्योपासना आदि नहीं करता वह सज्जनों के द्वारा बहिष्कार करने योग्य है।

महर्षि दयानन्द ने संध्योपासना का एक विशेष क्रम रखा है। उस क्रम को ठीक से समझने पर संध्या की विधि ठीक समझ में आ जाती है। आपने कहा-संध्या के मन्त्रों में ‘गायत्री मन्त्र’ व ‘शन्नो देवी’ मन्त्र दो-दो बार आये सो आधी बात ठीक है। संध्या मन्त्रों में ‘शन्नो देवी’ मन्त्र को दो बार महर्षि ने निर्दिष्ट किया है, किन्तु ‘गायत्री मन्त्र’ का विनियोग तो एक ही बार किया है।

सन्ध्या के प्रारम्भ में ‘शन्नो देवी’ मन्त्र का प्रयोजन मनुष्य-जीवन का उद्देश्य बताने का है। हम मनुष्य संसार में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए परमसुख मोक्ष को प्राप्त करें। यह भाव इस मन्त्र का है। मोक्ष हमारा लक्ष्य है, यह लक्ष्य संध्या के प्रारम्भ में स्मरण कराने के लिए ‘शन्नो देवी’ है, संध्या के मध्य में हमें हमारा लक्ष्य याद रहे कि दोबारा इस मन्त्र के द्वारा आचमन का विधान किया और संध्या के अन्त में ‘हे ईश्वर दयानिधे…………’ इस बात से लक्ष्य का स्मरण करते हुए परमेश्वर को नमस्कार करते हुए संध्या का विराम। मुख्य रूप से तो ‘शन्नो देवी’ मन्त्र का विनियोग महर्षि ने आचमन के लिए किया है। वह संध्या में दो बार करने के लिए कहा है।

(ख) संध्या करते समय दिशाओं का विधान है-पूर्व की ओर मुख करके संध्या करें। पूर्व दिशा के विषय में महर्षि ने दो बातें कहीं हैं-

यत्र स्वस्य मुखं सा प्राची दिक् तथा यस्यां सूर्य उदेति सापि प्राची दिगस्ति।

यहाँ महर्षि की दृष्टि में संध्या करते हुए जिस ओर हमारा मुख हो, वही प्राची= पूर्व दिशा है। दूसरा, जिस ओर से सूर्य निकलता है, वह प्राची=पूर्व दिशा है। यह विधान तो ऋषियों का है कि संध्या पूर्व दिशा की ओर मुख करके करें, किन्तु हमें पश्चिम दिशा का विधान पढऩे को अभी तक नहीं मिला। हाँ, कर्मकाण्ड पूर्व, उदक् अर्थात् पूर्व दिशा और उत्तर दिशा की ओर मुख करके करने का विधान अवश्य शास्त्र में मिलता है।

दिशाओं की महत्ता के विषय में मीमांसा दर्शन के अध्याय तीन के चौथे पाद के दूसरे अधिकरण में भाष्यकार शबर स्वामी ने लिखा है-

प्राचीं देवा अभजन्त दक्षिणां पितर:, प्रतीचीं मनुष्या:, उदीचीमसुरा: इति। अपरेषाम्-उदीचीं रुद्रा: इति।

पूर्व दिशा प्रकाश देने वाली है, ज्ञान की द्योतक है, इसलिए देव लोग पूर्व दिशा को चाहते हैं। ज्ञान की द्योतक होने से संध्या में पूर्व की ओर मुख क रके बैठते हैं।

(ग) यज्ञकर्म मनुष्य के लिए कत्र्तव्य कर्म हंै। पाँच महायज्ञों में यह देवयज्ञ कहलाता है। महर्षि तो यह यज्ञ प्रत्येक मनुष्य करे-इसका विधान करते हैं। सत्यार्थप्रकाश समुल्लास तीन में लिखते हैं-‘‘प्र.-प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुति करे और एक-एक आहुति का कितना परिमाण है? उत्तर- प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुतियाँ और छ:-छ: माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिए और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है।’’

आजकल हमने बहुत से लोगों को व आर्यसमाजों में हवन होते देखा है। कहने को तो ये दैनिक अग्रिहोत्र करने वाले हैं, किन्तु क्या वे ऋषि के अनुकूल यज्ञ करते हैं? कितनी ही धनी आर्यसमाजों में हवन होते हुए देखा कि समिधाएँ ज्यादा जलाते हैं, घी की दो तीन बूँदों से एक-एक आहुति में देते हैं। उनसे छ: माशे घी की आहुति देने क ी कहते हैं तो उनकी ओर से बात आती है कि इतना खर्चा कहाँ से आयेगा। आश्चर्य तो तब होता है कि जब ये लंगर करते हैं, तब सब्जी-पूड़ी, कढ़ी-चावल, मिठाई, रायता आदि सब बनता है। इसमें खर्चा नहीं दिखता, किन्तु हवन में यदि कोई थोड़ा-सा घी अधिक जला दे तो खर्चा दिखने लगता है।

हवन में व्यक्ति की कितनी श्रद्धा है, यह उसके घी-सामग्री, हवन-पात्र, हवन करने का स्थान, मन्त्रोच्चारण क्रिया आदि से ज्ञात हो जाता है। हवन करना सिखाने वाले भी धनी व्यक्तियों को कह देते हैं कि २०-२५ रु. में हवन हो जाता है, यह सुनकर आश्चर्य ही होता है। जहाँ समिधाएँ अधिक जलें और उनमें भूसे जैसी सूखी सामग्री और दो-तीन बूँद घी डाला जाये, वहाँ लाभ अधिक है या हानि अधिक है-विचार करें। धनी व्यक्ति एक दिन यदि ५००० रु. गाडिय़ों का तेल जलाने में खर्च कर देते हैं, नित्य प्रति हजारों रु. का व्यर्थ का खर्चा कर देते हैं, वहाँ २०-२५ रु. का हवन करके कितना लाभ प्राप्त कर लेंगे-विचारणीय ही है।

आपने जो पूछा कि किसी कारण वश दैनिक अग्रिहोत्र करने वाला कभी किसी दिन या कई दिन हवन न कर पाये तो क्या करना चाहिए। इसमें यदि हो सके तो ऐसी परिस्थिति में हम किसी और से उन दिनों अपना हवन करवा सकते हैं। यदि ऐसा नहीं बन पड़े तो जितने दिन का हवन छूट गया है, उतने दिन की घी सामग्री का हवन अन्य दिनों में अतिरिक्त कर लें, इसी से हमारा पूरा कत्र्तव्य पालन होगा।

महर्षि ने भी संस्कार विधि में एक टिप्पणी देते हुए लिखा है-‘‘किसी विशेष कारण से स्त्री वा पुरुष अग्रिहोत्र के समय दोनों साथ उपस्थित न हो सकें तो एक ही स्त्री वा पुरुष दोनों की ओर का कृत्य कर लेवे, अर्थात् एक-एक मन्त्र को दो-दो बार पढ़ के दो-दो आहुतियाँ करंे।’’

(घ) संसार में जड़ चेतन-दो की सत्ता है। जड़ में संसार की समस्त वस्तुएँ और चेतन में आत्मा और परमात्मा। आत्मा परमात्मा परम सूक्ष्म है। आत्मा सूक्ष्म है और परमात्मा उससे भी सूक्ष्मतर है।

भौतिक वस्तुओं में परमाणु सबसे छोटी ईकाई मानी जाती है। वह सबसे सूक्ष्म माना जाता है। आपने परमाणु की सूक्ष्मता को लेकर आत्मा-परमात्मा के अणु स्वरूप की जो बात कही, उसका समाधान यह है कि जो अणु है, उसकी जड़ता को लेकर आत्मा-परमात्मा को नहीं कहा जा रहा, अपितु उसकी सूक्ष्मता को लेकर कहा जा रहा है। यहाँ यह नहीं कह रहे हैं कि जैसे अणु जड़ है, वैसे आत्मा-परमात्मा भी जड़ हैं, अपितु यहाँ तो आत्मा-परमात्मा की सूक्ष्मता को बताने के लिए अणु का दृष्टान्त दे रहे हैं कि जैसे अणु सूक्ष्म है, वैसे ये भी अत्यन्त सूक्ष्म हैं। अस्तु

 

मेरे अंतेवासी बन्धु : डॉ. धर्मवीर: -स्वामी वेदात्मवेश

मैं और डॉ. धर्मवीर जी एक ही कुल के अन्तेवासी थे। वह महर्षि दयानन्द सरस्वती के कर्मठ, तपस्वी, प्रिय शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द की तप:स्थली गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार थी। वहाँ से डॉ. धर्मवीर जी ने एम.ए. और आयुर्वेदाचार्य किया और मैंने वेदालंकार। श्रद्धेय तप:पूत, सरल, प्राञ्जल, गुरुवर्य पं. रामप्रसाद जी वेदालंकार, आर्यनगर, ज्वालापुर हरिद्वार में उनके आवास पर मैं वेदपठन के लिये गया था। तब डॉ. धर्मवीर जी अपनी धर्मपत्नी ज्योत्स्ना जी के साथ स्नातक से पदौन्नत हो ‘नव-गृही’ (गृहस्थी) बन आचार्य जी को प्रथम बार मिलने आये थे। उस समय आर्यसमाज और गुरुकुल का स्वर्णिमकाल था। अतित के गुरु शिष्य के गौरवशाली संबन्ध का कितना सुन्दर निरुपण है यह रूपक। अन्तेवासी आचार्य चरणों में समित्पाणि होकर आया था। ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ पवित्र ऋषियों की तपस्थली की तरह वेद की ऋचाओं के अनुरूप स्वामी श्रद्धानन्द जी ने गुरुकुल काँगड़ी की स्थापना की थी और वेद का यह संदेश सामने रख कर गुरुकुल भूमि का चयन किया था।

उपह्वरे च गिरीणां संगमे च नदीनाम्।

धिया विप्रो अजायत।।  यजु.।।

गुरुकुल के दीक्षान्त समारोह में यह कुलगीत सब दीक्षित स्नातकों की हृत्तन्त्रि को झंकृत करने वाला ओजस्वी संदेश देता था। प्राणों से हमको प्यारा है कुल हो सदा हमारा। विष देनेवालों के  भी बन्धन कटाने वाला। मुनियों का जन्मदाता कुल हो सदा हमारा। कट जाय सिर न झुकना यह मन्त्र जपने वाले वीरों का जन्मदाता कुल हो सदा हमारा। तन मन सभी निछावर कर वेद का संदेशा जग में पहुँचाने वाला। कुल हो सदा हमारा। स्वाधीन दीक्षितों पर सब कुछ लुटाने वाले धनियों का जन्मदाता, कुल हो सदा हमारा। हिमशैल तुल्य ऊँचा भागीरथी-सा पावन, बटुक का मार्ग दर्शक कुल हो सदा हमारा। अदित्य ब्रह्मचारी ज्योति जगा गया है अनुरूप पुत्र उसका कुल हो सदा हमारा।

ऐसे ओजस्वी आर्यसमाज के प्रहरी, कर्मठ, कुलपुत्र के रूप में डॉ. धर्मवीर जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन देश जाति, संस्कृति, समाज के लिये समर्पित किया था। प्रखर राष्ट्रवादी पंजाब केसरी ला. लाजपतराय आर्य समाज को अपनी ‘माँ’ मानते थे। उस आर्यसमाज रूपी ‘माँ’ को जिस पुत्र पर गर्व अनुभव हो ऐसे गौरवशाली सुपुत्र थे, डॉ. धर्मवीर। बचपन में कभी सुनते थे ‘‘महानाश की ज्वालायें भारत पर दौड़ी आ रही हैं, आर्यों तुमको कुछ करना है मानवता चिल्ला रही इस धरती पर कौन बढेगा हमें बता दो आर्यसमाज!! कौन बढेगा? आर्यसमाज!! कौन बढेगा? आर्यसमाज!!’’ व्यक्तिश: मैं डॉ. धर्मवीर जी के रूप में ‘परोपकारी’ पत्रिका के माध्यम से आर्यसमाज के बढते चिह्नों से निश्चिन्त था कि आर्यसमाज का एक प्रहरी अभी जिन्दा है। व्यक्तिश: मेरा डॉ. धर्मवीर जी और ज्योत्स्ना जी दोनों परिवार से जुड़ाव रहा। परोपकारी के सम्पादक श्री धर्मवीर जी के रूप में। यह आश्वासन उनकी उपस्थिति मात्र से मिलता था। बस आज वह भी स्वप्र भी भंग हो गया। डॉ. धर्मवीर जी से श्वसुर भारतेन्द्रनाथ जी से हमारा जुड़ाव था, पृष्ठभूमि थी आर्यसमाज, जो बाद में वेदभिक्षु बने। वे दयानन्द के दीवाने थे। तब पं. राकेशरानी का ‘जनज्ञान’ के माध्यम से हमें पत्र मिला- कौन करेगा स्वीकार, मेरे राखी के ये तार। तो हमने भी हम करेंगे स्वीकार, आपके राखी के ये तार। के उत्तर के रूप में ‘जनज्ञान’ में एक लेख भी दिया था। तब मैं श्रीमद् दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय (उपदेशक महाविद्यालय) हिसार, हरियाणा में पढ़ता था। बाद में गुरुकुल काँगड़ी आया। ज्योत्स्ना जी के साथ जब डॉ. धर्मवीर जी के वाग्दान का निश्चय हुआ था तब मैं दोनों ओर से था। दिल्ली में डॉ. योगानन्द शास्त्री के यहाँ वह आयोजन था। तब यज्ञ में आर्यजगत् के  प्रथित यश आर्य संन्यासी डॉ. सत्यप्रकाश जी भी उपस्थित थे। डॉ. धर्मवीर जी के  अनुज भाई प्रकाश जी तब गुरुकुल काँगड़ी में हमारे साथ पढ़ते थे। महाराष्ट्र के गुंजोटी से जुड़े होने से प्राध्यापक जिज्ञासु जी के माध्यम से मेरी और श्री भारतेन्द्रनाथ जी (वेदभिक्षु) से उनके करौल बाग स्थित ‘जनज्ञान’ कार्यालय में मेरा प्रथम परिचय हुआ था। चूंकि शोलापुर दयानन्द कॉलेज में प्राध्यापक जिज्ञासु जी मेरे बड़े भाई श्री शिवराज आर्य ‘‘बेधडक़’’ एवम् मुझसे वे पूर्व परिचित थे। जन्म स्थली गुंजोटी से उनका विशेष लगाव रहा है। जिसे वे प्यार से आज भी अपने पंजाबी लहजे में गंजोटी (महाराष्ट्र) ही कहते हैं। जिसे आर्यजगत् के  विद्वान् आचार्य विश्वबन्धु जी जो गुँज उठी वह गुंजोटी अपने व्याख्यानों में उसका निर्वचन करते थे। आज आर्यसमाज में सक्रिय स्व. पं. दिगम्बरराव गुरुजी, श्री रमेश गुरुजी, श्री काशीनाथ गुरुजी, पं. प्रियदत्त शास्त्री जी, पं. रायाजी शास्त्री जी, श्री प्रताप सिंह चौहान इसी गुंजोटी की देन हैं। जो भूमि हैदराबाद के सत्याग्रह के समय हुये प्रथम बलिदानी हुतात्मा वेदप्रकाश के बलिदान से पावन हुई है जिसकी मिट्टी की महकती खुशबू ने आचार्य डॉ. धर्मवीर जी को अभी हाल ही में वहाँ बुलाया था और वाग्मी धर्मवीर जी ने वहाँ की जनता को अमृतमय् वेदोपदेश से खुब संतृप्त भी किया था।

गुरुकुल काँगड़ी ने आर्य जगत् में पत्रकारिता के बड़े-बड़े मानदंड स्थापित किये हैं। १९७५ के बाद दैनिक हिन्दुस्तान से अलग होकर पं. क्षितिज वेदालंकार ने ‘आर्यजगत्’ को जिस ऊँचाई पर पहुँचा दिया था अथवा उससे पूर्व ‘आर्योदय’ एवं ‘जनज्ञान’ के माध्यम से भारतेन्द्रनाथ जी ने जो यश आर्यजगत् में अर्जित किया था। बाद में वही यश डॉ. धर्मवीर जी ने ‘परोपकारी’ पत्रिका के माध्यम से अर्जित किया और एक मानदंड स्थापित किया। वर्तमान में आर्यजगत् में सम्पादन कौशल में डॉ. धर्मवीर जी कवि कुलगुरु कालिदास की तरह ‘कनिष्ठिकाधिष्ठित धर्मवीर:’ ऐसा कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी। डॉ. धर्मवीर जी के लेखन में निर्भिकता, प्रज्ञा की विलक्षण अद्भुतता, प्रवाह, अन्वेक्षा, लाघव, सरलता, दृढ़ता, समन्वय एवं प्रासंगिकता का सुन्दर, सन्तुलित समायोजन मिलता है। डॉ. धर्मवीर जी वर्तमान के  ‘आर्यसमाज की आशा की किरण’ थे। बस आज दु:ख के साथ यह बताने में हमें यद्किंचित भी संकोच नहीं है कि सम्पूर्ण आर्यसमाज का नेतृत्व आर्यसमाज की गाड़ी को पटरी से उतारने में मशगूल है। जिस वाटिका का माली दयानन्द था उसको उजाडऩे में लोग लगे हैं। असली, नकली, फसली आर्यसमाजियों के बीच नकली, फसली लोगों का बोलबाला अधिक है, जबकि असली ‘विजनवास’ को भोगने के लिये अभिशप्त हैं। यह आर्य समाज ही नहीं देश और विश्व के लिये बड़ी पीड़ा एवं यन्त्रणा का विषय है। इस तरह की जटिल राजनीति की दुर्भिसन्धि के मध्य डॉ. धर्मवीर जी की अन्त:पीड़ा उनके सम्पादकीय के माध्यम से पुन:-पुन: उजागर होती थी। जो सच्चे आर्यसमाजियों क ो उत्साह और निरन्तर प्रेरणा देती रहती थी। डॉ. धर्मवीर जी के शंकराचार्य, विवेकानन्द का हिन्दुत्व और हाल ही में स्वतन्त्रता दिवस पर मोदी जी द्वारा दयानन्द का उल्लेख न होना -भय या अज्ञान, अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी और अन्यान्य भारतीय भाषाओं को बढावा देने वाली एक उनकी समसामयिक सम्यक सुलझी हुई सोच, उनके द्वारा लिखित सम्पादकीय में दूरदृष्टि को ही रेखांकित करती है। मैं अभी हाल ही में माता राकेश रानी जी को मिलने दिल्ली गया था। तब ज्योत्स्ना जी से उनकी बहन सुमेधा जी के साथ परिवार की चर्चा चल रही थी। सुमेधा जी के अन्यत्र जाने पर ज्योत्स्ना जी और हमारे मध्य चर्चा का एक ही विषय था। वे थे डॉ. धर्मवीर जी। मैं काफी अन्तराल के बाद ज्योत्स्ना जी को मिला था। डॉ. धर्मवीर जी का विषय आते ही अपने पिता की तरह सरल, स्पष्टवादी ज्योत्स्ना जी भावुक हो गई थी। डॉ. धर्मवीर जी नहीं बनते यदि ज्योत्स्ना जी का उन्हें पूरा-पूरा सहयोग साथ नहीं मिलता। ज्योत्स्ना जी कहती हंै वे गृहस्थी संन्यासी थे। ऐसा ही रूप उनके पिता का भी था। पं. भारतेन्द्रनाथ जी और डॉ. धर्मवीर जी से आर्यजगत् को बड़ी आशायें थीं। माता राकेशरानी जी ने पं. भारतेन्द्रनाथ जी के न होने पर जो भोगा, वो डॉ. धर्मवीर जी के न होने पर ज्योत्स्ना जी को सहना पड़ रहा है, किन्तु उनके होठों पर उफ तक नहीं है। आर्यसमाज को ऐसी गौरवशाली बेटियों पर, विरांगनाओं पर सती साध्वी माता बहनों और देश धर्म पर आत्मोत्सर्ग करने वाली देवियों एवं सन्नारियों पर गर्व है। इनका आत्मोत्सर्ग ही इस देश को आर्यसमाज को संजीवनी देगा। जीवन एवं चैतन्य देगा इसमें संदेह नहीं। मैंने तब ज्योत्स्ना जी को कहा था। ज्योत्स्ना जी व डॉ. धर्मवीर जी नोबल पुरस्कार प्राप्त ‘श्री कैलाश सत्यार्थी’ से भी किसी भी रूप में कम हस्ती नहीं हैं। भारतेन्द्रनाथ जी और माता राकेशरानी जी को उनके इन दो मानसपुुत्रों पर निश्चित रूप से गर्व होगा। ये दोनों मानसपुत्र उनकी दो आँखें रही हैं। डॉ. धर्मवीर जी ज्ञान के समुद्र थे। आर्यसमाज को ऐसे कर्मठ ओजस्वी युवाओं की आवश्यकता है।

आर्यसमाज का अतीत उज्जवल रहा है। आर्यसमाज ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के बाद पं. गुरुदत्त, श्यामजी कृष्ण वर्मा, स्वामी श्रद्धानन्द, ला. लाजपतराय, पं. लेखराम, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द, स्वामी वेदानन्द, स्वामी आत्मानन्द, नारायण स्वामी, आचार्य अभयदेव, स्वामी ब्रह्ममुनि, स्वामी ओमानन्द सरस्वती जैसे लोगों के मध्य आर्यसमाज का ही नहीं देश का भी उज्जवल काल देखा। एंड्रू डेविड जेक्सन को एक आग दिखाई देती थी जो आदित्य ब्रह्मचारी दयानन्द के अन्तस् में उद्बुद्ध हुई थी। उस अग्रि को स्वामी श्रद्धानन्द के परम शिष्य डॉ. धर्मवीर जी ने निरन्तर जलाये रखा।

श्रद्धया अग्रि: समिध्यते श्रद्धयाहूयते हवि:।

श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि।।

संसार की कोई भी अग्रि श्रद्धा के बिना प्रदिप्त नहीं होती और कोई भी बलिदान श्रद्धा के बिना किया नहीं जा सकता। डॉ. धर्मवीर जी को यह मन्त्र प्रिय था। वे मरे नहीं राष्ट्र, समाज, संस्कृति और मानवता के लिये अपनी आत्मा की ही नहीं सर्वस्व की आहुति दी है। यह आत्म-बलिदान आर्यजगत् को निरन्तर प्रेरणा देता रहेगा और इस अग्रि स्फुलिंग से हजारों ‘धर्मवीर’ और पैदा होंगे। इसमें संदेह नहीं। धर्म पर ‘धर्मवीर बलिदान’ हुये हैं इसमें अत्युक्ति नहीं। धर्मवीर जी का न होना आर्यजगत् को निश्चय ही खलेगा, किन्तु उनकी यश: काया को कोई नहीं मार सकता। अपने कार्य एवं परोपकारी पत्रिका के सम्पादकीय के माध्यम से डॉ. धर्मवीर हमेशा अमर रहेंगे।

उत्पद्यन्ते म्रियन्ते च बहव: क्षुद्र जन्तव:।

अनेन सदृश्यो लोके न भूतो न भविष्यति।

ऐसे लोकोत्तर युग-मानव को विश्व लम्बे समय तक भुलाये नहीं भूल सकता। संसार में कोई भी प्राणी मृत्यु के चंगुल से बच नहीं सकता। महाकाल ने प्रत्येक जीव को अपने पाँव तले दबोच रखा है जिस दिन उसकी इच्छा होती है उस दिन उस पाँव को दबाकर प्राणी को मृत्यु कुचल डालती है। समाप्त कर देती है, विशेषत: शरीर धारी मानव में आत्म-शक्ति का प्रकाश करने के लिये ही आत्मा शरीर को धारण करती है। अत: शरीर पाकर इस जगत् में संसार में आई सब महान् आत्मायें इस संसार में कुछ न कुछ जगत् हितकारी वस्तु का सृजन करके जगत् में उच्च से उच्च ऐश्वर्य को बढ़ा्रकर चली जाती है। अत: डॉ. धर्मवीर जी जैसे वेदवीणा के मधुरगान करने वाले हमें यही संदेश देंगे-‘‘हे अमर पुत्रों उठो! जागो! मरणधर्मा जीवन के सुखसुविधाओं के पिछलग्गु बनना छोड़ो। बेकार में मुरझायी, गिरी हुई तबीयत वाला जीवन क्यों ढोते हो? शुद्ध, पूत समर्पित और आत्म बलिदानी उन्नत जीवन जीकर मृत्यु के पैर को परे हटाकर, अपने अमरत्व की घोषणा कर दो।’’

‘कीर्तिर्यस्य स जीवति।’ का संदेश देते हुये डॉ. धर्मवीर जी हमें मानो कह रहे हैं ‘मरना एक कला एक चाँस है।’ निरन्तर यात्रा करने वाले ‘यायावर’ धर्मवीर जी अब एक लम्बी यात्रा के लिये निकल गये हैं। हमें उपनिषदों का यह संदेश देते हुये चरैवेति! चरैवेति! धर्म के लिये, सत्य के लिये, न्याय के लिये, परोपकार के लिये, करुणा के लिये, मानव मात्र के कल्याण के लिये निरन्तर अनथक चलते रहे। ऋषिवर देव दयानन्द के इस सन्देश को कदापि न भूलें कि ‘‘संसार का उपकार करना आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य है।’’ इस लक्ष्य को पूरा करके ही हम डॉ. धर्मवीर जी को सच्ची श्रद्धाञ्जलि दे सकते हैं। आज राष्ट्र्र, समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रहे है। चरित्र की अपेक्षा धन का नशा समुचे विश्व को अक्रान्त कर रहा है। ऐसे समय में मनु महाराज का यह सन्देश भारत ही नहीं समूचे विश्व को प्रेरणा देगा।

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मना।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा।

काल इन्द्र समय-समय पर भारी-भारी आहुतियाँ माँगता है और इसी से यह संसार निरन्तर उन्नत हो रहा है। वह महाकाल समय-समय पर बड़े-बड़े बलिदान चाहता है, आत्मबलिदान की हवि चाहता है। ‘उत्तिष्ठत अव पश्यत’।। ‘ऋग्वेद १०.१७९.१’ इस ऋग्वेद की ऋचा के अनुसार उठो! खड़े हो और सावधानी से देखो ‘ऋत्वियं भागं जुहोतन’ समय-समय पर दिये जाने वाली ‘आत्म बलिदान’ रूपी हवी को दो। स्वामी दयानन्द जैसे सर्वात्मना बलिदानी ने जिसकी नींव डाली। स्वामी श्रद्धानन्द, लेखराम जिस भवन पर खड़े हुये, उस पर डॉ. धर्मवीर जैसे गर्वोन्नत कलश शिखर विश्वसागर में ‘दिपस्तम्भ’ बनकर सर्वदा मार्गदर्शन करते रहेंगे, इसमें सन्देह नहीं।

स्वामी श्रद्धानन्द जी का ९०वाँ बलिदान दिवस: – चान्दराम आर्य

स्वामी दयानन्द ने ही स्वराज्य की चिंगारी सुलगाई थी। उसी चिंगारी से श्रद्धानन्द ने क्रान्ति का दावानल फैलाया था। कोई माने या न माने, सत्य तो यही है। आर्यवीरों की कुर्बानी से ही आजादी आई थी।

बालक मुन्शीराम का जन्म पंजाब प्रान्त के तलवन (जालन्धर) ग्राम के लाला नानकचन्द के घर सन् १८५६ को हुआ था। पुरोहितों ने बच्चे का नाम ‘बृहस्पति’ रखा, परन्तु पिता ने उनका नाम मुंशीराम रखा। बदा में महात्मा गाँधी ने उनके नाम के आगे ‘महात्मा’ शब्द और जोड़ दिया। पिता नानकचन्द उन दिनों शहर कोतवाल थे। बरेली में स्थायी नियुक्ति हो जाने पर पिता ने परिवार को तलवन से बरेली में ही बुला दिया।

बरेली में मुंशीराम को महर्षि दयानन्द  के दर्शन हुए। उनके भाषणों से व दर्शन से मुंशीराम बहुत प्रभावित हुए। कानूनी शिक्षा प्राप्त करने के लिए आप लाहौर पधारे। वहाँ पढ़ाई के साथ-साथ सभा-संस्थाओं में आना-जाना आरम्भ हुआ। लाहौर में ही उन्हें आर्यसमाज में जाने का चस्का लगा। वहाँ पर उन्होंने आर्यसमाज के सभी ग्रन्थ पढ़ डाले थे। महर्षि दयानन्द के निर्वाणोपरान्त आर्यसमाज लाहौर के पदाधिकारियों ने १ जून १८८६ को डी.ए.वी. कॉलेज की स्थापना की। महात्मा हंसराज उस कॉलेज के अवैतनिक प्राचार्य नियुक्त किए गए। उससे वैदिक सिद्धान्तों का शिक्षण संस्कृत भाषा के द्वारा सम्भव न हो सका। आपने मन-ही-मन वैदिक सिद्धान्तों की शिक्षा मातृभाषा में देने के लिए गुरुकुल की स्थापना करने का संकल्प किया और उचित अवसर की तलाश करने लगे। दुर्भाग्य से ३१ अगस्त १८९१ को उल्टी-दस्त से पत्नी शिवदेवी जी का देहान्त हो गया।

दूसरे दिन जब मुुंशीराम जी शिवदेवी जी का सामान सँभालने लगे तो उनकी बड़ी बेटी वेदकुमारी जी ने माता जी के हाथ का लिखा हुआ कागज लाकर दिया, उसमें लिखा था- ‘‘बाबू जी, अब मैं चली। मेरे अपराध क्षमा करना। आपको तो मुझसे भी अधिक रूपवती व बुद्धिमती सेविका मिल जाएगी, किन्तु इन बच्चों को मत भूलना। मेरा अन्तिम प्रणाम स्वीकार करें।’’ पत्नी के इन शब्दों ने मुन्शीराम जी के हृदय में एक अद्भुत शक्ति का संचार कर दिया। निर्बलता सब दूर हो गई। बच्चों के लिए माता का स्थान भी स्वयं पूरा करने का संकल्प लिया। ऋषि दयानन्द के उपदेश और वैदिक आदेश को पूरा करने के लिए सन् १९०२ को गुरुकुल काँगड़ी (हरिद्वार) की स्थापना की। इसके साथ-साथ देश के उद्धार और जाति के उत्थान का कोई क्षेत्र अछूता न रहा। राजनीति, समाज सुधार, हिन्दी भाषा, अनाथ रक्षा, अकाल, बाढ़, दीन रक्षा, अछूतोद्धार, शुद्धि आन्दोलन आदि सभी कार्यों में स्वामी जी आगे दिखाई देते थे।

श्री रैम्जे मैकडॉनल्ड महोदय ने एक स्थान पर उनके सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है-

‘‘एक महान्, भव्य और शानदार मूत्र्ति-जिसको देखते ही उसके प्रति आदर का भाव उत्पन्न होता है, हमारे आगे हमसे मिलने के लिए बढ़ती है। आधुनिक चित्रकार ईसा मसीह का चित्र बनाने के लिए उसको अपने सामने रख सकता है और मध्यकालीन चित्रकार उसे देखकर सेन्ट पीटर का चित्र बना सकता है। यद्यपि उस मछियारे की अपेक्षा यह मूत्र्ति कहीं अधिक भव्य और प्रभावोत्पादक है।’’

कांग्रेस के स्वागताध्यक्ष पद से अमृतसर पंजाब में राष्ट्रभाषा हिन्दी में जो भाषण मुंशीराम ने दिया था, उनकी ये पंक्तियाँ अब भी रह-रहकर हमारे कानों में गूँज रही हैं, ‘मैं आप सब बहनों व भाइयों से एक याचना करूँगा। इस पवित्र जातीय मन्दिर में बैठे हुए अपने हृदयों को मातृभूमि के प्रेम जल से शुद्ध करके प्रतिज्ञा करो कि आज से साढ़े छ: करोड़ हमारे लिए अछूत नहीं रहे, बल्कि हमारे भाई-बहन हैं। हे देवियो और सज्जन पुरुषो! मुझे आशीर्वाद दो कि परमेश्वर की कृपा से मेरा स्वप्न पूरा हो।’ स्वामी श्रद्धानन्द जी के कार्य का परिचय कराने वाले दीनबन्धु श्री सी.एफ. एण्ड्रूज थे, जिन्होंने गाँधी जी से परिचय करवाया। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के नेटाल सत्याग्रह में व्यस्त गाँधी जी के दिव्य गुणों का वर्णन किया था। उस समय स्वामी जी केवल मुंशीराम जी थे, गाँधी जी भी केवल मिस्टर गाँधी थे। बाद में दोनों का पुण्य स्मरण ‘महात्मा’ नाम से होने लगा। गाँधी जी ने २१ अक्टूबर १९१४ को जो पत्र लिखा था, उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं-

प्रिय महात्मा जी,

मि. एण्ड्रूज ने आपके नाम और काम का इतना परिचय दिया है कि मैं अनुभव कर रहा हूँ कि मैं किसी अजनबी को पत्र नहीं लिख रहा हूँ, इसलिए आप मुझे आपको महात्मा जी लिखने के लिए क्षमा करेंगे। मैं और एण्ड्रूज साहब आपकी चर्चा करते हुए आपके लिए इसी शब्द का प्रयोग करते हैं। उन्होंने मुझे आपकी संस्था गुरुकुल को देखने के लिए अधीर बना दिया है।

आपका मोहनदास कर्मचन्द गाँधी

इसके छ: महीने बाद गाँधी जी भारत में आये तो आप गुरुकुल पधारे। वहाँ गुरुकुल की ओर से उन्हें जो मानपत्र ८ अप्रैल १९१५ को दिया गया, उसमें गाँधी जी को भी ‘महात्मा’ नाम से सम्बोधित किया। आपने १५ वर्ष तक गुरुकुल की सेवा की और १९१७ में संन्यास लेकर स्वामी श्रद्धानन्द कहलाये। २३ दिसम्बर १९२६ को दिल्ली में उनके निवास स्थान पर एक मतान्ध अब्दुल रशीद ने स्वामी जी पर गोलियाँ चलाकर शहीद कर दिया। उनके बलिदान पर पंजाब केसरी लाला लाजपतराय ने निम्न उद्गार प्रकट किए- ‘स्वामी जी की हड्डियों से यमुना के तट पर एक विशाल वृक्ष उत्पन्न होगा, जिसकी जड़े पताल में पहुँचेंगी। शहीदों के खून से नये शहीद पैदा होते हैं।’

जो जीवनभर संघर्षों से खेला, मृदु मुस्कान लिए,

बाधाओं का वक्ष चीरता बढ़ा वेद का ज्ञान लिए।

तोपों-बन्दूकों के आगे, डटा रहा जो सीना तान,

धन्य-धन्य वह वीर तपस्वी, स्वामी श्रद्धानन्द महान्।