Category Archives: हिन्दी

भस्मासुर बनते सन्त : आचार्य धर्मवीर जी

10928616_4809034281879_2136200442_n

 

भारतीय परपरा में धर्म का सबन्ध शान्ति के साथ है। जहाँ धर्म है वहाँ शान्ति और सुख अनिवार्य है परन्तु आज के वातावरण में धर्म अशान्ति और परस्पर संघर्ष का पर्याय होता जा रहा है। धार्मिक स्थान पर रहने वाले लोगों को साधु, सन्त आदि शदों से पहचाना जाता था। साधु का अर्थ ही अच्छा होता है, संस्कृत भाषा में जो दूसरों के कार्यों को सिद्ध करने में अपने जीवन की सार्थकता समझता है उसे ही साधु कहते हैं। जिसका स्वभाव शान्त है वही सन्त होता है। आजकल इन शदों का अर्थ ही बदल गया है, जो स्वार्थ सिद्ध करने में लगा है वह साधु है, जो अशान्ति फैला रहा है वह सन्त है। जो जनता को मूर्ख बना रहा है वह योगी है। पुराने समय में साधु लोग जिन स्थानों पर निवास करते थे उन स्थानों को आश्रम कहा जाता था। वहाँ जाकर सबको विश्राम मिलता था। वहाँ किसी के आने-जाने पर प्रतिबन्ध नहीं होता था, उनके यहाँ मनुष्य क्या, पशु-पक्षीाी निर्भय होकर विचरते थे। उनके निवास स्थान का गर्मी-सर्दी, शारीरिक कष्ट, पशुओं के द्वारा हानि न पहुँचे इतना ही उद्देश्य था। इसके लिए उन्हें न तो बड़े-बड़े महलों की आवश्यकता थी, न सुरक्षा के लिए किले जैसे आश्रम बनाने की जरूरत, न अपनी फौज, कमाण्डो रखने का झंझट। जब वैराग्य हो गया तो किसका भय, किससे द्वेष, फिर आश्रम की ऊँची-ऊँची दीवारें किसकेाय से बनाई जायें।

आज सन्त वह है जो अशान्त हुआ घूम रहा है। ठग संन्यासी हो गया, विलासी-विरक्त कहला रहा है, यह सब क्यों हो रहा है? क्यों होने दिया जा रहा है? आज हमारे पास ऐसे बहुत उदाहरण हैं जिनसे इन दुर्घटनाओं के कारणों को समझ सकते हैं। सन्त रामपाल दास चौबीसों घण्टे दूरदर्शन और समाचार-पत्रों का विषय बना हुआ है। आज तात्कालिक समस्या के समाधान के रूप में सरकार ने उसे गिरतार कर लिया परन्तु इससे समस्या का समाधान होने वाला नहीं है। यह समस्या सरकार और समाज की बनाई हुई है, यदि इसके कारणों पर विचार करके उसके समूल विनाश का प्रयास नहीं किया गया तो यह समस्या प्रतिदिन खड़ी रहेगी।  केवल उसके नाम बदलते रहेंगे। कभी यह समस्या भिण्डरावाला के रूप में, कभी आसाराम बापू के रूप में, कभी राम-रहीम के रूप में, कभी रामपाल दास के रूप में। इन सन्तों में और चन्दन तस्कर वीरप्पन में भौतिक अन्तर इतना है कि एक आदमी डाकू बनकर डकैती करता है दूसरा सन्त या गुरु बनकर डकैती या ठगी करता है। एक जंगलों में छिपता है तो दूसरा नगरों में किलेनुमा महल बनाकर रहता है। एक बदनाम है और दूसरे की चरण वन्दना होती है। परिणाम दोनों का एक जैसा होता है। जब इनसे जनता का दुःख बढ़ जाता है, सरकार के अस्तित्व पर संकट आता है तब दोनों को अपराधी मानकर पुलिस, फौज, प्रशासन उनको गिरतार करने, दण्ड देने में जुट जाता है। इन दोनों के बनाने के लिए सरकार और समाज ही पूर्ण रूप से उत्तरदायी हैं।

रामपाल दास को सन्त किसने बनाया? समाज के समानित समझे जाने वाले लोगों ने। रामपाल दास हरियाणा सरकार की सेवा में एक जूनियर इञ्जीनियर था, गबन के कारण उसे सरकारी नौकरी से निष्कासित कर दिया गया। वह आज इतना बड़ा सन्त बन बैठा। वह अपने को कबीर का अवतार मानता है। जब दुष्ट व्यक्ति धार्मिकता का आडबर करता है तो जनता को मूर्ख बनाता है। धर्म के क्षेत्र में भक्त सन्तों को बड़ा बनाने का कार्य करते हैं। रामपाल दास कबीरदासी मठ में रहते हुए अपने दुराचरण के कारण अपनी मण्डली में निन्दा का पात्र बना, इसके एक चेले ने इसकी पोल खोलते हुए एक पुस्तक लिखी ‘शैतान बण्यो भगवान’ इस पुस्तक से क्रोधित होकर रामपाल दास ने उसे गुण्डों से पिटवाया। उसने अपनी कहानी अपने परिचितों में अपने क्षेत्र के लोगों को सुनाई। रामपाल दास की दुष्टता से गाँव के लोग  भी तंग थे, वहाँ की महिलाओं से दुर्व्यवहार की घटनाओं से ग्रामवासी उत्तेजित थे। आश्रम के पास खेती करने वालों के खेतों पर कजा करने के उसके प्रयास से वहाँ के किसान भी परेशान थे। सरकार में सन्त की पहुँच बढ़ गई थी, लोगों की सुनवाई नहीं हो रही थी, तब आचार्य बलदेव जी के नेतृत्व में ग्रामवासियों ने संघर्ष किया। सरकार को बाध्य होकर कार्यवाही करनी पड़ी। एक युवक का बलिदान भी हुआ। रामपाल दास को सरकार ने गिरतार भी किया, वह जेल में भी रहा, जमानत पर छूटा, सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को उसका आश्रम उसे लौटाने का निर्देश दिया। ग्रामीणों के लिए फिर संकट आ गया, रोष बढ़ता रहा, बलदेव जी के नेतृत्व में फिर संघर्ष हुआ। इसमें तीन लोगों का बलिदान हुआ। रामपाल दास से आश्रम खाली कराया गया फिर उसने वही सब हिसार के बरवाला आश्रम में करना प्रारभ किया, आज उसी घटना का अगला दृश्य जनता के सामने है।

इस घटनाचक्र में रामपाल दास ने समाचार पत्र और दूरदर्शन के माध्यम से ऋषि दयानन्द को गालियाँ देना, पुस्तकों के उद्धरण को गलत तरीके से प्रस्तुत करना, समाचार पत्रों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द की निन्दा करने का अभियान जारी रखा। आर्यसमाज ने अपने सीमित साधनों से उसका उत्तर देने का प्रयास किया परन्तु उसके साधनों के सामने यह बहुत स्वल्प था। जब मनुष्य का दुर्भाग्य आता है तो दुर्बुद्धि साथ लाता है। रामपाल दास अपने मुकद्दमे की पेशी पर जाने से बचता रहा और वह दिन आ गया जब न्यायालय ने किसी भी स्थिति में उसे गिरतार कर न्यायालय में प्रस्तुत करने का आदेश दिया। एक सप्ताह तक पुलिस प्रयास करने पर भी उसे गिरतार करने में सफल नहीं हो सकी तब आश्रम तोड़कर, बिजली, पानी बन्द कर उसे पकड़ने का प्रयास किया और 14 दिन बाद उसे गिरतार किया जा सका।

इस घटना में विचारणीय बिन्दु है कि इसके लिए दोषी कौन है? क्या रामपाल दास दोषी है? इसका उत्तर है नहीं। क्या जनता दोषी है? इसका भी उत्तर है नहीं। फिर इसका दोषी कौन है? इसका उत्तर है सरकार, प्रशासन, पुलिस अधिकारी, राजनेता और समाज के धनी लोग इसके लिए उत्तरदायी हैं। जब समाज के लोग ऐसे व्यक्ति को माध्यम बनाकर अपने काम सिद्ध करते हैं तो वे ही लोग समाज में ऐसे लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ाते हैं। इन बड़े सपन्न प्रतिष्ठित लोगों को इन साधुओं की पूजा करते देखते हैं तो सामान्य जनता इनके भँवरजाल में फंस जाती है। समाज में अधिकांश लोग आज भी धर्म, अधर्म, झूठ-सच इसका अन्तर करने में समर्थ नहीं है। वे तो किसी को भी इस स्थान पर सन्त की वेशभूषा में देखकर उस पर सहज विश्वास कर लेते हैं, अपना सबकुछ उसको सौंपने के लिए तैयार हो जाते हैं, यही कारण है कि इन धार्मिक ठगों के भक्तों, अनुयायियों की संया हजारों में नहीं, लाखों में पहुँच गई है। इनकी बढ़ती भीड़ लोगों को अपनी ओर इतना आकर्षित करती है कि सामान्य व्यक्ति उस भीड़ का हिस्सा बनकर अपने को धन्य समझ लेता है। भक्तों के धन से ये सन्त कुबेर बन जाते हैं, इनकी झोपड़ियाँ महलों में बदल जाती हैं। इनके भक्तों की भीड़ से समाज में इनका महत्त्व बढ़ता जाता है। पुलिस इनसे डरती है, सरकारी अधिकारी इनकी सेवा करते हैं, मन्त्री इनको प्रणाम करते हैं और निर्वाचन के समय इनके भक्तों के वोट प्राप्त करने के लोभ में इनके चरण छूकर आशीर्वाद लेते हैं। ऐसे में वे अपने को सर्वशक्तिमान् समझने लगें तो आश्चर्य की क्या बात है?

रामपाल दास के प्रसंग में भी यही कुछ हुआ है। रामपाल दास का बचाव पहले से सरकारी अधिकारी करते आ रहे हैं, पुलिस कमिश्नर का वक्तव्य ध्यान देने योग्य है, उन्होंने पत्रकारों से कहा कि पुलिस के दस प्रतिशत लोग रामपाल दास के प्रभाव में हैं, इसी कारण पुलिस को अपने कार्य में सफलता नहीं मिल रही। इस तथ्य की जानकारी मिलने पर कार्य-नीति बदली गई और अपरिचित पुलिस को इस कार्य में लगाया गया तब जाकर पुलिस को सफलता मिली। स्मरण रखने की बात है कि भूतपूर्व मुयमन्त्री भूपेन्द्रसिंह हुड्डा की पत्नी रामपाल दास के ट्रस्ट की ट्रस्टी है, यह भी समाचार पत्रों में आ चुका है। मनोहर लाल खट्टर नये मुयमन्त्री हैं, उन्हें प्रशासन को निर्देशित करने में कठिनाई है। यह स्वाभाविक है परन्तु मुयमन्त्री स्वयं रोहतक के रहने वाले हैं, अतः यह समझना चाहिए कि वे रामपाल दास और उसके साथ घटी घटनाओं से भलीभांति परिचित हैं फिर भी इस घटनाक्रम में लोगों को ऐसा लगा कि सरकार जानबूझकर कार्यवाही करने से बचना चाहती है। आलोचकों और पत्रकारों की दृष्टि में ऐसी सोच का ठोस कारण है, खट्टर सरकार ने रामपाल दास से चुनाव में उसका समर्थन माँगा था और भक्तों से भाजपा को मत देने की माँग की गई थी।

राजनीति में एक-एक मत का और मतदाता का मूल्य होता है। मतदाता मतदाता है, वह चोर है, डाकू है, सन्त है, दादा है, जिसके साथ जितने मत जुड़े हैं वह उतना ही महत्त्वपूर्ण है। ऐसी परिस्थिति में राजनेता भूल जाते हैं कि वह कौन है, उन्हें तो बस मतदाता की चरण-वन्दना करनी होती है। रामपाल दास के साथ-साथ भाजपा ने राम-रहीम बाबा का चुनाव में समर्थन लिया। उसके भक्तों के मत ही भाजपा को विजयी बनाने में समर्थ हुए, पिछले दिनों एक बड़े कांग्रेसी नेता ने स्वीकार किया कि कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण, राम रहीम बाबा का भाजपा को समर्थन देना है। इस का समर्थन, कांग्रेस को भी चाहिए, चौटाला को भी चाहिए, फिर राजनीति में रहना है तो भाजपा कैसे पीछे रह सकती है। बाबा राम रहीम के समर्थन का धन्यवाद मनोहर लाल खट्टर ने अपने मन्त्रीमण्डल के सहयोगियों के साथ बाबा के आश्रम में पहुँचकर चरण-वन्दना करके किया। ध्यान देने की बात है कि बाबा राम रहीम रामपाल दास से बड़ा बाबा है, उसके आश्रम में होने वाले अवैध कार्यों की जाँच पड़ताल करने का साहस पहली सरकारों मेंाी नहीं था वर्तमान सरकार में भी नहीं है। वहाँ पत्रकार की हत्या का प्रसंग बहुत चर्चित रहा है, समय-समय पर आलोचनायें होती हैं। सरकारें अपने स्वार्थ और दुर्बलता के कारण सार्थक कार्यवाही करने में समर्थ नहीं हो सकी हैं। जो भी कार्यवाही देखने में आई वे न्यायालय द्वारा की गई है। अभी बाबा राम रहीम के डेरे का एक वाद न्यायालय में लबित है। बाबा ने अपने अन्तरंग कार्यकर्त्ताओं को बड़ी संया में बलपूर्वक नपुंसक बना दिया जिससे अन्तरंग कार्यों में उनसे कोई बाधा नहीं पहुँचे। न्यायालय इस बात की जाँच कर रहा है। सरकार में यह साहस नहीं है कि आश्रम के विषय में आई शिकायतों की जाँच कर कार्यवाही कर सके।

बाबा लोग अपने कार्यक्रमों में राजनेताओं को बुलाकर अपना प्रभाव प्रदर्शित करते हैं और राजनेता उनके कार्यक्रमों में जाकर आशीर्वाद लेते हैं। इन बाबाओं में कई तो निपट मूर्ख होते हैं और इन बाबाओं के भक्तों कीाीड़ में बड़े शिक्षाविद्, प्रशासक, राजनेता हाथ बांधे पंक्ति में खड़े रहते हैं। कुछ वर्ष पहले शेखावत मुयमन्त्री थे, आसाराम का जयपुर में कार्यक्रम था, आसाराम ने अनेक स्थानों से सिफारिश दबाव डालकर मुयमन्त्री को अपने कार्यक्रम में बुलाया था।

राजनेताओं को भीड़ ऐसे लुभाती है जैसे ठेका शराबियों को। फिर कौन, किसे दोष दे? आसाराम ने आश्रम बनाये, भूमि पर अवैध कजे किये, महिलाओं का शोषण किया, भक्तों के धन से धनपति बन बैठा, प्रायः करके हर बाबा-सन्त की यही कहानी है।

भिण्डरावाला की कहानी से इस देश के नेताओं ने कोई शिक्षा नहीं ली। इन्दिरा गाँधी ने उसे अपने विरोधियों को परास्त करने के लिए आगे किया था परन्तु भारत सरकार के लिए वह कितना बड़ा सिरदर्द बना और इन्दिरा गाँधी की हत्या का कारण बना। आजकल एक नहीं दर्जनों सन्त इसी कार्य में लगे हुए हैं, ये पाखण्ड फैलाकर जनता के विश्वास को दिन-रात लूटने में लगे हुए हैं। मोदी की जन-धन योजना तो सफल हो या न हो पर इन पाखण्डियों की जन-धन योजना शत-प्रतिशत सफल है। एक निर्मल बाबा, हरी-लाल चटनी खिलाकर लोगों का भाग्य बदल रहा है। कुमार स्वामी ब्रह्मर्षि बनकर बीज-मन्त्र दे रहा है और ऐसे लोगों को इन राजनेताओं से खूब सहयोग और समर्थन मिलता है। दक्षिण का सोना स्वामी हो या नित्यानन्द स्वामी, सभी लोग जनता को मूर्ख बनाकर लूटते हैं और कामिनी काञ्चन के स्वामी बनते हैं, अपनी प्रवृत्तियों का स्वामित्व तो इन्हें न मिला और न ही मिलेगा।

इन सारी घटनाओं को देखने से एक बात साफ होती है कि जनता को समझदार और जागरूक किये बिना इसका सुधार सभव नहीं है। आर्यसमाज इन्हीं लोगों की ऐसी बातों का खण्डन करता है तो नासमझ लोग कहते हैं सभी को अपनी आस्था चुनने का अधिकार है, सबको अपने विचारों का प्रचार करने की स्वतन्त्रता है परन्तु आर्यसमाज भी तो विचार ही दे रहा है। क्या गलत बातों से सावधान करना, विचार का प्रचार करना नहीं है? क्योंकि गलत विचारों के निराकरण के बिना सद्विचारों को स्थान नहीं मिल सकता। रामपाल दास के दुष्कृत्यों के विरोध में आर्यसमाज ने आवाज उठाई, आन्दोलन किया, आज उसी का परिणाम है कि रामपाल दास का यथार्थ रूप जनता के सामने आ सका।

इस घटनाक्रम में बाबा की ओर से गोलीबारी में पुलिस वाले और कुछ लोग घायल हुए परन्तु पुलिस को गोली नहीं चलानी पड़ी। रामपाल दास को पुलिस ने गिरतार किया या रामपाल दास ने समर्पण किया यह तो प्रशासन और सरकार की नीयत को बतायेगा। परन्तु एक दुर्घटना का अन्त हुआ। पुलिस को बधाई, ईश्वर का धन्यवाद। इस घटनाक्रम पर पञ्चतन्त्र की पंक्ति सटीक लगती है-

प्रथमस्तावदहं मूर्खो द्वितीयः पाशबन्धकः।

ततो राजा च मन्त्री च सर्वं वै मूर्खमण्डलम्।।

– धर्मवीर

 

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव जी

10922229_4806608421234_248338239_n

 

जिज्ञासाअथर्ववेद में निनलिखित दो मन्त्र इस

प्रकार से हैं-

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।

तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः।।

तस्मिन् हिरण्यये कोशे त्र्यरे त्रिप्रतिष्ठिते।

तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्वत्तद्वै ब्रह्मविदो विदुः।।

– अथर्ववेद 10/2/31-32

पहले मन्त्र में मनुष्य के शरीर की संरचना का वर्णन किया गया है। संक्षेप में, यह स्पष्ट रूप में कहा गया है कि हमारे शरीर में आठ चक्र हैं। मैं अपने अल्प ज्ञान के आधार पर यही समझता हूँ कि वेद-मन्त्र का संकेत मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र नामक आठ चक्रों पर है। इस शरीर में एक आनन्दमय कोश है जो कि आत्मा का निवास-स्थान है। इस आत्मा में जो परमात्मा विद्यमान है, ब्रह्म-ज्ञानी उसे ही जानने का प्रयास करते हैं। जहाँ तक मैंने वैदिक विद्वानों के मुखारविन्द से सुना है, ब्रह्म-रन्ध्र आनन्दमय कोश में ही विद्यमान है। उनका यह भी कथन है कि मस्तिष्क को भी हृदय कहा जाता है। मस्तिष्क की स्थिति आनन्दमय कोश में है।

जब स्तभवृत्ति द्वारा, श्वासों की गति को कुछ क्षणों के लिए रोक दिया जाता है तो मन के द्वारा ध्यान लगाने में सुविधा होती है। जब श्वासों को ब्रह्म-रन्ध्र की स्थिति में रोका जाए तो मन शीघ्र ही एकाग्र हो जाता है क्योंकि दोनों ही एक कोश में विद्यमान है। स्वभाविक रूप से ब्रह्मरन्ध्र (सहस्रार) में धारणा करते हुए आत्मा का अन्तःकरण के द्वारा चिन्तन करना अधिक सरल हो जाता है। वक्षस्थल के समीप जिसे व्यवहारिक भाषा में हृदय कहा जाता है, ध्यान बिखरने लगता है क्योंकि ध्यान लगाने वाला तो इस कोश में है नहीं।

ऊपर लिखित तथ्यों को ध्यान रखते हुए मेरी निनलिखित जिज्ञासायें हैं और प्रार्थना है कि उनका अपनी पत्रिका में यथोचित समाधान करते हुए कृतार्थ करें।

(क) अथर्ववेद में किन आठ चक्रों का वर्णन किया गया है।

(ख) इन आठ चक्रों का क्या महत्त्व है, विशेषतया ध्यान की पद्धति में?,

(ग) क्या ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान करना युक्ति-युक्त नहीं? क्या यह वर्जित है?

समाधान की प्रतीक्षा में,

– रमेश चन्द्र पहूजा, प्रधान, आर्यसमाज मॉडल टाऊन, यमुनानगर

समाधान आज अध्यात्म के नाम पर अनेक भ्रान्तियाँ चल रही हैं। यथार्थ में अध्यात्म क्या है? इसको प्रायः लोग समझते ही नहीं। बिना समझे अध्यात्म के नाम पर भ्रान्ति में जीवन जी रहे होते हैं। आत्मा-परमात्मा के विषय को अधिकृत करके विचार करना उसके अनुसार जीना अध्यात्म है। ठीक-ठीक वैदिक सिद्धान्तों को समझना उनको आत्मसात करना उनके अनुसार अपने को चलाना अध्यात्म है। यह अध्यात्म तनिक कठिन है। इस कठिनता भरे अध्यात्म को अपनाने के लिए साहस और पुरुषार्थ की आवश्यकता है। प्रायः आज का व्यक्ति पुरुषार्थ से बचना चाहता है इसलिए उसको सरल मार्ग चाहिए। यम-नियम आदि के बिना ही कुण्डलिनी जाग्रत कर मोक्ष चाहता है। इन कुण्डलिनी आदि के साथ चक्रों के चक्र में भी घुमने लगता है।

महर्षि दयानन्द ने हमें विशुद्ध अध्यात्म का परिचय ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका उपासना विषय, मुक्ति विषय में व सत्यार्थप्रकाश, समुल्लास 7 व 9 में तथा अध्यात्म से ओतप्रोत ग्रन्थ आर्याभिविनय में करवा दिया है। महर्षि के इस अध्यात्म में कुण्डलिनी और चक्रों की कोई चर्चा नहीं है। महर्षि दयानन्द ने हठयोग प्रदीपिका पुस्तक को अनार्ष ग्रन्थ माना है और ये कुण्डलिनी आदि उसी अनार्ष ग्रन्थ की देन है। न ही सांय आदि शास्त्र में इनका वर्णन है। ऋषियों के ग्रन्थों में तो यमनियामादि के द्वारा ज्ञान प्राप्त कर उस ज्ञान से मुक्ति कही है न कि कुण्डलिनी जागरण से। अस्तु।

अथर्ववेद के जो मन्त्र आपने उद्धृत किये हैं उन मन्त्रों के आर्ष भाष्य उपलध नहीं हैं, अन्य विद्वानों के भाष्य उपलध हैं। जो भाष्य उपलध हैं उन विद्वानों का मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान् प्रचलित चक्रों की बात करते हैं कुछ नहीं। जो प्रचलित चक्रों को मानते हैं वे इन्हीं चक्रों परक अर्थ करते हैं और जो नहीं मानते वे चक्र का अर्थ आवर्तन घेरा आदि लेते हुए शरीर में स्थित ओज सहित अष्ट धातुओं का जो वर्णन है उसको लेते हैं अथवा अष्टाङ्ग योग को लेते हैं। ये विद्वानों की अपनी मान्यता है। यथार्थ में मन्त्र में आये अष्ट चक्र में कौनसे आठ चक्र कहे हैं, यह निश्चित नहीं हैं। हमें अधिक संगत अष्ट धातु परक अर्थ लगता है, फिर भी यह अन्तिम नहीं है।

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में तन्त्रादि ग्रन्थों को भी पढ़ा था। उन तन्त्र ग्रन्थों में शरीर रचना विशेष की बातें लिखी थी। उन पुस्तकों में कई पुस्तकों का विषय नाड़ीचक्र था। महर्षि ने शव परीक्षण भी किया था जो उन नाड़ीचक्र आदि विषय वाली पुस्तकों के अनुसार खरा नहीं उतरा अर्थात् नाड़ीचक्र आदि वहाँ कुछ नहीं मिला। उससे ऋषि का और अधिक दृढ़ निश्चय आर्ष ग्रन्थों पर हुआ। वर्तमान के चिकित्सकों को भी ये चक्र कुण्डलिनी नहीं मिले हैं। जब ये चक्र हैं ही नहीं तो इनकी ध्यान में उपयोगिता भी कैसी? ध्यान में उपयोगी अपना शुद्ध व्यवहार, सिद्धान्त की निश्चितता, वैराग्य, यम-नियमादि योग के अंग हैं। इनको कर व्यक्ति अच्छी प्रकार ध्यान कर सकता है अन्यथा तो शरीर के चक्रों में ही लगा रहेगा।

हाँ मन्त्र में आये अष्टचक्र से यदि अष्टधातु शरीर में स्थित रसादि सात और आठवाँ ओज लिया जाता है तो निश्चित रूप से इनका महत्त्व है।

आपने पूछा क्या ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान करना युक्ति युक्त नहीं? क्या यह  वर्जित है? इस पर हमारा कथन कि महर्षि पतञ्जली जी ने योगदर्शन में ‘धारणा’ के लिए कहा है, धारणा की परिभाषा करते हुए महर्षि ने सूत्र बनाया ‘देशबन्धश्चित्तस्य धारणा’ अर्थात् चित्त का शरीर के एक देश (स्थान) विशेष पर बान्धना (स्थिर) करना धारणा है। इस सूत्र का भाष्य करते हुए महर्षि व्यास ने कुछ स्थानों के नाम गिनाये हैं

नाभिचक्रे, हृदयपुण्डरीके, मूर्ध्नि, ज्योतिषि, नासिकाग्रे, जिह्वाग्र इत्येवमादिषु देशेषु….धारणा।

अर्थात् नाभी, हृदय, मस्तक, नासिका और जिह्वा के अग्रभाग आदि देश में मन को स्थिर करना। यहाँ मुयरूप से मन को एक स्थान पर रोकने की बात कही है वह स्थान कोई भी हो सकता है, ब्रह्मरन्ध्र भी ऋषि के कथन से तो हमें यह प्रतीत नहीं हो रहा कि ध्यान करने के लिए ब्रह्मरन्ध्र विशेष स्थान है और अन्य स्थान सामान्य है। हाँ यह अवश्य प्रतीत हो रहा है कि सभी स्थान अपना महत्त्व रखते हैं। उनमें चाहे नासिकाग्र, जिह्वाग्र हो अथवा ब्रह्मरन्ध्र। यह वर्जित भी नहीं है कि ब्रह्मरन्ध्र में ध्यान नहीं करना चाहिए, ब्रह्मरन्ध्र में मन टिका कर ध्यान किया जा सकता है।

आपने विद्वानों से सुना है कि ब्रह्मरन्ध्र आनन्दमय कोश में रहता है। मस्तिष्क को हृदय कहा जाता है। मस्तिष्क की स्थिति आनन्दमय कोश में है। आपने जो विद्वानों से सुना है कि हृदय मस्तिष्क है अथवा मस्तिष्क में है यह ऋषि के प्रतिकूल कथन है। हमने कई बार जिज्ञासा समाधान में ऋषि कथनानुसार हृदय स्थान का वर्णन किया है। अब फिर कर रहे हैं ‘जिस समय….. परमेश्वर करके उसमें प्रवेश किया चाहें, उस समय इस रीति से करें कि कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदय देश है। जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है उसमें कमल के आकार वेश्म अर्थात् अवकाश रूप स्थान है…….।’ ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका इतना स्पष्ट कथन होते हुए भी मस्तिष्क को हृदय कहना, ऋषि मान्यता को न मानना है। इसी हृदय प्रदेश में ध्यान करने वाला आत्मा रहता है। यहाँ पर ठीक-ठीक किया गया ध्यान बिखरेगा नहीं अपितु अधिक-अधिक ध्यान लगेगा।

इसलिए ध्यान उपासना को अधिक बढ़ाने के लिए महर्षि दयानन्द ने जो उपासना पद्धति विशेष बताई है उसके अनुसार चले चलावें इसी से अधिक लाभ होगा। और जो ऋषि मान्यता से विपरीत अन्य विद्वानों के विचार हैं उसको छोड़ने में ही लाभ है। ऋषि मान्यता के विपरीत चाहे कितने ही बड़े विद्वान् की बात क्यों न हो वह हमारे लिए मान्य नहीं है।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

आदर्श संन्यासी – स्वामी विवेकानन्द भाग -२ : धर्मवीर जी

vivekanand

दिनांक २३ अक्टूबर २०१४ को रामलीला मैदान, नई दिल्ली में प्रतिवर्ष की भांति आर्यसमाज की ओर से महर्षि दयानन्द बलिदान समारोह मनाया गया। इस अवसर पर भूतपूर्व सेनाध्यक्ष वी.के. सिंह मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित थे। उन्होंने श्रद्धाञ्जलि देते हुए जिन वाक्यों का प्रयोग किया वे श्रद्धाञ्जलि कम उनकी अज्ञानता के प्रतीक अधिक थे। वी.के. सिंह ने अपने भाषण में कहा- ‘इस देश के महापुरुषों में पहला स्थान स्वामी विवेकानन्द का है तथा दूसरा स्थान स्वामी दयानन्द का है।’ यह वाक्य वक्ता की अज्ञानता के साथ अशिष्टता का भी द्योतक है। सामान्य रूप से महापुरुषों की तुलना नहीं की जाती। विशेष रूप से जिस मञ्च पर आपको बुलाया गया है, उस मञ्च पर तुलना करने की आवश्यकता पड़े भी तो अच्छाई के पक्ष की तुलना की जाती है। छोटे-बड़े के रूप में नहीं की जाती। यदि तुलना करनी है तो फिर यथार्थ व तथ्यों की दृष्टि में तुलना करना न्याय संगत होगा।

श्री वी.के. सिंह ने जो कुछ कहा उसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जाता, आने वाला व्यक्ति जो जानता है, वही कहता है। यह आयोजकों का दायित्व है कि वे देखें कि बुलाये गये व्यक्ति के विचार क्या है। यदि भिन्न भी है तो उनके भाषण के बाद उनकी उपस्थिति में शिष्ट श     दों में उनकी बातों का उ ार दिया जाना चाहिए, ऐसा न कर पाना संगठन के लिए लज्जाजनक है। इसी प्रसंग में स्वामी विवेकानन्द के जीवन के कुछ तथ्य वी.के. सिंह की जानकारी के लिए प्रस्तुत है।

‘मेरठ में वे २५९ नंबर, रामबाग में, लाल नन्दराम गुप्त की बागान कोठी में ठहरे। अफगानिस्तान के आमीर अ  दुर रहमान के किसी रिश्तेदार ने उस बार साधुओं को पुलाव खिलाने के लिए कुछ रुपये दिए थे। स्वामी जी ने उत्साहित होकर रसोई का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। और दिनों में भी स्वामी जी बीच-बीच में रसोई में मदद किया करते थे। स्वामी तुरीयानन्द को खिलाने के लिए वे एक दिन खुद ही बाजार गये, गोश्त खरीदा, अंडे जुगाड़ किये और कई लजीज पकवान पेश किए।’ (वही पृ. ९२)

‘मेरठ में स्वामी जी अपने गुरुभाइयों को जूते-सिलाई से लेकर चण्डीपाठ और साथ ही पुलाव कलिया पकाना सिखाते रहे। एक दिन उन्होंने खुद ही पुलाव पकाया। मांस का कीमा बनवाया। कुछेक सींक-कबाब भी बनाने का मन हो आया। लेकिन सींक कहीं नहीं मिली। तब स्वामी जी ने बुद्धि लगाई और सामने के पीच के पेड़ से चंद नर्म-नर्म डालियाँ तोड़ लाए और उसी में कीमा लपेट कर कबाब तैयार कर लिया। यह सब उन्होंने खुद पकाया, सबको खिलाया, मगर खुद नहीं खाया। उन्होंने कहा ‘तुम सबको खिलाकर मुझे बेहद सुख मिल रहा है।’  (वही पृ. ९२)

‘स्वामी जी ने अमेरिका से एक होटल का विवरण भेजा ‘‘यहाँ के होटलों के बारे में क्या कहूँ? न्यूयार्क में मैं एक ऐसे होटल में हूँ, जिसका प्रतिदिन का किराया ५००० तक है। वह भी खाना-पीना छोड़कर। ये लोग दुनिया के धनी देशों में से हैं। यहाँ रुपये ठीकरों की तरह खर्च होते हैं। होटल में मैं शायद ही कभी रुकता हूँ, ज्यादातर यहाँ के बड़े-बड़े लोगों का मेहमान होता हूँ।’’विदेश में ग्रेंड-डिनर कैसा होता है, इसका विवरण विवेकानन्द ने खुद दिया है ‘‘डिनर ही मुख्य भोजन होता है। अमीर हैं तो उनका रसोइया फ्रेंच होता है और चावल भी फ्रांस का। सबसे पहले थोड़ी सी नमकीन मछली या मछली के अण्डे या कोई चटनी या स      जी। यह भूख बढ़ाने के लिए होता है। उसके बाद सूप। उसके बाद आजकल के फैशन के मुताबिक एक फल। उसके बाद मछली। उसके बाद मांस की तरी! उसके बाद थान-गोश्त का सींक कबाब! साथ कच्ची स  जी! उसके बाद आरण्य मांस-हिरण वगैरह का मांस और बाद में मिठाई। अन्त में कुल्फी। मधुरेण समापयेत्।’’ प्लेट बदलते समय कांटा चम्मच भी बदल दिये जाते हैं। खाने के बाद बिना दूध की काफी।’ (वही पृ. ९५)

‘एक दिन भाई महेन्द्र से विवेकानन्द ने पूछा ‘क्या रे, खाया क्या?’ अगले पल उन्होंने सलाह दे डाली ‘रोज एक जैसा खाते-खाते मन ऊब जाता है। घर की सेविका से कहना, बीच-बीच में अण्डे का पोच या ऑमलेट बना दिया करे, तब मुंह का स्वाद बदल जाएगा।’ (वही पृ. ९७)

‘एक और दिन करीब डेढ़ बजे स्वामी जी ने अपने भक्त मिस्टर फॉक्स से कहा ‘ध     ा तेरे की’! रोज-रोज एक जैसा उबाऊ खाना नहीं खाया जाता! चलो अपन दोनों चलकर किसी होटल में खा आते हैं।’ (वही पृ. ९७)

‘एक दिन शाम के खाने के लिए गोभी में मछली डालकर तरकारी पकाई गई थी। उनके साथ उनके भक्त और तेज गति के भाषण लेखक गुडविन भी थे। गुडविन ने वह स   जी नहीं खाई। उसने स्वामी जी से पूछा ‘आपने मछली क्यों खाई?’ स्वामी जी ने हंसते-हंसते जवाब दिया ‘अरे वह बुढ़िया सेविका मछली ले आई। अगर नहीं खाता तो इसे नाली में फेंक दिया जाता। अच्छा हुआ न मैंने उसे पेट में फेंक दिया।’  (वही पृ. ९८)

‘मेज पर स्वामी जी की पसन्द की सारी चीजें नजर आ रही हैं- फल, डबल अण्डों की पोच, दो टुकड़े टोस्ट, चीनी और क्रीम समेत दो कप काफी।’ (वही पृ. १०३)

‘पारिवारिक भ्रमण पर निकलते हुए स्वामी जी का आदिम तरीके से क्लेम या सीपी खाना। गर्म-गर्म सीपी में उंगली डालकर मांस निकालने के लिए एक खास प्रशिक्षण की जरूरत होती है। लेकिन कीड़े-मकोड़े-केंचुओं के देश से सीधे अमेरिका पहुँचकर, यह सब सीखने में स्वामी जी को जरा भी वक्त नहीं लगा।’ (वही पृ. १०३)

‘उसी परिवार में स्वामी जी के दोपहर-भोजन का एक संक्षिप्त विवरण- मटन (बीफ या गाय का गोश्त हरगिज नहीं) और तरह-तरह की साग-स िजयाँ, उनके परमप्रिय हरे मटर, उस वक्त डेजर्ट के तौर पर मिठाई के बजाय फल-खासकर अंगूर।’ (वही पृ. १०३)

‘विवेकानन्द ही एकमात्र ऐसे भारतीय थे, जिन्होंने पाश्चात्य देशों में वेदान्त और बिरयानी को एक साथ प्रचारित करने की दूरदर्शिता और दुस्साहस दिखाया।’ (वही पृ. ११०)

‘इससे पहले लन्दन में भी स्वामी जी ने पुलाव-प्रसंग पर भी अपनी राय जाहिर की है। प्याज को पलाशु कहते हैं- पॅल का मतलब है मांस। प्याज को भूनकर खाया जाए, तो वह अच्छी तरह हजम नहीं होता। पेट के रोग हो जाते हैं। सिझाकर खाने से फायदेमंद होता है और मांस में जो ‘कस्टिवनेस’ होता है वह नष्ट हो जाते हैं।’ (वही पृ. ११२)

‘पुलाव पर्व का मानो कहीं कोई अन्त नहीं। पहली बार अमेरिका जाने से पहले, स्वामी जी बम्बई में थे। अचानक उनके मन में इच्छा जागी कि अपने हाथ से पुलाव पकाकर सबको खिलाया जाय। मांस, चावल, खोया खीर वगैरह, सभी प्रकार के उपादान जुटाये गये। इसके अलावा यख्नी का पानी तैयार किया जाने लगा। स्वामी जी ने यख्नी के पानी से थोड़ा-सा मांस निकाल कर चखा। पुलाव तैयार कर लिया गया। इस बीच स्वामी जी दूसरे कमरे में जाकर ध्यान में बैठ गये। आहार के समय सभी लोगों ने बार-बार उनसे खाने का अनुरोध किया। लेकिन उन्होंने कहा ‘मेरा खाने का बिल्कुल मन नहीं है। मैं तो पकाकर तुम लोगों को खिलाना चाहता था। इसलिए १४ रुपये खर्च करके हंडिया भर पुलाव बनाया है। जाओ तुम लोग खा लो और स्वामी जी दुबारा ध्यानमग्न हो गये।’ (वही पृ. ११२)

‘मिर्च देखते ही स्वामी का ब्रेक फेल हो जाता।’  (वही पृ. ११४)

‘अमेरिका में एक बार स्वामी जी फ्रेंच रेस्तराँ में पहुँच गये। वहाँ की चिंगड़ी मछली खाने के बाद घर आकर उन्होंने खूब-खूब उल्टियाँ की। बाद में ठाकुर रामकृष्ण को याद करते हुए, उन्होंने कहा ‘मेरे रंग-ढंग भी अब उस बूढ़े जैसे होते जा रहे हैं। किसी भी अपवित्र व्यक्ति का छुआ हुआ खाद्य या पानी उनका भी तन-मन ग्रहण नहीं कर पाता था।’ (वही पृ. ११६)

‘विद्रोही विवेकानन्द की उपस्थिति हम उनके खाद्य-अभ्यास में खोज सकते हैं और पा सकते हैं। शास्त्र में कहा गया है कि दूध और मांस का एक साथ सेवन नहीं करना चाहिए। लेकिन स्वामी जी इन सबसे लापरवाह दूध और मांस दोनों ही विपरीत आहारों के खासे अभ्यस्त हो गये थे।’ (वही पृ. ११८)

‘इसी तरह एक बार आईसक्रीम का मजा लेते हुए उच्छवासित होकर कहा- ‘मैडम, यह तो फूड फॉर गॉड्स है। अहा सचमुच स्वर्गोयम्’ (वही पृ. १२०)

‘शिष्य शरच्चन्द्र की ही मिसाल लें। पूर्वी बंगाल का लड़का। स्वामी जी का आदेश था। ‘गुरु को अपने हाथों से पकाकर खिलाना होगा।’ मछली, स       जी और पकाने की अन्यान्य उपयोगी सामग्रियाँ लेकर शिष्य शरच्चन्द्र करीब आठ बजे बलराम बाबू के घर में हाजिर हो गया। उसे देखते ही स्वामी जी ने निर्देश दिया, तुझे अपने देश जैसा खाना पकाना होगा। अब शिष्य ने घर के अन्दर रसोई में जाकर खाना पकाना आरम्भ किया। बीच-बीच में स्वामी जी अन्दर आकर उसका उत्साह बढ़ाने लगे। कभी उसे मजाक-मजाक में छेड़ते भी रहते- ‘देखना मछली का ‘जूस’ (रंग) बिल्कुल बांग्लादेशी जैसा ही हो।’

‘अब इसके बाद की घटना शिष्य की जुबानी ही सुनी जाए- ‘भात, मूंग की दाल, कोई मछली का शोरबा, खट्टी मछली, मछली की ‘सुक्तिनी’ तो लगभग तैयार हो गया। इस बीच स्वामी जी नहा-धोकर आ पहुँचे और खुद ही प  ो में ले-ले कर खाने लगे। उनसे कई बार कहा भी गया कि अभी और भी कुछ-कुछ पकाना बाकी है, मगर उन्होंने एक न सुनी। दुलरुवा बच्चे की तरह कह उठे ‘जो भी बना है फटाफट ले आ, मुझसे अब इन्तजार नहीं किया जा रहा। मारे भूख के पेट जला जा रहा है।’ शिष्य कभी भी पकाने-रांधने में पटु नहीं था, लेकिन आज स्वामी जी उसके पकाने की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। कलक    ाा के लोग मछली की सुक्तिनी के नाम पर ही हंसी-मजाक करने लगते हैं। लेकिन स्वामी जी ने वही सुक्तिनी खाकर कहा ‘यह व्यञ्जन मैंने कभी नहीं खाया।’ वैसे मछली का जूस जितना मिर्चदार है, इतनी मिर्चदार बाकी सब नहीं हुई। ‘खट्टी’ मछली खाकर स्वामी जी ने कहा ‘यह बिल्कुल वर्धमानी किस्म की हुई है।’ अब स्वामी जी ने अपने शिष्य से बेहद मह      वपूर्ण बात कही, ‘जो अच्छा पका नहीं सकता, वह अच्छा साधु हरगिज नहीं हो सकता।’  (वही पृ. १२२)

‘अपनी महासमाधि के कुछ दिनों पहले स्वामी जी ने इसी शिष्य को कैसे खुद पकाकर खिलाया था, यह जान लेना भी बेहतर होगा।’ (वही पृ. १२२)

‘उन दिनों स्वामी जी का कविराजी इलाज जारी था। पाँच-सात दिनों से पानी-पीना बिल्कुल बन्द था, वे सिर्फ दूध पर चल रहे थे। ये वही शख्स थे जो घण्टे-घण्टे में पाँच-सात बार पानी पीते थे। शिष्य मठ में ठाकुर को भोग लगाने के लिए एक रूई मछली ले आया। मछली काट-कूट ली जाए, तो उसका अगला हिस्सा ठाकुर के भोग के लिए निकाल कर थोड़ा-सा हिस्सा अंग्रेजी पद्धति से पकाने के लिए स्वामी जी ने खुद ही मांग लिया। आग की आँच में उनकी प्यास बढ़ जाएगी, इसलिए मठ के लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि वे पकाने का इरादा छोड़ दें। लेकिन स्वामी जी ने उन लोगों की एक न सुनी। दूध, बर्मिसेली, दही वगैरह डालकर उन्होंने चार-पाँच तरह से मछली पका डाली। थोड़ी देर बाद स्वामी जी ने पूछा, क्यों कैसी लगी? शिष्य ने जवाब दिया ‘ऐसा कभी नहीं खाया।’ शिष्य ने बर्मिसेली कभी नहीं खाई थी। उसने जानना चाहा कि यह कौन सी चीज है? स्वामी जी को मजाक सूझा। उन्होंने हंसकर कहा- यह विलायती केंचुआ है। इन्हें मैं लन्दन से सुखाकर लाया हूँ।’ (वही पृ. १२२-१२३)

‘समयः- मार्च १८९९ स्थान बेलुड़ मठ। इस लञ्च के कुछेक दिन पहले ही बिना किसी नोटिस के सिस्टर निवेदिता को उन्होंने वेलुड़ में ही सपर खिलाया था। उस दिन का मेन्यू था- कॉफी, कोल्ड मटन, ब्रेड एण्ड बटर। स्वयं स्वामी जी ने सामने बैठकर परम स्नेह से निवेदिता को खिलाया और नाव से कलक ाा वापस भेज दिया।’

‘अगले इतवार के उस अविस्मरणीय लञ्च का धारा-विवरण वे मिस मैक्लाइड को लिखे गए एक पत्र में रख गए हैं। ‘वह एक असाधारण सफलता थी। काश तुम भी वहाँ होतीं, स्वामी जी ने उस दिन अपने हाथ से खाना पकाया था, खुद ही परोसा भी था। हम दूसरी मंजिल पर एक मेज के सामने बैठे थे। सरला पूर्व की तरफ मुंह किए बैठी थी, ताकि उसे गंगा नजर आती रहे। निवेदिता ने इस लञ्च को नाम दिया था ‘भौगोलिक लञ्च’ क्योंकि एक ही मेज पर समूचे विश्व के पकवान जुटाये गये थे। सारे व्यञ्जन स्वामी जी ने खुद पकाये थे। खाना पकाते-पकाते ही, उन्होंने निवेदिता को एक बार तम्बाकू सजा लाने को कहा, आइए, इस अतिस्मरणीय मेन्यू का विवरण सुनाएँ-

१. अमेरिकी या यांकी-फिश चाउडर।

२. नार्वेजियन- फिश-बॉल या मछली के बड़े- ‘यह व्यञ्जन मुझे मैडम अगनेशन ने सिखाया था’ स्वामी जी ने मजाक-मजाक में बताया। यह मैडम कौन हैं, स्वामी जी वे क्या करती हैं? मुझे भी उनका नाम सुना-सुना लग रहा है। उ  ार मिला, ‘और भी बहुत कुछ करती हैं, साथ में फिश-बॉल भी पकाती हैं।’

३. इंग्लिश या यांकी- बोर्डिंग हाउस हैश। स्वामी जी ने आश्वस्त किया कि यह ठीक तरह से पकाया गया है और इसमें प्रेक मिलाया गया है। लेकिन प्रेक? इसके बजाय हमें उसमें लौंग मिली, अहा रे! प्रेक न होने की वजह से हमें अफसोस होता।’

४. कश्मीरी- मिन्सड पाई आ ला कश्मीरा। बादाम और किशमिश समेत मांस का कीमा।

५. बंगाली- रसगुल्ला और फल। पकवान का विवरण सुनकर विस्मित होना ही चाहिए।’ (वही पृ. १२६)

४ जुलाई १९०२ शुक्रवार को स्वामी जी ने क्या दोपहर का, आखरी भोजन ग्रहण किया था? अलबत खाया था। इलिश मछली,  जुलाई का महीना, सामने ही गंगा नदी। इलिश मछली के अलावा अगर और कुछ पकाया गया तो दुनिया के लोग कहते- यह शख्स निहायत बेरसिक है। नितान्त रसहीन। आसन्न वियोगान्त नाटक की परिणति का आभास किसी को भी नहीं था। ४ जुलाई की सुबह। स्वामी प्रेमानन्द का विवरण पढ़ने लायक है। ‘इस वर्ष पहली बार गंगा की एक इलिश मछली खरीदी गई। उसकी कीमत को लेकर कितने ही हंसी-मजाक हुए। कमरे में एक बंगाली लड़का भी मौजूद था। स्वामी जी ने उससे कहा- ‘सुना है नई-नई मछली पाकर तुम लोग उसकी पूजा करते हो, कैसे पूजा की जाती है, तू भी कर डाल।’ आहार के समय बेहद तृप्ति के साथ रसदार इलिश मछली और अम्बल की भुजिया खाई। आहार के बाद उन्होंने कहा ‘एकादशी व्रत करने के बाद भूख काफी बढ़ गई है। लोटा-कटोरी भी चाट-चूटकर मैंने बड़ी मुश्किल से छोड़ी।’

‘उन्हें एक और चीज भी पसन्द थी- कोई मछली। शिमला स्ट्रीट की द  ा-कोठी में यह मजाक मशहूर था- कोई मच्छी दो तरह की होती है, सिख कोई और  गोरखा कोई। सिख कोई लम्बी-लम्बी होती है और गोरखा कोई बौनी, लेकिन काफी दमदार।’ (वही पृ. १२८)

पहली बार अमेरिका जाने के लिए बम्बई में जहाज पर सवार होने से पहले स्वामी जी का अचानक कोई मछली खाने का मन हो आया। उस समय बम्बई में कोई मछली मिलना मुश्किल था। भक्त कालीपद ने ट्रेन से आदमी भेजकर काफी मुश्किलें झेलकर विवेकानन्द को कोई मछली खिलाने का दुर्लभ सौभाग्य अर्जित किया।’ (वही पृ. १२८)

‘किसी-किसी भक्त के यहाँ जाकर वे खुद ही मेन्यू तय कर देते थे। कुसुम कुमारी देवी बता गई हैं, ‘मेरे घर आकर उन्होंने उड़द की दाल और कोई मछली का शोरबा काफी पसन्द किया था।’ (वही पृ. १२८)

स्वामी जी की पसन्द-नापसन्द के मामले में मटर की दाल और कोई मछली का दुर्दान्त प्रतियोगी है- इलिश और पोई साग। स्वामी जी की महासमाधि के काफी दिनों बाद भी एक  स्नेहमयी ने अफसोस जाहिर किया ‘पोई साग के साथ चिंगड़ी मछली बनती है, तो नरेन की याद आ जाती है।’ (वही पृ. १२९)

‘जैसे चाबी और ताला, हांडी और आहार, शिव और पार्वती की जोड़ी बनी है, उसी तरह स्वामी जी के जीवन में इलिश मछली और पोई साग की जोड़ी घर कर गई थी। कान खींचते ही जैसे सिर आगे आ जाता है। उसी तरह घर इलिश आते ही स्वामी जी पोई साग की खोज करते थे। अब सुनें, इलाहबाद के सरकारी कर्मचारी, मन्मथनाथ गंगोपाध्याय का संस्मरण।

एक बार स्वामी जी स्टीमर से गोयपालन्द जा रहे थे। एक नौका पर सवार मछेरे अपने जाल में इलिश मछली बटोर रहे थे। स्वामी जी ने अचानक कहा ‘तली हुई इलिश खाने का मन हो रहा है।’ स्टीमर चालक समझ गया कि स्वामी जी सभी खलासियों को इलिश मछली खिलाना चाहते हैं। नाविकों से मोलभाव करके उसने बताया, ‘एक आने में एक मछली, तीन-चार मछलियां काफी होंगी।’ स्वामी जी ने छूटते ही निर्देश दिया ‘तब एक रुपइया की मछली खरीद ले। बड़ी-बड़ी सोलह इलिश ले ले और साथ में दो-चार फाव में।’ स्टीमर एक जगह रोक दिया गया।’

स्वामी जी ने कहा ‘पोई साग भी होता, तो मजा आ जाता। पोई साग और गर्म-गर्म भात। गांव करीब ही था। एक दुकान में चावल तो मिल गया। मगर वहाँ बाजार नहीं लगता था। पोई साग कहाँ से मिले? ऐसे में एक सज्जन ने बताया, ‘चलिए, मेरे घर की बगिया में पोई साग लहलहा रहा है। लेकिन मेरी एक शर्त है, एक बार मुझे स्वामी जी के दर्शन कराने होंगे।’ (वही पृ. १२९)

रोग सूची-  (वही पृ. १५८, १८९)

‘दूसरी बार विदेश-यात्रा के समय उन्होंने मानसकन्या निवेदिता से जहाज में कहा था- ‘हम जैसे लोग चरम की समष्टि हैं। मैं ढेर-ढेर खा सकता हूँ और बिल्कुल खाये बिना भी रह सकता हूँ। अविराम धूम्रपान भी करता हूँ और उससे पूरी तरह विमुख भी रह सकता हूँ। इन्द्रियदमन की मुझमें इतनी क्षमता है, फिर भी इन्द्रियानुभूति में भी रहता हूँ। नचेत दमन का मूल्य कहाँ है।’ (वही पृ. १६०)

‘उनके शिष्य शरच्चन्द्र चक्रवर्ती पूर्वी बंगाल के प्राणी थे। स्वामी जी ने उनसे कहा था- ‘सुना है पूर्वी बंगाल के गांव-देहात में बदहजमी भी एक रोग है, लोगों को इस बात का पता ही नहीं है। शिष्य ने जवाब दिया- ‘जी हाँ, हमारे गाँव में बदहजमी नामक कोई रोग नहीं है। मैंने तो इस देश में आकर इस रोग का नाम सुना। देश में तो हम दोनों जून मच्छी-भात खाते हैं।’

‘हाँ, हाँ, खूब खा। घास-प   ो खा-खाकर पेट पिचके बाबा जी लोग समूचे देश में छा गये हैं। वे सब महातमोगुण सम्पन्न हैं? तमोगुण के लक्षण हैं- आलस्य, जड़ता, मोह, निद्रा, यही सब।’ (वही पृ. १६४)

‘हमने यह भी देखा कि उनका धूम्रपान बढ़ गया था। उसमें नया आकर्षण भी जुड़ गया, नई-नई आविष्कृत अमेरिका की आइसक्रीम…..।’ (वही पृ. १८८)

‘किसी भक्त ने सवाल किया ‘स्वामी जी, आपकी सेहत इतनी जल्दी टूट गई, आपने पहले से कोई जतन क्यों नहीं किया।’ स्वामी जी ने जवाब दिया- ‘अमेरिका में मुझे अपने शरीर का कोई होश ही नहीं था।’ (वही पृ. १८८)

‘दोपहर ११.३० अपने कमरे में अकेले खाने के बजाय, सबके साथ इकट्ठे दोपहर का खाना खाया- रसदार इलिश मछली, भजिया, चटनी वगैरह से भात खाया।’ (वही पृ. २०५)

‘शाम ५ बजे- स्वामी जी मठ में लौटे। आम के पेड़ तले, बैंच पर बैठकर उन्होंने कहा- ‘आज जितना स्वस्थ मैंने काफी अर्से से महसूस नहीं किया।’ तम्बाकू पीकर पाखाने गऐ। वहाँ से लौटकर उन्होंने कहा- ‘आज मेरी तबियत काफी ठीक है।’ उन्होंने स्वामी रामकृष्णानन्द के पिता श्री ईश्वरचन्द्र चक्रवर्ती से थोड़ी बातचीत की।’

रात ९ बजे-इतनी देर तक स्वामी जी लेटे हुए थे, अब उन्होंने बाईं करवट ली। कुछ सैकेण्ड के लिए उनका दाहिना हाथ जरा कांप गया। स्वामी जी के माथे पर पसीने की बूंदें। अब बच्चों की तरह रो पड़े।

रात ९.०२ से ९.१० बजे तक गहरी लम्बी उसांस, दो मिनट के लिए स्थिर, फिर गहरी सांस, उनका सिर हिला और माथा तकिये से नीचे लुढ़क गया। आंखें स्थिर, चेहरे पर अपूर्व ज्योति और हँसी।’ (वही पृ. २०६)

इस सारे विवरण को पढ़ने के बाद यदि कोई कहता है कि स्वामी विवेकानन्द इस देश के सर्वोच्च महापुरुष थे और ऋषि दयानन्द सरस्वती दूसरे पायदान पर आते हैं तो मेरा उनसे आग्रह होगा कि वे अपने वक्तव्य में संशोधन कर लें और कहें – स्वामी विवेकानन्द इस देश के महापुरुषों में पहले पायदान पर हँ और ऋषि दयानन्द सीढ़ी के अन्तिम पायदान पर हैं तो हम बधाई देंगे। हमारे वन्दनीय तो फिर भी ऋषि दयानन्द ही होंगे क्योंकि इस इस देश के ऋषियों ने महानता का आदर्श धन, बल, सौन्दर्य, विद्व       ाा, वक्तित्व आदि को नहीं माना, उन्होंने बड़प्पन का आधार सदाचार को माना है। इसलिए मनु महाराज कहते हैं-

यह देश सच्चरित्र लोगों के कारण सारे संसार को शिक्षा देता रहा है। जैसा कि

ऐतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः।।

टिप्पणी

पुस्तक का नामविवेकानन्द- जीवन के अनजाने सच

प्रकाशकपेंग्विन प्रकाशन, नई दिल्ली

– धर्मवीर

 

or more articles u may visit

http://www.aryamantavya.in/2014/hindi-articles/myth-busters-hi/swami-vivekanand-meat-eating/

http://www.aryamantavya.in/2014/hindi-articles/myth-busters-hi/vivekananda-supports-that-vedas-support-animal-sacrifice/

http://www.aryamantavya.in/2014/download/swami-dayanand-vs-swami-vivekanand/

 

विद्यालयी शिक्षा में संस्कृत शिवदेव आर्य, देहरादून

images

 

संस्कृत भाषा का नाम सुनकर प्रगतिशील विद्वान्, नेता राजनेता भड़क जाते हैं। शिक्षा मे संस्कृत की बात आती है तो इन्हें सेक्युलर ढांचा खतरे में दिखाई देने लगता है। विडम्बना देखिए त्रिभाषा फार्मूले पर असंवैधानिक कदम का विरोध नहीं हुआ। लेकिन जब गलती को सुधारा गया, तो आरोप लगाया गया कि सरकार शिक्षा का भगवाकरण चाहती है। जबकि केन्द्र सरकार ने स्पष्ट रूप से बता दिया था कि संस्कृत को अनिवार्य नहीं किया जा रहा है। न वैकल्पिक विषय के रूप में किसी भाषा पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। विद्यार्थियों के सामने विकल्प रहेंगे। केवल पिछली सरकार की एक बड़ी गलती को सुधारा गया है परन्तु आश्चर्य की बात है कि लगातार तीन वर्ष तक असंवैधानिक व्यवस्था चलती रही। उस समय के विद्वान् शिक्षा मंत्रियों ने जाने-अनजाने  में इस पर ध्यान नहीं दिया।

वर्तमान काल में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने इस ओर ध्यान दिया। उन्होंने अपनी सतर्कता से इस मसले को गंभीरता से समझा। यह माना कि पिछली सरकार ने बहुत बड़ी गलती की थी। इसे दुरुस्त करके पुनः त्रिभाषा फार्मूले को पटरी पर लाया जाय। स्मृति ईरानी के इस कदम की दलगत सीमा से ऊपर उठकर प्रशंसा करनी चाहिए थी। यह इसलिए भी जरूरी थी कि यह प्रसंग जर्मन सरकार तक पहुंच चुका था। आस्ट्रेलिया में जी-20 शिखर सम्मेलन में अनौपचारिक तौर पर जर्मन की चालंसर एन जेला मर्केल ने दबी  जबान से यह मामला उठाया था। जवाब में भारत की ओर से कहा गया कि वैकल्पिक विषय के रूप में जर्मन पढ़ाई जाती रहेगी। इधर भारत में जर्मन के राजदूत भी इस मसले पर बहुत सक्रिय हो गये थे। वह इसे भारत और जर्मनी के रिश्तों से जोड़ कर देख रहे थे। उन्होंने सरकार के फैसले की आलोचना की। मानव संसाधन मंत्री ने इस पर आपत्ति दर्ज की। उन्होंने राजदूत के विरोध को अनावश्यक और गलत बताया। पिछली  सरकार की अदूरदर्शिता के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई। 2011 में सीबीएससी के नियम को आकस्मिक रूप से बदल दिया गया। त्रिभाषा फार्मूले से संस्कृत को हटाकर जर्मन को रख दिया गया। यह विचित्र निर्णय था। किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था कि त्रिभाषा फार्मूले से स्वदेशी भाषा संस्कृत को क्यों हटाया गया? उसकी जगह जर्मन को क्यों रखा गया? यह फैसला तो किया ही नहीं जा सकता। संविधान के अनुसार ऐसा करने की अनुमति ही नहीं थी। संविधान की आठवीं अनुसूची में जिन भाषाओं का उल्लेख है, उन्हीं को त्रिभाषा फार्मूले में रखा जा सकता है। इसमें जर्मन तो किसी भी दशा में शामिल ही नहीं हो सकती। जिसने भी संस्कृत को हटाकर जर्मन को रखा, उसने सरासर संविधान की व्यवस्था का उल्लंघन किया।

यह संवैधानिक ही नहीं अव्यवहारिक निर्णय भी था। संस्कृत पढ़ाने वाले शिक्षक सभी जगह उपलब्ध हो सकते थे। हिन्दी के शिक्षक भी प्रारम्भिक संस्कृत पढ़ा सकते हैं लेकिन जर्मनी के शिक्षक इतनी संख्या में उपलब्ध ही नहीं हो सकते। दिल्ली तथा कुछ अन्य महानगरों में जर्मन शिक्षक आ सकते हैं। लेकिन दूर-दराज के इलाकों में जर्मन पढ़ाने की व्यवस्था संभव ही नहीं थी। ऐसा भी नहीं कि जर्मन यहां की लोकप्रिय भाषा हो। सीमित संख्या में विद्यार्थी जर्मन पढ़ना चाहते हैं। इनके लिये पहले भी व्यवस्था थी और आगे भी रहेगी।

कुछ लोगों का कहना है  कि यह वैश्वीकरण का दौर है। विदेशी भाषा सीखने से आर्थिक-व्यापारिक संबंधों में सहायता मिलेगी। यदि ऐसा है तो जर्मनी ही क्यों ऐसे कई देश हैं जिनके साथ भारत का व्यापार जर्मनी के मुकाबले बहुत अधिक है। इसके अलावा वैश्वकीरण के लिये किसी स्वदेशी भाषा को हटाकर विदेशी भाषा रखने का तर्क अनैतिक है। व्यापार निवेष बढ़ाने के अनेक कारक तत्त्व होते हैं।

संस्कृत को हटाकर जर्मन रखने का फैसला असंवैधानिक, अव्यवहारिक, अनैतिक और अज्ञानता से भरा था। यह संभव ही नहीं कि मानव संसाधन विभाग में इतना बड़ा फैसला हो जाए, उसे लागू कर दिया जाये और मंत्रियों को इसकी जानकारी ही न हो। तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री आज जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं। पल्लम राजू का कहना है कि यह मसला उनके सामने नहीं आया था। इसे एक अन्य समझौते के तहत लागू किया गया था। जबकि मंत्रालय की कार्यप्रणाली जानने वालों का कहना है कि यह संभव नहीं कि मंत्री के सामने यह मामला पहुंचा न हो। यह तभी संभव है जब मंत्री रबर स्टम्प की तरह हो, उसकी जगह कोई अन्य निर्णय लेता हो। दोनों ही स्थितियों में जवाबदेही विभागीय मंत्री की ही मानी जायेगी। साफ है कि इस निर्णय के पीछे नेक नीयत नहीं थी। संप्रग सरकार में कोई तो ऐसा प्रभावशली व्यक्ति अवश्य होगा, जो संस्कृत की जगह विदेशी भाषा को महत्त्व देना चाहता था।

 

क्या यह कहना गलत होगा कि संस्कृत को हटाने का फैसला कथित सेक्यूलर छवि को चमकाने के लक्शलिये किया गया था। यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि संस्कृत भारतीय भाषाओं की जननी है। कई भाषाओं में आज भी आधे से अधिक प्रचलित शब्द संस्कृत के हैं। इसका व्याकरण विश्व में बेजोड़ है। यह विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है। कम्प्यूटर युग के लिये सर्वाधिक उपयुक्त भाषा है। विश्व का सबसे समृध्द साहित्य संस्कृत में है। कोई इसे न पढ़े, यह उसकी मर्जी। लेकिन इसे पढ़ना भगवाकरण नहीं है।

त्रिभाषा फार्मूले में तीन भाषाआंे का प्रावधान किया गया था। पहली भाषा के रूप में मातृभाषा, दूसरी में हिन्दी या अंग्रेजी, तीसरी कोई आधुनिक भारतीय भाषा। मातृभाषा के साथ ही संस्कृत को भी शामिल किया गया था। संप्रग सरकार ने चुपचाप तीसरी भाषा में जर्मनी को रख दिया था।

आज हम सब के लिए अत्यन्त हर्ष का विषय है कि भारत सरकार की शिक्षा मन्त्री माननीय स्मृति ईरानी के उचित समय में लिये गया  उचित  फैसले से तृतीय भाषा के रूप में संस्कृत भाषा वैकल्पिक विषयों में स्थान दिया गया है।  देश में संस्कृत के लिए सुनहरे अवसरों की शुरुआत हो चुकी है। अब हम सबको संस्कृत के लिए कृतसंकल्प होने की आवश्यकता है

मो.-08810005096

-गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

आदर्श सन्यासी -स्वामी विवेकानन्द : प्रो धर्मवीर

vivekanand

दिनाक 23  अक्टूबर 2014   को रामलीला मैदान,न्यू दिल्ली में प्रतिवर्ष की भांति आर्यसमाज की और से महर्षि दयानन्द बलिदान समारोह मनाया गया.  इस अवसर पर भूतपूर्व सेनाध्यक्ष वी.के. सिंह मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थें1 उन्होंने श्रद्धांजलि  देते हुए जिन वाक्यों का प्रयोग किया वे श्रद्धांजलि कम उनकी अज्ञानता के प्रतिक अधिक थें.  वी.के. सिंह ने अपने भाषण में कहा-‘इस देश के महापुरषो में पहला स्थान स्वामी विवेकानंद का हैं1 तथा दूसरा स्थान स्वामी दयानन्द का हैं’ यह वाक्य वक्ता की अज्ञानता के साथ अशिष्टता का भी घोतक हैं.  सामान्य रूप से महापुरषो की तुलना नहीं की जाती.  विशेष रूप से जिस मंच पर आपको बुलाया गया हैं . उस मंच पर तुलना करने की आवश्यता पड़े भी तो अच्छाई के पक्ष की तुलना के जाती हैं. छोटे-बड़े के रूप में नहीं की जाती. यदि तुलना करनी हैं तो फिर यथार्थ व तथ्यों की दृष्टि मेंत तुलना करना न्याय संगत होगा.

श्री वी.के. सिंह ने जो कहाँ उसके लिए उनको दोषी नहीं ठहराया जाता, आने वाला व्यक्ति जो जानता हैं, वही कहता हैं.  यह आयोजको का दायितव हैं की वे देखे बुलाये गए व्यक्ति के विचार क्या हैं. यदि भिन्न भी हैं तो उनके भाषण के बाद उनकी उपस्थिति में शिष्ट शब्दों में उनकी बातो का उतर दिया जाना चाहिए, ऐसा न कर पाना सगंठन के लिए लज्जाजनक हैं. इसी प्रसंग में स्वामी विवेकानंद के जीवन के कुछ तथ्य वी.के. सिंह की जानकारी के लिए प्रस्तुत हैं:

भारतवर्ष में सन्यास संसार को छोड़ने और मोह से छुटने का नाम हैं. स्वामी विवेकानंद न संसार

छोड़ पाए न मोह से छुट पाए  इसलिय वे सारे जीवन घर और घाट की अजीब खीचतान में पड़े रहे . (वही पृष्ठ – २)

अपने किसी प्रियजन का मुत्यु सवांद पाकर सन्यासी विवेकानंद को रोता देखकर किसी ने मंतव्य दिया- ‘सन्यासी के लिए किसी की मुत्यु पर शोक प्रकाशित करना अनुचित हैं.

विवेकानंद ने उतर दिया  ‘यह आप कैसे बाते करते हैं? सन्यासी हूँ इसलिए क्या में अपने ह़दय का विसर्जन दे दूँ .सच्चे सन्यासी का ह़दय तो आप लोगो के मुकाबले और अधिक कोमल होना चाहिए .हजार हो, हम सब आखिर इंसान ही तो हैं.’ अगले ही पल, उनकी अचिंतनिये अग्निवर्षा हुई, ‘ जो सन्यास दिल को पत्थर कर लेने का उपदेश देता हैं, में उस सन्यास को नहीं मानता. (वही पृष्ठ – २)

‘ जो व्यक्ति बिल्कुल सच्चे-सच्चे मन से अपनी माँ की पूजा नहीं कर पाता,वह कभी महान नहीं हो सकता.

इसके लिए स्वामी विवेकानंद ने शंकराचार्य  और चैतन्य का उदाहरण दिया. (वही पृष्ठ – ३)

में अति नाकारा संतान हूँ .अपनी माँ के लिए कुछ भी नहीं कर पाया .उन लोगो ने जाने को कहाँ तो बहा कर चला आया. (वही पृष्ठ – ७ )

‘सोने जैसे परिवार का सोना बेटा नरेंदर नाथ लगभग एक ही समय दो-दो प्रबल भंवर में फँस गया था- आध्यात्मिक जगत में विपुल आलोडन दक्षिणेश्वर के श्री रामकृष्ण से साक्षात्कार .दूसरा भंवर था- पिता विश्वनाथ की आकस्मिक मौत से पारिवारिक विपर्यय .यह एक ऐसी परिस्थिती थी, जब इक्कीस वर्षीय वकालत दा, बड़े बेटे के अलावा कमाने लायक और कोई नहीं था 1’(वही पृष्ठ – २०)

;पिता की मत्यु के साल भार बाद सन १८८५ में मार्च महीने में नरेंदरनाथ ने घर छोड़ देने का फैसला ले लिया था ऐसा हम अंदाजालगा सकते हैं .यह सब व्रतांत पढ़कर आलोचकों ने मोके का फायदा उठाते हुय कहाँ एक टेढ़ा सा सवाल जड़ दिया-स्वामी जी अभाव सन्यासी थें या स्वभाव सन्यासी थें (वही पृष्ठ – २६)

अब घर से उनका कोई खास  सरोकार नहीं रहा .हाँ जब वे कोलकत्ता में होते थें तो कभी-कभार माँ से मिलने चले आते थें .सन १८९७  में यूरोप से लोटने के पहले तक घर में किसी ने उन्हें गेरुआ वस्त्र में नही देखा1 (वही पृष्ठ – ४१)

‘ इस प्रसंग में वेणीशंकर शर्मा ने कहाँ हैं- जो कुछ परिवार से जुड़ा हैं, वह निंदनीय या वर्जनीय हैं,ऐसा उनका  मनोभाव  नही था.मात्रीभक्ति को उन्होंने  सन्यास की वेदी पर बलि नहीं दी, बल्कि हम तो यह देखते हैं की वे माँ के लिय उच्च्कान्क्षा , नेतृत्व ,यश सब कुछ का विसर्जन देने को तेयार थें. (वही पृष्ठ –४५ )

‘वेणीशंकर शर्मा की राय हैं- ऐसा लगता हैं स्वामी जी को अमेरिका भेजने को जो खर्चीला संकल्प महाराज ने ग्रहण किया था, उसमे स्वामी जी की माँ और भाइयो के लिए सों रुपये महीने का खर्च भी शामिल था .महाराज ने सोचा कि स्वामी जी को अपनी माँऔर भाइयो की दुषिन्नता से मुक्त करके  भेजना ही , उनका कर्तव्य हैं (वही पृष्ठ –४६ )

‘खेतड़ी महाराज को पत्र (१७ सितम्बर १८९८) भेजा मुझे रुपयों की जरूरत हैं, मेरे अमेरिकी दोस्तों ने यथासाध्य मेरी मदद की हैं,लेकिन हर वक्तगत फेलाने में लाज आती हैं, खासतोर पर

इस वजह से बीमार होने का मतलब ही हैं-एक मुश्त खर्च . दुनिया में सिर्फ एक ही इंसान हैं, जिससे मुझे भीख मागंते ममुझे संकोच नहीं होता .और वह इंसान हैं आप .आप दे या न दे, मेरे लिए दोनों बराबर हैं .अगर संभव हो तो मेहरबानी करके , मुझे कुछ रूपये भेज दे (वही पृष्ठ – ५५ )

‘ में क्या चाहता हूँ, उसका विशद विवरण में लिख चुका हूँ .कलकत्ता  में एक छोटा सा घर बनाने पर खर्च आएगा दास हजार रुपये .इतने रुपये से चार-पांच जन के रहने लायक छोटा सा घर किसी तरह ख़रीदा या बनवाया जा सकता हैं .घर खर्च के लिए आपर मेरी माँ को हर महीने जो सों रूपये भेजते हैं, वह उनके लिए पर्याप्त हैं .जब तक में जिन्दा हूँ, अगर आप मेरे चर्च के लिए और सों रुपये भेज सकें, तो मुझेबेहद ख़ुशी होगी .बिमारी की वजह से मेरा खर्च भयंकर बढ़ गया हैं .वैसे यह अतिरिक्त बोझ आपको  जयादा दिनों तक वहन करना होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता, क्योकिं में हद से हद और दो-एक वर्ष जिन्दा रहूँगा .में एक और भीख भी मांगता

हूँ-माँ के लिए आप जो हर महीने सों रूपये भेजते हैं, अगर हो सके तो उसे स्थायी रखे.मेरी मौत के बाद यह भी मदद उनके पास पहुचती रहे .अगर किसी कारणवश मेरे प्रति अपने प्यार या दान में विलाप लगाना पड़ें तो एक अकिचन साधु के प्रति कभी प्रेम प्रीति रही हैं,यह बात यद् रखते हुए, महाराज इस साधु की दुखियारी माँ पर करुणा बरसाते रहे 1’ (वही पृष्ठ – ५६ )

‘उन्होंने अपनीयह इच्छा भी बताई कि अब वे अपनी जिन्दगी के बचे-खुचे दिन अपनी माँ के साथ बिताएंगे .उन्होंने कहा- देखा नहीं, इस बार बीच में आपदा हैं- प्रकत वैराग्य ! अगर संभव होता तो में अपने अतीत का खंडन करता, अगर मेरी उम्र दस वर्ष काम होती, तो में विवाह करता .वह भी अपनी माँ को खुश करने के लिए, किसी अन्य कारण से नहीं .उफ़ ! किस बेसुधि में मेने यह कुछ साल गुजार दिये, उचाशा के पागलपन में था’…अगले ही पल वह अपने समर्थन में कह उठे, में कभी उचाभिलाषी नहीं था .खयाति का बोध मुझे पर लाद दिया गया था 1’ ‘निवेदिता ने कहा, खयाति की शुदरता आप में कभी नहीं थी .लेकिन में बेहद खुश हूँ कि आपकी उम्र दस वर्ष कम नहीं हैं ’ (वही पृष्ठ – ५७ )

‘विश्वविजय कर कलकत्ता लोट आने के बाद ( १८९७ )  स्वामी जी का माँ से मिलने जाने का हर द्रश्य भी अंकित हैं 1- पेट्रियट, औरेटर,सेंट कहाँ गुम हो गया वे दोबारा अपनी माँ के गोद के नन्हे से लला बन गए .माँ की गौद में सिर रखकर,असहाय शरारती शिशु की तरह वे रोने लगे-माँ-माँ अपने हाथो से खिलाकर,मुझे इंसान बनाओ.  (वही पृष्ठ – ६१)

‘ अगले सप्ताह  में अपनी माँ को लेकर तीर्थ में जा रहा हूँ .तीर्थ-यात्रा पूरी करने में कई महीने लग जायेंगे .तीर्थ-दर्शन हिन्दू-विधवायो की  अन्तरग साध होती हैं .जीवन भरमेने अपने आत्मीय स्वाजनो  को केवल दुख ही दिया .में उन लोगो की कम से कम एक इच्छा पूरी करने की कोशिश कर रहा हूँ . (वही पृष्ठ – ६४ )

स्वामी त्रिगुणातितानंद ने यह भी जानकारी दी हैं- ‘उनकी दोनों बाहे और हाथ किसी औरत की  बाहों की तुलना में जयादा खुबसूरत थें. (वही पृष्ठ – १४९ )

‘स्वामी जी के घने काले बालो के एइश्वर्य के बारे में उनकी कई- कई तस्वीरों से हमारी धारणा बनती हैं-घुघराले नहीं, लहर-लहर घने बालो का अरन्य .उनके घने काले बालो का एक छोटा-

गुच्छा अचानक ही मिस जोसेफिन मेक्लाइड ने काट लिया था और वे परेशान हो उठे थें .बालो का वह गुच्छा मिस मेक्लाइड अपने जेवर के डब्बे में संजोकर हमेशा अपने पास रखती थी .स्वदेश लौटकर बेलुड मठ में अपना सिर मुंडाते हुए भी स्वामी जी अपने बालो को लेकर खूब-खूब हंसी-ठटा किया था .ऐसे खुबसूरत बालो जो विदेश में भाषण देते हुए माथे पर झूलकर आँखों को ढँक लेते थें, स्वदेश लौटकर उन्होंने काट फेंका .

‘ हम जानते हैं कि बेलुड मठ में वे हर महीने बाल मुंडवा लेते थें .बेलुड मठ में उनके बाल मूडकर नाइ उन्हें समेट  कर फेकने ही जा रहा था की स्वामी जी ने हंसकर मंतव्य किया .अरे देख  क्या रहा हैं ! इसके बाद तो विवेकानंद के गुच्छे भार बालो के लिए, दुनिया में ‘क्लैमर ’ मच जायेगा

नरेंदर के अंग-प्रत्यंग के बारे में  जब ढेंरो तथेय जमा कर रहा  हूँ, तब  यह भी बता दूँ कि उनकी ‘टेम्परिंग फिंगर’ थी, बंगला में महेन्दरनाथ दत ने जिन उंगलियों को ‘चम्पे की कली’ कहाँ हैं, इस किस्म की उंगलिया दुविधाशुन्य निश्येयात्म्क मनसिकता का  संकेत देती हैं .उनके नाख़ून

ईशत रक्ताभ थें औरे नाख़ून का उपरी हिस्सा ईशत  अर्धचंद्राकर संस्कृत में किस्म के दुर्लभ न नाखुनो  को ‘नखमणि’ कहते हैं .

महेन्द्रनाथ अपने बड़े भाई के पदचाप के बारे में भी संकेत दे गये हैं- उनके न कदमो की गति जयादा तेज थी, न जयादा धीमी, मानो गम्भीर चिंतन में निमग्न रहकर विजयाकंषा में अतिद्रंड, ससुनिषित ढंग से, धरती पर कदम रखकर चलते थें 1’

, भाषण देते समय विवेकानंद अपने हाथ की उंगलिया पहले कसकर अचानक फेला देते थें उनके मन  में जैसे-जैसे भाव संचरित होते थें, उंगलियों का संचरण भी तदनुसार होता रहता था . उनके अवयव  के जिस हिस्से कोलेकर देश-विदेश के भक्तो में मतभेद नहीं हैं, वह हैं स्वामी जी की आँखें .जो लोग भी उनके करीब आये,सभी उनकी मोहक राजीवलोचन आँखों के जयगान में मुखर हो उठे. (वही पृष्ठ –१५०)

वेरी लार्ज एण्ड ब्रिलियंट-तमाम अखबारों और विभिन्न संस्मरणों में बार-बार यह घूम-फिरकर आई हैं उनकी आँखों के बारे में अंग्रेजी के और भी दुर्लभ शब्दों का प्रयोग किया हुआ हैं-फ्लोइंग,ग्रेसफुल,ब्राइट, रेडीएंट,फाइन, फुल ऑफ़ फ्लेशिंग लाइट .आलोचकों ने प्रकारांतर से उनकी आँखें पर कीचड उछालने की व्यर्थ कोशिश में अमेरिका में अफवाहे फेलाई अमेरिकी महिलाये उनके आदर्श की और आकृष्टहोकर पतंग की तरह दोडी हुई नहीं आती, वे लोग उनके नयन-कमल की चुम्ब्कीय शक्ति की और खिची चली आती हैं(वही पृष्ठ – १५१ )

इंदौर की घटना हैं .पत्रकार वेदप्रताप वैदिक के पिता श्री जगदीश प्रसाद वैदिक इंदौर के एक विधायक की चर्चा कर रहे थें .वैदिक जी ने विधायक से कहा शंकरसिंह ! तू किसी सिद्धान्त का पालन नहीं करता, अपने को आर्यसमाजी कहता हैं . यह अनुचित हैं .विधायक बोला पंडित जी में पाडे आर्यसमाजी हूँ में निराकार ईश्वर को मानता हूँ आर्य समाज के सिद्धान्तो को मानता हूँ, ऋषि दयानन्द में मेरी निष्ट हैं, में उनको अपना गुरु मानता हूँ वैदिक जी विधायक से बोले- शंकर तुम मांस खाते हो, शराब पीते हो, अन्य क्य्सन करते हो, फिर आर्यसमाजी कैसे हो! शंकर बोला मेरी सिद्धान्तो में निष्ठां हैं इसलिए आर्यसमाजी हूँ .खाता- पीता हूँ कह सकते हो, में बिगड़ा हुआ आर्यसमाजी हूँ .स्वामी विवेकानंद  के संस्यास के विषय में कहा जा सकता हैं .तो वे संस्यासी उनकी संस्यास में आस्था हैं, परन्तु व्यव्हार में संस्यास दूर तक भी दिखाई नहीं देता 1

स्वामी विवेकानंद के संस्यासी जीवन को व्यव्हार के धरातल पर देखा जाए तो एक वाक्य में कहा जा सकता हैं- उनका जीवन मछली से प्रारम्भ होता हैं और मछली पर आकर समाप्त हो जाता हैं1

किसी भी व्यक्ति के सन्यासी होने की सर्वमान्य कसोटी हैं .यम-नियमो में आस्था रखना , उनका पालन करना, उनके पलना का उपदेश करना, क्योकि इनके पालन करने से व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक जीवन की उन्नति होती हैं और यदि कोई कहता हैं की यम-नियमो का पालन न करके,उनके विपरीत आचरण करके कोई संस्यासी महान बनता हैं तो इस से बड़ी मूर्खता और नहीं हो सकती .यम-नियामी में पांच यम-अहिंसा, सत्य, असत्य, ब्र्हम्चर्ये और अपरिग्रह तथा पांच नियम- शोच, संतोष, तप, स्वाधायक और ईश्वर प्रणिधान हैं .यह दस संस्यास की आवशयक बाते हैं .यदि कोई इनका निषेध करके  अपने आपको संस्यासी मानता है, तो वह मर्यादा से पतित ही कहा जा सकता हैं संस्यास,योग, समाधी जैसे बातो  में अहिंसा का सर्वोपरि स्थान हैं,परन्तु विवेकानंद के जीवन में अहिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हैं .जो मनुष्य अपने भोजन और जिहा के स्वाद के लिए  प्राणी- हिंसा का समर्थन करता हो, वह व्यक्ति योग और सन्यास के पथ का पथिक नहीं बन सकता .स्वामी विवेकानंद को मासांहार कितना प्रिय था और वे इसके लिए कितने आग्रही थें .इस बात कोउनके जीवन में आई निम्न घटनाओं को देखकर परिणाम निकाला जा सकता हैं-

“ खाने-पीने के बारे में, बड़े होकर मंझले भाई के नाश्ते की ही बात ले .उन दिनों कलकत्ता की दुकानों में पाडे के मुंड बिका करते थें दोनों भाई नरेंदर और महेंदर ने पाडे वाले से मिलकर पक्का इंतजामकर लिया था .दो चार आने में ही पाडे के दस बारह मुंड जुटा लिए जाते थें दस-बारह सिर और करीब दो-ढाई सेर हरे मटर एक संग उबल कर सालन पकाया जाता था .महेंदर ने लिखा हैं –शाम को में और स्वामी जी ने स्कूल से लोटकर वो सालन और करीब सोलह रोटिया नाश्ते में हजम कर जाते थें1( विवेकानन्द, जीवन के अनजाने सच पृष्ठ १३)

‘ दादा नरेन काफी काम उम्र  में सुघनी लेने लगे थें और उसकी गन्ध मसहरी के अन्दर से आती रहती थी,यह बात उनके मंझले भाई महेंदरनाथ  हमें बता चुके कबूतर उड़ाने का उन्हें खानदानी शोक था. (वही पृष्ठ – १७ )

‘ एक बार वे भाई, दादा और माँ-पिता के साथ रायपुर जा रहे थें .महेंदरनाथ ने जानकारी दी हैं की घोडाताला में मांस पकाया गया .में खाने को राजी नहीं था बड़े भाई ने मेरे मुहमांस का टुकड़ा टूस दिया और मेरी पीठ पर धोल ज़माने लगे- खा, उसके बाद और क्या! शेर के मुह को खून का स्वाद लग गया (वही पृष्ठ –१८ )

“ मास्टर साहेब ने पूछा ‘ तुम्हारी माँ ने कुछ कहाँ ? नरेंदर ने उतर दिया- नहीं .वे खाना खिलाने के लिए उतावली हो उठी .हिरण का मांस था , खा लिया .लेकिन खाने का मन नहीं था. (वही पृष्ठ – २८ )

‘ दत्त लोगो की मेधा के प्रसंग में और एक सरल कथा भी हैं मंझले भाई नरेंदनाथ से निरन्जन महाराज ने एक बार कहा था .नरेन में इतनी बुद्धि क्यों भरी हैं, जानता हैं ? नरेन् बहुत जयादा हुक्का गुडगुडा सकता हैं अरे हुक्का न गुडगुडाया जाए तो क्या बुद्धि अन्दर से बाहर निकल सकती हैं….तुम भी तमाखू पीना सीखो .नरेन  की तरह तुम्हारी बुद्धि भी खुल जाएँगी. (वही पृष्ठ – ४२)

‘ यानि माँ की साडी समस्याओं के समाधान के लिए भरसक कोशिश करते रहे, उनके संसार-वीतरागी जयेष्ट पुत्र ! जाने से पहले माँ की इच्छा और अपना वचन करने के लिए, उन्होंने सिर्फ तीर्थ-यात्रा ही नहीं की बल्कि कालीघाट  में बलि तक दे डाली .उनके निधन के बढ़ भी माँ को कोई तकलीफ ना हो, इसके लिए वे अपने गुरु भाइयो से सदर अनुरोध कर गए थें. (वही पृष्ठ – ७१ )

‘ रसगुल्ला प्रसंग में हेडमास्टर सुधांशु शेखर भट्टाचार्य जी ने एक सीधे-सीधे बल्लेबाजी की थी 1’ सुन, विवेकानंद मिठाई  खाने वाले जीव थें ही नहीं, वे जो तुम सब की आँखों में आंसू आने के अलावा और कुछ नहीं बचेगा .उस चीज का नाम था – मिर्च (वही पृष्ठ –७६ )

‘ उन्हें खबर मिल चुकी थी की कामिनी-कंचन का परित्याग जरूरी होते हुए भी रामकिशन मठ-मिशन में भोजन  के बारे मों कोई बाधा निषेध नहीं हैं. (वही पृष्ठ –७७)

‘ दुनिया भर में एकमात्र वही ऐसे भारतीय थें, जो सप्त सागर पार करके अमेरिका पहुंच और वहाँ वेदान्त और बिरयानी दोनों का एक साथ प्रचार करने का दुसाहस दिखाया. (वही पृष्ठ –७७ )

‘इसी दोर में नरेंदनाथ का सफलतम अविष्कार था- बतख के अंडे को खूब फेटकर, हरी मटर और आलू डालकर भुनी हुई खिचड़ी .गीली-गीली खिचड़ी के  बजाय यह व्यंजन-विधि कहीं जयादा उपयोगी हैं, यह बात कई सालो बाद जाकर विशेषज्ञो ने स्वीकार की हैं.उनके पिता गीली खिचड़ी और कालिया पकाते थें और उनके सुयोग्य बेटे ने एक कदम और आगे  बढकर और एक  नई डिश के जरिये पूर्व-पश्चिम को एकाएक कर दिया (वही पृष्ठ – ८३)

‘बाद में महेंदरनाथ ने लिखा-में वे सब खाने को कतई तेयार नहीं था .मुझे उबकाई आने लगी .बड़े भैया ने मेरे मुहं में मांस ठूसकर, मुक्के-मुक्के सेमेरी धुनाई की और कहता रहा-खा ! खा ! उसके बाद फिर क्या था ? बाघ को जैसे खून का नया नया स्वाद मिल गया और क्या. (वही पृष्ठ – ८३)

पटला दादा ने कहाँ- ले, तू नोट कर .इंसानों के प्रति प्यार, गर्म चाय, खुशबूदार तम्बाकू और दिमाग ख़राब कर देने वाली मिर्च-इन चार मामलो में विवेकानंद सीमाहीन थें. (वही पृष्ठ – ८६)

‘ एक बार होटल में खाकर जब वे ठाकुर के वहाँ आय तो उन्होंने उनसे कहा, ‘ श्रीमान, आज होटल में, जिसे आम लोग अखाघ कहते हैं,खाकर आया हूँ 1’ठाकुर ने उतर दिया- तुझे कोई दोष-पाप नहीं लगेगा’ (वही पृष्ठ –८७)

अब श्री श्री माँ की जुबानी, नरेन के खाना पकाने का किस्सा सुनें .ठाकुर के लिए कोई रसोई बनाने का जिक्र छिडा था .जब में काशीपुर में ठाकुर के लिए खाना पकाती थी तब ठन्डे पानी में ही मांस चढा देती थी .थोडा सा तेजपत्ता और मसाले डाल देती थी .मांस जब  रुई की तरह सीझ जाता था,तो उतार लेती थी मेरे नरेन् को तरह तरह से मांस पकाना आता था .वह मांस को खूब भुनता था, आलू मसलकर कैसे-कैसे तो पकता था, क्या तो कहते हैं उसे ? शायद किसी तरह का चाप-कटलट होगा . (वही पृष्ठ –८८ )

 

सदाचरण को ही परम धर्म कहाँ हैं

आचार: परमो धर्म: 11

शेष भाग अगले भाग में …..परोपकारी नवम्बर (द्वितीय ) २०१४

for more articles u may visit

http://www.aryamantavya.in/2014/hindi-articles/myth-busters-hi/swami-vivekanand-meat-eating/

http://www.aryamantavya.in/2014/hindi-articles/myth-busters-hi/vivekananda-supports-that-vedas-support-animal-sacrifice/

http://www.aryamantavya.in/2014/download/swami-dayanand-vs-swami-vivekanand/

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

‘गोरक्षा युक्ति प्रमाण सिद्ध मनुष्य धर्म है’ – मनमोहन कुमार आर्य

goraksha

ओ३म्

गोरक्षा युक्ति प्रमाण सिद्ध मनुष्य धर्म है

 

मनुष्य का धर्म क्या है व अधर्म किसे कहते हैं? आज का शिक्षित मनुष्य स्वयं को सभ्य कहता है परन्तु उसे यह पता ही नहीं की धर्म क्या है और अधर्म क्या है? हमें लगता है कि आजकल अनेक मतों में जिन बातों को धर्म माना जाता है उनमें से कुछ बातें धर्म न होकर अधर्म भी हैं। कारण यह है कि सभी धार्मिक लोग अपनी मत की पुस्तकों व पुराने विद्वानों की बातों को आंखें बन्द कर विश्वास करते हैं और इसे आस्था का नाम देते हैं। विचार करने पर प्रतीत होता है कि मनुष्य का धर्म उसकी असत्य में आस्था नहीं हो सकती अपितु अपनी बुद्धि से सत्य व असत्य का विचार कर जो बात सत्य व उचित निश्चित हो, उसे ही धर्म मानें तथा उसके विपरीत सभी बातें निश्चय ही अधर्म हैं और उनका त्याग करना मनुष्य का कर्तव्य व यथार्थ धर्म है।

 

 

धर्म शब्द का अर्थ सद्गुणों को धारण करना होता है। मनुष्य को वस्त्र धारण करने होते हैं। स्वस्थ रहने के लिए पोषक भोजन करना होता है और इसके साथ व्यायाम, प्राणायाम व योगाभ्यास करना होता है। यह सब कार्य धर्म कहे जा सकते हैं क्योंकि इनके बिना जीवन निरूपद्रव नहीं होता। कपड़े भी ऐसे होने चाहिये जिसमें शालीनता दिखाई दें, देखने वाले के मन पर उसका अव्यभिचारी प्रभाव हो तो वह धर्म में आता है और जहां उसका उद्देश्य व प्रभाव विपरीत हो रहा है तो उसमें सुधार व परिवर्तन की आवश्यकता होती है। मनुष्य जीवन में सबसे महत्वपूर्ण दो बातें हैं, सत्य व असत्य। सत्य का धारण धर्म होता है और असत्य का धारण या उसका जीवन में व्यवहार अधर्म कहा जाता है। सत्य क्या है? यह किसी पदार्थ के वास्तविक या यथार्थ स्वरूप को कहते हैं। जल को जल कहना और मानना धर्म है। जल के गुणों यथा शीतलता को जानकर उसका वैसा ही प्रयोग व व्यवहार करना धर्म है। यदि जल गर्म है तो यह जानना कि जल में गर्मी का कारण अग्नि तत्व की विद्यमानता है। यह जल का स्वाभाविक गुण नही है। इसी प्रकार में मनुष्य जीवन में सत्य को धारण करना ही धर्म है। अब धर्म के 10 लक्षणों को भी जान लेते हैं। धैर्य, क्षमा, अनुचित इच्छाओं व एषणाओं का दमन, चोरी या छिपाकर कोई अनुचित कार्य न करना, जीवन में स्वच्छता व सादगी, इन्द्रियों को वश में रखना, शुद्ध ज्ञानयुक्त बुद्धि का होना, विद्या व ज्ञानवान होना, सत्य का पालन तथा क्रोध न करना, यह धर्म के दस लक्षण हैं। जिस व्यक्ति में यह 10 लक्षण पूर्णरूपेण विद्यमान हों वह धार्मिक होता है और इसके विपरीत लक्षणों वाला अधार्मिक कहा जा सकता है वा होता है।

 

गोरक्षा मनुष्य धर्म कैसे है? यह इस प्रकार है कि गाय एक ऐसा प्राणी है जिससे मनुष्यों को वा सृष्टि का बहुत उपकार होता है। अतः स्वयं या मनुष्यों के हित व उपकार के लिए गायों की रक्षा करना मनुष्य का धर्म निश्चित होता है। हम सब यह जानते हैं कि संसार व सभी प्राणियों को ईश्वर ने बनाया है। ईश्वर ने इसलिए बनाया कि उसमें संसार को बनाने की सामथ्र्य है। उसने यह जीवों के सुख के लिए मनुष्य आदि योनियों व संसार को बनाया है। जीवों को सुख किस प्रकार से होता है कि सत्य वा सत्तावान, चेतन, एकदेशी, अजन्मा, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, कर्मों का कत्र्ता व कर्म के फलों का भोक्ता, जन्म-मृत्यु-जन्म के चक्र में फंसें हुए जीवात्मा को उसके पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार मनुष्य आदि योनि प्रदान की जाये जहां रहकर वह अपने पूर्व जन्मों के कर्मों का फल सुख व दुःख के रूप में भोगें और भावी जन्मों के लिए अन्य शुभ कर्मों को करें। जीव शब्द की परिभाषा ही यह है कि स्वतन्त्रता से कर्मों को करने वाला। जीव के इस गुण को सार्थकता ईश्वर द्वारा उसे प्राप्त जन्म द्वारा ही सम्भव होता है। अतः ईश्वर सभी जीवों को उनके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न प्राणी योनियों में जन्म देता है और उनका नियन्त्रण करता है। इस कर्म-फल सिद्धान्त के आधार पर उसने जीवों को गाय व मनुष्य आदि बनाया है। गाय अपने कर्मों का फल भोग रही है और मनुष्य अपने कर्मों को भोगने व नये कर्मों को करने के लिए पैदा हुआ है। गाय का उद्देश्य घांस व तृण आदि भक्षण कर अपने पालक को अपनी सन्तान के रूप में गाय व बैल आदि देना और इसके साथ अमृत समान गोदुग्ध देकर मनुष्य के जीवन को बल, आरोग्य, सुख, समृद्धि, दीर्घायु से युक्त कर कर्मशील आदि बनाना है। गाय से दुग्ध, गोमूत्र व गोमय प्राप्त होने से मनुष्य उसका ऋणी व कृतज्ञ बनता है जिसका उपाय उसे गाय की सेवा, उसको अच्छा चारा व घास आदि खिलाना, उसको सुरक्षा प्रदान करना, उसके प्रति माता के समान आदर भाव रखना है।

 

इस संसार को रोग रहित बनाने में यज्ञ वा अग्निहोत्र का महत्व निर्विवाद है। वेदों में इस संसार को बनाने वाले ईश्वर की आज्ञा है कि मनुष्यों को प्रतिदिन यज्ञ करना चाहिये। यज्ञ करने से मनुष्य अनजाने में किये हुए पापों के बन्धनों से मुक्त होता है। यज्ञ से अनेकानेक अन्य लाभ भी होते हैं। यह यज्ञ बिना गोघृत के सम्भव नहीं है। अतः मानव जीवन को वेदानुसार वा ईश्वर आज्ञानुसार व्यतीत करने के लिए यज्ञ करना आवश्यक है और वह यज्ञ गोरक्षा, गोसेवा, गोपूजा वा गोपालन कर गोदुग्ध व गोघृत प्राप्त कर ही सम्पन्न किया जा सकता है। यज्ञार्थ व ईश्वराज्ञा पालनार्थ गोरक्षा करना मनुष्य के प्रमुख कर्तव्यों में से एक कर्तव्य है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो ईश्वर की आज्ञा भंग होने से वह ईश्वर से दण्ड का अधिकारी बनता है। हम समझते हैं कि बहुत से धार्मिक लोग कई बार शिकायत करते हैं कि हमने जीवन में कभी किसी का बुरा नहीं किया और न अन्य कोई बुरा काम ही किया है, फिर यह भीषण दुःख हम पर किस कारण से आया? उस समय हम यह भूल जाते हैं कि हमने कभी ईश्वर के बारे में यह विचार ही नहीं किया कि वह क्या चाहता है? यदि देखें तो एक कारण यह भी ज्ञात होता है कि हमने कभी ईश्वर की हमसे अपेक्षाओं को जानने का प्रयास ही नहीं किया जिसमें ईश्वर की हमसे अनेकानेक अपेक्षायें हो सकती है। इसे जानने के लिए हमें वेद और प्राचीन ऋषियों मुनियों के युक्ति व तर्क संगत ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। परन्तु आजकल देखा यह जा रहा है कि यदि कोई स्त्री व पुरूष इस प्रकार की बात करे तो उसकी बात पर विचार किए बिना ही उसे रूढि़वादी या दकियानुसी विचारों वाला व्यक्ति घोषित कर दिया जाता है। इससे कुछ मामलों में हम लौकिक व अलौकिक लाभों से वंचित हो जाते हैं और जीवन में पुण्य अर्जित नहीं कर पाते।

 

गाय से हमें केवल दुग्ध का ही लाभ नहीं होता अपितु उससे मिलने वाली बछडि़या भी एक-दो साल में गाय बन कर हम और हमारी सन्ततियों का पोषण व नानाविध उनकी रक्षा करती हैं। गाय के बछड़े खेती व भार ढ़ोने के काम आते हैं। यह कार्य पर्यावरण की दृष्टि से तो उपयोगी है ही साथ में पेट्रोल पर जो द्रव्य व्यय किया जाता है वह भी नहीं होता। हां, आजकल के आधुनिक काल में यह व्यवस्था अप्रांसगिक हो गई है परन्तु आने वाले समय में जब पेट्रोल समाप्त हो जायेगा तो मनुष्य को शायद पुनः इसकी आवश्यकता पड़ सकती है। अतीत में बैलों ने हमारे पूर्वजों की नाना प्रकार से सेवा की है अतः उनके प्रतिनिधि आजकल के बैलों पर अत्याचार करना क्रूर कर्म होने के साथ अधर्म है और इससे मनुष्य ईश्वर व अत्याचार किये गये जीवों का शत्रु व घातक सिद्ध होता है जिससे ईश्वर की व्यवस्था से उसे दण्ड मिलना निश्चित होता है। यहां यह भी जान लेना आवश्यक है कि इस जन्म में मृत्यु के बाद कर्मानुसार हममें से कुछ को अगले जन्म में गाय या बैल की योनी मिले। यदि पशु हत्या समाज में प्रचलित रहेगी तो हमें भी आजकल की भांति अगले जन्म में दूसरे मनुष्यों के द्वारा अपनी हत्या के दुःख से गुजरना पड़ सकता है। यदि हम चाहते हैं कि हमें भावी पशु योनियों में यह दुख न मिले तो हमें आज ही गो व गोवंश सहित सभी पशुंओं की हत्याओं के विरोध में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिये।

 

हम यह भी अनुभव करते हैं कि यदि शत-प्रतिशत गोरक्षा हो तो देश को आत्म निर्भर व सुखी बनाया जा सकता है। यह इस प्रकार होगा की गोरक्षा, गोपालन, गोसंर्धन के कार्यक्रम चलाकर गायों की नस्ल व संख्या में वृद्धि की जाये। इससे देश में गोदुग्ध व गोघृत की आवश्यकता के अनुरूप व उससे भी अधिक मात्रा की उपलब्धि होगी। भरपूर गोदुग्ध आदि पदार्थों से हमारे देश की प्रजा निरोग व बलवान होगी। गोदुग्धादि पदार्थों के यथेष्ट पान से बुद्धि में ज्ञान व बल की भी वृद्धि होगी। सभी लोग ज्ञानी, वैज्ञानिक, इंजीनियर, वैद्य व डाक्टर बनेंगे। देश शंक्तिशाली व आत्म निर्भर होगा। सभी लोगों का अनायास रोजगार मिलेगा। ऐसा माना जाता है कि जहां पशुओं की संख्या अधिक होती है तो वहां मनुष्यों की संख्या कम और मनुष्यों की अधिक होती है तो पशुओं की संख्या कम हो जाती है। जनसंख्या नियन्त्रण का एक तरीका यह हो सकता है गाय, बकरी, भेड़ आदि की संख्या में वृद्धि की जाये। ईश्वर ने गायों के लिए खाने व भोजन के साधन मनुष्यों से भिन्न बनाये हैं और वह अपने आप ही प्रकृति में उत्पन्न होते हैं। अतः पशुओं की संख्या में वृद्धि होने से मनुष्यों के हितों को किसी प्रकार की हानि नहीं अपितु लाभ ही लाभ है। गाय का गोमूत्र भी कैंसर जैसे रोगों के उपचार में उपयोग किया जाता है। इस पर उच्चस्तरीय अनुसंधान की आवश्यकता है और ऐसा सम्भव है कि भविष्य में गोमूत्र आदि पदार्थों से कैंसर का पूर्ण निदान सम्भव हो जाये। गाय का गोबर भी आर्थिक दृष्टि से ईधन और खेतों में खाद के काम आता है। आज के युग में गाय के गोबर से बनी खाद सर्वोत्तम खाद सिद्ध हुई है। वैज्ञानिक परीक्षणों में यह भी पाया गया है कि गाय का गोबर रेडियोधर्मिता प्रतिरोधी है। मरने पर गाय व बैल का चर्म मनुष्यों के पैरों की जूते व चप्पल के रूप में रक्षा करता है। इन्हीं गुणों के कारण प्राचीन आर्य और ऋषि-मुनियों ने गाय को माता के समान स्थान देकर गौरवान्वित किया था। मनुष्य गोहत्या न करे, सम्भवतः इसी कारण हमारे पूर्वजों ने गोहत्या को महापाप की संज्ञा दी थी जो कि यथार्थ ही है। इस प्रकार गाय हमारे जीवन से गहनता से जुड़ी हुई है और हमारे जीवन का बहुमूल्य हिस्सा है। इसके बिना मनुष्य जीवन एकांगी व अधूरा है। हम अनुभव करते हैं कि आधुनिक दृष्टि से भी गोरक्षा, गोपालन, गोसंवर्धन, गोदुग्ध-घृत का सेवन संसार के सभी मनुष्यों के लिए परम कल्याणकारी है और गोहत्या महापाप है। गोहत्या करने वाले सभ्य या मनुष्य की संज्ञा के अधिकारी नहीं है अपितु वह परमात्मा और मानवता के अपराधी है। इस पर मानवीय दृष्टि से विचार कर पूर्ण गोहत्या बन्दी का कानून बनना चाहिये और गोहत्या करने वालों को कठोरतम् दण्ड का प्राविधान किया जाना चाहिये जिससे संसार के सभी मनुष्य स्वस्थ, सुखी, बलवान, निरोग, दीर्घायु, ईश्वर भक्त व यज्ञप्रेमी बन कर अभ्युदय व निःश्रेयस की प्राप्ती कर सकें। हम दिवंगत आर्य विद्वान पं. प्रकाशीवीर शास्त्री के शब्दों में यह कर कर विराम देते हैं कि गोरक्षा राष्ट्ररक्षा तथा गोहत्या राष्ट्र हत्या है। आज मनुष्य को मनुष्य बनाने की आवश्यकता है जिससे वह असुरत्व छोड़कर देवत्व को धारण करे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

‘सृष्टि के आदि राजपुरूष मनु का शूद्रादि वर्णों के ब्राह्मण वर्ण में वर्णोन्नति के लिए गुणवर्धन का प्रशंसनीय विधान’–मनमोहन कुमार आर्य

maharshi manu

ओ३म्

सृष्टि के आदि राजपुरूष मनु का शूद्रादि वर्णों के ब्राह्मण वर्ण में

वर्णोन्नति के लिए गुणवर्धन का प्रशंसनीय विधान

 


हमारे अनेक क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र वर्ण के बन्धु प्रायः कहा करते हैं कि महाराज मनु ने ब्राह्मणेतर वर्णों के साथ अन्याय किया है। उनका यह आरोप समाज में प्रचलित जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था के कारण होता है। आरोपकर्ता बन्धुओं के इस आरोप के पीछे की पीड़ा तो समझ में आती है परन्तु जैसे किसी आरोप में पुलिस कई बार असली आरोपी के स्थान पर अन्य निर्दोष व्यक्तियों को पकड़ लेती है, ऐसा ही हमारे आरोपकर्ता बन्धुओं का महाराज मनु पर आरोप है। मनु कौन थे? इसके उत्तर में हम यह बताना चाहते हैं कि सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में ब्रह्माजी व अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा आदि ऋषि उत्पन्न हुए थे। ब्रह्माजी की पहली पीढ़ी में स्वायम्भुव मनु उत्पन्न हुए। उन्होंने अपने समय में राज्य व्यवस्था को सर्वप्रथम प्रचलित किया और इसके लिए वैदिक मान्यताओं को केन्द्र में रखते हुए देश के संविधान मनुस्मृति की रचना व प्रणयन किया। ब्रह्माजी की उत्पत्ति आज से 1,96,08,53,114 वर्ष पूर्व हुई थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इतने वर्ष पूर्व प्रणीत मनुस्मृति का मूल स्वरूप क्या सुरक्षित रहा है? मनुस्मृति में प्रक्षेपकों ने नाना प्रकार के विकार, परिवर्तन व संशोधन आदि समय-समय पर किये हैं जिस कारण आज प्राप्त होने मनुस्मृति वह प्राचीन मनुस्मृति नहीं है जो कि महाराज मनु ने सृष्टि के आरम्भ में रची थी। हम समान्य साहित्य के सन्दर्भ में यह जानते हैं कि कई बार संशोधन अच्छा व उपयोगी होता है और कई बार गलत भी। मनुस्मृति के बारे में महर्षि दयानन्द और अनेक वैदिक विद्वानों का यह सुनिश्चित मत है कि प्रक्षेपकों ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए इसमें वेदों व महाराज मनु की मूल भावना के विपरीत परिवर्तन व प्रक्षेप किये हैं। यह अच्छी बात रही कि प्रक्षेपकों ने प्रक्षेप करते समय अपने पाठ तो इसमें जोड़े और बढ़ाये परन्तु मूल पाठों को इसमें से हटाया नहीं। इस कारण आज जो मनु-स्मृति प्राप्त होती है, उसमें महाराज मनु के मूल श्लोक भी सुरक्षित व विद्यमान हैं। ऐसे ही मनु के एक श्लोक को प्रस्तुत कर हम यह दिखाना चाहते हैं कि मनु ने ब्राह्मणेतर अन्य तीन वर्णों क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को भी ब्राह्मण वर्ण का बनने का अवसर सुलभ कराया था और वैदिक काल में अनेक लोग अन्य-अन्य वर्णों से ब्राह्मण भी बने थे। इस सन्दर्भ में हम अपने समय के एक सिद्ध योगी, धर्मात्मा, ईश्वर का साक्षात्कार किए हुए तथा वेदों एवं वैदिक साहित्य के शीर्षस्थ विद्वान महर्षि दयानन्द (1825-1883) के वचनों को प्रस्तुत करते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने अपनी कालजयी कृति सत्यार्थ प्रकाश के चैथे समुल्लास में स्वयं प्रश्न उपस्थित किया है कि क्या जिसके माता-पिता ब्राह्मण हों, वह ब्राह्मणी-ब्राह्मण होता है? और क्या जिसके माता-पिता अन्य वर्णस्थ हों   उनका सन्तान कभी ब्राह्मण हो सकता है? महर्षि दयानन्द का कहना व मानना है कि ब्राह्मण माता-पिता की सन्तान वेदों व वैदिक साहित्य में ब्राह्मण वर्ण के लिए प्रतिपादित गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल दीक्षित व योग्य होने पर ब्राह्मण-ब्राह्मणी हो सकते हैं और यदि उनके गुण-कर्म व स्वभाव ब्राह्मण वर्ण के अनुकूल नहीं हैं तो नहीं भी हो सकते। अन्य वर्णस्थ माता-पिता की सन्तानों के ब्राह्मण होने न होने के प्रश्न पर वह लिखते हैं – ‘हां बहुत से (अन्यवर्णस्थ ब्राह्मण) हो गये, होते हैं, और होंगे भी। जैसे छान्दोग्य उपनिषद् में जाबाल़ ऋषि अज्ञातकुल (संदर्भप्रमाणः सा (जाबाला) हैनमु वाच नाहमेतद् वेद तत यद्गोत्रस्त्वमसि बह्वहं चरन्ती परिचारिणी यौवने त्वामलभे। …… होवाच (आचार्यः) नैतदब्राह्मणो विवक्तुमर्हति। छान्दोग्योपनिषद 4/4/2-5), महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रियवर्ण (प्रमाण सन्दर्भःकथं प्राप्तं महाराज क्षत्रियेण महात्मना। विश्वामित्रेण धर्मात्मन् ब्राह्मणत्वं नरर्षभ।। महा. अनु. 3/1,2) और मातंग ऋषि चाण्डाल कुल से (संदर्भप्रमाणःस्थाने मतंगो ब्राह्मण्यमालभद् भरतर्षभ। चण्डालयोनौ जातो हि कथं ब्राह्मण्यमवाप्तवान्।। महाभारत अनु. 3/19) ब्राह्मण हो गये थे। अब भी जो उत्तम विद्या स्वभाववाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है। और वैसा ही आगे भी होगा।

 

इसके बाद महर्षि दयानन्द ने प्रश्न किया है कि भला जो रज-वीर्य से शरीर हुआ है, वह बदल कर दूसरे वर्ण के योग्य कैसे हो सकता है? इसका वह स्वयं उत्तर देते हैं कि रजवीर्य के योग से ब्राह्मण शरीर नहीं होता। इसके बाद वह महाराज मनु की मनुस्मृति से क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र को ब्राह्मण बनाने की योग्यता का उल्लेख करते हुए मनुस्मृति के श्लोक संख्या 2/28 को प्रस्तुत कर उसका हिन्दी अनुवाद करते हैं जो पाठकों के लिए उद्धृत करते हैं। श्लोक है – स्वाध्यायेन जनैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।। इस श्लोक का अर्थ है – (स्वाध्यायेन) पढ़नेपढ़ाने (जपैः) विचार करनेकराने, (होमैः) नानाविध होम के अनुष्ठान, (त्रैविद्येन) सम्पूर्ण वेदों को शब्दअर्थसम्बन्धस्वरोच्चारण सहित पढ़नेपढाने, (इज्यया) पौर्णमासी इष्टि आदि के करने, पूर्वोक्त विधिपूर्वक (सुतैः) धर्म से सन्तानोत्पत्ति,  (महायज्ञैश्च) ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेवयज्ञ और अतिथियज्ञ, (यज्ञैश्च) अग्निष्टोमादि यज्ञ, विद्वानों का संगसत्कार, सत्यभाषण, परोपकारादि सत्कर्म, और सम्पूर्ण शिल्पविद्यादि पढ़के दुष्टाचार छोड़ श्रेष्ठाचार में वत्र्तने से (इयम्) यह (तनुः) मानव शरीर (ब्राह्मी) ब्राह्मण का (क्रियते) किया जाता है। जो मनुष्य रज-वीर्य से उत्पन्न सन्तान को उसी वर्ण का अर्थात् ब्राह्मण-ब्राह्मणी के पुत्र व पुत्री को ब्राह्मण व ब्राह्मणी मानते हैं, उनसे पूछते हैं कि क्या इस श्लोक को तुम नहीं मानते? उत्तर- मानते हैं।, फिर क्यों रज-वीर्य के योग से वर्णव्यवस्था मानते हो? मैं अकेला नहीं मानता, किन्तु बहुत से लोग परम्परा से ऐसा ही मानते हैं। महर्षि फिर स्वयं से प्रश्न करते हैं कि क्या तुम परम्परा का भी खण्डन करोगे? इसका उत्तर देते हुए वह लिखते हैं कि नहीं, परन्तु तुम्हारी उलटी समझ को नहीं मान के खण्डन भी करते हैं। प्रश्न- हमारी उलटी और तुम्हारी सूधी समझ है, इसमें क्या प्रमाण है? उत्तर- यही प्रमाण है कि जो तुम पांच-सात पीढि़यों के वर्तमान को सनातन व्यवहार मानते हो, और हम वेद तथा सृष्टि के आरम्भ से आज-पर्यन्त की परम्परा (को परम्परा) मानते हैं। देखो, जिसका पिता श्रेष्ठ उसका पुत्र दुष्ट, और जिसका पुत्र श्रेष्ठ उसका पिता दुष्ट, तथा कहीं दोनों श्रेष्ठ वा दुष्ट देखने में आते हैं। इसलिए तुम लोग भ्रम में पड़े हो। इसके आगे वह लिखते हैं कि देखो, मनु महाराज (मनुस्मृति 4/178) ने क्या कहा है- येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः। तेन या यात् सतां मार्गं तेन गच्छन्न रिष्यते।। अर्थात् जिस मार्ग से इसके पिता-पितामह चले हों, उसी मार्ग में सन्तान भी चलें। परन्तु सताम्= जो सत्पुरूष पितापितामह हों उन्हीं के मार्ग में चलें और जो पितापितामह दुष्ट हों, तो उनके मार्ग में कभी चलें। क्योंकि उत्तम धर्मात्मा पुरूषों के मार्ग में चलने से दुःख कभी नहीं होता।

 

महर्षि दयानन्द महाभारत काल के बाद भारत ही नहीं वरन् विश्व के वेद, वैदिक साहित्य एवं संस्कृत के महान विद्वान हुए हैं। उनके द्वारा मनुस्मृति के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि वर्ण गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर होते हैं, जन्म के आधार पर नहीं। विद्याध्ययन एवं चारित्रिक गुणों में वृद्धि कर वर्ण में उन्नति की जा सकती है और अपनी इच्छा के अनुसार वर्णों के गुण-कर्म व स्वभाव को धारण कर वर्ण परिवर्तन अर्थात् मनोवांछित वर्ण को ग्रहण व धारण किया जा सकता है। इन विधानों के प्रकाश में मनु जी को समाज व मनुष्यों में असमानता, ऊंच-नीच, विषमता या छुआ-छूत फैलाने का दोषी नहीं माना जा सकता। इसका दोष मनुस्मृति में प्रक्षेप करने वाले अज्ञात विद्वानों का है जिन्होंने अपने वर्ग के स्वार्थ के लिए मनृस्मृति में प्रक्षेपों को किया। उनका यह कार्य एक निन्दनीय कर्म है। महर्षि दयानन्द को इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने मनु पर लगने वाले मिथ्या आरोपों से उन्हें मुक्त किया। यहां यह भी उल्लेख करना है कि आर्य समाज द्वारा देश भर में लगभग 500 गुरूकुलों में वेद और वेद-व्याकरण की शिक्षा बिना जाति व वर्ण का अन्तर किये समान रूप से दी जाती है। जो व्यक्ति स्वयं या अपनी सन्तानों को ब्राह्मण बनाना चाहते हैं, वह वहां प्रवेश लेकर इसका लाभ उठा सकते हैं। आर्य समाज ने विगत 130 वर्षों में सहस्रों अब्राह्मणों को गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण ही नहीं अपितु वेद-भाष्यकार तक बनाया है। उन जितनी व जैसी योग्यता देश के वर्तमान शीर्षस्थ विद्वान संस्कृतज्ञ ब्राह्मणों में भी नहीं है। मनुस्मृति में सेे मिलावट दूर करने के उद्देश्य से प्रक्षेप निकाल कर विशुद्ध मनुस्मृति प्रकाशित करने का महनीय कार्य भी महर्षि दयानन्द के अनुयायियों द्वारा किया गया है जिसके लिए दिल्ली स्थित आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, नयाबांस, खारी बावली, दिल्ली-6, स्थापक प्रकाशक महात्मा दीपचन्द आर्य, लेखक, अनुवादक सम्पादक पं. राजवीर शास्त्री एवं प्रो. सुरेन्द्र कुमार तथा वर्तमान प्रकाशक श्री धर्मपाल आर्य विशेष रूप से बधाई के पात्र हैं। हमारा निवेदन है कि यदि किसी को मनु महाराज से कोई शिकायत है तो उसे सार्वजनिक करने से पहले वह इस ग्रन्थ का गम्भीरता से अध्ययन अवश्य करे अन्यथा उसकी आलोचना निराधार व प्रमाण विरूद्ध होने से असत्य व अज्ञानी व्यक्ति की खीज के समान होगी।

 

वर्तमान समय परिवर्तनकारी युग है जिसमें सभी धार्मिक व सामाजिक कुप्रथाओं व अन्धविश्वास आदि को समाप्त व नष्ट होना ही होगा। अब समय आ गया है कि विज्ञान की भांति सभी धार्मिक व सामाजिक विषयों में एक मत हुआ जाये जिससे सामाजिक, धार्मिक कटुता व विषमता समाप्त होकर समाज, देश व विश्व में चिरस्थाई सुख-शान्ति स्थापित हो। हम ईश्वर से भी प्रार्थना करते हैं कि वह सामाजिक व धार्मिक भेदभाव समाप्त करने व सत्य व ज्ञान-विज्ञान पर आधारित एक सत्य मत की स्थापना में समाज के शीर्ष लोगों को प्रेरित करे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

पूना प्रवचन में स्वयं कथित अपना जीवन वृत्तान्त पन्द्रहवां व्याख्यान (4 अगस्त 1875)

हमसे बहुत से लोग पूछते हैं कि हम कैसे जानें कि आप ब्राह्मण हैं और कहते हैं कि आप अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों की चिट्ठियाँ मगा दें या आपको जो पहचानता हो उसको बतलावें।

इसलिए मैं अपना कुछ वृत्तान्त कहता हूँ। दूसरे देशों की अपेक्षा गुजरात में कुछ मोह अधिक है, यदि मैं अपने पूर्व मित्रों तथा सम्बन्धियों को अपना पता दूं या पत्र—व्यवहार करूँ तो मेरे पीछे एक ऐसी व्याधि लग जावेगी, जिससे

कि मैं छूट चुका हूँ। इस भय से कि कहीं वह बला मेरे पीछे न लग जावे,पत्रादि मँगा देने की चेष्टा नहीं करता।

धारंगधरा नाम का एक राज्य गुजरात देश में है। इसकी सीमा पर एक मौरवी नगर है, वहाँ मेरा जन्म हुआ था। मैं औदीच्य ब्राह्मण हूँ । औदीच्य ब्राह्मण सामवेदी होते हैं, परन्तु मैंने बड़ी कठिनता से यजुर्वेद पढ़ा था। मेरे घर

में अच्छी जमींदारी है। इस समय मेरी अवस्था 50 वर्ष की होगी। आठवें वर्ष मेरे बाद एक बहन पैदा हुई थीं। मेरा एक चचेरा दादा था, वह मुझसे बहुत ही प्यार करता था। मेरे कुटुम्बियों के इस समय 15 घर होंगे। मुझको लड़कपन में ही रूद्राध्याय सिखलाकर शुक्ल यजुर्वेद का पढ़ाना आरम्भ कर दिया था।

मेरे पिता ने मुझको शिव की पूजा में लगा दिया। दशवें वर्ष से पार्थिव (मिट्टी के महादेव) की पूजा करने लग गया।

मुझे पिता ने शिवरात्रि का व्रत रखने को कहा था। परन्तु मैंने शिवरात्रि का व्रत न किया। तब शिवरात्रि की कथा मुझे सुनाई, वह कथा मेरे मन को बहुत मीठी लगी और मैंने उपवास रखने का पक्का निश्चय कर लिया। मेरी

माँ कहती थी कि उपवास मत कर, मैंने माता का कहना न मानकर उपवास किया। मेरे यहाँ नगर के बाहर एक बड़ा देवल है। वहाँ शिवरात्रि के दिन रात के समय बहुत लोग एकत्रित होते हैं और पूजा करते हैं । मेरे पिता, मैं और

बहुत मनुष्य इकट्ठे थे। पहिले पहर की पूजा कर ली, दूसरे पहर की पूजा भी हो गयी। अब बारह बज गये और धीरे—धीरे आलस्य के कारण लोग जहाँ के तहाँ झुकने लगे। मेरे पिता को भी निद्रा आ गई। इतने में पुजारी बाहर गया।

मैं इस भय से न सोया कि कहीं मेरा उपवास निष्फल न हो जाय। इतने में यह चमत्कार हुआ कि मन्दिर में बिल से चूहे बाहर निकले और महादेव की पिण्डी के चारों तरफ फिरने लगे। पिण्डी पर जो चावल चढ़ाये हुए थे, उन्हें ऊपर चढ़कर खाने भी लगे मैं जागता था, इसलिए यह सब कौतुक देख रहा था। इससे एक दिन पहले शिवरात्रि की कथा मैं सुन ही चुका था।

उसमें शिव के भयानक गणों, उसके पाशुपत अस्त्र, बैल की सवारी और उसके आश्चर्यमय सामर्थ्य के विषय में बहुत कुछ सुन चुका था। इसलिए चूहों के इस खेल को देखकर मेरी लड़कपन बुद्धि आश्चर्य में पड़ गई और मैंने सोचा कि

जो शिव अपने पाशुपत अस्त्र से बड़े —बड़े दैत्यों को मारता है, क्या वह ऐसे तुच्छ चूहों को भी अपने ऊपर से नहीं हटा सकता। इस प्रकार की बहुत—सी शंकायें मेरे मन में उठने लगीं।

मैंने पिताजी को जगाकर पूछा कि ये महादेव इस छोटे चूहे को नहीं हटा देते। पिताजी ने कहा कि तेरी बुद्धि बड़ी भ्रष्ट है, यह तो केवल देवता की मूर्त्ति है। तब मैंने निश्चय किया कि जब मैं इसी त्रिशूल धारी शिव को प्रत्यक्ष

देखूंगा, तब ही पूजा करूँगा, अन्यथा नहीं। ऐसा निश्चय करके मैं घर को गया, भूख लगी थी माता से खाने को माँगा। माता कहने लगी, ट्टमैं तुमसे पहले ही कहती थी कि तुझसे भूखा नहीं रहा जायेगा। तूने ही हट करके उपवास

किया।’’ माँ ने फिर मुझे खाना दिया और कहा कि दो दिन तो उनके अर्थात् पिताजी के पास मत जाना और न उनसे बोलना, नहीं तो मार खायेगा, खाना खाकर मैं सो गया। दूसरे दिन आठ बजे उठा, मैंने सारी कथा अपने चाचा से कह दी। मेरे चाचा ने बुद्धिमत्ता से मेरे पिता को समझा दिया कि इसको आगे विघा पढ़नी है, इसलिए व्रत उपवास आदि इससे कुछ न कराया करो।

इस समय मैं इनसे यजुर्वेद पढ़ता था और दूसरे एक पण्डित मुझे व्याकरण पढा़ते थे। सोलहवें या सत्रहवें वर्ष में यजुर्वेद समाप्त हुआ। इसके बाद मैं अपनी जमींदारी के गाँव में पढ़ने के लिए गया। वहाँ हमारे घर में एक दिन नाच होता था, उस समय मेरी छोटी बहन मरणासन्न थी। कण्ठ बन्द हो गया था। मैं वहाँ गया और उसके बिस्तरे के पास खड़ा हुआ। सबसे पहले मैंने मौत वहीं देखी। जब मेरी बहन मर गई , तो मुझे बड़ा भय हुआ। मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि सबको इसी प्रकार मरना है। सब लोग रोते थे, पर मेरी छाती भय से धड़क रही थी। इसलिय मेरी आँखों से एक आँसू भी नहीं गिरा। मेरी यह दशा देखकर पिता ने मुझको पाषाण हृदय कहा।

मेरी माता मुझे बहुत प्यार करती थी, किन्तु उसने भी ऐसा ही कहा। मुझे सोने के लिए कहते थे पर मुझे कभी अच्छी तरह नींद न आती थी, किन्तु मैं हर घड़ी चौंक— चौंक उठता था और मन में भांति— भांति के विचार उठते थे।

बहन के मरने के पश्चात् लोक रीति के अनुसार पाँच छः बार रोना होने पर भी जब मुझे रोना नहीं आया तो सब लोग मुझे धिक्कारने लगे। उन्नीसवें वर्ष में मुझसे अत्यन्त स्नेह रखने वाले मेरे चाचा को भी मृत्यु

ने आन दबाया। मरते समय उन्होंने मुझे पास बुलाया। लोग उनकी नाड़ी देखने लगे। मैं उनके पास बैठा था, मुझे देखकर उनके टप—टप आँसू गिरने लगे। मुझे भी उस समय बहुत रोना आया, मैंने रो—रो कर आँखें सुजा लीं। ऐसा रोना मुझे कभी नहीं आया। इस समय मुझे ऐसा मालूम होने लगा कि चाचा की तरह मैं भी मर जाऊँगा। ऐसा विश्वास हो जाने पर अपने मित्रों और पण्डितों से अमर होने का उपाय पूछने लगा। जब उन्होंने योगाभ्यास की ओर संकेत किया तो मेरे मन में यह सूझी कि घर छोड़कर चला जाऊँ । इस समय मेरी आयु 20 वर्ष की थी।

मेरी बढ़ी हुई उदासीनता देखकर पिता ने जमींदारी का काम करने को कहा, परन्तु मैंने न किया फिर पिता ने निश्चय किया कि मेरा विवाह कर दें ताकि मैं बिगड़ न जाऊँ। यह विचार घर में होने लगा, यह मालूम करके मैंने

दृढ़ निश्चय कर लिया कि विवाह कभी नहीं करूँगा। यह भेद मैंने एक मित्र से प्रकट किया तो उसने मना किया और विवाह करने के लिए जोर देने लगा। मेरा विचार घर छोड़कर चले जाने का था, पर किसी ने सलाह न दी। जो

कहते वे विवाह करने को ही कहते। एक महीने के भीतर विवाह करने की तैयारी हो गई। यह देखकर मैं एक दिन शौच के मिश (बहाने) से एक धोती साथ लेकर घर से निकल पड़ा और एक सिपाही द्वारा कहला भेजा कि एक

मित्र के घर गया हूँ। मैं एक पास के गाँव में गया। इधर घर में मेरी प्रतीक्षा दस बजे रात तक होती रही। इसी रात को चार घड़ी के तड़के मैं गाँव से निकलकर आगे चल दिया और अपने गाँव से दस कोस के अन्तर पर एक गाँव के हनुमान् के मन्दिर पर ठहरा। वहाँ से चलकर सायला योगी के पास गया, परन्तु वहाँ पर मुझे शान्ति नहीं मिली और लोगों से सुना कि लालाभक्त नामी एक योगी है। तब उनकी ओर चल पड़ा। मार्ग में एक वैरागी एक मूर्त्ति रखकर बैठा हुआ था। बात—चीत होने पर वह बोला कि अगुंली में सोने का छल्ला डालकर वैराग्य की सिद्धि कैसे होगी? मुझे इस प्रकार खिजाकर मेरे तीनों छल्ले मूर्त्ति के भेंट चढ़वा लिए। लालाभक्त के पास जाकर मैं योग—साधना करने लगा। रात को एक वृक्ष के ऊपर बैठ गया, तो वृक्ष के ऊपर घूघू बोलने लगा। उसकी आवाज सुनकर मुझे भूत का भय हुआ। मैं मठ के भीतर घुस गया। फिर वहाँ से अहमदाबाद के समीप कोट काँगड़ा नामी गाँव में आया,वहाँ बहुत से वैरागी रहते थे। एक कहीं की रानी वैरागी के फन्दे में आ गई थी। इस रानी ने मेरे साथ ठट्टा किया, परन्तु में जाल से छूट गया, इस स्थान पर मैं तीन महीने रहा था। यहाँ पर वैरागी मुझ पर हंसी उड़ाने लगे, इसलिए जो रेशमी किनारेदार धोती मैं पहनता था, वह मैंने फेंक दी। मेरे पास केवल 3 रुपये रह गये थे, इनसे सादी धोती खरीदकर पहन ली और तब से अपना ब्रह्मचारी नाम रख लिया।

उन्हीं दिनों मैंने सुना कि कार्तिक के महीने में सिद्धपुर के स्थान पर एक मेला होता है। यह सोचकर कि वहाँ शायद मुझे कोई योगी मिल जावे और अमर होने का मार्ग बता दे, मैंने सिद्धपुर को प्रस्थान किया। मार्ग में मुझे अपने

गाँव का आदमी मिला, उसने जाकर मेरे बाप को बतला दिया कि सिद्धपुर की ओर चला गया हूँ। मेरा पिता और घर के लोग बराबर मेरी खोज में ही थे। इस आदमी की जबानी सुनकर मेरे पिता चार सिपाहियों सहित सिद्धपुर को

आये। मैं एक मन्दिर में बैठा हुआ था। एकाएक मेरे पिता और चार सिपाहीमेरे सामने आकर खड़े हो गये। देखते ही मेरा कलेजा धड़कने लगा। इस भय से कि पिता मुझको मारेंगे, मैंने उठकर उनके पाँव पकड़ लिए। वे मुझ पर बहुत

ही क्रुद्ध हुए, मैंने उनसे कहा कि एक धूर्त बहकाकर मुझे यहाँ लाया हैं, मैं घर जाने को तैयार ही था कि आप आ गये। उन्होंने मेरा तूँबा तोड़ डाला और मेरी छाई फाड़ डाली और कुछ कपड़े मुझे दिए। मेरे पीछे दो सिपाही सदा

के लिए कर दिए। रात को जहाँ मैं सोता था एक सिपाही मेरे सिरहाने बैठा जागता रहता था। मैंने चाहा कि इस सिपाही को धोखा देकर निकल जाऊँ और इसलिए मैं यह जानने के लिए कि सिपाही रात को सोता है या नहीं, खुद भी जागता रहा। सिपाही को तो यह निश्चय हो जाये कि मैं सो रहा हूँ और इसलिए मैं नाक से खर्राटे भरने लगता था। इस प्रकार तीन रातें जागना पड़ा, चौथी रात सिपाही को नींद आ गई, तब एक लोटा हाथ में ले बाहर निकला।

यदि कोई देख पावे तो झट कह दूँगा कि शौच को जाता हूँ । वहाँ से निकलकर गाँव के बाहर एक बाग में चला गया। प्रातःकाल होते ही एक वृक्ष पर भूखा बैठा रहा। रात को जब अँधेरा हो गया, सात बजे नीचे उतरकर चल

दिया। अपने गाँव और घर के मनुष्यों से यह अन्तिम भेंट थी। इसके पश्चात् एक बार प्रयाग (इलाहाबाद) में मेरे गाँव के बहुत से लोग मुझको मिले, परन्तु मैंने उनको अपना पता नहीं दिया, तब से आज तक कोई नहीं मिला।

सिद्धपुर से बड़ोदे को आया, वहाँ से नर्मदा नदी के तट पर विचरने लगा इस समय नर्मदा के तट पर योगानन्द स्वामी रहते थे। यहाँ एक दक्षिणी ब्राह्मण कृष्ण शास्त्री भी रहते थे, इनके पास मैं कुछ—कुछ पढ़ता रहा।

तत्पश्चात् राजगुरु के पास वेदों को पढ़ा। 23 या 24 वर्ष की अवस्था में मुझे चाणूद कनाली में एक संन्यासी मिला। मुझे पढ़ने में बहुत ही अनुराग था और संन्यास आश्रम में पढ़ने का बहुत सुभीता होता है। इसलिए उसके उपदेश से

मैंने श्राद्ध आदि करके संन्यास ले लिया, तब से ही दयानन्द सरस्वती नाम धारण किया। मैंने दण्ड गुरु के पास धर दिया।

चाणूद में दो गोसाईं आये, जो राजयोग करते थे, मैं भी उनके साथ अहमदाबाद तक गया। वहाँ पर एक ब्रह्मचारी मिला। पर कुछ दिनों बाद मैंने  उसका साथ छोड़ दिया। वहाँ से मैं जाते—जाते हरिद्वार पहुँचा, वहांँ कुम्भ का

मेला था। वहाँ से हिमालय पहाड़ पर उस जगह पहुँचा जहाँं से अलकनन्दा नदी निकलती है। बर्फ बहुत पड़ी हुई थी और पानी भी बहुत ठण्डा था। वहाँ बर्फ लगने से पैर में कुछ तकलीफ हुई। हिमालय पर्वत पर पहँुंच कर यह विचार हुआ कि यहीं शरीर गला दूँ।

फिर मन में आया कि यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के बाद शरीर छोड़ना चाहिए। यह निश्चय करके मैं मथुरा में आया। वहाँ मुझे एक धर्मात्मा संन्यासी गुरु मिले। उनका नाम स्वामी विरजानन्द था, वे पहले अलवर में रहते थे। इस

समय उनकी अवस्था 81 वर्ष की हो चुकी थी। उन्हें अभी तक वेद—शास्त्र आदि आर्ष ग्रन्थों में बहुत रुचि थी। ये महात्मा दोनों आँखों से अँधे थे, और इनके पेट में शूल का रोग था। ये कौमुदी और शेखर आदि नवीन ग्रन्थों को

अच्छा नहीं समझते थे और भागवत आदि पुराणों का भी खण्डन करते थे। सब आर्ष ग्रन्थो के वे बड़े भक्त थे। उनसे भेंट होने पर उन्होंने कहा कि तीन वर्ष में व्याकरण आ जाता है। मैंने उनके पास पढ़ने का पक्का निश्चय कर लिया। मथुरा में एक भद्र पुरुष अमरलाल नामक थे, उन्होंने मेरे पढ़ने के समय में जो—जो उपकार मेरे साथ किए, मैं उनको भूल नहीं सकता। पुस्तकों और खाने—पीने का प्रबन्ध सब उन्होंने बड़ी उत्तमता से कर दिया। जिस दिन उन्हें कहीं बाहर जाना होता, तो वे पहिले मेरे लिए भोजन बनाकर और मुझे खिलाकर बाहर जाते थे। सौभाग्य से ये उदारचेता महाशय मुझे मिल गये थे।

विघा समाप्त होने पर मैं आगरे में दो वर्ष तक रहा, परन्तु पत्र व्यवहार के द्वारा या कभी—कभी स्वयं गुरुजी की सेवा में उपस्थित होकर अपने सन्देह निवृत्त कर लेता था। आगरे से मैं ग्वालियर को गया, वहाँ कुछ—कुछ वैष्णव मत का खण्डन आरम्भ किया, वहाँ से भी स्वामी जी को पत्रादि भेजा करता था। वहाँ माधवमत के एक आचार्य हनुमन्त नामी रहते थे। वे किरानी का स्वांग भर कर शास्त्रार्थ सुनने बैठा करते थे। एक—आध बार जब मेरे मुख से कोई अशुद्ध शब्द निकला, तो उन्होंने अशुद्धि पकड़ ली। मैंने कई बार उनसे पूछा कि आप कौन हैं, परन्तु उन्होंने यही उत्तर दिया कि मैं एक किरानी हूँ, सुनने—सुनाने से कुछ बोध प्राप्त हुआ है। एक दिन इस विषय में वार्त्तालाप हुआ कि वैष्णव लोग जो माथे पर खड़ी रेखा लगाते हैं, वह ठीक हैं या नहीं। मैंने कहा यदि खड़ी रेखा लगाने से स्वर्ग मिलता हो, तो सारा मुँह काला करने से स्वर्ग से भी कोई बड़ी पदवीं मिलती होगी। यह सुनकर उनको बड़ा क्रोध आया और वे उठ गये।

तब लोगों से पूछने पर मालूम हुआ कि यही उस मत के आचार्य हैं। ग्वालियर से मैं रियासत करौली को गया। वहाँ पर एक कबीर पन्थी मिला, उसने एक बार वीर के अर्थ कबीर किए थे और कहने लगा कि एक कबीर उपनिषद् भी है। वहाँ से फिर मैं जयपुर को गया, वहाँं हरिश्चन्द्र नामी एक बड़े विद्वान् पण्डित थे। वहाँ पहिले मैंने वैष्णव मत का खण्डन करके शैव मत स्थापित किया। जयपुर के महाराज सवाई रामसिंह भी शैवमत की दीक्षाले चुके थे। शैव मत के फैलने पर हजारों रूद्राक्ष की मालायें मैंने अपने हाथोंसे लोगों को पहनाईं। वहाँ शैवमत का इतना प्रचार हुआ कि हाथी घोड़ों के गलों में भी रूद्राक्ष की माला पहनाई गईं। जयपुर से मैं पुष्कर को गया, वहाँ से अजमेर आया। अजमेर पहुँचकर शैवमत का भी खण्डन करना आरम्भ किया। इसी बीच में जयपुर के महाराजा

लाटसाहब से मिलने के लिए आगरे जाने वाले थे। इस आशंका से कि कहीं वृन्दावन निवासी प्रसिद्ध रंगाचार्य से शास्त्रार्थ न हो जावे। राजा रामसिंह ने मुझे बुलाया और मैं भी जयपुर पहुँच गया, परन्तु वहाँ मालूम होने पर कि मैंने शैवमत का खण्डन आरम्भ कर दिया है राजा साहब अप्रसन्न हुए । इसलिए मैं भी जयपुर छोड़कर मथुरा में स्वामी जी के पास गया और शंका— समाधान किया। वहाँ से मैं फिर हरिद्वार को गया। वहाँ अपने मठ पर पाखण्ड मर्दन लिखकर झण्डा खड़ा किया। वहाँ वाद—विवाद बहुत सा हुआ फिर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि सारे जगत् से विरूद्ध होकर भी गृहस्थों से बढ़कर पुस्तक आदि का जंजाल रखना ठीक नहीं है। इसलिए मैंने सब कुछ

छोड़कर केवल एक कौपीन (लंगोट) लगा लिया और मौन धारण किया। इस समय जो शरीर में राख लगाना शुरू किया था, वह गत वर्ष बम्बई में आकर छोड़ा। वहाँ तक लगाता रहा था। जब से रेल में बैठना पड़ा, तब से कपडे

पहनने लगा। जो मैंने मौन धारण किया था, वह बहुत दिन सध न सका, क्यों कि बहुत से लोग मुझें पहचानते थे । एक दिन मेरी कुटी के द्वार पर एक मनुष्य यह कहने लगा ट्टनिगमकल्पतरोर्गलितं फलम्’’ अर्थात् भागवत से बढ़कर और कुछ नहीं है, वेद भी भागवत से नीचे हैं।’’

तब मुझसे यह सहन न हो सका, तब मौन व्रत को छोड़कर मैंने भागवतका खण्डन प्रारम्भ किया। फिर यह सोचा कि ईश्वर की कृपा से जो कुछ थोड़ा बहुत ज्ञान अपने को हुआ है, वह सब लोगों पर प्रकट करना चाहिए। इस विचार को मन में रखकर मैं फरूखाबाद को गया, वहाँ से रामगढ़ को गया। रामगढ़ में शास्त्रार्थ शुरू किया। वहाँ पर जब दो चार पण्डित बोलते थे, तब मैं कोलाहल शब्द कहा करता था, इसलिए आज तक वहाँ के लोग मुझको

कोलाहल स्वामी कहा करते हैं। वहाँ पर चक्रांकितों के चेले दस आदमी मुझे मारने को आये थे, बड़ी कठिनता से उनसे बचा। वहाँ से फरूखाबाद होकर कानपुर आया कानपुर से प्रयाग गया। प्रयाग में भी मारने वाले आये थे। पर

एक माधवप्रसाद नामी धर्मात्मा पुरुष था, उसकी सहायता से बचा। यह गृहस्थ माधव प्रसाद ईसाई मत ग्रहण करने को तैयार था, उसने इन सब पण्डितों को नोटिश दे रखा था, कि यदि आप अपने आर्य धर्म में तीन महीने के भीतर

मेरा विश्वास न करा देंगे, तो मैं ईसाई धर्म को स्वीकार कर लूँगा मेरे आर्य धर्म पर निश्चय दिला देने से वह ईसाई नहीं हुआ। प्रयाग से मैं रामनगर को गया। वहाँ के राजा की इच्छानुसार काशी के पण्डितों से शास्त्रार्थ हुआ। इस

शास्त्रार्थ में यह विषय प्रविष्ट था कि वेदों में मूर्ति पूजा है या नहीं। मैंने यह सिद्ध करके दिखा दिया कि प्रतिमा शब्द तो वेदों में मिलता है परन्तु उसके अर्थ तौल नाप आदि के हैं। वह शास्त्रार्थ अलग छपकर प्रकाशित हुआ है,

जिसको सज्जन पुरुष अवलोकन करेंगे।

इतिहास शब्द से ब्राह्मण ग्रन्थ ही समझने चाहिए इस पर भी शास्त्रार्थ हुआ था। गत वर्ष के भाद्रपद मास में मैं काशी में था। आज तक चार बार काशी में जा चुका हूँ। जब—जब काशी में जाता हूँ तब—तब विज्ञापन देता हूँ कि यदि किसी को वेद में मूर्ति पूजा का प्रमाण मिला हो तो मेरे पास लेकर आवें परन्तु अब तक कोई भी प्रमाण नहीं निकाल सका।

इस प्रकार उत्तरीय भारत के समस्त प्रान्तों में मैंने भ्रमण किया है। दो वर्ष हुए कि कलकत्ता, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, जयपुर आदि नगरों में मैंने बहुत से लोगों को धर्मोपदेश दिया है। काशी फरूखाबाद आदि नगरों में चार पाठशालाएँ आर्ष— विघा पढ़ाने के लिए स्थापित की हैं। उनमें अध्यापकों की उच्छृंखलता से जैसा लाभ पहुँचना चाहिए था नहीं पहुँचा। गत वर्ष मुम्बई आया, यहाँ मैंने गुसांई महाराज के चरित्रों की बहुत कुछ छानबीन की। बम्बई में आर्य समाज स्थापित हो गया। बम्बई,अहमदाबाद, राजकोट आदि प्रान्तों में कुछ दिन धर्मोपदेश किया, अब तुम्हारे इस नगर में दो महीनों से आया हुआ हूँ।

यह मेरा पिछला इतिहास है, आर्य धर्म की उन्नति के लिए मुझ जैसे बहुत से उपदेशक आपके देश में होने चाहिए। ऐसा काम अकेला आदमी भली प्रकार नहीं कर सकता, फिर भी यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि अपनी बुद्धि  और शक्ति के अनुसार जो कुछ दीक्षा ली है उसे चलाऊँगा। अब अन्त में ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि सर्वत्र आर्य समाज कायम होकर मूर्त्ति पूजादि दुराचार दूर हो जावें, वेद शास्त्रों का सच्चा अर्थ सबको समझ में आवे और उन्हीं के अनुसार लोगों का आचरण हो कर देश की उन्नति हो जावे। पूरी आशा है कि आप सज्जनों की सहायता से मेरी यह इच्छा पूर्ण होगी।

ओं शान्तिः शान्तिः शान्तिः

 

सर्व मनोकामना पूर्ण यज्ञ : एक अवैदिक कृत्य : प्रो राजेन्द्र जिज्ञासु

download

आज देश में मन्नत माँगने व मन्नतों को पूरा करवाने का बहुत अच्छा धन्धा चल रहा है I पढ़े लिखे लोग भी अंधविश्वासों की दलदल में फंसकर नदी सरोवर के स्नान पेड़ पूजा कबर पूजा कुत्ते बिल्ली के आगे पीछे घूमकर अपनी मनोकामनाएँ पूरी करवाने के लिए धक्के खा रहे हैं I जो सैकड़ों वर्ष पूर्व कबरों में दबाये गए उनको अल्लाह मियाँ ने मनुष्यों के दुःख निवारण करने का मुख्तार बना दिया है I मनुष्यों की इस दुर्बलता का शिकार आर्य समाजी भी हो रहे हैं I  ऐसे अटार्नी जनरल आर्यसमाज में मनोकामनायें  पूरी करवाने के नए नए जाल फैला रहे हैं I  कुछ सज्जनों का प्रश्न है की किसी से कोई यज्ञ अनुष्ठान करवाने से मन्नत पूरी हो जाती हैं ? कामनाएं पूरी करने के लिए वेदानुसार क्या कर्म करने चाहिए ?

अब इस प्रश्न का क्या उत्तर दें ? परन्तु जब उच्च शिक्षित व्यक्ति व परिवार ऐसा प्रश्न उठायें तो कुछ समाधान करना प्रत्येक आर्य का कर्त्तव्य है I हम महर्षि दयानन्द जी द्वारा इस प्रश्न का उत्तर पाठकों की सेवा में रखते हैं I सर्वकामनाएं ऐसे पूर्ण होती हैं I

१.       “जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं इसी से प्रारब्ध की उपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है I”

२.       फिर लिखा है “ क्योंकि जो परमेश्वर की पुरषार्थ करने की आज्ञा है  उसको जो कोई तोड़ेगा वह सुख कभी न पावेगा”

३.       “जो कोई ‘गुड मीठा है ‘ ऐसा कहता है उसको गुड प्राप्त वा उसको स्वाद प्राप्त कभी नहीं होता I और जो यत्न करता है उसको शीघ्र वा विलम्ब से गुड मिल ही जाता है “

४.       “जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है वैसा ही वर्तमान करना चाहिए “

५.       “अपने  पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है “

वेदोपदेश आर्ष वचनों के प्रमाण तो हमने दे दिए पोंगापंथी टोटके और अनार्ष वचनों को हम जानते हैं परन्तु उनकी शव परीक्षा यहाँ नहीं करेंगे I धर्म कर्म मर्म हमने ऋषी के शब्दों में दे दिया है .

परोपकारी अक्टूबर (द्वितीय) २०१४

‘महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द और गुरूकुल प्रणाली’-मनमोहन कुमार आर्य

gurukul 1

ओ३म्

महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द और गुरूकुल प्रणाली

महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) आर्य समाज के संस्थापक हैं। आर्य समाज की स्थापना 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई के काकडवाड़ी स्थान पर हुई थी। इसी स्थान पर संसार का सबसे पुराना आर्य समाज आज भी स्थित है। आर्य समाज की स्थापना का प्रमुख उद्देश्य वेदों का प्रचार व प्रसार था तथा साथ ही वेद पर आधारित धार्मिक तथा सामाजिक क्रान्ति करना भी था जिसमें आर्य समाज आंशिक रूप से सफल हुआ है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद सभी सत्य विद्याओं के ग्रन्थ हैं। यह वेद सृष्टि के आरम्भ में सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता, सर्वान्तर्यामी परमेश्वर से अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न प्रथम चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को उनके अन्तःकरण में सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर की प्रेरणा द्वारा प्राप्त हुए थे। आजकल गुरू अपने शिष्यों को ज्ञान देता है और पहले से भी यही परम्परा चल रही है। वह बोल कर, व्याख्यान व उपदेश द्वारा ज्ञान देते हैं। ज्ञान प्राप्ति का दूसरा तरीका पुस्तकों का अध्ययन है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने ऋषियों वा मनुष्यों को ज्ञान देना था। ईश्वर अन्तरर्यामी है अर्थात् वह हमारी आत्माओं के भीतर भी सदा-सर्वदा उपस्थित रहता है। अतः वह अपना ज्ञान आत्मा के भीतर प्ररेणा द्वारा प्रदान करता है। यह ऐसा ही है जैसे गुरू का अपने शिष्य को बोलकर उपदेश करना। गुरू की आत्मा में जो विचार आता है वह उन विचारों को अपनी वाणी को प्रेरित करता है जिससे वह बोल उठती है। शिष्य के कर्ण उसका श्रवण करके उस वाणी को अपनी आत्मा तक पहुंचाते हैं। इस उदाहरण में गुरू का आत्मा और शिष्य की आत्मायें एक दूसरे से पृथक व दूर हैं अतः उन्हें बोलना व सुनना पड़ता है। परन्तु ईश्वर हमारे बाहर भी है और भीतर भी है। अतः उसे हमें कुछ बताने के लिए बोलने की आवश्यकता नहीं है। वह जीवात्मा के अन्तःकरण में प्रेरणा द्वारा अपनी बात हमें कह देता है और हमें उसकी पूरी यथार्थ अनुभूति हो जाती है। इसी प्रकार से ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को ज्ञान दिया था।

 

वर्तमान सृष्टि में वेदोत्पत्ति की घटना को 1,96,08,53,114 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इस लम्बी अवधि में वेद की भाषा संस्कृत से अनेकों भाषाओं की उत्पत्ति हो चुकी है। वर्तमान में संस्कृत का प्रचार न होने से यह भाषा कुछ लोगों तक सीमित हो गई। इसके विकारों से बनी भाषायें हिन्दी व अंग्रेजी व कुछ अन्य भाषायें हमारे देश व समाज में प्रचलित हैं। संस्कृत का अध्ययन कर वेदों के अर्थों को जाना जा सकता है। दूसरा उपाय महर्षि दयानन्द एवं उनके अनुयायी आर्य विद्वानों के हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में वेद भाष्यों का अध्ययन कर भी वेदों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ईश्वर से वेदों की उत्पत्ति होने, संसार की प्राचीनतम पुस्तक होने, सब सत्य विद्याओं से युक्त होने, इनमें ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप का यथार्थ वर्णन होने आदि कारणों से वेद आज व हर समय प्रासंगिक है। इस कारण वेदों का अध्ययन व अध्यापन सभी जागरूक, बुद्धिमान व विवेकी लोगों को करना परमावश्यक है अन्यथा वह इससे होने वाले लाभों से वंचित रहेंगे। वेदों से दूर जाने अर्थात् वेद ज्ञान का अध्ययन व अध्यापन बन्द होने के कारण संसार में अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न हुए जिससे हमारे देश व मनुष्यों का पतन हुआ और हम गुलामी व अनेक दुःखों से ग्रसित हुए। महर्षि दयानन्द ने संसार में सत्य ज्ञान वेदों का प्रकाश करने और प्राणी मात्र के हित के लिए वेदों का प्रचार व प्रसार किया और वेदों का पढ़ना-पढ़ाना व सुनना-सुनाना सभी मनुष्यों जिन्हें उन्होंनंे आर्य नाम से सम्बोधित किया, उनका परम धर्म घोषित किया।

 

अब विचार करना है कि वेदों का ज्ञान किस प्रकार से प्राप्त किया जाये। इसका उत्तर है कि जिज्ञासु या विद्यार्थी को वेदों के ज्ञानी गुरू की शरण में जाना होगा। वह बालक को अपने साथ तब तक रखेगा जब तक की शिष्य वेदादि शास्त्रों की शिक्षा पूरी न कर ले। हम जानते हैं कि जब बच्चा जन्म लेता है तो उस समय वह अध्ययन करने के लिए उपयुक्त नहीं होता। लगभग 5 वर्ष की आयु व उसके कुछ समय बाद तक वह माता-पिता से पृथक रहकर ज्ञान प्राप्त करने के लिए योग्य होता है। ऐसे बालकों को उनके माता-पिता किसी निकटवर्ती गुरू के आश्रम में ले जाकर उस गुरू द्वारा बच्चों का प्रारम्भिक अध्ययन से आरम्भ कर सांगोपांग वेदों का अध्ययन करा सकते हैं। उस स्थान पर जहां बालक-बालिकाओं को वेदों का अध्ययन व अध्यापन कराया जाता है गुरूकुल कहा जाता हैं। यह गुरूकुल कहां हों, इनका स्वरूप व अध्ययन के विषय आदि क्या हों इस पर विचार करते हैं। अध्ययन करने का स्थान माता-पिता व पारिवारिक जनों से दूर होना चाहिये जहां शिष्य अपने गुरू के सान्निध्य में रह कर निर्विघ्न अपनी शारीरिक व बौद्धिक उन्नति करने के साथ अपने श्रम व तप के द्वारा गुरू की सेवा कर सके। अध्ययन करने का स्थान वा शिक्षा का केन्द्र गुरूकुल किसी शान्त वातावरण में जहां वन, पर्वत व नदी अथवा सरोवर आदि हों, होना चाहियेे। गुरू, शिष्यों व भृत्यों के आवास के लिये कुटियायें आदि उपलब्ध हों। एक गोशाला हों जिसमें गुरूकुल वासियों की आवश्यकता के अनुसार दुग्ध उपलब्ध हो। यदि अन्न आदि पदार्थों की भी व्यवस्था हों, तो अच्छा है अन्यथा फिर भिक्षा हेतु निकट के ग्राम व नगरों में जाना होगा। वर्तमान परिस्थिति के अनुसार भोजन वस्त्र आदि की भी सुव्यवस्था होनी चाहिये और पुस्तकें व अन्य आवश्यक सामग्री भी उपलब्ध होनी चाहिये। यह सब सुव्यवस्था होने पर गुरूजी को पढ़ाना है व बच्चों को पढ़ना है। वेदों का ज्ञान शब्दमय होने से शब्द का ज्ञान शिष्य को गुरू से करना होता है। वेदों के शब्द रूढ़ नहीं हैं। वह सभी धातुज या यौगिक हैं। अतः घातु एवं यौगिक शब्दों के ज्ञान में सहायक पुस्तक व ग्रन्थों का होना आवश्यक है। सम्भवतः यह ग्रन्थ वर्णमाला, अष्टाध्यायी, धातु पाठ, महाभाष्य, निधण्टु व निरूक्त आदि ग्रन्थ होते हैं। गुरूजी को क्रमशः इनका व वेदार्थ में सहायक अन्य व्याकरण ग्रन्थों व शब्द कोषों का ज्ञान कराना है। गुरूकुल में अध्ययन पर कुछ आगे विचार करते हैं। हम जानते हैं कि हम वर्तमान में रहते हैं। बीता हुआ समय भूतकाल और आने वाला भविष्य काल कहलाता है। जब हम भाषा का प्रयोग करते हैं तो क्रिया पद को यथावश्यकता भूत, वर्तमान व भविष्य का ध्यान करते हुए तदानुसार संज्ञा, सर्वनाम आदि का प्रयोग करते हैं। यह व्याकरण शास्त्र के अन्तर्गत आते हैं। अतः गुरूकुल में गुरूजी को शिष्य को पहले वर्णमाला व व्याकरण शास्त्र का ज्ञान कराना होता है।  व्याकरण शास्त्र का ज्ञान हो जाने के बाद गुरूजी से प्रकीर्ण विषयों को जानकर वेद के ज्ञान में सहायक इतर अंग व उपांग ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं और उसके बाद वेदों का अध्ययन करने पर विद्या पूरी हो जाती है। विद्या पूरी होने पर शिष्य स्नातक हो जाता है। अब वह घर पर रहकर स्वाध्याय आदि करते हुए कृषि, चिकित्सा, ग्रन्थ लेखन, आचार्य व उपदेशक, पुरोहित, सैनिक, राजकर्मी, वैज्ञानिक, उद्योगकर्मी आदि विभिन्न रूपों में सेवा करके अपना जीवनयापन कर सकता है। वेद, वैदिक साहित्य एवं वेद व्याकरण का अध्ययन करने के बाद स्नातक अनेक भाषाओं को सीखकर तथा आधुनिक विज्ञान व गणित आदि विषयों का अध्ययन कर जीवन का प्रत्येक कार्य करने में समर्थ हो सकता है। यह कार्य उसको करने भी चाहिये। हम ऐसे लोगों को जानते हैं जिन्होंने गुरूकुल में अध्ययन किया और बाद में वह आईपीएस, आईएएस आदि भी बने। विश्वविद्यालय के कुलपति, कुलसचित, संस्कृत अकादमियों के निदेशक, सफल उद्योगपति आदि बने, अनेक सांसद भी बने। स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण भी आर्य गुरूकुलों की देन हैं। अतः वेदों का अध्ययन कर भी जीवन में सर्वांगीण उन्नति हो सकती है, यह अनेक प्रमाणों से सिद्ध है। यह उन लोगों के लिए अच्छा उदाहरण हो सकता है जो अपने बच्चों को धनोपार्जन कराने की दृष्टि से महंगी पाश्चात्य मूल्य प्रधान शिक्षा दिलाते हैं और बाद में आधुनिक शिक्षा में दीक्षित सन्तानें अपने माता-पिता आदि परिवारजनों की उपेक्षा व कर्तव्यहीता करते दिखाई देते हैं।

 

प्राचीनकाल में गुरूकुल वैदिक शिक्षा के केन्द्र हुआ करते थे जो महाभारत काल के बाद व्यवस्था के अभाव में धीरे धीरे निष्क्रिय हो कर समाप्त हो गये। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में गुरूकुलीय शिक्षा पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में स्कूलों में शिक्षा दी जाती थी। इसका उद्देश्य शासक वर्ग अंग्रेजों का भारत के बच्चों को अंग्रेजी के संस्कार देकर उन्हें गुप्त और लुप्त रूप से वैदिक संस्कारों से दूर करना और उन्हें अंग्रेजियत और ईसाईयत के संस्कारों व परम्पराओं के निकट लाना था। स्वामी दयानन्द ने अंग्रेजों की इस गुप्त योजना को समझा था और इसके विकल्प के रूप में गुरूकुलीय शिक्षा प्रणाली का अपने ग्रन्थों में विधान किया जिससे अंग्रेजी शिक्षा के खतरों का मुकाबला किया जा सके। स्वामी श्रद्धानन्द महर्षि दयानन्द सरस्वती के योग्यतम् अनुयायी थे। उन्होंने गुरूकुलीय शिक्षा के महत्व को समझा था और अपना जीवन अपने गुरू की भावना के अनुसार हरिद्वार के निकट एक ग्राम कांगड़ी में सन् 1902 में गुरूकुल की स्थापना में समर्पित किया और उसको सुचारू व सुव्यवस्थित संचालित करके दुनियां में एक उदाहरण प्रस्तुत किया। स्वामी श्रद्धानन्द का यह कार्य अपने युग का एक क्रान्तिकारी कदम था। उनके द्वारा स्थापित गुरूकुल ने आज एक विश्वविद्यालय का रूप ले लिया है। आज समय के साथ देशवासियों व आर्य समाजियों का भी वेदों के प्रति वह अनन्य प्रेमभाव दृष्टिगोचर नहीं होता जो हमें महर्षि दयानन्द के साहित्य को पढ़ कर प्राप्त होता है। यहां वेद भी अन्य भाषाओं व उनके साहित्य की ही तरह एक विषय बन कर रह गये हैं और प्रायः अपना महत्व खो बैठे हैं। इसका एक कारण समाज की अंग्रेजीयत तथा आत्मगौरव, स्वधर्म व स्वसंस्कृति के अभाव की मनोदशा है। संस्कृत व वेदों का अध्ययन करने से उतनी अर्थ प्राप्ति नहीं हो पाती जितनी की अन्य विषयों को पढ़ कर होती है। नित्य प्रति ऐसे अनेक लोग सम्पर्क में आते हैं जो संस्कृत पढ़े है और पढ़ा भी रहे हैं परन्तु उनका पारिवारिक व समाजिक जीवन सन्तोषजनक नहीं है। ऐसे लोगों को देखकर लोगों में संस्कृत के प्रति उत्साह में कमी का होना स्वाभाविक है।

 

हमारे आर्य समाज के विद्वानों व नेताओं को इस समस्या पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये। सरकार व निजी प्रतिष्ठानों में आज हिन्दी, अंग्रेजी व क्षेत्रीय भाषाओं का महत्व है जहां संस्कृत प्रायः गौण, उपेक्षित व महत्वहीन है। वर्तमान में संस्कृत केवल धर्म संबंधी कर्मकाण्ड की भाषा बन कर रह गई है। समाज में इस मनोदशा को बदलकर संस्कृत के व्यापक उपयोग के मार्ग तलाशने होंगे। हमें लगता है कि संस्कृत पढ़े हमारे स्नताकों को हिन्दी व अंगेजी भाषा सहित आधुनिक ज्ञान, विज्ञान तथा गणित आदि विषयों का अध्ययन भी करना चाहिये जिससे वह सरकारी सेवा व अन्य व्यवसायों में अन्य अभ्यर्थियों के समान स्थान प्राप्त कर सकें जो सम्प्रति प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं।  संस्कृत के भविष्य से जुड़े एक प्रसंग का उल्लेख करना भी यहां उचित होगा। कुछ सप्ताह पूर्व वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून में पाणिनी कन्या महाविद्यालय, वाराणसी की विदुषी आचार्या डा. नन्दिता शास्त्री ने कहा कि संस्कृत भाषियों की संख्या दिन प्रति घट रही है। विगत जनगणना में यह 15-20 हजार ही थी। यदि यह 10 हजार या इससे कम हो जाती है तो सरकार के द्वारा संस्कृत को मिलने वाली सभी सुविधायें व संरक्षण बन्द हो जायेंगे और यह दिन संस्कृत प्रेमियों के लिए अत्यन्त दुखद होगा। स्वामी श्रद्धानन्द के बाद स्वामी दयानन्द के अनुयायियों ने स्वामी श्रद्धानन्द का अनुकरण कर अनेक गुरूकुल खोले जिनकी संख्या वर्तमान में 500 से अधिक है। यदि यह सभी गुरूकुल सुव्यवस्थित रूप से चलायें जा सकें तो यह वैदिक धर्म की रक्षा और उसके प्रचार प्रसार का सबसे बड़ा साधन सिद्ध हो सकते हैं और भविष्य में भी होंगे। वेद, वैदिक साहित्य, धर्म, संस्कृत और संस्कृति की रक्षा व देश के भावी स्वरूप की दृष्टि से में इन गुरूकुलों की भूमिका महत्वपूर्ण हैं। इसका उन्नयन करना आर्य समाज का तो कार्य है ही साथ ही सरकार में वेदों को मानने वाले लोगों को वेदों की रक्षा व प्रचार के लिए प्रभावशाली योजनायें एवं कार्य करने चाहियें। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो ‘धर्मो एव हतो हन्ति’ की भांति धर्म रक्षा में प्रमाद करने से यह धर्म हमे ही मार देगा।

 

स्वामी श्रद्धानन्द आर्य समाज के प्रसिद्ध नेता थे। वह आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब तथा सार्वदेशिक सभा के भी प्रधान रहे। शुद्धि आन्दोलन के भी वह प्रमुख सूत्रधार रहे और सम्भवतः यही उनकी शहादत का कारण बना। स्वामी जी का देश की आजादी के आन्दोलन में भी महत्वपूर्ण योगदान था। समाज सुधार के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियां अनेकों हैं। हम उनके जीवन को वेदों का मूर्त रूप देखते हैं जिसमें कहीं कोई कमी हमें दिखाई नहीं देती। काश कि महर्षि दयानन्द अधिक समय तक जीवित रहते तो श्रद्धानन्द उनके सर्वप्रिय शिष्य होते। आर्य समाज व महर्षि दयानन्द की भक्ति के लिए उन्होंने घर फूँक तमाशा देखा। उनका व्यक्तित्व आदर्श पिता, आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श समाज सुधारक, आदर्श नेता, आदर्श स्वतन्त्रता सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार, लेखक, विद्वान, शिक्षा शास्त्री, धर्म गुरू, वेदभक्त, वेद सेवक, वेद पुत्र, ईश्वर पुत्र व ईश्वर के सन्देशवाहक का था। 23 दिसम्बर, 1926 को वह एक षडयन्त्र का शिकार होकर एक कातिल अब्दुल रसीद द्वारा शहीद कर दिये गये। हम समझते हैं कि उन्होंने अपने रक्त की साक्षी देकर वैदिक सिद्धान्तों व मान्यताओं की साक्षी दी है। हम उन्हें अपनी श्रद्धाजंलि प्रस्तुत करते हैं। जब तक सृष्टि पर मनुष्यादि प्राणी विद्यमान हैं, विवेकी देशवासी स्वामी श्रद्धानन्द जी के यश, कीर्ति, उनके कार्य और बलिदान को स्मरण कर उनसे प्रेरणा लेते रहेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

            देहरादून-248001

फोनः 09412985121