Category Archives: हिन्दी

‘ईश्वर, वेद, राजर्षि मनु व महर्षि दयानन्द सम्मत शासन प्रणाली’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द ने सप्रमाण घोषणा की थी कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है एवं यही धर्म व सभी सत्य विद्याओं के आदि ग्रन्थ होने से सर्वप्राचीन एवं सर्वमान्य हैं। यदि ऐसा है तो फिर वेद में देश की राज्य व शासन व्यवस्था कैसी हो, इस पर भी विचार मिलने ही चाहियें। महर्षि दयानन्द की मान्यता सर्वथा सत्य है और वेद एवं इसके अनुपूरक वैदिक साहित्य में राजकीय शासन व्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। महर्षि दयानन्द रचित  वैदिक विचारधारा के सर्वोत्तम ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के छठें समुल्लास से हम वेद एवं वेदमूलक मनुस्मृति के शासन व्यवस्था सम्बन्धी विचार व मान्यतायें प्रस्तुत कर रहे हैं। यह मान्यतायें ऐसी हैं कि इसमें वर्तमान व्यवस्था के सभी गुण विद्यमान हैं। इसके साथ ही बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनको अपनाने व उनका पालन करने से वर्तमान व्यवस्था की अनेक खामियां वा कमियां दूर की जा सकती हैं। यह भी ज्ञातव्य है कि वेद एवं मनुस्मृति के आधार पर ही सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक के लगभग 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख वर्षों तक आर्यावर्त्त वा भारत ही नहीं अपितु संसार के सभी देशों का राज्य संचालन हुआ है।

 

राजर्षि मनु जी ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ मनुस्मृति में चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और चारों आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के व्यवहार का युक्तिसंगत कथन किया है। इसके पश्चात् उन्होंने राजधर्मों वा राजनियमों का विधान किया है। राजा को कैसा होना चाहिये, कैसा राजा होना सम्भव है तथा किस प्रकार से राजा को परमसिद्धि प्राप्त हो सकती है, उसका वर्णन भी किया है। महर्षि मनु लिखते हैं कि जैसा परम विद्वान् ब्राह्मण होता है वैसा ही सुशिक्षित विद्वान क्षत्रिय को होना योग्य है कि जिससे कि वह सब राज्य वा देश की रक्षा यथावत् करें। ऋग्वेद के मण्डल 3 सूक्त 38 मन्त्र 6 में कहा गया है कि त्रीणि राजाना विदथे पुरूणि परि विश्वानि भूषथः सदांसि।। ईश्वर सृष्टि के आरम्भ में अग्नि नाम के ऋषि को इस मन्त्र द्वारा यह उपदेश करते हैं कि राजा और प्रजा के पुरुष (देश की समस्त जनता) मिल कर सुख प्राप्ति और विज्ञान वृद्धिकारक राजाप्रजा के सम्बन्धरूप व्यवहार के लिए तीन सभा प्रथम विद्यार्यसभा, द्वितीय धर्मार्यसभा तथा तृतीय राजार्यसभा नियत वा गठित करें। राजा, प्रजा व तीनों सभायें समग्र प्रजा वा मनुष्यादि प्राणियों को बहुत प्रकार की विद्या, स्वातन्त्र्य, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें।  अर्थववेद काण्ड 15 के मन्त्र तं सभा समितिश्च सेना च। और अथर्ववेद के ही काण्ड 16 के मन्त्र सभ्य सभां मे पाहि ये सभ्याः सभासदः। में कहा है कि इस प्रकार से राजा व तीन सभाओं द्वारा निर्धारित राजधर्म का पालन तीनों सभायें सेना के साथ मिलकर करें व संग्राम आदि की व्यवस्था करें। राजा तीनों सभाओं के सभासदों को आज्ञा करे कि हे सभा के योग्य मुख्य सभासदों ! तुम मेरी सभा व सभाओं की धर्मयुक्त व्यवस्था का पालन करो। यहां वेद कहते हैं कि तीनों सभाओं के सभासदों को सभेश राजा की धर्मयुक्त आज्ञाओं का सहर्ष पालन करना चाहिये।

 

वेद मन्त्रों की इन शिक्षाओं पर टिप्पणी कर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि इसका अभिप्राय यह है कि एक व्यक्ति वा राजा को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार न देना चाहिए किन्तु राजा जो सभापति, तदधीन सभा, सभाधीन राजा, राजा और सभा प्रजा के आधीन और प्रजा राजसभा के आधीन रहें। यदि ऐसा न करोगे तो राष्ट्रमेव विश्या हन्ति तस्माद्राष्ट्री विशं घातुकः।। विशमेव राष्ट्रायाद्यां करोति तस्माद्राष्ट्री विशमत्ति पुष्टं पशुं मन्यत इति।। (शतपथ ब्राह्मण काण्ड 13/2/33) यदि प्रजा से स्वतन्त्र व स्वाधीन राजवर्ग रहे तो वह राज्य में प्रवेश करके प्रजा का नाश किया करे और अकेला राजा स्वाधीन वा उन्मत्त होके प्रजा का नाशक होता है अर्थात् वह राजा प्रजा को खाये जाता है। इसलिये किसी एक को राज्य में स्वाधीन न करना चाहिये। जैसे मांसाहारी सिंह हृष्ट पुष्ट पशु को मार कर खा लेते हैं, वैसे स्वतन्त्र राजा प्रजा का नाश करता है अर्थात् किसी को अपने से अधिक न होने देता, श्रीमानों व धनिकों को लूट खूंट अन्याय से दण्ड देके अपना प्रयोजन पूरा करेगा।

 

अथर्ववेद के मन्त्र 6/10/98/1 के अनुसार राजा को मनुष्य समुदाय में परम ऐश्वर्य का सृजनकर्त्ता व शत्रुओं को जीतने वाला होना चाहिये। वह शत्रुओं से पराजित कभी नहीं होना चाहिये। इसके साथ ही राजा ऐसे व्यक्ति को बनाना चाहिये जो पड़ोसी व विश्व के राजाओं से अधिक योग्य वा सर्वोपरि विराजमान व प्रकाशमान होने के साथ सभापति होने के अत्यन्त योग्य हो तथा वह प्रशंसनीय गुण, कर्म, स्वभावयुक्त, सत्करणीय, समीप जाने और शरण लेने योग्य सब का माननीय होवे। इससे यह आभास मिलता है कि राजा में एक सैनिक व सेनापति के भी उच्च गुण होने चाहिये। यजुर्वेद के मन्त्र 9/40 में विद्वान राज-प्रजाजनों को सम्मति कर ऐसे व्यक्ति को राजा बनाने को कहा गया है कि जो बड़े चक्रवर्ति राज्य को स्थापित करने में योग्य हो, बड़े-बड़े विद्वानों को राज्य पालन व संचालन में नियुक्त करने योग्य हो तथा राज्य को परम ऐश्वर्ययुक्त, सम्पन्न व समृद्ध कर सकता हो। वह सर्वत्र पक्षपातरहित, पूर्ण विद्या विनययुक्त तथा सब प्रजाजनों का मित्रवत् होकर सब भूगोल को शत्रु रहित करे। ऋग्वेद के मन्त्र 1/39/2 में ईश्वर ने उपदेश किया है कि हे राजपुरुषों ! तुम्हारे आग्नेयादि अस्त्र, तोप, बन्दूक, धनुष बाण, तलवार आदि वर्तमान के नामान्तर आणविक हथियार, मिसाइल व अन्य घातक सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र शत्रुओं की पराजय करने और उन्हें युद्ध से रोकने के लिए प्रशंसित और दृढ़ हों और तुम्हारी सेना प्रशंसनीय होवे कि जिस से तुम सदा विजयी हों। ईश्वर ने यह भी शिक्षा भी की है कि जो निन्दित अन्यायरुप काम करते हैं उस के लिए पूर्व चीजें अर्थात् अस्त्र-शस्त्र न हों। इस पर महर्षि दयानन्द ने यह टिप्पणी की है कि जब तक मनुष्य धार्मिक (सत्य व न्यायपूर्ण आचरण करने वाले) रहते हैं तभी तक राज्य बढ़ता रहता है और जब दुष्टाचारी होते हैं तब नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। यहां धार्मिक होने का अर्थ हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई आदि मत को माननेवाला न होकर सच्चे मानवीय गुण सत्यवादी, देशहितैषी, देशप्रेमी, ईश्वरभक्त, वेदभक्त व ज्ञानी आदि अनेकानेक गुणों से युक्त मनुष्य हैं।

 

मनुस्मृति के सातवें अध्याय में तीनों सभाओं के अध्यक्ष राजा के गुणों पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि वह सभेश राजा इन्द्र अर्थात् विद्युत के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्त्ता, वायु के समान सब को प्राणवत् प्रिय और हृदय की बात जाननेहारा, पक्षपातरहित न्यायाधीश के समान वर्त्तनेवाला, सूर्य के समान न्याय, धर्म, विद्या का प्रकाशक, अन्धकार अर्थात् अविद्या अन्याय का निरोधक हो। वह अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करनेहारा, वरुण अर्थात् बांधनेवाले के सदृश दुष्टों को अनेक प्रकार के दण्ड देकर बांधनेवाला, चन्द्र के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता, धनाध्यक्ष के समान कोशों का पूर्ण करने वाला सभापति होवे। राजा में यह गुण भी होना चाहिये कि वह सूर्यवत् प्रतापी व सब के बाहर और भीतर मनों को अपने तेज से तपाने वाला हो। वह राजा ऐसा हो कि जिसे पृथिवी में वक्र दृष्टि से देखने को कोई भी समर्थ न हो। राजा ऐसा हो कि जो अपने प्रभाव से अग्नि, वायु, सूर्य, सोम, धर्मप्रकाशक, धनवर्द्धक, दुष्टों का बंधनकर्त्ता तथा बड़े ऐश्वर्यवाला होवे, वही सभाध्यक्ष, सभेष वा राजा होने के योग्य है।

 

सच्चे राजा के गुण बताते हुए वेदभक्त महर्षि मनु कहते हैं कि जो दण्ड है वही राजा, वही न्याय का प्रचारकर्त्ता और सब का शासनकर्त्ता, वही चार वर्ण और आश्रमों के धर्म का प्रतिभू अर्थात् जामिन है। वही राजा व दण्ड प्रजा का शासनकर्त्ता, सब प्रजा का रक्षक, सोते हुए प्रजास्थ मनुष्यों में जागता है, इसी लिये बुद्धिमान लोग दण्ड ही को धर्म कहते हैं। यदि राजा दण्ड को अच्छे प्रकार विचार से धारण करे तो वह सब प्रजा को आनन्दित कर देता है और जो विना विचारे चलाया जाय तो सब ओर से राजा का विनाश कर देता है। विना दण्ड के सब वर्ण अर्थात् प्रजा दूषित और सब मर्यादा छिन्न-भिन्न हो जाती है। दण्ड के यथावत् न होने से सब लोगों का राजा व राज्य व्यवस्था के विरुद्ध प्रकोप हो सकता है। दण्ड के बारे में मनुस्मृति में बहुत बातें कही र्गइं हैं। यह भी कहा है कि दण्ड बड़ा तेजोमय है जिसे अविद्वान् व अधर्मात्मा धारण नहीं कर सकता। तब ऐसी स्थिति में वह दण्ड धर्म से रहित राजा व उसके कुटुम्ब का ही नाश कर देता है। यह भी कहा गया है कि जो राजा आप्त पुरुषों के सहाय, विद्या, सुशिक्षा से रहित, विषयों में आसक्त व मूढ़ है, वह न्याय से दण्ड को चलाने में समर्थ कभी नहीं हो सकता।

 

मनुस्मृति में विधान है कि सब सेना और सेनापतियों के ऊपर राज्याधिकार, दण्ड देने की व्यवस्था के सब कार्यों का आधिपत्य और सब के ऊपर वर्तमान सर्वाधीश राज्यधिकार इन चारों अधिकारों में सम्पूर्ण वेद शास्त्रों में प्रवीण पूर्ण विद्यावाले धर्मात्मा जितेन्द्रिय सुशीलजनों को स्थापित करना चाहिये अर्थात् मुख्य सेनापति, मुख्य राज्याधिकारी, मुख्य न्यायाधीश, प्रधान और राजा ये चार सब विद्याओं में पूर्ण विद्वान होने चाहिये। न्यून से न्यून दश विद्वानों अथवा बहुत न्यून हो तो तीन विद्वानों की सभा जैसी व्यवस्था करे, उस धर्म अर्थात् व्यवस्था का उल्लंघन कोई भी न करे। मनुस्मृति में आगे कहा गया है कि सभा में चारों वेद, हैतुक अर्थात कारण अकारण का ज्ञाता न्यायशास्त्र, निरुक्त, धर्मशास्त्र आदि के वेत्ता विद्वान् सभासद् हों। जिस सभा में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के जानने वाले तीन सभासद् होके व्यवस्था करें उस सभा की की हुई व्यवस्था का भी कोई उल्लंघन न करे। यदि एक अकेला, सब वेदों का जाननेहारा व द्विजों में उत्तम संन्यासी जिस धर्म की व्यवस्था करे, वही श्रेष्ठ धर्म है क्योंकि अज्ञानियों के सहस्रों लाखों करोड़ों मिल के जो कुछ व्यवस्था करें उस को कभी न मानना चाहिये। जो ब्रह्मचर्य, सत्यभाषदणादि व्रत, वेदविद्या वा विचार से रहित जन्ममात्र से अज्ञानी वा शूद्रवत् वर्तमान हैं उन सहस्रों मनुष्यों के मिलने से भी सभा नहीं कहलाती। जो अविद्यायुक्त मूर्ख वेदों के न जाननेवाले मनुष्य जिस धर्म को कहे, उस को कभी न मानना चाहिये क्योंकि जो मूर्खों के कहे हुए धर्म के अनुसार चलते हैं, उनके पीछे सैकड़ों प्रकार के पाप लग जाते हैं। इसलिये तीनों विद्यासभा, धर्मसभा और राज्यसभाओं में मूर्खों को कभी भरती न करें। किन्तु सदा विद्वान और धार्मिक पुरुषों का ही स्थापन करें।

 

हमने इस लेख में महर्षि दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में प्रस्तुत वेद एवं वेदमूलक मनुस्मृति के आधार पर कुछ थोड़े से विचारों व मान्यताओं को प्रस्तुत किया है। हम पाठकों से निवेदन करते हैं कि वह इस पूरे अध्याय को पढ़ कर लाभान्वित हों। आज की व्यवस्था में कुछ बातें देश, काल व परिस्थिति के अनुसार अच्छी हैं व कई अच्छी नहीं भी हैं। देश का दुर्भाग्य है कि हमारे नेता व शासक संस्कृत से अनभिज्ञ हैं एवं वेद आदि शास्त्रों को शायद ही किसी बड़े नेता ने देखा व पढ़ा हो। उनका वेदादि सत्य शास्त्रों के प्रति श्रद्धा का अभाव भी दृष्टिगोचर होता है अन्यथा वह उनका नियमित अध्ययन करते। इसे भी देश का दुर्भाग्य कह सकते हैं कि करोड़ों वर्षों के ज्ञान व अनुभवों से लाभ नहीं लिया जा रहा है। वेद एवं शास्त्रों की अनेक उपादेय बातों का लाभ लिया जाना चाहिये। देश के सभी राजनीति से जुड़े लोगों को सत्यार्थ प्रकाश के इस समुल्लास का गम्भीरता से अध्ययन कर देशहित की बातों को वर्तमान व्यवस्था में सम्मिलित करना चाहिये जिससे देश व समाज को लाभ हो। यह याद रखना समीचीन होगा कि वेदों में राजधर्म का वर्णन ईश्वर से प्रेरित है जिसको राजर्षि मनु ने राजधर्म विषयक अपने ग्रन्थ मनुस्मृति का आधार बनाया। उन्हीं विचारों को महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत कर न केवल भारत अपितु विश्व का उपकार किया है। हम आशा करते हैं कि भविष्य में पूरा विश्व इससे लाभान्वित होगा।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

‘योगेश्वर श्री कृष्ण जन्म दिवस पर्व और शिक्षक दिवस’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारतीय धर्म व संस्कृति के गौरव योगेश्वर श्रीकृष्ण का आज जन्म दिवस है। हमें और हमारे देश को इस बात का गौरव है कि योगेश्वर श्रीकृष्ण, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम और वेद, वैदिक धर्म और संस्कृति के पुनरुद्धारक महर्षि दयानन्द आदि अनेक महापुरूषों के समान विश्व में ऐसे गौरवमय जीवन उत्पन्न नहीं हुए। श्रीकृष्ण आदि सभी ऋषि, मुनि महान युगपुरूष वैदिक धर्म संस्कृति की ही देन थे। इसी लिए आद्य धर्मशास्त्र के निर्माता मनु ने लिखा था कि आर्यावत्र्त की पुण्य भूमि संसार के अग्रजन्मा महापुरूषों की जन्मदात्री है जहां संसार के लोग उत्कृष्ट जीवन व चरित्र की शिक्षा लेने आते हैं। हमें श्री कृष्ण, मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम और महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्रों का अध्ययन करने पर इनमें ज्ञान व चिन्तन अथवा विचारधारा में कहीं कोई विरोधाभास दृष्टिगोचर नहीं होता अभी यह सभी वेदों के अनुयायी व प्रचारक ही प्रतीत होते हैं। वेदों में ही यह शक्ति, क्षमता व सामथ्र्य है कि वेदों का अध्ययन कर मनुष्य ऋषि, मुनि, ब्रह्मचारी, देशभक्त, ईश्वरभक्त, मातृ-पितृ-आचार्य भक्त, मर्यादित-आदर्शजीवन व चरित्र का धनी, परोपकारी, सेवाभावी, सदुपदेशक, वसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत, अंहिसक, अस्तेयसेवी वा भ्रष्टाचारमुक्त, शुद्ध मन-वचन-कर्म का सेवनकरनेहारा बनता है। वेदों में वेद को ही ‘सा संस्कृति प्रथमा भाविवारा कह कर इसका गौरवगान किया गया है जो कि ऐतिहासिक दृष्टि से पुष्ट व सत्य है। इन उच्च आदर्शों व गुणों से सम्पन्न हमारी संस्कृति है व हमारे महापुरूष इसके संवाहक रहे हैं। दूसरी ओर हमारे कुछ अल्पज्ञानी लोगों ने अपने अज्ञान व कुछ स्वार्थवश श्रीकृष्ण जी के चरित्र को दूषित करने का भी प्रयास किया है जो कि उस महापुरूष के प्रति घोर निन्दनीय कार्य रहा है। श्री कृष्ण ने कभी किसी प्रकार की चोरी व जार कर्म नहीं किया। गोपियों व उद्धव आदि के जो प्रसंग लिख कर उनका प्रचार किया जाता है, वह सब प्रक्षेप व कुछ अन्धभक्ति के भावों से भरे हुए लोगों की कल्पना ही कही जा सकती हैे। इसके विपरीत श्रीकृष्ण जी तो सच्चे ब्रह्मचारी, योगेश्वर तथा राजनीति वा राजधर्म के मर्मज्ञ अग्रणीय महापुरूष थे। वह मातृशक्ति का ऐसा ही सम्मान करते थे जैसा कि वेदों में वर्णित है। वह नारी जाति वा मातृशक्ति के पुजारी थे क्योंकि उन्होंने मनु के यह वाक्य पढ़े थे कि जहां नारियों का सम्मान व पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं और जहां चोर व जार कर्म होता है वहां कि सभी क्रियायें व्यर्थ व प्रतिगामी होने से देश व समाज को अधोगति में ले जाती हैं। महाभारत के कृष्ण वीर, बलशाली, बुद्धिमान, नीतिज्ञ, सुदर्शनचक्र धारी, दुष्टभंजक, साधुओं के रक्षक आदि गुणों से परिपूर्ण थे।

 

हम यहां श्रीकृष्ण के वैदिक धर्म के प्रति अनुराग का एक उदाहरण भी प्रस्तुत करना चाहते हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में महर्षि वेद व्यास ने लिखा है कि श्री कृष्ण भीष्म से उपदेश ग्रहण करने के दिन युधिष्ठिर की राजधानी में सुखपूर्वक निद्रा लेने के पीछे, पहर रात्रि रहने पर जागे तथा प्रातः स्मरणीय मन्त्रों से सनातन ब्रह्म का ध्यान कर उन्होंने स्नान किया। फिर प्रणव गायत्री का जाप एवं सन्ध्या कर नित्य किया जाने वाला होम किया। इन पंक्तियों में महर्षि व्यास ने श्री कृष्ण जी के प्रातःकाल की दिनचर्या पर प्रकाश डाला है। श्री कृष्ण जी हमारे पूर्वज हैं अतः हमें भी उनके इन गुणों को ग्रहण व धारण करना चाहिये। यही संकल्प इस कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर हम कृष्ण भक्तों को लेना चाहिये। हम इस अवसर पर महर्षि दयानन्द के उन विचारों को भी स्मरण करना चाहते जिसमें उन्होंने कहा है कि श्री कृष्ण जी का महाभारत ग्रन्थ में इतिहास अति उत्तम है। उनके गुण, कर्म व स्वभाव आप्त पुरूषों अर्थात् वेद के ऋषियों के समान थे। उन्होंने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त कोई बुरा काम नहीं किया। इसके अतिरिक्त मूर्तिपूजा के प्रसंग में सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में वह लिखते हैं कि ‘‘संवत् 1914 (सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम) के वर्ष में तोपों के मारे मंदिर की मूर्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थीं, तब मूर्ति (मूर्ति की शक्ति) कहां गई थीं? प्रत्युत् बाघेर लोगों ने जितनी वीरता की, और लड़े, शत्रुओं को मारा, परन्तु मूर्ति एक मक्खी की टांग भी तोड़ सकी। जो श्री कृष्ण सदृश (उन दिनों) कोई होता तो इनके (अंग्रेजों के) घुर्रे उड़ा देता और ये लोग भागते फिरते। भला यह तो कहो कि जिसका रक्षक मार खाय, उसके शरणागत क्यों पीटे जायें?’’

 

आज शिक्षक दिवस भी है। शिक्षक आचार्य को कहा जाता है। वैदिक धर्म व संस्कृति में आचार्य को माता-पिता के समान ही सम्मान दिया जाता रहा है। माता सन्तान को केवल जन्म देती है परन्तु उसे द्विज अर्थात् ज्ञान व विद्या से सम्पन्न कर नया जन्म देने वाला आचार्य ही होता है। आज न तो अच्छे आचार्य हैं और न हि राम, कृष्ण, चाणक्य व दयानन्द जी जैसे शिष्य। गुरू का माता-पिता के समान आदर, ब्रह्मचर्य का सेवन, सत्य धर्म व अन्य विषयों के शास्त्रों व पुस्तकों का अध्ययन करने वाले छात्र आज देश में बहुत ही कम होंगे? हम जानते हैं कि श्री राम का निर्माण उनके गुरू विश्वामित्र और वशिष्ठ आदि ने किया था। इसी प्रकार श्री कृष्ण जी का निर्माण उनके गुरू सान्दिपनी जी ने किया था। महर्षि दयानन्द का निर्माण यद्यपि अनेक गुरूओं ने किया। महर्षि दयानन्द का शिष्यत्व इतिहास प्रसिद्ध शिष्यों में अपूर्व हैं। बच्चे लगभग पांच से आठवें वर्ष में आचार्यकुल वा विद्यालय में प्रवेश लेते हैं। महर्षि दयानन्द के माता-पिता ने इसी वय में उनका अध्ययन आरम्भ कराया। इक्सीस वर्ष पूर्ण होने तक उन्होंने अपने माता-पिता के द्वारा योग्य गुरूओं से अध्ययन किया। बाईसवें वर्ष में उन्होंने और अध्ययन के लिए गृह त्याग किया अन्यथा माता-पिता उन्हें विवाह के बन्धन में बांध देते और फिर वह जो बनना चाहते थे वा बने, वह कदापि नहीं बन सकते थे। गृह त्याग के बाईसवें वर्ष से लेकर अपनी आयु के 38 वर्ष पूर्ण करने पर भी वह अध्ययनरत रहे। उनके गुरू के साथ कैसे सम्बन्ध थे, यह इन दोनों गुरू-शिष्य के जीवन चरित पढ़कर ही जाना जा सकता है। इतना कह सकते हैं कि यह आदर्श व अपूर्व थे। इस बीच उन्होंने न केवल योग का पूर्ण अभ्यास कर समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार किया अपितु वेद सहित सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान भी प्राप्त किया। उनके शास्त्र ज्ञान के दाता और उसे पूर्णता देने वाले गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा थे। जिन लोगों ने स्वामी दयानन्द व स्वामी विरजानन्द जी के जीवन चरित्र का गम्भीरता से अध्ययन किया है वह जान सकते हैं कि विगत लगभग 5,200 वर्षों में इन दो गुरू-शिष्यों के समान अन्य कोई गुरू-शिष्य उत्पन्न नहीं हुआ। इनसे जितना देशोपकार हुआ है, उतना किसी अन्य गुरू-शिष्य के द्वारा नहीं हुआ। वेदों का उद्धार तो एकमात्र. महर्षि दयानन्द की ही देन है जिसमें उनके गुरू वा आचार्य स्वामी विरजानन्द जी का विद्यादान अदृश्य रूप में छिपा हुआ है। स्वामी दयानन्द ने महाभारत काल के बाद आलसी व प्रमादी वैदिक धर्म व संस्कृति के अनुयायियों द्वारा विकृत धर्म व संस्कृति को पूर्ण शुद्ध रूप प्रदान किया और इसे संसार का पूर्ण व एकमात्र तर्क व युक्तियों पर आधारित प्राचीनतम ईश्वर प्रदत्त विज्ञान सम्मत धर्म सिद्ध किया। यथा गुरू तथा शिष्य की कहावत के अनुसार ही शिष्य अपने गुरू के ज्ञान व आचरण के अनुरूप होता है। आज आवश्यकता है कि हमारे शिक्षक, आचार्य व गुरू आदर्श जीवन व चरित्र के धनी बने और अपने शिष्यों को भी वैसा ही बनायें। शिक्षित वा साक्षर, इंजीनियर व डाक्टर अथवा कम्प्यूटर विज्ञान में प्रवीण शिष्य व युवा तैयार करना अच्छी बात है परन्तु यदि कोई शिक्षा ग्रहण करने के बाद स्वार्थी, अर्थलोलुप या लोभी बनता है और भ्रष्टाचार-अनाचार-दुराचार व देशद्रोह के कार्य करता है तो उसे पूर्ण शिक्षित नहीं कहा जा सकता। आज देश को स्वामी विरजानन्द स्वामी दयानन्द जैसे गुरू शिष्यों की आवश्यकता है। इसी से देश का निर्माण होकर हम अपने प्राचीन यश व गौरव को प्राप्त कर सकते हैं।

 

आज शिक्षक दिवस पर हम सभी शिक्षकों व शिष्यों को शुभकामनायें और बधाई देते हैं और उनसे आग्राह करते हैं कि वह प्राचीन शास्त्रों का अध्ययन कर आदर्श आचार्य, शिक्षक एवं शिष्य बनने का व्रत लें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्तुता मया वरदा वेदमाता-16

परिवार में शान्ति और सुखपूर्वक कैसे रहा जा सकता है, इसके लिये इस वेद मन्त्र में उपाय बताये गये हैं। पहला है- अपने चित्त को उदार करना, दूसरा- परस्पर द्वेष भाव न रखना, तीसरा- परस्पर मिलकर कार्य करना, चौथा– परिवार को एक केन्द्र के साथ बांधकर रखना, पाँचवाँ- परिवार के सदस्यों और अन्य सभी से प्रेमपूर्वक बोलना। छठा– सध्रीचीनान् वः संमनसस्कृणोमि। इस मन्त्र का शद है सध्रीचीनान्, ऋषि दयानन्द इसका अर्थ करते हैं- समान लाभालाभ से एक दूसरे के सहायक हैं।

परिवार संस्था समाज में कार्य करने का सिद्धान्त है- कार्य के हानि-लाभ के लिए सभी को समान सहायक समझें। मनुष्य जब परिवार में कार्य करते हैं, वहाँ छोटों के प्रति सबका समान स्नेह आवश्यक है। सदस्यों में मेरे-तेरे के भाव नहीं होने चाहिए, सभी सदस्यों को समदृष्टि से देखना चाहिए। पक्षपात और स्वार्थ का भाव मनों में दूरी उत्पन्न करता है। यह भाव बहुत छोटी-छोटी बातों से परिलक्षित होता है। इस भाव को बुद्धि से विचारपूर्वक ही दूर किया जा सकता है। मनुष्य का स्वभाव मोह और लोभ का होता है। अपने स्नेहपात्र को देखकर मनुष्य के मन में पक्षपात का भाव आ जाता है। मन्दिर में प्रसाद बांटते हुए परिचित को देखकर मनुष्य प्रसाद की मात्रा बढ़ा देता है। भोजन की पंक्ति में अपने मित्र-सबन्धी को देखकर अच्छी वस्तु और अधिक मात्रा में देना स्वाभाविक है, जब भी ऐसा अवसर आये, उस समय बुद्धि से थोड़ा भी विचार करें तो बुराई से रुका जा सकता है। दूसरा विवाद का अवसर आता है जब हानि की परिस्थिति में हम दूसरे को दोषी ठहराने का प्रयत्न करते हैं तो परिवार में सामञ्जस्य नहीं रह सकता। लाभ को अपने पक्ष में और हानि को दूसरे के पक्ष में डालने का मनुष्य का स्वभाव है। यह बात घर या समाज सब स्थानों पर घटित होती है। इसलिये वेद कहता है- लाभ-अलाभ में समान सहयोगी बनें, यही सूत्र परिवार में सामञ्जस्य रखने का है।

इस मन्त्र में मनुष्य के मनोविज्ञान की ओर भी इंगित किया गया है, परिवार या समाज में विघटन या विभाजन का प्रमुख कारण है, अपनी भावनाओं पर बुद्धि का नियन्त्रण न होना। पशु भी वही व्यवहार करता है, मनुष्य भी वही व्यवहार करता है, जब वह भावनाओं में बहता है उस समय संवेगों से प्रेरित होकर कार्य करता है। इसी कारण इस आचरण को पाशविक वृत्ति कहा गया है। जब संवेग के वशीभूत होकर मनुष्य का मन स्वार्थ व पक्षपात की ओर झुक जाता है, उस समय उस पर बुद्धि का अंकुश रहना आवश्यक है। पशु तो दण्ड से ठीक मार्ग पर चलता है, मनुष्य पशु नहीं है, उसका सन्मार्ग पर चलना बुद्धि के अंकुश से ही सभव है। मनुष्य को साधु-संगति, सज्जनों का उपदेश, शास्त्र का चिन्तन, ईश्वर-भक्ति, स्वार्थ और पक्षपात छोड़ने में समर्थ बनाती है।

आदमी के मन में थोड़ी सी वस्तु या थोड़े से धन का लोभ विपरीत मार्ग पर चलने के लिए विवश करता है। हानि का भय उसे उल्टा चलने के लिये प्रेरित करता है। यदि मनुष्य इन परिस्थितियों पर भावनाओं में न बहकर बुद्धि से निर्णय करे तो वह अनुचित कार्य करने से बच जाता है। सभावित हानि से परिवार, समाज का हित जब उसे बड़ा लगेगा तब वह स्वार्थ के जाल में फंसने से बच जायेगा। हानि का भय तभी तक होता है, जब तक मनुष्य हानि को बड़ा समझता है। जैसे ही मनुष्य हानि को सहने के लिए अपने को तैयार कर लेता है, वह आत्मविश्वास से भर जाता है। उसे कोई भय नहीं लगता, उसकी उदारता से उसे संगठन या परिवार के सदस्यों का सबल मिल जाता है और बहुत बार मनुष्य पर ईश्वर की ऐसी कृपा होती है कि जिस विपत्ति से या सभावित हानि से वह भयभीत हो रहा था, वह विपत्ति उस पर आती ही नहीं है।

इस शद को समझने से व्यक्ति को दो लाभ होते हैं। यदि पक्षपात या स्वार्थ का अवसर आता है तो विचार से मनुष्य उससे अपने को रोक लेता है। जब हानि के भय से अनुचित करना चाहता है तब विचार उसके अन्दर आत्मविश्वास उत्पन्न कर देता है, वह ईश्वर की कृपा का पात्र बन जाता है। इसलिए मन्त्र में परिवार को सुखी और स्नेहसिक्त बनाने की भावना है- मनुष्य को हानि-लाभ में सबका भागीदार बनना चाहिए।

जहाँ शैतान करता है कानों में पेशाब

शैतान के अस्तित्व्य की विचारधारा कई पंथों के सिद्धांतों की आधारशिला है . शैतान का अस्तित्व न तो ये मत पंथ ही आज तक सिद्ध कर सके  हैं न ही विज्ञानं इसकी किसी अस्तित्व्य की संभावना से  इत्तिफाक रखता है . शैतान इन मत मंथीय साहित्य के एक अत्यंत महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली किरदारों  में से एक है जो निरन्तर इन मत पंथियों के ईश्वर की सत्ता को नकारता एवं  कदम दर  कदम  उसके सर्वशक्तिमान होने के दावे को खण्डित करता है.

शैतान की यह कल्पना अवैज्ञानिक तो है ही अनेकानेक स्थानों पर अत्यंत ही उपहास का कारण बनाती है :-

सहीह अल बुखारी ने की ये हदीस पढ़िए :

जिल्द ४

1.2.

सारांश यह है कि अबू हुरैरा ने बताया कि  मुहम्मद साहब ने कहा कि शैतान तुम सभी के सिर के पीछे तीन गांठें बाँध देता है और और वह हर गाँठ को बंधाते समय प्रत्येक साँस के साथ कहता है कि “ रात्री लम्बी है इसलिए अभी सोते रहो “

यदि व्यक्ति जाग जाता है और अल्लाह के गुणगान गाता है तो उसकी एक गाँठ खुल जाती है और जब वह वजू करता है तो दूसरी गाँठ खुल जाती है और जब वह नमाज़ अदा करता है तो तीनों गांठे खुल जाती हैं .

और वह व्यक्ति सुबह का आनंद लेता है अन्यथा वह सुबह उस व्यक्ति को कुंठित करने और उदास रखने वाली होती है .

शैतान के अस्तित्व्य के यक्ष प्रश्न के अलाह अब इस्लाम के जानकारों से हमारी गुजारिश है कि  इस हदीस की प्रमाणिकता सिद्ध करें :

  • शैतान का सर के पीछे गाँठ लगाना .
  • गांठों का किसी को न दिखना
  • शैतान का वार्तालाप और
  • अल्लाह के गुणगान और वजू आदि से इन गांठों का खुल जाना
  • गांठें गांठें लगाने के लिए किसी पदार्थ का प्रयोग तो अवश्यम्भावी है तो शैतान वह गांठें कैसे और किस पदार्थ का प्रयोग करके लगाता है और वह  पदार्थ इसकेलिए कहाँ से प्राप्त करता है इत्यादि .

 

सहीह अल बुखारी में  इससे आगे एक हदीस और लिखी है जो  अत्यंत ही हास्यास्पद है :

जिल्द – ४

3.

सारांशतः अब्दुल्लाह ने बताया की एक बार मुहम्मद साहब को बताया गया कि एक व्यक्ति सुबह तक अर्थात सूर्य उगने के बाद तक सोया रहा . मुहम्मद साहब के कहा यह वो व्यक्ति  है जिसके कानों में शैतान ने मूत्र का त्याग किया है .

यह हदीस शैतान के मस्तिष्क के पीछे गांठे लगाने से आगे बढ़कर शैतान द्वारा मुसलमानों के कानों में मूत्र त्याग के बारे में बताती है जो न ही हास्यास्पद है बल्कि अवैज्ञानिक मान्यता की पोषक  भी है .

वर्तमान युग में अनेकों व्यक्ति चाहे वो मुस्लिम हैं मुशरिक हैं सूर्योदय के पश्चात् निद्रा त्यागने के अभ्यस्त हैं लेकिन आज तक किसी ने ऐसी शिकायत नहीं की और न ही किसी की शैतान के मूत्र त्यागने के कारण निद्रा ही टूटी है .

यदि किसी भी व्यक्ति से, जिसने  सूर्योंदय के बाद निद्रा त्याग किया है, से कहा जाये की शैतान ने आपके कान में मूत्र त्याग किया है तो वह कहने वाले को मानसिक रोगी ही  समझेगा ऐसे में यह मौलानाओं का दायित्व्य बनता है कि इस हदीस की वैज्ञानिकता को सिद्ध करें जिससे सभी को इस हदीस की सत्यता का ज्ञान हो सके.

 

योगेश्वर श्री कृष्ण और १६ कलाएं तथा जन्माष्टमी

नमस्ते मित्रो,

५००० वर्ष और उससे भी पूर्व अनेको मनुष्य उत्पन्न हुए मगर इतिहास में याद केवल कुछ ही लोगो को किया जाता है, इतिहास में केवल उनके लिए जगह होती है जो कुछ अनूठा करते हैं, कुछ लोग अपने द्वारा की गयी बुराई से अपना नाम इतिहास में दर्ज करवाते हैं, और कुछ अपने सदगुणो, सुलक्षणों और महान कर्तव्यों से अपना नाम अमर कर जाते हैं, क्योंकि आज कृष्ण जैसा सुलक्षण नाम अपने पुत्र का तो कोई भी रखना चाहेगा, मगर रावण, कंस आदि दुर्गुणियो के नाम कोई भी अपने पुत्र का न रखना चाहेगा, इसी कारण कृष्ण अमर हैं, राम अमर हैं, हनुमान अमर हैं, मगर रावण, कंस आदि मृत हैं।

आर्यावर्त में उत्पन्न हुए अनेको ऐतिहासिक महापुरषो में से एक महापुरुष, ज्ञानी, वेदवेत्ता योगेश्वर श्री कृष्ण का आज ही के दिन जन्म हुआ था, इस दिन को आज जन्माष्टमी कहते हैं, क्योंकि आज भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि है, इसी दिन कृष्ण महाराज का जन्म हुआ था। इसलिए इस दिन को जन्माष्टमी के नाम से जाना जाता है।

हमारे बहुत से बंधू कृष्ण महाराज को पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं। यहाँ हम अवतार का अर्थ संक्षेप में बताना चाहेंगे, “अवतार का शाब्दिक अर्थ “जो ऊपर से नीचे आया” और “पूर्ण” “पुरुष” इस हेतु कहते हैं पूर्ण कहते हैं जो अधूरा न रहा, और पुरुष शब्द के दो अर्थ हैं :

1. पुरुष शब्द का अर्थ सामान्य जीव को कहते हैं जिसे आत्मा से सम्बोधन करते हैं।

2. पुरुष शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए भी किया जाता है जिसने इस सम्पूर्ण ब्राह्मण की रचना, धारण और प्रलय आदि का पुरषार्थ किया और करता है।

हम सभी जीव जो इस धरती पर व अन्य लोको पर विचरण कर रहे वो सभी अवतारी हैं क्योंकि हम सब ऊपर से ही नीचे आये क्योंकि मरने के बाद हमारी आत्मा यमलोक (यम वायु का नाम है अतः वायुलोक यानी अंतरिक्ष में जाती है) तब नीचे आती है। और हम सभी अपनी आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पाते अर्थात मोक्ष को ग्रहण करने योग्य गुणों को धारण नहीं कर पाते और कुछ ही गुणों को आत्मसात कर पाते हैं। इसलिए हम आवागमन के चक्र में फंसे रह जाते हैं। अतः इसी कारण हम अवतार होते हुए भी मृतप्राय रह जाते हैं अमर नहीं हो पाते।

अब हम आते हैं कृष्ण को १६ कलाओ से युक्त पूर्ण अवतारी क्यों कहते हैं यहाँ हमारे कुछ पौराणिक बंधू पहले इस तथ्य को भली भांति समझ लेवे की परमात्मा जो पुरुष है वह अनेको कलाओ और विद्याओ से पूर्ण है, जबकि जीव पुरुष अल्पज्ञ होने से कुछ कलाओ में निपुण हो पाता है, यही एक बड़ा कारण है की जीव ईश्वर नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का दायित्व है की ईश्वर के गुणों को आत्मसात करे इसीलिए कृष्ण महाराज ने योग और ध्यान माध्यम से ईश्वर के इन्ही १६ गुणों (कलाओ) को प्राप्त किया था इस कारण उन्हें १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं।

अब आप सोचेंगे ये १६ कलाएं कौन सी हैं, तो आपको बताते हैं, देखिये :

इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, आकाश, दशो इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह के स्वामी को प्रजापति कहते हैं।

ये प्रश्नोपनिषद में प्रतिपादित है।

(शत० 4.4.5.6)

योगेश्वर कृष्ण ने योग और विद्या के माध्यम से इन १६ कलाओ को आत्मसात कर धर्म और देश की रक्षा की, आर्यवर्त के निवासियों के लिए वे महापुरष बन गए। ठीक वैसे ही जैसे उनसे पहले के अनेको महापुरषो ने देश धर्म और मनुष्य जाति की रक्षा की थी। क्योंकि कृष्ण महाराज ने अपने उत्तम कर्मो और योग माध्यम से इन सभी १६ गुणों को आत्मसात कर आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण किया इसलिलिये उन्हें पूर्ण अवतारी पुरुष की संज्ञा अनेको विद्वानो ने दी, लेकिन कालांतर में पौरणिको ने इन्हे ईश्वर की ही संज्ञा दे दी जो बहुत ही

अब यहाँ हम सिद्ध करते हैं की ईश्वर और जीव अलग अलग हैं देखिये :

यस्मान्न जातः परोअन्योास्ति याविवेश भुवनानि विश्वा।
प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणी ज्योतींषि सचते स षोडशी।

(यजुर्वेद अध्याय ८ मन्त्र ३६)

अर्थ : गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषो को चाहिए की जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोको का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात सदा ऐसा ही बना रहता है, सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम व जिसके सामान नहीं है, उसकी उपासना करे।

यहाँ मन्त्र में “सचते स षोडशी” पुरुष के लिए आया है, पुरुष जीव और परमात्मा दोनों को ही सम्बोधन है और दोनों में ही १६ गुणों को धारण करने की शक्ति है, मगर ईश्वर में ये १६ गुण के साथ अनेको विद्याए यथा (त्रीणि) तीन (ज्योतिषी) ज्योति अर्थात सूर्य, बिजली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थो में स्थापित करता है। ये जीव पुरुष का कार्य कभी नहीं हो सकता न ही कभी जीव पुरुष कर सकता क्योंकि जीव अल्पज्ञ और एकदेशी है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है, इसी हेतु से जीव पुरुष को जो गृहाश्रम की इच्छा करने वाला हो, ईश्वर ने १६ कलाओ को आत्मसात कर मोक्ष प्राप्ति के लिए वेद ज्ञान से प्रेरणा दी है, ताकि वो जीव पुरुष उस परम पुरुष की उपासना करता रहे।

ठीक वैसे ही जैसे १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष योगेश्वर कृष्ण उस सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान, परम पुरुष परमात्मा की उपासना करते रहे।

आइये हम भी इन गुणों को अपना कर कृष्ण के सामान अपने को अमर कर जाए। हम १६ कला न भी अपना पाये तो भी वेद पाठी होकर कुछ उन्नति कर पाये।

आइये सत्य को अपनाये और असत्य त्याग कर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी का त्यौहार मनाये। आप सभी मित्रो, बंधुओ को योगेश्वर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये।

लौटिए वेदो की और।

नमस्ते।

नोट : अब स्वयं सोचिये जो पुरुष (जीव) इन १६ कलाओ (गुणों) को योग माध्यम से प्राप्त किया क्या वो :

कभी रास रचा सकता है ?

क्या कभी गोपिकाओं के साथ अश्लील कार्य कर सकता है ?

क्या कभी कुब्जा के साथ समागम कर सकता है ?

क्या अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य महिला से सम्बन्ध बना सकता है ?

क्या कभी अश्लीलता पूर्ण कार्य कर सकता है ?

नहीं, कभी नहीं, क्योंकि जो इन कलाओ (गुणों) को आत्मसात कर ले तभी वो पूर्ण कहलायेगा और जो इन सोलह कलाओ को अपनाने के बाद भी ऐसे कार्य करे तो उसे निर्लज्ज पुरुष कहते हैं, पूर्ण अवतारी पुरुष नहीं।

इसलिए कृष्ण का सच्चा स्वरुप देखे और अपने बच्चो को कृष्ण के जैसा वैदिक धर्मी बनाये।

योगेश्वर महाराज कृष्ण की जय।

धन्यवाद

क्या समस्या का समाधान आरक्षण…?? शिवदेव आर्य

मनुष्य के जीवन को पूर्णरूपेण सुख- सम्पन्नतामय बनाने के लिए आर्थिकीय दृष्टि सदैव पर्याप्त नहीं हुआ करती है। कदाचित् इसका यह तात्पर्य लेशमात्र भी नहीं है कि अर्थ का सुख-शान्ति-समृध्दि में कोई स्थान नहीं। संसार भर में बड़े-से-बड़े वेदज्ञों, नीतिशास्त्रवेत्ताओं, विज्ञानविशारदों, सगीतज्ञों आदि मनीषियों को यदि भोजन न मिले तो उनकी सारी विद्याएॅं एक कोने में ही धरी रह जायेंगी। ‘भूखे भजन न होई गोपाला’ की उक्ति के आधार पर उनकी सारी प्रतिभा क्षुधा रूपी पिशाचिनी के द्वारा ग्रसित कर ली जाती है। अन्त में क्षुधा तृप्ति के लिए यत्न तो अवश्यंभावी है, अतः करना ही पड़ेगा। क्योंकि ‘बुभुक्षितैः व्याकरणं न भुज्यते, पिपासितैः काव्यरसो न पीयते’ की उक्ति पूर्णरूपेण चरितार्थ होगी। यह भी सम्भव हो सकता है कि वे अपने धर्म-कर्म को त्याग कर पापकर्म से अपनी क्षुधा की तृप्ति कर लें, क्योंकि साहित्य में अनेकों उदाहरण दृष्टिगत होते हैं यथा-‘बुभुक्षितः किं न करोति पापम्’ अर्थात् भूखा मनुष्य कौन-सा पाप नहीं करता? इससे यह आशय तो स्पष्ट द्योतित होता ही है कि अर्थ मनुष्य जीवन को सुखमय बनाने में एक साधन है, जिसके अभाव में कोई भी व्यक्ति, समाज अथवा देश अपना सर्वांगीण विकास नहीं कर पाता। समाज की भावनाओं तथा गतिविधियों का भूखा मनुष्य आरक्षण रूपी भोजन को अनायाश अथवा स्वल्प प्रयास से प्राप्त करना चाहता है। इसी सामाजिक गतिविधियों का अनुद्यमी वर्ग आरक्षण चाहता है, जिसका ज्वलन्त उदाहरण गुजरात में दिखायी दे रहा है। गुजरात के युवा नेता हार्दिक पटेल दूरगामी व सामाजिक लाभ को न देखकर एक ऐसी गलत अवधारणा में बह गये हैं, जिसका परिणाम दिनो-दिन कष्टप्रद व देश-समाज तथा जनों के प्रति क्षति पहूॅंचाने का कार्य कर रहा है। हार्दिक पटेल ने एक सोची समझी चाल चली है, जिसका लाभ उसे राजनीति के रुप में प्राप्त हो रहा है। वे सभी स्वार्थी नेता इस कार्य को बहुत अच्छा बता रहे तथा समर्थन कर रहे हैं। तथा इसके साथ ही राजनीति के मैदान में पदार्पण करने की सलाह दे रहे हैं। जिस प्रकार पटेल समुदायों के लिए आरक्षण को लेकर मांग की जा रही है, उससे राज्य में हिंसा का नया वातावरण तैयार हुआ है। आजादी के बाद अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सामाजिक तथा आर्थिक रुप से मुख्यधारा में लाने के लिए उन्हें दश वर्षों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया। बाद में दश वर्ष की समयावधि को लगातार बढ़ाया जाता रहा है। जबकि यह नहीं देखा गया कि वे लोग ;आरक्षण को प्राप्त करने वालेद्ध आरक्षण के योग्य हैं अथवा नहीं। १९९॰ में वी पी सिंह की सरकार ने आरक्षण का भरपूर लाभ लिया, जिसके चलते उनकी सरकार ने अन्य पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया। इसके बाद से ही आरक्षण राजनीति को चमकाने का नया अस्त्र बन गया। कुछ समय बाद शिक्षण संस्थानों में भी आरक्षण लागू कर दिया गया। इसलिए सर्वत्र ही आरक्षण की मांग करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। गुजरात का पटेल समुदाय भी इसी का एक अंग है। मुझे यह लिखते हुए बड़ा आश्चर्य होता है कि आजादी के बाद से लेकर अब तक जिन लोगों को आरक्षण के आधार पर लाभ मिला वह वर्ग अभी भी समर्थशील नहीं हो पा रहा है, आज भी वह चाहता है कि उसे पर्याप्त मात्रा में आरक्षण प्राप्त हो। क्या वह सदा के लिए ही आरक्षित रहेगा? आरक्षण प्राप्त करने वालों को लेशमात्र भी संकोच नहीं है, जिनके कारण एक योग्य व्यक्ति का चयन नहीं हो पाता। इसी आरक्षण नीति ने हमारे देश का यथार्थ रुप में पतन किया है। जिन लोगों को थोड़ा-सा भी ज्ञान नहीं होता, उन लोगों केा आरक्षण के आधार पर स्कूलों, अस्पतालों आदि स्थानों पर सेवाएॅं देने का अवसर प्राप्त हो जाता है। ये कैसी विडम्बना है सरकारी स्कूलों में प्रायः लोग अपने बच्चों को इसलिए नहीं पढ़ाना चाहते, क्योंकि वहाॅं बैठे हुये अध्यापक लोग स्वयं आरक्षण के आधार पर अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं। इसको इस प्रकार भी व्यक्त किया जा सकता है कि जिन अयोग्य लोगों की सेवा सरकार आरक्षण के आधार पर कर रही हो वह भला दूसरो की सेवा कैसे कर सकते हैं। तात्पर्य यह है कि वह बच्चों को कैसे पढ़ा-लिखा सकता है, जो स्वयं ४॰ फीसदी अंक लेकर अध्यापक बना हो वह १॰॰ फीसदी परिणाम कैसे दिखा सकता है? आज आरक्षण को एक बुनियादी अधिकार के रूप में देखा जाने लगा है, न कि इस रूप में कि यह सामाजिक और आर्थिक रूप से विपन्न लोगों को मुख्यधारा में लाने की व्यवस्था है, जो जाति विशेष का होने के कारण शोषण और उपेक्षा का शिकार हुए। आरक्षण की मांग इसके बावजूद बढ़ती जा रही है। सरकारी नौकरियों की संख्या सीमित हो रही है। भले ही गुजरात में पटेल समुदाय की हिस्सेदारी १२ प्रतिशत के आसपास हो, लेकिन वह सामाजिक-आर्थिक और साथ ही राजनीतिक रूप से भी सक्षम है। यह समझना कठिन है कि एक ऐसा व्यक्ति जो सभी साधनों से सम्पन्न हो वह पुनरपि आरक्षण के लिए इतना ज्यादा लालायित क्यों हो रहा है? आरक्षण की आज कई वर्गों को आवश्यकता है, उनको फिर भी आरक्षण की इतनी चाह नहीं। इससे सीधा स्पष्ट होता है कि हार्दिक पटेल का उद्देश्य केवल मात्र आरक्षण ही प्राप्त करना नहीं है अपितु इससे यह भी उजागर होता है कि ये राजनीति का सिक्का खेलना चाहता है। क्योंकि पूर्व में संप्रग सरकार ने जाटों को आरक्षण देकर राजनैतिक खेल खेलने का यत्न किया किन्तु कुछ समय बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया। पिछले कुछ समय से कई समर्थ समझी जाने वाली जातियाॅं अपने को पिछडा घोषित कराने के लिए तैयार हैं, वहीं अनेक जातियाॅं एस सी तथा एस टी के वर्ग में आना चाहती हैं। आरक्षण प्रदान करने से ये समस्याएॅं समाप्त नहीं होने वाली अपितु आरक्षण को जड़ से ही समाप्त कर देना सर्वोचित होगा। यदि पटेल और जाट खुद को पिछड़ा वर्ग बाताएंगे तो फिर आने वाले दिनों में अन्य समुदाय के लोग भी अपने लिए आरक्षण की माॅंग करेंगे, इसलिए सरकार को सोच-विचार कर निर्णय लेने की आवश्यकता है। आरक्षण के मामले में इसकी जरूरत बढ़ रही है कि आरक्षित समुदायों को शैक्षिक योग्यता में रियायत एक सीमा तक ही दी जाए। ऐसी स्थितियाॅं ठीक नहीं कि न्यूनतम अंकों के होने पर भी अधिक अंक वाले व्यक्ति को प्रवेश न मिलकर आरक्षित वर्गों के युवा आगे बढ़ जाएॅं। अब बात केवल सरकारी नौकरियों की ही नहीं है बल्कि उच्च शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश की भी है। क्योंकि प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थान भारत में गिने-चुने हैं। इन संस्थानों में भी आरक्षण के आधार पर एक अच्छी मेधा से हमारा देश वंचित रह जाता है, और ऐसे मेधा सम्पन्न बालकों को उनके परिजन शिक्षा के लिए विदेशों में भेजते हैं। इससे अच्छी खासी मुद्रा विदेशों में भेजी जाती है। इससे भी भारत को आर्थिक दृष्टि से नुकसान है। यदि यह मुद्रा बाहर जाने के स्थान पर देश में ही उपयोग हो तो बहुत ही अच्छा रहेगा। और आगे चलकर वह विदेश में भेजा हुआ बालक विदेश में ही अपनी मेधा का प्रयोग करता है, जिससे उस देश को लाभ मिलता है। स्पष्ट है कि भारत से आरक्षण को सदा-सदा के लिए सभी वर्गों से समाप्त कर देना चाहिए, या आरक्षण देने की नीति में सुधार किया जाना चाहिए, उसको एक निश्चित समय के लिए सुनिश्चित करना चाहिए, निश्चित अवधि के पश्चात् समाप्त कर देना चाहिए। अतः सरकार तथा जनमानस के सर्वजनहितकारक निर्णय की प्रतीक्षा सदैव बनी रहेगी…. शिवदेव आर्य गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून ई.मेल.-shivdevaryagurukul@gmail.com

वह विछोना वही ओढ़ना है- तर्ज-मनिहारी का वेष बनाया – पं. संजीव आर्य

आओ साथी बनाएँ भगवान को।

वही दूर करेगा अज्ञान को।।

कोई उसके समान नहीं है

और उससे महान नहीं है

सुख देता वो हर इंसान को।।

वह बिछोना वही ओढ़ना है

उसका आँचल नहीं छोड़ना है

ध्यान सबका है करुणा निधान को।।

दूर मंजिल कठिन रास्ते हैं

कोई साथी हो सब चाहते हैं

चुनें उससे महाबलवान को।।

सत्य श्री से सुसज्जित करेगा

सारे जग में प्रतिष्ठित करेगा

बस करते रहें गुणगान को।।

रूप ईश्वर के हम गीत गाए

दुर्व्यसन दुःख दुर्गुण मिटाएँ

तभी पाएँगे सुख की खान को।।

– गुधनीं, बदायुँ, उ.प्र.

पढ़े वेद अरु पढ़ावें – सतीश गुप्ता ‘‘द्रवित’’

जान लिया शिव तत्व को, लिया नाम ओंकार।

देख ऋषि दयानन्द ने, बदला जीवन सार।।

हो वेदों सा आचरण, तभी बचेगी लाज।

जग का दरपन वेद हैं, दर्शन आर्य समाज।।

नित्य हवन पूजन करें, होय प्रदूषण अन्त।

बने शुद्ध वातावरण, आये नवल बसन्त।।

जो वेदों से विमुख हैं, कुछ मर्यादाहीन।

लक्ष्य मिले किस विधि यहाँ, सब हैं तेरह-तीन।।

राह वेद की छोड़कर, मतकर खोटे कर्म।

ओ3म् रूप में निहित है, भाग्योदय का मर्म।।

गूजें संस्कृति सुखद स्वर, अखिल विश्व तम तोम।

वेदों के अनुसार ही, नित्य करें सब होम।।

पढ़ें वेद अरु पढ़ावें, मानव बने प्रबुद्ध।

तज दे वो पाखंडता, करे हृदय को शुद्ध।।

लोभ, मोह, अभिमान से, मत कर जीवन नष्ट।

बिना वेद कमाया धन, देता निश्चित कष्ट।।

मानवता मन में बसे, कर से करें सुकर्म।

वाणी समता मय रहे, आर्य मनुज का धर्म।।

धर्म, कर्म अरु ज्ञान से, बदलेगा परिवेश।

‘‘द्रवित’’ धर्म रत ही रहो, वेदों का उपदेश।।

– निर्मल कुंज, 103, सिकलापुर, बरेली, उ.प्र. 243001

वेशों का ईद मुबारक : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

माननीय सपादक जी, परोपकारी,

सप्रेम नमस्ते।

 

वेशपंथियों ने सार्वदेशिक सभा के भवन के बाहर ‘ईद मुबारक’ के बैनर लगाकर यह प्रमाणित कर दिया है कि उनके मन में क्या है। इनके मन में कुछ भी  हो सकता है परन्तु आर्यसमाज और वैदिक धर्म के प्रति लेशमात्र भी कोई भावना नहीं।

जब नेपाल में सायवादी प्रधानमन्त्री सत्तासीन हुआ तो श्री अग्निवेश ने ब्र. नन्दकिशोर जी से कहा, ‘‘लो नेपाल में मेरा राज हो गया।’’

सत्यार्थप्रकाश के विरुद्ध अमृतसर में जो कुछ कहा, उस समय के दैनिक पत्रों में छपा मिलता है।

समलैङ्गिकता का समर्थन, बिग बॉस में जाकर साधुवेश की शोभा बढ़ाने वाले ने अब याकूब की रक्षा के लिए झण्डा उठा लिया है।

जिन लोगों ने कभी अग्निवेश के अपमान पर रोष प्रकट करते हुए दिल्ली में कभी जलूस निकाला था, उन्हें अब अग्निवेश के नेतृत्व में बकर ईद (गो-मांस वाली ईद) पर नारे लगाते हुए जलूस निकालना चाहिये।

पं. लेखराम, वीर राजपाल, वीर नाथूराम, हुतात्मा श्यामलाल और वीर धर्मप्रकाश वेदप्रकाश के बलिदान पर्व पर तो इन्होंने कभी बैनर लगाया नहीं।

ये लोग ईद, रोजे व क्रिसमिस मनाने में हाजियों से भी आगे-आगे रहेंगे। इस पंथ का जन्म ही आर्य जाति के विनाश के प्रयोजन से हुआ- यह अब सर्वविदित है।

इन्होंने तो कभी अपने दीक्षा-गुरु स्वामी ब्रह्ममुनि जी का भी कभी नाम नहीं लिया।

– राजेन्द्र जिज्ञासु, वेद सदन, अबोहर, पंजाब

सत्संग स्वर्ग और कुसंग नरक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

किसी भी विषय के प्रायः दो पहलु होते हैं, एक सत्य व दूसरा असत्य। सत्य व असत्य का प्रयोग ईश्वर व जीवात्मा से लेकर सृष्टि के सभी पदार्थों व व्यवहारों आदि में सर्वत्र किया जाता है। ईश्वर  निराकार है, यह सत्य है और निराकार नहीं है अथवा साकार है, यह असत्य है। निराकार अर्थात् आकार रहित होने से उसका चित्र व मूर्ति नहीं बन सकती। जिस प्रकार आकाश व वायु की मूर्ति व चित्र नहीं बनाये जाते उसी प्रकार निराकार होने से ईश्वर का चित्र व मूर्ति भी नहीं बन सकती अर्थात् ऐसा होना असम्भव है। यदि कोई मूर्तिकार व तथाकथित विद्वान किसी मूर्ति को बनाकर कहे कि यह ईश्वर की मूर्ति है तो वह असत्य होगा। बुद्धिमान व ज्ञानी लोग इस बात को समझते हैं परन्तु अज्ञानी व भोले लोग इसको न समझकर अन्धपरम्पराओं जो विगत दो या ढाई हजार पहले आरम्भ हुईं, उसी को परम्परा मानकर उसका अनुगमन करते हैं। सत्य को जानना व उसे जीवन में धारण करना ही सत्संग है। असत्य के लिए कुछ पुरुषार्थ व तप करने की आवश्यकता नहीं होती। असत्य अज्ञान की वह अवस्था होती है जिसके लिए मनुष्य को कुछ करना ही नहीं होता। सत्य के लिए अवश्य ही अध्ययन, विद्वानों के उपदेश, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, विचार व चिन्तन करना होता है। किसी को गुरु बनाते समय यह देखना होता है कि वह वस्तुतः सच्चा ज्ञानी, निर्लोभी व सदाचारी है वा नहीं। आजकल अज्ञानी और छल व कपट से युक्त स्वार्थी व्यक्ति भी स्वयं को गुरु बनाये हुए हैं और अपने छल व कपट से अपने अनुयायियों के जीवन का शोषण कर खिलवाड़ करते हैं। अतः किसी एक व्यक्ति को गुरु कभी नहीं बनाना चाहिये परन्तु गुरु बदलते रहें और जहां जिससे जितना ज्ञान मिले उसे प्राप्त करते रहना चाहिये, यही उचित प्रतीत होता है। संसार में गुरू स्थानीय सत्ता के रूप में परमात्मा सर्वोपरि है और उसके बाद स्वाध्याय के लिए परम प्रमाणित वेद व उनके महर्षि दयानन्द व आर्यविद्वानों कृत वेदभाष्य व सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ हैं। इनके द्वारा कोई भी साधारण अक्षरज्ञानी व भाषाज्ञानी व्यक्ति ईश्वर, जीवात्मा व संसार के विषय में सत्य ज्ञान से परिचित हो सकता है।

 

आर्य समाज में आचार्य भद्रसेन जी के नाम से एक सच्चे ब्राह्मण, पण्डित व विद्वान हुए हैं। आपने अपने जीवन में स्वामी सर्वदानन्द जी की सहायता व पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी के आचार्यात्व में संस्कृत व वैदिक साहित्य का गहन अध्ययन किया। आप योग के भी आचार्य थे और इसके साथ आर्ष विधि से पुरोहित के रूप में गृहस्थियों के सोलह संस्कार कराते थे। आपके एक योग्यतम पुत्र कैप्टेन देवरत्न आर्य हुए हैं जो आर्यजगत् में अत्यन्त यशस्वी व सम्मानित रहे हैं और जिन्होंने अपने जीवन में आर्यसमाज के प्रचार प्रसार में उल्लेखनीय योगदान किया। वह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधी सभा के प्रधान भी रहे। आचार्य भद्रसेन जी ने स्वाध्याय के लिए एक प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘प्रभु भक्त दयानन्द तथा उनके आध्यात्मिक उपदेश लिखी थी। इसका एक अध्याय सत्संग-कुसंग पर है। इसी के आधार पर हम सत्संग व कुसंग विषयक कुछ प्रसंग व उपदेश पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। योग एवं स्वास्थ्य नाम से योग पर भी आचार्य भद्रसेन जी काएक बहुत महत्वपूर्ण ग्रन्थ है तथा अन्य कुछ और ग्रन्थ भी हैं।

 

आचार्य भद्रसेन जी लिखते हैं कि गृहस्थियों को चाहिये कि वह सत्कारपूर्वक दूरस्थ उत्तम विद्वान अतिथि महानुभावों को सुविधाजनक वाहनों, रथ आदि सवारियों पर बैठा कर उपदेश के लिए अपने निवासों पर लावें और अन्नादि वा स्वादिष्ट भोजन आदि से उनका स्वागत सत्कार करें।                                                                    (आधार ऋग्वेद भाष्य 5/1/1)

 

जैसे बादल स्वयं छिन्न-भिन्न होकर भी दूसरों का सदा उपकार ही करते हैं। उसी प्रकार से सच्चे विद्वान् दूसरों के अपकार करने से छिन्न-भिन्न होकर भी उनका सदा उपकार ही करते हैं।

 

जो लोग उस परमात्मा और आप्त विद्वानजनों को छोड़कर दुष्ट मनुष्यों की संग करते हैं, वे हमेशा दुःखी ही रहते हैं।

(आधार ऋग्वेद भाष्य 6/29/8)

 

जो जन अपवित्र आहार-विहार करनेवाले, विषय-लम्पट, दूसरों की चुगली करनेवाले, और असत्पुरुषों का संग करनेवाले हैं, उनको कभी भी विद्या प्राप्त नहीं होती और जो पवित्र आहार-विहार वाले, जितेन्द्रिय, यथार्थ-वक्ता, सत्पुरुषों का संग करनेवाले और पुरुषार्थ-परायण हैं, उनको सब प्रकार की विद्या प्राप्त होती है। ऐसा अवश्य निश्चय जानों।

(आधार ऋग्वेद भाष्य 6/28/41)

 

कभी नास्तिक, लम्पट, विश्वासघाती, मिथ्यावादी, स्वार्थी कपटी, छली आदि दुष्ट मनुष्यों का संग न करे। और जो सत्यवादी, परोपकार-प्रिय आप्त जन हैं, उनका सदा संग करें।                                                       (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 10)

 

परमेश्वर और परमेश्वर के तुल्य धार्मिक विद्वानों के बिना कोई सब पदार्थों और सब प्रकार के सुखों का देनेवाला और कोई नहीं है।                                                                                                                                     (आधार ऋग्वेद भाष्य 5/20/2)

 

गृहस्थ स्त्री-पुरुष कार्यकर्त्ता सद्धर्मी, लोकप्रिय, परोपकारी सज्जन, विद्वान् व त्यागी पक्षपातरहित संन्यासी जो सदा विद्या की वृद्धि और सब के कल्याणार्थ वर्तनेवाले हों, उनका नमस्कार, आसन, अन्न, जल, वस्त्र, पात्र, धन आदि के दान से उत्तम प्रकार से यथासामथ्र्य अवश्य सत्कार करें।                                                                                           (सत्यार्थ प्रकाश)

 

विद्वानों के संग और सेवा से क्या-क्या प्राप्त होता है इसका उल्लेख महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेद भाष्य के 6/2/2 मन्त्र में किया है। वह लिखते हैं जो मनुष्य विद्वानों की सेवा से शुभ गुण, कर्म, स्वभावों को प्रापत करते हैं, वे वृद्धजनों को (अपनी सेवा द्वारा) सुख पहुंचानेवाले दीघार्यु और सुन्दर गृहस्थवाले बनकर शरीर और आत्मा से सदा बलवान् और पुष्ट हो जाते हैं। (ये मनुष्या विद्वत्सेवया शुभ, गुण, कर्म, स्वभावान् प्राप्नुवन्ति ते वृद्धरक्षा चिरंजीविनः सुन्दर गृहाश्च भूत्वा शरीरात्मभ्यां पुष्टा जायन्ते।)

 

ऋग्वेद मंत्र भाष्य 7/15/2 में कहा गया है कि संन्यासी महात्मा हमेशा सर्वत्र भ्रमण करता रहे। और गृहस्थ इन्हें (अपने गृह पर बुलाकर) इनका सदैव सत्कार करे। और इनके सदुपदेशों का ग्रहण करें।

 

सत्यप्रिय मनुष्यों को सदैव (वेद के) विद्वानों का सत्कार करना चाहिये। जो सत्य, विद्या और धर्म के प्रकाश करनेवाले, सकल वेदों के ज्ञाता, विद्वान, अध्यापक और उपदेशक जगत् में मनुष्यादिकों को अपने सदुपदेशों द्वारा सब प्रकार से उन्नत करते हैं, वे ही सब प्रकार से सब को सत्कार करने योग्य हैं। यजुर्वेद मन्त्र 3/42 में विद्वानों से प्रीति तथा उनका संग करने की शिक्षा देते हुए कहा गया है कि गृहस्थों को सब धािर्मक अतिथि लोगों के वा अतिथि लोगों को गृहस्थों के साथ अत्यन्त प्रीति रखनी चाहिए, किन्तु दुष्टों के साथ नहीं। तथा अतिथि विद्यानों के संग से परस्पर वार्तालाप कर विद्या की उन्नति करनी चाहिए। और जो परोपकार करनेवाले विद्वान, अतिथि लोग हैं, उनकी सेवा गृहस्थों को निरन्तर करनी चाहिए।

 

हमें एक प्रेरणादायक घटना स्मरण हो आयी। आर्यसमाज के एक प्रसिद्ध संन्यासी, महात्मा व अनेक गुरुकुलों के संचालक पिछले दिनों देहरादून आये हुए थे। उन्हें पता चला कि एक आर्यविद्वान की धर्मपत्नी किसी अस्पताल में उपचारार्थ भर्ती हैं। उनके शिष्य अस्पताल पहुंचं और रोग की स्थिति आदि का पता किया और कहा कि धन की चिन्ता न करें। कुछ सहस्र रूपये भी हमारी उपस्थिति में उन्होंने प्रदान किये। कुछ कारणों से अस्पताल में उचित चिकित्सा न होने के कारण एक अन्य प्राइवेट नर्सिंग होम में ले जाकर उनका आपरेशन कराया गया। वहां अगले दिन स्वामीजी पहुंचे और उनका हाल पूछकर उन्हें चिकित्सा सहायतार्थ बिना मांगे ही कुछ सहस्र रूपये देवीजी के हाथ में साशीर्वाद प्रदान किये। इससे पूर्व भी लगभग 15 वर्ष पूर्व एक बार उन्होंने कैन्सर से पीडि़त हमारे आर्य विद्वान एक मित्र के परिवार को दिल्ली के पंत चिकित्सालय में पहुंचकर एक लाख रूपयों की धनराशि प्रदान करते हुए उनकी धर्म पत्नी को उनकी चिकित्सा किसी अच्छे चिकित्सक वा चिकित्सालय में कराने को कहा था और आश्वासन दिया था कि उनसे जो हो सकेगा, वह और सहायता करेंगे। हमने इन आर्य विद्वान संन्यासी में वेद वर्णित सभी गुण प्रत्यक्ष देखें और अनुभव किये हैं। वस्तुतः ऐसे विद्वान महात्मा और संन्यासी ही सत्संग, सेवा व सत्कार के पात्र होते हैं। हमारा सौभाग्य है हमें इन स्वामीजी का आशीर्वाद प्राप्त होता है।

 

 

यह भी निवेदन है आजकल देशभर में कुछ कथावाचक आदि बड़ी बड़ी जनसभायें करते हैं। इनमें सत्य के साथ बड़ी मात्रा में असत्य भी परोसा जाता है जिससे समाज में अन्धविश्वास बढ़ रहे हैं। हम इन्हें सत्संग नहीं मानते और वस्तुतः यह सत्संग हैं भी नहीं। जो विचार वेदों से प्रमाणित हैं, वही सत्संग की कोटि में आते हैं अन्यथा वह कुसंग ही होते हैं। इन जनसभाओं के विपरीत आर्यसमाज व इसकी संस्थाओं गुरूकुल आदि के अधिवेशनों व समारोहों में होने वाले धार्मिक प्रवचनों को सत्संग कहा जा सकता है क्योंकि यहां सभी बातें वेद पर आधारित वा वेदों से पुष्ट कही जाती हैं। हम आशा करते हैं कि सत्संग विषय में जो संक्षिप्त विचार व कथन लेख में प्रस्तुत किये हैं, उनसे पाठकों को लाभ मिलेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121