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वेद और मनुस्मृति का मूल

कुछ पौराणिक महाज्ञानी और अल्पबुद्धि लोग दोनों ही कुछ दिनों से एक विषय पर वार्तालाप करते चले आ रहे हैं, विषय है या सवाल है कुछ भी है वो इस प्रकार है –

मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है ?

इस सवाल का जवाब देने से पूर्व हम देखते हैं मूल का अर्थ क्या होता है ?

मूल का अर्थ होता है आधार, बुनियाद, जड़, आदि। यानी इस सवाल को इस प्रकार समझा जा सकता है –

मनुस्मृति का आधार वेद में कहाँ है ?

यहाँ दो बाते समझनी चाहिए –

1. वेद अपौरुष्य हैं – अर्थात वेद ईश्वर का नित्य ज्ञान है जो आदि सृष्टि में ही चार ऋषियों के ह्रदय में प्रकाशित किया गया था। इससे सिद्ध है की वेद में इतिहास नहीं हो सकता और जो वेद में इतिहास खोजे वो गधे के सर पर सींग खोजने का व्यर्थ कार्य ही कर रहा है। इसी कारण से वेदो को श्रुति कहा गया है। ये परंपरा सनातन काल से चली आ रही है पर खेद की आज कुछ तथाकथित विद्वान अपने स्वार्थ को पूरा करने के चक्कर में इस सनातन परम्परा का अपमान करने से भी नहीं चूक रहे।

2. मनुस्मृति महाराज मनु द्वारा बनाया गया मानवो के लिए निर्मित आचार, व्यव्हार आदि धर्मशास्त्र है जिसे स्मृति कहा गया है। इस धर्मशास्त्र में मनुष्यो को क्या कर्म करने और क्या नहीं करने आदि विषयो से सम्बंधित है, कहने का तात्पर्य है की धर्म पर चलना और अधर्म से पृथक रहने का मनुस्मृति में विधान किया गया है।

अब दोनों तथ्यों को ध्यान में रखकर ये तो सिद्ध हो जाता है की मनुस्मृति वेदो के बहुत बाद की रचना है और मनुस्मृति में महाराज मनु ने वेदो के मंत्रो को देख पढ़ कर बहुत विचार करने के उपरान्त ये धर्मशास्त्र बनाया था। ताकि समस्त मानव जाति का कल्याण हो।

अब सवाल है की श्रुति और स्मृति में अंतर क्या है ?

सामान्य रूप से वेद को ‘श्रुति कहा जाता है और धर्मशास्त्रा को ‘स्मृति। महाराज मनु ने स्पष्ट रूप से स्मृति को ‘धर्मशास्त्रा कहा है-

श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रां तु वै स्मृति:।

-मनुस्मृति 2/10

भावार्थ : वेद धर्म के मूल हैं। वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्रा में वर्णन हुआ है।

तो यहाँ स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया की धर्म का मूल वेद है और वेद में प्रतिपादित धर्म का ही सरल रूप से धर्मशास्त्र यानी मनुस्मृति में वर्णन हुआ है।

इससे ये भी सिद्ध हुआ की मनुस्मृति का मूल वेद ही है। और इस आक्षेप का समाधान भी हो गया की मनुस्मृति का मूल वेद में कहाँ है।

महर्षि दयानंद और पंडित तारचरण के मध्य शास्त्रार्थ हेतु जो संवाद हुआ वो पठनीय है :

महर्षि दयानंद : क्या आप वेदो का प्रमाण मानते हैं वा नहीं ?

पंडित तारचरण : जो वर्णाश्रम में स्थित हैं उन सबको वेदो का प्रमाण ही है।

यहाँ पंडित तारचरण को भी सत्यभाषण ही करना पड़ा क्योंकि जो वेदो को प्रमाण न मानते ऐसा कहते तो बहुत ही निंदा होती – लेकिन ध्यान योग्य बात है की जब वेद को स्वयं ही प्रमाण मान लिया तब अन्य प्रमाण की इन्हे आवश्यकता क्या पड़ी ?

महर्षि दयानंद : कहीं वेदो में पाषाणादि मूर्ति पूजन का प्रमाण है वा नहीं ? यदि है तो दिखाइए और जो न हो तो कहिये नहीं है।

पंडित तारचरण : वेदो में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जो एक वेदो का ही प्रमाण मानता है औरो का नहीं उसके प्रति क्या कहना चाहिए ?

यहाँ ध्यान से पढ़ने वाली बात है – ऋषि ने केवल मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में सवाल किया की क्या वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण है ? इस पर तारचरण जी से कुछ कहते नहीं बना क्योंकि वो जानते थे की वेदो में मूर्तिपूजा का प्रमाण नहीं इसलिए अन्य प्रमाणों की और जोर देकर कहा की अन्य प्रमाण भी साक्षी के तौर पर लेने चाहिए मगर तारचरण जी ये भूल गए की खुद भी ऊपर उन्होंने स्वयं माना की जो भी वर्णाश्रम में स्थित है उसके लिए वेद ही प्रमाण है। तब जब वेद ही को वर्णाश्रम में स्थित के लिए प्रमाण मान तब अन्य प्रमाण की साक्षी क्यों ?

महर्षि दयानंद : औरो का विचार पीछे होगा। वेद का विचार मुख्य है। इस निमित्त इसका विचार पाहिले ही करना चाहिए क्योंकि वेदोक्त ही कर्म मुख्य है और मनुस्मिृत आदि भी वेदमूलक है इससे इनका भी प्रमाण है क्योंकि जो वेद विरुद्ध और वेदो में अप्रसिद्ध है उनका प्रमाण नहीं होता।

यहाँ ध्यान योग्य पढ़ने वाली बात है, क्योंकि इससे पंडित तारचरण का पंडितव और महर्षि दयानंद का अद्भुद ज्ञान दोनों ही समझ आ सकते हैं – देखिये महर्षि ने कहा क्योंकि मनुस्मृति वेद पर आधारित है अर्थात जो वेद सम्मत है उसको महाराज मनु ने भी धर्म कहा और जो वेद विरुद्ध है उसे अधर्म कहा – इससे सिद्ध है की मनुस्मृति वेदमूलक है। मगर पंडित तारचरण की पंडताई देखिये :

पंडित तारचरण : मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ?

अब देखिये धूर्तता और छल, ऋषि ने कहा मनुस्मिृति वेदमूलक है यानी वेद सम्मत बात मनुस्मृति में धर्म कहा है, मगर तारचरण जी अपनी धूर्तता करते हुए मनुस्मृति का वेदो में कहाँ मूल है ये सवाल पूछते हैं, खैर फिर भी महर्षि ने बहुत ही अच्छा जवाब देते हुए कहा :

महर्षि दयानंद : जो जो मनुजी ने कहा है सो सो औषधियों का भी औषध है ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है।

यहाँ ये बात बहुत ही गूढ़ है जो महर्षि ने बताई – पंडित तारचरण समझ गये इसलिए अब इस विषय से हट गए क्योंकि जो इसी विषय पर रहते तो वेदो से प्रमाण देना होता की मूर्तिपूजा वेद सम्मत है – जो की कभी दे नहीं सकते थे – इसलिए फ़ौरन एक दूसरे पंडित विशुद्धांनंद स्वामी ने प्रकरण को बदलते हुए आक्षेप करने शुरू करे।

इतने से ही पाठकगण समझ लेंगे की पौराणिक व्यर्थ ही आक्षेप मढ़ते हैं जवाब उनपर आजतक नहीं मगर फिर भी आक्षेप महर्षि पर लगाने हैं, खैर हम यहाँ ऋषि के समर्थन में और अनेक ऋषियों जैसे महर्षि व्यास और वाल्मीकि जिन्होंने मनु महाराज के श्लोको को अपने ग्रंथो में महत्त्व प्रदान किया पठनीय है :

महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक –

महर्षि वेदव्यास (कृष्णद्वेपायन ) रचित महाभारत में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा अनेकों स्थानो पर आयी है किन्तु मनु में महाभारत वा व्यास जी का नाम तक नही ।

महाभारत में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –
मनुनाSभिहितम् शास्त्रं यच्चापि कुरुनन्दन ! महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ३ ५
तैरेवमुक्तोंभगवान् मनु: स्वयम्भूवोSब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , अ० ३ ६ – श ० ५
एष दयविधि : पार्थ ! पूर्वमुक्त : स्वयम्भूवा । महाभारत अनुशासन पर्व , अ० ४ ७ – श ० ५ ८
सर्वकर्मस्वहिंसा हि धर्मात्मा मनुरब्रवीत् । महाभारत शांतिपर्व , मोक्षधर्म आदि ।
अद्भ्योSग्निब्रार्हत: क्षत्रमश्मनो लोहमुथितं ।
तेषाम सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिशु शाम्यति ।। – मनु अ० ९ – ३ २ १

ठीक यही मनु का श्लोक महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ४
में आया है और महाभारत के इस श्लोक से ठीक पूर्व २ ३ वें श्लोक में आया है –
“मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना”
अर्थात हे राजेंद्र ! मनु नाम महात्मा ने इन श्लोकों को कहा है !

इसी प्रकार मनु के जो जो श्लोक ज्यों के त्यों महाभारत में है ;
मैं यहाँ अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ

मनु ० १ १ /७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ५
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ९
मनु ० १ १ /१८ ० – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ३ ७
मनु ० ६ /४५ – महा० शांति अ ० २४५ – श ० १५
मनु ० २ /१२० – महा०अनु ० अ ०१०४ – श ० ६४

अब वो श्लोक लिखते है जो मनु के है परन्तु कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
यश्च विप्रोSनधियान स्त्रयते नाम बिभ्रति । । – मनु २ /१५७

यथा दारुमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृग: ।
ब्राह्मणश्चानधियानस्त्रयते नाम बिभ्रति । । -महा शांति ३६/४७

अब केवल उनके श्लोक नम्बर ही लिखा रहा हूँ जो कुछ परिवर्तन के साथ आयें है –

मनु ० १ १ /४ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ४
मनु ० १ १ /१२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ७
मनु ० १ १ /३७ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० २ २
मनु ० ८ /३७२ – महा० शांति अ ० १६५ – श ० ६३
मनु ० २ /२३१ – महा० शांति अ ० १०८ – श ० ७
मनु ० ९ /३ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० १४
मनु ० ३ /५५ – महा० अनु अ ० ४६ – श ० ३

लगभग मनु के ५ ० ऐसे श्लोक है जो ज्यों के त्यों वा कुछ परिवर्तन के साथ महाभारत में आये है ।
वाल्मीकि रामायण में मनुस्मृति के श्लोक –

महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण में मनुस्मृति के श्लोक व् मनु महाराज कि प्रतिष्ठा आयी है किन्तु मनु में वाल्मीकि , राम जी आदि का नाम तक नही ।

वाल्मीकि रामायण में मनु महाराज की प्रतिष्ठा –

किष्किन्धा काण्ड में जब श्री राम अत्याचारी बाली को घायल कर उसके आक्षेपों के उत्तर में अन्यान्य कथनो के साथ साथ यह भी कहते है कि तूने अपने छोटे भाई सुग्रीव कि स्त्री को बलात हरण कर और उसे अपनी स्त्री बना अनुजभार्याभिमर्श का दोषी बन चूका है , जिसके लिए (धर्मशास्त्र ) में दंड कि आज्ञा है ।
इस पृथिवी के महाराज भरत है (अतः तू भी उनकी प्रजा है ) ; मैं उनकी आज्ञापालन करता हुआ विचरता हूँ फिर में तुझे यथोचित दंड कैसे ना देता ? जैसे –

श्रूयते मनुना गीतौ श्लोकौ चारित्र वत्सलौ ||
गृहीतौ धर्म कुशलैः तथा तत् चरितम् मयाअ || वाल्मीकि ४-१८-३०

राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१

शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२

उपरोक्त श्लोक ३० में मनु का नाम आया है और श्लोक ३१ , ३२ भी मनु महाराज के ही है !
उपरोक्त श्लोक किंचित पाठभेद (परन्तु जिससे अर्थ में कुछ भी भेद नही आया ) मनु अध्याय ८ के है ! जिनकी संख्या कुल्लूकभट्ट कि टिकावली में ३१८ व् ३१९ है –

राजभिः धृत दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || वाल्मीकि ४-१८-३१

राजभिः धूर्त दण्डाः च कृत्वा पापानि मानवाः |
निर्मलाः स्वर्गम् आयान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा || मनु ८ / ३१८

शसनात् वा अपि मोक्षात् वा स्तेनः पापात् प्रमुच्यते |
राजा तु अशासन् पापस्य तद् आप्नोति किल्बिषम् || वाल्मीकि ४-१८-३२

शसनाद्वा अपि मोक्षाद्वा स्तेनः स्तेयाद विमुच्यते |
अशासित्वा तू तं राजा स्तेनस्याप्नोति किल्बिषम् ॥ मनु ८/३१६

रामायण में स्पष्टतः मनु के श्लोकों (मनुना गीतौ श्लोकौ) कि प्रशंसा विधमान है ठीक उसी प्रकार जैसे महाभारत में थी “मनुना चैव राजेंद्र ! गीतो श्लोकों महात्मना” – महाभारत शांतिपर्व अ० ५ ६ – श २ ३

ऐतिहासिक ग्रंथो में ही इतिहास का वर्णन हो सकता है, वेद तो ईश्वर का नित्य ज्ञान है उसमे इतिहास नहीं हो सकता, क्योंकि वेद धर्म का मूल है इसलिए मनुस्मृति वेदमूलक है तभी उसका वर्णन और महाराज मनु की प्रतिष्ठा रामायण व महाभारत दोनों ही ग्रंथो में विस्तार से मिलती है, यदि अब भी कोई पौराणिक ना माने हठ करे तो इसे देखे :

इदं शास्त्रां तु कृत्वा-सौ मामेव स्वयमादित:।

विधिवद ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन।।

-मनुस्मृति 1/58

अतएव मनु द्वारा उपदिष्ट होने से ही इसका नाम मनुस्मृति है।

महाराज मनु आदि अनेको ऋषियों ने धर्म का मूल वेदो के अनुसार जो नियम बनाये और उनका पालन करने की प्रेरणा दी वही धर्म कहा गया है। यदि कुछ महानुभाव वेद से उसे ना भी जोड़ते हुए ‘चोदना’ प्रेरणा तक ही सीमित रखे जैसे की व्यर्थ ही कोशिश काशी शास्त्रार्थ के दौरान विशुद्धानन्द जी ने की मगर वो भूल गए की कर्तव्य के मूल में प्रेरणा अवश्यम्भावी है अर्थात जिन लक्षणों, कर्तव्यों या नियमो में लोक को धारण करने की प्रेरणा मूलभूत रहती है वे धर्म हैं और उनका पालन आवश्यक माना जाता है, यही बात महर्षि ने विशुद्धानन्द जी को जवाब देते समय कही थी :

महर्षि दयानंद : धर्म के दस लक्षण मनुस्मृति में बताये हैं, धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध – फिर सवाल घूम फिर कर विशुद्धानन्द जी पर ही आ गिरा क्योंकि उन्होंने धर्म के स्वरुप को पाहिले ‘चोदना’ अर्थात प्रेरणा बता दिया फिर बाद में धर्म का केवल एक ही लक्षण बताया।

इससे काशी में मौजूद सभी पंडितो का पंडितव और आडमबर सबके सम्मुख निकल आया। नतीजा आजतक सभी पंडित महर्षि दयानंद पर व्यर्थ आक्षेप लगा रहे हैं, जवाब खुद के पास मौजूद नहीं और जिस महर्षि ने अपनी विद्वत्ता काशी ही नहीं सम्पूर्ण धरती पर वेदो के माध्यम से दिखाई वो कोई साधारण मनुष्य नहीं कर सकता।

निश्चय ही वो महामानव अर्थात महर्षि थे।

धन्य है तुझ को ए ऋषि तूने हमेँ जगा दिया।
सो सो के लुट रहे थे हम,तूने हमेँ जगा दिया।

अब भी चाहे तो अनेको पौराणिक मिथ्या आक्षेप और विलाप करने हेतु स्वतंत्र है।

लौटो वेदो की और।

नमस्ते

सगुण क्या निर्गुण क्या? प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

अबोहर के डी.ए.वी. कॉलेज में कुछ वर्ष पूर्व दो योग्य युवा हिन्दी प्राध्यापक नियुक्त हुए। कुछ पुराने अध्यापकों से लेखन व साहित्य सृजन की चर्चा करते समय उन्होंने अपने पुराने सहयोगियों से मेरे लेखन-कार्य के बारे में कुछ सुना। एक दिन फिर धूप में खड़े-खड़े वे कुछ ऐसी ही चर्चा कर रहे थे। पुनः मेरा नाम किसी ने लिया तो वे बोले- उनका निवास कॉलेज पुस्तकालय के पीछे ही तो है। वे प्रायः कॉलेज के डाकघर पत्र डालने व कार्ड आदि लेने आते रहते हैं। जो दुबला-पतला व्यक्ति चलते-चलते यहाँ से पढ़ता-पढ़ता निकले बस समझलो- वह राजेन्द्र जिज्ञासु ही हो सकता है। वे यह बात कर ही रहे थे कि मैं चलते-चलते उधर से निकला। कुछ पढ़ता भी जा रहा था। मेरी उनसे भेंट करवाई गई। कुछ चर्चा छिड़ गई। क्या लिख रहे हो? आजकल किस विषय की खोज में लगे हो? कुछ ऐसे प्रश्न पूछे।

मैंने उन्हें अपने निवास पर दर्शन देने के लिए कहा। वे निमन्त्रण पाकर प्रसन्न हुए और दो दिन में मिलने आ गये। मैं अपने लेखन-कार्य में व्यस्त था। बातचीत चल पड़ी तो उन दो में से एक ने कहा- आर्यसमाज तो निर्गुण, निराकार की उपासना को मानता है, जब कि भक्तिकाल के कई सन्त सगुण, साकार ईश्वर की उपासना को मानते हैं।

यह कथन सुनकर इस लेखक ने उनसे कहा- आपके कथन में आंशिक सच्चाई है। आर्यसमाज तो ईश्वर को निर्गुण व सगुण दोनों मानता है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जो निर्गुण न हो और कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो सगुण न हो।

मेरे मुख से निकले ये शब्द  सुनकर वे दोनों चौंक पड़े। दोनों ही पीएच.डी. उच्च शिक्षित सज्जन थे। वे बोले हिन्दी साहित्य में तो अनेक लेखकों ने निर्गुण भक्ति को निराकार की उपासना और सगुण उपासना का अर्थ मूर्तिपूजा  ही माना है। कुछ सन्त महात्माओं के नाम भी लिए।

उनसे निवेदन किया गया कि सन्तों को इस चर्चा में मत घसीटें। मैं भी बहुत नाम ले सकता हूँ। आप यह बतायें कि सगुण व निर्गुण इन दो शब्दों  में जो ‘गुण’ शब्द  पड़ा है, इसका अर्थ क्या है? कोई-सा शब्दकोष  उठा लीजिये अथवा किसी ग्रामीण निरक्षर वृद्धा से पूछें कि ‘गुण’ शब्द  का अर्थ क्या है? यह शब्द देशभर में प्रयुक्त होता है। सर्वत्र इसका आशय क्वालिटी सिफ़त ही जाना, माना व समझा जाता है। सद्गुण, अवगुण सब ऐसे शब्द यही सिद्ध करते हैं या नहीं? उनको मेरी बात जँच गई। वे इसका प्रतिवाद न कर सके।

अब उनसे पूछा कि जब गुण का अर्थ आप क्वालिटी विशेषतायें मानते हैं तो फिर ‘सगुण’ ‘निर्गुण’ की चर्चा में काया अथवा शरीर-आकार कैसे घुस गया? वे बोले- यह बात तो हमने पहली बार ही सुनी है। आपका तर्क तो बहुत प्रबल है। मैंने कहा- आप चिन्तन करिये। स्वाध्याय करिये। बहुत कुछ नया मिलेगा। आप अन्ध परम्पराओं की अंधी गुफाओं से निकलें। वेद, दर्शन, उपनिषद् तक पहुँचे। सत्य का बोध हो जायेगा। मान्य सोमदेव जी के ‘जिज्ञासा समाधान’ में सगुण-निर्गुण विषयक चर्चा पढ़कर यह प्रसंग देने का मैंने साहस किया है। आशा है कि पाठकों को इससे लाभ मिलेगा, प्रेरणा प्राप्त होगा

उत्तर देने की आर्यसमाजी कला: प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

कुछ तड़प-कुछ झड़प

– राजेन्द्र जिज्ञासु

उत्तर  देने की कलाः गत तीन चार मास में बिजनौर के आर्यवीर श्री विजयभूषण जी तथा कुछ अन्य नगरों के आर्य सज्जनों ने भी चलभाष पर दो बातें विशेष रूप से इस लेखक को कहीं। . आपकी उत्तर देने की कला बहुत अनूठी है। २. आप तड़प-झड़प में इतिहास की ठोस सामग्री देते हैं। इसमें अलभ्य लेखों, पत्र-पत्रिकाओं तथा इस समय अप्राप्य साहित्य की पर्याप्त चर्चा होने से बहुत जानकारी मिलती है। अनेक बन्धुओं विशेष रूप से युवकों के मुख से ये बातें सुनकर उत्तर देने की कला पर दो-चार बार कुछ विस्तार से लिखने का विचार बना।

मैं गत दस-बारह वर्षों से मेधावी लगनशील युवकों से बहुत अनुरोध से यह बात कहता चला आ रहा हूँ कि वैदिक धर्म पर वार-प्रहार करने वालों को उत्तर देना सीखो। अब भी आर्य समाज में कुछ अनुभवी विद्वान् ऐसे हैं, जिनकी उत्तर देने की शैली मौलिक, विद्वतापूर्ण  तथा हृदयस्पर्शी है। श्री डॉ. धर्मवीर जी को जब उत्तर देना होता है तो उनकी लेखनी की रंगत ही कुछ निराली होती है। श्री राम जेठमलानी ने श्री रामचन्द्र जी पर एक तीखा प्रश्न उठाया। संघ परिवार के ही श्री विनय कटियार ने उनके स्वर में स्वर मिला दिया।

राम मन्दिर आन्दोलन का एक भी कर्णधार श्रीयुत् राम जेठमलानी के आक्षेप का सप्रमाण यथोचित उत्तर न दे सका। मेरे जैसे आर्यसमाजी रामभक्त भी तरसते रहे कि उमा भारती जी, श्री मुरली मनोहर जी अथवा सर संघचालक आदरणीय भागवत जी इस आक्षेप का कुछ सटीक उत्तर दें, परन्तु ऐसा कुछ भी न हुआ। परोपकारी का सम्पादकीय पढ़कर अनेक पौराणिकों ने भी यह माँग की कि श्री धर्मवीर जी श्री राम के जीवन पर इसी शैली में २५०-३०० पृष्ठों की एक मौलिक पुस्तक लिख दें।

श्री डॉ. ज्वलन्त कुमार जी भी जानदार उत्तर देते हैं। परोपकारी में श्री आचार्य सोमदेव जी तथा आदरणीय सत्यजित् जी द्वारा शंका समाधान की शैली प्रभावशाली व प्रशंसनीय है।

आर्यसमाज में श्री राजवीर जी जैसे उदीयमान लेखक तथा अनुभवी गम्भीर विद्वान् डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने भी इस विनीत से एक दो बार कहा, ‘आपने उत्तर देते हुए चुटकी लेना कहाँ से सीखा?’

मैंने कहा, ‘अपने बड़ों से और विशेष रूप से पूज्य पं. चमूपति जी से।’

प्रिय राजवीर जी तथा श्री धर्मेन्द्र जी ‘जिज्ञासु’ ने तो कुछ श्रम करके उत्तर देने की कला सीखी व विकसित की है, परन्तु बहुत से युवक इस दिशा में कुछ करके दिखा नहीं सके और राजवीर जी तथा धर्मेन्द्र जी भी समय के अभाव में जितना उन्हें बढ़ना चाहिये, बढ़ नहीं सके। कई युवक ऐसे भी मिले हैं, जो गुरु तो बनाने की ललक रखते हैं, परन्तु उनमें विनम्रता व श्रद्धा से सीखने की ललक नहीं। घर बैठे तो यह विद्या आती नहीं।

आइये, उत्तर देने की आर्यसमाजी कला का कुछ इतिहास यहाँ देते हैं। मैंने जो पूर्वजों (इस कला के आचार्यों) के मुख से जो कुछ सुना व पढ़ा है, इस कला के जनक तो स्वयं पूज्य ऋषिवर दयानन्द जी महाराज थे। उनके पश्चात् इस कला के सिद्धहस्त कलाकार पं. लेखराम जी मैदान में उतरे। यह मेरा ही मत नहीं है, लाला लाजपतराय जी ने भी अपनी लौह लेखनी से ऐसा ही लिखा है। बड़े-बड़े मौलवियों तथा सनातन धर्मी नेता पं. दीनदयाल जी का भी ऐसा ही मत था। मौलाना अ दुल्ला मेमार तथा मौलाना रफ़ीक दिलावरी जी का भी ऐसा ही मत था।

तनिक महर्षि जी की उत्तर देने की कला पर भी इतिहास शास्त्र का निर्णय सुना दें। आर्यसमाजी लेखक जो ऋषि जीवन की तोता रटन लगाते रहते हैं, वे इतिहास के इस निर्णय को जानते ही नहीं और परोपकारी में पढ़-सुनकर इसे आगे प्रचारित ही नहीं करते।

१. वैद्य शिवराम पाण्डे ऋषि के साथ प्रयाग रहे। वे काशी की पाठशाला में भी रहे। वे आर्यसमाजी तो नहीं थे, परन्तु ऋषि की संगत की रंगत मानते थे। आपका एक दुर्लभ लेख हमारे पास है। वे लिखते हैं कि ऋषि एक ही प्रश्न का उत्तर कई प्रकार से देना जानते थे। श्री गोस्वामी घनश्याम जी मुल्तान निवासी बाल शास्त्री की कोटि के विद्वानों में से एक थे। काशी शास्त्रार्थ के समय आप काशी में नहीं थे। जब काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् मूर्तिपूजकों ने देशभर में यह प्रचार करना चाहा कि स्वामी दयानन्द शास्त्रार्थ में हारे तो गोस्वामी झट से काशी गये। बाल शास्त्री से मिलकर पूछा, सच-सच बताओ! क्या स्वामी दयानन्द हारे या काशी के पण्डित?

तब बाल शास्त्री जी ने वीतराग दयानन्द के गुणों का बखान करते हुए कहा था कि हम जैसे निर्बल संसारी उन्हें हराने वाले कौन?

चाँदापुर के शास्त्रार्थ में पादरी महोदय ने कहा था, ‘‘सुनो भाई मौलवी साहबो! पण्डित जी इसका उत्तर हजार प्रकार से दे सकते हैं। हम और तुम हजारों मिलकर भी इनसे बात करें तो भी पण्डित जी बराबर उत्तर दे सकते हैं, इसलिए इस विषय में अधिक कहना उचित नहीं।’’

पादरी जी का यह कथन आर्यसमाज में प्रचारित करने वाले चल बसे। पुस्तकों की सूचियाँ बनाने वाले सम्पादक लेखक शास्त्रार्थ कला (विधा) को समझ ही न सके।

पं. लेखराम जी की उत्तर देने की कला की एक घटना ‘आर्य मुसाफिर’ मासिक की फाईलों में छपे उनके एक शास्त्रार्थ से मिली। सीमा प्रान्त के एक नगर में प्रतिमा पूजन पर एक शास्त्रार्थ में पण्डित जी ने ‘न तस्य प्रतिमाऽअस्ति’ इस वेद वचन से अपने कथन की पुष्टि की तो विरोधी ने कहा कि यहाँ ‘नतस्य’ है अर्थात् प्रतिमा के आगे झुकने की बात है। यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं। तब पण्डित जी ने कहा कि यदि यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं तो फिर इस मन्त्र में ‘यस्य’ शब्द  किसके लिए है? वहाँ पौराणिक पण्डितों ने भी पण्डित जी के इस तर्क व प्रमाण का लोहा माना। यह किसी भी शास्त्रार्थ में किसी संस्कृतज्ञ आर्य ने तर्क न दिया। श्रद्धेय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने इस प्रसंग में हमें कहा था, ‘‘यह तो पं. लेखराम जी के जन्म-जन्मान्तरों का संस्कार और उनकी ऊहा का चमत्कार मानना पड़ेगा।’’

अब इस प्रसंग में इतिहास का एक और निचोड़ देना लाभप्रद होगा। पं. गणपति शर्मा जी तथा श्री स्वामी दर्शनानन्द जी की उत्तर देने की कला भी विलक्षण थी। इनके पश्चात् आर्यसमाज में अपनी-अपनी कला से उत्तर देने में कई सुदक्ष कलाकार विद्वान् हुए, परन्तु स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, श्री पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय, पं. रामचन्द्र जी देहलवी, पं. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक, स्वामी सत्यप्रकाश जी- इन पाँच महापुरुषों के दृष्टान्त, तर्क व प्रमाण अत्यन्त प्रभावशाली, मौलिक व हृदयस्पर्शी होते थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ने चार बार पूरे भारत का पैदल भ्रमण किया। उनके पास दृष्टान्तों का अटूट भण्डार व जीवन के बहुत अनुभव थे।

आचार्य रामदेव जी, मेहता जैमिनि जी तथा श्री पं. धर्मदेव जी को विश्व साहित्य के असंख्य उद्धरण कण्ठाग्र थे। इन तीनों की उत्तर देने की कला भी बड़ी न्यारी व प्यारी थी। मैं बाल्यकाल में अपने छोटे से ग्राम के आर्यों की परस्पर की चर्चा सुन-सुनकर ग्राम के एक आर्य युवक कार्यकर्ता से पूछा करता था कि आचार्य रामदेव जी की वक्तृत्व कला की क्या विशेषता है? उनका  उत्तर था- उन्हें सब कुछ कण्ठाग्र है। मैं अपने निजी अनुभव से यह बताना चाहूँगा कि मैं सब पूज्य विद्वानों को ध्यान से सुना करता था। उनसे चर्चा किया करता था, फिर चिन्तन करने का अभ्यास हो गया। इससे मेरी भी उत्तर देने की कला विकसित हुई।

स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ ने मेरे आरम्भिक काल में अत्यन्त प्यार से, कुछ डाँटकर कहा कि जो पढ़ो व सुनो, उसपर विचार कर स्वयं उत्तर खोजो, फिर उ उत्तर न सूझे तो आकर पूछा करो। अब इन उतावले युवकों का न गहन अध्ययन है, न बड़ों से कुछ सीखने की भूख है। प्राणायाम की चर्चा सुनकर तथा दो योग शिविरों में भाग लेकर ये सब नौ सिखिये योगाचार्य बनकर ध्यान शिविर लगाने व अपना आश्रम या अड्डा बनाने में लग जाते हैं। यह प्रवृत्ति  धर्मप्रचार में बाधक रोड़ा बन रही है।

 

बोद्ध ग्रंथो में मासाहार (झूटी अंहिसावाद )


बोद्ध ओर नवबोद्ध अपने आप को कितना भी संयमी ,सात्विक आहारी बताये लेकिन बोद्ध देशो को देखने पर पता चलता है कि वहा के बोद्धो में काफी हिंसक भावनाए है ,, वे लोग अपने जीभ के स्वाद के लिए किसी भी प्राणी यहाँ तक कि मानव भ्रूण को तक खाने लगे है | क्यूंकि जेसा आहार होता है वेसे ही विचार ओर व्यवहार होता है |
मह्रिषी मनु मॉस भक्षण को हिंसक ओर पाप मानते हुए कहते है –
” स्मुत्पत्ति च मॉसस्य बवबन्धो च देहिनाम |
प्रसमीक्षय निवर्तेत सर्वमॉसस्य भक्षणात || मनु . ५/४९ ||
अर्थात मॉस की उत्पति जेसे होती है उसको ,प्राणियों की हत्या ओर बंधन के कष्टों को देख सब प्रकार के मॉस भक्षण से दूर रहे |
ओर कहते है –
” अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी |
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकेश्चेति घातका ||मनु .५/५१ ||”
मारने की आज्ञा देने वाले ,मॉस को काटने वाले पशु को मारने वाले क्रय विक्रय करने वाले ,पकाने वाले परोसने वाले खाने वाले ये सब हत्यारे ओर पापी है |
इस तरह मनु ने मॉस भक्षण को पाप बताया है ,,साथ ही मॉस व्यापार को क्यूंकि मॉस खाने की आदत ही जीवो की हिंसा को प्रेरित करती है |
हिन्दू धर्म के काशी खंड में निम्न श्लोक मिलता है – जातु मॉस न भोक्तव्यम प्राणै कंठगतैरपि (काशी खंड ,३५३ -५५ ) चाहे प्राण कंठ तक  आ जाए तो भी मॉस नही खाना चाहिए |
अर्थववेद ८/६/९३ में कहा है जो अंडे मॉस खाते है उनका मै नाश करता हु |
इस तरह मॉस भक्षण को सनातन शास्त्रों में निन्दित बताया है |
अब हम बोद्ध दर्शन में मॉस भक्षण सम्बन्धित बातें देखते है –
बोद्ध ने यज्ञ में पशु वध का विरोध किया लेकिन बोद्ध मॉस भक्षण से अपने आप को दूर नही रख सके इसके बारे में सकलिक सुत्त में देवदत्त विद्रोह नामक अध्याय में आता है ,इस अध्याय में एक कथा अनुसार देवदत बोद्ध से निम्न बातो की शर्त रखता है वो इस तरह है | देवदत्त बुद्ध से कहता है ,कि संघ में निम्न नियम बनाये जाए -(१) भिक्षु वन में रहे नगर में रहे तो दोष हो |
(२) जिन्दगी भर भिक्षा मांग कर खाने वाला हो |
(३) जिंदगी भर फेंके हुए चीथड़े पहने ,जो चीवर का उपभोग करे उस पर दोष हो |
(४) जिन्दगी भर वृक्ष के नीचे रहे |
(५ ) जिन्दगी भर मॉस मच्छली न खाए जो खाए उस पर दोष हो |
इसमें से बुद्ध एक भी शर्त नही मानते है ,,हम यहाँ बाकि ४ पर बुद्ध के उत्तर न लिख ५ वे पर लिखते है कि मॉस भक्षण पर बुद्ध ने क्या कहा –
बुद्ध कहते है – है देवदत्त ! जो अदृष्ट (जिसे मरते हुए मेने न देखा हो ) अश्रुत (जिसे मरते हुए न सुना हो ) अ परिशंकित (जो संदेह में न हो ) इस तरह का मॉस खाने की मेने आज्ञा दी है |
बुद्ध ने देवदत्त के मॉस भक्षण के निषेध वाली शर्त को ठुकरा दिया ओर इससे देवदत्त बोद्ध के संघ से अलग हो गया |
इसी तरह की बात जीवक नामक भिक्षु से बोद्ध ने जीवक सुत्तन्त (२/९/५ ) में कही है जीवक से बुद्ध कहते है –
जिस जीव का अपने लिए न मारा जाना हो | जिसे मारे हुए न देखा हो , न सुना हो न शंका हो | ऐसे मॉस को खाने का मेने आज्ञा दी है |
बोद्ध के उपरोक्त कथन को देखा जाए तो किसी दूकान से मॉस खाया जा सकता है ,,क्यूंकि दूर किसी होटल आदि पर पकाए हुए मॉस की किसी दूर से आये खाने वाले को कोई जानकारी नही होती |
एक स्थान से दुसरे स्थान की यात्रा में अगर कोई मासाहार भोजनालय है तो वहा मॉस खा सकते है क्यूंकि खाने वाले ने न प्राणी को कटते देखा है ,न ही वो उसके लिए काटा है न ही वो उसने काटते हुए सुना है |
इस तरह बुद्ध ने हिंसा का एक दूसरा रास्ता खोल दिया | ओर असयम को जो कि स्वाद से है को बढ़ावा दिया |
इस तरह एक जातक कथा में भी मॉस भक्षण का उलेख मिलता है – जिसके अनुसार एक भिक्षु के पास एक चील द्वरा छुटा हुआ कोई मॉस गिरता है भिक्षु बुद्ध से कहता है कि इसका क्या करू बुद्ध उसे वह मॉस खाने को कहते है |
इस तरह बोद्ध ग्रंथो में जगह जगह एक अलग प्रकार की हिंसा का उलेख मिलता है जो उनके अहिंसक ओर संयमी होने के दावे पर प्रश्न चिन्ह लगाता है |
शायद बुद्ध को इस बात पर ध्यान देना चाहिय था कि जेसा आहार वेसा ही विचार ओर व्यवहार हो जाता है | मॉस भक्षण किसी भी प्रकार का जीव हत्या को बढ़ावा देता है |
संधर्भित पुस्तके एवम ग्रन्थ – (१) मनुस्मृति – सुरेन्द्रकुमार जी 
   (२) मझिम निकाय – राहुल सांस्क्रतायन 
 (३ ) बुद्धचर्या – राहुल सांस्क्रतायन 
 (४) दीर्घ निकाय – राहुल सांस्कृतायन  

मानवोन्नति की अनन्या साधिका वर्णव्यवस्था शिवदेव आर्य -कार्यकारी सम्पादक,      गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

वर्णाश्रम व्यवस्था वैदिक समाज को संगठित करने का अमूल्य रत्न है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने समाज को सुसंगठित, सुव्यवस्थित बनाने तथा व्यक्ति के जीवन को संयमित, नियमित एवं गतिशील बनाने के लिए चार वर्णों एवं चार आश्रमों का निर्माण किया। वर्णाश्रम विभाग मनुष्य मात्र के लिए है, और कोई भी वर्णी अनाश्रमी नहीं रह सकता। यह वर्णाश्रम का अटल नियम है।

भारतीय शास्त्रों में व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याणपरक कर्मों का अपूर्व समन्वय दृष्टिगोचर होता है। प्रत्येक वर्ण के सामाजिक कर्तव्य अलग-अलग रूप में निर्धारित किए हुए हैं। वर्णाश्रम धर्म है। प्रत्येक वर्ण के प्रत्येक आश्रम में भिन्न-भिन्न कर्तव्याकर्तव्य वर्णित किये हुए हैं।

भारतीय संस्कृति का मूलाधार है अध्यात्मवाद। अध्यात्मवाद के परिपे्रक्ष्य में जीवन का चरम लक्ष्य है मोक्ष। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार लक्ष्य भारतीय जीवन की धरोहर रूप होते हैं । हिन्दू धर्म के अन्तर्गत आने वाले सभी धर्मों ने उपदेश रूप में अपना लक्ष्य मोक्ष को ही रखा है। यद्यपि उसे अलग-अलग नाम दिये गये हैं। जैसे बौध्द, जैन इसे निर्वाण कहते हैं। शैव तथा वैष्णव को मोक्ष कहते हैं। उद्देश्य और आदर्श सभी के एक हैं। सभी धर्मों ने मोक्ष की प्राप्ति के लिए समाज की क्रियाओं को एक मार्ग प्रदान किया है। इस हेतु व्यवस्था की गई वर्ण धर्म और आश्रम धर्म की। दोनों का अत्यन्त गूढ़ संबंध होने से इन दोनों को समाज-शास्त्रियों ने एकनाम दिया-वर्णाश्रमधर्म।

प्राचीनकाल से ही भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही है। जिस प्रकार से सिर, हाथ, पैर, उदर आदि विभिन्न अंगों से शरीर बना है और ये सब अंग पूरे शरीर की रक्षा के लिए निरन्तर सचेष्ट रहते हैं उसी प्रकार आर्यों ने पूरी सृष्टि को, सब प्रकार के जड़-चेतन पदार्थों को उनके गुण१ कर्म और स्वभाव के अनुसार उन्हें चार भाग या चार वर्णों में विभक्त कर दिया गया।

संसार संरचना के बाद इस प्रकार की व्यवस्था से गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार मानव समाज की चार मुख्य आवश्यकताएॅं मान ली गईं- बौध्दिक, शारीरिक, आर्थिक और सेवात्मक। आरम्भ में अवश्य ही मानव जाति असभ्य रही होगी जिससे कुछ में आवश्यकतानुसार स्वतः बौध्दिक चेतना जागृत हुई होगी। उन्होंने बौध्दिकता परक कार्य पढ़ना-पढ़ाना आदि अपनाया होगा, जिससे उन्हें  ब्राह्मण कहा गया। फिर धीरे-धीरे सभ्यता का विस्तार होने से सुरक्षा, भोजन, धन सेवा आदि की आवश्यकता अनुभव होने पर तदनुसार अपने गुण-स्वभाव के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र उसी मानवजाति से बने होगें।

मनोवैज्ञानिक सिध्दान्त के अन्तर्गत यह मान्यता स्वीकार की गई है कि मन के मुख्य तीन कार्य हैं, जिसमें से कोई एक प्रत्येक जाति के अन्दर मुख्य भूमिका का निर्वाह करता है। द्विजत्व तीन वर्गों में आते हैं ज्ञान प्रधान व्यक्ति, क्रिया प्रधान व्यक्ति, और इच्छा प्रधान व्यक्ति। इन तीनों से अतिरिक्त एक चैथे प्रकार का व्यक्तित्व भी होता है जो अकुशल या अल्पकुशल श्रमिक कहा जा सकता है।

वैदिककाल से ही समाज में चार वर्गों का उत्पन्न होना स्पष्ट है। इसका संकेत पुरुष सूक्त के प्रसिध्द मन्त्र से मिलता है।

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत।।२

पदार्थः- हे जिज्ञासु लोगो! तुम (अस्य) इस ईश्वर की सृष्टि में (ब्राह्मणः) वेद ईश्वर का ज्ञाता इनका सेवक वा उपासक (मुखम्) मुख के तुल्य उत्तम ब्राह्मण (आसीत्) है (बाहू) भुजाओं के तुल्य बल पराक्रमयुक्त (राजन्यः) राजपूत (कृतः) किया (यत्) जो (ऊरू) जांघों के तुल्य वेगादि काम करनेवाला (तत्) वह (अस्य) इसका (वैश्यः) सर्वत्र प्रवेश करनेहारा वैश्य है (पद्भ्याम्) सेवा और अभिमान रहित होने से (शूद्रः) मूर्खपन आदि गुणों से युक्त शूद्र (अजायत्) उत्पन्न हुआ, ये उत्तर क्रम से जानो।३

भावार्थः-जो मनुष्य विद्या और शमदमादि उत्तम गुणों में मुख के तुल्य उत्तम हो वे ब्राह्मण, जो अधिक पराक्रमवाले भुजा के तुल्य काय्र्यों को सिध्द करनेहारे हों वे क्षत्रिय, जो व्यवहारविद्या में प्रवीण हों वे वैश्य और जो सेवा में प्रवीण, विद्याहीन, पगों के समान मूर्खपन आदि नीच गुणों से युक्त हैं वे शूद्र करने और मानने चाहियें।४

उपनिषद् आदि में तो स्पष्ट रूप से वर्ण व्यवस्था की परिपाटी चल पड़ी थी। जैसे ऐतरेय ब्राह्मणग्रन्थ में ब्राह्मणों का सोम भोजन कहा है और क्षत्रियों का न्यग्रोध, वृक्ष के तन्तुओं, उदुम्बर, अश्वत्थ एवं लक्ष के फलों को कूटकर उनके रस को पीना पड़ता था। लेकिन आनुवंशिक होने से भोजन एवं विवाह संबंधी पृथक्त्व उत्पन्न होने का निश्चित रूप से कुछ पता नहीं चलता । धर्मसूत्रों में स्पष्ट रूप से चारों वर्णों का अलग-अलग होना स्पष्ट हो गया था।

वर्णव्यवस्था जन्म से नहीं अपितु कर्म से मानी गयी है। निम्नलिखित आख्यान इसकी यथार्थता को स्पष्ट करता है। ‘जाबाला का पुत्र सत्यकाम अपनी माता के पास जाकर बोला, हे माता! मैं ब्रह्मचारी बनना चाहता हूॅं। मैं किस वंश का हूॅं। माता ने उत्तर दिया कि हे मेरे पुत्र! सत्यकाम! मैं अपनी युवावस्था में जब मुझे दासी के रूप में बहुत अधिक बाहर आना-जाना होता था तो मेरे गर्भ में तू आया था। इसलिए मैं नही जानती कि तू किस वंश का है। मेरा नाम जाबाला है। तू सत्यकाम है। तू कह सकता है कि मैं सत्यकाम जाबाल हूॅं।

हरिद्रुमत् के पुत्र गौतम के पास जाकर उसने कहा भगवन्! मैं आपका ब्रह्मचारी बनना चाहता हूॅं। क्या मैं आपके यहाॅं आ सकता हूॅं ? उसने सत्यकाम से कहा हे मेरे बन्धु! तू किस वंश का है? उसने कहा भगवन् मैं नहीं जानता किस वंश का हूॅं। मैंने अपनी माता से पूछा था और उसने यह उत्तर दिया था कि ‘मैं अपनी युवावस्था में जब दासी का काम करते समय मुझे बहुत बाहर आना-जाना होता था तो तू गर्भ में आया। मैं नहीं जानती कि तू किस वंश का है। मेरा नाम जाबाला है और तू सत्यकाम है।’ इसलिए मैं सत्यकाम जाबाल हूॅं।

गौतम ने सत्यकाम से कहा एक सच्चे ब्राह्मण के अतिरिक्त अन्य कोई इतना स्पष्टवादी नहीं हो सकता । जा और समिधा ले आ। मैं तुझे दीक्षा दूॅंगा। तू सत्य के मार्ग से च्युत नहीं हुआ है।५

वैदिक काल में वर्णव्यवस्था (आज के सदर्भ में) थी अथवा नहीं यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, लेकिन कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था थी यह निश्चित है। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के मन्त्र ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्…६से प्रतीति होती है कि अंगगुण के कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था थी। शरीर में मुख का स्थान श्रेष्ठ है जो कि बौध्दिक कर्मों को ही मुख्य रूप से घोषित करता है। अतः ब्राह्मण उपदेश कार्य, समाजोेत्थान आदि के कार्यों को करने वाले हुए । बाहुओं का काम रक्षा करना गौरव, विजय एवं शक्ति संबन्धी कार्य करना है। अतः क्षत्रियों का बाहुओं से उत्पन्न होना कहा है। उदर का कार्य शरीर को शक्ति देना, भोजन को प्राप्त करना है। अतः उदर से उत्पन्न वैश्यों को व्यापारिक कार्य करने वाला कहा गया है। पैरों का गुण आज्ञानुकरण है। अत पैरों से उद्धृत शूद्रों का कार्य श्रम है। जिस गुण के अनुसार व्यक्ति कर्म करता है वही उसका वर्ण आधार होता है। अन्यथा एक गुण दूसरे गुणों में मिल जाता है और कर्म भी इसी प्रकार बदल जाता है। अतः वर्ण भी बदला हुआ माना जाता है, यही गुण कर्म का आधार होता है।

ब्राह्मण कर्म-वर्णव्यवस्था

मनु महाराज जी ब्राह्मणों के लिए कर्तव्यों का नियमन करते हुए लिखते है कि-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।७

अर्थात् अध्ययन करना-कराना, यज्ञ करना- कराना तथा दान लेना तथा देना ये छः कर्म प्रमुख रूप से ब्राह्मणों के लिए उपदिष्ट किये गये हैं।

यहाॅं अध्ययन से तात्पर्य अक्षरज्ञान से लेकर वेदज्ञान तक है।

ब्राह्मणों के कर्म के विषय में गीता में इस प्रकार कहा गया है-

क्षमो दमस्तपः शौचं क्षान्ति….८

क्षमा   मन से भी किसी बुरी प्रवृत्ति की इच्छा न करना।

दम    सभी इन्द्रियों को अधर्म मार्ग में जाने से रोकना।

तप    सदा ब्रह्मचारी व जितेन्द्रिय होकर धर्मानुष्ठान करते रहना चाहिए।

शौच  शरीर, वस्त्र, घर, मन, बुध्दि और आत्मा को शुध्द, पवित्र तथा निर्विकार रहना चाहिए।

शान्ति  निन्दा, स्तुति, सुख-दुःख, हानि-लाभ, शीत-उष्ण, क्षुधा-तृषा, मान-अपमान, हर्ष-शोक का विचार न करके शान्ति पूर्वक धर्मपथ पर ही दृढ़ रहना चाहिए।

आर्जवम्  कोमलता, सरलता व निरभिमानता को ग्रहण करना तथा कुटिलता व वक्रता को छोड़ देना।

ज्ञान          सभी वेदों को सम्पूर्ण अÂों सहित पढ़कर सत्यासत्य का विवेक जागृत करना।

विज्ञान तृण से लेकर ब्रह्म पर्यन्त सब पदार्थों की विशेषता को यथावत् जानना और उनसे यथा योग्य उपयोग लेना।

आस्तिकता वेद, ईश्वर, मुक्ति, पुर्नजन्म, धर्म, विद्या, माता-पिता, आचार्य व अतिथि पर विश्वास रखना, उनकी सेवा को न छोड़ना और इनकी कभी भी निन्दा न करना।

गीता के इन्हीं विचारों को ध्यान में रखते हुए महाभाष्यकार९ कहते है कि-

ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडÂो वेदोऽध्येयो ज्ञेयश्च१॰

अर्थात् ब्राह्मण के द्वारा बिना किसी कारण के ही यह धर्म अवश्य पालनीय है कि चारों वेदों को उनके अगों११ तथा उपांगो१२ आदि सहित पढ़ना चाहिए और भली-भाॅति जानना चाहिए। और जो इन कर्मों को नहीं करता है, उसके लिए मनु महाराज कहते हैं कि –

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशुगच्छति सान्वयः।।१३

अर्थात् जो ब्राह्मण वेद न पढ़कर अन्य कर्मों में श्रम करता है, वह अपने जीते जी शीघ्र ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है। इसलिए ब्राह्मणों को अपने वर्णित कर्मों को अवश्य ही करना चाहिए।

क्षत्रिय कर्म-वर्णव्यवस्था

वर्ण विभाजन क्रम में द्वितीय स्थान क्षत्रिय का है। क्षत्रिय की भुजा से उत्पत्ति से तात्पर्य, क्षत्रिय को समाज का रक्षक कहने से है। जिस प्रकार से भुजाएॅं शरीर की रक्षा करती है उसी प्रकार क्षत्रिय भी समाज की रक्षा करने वाला होता है। समाज जब बृहत् रूप धारण करता है तो वहाॅं कुछ दुष्ट, अत्याचारी भी हो जाते हैं, जिनका दमन आवश्यक होता है। अतः समाज के लिए यह आवश्यकता हुई कि कुछ व्यक्ति ऐसे हों, जो  दुष्ट, दमनकारी प्रवृत्ति के लोगों से समाज की रक्षा करना अपना पवित्र कर्तव्य समझें।

मनु महाराज क्षत्रिय के कर्म लक्षण करते हुए लिखते हैं – अपनी प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, विषयों में अनासक्त रहना।

वैश्य कर्म-वर्णव्यवस्था

जिस प्रकार से जंघाएॅं मनुष्य के शरीर का सम्पूर्ण भार वहन करती हैं उसी प्रकार समाज के भरण-पोषण आदि सम्पूर्ण कार्य वैश्य को करने होते हैं। समाज के आर्थिक तन्त्र का सम्पूर्ण विधान वैश्य के हाथ सौंपा गया । पशुपालन, समाज का भरण पोषण, कृषि, वाणिज्य, व्यापार के द्वारा प्राप्त धन को समाज के पोषण में लगा देना वैश्य का कर्तव्य है। धन का अर्जन अपने लिए नहीं प्रत्युत ब्राह्मण आदि की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए होना चाहिए। जैसे- हे ज्ञानी, ब्राह्मण नेता! जिस प्रकार अश्व को खाने के लिए घास-चारा दिया जाता है, उसी प्रकार हम नित्यप्रति ही तेरा पालन करते हैं। प्रतिकूल होकर हम कभी दुखी न हों। तात्पर्य यह है कि धन के मद से मस्त होकर जो पूज्य ब्राह्मणों को तिरस्कार करते हैं, वे समाज में अधोपतन की ओर अग्रसरित होते चले जाते हैं।

शूद्र कर्म-वर्णव्यवस्था

समाज की सेवा का सम्पूर्ण भार  शूद्रों पर रखा गया है। सेवा कार्य के कारण शूद्र को नीच नहीं समझा जाता है, अपितु जो लोग पहले तीन वर्णों के काम करने में अयोग्य होते हैं अथवा निपुणता नहीं रखते हैं, वे लोग शूद्र वर्ण के होकर सेवा कार्य का काम करते हैं। पुरुष सूक्त के रूपक से यह बात बहुत स्पष्ट होती है कि उपर्युक्त चारों वर्णों का समाज में अपना-अपना महत्व है और उनमें कोई ऊॅंच-नीच का भाव नहीं होता।

युजर्वेद में तपसे शूद्रम्’१४ कहकर श्रम के कार्य के लिए शूद्र को नियुक्त करो, यह आदेश दिया गया है। इसी अध्याय में कर्मार नाम से कारीगर, मणिकार नाम से जौहरी, हिरण्यकार नाम से सुनार, रजयिता नाम से रंगरेज, तक्षा नाम से शिल्पी, वप नाम से नाई, अपस्ताप नाम से लौहार, अजिनसन्ध नाम से चमार, परिवेष्टा नाम से परोसने वाले रसोइये का वर्णन है।

मनु महाराज कहते हैं कि यदि ब्राह्मण की सेवा से शूद्र का पेट न भरे तो उसे चाहिए कि क्षत्रिय की सेवा करे, उससे भी यदि काम न चले तो किसी धनी वैश्य की सेवा से अपना जीवन निर्वाह करना चाहिए।

प्रत्येक मनुष्य की प्रकृति अलग-अलग होती है और उस वह अपनी विशिष्ट मनोवृत्तियों के आधार पर रहने, खाने आदि में प्रवृत्त होता है। अतः कहा जा सकता है कि वर्ण विभाग चार व्यवसाय ही नहीं अपितु ये मनुष्य की चार मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियां हैं। व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक को मोक्ष की ओर जाना है। और यह वर्ण व्यवस्था मनुष्य को सामूहिक रूप से शरीर से मोक्ष की तरफ ले जाने का सिध्दान्त है। वर्णव्यवस्था में कार्यानुसार श्रमविभाग तो आ सकता है, लेकिन यदि केवल श्रम विभाग की बात की जाय तो उसमें वर्ण व्यवस्था नहीं आ सकती है। आज का श्रम विभाग मनुष्य की शारीरिक और आर्थिक आवश्यकताएॅं तो पूरी करता है लेकिन आत्मिक, पारमात्मिक आवश्यकता नहीं। जबकि वर्ण व्यवस्था का आधार ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रहा है।

प्राचीन भारतीय संस्कृति ने चारों प्रवृत्तियों के व्यक्तियों के लिए यह निर्देश किया था कि वे अपनी प्रवृत्ति के अनुसार समाज को चलाने में सहयोग करें, समाज की सेवा करें। ब्राह्मण ज्ञान से, क्षत्रिय क्रिया से, वैश्य अन्नादि की पूर्ति करके और शूद्र शारीरिक सेवा से। यह उनका कर्तव्य निश्चित किया गया है। कर्तव्य से यह तात्पर्य नहीं होता है कि मनुष्य कार्य करने के बदले अपनी शारीरिक पूर्ति कर ले। कर्तव्य भावना जब व्यक्ति के अन्दर आ जाती है तब वह समर्पित भावना से कार्य करता है। इससे समाज में यदि कोई व्यक्ति अधिक  धन संपत्ति से युक्त हो भी जाए तो उसके मत में राज्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं हो सकती।

भारतीय संस्कृति की यह अमूल्य विरासत केवल मात्र एक व्यवस्था ही नहीं है अपितु एक कर्म है, जिस कर्म से कोई नहीं बच सकता है तभी चारों प्रकार के कर्मों को करते हुए मनुष्य अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकेगा।

आदि काल से लेकर आज तक मात्र भारतीय संस्कृति ही अपनी कुछ-कुछ अक्षुण्णता बनाए है, जबकि इस बीच कितनी ही संस्कृतियाॅं आयी और सभी-की-सभी धराशायी होती चली गई। वर्णव्यवस्था की परम्परा हमारे भारतवर्ष में पूर्णरूप से समाप्त नहीं हुई है यदि आज तथाकथित जातियों का समापन करके गुण-कर्म-स्वभाव के अनुरूप वर्णव्यवस्था का प्रतिपादन किया जाये तो निश्चित ही सामाजिक विसंगतियों का शमन (नाश) हो सकेगा और भारतीय संस्कृति की पताका पुनः अपनी श्रेष्ठ पदवी को प्राप्त कर सकेगी तथा कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’१५  व वसुधैवकुटुम्बकम्’ की उक्ति चरितार्थ हो सकेगी।

किसी कवि की पंक्तिएॅं यहाॅं सम्यक्तया चरितार्थ होती दिखायी देती हैं-

ऋषि ने कहा वर्ण शारीरिक,

बौध्दिक क्षमता के प्रतिरूप।

गुणकर्माश्रित वर्णव्यवस्था,

है ऋषियों की देन अनूप।।

बौध्दिक बल द्विजत्व का सूचक,

भौतिक बल है क्षात्र प्र्रतीक।

धन बल वैश्यवृत्ति का पोषक,

क्षम बल शूद्र धर्म निर्भीक।।

चारों वर्ण समान रहे हैं,

छोटा बड़ा न कोई एक।

चारों अपने गुण-विवेक से,

करते धरती का अभिषेक।।१६

सन्दर्भ-सूची:-

१. सत्व,रज एवं तम।

२. यजुर्वेद-३१/११।

३. स्वामी दयानन्द यजुर्वेद भाष्य से उद्धृत।

४. स्वामी दयानन्द यजुर्वेद भाष्य से उद्धृत।

५. छान्दोग्य.-४/४।

६. यजु.-३१/११।

७. मनुस्मृति-१/८८।

८. गीता-१८/४२।

९. पत´जलि

१॰. महाभाष्य. पा.।

११. शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष्।

१२. न्याय, सांख्य, वैशेषिक, योग, मीमांसा और वेदान्त।

१३. मनुस्मृति-३/१६८।

१४. यजुर्वेद-३॰/५।

१५. ऋग्वेद-९/६३/५।

१६. अद्यतन हिन्द कविताएॅं, उ.सं.वि.विद्यालय प्रकाशन,  हरिद्वार।

-कार्यकारी सम्पादक,

गुरुकुल पौन्धा, देहरादून (उ.ख.)

तो क्या? ( वैदिक धर्म में गौ मांस भक्षण एक झूठ) – संजय शास्त्री, कनाडा

महाराष्ट्र में गोमांस पर राज्य सरकार द्वारा प्रतिबन्ध लगाते ही कुछ लोगों की मानवीय संवेदनाएँ आहत हो उठीं और उनको लगा, जैसे मानवाधिकारों पर कयामत टूट पड़ी हो। कुछ लोग भारतीय इतिहास की दुहाई देते हुए संस्कृत शास्त्रों से गोमांस-भक्षण के उदाहरण देते हुए हिन्दुओं को सलाह देने लगे कि अपने शास्त्रों की बात मानोगे या आधुनिक हिन्दुत्ववादियों की? (इस विषय में मुसलमानों का एक मतान्ध किन्तु अति मन्दगति वर्ग बहुत सक्रिय हो गया है, इसलिये इस लेख में मुसलमानों की चर्चा करने पर बाध्य हुआ हूँ।) कुछ लोगों के हृदय में आर्य और अनार्य का कथित शाश्वत वैर जाग उठा और वे चिल्ला उठे कि गोमांस-भक्षण अनार्यों की प्राचीन परम्परा रही है, विदेश से आए आर्यों ने ही इस पर प्रतिबन्ध लगाया। यह कैसी षड्यन्त्रानुप्राणित ऐतिहासिक शिक्षा है जो हमें इतना मूर्ख बनाने में सफल रही है कि हम दो परस्पर विरोधी ‘ऐतिहासिक तथ्यों’ को मानने लगे हैं। अजीब है- एक तरफ तो यह सिद्ध किया जाता है कि गोमांस-भक्षण आर्यों के समाज में होता था, और दूसरी तरफ यह भी बताया जाता है कि गोमांस-भक्षण भारत के मूल निवासी अनार्यों की परम्परा रही है और बाहर से आये आर्यों ने ही इस पर जबर्दस्ती प्रतिबन्ध लगाया। खैर, जो भी हो, एक बात अवश्य ही स्पष्ट है कि जो लोग इन उदाहरणों को देकर गोमांस-भक्षण को आर्यों की सामान्य परम्परा सिद्ध करना चाहते हैं, वे उन प्रसंगों की सच्चाई छुपा कर ही ऐसा करते हैं। (इसका खुलासा नीचे भारतीय आदर्श के प्रसंग में किया गया है।) लेकिन इस विषय पर फिर कभी बात करूँगा। अभी तो बस इतना ही कहना है कि गोमांस-भक्षण के उदाहरणों का इस युग से क्या सम्बन्ध है, और उनकी उपयुक्तता क्या है। इस लेख में मैं प्राचीन भारतीय शास्त्रों में गोमांस-भक्षण के उदाहरणों की समीक्षा नहीं करना चाहता। वह इस लेख की सीमा से बाहर है। ऐसी समीक्षा निष्फल भी है, क्योंकि सामान्यतः अतीत की व्याख्या व्यक्ति के मानसिक परिप्रेक्ष्य में तैयार होती है – वैचारिक और नैतिक मानदण्डों से बँधी होती है और जब तक कोई व्यक्ति इस तरह की सीमाओं से बाहर निकलने को तैयार नहीं हो, तब तक मतभेदों का समाधान असम्भवप्रायः होता है। इसको ऐसे समझा जा सकता है-

१. जिन लोगों को गोमांस-भक्षण से ऐतराज नहीं है, उनको भारतीय इतिहास के इस प्रसंग में प्रायः उद्धृत उदाहरणों की व्याख्या गोमांस-भक्षणपरक करने से भी कोई ऐतराज नहीं होगा। यदि वे गोमांस खाते हैं, तो वे कदापि नहीं चाहेंगे कि इस पर प्रतिबन्ध लगे और वे इतिहास की ढाल लेकर मैदान में कूद पड़ेंगे।

२. लेकिन जिनको गोमांस-भक्षण संास्कृतिक पाप मालूम होता है, वे उन्हीं सन्दर्भों की व्याख्या गोमांस-भक्षण परक नहीं करेंगे। और यदि ऐसे सन्दर्भ कहीं मिलते भी हैं तो उनको प्रक्षिप्त मानकर अमान्य कर देंगे।

३. तीसरा प्रकार उन लोगों का है जो इतिहास की ऐसी बातों को गोमांस-भक्षण  के विरोधी हिन्दुओं को द्वेष भावना से केवल नीचा दिखाने के लिये कहते हैं। उन्हें न तो इतिहास से कुछ लेना-देना है, और न ही गोमांस-भक्षण से। ये वे बच्चे हैं, जिनको साथी बच्चों की शान्ति भंग करने में ही मजा आता है।

४. कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनको यह मान लेने से कोई ऐतराज नहीं है कि अतीत में कुछ लोगों ने गोमांस खाया होगा, लेकिन ऐसा मानने वाले यह भी मानते हैं कि इतिहास अतीत की बदलती हुई राजनीतिक और सामाजिक धाराओं का प्रवाह मात्र है, जिसको पढ़कर हम वर्तमान को सुधारने के लिये शिक्षा तो ले सकते हैं, लेकिन उसे हम आज न तो अनुभव कर सकते हैं और न ही उसको जी सकते हैं।

जो भी हो, एक बात स्पष्ट है कि ऐसे उदाहरणों की व्याख्या व्यक्ति के वैचारिक और नैतिक मानदण्डों से प्रेरित होती है, जिसका त्वरित समाधान सम्भव नहीं है, इसलिये यह लेख दुर्जनपरितोषन्याय से लिखा गया है। माना कि प्राचीन काल में कुछ लोगों ने गोमांस खाया होगा, तो क्या?

गोमांस-भक्षण के उदाहरण

जो गोमांस-भक्षण के उदाहरण दिये जाते हैं, वे इतने छिटपुट और प्रसंगतः क्षुद्र हैं कि उनके आधार पर गोमांस-भक्षण को सिद्ध करने की बात पर प्रमाण-शास्त्र को मानने वाला कोई भी व्यक्ति हँसेगा। उसका कारण है कि गौ के प्रति आर्यों की पवित्र भावना शाश्वत है। वेदों और दूसरे संस्कृत ग्रन्थों में गोमांस-भक्षण के उदाहरण देने वाले भी यह मानते हैं कि हिन्दुओं के प्राचीनतम शास्त्र ऋग्वेद से लेकर आज तक गौ के प्रति पवित्रभावना अविच्छिन्न रूप से मिलती है। ऋग्वेद में गाय को अघ्न्या (जिसको नहीं मारना चाहिये) कहा गया है और यही भावना बाद के ग्रन्थों में विस्तार से मिलती है। यदि गोमांस-भक्षण के उदाहरणों और गोहत्या को पाप तथा गोरक्षा को पुण्य मानने वाले उदाहरणों का परिमाण देखा जाए तो तुलना ऐसी होगी-गोहत्या से पाप और गोरक्षा से पुण्य मिलने का बखान करने वाले उदाहरण एक महासागर की तरह हैं, जिसमें गो मांस खाने के उदाहरण कुछेक तिनकों की तरह हैं। ऐसा क्यों है कि ये लोग उन छिटपुट उदाहरणों को तो प्रमाण मान रहे हैं, लेकिन बाकी महासागर की उपेक्षा कर रहे हैं? ऐसा किसी न किसी स्वार्थ या काम के वशीभूत होकर दुराग्रही होने पर ही होता है। प्रमाण-शास्त्र को मानने वालों के लिये यह हास्यास्पद ही होगा कि गोरक्षा की असीम विच्छिन्नधारा की उपेक्षा कर दो-चार वाक्यों को प्रमाण मानकर सांस्कृतिक  ऐतिहासिक धारा को मोड़ने का प्रयास किया जाए।

किसी घटना के केवल उदाहरण मिलने से ही ऐसी घटनाएँ विधान तो नहीं बन जाती हैं। यह सोचना चाहिये कि उस युग में भी आदर्श क्या था? इस विषय में भी इतिहासकारों को कोई संन्देह नहीं है कि तब भी गौ के प्रति सम्मान भावना रखना ही आदर्श माना जाता था। न केवल इतना, बल्कि किसी प्रकार के मांस को न खाना ही उनका आदर्श था। तो फिर आदर्श आचार से उनके आचार को सिद्ध करने में इतना परिश्रम क्यों कर रहे हैं ये लोग?

और फिर मनुष्य कभी भी धर्मशास्त्र का सर्वथा अक्षरशः पालन नहीं करता है। कितने ईसाई और मुसलमान हैं, जो बाइबिल और कुरान की अच्छी शिक्षाओं का अनुसरण करते हैं? मनुष्य पहले स्वभावतः मनुष्य ही होता है, उसकी धार्मिक पहचान भी अक्सर उसके स्वभाव के नीचे दबकर रह जाती है। जैसे ईसाई या मुसलमान अपने धर्म का अक्षरशः पालन नहीं करते हैं, वैसे ही कुछ हिन्दू भी नही करते हैं। ऋषि कपूर जैसे सुविख्यात कलाकार, जिनका परिचय हिन्दू के रूप में ही है, आज भी गोमांस खाते हैं। उन्होंने लिखा था कि ‘‘मुझे गुस्सा आ रहा है। खाने को धर्म से आप क्यों जोड़ रहे हैं? मैं बीफ खाने वाला एक हिन्दू हूँ। तो क्या, इसका मतलब यह है कि मैं बीफ नहीं खाने वाले की अपेक्षा कम धार्मिक हूँ? सोचो!’’ और यह महोदय यहाँ तक लिख बैठते हैं कि ‘‘वैसे मुझे मेरे उन मुस्लिम दोस्तों की तरह पार्क चॉप्स भी बेहद पसंद हैं जो मेरी तरह सोचते हैं। जब आप धर्म को खाने से जोड़ते हैं तो वे भी आप पर हँसते हैं।’’ भारत के अहिंसा के आदर्श और गौ के प्रति देवी तथा मातृवत् भाव के इतिहास से परिचित व्यक्ति इसका क्या उत्तर  देगा, यह कहने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इसका उत्तर  मशहूर शायर गालिब से मिलता है । १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम के बाद पुनः अंग्रेजी शासन की प्रतिष्ठा हो गयी और अंग्रेजों ने दिल्ली में संदिग्ध लोगों की धरपकड़ शुरू की । इसी प्रसंग में एक बर्न नाम के कर्नल ने अपनी टूटी-फूटी उर्दू में गालिब से पूछा, ‘‘तुम मुसलमान हो?’’ गालिब ने कहा, ‘‘आधा।’’ ‘‘इसका मतलब?’’ कर्नल ने पूछा तो गालिब ने जवाब दिया, ‘‘मैं शराब पीता हॅूँ, लेकिन सूअर नहीं खाता।’’ अर्थात् यदि गालिब शराब भी नहीं पीते तो पूरे मुसलमान होते और यदि शराब पीते और सूअर भी खाते तो मुसलमान ही नहीं रहते। खैर, जो भी हो, क्या यह उचित है कि ऋषि कपूर जैसे लोगों के उदाहरण से यह सिद्ध किया जाए कि आज हिन्दुओं में गोमांस खाना मान्य है? यदि नहीं तो, इतिहास में क्यों इस तरह की मानसिकता थोपने की कोशिश हो रही है? इन्द्रियों का दास हो चुके मनुष्य के लिये धर्मशास्त्र व्यर्थ हैं। धर्म का ज्ञान केवल उन्हीं को होता है, या हो सकता है, जो स्वार्थ और काम की भावना के वशीभूत नहीं हैं। स्वार्थान्ध और कामान्ध व्यक्ति के लिये तो शास्त्र नियम अभिशाप की तरह हैं, मानवाधिकारों का उल्लंघन है। ऋषि कपूर जैसे लोगों की यही करुण व्यथा है- गोवध पर प्रतिबन्ध से उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।

इसी प्रसंग में एक बात और। यदि इन लोगों को भारत के  अतीत से इतना ही प्यार और मान्य-भावना है, तो इनको यह भी समझना चाहिये कि उस युग के आचरणों की यथावत् प्रतिष्ठा के लिये जितना महत्वपूर्ण उस युग की बातों के होने का है, उतना ही महत्वपूर्ण कुछ बातों का नही होना भी है। उस समय ईसाइयत और इस्लाम भारत में तो क्या दुनिया मैं भी नहीं थे। तो जो लोग प्राचीन हिन्दू धर्म में गोमांस-भक्षण को प्रमाण मानकर आचरणीय मानते हैं, तो क्या उनको हिन्दू धर्म को स्वीकार कर अपनी आस्था को खुले रूप में प्रकट नहीं करना चाहिये? जब तक ऐसे लोग वैदिक धर्म और आचरण को स्वीकार न कर लें, तब तक उन्हें वैदिक या हिन्दू धर्म में आस्था रखने वालों को ‘‘अतीत की किस परम्परा का अनुसरण करना चाहिये’’ के विषय में बोलने का कोई अधिकार ही नहीं है।

इतिहास में किसी घटना के उदाहरण मिलना भी उनको हर युग और देश में स्वीकार करने का कारण नहीं हो सकता। भारतीय परम्परा में संस्कृति को प्रवाहमान माना गया है, जो हर युग में बदलती रहती है। इतिहास में इस तरह की परम्पराएँ रही हैं, जिनके विषय में आज सोचना भी मन में जुगुप्साभाव पैदा करता है। जैसे कि ईरान में सगे सम्बन्धियों में आपस में शादी की  परम्परा थी, जिसको पूरी धार्मिक और कानूनी मान्यता थी। यहाँ तक कि माँ-बेटे, बहन-भाई और पिता-बेटी की शादी की भी बहुप्रचलित परम्परा थी। यदि ग्रीक इतिहासकार हेरोडोटस को प्रमाण माना जाए तो ऐसी परम्पराएँ भी थीं, जब किसी के बीमार होने पर उसी के सम्बन्धी उसको मारकर, पकाकर उसका भोग लगाते थे। क्या गोमांस के छिटपुट उदाहरणों के आधार पर हिन्दुओं की धार्मिक भावना से खिलवाड़ करने को जायज ठहराने से पहले सगे सम्बन्धियों से शादी करने और बीमार सम्बन्धियों का भोग लगाने की परम्परा को कानूनी रूप से स्वीकार कर लिया जाये?

शास्त्र में कही गयी बातों के आचरणीय या अनाचरणीय होने के विषय में कामसूत्र में एक ही बात दो बार सावधान करने के लिये कही गयी है-

न शास्त्रमस्तीत्येतेन प्रयोगो हि समीक्ष्यते/न शास्त्रमस्तीत्येतावत् प्रयोगे कारणं भवेत्। शास्त्रार्थान् व्यापिनो विद्यात् प्रयोगांस्त्वेकदेशिकान्।।

(कामसूत्र, २.९.४१,७.२.५५)।

शास्त्र में किसी बात की चर्चा है, केवल इसी आधार पर उसका प्रयोग या आचरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि शास्त्र का विषय व्यापक होता है, जबकि प्रयोग एकदेशिक होते हैं, अर्थात् शास्त्र विभिन्न देश और काल की चर्चा करते हैं, उनका रिकार्ड रखते हैं, लेकिन प्रयोग प्रयोक्ता की शक्ति, समय, देश और परम्परा के अनुसार ही होते हैं, सर्वकालीन और सर्वजनीन नहीं। यही कारण है कि काम शास्त्र में रागवर्धक विचित्र प्रयोगों का विवरण देने के बाद उनका यत्नपूर्वक निवारण भी कर दिया गया है (कामसूत्र ७.२.५४)।

भारतीय आदर्श अब आते हैं भारतीय आदर्श पर। गोमांस की बात छोड़ो, भारतीय परम्परा में तो किसी भी प्राणी के मांस भक्षण से सर्वथा निवृत्ति  को ही आदर्श माना जाता था। मुसलमानों के इस धूर्त वर्ग ने मनु का भी एक श्लोक भारत में मांस भक्षण के पक्ष में प्रमाण के रूप में प्रचारित किया है। इसमें कहा गया है कि भोक्ता अपने खाने लायक पदार्थों  को खाने से किसी दोष का भागी नहीं होता है। इन खाने लायक भोजनों में प्राणियों को भी गिना गया है (मनु ५.३०)। विशेष बात यह है कि भारतीय विद्वानों ने इसको प्राण-संकट होने पर मान्य माना है। जैसे कि मनु के व्याख्याकार मेधातिथि ने इस श्लोक की व्याख्या में कहा है कि इसका मतलब यह है कि प्राणसंकट में हों तो मांस भी अवश्य खा लेना चाहिये (तस्मात् प्राणात्यये मांसमवश्यं भक्षणीयमिति त्रिश्लोकीविधेरर्थवादः।) ऐसा भी नहीं है कि यह मेधातिथि की मनमर्जी से की गई व्याख्या है। यह मनु के अनुरूप ही है। ऊपर उद्धृत श्लोक के बाद मनु ने प्राणियों की अहिंसा का गुणगान कई श्लोकों में करते हुए मांस भक्षण को पुण्यफल का विरोधी माना है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि यदि कोई व्यक्ति सौ साल तक हर साल अश्वमेध यज्ञ करता रहे और यदि कोई व्यक्ति मांस न खाए तो उनका पुण्यफल समान होता है (५.५३)। सन्तों के पवित्र फल-फूल भोजन मात्र पर निर्वाह करने वाले को भी वह पुण्यफल नहीं मिलता है जो कि केवल मांस छोड़ने वाले को मिलता है। मनु ने मांस की बड़ी अच्छी परिभाषा देते हुए कहा है कि-

मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमदाम्यहम्।

एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।।

– समझदार लोग कहते हैं कि मांस को मांस इसलिये कहा जाता है, क्योंकि मैं आज जिसको खा रहा हॅूँ (मां) मुझे भी (सः) वह परलोक में ऐसे ही खाएगा। और मनु गौ को तो सर्वथा अवध्य मानते हैं और उसकी रक्षा करना मनुष्य मात्र का कर्तव्य  मानते हैं। इसी प्रसंग में ऊपर दिया कामसूत्र विषयक परिच्छेद (भारतीय आदर्श शीर्षक से पहले) एक बार और देख लें तो विषय और भी स्पष्ट हो जाएगा। एक शास्त्र होने के नाते मनुस्मृति में चाहे मांस-भक्षण की चर्चा है, लेकिन जिस विस्तृत स्पष्टता  के साथ इसको अपुण्यशील माना है, वह मांस-भक्षण की स्वीकृति के पक्ष में नहीं, अपितु उसके साक्षात् विरोध में खड़ा है। तब भी यदि कोई इसमें मांस-भक्षण की स्वीकृति को सिद्ध करने की चेष्टा करता है, तो या तो वह मूढ़ अज्ञानी है, या धूर्त है।

हिन्दू बनाम गैर-हिन्दू

यह तर्क भी दिया जाता है कि गोहत्या केवल हिन्दुओं के लिये पाप है, दूसरे धर्मावलम्बियों (ईसाई और मुसलमानों) के लिये तो नहीं। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और शासन को एक धर्म की मान्यताओं के आधार पर दूसरे धर्मावलम्बियों के मानवाधिकारों का हनन नहीं करना चाहिये।

तर्क तो ठीक है, लेकिन बाकी तर्कों की ही तरह पक्षपाती है। कुरान केवल मुसलमानों के लिये ही तो पवित्र है, पैगम्बर मुहम्मद साहब भी केवल मुसलमानों के लिये पैगम्बर हैं, तो क्या मुसलमान यह स्वीकार करेंगे कि दूसरे धर्मावलम्बी कुरान के साथ जैसा चाहे व्यवहार कर सकते हैं? क्या ईसाईयों को यह स्वीकार होगा कि यदि कोई सूली पर लटके ईसा की काष्ठमूर्ति को जलाकर ठण्ड से सिकुड़ते बदन को सेक ले? यदि मुसलमानों और ईसाइयों को यह स्वीकार नहीं होगा तो उनको हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का ध्यान रखना ही चाहिये। गाय का प्रश्न केवल खाने-पीने तक नहीं है, गाय को श्रद्धाभाव से, पवित्र देवी के रूप में देखा जाता है। यदि एक-दूसरे की भावनाओं का ध्यान  नहीं रखेंगे, तो अतीत की तरह दंगों की आग दोनों ही तरफ के लोगों को झुलसाती रहेगी। समय-समय की बात है – कभी मुसलमानों-ईसाइयों का पलड़ा भारी होगा तो कभी हिन्दुओं का, लेकिन इस हठधर्मिता से कोई समाधान नहीं होगा। समाधान केवल तभी होगा जब आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्। – ‘‘जो व्यवहार अपने प्रति पसन्द नहीं, वह व्यवहार दूसरों के प्रति भी न करें’’ का पालन किया जाए।

और ऐसा भी क्यों है कि मुसलमानों का एक वर्ग हिन्दुओं के प्रति विद्वेषभावना से बाबर, हुमायूँ, औरंगजेब जैसे कट्टरपन्थी मुगलों की केवल गन्दी विरासत को ही ढोने और उसके लिये मर मिटने के लिये तैयार रहता है? यह वर्ग इन शासकों की उन बातों पर कभी ध्यान क्यों नहीं देता, जिनसे भारतीय समाज में सौहार्दभाव को बढ़ावा मिले और शान्ति स्थापित हो सके? इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि हिन्दुओं की धार्मिक/सांस्कृतिक भावनाओं के भड़क जाने के भय से बाबर ने न केवल अपने शासन में गोवध पर पाबन्दी लगा रखी थी, बल्कि अपने बेटे हुमायूँ को भी इसको जारी रखने का हुक्म दिया था। अकबर ने भी अपने शासन में गोवध पर पाबन्दी लगा रखी थी। यहाँ तक कि औरंगजेब जैसे कट्टर और परधर्मद्वेषी शासक ने भी गोवध पर मृत्युदण्ड घोषित कर रखा था और इसी परम्परा को आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने भी जारी रखा था।

जहाँ तक बात है अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की रक्षा की, तो यह रक्षा यदि बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को आहत करके  होती है तो सर्वथा अनुचित है। और फिर केवल कुछेक व्यक्तियों के मानवाधिकारों की ही बात क्यों हो? क्या बहुसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं होनी चाहिये? ऐसा भी नहीं है कि राज्य सरकार द्वारा पारित यह नियम केवल अल्पसंख्यकों पर लागू होगा, यह तो सभी पर लागू होगा- ऋषि कपूर जैसे और भी लोग होंगे जो अल्पसंख्यकों की श्रेणी में नहीं आते हैं। उन पर भी लागू होगा। इस तरह की सर्वजन-समभाव की सुविधा गैर-मुस्लिमों को मुगल सल्तनत में कभी नहीं मिली।

इन्हीं अधिकारों की भाषा बोलते-बोलते मुसलमानों का यह वर्ग एक और देश विभाजन हो जाने की धमकी देने लगा है। देश विभाजन होगा या नहीं, इसका जवाब तो समय ही देगा, लेकिन मुसलमानों के भारत में अधिकार की चर्चा के विषय में मैं इस्लामी धर्मशास्त्र, परम्परा, और इतिहास के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में से एक मौलाना वहीदुद्दीन खान के मन्तव्य के साथ इस लेख को समाप्त करता हूँ। सन् २००७ में बीबीसी ने आजादी के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर एक लेखमाला छापी थी, जिसमें मौलाना वहीदुद्दीन खान के मन्तव्य भी छपे थे। उसका एक अंश बीबीसी से ही उद्धृत करता हूँ-

इस्लामी मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं कि मुसलमानों को भारत में जो कुछ मिला है, वह हिन्दू समुदाय की मेहरबानी है और उन्हें इस देश में जो कुछ भी मिला है, उसका उन्हें अधिकार ही नहीं था, इसलिए उन्हें ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इस्लामी विद्वान् मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं, ‘‘स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान मुसलमानों ने जो बलिदान दिए, उनके बदले उन्हें पाकिस्तान के रूप में एक अलग देश मिल गया और इस तरह उन्होंने अपनी कुर्बानियों को भुना लिया। विभाजन की दलील ही यह थी कि भारत हिन्दू का और पाकिस्तान मुसलमान का, तो फिर अब भारत में उनका अधिकार कैसा? इसके विपरीत हिन्दू समुदाय ने बड़ी बात की है कि आजाद भारत में भी मुसलमानों को बराबरी का दर्जा दे दिया।’’

उपसंहार इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए केवल मूर्ख व्यक्ति ही ऐसा दुराग्रह करेगा कि चूँकि पहले कुछ लोगों ने ऐसा किया था, इसलिये आज भी ऐसा करना चाहिये। युग बदल गया है, कुछ  आचार-विचार बदल गये हैं और कुछ आचार-विचार समाप्त-प्राय हैं। कुछ परम्पराएँ क्षीण हो गयी हैं, तो कुछ बलवती हो गयी हैं। आधुनिक भारतीय इतिहास को सप्रमाण जानने वाला हर विद्वान् यह मानता है कि पिछले कुछ सौ वर्षों में हुए हिन्दू-मुस्लिम द्वेष और दंगों के पीछे सबसे बड़ा कारण गोहत्या से जुड़ी घटनाओं का होना रहा है। १८५७ में हुए स्वतन्त्रता संग्राम के दिल्ली में विफल हो जाने का एक कारण गोहत्या के कारण हिन्दू-मुस्लिम लोगों का बँट जाना भी था, जिसका अंग्रेजों ने पूरा लाभ उठाया। ऐसे में सवाल यह नहीं है कि पहले भारत में क्या होता था और क्या नहीं होता था। सवाल यह है कि आज की असलियत क्या है? आज हिन्दुओं के लिये गौ एक धार्मिक पहचान है और उसकी रक्षा करना धार्मिक कर्तव्य । जबकि गोमांस खाने वाले किसी भी व्यक्ति के लिये न किसी त्यौहार पर और न किसी दूसरे अवसर पर गोमांस खाना धार्मिक या सांस्कृतिक कर्तव्य है। भारत के अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने गोहत्या पर पाबन्दी लगाई और गोवध करने वाले को तोप से उड़ा दिये जाने की घोषणा की तो दिल्ली के दो सौ प्रतिष्ठित मुसलमानों ने उनके पास जाकर गुहार लगाई कि ईद के मौके पर उनको गोहत्या करने दी जाए। जफर आग-बबूला हो गये और बोले कि मुसलमान का धर्म गाय की बलि पर निर्भर नहीं है। जैसा पहले कहा गया है, यहाँ तक कि धार्मिक रूप से क्रूर पहचान रखने वाले मुगल बादशाह भी कुछ हद तक हिन्दुओं की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए गोहत्या पर पाबन्दी लगा सकते हैं, तो क्या धर्म-निरपेक्ष भारत में सामाजिक समरसता और शान्ति बनाए रखने के लिये गोवध पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है? क्या गोवध पर प्रतिबन्ध के खिलाफ लड़ाई केवल खाने की लड़ाई है या इसके पीछे सामाजिक समरसता को भंग करने वाले कुछ धूर्त हैं? क्या हम भारत में परस्पर वैमनस्य ही फैलाते रहेंगे?

– बी.बी.सी. हिन्दी,

शुक्रवार, ०५ अक्टूबर २००७

हमारा परम मित्र – ईश्वर – सुकामा आर्या

हम सब बचपन से एक तत्व  के विषय में बहुत कुछ सुनते आए हैं, पर आज भी ध्यान से देखें तो उस तत्व  के विषय में हमारी प्रवृत्ति  वैसी नहीं बन पाई है, जैसी की होनी चाहिए। कारण, हमारी स्थिति श्रवण तक रही-

न श्रवणमात्रात् तत् सिद्धिः।

सिर्फ सुनने मात्र से किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो जाती। मान लीजिए- हम रुग्ण हो गए। किसी मित्र ने बताया कि अमुक दवा ले लीजिए, तो क्या हम सुनने मात्र से स्वस्थ हो जाएँगे? नहीं, हमें बाजार से दवा लानी पड़ेगी, यथोचित समय पर उसका सेवन करना पड़ेगा, तब कहीं जाकर सम्भावना है कि हम स्वस्थ हो पाएँ। ठीक यही बात उस एक तत्व  के विषय में भी घटती है। उस तत्व को हमें व्यक्तिगत स्तर पर, अनुभूति के स्तर पर लाना है, तभी हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। वह अद्भुत त           व है- ईश्वर।

ईश्वर को समझने में सहायक उसका सबसे सरलतम गुण है- सर्वव्यापकता। किसी वस्तु को हम उसके गुणों से ही जानते हैं। इसी एक गुण को समझ लेने से उसके कई प्रमुख गुण भली प्रकार से समझ में आ जाते हैं।

ईश्वर सर्वज्ञ है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

ईश्वर सर्वान्तर्यामी है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

ईश्वर सर्वरक्षक है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

वेद कहता है- स पर्यगात्- वह पहले से वहाँ पहुँचा हुआ है।

त्वं हि विश्वतोमुख विश्वतः परिभूरसि सब तरफ उसके मुख हैं।

विश्वतो चक्षुः सब जगह उसकी आँखें हैं।

अर्थात् वह ईश्वर इस जगत् के कण-कण में विद्यमान है। ‘‘प्रभु सब में, सब कुछ है प्रभु में।’’ यूँ समझें कि सारा संसार ईश्वर में डूबा हुआ है। हर दिशा में, हर सिम्त वह है-

जिधर देखता हूँ, खुदा ही खुदा है,

खुदा से नहीं चीज कोई जुदा है।

जब अव्वल और आखिर खुदा ही खुदा है,

तो अब भी वही कौन उसके सिवा है।

एक क्षण के लिए विचार करें कि माँ-बाप, भाई-बहन, सखा-मित्र आदि तब तक ही हमारी रक्षा कर पाते हैं, जब तक वे हमारे साथ हैं, हमारे साथ उपस्थित हैं। अपनी अनुपस्थिति में वे हमारा सहयोग नहीं कर पाते हैं, उनकी विवशता होती है। ईश्वर को अनुभूति के स्तर पर देखें, तो पता चलेगा कि वह हर क्षण हमारे पास है, हम उसकी उपस्थिति में उपस्थित हैं। उसकी हाजिरी में हाजिर हैं।

हम मुश्किल परिस्थिति में किससे सहायता माँगते हैं- माँ-बाप से, मित्रों से- जिनकी देने की शक्ति व सीमा सीमित है, जो दोहरे मापदण्ड वाले हैं। आज-इस क्षण अच्छे तो अगले ही क्षण बुरे, जिनके व्यवहार का हम अनुमान ही नहीं लगा पाते। दुनिया में सबसे अधिक अपूर्वानुमेय व्यवहार किसी प्राणी का है, तो वह इस छः फूट के मानव नाम के प्राणी का है। जानवरों का व्यवहार भी अधिकतम सीमा तक निर्धारित रहता है। कुत्ते को रोटी डालोगे तो वह स्नेह से पूँछ हिलाएगा, डण्डा दिखाओगे तो डरेगा, भौंकेगा, पर इस मनुष्य नामक प्राणी का तो पता ही नहीं चलता, जाने कब कौन-से पत्ते  फेंक दे? परन्तु ईश्वर हमेशा एकरस है, उसके नियम अटल हैं, वह पक्षपात रहित होकर न्यायपूर्वक व्यवहार करता है, हर देश, काल व परिस्थिति में एक-सा ही रहता है। वस्तुतः वह ईश्वर ही हमारी मैत्री के सर्वाधिक लायक है।

यूँ ही काल की दृष्टि से देखें तो इस  लोक के सम्बन्ध- माता-पिता, भाई-बन्धु, गुरुजन- सभी इस जीवन तक ही सीमित हैं। हम समाप्त तो सब सम्बन्ध समाप्त, पर ईश्वर से हमारा सम्बन्ध तो अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहेगा। इस शरीर के छूटने के बाद भी- हमेशा। लोक में भी जो वस्तुएँ या सम्बन्ध या मैत्री लम्बे काल तक चलती हैं, उनको हम अच्छा समझते हैं, मूल्यवान समझते हैं। ओल्ड इज गोल्ड मानते हैं। इस दृष्टि से भी ईश्वर हमारी मैत्री के मापदण्डों पर पूर्णतया खरा उतरता है, इसलिए हमें उससे मित्रता बढ़ाने व बनाए रखने पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

हमें समस्या कहाँ आती है? हम लोक के मित्रों व सम्बन्धों को तो समय देते हैं, पर ईश्वर के लिए समय निकालना हमें मुश्किल लगता है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमें ईश्वर के मह       व का पता नहीं, इसलिए सन्ध्या व ध्यान के लिए समय निकालना अत्यन्त कठिन लगता है। रुचि नहीं बनती है। हमें अपने पिता जी की १-२ करोड़ की संपत्ति  नजर आती है। मित्रों की योग्यता, धन-वैभव, गुरुजनों का ज्ञान नजर आता है, परन्तु ईश्वर का परम ऐश्वर्य हमारी आँखों से प्रायः ओझल ही रहता है। यह विचार कर लें कि जो पिताओं का भी पिता है, गुरुओं का भी गुरु है, माताओं की भी माता है- वह कितना मह                    वपूर्ण, विशिष्ट, वरिष्ठ सहयोगी सिद्ध होगा।

दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें- अगर हम जरा-सा कुछ पिता जी के खिलाफ गए तो पिता जी जायदाद से बेदखल कर देंगे। कक्षा में अध्यापक की आज्ञा का उल्लंघन किया तो वे कक्षा से बाहर जाने को कह देंगे। संस्था के अधिकारी रुष्ठ हो गए तो वे संस्था से बाहर निकाल देंगे। एक क्षण के लिए विचार करें कि क्या ईश्वर कभी हमें अपने दायरे से बाहर निकाल सकता है? कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं, क्योंकि वह सर्वव्यापक है, हर स्थान पर है। यहाँ से इस लोक से निकालेगा, तो दूसरे लोक में रख लेगा, लेकिन हमेशा अपने सान्निध्य में, अपने पास हमें रखेगा। क्या इस ईश्वरीय प्रेम के तुल्य कोई अन्य सांसारिक व्यक्ति का प्रेम हो सकता है? विचार करेंगे तो स्वयमेव ही उस परम सत्ता  के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, समर्पण व प्रेम का भाव उद्भूत हो जाएगा।

हम विकट-से-विकट परिस्थिति में डगमगाएँगे नहीं। एक बार समुद्र में कोई नवविवाहित जोड़ा नाव में बैठ कर जा रहा था। अन्य लोग भी नाव में सवार हो कर जा रहे थे। अचानक तूफान आया और नाव डगमगाने लगी। सभी लोग चिल्लाने लगे, परन्तु वह युवक प्रेम से ईश्वर का ध्यान करने लगा, ताकि अपने मन को विचलित होने से बचाकर अपनी सुरक्षा का समाधान ढूंढ सके। उसकी पत्नी ने पूछा कि सब लोग हाहाकार मचा रहे हैं और तुम ध्यान कर रहे हो? क्या तुम्हें भय नहीं लग रहा? तो उसने तत्काल पिस्तौल निकाल कर पत्नी की कनपटी पर रख दी। पत्नी मुस्कुराने लगी। युवक ने पूछा- क्या तुम्हें भय नहीं लग रहा? उसने कहा- नहीं। युवक ने पूछा- क्यों? पत्नी बोली- क्योंकि मैं जानती हूँ कि पिस्तौल मेरे प्रियतम के हाथ में है, वह मेरा नुकसान कर ही नहीं सकता। वह युवक बोला- ठीक इसी प्रकार यह नाव भी मेरे परमप्रिय मित्र, सखा ईश्वर के हाथ में है, जो उसको अभीष्ट मानकर करेगा, वही सुझाये हुए उपायों के  भय से रहित होगा। यह विश्वास तभी बनता है, जब हम ईश्वर की सत्ता  को सर्वव्यापक समझ लेते हैं-

आ गया तेरी शरण जब तो मुझे अब भय कहाँ?

मैं तेरा, किश्ती तेरी, साहिल तेरा, दरिया तेरा।

हमारी कमी, न्यूनता यहाँ रह जाती है, हम मानते हुए भी व्यावहारिक स्तर पर ईश्वर की अनुभूति नहीं रख पाते हैं। यूँ कहें कि थ्योरी की परीक्षा में तो सफल हो जाते हैं पर प्रैक्टिकल की परीक्षा में या तो उपस्थित ही नहीं होते या होते हैं तो अनुत्तीर्ण  हो जाते हैं। हमें दोनों परीक्षाओं में पास होना है।

इसके लिए आवश्यक है कि जीवन जीते हुए, दिनचर्या करते हुए, हम अपने परम मित्र की याद बनाए रखें। हमें हर क्षण महसूस हो कि हमारा परमप्रिय मित्र साथ है-

नहीं कहता हूँ, दुनिया से जुदा हो।

मगर हर काम में यादे खुदा हो।।

हम जिस-जिस वस्तु या व्यक्ति का चिन्तन करते हैं, उससे अनुराग हो ही जाता है या यूँ कहें कि जिस-जिस वस्तु या व्यक्ति से अनुराग होता है, उस-उस का चिन्तन करने से हमें सुख मिलता है, आनन्द मिलता है, तो क्यों न उस परम आनन्दमय, सुख के भण्डार हमारे परम मित्र का चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते चिन्तन किया जाए, उसको स्मरण में रखा जाए। इसको करने से दूसरा लाभ यह होगा कि हम गलत, बुरे कर्मों को करने से बच जाएँगे। जैसे अगर ट्रैफिक पुलिस वाला चौक में खड़ा हो तो हम लाल बत्ती  का उल्लंघन नहीं करते हैं, हमें डर, भय होता है- चालान काट दिए जाने का। ठीक उसी प्रकार हम दिनचर्या में चलते हुए भी नियमों को नहीं तोड़ेंगे, क्योंकि हमारा ट्रैफिक पुलिस वाला मित्र तो हर क्षण ड्यूटी पर तैनात है, कभी भी कहीं भी हमें अकेला नहीं छोड़ता। हाँ, हम उसे समझने महसूस करने में नाकाबिल साबित होते हैं-

दिलबर तेरा तेरे आगे खड़ा है,

मगर नुक्स तेरी नजर में पड़ा है।

बचपन से लेकर आज तक कई मित्र बनाए, कई छोड़े, कई मिले, कई बिछुड़े, आज से एक उसकी मैत्री को बनाने में लगें, जो न केवल मित्रता-दिवस पर हमें याद आए, परन्तु हमेशा के लिए हमारे साथ आत्मसात् हो जाए। हम अपने पक्ष को उस मैत्री के लिए योग्य सिद्ध करें, तभी हम इस मित्रता को सही ढंग से, प्रेम से, कृतज्ञता से निभा पाने में सफल हो पाएँगे।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

अग्निहोत्र का आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व – प्रो. डी.के. माहेश्वरी

पिछले अंक का शेष भाग…..

मीठे पदार्थ

शक्कर, सूखे अंगूर, शहद, छुआरा आदि भी यज्ञ के समय प्रयोग होते हैं। आजकल हवन सामग्री एक कच्चे पाउडर के रूप में बाजार में आसानी से उपलब्ध  है जो निम्न पदार्थों से निर्मित की जाती है- चन्दन तथा देवदार की लकड़ी का बुरादा, अगर और तगर की लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े, कपूर-कचरी, गुग्गुल, नागर मोथा, बलछार, जटामासी, सुगन्धवाला, लौंग, इलायची, दालचीनी, जायफल आदि। आजकल विभिन्न संस्थान हवन सामग्री निर्मित कर रहे हैं, जिनमें ये सभी पदार्थ एक अलग अनुपात में होते हैं।

यज्ञ के चिकित्सीय पहलू

प्राचीन समय से आयुर्वेदिक पौधों के धुएँ का प्रयोग मनुष्य विभिन्न प्रकार की बीमारियों से निदान पाने के लिए करते आ रहे हैं। यज्ञ से उत्पन्न धुएँ को खाँसी, जुकाम, जलन, सूजन आदि बीमारियों के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मध्यकालीन युग में प्लेग जैसी घातक बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए धूप, जड़ी-बूटी तथा सुगन्धित पदार्थों का धूम्रीकरण किया जाता था।

यज्ञ द्वारा प्राप्त हुई रोगनाशक उत्तम  औषधियों की सुगन्ध प्राणवायु द्वारा सीधे हमारे रक्त को प्रभावित कर शरीर के समस्त रोगों को नष्ट कर देती है तथा हमें स्वस्थ और सबल बनाती है। तपेदिक का रोगी भी यदि यक्ष्मानाशक औषधियों से प्रतिदिन यज्ञ करे तो औषधि सेवन की अपेक्षा बहुत जल्दी ठीक हो सकता है। वेदों में कहा गया है- हे मनुष्य! मैं तेरे जीवन को स्वस्थ, निरोग तथा सुखमय बनाने के लिए तेरे शरीर में जो गुप्त रूप से छिपे रोग है, उनसे और राजयक्ष्मा (तपेदिक) जैसे असाध्य रोग से भी यज्ञ की हवियों से छुड़ाता हूँ। विभिन्न रोगों की औषधियों द्वारा किया हुआ यज्ञ जहाँ उन औषधियों की रोग नाशक सुगन्ध नासिका तथ रोम कूपों द्वारा सारे शरीर में पहुँचाता है, वहाँ यही यज्ञ, यज्ञ के पश्चात् यज्ञशेष को प्रसाद रूप में खिलाकर औषध सेवन का भी काम करता है। इससे रोग के कीटाणु बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। वेदों में कहा गया है कि-

हे मनुष्य! यह यज्ञ में प्रदान की हुई रोगनाशक हवि तेरे रोगोत्पादक  कीटाणुओं को तेरे शरीर में से सदा के लिए बाहर निकाल दे अर्थात् यज्ञ की रोगनाशक गन्ध शरीर में प्रविष्ट होकर रोग के कीटाणुओं के विरुद्ध अपना कार्य कर उन्हें नष्ट कर देती है।

अग्निहोत्र से पौधों को पोषण मिलता है, जिससे उनकी आयु में वृद्धि होती है। अग्निहोत्र जल के स्रोतों को भी शुद्ध करता है। यज्ञ के उपरान्त वायु में धूम्रीकरण के प्रभाव को वैज्ञानिक रूप से सत्यापित करने के लिए डॉ. सी. एस. नौटियाल, निदेशक, सी.आई.आर.-राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ व अन्य शोधकर्ताओं  ने वायु प्रतिचयन यन्त्र का प्रयोग किया। उन्होंने यज्ञ से पूर्व वायु का नमूना लिया तथा यज्ञ के उपरान्त एक निश्चित अन्तराल में २४ घण्टे तक वायु का नमूना लिया और पाया कि यज्ञ के उपरान्त वायु में उपस्थित वायुजनित जीवाणुओं की संख्या कम थी। कुछ आँकड़ों के अनुसार, औषधीय धुएँ से ६० मिनट में ९४ प्रतिशत वायु में उपस्थित जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। सुगन्धित और औषधीय धुएँ से अनेक पौधों के रोग जनक जीवाणु, जैसे बरखोलडेरिया ग्लूमी जो चावल में सीडलींग रॉट (Seedling rot of rice), कटोबैक्टीरियम लैक्युमफेशियन्स जो फलियों में विल्टिंग (Wilting in beans), स्यूडोमोनास सीरिन्जी जो आडू में नैक्रोसिस (Necrosis of peach tree tissue), जैन्थोमोनास कम्पैस्ट्रिस जो क्रूसीफर्स में       लैक रॉट (Black rot in crueifers) करते हैं, आदि को नष्ट किया जा सकता है।

वायुजनित प्रसारण रोग के संक्रमण का एक मुख्य मार्ग है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O. 2004) के अनुसार, विश्व में ५७ लाख मृत्यु में से १५ लाख (>२५त्न) वायुजनित संक्रमित रोगों के कारण होती है। औषधीय धुएँ से मनुष्य में रोग फैलाने वाले रोगजनक जीवाणुओं जैसे-कॉर्नीबैक्टीरियम यूरीलाइटिकम जो यूरीनरी ट्रैक्ट इन्फैक्शन, कॉकूरिया रोजिया जो कैथेटर रिलेटिड बैक्टीरीमिया, स्टेफाइलोकोकस लैन्टस जो स्प्लीनिक ऐ  सेस स्टेफाइलोकोकस जाइलोसस जो एक्यूट पॉलीनैफ्रिइटिस ऐन्टेरोबैक्टर ऐयरोजन्स जो नोजोकॉमियल इन्फैक्षन करते हैं आदि को नष्ट किया जा सकता है। सुगन्धित तथा औषधीय धुएँ का प्रयोग त्वचा सम्बन्धी तथा मूत्र-तन्त्र सम्बन्धी विकारों को दूर करने में भी किया जाता है। धुएँ के प्रश्वसन से (Inhalation) फुफ्फुसीय और तन्त्रिका सम्बन्धी विकार दूर हो जाते हैं।

औषधीय धुएँ का बीजांकुरण में मह                          व

एक दिलचस्प खोज में पता चला है कि प्रकृति में धुँआ बीज अंकुरण को उत्तेजित  करता है। विभिन्न प्रकार के कार्बनिक पदार्थों का १८०-२००ष्ट सेल्सियस तापमान पर दहन एक अधिक सक्रिय, ऊष्मीय रूप से स्थिर 3-methy1-2H-furo[2,3-C] pyron-2-one यौगिक बनाता है जो कि बीज अंकुरण को उत्तेजित करता है। धुएँ से अंकुरित पौधों की भी वृद्धि होती है, क्योंकि धुँआ बीज और अंकुरित पौधों को सूक्ष्मजीवी के आक्रमण से बचाता है, जिससे पौधे निरोगी तथा हृष्ट-पुष्ट रहते हैं।

यज्ञ के भौतिकीय पहलू

भौतिक संसार में ऊर्जा की दो प्रणालियाँ ऊष्मा और ध्वनि हैं। यज्ञ के दौरान ये दोनों ऊर्जाएँ (यज्ञ से उत्पन्न होने वाली अग्नि और गायत्री तथा अन्य मन्त्रों द्वारा उत्पन्न ध्वनि) मिलकर हमारी वांछित शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक इच्छाओं को पूर्ण करने में सहयोग प्रदान करती है। यज्ञ की अग्नि में जो विशेष पदार्थ आहुत किये जाते हैं, उन्हें अग्नि में आहुत करने का एक वैज्ञानिक आधार है। वैज्ञानिकों का दृष्टिकोण है कि मन्त्रों द्वारा उत्पन्न विद्युत-चुम्बकीय तरंगें हमारी आत्मिक इच्छाओं को लौकिक स्तर पर प्रसारित करने में मदद करती है।

यज्ञ में दहन के उत्पाद से सम्बन्धित अभी तक कुछ वैज्ञानिक पहेलियाँ अनसुलझी हुई हैं, जैसे-भौतिक विज्ञान के सन्दर्भ में यज्ञ में दहन प्रक्रिया की व्याख्या करना कठिन है, जिसके निम्न कारण हैं-

* यज्ञ में प्रयोग किये जाने वाले पदार्थों के गुण भिन्न-भिन्न होते हैं।

* जिन स्थितियों में यज्ञ होता है, वह अनिश्चित होती हैं।

पदार्थों का दहन निम्न कारकों पर निर्भर करता है-

* दहन में प्रयोग किये गये पदार्थों की प्रकृति और उनका अनुपात।

* तापमान।

* वायु की नियन्त्रित आपूर्ति

* निर्मित हुए पदार्थों के बीच आकर्षण।

यज्ञ की प्रक्रिया में औषधीय व सुगन्धित पदार्थों का वाष्पीकरण

पौधों (लकड़ी) के अन्दर प्रचुर मात्रा में सेलुलोज होता है, जिसका पूर्ण दहन होने से पहले इसका वाष्पीकरण होता है। अग्निकुण्ड में जिस प्रकार से समिधाओं को व्यवस्थित किया जाता है, उस पर अग्निकुण्ड का तापमान और वायु की आपूर्ति निर्भर करती है। अग्निकुण्ड का तापमान सामान्यतः २५० सेल्सियस से ६०० सेल्सियस तक होता है, जबकि इसकी ज्वाला का तापमान १२०० सेल्सियस से १५०० सेल्सियस तक होता है। यह तापमान यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले मुख्यतः सभी वाष्पीय पदार्थों का वाष्पीकरण करने में सक्षम होता है। जब सेलुलोज व अन्य पदार्थों, जैसे कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन आदि का दहन किया जाता है तो पर्याप्त मात्रा में वाष्प उत्पन्न होती है, जिसमें हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा कार्बनिक पदार्थों का मिश्रण होता है, जिसमें ठोस कण अत्यधिक विभाजित अवस्था में होते हैं, जो यान्त्रिक प्रसार के लिए पर्याप्त सतह प्रदान कराते हैं। इस प्रकार धुआँ कोलॉइडल कणों के रूप में कार्य करता है, जो सुगन्धित पदार्थों को वायु के तापमान और दिशा के आधार पर प्रसारित करने का कार्य करता है। कोई भी पदार्थ जलकर गैस रूप में असंख्य गुना व्यापक हो जाता है। यह बात वैज्ञानिक रूप में भी सिद्ध हो चुकी है। १९६६ में आयोजित कैलिफोर्निया यूनीवर्सिटी की एक गोष्ठी में वैज्ञानिकों ने माना कि अग्नि में किसी भी हव्य को ‘ऑक्सीकृत’ कर अनन्त आकाश में पहुँचा देने की क्षमता है।

वसायुक्त पदार्थों का दहन

यज्ञ में प्रयोग किये जाने वाले पदार्थ मुख्य रूप से घी तथा वनस्पति मूल के अन्य वसायुक्त पदार्थ हैं। घी, लकड़ी के तीव्र दहन में मुख्य सहायक है। सभी वसायुक्त पदार्थ फैटी एसिड (वसीय अम्ल) के संयोजन से बने होते हैं, जो आसानी से वाष्प में परिवर्तित हो जाते हैं। ग्लिसरॅाल के दहन से ऐसीटोन निकाय, पायरुविक ऐल्डिहाइड, ग्लायऑक्जल आदि बनते हैं। इन प्रक्रियाओं में उत्पादित हाइड्रोकार्बन पुनः धीमे दहन से गुजरते हैं, जिसके फलस्वरूप मिथाइल और इथाइल एल्कोहॉल, फॉर्मेल्डिहाइड, एसिटेल्डिहाइड, फॉर्मिक एसिड, ऐसिटिक एसिड आदि का निर्माण होता है।

प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया

जब सभी वाष्पशील पदार्थ वातावरण में दूर तक फैल जाते हैं, तब यह प्रक्रिया प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया कहलाती है, जो सूर्य की किरणों की उपस्थिति में होती है। ऋषि-मुनियों ने इसी कारण यज्ञ को बाहर खुले में अर्थात् धूप में करने को प्राथमिकता दी है। इस प्रकार धूम्रीकरण से उत्पन्न उत्पाद ऑक्सीकरण, अपचयन व प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया में जाते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड के अपचयन के बाद फॉर्मेल्डिहाइड का निर्माण होता है, जिसे निम्नलिखित रासायनिक क्रिया से दर्शाया गया है-

CO2+H2O+112,000 Cal=HCHO+O2

जैसा कि विदित है, फॉल्डिहाइड वातावरण में उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है, इसी प्रकार यज्ञ से उत्पन्न हुए अन्य पदार्थ, जैसे फॉर्मिक अम्ल व एसिटिक अम्ल भी अच्छे रोगाणुरोधक का कार्य करते हैं। प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया के अन्तर्गत कार्बन डाइऑक्साइड की सान्द्रता में कमी व ऑक्सीजन की सान्द्रता में वृद्धि होती है, यही कारण है कि यज्ञ करने से वातावरण शुद्ध हो जाता है।

यज्ञ में जो धूम्रीकारक पदार्थ प्रयोग में लाये जाते हैं, उनके धूम्रीकरण से कुछ प्रभाव कीट-पतंगों पर भी पड़ता है। जैसे- कपूर के धूम्रीकरण से कीट-पतंगे नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार वाष्पशील पदार्थों के धुएँ के सम्पर्क में आने से अनेक घातक कीट भी नष्ट हो जाते हैं।

आजकल औषधीय धुएँ का उपयोग विज्ञान की अनेक शाखाओं जैसे-कृषि, खरपतवार नियन्त्रण, उद्यान-कृषि, पारिस्थितिक प्रबन्धन, प्राकृतिक वास नवीनीकरण आदि में किया जा रहा है। इस लेख में वायुवाहित जीवाणुओं पर प्राकृतिक उत्पादों के धुएँ के पुराऔषध गुण सम्बन्धी दृष्टिकोण के मह                  व और व्यापक विश्लेषण तथा वैज्ञानिक पुष्टीकरण को दर्शाया गया है, अतः आधुनिक युग में औषधीय वायु एवं धुएँ के मह   व को ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला गया है कि अगर हम प्रदूषण मुक्त और रोगमुक्त जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो हमें अग्निहोत्र का अपने दैनिक कार्यों में समावेश करना होगा तथा यज्ञ से हम समस्त सुख, समृद्धि एवं शान्ति को प्राप्त कर सकते हैं।

(लेखक का ऐसा मानना है।)

विज्ञान प्रगति से साभारः

सम्पर्क सूत्रः– पूर्व डीन, फैकल्टी ऑफ लाइफ सांइसेज डिपार्टमेंट ऑफ बॉटनी एण्ड माइक्रोबायोलॉजी, गुरुकुल कांगड़ी यूनीवर्सिटी, हरिद्वार-२४९४०४ (उत्तराखण्ड )

मो.: ०९८३७३०८८९७

भगवानों की सूची जारी करोः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

राजनेताओं की धार्मिकता व भक्ति भावना देख-देख कर आश्चर्य होता है। लोकसभा के चुनाव के दिनों काशी में गंगा स्नान और गंगा जी की आरती की प्रतियोगिता देखी गई। केजरीवाल भी धर्मात्मा बनकर साथियों सहित गंगा में डुबकियाँ लगाते हुए मोदी को गंगा की आरती में सम्मिलित होने के लिए ललकार रहा था। अजमेर की कबर-यात्रा पर एक-एक करके कई नेता पहुँचे। चुनाव समाप्त होते ही दिग्विजय के गुरु स्वरूपानन्द जी ने साई बाबा भगवान् का विवाद छेड़ दिया। सन्तों का सम्मेलन होने लगा। स्वरूपानन्द जी संघ परिवार विरोधी माने जाते हैं। इन्हें हिन्दू हितों का ध्यान आ गया। हिन्दुओं को जोड़ने व हिन्दुओं की रक्षा के लिए कभी कोई आन्दोलन छेड़ा?

क्या ब्राह्मणेतर कुल में जन्मे किसी व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी  बनाने का साहस आप में है? क्या दलित वर्ग में जन्मे किसी भक्त से जल लेकर आचमन कर सकते हैं?

हिन्दुओं के कितने भगवान् हैं? यह उमा जी ने चर्चा छेड़ी है। संघ परिवार को और स्वरूपानन्द जी को हिन्दुओं के भगवानों की अपनी-अपनी सूची जारी करनी चाहिये। यह भी बताना होगा कि भगवान् एक है या अनेक? भगवानों की संख्या निश्चित है या घटती-बढ़ती रहती है। अमरनाथ यात्रा वाले अब लिंग की बजाय ‘बर्फानी बाबा’ का शोर मचाने लगे हैं। यात्री बम-बम भोले रटते हुए ‘ऊपर वाले’ की दुहाई देते हैं। क्या भगवान् सर्वत्र नहीं? ऊपर ही है? यह संघ व स्वरूपानन्द जी को स्पष्ट करना चाहिये। अमरनाथ यात्री टी.वी. में बता रहे थे कि ऊपर वाले की कृपा से हमें कुछ नहीं होगा। यदि भगवान् ऊपर ही है तो ‘ईशावास्य’ यह ऋचा ही मिथ्या हो गई। प्रभु कण-कण में है- यह मान्यता निरर्थक हो गई। हिन्दुओं को हिन्दू साधु, आचार्य, सन्त भ्रमित कर रहे हैं। धर्म रक्षा व धर्म प्रचार कैसे हो? एकता का कोई सूत्र तो हो।

मन्नतें पूरी होती हैंः साई बाबा विवाद में उमा जी ने यह भी कहा है कि अनेक भक्तों की मन्नतें साई बाबा ने पूरी कीं। मन्नतें पूरी करने वाले देश में सैकड़ों ठिकाने हैं। उमा जी जैसे भक्तों को राम मन्दिर निर्माण, कश्मीर के हिन्दुओं का पुनर्वास, धारा ३७०, निर्धनता निवारण, आतंकवाद से छुटकारे के लिए मन्नत माँग कर देश में सुख चैन का युग लाना चाहिए।

मन्नतों का अन्धविश्वास फैलाकर देश को डुबोया जा रहा है। केदारनाथ, बद्रीनाथ यात्रा की त्रासदी को कौन भूल सकता है? मन्नतें माँगने गये सैकड़ों भक्त जीवित घरों को नहीं लौटे। कई भगवान् बाढ़ में बह गये। इससे क्या सीखा? आँखें फिर भी न खुलीं।

भावुकता से अन्धे होकरः जामपुर (पश्चिमी पंजाब) में एक आर्य कन्या ने आर्यसमाज के सत्संग में एक कविता सुनाई। उसकी एक पंक्ति थी-

मेरी मिट्टी से बूये वफ़ा आयेगी।

अर्थात् मरने के पश्चात् मेरी कबर से निष्ठा की गन्ध आयेगी। पं. चमूपति जी ने वहीं बोलते हुए कहा, क्या शिक्षा दे रहे हो? क्या मेरी यह पुत्री मुसलमान के रूप में मरना चाहती है? चिता की, दाहकर्म की बजाय कबर की बात जो कर रही है। बोलते और लिखते समय अन्धविश्वास तथा भ्रामक विचार फैलाने से बचने के लिए सद्ग्रन्थों के आधार पर ही कुछ लिखना-बोलना चाहिए।

आर्यसमाज की हानिः संघ का गुरु दक्षिणा उत्सव था। संघ वाले स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पास अपने कार्यक्रम की अध्यक्षता करने का प्रस्ताव लेकर आये। लोकैषणा से कोसों दूर महाराज ने यह कहकर उनकी विनती ठुकरा दी कि इसमें आर्यसमाज की हानि है।

उन्होंने पूछा, ‘क्या हानि है?’

स्वामी जी ने कहा, ‘मेरी अध्यक्षता में आप जड़ पूजा करेंगे। झण्डे को गुरु मानकर दक्षिणा चढ़ायेंगे, इससे आर्यसमाज में क्या सन्देश जायेगा?’

आर्यसमाज अपनी मर्यादा, अपने इतिहास को भूलकर योगेश्वर नामधारी थोथेश्वरों को अपना पथ प्रदर्शक मानकर भटक रहा है। एक योग गुरु ने मिर्जापुर में मजार पर चादर चढ़ाई। कोई गंगा की आरती उतार रहा है तो कोई म.प्र. जाकर मूर्ति पर जल चढ़ा रहा है।

ऋषि ने लिखा है, उसी की उपासना करनी योग्य है। यही वेदादेश है।

 

 

महर्षि के मिशन के सबसे पहले ब्राह्मणेतर शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

राव बहादुरसिंह मसूदा-इतिहास के लुप्त पृष्ठः-

महर्षि दयानन्द जी की जीवनी लिखने वाले पुराने विद्वान् लेखकों ने मसूदा राजस्थान के राव बहादुरसिंह जी की अच्छी चर्चा की है, परन्तु उन पर कुछ विशेष खोज करने का उद्यम न तो मसूदा के किसी गवेषक ने किया और न ही राजस्थान के आर्यों ने राव जी की ठोस सेवाओं तथा व्यक्तित्व के अनुरूप ही करणीय पुरुषार्थ किया। वास्तव में ऐसे कार्य धन से ही नहीं होते। इनके लिए पण्डित लेखराम की आग, स्वामी स्वतन्त्रानन्द की ललक और इतिहासकार पं. विष्णुदत्त  जैसी लगन चाहिए। हमने राव बहादुरसिंह की विशेष देन तथा आर्यसमाज के इतिहास में उनके स्थान का नये सिरे से मूल्याङ्कन करके ऋषि जीवन तथा ‘परोपकारी’ पाक्षिक में कुछ नया प्रकाश डाला है।
हमारी खोज अभी जारी है। महर्षि के मिशन के सबसे पहले ब्राह्मणेतर शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह थे। परोपकारिणी सभा के निर्माण, दयानन्द आश्रम आदि की स्थापना तथा सभा के आरम्भिक काल के उत्सवों के आयोजन में आपने दिल खोलकर दान दिया। आपके दान से परोपकारिणी सभा तथा राजस्थान का आर्यसमाज ही लाभान्वित नहीं हुआ, वरन अन्य-अन्य प्रदेशों के समाजों व संस्थाओं को भी आपने उदारतापूर्वक दान दिया-
१. देशहितैषी मासिक को उस युग में ६५/- रु. दान दिये।
२. आर्यसमाज मन्दिर अजमेर के लिये ४००/- रु. प्रदान किये।
३. आर्य अनाथालय फीरोजपुर को १५०/- रु. दिये।
४. फर्रुखाबाद की पाठशाला के लिए १००/- रु. दिये।
५. आर्यसमाज शिमला (हिमाचल) के मन्दिर निर्माण के लिए ५०/- रु. दिये।
६. स्वामी आत्मानन्द जी को उस युग में १००/- रु. भेंट किये।
उनके एक और बड़े दान की फिर चर्चा की जायेगी। जब दयानन्द आश्रम की स्थापना के उत्सव पर देशभर से भारी संख्या में आर्यगण पधारे, तब एक समय के भोजन का सब व्यय आपने दिया था।