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‘ईश्वर व जीवात्मा के यथार्थ ज्ञान में आधुनिक विज्ञान भ्रमित है।’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

आज का युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने मनुष्य का जीवन जहां आसान व सुविधाओं से पूर्ण बनाया है वहां अनेक समस्यायें एवं सामाजिक विषमतायें आदि भी उत्पन्न हुई हैं। विज्ञान व ज्ञान से युक्त मनुष्यों से अपेक्षा की जाती है कि वह जिस बात को जितना जाने उतना कहें और जहां उनकी पहुंच न हो तो उस पर मौन रहें। परन्तु हम देखते हैं कि सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर और जीवात्मा के विषय में आधुनिक विज्ञान आज भी भ्रम की स्थिति में है। इन दोनों सत्ताओं ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व का सत्य ज्ञान व विज्ञान वैज्ञानिकों के पास नहीं है। बहुत से वैज्ञानिक ऐसे हैं जो ईश्वर व आत्मा की स्वतन्त्र, पृथक, अनादि व अमर सत्ता में विश्वास ही नहीं रखते। बहुत से वैज्ञानिक नहीं किन्तु कथाकथित बुद्धिजीवी ऐसे भी हैं जिनका अध्यात्म व विज्ञान से कोई वास्ता नहीं रहा है, वेद व वैदिक साहित्य उन्होंने देखा व पढ़ा ही नहीं, फिर भी वह अपने मिथ्याविश्वास, अविवेक व दम्भ के कारण ईश्वर व जीवात्मा को नहीं मानते। इसके विपरीत भारत और विश्व में भी बहुत से वैज्ञानिक ऐसे मिल जायेंगे जो अपने अपने मत-पन्थ-सम्प्रदाय के ईश्वर व जीवात्मा संबंधी विश्वासों, जो अधिकांशतः अन्धविश्वास की श्रेणी में हो सकते हैं, को मानते हैं और विज्ञान को भी। हम समझते हैं कि वर्तमान इक्कीसवीं शताब्दी में विज्ञान व वैज्ञानिकों को एक बार पुनः ईश्वर व जीवात्मा के अस्तित्व के बारे में व्यापक रूप से पुनर्विचार कर निश्चित करना चाहिये कि क्या यह दोनों पदार्थ व सत्तायें वस्तुतः हैं भी या नहीं और क्या यह दोनों सत्तायें विज्ञान की सीमा में आती भी हैं या नहीं। ऐसा करने से पूर्व उन्हें वैदिक विचारधारा का भी व्यापक अध्ययन कर लेना चाहिये जिससे ईश्वर व जीवात्मा के विषयक में नया यथार्थ वैज्ञानिक दृष्टिकोण बनाने में उन्हें सहायता मिलेगी।

 

आईये, मनुष्य जीवन की चर्चा करते हैं। मनुष्य जीवन में एक चेतन अविनाशी तत्व जीवात्मा होता है और दूसरा जीवात्मा का भौतिक शरीर होता है। भौतिक शरीर प्राकृतिक पदार्थों से बना वा अन्नमय होने के कारण आंखों से दिखाई देता है। अतः इसके अस्तित्व में किसी को किंचित भी शंका नहीं होती। व्यवहार में भी सभी कहते हैं कि यह मेरा सिर है, मेरे पैर, मेरी भुजा, मेरा शरीर है, आदि आदि। न केवल हिन्दी भाषा में ऐसा प्रयोग होता है अपितु अंग्रेजी में भी यही कहेंगे कि दीज आर माई आईज, दीज आर माई हैण्ड्स, इट्स माई नैक आदि। अन्य भाषाओं में भी ऐसा ही प्रयोग होना सम्भव है। यह कोई नहीं कहता कि यह हाथ मेरे शरीर के नहीं मेरी जीवात्मा के अंग हैं तथा इनके बिना मैं व मेरी आत्मा अधूरी व अपूर्ण है। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि मैं, अर्थात् जीवात्मा, कुछ और है और यह जो मेरे नाम से सम्बोधित किये जाते हैं वह मुझसे भिन्न हैं परन्तु यह सभी मेरे अपने हैं जिस प्रकार से मेरी पुस्तक, मेरा घर, मेरे गुरूजी, माता व पिता आदि होते हैं। वैज्ञानिक भी बोल चाल व लेखन में इसी प्रकार का प्रयोग करते हैं। इससे तो यही सिद्ध होता है कि शरीर व मैं अलग अलग हैं। जब कहीं किसी की मृत्यु होती है तो कहते हैं कि अमुक व्यक्ति नहीं रहा, मर गया, चल बसा। नहीं रहा का अर्थ है कुछ समय पूर्व तक शरीर में था परन्तु अब शरीर में नहीं रहा अथवा है। इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता की उस व्यक्ति का अस्तित्व भी पूरी तरह से समाप्त हो गया है अर्थात् उसका पूर्ण अभाव हो गया है। मर गया भी यह बताता है कि कोई व्यक्ति अब जीवित नहीं है, मर गया है, मरने से पहलेे वह जीवित था। मृत्यु होने से वह व्यक्ति शरीर में से कहीं चला गया है, इसलिए कहते हैं कि मर गया। यही स्थिति चल बसा शब्दों की भी है। चल गति को बता रहा है और बसा शरीर की क्रियाशून्यता को कि यह नहीं गया यह बसा अर्थात् यहीं है। ऐसे अनेक उदाहरण लिये जा सकते हैं जिससे शरीर में शरीर से पृथक एक चेतन तत्व के होने के संकेत मिलते है।

 

हम जिस सृष्टि या संसार में रहते हैं उसको बने व चलते हुए 1 अरब 96 करोड़ से अधिक वर्ष हो गये हैं। इस अवधि में मनुष्यों की लगभग 78 हजार पीढि़यां बीत गई हैं अर्थात् हमारे माता-पिता, उनके माता-पिता, फिर उनके और फिर उनके माता-पिता, इस प्रकार पीछे चलते जाये तो लगभग 78 हजार पूर्वज व उनके संबंधी बीत चुके हैं अर्थात् वह जन्में और मर गये। हमारे इन पूर्वजों ने अपनी बुद्धि, ज्ञान व अनुभव से अपने जीवन काल में आध्यात्मिक क्षेत्र में भी अनुसंधान कार्य किये और वैज्ञानिकों की तरह से अनेक शास्त्रों व ग्रन्थों की रचना की। मध्यकाल व उसके बाद विधर्मियों ने नालन्दा व तक्षशिला सहित अन्य अनेक हमारे बड़े बड़े पुस्तकालयों को अग्नि को समर्पित कर ज्ञान व विज्ञान की भारी हानि की। इस दुर्भाग्य में भी कुछ सौभाग्य शेष रहा और वह है कि वेद, दर्शन, उपनिषदें, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद आदि अनेक ग्रन्थ जिनमें ईश्वर व जीवात्मा का हमारे पूर्वजों द्वारा अनुभूत ज्ञान भरा पड़ा है, सुरक्षित रहे। वह ज्ञान क्या कहता है, यह हमें देखना चाहिये। वस्तुतः महर्षि दयानन्द ने इन सभी ग्रन्थों को देखा, पढ़ा व समझा तथा इन ग्रन्थों की विज्ञान व ज्ञान तथा सांसारिक परिवेश एवं ऊहापोह कर इनकी परस्पर संगति लगाई और वेद, 6 दर्शन, 11 उपनिषद, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति तथा अन्य अनेक ग्रन्थों की मान्यताओं को सत्य पाया। यह सभी ग्रन्थ एक स्वर से घोषणा करते हैं कि संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति अनादि, नित्य व अमर हैं।

 

इस संदर्भ में एक तथ्य यह भी है कि वैज्ञानिकों की दृष्टि में वेद वर्णित ईश्वर का वह स्वरूप स्पष्ट व सर्वांगपूर्ण रूप में सामने नहीं आया जिसका चित्रण दर्शनों, उपनिषदों व महर्षि दयानन्द के अनेक ग्रन्थों में हुआ है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने न तो प्रयास किया और न इन मान्यताओं व विचारधारा के मानने वाले विद्वान उच्च व वरिष्ठ वैज्ञानिकों तक पहुंच सके। इस कारण ईश्वर का वेदवर्णित स्वरूप वैज्ञानिकों के सम्मुख नहीं आ सका। हमें लगता है कि संसार के प्रमुख वैज्ञानिकों के सम्मुख ईश्वर का जो स्वरूप आया, वह पूर्ण व आंशिक रूप से ईसाई मत की पुस्तक बाइबिल व संसार में प्रचलित अन्य मत-मतान्तरों में वर्णित ईश्वर के स्वरूप थे। यह स्वाभाविक है कि यदि कोई बाइबिल व अन्य मतों में वर्णित ईश्वर के स्वरूप पर विचार करे तो वह एकदेशी, अल्प ज्ञान व शक्तिवाला, मनुष्य शरीर के कुछ कुछ समान आदि है एवं इन मतों में वह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वान्तर्यामी नहीं है। अतः यदि वैज्ञानिकों ने इस स्वरूप के आधार पर कहा कि ईश्वर नाम की सत्ता नहीं है, तो इसमें हमें कोई आश्चर्य नहीं होता। वह एक प्रकार से ठीक ही है। दूसरा कारण यह भी है कि ईश्वर अतिसूक्ष्म होने के कारण आंखों से दृष्टिगोचर नहीं होता। वैज्ञानिक स्थूल प्रकृति व कार्यसृष्टि के पदार्थों का अध्ययन कर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। प्रकृति संबंधी उनके निष्कर्ष प्रायः सत्य ही होते हैं व कुछ में समय के साथ साथ सुधार होता रहता है। वैज्ञानिकों के इन कार्यों से मानव जाति का अकथनीय उपकार भी हुआ है। परन्तु यथार्थ ईश्वर सृष्टि व पंचभूतों के समान कोई पदार्थ न होकर इनसे सर्वथा पृथक एक सर्वातिसूक्ष्म चेतन, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, ज्ञान व विज्ञान से पूर्ण एवं संसार को रचने, पालन करने वाली सर्वशक्तिमान सत्ता है। इस ईश्वर की सत्ता को अन्य प्राकृतिक वा भौतिक पदार्थों की तरह परीक्षण कर प्रयोगशाला में जाना व सिद्ध नहीं किया जा सकता। यह भी कहा जा सकता है कि ईश्वर को भौतिक विज्ञान के तौर तरीकों से जाना व सिद्ध नहीं किया जा सकता अपितु यह पूरा का पूरा विषय योग विधि से शरीर में हृदय के भीतर स्थित जीवात्मा में ईश्वर के गुणों व उपकारों का वर्णन सहित ध्यान करने पर साक्षात व प्रत्यक्ष होता है। इसके लिए ध्यान करने वाले मनुष्य का भोजन व आचरण का शुद्ध व पवित्र होना भी आवश्यक है। वैज्ञानिकों को यदि ईश्वर को जानना है तो उन्हें इसी प्रक्रिया से गुजरना होगा अन्यथा उनके वा अन्य किसी के हाथ कुछ नहीं लगेगा।  इसका अर्थ यह हुआ कि संसार में जिस किसी को भी ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानने की इच्छा हो उसको वेद और वैदिक साहित्य के साथ महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों की सहायता लेनी होगी। यदि वह ऐसा करेंगे तो उनका ईश्वर जानने व प्राप्ति का रास्ता सरल हो जायेगा।

 

अब वेदादि शास्त्र वर्णित ईश्वर के स्वरूप पर एक दृष्टि डालकर उसे जान लेते हैं। ईश्वर कैसा है, कहां है क्या करता, उसकी उत्पत्ति कब व कैसे हुई, उसने यह संसार क्यों बनाया आदि अनेक प्रश्नों का उत्तर वैदिक साहित्य में उपलब्ध है। वैदिक साहित्य के अनुसार ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरूप सब सत्य ही हैं। वह केवल चेतन मात्र वस्तु है। वह अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त आदि सत्य गुणों वाला है। उसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध न्यायकारी, दयालु और अजन्मा आदि है। उसका कर्म जगत् की उत्पत्ति और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पुण्यों के फल ठीक ठीक पहुंचाना है। ऐसे गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरूप वाला पदार्थ ही ईश्वर है। यह भौतिक पदार्थों की भांति विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं किया जा सकता अपितु इसका अध्ययन, सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय, विचार, चिन्तन, ध्यान व उपासना आदि के करने से हृदय में इसका प्रत्यक्ष व साक्षात ज्ञान होता है। ईश्वर के बारे में कुछ और भी जान लेते हैं। ईश्वर के बिना न विद्या और न ही सुख की प्राप्ति हो सकती है। ईश्वर विद्वानों का संग, योगाभ्यास और धर्माचरण के द्वारा प्राप्त होता है। ऐसे ईश्वर की ही सब मनुष्यों को उपासना करनी चाहिये। यह उनका मुख्य कर्तव्य भी है कि वह सत्-चित्-आनन्दस्वरूप, नित्य ज्ञानी, नित्यमुक्त, अजन्मा, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, कृपालु, सब जगत् के जनक और धारण करनेहारे परमात्मा की ही सदा प्रातः व सायं उपासना करें कि जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जो मनुष्य देहरूप वृक्ष के चार फल हैं वे उसकी भक्ति और कृपा से सर्वदा सब मनुष्यों को प्राप्त हुआ करें। इस संसार को बनाने व संचालित करने वाला ईश्वर सब समर्थों में समर्थ, सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्यशुद्ध, नित्यबुद्ध, नित्यमुक्त स्वभाववाला, कृपा सागर, ठीक-ठीक वा सत्य न्याय का करनेवाला, जन्म-मरण आदि क्लेश रहित, निराकार, सबके घट-घट का जाननेहारा, सबका धत्र्ता, पिता, उत्पादक, अन्नादि से विश्व का पालन-पोषण करनेहारा, सकल ऐश्वर्ययुक्त, जगत् का निर्माता, शुद्धस्वरूप और जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है। उस परमात्मा का जो शुद्ध चेतनस्वरूप है उसी को हम धारण करें अर्थात् ईश्वर के स्वरूप को अपने जीवन में समाविष्ट कर उसके अनुरूप ही आचरण व सम्पूर्ण व्यवहार करें। ऐसा करने से वह परमेश्वर हमारी आत्मा और बुद्धि का अपने अन्तर्यामी स्वरूप से हमको दुष्टाचार अधर्मयुक्त मार्ग से हटा के श्रेष्ठाचार और सत्यमार्ग में चलाता है। उस प्रभु को छोड़़कर हम और किसी का ध्यान न करें, क्योंकि न कोई उसके तुल्य और न अधिक है। वही हमारा पिता, राजा, न्यायाधीश और सब सुखों का देनेवाला है। वह ईश्वर हम सबका उत्पन्न करनेवाला, पिता के तुल्य रक्षक, सूर्यादि प्रकाशों का भी प्रकाशक व सर्वत्र अभिव्याप्त है। हमारा ईश्वर सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्ययामी, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र और सृष्टि का रचयिता व पालक है। ईश्वर को जानकर सभी मनुष्यों को उसका भजन करना चाहिये जिससे उसकी कृपा होकर हमें विज्ञान, दीर्घायु और जीवन के हर क्षेत्र में सफलता व विजय प्राप्त हो सके।

 

लेख को विराम देने से पूर्व हम संक्षेप में पुनः कहना चाहते हैं कि विज्ञान ने मानव जाति की उन्नति व सुविधा के लिए जो जो अनुसंधान आदि कार्य कर उनके अनुरूप पदार्थों का उत्पादन किया है, उसके लिए समूची मानव जाति उनकी ऋणी व कृतज्ञ है। इसके अतिरिक्त यह भी सत्य है कि विज्ञान व वैज्ञानिकों का ईश्वर का न मानना उनका एक भ्रम है जिसका कारण ईश्वर का प्राकृतिक पदार्थों से सर्वथा भिन्न होना है जिसका प्रयोगशाला में अनुसंधान नहीं किया जा सकता। हम यह भी अनुभव करते हैं कि संसार के यदि सभी वैज्ञानिक वेद और वैदिक साहित्य का निष्ठापूर्वक स्वाध्याय, चिन्तन, मनन, ऊहापोह, ईश्वर की गुण कीर्तन द्वारा उपासना आदि कार्य करें तो वह निश्चित ही ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसकी सत्ता को स्वीकार कर सकते हैं। इसमें समय लगेगा और भविष्य में कभी वह ईश्वर को अवश्य स्वीकार करेंगे क्योंकि महाभारत व उससे पूर्व के हमारे सभी ऋषि भी अधिकांशतः ईश्वर ज्ञानी, भक्त, उपासक, योगी व वैज्ञानिक थे। ईश्वर भक्त के साथ साथ वैज्ञानिक होना प्रशंसनीय एवं ज्ञान व विज्ञान के अनुकूल होता है। इसमें परस्पर कहीं कोई विरोधाभाष नहीं है। आशा करनी चाहिये कि वह दिन कुछ वर्षों व दशाब्दियों बाद अवश्य आयेगा जब सभी प्रमुख वैज्ञानिक भी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार कर वैदिक विधि से उपासक बनकर धर्म व विज्ञान की सेवा करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

कैसा स्वतंत्रता दिवस? – धर्मवीर आर्य,

पराधीनता एक ऐसा अभिशाप है, जिसमें मनुष्य अपनी उन्नति बिल्कुल भी नहीं कर सकता क्योंकि पराधीनता में मनुष्य के कार्य भी पराधीन होते हैं। मनुष्य के स्वतन्त्र होने पर वह अपनी उन्नति के तरीके स्वयं चुनता है, और शीघ्रातिशीघ्र अपनी यथेच्छ उन्नति कर लेता है। उसी प्रकार स्वतन्त्र राष्ट्र भी अपनी उन्नति हेतु अपनी कार्यप्रणाली का चयन स्वयं करता है, तथा शीघ्रता से उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है। भारत देश को स्वतन्त्र हुए 68 वाँ वर्ष चल रहा है। फिर भी यह देश अन्यान्यदेशों से उन्नति के पथ पर इतना पीछे क्यों है? यह जानने के लिए हमें यह जानना आवश्यक होगा कि स्वतन्त्र राष्ट्र किसे कहते हैं?

जिस देश की अपनी संस्कृति, अपनी सयता, अपनी परपराएँ, अपनी भाषा तथा अपना इतिहास, और अपना एक संविधान हो उस राष्ट्र को स्वतन्त्र राष्ट्र कहते हैं।

क्या भारत ने 15 अगस्त 1947 के बाद अपनी संस्कृति तथा सभ्यता  का पालन किया है?

क्या भारत ने 15 अगस्त 1947 के बाद अपनी भाषा हिन्दी को सर्वाधिकार प्रदान किये?

क्या भारत ने 15 अगस्त 1947 के बाद अपना स्वतन्त्र पूर्ण संविधान बनाया?

आप स्वयं विचार कर सकते हैं कि 1857 की क्रान्ति के बाद अंग्रजों के पैर भारत में डगमगा रहे थे। क्योंकि उस समय सारा भारतीय जन-समूह अंग्रेजी सत्ता को मूल से उखाड़ फेंकना चाहता था। अतः भारतीय जनता के विद्रोह की ज्वाला को शान्त करने केलिए 28 दिसबर 1885 में ए.ओ.ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। वस्तुतः ए.ओ.ह्यूम का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पीछे वास्तविक उद्देश्य क्या थे? यह उनके द्वारा अपने मित्र को लिखे पत्र से स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने लिखा, ‘यह योजना (कांग्रेस की स्थापना) मैंने ही अपने कर्मों के फलस्वरूप उत्पन्न की है, जो एक और प्रयत्न बढ़ती हुई शक्ति के निष्कासन के लिए एक रक्षानली के रूप में बनाई गई है, जो राजनीतिक भय को निकालने के लिए सेफ्टी  वाल्व अभयदीप का कार्य करे।’ अर्थात् कांग्रेस की स्थापना के पीछे ह्यूम का वास्तविक उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करना था। ह्यूम के जीवनी लेखक वैडरबर्न ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि, ‘‘भारत में असन्तोष की बढ़ती हुई शक्तियों से बचने के लिए एक ‘अभय दीप’ की आवश्यकता है और कांग्रेस से बढ़कर अभयदीप दूसरी कोई चीज नहीं हो सकती।’’

लाला लाजपत राय ने ‘यंग इण्डिया’ में लिखा है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का मुय उद्देश्य यह था कि हम ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करें और उसको छिन्न-भिन्न होने से बचायें।

मूलतः सोचा जाये तो निष्कर्ष यह निकलता है कि कांग्रेस की स्थापना भारतीयों के लिए नहीं, अपितु ब्रिटिश सरकार के लिए ही की गई थी। और उसी कांग्रेस ने तथाकथित आजादी के बाद भी लगभग 60 साल तक भारत पर शासन किया है। मेरे कहने का सीधा-सा अभिप्राय यह है कि ‘भारत 15 अगस्त 1947 तक प्रत्यक्ष रूप से गुलाम था, और 15 अगस्त 1947 के बाद अप्रत्यक्ष रूप से गुलाम ही था।’

एक अमरीकी पत्रकार श्री हैनरी सेंडर भारत में भ्रमण के लिए आये। भारत में भ्रमण करते हुए भारतीयों की स्थिति को देाकर जो प्रतिक्रिया उन पर हुई, वह अमरीका में जाकर वहाँ के प्रसिद्ध पत्र ‘प्रौग्रैसिव’ में उन्होंने लिखी। उनके लेख का अपेक्षित भाग इस प्रकार है- ‘‘अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारत में 30 वर्षों में झण्डे के सिवाय और कोई परिवर्तन नहीं आया है’’। आप स्वयं भी इस बात को निम्न बिन्दुओं से जान सकते हैं-

  1. 1. आजादी के बाद भी, यदि महान् क्रान्तिकारी देशभक्त सुभाष जी मिलते तो उन्हें ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया जाता।
  2. आजादी के बाद बिना निर्वाचित हुए ही नेहरु जी को प्रधानमंत्री क्यों बनाया गया? यह उन कुटिल अंग्रेजों की एक चाल थी।
  3. 1947 के बाद लगभग 60 साल तक भारत पर कांग्रेस की सत्ता रही है। जिसका स्थापन-कर्त्ता एक इंग्लैण्ड निवासी ही था, सोचिए क्या कोई शत्रु भी, हमारे हित के लिए पार्टी की स्थापना करेगा? बिल्कुल नहीं।
  4. 4. 1947 के बाद भारत में अंग्रेजी भाषा को जितना बढ़ावा मिला है तथा अंग्रेजी भाषा का प्रचार हुआ, उतना तो अंग्रेज भारत में 200 साल रहकर भी नहीं कर पाये।
  5. 5. 1947 के बाद आजादी की ज्वाला में बलिदान कर देने वाले पवित्र देशाक्तों को समान देने के बजाय उपेक्षित और अपमानित ही किया जाता रहा है। क्या उनके माता-पिता को कोई पूछता भी है?
  6. 6. भारत का संविधान मूल रूप से आज भी अंग्रेजी भाषा में ही है।
  7. 7. भारत के सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दी भाषा में कोई भी अपनी राय नहीं दे सकता है।
  8. 8. यदि कोई पाकिस्तान का व्यक्ति कश्मीर की युवती से शादी कर लेता है तो उसे भारत की नागरिकता स्वयं प्राप्त हो जाती है।
  9. 9. कोई अन्य राज्य का प्रवासी कश्मीर में जाकर नहीं बस सकता है। क्या इसी तरह हम स्वतन्त्र हैं?
  10. 10. जितनी गोहत्या के कत्लखाने आजादी से पहले थे, उनसे चौगुने गो-हत्या के कत्लखाने आज हैं।
  11. 11. आज आपको अपनी मां, बेटी, बहन को घर पर अकेला छोड़ने में भी दस बार सोचना पड़ता है, और अन्त में कहना पड़ता है कि दरवाजे बन्द रखना।
  12. 12. कश्मीर भारत का होता हुआ भी वहाँ पर हम भारत का झंडा तिरंगा नहीं फहरा सकते हैं।

आखिर क्यों है ऐसा? क्या हम 1947 के दिन पूर्ण स्वतन्त्र नहीं हुए थे। आप स्वयं सोचिए कि आजादी के बाद 1947 में बिना निर्वाचित हुए ही नेहरु को प्रधानमन्त्री पद सौंपा गया था। क्योंकि नेहरु और अंग्रेजों की मिली-भगत अवश्य रही होगी, इसीलिए तो नेहरु ने स्वयं उस महान् देशभक्त क्रांतिकारी नेताजी सुभाष चन्द्रबोस को प्रधानमन्त्री पद के बदले में ब्रिटिश सरकार को सौंपने की शर्त मानी थी। परन्तु यह बात जन-समूह में थोड़े परिवर्तन के साथ आयी कि अंग्रेजों ने आजादी देने के बदले में नेताजी को मिलने के बाद इंग्लैण्ड को सौंपने का आदेश दिया है।

कोई कहे या न कहे मैं तो यही कहूँगा कि भारत का वास्तविक स्वतन्त्रता दिवस 15 अगस्त 1947 होने के बजाय 18 मई 2014 के दिन होना चाहिए। इसी बात को लंदन के एक प्रसिद्ध समाचार पत्र में इन शदों में लिखा गया है-

Today, 18 May, will go down in history as the day when Britain finally left India. Narendra Modi’s victory in the elections marks the end of a long era in which the structures of power did not differ greatly from those through which Britain ruled the sub continent. India under the congress party was in many ways a continuation of the British Raj by other means.

-The Gaurdian, Editorial, Sunday 18 May 2014 London

पाठकों की सुविधा हेतु, उपरोक्त अंग्रेजी गद्यांश का हिन्दी अनुवाद नीचे दिया गया है-

आज 18 मई 2014 को इतिहास में वो दिन समझा जा सकता है, जब अंग्रेजों ने अन्ततः भारत छोड़ दिया। निर्वाचनों में नरेन्द्र मोदी की विजय एक लबे युग के अन्त का लक्षण है, एक ऐसा युग, जिसमें सत्ता का ढाँचा ब्रिटिश लोगों के सत्ता के उस ढांचे से बहुत अलग नहीं था, जिससे वे भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन करते थे। कांग्रेस दल द्वारा प्रशासित भारत अनेक अर्थों में प्रकार-भेद से ब्रिटिश राज से पृथक् नहीं था।

-The Gaurdian, Editorial, Sunday 18 May 2014 London

– अकलौनी, भिण्ड, मध्यप्रदेश

सभी चार आश्रमों में श्रेष्ठ व ज्येष्ठ गृहस्थाश्रम’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

वैदिक जीवन चार आश्रम और चार वर्णों पर केन्द्रित व्यवस्था व प्रणाली है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम हैं और शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण यह चार  वर्ण कहलाते हैं। जन्म के समय सभी बच्चे शूद्र पैदा होते हैं। गुरूकुल व विद्यालय में अध्ययन कर उनके जैसे गुण-कर्म-स्वभाव व योग्यता होती है उसके अनुसार ही उन्हें वैश्य, क्षत्रिय या ब्राह्मण वर्ण आचार्यों व शासन व्यवस्था द्वारा दिये जाने का विधान वैदिक काल में था जो महाभारत काल के बाद जन्म के आधार पर अनेक जातियों में परिवर्तित हो गया। वेदानुसार चार वर्ण मनुष्यों के गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित हैं तो चार आश्रम मनुष्य की औसत वायु लगभग 100 वर्ष के पच्चीस पच्चीस वर्ष के क्रमशः चार सोपान व भाग हैं। प्रथम भाग जन्म से आरम्भ होकर लगभग 25 वर्षों तक का होता है जिसे आयु का ब्रह्मचर्यकाल कहते हैं। जीवन के ब्रह्मचर्यकाल में सन्तान व व्यक्ति को माता-पिता-आचार्य के सहयोग से पूर्ण ब्रह्मचर्य अर्थात् सभी इन्द्रियों के संयम, तप व पुरुषार्थ को करते हुए अधिक से अधिक विद्याओं जिनमें वेदाध्ययन प्रमुख है, का अर्जन करना होता है। कन्याओं के लिए यह आयु 16 वर्ष या कुछ अधिक होती है क्योंकि वैदिक व्यवस्था में युवक द्वारा न्यूनतम पच्चीस वर्ष और कन्या की आयु 16 वर्ष की हो जाने पर उन्हें विवाह करने की अनुमति है। विवाह का होना गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना होता है। विवाह के बाद जो मुख्य कार्य करने होते हैं उसमें ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हुए आजीविका का चयन और उसका निर्वाह करने के साथ धर्म पूर्वक अर्थात् शास्त्रीय नियमों का पालन करते हुए श्रेष्ठ सन्तानों को उत्पन्न करना, उनका पालन करना व उनके अध्ययन आदि की व्यवस्था करना होता है। गृहस्थ आश्रमी व्यक्ति को इसके साथ नियत समय पर प्रातः सायं योग दर्शन पद्धति व महर्षि दयानन्द निर्दिष्ट वेद विधि से प्रातःसायं ईश्वरोपासना, दैनिक यज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ भी यथासमय व यथाशक्ति करने होते हैं। गृहस्थ आश्रम में रहते हुए सभी स्त्री पुरुषों को सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य व्यवहार करने के साथ देश व समाज सेवा के श्रेष्ठ कार्यों यथा वेद विद्या के अध्ययन-अध्यापन, यज्ञ व परोपकार आदि कार्यों में यथाशक्ति दान व सहयोग भी करना होता है। 50 वर्ष की आयु तक गृहस्थ जीवन में रहकर जब पुत्र पुत्रियों के विवाह हो जाये और सिर के बाल श्वेत होने लगे तब गृहस्थ जीवन का त्याग कर वन में जाकर स्वाध्याय व शास्त्रों का अध्ययन करते हुए ईश्वर प्राप्ति की साधना में समय व्यतीत करना होता है। 25 वर्षों तक इन कार्यों का अभ्यास कर संन्यास लेने का विधान है जिसमें सभी उत्तरदायित्वों से पृथक, निवृत वा उनका त्याग कर देश व समाज के कल्याण की भावना से सद्ज्ञान वेदों की शिक्षाओं का गृहस्थियों में प्रचार प्रसार करना होता है। इस संन्यास आश्रम की स्थिति में भी अधिक ध्यान ईश्वर प्राप्ति के लिए साधना में लगाना होता है क्योंकि ईश्वर साक्षात्कार कर अपना परलोक सुधार करना भी मनुष्य व जीवात्मा का प्रमुख कर्तव्य है। इस प्रकार से वेदों से पुष्ट चार आश्रमों का विधान वैदिक आश्रम व्यवस्था कहलाता है जो समूचे मानव समाज में सर्वत्र किंचित भिन्न भिन्न रूपों में आज भी विद्यमान दृष्टिगोचर होता है और यही सर्वाधिक श्रेष्ठतम सामाजिक व्यवस्था है।

 

महर्षि दयानन्द (1825-1883) के समय में देशवासी अन्धविश्वासों व विदेशियों की दासता से ग्रसित थे और आश्रम  व्यवस्था का महत्व भूल चुके थे। जो व्यक्ति जिस अवस्था में होता था उसी को श्रेष्ठ व ज्येष्ठ मानता था। ब्रह्चारी स्वयं को चारों आश्रमों में ज्येष्ठ व श्रेष्ठ तथा वानप्रस्थी व संन्यासी अपने अपने को ज्येष्ठ व श्रेष्ठ मानते थे। गृहस्थी क्योंकि प्रायः युवा होते थे अतः वह अपने से अधिक आयु वाले वानप्रस्थियों व संन्यासियों को इस बारे में कुछ कह नहीं सकते थे और इस विषयक शास्त्रीय व प्रमाणित सोच व विचार भी उनमें नहीं था। हमारे शास्त्रों में गुरूकुल में अध्ययनरत ब्रह्मारियों को विशेष महत्व दिया गया है। शास्त्र कहते हैं कि यदि ब्रह्मचारी किसी रथ में कहीं जा रहा है और सामने राजा व अन्य लोग मार्ग में किसी चैराहे पर आ जाये तो उस अवस्था में पहले जाने का अधिकार ब्रह्मचारी का होता है। इसका कारण विद्या को महत्व दिया जाना है। यह एक प्रकार से हमारे देश में वेद विद्या को महत्व प्रदान करने के कारण व्यवस्था दी गई थी जो युक्ति व तर्क संगत है। इन सब परिस्थितियों को जानते समझते हुए जब महर्षि दयानन्द ने सन् 1874 व 1883 में आदिम सत्यार्थ प्रकाश व उसके संशोधित संस्करण तैयार किये तो उन्होंने भी चार आश्रमों में ज्येष्ठ आश्रम कौन सा है? इस पर भी विचार किया। उनके विचार तर्क व युक्ति संगत एवं स्थिति का नीर क्षीर व सारगर्भित विश्लेषण करते हैं। पाठकों के लाभार्थ उनके विचार प्रस्तुत हैं।

 

सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ का चौथा समुल्लास समावर्तन, विवाह और गृहस्थाश्रम पर महर्षि दयानन्द का वैदिक मान्यताओं पर उपदेश है। इस समुल्लास के अन्त में उन्होंने गृहस्थाश्रम पर प्रश्न  करते हुए कहा कि गृहाश्रम सब से छोटा वा बड़ा है? इसका उत्तर देते हुए वह लिखते हैं कि अपनेअपने कर्तव्यकर्मों में सब बड़े हैं। परन्तु यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्। तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।1।। यथा वायुं समाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः। तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्व आश्रमाः।।2।। यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्। गृहस्थेनैव धारयन्ते तस्माज्जयेष्ठाश्रमो गृही।।3।। संधारय्य: प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता। सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः।।4।। (यह चारों मनुस्मृति के श्लोक हैं)

 

मनुस्मृति के इन चार श्लोकों का अर्थ करते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही  के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं।।1।। बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता है।।2।। जिस से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अन्नादि देके प्रतिदिन गृहस्थ ही धारण करता है इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है।।3।। इसलिये जो (अक्षय) मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम का धारण करे। जो गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने के योग्य नहीं है उसको (भीरु व निर्बल लोगों से इतर स्त्री पुरुष) अच्छे प्रकार धारण करे।।4।। महर्षि दयानन्द आगे लिखते हैं कि इसलिये जितना कुछ व्यवहार संसार में है उस का आधार गृहाश्रम है। जो यह गृहाश्रम होता तो सन्तानोत्पत्ति के होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है। परन्तु तभी गृहाश्रम में सुख होता है जब स्त्री पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहार के ज्ञाता हों। इसलिये गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य (सभी इन्द्रियों इच्छाओं का संयम उन पर नियंत्रण) और पूर्वोक्त स्वयंवर (आजकल प्रचलित नाम लव मैरिज) विवाह है।

 

गृहस्थाश्रम की ज्येष्ठता के विषय में महर्षि दयानन्द के समय में जो भ्रान्ति थी उसको उन्होंने सदा सदा के लिए दूर  कर दिया। महर्षि दयानन्द के इन विचारों को भारतीय वा हिन्दू मत ने पूर्णतः स्वीकार किया है, यह अच्छी प्रशंसनीय बात है। यदि हमारा हिन्दू समाज मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलितज्योतिष, मृतक श्राद्ध को छोड़कर वैदिक मान्यताओं को अपना ले तथा विवाह में जन्मपत्री को महत्व न देकर युवक व युवती के गुणकर्मस्वभाव को महत्व दें और जन्मना जाति प्रथा को समाप्त कर दें, तो देश व समाज को बहुत लाभ हो सकता है क्योंकि पौराणिक मान्यताओं का आधार सत्य पर नहीं है जिसे महर्षि दयानन्द ने अपने समय में शास्त्रीय प्रमाणों के साथ युक्ति व तर्क से भी सिद्ध किया है। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि गृहस्थाश्रम में रहते हुए मनुष्यों को लोभी व स्वार्थी न होकर दानी व परोपकारी होना चाहिये, यही प्रत्येक व्यक्ति के निजी व समाज के हित में होता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि गृहस्थ में रहते हुए सभी को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये जिससे सभी निरोगी होकर दीघार्य हों। आज रोगों व अल्पायुष्य का कारण हमारा दूषित खान-पान, अनियमित दिनचर्या, बड़ी बड़ी महत्वाकांक्षाओं संबंधी तनाव एवं वैदिक जीवन मूल्यों से दूर जाना है। वैदिक मूल्य वा वैदिक जीवन पद्धति ही आज की समस्त समस्याओं का एकमात्र निदान है। आईये, वेद की शरण लेकर जीवन को सुखी व जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति की ओर आगे बढ़ें व उसे प्राप्त करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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ईश्वरः जैन एवं वैदिक दृष्टि -डॉ. वेदपाल, मेरठ

[वर्ष 2013 में ऋषि – मेले के अवसर पर आयोजित वेद-गोष्ठी में प्रस्तुत एवं पुरस्कृत यह शोध लेख पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है।]                                                             -सपादक%मनुष्य के अस्तित्वकाल से ही उसके विचारणीय महत्त्वपूर्ण विषयों में एक है- ईश्वर। ईश्वर के सबन्ध में कल्पना बाहुल्य उपलध है। जिसका आधार देश, मत – पन्थ तथा धार्मिक विश्वास हैं। इसी कारण उसे अनेक नाम से सबोधित किया गया है। ईश्वर के स्वरूपविषयक कल्पनाएं भी कम मनोरंजक नहीं हैं। शिव के किरात रूप की कल्पना इसका निदर्शन है। इसी प्रकार न कुछ से सब कुछ (अर्थात् अभाव से भाव) करने वाला-मानना (इस्लाम के अनुसार)।

सामान्यतः ऐश्वर्य सपन्न,  जगत् कर्त्ता, सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा जीव के कर्मफल प्रदाता1 के रूप में उसे स्वीकार किया जाता है। एक मत-धर्म ऐसा भी है जो उक्त जगत्कर्तृत्व आदि रूप में तो उसकी सत्ता स्वीकार नहीं करता, किन्तु सर्वज्ञ गुण सपन्न व्यक्ति को ही जिसने अर्थतः और तत्त्वतः आत्मतत्त्व को जान लिया तथा कर्म से विप्रमोक्ष हो गया है उसे सर्वज्ञ2 केवली/ईश्वर कहा गया है। यद्यपि यहाँ यह विशेषण स्मरणीय है कि तत्त्वसूत्र (उमास्वामी विरचित जैनधर्म के प्रमुख दार्शनिक ग्रन्थ) तथा आचार्य कुन्दकुन्द विरचित ‘समयसार’ (जैनमत का प्रमुख आध्यात्मिक ग्रन्थ) में ईश्वर पद का प्रयोग नहीं हुआ है।

यह सर्वानुमत है कि संसार में जितने भी कार्य पदार्थ हैं, उनसब का कोई चेतन कर्त्ता है। जैसे-घड़ी, वस्त्र, मोटरकार, कागज, लेखनी आदि पदार्थ किसी न किसी व्यक्ति, सत्ता द्वारा बनाए गये हैं। इनमें से कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसे किसी ने बनाया न हो और वह स्वयं बन गया हो अथवा अनादि निधन हो। जो पदार्थ जितना व्यवस्थित और बेहतर ढंग से डिजायन किया गया है उसका कर्त्ता उतना ही बुद्धिमान् माना जाता है।

इस दृश्य संसार के लिए सृष्टि, जगत् तथा संसार शदों का प्रयोग किया जाता है। सृष्टि शद ‘सृज् विसर्गे’ धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है-रची हुई, पैदा हुई। जगत् शद का अर्थ है- ‘गच्छतीतिजगत्’। संसार का अर्थ भी संसरणशील है3 संसार का कोई भी जड़ पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें स्वतः गति हो अथवा वह संसरणशील हो या स्वयं ही निर्मित हो गया हो। अर्थात् इन पदार्थों का स्वभाव बनना गतिशील होना हो। इनमें बनना या इनका गतिशील होना किसी अन्य बनाने वाले अथवा इन्हें गति देने वाले की अपेक्षा रखते हैं।

सृष्टि एवं सृष्टा ईश्वर के विषय में जैन सिद्धान्तों को निम्नवत् समझा जा सकता है-

  1. सृष्टि नाम भले ही प्रयोग किया जाए, किन्तु यह सृष्ट नहीं है। अणु-स्कन्ध के स्वाभाविक परिणमन से पुद्गल की उत्पत्ति होती है, किन्तु यह अकृत है। स्वभावतः अनादिनिधना है। अतः स्रष्टा अपेक्षित नहीं।
  2. 2. सृष्टि प्रयोजन कर्मफल भोग के सर्न्दा में- कर्म स्वतः फलप्रदाता है और कर्त्ता जीव स्वयं भोक्ता है, इसमें किसी अन्य के हस्तक्षेप का अवकाश नहीं।
  3. 3. सृष्ट वस्तु के आधार पर कार्यत्व हेतु- ‘क्षित्यादिकं सकर्तृकं घटवत्’ सयुक्तिक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार इस जगत् का कर्त्ता इष्ट है, उसी प्रकार ईश्वर कााी कोई कर्त्ता होना चाहिए। इस प्रकार अनवस्था दोष होगा।
  4. 4. यदि ईश्वर सृष्टि का स्वभावतः रूचिवशात् या कर्मवशात् कर्त्ता है तो ईश्वर का स्वातन्त्र्य कहाँ? क्योंकि उसे तो उक्त कारणो से चाहे-अनचाहे सृष्टि करनी ही होगी। तब तो वह स्वतन्त्र रहा ही नहीं।
  5. 5. जैनमत के संयमप्रधान तपोधर्म होने से ईश्वर के अस्तित्व पर विचार ही नहीं किया गया है अथवा उसकी आवश्यकता ही अनुभव नहीं की गयी, किन्तु जैन मत आध्यात्मिक (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत समयसार) एवं दार्शनिक (उमास्वामी प्रणीत तत्वार्थसूत्र तथा आचार्य समन्तभद्र प्रणीत आप्तमीमांसा प्रभूति) ग्रन्थों में ईश्वर का निषेध भी उपलध नहीं है। अतः कहा जा सकता है कि- ईश्वरपद ही वहाँ अपराभृष्ट है भले ही आज व्यवहार में जिनेश, जिनेश्वर, जिनभगवान् जैसे शदों का प्रयोग क्यों न किया जाता हो।

जैन मत में ईश्वर से मिलती-जुलती अवस्था केवली की है इसे ही सर्वज्ञ कहा गया है। मोह का क्षय होने पर अन्तर्मुहूर्त तक क्षीणकषाय रहकर एक साथ ज्ञानावरण- दर्शनावरण तथा अन्तराय क्षय होने पर केवल ज्ञान प्राप्त होता है।4 वह केवली ही बन्ध हेतुओं (मिथ्यात्व आदि) के अभाव होने तथा तप आदि निर्जरा हेतुओं द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मों का विप्रमोक्ष होकर मोक्ष को प्राप्त होता है।5 ऐसा मुक्तात्मा ही सर्वज्ञ पद भाक् है।

जैन मत में ईश्वर की चर्चा न होने के सबन्ध में एक अन्य दृष्टिकोण भी ध्यातव्य है, जिसके अनुसार- ईश्वर विषयक अवधारणा का मूल स्रोत वेद है। जैन मत वेदोपनिषद् से पूर्व भारत में प्रचलित मुनिजनों के संयमात्मक तपोधर्म से उदित है।6 अर्थात् उस समय ईश्वर की संकल्पना ही नहीं थी।

वैदिक दृष्टि– ईश्वर के सबन्ध में वैदिक दृष्टि सुस्पष्ट है। तदनुसार प्रकृति के परमाणुओं -(जो कि जड़ हैं अतः अक्रिय हैं।) को अव्यक्तावस्था से व्यक्तावस्था में लाने वाली चेतन सत्ता ईश्वर पद वाच्य है। जिस प्रकार लौकिक घट-पट आदि कार्य पदार्थों का उपादान कारण मृत्तिका-तन्तु आदि सर्वस्वीकृत हैं इन कार्य पदार्थों का कर्त्ता-निमित्त कारण कुभकार तन्तुवाय आदि हैं। उसी प्रकार इस कार्य जगत् का उपादान प्रकृति के परमाणु तथा निमित्त कारण ईश्वर है।

दृश्यमान जगत्/संसार कार्य है। किसी भी कार्य/पदार्थ के सपन्न हेने में तीन कारण सभव हैं। सर्वप्रथम उसके लिए उसका मूल, जिसके रूपान्तरित होने पर वह वस्तु बनती है। जिस प्रकार पार्थिव घर के लिए  मृत्तिका आदि। इसे उपादान कारण कहा जाता है। दूसरा कारण है, जिसके बनाने से कोई वस्तु बने और न बनाने से न बने तथा वह स्वयं रूपान्तरित न हो, अपितु किसी अन्य पदार्थ-उपादान को कुछ बना देवे। जैसे कुभकार मृत्तिका को घट रूप में रूपान्तरित कर देता है। अतः वह उसका निमित्त होने से निमित्त कारण कहा जाता है। तीसरा कारण है- साधारण, जिन साधनों का उपयोग पदार्थ निर्माण में सामान्येन अपेक्षित रहता है वह साधारण होने से साधारण कारण कहलाता है। उपादान के गुण पदार्थ में रहते हैं।

संसार में दो ही प्रकार के पदार्थ हैं- 1. चित्-चेतन। 2. अचित्-अचेतन-जड़।7 अचेतन पदार्थ अक्रिय हैं, उनसे स्वतः किसी अन्य पदार्थ का निर्माण नहीं होता अथवा यों कहें कि वह किसी पदार्थ का निर्माण नहीं कर सकते। जैसे- पृथिवी जड़ है, इससे बिना बनाये ईंट, घर आदि पदार्थ कभी नहीं बन सकते। जब कोई चेतन कर्त्ता इच्छापूर्वक प्रयत्न करता है तब उससे ईंट-घर आदि पदार्थ बना लेता है। इसी प्रकार कपास से तन्तु/वस्त्र  आदि चेतन कर्त्ता के इच्छा-प्रयत्न से ही बनते हैं। जब यह छोटे से छोटे पदार्थ भी चेतन कर्त्ता के बिना नहीं बनते, तब इतने व्यवस्थित संसार/ब्रह्माण्ड का निर्माण बिना चेतन कर्त्ता के किस प्रकार सभव है। स्कन्ध के स्वतः परिणमन से संसार का निर्माण मानने वाले पार्थिव परमाणुओं (पुद्गल/स्कन्ध) से स्वतः घर का निर्माण क्यों नहीं मानते अथवा बिना कुभकार/ तन्तुवाय के स्वयं बनते हुए घट-पट क्यों नहीं दिखा देते? स्वयं केलिए भवन व वस्त्र क्यों बनाते हैं? अर्थात् सृजन क्रिया के लिए चेतन कर्त्ता अपेक्षित है। संसार में जितनेाी चेतन कर्त्ता हैं, उनका ज्ञान व सामर्थ्य सीमित है। अतः इतना व्यवस्थित नियमबद्ध संसार8 जिसका कर्त्ता सीमित ज्ञान प्रयत्न वाला (मनुष्य) होना सभव नहीं। इसका कर्त्ता निश्चय ही सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ होना चाहिए। उसी का नाम ईश्वर है। यदि ईश्वर के स्थान पर कोई अन्य संज्ञा रखें तब भी संज्ञा उक्त गुणयुक्त ही होगा। अन्य संज्ञा पराी वही प्रश्न सभव है। अतः अन्वर्थ संज्ञा के प्रयोग से कोई हानि नहीं।

जगत् कारणता विषय में कार्यकारण सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है, किन्तु जैन दर्शन में इस पर स्पष्ट विचार उपलध नहीं है। केवल जीव द्वारा किए कर्म जिनसे कार्मण वर्गणाएं बनती हैं और वह पुद्गल रूप में रहती हैं, क्योंकि ‘‘कर्म-पुद्गल द्रव्य का पर्याय है….अर्थात् कर्मरूप से परिणत कार्मण वर्गणाओं की सत्ता पौद्गलिक रूप में बनी रहती है9’’। कार्य कारण सिद्धान्त पर जैन की अपेक्षा बोद्धाचार्यों ने अधिक विचार किया है। कल्याण रक्षित (829 ई.) ने ईश्वर भंगकारिका में ईश्वरास्तित्व का निरसन किया है। इनके शिष्य धर्मोत्तराचार्य (847 ई.) ने भी कल्याणरक्षित की परपरा का अपने ग्रन्थों (अपोह नामसिद्धि, क्षणभंगसिद्धि) में पुष्ट किया है।

कार्य कारण सिद्धान्त का खण्डन करने वालों ने अग्नि की कारणता के खण्डन (वह्विदाह का कारण है- अन्वय व्यतिरेक….किन्तु अरणि सत्त्वेवह्रिसत्ता…, मणिसत्त्वेवह्रिसन्ता…., तृणसत्त्वेवह्रिसत्ता…. अन्वय तो बनेगा किन्तु व्यतिरेक नहीं। यथाअरण्यभावे वह्रयभावः…., मण्यभावे वह्रयभावः…, तृणभावे बह्रयभावः नहीं….) के द्वारा अन्य सभी प्रकार की कारणता का भी खण्डन किया है। वस्तुतः यह सद् हेतु न होकर हेत्वाभास है, क्योंकि अग्नि दाह के प्रति स्वरूपतः कारण नहीं, अपितु शक्ति मत्त्वेन कारण (शक्तिवाद मीमांसक मत है) है। अर्थात् कारणावच्छेदकता धर्म अरणित्व-मणित्व-तृणत्व न होकर वह्यनुकूलैकशक्तिमत्त्वे सति बह्रिसत्ता-अन्वयः वह्न्यनुकूलैक शक्तिमत्त्वाभावे सति बह्न्यभावः- व्यतिरेकः। इस प्रकार हेत्वाभास का वारण हो जाता है।

इसी प्रकार अकस्मात् वाद (पूर्वपक्ष-‘अनिमित्ततो भावोसत्तिः कण्टक तैक्ष्ण्यादिदर्शनात्’ न्याय 4.1.22 प्रत्यायान-‘अनिमित्तनिमित्तत्वान्नानिमित्ततः’, ‘निमित्तानिमित्तयोरर्थान्तर भावादप्रतिषेधः’ 23-24)। का प्रत्यायान न्याय के साथ ही उदयनार्च ने न्याय कुसुमाञ्जलि 1.5 में किया है-

हेतुभूतिनिषेध न स्वानुपायविचिर्न च।

स्वभाववर्णना नैवमवचेर्नियत त्वतः।।

प्रस्तुतकारिका में उदयनाचार्य ने अकस्मात्-अकारणात् की पाँच व्यायाओं 1. कारणं विना भवति 2. कारण व्यतिरिक्ताद्भवति प्रथम के दो अर्थों-– हेतु का निषेधक . उत्पत्ति का निषेधक तथा द्वितीय के तीन अर्थों-वा- स्वस्माद् भवति घ. अलीकाद भवति और स्वभावाद् भवति- इन पाँचों का खण्डन एक ही- अवधेर्नियतत्वतः= ‘नियतकालावधिककार्यदर्शनात्’ द्वारा किया है। कार्यों की स्थिति नियतकाल तक ही दिखाई देती है। कार्य नित्य रहने वाला पदार्थ नहीं है। यह स्थिति तभी बन सकती है, जब कार्यों का कोई कारण माना जाए।

  1. 1. यदि उत्पत्ति ही न होती हो या 2. उसका कोई कारण न हो तो उन्हें नित्यपदार्थ के समान होना चाहिए। 3. यदि स्वयं अपने से अथवा 4. अलीक वन्ध्यापुत्र सदृश मिथ्या पदार्थ से अथवा 5. स्वभाव से कार्य (जगत्) की उत्पत्ति मानी जाए तो कार्य के नाश का कोई कारण नहीं बनता। क्योंकि जिन पदार्थों का कारण कोई भाव पदार्थ है। उस कारण के नाश होने से कार्य का नाश हो जाता है। परन्तु स्वस्मात्-अलीकात्-स्वभावात् (…स्वानुपारव्यविधिर्न च। स्वभाववर्णनाा नैवम्…) से उत्पन्न होने की स्थिति में किसके नाश से कार्य का नाश माना जाएगा?

इसलिए नाश का सभव न होने से इन तीनों पक्षों में भी कार्य कादाचित्क-अकस्मात्-क्यों है? इसका उपपादन नहीं किया जा सकता है। इसलिए 1. न कार्य के हेतु या कारण का निषेध किया जा सकता है और 2. न उसकी उत्पत्ति या भवन का खण्डन हो सकता है (हेतुभूति निषेधो न) इसलिए अकस्मात् भवति यह कथन करना सर्वथा युक्तिविरुद्ध है।

सांयदर्शन में पूर्वपक्ष के रूप में उपन्यस्त ‘ईश्वरासिद्धेः’ 1.92 नास्तिकों का सर्वप्रमुख एवं प्रिय प्रमाण है। जबकि यह सूत्र पूर्व पक्ष है तथा उत्तर पक्ष सांय में ही द्रष्टव्य है, कि उदयनाचार्य ने इस पूर्वपक्ष के समाधानार्थ आठ हेतु उपस्थित किए हैं-

कार्यायोजन-घृत्यादेः पदात् प्रत्ययतः श्रुतेः।

वाकयात् संया विशेषाच्च साध्यो विधिवदव्ययः।।10

महर्षि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास में प्रश्नोत्तर के रूप तथा द्वादश समुल्लास में आस्तिक-नास्तिक के संवाद (प्रश्नोत्तर) के माध्यम से जगत् कारण (निमित्त) ईश्वर के स्वरूप को सुव्यक्त कर दिया है। जिज्ञासु वहीं देख सकते हैं।

वेद में ईश्वर को ‘अज एकपात्’11 ‘अकायमव्रणम्’12 सर्वज्ञ वेद भुवनानि13, विश्वा

साक्षी-‘अनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति’14 सृष्टिकर्त्ता-  ‘य इदं विश्वं भुवनं जजान’15 ‘हृदयगुहा में दर्शनयोग्य – वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा यत्’16 अमर्त्य-‘अमर्त्योमर्त्येना सयोनिः’17 आदि विशेषण विशेषित रूप में वर्णित किया गया है।

सक्षेप में कहा जा सकता है कि जैन मतानुसार प्रत्यक्ष दृश्य जगत्/सृष्टि अनादिनिधना है। वहाँ न तो ईश्वर की स्थापना है और न ही निषेध । हाँ केवली पुरुष/तीर्थंकर अवश्य सर्वज्ञ कहे गए हैं। व्यावहारिक दृष्टि से विचारने पर स्पष्ट है कि जगत्/ सृष्टि कार्य है। इसका मूल उपादान प्रकृति तथा निमित्त कारण सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ ईश्वर है। नास्तिकों द्वारा कार्यकारण के निषेधक हेतु मात्र हेत्वाभास हैं। वेद में ईश्वर को सर्वज्ञ, न्यायकारी, सृष्टिकर्त्ता, अज, अमर्त्य आदि विशेषण विशेषित कहा गया है।

सन्दर्भः

  1. तत्रैश्वर्य विशिष्टः संसार धर्मैरीषदप्यस्पष्टः।

परो भगवान् परमेश्वरः सर्वज्ञः सकलजगद्विधाता।। न्यायसार आगम परिच्छेद

  1. दोषावरणयोहीनिर्निश्शेषास्त्यतिशायनात्ः।।

क्वचिघथा स्वहेतुयो बहिरन्तर्मलक्षयः।।

सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः प्रत्यक्षः कस्यचिद्यथा।

अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरितिसर्वज्ञ संस्थितिः।। समन्तभद्र, आप्तमीमांसा, परिच्छेद 1,4-5

  1. स्वोपात्तकर्मवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः संसारः
  2. मोहक्षयाज्ज्ञान दर्शनावरणान्तराय क्षयाच्च केवलम्-तत्त्वार्थसूत्र 10.1
  3. बन्ध हेत्वभाव निर्जरायां कृत्स्न कर्मविप्रमोक्षो मोक्षः – 10.2
  4. भारतीय संस्कृतिकोश-सपादक – पं. महादेव शास्त्री जोशी, खण्ड-3 पृ.367
  5. जीव-पुद्गल-दोनों भिन्न-भिन्न हैं-समयसार पूर्वरंग 23-25, टीकायाम् चेतन-जड़
  6. आकृष्टि शक्तिस्तु महीयत्, स्वस्थं गुरुस्वाभिमुख स्वशक्त्या।

आकृष्यते तत् पततीव भाति, समे समन्तात् वच पतत्ययं रवेः।।

-भास्कराचार्य, सिद्धान्त शिरोमणि 19-6 (समय-1171 वि.)

  1. प्रो. उदयचन्द्र जैन,-‘आप्त मीमांसा’ 1.4 की व्याया, पृ. 71
  2. न्यायकुसुमाञ्जलि 5.1
  3. यजु. 34.53
  4. वही 40.4
  5. वही 32.10
  6. ऋक् 1.164.20
  7. अथर्व. 13.3.15
  8. अथर्व. 2.1.1
  9. ऋक् 1.64.6

भूकप त्रासदी से पीड़ित नेपाल में परोपकारिणी सभा द्वारा राहत कार्य – कर्मवीर

पिछले अंक का शेष भाग…….

20 मई को हम लोग आचार्य नन्दकिशोर जी की प्रेरणा से एक विशेष स्थान पुराना नगर साखूँ गये, जो काठमाण्डू से लगभग 20 किमी. की दूरी पर था। यह एक पुराना व विशाल नगर था, तीन-तीन, चार-चार मंजिल पुरानी इमारतें यहाँ पर रही होंगी, यह नेपाल का एक पुराना व सपन्न बाजार रहा होगा। जब हम लोग वहाँ पहुँचे तो वहाँ का दृश्य हृदय दहला देने वाला था, लगभग 90 मकान ध्वस्त थे, पूरा नगर एक मलबे के ढेर में बदल चुका था, जो कुछ भवन बचे थे- उनको भी सेना के द्वारा गिराया जा रहा था क्योंकि बड़ी-बड़ी दरारें पड़ जानें से वे बड़े भयंकर विशाल राक्षस की तरह मुहँ खोले प्रतीत होती थी, न जाने कि स वक्त किसको निगल जाए। अतः भवनों को भी गिराया जा रहा था। नेपाली सेना के अतिरिक्त, रुस की सेना भी वहाँ दिखाई दी, अमेरिका का सामाजिक संगठन भी वहाँ कार्य कर रहा था, चीन इत्यादि देशों के चिकित्सक चिकित्सा कर रहे थे तो चीनी नाई पीडितों के बाल काटते भी नजर आये। एक दृश्य बडा करुणामय दिखाई देता था, उन पूर्ण रूप से ढह चुक घरों में से उनके मालिक कपड़े, टूटे-फूटे बर्तन या अन्य वस्तुएँ इकट्ठी करते दिखाई दिए। इस आशा के साथ इन वस्तुओं को निकाल रहे थे कि शाायद इस संकट की घड़ी में इन वस्तुओं से ही कुछ सहायता मिल जाएगी।

पाखण्ड का रूप कितना वीभत्स एवं विकराल हो सकता है, यह जानने हेतु 21 मई को हम लोग प्रसिद्ध दक्षिण काली का मन्दिर देखने गये, जो काठमाण्डू से लगभग 30 किमी. की दूरी पर मनमोहक हरी-भरी पर्वत चोटियों के बीच स्थित था। पास ही से पर्वतों से निकल कर कल-कल करती सरिता बहती थी, यहाँ हजारों लोग प्रतिदिन आते थे, तीन-तीन रास्तों से दर्शनार्थियों क ी पंक्ति लगती थी परन्तु वास्तव में ये कोई उपासना स्थल नहीं था, ये तो एक प्रकार का धार्मिक बूचड़खाना था, जहाँ पर सुबह से शाम तक सैंकड़ों निरीह-निर्बल पशु-पक्षियों, बकरे-मुर्गे इत्यादि प्राणियों का संहार (हत्या) धर्म के नाम पर किया जाता है। भूकप के कारण सब सुनसान था। दुकानें सब बन्द थी परन्तु बंद दुकानों के भी अवलोकन से ये ज्ञात हुआ कि फूल-प्रसाद की दुकानें बाद में थी सबसे पहले रास्ते के दोनों ओर की दुकानों पर बड़े-बड़े पिजरे रखे हुए थे, जिनमें मुर्गों-बकरों को बेचने के लिए बन्द रखा जाता था, मन्दिर में बलि स्थान ठीक काली माता मूर्ति के पीछे था, यहाँ इनके गर्दन काटने के बाद सामने एक दूसरा स्थान था, जहाँ पर बोर्ड लगा था मुर्गा के माँस के टुक ड़े करने के लिए 50/- तथा बकरे के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े करने के 300/-रूपये। माँस कटता रहता है तथा पानी की नलियों द्वारा उस रक्त को उस स्वच्छ जल धारा में बहा दिया जाता है ये है हिन्दू धर्म का स्वरूप….। एक विशेष घटना और इसी प्रकार की है नेपाल के तराई के क्षेत्र में बिहार की सीमा से लगता हुआ एक स्थान है, जहाँ पर एक गढ़ी माता का मन्दिर है, इस स्थान पर चार वर्ष में एक विशेष मेला लगता है, जहाँ पर कई एकड़ भूमि में कई लाख पशुओं की सामूहिक बलि दी जाती है। इस वर्ष भी लगभग 5 लाख कटड़े-भैंसों की बलि दी गई। 5 लाा की संया तब रही जब भारत सरकार ने सीमा पर प्रतिबन्ध लगाया कि इस बलि के लिए भारत से पशुओं को न जाने दिया जाए। क्योंकि बलि के लिए अधिकांश पशु बिहार व उत्तरप्रदेश से जाता था और यदि प्रतिबन्ध न रहता तो कल्पना कर सकते थे कि बिना प्रतिबन्ध के कितना पशु धर्म के नाम पर कटता होगा। मैं तबसे एक बात अपने व्यायान इत्यादि में कहा करता हूँ कि दुनियाँ में जो गलत कार्य (पाप) सामान्य स्थिति में नहीं कर सकते, वे सब धर्म की आड़ में होते हैं। भांग पीने वाला भोले बाबा की जय बोलकर, शराब पीने वाला काली या ौरव बाबा की, लीला रचाने वाले कृष्ण-गोपियो की जय बोलकर इन अनैतिक कृत्यों को करते हैं। जब सुनामी लहरें आयी थी, उस समय भू-गर्भ वैज्ञानिकों के पत्र-पत्रिकाओं में लेख आये थे कि ये इस तरह की जो प्राकृतिक आपदाएँ आती हैं, उनमें ये प्रतिदिन होने वाली निरीह पशुओं की हत्या के कारण जो उनकेाय के कारण निकलने वाली चीत्कार, करुणामयी रुदन के द्वारा जो कपन पैदा होता है, वह भी प्रकृति में असन्तुलन पैदा करता है।

त्रासदी से पीड़ित और दुर्गम स्थानों पर कठिनाइयाँ झेल रहे लोगों तक राहत सामग्री पहुँचाना अपने आप में एक अति कठिन काम था। सभा के आदेश से हमने  वही कार्य करने की ठान ली। 23 मई को हम लोग प्रातः 3 बजे जग गये क्योंकि चार (4) बजे हमको राहत वितरण हेतु अपने निश्चित स्थान पर पहुँचना था। हम लोग शौचादि से निवृत्त होकर बिना नहाएँ ही क्यों उस दिन पानी बहुत थोडा था, ठीक चार बजे जहाँ पर गाड़ी जानी थी, वहाँ पहुँच गये। लगभग 4:30 बजे प्राप्तः मैं (कर्मवीर), आचार्य नन्दकिशोर जी, ब्र. प्रभाकर जी, ब्र. सोमेश जी, पं. कमला कान्त आत्रेय जी, पं. माधव जी (प्राध्यापक), पं. तारा जी ये दोनों लोग गुरुकुल कांगडी के स्नातक हैं तथा राजकुमार जी आदि अन्य एक दो व्यक्ति बस में सवार होकर चल दिए। रास्ते के लिए कुछ सूखी खाद्य सामग्री साथ ले राी थी। लगभग 7:30 बजे एक जगह मार्ग में ही रुक कर प्रातःराश किया फिर शीघ्र ही चल दिये, लगभग 11:30 बजे सिंगेटी बाजार पहुँचे, रास्ता बड़ा ही दुर्गम था, लगभग 100 किमी. का तो रास्ता ऐसा था जिसमें केवल अभी पत्थर डले थे सड़क पक्की नहीं बनी थी, इस पर चलते रहे सिंगेटी पहुँचने से काफी पहले ही सड़क के दोनों ओर के मकान प्रायः ध्वस्त पड़े दिखाई देते थे। सिंगेटी पहुँचे, यहाँ भी यही हाल था। लगभग पूरा नगर ध्वस्त था, कोई भी मकान-दुकान ठीक नहीं बचा था, वहाँ पर कृष्ण जी आर्य पहले से उपस्थित थे। उन्होंने एक दुकान से सामान खरीद कर एक ट्रक गाडी में रखवाकर उस गाँव में भेज दिया था। जिस दुकान से सामान खरीदा था वो काफी टूटी हुई थी। किसी प्रकार से कुछ सामान सुरक्षित था। उस दुकानदार का भुगतान कर हम चल दिए। इसी स्थान पर एक होटल था, भूकप से पूर्व यहाँ बहुत पर्यटक आते थे। होटल में लगभग 35 लोग रुके हुए थे, होटल पहाड़ की एकदम तलहटी में था, पहाड़ से भूकप के कारण विशाल पत्थर गिरे, सारा होटल पत्थरों के नीचे दब गया, अभी तक मलबा भी नहीं हटाया गया था, सभवतः सारी लाशें उसी के अन्दर दबी पड़ी होंगी। भूकप से जितनी हानि नेपाल में हुई है, उसकी भरपाई तो विश्व के सपन्न राष्ट्र मिलकर करें तब कुछ भरपाई हो सकती है। परोपकारिणी सभा की जागरूकता इस बात से स्पष्ट होती है कि अपनी सामर्थ्यानुसार सहायता बिना विलब किये पहुँचाई, बड़ी संया में लोगों तक पहुँचाई और तत्परता के साथ पहुँचाई।

सिंगोटी बाजार से जहाँ हमें जाना था, वह गाँव इस स्थान से 7 किमी. की ऊँची पहाड़ी पर था। रास्ता कच्चा व बड़ा खतरनाक था। जब हमारी गाड़ी उस पहाड़ पर चढ़ रही थी तो कई बार ऐसा प्रतीत हुआ कि शायद यह यात्रा जीवन की अन्तिम यात्रा हो। इस चढ़ाई की कठिनाई का पता इस बात से भी लगाया जात सकता है कि 7 किमी. के इस दुर्गम रास्ते से सामान पहुँचाने के ट्रक वाले ने 8000/- नेपाली रूपये (भारतीय 5 हजार) लिए। वास्तव में यह पाँच हजार रूपये 7 किमी. के नहीं एक बड़े जोखिम (खतरे) के थे। हम लोग पहाड़ पर लामीडाँडा नामक गाँव पहुँचे, वहाँ पर बहुत लोग उपस्थित थे, सब लोग हमको देखकर बड़े प्रसन्न हुए। सब लोग हमारी व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी परिवारों को पहले से कूपन वितरित कर दिये गये थे। परिवार का एक सदस्य कूपन लेकर आता तथा धन्यवाद देकर सामान लेकर चला जाता। यहाँ पर कोई सज्जन महानुभाव हमसे कई दिन पहले पहुँचे थे, उन्होंने भी सभी परिवारों को 7-7 किग्रा. चावल वितरित किये थे। कृष्ण जी भी इसी गाँव के रहने वाले थे। अपने घर पर ही भोजन की व्यवस्था कर रखी थी, हम सभी ने भोजन किया, बड़ा स्वादिष्ट भोजन घर की माताओं ने बड़े प्रेम से कराया। इसी गाँव के लगभग सभी घर गिर चुके थे। ग्रामवासी या तो टैंटों में या फिर गिरे हुए मकानों की टीन इत्यादि को इकट्ठी कर पेडों से लकडी काट अस्थाई घर बनाकर रह रहे थे।

यहाँ से लगभग तीन बजे हम लोग काठमाण्डू के लिए चले, कुछ दूर ही चले कि गाड़ी खराब हो गई। सब लोग तो गाड़ी ठीक होने की प्रतीक्षा करते रहे, मैं प्रभाकर जी, सोमेश जी पैदल ही पहाड़ी रास्ते से जल्दी-जल्दी उतरकर नीचे बहती कोसी नदी में स्नान किया, तब तक गाड़ी भी ठीक होकर आ गई, हम लोग देर रात 11 बजे काठमाण्डू आर्य समाज पहुँच गये।

24 मई की सांय 7 बजे हम लोग अपने देश की तरफ चले प्रातः 5 बजे हम सोनौली भारत नेपाल की सीमा पहुँचे, वहाँ से एक जीप पकड़कर गोरखपुर पहुँचे, वहाँ से ब्र. सोमेश जी रेलगाडी से मैनपुरी के लिए चले गये। हम लोग बस पकड़कर लखनऊ पहुँचे। आचार्य नन्दकिशोर जी ने यहाँ से दिल्ली के लिए तथा ब्र. प्रभाकर जी ने बिजनौर के लिए बस पकड़ी तथा मैंने लखनऊ से जयपुर के लिए बस पकड़ी। कानपुर पहुँचकर जाम में बस फँस गई, वहाँ से चले इटावा में रात्री में बस खराब हो गई, वहाँ से चले आगे चलकर आगरा से आगे बस का टायर पंचर हो गया, यहाँ से आगे चले पता चला कि गुर्जर आन्दोलन के कारण आगरा जयपुर हाईवे बन्द कर दिया गया। गर्मी भी त्वचा जला देने वाली थी, इस प्रकार काठमाण्डू से अजमेर बस तक का सफर 2 दिन, दो रात (48 घन्टे) में तय किया। गर्मी के कारण कष्ट भी बहुत हुआ। पर मन में संतोष था कि हाँ कुछ अच्छा करते हुए द्वन्द्वों को सहन करना ही तप है, जो मानव जीवन की उन्नति का कारण है।

इसी पूरी यात्रा से एक विशेष अनुभव हुआ कि हमें कभी भी किसी प्रकार का धन-बल, शारीरिक बल, जल बल, रूप आदि पर कोई घमण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि न जाने किस वक्त इस परिवर्तनशील संसार में क्या घटना घट जाए। क्षणों की आपदा करोड़पतियों को सड़क पर खड़ा कर देती है। भूख-प्यास के मारे कटोरा हाथ में आ जाता है। शारीरिक बलवान बैसााियों पर आ जाते हैं, रूपवान ऐसे कुरूप हो जाते हैं कि उनकी तरफ कोई देखना तक नहीं चाहता। परमात्मा से प्रतिक्षण यही प्रार्थना करनी चाहिए कि ईश्वर हमें शक्ति-भक्ति-सामर्थ्य प्रदान करे कि यह शरीर सदा दूसरों की सेवा कर सके। इति।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

ये कैसा ईश्वरीय ज्ञान ! : शैतान खून की तरह शरीर में घूमता है

इस्लाम की मान्यता के अनुसार मुहम्मद साहब आखिरी पैगम्बर हैं . अल्लाह ने अपनी पहले भेजी हुयी सारी किताबें, जो पुरानी हो चुकी थीं और उनका ज्ञान भी पुराना हो गया था , निरस्त करके मुहम्मद साहब को भेजा और उन्हें अपनी  आख़िरी किताब कुरान देकर  से नवाजा.

इस्लामी मान्यता के अनुसार आसमान से कुरान की आयतें मुहम्मद साहब पर उतरा करती थीं जो ज्यादातर फरिश्तों द्वारा लाई जाती थीं . इसे वही उतरना कहा जाता है . मुहम्मद साहब, इस्लाम की मान्यतानुसार,   इस्लाम के अंतिम पैगम्बर अर्थात अल्लाह की रचाई गयी इस सृष्टी के अंतिम संदेशवाहक हैं .

उपर्युक्त कथन की दृष्टी से देखा जाये तो मुहम्मद साहब की एक  विद्वान, विचारक आदि गुणों से संपन्न व्यक्ति की छवि किसी के पटल पर उतरना स्वाभाविक है .लेकिन जब हम इस्लामी इतिहास का अध्ययन करते हैं तो वास्तविकता को इससे विपरीत ही पाते हैं :-

शैतान खून की तरह शरीर में घूमता है :

कृपया नीचे दी हुयी हदीस को पढ़िए जो सहीह बुखारी जिल्द ३   से ली गयी है :

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साफिया जो मुहम्मद साहब की पत्नी थीं ने अली बिन अल हुसैन को बताया कि मुहम्मद साहब इतिकाफ के वक्त अपनी बेगमों के साथ मस्जिद में थे . जब बेगम जाने लगीं  तो मुहम्मद साहब ने साफिया से कहा कि जल्दी मत करो में भी तुम्हारे साथ चलूँगा ( उस समय मुहम्मद साहब उसामा के साथ रह रहे थे ) मुहम्मद साहब बाहर  गए और तभी तो अंसारी व्यक्ति उन्हें मिले उन्होंने मुहम्मद साहब की ओर देखा और चले गए . मुहम्मद साहब ने उनसे कहा यहाँ आओ . वह साफिया बिन्त हयाई मेरी बेगम है . अंसारों ने जवाब दिया : “माशा अल्लाह “ ( हम बुरा  सोचने की हिम्मत कैसे कर सकते हैं! ) हे अल्लाह के रसूल ! हम कभी आपसे बुराई की उम्मीद नहीं करते .

मुहम्मद साहब ने जवाब दिया “ शैतान इंसानों में ऐसे घूमता है जैसे की रक्त का प्रवाह व्यक्ति में होता है .और मुझे डर था कि कहीं ऐसा न हो कि  कहीं शैतान तुम्हारे विचारों में बुरे विचार घुसा सकता है  .

उपर्युक्त हदीस से यह विदित होता है कि इस्लाम के अंतिम पैगम्बर इस मान्यता के पोषक थे कि  व्यक्ति के शरीर में खून के साथ साथ शैतान का प्रभाव भी होता है जो कि व्यक्ति के मानसिक विचारों को बदलने की क्षमता रखता है .

 

शैतान नाक के उपरी भाग में रहता है :

अब इसी एक और हदीस पर नजर डालते हैं जो सहीह बुखारी जिल्द चार से है :

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अबू हुरैरा ने बताया की मुहम्मद साहब ने कहा की यदि आपमें से कोई जब निद्रा से जागता है और वजू करता है तो उसे उसे अपनी नाक में पानी डालकर इसे धोना चाहिए और पानी को बाहर निकाल देना चाहिए क्योंकि पूरी रात उसकी नाक के उपरी हिस्से में शैतान ने निवास किया है .

इसी हदीस को सहीह मुस्लिम ने भी कुछ शब्दों  के हेर फेर से लिखा है कि अबू हुरैरा ने बताया की मुहम्मद साहब ने कहा की आप आप निद्रा से जागो तो वजू करते समय अपनी नाक को तीन बार साफ करना चाहिए क्यूंकि पुरी रात शैतान उसके अन्दर निवास करता है .

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अब देखिये मस्लिम विद्वान् इन बातों पर कैसे लीपा पोती कर रहे हैं :

अब्दुल हामिद सिद्दकी साहब अपनी सहीह मुस्लिम की व्याख्या में शान वलीउल्लाह साहब की हज़ातुल्लाह अल बलिघ जिल्द १ का रिफरेन्स देके कहते यहीं कि  नाक में गन्दगी का होना मनुष्य के मष्तिष्क पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है और उसे बुरे सपने आते हैं .

मौलवी साहब बड़ी ही चतुराई से शैतान के होने की सम्भावना को नकार गए और शैतान को गन्दगी से जोड़ दिया .

इसी प्रकार देखिये इस्लामिक विश्वविद्यालय मदीना अल मुनाव्वारा के डॉ मुहम्मद मुहसिन खान साहब साहील अल बुखारी की व्याख्या में कहते हैं कि हमें यह मानना चाहिए की शैतान वास्तव में व्यक्ति की नाक के उपरी भाग में रहता है हालांकि हम नहीं समझ सकते कि वह कैसे रहता है यह उस अदृश्य विश्व से सम्बन्ध रखता है जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते हम केवल उतना ही जानते हैं जितना अल्लाह पैगम्बर के माध्यम से बताता है .

आपने इन हदीसों के ऊपर मुस्लिम विद्वानों की का संशय और संशय के निवारण में घुमा फिर के कही गयी बातें तो देख लीं. उपर्युक्त व्याख्याओं से यह तो सिद्ध हो जाता है कि मुस्लिम विद्वान भी इन हदीसों पर उठे हुए प्रश्नों पर उपापोह की स्तिथी में हैं . जन साधारण के मन में इन हदीसों को पढ़ के प्रश्न उठाना जायज़ ही है कि:

  • शैतान का अस्तिव्त क्या है ?
  • क्या शैतान अल्लाह से ज्यादा ताकतवर है जो अल्लाह के मनाने वालों को तंग करता रहता है ?
  • शैतान नाक के कौनसे हिस्से में और कहा रहता है
  • क्या शैतान सर्व्व्यापी है जो सभी के नाक में एक साथ उपस्थित हो जाता है ?
  • यह शैतान क्या केवल मुस्लिमों की नाक में रहता है या गैर मुस्लिमों की नाक में भी रहता है ?
  • यदि शैतान गदगी के रूप में है तो केवल नाक में ही क्यूँ है शरीर के बाकी हिस्स्सों में भी तो गन्दगी होती है ?
  • इस शैतान को अल्लाह ने पैदा ही क्यूँ किया ? तो न केवल अल्लाह की बनाये हुए इस संसार में इस कदर आतंक मचाता है ?
  • शैतान यदि खून में बहता है तो विज्ञानं उसे आज तक पहचान क्यूँ नहीं पाई ?
  • अल्लाह के मनाने वालों को शैतान का गुमराह करना अल्लाह की सर्वशक्तिमान जैसी विशेषताओं को खुली चुनौती है
  • जब अल्लाह के पैगम्बर यह जानने में सक्षम नहीं थे की अंसारी बंधुओं के दिमाग में शैतान ने प्रभाव किया या नहीं तो बाकी के लोग शैतान को कैसे जानने में सक्षम होंगे . और जैसे की मुल्सिम विद्वानों ने ऊपर हदीसों की व्याख्या में कहा है कि हम शैतान को नहीं जान सकते तो अल्लाह मियां ने ऐसी रचना की ही क्यूँ जिसको कि जिसको जाना ही न जा सके ? यह अल्लाह की श्रृष्टि में एक दोष पैदा करती है कि एक ऐसी कृति का निर्माण किया गया जो उसके बनाये गए लोगों के बीच में रहती उनके जीवन को प्रभावित करती है लेकिन वो लोग उसके बारे में जान ही नहीं सकते .

iciज्ञान के इस युग में इस तरह की हदीसों की शिक्षा न केवल मुस्लिम समाज के लिए हास्य का कारण  बनती हैं बल्कि इन मत पंथों के लोगों को भी अन्धविश्वासी बनाती है .

प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य व नैतिक दायित्व है की सत्य को ग्रहण करे और असत्य का त्याग करे . इसलिए मुसलमान विद्वानों को चाहिए की या तो इन हदीसों की विश्वशनीयता से विश्व को अवगत कराएं या फिर इन हदीसों का परित्याग करें क्यूंकि ये न केवल उपहास का कारण हैं अपितु मुसलमानों के मान्य मुहम्मद साहब के नाम को भी धूमिल करने का कारण हैं .

स्वामी दयानन्द और हिन्दी’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारतवर्ष के इतिहास में महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने पराधीन भारत में सबसे पहले राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के लिए हिन्दी को सर्वाधिक महत्वपूर्ण जानकर मन, वचन व कर्म से इसका प्रचार-प्रसार किया। उनके प्रयासों का ही परिणाम था कि हिन्दी शीघ्र लोकप्रिय हो गई। यह ज्ञातव्य है कि हिन्दी को स्वामी दयानन्द जी ने आर्यभाषा का नाम दिया था। स्वतन्त्र भारत में 14 सितम्बर 1949 को सर्वसम्मति से हिन्दी को राजभाषा स्वीकार किया जाना भी स्वामी दयानन्द के इससे 77 वर्ष पूर्व आरम्भ किए गये कार्यों का ही सुपरिणाम था। प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार विष्णु प्रभाकर हमारे राष्ट्रीय जीवन के अनेक पहलुओं पर स्वामी दयानन्द का अक्षुण प्रभाव स्वीकार करते हैं और हिन्दी पर साम्राज्यवादी होने के आरोपों को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि यदि साम्राज्यवाद शब्द का हिन्दी वालों पर कुछ प्रभाव है भी, तो उसका सारा दोष अहिन्दी भाषियों का है। इन अहिन्दीभाषियों का अग्रणीय वह स्वामी दयानन्द को मानते हैं और लिखते हैं कि इसके लिए उन्हें प्रेरित भी किसी हिन्दी भाषी ने नहीं अपितु एक बंगाली सज्जन श्री केशवचन्द्र सेन ने किया था।

 

स्वामी दयानन्द का जन्म 12 फरवरी, 1825 में गुजरात राज्य के राजकोट जनपद में होने के कारण गुजराती उनकी स्वाभाविक रूप से मातृभाषा थी। उनका अध्ययन-अध्यापन संस्कृत में हुआ था, इसी कारण वह संस्कृत में ही वार्तालाप, व्याख्यान, लेखन, शास्त्रार्थ तथा शंका-समाधान आदि किया करते थे। 16 दिसम्बर, 1872 को स्वामी जी वैदिक मान्यताओं के प्रचारार्थ भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता पहुंचे थे और वहां उन्होंने अनेक सभाओं में व्याख्यान दिये। ऐसी ही एक सभा में स्वामी दयानन्द के संस्कृत भाषण का बंगला में अनुवाद गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज, कलकत्ता के उपाचार्य पं. महेश चन्द्र न्यायरत्न कर रहे थे। अनुवाद ने अनेक स्थानों पर स्वामी जी के व्याख्यान को अनुदित न कर उसमें अपनी विपरीत मान्यताओं को श्री न्यायरत्न ने प्रकट किया जिससे संस्कृत कालेज के श्रोताओं ने उनका विरोघ किया।  विरोध के कारण श्री न्यायरत्न बीच में ही सभा छोड़कर चले गये थे। बाद में स्वामी दयानन्द जी को श्री केशवचन्द्र सेन ने सुझाव दिया कि वह संस्कृत के स्थान पर हिन्दी को अपनायें। स्वामी दयानन्द जी ने तत्काल यह सुझाव स्वीकार कर लिया। यह दिन हिन्दी के इतिहास की एक प्रमुख घटना थी कि जब एक 47 वर्षीय गुजराती मातृभाषा के संस्कृत के विश्वविख्यात वैदिक विद्वान स्वामी दयानन्द ने तत्काल हिन्दी को अपना लिया। ऐसा दूसरा उदाहरण इतिहास में अनुपलब्ध है। इसके पश्चात स्वामी दयानन्द जी ने जो प्रवचन किए उनमें वह हिन्दी का प्रयोग करने लगे।

 

सत्यार्थ प्रकाश स्वामी जी की विश्व प्रसिद्ध रचना और पूर्ण वैज्ञानिक अर्थात् तर्क, युक्ति व प्रमाणयुक्त धर्म ग्रन्थ है जो देश-विदेश में विगत 141 वर्षों से उत्सुकता एवं श्रद्धा से पढ़ा जाता है। फरवरी, 1872 में हिन्दी को अपने व्याख्यानों व ग्रन्थों के लेखन की भाषा के रूप में स्वीकार करने के लगभग 2 वर्ष पश्चात ही स्वामी जी ने 2 जून 1874 को उदयपुर में इस सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के प्रथम आदिम सत्यार्थ प्रकाश का प्रणयन आरम्भ किया और लगभग 3 महीनों में पूरा कर डाला। श्री विष्णु प्रभाकर इतने अल्प समय में स्वामी जी द्वारा हिन्दी में सत्यार्थ प्रकाश जैसा उच्च कोटि का ग्रन्थ लिखने पर इसे आश्चर्यजनक घटना मानते हैं। सत्यार्थ प्रकाश के पश्चात स्वामी जी ने अनेक ग्रन्थ लिखे जो सभी हिन्दी में हैं। उनके ग्रन्थ उनके जीवन काल में ही देश की सीमा पार कर विदेशों में भी लोकप्रिय हुए। विश्व विख्यात विद्वान प्रो. मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द की पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा कि वैदिक साहित्य का आरम्भ ऋग्वेद से एवं अन्त स्वामी दयानन्द जी की ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पर होता है। प्रो. मैक्समूलर की स्वामी दयान्द को यह प्रशस्ति उनके वेद विषयक ज्ञान, उनके कार्यों, वेदों के प्रचार-प्रसार के प्रति योगदान एवं उनके गौरव के अनुरूप है। स्वामी दयानन्द के सत्यार्थ प्रकाश एवं अन्य ग्रन्थों को इस बात का गौरव प्राप्त है कि धर्म, दर्शन एवं संस्कृति जैसे क्लिष्ट व विशिष्ट विषय को सर्वप्रथम उनके द्वारा हिन्दी में प्रस्तुत कर उसे सर्व जन सुलभ किया गया जबकि इससे पूर्व इस पर संस्कृत निष्णात ब्राह्मण वर्ग का ही एकाधिकार था जिसमें इन्हें संकीर्ण एवं संकुचित कर दिया था और वेदों का लाभ जनसाधारण को नहीं मिल सका जिसके वह अधिकारी थे।

 

थियोसोफिकल सोसायटी की नेत्री मैडम बैलेवेटेस्की ने स्वामी दयानन्द से उनके हिन्दी में लिखित ग्रन्थों के अंग्रेजी अनुवाद की अनुमति मांगी तो स्वामी दयानन्द जी ने उन्हें 31 जुलाई, 1879 को विस्तृत पत्र लिख कर अनुवाद से हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में आने वाली बाधाओं से परिचित कराया। स्वामी जी ने लिखा कि अंग्रेजी अनुवाद सुलभ होने पर देश-विदेश में जो लोग उनके ग्रन्थों को समझने के लिए संस्कृत व हिन्दी का अध्ययन कर रहे हैं, वह समाप्त हो जायेगा। हिन्दी के इतिहास में शायद कोई विरला ही व्यक्ति होगा जिसने अपनी हिन्दी पुस्तकों का अनुवाद इसलिए नहीं होने दिया जिससे अनुदित पुस्तक के पाठक हिन्दी सीखने से विरत होकर हिन्दी प्रसार में बाधक बनेंगे।

 

हरिद्वार में एक बार व्याख्यान देते समय पंजाब के एक श्रद्धालु भक्त द्वारा स्वामी जी से उनकी पुस्तकों का उर्दू अनुवाद कराने की प्रार्थना करने पर उन्होंने आवेशपूर्ण शब्दों में कहा था कि अनुवाद तो विदेशियों के लिए हुआ करता है। देवनागरी के अक्षर सरल होने से थोड़े ही दिनों में सीखे जा सकते हैं। हिन्दी भाषा भी सरल होने से सीखी जा सकती है। हिन्दी न जानने वाले एवं इसे सीखने का प्रयत्न न करने वालों से उन्होंने पूछा कि जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर यहां की भाषा हिन्दी को सीखने में परिश्रम नहीं करता उससे और क्या आशा की जा सकती है? श्रोताओं को सम्बोधित कर उन्होंने कहा, ‘‘आप तो मुझे अनुवाद की सम्मति देते हैं परन्तु दयानन्द के नेत्र वह दिन देखना चाहते हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक देवनागरी अक्षरों का प्रचार होगा। इस स्वर्णिम स्वप्न के द्रष्टा स्वामी दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में एक स्थान पर लिखा कि आर्यावर्त्त (भारत वर्ष का प्राचीन नाम) भर में भाषा का एक्य सम्पादन करने के लिए ही उन्होंने अपने सभी ग्रन्थों को आर्य भाषा (हिन्दी) में लिखा एवं प्रकाशित किया है। अनुवाद के सम्बन्ध में अपने हृदय में हिन्दी के प्रति सम्पूर्ण प्रेम को प्रकट करते हुए वह कहते हैं, ‘‘जिन्हें सचमुच मेरे भावों को जानने की इच्छा होगी, वह इस आर्यभाषा को सीखना अपना कर्तव्य समझेंगे। यही नहीं आर्य समाज के प्रत्येक सदस्य के लिए उन्होंने हिन्दी सीखना अनिवार्य किया था। भारत वर्ष की तत्कालीन अन्य संस्थाओं में हम ऐसी कोई संस्था नहीं पाते जहां एकमात्र हिन्दी के प्रयोग की बाध्यता हो।

 

सन् 1882 में ब्रिटिश सरकार ने डा. हण्टर की अध्यक्षता में एक कमीशन की स्थापना कर उससे राजकार्य के लिए उपयुक्त भाषा की सिफारिश करने को कहा। यह आयोग हण्टर कमीशन के नाम से जाना गया। यद्यपि उन दिनों सरकारी कामकाज में उर्दू-फारसी एवं अंग्रेजी का प्रयोग होता था परन्तु स्वामी दयानन्द के सन् 1872 से 1882 तक व्याख्यानों, ग्रन्थों, शास्त्रार्थों तथा आर्य समाजों द्वारा वेद प्रचार एवं उसके अनुयायियों की हिन्दी निष्ठा से हिन्दी भी सर्वत्र लोकप्रिय हो गई थी। इस हण्टर कमीशन के माध्यम से हिन्दी को राजभाषा का स्थान दिलाने के लिए स्वामी जी ने देश की सभी आर्य समाजों को पत्र लिखकर बड़ी संख्या में हस्ताक्षरों से युक्त ज्ञापन इण्टर कमीशन को भेजने की प्रेरणा की और जहां से ज्ञापन नहीं भेजे गये उन्हें स्मरण पत्र भेज कर सावधान और पुनः प्रेरित किया। आर्य समाज फर्रूखाबाद के स्तम्भ बाबू दुर्गादास को भेजे पत्र में स्वामी जी ने लिखा, ‘‘यह काम एक के करने का नहीं है और अवसर चूके यह अवसर आना दुर्लभ है। जो यह कार्य सिद्ध हुआ (अर्थात् हिन्दी राजभाषा बना दी गई) तो आशा है, मुख्य सुधार की नींव पड़ जावेगी। स्वामी जी की प्रेरणा के परिणामस्वरुप देश के कोने-कोने से आयोग को बड़ी संख्या में लोगों ने हस्ताक्षर कराकर ज्ञापन भेजे। कानपुर से हण्टर कमीशन को दो सौ मैमोरियल भेज गए जिन पर दो लाख लोगों ने हिन्दी को राजभाषा बनाने के पक्ष में हस्ताक्षर किए थे। हिन्दी को गौरव प्रदान करने के लिए स्वामी दयानन्द द्वारा किया गया यह कार्य भी इतिहास की अन्यतम घटना है। स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से जिन प्रमुख लोगों ने हिन्दी सीखी उनमें जहां अनेक रियासतों के राज परिवारों के सदस्य हैं वहीं कर्नल एच. ओ. अल्काट आदि विदेशी महानुभाव भी हैं जो इंग्लैण्ड में स्वामी जी की प्रशंसा सुनकर उनसे मिलने भारत आये थे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शाहपुरा, उदयपुर, जोधपुर आदि अनेक स्वतन्त्र रियासतों के महाराजा स्वामी दयानन्द के अनुयायी थे और स्वामी जी की प्रेरणा पर उन्होंने अपनी रियासतों में हिन्दी को राज भाषा का दर्जा दिया था।

 

स्वामी दयानन्द संस्कृत व हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के जानने व पढ़ने के पक्षधर भी थे, विरोधी किसी भाषा के नहीं थे। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि जब पुत्र-पुत्रियों की आयु पांच वर्ष हो जाये तो उन्हें देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करावें, अन्यदेशीय भाषाओं के अक्षरों का भी। एक अन्य प्रकरण में आदिम सत्यार्थ प्रकाश में मूर्तिपूजा के इतिहास से परिचय कराने के साथ इस मूर्तिपूजा से आयी गुलामी के प्रसंग में अन्यदेशीय भाषाओं के अध्ययन के समर्थन में उन्होंने विस्तार से लिखा है। यह पूरा प्रसंग इसकी महत्ता के कारण प्रस्तुत है। वह लिखते है कि वदेद्यावनीं भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि। हस्तिना ताड्यमानोऽपि गच्छेज्जैनमन्दिरम्।।1।। इत्यादि श्लोक (हमारे मूर्तिपूजक बन्धुओं ने) बनाए हैं कि मुसलमानों की भाषा बोलनी और सुननी भी नहीं चाहिए और यदि पागल हाथी मूर्तिपूजक सनातनी के पीछे मारने को दौड़े, तो यदि वह किसी जैन मन्दिर में जाने से बच सकता हो, तो भी जैन के मन्दिर में न जायें किन्तु हाथी के सन्मुख मर जाना उससे (अर्थात् जैन मन्दिर में जाने से) अच्छा है, ऐसे निन्दा के श्लोक बनाए हैं। सो पुजारी, पण्डित और सम्प्रदायी लोगों ने चाहा कि इनके खण्डन के विना हमारी आजिविका न बनेगी। यह केवल उनका मिथ्याचार है। मुसलमानों की भाषा पढ़ने में अथवा कोई देश की भाषा पढ़ने में कुछ दोष नहीं होता, किन्तु कुछ गुण ही होता है। अपशब्दज्ञानपूर्वके शब्दज्ञाने धर्मः। यह व्याकरण महाभाष्य (आन्हिक 1) का वचन है। इसका यह अभिप्राय है कि अपशब्द ज्ञान अवश्य करना चाहिए, अर्थात् सब देश देशान्तर की भाषा को पढ़ना चाहिए, क्योंकि उनके पढ़ने से बहुत व्यवहारों का उपकार होता है और संस्कृत शब्द के ज्ञान का भी उनको यथावत् बोध होता है। जितनी देशों की भाषायें जानें, उतना ही पुरुष को अधिक ज्ञान होता है, क्योंकि संस्कृत के शब्द बिगड़ के सब देश भाषायें होती वा बनती हैं, इससे इनके ज्ञानों से परस्पर संस्कृत और भाषा के ज्ञान में उपकार ही होता है। इसी हेतु महाभाष्य में लिखा कि अपशब्द-ज्ञानपूर्वक शब्दज्ञान में धर्म होता है अन्यथा नहीं। क्योंकि जिस पदार्थ का संस्कृत शब्द जानेगा और उसके भाषा शब्द को न जानेगा तो उसको यथावत् पदार्थ का बोध और व्यवहार भी नहीं कर सकेगा। तथा महाभारत में लिखा है कि युधिष्ठिर और विदुर आदि अरबी आदि देश भाषा को जानते थे। इस लिए जब युधिष्ठिर आदि लाक्षा गृह की ओर चले, तब विदुर जी ने युधिष्ठिर जी को अरबी भाषा में समझाया और युधिष्ठिर जी ने अरबी भाषा से प्रत्युत्तर दिया, यथावत् उसको समझ लिया। तथा राजसूय और अश्वमेध यज्ञ में देश-देशान्तर तथा द्वीप-द्वीपान्तर के राजा और प्रजास्थ पुरुष आए थे। उनका परस्पर अनेक देश भाषाओं में व्यवहार होता था तथा द्वीप-द्वीपान्तर में यहां के प्रजाजन जाते थे और वहां के इस देश में आते थे फिर जो देश-देशान्तर की भाषा न जानते तो उनका व्यवहार सिद्ध कैसे होता? इससे क्या आया कि देश-देशान्तर की भाषा के पढ़ने और जानने में कुछ दोष नहीं, किन्तु बड़ा उपकार ही होता है। विश्व की सभी भाषाओं के अध्ययन के पक्षधर स्वामी दयानन्द देश की सभी प्रादेशिक भाषाओं को हिन्दी व संस्कृत की भांति देवनागरी लिपि में लिखे जाने के समर्थक थे जो राष्ट्रीय एकता की पूरक होती। उन्होंने एक प्रसंग में यह भी कहा था कि दयानन्द की आंखे वह दिन देखना चाहती हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश में चहुंओर देवनागरी अक्षरों का प्रचार प्रयोग हो, इसका उल्लेख पूर्व भी कर चुके हैं। अपने जीवन काल में स्वामी ने हिन्दी पत्रकारिता को भी नई दिशा दी। आर्य दर्पण (शाहजहांपुर: 1878), आर्य समाचार (मेरठ: 1878), भारत सुदशा प्रवर्तक (फर्रूखाबाद: 1879), देश हितैषी (अजमेर: 1882) आदि अनेक हिन्दी पत्र आपकी प्रेरणा से प्रकाशित हुए एवं पत्रों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई।

 

स्वामी दयानन्द ने हिन्दी में जो पत्रव्यवहार किया वह भी संख्या की दृष्टि से किसी एक धार्मिक विद्वान व नेता द्वारा किए गए पत्रव्यवहार में आज भी सर्वाधिक है। स्वामी जी के पत्र व्यवहार की खोज, उनकी उपलब्धि एवं सम्पादन कार्य में रक्तसाक्षी पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, रिसर्च स्कालर पं. भगवद्दत्त, पं. युधिष्ठिर मीमांसक एवं श्री मामचन्द जी का विशेष योगदान रहा। शायद ही स्वामी दयानन्द से पूर्व किसी धार्मिक नेता के पत्रों की ऐसी खोज कर उन्हें क्रमवार सम्पादित कर पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया हो और जीवन चरित्र आदि के सम्पादन में इन पत्रों से सहायता ली गई हो। स्वामी जी का समस्त पत्रव्यवहार चार खण्डों में पं. युधिष्ठिर मीमांसक के सम्पादकत्व में प्रकाशित है जो वैदिक साहित्य के प्रमुख प्रकाशक मैसर्स श्रीरामलाल कपूर ट्रस्ट, रेवली (हरयाण) से उपलब्ध है। इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसका एक अद्यतन संशोधित संस्करण परोपकारिणी सभा, अजमेर द्वारा शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है जिसका सम्पादन आर्यजगत के विख्यात विद्वान डा. वेदपाल जी ने किया है और इसके शुद्ध व निर्दोष रूप में प्रकाशित किये जाने में आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी, अबोहर की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। यह भी ज्ञातव्य है कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने सर्वप्रथम अपनी आत्म-कथा लिखी। इस आत्म-कथा के हिन्दी में होने के कारण हिन्दी को ही इस बात का गौरव है कि आत्म-कथा साहित्य का शुभारम्भ हिन्दी व स्वामी दयानन्द से हुआ। सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से वेदों के द्वारा ज्ञान की उत्पत्ति हुई थी। स्वामी दयानन्द के समय तक वेदों का भाष्य-व्याख्यायें-प्रवचन-लेखन-शास्त्रार्थ आदि संस्कृत में ही होता आया था। स्वामी जी पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने वेदों का भाष्य जन-सामान्य की भाषा संस्कृत सहित हिन्दी में करके सृष्टि के आरम्भ से प्रवाहित धारा को उलट दिया। यह घटना जहां वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा से जुड़ी है, वहीं भारत की एकता व अखण्डता से भी जुड़ी है। न केवल वेदों का ही उन्होंने हिन्दी में भाष्य किया अपितु मनुस्मृति एवं अन्य शास्त्रीय ग्रन्थों का अपनी पुस्तकों में उल्लेख करते समय उद्धरणों के हिन्दी में अर्थ भी किए हैं। वेदों का हिन्दी में भाष्य करके उन्होंने पौराणिक हिंन्दू समाज से ब्राह्मणों के शास्त्राध्ययन पर एकाधिकार को भी समाप्त कर जन-जन को इसका अधिकारी बनाया। यह कोई छोटी बात नहीं अपितु बहुत बड़ी बात है जिसका मूल्याकंन नहीं किया जा सकता। महर्षि दयानन्द के प्रयासों से ही आज वेद एवं समस्त शास्त्रों का अध्ययन हिन्दू व इतर समाज की किसी भी जन्मना जाति, मत व सम्प्रदाय का व्यक्ति कर सकता है। आर्यसमाज ने उन सबके लिए वेदाध्ययन व अपने गुरुकुलों के दरवाजे खोले हुए हैं। महर्षि दयानन्द द्वारा हिन्दी को लोकप्रिय बनाकर उसे राष्ट्र भाषा के गौरवपूर्ण स्थान तक पहुंचाने में उनके साथ ही उनके द्वारा स्थापित आर्य समाजों एवं उनकी प्रेरणा से उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित बड़ी संख्या में गुरूकुलों, डी.ए.वी. कालेजों व अनेक आर्य संस्थाओं आदि का भी योगदान है। एक शताब्दी से अधिक समय पूर्व गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार में देश में सर्वप्रथम विज्ञान, गणित सहित सभी विषयों की पुस्तकें हिन्दी माध्यम से तैयार कर उनका सफल अध्ययन-अध्यापन किया कराया गया। इस्लाम की धर्म-पुस्तक कुरआन को हिन्दी में सबसे पहले अनुदित कराने का श्रेय भी स्वामी दयानन्द जी को है। यह अनुदित ग्रन्थ उनकी उत्तराधिकारिणी परोपकरिणी सभा, अजमेर के पुस्तकालय में आज भी सुरक्षित है।

 

ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है कि जो व्यक्ति जिस देश भाषा को पढ़ता है उसको उसी भाषा व उसके साहित्य का संस्कार होता है। अंग्रेजी व अन्यदेशीय भाषायें पढ़ा व्यक्ति मानवीय मूल्यों पर आधारित भारतीय संस्कृति से सर्वथा दूर पाश्चात्य एवं वाममार्गी आदि भिन्न भिन्न जीवन शैलियों के अनुसार जीवन यापन करता है। यह जीवन पद्धतियां उच्च मर्यादाओं की दृष्टि से भारतीय संस्कृति से निम्नतर हैं। यदि वह संस्कृत व हिन्दी दोनों को पढ़ते और विवेक से निश्चय करते तो अवश्य ही वैदिक मर्यादाओं का पालन करते। कुछ ऐसी जीवन शैलियां है जिनमें पशुओं पर दया के स्थान पर उनको भोजन में सम्मलित किया गया है, जो सर्वसम्मत अंहिसा का नहीं अपितु हिंसा का उदाहरण है। जीवन में हिंसा का किसी भी रूप में प्रयोग अपसंस्कृति है और अंहिसा ही संस्कृति है। अतः स्वामी जी का यह निष्कर्ष भी उचित है कि हिन्दी व संस्कृत को प्रवृत्त कर ही प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, इतिहास व मानवीय मूल्यों की रक्षा की जा सकती है।

 

एक षडयन्त्र के अन्तर्गत विष देकर दीपावली 1883 के दिन स्वामी दयानन्द की जीवन लीला समाप्त कर दी गई। यदि स्वामी जी कुछ वर्ष और जीवित रहे होते तो हिन्दी को और अधिक समृद्ध करते और इसका व्यापक प्रचार करते तथा तीव्र वेद प्रचार आदि कार्यों से देश की अधिक उन्नति व सुख-समृद्धि होती। इसी के साथ इस लेख को निम्न पंक्तियों के साथ विराम देते हैं।

 

कलम आज तू स्वामी दयानन्द की जय बोल,

                                    हिन्दी प्रेमी रत्न वह कैसे थे अनमोल।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

राधे माँ : पाखण्ड की पाखण्ड के विरुद्ध लड़ाई: धर्मवीर

एक बार एक चोर चोरी करता पकड़ा गया। उसे राजा के कर्मचारियों द्वारा पकड़ लिया गया, राजा ने उसे दण्ड देकर जेल में भेज दिया। चोर ने विचार किया और एक उपाय सोचा, उसने राज्य के कर्मचारी से राजा तक सन्देश भिजवाया कि वह सोने की खेती करना जानता है, यदि राजा उचित समझें तो वह खेती करके दिखा भी सकता है। राजा के मन में उत्सुकता जगी और उसने चोर द्वारा सोने की खेती देखने का निश्चय किया। चोर ने सोने के बीज मंगवाये, हल मंगवाया, एक खेत तैयार किया गया, राजा राज्य के अधिकारी और नागरिक बड़ी संया में खेती देखने के लिये एकत्रित हो गये। चोर किसान के रूप में हल पकड़कर एक हाथ में सोने के बीज लेकर खड़ा हो गया और चिन्ता की मुद्रा बनाते हुए राजा से बोला- राजन मेरे सामने एक समस्या है, यदि आप इसमें मेरी सहायता करें तो यह सोने की खेती सफल हो सकती है। राजा ने कहा- बताओ, क्या समस्या है? चोर ने हाथ जोड़कर राजा से कहा- सोने की खेती तभी सफल हो सकती है, जब कोई पवित्र व्यक्ति के द्वारा सोने के बीज खेत में बोये जावें। मैं तो चोरी करने के कारण अपराधी और पाप का भागी बन गया हूँ, अतः आपके नगर में ऐसे व्यक्ति बहुत होंगे, जिन्होंने कभी चोरी न की हो, आप ऐसे व्यक्ति को बुलवा लें और उससे ये सोने के बीज खेत में बुवा दें। राजा ने घोषणा कर दी- नगर का कोई व्यक्ति आ जाये, जिसने जीवन में कभी चोरी न की हो, उसके द्वारा ये बीज बोये जायेंगे। सब ही एक-दूसरे की ओर देखने लगे, सबको अपने द्वारा की गई चोरी याद आने लगी। नगरवासियों में से जब कोई नहीं निकला तो चोर ने राजा से निवेदन किया- आपके कर्मचारियों में तो ऐसे लोग बहुत होंगे जिन्होंने चोरी नहीं की। राजा ने राज्य के कर्मचारियों को आदेश दिया- जिसने चोरी न की हो, वह आगे आये और बीज बोये। कोई आगे नहीं आया, तब चोर ने कहा- महाराज फिर आप ही अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो पवित्र हैं, जिन्होंने कभी चोरी नहीं की, आप स्वयं ही यह सोने के बीज खेत में बोने का काम करें। राजा सोच में पड़ गया और अपने पिछले जीवन पर विचार किया तो उसे स्मरण आया बचपन में माँ से छिपा कर लड्डू खाये थे, इस प्रकार राजा ने भी अपने जीवन में चोरी की, तब चोर ने कहा- महाराज! जब आपके राज्य में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं, जिसने चोरी नहीं की? फिर मुझ ही को दण्डित क्यों कर रहे हैं? यही स्थिति राधे माँ की है। राधे माँ तो पाखण्ड कर ही रही है परन्तु इस पाखण्ड का विरोध करने वाले स्वयं सारे ही पाखण्डी हैं। यथार्थ तो यह है कि कोई पाखण्ड का विरोध नहीं करना चाहता। जो व्यक्ति दूसरे के पाखण्ड से पीड़ित है, वह पहले व्यक्ति के पाखण्ड का विरोधी है। ऐसी स्थिति में कोई जीते और कोई हारे, पाखण्ड ही जीतता है और पाखण्ड ही हारता है। भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई सत्य, अहिंसा के प्रेमी थे, उनसे एक व्यक्ति ने एक प्रश्न किया- आप कहते हैं सच-झूठ की लड़ाई में सदा सत्य की विजय होती है परन्तु हमारे अनुभव में यह आता है, प्रायः सत्य और असत्य की लड़ाई में असत्य का पक्ष विजयी होता है। तब मोरार जी भाई ने कहा- यह सत्य नहीं है, विजय तो सदा सत्य की ही होती है। तब मोरार जी भाई ने उस व्यक्ति से पूछा- क्या सत्य की बात करने वाला थोड़ा भी असत्य की सहायता नहीं लेता, तब उस व्यक्ति ने कहा- क्या हुआ कहीं थोड़ी भूल हो गई हो। तब मोरार जी देसाई ने उस व्यक्ति से कहा- भाई! तब यह लड़ाई छोटे झूठ और बड़े झूठ की है, इस परिस्थिति में बड़े झूठ का जीतना निश्चित है। आज राधे माँ पर आरोप है- हत्या, दहेज प्रताड़ना, अश्लील आचरण, आर्थिक शोषण आदि सभी तथाकथित धार्मिक लोग यही करते हैं। उन्हें ऐसा करने के लिए धर्म और धार्मिक स्थानों की आड़ सबसे सरल उपाय है। ईसाई, मुसलमान, हिन्दू जितने भी धार्मिक संगठन है, ये सब धर्म का केवल अपने को बचाने के लिये आश्रय लेते हैं, धार्मिक होने में किसी की आस्था नहीं है परन्तु धार्मिक दीखने का प्रयत्न सभी करते हैं, इस व्यवस्था के लिये लोग धर्म को दोषी मानते हैं। उनके विचार से धर्म की आड़ न हो तो इन अपराधों से बचा जा सकता है। जो लोग आज ऐसा कहते हैं, जब पाखण्ड करने वाले लोगों की संया बड़ी हो जाती है, तब उनको आस्था की बात कह कर बचाने का प्रयास किया जाता है। आज धर्म के नाम पर हजारों सन्त, महन्त, महात्मा, गुरु, महाराज, भगवान, देवी बने घूम रहे हैं परन्तु उनका विरोध करने पर लोग, इसे धर्म का अनादर समझने लगते हैं, धार्मिक विद्वेष की संज्ञा देते हैं। इन धार्मिक सप्रदायों से सरकारायभीत होती है। चुनाव जीतने में पार्टियाँ उनसे हाथ जोड़कर विजयी बनाने का आशीर्वाद माँगती हैं। आसाराम जैसे लोग अपने भक्तों व पैसों के बल पर लबी लड़ाई धर्म के नाम पर ही लड़ते हैं। डेरा सच्चा सौदा जैसे मठों की ताकत सरकार को डराती है। सन्त रामपाल दास जैसे लोग कानून के शिकञ्जे में कभी-कभी ही फंसते हैं। इस सब के होने पर भी यह प्रक्रिया कभी रुकती नहीं, क्यों? संसार में समाज के सभी लोग कम अधिक पाखण्ड, अधार्मिक, अनैतिक होने पर भी ऐसे लोग धर्म बुरा है तो उसे छोड़ क्यों नहीं देते। इसके विपरीत वे अधर्म पाखण्ड को बुरा मानने वाले लोग धर्म को अपना क्यों नहीं लेते। दोहरा जीवन हमारी विवशता क्यों बन गया है। सामान्य रूप में धर्म के नाम पर अधर्म पाखण्ड होते देखकर मन में यह बात आना स्वाभाविक है, ऐसे धर्म नैतिकता, सच्चाई जैसी बातों का क्या लाभ है। पचास वर्ष पहले तक सायवादी लोग एक बात बहुत बार दोहराते थे, धर्म अफीम है, इसको व्यक्ति को अपने जीवन से निकाल देना चाहिए। समाज में धर्म का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। सायवादी देशों ने धार्मिक बातों, क्रियाकलापों को प्रतिबन्धित कर दिया था। उनका मानना था धर्म शोषण का आधार है, जो वस्तु शोषण का कारण हो उसे समाप्त कर देना चाहिए। उन्होंने ऐसा किया भी परन्तु वे धर्म को समाप्त तो नहीं कर सके। क्योंकि शोषण का आधार वही वस्तु बन सकती है जो उसके लिये आवश्यक है। किसी मनुष्य या प्राणी को जिस वस्तु की आवश्यकता नहीं वह वस्तु उससे छीनकर, या न देकर उसे कोई भी विवश नहीं कर सकता। भोजन, वस्त्र, औषध, आवास, धन मनुष्य की आवश्यकता है, इनका प्रलोभन देकर या इन्हें छीन कर उस व्यक्ति को विवश किया जा सकता है, उसे आधीन बनाया जा सकता है। इसी प्रकार यदि धर्म से किसी का शोषण हो रहा है तो यह भी स्वीकार करना होगा कि धर्म मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक है। एक सामान्य मनुष्य की समस्या यह है कि यदि धर्म नैतिकता, ईमानदारी, निष्ठा की बात न करे तो उसे कोई सुनना नहीं चाहता। व्यवहार में बेइमानी, अधर्म, अनैतिकता न करे तो जीवन में संकट आने लगता है। इस ऊहापोह में उसका पूरा जीवन निकल जाता है, परन्तु वह किसी निर्णय तक नहीं पहुँच पाता। दोनों सत्य उसके समुख हैं, वह दोनों से अपने को पृथक् नहीं कर सकता। इसका उत्तर है परन्तु उस उत्तर तक पहुँचने से पहले ही समाप्त हो जाता है। संसार धर्म-अधर्म, अच्छे-बुरे, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य इसका मिश्रण है। ये दोनों शद सापेक्ष है, यदि धर्म नहीं तो अधर्म क्या और अधर्म की सत्ता न हो तो धर्म क्या? झूठ न हो तो सच किसे कहा जाय और सच न हो झूठ का अर्थ क्या? संसार में दोनों बातें थीं, हैं और सदा ही रहेगी। ऋषि दयानन्द लिखते हैं धर्म-अधर्म का सर्वथा अभाव कभी नहीं होता। इनकी वृद्धि और ह्रास होता रहता है। धर्म की मात्रा बढ़ने से समाज में सुख बढ़ता है। अधर्म की वृद्धि से समाज में दुःख की मात्रा बढ़ती है। सामान्य जन के लिए यह समझना कठिन है कि अधर्म से, अनैतिकता से, पाखण्ड से असत्य से दुःख बढ़ता है। इसके विपरीत समाज में तो हर व्यक्ति अनुभव करता है अधर्म, पाखण्ड, झूठ से मनुष्य सपन्न, सुखी, समानित हो रहा है, धार्मिक व्यक्ति दुःखी, पीड़ित, शोषित किया जा रहा है। यह कथन इस कारण सत्य नहीं है, यदि ये बात सच होती तो हर बेइमान आदमी सुखी और सन्तुष्ट होता। इतना ही नहीं वह समाज में सबके द्वारा समानित भी किया जाता परन्तु ऐसा नहीं है। संसार के नियम, विधान अधर्म, अन्याय, पाखण्ड, झूठ को समाप्त करने के लिये बने हैं। किसी को भी सत्य बोलने के लिये दण्डित नहीं किया जाता, कोई व्यक्ति सत्य बोलता है, यह कहकर जेल में नहीं डाला जाता। सच्चे व्यक्ति को झूठे आरोपों में फंसाकर दण्डित किया जाता है या जेल भेजा जाता है। समाज में धर्म व सत्य का ही समान किया जाता है। व्यक्तिगत स्तर पर भी हम देखें तो पाते हैं कि हमें कोई झूठा, बेईमान, पाखण्डी कहे, यह किसी को भी स्वीकार नहीं होगा। यदि झूठ बोलना लाभदायक है तो झूठा कहलाना हानि कारक कैसे हो सकता है। कोई व्यक्ति दुराचरण में लिप्त पाया जाता है परन्तु उसे कोई दुराचारी कहे, यह उसे सह्य नहीं हो सकता। ये दोनों परस्पर विरोधी बातें प्रत्येक मनुष्य के भीतर ही हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर वह कभी अधर्म की ओर प्रेरित होता है और कभी धर्म की ओर। एक ही व्यक्ति ऐसा व्यवहार क्यों करता है, इसको समझना बहुत कठिन नहीं है। इसका उत्तर इस बात से मिल जाता है, आप किस कार्य को कर के क्या प्राप्त करते हैं। अधर्म, असत्य, पाखण्ड, झूठ से हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं। पहली वस्तु है, इन कार्यों को करके मनुष्य धन सपन्नता वैभव पाने की इच्छा रखता है, ऐसा करके वह सांसारिक वस्तुओं को पा जाता है। इस परिणाम के बाद उसे इसी मार्ग पर चलते हुए सन्तुष्ट रहना चाहिए, परन्तु इन सब बातों के साथ-साथ सच्चाई, ईमानदारी, धार्मिकता को अपने पास देखना चाहता है। इसका इतना ही अभिप्राय है मनुष्य अधार्मिक या अनैतिक होकर सन्तुष्ट नहीं हो सकता। दूसरा पक्ष है धार्मिकता से क्या मिलता है, इससे सन्तुष्टि, शान्ति, सुख का अनुभव मिलता है। मनुष्य की समस्या है शान्ति-सन्तुष्टि से भोजन, वस्त्र, आवास, औषधी, शिक्षा और दुनिया का जीवन उपयोगी सामान नहीं मिलता। भले ही संसार के अधिकांश लोगों का विचार ऐसा ही हो परन्तु यह विचार सत्य नहीं है। यह बात समझना भी कठिन नहीं है, मनुष्य झूठ बोलकर पाखण्ड करके जो पाता है, वह जीवन के लिये आवश्यक है। संसार में आवश्यकता का आधार शरीर है। संसार की सारी आवश्यकतायें शरीर से जुड़ी है। ईश्वर ने संसार में इतने पर्याप्त साधन साधन दिये हैं कि प्रत्येक मनुष्य नहीं प्रत्येक प्राणी की आवश्यकता पूर्ण हो सकती है। मनुष्य तीन स्तरों पर जीता है- प्रथम शरीर के स्तर पर, दूसरा मन के स्तर पर, तीसरा आत्मा के स्तर पर। आवश्यकता शरीर की होती है, इच्छा मन की होती है, तीसरा स्तर आत्मा है, जहाँ सुख, शान्ति, सन्तुष्टि का स्थान है। अब हम जो कर रहे हैं वह हम किसके लिये कर रहे हैं। शरीर की आवश्यकतायें बहुत सीमित है, इसके लिये हम जीवन भर का गणित करके भोजन, वस्त्र, आवाास का संग्रह करें तो जो आज हमारे पास है, उससे भी कम की आवश्यकता है। दूसरा हमारा साधन है मन वह हमारा है, हमें उसकी भी चिन्ता करनी चाहिए, उसकी आवश्यकता को हम इच्छा कहते हैं। वैसे भगवान ने मन को ऐसा बनाया है कि शरीर की भांति इसे भोजन, पानी, वस्त्र, आवास की आवश्यकता नहीं होती। शरीर के साधनों से उसका पोषण हो जाता है परन्तु उसकी इच्छा की पूर्ति के लिये शरीर को दण्ड भोगना पड़ता है। आपका पेट तो दो रसगुल्ले से भर जाता है परन्तु मन आपको छह खिला देता है, इसका दण्ड शरीर को भोगना पड़ता है। शरीर की आवश्यकतायें तो बहुत थोड़े साधनों से पूर्ण की जा सकती है परन्तु संसार के सारे साधन भी एक मन की इच्छा को पूरा नहीं कर पाते। थोड़ी सी ईमानदारी आत्मा को बहुत सारा सुख दे जाती है परन्तु जीवन भर की बेईमानी मनुष्य को कभी तृप्ति देने में समर्थ नहीं होती। संसार में मनुष्य अधर्म करने से तभी रुक सकता है या तो संसार की सारी सपत्ति उसे मिल जाय या मन तृप्त हो जाये, ये दोनों बातें अधर्म से सभव नहीं है, इसलिए मनुष्य कभी अधर्म करने से रुक नहीं पाता। विचारशील व्यक्ति के मन में यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है, शरीर की आवश्यकता थोड़ी क्यों मन की इच्छा अधिक क्यों। इसका उत्तर है, दोनों मनुष्य की आत्मा के साधन है। शरीर से इस जीवन की यात्रा होती है, मन से ससांर से मुक्ति की यात्रा करनी है। जैसे एक तोप गाड़ी में गाड़ी की आवश्यकता कम है तोप की अधिक किन्तु तोप का मुख अपनी सेना पर तो नहीं किया जा सकता है। हमने यही कर रखा, अपने मन को मुक्ति की ओर न करके संसार की ओर कर लिया है। तोप चलेगी तो गड्ढा होगा, फसेंगे हम ही, वही तो हो रहा है। मन आत्मा के साथ न होकर शरीर के साथ होता है, दुर्बल होता है, आत्मा के साथ होता है तो बलवान होता है। इस दुर्बलता में यह सदा भय और लोभ से ग्रस्त रहता है, परिणामस्वरूप अधर्म, अन्याय, अत्याचार, पाप में लिप्त रहता है। धर्म, न्याय, सत्य, आत्मा की आवश्यकता है, शरीर के कारण अधर्म को नहीं छोड़ पाता, आत्मा के कारण सत्य से भाग नहीं सकता। सारभूत बात तो इतनी है स्वामी तो आत्मा है। आत्मा का आदेश तो अन्तिम है। हम संसार में कितना भी झूठ क्यों न बोले कहना पड़ेगा कि यह सत्य है। न्यायालय में व्यक्ति साक्षी देता है, कितनी भी झूठी साक्षी दे परन्तु शपथ तो सत्य बोलने की ही खानी पड़ेगी। कोई कितना भी पाखण्ड, अधर्म, अन्याय, अत्याचार क्यों न करे, उसे न्याय और धर्म का ही नाम देना होगा। मनुष्य को विचार करने की बात पाखण्ड, झूठ, अधर्म, सब कुछ धर्म के नाम पर चढ़कर चल रहा है। यदि वह वास्तव में धर्म और सत्य हो तो उसमें कितना बल होगा। जब तक मनुष्य अपने मन को आत्मा से नहीं जोड़ेगा तब तक वह भय और प्रलोभन से मुक्त नहीं हो सकता। मनुष्य झूठ बोलकर पाखण्ड करके अपने को बुद्धिमान समझता है परन्तु वास्तविकता तो यह है जो जितना दुर्बल होता है, वह उतना ही अधिक झूठा और बेईमान होता है। व्यक्ति असत्य का सहारा तभी लेता है जब वह दुर्बल होता है। मनुष्य का भय सत्य से, ज्ञान से दूर होता है, ज्ञान में जितना-जितना सत्य ज्ञान आता जायेगा, मनुष्य निर्भय होता जायेगा। तभी मनुष्य पूर्ण धर्मात्मा और पाखण्ड रहित बन सकेगा। शरीर के स्तर पर जीने वाला दास होता है, मन के स्तर पर जीने वाला पाखण्डी होता है और आत्मा के स्तर पर जीने वाला धार्मिक होता है। मन के स्तर पर जीने वाले धर्म का उपयोग करते हैं परन्तु साधनों में, संसार में जीते हैं। वे धर्म-अधर्म जानते हुए भी दुर्योधन की तरह अधर्म करने के लिये विवश हैं, दुर्योधन कहता है- धर्म क्या है? जानता हूँ, करने की इच्छा नहीं होती, अधर्म को भी पहचानता हूँ, दूर होने का मन नहीं करता, वह हम सबका भी यही हाल है, हम भी कह उठते हैं-

जानामि धर्मं न च मे प्रवृतिः जानायधर्मं न च मे निवृत्तिः।

केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।

– धर्मवीर

देश के कर्णधार हमारे शिक्षक व शिष्य कैसे हों?’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

शिक्षा देने व विद्यार्थियों को शिक्षित करने से अध्यापक को शिक्षक व शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को शिष्य कहा जाता है। आजकल हमारे शिक्षक बच्चों को अक्षर व संख्याओं का ज्ञान कराकर उन्हें मुख्यतः भाषा व लिपि से परिचित कराने के साथ  गणना करना सिखाते हैं। आयु वृद्धि के साथ साथ बच्चा भाषा, कविता, गणित सहित विज्ञान व कला आदि विषयों को भी अपने शिक्षकों से पढ़ता है और आगे चल कर वह पुस्तकें पढ़कर व शिक्षकों के मार्गदर्शन से चिकित्सक, इंजीनियर, कम्प्यूटर सेवी, अध्यापक, व्यापारी व उद्योगपति आदि बन जाता है। हमारी वर्तमान जो शिक्षा प्रणाली है, उसमें बहुत कम लोग ही सत्य व चारित्रिक नियमों का पालन करने वाले बनते हैं। आजकल देखा जाता है कि बात बात पर झूठ बोलना एक आम बात हो गई है। यदि यह कार्य अशिक्षित करते तो समझ में आता, परन्तु बड़ी बड़ी उपाधि के धारणकर्ता व उच्च पदों पर प्रतिष्ठित लोग प्रायः असत्य बोलते हैं व अपने अपने कार्यों में मिथ्याचार व भ्रष्टाचार आदि में लिप्त पाये जाते हैं। इस असत्य व्यवहार व मिथ्याचार का कारण हमें एक ओर शिक्षा प्रणाली व दूसरी ओर शिक्षकों का निजी आचारण, जीवन व चरित्र अनुभव होता है। जैसा शिक्षक होगा वैसा ही कुछ व अधिक प्रायः शिष्य बनता है।

 

हमारा देश ज्ञान की दृष्टि से अन्य देशों से अधिक भाग्यशाली रहा है। प्राचीन काल में हमारे देश के लोगों के जीवन व चरित्र आदर्श व महान होते थे जिसका प्रमुख कारण वेदों का ज्ञान, विद्यार्थियों द्वारा उसका अध्ययन व आचार्यों के उच्च जीवन एवं चरित्र होते थे। आज 1 अरब से अधिक जनसंख्या हो जाने पर भी किसी के बारे में यह कहना कठिन है कि अमुक व्यक्ति सत्य का ही व्यवहार करता है एवं असत्य का किंचित व्यवहार नहीं करता और इसका चरित्र आदर्श व बेदाग है। इसका कारण हमें शिक्षा में वैदिक मूल्यों की उपेक्षा व पाश्चात्य मूल्यों की बहुलता सहित हमारे शिक्षकों का ज्ञान व अज्ञानवश पाश्चात्य मूल्यों के प्रति प्रेम अनुभव होता है। आईये, वैदिक काल में अध्यापक और अध्यापिकायें कैसे होते थे व होने चाहिये, यह वेदों के मर्मज्ञ, आदर्श जीवन व चरित्र के धनी महर्षि दयानन्द के शब्दों में जानते हैं।

महाभारतान्तर्गत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर के अध्याय 33 के 6 श्लोकों को प्रस्तुत कर वह सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में लिखते हैं कि जिस को आत्मज्ञान सम्यक् हो अर्थात् जो निकम्मा आलसी कभी न रहे, सुख दुःख, हानि लाभ, मान-अपमान, निन्दा स्तुति में हर्ष शोक कभी न करे, धर्म ही में नित्य निश्चित रहे, जिस के मन को उत्तम-उत्तम पदार्थ अर्थात् विषय सम्बन्धी वस्तुयें आकर्षित न कर सकें, वही पण्डित वा शिक्षक कहाता है। सदा धर्मयुक्त कर्मों का सेवन, अधर्मयुक्त कामों का त्याग, ईश्वर, वेद, सत्याचार की निन्दा न करनेहारा, ईश्वर आदि में अत्यन्त श्रद्धालु हो, वही पण्डित वा अध्यापक-अध्यापिका का कर्तव्य-अकर्तव्य अथवा कर्म है। जो कठिन विषय को भी शीघ्र जान सके, बहुत कालपर्यन्त शास्त्रों को पढ़े सुने और विचारे, जो कुछ जाने उस को परोपकार में प्रयुक्त करे, अपने स्वार्थ के लिये कोई काम न करे, बिना पूछे वा विना योग्य समय जाने दूसरे के अर्थ में सम्मति न दे, ऐसा व्यक्ति ही प्रथम प्रज्ञान पण्डित, शिक्षक, अध्यापक व अध्यापिका को होना चाहिये। अध्यापक व अध्यापिका ऐसे हों कि जो प्राप्ति के अयोग्य की इच्छा कभी न करे, नष्ट हुए पदार्थ पर शोक न करे, आपत्काल में मोह को न प्राप्त हों अर्थात् व्याकुल न हों। यह गुण बुद्धिमान पण्डित के हैं और ऐसे ही अध्यापक व अध्यापिकायें होंवे। जिसकी वाणी सब विद्याओं और प्रश्नोत्तरों के करने में अतिनिपुण व विचित्र, शास्त्रों के प्रकरणों का वक्ता, यथायोग्य तर्क और स्मृतिमान्, ग्रन्थों के यथार्थ अर्थ का शीघ्र वक्ता हो वही पण्डित वा अध्यापक कहलाता है। जिस व्यक्ति की प्रज्ञा सुने हुए सत्य अर्थ के अनुकूल और जिस का श्रवण बुद्धि के अनुसार हो, जो कभी आर्य अर्थात् श्रेष्ठ धार्मिक पुरुषों की मर्यादा का छेदन न करें, वही पण्डित वा अध्यापक आदि संज्ञा को प्राप्त होवे। प्रकरण की समाप्ति पर महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जहां ऐसे-ऐसे स्त्री पुरुष पढ़ाने वाले होते हैं वहां विद्या धर्म और उत्तमाचार (सत्य भाषण एवं मिथ्याचार-भ्रष्टाचार रहित व्यवहार आदि) की वृद्धि होकर प्रतिदिन आनन्द ही बढ़ता रहता है। हमारे शिक्षक और बुद्धिमान लोग स्वयं जान सकते हैं कि शिक्षक व अध्यापक-अध्यापिकाओं के इन गुणों में से कितने गुण आजकल के शिक्षकों में पाये जाते हैं? क्या शिक्षकों के महर्षि दयानन्द वर्णित यह गुण आज अप्रासंगिक हो गये हैं? ऐसा नहीं है। इसका प्रथम कारण तो हमारे शिक्षाविदों की इनसे अनभिज्ञता व दूसरा पाश्चात्य मूल्यों के प्रति गहन प्रेम है और इसके अतिरिक्त शिक्षण व्यवसाय से जो सुख सुविधायें उन्हें मिल रही है, उनका राग भी एक प्रमुख कारण है। हम महर्षि दयानन्द के प्रति इन वैदिक, सनातन व भारतीय मूल्यों को महाभारत से निकाल कर हिन्दी में अर्थ सहित जनसाधारण में प्रस्तुत करने के लिए सभी देशवासियों पर उनका उपकार मानते हैं। महर्षि द्वारा प्रस्तुत विचारों पर ध्यान देने पर हमें उनके गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती और स्वयं स्वामी दयानन्द ही सच्चे अध्यापक, शिक्षक, गुरु व आचार्य और इन सभी गुणों से सम्पन्न दिखाई देते हैं।

 

अध्यापकों के गुणों का वर्णन करने के बाद वह पढ़ाने में अयोग्य मूर्ख शिक्षकों का वर्णन भी करते हैं जिसका आधार भी उन्होंने महाभारत के उद्योगपर्व के अध्याय 33 के दो श्लोकों संख्या 30 व 36 को बनाया है। वह लिखते हैं कि जिसने कोई शास्त्र न पढ़ा न सुना, अतीव घमण्डी, दरिद्र होकर बड़े-बड़े मनोरथ करनेहारा, विना कर्म से परार्थों की प्राप्ति की इच्छा करने वाला हो, उसी को बुद्धिमान लोग मूढ़ कहते है। ऐसे लोग पढ़ाने योग्य नहीं होते। आजकल समाज में ऐसे बहुत से अध्यापक हमें देखने को मिल जाते हैं। दूसरे श्लोक का अर्थ करते हुए वह लिखते हैं कि जो विना बुलाये सभा वा किसी के घर में प्रविष्ट हो, उच्च आसन पर बैठना चाहे, विना पूछे सभा में बहुत सा बोले, विश्वास के अयोग्य वस्तु वा मनुष्य में विश्वास करे, वही मूढ़ और सब मुनष्यों में नीच मनुष्य कहाता है। इन 2 श्लोकों के अर्थों पर टिप्पणी कर दयानन्द जी कहते हैं कि जहां ऐसे पुरुष अध्यापक, उपदेशक, गुरु और माननीय होते हैं वहां अविद्या, अधर्म, असभ्यता, कलह, विरोध और फूट बढ़ कर दुःख ही बढ़ता जाता है। शिक्षक दिवस अभी 3 दिन पूर्व ही व्यतीत हुआ है। हम समझते हैं कि प्रत्येक शिक्षक दिवस पर शिक्षक के इन गुणों व अवगुणों पर विचार कर अवगुणों के त्याग व गुणों के ग्रहण की सभी शिक्षकों को प्रतिज्ञा लेनी चाहिये।

 

विद्यार्थियों के लक्षण भी महर्षि दयानन्द ने महाभारत के आधार पर लिखे हैं। वह हैं कि शरीर और बुद्धि में जड़़ता, नशा, मोह, किसी वस्तु में फंसावट, चपलता और इधर-उधर की व्यर्थ कथा करना सुनना, पढ़ते पढ़ाते रुक जाना, अभिमानी, अत्यागी होना ये सात दोष विद्यार्थियों में होते हैं। जो ऐसे दोषों से युक्त विद्यार्थी होते हैं, उनको विद्या कभी नहीं आती। सुख भोगने की इच्छा करने वाले को विद्या कहां? और विद्या पढ़ने वाले को सुख कहां? क्योंकि विषय-सुखार्थी विद्या को और विद्यार्थी विषयसुख को छोड़ दें। ऐसा किये विना विद्या कभी नहीं आ सकती। कैसे विद्यार्थियों को विद्या आती है, इसका उत्तर है कि जो सदा सत्याचार में प्रवृत्त, जितेन्द्रिय और जिन का ब्रह्मचर्य सच्चा व अखण्डित हो, वे ही विद्वान होते हैं। इसलिये शुभ लक्षणयुक्त अध्यापक और विद्यार्थियों को होना चाहिये। महर्षि दयानन्द अपने विचार व मान्यतायें बताते हुए लिखते हैं कि अध्यापक लोग ऐसा यत्न किया करें कि जिससे विद्यार्थी लोग सत्यवादी, सत्यमानी, सत्यकारी सभ्यता, जितेन्द्रिय, सुशीलतादि शुभगुणयुक्त शरीर और आत्मा का पूर्ण बल बढ़ा के समग्र वेदादि शास्त्रों में विद्वान् हों। सदा उन की कुचेष्टा छुड़ाने में और विद्या पढ़ाने में चेष्टा किया करें और विद्यार्थी लोग सदा जितेन्द्रिय, शान्त, पढ़ानेहारों में प्रेम, विचारशील, परिश्रमी होकर ऐसा पुरुषार्थ करें जिससे पूर्ण विद्या, पूर्ण आयु, परिपूर्ण धर्म और पुरुषार्थ करना आ जाय। यह कार्य व इनको करके अध्यापक ब्राह्मण वर्ण के कहलाते है।

 

हम समझते हैं कि महर्षि दयानन्द के उपर्युक्त विचारों व मान्यताओं में आदर्श गुंरु व शिष्य का चित्र उपस्थित हुआ है। हमारे शिक्षाविदों को इस पर विचार कर इसका शिक्षा प्रणाली में समावेश करना चाहिये। कम आयु के बच्चों में सदाचार व सदग्रन्थों वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति एवं सत्यार्थप्रकाश आदि की शिक्षा आवश्यक है। इनको पूर्ण वा आंशिक ही पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाना चाहिये तभी हमें अच्छे शिक्षक व शिष्य प्राप्त होंगे। समूचे देश में संस्कृत अनिवार्य विषय के रूप से पढ़ाई जाये, इससे शिक्षा की बहुत सेवा होगी। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

फोनः09412985121

क्या राजा दशरथ शिकार के लिए गये थे ? क्या राजा दशरथ ने हिरण के धोखे में श्रवण कुमार को मार दिया था ?

कुछ मासाहारी ,मुस्लिम ,राजपूत समुदाय (केवल मासाहारी ),कामरेड वादी ,संस्कृति द्रोही लोग सनातन धर्म में मासाहार सिद्ध करने के लिए राजा दशरथ द्वारा शिकार पर जाना ओर हिरण के धोखे में श्रवण को मारने का उलेख करते है | लेकिन उनकी यह बात बाल्मिक रामायण के अनुरूप नही है वे लोग आधा सच दिखाते है ओर आधा छुपाते है | राज्य व्यवस्था व न्याय के निपुण आचार्य चाणक्य (ऋषि वात्साययन ) भी अपने सूत्रों में शिकार का निषेध बताते हुए लिखते है – ” मृगयापरस्य धर्मार्थो विनश्यत ” (चाणक्यसूत्राणि ७२ ) अर्थात आखेट करने वाले ओर व्यवसनी के धर्म अर्थ नष्ट हो जाते है | जब इस काल के आचार्य निषेध करते है तब दशरथ के समय जब एक से बढ़ एक ऋषि थे जेसे वशिष्ठ ,गौतम ,श्रृंगी ,वामदेव ,विश्वामित्र तब कैसे दशरथ शिकार कर सकते है | रामयाण के अनुसार दशरथ वन में शिकार के लिए नही बल्कि व्यायाम के लिए गये थे जेसा कि बाल्मिक रामायण के अयोध्याकाण्ड अष्टचत्वारिश: सर्ग: में आया है –
तस्मिन्निति सूखे काले धनुष्मानिषुमान रथी |
व्यायामकृतसंकल्प: सरयूमन्वगान्नदीम ||८||
अथान्धकारेत्वश्रौष जले कुम्भस्य पूर्यत: |
अचक्षुर्विषये घोष वारणस्येवनर्दत: ||
अर्थ – उस अति सुखदायी काल में व्यायाम के संकल्प से धनुषबाण ले रथ पर चढ़कर संध्या समय सरयू नदी के तट पर आया ,वहा अँधेरे में नेत्रों की पहुच से परे जल से भरे जाते हुए घट का शब्द मैंने इस प्रकार सूना जेसे हाथी गर्ज रहा हो ||
यहा पता चलता है कि वे व्यायाम हेतु गये थे ओर उन्हें जो शब्द सुनाई दिया वो हाथी की गर्जना समान सुनाई दिया न कि हिरण के समान …
राजा दशरथ इसे हाथी समझ बेठे और उन्होंने इसे वश में करना चाहा | ये हम सभी जानते है कि राजाओं की सेना में हाथी रखे जाते है उनहे प्रशीक्षण दिया जाता है ये हाथी जंगल से पकड़े जाते है और हाथी पकड़ने के लिए उसे या तो किसी जगह फसाया जाता है या फिर बेहोश कर लाया जाता है अत: हाथी को बेहोश कर वश में करने के लिए दशरथ ने तीर छोड़ा न कि जीव हत्या या शिकार के उद्देश्य से |
हाथी को सेना में रखने का उद्देश्य चाणक्य अपने अर्थशास्त्र में बताते है –
” हस्तिप्रधानो हि विजयो राज्ञाम | परानीकव्यूहदुर्गस्कन्धावारप्रमर्दना ह्मातिप्रमाणशरीरा: प्राणहरकर्माण हस्तिन इति ||६ || (अर्थशास्त्र भूमिच्छिद्रविधानम ) अर्थात हस्तिविज्ञान के पंडितो के निर्देशानुसार श्रेष्ठ लक्षणों वाले हाथियों को पकड़ते रहने का अभियान सतत चलाना चाहिए ,क्यूंकि श्रेष्ठ हाथी ही राजा की विजय के प्रधान और निश्चित साधन है | विशाल और स्थूलकाय हाथी शत्रु सेना को , शत्रुसेना की व्यूह रचना को दुर्ग शिविरों को कुचलने तथा शत्रुओ के प्राण लेने में समर्थ होते है और इससे राजा की विजय निश्चित होती है |
राजा दशरथ ने भी हाथी को प्राप्त करने के लिए बाण छोड़ा था न कि मारने के लिए इसकी पुष्टि भी रामयाण के अयोध्याकाण्ड अष्टचत्वारिश सर्ग से होती है –
ततोअहम शरमुध्दत्य दीप्तमाशीविषोपमम |
शब्द प्रति गजप्रेप्सुरभिलक्ष्यमपातयम ||
तत्र वागुषसि व्यक्ता प्रादुरासीव्दनौकस: |
हां हेति पततस्तोये वाणाद्व्यथितमर्मण:||
राजा दशरथ कहते है कि तब मैंने हाथी को प्राप्त करने की इच्छा से तीक्ष्ण बाण निकालकर शब्द को लक्ष्य में रखकर फैंका ,और जहा बाण गिरा वहा से दुखित मर्म वाले ,पानी में गिरते हुए मनुष्य की हा ! हाय ! ऐसी वाणी निकली ||
तो पाठक गण स्वयम ही देखे राजा दशरथ हाथी को वश में प्राप्त करना चाहते थे लेकिन ज्ञान न होने से तीर श्रवण को लग गया | ओर सम्भवत तीर ऐसा होगा (या तीर में लगा कोई विष ) जिससे हाथी आदि मात्र बेहोश होता है लेकिन मनुष्य उसे सह नही पाता और प्राण त्याग देता है इसलिए श्रवण उस तीर के घात को सह नही सका और प्राण त्याग दिए |
अत: शिकार और मासाहार के प्रकरण में दशरथ का उदाहरण देना केवल एक धोखा मात्र है |