ओ३म्
स्वास्तिक चिह्र
(ओम् का प्राचीनतम रुप)
भारत की धार्मिक परम्परा में स्वस्तिक चिह्र का अड़क्न अत्यन्त प्राचीनकाल से चला आ रहा है । भारत के प्राचीन सिक्कों, मोहरों, बर्तनों, और भवनों पर यह चिह्र बहुशः और बहुधा पाया जाता है । भारत के प्राचीनतम ऐतिहासिक स्थल मोहनजोदडो, हडप्पा और लोथल की खुदाइयों में वामावर्त स्वस्तिक चिह्र से युक्त मोहरें मिली हैं, प्रमाण के लिए पुस्तक के अन्त में प्राचीन मोहरों के चित्र देखे जा सकते हैं ।
इनसे अतिरिक्त भारत की प्राचीन कार्षापण मुद्राएं, ढली हुई ताम्र मुद्रा, अयोध्या, अर्जुनायनगण, एरण, काड, यौधेय, कुणिन्दगण, कौशाम्बी, तक्षशिला, मथुरा, उज्जयिनी, अहिच्छत्रा तथा अगरोहा की मुद्रा, प्राचीनमूर्ति, बर्तन, मणके, पूजापात्र (यज्ञकुण्ड), चम्मच, आभूषण और और शस्त्रास्त्र पर भी स्वस्तिक चिह्र बने हुये पाये गये हैं । मौर्य एवं शुंगकालीन प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री पर स्वस्तिक चिह्र बहुलता से देखे गये हैं । जापान से प्राप्त एक बुद्धमूर्ति के वक्षः स्थल पर स्वस्तिक चिह्र चित्रित है । वर्तमान में भी भारतीय जनजीवन में इस चिह्र का प्रचलन सर्वत्र दिखाई देता है । घर, मन्दिर, मोटरगाडी आदि अनेक प्रकार के वाहनों पर इस चिह्र को आप प्रतिदिन देखते हैं । हिटलर ने भी इसी चिह्र को अपनाया था ।
भारत से बाहर से भी चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत बेबिलोनिया, आस्टिया, चाल्डिया, पर्सिया, फिनीसिया, आर्मीनिया, लिकोनिया, यूनान, मिश्र, साइप्रस, इटली, आयरलैण्ड, जर्मनी, बेल्जियम, अमेरिका, ब्राजील, मैक्सिको, अफ्रीका, वेनेजुएला, असीरिया, मैसोपोटामिया, रूस स्विटजरलैण्ड, फ्रांस, पेरू, कोलम्बिया, आदि देशों के प्राचीन अवशेषों पर स्वस्तिक चिह्र अनेक रूपों में बना मिला है ।
अब विचारणीय प्रश्न यह है कि इतने विस्तृत भूभाग में और बहुत अघिक मा़त्रा में पाये जाने वाले इस स्वस्तिक चिह्र का वास्तिवक स्वरूप क्या है
इस विषय मे पर्याप्त उहापोह, विचारविमर्श, तर्कवितर्क तथा गहन अन्वेषण के पश्चात् मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ कि यह स्वस्तिक चिह्र भारत की ज्ञात और प्राचीन लिपि ब्राह्री लिपि में लिखे दो ‘ओम्’ पदों का समूह है, जिसे कलात्मक ढगं से लिखा गया है । इस चिह्र का वैशिष्टय यह है कि इसे चारों दिशाओं से ‘ओम्’ पढा जा सकता है ।
प्राचीन भारत की चौंसठ लिपियों में से एक ब्राह्री लिपि भी है । इस लिपि में ‘ओम्’ अथवा ‘ओं’ को लिखने का रूप इस प्रकार था-
= ओ । =म् । ( • ) अनुस्वार । इनको जोडकरयह रूप बनता है । इसमें= ओ और= म् तथा ( • ) अनुस्वार को मिलाकर दिखाया गया है । इसी ओम् पद को द्धित्व = दोवार करके कलात्मक ढंग से लिखा जाये तो इसका रूप् निम्रलिखित प्रकार से होगा—
सं० १ के प्रकारवाला ओम् आर्जुनायनगण और उज्जयिनी की मुद्राओं पर जाता है । देखें पृष्ठ २० । संख्या २ के प्रकारवाला ओं (स्वस्तिक) तथा यह दक्षिणावर्तीरूप आजकल सारे भारतवर्ष में देखने को मिलता है । सहस्ञों वषों के कालान्तर में लिपि की अज्ञानतावश लेखकों ने इसे वामावर्त से दक्षिणावर्त में परिवर्तित कर दिया । इसे कलाकार के १५% स्वस्तिक चिह्र वामावर्ती ही मिलते हैं । दक्षिणावर्ती स्वस्तिक के उदाहरण स्वल्प ही उपलब्घ हुऐ हैं ।
जैसे – जैसे सामान्य लिपि के लिखने में परिवर्तन होता गया, वैसे – वैसे अन्य प्रचलित सर्वसाघारण लेखात्मक रूप बदलते गये, परन्तु जनमानस में गहरे पैठे हुऐ ओम् जैसे पद ज्यों के त्यों बने रहे । इन्हें धार्मिकता की पुट दे दी गई और ये सहस्ञों वषों से उसी प्राचीन रूप के अनुसार चलते आ रहे हैं । जैसे आजकल ऊँ यह ओम् प्रचलित है, ५ वीं शती ईसवी से १४ वीं शती ईसवी तक इसके निम्र रूप परिवर्तित होते रहे हैं—
आजकल का यह ऊँ (ओम्) भी इन्हीं का परिवर्तित रूप है । इसे कुछ अज्ञानी लोग पौराणिक ओम् कहते हैं तथा ‘ओ३म्’ को आर्यसामाजिक ओम् मानते हैं । यह लिपि का भेद है । सामान्य लोग अभी तक हजार वर्ष पुराने ऊँ (ओम्) को ही लिखते आ रहे हैं, जबकि ओ३म् अथवा ओम् लिखनेवालों ने इसी ऊँ को वर्तमानकालीन प्रचलित लिपि में लिखा हुआ है । जैसे अब विभिन्न लिपियों मे ओम् इस प्रकार लिखते हैं—
इसी प्रकार ऊँ और ओम् में कालक्रमवशात् लिपिमात्र का भेद है, मतमतान्तर जनित भेद नहीं है । जैसे इस वामावर्ती ओम् के रूप को अज्ञानतावश बदलकर यह दक्षिणावर्ती रूप दे दिया तथा कहीं-कहीं इसके अनुस्वार को भी हटा दिया गया, उसी प्रकार आजकल कहीं – कहीं गाडीं, घर द्धार पर दोनों ओर लिखते समय ऊँ इस रूप में भी लिख देते है । यही रूप स्वास्तिक चिह्ररूपी ओम् को भी दोनों प्रकार से लिखने में अपना लिया गया था ।
कुछ लोगों की यह भ्रान्तधारणा है कि स्वास्तिक चिह्र को इस प्रकार दक्षिणावर्ती रूप में ही लिखना चाहिए, क्योकि यह धार्मिक चिह्र है, इसे दाहिने हाथ की ओर मुख किये हुए होना चाहिए, वामावर्ती अशुभ होता है इत्यादि । इस प्रकार के विचारवाले लोगो की सेवा में निवदन है कि यह वाम दक्षिण का भेद कोरौं कल्पना है, इसका सम्बन्ध शुभाशुभ रूप से नहीं है। लिखावट में भी वामावर्ती रूप ही आर्यशैली की लिपियों में अपनाया जाता है । दाहिने हाथ की ओेर से आरम्भ करके तो असुरदेशों की लिपि लिखी जाती है, जैसे खरोष्ठी, उर्दूभाषा की अरबी, फारसी लिपियाँ तथा सिन्धी लिपि आदि।
इस स्वस्तिक ओम् का इतना व्यापक प्रचार हुआ कि शेरशाह सूरी, इसलामशाहसूरी, इबराहिमशाह सूरी तथा एक मुगल शासक ने भी अपनी मुद्राओं पर इस चिह्र को चिह्रित किया था। जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह के समकालीन पाली के शासक हेमराज की मुद्राओं पर भी यह चिह्र पाया जाता है।
प्राचीन भारत के अनेक शिलालेख, ताम्रपत्र तथा पाण्डुलिपियों के आरम्भ में भी “ओम् स्वस्ति” पद लिखा रहता है, तथा भारतीय सस्कारों में यज्ञ के पश्चात् यज्ञमान को तीन वार “ओम् स्वस्ति, ओम् स्वस्ति, ओम् स्वस्ति”, कहकर आर्शीर्वाद देने की परम्परा प्रचलित है। ऐसे स्थलों में ओम् को कल्याणकर्ता के रूप् में मानकर उससे कल्याण की कामना की जाती है। इसमें ओम् और स्वस्ति परस्पर इतने घुलमिल गये हैं कि एकत्व-द्धित्व के भेद का आभास ही नहीं मिल पाता। इसलिए धार्मिक कृत्यों में ‘ओं स्वस्ति’ का अभिप्राय कल्याणकारक ओम् परमात्मा का स्मरण करना है अथवा ओम् परमात्मा हमारा कल्याण (स्वस्ति) करें, यही भाव लिया जाता है।
महर्षि यास्काचार्य निरूत्क में लिखते हैं—
स्वस्ति — इत्यविनाशिनाम।
अस्तिरभिपूजितः स्वस्तीति।
— निरूक्त ३.२०
स्वस्ति यह अविनाशी का नाम है । जगत् में तीन पदार्थ अविनाशी होते हैं — प्रकृति, जीव, ईश्वर। प्रकृति जड होने से जीव का कल्याण स्वयं नहीं कर सकती। जीव स्वयं अपने लिये कल्याण की कामना करनेवाला है, वह कल्याणस्वरूप नहीं है । अप्राप्यपदार्थ अन्य से ही लिया जाता है। अत: परिशष्ट न्याय से साक्षात् कल्याण करनेवाला और स्वंय कल्याणस्वरूप् ईश्वर ही सिद्ध होता है, इसलिए स्वस्ति नाम र्हश्वर का=ओम् का ही है। इसीलिए प्राचीन आर्य प्रत्येक शुभकार्य के आरम्भ में स्वस्तिद परमेशवर का स्मरण मौखिक तथा लिखित रूप् में किया करते थे । वही लिखित ओम् स्वस्ति शनैः – शनैः धार्मिक चिह्र के रूप में स्मरण रह गया और लिपि के रूप में विस्म्त होता चला गया। ईश्वर हामारा कल्याण करता है, हमें सुखी करता है, स्वस्थ रखता है, इसी प्रकार के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए यह ओम् पद स्वस्तिक चिह्र के रूप में परिवर्तित हो गया । यह ईश्वर के नाम का प्रतीक है। भारतवर्ष में आजकल स्वस्तिक के प्रायः पाँच रूप प्रचलित हैं। यथा—
भारतीय संस्कृति और सभ्यता ५००० वर्ष पूर्व तक सारे विश्व में फैली हुई थी, इसीलिए अनेक अन्य पुरावशेषों के साथ स्वस्तिक चिह्र भी सारे संसार में अनेक रूपों में पाया गया है तथा अनेक स्थानों पर अघावधि भी इसका प्रचलन दृष्टिगोचर होता है। विश्व में स्वस्तिक चिह्र के विभित्र रूप् इस प्रकार से मिले हैं—
संख्या १० से १३ में यह ० वृत्त ओम् के अनुस्वार (•) अथवा मकार (म्) का प्रतीक है।
इस स्वस्तिक चिह्र का सबसे बडा वैशिष्टय यह है कि इसे चारों ओर से देखने पर भी यह प्रचीन ब्राहा्री लिपि मे लिखा ‘ओम्’ ही दिखाई देता है। यह ईश्वर की सर्वव्यापकता को सिद्ध करने का सुन्दर और अनुपम प्रतीक है।
पाञ्चल प्रदेश के शासक महाराज द्रुपद और गुरू द्रोणाचार्य की राजघानी अहिच्छत्रा (बरेली) से गले का एक ऐसा आभूषण मिला है जिसपर मध्यभाग में ० वर्तुल के बीच ब्राहा्री लिपि का = ओ बना है तथा इसके चारों ओर वृत्त के बाहर = म् बने हैं, यह भी स्वस्तिरूपी ओम् लिखने का एक अ़द्धत उदाहरण है। यह ओम् इस प्रकार लिखा है —
१ २ ३
इसे आजकल की देवनागरी और रोमन लिपि में इस प्रकार लिख सकते हैं
२ ओम् = ३ OM
उपर्युक्त संक्षिप्त वर्णन से यह सुतरां सिद्ध है कि स्वस्तिकरूपी ओम् का चिह्र विश्व के विस्तृत क्षेत्र में प्रचलित रहा है, और भारत में तो आज भी सर्वत्र इसका प्रयोग हो रहा है, परन्तु इसे लिखने और प्रयोग करनेवाले इस रहस्य से सर्वथा ही अनभिज्ञ हैं कि यह चिह्र कभी ओम् का प्राचीनतम रूप् रहा है।
स्वस्तिक चिह्र की प्राचीनता दर्शाने के लिए भारत के प्राचीनतम ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई से प्राप्त अनेक मुद्राङको (मोहरों) के चित्र आगे दिये जा रहे हैं, जिन्हें देख कर पाठक इसके विविधरूपों को सुगमता से समझ सकते हैं।
—विरजानन्द देवकरणी
इसके अंग्रेजी अनुवाद के लिए यहाँ जाए
The Swastik Symbol : Shri Virjanand Devkarni (translate by :Vinita Arya)