विद्यालयी शिक्षा में संस्कृत शिवदेव आर्य, देहरादून

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संस्कृत भाषा का नाम सुनकर प्रगतिशील विद्वान्, नेता राजनेता भड़क जाते हैं। शिक्षा मे संस्कृत की बात आती है तो इन्हें सेक्युलर ढांचा खतरे में दिखाई देने लगता है। विडम्बना देखिए त्रिभाषा फार्मूले पर असंवैधानिक कदम का विरोध नहीं हुआ। लेकिन जब गलती को सुधारा गया, तो आरोप लगाया गया कि सरकार शिक्षा का भगवाकरण चाहती है। जबकि केन्द्र सरकार ने स्पष्ट रूप से बता दिया था कि संस्कृत को अनिवार्य नहीं किया जा रहा है। न वैकल्पिक विषय के रूप में किसी भाषा पर प्रतिबन्ध लगाया गया है। विद्यार्थियों के सामने विकल्प रहेंगे। केवल पिछली सरकार की एक बड़ी गलती को सुधारा गया है परन्तु आश्चर्य की बात है कि लगातार तीन वर्ष तक असंवैधानिक व्यवस्था चलती रही। उस समय के विद्वान् शिक्षा मंत्रियों ने जाने-अनजाने  में इस पर ध्यान नहीं दिया।

वर्तमान काल में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने इस ओर ध्यान दिया। उन्होंने अपनी सतर्कता से इस मसले को गंभीरता से समझा। यह माना कि पिछली सरकार ने बहुत बड़ी गलती की थी। इसे दुरुस्त करके पुनः त्रिभाषा फार्मूले को पटरी पर लाया जाय। स्मृति ईरानी के इस कदम की दलगत सीमा से ऊपर उठकर प्रशंसा करनी चाहिए थी। यह इसलिए भी जरूरी थी कि यह प्रसंग जर्मन सरकार तक पहुंच चुका था। आस्ट्रेलिया में जी-20 शिखर सम्मेलन में अनौपचारिक तौर पर जर्मन की चालंसर एन जेला मर्केल ने दबी  जबान से यह मामला उठाया था। जवाब में भारत की ओर से कहा गया कि वैकल्पिक विषय के रूप में जर्मन पढ़ाई जाती रहेगी। इधर भारत में जर्मन के राजदूत भी इस मसले पर बहुत सक्रिय हो गये थे। वह इसे भारत और जर्मनी के रिश्तों से जोड़ कर देख रहे थे। उन्होंने सरकार के फैसले की आलोचना की। मानव संसाधन मंत्री ने इस पर आपत्ति दर्ज की। उन्होंने राजदूत के विरोध को अनावश्यक और गलत बताया। पिछली  सरकार की अदूरदर्शिता के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई। 2011 में सीबीएससी के नियम को आकस्मिक रूप से बदल दिया गया। त्रिभाषा फार्मूले से संस्कृत को हटाकर जर्मन को रख दिया गया। यह विचित्र निर्णय था। किसी के पास इस बात का जवाब नहीं था कि त्रिभाषा फार्मूले से स्वदेशी भाषा संस्कृत को क्यों हटाया गया? उसकी जगह जर्मन को क्यों रखा गया? यह फैसला तो किया ही नहीं जा सकता। संविधान के अनुसार ऐसा करने की अनुमति ही नहीं थी। संविधान की आठवीं अनुसूची में जिन भाषाओं का उल्लेख है, उन्हीं को त्रिभाषा फार्मूले में रखा जा सकता है। इसमें जर्मन तो किसी भी दशा में शामिल ही नहीं हो सकती। जिसने भी संस्कृत को हटाकर जर्मन को रखा, उसने सरासर संविधान की व्यवस्था का उल्लंघन किया।

यह संवैधानिक ही नहीं अव्यवहारिक निर्णय भी था। संस्कृत पढ़ाने वाले शिक्षक सभी जगह उपलब्ध हो सकते थे। हिन्दी के शिक्षक भी प्रारम्भिक संस्कृत पढ़ा सकते हैं लेकिन जर्मनी के शिक्षक इतनी संख्या में उपलब्ध ही नहीं हो सकते। दिल्ली तथा कुछ अन्य महानगरों में जर्मन शिक्षक आ सकते हैं। लेकिन दूर-दराज के इलाकों में जर्मन पढ़ाने की व्यवस्था संभव ही नहीं थी। ऐसा भी नहीं कि जर्मन यहां की लोकप्रिय भाषा हो। सीमित संख्या में विद्यार्थी जर्मन पढ़ना चाहते हैं। इनके लिये पहले भी व्यवस्था थी और आगे भी रहेगी।

कुछ लोगों का कहना है  कि यह वैश्वीकरण का दौर है। विदेशी भाषा सीखने से आर्थिक-व्यापारिक संबंधों में सहायता मिलेगी। यदि ऐसा है तो जर्मनी ही क्यों ऐसे कई देश हैं जिनके साथ भारत का व्यापार जर्मनी के मुकाबले बहुत अधिक है। इसके अलावा वैश्वकीरण के लिये किसी स्वदेशी भाषा को हटाकर विदेशी भाषा रखने का तर्क अनैतिक है। व्यापार निवेष बढ़ाने के अनेक कारक तत्त्व होते हैं।

संस्कृत को हटाकर जर्मन रखने का फैसला असंवैधानिक, अव्यवहारिक, अनैतिक और अज्ञानता से भरा था। यह संभव ही नहीं कि मानव संसाधन विभाग में इतना बड़ा फैसला हो जाए, उसे लागू कर दिया जाये और मंत्रियों को इसकी जानकारी ही न हो। तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री आज जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं। पल्लम राजू का कहना है कि यह मसला उनके सामने नहीं आया था। इसे एक अन्य समझौते के तहत लागू किया गया था। जबकि मंत्रालय की कार्यप्रणाली जानने वालों का कहना है कि यह संभव नहीं कि मंत्री के सामने यह मामला पहुंचा न हो। यह तभी संभव है जब मंत्री रबर स्टम्प की तरह हो, उसकी जगह कोई अन्य निर्णय लेता हो। दोनों ही स्थितियों में जवाबदेही विभागीय मंत्री की ही मानी जायेगी। साफ है कि इस निर्णय के पीछे नेक नीयत नहीं थी। संप्रग सरकार में कोई तो ऐसा प्रभावशली व्यक्ति अवश्य होगा, जो संस्कृत की जगह विदेशी भाषा को महत्त्व देना चाहता था।

 

क्या यह कहना गलत होगा कि संस्कृत को हटाने का फैसला कथित सेक्यूलर छवि को चमकाने के लक्शलिये किया गया था। यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि संस्कृत भारतीय भाषाओं की जननी है। कई भाषाओं में आज भी आधे से अधिक प्रचलित शब्द संस्कृत के हैं। इसका व्याकरण विश्व में बेजोड़ है। यह विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है। कम्प्यूटर युग के लिये सर्वाधिक उपयुक्त भाषा है। विश्व का सबसे समृध्द साहित्य संस्कृत में है। कोई इसे न पढ़े, यह उसकी मर्जी। लेकिन इसे पढ़ना भगवाकरण नहीं है।

त्रिभाषा फार्मूले में तीन भाषाआंे का प्रावधान किया गया था। पहली भाषा के रूप में मातृभाषा, दूसरी में हिन्दी या अंग्रेजी, तीसरी कोई आधुनिक भारतीय भाषा। मातृभाषा के साथ ही संस्कृत को भी शामिल किया गया था। संप्रग सरकार ने चुपचाप तीसरी भाषा में जर्मनी को रख दिया था।

आज हम सब के लिए अत्यन्त हर्ष का विषय है कि भारत सरकार की शिक्षा मन्त्री माननीय स्मृति ईरानी के उचित समय में लिये गया  उचित  फैसले से तृतीय भाषा के रूप में संस्कृत भाषा वैकल्पिक विषयों में स्थान दिया गया है।  देश में संस्कृत के लिए सुनहरे अवसरों की शुरुआत हो चुकी है। अब हम सबको संस्कृत के लिए कृतसंकल्प होने की आवश्यकता है

मो.-08810005096

-गुरुकुल पौन्धा, देहरादून

One thought on “विद्यालयी शिक्षा में संस्कृत शिवदेव आर्य, देहरादून”

  1. मांसाहारी मुसलमान के इस्लामी
    मकतब मदरसे क्या पढ़ते पढ़ाते है सब जानते है।

    गुरुकुल क्या पढ़ाते है यह भी सब जानते है।
    गुरुकुल कितने सात्विक होते है सभी जानते
    हैं।

    फिर भी गुरुकुल आज कितने बचे हैं।

    अधिकांश
    गुरुकुल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे
    है।

    मेरा प्रश्न है कि मदरसे जहाँ आतंकवादी
    जेहादी तैयार होते है उनकी तादात
    दिन प्रति दिन बढ़ रही है।सरकारे
    भी उन्हें मदद दे रही है। वहां
    मासाहार सिखाते है।

    जबकि सात्विक गुरुकुल समाप्तप्रायः है।

    क्यों?

    क्या ईश्वर इसके लिए जिम्मेदार है?
    हम और आप जिम्मेदार है?
    मुसलमान जिम्मेदार है?
    या और कोई?

    कही ऐसा तो नही अल्लाह
    ,ईश्वर पर भारी पड़ रहा है?

    ओ३म् शांतिः शांतिः शांतिः।

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