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ईश्वर नियंता है, न्यायकारी है, आधीन नहीं

मित्रो,

आज बात करते हैं सिद्धांतो और नियमो की – क्योंकि बिना इनके न तो धर्म संभव है न ही ज्ञान –

वैदिक विचार – ईश्वर ऐसा कुछ नहीं कर सकता जो सृष्टि नियम और सिद्धांत विरुद्ध हो – क्योंकि ईश्वर सर्वज्ञ है – न्यायकारी है – सत्य है – ज्ञानी है आदि आदि।

कुछ हिन्दू भाई धर्म तत्त्व से अनभिज्ञ होकर सृष्टि नियम व सिद्धांतो को ताक पर रखकर ईश्वर पर केवल दोष सिद्ध करके उसे न्यायकारी परमात्मा को अन्यायकारी और नियम विरुद्ध चलने वाला मान बैठते हैं – जिससे वो खुद ही नहीं जान पाते की ईश्वर क्या है – आइये एक छोटे से उदहारण से समझने की कोशिश करते हैं –

सिद्धांत क्या हैं और नियम क्या हैं – पहले ये समझना होगा –

सिद्धांत – जो अटल हो – सत्य हो – तर्कपूर्ण हो – जिनसे सिद्ध किया जाता है – ये छोटी सी परिभाषा है – समझने के लिए।

नियम – जो नियमित हो – जिनमे परिवर्तन न होता हो – जो मान्य हो – सत्य और न्याय पर आधारित हो – ये छोटी सी परिभाषा है – समझने के लिए।

2 + 2 = 4 ये एक बहुत छोटा सा सवाल है जिसे एक पहली कक्षा में पढ़ने वाला विद्यार्थी भी आसानी से हल कर सकता है – ये सवाल जिसका जवाब सैद्धांतिक और नियमानुसार नहीं बदल सकता – एक ही जवाब आएगा चाहे किसी भी प्रकार सिद्ध किया जाये।

यदि हम भी इस सवाल का उत्तर देंगे तो यही होगा – क्योंकि यह न्याय और सिद्धांतो की बात है – इसका कतई मतलब ये नहीं निकल सकता की हम इस सिद्धांत के आधीन हैं।

आधीनता और स्वाधीनता चेतन तत्वों में ही चरितार्थ हो सकती है – जड़ तत्वों में नहीं। क्योंकि सिद्धांत और नियम जड़ तत्व हैं – इसलिए कोई चेतन वस्तु इनके आधीन नहीं हो सकती।

अब कुछ लोग कहेंगे क्योंकि भारतीय संविधान है वो जड़ है मगर एक जज उसके आधीन है। तो यहाँ दो बाते समझने वाली हैं –

१. क्योंकि संविधान है – तो उसको किसीने बनाया होगा – और बनाने वाला चेतन होगा क्योंकि विचार और कर्म चेतन में ही संभव है जड़ में नहीं। इसलिए यदि आप कहो की कोई जज भारतीय संविधान के आधीन है तो पहले तो आपको यही सिद्धांत स्वीकार करना पड़ेगा की ईश्वर है क्योंकि इस सृष्टि के नियम और सिद्धांत स्वयं नहीं बन सकते उनको बनाने वाली कोई सत्ता होनी चाहिए जो चेतन हो इसलिए ईश्वर है।

२. जज आधीन नहीं, स्वतंत्र है क्योंकि वो अपने विवेक और न्याय से फैसला करता है। यदि जज किसी के आधीन हो तो न्याय नहीं कर सकता क्योंकि न्याय करने के लिए नियम होने चाहिए इसलिए वो नियमानुसार ही न्याय करेगा यदि नियमानुसार न्याय न करे तो पक्षपाती और दुष्ट कहलाये फिर उसको जज कोई कैसे कहे ? इसलिए की ईश्वर न्यायकारी है और न्याय के लिए नियम चाहिए क्योंकि वो सबको एकसमान न्याय करता है पक्षपात नहीं इसलिए वो नियंता है –

नियंता आधीन नहीं होता – नियंता नियम से न्याय करता है इसीलिए वो स्वतंत्र होना चाहिए – बिना स्वतंत्र हुए वो नियमपूर्वक न्याय नहीं कर सकता।

जीव नियमो के आधीन है क्योंकि जीव को कर्मो के फल भोग करने हैं। और ईश्वर स्वतंत्र है इसलिए नियमानुसार कर्मो के फल, जीव को भोग करवाता है।

अतः ईश्वर सर्वज्ञ, न्यायकारी है इसलिए स्वतंत्र है।

जीव अल्पज्ञ है, कर्मो के फल भोग हेतु परतंत्र है।

जगत और जगत का कारण जड़ है।

नमस्ते

शिवलिंग – ईश्वर के कल्याणकारी और मंगलमय होने का प्रमाण

कुछ लोग लिंग शब्द की व्याख्या ठीक नहीं करते –

कुछ लिंग शब्द की व्याख्या ही गलत करते हैं –

कुछ ऐसे भी हैं जो लिंग शब्द की व्याख्या अपने अनुरूप करते हैं –

अब पता नहीं ये अति विशिष्ट ज्ञानी – कौन से ज्ञान का प्रदर्शन करते है ?????

सदैव अर्थ का अनर्थ ही करते हैं –

उनमे कुछ ऐसे भी हैं जो बस केवल लिंग शब्द की व्याख्या कर “शिवलिंग” को सिद्ध करना चाहते हैं – जब इन व्यख्याकारो से इस शब्द के अर्थ का प्रमाण मांगो की ये अर्थ कहाँ से किस आधार पर किया तो वो उनके पास होता नहीं – फिर और ज्ञान का प्रदर्शन कर अपशब्द और भद्दी भद्दी गालियाँ शुरू हो जाती हैं – जब पुराणो से “शिवलिंग” बताओ तो मानते नहीं – बस अपना अनर्थ ही सिद्ध करने का प्रयोजन करते हैं जो ठीक विदित नहीं होता –

आइये देखते हैं – लिंग का अर्थ आखिर है क्या ???

लिंग का अर्थ होता है “प्रमाण” –
ब्रह्म सूत्र के चौथे अध्याय के पहले पाद का दूसरा सूत्र है-

“लिंगाच्च”

वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आया है. सूक्ष्म शरीर 17 तत्त्वों से बना है. शतपथ ब्राह्मण-5-2-2-3 में इन्हें सप्तदशः प्रजापतिः कहा है. मन बुद्धि पांच ज्ञानेन्द्रियाँ पांच कर्मेन्द्रियाँ पांच वायु. इस लिंग शरीर से आत्मा की सत्ता का प्रमाण मिलता है. वह भासित होती है. आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी के सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंशों से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन बुद्धि की रचना होती है. आकाश सात्विक अर्थात ज्ञानमय अंश से श्रवण ज्ञान, वायु से स्पर्श ज्ञान, अग्नि से दृष्टि ज्ञान जल से रस ज्ञान और पृथ्वी से गंध ज्ञान उत्पन्न होता है. पांच कर्मेन्द्रियाँ हाथ, पांव, बोलना. गुदा और मूत्रेन्द्रिय के कार्य सञ्चालन करने वाला ज्ञान.
प्राण अपान,व्यान,उदान,सामान पांच वायु हैं. यह आकाश वायु, अग्नि, जल. और पृथ्वी के रज अंश से उत्पन्न होते हैं. प्राण वायु नाक के अगले भाग में रहता है सामने से आता जाता है. अपान गुदा आदि स्थानों में रहता है. यह नीचे की ओर जाता है. व्यान सम्पूर्ण शरीर में रहता है. सब ओर यह जाता है. उदान वायु गले में रहता है. यह उपर की ओर जाता है और उपर से निकलता है. सामान वायु भोजन को पचाता है.

आइये अब देखते हैं शिव का अर्थ क्या होता है –

“मंगलमय और कल्याणकर्ता”

अब इन दोनों अर्थो को मिला कर देखिये –

शिव + लिंग = मंगलमय और कल्याणकर्ता + प्रमाण

तो इससे सिद्ध है की शिवलिंग का अर्थ हुआ

वह ईश्वर जो मंगलमय और कल्याणकर्ता है उसका यह प्रमाण है की – मृत्यु के उपरान्त प्राणी की आत्मा को आवृत्त रखनेवाला वह सूक्ष्म शरीर जो पाँचों, प्राणों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों सूक्ष्मभूतों, मन, बुद्धि और अहंकार से युक्त होता है परन्तु स्थूल अन्नमय कोश से रहित होता है। लोक-व्यवहार में इसी को सूक्ष्म-शरीर कहते हैं। विशेष—कहते हैं कि जब तक पुनर्जन्म न हो या मोक्ष की प्राप्ति न हो, तब तक यह शरीर बना रहता है।

शिव कल्याणकर्ता है – मंगलमय है इसीलिए वह ईश्वर (शिव) यह कर्मफल व्यवस्था है कि आप जब तक मोक्ष प्राप्त न कर लो – इस हेतु आपका पुनर्जन्म होता रहेगा – और ये सूक्ष्म शरीर इसी लिए प्रमाण है की आप स्थूल शरीर से उत्तम कर्म करते हुए मोक्ष प्राप्त करो – इसी कारण ईश्वर को शिव अर्थात कल्याणकारी कहा जाता है।

यह है वैज्ञानिक और वेदो के आधार पर “शिवलिंग” का अर्थ –

वह शिवलिंग नहीं जिसका पुराणो में बड़ा ही अश्लील चित्रण मिलता है –

मैं सभी हिन्दू भाइयो से विनम्र प्रार्थना करता हु कृपया सत्य को जाने – वेदो को पढ़िए – ज्ञान और विज्ञानं की और लौटिए – दुराग्रह को त्याग कर सत्य को जाने और शिव को शिव (मंगलमय और कल्याणकर्ता) ही जाने – अन्य नहीं –

नमस्ते –

द्रौपदी का चीरहरण – मिथक से सत्यता की ओर

मेरे सभी हिन्दू भाइयो और बहिनो –

जो जो भी व्यक्ति – महाभारत में ऐसा सोचते और समझते हैं की द्रौपदी के “चीर हरण” जैसा कुत्सित और भ्रष्ट आचरण हुआ था –

तो ऐसी विसंगति को दिमाग से पूरी तरह हटा देवे – और जो इस पोस्ट में लिखा जा रहा है – उसे ध्यान पूर्वक पढ़े – निष्पक्ष होकर जांच करे और जो सत्य हो उसे मान लेवे –

यहाँ पोस्ट को बड़ी करने का उद्देश्य नहीं है – इसलिए पॉइंट तो पॉइंट बात लिखूंगा – यदि किसी भाई को स्पष्टीकरण चाहिए तो विषय से सम्बंधित सन्दर्भ दिए गए हैं स्वयं जांच कर लेवे – तब भी कोई शंका शेष हो तो सवाल पूछ लेवे –

पहली बात – जब द्यूतक्रीड़ा महाभारत में आरम्भ हुई और युधिष्ठर ने स्वयं और अपने भाइयो को तथा अपनी “पत्नी द्रौपदी” को दांव पर लगा दिया – और हार गए –
तब यहाँ ये जानना आवश्यक है कि वो क्या हार गए और हारने के बाद क्या बन गए ?

देखिये –

दुर्योधन ने जब देखा की शकुनि ने युधिष्ठर से सब कुछ जीत लिया है तो आदेश दिया –

दुर्योधन बोला – विदुर ! यहां आओ। तुम जाकर पांडवो की प्यारी और मनोनुकूल द्रौपदी को यहाँ ले आओ। वह पापाचारिणी शीघ्र यहां आये और मेरे महल में झाड़ू लगाये। उसे वहीँ दासियों के साथ रहना होगा।

द्यूतपर्व – अध्याय ६६ श्लोक १

यहाँ स्पष्ट है – दुर्योधन ने पांडवो और द्रौपदी को केवल लज्जित ही करना था इसलिए विदुर को बोला गया की द्रौपदी जो एक कुल की रानी थी – को “दासी” और पांडव जो राजा थे उन्हें – “दास” बना कर लज्जित ही करना मात्र दुर्योधन का मंतव्य था –

विदुर के विरोध और नीतिवचन सुनने के बाद दुर्योधन ने “प्रतिकामिन” को आदेश दिया की द्रौपदी को यहाँ ले आवो (दासीरूप में झाड़ू लगाने हेतु)

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक २

प्रतिकामिन ने द्रौपदी से कहा –

द्रुपदकुमारी ! धर्मराज युधिष्ठर जुए के मदसे उन्मत्त हो गए थे। उन्होंने सर्वस्व हारकर आप को दांव पर लगा दिया। तब दुर्योधन ने आपको जीत लिया। याज्ञसेनी ! अब आप धृतराष्ट्र के महल में पधारे। मैं आपको वहां दासी का काम करवाने के लिए ले चलता हूँ।

यहाँ भी बिलकुल स्पष्ट है की द्रौपदी को केवल दासी के काम हेतु महल की सफाई आदि करवाने के उद्देश्य से दुर्योधन ने प्रतिकामिन को भेजा था – ताकि द्रौपदी और पांडवो का मानमर्दन हो सके – अन्य कोई मंतव्य दुर्योधन का नहीं था।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक ४

उपरोक्त श्लोको से स्पष्ट है – दुर्योधन का मंतव्य द्रौपदी का चीरहरण करना तो बिलकुल गलत और समाज को भ्रामित करने वाली बात गढ़ी गयी है।

आगे देखिये –

कुछ मित्र कहते हैं की दुःशासन द्रौपदी को जबरदस्ती पकड़ कर – सभाग्रह ले आया – यहाँ पर भी कुछ शंका खड़ी होती है –

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! दुर्योधन क्या करना चाहता है, यह सुनकर युधिष्ठर ने द्रौपदी के पास एक ऐसा दूत भेजा, जिसे वह पहचानती थी और उसी के द्वारा यह सन्देश कहलाया – “पाँचालराजकुमारी ! यद्यपि तुम रजस्वला और नीवी (नाभि) को नीचे रखकर एक ही वस्त्र धारण कर रही हो, तो भी उसी दशा में रोती हुई सभामे आकर अपने श्वसुर के सामने खड़ी हो जाओ।

“तुम जैसी राजकुमारी को सभा में आई देख सभी सभासद मन ही मन इस दुर्योधन की निन्दा करेंगे।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ श्लोक १८-२१

यहाँ धर्मराज युधिष्ठर की बात से भी प्रमाण मिलता है की द्रौपदी का चीरहरण जैसी घटना – समाज को भ्रमित करने हेतु कुछ धूर्तो ने रची – यदि दुर्योधन का मंतव्य केवल द्रौपदी का चीरहरण करना ही था – तो युधिष्ठर द्रौपदी को सभा में आने के लिए क्यों कहते ?

जबकि यह स्पष्ट है की द्रौपदी को युधिष्ठर ने सभा में आने के लिए दूत से बुलावा भेज दिया – और द्रौपदी भी सभा में आने को तईयार थी – तब ये कहना की दुःशाशन जबरदस्ती द्रौपदी को पकड़ कर सभा में ले आया संदेह प्रकट करता है – खैर यदि ये मान भी ले की दुःशासन ने द्रौपदी को बाल से खींच घसीट कर सभा में ले आया – तो उसका वृतांत महाभारत में देखिये

दुःशासन के खींचने से द्रौपदी का शरीर झुक गया। उसने धीरे से कहा -‘ओ मंदबुद्धि दुष्टात्मा दुःशासन। में रजस्वला हूँ तथा मेरे शरीर पर एक ही वस्त्र है। इस दशा में मुझे सभा में ले जाना अनुचित है।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३२

दुःशासन बोला – द्रौपदी ! तू रजस्वला, एकवस्त्रा अथवा नंगी ही क्यों न हो, हमने तुझे जुए में जीता है ; अतः तू हमारी दासी हो चुकी है, इसलिए अब तुझे हमारी इच्छा के अनुसार दासियों में रहना पड़ेगा।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३४

यहाँ दुःशासन के बोले शब्द देखिये – दुःशासन का उद्देश्य भी द्रौपदी का चीरहरण करना नहीं था – बल्कि यहाँ भी स्पष्ट है की कौरवो – दुर्योधन आदि को केवल पांडवो और द्रौपदी को “दास” आदि बनाकर भरी सभा में अपमानित ही करना था।

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! उस समय द्रौपदी के केश बिखर गए थे। दुःशासन के झकझोरने से उसका आधा वस्त्र भी खिसककर गिर गया था। वह लाज से गाड़ी जाती थी और भीतर ही भीतर दग्ध हो रही थी। उसी दशा में वह धीरे से इस प्रकार बोली

द्रौपदी ने कहा – अरे दुष्ट ! ये सभा में शास्त्रो के विद्वान, कर्मठ और इंद्र के सामान तेजस्वी मेरे पिता के सामान सभी गुरुजन बैठे हुए हैं। मैं उनके सामने इस रूप में कड़ी होना नहीं चाहती।

क्रूरकर्मा दुराचारी दुःशासन ! तू इस प्रकार मुझे ना खींच, ना खींच, मुझे वस्त्रहीन मत कर। इंद्र आदि देवता भी तेरी सहायता के लिए आ जाएँ, तो भी मेरे पति राजकुमार पांडव तेरे इस अत्याचार को सहन नहीं कर सकेंगे।

द्यूतपर्व – अध्याय ६७ : ३५-३७

यहाँ ही वह शब्द है जहाँ पर द्रौपदी को घसीटने के कारण – द्रौपदी के रजस्वला अवस्था में पहने हुए एक वस्त्र के सरकने से द्रौपदी के चीरहरण की कथा गढ़ ली गयी – जबकि ये चीरहरण नहीं था – केवल द्रौपदी को दुःशासन द्वारा खींचा गया –
घसीटा गया – जिसके परिणामस्वरूप द्रौपदी का एकमात्र पहना हुआ वस्त्र शरीर से थोड़ा सरक गया – जिसके आधार पर पूरी की पूरी मिथ्या कथा बना दी गयी – की द्रौपदी का चीरहरण हुआ –

यदि द्रौपदी का चीरहरण करना उद्देश्य ही नहीं था दुर्योधन का तो चीरहरण जैसी कुत्सित भ्रान्ति क्यों और किसलिए फैलाई गयी ?

इस लेख को ज्यादा बड़ा बनाने का कोई औचित्य नहीं – इसलिए यहाँ से स्पष्ट होगा की द्रौपदी का चीरहरण नहीं हुआ –

अब जो महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण की झूठी और बेबुनियाद कथा जोड़ी गयी है अगले लेख में उसका भंडाफोड़ करेंगे – कैसे “द्रौपदी का चीरहरण” घटना जो महाभारत में जबरदस्ती ठूंसा गया – और क्यों ?

शेष अगले लेख में अगले लेख का इन्तेजार करे –

सीता की उत्पत्ति – मिथक से सत्य की और

जनक के हल जोतने पर भूमि के अन्दर फाल का टकराना तथा उससे एक कन्या का पैदा होना और फिर उसी का नाम सीता रखना आदि असंभव होने से प्रक्षिप्त है । इस विषय में प्रसिध्द पौराणिक विद्वान स्वामी करपात्री जी ने स्वरचित ”रामायण मीमांसा’ में लिखा है – “पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है। जनक पुत्री सीता के नाम को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने वैदिक सीता ( = हलकृष्ट भूमि) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म ही भूमि से हुआ

बता दिया” ( पृ ० 89 ) अथवा यह हो सकता है कि किसी ने कारणवश यह कन्या खेत में फेक दी हो और संयोगवश वह जनक को मिल गई हो अथवा किसी ने ‘खेत में पडी लावारिस कन्या मिली है’ यह कहकर जनक को सौप दी हो फिर उन्होंने उसे पाल लिया हो । महर्षि कण्व को शकुन्तला इसी प्रकार मिली थी। और प्राप्ति के समय पक्षियों द्वारा संरक्षित एवं पालित (न कि प्रसूत) होने से उसका नाम शकुन्तला रख दिया था ।

धरती को फोड़कर निकलने बालों की “उद्भिज्ज” संज्ञा है। तृण, औषधि, तरु, लता आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं । मनुष्य, पश्वादि, जरायुज, अण्डज और स्वेदज प्राणियों के अन्तर्गत है । मनुष्य वर्ग में होने के कारण सीता की उत्पत्ति पृथिवी से होना प्रकृति विरुध्द होने से असंभव है।

सीता की उत्पति पृथिवी से कैसे मानी जा सकती है, जबकि बाल्मीकि रामायण में अनेक स्थलों में उसे जनक की आत्मजा एवं औरस पुत्री तथा उर्मिला की सहोदरा कहा गया है –

वर्धमानां ममात्मजाम् (बाल० 66/15) ;

जानकात्मजे (युद्ध० 115/18) ;

जनकात्मजा (रघुवंश 13/78)

महाभारत में लिखा है –

विदेहराजो जनक: सीता तस्यात्मजा विभो
(3/274/9)

अमरकोश (2/6/27) में ‘आत्मज’ शब्द का अर्थ इम प्रकार लिखा है –

आत्मनो देहाज्जातः = आत्मजः अर्थात जो अपने शरीर से पैदा हो, वह आत्मज कहाता है। आत्मा क्षेत्र (स्त्री) का पर्यायवाची है ; क्षेत्र और शरीर पर्यायवाची है।

क्षीयते अनेन क्षेत्रम

स्त्री को क्षेत्र इसलिए कहते हैं की वह संतान को जनने से क्षीण हो जाती है। पुरुष बीजरूप होने से क्षीण नहीं होता ।

रघुवंश सर्ग 5, श्लोक 36 में लिखा है –

ब्राह्मे मुहूर्ते किल तस्य देबी कुमारकल्पं सुषुवे कुमारम् ।
अत: पिता ब्रह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार ।।

महामना पं ० मदनमोहन मालवीय की प्रेरणा से संवत 2000 में विक्रमद्विसहस्राब्दी के अवसर पर संस्थापित अखिल भारतीय विक्रम परिषद द्वारा नियुक्त कालिदास ग्रंथावली के संपादक मण्डल के प्रमुख साहित्याचार्य पं ० सीताराम चतुर्वेदी ने उक्त श्लोक में आये “आत्मजन्मान्म” का अर्थ रघु की रानी की कोख से जन्मा किया हैं । तव जनक की ‘आत्मजा’ का अर्थ पृथिवी से उत्पन्न कैसे हो सकता है ? ब्रह्म मुहुर्त में जन्य लेने के कारण रघु ने अपने पुत्र का नाम अज (अज ब्रह्मा का पर्यायवाची है, क्योंकि ब्रह्मा का भी जन्म नहीं होता) रखा। अज का अर्थ जन्म न लेने वाला होता है। कोई मूर्ख ही कह सकता है कि अज का यह नाम इसलिए रखा गया था, क्योंकि वह पैदा नहीं हुआ था।

आत्मज या आत्मजा उसी को कह सकते हैं जो स्त्री – पुरुष के रज-वीर्य से स्त्री के गर्म से उत्पन्न हो, इसमें सामवेद ब्राह्मण प्रमाण है-

अंगदङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायते ……. आत्मासि पुत्र।
(1.5.17)

है पुत्र ! तू अंग-अंग से उत्पन्न हुए मेरे वीर्य से और हदय से पैदा हुआ है, इसीलिए तू मेरा आत्मा है । खेत से उत्पन्न होने से तो तृण, औषधि, वनस्पति, वृक्ष, लता आदि सभी आत्मज और आत्मजा हो जाएँगे और बाप-दादा की सम्पत्ति में भागीदार हो जाएंगे।

‘जनी प्रादुर्भावे’ से जननी शब्द निष्पन्न होता है। इससे जन्म देने वाली को ही जननी कहते है। पालन-पोषण करने वाली यशोदा माता कहलाती थीं, परन्तु जन्म न देने के कारण जननी देवकी ही कहलाती थी। बनवास काल में अत्रि मुनि
के आश्रम में अनसूया से हुई बातचीत में सीता ने कहा था –

पाणिप्रदानकाले च यत्पुरा तवाग्निसन्निधौ।
अनुशिष्टं जनन्या में वाक्यं तदपि में घृतम् ।।
अयो० 118/8-9

विवाह के समय मेरी जननी ने अग्नि के सामने मुझे जो उपदेश दिया था, उसे मैं किंचित भूली नहीं हूँ । उन उपदेशों को मैंने हृदयंगम किया है ।

क्या यहाँ विवाह के समय उपदेश देने वाली यह ‘जननी’ पृथिवी हो सकती है ?
और क्या बेटी को विदा करते समय बिलख बिलख कर रोने वाली पृथिवी थी ?
यहाँ माता को ही जननी कहकर स्मरण किया है, पृथिवी को जननी नहीं कहा।

तुलसीदास जी ने तो माता = जननी का नाम भी इस चौपाई
में लिख दिया है :-

जनक वाम दिसि सोह सुनयना ।
हिमगिरि संग बनी जिमि मैना ।।
(रामचरितमानस बालकाण्ड 356/2)

(विवाह वेदी पर) सुनयना (महारानी) महाराजा जनक की बाई और ऐसी शोभायमान थी, मानो हिमाचल के साथ मैना (पार्वती की माता) विराजमान हो।

पाणिग्रहण संस्कार के समय जिस प्रकार रामचन्द्र जी की पीढियों का वर्णन किया गया था उसी प्रकार सीता की भी 22 पीढियों का वर्णन किया गया। यदि सीता की उत्पत्ति पृथिवी ये हुई होती तो पृथ्वी से पहले की पीढ़िया कैसे बनती ?
इसे शाखोच्चार कहते है । राजस्थान में विवाह के अवसर पर दोनो पक्षों के पुरोहित आज भी 22 के ही नहीं, 30-40 पीढ़ियों तक के नामो का उल्लेख करते हैं । साधारणतया सौ वर्ष में चार पुरुष समझे जा सकते हैं। इस प्रकार 40 पीढियों में लगभग एक हजार वर्ष बनते है। अर्थात् सर्वसाधारण लोग भी मुहांमुही सैकडों वर्षो के पारिवारिक इतिहास का ज्ञान रख सकते थे। जिसका 22 पीढ़ियों का क्रमिक इतिहास ज्ञात है उसे कीड़े-मकौडों या पेड़-पौधों की तरह पृथिवी से उत्पन्न हुआ नहीं माना जा सकता। वस्तुतस्तु सीता के पृथिवी से उत्पन्न होने

सम्बन्धी गप्प का स्रोत विष्णु पुराण, अंश 4, अध्याय 4, वाक्य 27-28 है जिसका वाल्मीकि रामायण में प्रक्षेप कर दिया गया है। जन्म को पृथ्वी से मानकर सीता का अंत भी पृथ्वी में समाने की कल्पना करके ही किया गया है ।

अयोनिजा – सीता को अनेक स्थलों में अयोनिजा कहा गया है । पृथिवी से उत्पन्न होने का अर्थ माता-पिता के बिना अर्थात स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना उत्पन्न होना है। इसी को अयोनिज सृष्टि कहते है, क्योंकि इसमें गर्भाशय से
बाहर निकलने में योनि नामक मार्ग का प्रयोग नहीं होता । सृष्टि के आदि काल में समस्त सृष्टि अमैथुनी होती हैं –

अमैथुनी सृष्टि से सम्बंधित पोस्ट का लिंक – यहाँ से पढ़े
https://www.facebook.com/Aryamantavya/photos/a.1418444565059896.1073741828.1418437208393965/1618030795101271/?type=1&theater

यहाँ यह तथ्य जरूर जोड़ा जाता है की सृष्टि चाहे मैथुनी हो अथवा अमैथुनी – प्राणियों के शरीरो की रचना परमेश्वर सदा माता पिता के संयोग से ही करता है।
पर दोनों में अंतर केवल इतना है की आदि सृष्टि में माता (जननी) पृथ्वी होती है और वीर्य संस्थापक सूर्य (ऋग्वेद 1.164.3) में कहा है –

“द्यौर्मे पिता जनिता माता पृथ्वी महीयम”

अर्थात सृष्टि के आदि काल में प्राणियों के शरीरो का उत्पादक पिता रूप में सूर्य था और माता रूप में यह पृथ्वी। परमात्मा ने सूर्य और पृथ्वी – दोनों के रज वीर्य के संमिश्रण से प्राणियों के शरीरो को बनाया। जैसे इस समय बालक माता के गर्भ में जरायु में पड़ा माता के शरीर में रस लेकर बनता और विकसित होता है, वैसे ही आदि सृष्टि में पृथ्वी रुपी माता के गर्भ में बनता रहता है। इसी शरीर को साँचा रुपी शरीर भी कहा जाता है जिससे हमारे जैसे मैथुनी मनुष्य उत्पन्न होते रहते हैं।

सीता का जन्म सृष्टिक्रम चालु होने और साँचे तैयार होने के बाद त्रेता युग में हुआ था, अतः सीता के अयोनिजा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जनक उनके पिता थे और रामचरितमानस के अनुसार सुनयना उनकी माता का नाम था।

मेरी सभी बंधुओ से विनती है, कृपया लोकरीति, मिथक, दंतकथाओं आदि पर आंखमूंदकर विश्वास करने से अच्छा है – खुद अपनी धार्मिक पुस्तको और सत्य इतिहास को पढ़ कर बुद्धि को स्वयं जागृत करते हुए दूसरे हिन्दू भाइयो को भी जगाये – ताकि कोई विधर्मी हमारे सत्य इतिहास और महापुरषो महा विदुषियों पर दोषारोपण न कर सके

आओ लौटे ज्ञान और विज्ञानं की और –

आओ लौट चले वेदो की और

नमस्ते

धर्मात्मा महाराज जटायु कोई पक्षी गिद्ध नहीं – क्षत्रिय वर्ण के मनुष्य थे

महाराज जटायु की वंशावली –

ऋषि मरीचि कुलोत्त्पन्न – ऋषि ताक्षर्य कश्यप

और महाराज दक्ष कुलोत्त्पन्न – विनीता

ताक्षर्य कश्यप और विनीता के दो पुत्र –

गरुड़ और अरुण

अरुण के दो पुत्र हुए –

सम्पात्ति और जटायु

इन सभी महापुरषो का विवरण धीरे धीरे प्रस्तुत किया जायेगा – फिलहाल आज हम चर्चा करेंगे –

धर्मात्मा महाराज जटायु के बारे में –

महाराज जटायु – ऋषि ताक्षर्य कश्यप और विनीता के पुत्र थे, आप गृध्रराज भी कहे जाते हैं, क्योंकि गृध्र एक पर्वत क्षेत्र है – जिसकी आकृति एक गिद्ध की चोंच जैसी है – इनका राज्य – अवध (अयोध्या और मिथिला) के बीच का हिस्सा था – जो एक पहाड़ी क्षेत्र था। ऐसा में कोई भ्रान्ति वश नहीं लिख रहा हु – ना ही मेरी कोई कपोल कल्पना है – आप रामायण में रावण और जटायु का संवाद पढ़े तो स्पष्ट दीखता है – देखिये –

रावण को अपना परिचय देते हुए जटायु ने कहा –

मैं गृध कूट का भूतपूर्व राजा हूँ और मेरा नाम जटायु हैं

सन्दर्भ – अरण्यक 50/4 (जटायुः नाम नाम्ना अहम् गृध्र राजो महाबलः | 50/4)

क्योंकि उस समय में आश्रम व्यवस्था की मान्यता थी जिसकी वजह से समाज और देश व्यवस्थित थे – आज ये वयवस्था चरमरा गयी है जिसके कारण ही देश पतन की और अग्रसर है – खैर – उस समय धर्मात्मा जटायु वानप्रस्थ आश्रम में होंगे – तभी वे अपने राज्य को युवा हाथो में सौंप देश और समाज की व्यवस्था में लग गए – इसका महत्वपूर्ण परिणाम था की माता सीता को रावण से बचाने के लिए अपनी प्राणो की भी बाजी लगा दी –

कुछ लोग धर्मात्मा जटायु को – एक पक्षी – या फिर बहुत बड़ा शरीर वाला गिद्ध समझते हैं – ऐसे लोग केवल वो पढ़ते हैं जिससे उन्हें अपना मनोरथ सिद्ध करना हो – जो सत्य और न्याय से परिपूर्ण हो वो पढ़ना नहीं चाहते – क्योंकि यदि पक्षपात और दुराग्रह त्याग कर – सत्य अन्वेषी बने तो सब कुछ साफ़ और स्पष्ट है की वे एक मनुष्य ही थे – देखिये

1. जैसे की ऊपर वंशावली दी गयी है – धर्मात्मा जटायु – ऋषि मरीचि के कुल में उत्पन्न ताक्षर्य कश्यप ऋषि और महाराज दक्ष के कुल में उत्पन्न विनीता के पुत्र थे – तो भाई क्या एक मनुष्य के गिद्ध संतान उत्पन्न हो सकती है ?

2. प्रभु राम ने धर्मात्मा जटायु को अरण्य काण्ड में “गृध्राज जटायु” अनेक बार बोला है क्योंकि वो उन्हें जान गए थे की वो गृध्र प्रदेश नरेश जटायु हैं।

3. जटायु राज को इसी सर्ग में श्री राम ने द्विज कहकर सम्बोधित किया – जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए ही उपयोग होता है –

4. जटायु राज को श्री राम इसी सर्ग में अपने पिता दशरथ का मित्र बताते हैं।

5. जिस समय रावण सीता का अपहरण कर उसे ले जा रहा था तब जटायु को देख कर सीता ने कहाँ – हे आर्य जटायु ! यह पापी राक्षसपति रावण मुझे अनाथ की भान्ति उठाये ले जा रहा हैं । (सन्दर्भ-अरण्यक 49/38) – यहाँ भी जटायु महाराज को द्विज सम्बोधन है – और यहाँ द्विज किसी भी प्रकार से पक्षी के लिए नहीं हो सकता – क्योंकि रावण को अपना परिचय देते हुए – जटायु महाराज अपने को – गृध्र प्रदेश का भूतपूर्व राजा बता रहे हैं।

6. जटायु राज का इसी सर्ग के बाद अगले सर्ग में दाह संस्कार स्वयं श्री राम ने किया – कुछ लोग ध्यान पूर्वक पढ़ लेवे – क्योंकि बहुत से हिन्दू भाइयो के मन में विचार आता है की जटायु – एक बहुत विशाल – पर्वत तुल्य – और बृहद पक्षी (गिद्ध) थे – तो भाई मुझे केवल इतना बताओ –

यदि जटायु महाराज इतने ही विशाल गिद्ध थे – तो बाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड सर्ग 68 में – प्रभु श्री राम बाल्मीकि के शव को अपनी गोद में रखते हुए बड़े प्रेम से लक्ष्मण को कहते हैं – लक्ष्मण इनका दाह संस्कार हम करेंगे – प्रबंध करो – तब चिता पर जटायु महाराज को चिता पर लेटाकर – उनका दाह संस्कार प्रभु राम ने किया। तो बताओ भाई श्री राम इतने पर्वत तुल्य गिद्ध शरीर – को कैसे उठा कर चिता पर रखकर – दाह किया होगा ?

कुछ भाई अरण्य काण्ड के सर्ग ६७ का एक श्लोक प्रस्तुत करके कहते हैं की – श्री राम ने भी जटायु को गिद्ध ही समझा था – क्योंकि उन्होंने कहा की

“ये पर्वत के किंग्रे के तुल्य ने ही वैदेही सीता खा ली है, इसमें कोई संदेह नहीं।”

यहाँ पर्वत के किंग्रे तुल्य का सही अर्थ ना जानकार व्यर्थ ही आक्षेप करते हैं – पर्वत के किंग्रे तुल्य अर्थ बड़ा डील वाला – यानी औसत शरीर से बड़ा – और यहाँ वैदेही सीता खा ली है से तात्पर्य है की – उस वन में अनेक “जंगली – असभ्य – राक्षस प्रवर्ति के लोग निवास करते थे जो मांसभक्षी थे – इसलिए प्रभु राम ने ऐसी सम्भावना व्यक्त की। भाई कृपया समझ कर पढ़िए –

यदि पर्वत के किंग्रे तुल्य का अर्थ इतना ही बड़ा होगा – तो बताओ कैसे इतने बड़े भरी भरकम शरीर को प्रभु राम ने उठाकर चिता पर रखा होगा ? कैसे अपनी गोद में उस धर्मात्मा जटायु के सर को रखकर लक्ष्मण से वार्ता की होगी ?
इसी दाह संस्कार के बाद प्रभु राम ने – महाराज जटायु के लिए उदककर्म भी संपन्न किया था।

अब जहाँ तक हिन्दुओ को भी पता होगा – ये उदककर्म – मनुष्यो द्वारा – मनुष्यो के लिए ही किया जाता है – अब यदि फिर भी कोई धर्मात्मा जटायु को गिद्ध समझे – तो ये उसकी मूरखता ही सिद्ध होगी।

कृपया अपने महापुरषो के सत्य स्वरुप को जानिये – उनके बल, पराक्रम, शौर्य और वीरता को व्यर्थ ना करे। उनके पुरषार्थ का मजाक न बनाये। उन्हें पशु पक्षी तुल्य जानकार बताकर – समझकर – उनके चरित्र का मजाक ना स्वयं बनाये न किसी को बनाने ही दे।

कृपया वेदो की और लौटिए – सत्य और न्याय की और लौटिए

धन्यवाद

महर्षि दयानंद और मनुस्मृति के वचनो पर आक्षेप का उत्तर

हथिनी और हंसिनी चाल संपन्न युवती विवाह के लिए क्यों उपयुक्त है

सत्यार्थ प्रकाश – एक ऐसा कालजयी ग्रन्थ जो सभी आरोपों से आज तक मुक्त रहा है – क्योंकि इसमें कोई ऐसी बात नहीं लिखी गयी जो निरर्थक हो – सभी बाते – ऋषि ने वेदो और अनेको आर्ष ग्रंथो का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने के बाद ही लिखा। फिर भी कुछ लोग जानबूझकर अथवा स्वशंका से उत्पन्न कारणों से इस ग्रन्थ के कुछ हिस्सों की यदा कदा आलोचना करते रहते हैं। ऐसे आक्षेपों का इन्हे केवल एक लाभ उठाना है किसी प्रकार इस ग्रन्थ में खोट निकाल कर समाज को दिखा देवे जिससे समाज इस ग्रन्थ को निरर्थक मानकर त्याग दे और फिर ऐसे लालची लोगो की पूछ पुनः समाज में स्थापित हो जावे। कुछ ऐसे भी हैं जो स्वशंका उत्पन्न कर जवाब हासिल करना चाहते हैं। अंतर केवल इतना है की स्वशंका जिसमे उत्पन्न हुई वो सत्य को जानकार मिथ्या को तुरंत त्याग देगा इसमें शंका नहीं लेकिन जो वो लालची लोग हैं जिन्होंने इस आक्षेप को मढ़ा ही अपने प्रपंच के लिए है वो सत्य जानने के बाद भी इस आक्षेप को नहीं छोड़ेंगे।

हम बात कर रहे हैं कुछ लोगो द्वारा ऋषि के लिखे सन्दर्भ पर आक्षेप करने की तो पहले देखते हैं ऋषि ने आखिर लिखा क्या है :

ऋषि ने चतुर्थ समुल्लास में गृहस्थाश्रम के लिए आर्ष ग्रंथो में उपलब्ध व्यवस्थाओ को इंगित किया है। जिस प्रकार सम्पूर्ण सत्यार्थ प्रकाश में बिना आर्ष ग्रंथो के प्रमाण कुछ नहीं लिखा इसी प्रकार इस चतुर्थ समुल्लास में भी बिना आर्ष ग्रंथो के प्रमाण ऋषि ने कोई व्यवस्था नहीं की है।

चतुर्थ समुल्लास गृहस्थ आश्रम को इंगित करता है इसलिए पूरी व्यवस्था गृहस्थों के लिए कब क्या कैसी और क्यों होनी चाहिए से सम्बंधित है। जब ऋषि ने ये ग्रन्थ लिखा था तब की परिस्थिति पर एक बार नजर डालिये :

1. बाल विवाह से देश त्रस्त था।

2. दहेज़ पीड़ा का बोझ था।

3. महिलाओ को शिक्षा आदि अधिकार से वंचित रखना प्रथम दायित्व था।

4. सती प्रथा जैसी कुप्रथा और महाबुराई फैली थी।

5. बाल विवाह के कारण “अबोध विधवा” का दुःख।

ये कुछ कारण मैंने गिनाये – ऋषि ने इन पीडाओ को महसूस किया – एक नारी का दर्द जाना – महसूस किया की ये देश और धर्म के लिए कितना खतरनाक है। क्या इतने कार्यो से ज्ञात नहीं होता की ऋषि स्त्री विरोधी नहीं थे बल्कि “नारी के उत्थान” हेतु पूर्ण संकल्पित थे। क्या केवल कुछ मूढ़ व्यक्तियों की कल्पनाओ के आधार पर ऋषि दयानंद की विचारधारा को “नारी विरोधी” सिद्ध किया जा सकता है ?

क्या इन कुप्रथाओ विरोध करना अपराध था ?

ऋषि ने केवल सत्य बोला। और कुप्रथाओ का त्याग करने के लिए ही इस कालजयी ग्रन्थ को लिखा। ऋषि के अनेक महान कार्यो को ना देखकर – केवल स्वार्थवश कुछ बातो पर आक्षेप करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? चलो आपने आक्षेप किया – लेकिन सोच समझकर तो करते भाई – आइये देखिये जिस आक्षेप को तोड़ मरोड़कर पेश कर रहे उसमे प्रमाण क्या हैं और विज्ञानं क्या है – आइये देखिये :

आक्षेप 1. हथिनी और हंसिनी जैसी चाल जिस युवती की हो उससे विवाह करे, हिरणी जैसी चाल वाली लड़की से विवाह न करे।

उत्तर : आश्वलायन गृह सूत्र के अनुसार कन्या में निम्नलिखित शुभलक्षण होने चाहिए –

1. बुद्धि 2. रूप 3. लक्षण अर्थात शुभ लक्षण 4. शील 5. आरोग्य

रूप की परिभाषा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं की जिसमे वर का मन रमे उसे रूप कहते हैं।

आपस्तम्ब ऋषि का भी कथन है की –

“यस्यां मनशचक्षुषोनिबन्धस्तस्यामृद्धिरिति”

अर्थात जिसको देखने से, नेत्र और मन जहाँ बांध जाए, ऐसी कन्या से विवाह शुभ है।

अब कुछ महानुभाव जिन्होंने ऋषि पर आक्षेप कर दिया की चाल के बारे में लिखा यानी ऋषि ने चाल पर ध्यान दिया – मंत्रो को तवज्जो नहीं दी – वो आपस्तम्ब ऋषि के बारे में भी यही सोचेंगे की ऋषि का ध्यान कन्या के चेहरे पर था – ज्ञान आदि विषय पर नहीं।

कन्या के शुभलक्षणयुक्त होने पर बहुत जोर अनेको ऋषियों ने दिया है ताकि गृहस्थाश्रम में विघ्न न हो – दुःख क्लेश आदि उत्पन्न न हो – जैसे

मनु महाराज ने कहा – कन्या लक्षणान्विता होने चाहिए – कन्या अंगहीन न हो, न ही कोई अंग छोटा बड़ा हो, जिसके नाम में सौम्य हो, जो हंस या हाथी की भांति चलती हो, जिसके शरीर के रोम, केश और दांत पतले हो, जिसका शरीर मृदु हो, ऐसी कन्या से विवाह करना उचित है।

दक्ष तथा याज्ञवल्क्य ऋषि ने भी लिखा है की विवाह के पूर्व कन्या के लक्षणों को अवश्य देखे।

शातातप प्रणीत – “पृथ्वी चंद्रोदय” में लिखा है की जिसकी वाणी हंस के सामान हो और वर्ण मेघ की तरह हो अर्थात चिकनाई लिए हुए श्याम वर्ण, ऐसी कन्या से विवाह करने से गार्हस्थ सुख प्राप्त होता है।

नारद जी ने भी लिखा है की मृग के सामान जिसके नेत्र और ग्रीवा हो और हंस के सामान जिसकी गति और वाणी हो ऐसी स्त्री राजपत्नी होती है।

आजकल ऋषि के कथन का विरोध और मजाक उड़ाना फैशन बन गया है – ऋषि ने चतुर्थ समुल्लास में ग्रस्थ आश्रम के लिए लिखा जिसमे स्त्री लक्षणों के बारे में जो शास्त्रो में बताया गया – उन सम्भावनाओ – लक्षणों को बताया ताकि वर स्वयं अथवा वर के माता पिता आदि गुरुजन अच्छी कन्या का अन्वेषण करते समय अपने मन में यह निश्चय कर ले की अमुक कन्या में क्या क्या शुभ लक्षण हैं और उससे विवाह करना कहाँ तक उपयुक्त होगा।

शुभ लक्षणों का जानना इसलिए आवश्यक है ताकि भावी संतान सब सुख और गुणों से भरपूर है, दुर्गणों का लेशमात्र भी न हो। जिससे देश धर्म और समाज की व्यवस्था बानी रहे।

हाँ ये बात भी ठीक है कि स्त्री-लक्षण शास्त्र का ज्ञान करके यह कहना उचित नहीं है की अमुक की पत्नी अच्छी है, अमुक की पत्नी दुष्ट लक्षणा है, लेकिन इतना अवश्य है की यदि इन नियमो का यथावत पालन न किया जाए तो दो प्रकार के दोषो की सम्भावना है :

1. शुभाशुभ दोनों प्रकार के लक्षण प्रत्येक व्यक्ति में पाये जाते हैं। जिस प्रकार के लक्षण अधिक बलवान और विशेष संख्या में होते हों वे विपरीत लक्षणों को दबा देते हैं। “विवेक विलास” आर्ष ग्रन्थ तो नहीं लेकिन वहां एक पंक्ति समझने योग्य है :

“पुष्टं यादव देहे स्याल्लक्षणम् वाप्यलक्षणम्।
इतराब्दाद्यते तेन बलवत फलदं भवेत्।।

भावार्थ : हो सकता है किसी लक्षण से कोई स्त्री दुष्ट प्रतीत होती हो किन्तु उसमे ऐसे बलवान शुभ लक्षण भी हो जिनको हम नहीं देख सकते।

2. प्रत्येक स्थान पर ज्योतिष की भाँती लक्षण शास्त्र में भी देश, काल और पात्र का विचार करना उचित है।

आगे के पोस्ट में इसी विषय को जारी रखकर पुराण आदि ग्रंथो से प्रमाणित किया जाएगा की ऋषि का ज्ञान कितना उच्च कोटि का था। और मॉडर्न विज्ञानं भी पुष्टि करता है ये सिद्ध होगा

परमपिता परमात्मा ने चार ऋषियों को चारो वेदो का प्रकश उनके आत्मा में किया था

कोई वेद आगे पीछे पहले बाद में नहीं आया।

आक्षेप करिये – मगर जो आक्षेप का जवाब आपको मिल चूका – जिसमे आपकी सम्मति हो चुकी – तब पुनः उसी विषय को बार बार उठाना ये बुद्धिमानी नहीं – कृपया स्वयं एक बार इस पोस्ट को पढ़े फिर यदि कोई शंका हो तो बताये – अन्यथा इस सिद्धातं को जिस प्रकार सनातन मत मानता चला आ रहा है उसी प्रकार मानकर आगे बढ़िए – बाकी आपकी जैसी इच्छा वैसे करे।

वेदत्रयी : तीन प्रकार के मंत्रो के होने, अथवा वेदो मे ज्ञान,कर्म ओर उपासना तीन प्रकार के कर्तव्यो के वर्णन करने से वेदत्रयी कहे जाते है ।

यही बात सर्वानुक्रमणीवृत्ति की भूमिका मे ” षड्गुरुशिष्य” ने कही है-

”विनियोक्तव्यरूपश्च त्रिविध: सम्प्रदर्श्यते|
ऋग् यजु: सामरूपेण मन्त्रोवेदचतुष्टये||”

अर्थात् यज्ञो मे तीन प्रकार के रूप वाले मंत्र विनियुक्त हुआ करते है|

तस्माद यज्ञात सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद यज्ञुस्तस्मादजायत।। (यजु० 31.7)

उस सच्चिदानंद, सब स्थानो में परिपूर्ण, जो सब मनुष्यो द्वारा उपास्य और सब सामर्थ्य से युक्त है, उस परब्रह्म से ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और छन्दांसि – अथर्ववेद ये चारो वेद उत्पन्न हुए।

अन्य साक्षी :

यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपकशन।
सामानि यस्य लोमानी अथर्वांगिरसो मुखं।
स्कम्भं तं ब्रूहि कतमःस्विदेव सः।। (अथर्व० 10.4.20)

अर्थ : जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर है, उसी से (ऋचः) ऋग्वेद (यजुः) यजुर्वेद (सामानि) सामवेद (अंगिरसः) अथर्ववेद, ये चारो उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार रूपकालंकार से वेदो की उत्पत्ति का प्रकाश ईश्वर करता है की अथर्ववेद मेरे मुख के समतुल्य, सामवेद लोमो के सामान, यजुर्वेद ह्रदय के सामान और ऋग्वेद प्राण के सामान हैं, (ब्रूहि कतमःस्विदेव सः) चारो वेद जिससे उत्पन्न हुए हैं सो कौन सा देव है ? उसको तुम मुझसे कहो, इस प्रशन का उत्तर यह है की (स्कम्भं तम) जो सब जगत का धारणकर्ता परमेश्वर है, उसका नाम स्कम्भ है, उसी को तुम वेदो का कर्ता जानो। (ऋ० भा० भू० वेदोत्पत्ति विषय)

ब्राह्मणो ने भी इस मान्यता को यथावत स्वीकार किया है –

“एवं वा श्वरेस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्।
यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोथर्वांगिरसः।। (शत० 14.5)

अर्थात : उस महान शक्तिशाली परमात्मा के निश्वासरूप में प्रकट ये चारो वेद जो ऋग्वेद, यजुर्वेद सामवेद और अंगिरा से प्रकट अथर्ववेद के नाम से प्रसिद्द हैं।

अन्य साक्षी :

“तेभ्यस्तप्तेभ्यस्त्र्यो वेदा अजायन्त, अग्नेऋग्वेदो, वायोर्यजुर्वेदः, सुर्यात्साम्वेदः।” (श० 11.5.2.3)

अर्थात : उन तपस्वी ऋषियों के माध्यम से परमात्मा ने अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद, सूर्य से सामवेद, इस प्रकार त्रयीविद्यारूप चार वेद प्रकट किये।

अब जब वेद और ब्राह्मण ग्रन्थ दोनों ही प्रमाण हैं फिर भी कैसे कोई सनातनी ये आक्षेप कर सकता है की अथर्ववेद बाद में आया है ? क्या ये सनातनी ज्ञान होगा अथवा नवीन भूल ?

खैर मनुस्मृति से एक साक्षी और देते हैं :

अध्यापयामास पितण्शिशुरांगिरसः कविः।
पुत्रका इतिहोवाच ज्ञानेन परिग्रह्य तान।। (मनु० 2.126)

[इस प्रसंग में एक इतिवृत्त भी है] (अंगिरसः शिशुः कविः) आंगिवंशी “शिशु” नामक बालक विद्वान ने (पितृन्) अपने पिता के सामान चाचा आदि पितरो को (अध्यापयामास) पढ़ाया (ज्ञानेन परिग्रह्य) ज्ञान देने के कारण (तान “पुत्रकाः” इति ह उवाच) उनको हे पुत्रो इस शब्द से सम्बोधित किया।

कवि शब्द की व्युत्पत्ति : कविः शब्द ‘कु-शब्दे’ (अदादि) धातु से ‘अच इ:’ (उणादि 4.139) सूत्र से ‘इ:’ प्रत्यय लगने से बनता है। इसकी निरुक्ति है :

‘क्रांतदर्शनाः क्रांतप्रज्ञा वा विद्वांसः (ऋ० द० ऋ० भू०)
“कविः क्रांतदर्शनो भवति” (निरुक्त 12.13)

इस प्रकार विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों का दृष्टा, बहुश्रुत ऋषि व्यक्ति कवि होता है।
इसे “अनुचान” भी इस प्रसंग में कहा है [2.129] ब्राह्मणो में भी कवि के इस अर्थ पर प्रकाश डाला है –

“ये वा अनूचानास्ते कवयः” (ऐ० 2.2)

“एते वै काव्यो यदृश्यः” (श० 1.4.2.8)

“ये विद्वांसस्ते कवयः” (7.2.2.4)

शुश्रुवांसो वै कवयः (तै० 3.2.2.3)

शिशु अंगिरस – यह अंगिरावंश का एक विद्वान बालक था। बाल्यावस्था में मन्त्रद्रष्टा होने के कारण यह गुणाभिधान “शिशु” नाम से ही प्रसिद्द हो गया।
इसका यह आख्यान ताण्ड्य ब्राह्मण 13.3.23-24 और पञ्च ब्रा० 13.3.24 में यथावत आता है। वहां इसे “मन्त्रकृतां मन्त्रकृत” कहा है। ऋ० 9.112 सूक्त इसी शिशु ऋषि द्वारा दृष्ट है। सामवेद में यत्सोम चित्रम………” [उ० 3.2.13] तृच् को इसके द्वारा दृष्ट होने के कारण ही “शैशव साम” कहा गया है।

उपरोक्त वेद और इतिहास प्रमाणों से सिद्ध है की परमात्मा ने चारो ऋषिये के आत्माओ में एक एक वेद का प्रकाश एक ही समय में किया था। जब चारो वेदो ने स्वंय अर्थववेद के वेदत्व को स्वीकार किया है तो फिर अर्थववेद को नया बतलाकर वेद की सीमा से दूर करना मुर्खतामात्र है|

बाकी ज्ञानीजन विचार करे।

।। ओ३म ।।

क्या विवाह के समय श्री राम की आयु १६ वर्ष और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी ?

शंका निवारण –

कुछ विशिष्ट जनो को भगवान राम और माँ सीता के विवाह के सन्दर्भ में कुछ भ्रान्ति है. कुछ तर्क वाल्मीकि रामायण से लेकर ये निष्कर्ष निकला जा रहा है की विवाह के वक़्त माँ सीता की उम्र मात्र छ साल की थी, जो सही नहीं है.. बाल्मीकि रामायण से एक श्लोक का प्रमाण निकालकर कुछ लोग ऐसा प्रमाणित करना चाहते हैं की श्रीराम और माता सीता का विवाह “बालविवाह” था – अर्थात – श्री राम की आयु १६ और माता सीता की आयु ६ वर्ष थी – जबकि ये सत्य नहीं –

आइये बाल्मीकि रामायण में सबसे पहले इसी श्लोक पर चर्चा कर लेते हैं की वहां क्या लिखा है –

उषित्वा द्वादश समाः इक्ष्वाकुणाम निवेशने |
भुंजाना मानुषान भोगतसेव काम समृद्धिनी ||
(अरण्यकाण्ड ४७: ४)

ध्यान दे की इस श्लोक में द्वा और दश शब्द अलग अलग है. येद्वादश यानि बारह नहीं बल्कि द्वा “दो” को और दश “दशरथ” को संबोधित करता है. इसमें माँ सीता, रावन से, कह रही है की इक्ष्वाकु कुल के राजा दशरथ के यहाँ पर दो वर्ष में उन्हें हर प्रकार के वे सुख जो मानव के लिए उपलब्ध है उन्हें प्राप्त हुए है। क्योंकि इस श्लोक में इक्ष्वाकु कुल का नाम सीता जी बोल रही हैं – लेकिन उस कुल में दशरथ पुत्र राम से उनका विवाह हुआ – स्पष्ट है – पुरे श्लोक में दशरथ नाम कहीं और भी नहीं लिखा है – इसलिए “द्वा” दो को और “दश” – महाराज दशरथ को सम्बोधन है।

इसे पूर्ण रूप से न समझ कर – कुछ ऐसा अर्थ किया जाता है – एक उदहारण –

“उस समय छोटे बच्चो को कमरे में बंद रखा जाता था” –
इसे कुछ इस तरह अर्थ किया गया –

“उस समय छोटे बच्चो को कमरे में बंदर खा जाता था” –

श्लोक का अर्थ थोड़ा गलत करने से पूरा मंतव्य ही बदल गया।

मम भर्ता महातेजा वयसा पंच विंशक ||३-४७-१० ||
अष्टा दश हि वर्षिणी नान जन्मनि गण्यते ||३-४७-११ ॥

इस श्लोक में माँ सीता कह रही है की उस समय (वनवास प्रस्थान के समय) मेरे तेजस्वी पति की उम्र पच्चीस साल थी और उससमय मैं जन्म से अठारह वर्ष की हुई थी. इसे ये ज्ञात होता है की वनवास प्रस्थान के समय माँ सीता की उम्र अठारह साल की थी औरवो करीब दो साल राजा दशरथ के यहाँ रही थी यानि माँ सीता की शादी सोलह साल की उम्र के आस पास हुई थी. ये केवल सोच और समझ का फेर है।

सिद्धाश्रम : श्री राम १४-१६वे वर्ष में ऋषी विश्वमित्र के साथ सिद्धाश्रम को गए थे। इस तथ्य की पुष्टि वाल्मीक रामायण के बाल काण्ड के वीस्वें सर्ग के शलोक दो से भी हो जाती है, जिसमे राजा दशरथ अपनी व्यथा प्रकट करते हुए कहते हैं- उनका कमलनयन राम सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ और उसमें राक्षसों से युद्ध करने की योग्यता भी नहीं है।

उनषोडशवर्षो में रामो राजीवलोचन: न युद्धयोग्य्तामास्य पश्यामि सहराक्षसौ॥ (वाल्मीक रामायण /बालकाण्ड /सर्ग २० शलोक २)
चूँकि भगवान राम ऋषि विश्वामित्र के साथ चौदह अथवा सोलह वर्ष की उम्र में गए थे और उसके बाद ही उनका विवाह हुआ था इसे ये सिद्ध हो जाता है की प्रभु रामकी शादी सोलह वर्ष के उपरान्त हुई थी

श्री राम और लक्ष्मण ने – ऋषि विश्वामित्र के आश्रम सिद्धाश्रम में करीब १२ वर्ष तक निवास किया और ऋषि विश्वामित्र ने उन्हें ७२ शस्त्रास्त्रों का सांगोपांग ज्ञान तथा अभ्यास कराया –

यदि श्री राम की आयु ऋषि विश्वामित्र के साथ उनके आश्रम में जाते समय १६ नहीं १४ भी माने तो ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में विद्या ग्रहण करते हुए १२ साल व्यतीत हुए जिसका योग २६ वर्ष होता है –

उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध है की श्रीराम की आयु मिथिला में स्वयंवर जाते समय २५-२६ वर्ष थी और माता सीता की आयु १६ वर्ष थी।

अब भी यदि कुछ अतिज्ञानी नहीं मानते – तो कृपया बताये –

स्वयंवर के समय श्री राम की आयु यदि १६ वर्ष और माता सीता की आयु यदि ६ वर्ष मानते हो – तो वनवास क्या श्री राम २-४ वर्ष की आयु में गए ?

कृपया सत्य को जाने वेदो की ओर लौटिए –

नमस्ते –

नोट : प्रथम पद में यह द्वी शब्द रहता है – यहाँ पर द्वा द्विवचन का रूप है।

आदि सृष्टि के मनुष्यो की भाषा क्या थी और भाषा का विस्तार कैसे हुआ ?

भाषा की उत्पत्ति :

मानव जिस समय पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ उस समय बोलने और समझने की शक्ति समपन्न अवस्था थी – यह निर्देश पहले भी किया जा चुका है की आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था के उत्पन्न होते हैं – इसलिए उनमे बोलने की शक्ति थी तो यह भी मानना होगा की वर्ण भी थे जिनके द्वारा वह अपनी वाणी को प्रकट कर सके। यदि कोई यह माने की वर्ण नहीं थे तो उसके साथ यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा की मनुष्य आदिम अवस्था में गूंगा उत्पन्न हुआ। यदि गूंगा उत्पन्न हुआ तो फिर वह किसी भी हालत में बोलने वाला नहीं हो सकता। इसलिए निष्कर्ष यही निकलेगा की उसमे बोलने की शक्ति थी और जब बोलने की शक्ति थी तो ये भी तथ्यात्मक है की जो भाषा वो बोले उनके वर्ण भी होने चाहिए।

जो लोग कहते हैं की सेमिटिक भाषाए, हीब्रू अथवा अरबी आदि आर्य भाषाओ से स्वतंत्र हैं वह गलती पर हैं, कारण की मनुष्य किसी नवीन भाषा को तो कभी बना ही नहीं सकता ?

क्योंकि मैथुनी (सेक्स) सृष्टि के लोगो की भाषा सदैव उनके मातापिता तथा गुरु की भाषा होती है। लेकिन आदि मनुष्यो की भाषा पूर्ण (संस्कृत) भाषा ही थी ऐसा नियम इसलिए मान्य है क्योंकि आदि मनुष्यो का माता पिता और गुरु ईश्वर के अतिरिक्त और कोई थे ही नहीं। तो ऐसी स्थति में और कोई देशीय भाषा विरासत में मिलना असंभव है – तो साफ़ है उनकी केवल वही भाषा होगी जो सृष्टि के पदार्थो में विद्यमान हो – परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर प्रकट किये जाने वाले ज्ञान के पूर्ण माध्यम होने की उस भाषा में क्षमता हो और वह ऐसी भाषा होनी चाहिए जो सदा प्रत्येक कल्प में एक सी रहती हो तथा आगे बोल चाल की समस्त भाषाओ को उत्पन्न करने में सक्षम हो। विशेष बात यह है की वो किसी देश विदेश की भाषा न हो और न उससे पूर्व कोई ज्ञान वा भाषा पृथ्वी पर कहीं मौजूद हो

बस यही बात है जो विशेष वर्णन के योग्य है की परमेश्वर ने मानव के पृथ्वी पर आने के साथ ही साथ वेद ज्ञान की प्रेरणा मनुष्य में दी – और वह वेद की भाषा “संस्कृत” में ईश्वरीय ज्ञान मानव को मिला जो आदि ज्ञान और आदि भाषा – दोनों था।

वाणी भाषाओ का विस्तार –

ऊपर जो कुछ दर्शाया गया है उसका भाव यह है की आदि अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के शरीर तथा शरीर के सब अंग आदि आदर्श रुपी थे, जैसे वो आदि सृष्टि के मनुष्य मैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के लिए साँचे रुपी थे अर्थात मनुष्य समाज के प्रवर्तक थे वैसे ही आदि भाषा भी साँचा रुपी और सभी भाषाओ की प्रवर्तक होनी चाहिए। इसीलिए उस आदि भाषा का नाम संस्कृत है। संस्कृत का अर्थ होगा पूर्ण भाषा यानी जो पूर्ण भाषा हो वो संस्कृत कहलाएगी।

इसी प्रकार अपूर्ण भाषाए जो वेद भाषा से संकोच, अपभ्रंश और मलेच्छित आदि होकर मनुष्य के बोल चाल की भाषाए बनती हैं। क्योंकि संस्कृत भाषा के दो भाग हैं –

1. वैदिक संस्कृत
2. लौकिक संस्कृत

प्राय सभी पश्चिमी विद्वान और अनेक भारतीय अनुसन्धानी भी संस्कृत को ही सभी भाषाओ का मूल मानते हैं – पर ध्यान देने वाली बात है की लौकिक संस्कृत की जन्मदात्री वैदिक संस्कृत है। वैदिक संस्कृत ही आदि भाषा है क्योंकि वैदिक संस्कृत अर्थात वेद की भाषा कभी भी किसी भी देश वा किसी जाती की अपने बोलचाल की भाषा नहीं रही है – क्योंकि वेदो में वाक्, वाणी आदि पदो का प्रयोग देखा जाता है भाषा का नहीं।

अब हम समझते हैं भाषा का विस्तार किस प्रकार हुआ – देखिये वेद में वैदिकी वाणी को नित्य कहा है –

तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया।

(ऋग्वेद 8.75.6)

नित्यया वाचा – अर्थात नित्य वेदरूप वाणी – यानी की वैदिक संस्कृत यह सब वाणियों (भाषाओ) की अग्र और प्रथम है –

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्नं

(ऋग्वेद 10.71.1)

प्रभु से दी गयी वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे।

ईश्वर की प्रेरणा से यह वाणी सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकट होती है।

यज्ञेन वाचः पदवीयमायणतामानवविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।

(ऋग्वेद 10.71.3)

प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं इससे अन्य यज्ञीय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है – इसी मन्त्र में आगे लिखा है –

इस ही प्रथम, निर्दोष और अग्र वाणी को लेकर लोग बोलने की भाषा का विस्तार करते हैं।

तामाभृत्या व्यदधुः पुरूत्रा तां सप्त रेभा अभी सं नवंते।।

(ऋग्वेद 10.71.3)

इस वाणी को ऋषि मानव समाज में प्रचारित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दो से युक्त है अर्थात २ कान – २ नाक – २ आँख और एक मुख ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं –

उपरोक्त प्रमाणों और तथ्यों से सिद्ध होता है की मनुष्य की एक ही भाषा थी – और मनुष्यो ने इसी वेद वाणी से अर्थात प्रथम व पूर्ण भाषा संस्कृत से – अपूर्ण भाषाए – अर्थात जितनी भाषाए आज प्रचलित हैं उनका निर्माण किया – लेकिन वैदिक संस्कृत में आज भी कोई फेर बदल नहीं हो सका – क्योंकि वैदिक संस्कृत पूर्ण भाषा है –

कृपया सत्य को जानिये –

वेद की और लौटिए —

वेद, विज्ञानं, और सृष्टि उत्पति के युवा मनुष्य

नमस्ते मित्रो,

अमैथुनी सृष्टि के मनुष्य कैसे और किस अवस्था में उत्पन्न हुए होंगे ?

जैसे की आपने विषय पढ़ा – जो बहुत ही गूढ़ है – फिर भी हम कोशिश करेंगे इस विषय पर ध्यान रखकर – वेदो के विज्ञानं को समझने की – वेदो के अनुसार आदि सृष्टि अमैथुनी होती है – पहले समझते हैं ये अमैथुनी सृष्टि क्या है ?

अमैथुनी सृष्टि से अभिप्राय उस सृष्टि से है जिसमे जीवो के शरीर बिना मैथुन (सेक्स) द्वारा उत्पन्न होते हैं – ऐसे शरीर उत्पन्न होने के बाद ही मैथुनी सृष्टि – अभी जो आप देख रहे इस प्रकार संतति उत्पन्न करने वाली होती है।

अब कुछ लोग सोचेंगे – जब प्रकृति का नियम ही मैथुनी सृष्टि से है तो फिर किसप्रकार और क्यों अमैथुनी सृष्टि होती है ? कुछ सोचेंगे ऐसा कैसे हो सकता है ? कुछ कहेंगे वेद सदा ही ज्ञान विज्ञान और तर्क की कसौटी पर किसी तथ्य को कसता है मगर यहाँ अमैथुनी सृष्टि के लिए कौन सा विज्ञानं और तर्क है ? कुछ भाई बिना कुछ सोचे विचार ही इस पोस्ट को लाइक कर देंगे और कमेंट में अपने विचार भी प्रकट नहीं करेंगे –

खैर पहले हम जांच करते हैं की अमैथुनी सृष्टि किस प्रकार होती है :-

हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते ।यद्यस्य सोऽदधात्सर्गे तत्तस्य स्वयं आविशत् ।।

अर्थ : हिंस्रकर्म-अहिंस्र, मृदु (दयाप्रधान) क्रूर, धर्म घृत्यादि-अधर्म, सत्य असत्य, जिसका जो कुछ (पूर्वकल्प का) स्वयं प्रविष्ट था, वह वह उस उस को सृष्टि के समय उस (ईश्वर) ने धारण कराया। (२९)

यथा र्तुलिङ्गान्यृतवः स्वयं एव र्तुपर्यये ।
स्वानि स्वान्यभिपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनः।।

अर्थ : जैसे वसंत आदि ऋतुएँ अपने अपने समय में निज निज ऋतु चिन्हो को प्राप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मनुष्यादि भी अपने अपने कर्मो को पूर्व कल्प के बचे कर्मानुसार प्राप्त हो जाते हैं। (३०)

(मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक २९-३०)

जिस प्रकार प्रलय काल में सभी जीव सुषुप्ति की अवस्था में गहन निद्रा में होते हैं, जैसे ही सृष्टि का समय आता है ईश्वर जीव के पूर्व कल्प के कर्मो अनुसार उचित फल देकर आदि सृष्टि में उत्पन्न उचित देह द्वारा फल भोग करवाते हैं।

अब सवाल उठेगा ये देह कैसे बनेगी ?

तो उसका जवाब है –

महर्षि मनु ने जो ऋतुओं की उपमा देकर आदि अमैथुनी सृष्टि का वर्णन किया है, यह बहुत ही सारगर्भित है, महर्षि का आशय कुछ इस प्रकार है जैसे ऋतुओं के चिन्ह बिना श्रम विशेष स्वाभाविक ही प्रगट होने लगते हैं। वसंत ऋतू में वृक्षों में वह खमीर गर्मी सर्दी के नियत प्रभाव से उत्पन्न होने लगता है और सर्वत्र बाग़ खिले फूलो से भर जाता है। भूमि की गर्मी सर्दी के प्रभाव से ऐसी दशा स्वयमेव ही हो जाती है की स्वयं ही शंखपुष्पी आदि अनेक फूलवाली औषधीय निकल आती हैं।
ठीक ऐसे ही वसंत ऋतू में भूमि को यदि गर्भाशय मान ले तो कोई संशय नहीं होगा क्योंकि ऋतुओं के परिवर्तन का कारण जल गर्मी की कमीबेसी इसी प्रकार आदि सृष्टि के समय पर पृथ्वी अत्यंत गर्म होती है ऐसा ब्राह्मण ग्रन्थ भी कहते हैं और हाल के वैज्ञानिक भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं –

एक अवस्था में पृथ्वी और द्यौ साथ थे :

इमौ लोको सह सन्तौ व्यैताम। जै० ब्रा० १।१४५

इमौ वै लोको सहास्ताम्। एत० ब्रा० ७।१०।१

शतपत ब्रा० (७।१।२२३) आदि अनेक ब्राह्मण ग्रन्थ में श्लोक पाये जाते हैं जिनका
अर्थ है सूर्य और पृथ्वी पहले साथ ही साथ थे। बाद में पृथक हुए

इमौ वै सहास्ताम। ते वायु वर्यवात। तै० शा० ३।४।३

जब पृथ्वी सूर्य से अलग हुई तब बहुत गर्म थी इस हेतु उसमे मनुष्यादि प्रजा का उत्पन्न होना विज्ञानं सम्मत नहीं होता – इसलिए पृथ्वी का उचित तापमान बनाने हेतु वर्षा की गयी और उचित समय पर पृथ्वी और जल के संपर्क से मनुष्य आदि की उत्पत्ति से तीन चतुर्युगी पूर्व वृक्ष औषधियां आदि उत्पन्न हुई –

या औषिधी पूर्वा जाता देमयस्त्रियुग पुरा।
मनै नु बभ्रूणामह शत धामानि सप्तच।।
(ऋग्वेद 10.97.1)

औषधियां मनुष्य से तीन चतुर्युगी पूर्व उत्पन्न होती हैं।

ये सिद्धांतभूत नियम है जो वेदो में इस विज्ञानं के सम्बन्ध में पाये जाते हैं।

सिद्धांतो को लेकर ब्राह्मण आदि ग्रंथो में विस्तार और क्रम आदि दिखलाया गया है।

तस्मादात्मन आकाश सम्भूत। आकाशाद्वायु। वायोरग्नि। अग्नेराप। अदभ्य पृथ्वी। पृथिव्या औषधय। औश्विम्यो न्नम्। अन्नात्पुरुष।
तै० उ० 2.1

अर्थ : परमात्मा की निमित्तता से प्रकृति से आकाश उत्पन्न हुआ। आकाश से वायु। वायु से अग्नि और अग्नि से जल। जल से पृथ्वी और पृथ्वी से औषधीय। इनसे अन्न और अन्न से पुरुष उत्पन्न हुआ।

यह एक वैज्ञानिक क्रम है जो उपनिषद में वर्णित है।

तो पृथ्वी में आदि सृष्टि के मनुष्य आदि प्रजा उत्पन्न करने के लिए वसंत आदि ऋतू में गर्भ आदि का उचित तापमान जब आया तब ईश्वर ने “वीर्य” को गर्भ (पृथ्वी) में धारण करवाया।

यहाँ वीर्य उस सामग्री का नाम है जो गर्भ में भ्रूण बनाने में उपयोगी पदार्थ विद्या है – जैसे वीर्य में अनेक गुण (प्रॉपर्टीज) होती हैं – वैसे ही रज में होते हैं – और गर्भ में उचित तापमान होता है जिससे गर्भ में भ्रूण बनता है।

यदि हमें ४ लोगो का भोजन बनाना हो – तो नमक हल्दी मिर्च आदि मसाला – सामान्य ही उपयोग होगा – परन्तु यदि ज्यादा लोगो का खाना बनाना हो तो अवश्य ही ज्यादा हल्दी मिर्च आदि मसाला प्रयुक्त होगा – ठीक इसी प्रकार जब आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था में उत्पन्न होते हैं – तब उत्तम और उचित वीर्य से उस अवस्था के मनुष्य उत्पन्न होते हैं – यदि विज्ञान रज-वीर्य आदि के गुण (प्रॉपर्टीज) ठीक प्रकार जांच लेवे तो विज्ञानिक स्वयं स्वतंत्र रूप से वीर्य का निर्माण कर सकते हैं मगर ऐसा होना अभी हाल के अनुसन्धानियो द्वारा संभव नहीं मगर विज्ञानं ने इतनी तरक्की तो कर ही ली है की “कृत्रिम गर्भ” को बना सके। आने वाले कुछ वर्षो में शायद ये तकनीक ठीक काम करने लगे –

http://en.wikipedia.org/wiki/Artificial_uterus

ठीक इसी प्रकार यदि रज और वीर्य आदि के गुण धर्म (प्रॉपर्टीज) भी ज्ञात कर लेवे तो स्वतंत्र वीर्य – विज्ञानिक स्वयं निर्माण कर सकते हैं। और उचित समय पर जब गर्भ (पृथ्वी) में मनुष्यादि देह में जीव का संयोग ईश्वर को करना होता है तब विद्युत अग्नि आदि से जीव का शरीर से संयोग होता है और जगत में मनुष्य आदि प्रकट होते हैं।

आपो ह यादवृहतीविशवमायन गर्भदयाना जनयतिरग्निम्। (ऋग्वेद म. १० सूक्त १२१ मन्त्र ७)
कारण भूत जले गर्भ में अग्नि को धारण करती हुई विश्व को प्रकट करती हैं।

अब कुछ लोग सोचेंगे – ये युवा अवस्था में ही क्यों आदि सृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं ? तो मित्रो इसका बहुत ही सुन्दर और सरल जवाब ऋषिवर दयानंद ने दिया है –
ऋषि ने सत्यार्थ में इस सवाल का जवाब दिया है –

“आदि सृष्टि में मनुष्य युवावस्था में उत्पन्न होता है क्योंकि जो बालक उत्पन्न होता तो उसके पालन के लिए दूसरे मनुष्य आवश्यक होते और जो वृद्धावस्था में उत्पन्न करता तो मैथुनी सृष्टि न होती। इसलिए युवावस्था में ही आदि सृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं।

तनिक विचार किया जाए तो ये बात सिद्ध भी सही होती है और ऊपर के लेख में वैज्ञानिक और तार्किक रूप से यही सत्य सिद्धांत समझाने का प्रयास किया गया है =

किसी भी लेख में भूलचूक होना स्वाभाविक है – कृपया लेख को पढ़कर अपने सुझाव और परामर्श अवश्य देवे – यदि कोई त्रुटि रह गयी हो तो क्षमा करे

लौटो वेदो की और

नमस्ते