अपना जीवन जीते हुए हमारे मन में विभिन्न प्रकार की इच्छाएँ, तमन्नाएँ रहती हैं। हम अपने भावी जीवन के लिए उत्साहित रहते हैं, बड़े सपने सँजोए रखते हैं। कुछ सपने तो बहुत आसानी से साकार हो जाते हैं और कुछेक अथक प्रयास के बावजूद सत्य सिद्ध होने से कोसों दूर रहते हैं।
पहले तो हम बैठ कर यह विश्लेषण करें- कि हमने क्या खोया-क्या पाया? यह जीवन भर का, कुछ वर्षों का, कुछ महीनों का भी कर सकते हैं। अगर हानि अधिक हुई है, असफलताएँ अधिक आई हैं तो थोड़ी ज्यादा गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
अब हमें यह पकड़ना है कि हम चूकते कहाँ पर हैं? हमारे कमजोर स्थल कौन-से हैं? उन्हें जानकर-समझकर, उन पर कार्य करने की जरूरत होती है। मार्ग तो पता है हमें, पर उस पर तरह-तरह के काँटे, ईंट, पत्थर गंदगी आदि पड़े हैं। तीव्र गति से गमन करना है तो बस, बाधाओं को हटाएँ और मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।
बाहरी वातावरण, परिस्थितियाँ, लोग हमारे नियंत्रण में नहीं होते- और होने की अपेक्षा भी रखना गलत है, परन्तु हम अपने आंतरिक संसार के ताज सहित बादशाह हैं, शहंशाह हैं। हम जैसा चाहें, जिस प्रकार जहाँ चाहें, कार्य कर सकते हैं- वहाँ हमारा हरेक कानून लागू होता है, हर एक बात बाइज्जत सुनी जाती है, ज्यों-की-त्यों समझी जाती है, इसलिए बाहर की अपेक्षा पहले अपनी जरूरतों, सपनों, इच्छाओं को अंदर लागू करना होता है। अपने अंदर जितने हम स्पष्ट व साफ हो जाएँगे, उतनी ही बाहर की परिस्थितियाँ अनुकूल बनती जाएँगी। बाहर की बाधाओं के बादल स्वयं छटने लगेंगे।
सूक्ष्मता से देखें तो यह हमारे नियंत्रण में होता है कि हम किस विचार को अपने अंदर उठने दें, उसे अनुमति दें, किसको चाहें तो न दें। जिस विचार को जब चाहें हम रोक सक ते हैं। हमें हर नकारात्मक, विध्वन्सात्मक विचार के लिए अपने मन पर प्रयासपूर्वक ‘नो एंट्री’ का बोर्ड लगाना होता है। फिर भी कुछ लोग, परिस्थितियाँ यदि जबरदस्ती अंदर घुसने का प्रयास करें तो हमें ईश्वर ने श्वास रूपी चौकीदार, सुरक्षाकर्मी दे रखा है। इसकी सहायता से उस विचार को बाहर छिटक दें। जैसे अगर घर में कोई अतिथि आने वाला हो और उसके स्वागत के लिए हमने तैयारी कर रखी हो, सुन्दर व्यवस्था कर रखी हो, उसी समय कोई शरारती बच्चा आ कर ऊधम मचाए, इधर-उधर वस्तुओं को बिखेर दे- तो हम क्या करेंगे? उसे पकड़ेंगे व यथासंभव प्रयास करेंगे कि वह हमारी बनी बनाई व्यवस्था को खराब न करे। ठीक यही अवस्था मन के आँगन की भी है। हमें वहाँ भी अपनी स्थिति को बनाए रखने का प्रयास करना होता है- कोई भी अनचाहा विचार, व्यक्ति, परिस्थिति उसमें हमारी आज्ञा के बिना अंदर न घुस पाये। हम ईश्वर से भी यही प्रार्थना करते हैं कि हमारा हमारे मन पर राज्य हो-
मेरी इन्द्रियाँ हों सदा मेरे वश में,
मेरे मन पे मेरा ही अधिकार कर दो।
मेरा सर झुके तो झुके तेरे दर पर,
मुझे ऐसा दुनियाँ में सरदार कर दो।
पाँचों इन्द्रियों के विषयों व मन पर अपना नियंत्रण करने के लिए अपने श्वास रूपी सुरक्षाकर्मी को हमेशा सचेत रखें। जहाँ भी इसमें थोड़ी-सी ढ़ील हुई, वहीं पर विध्न, बाधाएँ उत्पन्न हो जाएँगी। हम ताी तो ईश्वर को, उसकी सत्ता को नमन करते हैं। उसकी सहायता से ही हम अपने विचारों को रोक सकते हैं- यह कहते भी है और करते भी हैं-
हमारा नियंत्रण चूँकि हमारे अपने हाथ में हैं, यूँ कहें कि हमारा रिमोट कंट्रोल जब हमारे हाथ में है तो दूरदर्शन पर चैनल भी तो हम ही बदलेंगे न। हम बाहर के दूरदर्शन को छोड़कर चित्त के दूरदर्शन पर कार्य प्रारभ करें। वहाँ जो चैनल हम चलाएंगे, वही हमारे बाहर भी प्रदर्शित होगा। वस्तुतः बाहरी संसार हमारे आन्तरिक संसार का ही प्रतिबिब है। जो भी परिस्थिति, इच्छा आप बाहर साकार हुई देखना चाहते हैं, उसे पहले अपने अंदर सफल होता हुआ चित्रित करें। अपने मन को शांत कर, श्वास से नियंत्रित कर तथा वह दृश्य अपने सामने लाकर उसे यथार्थ में परिवर्तित होता हुआ महसूस करें-अनुभूति के स्तर पर ले आएँ। यह ध्यानावस्था में करने योग्य कार्य है। इच्छा व स्वप्न के प्रति अपनी भावना, गहराई भी इसमें अहम रोल अदा करती है। जितनी अधिक एकाग्रता से यह कार्य होगा, उतनी ही शीघ्रता व कुशलता से कम समय में बाहर की परिस्थितियाँ बिना आपके ज्यादा हस्तक्षेप के अनुकूलता में बदलती जाएँगी।
इसके लिए आवश्यक है कि पहले अन्दर की सफाई की जाए। एक बार गलती से काँटों भरे खेत में चले गए- तो कितने ही काँटें कुछ मिनटों में कपड़ों पर चिपक जाएँगे। वापिस आकर निकालने लगेंगे तो घण्टों लगेंगे। गंदगी डालनी, बुराई करनी, द्वेष करना बहुत आसान है, क्षण भर में क्षोभ पैदा हो जाता है, पर जब सफाई करने बैठते हैं तो उफ, क्या परिश्रम करना पड़ता है! बस हथियार छूट जाते हैं- यही महसूस होता है कि ‘‘लहों नेाता की थी, सदियों ने सजा पाई।’’
हमें प्रयास पूर्वक सजग रहना है कि अगर मैं बुरा विचार करुँगा तो इसका परिणाम भी मुझे ही भुगतना पड़ेगा। दूसरे पर यह प्रभाव जाए न जाए, मेरी हानि अवश्य ही होगी। अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी चलाने वाली बात है। बीज तो छोटा-सा ही होता है, पर जब पेड़ बन के सामने खड़ा होता है तो काटना मुश्किल हो जाता है- हाथ थक जाते हैं, कुल्हाड़ी चलाते-चलाते। इसलिए जब भी बुरी भावनाएँ, विचार उठें, उन्हें तुरन्त ही हटा दें- एक तरफ कर दें। ईश्वर को उसी क्षण अपने समीप महसूस करते हुए कोई जप प्रारभ कर देवें, याद क रें कि प्रातःकाल जो प्रार्थना की थी-
सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामयाः,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्।
क्या जिससे मैं द्वेष कर रहा हूँ, वह ‘सर्वे’ में नहीं आता है? उस प्रार्थना के विपरीत अगर बाकी के 17 घंटे हम व्यवहार करेंगे तो उस प्रार्थना का कोई औचित्य नहीं हैं। प्रार्थना का विधान है तो यह मानना पड़ेगा कि द्वेष, घृणा, क्षोभ के लिए मनाही है। प्रयासपूर्वक ईश्वर प्रणिधान की सहायता से हमें उस विचार को क्षोभ को मन से निकाल देना है। धीरे-धीरे द्वेष होगा ही नहीं, होगा तो क्षीण-सा बहुत कम समय के लिए होगा, क्योंकि हम सजग हैं। हमें पता है कि जितनी गंदगी हम फैलाएँगे-सफाई भी तो हमें उतनी ही करनी पड़ेगी।
जब हम चाहते हैं कि हमारे शुभ संकल्प पूर्ण हों, सिद्ध हों तो हमें उसके लिए यथासंभव अपना पुरुषार्थ अपने आन्तरिक वातावरण को साफ, सुंदर व व्यवस्थित करने के लिए करना चाहिए, क्योंकि यहीं पर हमारा नियंत्रण है और यह परम आवश्यक है अपने जीवन में शांति व सफलता को प्राप्त करने के लिए। तभी हम कह सकते हैं कि-
तेरे पूजन को भगवान, बना मन-मन्दिर आलीशान।
– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर