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मैं और मेरा देश’ -मन मोहन कुमार आर्य

 

मैं अपने शरीर में रहने वाला एक चेतन तत्व हूं। आध्यात्मिक जगत् में इसे जीवात्मा कह कर पुकारा जाता है। मैं अजन्मा, अविनाशी, नित्य, जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसा हुआ तथा इससे मुक्ति हेतु प्रयत्नशील, चेतन, स्वल्प परिमाण वाला, अल्पज्ञानी एवं ससीम, आनन्दरहित, सुख-आनन्द का अभिलाषी तत्व हूं। मेरा जन्म माता-पिता से हुआ है। मेरे माता-पिता व इस संसार को, जिसमें मुझे भेजा गया है, पहले से ही रचा व बनाया गया है। पहले सृष्टि की रचना किसी सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और चेतन सत्ता ने की, उसके पश्चात वनस्पति और पशु व पक्षी आदि प्राणियों की रचना करके मनुष्योत्पत्ति की। विगत 1,96,08,53,115 वर्षो से यह क्रम अनवरत जारी है। मुझे, मेरे माता-पिता को व इस सृष्टि को बनाने वाला कौन है? इसका उत्तर शास्त्रों के अध्ययन, चिन्तन-मनन व विवेक से मिलता है कि कोई सत्य, चेतन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, निराकार, कारण प्रकृति का स्वामी व नियंत्रक, नित्य, अनुत्पन्न, अविनाशी, सर्व-अन्तर्यामी, सूक्षमातिसूक्ष्म तत्व है जिसे हम ईश्वर, परमात्मा, भगवान, सृष्टिकर्ता, गाड, खुदा, अल्लाह, रब, मालिक आदि नामों से जानते हैं। यह ईश्वर सत्ता एक ही हो सकती है, एक से अधिक नहीं, ऐसा सृष्टि को देखकर व विचार करने पर ज्ञात होता है। सृष्टि के आरम्भ से अब तक इस जगत में अनेक श्रेष्ठ पुरूषों ने जन्म लिया है जिनका यश व कीर्ति आज तक विद्यमान है। यह सभी सत्याचारी, अन्याय से पीडि़त लोगों की रक्षा करने वाले, त्यागी, तपस्वी, ईश्वरभक्त, वेदभक्त एवं वेदानुयायी, माता-पिता व आचार्यो के प्रति सेवा व भक्ति-भावना रखने वाले थे। इनमें से कुछ ज्ञात महापुरूष मनु, राम, कृष्ण, चाणक्य, दयानन्द, सरदार पटेल, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, राम प्रसाद बिस्मिल, चन्द्र शेखर आजाद, बन्दा बैरागी, भगत सिंह आदि हुए हैं। हमें महापुरूषों के जीवन से प्रेरणा लेकर उनके गुणों को धारण करना है, यही उन महापुरूषों की पूजा है एवं स्तुति-प्रार्थना-उपासना-ध्यान आदि केवल ईश्वर का ही करना है और यही ईश्वर की पूजा है।

वेदादि साहित्य का अध्ययन करने पर हमने पाया कि हमारा जन्म भोग व अपवर्ग के लिए हुआ है। भोग का अर्थ है कि हमने अपने पूर्व जन्मों में जो अच्छे-बुरे कर्म किये थे उन कर्मों में जिन कर्मों का भोग अभी तक हमें प्राप्त नहीं हुआ है, वह हमारा प्रारब्ध है। उसे हमें इस जन्म व अगले जन्मों में भोगना है। इन कर्मो के फलों को भोगने के साथ ईश्वर ने हमें एक सुविधा यह भी दी है कि यदि हम स्वाध्याय से अपने ज्ञान को बढ़ा कर एवं यथार्थ वेदोक्त स्तुति-प्रार्थना-उपासना से ध्यान व समाधि को सिद्ध कर ईश्वर का साक्षात्कार कर लेते हैं तो हमारी मुक्ति व हमें मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी। मुक्ति की अवधि एक परान्तकाल अर्थात् 31,10,40,00,00,00,000 वर्ष वा इकतीस नील दस खरब चालीस अरब वर्ष होती है। उसके बाद हमारा पुनः जन्म होगा। इस मुक्ति की अवधि में हमें किंचित भी दुःख की अवस्था से नहीं गुजरना पड़ेगा। यह उपलब्धि हमारे शास्त्राध्ययन एवं उसके अनुसार जीवन-यापन व योग साधना से प्राप्त होती है। यहां यह भी लिखना उचित होगा कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक और यहां से मध्य काल में बौद्ध मत के आरम्भ तक सारे विश्व में केवल वैदिक धर्म व संस्कृति का ही प्रचार-प्रसार-पालन व धारण सर्वत्र रहा है। महाभारत काल के पश्चात अज्ञानतावश बौ़द्ध, जैन, पौराणिक व अन्य दूरस्थ देशों में ऐसे ही भिन्न भिन्न मतों का प्रादुर्भाव हुआ। यदि सभी मतों के व्यक्ति मिल कर परस्पर मित्रता व निष्पक्षता से विचार-विमर्श कर मनुष्य धर्म का निर्धारण करें तो निश्चित रूप से वैदिक धर्म व मत को ही सर्वसम्मति से स्वीकार करना होगा और तब वेदेतर मत के लोगों को जीवन में ईश्वरीय आनन्द की उपलब्धि एवं उसके पश्चात मुक्ति प्राप्त हो सकेगी।

 

मेरा जन्म आज से लगभग 63 वर्ष पूर्व भारत में हुआ। तब से मैं यहां रह रहा हूं। शैषव अवस्था ने माता पिता ने धर्म व रीति रिवाज सम्बन्धी जो बातें बताई व समझाईं, उन्हें उसी रूप में बिना सोचे विचारे मैंने स्वीकार कर लिया और मानता रहा। विद्यालय की शिक्षा के समय एक पड़ोसी आर्य समाजी मित्र मिल गये, 18 वर्ष की आयु में उनके साथ सायंकाल भ्रमण की आदत पड़ गई। यदा-कदा वह यत्र-तत्र हो रहे प्रवचनों में ले जाया करते थे और आर्य समाजी दृष्टिकोण से उनकी समालोचना करते थे। आरम्भ में पौराणिक संस्कारों के कारण मुझे वह प्रायः उचित नहीं लगती थी। यदा-कदा आर्य समाज भी जाना होता था और वहां यज्ञ, भजन व विद्वानों के विचारों को सुना और पुस्तकें क्रय करके स्वाध्याय किया। धीरे-धीरे पता नहीं कब आर्य समाज के वेद संबंधी विचारों ने मेरे मन व मस्तिष्क पर अधिकार कर लिया और पौराणिक अज्ञान-अन्धविश्वास व कुरीतियों से युक्त बातें मन से दूर चली गईं। मेरा अब दृण विश्वास है कि ईश्वर की सगुण व निर्गुण भक्ति के स्थान पर पौराणिक रीति से मैं जो मूर्ति पूजा व कर्मकाण्ड आदि करता था, वह अधिकांश असत्य, अनावश्यक और अनुचित था। आज मैं आत्मिक सन्तोष का अनुभव करता हूं। यह सब मुझे सत्यार्थ प्रकाश आदि अनेक ग्रन्थों के स्वाध्याय व विद्वानों के प्रवचनों तथा चिन्तन व मनन से प्राप्त हुआ है। आत्मा व मन इस बात से सन्तुष्ट हैं कि हमें इस संसार व ईश्वर के बारे में यथार्थ ज्ञान है।

 

जो ज्ञान व संस्कार अब हमारे हैं वह भारत के सभी लोगों व विश्व के लोगों के नहीं है। वहां इस प्रकार के सत्य व परम उपयोगी विचारों को जानने व उसके प्रचार प्रसार की किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं है। यदि समुचित व्यवस्था होती तो मुझे लगता है कि विद्यार्थी काल में जिस प्रकार से मेरा बौद्धिक मतान्तरण हुआ, उसी प्रकार शायद संसार के सभी लोगों का हो सकता था। मुझे इन विचारों को मानने या अपनाने के लिए किसी ने जोर-जबरस्ती नहीं की अपितु यह स्वतः हुआ और तब हुआ जब मेरी आत्मा ने उसे स्वीकार किया। मुझे लगता है और यह वास्तविकता है कि संसार में वैदिक विचारों, सिद्धान्तों व मान्यताओं का प्रचार नगण्य है एवं दूसरे मतानुयायी योजनाबद्ध रूप से वेद एवं पौराणिक लोगों को मतान्तरित कर उन्हें स्वमत में दीक्षित कर इस देश की राजनैतिक सत्ता को हथिया कर अपना छद्म उद्देश्य पूरा करना चाहते हैं। इसके लिए वह अन्दर ही अन्दर सब प्रकार के कुत्सित कार्य भी करते हैं परन्तु बाहर से स्वयं को बहुत ही अच्छा व मानवता का सेवक दिखाते हैं।

 

मुझे लगता है कि मेरा कर्तव्य है कि ईश्वर से प्राप्त वेद एवं वैदिक ज्ञान की रक्षा होनी चाहिये, कहीं यह विलुप्त न हो जाये। इसके लिए हमें हर सम्भव प्रयास करना है। अपनों को मनाना है व उन्हें इस विश्व-वरेण्य संस्कृति के महत्व को हृदयगंम कराना है। हमें विश्व के अन्य मतावलम्बी बन्धुओं को भी आमन्त्रित करना है कि वह भी ईश्वर, जीवात्मा के स्वरूप पर हमसे प्रेमपूर्वक संवाद व चर्चा करें। यदि उन्हें हमारे विचारों में कहीं कोई कमी दृष्टिगोचर होती है तो वह हमें बतायें, हम सदिच्छा से उसे समझ कर उसका समाधान व निराकरण करेंगे। यह तभी सम्भव होगा जब हम स्वामी दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी अमर स्वामी, पं. शान्तिप्रकाश, पं. गणपति शर्मा जैसा स्वयं को बनायें। इसके लिए हमें अपने गृहस्थ जीवन में भी और उसके पश्चात 50 या 60 वर्ष की आयु में गृहस्थ व व्यवसाय से सेवानिवृत्त होकर घर में रहते हुए या वानप्रस्थी की भांति इस कार्य में जुटना पड़ेगा। गृहस्थ व सेवाकाल व व्यवसाय के काल में भी इस कार्य को यथाशक्ति करना होगा तभी सेवा निवृत्ति के पश्चात यह काम कर सकेंगे। यदि इसकी उपेक्षा करेंगे तो वह दिन दोबारा आ सकता है जब बौद्धों के प्रचार की भांति हमारे सभी बन्धु भिन्न-2 मतों के अनुयायी बन जायेंगे और उन मतों के लोग हमारी वैदिक धर्म व संस्कृति को नेस्तनाबूद कर देंगे। ऐसा पहले भी करने के प्रयास हुए हैं, वह आंशिक सफल भी रहे हैं, जिससे हमें अपूर्व हानि हुई है अन्यथा आज का इतिहास कुछ और ही होता। इस बात की कोई गारण्टी नहीं है और न हो सकती है, कि ऐसा कभी नहीं होगा, अतः सावधान होकर अपने कर्तव्य का पालन जैसा कि हमारे पूर्व पुरूषों ने किया है, हमें भी करना है।

 

हमने इस लेख के शीर्षक में मैं और मेरा देश शब्दों का प्रयोग किया है। इन शब्दों से हमारा तात्पर्य वैदिक संस्कारों से युक्त मैं व मेरे देशवासी व विश्व-वासियों से है जो सत्य, यथार्थ, सृष्टि क्रम के अनुरूप सिद्धान्तों व मान्यताओं को जाने और अपने कल्याणार्थ उसे माने। जब हमारे देश के सभी या अधिकांश लोग वैदिक मतानुयायी हो जायेगें तब यह देश विश्व शान्ति का धाम बन जायेगा। इसके लिए हमें सत्य, प्रेम, सहयोग, परोपकार, सेवा, शिक्षा, वेद प्रचार का प्रयोग करना है। ईश्वर की शक्ति व प्रेरणा हमारे साथ है, अतः हमें चिन्ता नहीं करनी है। हमारी आत्मा अमर है, यह हमारा दृण विष्वास है, अतः भय का काई स्थान नहीं। सत्य व धर्म की रक्षा व प्रचार के मार्ग में चलकर यदि कुछ अप्रिय भी  होता है तो ईश्वर से हमें उसकी क्षतिपूर्ति ही नहीं होगी अपितु असीम सुख व आनन्द की उपलब्धि होगी। अतः आर्य समाज के सभी लेागों को अपने मतभेद भुलाकर विचार मन्थन कर वह योजना बनानी होगी जिससे हम देश के सभी मतों के विद्वानों को अपना सत्य-सन्देश देकर उन्हें आलोचना व समीक्षा का अवसर दें और निवेदन करें कि यदि वह आलोचना नहीं कर रहे हैं और उन्हें हमारी मान्यतायें सत्य लगती हैं तो वह उन्हें स्वीकार कर हमारे साथ मिलकर कार्य करें। ऐसा होने पर ही देश से भ्रष्टाचार, लूट, स्वार्थ का कारोबार, सामाजिक बुराईयां, आतंकवाद, अनाचार व दुराचार आदि समाप्त होगा। सामाजिक अन्याय दूर होगा, जातिवाद, ऊंच-नीच की भावना समाप्त होगी, शोषण व अन्याय समाप्त होगा और हमारा देश ऐसा होगा जिससे न केवल हम ही प्रसन्न

व सन्तुष्ट होगें अपितु समस्त देशवासी सुःख से अपना जीवन व्यतीत कर सकेंगे। आईये, इस विषय पर चिन्तन करते हैं और जिससे जो बन सकता है उसके लिए अपने जीवन से समय निकाल कर व अपनी सामथ्र्य के अनुसार धन का दान कर अपना कर्तव्य निभायें। हम सत्य पर हैं अतः ईश्वर हमारे साथ है, साथ रहेगा, साथ देगा, इसकी आशंका नहीं होनी चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

दूरभाषः 09412985121

 

गो-वध व मांसाहार का वेदों में कही भी नामोनिशान तक नहीं है: शिवदेव आर्य

 

प्रायः लोग बिना कुछ सोचे समझे बात करते हैं कि वेदों में गो-वध तथा गो-मांस खाने का विधान है। ऐसे लोगों को ध्यान में रखकर कुछ लिखने का यत्न कर रहा हूॅं, आज तक जो भी ऐसी मानसिकता से घिरे हुऐ लोग हो वे जरुर इसको पढ़ कर समझने का प्रयास करें। क्षणिक स्वार्थ व लाभ के लिए वेद व गोमाता का नाम अपवित्र करने की कोशिश न करें। यदि लेशमात्र भी संदेह है तो इन मन्त्रों को समझों-

प्रजावतीः सुयवसे रुशन्तीः शुध्द अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः।

मा वस्तेन ईशत माघशंसः परि वो रुद्रस्य हेतिर्वृणक्तु।। (अथर्व.-7.75.1)

इस मन्त्र का देवता अघ्न्या’ है। जो कि वैदिक कोश के अनुसार गाय का मुख्य नाम है। इसका निर्वचन करते हुए लिखा है – न हन्तव्या भवति अर्थात् गाय इतना अधिक उपकारी पशु है कि इस का वध करना पाप ही नहीं अपितु महापाप है।

इस मन्त्र का अर्थ इस प्रकार होगा कि– हे मनुष्यो! तुम्हारे घरों में प्रजावतीः उत्तम सन्तान वाली, सुयवसे (जौ) के क्षेत्रों मे चरने वाली और शुध्द जलों को पीने वाली गौ हो और इसकी सुरक्षा ऐसी हो कि कोई चोर उन्हें चुरा न सके और पापी डाकू आदि गाय को अपने वश में न कर सके । रुद्र परमात्मा की हेति=वज्रशक्ति तुम्हारे चारों तरफ सदा विद्यमान रहे।

यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्।

तं त्वा सीसेन विध्यामः।। (अथर्व.-1.16.4)

अर्थात् राजन्! यदि कोई मनुष्य हमारी गाय, अश्व आदि पशुओं को मारता है, उसे हत्यारे को (सीसेन) कारागार या कठोर दण्ड देकर हमारी रक्षा करो।

पयः पशूनां रसमोषधीनाम्।

बृहस्पतिः सविता मे यच्छतात्।। (अथर्व.-19.31.5)

अर्थात् हे सवोत्पदाक परमेश्वर! हम सब को जीवन निर्वाह के लिए गाय का दूध और औषधियों का रस भोजन के लिए प्रदान करो।

 

या वो देवाः सूर्ये रुचो गोष्वश्र्वेषु या रुचः।

इन्द्राग्नी ताभि सर्वाभी रुचं नो धत्तबृहस्पते।। (यजु.-13.23)

इस मन्त्र के माध्यम से कहने का यत्न किया गया है कि गो, अश्व आदि प्राणियों से सदैव प्रीति किया करें।

घृतं पीत्वा मधु चारु गव्यं पितेव पुत्रमभिरक्षताद् इमान् स्वाहा।। (यजु.-35.17)

अर्थात् हे (अम्बे) राजन्! जैसे पिता अपने पुत्रों की रक्षा करता है वैसे आप गाय के मधुर और रोगनाशक दूध घृत आदि की व्यवस्था कर हमारी रक्षा करें।

दोग्ध्री धेनुर्वोढाऽन…………जायताम्।(यजु.-22.22)

इस मन्त्र में राष्ट्रिय प्रार्थना है – हमारे देश में प्रचुर दूध देने वाली गोएॅं भार ढोने में समर्थ तथा कृषि के योग्य बैल और यानों में सक्षम और शीघ्रगामी घोड़े पैदा हों।

मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाॅं2ऽअस्तु सूय्र्यः।

माध्वीर्गावो भवन्तु नः।। (यजु.-13.29)

गाय से जैसी कल्याणकारी किरणें हम सब मनुष्य के लिए निकलती हैं, ठीक ऐसी ही कल्याणकारी किरणों को प्राप्त करने के लिए प्रशंसित कोमलता गुणयुक्त वनस्पतियों से होम करो।

इस मन्त्र से स्पष्ट प्रतीत होता है कि गाय के दुग्ध, मूत्र, मल आदि से उस गाय के अन्दर से कल्याणकारी किरणें निकलती हैं, जो हम सब के लिए अत्यन्त लाभप्रद हैं।

इमं मा हिंसीद्र्विपादं पशुं सहस्त्राक्षो मेधाय चीयमानः। मयुं पशुं मेधमग्ने जुषस्व तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद। मयुं ते शुगृच्छतु यं द्विष्मस्तं ते शुगृच्छतु।। (यजु.-13.47)

इस मन्त्र के द्वारा परमपिता परमेश्वर मनुष्य को आदेश देता है कि सबके उपकार करने हारे गवादि पशुओं को कभी न मारें, किन्तु इनकी अच्छी प्रकार से रक्षा कर और इनसे उपकार लेके सब मनुष्यों को आनन्द देवे।

इमं साहस्त्रं शतधारमुत्सं व्यच्मानं सरिरस्य मध्ये।

घृतं दुहानामदिति जनायाग्ने मा हिंसी परमे व्योमन्।

गवयामारण्यमनु ते दिशामि तेन चिन्वानस्तन्वो निषीद।

मवयं ते शुगृच्छतु। यं द्विष्मस्तं ते शुगृच्छतु।। (यजु.-13.49)

इस मन्त्र में भी इसी प्रकार की चर्चा प्राप्त होती है। देव दयानन्द जी इस मन्त्र के भावार्थ में लिखते हैं कि- हे राजपुरुषों! तुम लोगों को चाहिए कि जिन बैल आदि पशुओं के प्रभाव से खेती आदि काम, जिन गौ आदि से दूध घी आदि उत्तम पदार्थ होते हैं कि जिन के दूध आदि से प्रजा की रक्षा होती है, उनको कभी मत मारो और जो जन इन उपकारक पशुओं को मारें, उनको राजादि न्यायाधीश अत्यन्त दण्ड देवें।

अक्षराजाय कितवं कृतायादिनदर्शं त्रेतायै द्वापरायाधिकल्पिनमास्कदाय सभास्थाणुं मृत्यवे गोव्यच्छमन्तकाय गोधातं  क्षुधे यो गां विकृन्तन्तं भिक्षमाणऽउप तिष्ठति दुष्कृताय चरकाचाय्र्यं पाप्मने सैलगम्।। (यजु.-30.18)

इस मन्त्र में कहा गया है कि जो समाज को चलाने वाले राजादि लोग हैं वे तभी सामथ्र्यशील हैं, जो गाय आदि पशुओं को मारने, काटने वाले मनुष्यों को कठोर से कठोर सजा देता हो किन्तु बड़ा दुर्भाग्य है कि हमारे समाज के राजादिगण लोग तो गो हत्या करने वालों को प्रोत्साहित करते, ये बडी दुःखद स्थिति है।

जो समाज को दिशा व दशा प्रदान करने वाले हैं, वे स्वयं ही गो-वध को कराने वाले हैं तथा गो-मांस का भक्षण करते हैं, और इसप्रकार लोगों को भी करने के लिए सदैव प्रेरित करते हैं। इससे राजनीति भी करते हैं। अभी कुछ समय पूर्व की घटनाओं से आप सभी सम्यक्तया परिचित ही है।

अपक्रीताः सहीयसीर्वीरुधो या अभिष्टुताः।

त्रायन्तामस्मिन्ग्रामे गामश्वं पुरुषं पशुम्।। (अथर्व.-8.7.11)

इस मन्त्र में कहा गया है कि रोगों का शमन करने वाली औषधियों से गौ, घोड़े, मनुष्य व पशुओं की रोग से रक्षा करें।

मधुममूलं मधुमदग्रमासां मधुमन्मध्यं वीरुधां बभूव। मधुमत्पर्णं मधुमत्पुष्पमासां मधोः संभक्ता अमृतस्य भक्षो घृतमन्नं दुह्रतां गोपुरोगवम।। (अथर्व.-8.7.12)

इस मन्त्र में ओषधियों का चित्रण करते हुए गो पुरो गवम्गाय को सर्व प्रथम स्थान पर रखा गया है। इस गाय के दूध व घी के साथ ओषधियों के सेवन से हमारा उत्तम स्वास्थ्य होवे।

गोरक्षा के लिए महार्षि दयानन्द का आन्दोलन:-

वेदों में कहा है – गोस्तु मात्रा न विद्यते।।(यजु.-23.48) अर्थात् गाय इतना अधिक महत्त्वपूर्ण पशु है जिसकी तुलना करना सम्भव ही नहीं है। गाय का दूध अमृत होता है और इसका मूत्र व गोबर भी रोग निवारक और सर्वोत्तम खाद है। कृषि प्रधान भारत के लिए तो इसका महत्त्व अत्यधिक हो जाता है। इसलिए दयार्द्र दयानन्द की दया गोकरुणा-निधिमें ही उजागर होती है। गायों की नृशंस हत्या को देखकर ऋषि दयानन्द के जीवन में कतिपय प्रसंग ही ऐसे आते हैं जिन अवसरों पर ऋषि दयानन्द के अश्रु बहते हुए देखे गये-

देश में बढ़ती हुई गोहत्या देखकर रोये थे स्वामी दयानन्द सरस्वती जी

गोमाता के वध पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए दो करोड़ भारतवासियों के हस्ताक्षर कराकर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को प्रतिवेदन करते हुए महर्षि ने कहा था- बड़े उपकारक गाय आदि पशुओं की हत्या करना महापाप है, इसको बन्द करने से भारत देश फिर समृध्दशाली हो सकता है। गाय हमारे सुखों का स्रोत है, निर्धन का जीवन और धनवान् का सौभाग्य है। भारत देश की खुशहाली के लिए यह रीढ़ की हड्डी है।

महारानी विक्टोरिया को भेजा प्रतिवेदन

‘‘ ऐसा कौन मनुष्य जगत् में है जो सुख के लाभ में प्रसन्न और दुःख की प्राप्ति में अप्रसन्न न होता हो। जैसे दूसरे के किये अपने उपकार में स्वयम् आनन्दित होता है वैसे ही परोपकार करने में सुखी अवश्य होना चाहिये। क्या ऐसा कोई भी विद्वान् भूगोल में था, है या होगा, जो परोपकार रूप धर्म और-परहानि स्वरूप अधर्म के सिवाय धर्म और अधर्म की सिध्दि कर सके। धन्य वे महाशयजन हैं जो अपने तन,मन और धन से संसार का उपकार सिध्द करते हैं। द्वितीय मनुष्य वे हैं जो अपनी अज्ञानता से स्वार्थवश होकर अपने तन,मन और धन से जगत् में परहानि करके बड़े लाभ का नाश करते हैं।

       सृष्टिक्रम में ठीक ठीक यही निश्चय होता है कि परमेश्वर ने जो जो वस्तु बनाया है वह पूर्ण उपकार के लिये है, अल्पलाभ से महाहानि करने के अर्थ नहीं। विश्व में दो ही जीवन के मूल हैं- एक अन्न और दूसरा पान। इसी अभिप्राय से आर्यवर शिरोमणि राजे महाराजे और प्रजाजन महोपकारक गाय आदि पशुओं को न आप मारते और न किसी को मारने देते थे। अब भी इस गाय,बैल,भैंस आदि को मारने और मरवाने देना नहीं चाहते हैं, क्योंकि अन्न और पान की बहुताई इन्हीं से होती है। इससे सब का जीवन सुखी हो सकता है। जितना राजा और प्रजा का बड़ा नुकसान इनके मारने और मरवाने से होता है, उतना अन्य किसी कर्म से नहीं। इस का निर्णय गोकरुणानिधिपुस्तक में अच्छे प्रकार से प्रकट कर दिया है, अर्थात् एक गााय के मारने और मरवाने से चार लाख बीस हजार मनुष्यों के सुख की हानि होती है। इसलिए हम सब लोग प्रजा की हितैषिणी श्रीमती-राजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया की न्यायप्रणाली में जो यह अन्याय रूप बड़े-बड़े उपकारक गााय आदि पशुओं की हत्या होती है, इसको इनके राज्य में से छुड़वाके अति प्रसन्न होना चाहते है।

        यह हम को पूरा विश्वास है कि विद्या, धर्म, प्रजाहित प्रिय श्रीमती राजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया पार्लियामेण्ट सभा तथा सर्वोपरि प्रधान आर्यावत्र्तस्थ श्रीमान् गवर्नर जनरल साहब बहादुर सम्प्रति इस बड़ी हानिकारक गाय, बैल तथा भैंस की हत्या को उत्साह तथा प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र बन्द करके हम सब को परम आनन्दित करें। देखिए कि उक्त गााय आदि पशुओं के मारने और मरवाने से दूध, घी और किसानों  की कितनी हानि होकर राजा और प्रजा की बड़ी हानि हो गई और नित्यप्रति अधिक-अधिक होती जाती है। पक्षपात छोड़के जो कोई देखता है तो वह परोपकार ही को धर्म और पर हानि को अधर्म निश्चित जानता है। क्या विद्या का यह फल और सिध्दान्त नहीं है कि जिस जिस से अधिक उपकार हो, उस उस का पालन वर्धन करना और नाश कभी न करना। परम दयालु, न्यायकारी, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान् परमात्मा इस समस्त जगदुपकारक काम करने में हमें ऐकमत्य करें।

                                                            हस्ताक्षर. दयानन्द सरस्वती

संसार के राजा, महाराजाओं से विनति करके महर्षि दयानन्द ने संसार के अधिपति परमेश्वर से भी प्रार्थना की-हे महाराजाधिराज जगदीश्वर! जो इनको कोई न बचावे तो आप उनकी रक्षा करने और हम से करानो में शीघ्र उद्यत हूजिए।

महर्षि दयानन्द और गोरक्षा के लाभ

  • गाय आदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का ही नाश हो जाता है।
  • वेदों में परमात्मा की आज्ञा है- कि अघ्न्या यजमानस्य पशून् पाहि।। यजु. हे पुरुष तू इन पशुओं को कभी मत मार और यजमान अर्थात् सब के सुख देने वाले जनों के सम्बन्धी पशुओं की रक्षा कर, जिनसे तेरी भी पूरी रक्षा होवे।
  • ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त आर्य लोग पशुओं की हिंसा में पाप और अधर्म समझते थे।
  • हे मांसाहारियो! तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे वा नहीं।
  • हे परमेश्वर! तू क्यों न इन पशुओं पर जो कि बिना अपराध मारे जोते हैं, दया नहीं करता । क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है। क्या उनके लिये तेरी न्याय सभा बन्द हो गई? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर ध्यान नहंी देता अैर उनकी पुकार नहीं सुनता। क्यों इन मांसाहारियों की आत्माओं में दया प्रकाश कर निष्ठुरता, कठोरता, स्वार्थपन और मूर्खता आदि दोषें को ूदर नहीं करता?
  • और इन की रक्षा में अन्न भी महंगा नहीं होता, क्योंकि दूध आदि के अधिक होने से दरिद्री को भी खान पान में मिलने पर न्यून ही अन्न खाया जाता है। और अन्न के कम खाने से मल भी कम होता है। मल के न्यून होने दुर्गन्ध भी न्यून होता है, दुर्गन्ध के स्वल्प होने से वायु और वृष्टिजल की शुध्दि भी विशेष होती है। उससे रोगों की न्यूनता से हाने से सब को सुख बढ़ता है।
  • देखो! तुच्छ लाभ के लिये लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं।
  • जितना (लाभ) गाय के दूध और बैलों के उपयोग से मनुष्यों को सुखों का लाभ होता है उतना भैंषियों के दूध और भैसों से नहीं। क्योंकि जितने आरोग्य कारक और वृध्दिवर्धक आदि गण्ुा गाय के दूध और बैलों में होते हैं उतने भैंस के दूध और भैंसे के दूध और भैंसे आदि में नहीं हो सकते। (गोकरुणानिधि से)

गाय ही सर्वोत्तम क्यों!

गौ और कृषि अन्योन्याश्रित हैं। इसीलिए महर्षि ने गोकृष्यादिरक्षिणी सभा नाम रखा था। गाय का दूध सर्वोत्तम क्यों है? इसमें निम्नलिखित मुख्य विशेषताएॅं हैं-

  • गाय का दूध पीला और भैंस का सफेद होता है। इसीलिए इसके दूध के विशेषज्ञ कहते हैं कि गाय के दूध में सोने का अंश हेता है जो कि स्वास्थ्य के लिए उत्तम है और रोगनाशक है।
  • गाय का दूध बुध्दिवर्धक तथा आरोग्यप्रद है।
  • गाय का अपने बच्चे के साथ स्नेह होता है जबकि भैंस का बच्चे के साथ ऐसा नहीं होता है।
  • गाय के दूध में स्फर्ति होती है। इसीलिए गाय के बछडे़ व बछियाॅं खूब उछलते कूदते फिरते हैं। भैंस के दूध पीने से आलस्य व प्रमाद होता है।
  • गााय के बछड़े को 50 गायों या अधिक में छोड़ दिया जाय तो वह अपनी माता को जल्दी ही ढूॅंए लेता है। जबकि भैंस के बच्चों में यह उत्कृष्टता नहीं होती।
  • गाय का दूध तो सर्वाेत्तम होता ही है, साथ ही गाय का गोबर व मूत्र भी तुलना में श्रेष्ठ है। गाय का गोबर स्वच्छ व कीटनाशक होता है। गाय की खाद तीन वर्ष तक उपजाउळ शक्ति बढ़ाती रहती है किन्तु भैंस की खाद एक दो वर्ष के बाद ही बेकार हो जाती है। और गोमूत्र का स्प्रे करके कीड़ों के नाश में भी उपयोग लिया जाता है।
  • गोमूत्र उत्तम औषधि है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में पचास से भी अधिक रोगों में इसका उपयोग होता है।
  • कृषि के कार्यों के लिए गाय के बछड़े सर्वोत्तम हैं। भारतवर्ष में आज के मशीनीयुग में भी 5 प्रतिशत खेती बैलों से होती है।
  • गाय एक सहनशील पशु है। वह कड़ी धूप व सर्दी को भी सहन कर लेता है। इसीलिए गाय जंगल में घूमकर प्रसन्न रहती है।
  • गाय के दूध में सूरज की किरणों से भी नीरोगता बढ़ती है। इसीलिए वह अधिक स्वास्थ्यप्रद है।
  • गाय की अपेक्षा भैंस के बच्चे/भैंसा धूप में कार्य करने में सक्षम नहीं होते।
  • गाय की अपेक्षा भैंस के घी में कण अधिक होते हैं। जो कि सुपाच्य नहीं होते।
  • गाय का घी सुक्ष्मतम नाडि़यों में प्रवेश करके शक्ति देता है। मस्तिष्क व हृदय की सूक्ष्मतम नाडि़यों में पहुॅंच कर गोघृत शक्ति प्रदान करता है। आयुर्वेद में गोघृत का ही शारीरिक शोधन में प्रयोग होता है।
  • विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार भैंस के दूध में लांग चेन फैट की मात्रा अधिक होती है, जो कि नाडि़यों में जम जाती है। और हृदय के रोग पैदा हो जाते हैं। परन्तु हृदय के रोगियों के लिये भी गाय का दूध विशेष उपयोगी होता है।
  • गाय का दूध वात नाशक, पित्तशामक और कफनाशक भी है।
  • गाय का दही मधुर, रुचिकारक, अग्निप्रदीपक, हृद्य, प्रिय और पोषक होता है।
  • गाय का मक्खन हितकारक, रंग साफ करने वाला, बलवर्धक, अग्नि प्रदीपक और विभिन्न रोगों में रसायन व आयुवर्धक माना है।
  • गाय का मट्ठा ;छाछद्ध तो लाखों रोगों की एक अचूक दवा है।
  • गाय के दूध, मूत्र, गोबर, दही और घी से तैयार किया पंचगव्य तो असाध्य रोगों में अचूक दवा है। जिन रोगों में अन्य औषध्यिां काम नहीं कर पातीं उनमें पंचगव्य की मात्रा देने से आशतीत लाभ मिलता है। मानसिक उन्माद आदि रोगों में पंचगव्य रामबाण औषधि है।
  • नाडि़यों में अवरोध होने पर उत्पन्न विभिन्न रोगों में गाय का घी, गो-मूत्र और प´चगव्य रोगनाश में परम सहायक होते हैं।

महर्षि मनु महाराज भी गाय के महत्व से पूर्णरूपेण परिचित थे, जिसके कारण वे लिखते हैं कि-

नाकृत्वा प्राणिनां हिसा मांसमुत्पद्यते क्वचित्।

न प्राणिवधः स्वग्र्यस्तस्मान्मांसं विविर्जयेत्।।  (मनु॰ 5/48)

अर्थात् प्राणियों की हिंसा किये बिना मांस की प्राप्ति नहीं होती और प्रणियों का वध करना सुखदायक नहीं, इस करण माॅंस नहीं खाना चाहिये।

समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्।

प्रसमीक्ष्य निवत्र्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्।।  (मनु॰ 5/49)

अर्थात् हमें मांस की उत्पत्ति में और प्राणियों की हत्या और बन्धन को देखकर सब प्रकार के मांस भक्षण का त्याग कर देना चाहिये।

अनुमन्ता विश्सिता निहन्ता क्रयविक्रयी।

संस्कर्ता चापहत्र्ता च खादकश्चेति घातकाः।।  (मनु॰ 5/59)

अर्थात् प्राणियों की हत्या में आठ व्यक्ति हत्या से होन वाले पापों के भागीदार होते हैं।1.पशुओं को मारने की आज्ञा देने वाला 2. मांस को काटने वाला। 3. पशुओं को मारने वाला। 4. पशु को खरीदने वाला। 5.पशु को बेचने वाला। 6. मांस पकाने वाला। 7. परोसने वाला और मांस को खाने वाला।

वर्जयेन्मधु मांसं च भौमानि कवलानि च।  (मनु॰ 6/94)

अर्थात् नशा करने वाले मद्य और मांस का परित्याग कर देना चाहिये।

हिंसारतश्च ये नित्यं नेहासौ सुखमेधते।।  (मनु॰ 4/170)

अर्थात् जो मनुष्य मांस प्राप्ति के लिए प्रतिदिन हिंसारत रहता है वह कभी सुख प्राप्त नहीं करता है।

गो-मांस व मांसाहार की बात करते हैं, उनके तर्कों का खण्डन

  • परमेश्वर ने मनुष्यों के दांत मासाहारी पशुओं की तरह बनाये हैं, अतः मनुष्यों को मांस खाना चाहिये। ऐसी बातों का उत्तर महर्षि ने यह दिया है-यह बात अपने पक्ष में कहते हैं किन्तु इससे उनका पक्ष सिध्द नहीं होता। क्योंकि मनुष्य पशुओं के तुल्य नहीं है। मनुष्य और पशुजाति भिन्न भिन्न हैं। मनुष्यों के दो पग और पशुओं के चार, मनुष्य विद्या पढ़कर सत्यासत्य का विवेक कर सकते हैं पशु नहीं। और बन्दर के दांत सिंह और बिल्ली आदि के समान हैं, किन्तु बन्दर मांस कभी नहीं खाते। बन्दर फलादि खाकर अपना निर्वाह करते हैं, वैसे मनुष्यों को भी करना चाहिये।
  • मांसाहारी पशु और मनुष्य बलवान् होते हैं, अतः मांस खाना चाहिये। यह बात भी सत्य नहीं। सिंह मांस खाता है और अरणा भैंसा नहीं खाता, परन्तु सिंह अरणा भैंसे से डरता है और सिंह मनुष्यो पर आक्रमण करे तो एक दो गोली या तलवार के प्रहार से मर भी जाता है। जबकि जंगली सुअर या अरणा भैंसा अनेक गोलियों अथवा तलवार आदि के प्रहार से भी शीघ्र नहीं मरता। और प्रत्यक्ष दृष्टांत देखना हो तो पूर्णरूप से शाकाहारी राममूर्ति, चन्दगी राम, गामा पहलवान, दारा सिंह, सतपाल पहलवान आदि ऐसे उदाहरण हैं, जो मांसाहार करने वाले हैं उनको नाम मात्र काल में ही परास्त कर देते थे। मांसाहार करना बलवर्धक न होकर हानिकारक, अधर्म एवं दुष्टकर्म हैं।
  • मांसाहारी व्यक्ति एक यह भी तर्क देते हैं- जो मांसाहार न किया जाये तो संसार में पशु इतने बढ़ जायें कि पृथिवी पर भी न समायें। इसीलिए पशुओं को खाना उचित है। परन्तु महर्षि ने इसका उपहास उड़ाते हुआ लिखा है- यह बुध्दि का विपर्यास मांसाहार ही से हुआ होगा? इसके विपरीत मनुष्य का मांस कोई नहीं खाता पुनः वे क्यों नहीं बढ़ गये। वास्तव में एक मनुष्य के पालन के लिए अनेक पशुओं की अपेक्षा होती है, अतः ईश्वर ने मनुष्य की अपेक्षा पशुओं को अधिक उत्पन्न किया है।
  • कुछ व्यक्ति कहते हैं कि पशुओं को मारकर अधर्म तो नहीं होता। जो अधर्म मानता है वह न खाये, हमारे मत में अधर्म नहीं होता। अतः मांसाहार करना अनुचित नहीं हैं। यह बात भी सत्य नहीं, क्योंकि धर्म-अधर्म किसी के मानने अथवा न मानने से नहीं होता। पर हानि अथवा हिसंा करना अधर्म और परोपकार करना धर्म होता है। चोरी जारी इसलिए अधर्म होता है कि इससे दूसरे की हानि होती है। अतः लाखों पशुओं के मारने में अधर्म और उन्हें सुख देने में धर्म क्यों स्वीकार नहीं करना चाहिए।
  • कुछ व्यक्ति ऐसा भी कहते हैं कि जो पशु काम में आते हैं उन्हें मारना अधर्म है परन्तु जब बूढ़े हो जायें अथवा स्वयं पर जायें तो उनका मांस खाने में तो दोष नहीं। क्या ऐसा करने से कृतघ्नता रूपी महापाप नहीं होगा। इसी प्रकार जिन गाय, बैल आदि पशुओं से जीवन भी लाभ लिया, उनसे अमृत जैसा दूध व अन्न प्राप्त किया, और इधर-उधर आने जाने में भार ढोने का काम लिया, क्या उनकी हत्या करने में पाप नहीं होगा और कृतघ्नता तो महापाप है, उससे बचा नहीं होता उनको मारकर खाने में तो कोई हानि नहीं होती। प्रथम तो ईश्वर ने किसी भी पशु को निरर्थक नहीं बनाया है, उससे लाभ होता है या नहीं, यह हम नहीं जानते हैं। किन्तु हम प्रयास कर उस वृद्ध गाय आदि पशुओं का उपयोग कर सकते हैं, गो-मूत्र, गो-गोबर आदि से। भारतवर्ष में आज भी ऐसी गोशालाएॅं हैं, जिनमें इसप्रकार के कार्य होते हैं, ऐसी गोशालाओं में जा कर हम सबको इससे सबक लेना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मरने के बाद माॅंस खाने से माॅंसाहारी हिंसक स्वभाव अवश्य हो जायेगा, अतः माॅंसाहार करना सर्वथा अनुचित ही नहीं अपितु निषेधनीय है।

‘मनुष्य और उसका धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

संसार के सभी मनुष्य अपने-अपने माता-पिताओं से जन्में हैं। जन्म के समय वह शिशु होते हैं। इससे पूर्व 10 माह तक उनका अपनी माता के गर्भ में निर्माण होता है। मैं कौन हूं? यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न है। मैं वह हूं जो अपनी माता से जन्मा है और उससे पूर्व लगभग 10 माह तक गर्भ में रहा है। माता के गर्भ में यह कैसे आया यह भी एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।  इस प्रश्न के उत्तर को ढूढ़ने से पूर्व हम यह देखते हैं कि जब वृद्धावस्था आदि में मनुष्य की मृत्यु होती है तो वस्तुतः होता क्या है? पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश नामी पंच-भूतों से निर्मित उसका जड़ शरीर हमारे सामने होता है जिसका शास्त्रीय व लोक नियमों के अनुसार दाह संस्कार कर दिया जाता है। अनेक देशों में मृतक शव को दफनाने की प्रथा भी विद्यमान है। मृत्यु से पूर्व तक जड़ शरीर में एक चेतन तत्व भी होता है जो शरीर से निकल जाता है जिससे उस मनुष्य व उसके शरीर की मृत्यु कही जाती है। वह चेतन तत्व क्या है, आईये, विचार करते हैं। मृत्यु से पूर्व मनुष्य के शरीर में हम ज्ञान व क्रियाओं वा कर्मों की निरन्तरता को बना हुआ देखते हैं जो मृत्यु होने पर बन्द हो जाती है। शरीर की संवेदनायें समाप्त हो जाती है और वह पूर्णतः निष्क्रिय हो जाता है। अतः यह सिद्ध होता है कि जीवित अवस्था में शरीर में ज्ञान व क्रियायें किसी एक चेतन सत्ता की विद्यमानता के कारण हो रही थी जिसके न रहने, निकल जाने या शरीर छोड़ कर चले जाने पर वह पूर्णतः बन्द हो गई। अतः शरीर में दिखने वाला ज्ञान व क्रियायें एक चेतन तत्व अर्थात् जीवात्मा की उपस्थिति का प्रमाण होने के साथ यह दोनों ज्ञान व क्रियायें=कर्म, जीवात्मा का स्वभाव वा स्वाभाविक गुण हैं। जीवात्मा के स्वाभाविक ज्ञान व क्रियाओं को जानने के बाद आईये, जानते हैं कि जीवात्मा के अन्य गुण वा उसका स्वरूप कैसा है? हम सभी अनुभव करते हैं कि जीवात्मा शरीर तक ही सीमित है। अतः जीवात्मा अल्प परिमाण वाली एवं एकदेशी सत्ता है। अल्प परिमाण एवं एकदेशी सत्त अल्प शक्ति वाली ही हो सकती है। हम यह भी देखते हैं कि हम और अन्य सभी प्राणी दुःख, रोग व मृत्यु से भयभीत होते हैं। अतः यह हमारी अल्प शक्ति के साथ परतन्त्रता को भी सिद्ध करता है। प्रश्न उपस्थित होता है कि हमें दुःख, रोग व मृत्यु किससे मिलता है? उत्तर प्राप्त होता है कि इसका कारण हमारा अज्ञान व हमारे अज्ञान-जनित कर्म होते हैं। अज्ञान का कारण हमारी अल्पज्ञता है जिसे सर्वज्ञ ईश्वर एवं ज्ञानी गुरूओं का सान्निध्य प्राप्त कर दूर किया जा सकता है। मनुष्य जब सर्वज्ञ ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त करता है और स्तुति, प्रार्थना व उपासना करता है तो इसके प्रभाव से धीरे-धीरे उसकी आत्मा, मन, बुद्धि व अन्तःकरण के मल छटने वा दूर होने आरम्भ हो जाते हैं। निरन्तर अभ्यास से आत्मा आदि के मल दूर हो जाने से वह निर्मल होकर ईश्वर व आत्मा में स्थिति को प्राप्त करता है। इस अवस्था में पहुंचने पर उसे दुःख, रोग व मृत्यु आदि का भय समाप्त हो जाता है। संसार में जहां भी मनुष्य निवास करता है, वह किसी भी मत, सम्प्रदाय, मजहब का अनुयायी हो, परन्तु उसके समस्त दुःख व भय आदि केवल व केवल ईश्वर की उपासना से ही दूर हो सकते हैं। नान्यः पन्था विद्यते अयनायः अर्थात् इन मलों को दूर करने का अन्य कोई उपाय नहीं है।

 

उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि जीवात्मा, सत्य, चित्त, एकदेशी, अल्पज्ञ, कर्म करने में स्वतन्त्र व फल भोगने में परतन्त्र है। योग विधि से स्तुति, प्रार्थना व उपासना व वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन वा स्वाध्याय करके वह अपनी अज्ञानता व अविद्या को दूर करके विवेक को प्राप्त होकर दुःखों से मुक्त होता है। दुःखों के साथ-साथ वह जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष अर्थात् मुक्ति को भी प्राप्त हो जाता है और नियत अवधि तक मुक्ति का सुख भोगता है।

 

जीवात्मा का स्वरूप जान लेने के पश्चात प्रश्न आता है कि जीवात्मा अपनी उन्नति, प्रगति व उत्थान के लिए क्या करे? जीवात्मा को जब अपने स्वरूप का ज्ञान होता जाता है तो इसके साथ ही साथ परमात्मा का भी ज्ञान हो जाता है। कारण यह है कि ज्ञान प्राप्त होने पर जीवात्मा यह जान जाता है कि यह कार्य जगत अथवा विशाल सृष्टि उसे बनी बनाई मिली है जिसे संसार में विद्यमान दूसरी सर्वव्यापक चेतन सत्ता, ईश्वर ने बनाया है। ईश्वर व स्वयं को जानकर जीवात्मा को यह ज्ञान भी हो जाता है कि उसे भोगों का त्याग पूर्वक उपभोग करना है। इसके अतिरिक्त जो ज्ञान उसने गुरूओं, वृद्धों, सृष्टि के दर्शन व चिन्तन-मनन-ऊहा करके प्राप्त किया है उसे अज्ञानियों व अल्पज्ञानियों में फैलाना है। उसे इसकी प्रेरणा सूर्य, वायु, जल व नदी-समुद्र-वर्षा, वृक्ष आदि सभी से मिलती है। सूर्य के पास प्रकाश है, वह उसे अपने पास न रखके पूरे सौर्य मण्डल में फैला रहा है। नदिया व समुद्र अपना जल अपने पास नहीं रखते अपितु उसे वाष्प बना कर वायु में उड़ा देते हैं जो वर्षा के द्वारा असंख्य लोगों को लाभ पहुंचाता है। नदियों का जल किसानों द्वारा खेती में उपयोग किया जाता है व नदी के आस-पास बसे ग्राम व नगर के लोग, जल की अपनी भिन्न- भिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति में करते हैं। इसी प्रकार वृक्ष, ओषधियां, दुधारू पशु, भूमि आदि सभी परोपकार-यज्ञ कर रहे हैं जिससे संसार चल रहा है।  यह सब जीवात्मा को परोपकारमय जीवन व्यतीत करने की शिक्षा देते हैं। इनका मनन कर मनुष्य अपने जीवन का उद्देश्य ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, ध्यान, परोपकार एवं यज्ञ आदि करना निश्चित करता है। यही जीवात्मा वा मनुष्यों का कर्तव्य व धर्म भी है। इन कार्यो को करते हुए वह अपने पुर्व किये हुए कर्मो को भोगेगा व आगे के लिए नये कर्मों को करके प्रारब्ध तैयार करेगा। जड़ पदार्थ परोपकार कार्यो में संलग्न हैं तो बुद्धिमान जीवात्मा इस कार्य में पीछे कैसे रह सकता है?

 

इस संक्षिप्त लेख में जीवात्मा के स्वरूप व उसके कर्तव्य-धर्म का संक्षेप में विचार किया है। मनुष्य को अपने जीवन के सभी प्रश्नों के उत्तर व जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के साधनों एवं उपायों को जानने के लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का आश्रय लेना चाहिये। इस ग्रन्थ में मनुष्य जीवन से सम्बन्धित सभी प्रश्नों का सत्य व यथार्थ समाधान विद्यमान है। विगत 140 वर्षों में संसार के करोड़ों लोगों द्वारा इस ग्रन्थ में प्रस्तुत विचारों से लाभ उठा कर अपने जीवनों को संवारा जा चुका है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2,

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

नेतृत्वहीन दिशाहीन आर्यसमाज

महर्षी दयानन्द सरस्वती ने उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में वेदों का भाष्य, सत्यार्थ प्रकाश जैसे कालजयी ग्रंथों की रचना के साथ साथ आर्य समाज की स्थापना करके देश को एक नई दिशा दी. ऋषी के दीवानों ने ऋषी की इस वाटिका को अपने रक्त से सींच कर नई उचाईयों पर पहुँचाया. ऋषी के आकस्मिक निधन की स्तिथी में इन ऋषी भक्तों ने बलिवेदी पर अपने प्राणों को न्योंछावर कर न केवल देश की स्वतन्त्रता संग्राम में अग्रिम भूमिका का निर्वाह किया अपितु सामाजिक सुधारों के लिए देश को जागृत करके  इन सामाजिक सुधारों को देशभर में लागू करने के लिए बलिदान देकर एक नई परम्परा का आगाज  किया . उस काल में प्रचलित और स्थापित हुए  और किसी संगठन में समाज सुधारों के लिए बलिदान देने के एक भी प्रमाण सामने नहीं आते चाहे वो विवेकानन्द द्वारा पोषित रामकृष्ण मिशन हो या ब्रह्म समाज.

वह समाज ऋषि दयानन्द की एक दूरगामी सोच का परिणाम था जो न केवल उस समय देश की  पराधीनता से मुक्ति व देश की संस्कृति सभ्यता को अपने पुराने गौरव प्रदान करने के लिए संघर्षरत था बल्कि देश में औद्योगीकरण व विदेशों में व्यापार करने  एवं इसके लिए विदेशी भाषाओँ को सीखने का भी पक्षधर रहा .

वह ऋषी दयानन्द की दूरगामी सोच ही थी जिसने विश्व का ध्यान ऋषी दयानन्द की तरफ खींचा और विश्व भर के अनेकों लोग ऋषी दयानन्द के मुरीद हो गए . यह हमारे लिए दुर्भाग्य का ही विषय रहा की वह नेतृत्वकारी पथ  प्रदर्शित करने वाली ज्योती अल्प समय में ही अदृश्य हो गयी. वह भी उस समय में जब संगठन अपनी शैशव अवस्था में ही था .

ऋषी दयानन्द के बाद की पीढी ने ऋषी दयानन्द की विचारधारा को न केवल पोषित किया बल्कि इसे अपने रक्त से सींचकर इसे प्रज्वलित रखने और इसको प्रभावी बनाए रखने के हरसंभव प्रयास किये . ऋषी के ये अनुयायियों ने  एक के बाद एक इसके लिए प्राणों को न्योंछावर करने की रीति की परिपाटी रख दी जो अपने आप में एक नई परंपरा का निर्माण थी

उसी आर्य समाज की स्तिथि आज कितनी दयनीय है. कोई एक सर्वमान्य नेत्रित्व नहीं है. सर्वमान्य संस्था नहीं है. एक कम्युनिस्ट भी आर्य समाज के प्रतिनिधित्व की बात करता हैं, अनैतिक आरोपों से घिरे हुए व्यक्ति भी, वैदिक सिद्धांतों के खिलाफ बोलने वाला भी समाज और संस्था कर प्रधान होता है और शराब पीने वाला भी . आइये ऐसे ही  कुछ अन्य  बिन्दुओं पर विचार करते हैं :

  • लेकिन उसी ऋषी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्य समाज की वर्तमान स्तिथी का क्या ?उसका वर्तमान समय में देश और संस्कृति या किसी और क्षेत्र में क्या योगदान है?
  • देश और संस्कृति के उत्थान के लिए वह किस योजना पर कार्य कर रहा है यह किसे विदित है ? आर्य समाज के किस समाज सुधार को देश के मुखपत्रों पर जगह मिली ?
  • आज स्तिथी यह है कि  लोग स्वामी दयानन्द को नहीं स्वामी विवेकानन्द को अधिक जानते हैं . आर्य समाजों में ऋषी दयानन्द के साथ साथ मांस भक्षक वेद निंदक स्वामी विवेकानन्द के चित्र लगे हुए हैं . ऋषी के सच्चे भक्तों के ये वाक्य कटु लगें लेकिन सत्यता यही है.
  • आर्य समाज की अग्रिम संस्था होने का दावा करने वाली संस्थाओं के मंच से स्वामी दयानन्द के निर्वाण दिवस पर मुख्य अतिथी जनरल वी के सिंह  स्वामी विवेकानन्द  के ऊपर व्याख्यान  देकर निकल जाते हैं और श्रोता तालियाँ बजाते  हैं और मंच संचालक और अन्य समाजियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. किसी के खून में ये सुन कर उबाल नहीं आता की स्वामी दयानन्द का इस देश के लिए योगदान विवेकानन्द के बाद आता है .ऐसा प्रतीत हुआ वहां लोगों की रगों में खून नहीं पानी दौड़ रहा था . किसी में इतनी हिम्मत भी नहीं हुयी  कि वक्ता की बात का शालीनता से  प्रतिउत्तर तो दे सकें .
    आर्य समाज के कभी ऐसे भी दुर्बल प्रतिनिधि होंगे शायद ही किसी ने सोचा हो.
  • आर्य समाजों के इतिहास भी पुस्तकों में हवस के पोषक ओशो नास्तिक दलाई लामा के विचारों को स्थान मिलने लगा है और वो भी आर्य समाज के मंत्री आदि की प्रेरणा से लिखी जाती हैं और उन्हीं हो समर्पित की जाती हैं.
  • आर्य समाज के मन्दिर आज शादी कराने के अड्डे बन चुके हैं जहाँ ५००० रूपए आदि लेकर किसी की भी शादी कर दी जाती है चाहे वो आर्य समाज की विचार धारा से परिचित हो या न हो .इन्टरनेट पर आर्यसमाज खोजने पर आर्य समाज मैरिज ही लिखा सबसे पहले दिखाई देता है . मात्र २ ३ घंटे में शादी का प्रमाण पत्र देने वाले अनेकों विज्ञापन दिखाई देते हैं या यही ऋषी का सपनों का आर्य समाज है.
    बिग बॉस -९ की प्रतिभागी मंदाना करीमी की शादी कर प्रमाण पत्र ही इन ऋषी भक्त होने के दम्भ भरने वाली आर्य समाज साकेत नामक संस्था से प्रकाशित हुयी हैं. “कुछ दुष्ट लोगों द्वारा ये धंधा किये जाने का नाम लेकर” इस मुद्दे से हाथ झाड़ने वाले संस्थाओं के अधिकारी क्या यह बताएँगे की आर्य समाज साकेत जहाँ से यह सर्टिफिकेट जारी हुआ क्या उन्ही फर्जी संस्थाओं की सूची में शामिल है . यह सर्टिफिकेट पर डॉ. डबास के हस्थाक्षर हैं जिन्होंने आर्य समाज साकेत का इतिहास विनय आर्य की प्रेरणा से लिखा और उन्ही को समर्पित किया . यह वही पुस्तक है जिसमें ऋषी की सूक्तियों के स्थान पर ओशो और नास्तिक दलाई लामा की सूक्तियाँ दी गयी हैं . ये लोग जरा बताएं तो सही की आर्य समाज में की जा रही इन शादियों का आधार क्या होता है . ऋषी दयानन्द द्वारा बताये गए विवाहों के प्रकारों में से किस प्रकार के विवाह कराने में ये आर्य संस्थाएं संलग्न हैं  .
  • आर्य समाज के मंचों पर नर्तकियों द्वारा फ़िल्मी गानों पर नाच: जिस आर्य समाज के मंचों से वैदिक गान गुंजा करता था जहाँ वेद मन्त्रों की व्याख्याएँ और शाश्त्रार्थ हुआ करते थे उन्ही आर्य समाज के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आज आर्य समाज के वर्तमान विद्वानों और तथाकथित नेत्रित्व्य की उपस्तिथी में नर्तकियों द्वारा “पीतल की तोरी गागरी और श्याम रंग बोमरो आदि गानों पर थिरकना आर्य समाज के पतन के साक्षात उदाहरण हैं.
  • नैतिक पतन : किसी प्रभावशाली नेतृत्व के अभाव का ही परिणाम है की आज इस संगठन के कई लोगों पर चारित्रिक हनन के मुकदमें चल रहे हैं. किन्चित जेल की हवा खा चुके और कुछ खा रहे हैं . कहाँ गया वह ऋषी द्वारा प्रतिपादित ब्रह्मचर्य का सिद्धांत और स्वामी स्वतान्त्रतानंद जी, स्वामी दर्शानानानंद जी जैसे ऋषी के परम भक्त जिन्होंने ऋषी के सिद्धांतों पर चलते ही अपनी जीवन की हवि दे दी.
  • गुरुकुलों और विद्वानों की दयनीय हालात : आजादी के इतने वर्षों बाद आज हालात ये है की ऋषी दयानन्द की पद्धिति को सरकारी माध्यम में प्रचलित करवाने के बजाय स्वयं आर्य समाज के गुरुकुलों ने सीबीएसई आदि के पाठ्यक्रमों को अपनाना आरम्भ कर दिया . ऋषी दयानन्द की शिक्षा पद्धिति से अध्यन अध्यापन करवाने वाले गुरुकुलों के संख्या २ अंकों में भी नहीं. क्या यही वो पद्धिती है जिससे हम विश्व को आर्य बनायेंगे . जिस गुरुकुल की स्थापना के लिए स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी संपत्ति और जीवन कुर्बान कर दिया उस गुरुकुल की हालत आज सर्व विदित है.
    आर्य समाज के विद्वान की हालत किसी पौराणिक अध् पढ़े पुजारी से भी गई गुज़री है . वह ऋषि दयानन्द का अनुयायी अपने निर्वाह के लिए दर दर की ठोकरें खाता है उसे  जीवन निर्वाह के लिए वह पौरानिकों के यहाँ पर पौराणिक कर्मकाण्ड कराने के लिए विवश है या  उस वर्ग की कृपा का पात्र बनने के लिए निर्भर होना पढता है जिसे ऋषी के सिद्धांत भी नहीं पता.
    आज देश में ऐसे गुरुकुलों का अभाव है जो क्षत्रियों का निर्माण करते हों  जो कर्मकारों का निर्माण करते हो जो व्यवसायियों का निर्माण करते हों . समाज की व्यवस्था चारों वर्णों के अधीन है क्या अन्य वर्गों का निर्माण करने के लिए कोई व्यवस्था की गयी ?
  • खाली पड़े समाज : आर्य समाज के नीरस होने के प्रत्यक्ष प्रमाण उसके खाली पढ़े भवन हैं . जिनमें रविवार के दिन कुछ वृध्द लोग दिख जाते हैं जो जीवन के अंतिम पढाव में हैं . पौराणिक पण्डित अपने मन्दिर में मूर्ति के पास बैठा मिल जाता है लेकिन आर्य समाज मन्दिर में जाने पर अधिकतर या तो ताले लगे मिलते हैं या फिर संचालक/पुरोहित मन्दिर में अपने कमरे में.
    आर्य समाज के भवनों पर ताले, उन पर किये गए कब्जे और दान के पैसे का उन मुकदमों पर खर्च सर्व विदित है . काश इन नेताओं ने विद्वानों का निर्माण किया होता जो अपने जीवन को आर्य सिद्धांतों के प्रचार प्रसार में लगाते.
  • विधर्मियों को पुरजोर जवाब देने की परम्परा: ऋषि दयानन्द के नाम पर करोड़ों का दान डकारने वाली संस्थाएं आज धर्म पर होने वाले आक्षेपों का जवाब देने तक में अपनी रूचि नहीं रखतीं. ऋषी दयानन्द के नाम पर भवनों का निर्माण और दान इकठ्ठा करना ही इनका परम ध्येय है लेकिन जिस वैदिक धर्म के लिए महर्षि दयानन्द ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया उसी ऋषी दयानन्द और उसके वैदिक धर्म पर आक्षेप होने पर ऋषी दयानन्द के नाम पर ये दान इकट्ठे करने वाले और ऋषि भक्त होने का दावा करने वाले उनके ये अनुचर पता नहीं किन बिलों में चुप जाते हैं पता नहीं कौनसा सांप इन्हें सूंघ जाता है .
    इनकी नाक के नीचे जब ऋषी दयानन्द पर आक्षेप होते हैं ऋषी दयानन्द पर आक्षेप करती हुयी पुस्तकों का प्रकाशन होता है लेकिन इन आर्य समाजी नेताओं के काना पर जूं तक नहीं रेगती .
    सम्पूर्ण आर्य जगत में केवल ऋषी दयानन्द की स्थानापन्न  परोपकारिणी सभा ही इस परंपरा को जिन्दा रखे हुए हैं . उनका यह कदम अत्यंत ही सराहनीय है . कभी भी किसी भी पुस्तक, पत्रिका या किसी भी मंच से वैदिक धर्म या ऋषी दयानन्द पर आक्षेप हो तो ऋषी द्वारा स्थापित ये संस्था जवाब देने में कभी पीछे नहीं रहती . चाहे खुशवन्त सिंह द्वारा धर्म पर आक्षेप हो या जनरल वी के सिंह द्वारा ऋषी के योगदान को कम आंकने की कोशिश या हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ऋषी दयानन्द पर आक्षेप यही एक संस्था है जो आक्षेपों का न केवल जवाब देती है अपितु यह भी सुनिश्चित करती है कि वो जवाब आक्षेप करने वाले तक पहुंचे .
  • कुकुरमुत्ते की तरह उगते तथाकथित विद्वान और आर्य समाजी हदीसों की रचना :
    आर्य समाज में पुरोहितों/विद्वानों की दयनीय स्तिथी का एक कारण कुकुरमुत्ते की तरह उगते स्वघोषित विद्वान भी हैं. जो कार्य विद्वानों को करने चाहिए वो कार्य में ये स्वघोषित अपनी दक्षता प्रदर्शित कर न केवल पुरोहितों /विद्वानों के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं, उनकी आजीविका के माध्यम पर चोट करते हैं अपितु  वैदिक सिद्धांतों के खिलाफ भी बोलते हैं. पण्डित राम चन्द्र देहलवी ,शाश्त्रार्थ महारथी शांती प्रकाश जी ने जीवन लगा कर वह योग्यता प्राप्त की थीं लेकिन ये बिना परिश्रम किये वह चाहते हैं>

यही कारण है की विधर्मियों से वार्तालाप में इनके ईश्वर को अनुमान भी हो जाता है.
इन स्वघोषितों की पत्नी माता पौराणिक तीर्थों की यात्रा में जाती हैं और ये विश्व को आर्य बनाने और शाश्त्रार्थ महारथी बनने का दम्भ भरते हैं.
आर्य समाज में इन अध् कचरे विद्वानों की वजह से अनेक हदीसों की रचना होने लगी है जो ऋषी के भक्तों जिनको तथ्यों का ज्ञान नहीं होता है बड़ी आसानी से प्रचारित हो जाती है.
यथा मंगल पांडे का ऋषी दयानन्द का भक्त होना, खुदी राम बोस के फांसी से पहले सत्यार्थ प्रकाश के दर्शन, सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर तांगे वाले के आर्य समाजी बनाना हो या लाठियां खाने  के समय लाला लाजपत राय के हाथों में सत्यार्थ प्रकाश का होना हो ये हदीसें इन तथाकथित स्वघोषित विद्वानों की ही देन हैं जो समाज की जड़ों में मट्ठा डालने का कार्य कर रहे  हैं

  • अवैदिक कार्यों का आर्य समाज में प्रचलन

जिन कार्यों का आर्य समाजी विद्वान विरोध करते हुए चले आये आज उन्हीं अवैदिक कर्मों को आर्य समाज में स्थान मिलने लगा है. चाहे वह एक आर्य संस्था के प्रधान द्वारा कौशाम्बी आर्य समाज के कार्यकर्म में करवा चौथ को वैदिक सिध्ध करना हो या सर्व मनोंकामना पूर्ण करने जैसे कार्यक्रम करना या फिर समाजों में बलि प्रथा के सांकेतिक प्रचलन के तहत यज्ञ की समाप्ति पर गोले को काट कर उसमें मखाने आदि भर उसके मुहं को बंद कर हवि के रूप में डालना.
ऋषी दयानन्द और वैदिक धर्म के अनुयायियों को चाहिए की समाज की वर्तमान स्तिथी और समाज के गौरवशाली अतीत का अवलोकन करें . आवश्यकता है कि पतन की वर्तमान स्तिथी का अध्ययन कर इससे उबरने के प्रयासों का निर्धारण कर समयबद्ध तरीके से उनको पूर्ण किया जाये. उन संस्थाओं को चिन्हित किया जाये जो ऋषि के सपनों के समाज और सिध्धातों का पालन करती हैं और उनके नेत्रित्व में अपने गौरवशाली अतीत के स्तर को प्राप्त कर ऋषी के कार्य को आगे बढ़ाने के मार्ग पर प्रशस्त किया  जाये .

“सत्यार्थ प्रकाश : समीक्षा की समीक्षा का जवाब PART 12”

इस्लाम, नारी और महिला विकास का अवरोधक बुरका

“ग्यारहवे अध्याय का जवाब पार्ट 1 ”

सत्यार्थ प्रकाश समीक्षा की समीक्षा पुस्तक में सतीशचंद गुप्ता जी एक अध्याय प्रस्तुत करते हैं “क्या पर्दा नारी के हित में नहीं है ?” अपनी परदे वाली थियोरी को जायज़ (वैध) सिद्ध करने के चक्कर में लेखक इतने मशगूल हुए की बिना सिद्धांतो के ही कुतर्क और मिथ्याभाषण करते हुए, वर्तमान युग में भारतीय नारी का उद्धार करने वाले ऋषि दयानंद को इस्लाम और मुसलमानो का कटुआलोचकर बना दिया। क्या ये समाज को सच्चाई दिखाने की जगह खुद ही सच्चाई पर पर्दा डालने वाली बात न हुई ? लेखक को चाहिए था की नारी की मनोस्थति को समझते हुए उसकी भावनाओ का सम्मान करते, मगर इस्लामी धारणा से ओतप्रोत हुए लेखक ने सच को नकारते हुए, विशुद्ध रूप से मजहबी कट्टरता का परिचय देकर सम्पूर्ण नारी जाती का अपमान कर दिया। क्या ये आक्षेपकर्ता का मानसिक दिवालियापन नहीं है ?

देखिये, पर्दा प्रथा न तो भारतीय संस्कार हैं, न ही ये शब्द ही भारतीय हिंदी भाषा से सम्बंधित है, “पर्दा” शब्द स्वयं विदेशी है जो फ़ारसी भाषा से है, संपादक “डॉ सैयद असद अली” प्रकाशक राजपाल इन संस, दिल्ली से प्रकाशित “व्यवहारिक उर्दू हिंदी शब्दकोष” पृष्ठ संख्या १८८ में शब्द “पसेपर्दा” आता है, जो “फ़ारसी पुल्लिंग” शब्द है। जिसका अर्थ है आड़ में। तो ये बात तो क्लियर है की पर्दा शब्द खुद में ही विदेशी शब्द है, तो इसका मूल भी भारतीय नहीं हो सकता, वैदिक संस्कृति में नारी को सम्मान का सूचक “देवी” कहा गया है, जो कभी भी छुपाने की वस्तु वाले नजरिये से नहीं देखि गयी। क्योंकि “औरत” शब्द अरबी है जो अरबी धातु औराह या आईन-वाव-रा (ayn-waw-ra) से जिसका मतलब है कानापन या एक आंख से देखना से बना है। सीधा सीधा अर्थ है, शायद अरब के लोग नारी को केवल भोग की वस्तु या शारीरिक सम्बन्ध बनाने वाली नजर से ही देखते थे, जिस कारण नारी को “औरत” शब्द यानी छुपाने वाली बना दिया ताकि ऐसी दुष्ट और काम वास्नामयी नजरो से बचा सके।

जबकि भारतीय पद्धति में महिला को देवी का दर्जा प्राप्त है, जिससे ज्ञात होता है की भारतीय परंपरा और संस्कार नारियो के प्रति कितने उदारशील और संस्कारी थे। अब जो बात है पर्दा की तो किसी भी वैदिक साहित्य में महिला को छुपाने या पर्दा करने का विवरण प्राप्त नहीं होता देखिये :

निरुक्त में पर्दा प्रथा का विवरण कहीं मौजूद नहीं।

निरुक्तानुसार संपत्ति संबंधी मामले निपटाने के लिए न्यायालयों में स्त्रियों के आने जाने के लिए कहीं पर्दा व्यवस्था का विवरण नहीं, बल्कि अधिकार है।

रामायण और महाभारत काल में भी महिलाओ की पर्दा प्रथा नहीं पायी जाती, इसके उल्ट रावण की बहन जब श्री राम और लक्ष्मण के सामने आई तब भी कोई पर्दा न था, जब रावण माता सीता को ले जाकर, अशोक वाटिका में रखा वहा भी कोई पर्दा व्यवस्था नहीं थी। रामायण और महाभारत कालीन इतिहास में स्वयंवर होते थे, तब भी पर्दा व्यवस्था का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।

इन सब तथ्यों से ज्ञात हो जाता है की आर्य सभ्यता में पर्दा व्यवस्था थी ही नहीं, क्योंकि आर्य जाति सदैव सदाचारी और संयमी रही है, अतः पुरुषो को अपनी इन्द्रियों को वश में करना ही सदाचार है, महिलाओ को ढक कर, छिपा कर पुरुष इन्द्रियों को वश में नहीं कर सकता, खैर ये ढकने और छिपाने जैसी प्रथा से पुरुष की इन्द्रिय संयम में रहती हैं और पुरुष सदाचार की शिक्षा प्राप्त करता है, इतना विज्ञानं अरबी सभ्यता में ही था।

अब हम आपको वेद से प्रमाण दिखाते हैं, देखिये :

सुमंगलीरियं वधुरिमा समेत पश्यत
सौभाग्यमस्यै दत्वायाथास्तं वि परेतन

ऋग्वेद (10.85.33)

हे विवाह में उपस्थित भद्र स्त्री पुरुषो ! यह वधु शुभा और सौभाग्यशालिनी है। आप लोग आइये, देखिये और इसे सौभाग्य का आशीर्वाद देकर अनन्तर अपने अपने घरो को जाइए।

यहाँ स्पष्ट है की पर्दा प्रथा का कोई औचित्य भारतीय संस्कृति में महिलाओ के लिए निर्धारित नहीं किया गया। बल्कि आश्वलायनगृह्यसूत्र (1/8/7) के अनुसार वधु को अपने घर ले आते समय वर को चाहिए कि वह प्रत्येक निवेश स्थान (रुकने के स्थान) पर दर्शकों को ऋग्वेद के उपर्युक्त मंत्र के साथ दिखाए। इससे स्पष्ट है कि वैदिक सभ्यता (भारतीय संस्कृति) में वधुओं द्वारा अवगुण्ठन (पर्दा) नहीं धारण किया जाता था, प्रत्युत वे सबके सामने निरावगुण्ठन आती थी। पर्दा प्रथा का उल्लेख सबसे पहलेे महाकाव्यों में हुआ है पर उस समय यह केवल कुछ राजपरिवारों तक ही सीमित था। (धर्मशास्त्र का इतिहास पृ.336)

अब मूल सवाल यह है की ये पर्दा प्रथा जैसी कुप्रथा हमारे भारतीय समाज में कैसे दाखिल हुई ? इसका जवाब हमें हुतात्मा पंडित लेखराम कृत “महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन चरित्र” नामक पुस्तक में बेहद तर्कपूर्ण आधार पर मिलता है, जहाँ महर्षि ने एक शंकालु की शंका समाधान करते हुए कहा :

“स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार में डालना है। जब उनको विद्या होगी वह स्वयं अपनी विद्या के द्वारा बुद्धिमती होकर प्रत्येक प्रकार के दोषो से रहित और पवित्र रह सकती हैं। परदे में रहने से सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती और बिना विद्या प्राप्ति के बुद्धिमती नहीं हो सकती हैं और परदे में रखने की प्रथा इस प्रकार प्रचलित हुई की जब इस देश के शासक मुस्लमान हुए तो उन्होंने शासन की शक्ति से जिस किसी की बहु बेटी को अच्छी रूपवती देखा उसको अपने शासनाधिकार से बलात छीन लिया और दासी बना लिया। उस समय हिन्दू विवश थे, इस कारण उनमे सामना करने की सामर्थ्य न थी। इसलिए अपने सम्मान की रक्षा के लिए उन्होंने अपनी स्त्रियों और बहु बेटियो को घर से बाहर जाने का निषेध कर दिया। सो मूर्खो ने उसको पूर्वजो का आचार समझ लिया। देखो, मेमो अर्थात अंग्रेज की स्त्रियों को, वे भारत की स्त्रियों की अपेक्षा कितनी साहसी, विद्यावती और सदाचारिणी होती हैं।”

ऋषि ने जो समझाया उसे न समझकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हो आक्षेपकर्ता ने कुछ और ही समझा, स्त्रियों को परदे में रखना आजन्म कारागार है, क्योंकि ये महिला की इच्छा विरुद्ध है, अनेको मुस्लिम महिलाये ही बुरखा का विरोध करती हैं, यहाँ तक की अनेको मुस्लिम महिलाओ ने तो नग्न तक होकर विरोध किया है, ऐसी अनेको खबरों से फ्रांस, ब्रिटेन आदि देशो के समाचार पत्र भरे पड़े हैं। हम नग्न्ता का समर्थन तो बिलकुल नहीं करते, विरोध सदैव ही शालीन और मर्यादित होना चाहिए, लेकिन शायद उन मुस्लिम महिलाओ को नग्न्ता की राह दिखाने वाला भी बुरखा ही था जिसमे उन्हें घुटन महसूस हो रही थी। खैर हम ऋषि की दूसरी बात समझते हैं, उन्होंने कहा महिला कभी भी परदे से अपनी सतीत्व रक्षा नहीं कर सकती, ये कटु सत्य है, क्योंकि भारत में ही अनेको मुस्लिम परिवारो में मुस्लिम बहु की इज्जत को तार तार करने में उसके ही अपने मुस्लिम ससुर का योगदान था। मुजफ्फरनगर उ० प्र० में इमराना का केस मात्र एक उदहारण है, मुस्लिम पति नूर इलाही की जो पत्नी इमराना थी, उसके ससुर अली मोहम्मद ने बलात्कार किया था, तब इस्लामी कानून अनुसार दारुल उलूम देवबंद ने एक फतवा निकाला जो दुनिया से मानवता शर्मसार करने वाला था, इस कानून में पीड़ित महिला जो ससुर की हैवानियत का शिकार हुई थी, उसे उस हैवान की पत्नी बना दिया गया, और जो उसका पति था, जिससे उस महिला को पांच बच्चे थे, उसे बेटा बना दिया, अंततः पीड़ित ने भारतीय संविधान का दरवाजा खटखटाया और पीड़िता को इंसाफ मिला। अब सवाल ये है, क्या बुरखा यहाँ स्त्री की सतीत्व रक्षा कर पाया ? क्या ये जरुरी नहीं था, की पुरुष अपनी इन्द्रियों को वश में करना सीखे। महिलाओ को शिक्षित करने से ही महिलाओ का शोषण रुकेगा, क्योंकि महिलाओ को जो अधिकार प्राप्त हैं, वो शरिया कानून नहीं देता, क्योंकि इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना हराम है, महिलाओ का नौकरी करना हराम है, महिलाओ का पर पुरुषो (ऑफिस सहकर्मी) के साथ बैठना, काम करना, सब हराम है। खैर इस विषय पर हम अगले लेख में विचार करेंगे। आप अभी केवल ये सोचिये की यदि महिला शिक्षित होकर नौकरी करना चाहे तो क्या वो ऑफिस में बुरखा पहने हुए, बैठ सकती है ? क्या ये एक प्रकार का मानसिक अत्याचार नहीं है ? क्या पुरुष को भी बुरखे में रहने की आज्ञा है ? यदि नहीं, तो क्यों एक नारी पर अत्याचार किया जाता है, वो भी मजहब के नाम पर ? फिर भी कहते हैं की महिला और पुरुष को इस्लाम में समान अधिकार प्राप्त हैं ? क्या ये एक प्रकार का बेहूदा मजाक नहीं ?

यही बात यहाँ महर्षि ने बताई, की महिला को शिक्षित होना चाहिए, ताकि वो अपने अधिकार प्राप्त कर सके, मगर खेद की इस्लाम में महिलाओ का पढ़ना लिखना, उनको अधिकार देना इस्लामी शरिया में हराम है, पाकिस्तान की मलाला युसूफ ज़ई से ज्यादा इस बात को कोई नहीं समझ सकता।

उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध है की भारतीय सभ्यता में तो पर्दा का कोई रोल नहीं, ये कुप्रथा विशुद्ध रूप से मुस्लिम शासको के कारण ही भारतीय परिवेश में दाखिल हुई। ऋषि ने जो तर्क दिया था, उसका ही समर्थन करते हुए “भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे” ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री आफ धर्मशास्त्र (धर्मशास्त्र का इतिहास) में पृष्ठ ३३७ में लिखते हैं :

“उत्तरी भारत एवं पूर्वी भारत में पर्दा की प्रथा जो सर्वसाधारण में पाई जाती है, उसका आरंभ मुसलमानों के आगमन से हुआ।

इसके तीन कारण थे-

हिन्दू स्त्रियों को सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से।

विजेता शासकों की शैली का चाहे-अनचाहे तरीके से अनुसरण।

विपरीत परिस्थितियों के कारण स्त्रियों में बढ़ती अशिक्षा और मुस्लिम शासकों के राज में गिरता स्तर।

इतिहास को आप छुपा नहीं सकते, इस विषय पर अनेको लेखको ने स्वतंत्रता से लिखते हुए अपनी सहमति दी है, क्योंकि मुस्लिम शासक और आक्रांता, इस देश में आक्रमण करते और पुरुषो को मारकर, उनकी स्त्रियों को उठा ले जाते तथा अरब आदि देशो में गुलाम दासी के तौर पर दो दो दिनार में बेच देते थे, ये तो इतिहास था, मगर इतिहास फिर दुहरा गया, सीरिया में इस्लामी आतंकी संगठन ने यजीदी महिलाओ को निर्वस्त्र करके गली मोहल्ले में बोली लगाकर १०० डॉलर में बेचा, ये तो अभी हाल की ही खबर है, बिलकुल यही परिस्थिति मुग़ल काल में भी थी राजपुताना में मौजूद अनेको जौहर स्थल इसके साक्षात प्रमाण हैं। इतिहास साक्षी है, की मुस्लिमो की बादशाहत दौरान हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया जाता था, डॉ श्रीवास्तव अपनी पुस्तक अकबर द मुग़ल पृष्ठ ६३ में लिखते हैं “when people Deosa and other places on Akbar’s route fled away on his approach” अब यहाँ शंका ये है यदि राजा भारमल की पुत्री जोधा का विवाह वधु पक्ष की मर्जी से हुआ था तो अकबर के आने पर जनता भाग क्यों गयी ? जाहिर है, वो विवाह था ही नहीं, ये स्पष्ट है की अकबर ने राजा भारमल की पुत्री की सुंदरता के प्रसिद्द किस्से सुने थे, इसीलिए उसे पाने को राजा भारमल पर आक्रमण किया, यही हाल सती रानी दुर्गावती की कहानी का भी है, हालांकि जौहर करने से दो महिलाये बच गयी थी एक दुर्गावती की बहन कमलावती और दूसरी राजा पुरंगद की बेटी थी जिन्हे अकबर के हरम में पंहुचा दिया गया था (जे एम शेलत, अकबर 1964)

अनेको इतिहासिक दस्तावेजो से ये सिद्ध है की उत्तर भारतीय हिन्दू परिवारो में पर्दा प्रथा मौजूद नहीं थी, ये कुप्रथा हिन्दू समाज में मुस्लिम आक्रंताओ से हिन्दू महिलाओ को बचाने के लिए अपनाया गया, नवाब वज़ीर लखनऊ का तत्कालीन नवाब सुन्दर हिन्दू महिलाओ को अगवा कर उनको प्रताड़ित किया करता था, और जबरन मुसलमान बनवाता था (इट इज कॉन्टिनुएड, अशोक पंत, पृष्ठ १३०)

औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने हिन्दुओ की दुकानो को नष्ट किया और हिन्दू महिलाओ को अगवा कर बलात्कार किया (India & South East Asia to 1800 सांडर्सन बेक)

औरंगजेब के समय तत्कालीन प्रधान मंत्री का नवासा मिर्ज़ा तवाख्खुर ने घनश्याम जो नवविाहित वधु को डोली में बैठा कर घर ला रहा था, उसे अपने घर के गेट के सामने ही लूट लिया, २ हिन्दू मार दिए गए और घनश्याम की पत्नी को मिर्ज़ा तवाख्खुर अपने घर ले गया (Ahkam-i-Alamgiri)

The Afghan ruler Ahmad Shah Abdali attacked India in 1757 AD and made his way to the holy Hindu city of Mathura, the Bethlehem of the Hindus and birthplace ofKrishna.

The atrocities that followed are recorded in the contemporary chronicle called : ‘Tarikh-I-Alamgiri’ :

“Abdali’s soldiers would be paid 5 Rupees (a sizeable amount at the time) for every enemy head brought in. Every horseman had loaded up all his horses with the plundered property, and atop of it rode the girl-captives and the slaves. The severed heads were tied up in rugs like bundles of grain and placed on the heads of the captives…Then the heads were stuck upon lances and taken to the gate of the chief minister for payment.

“It was an extraordinary display! Daily did this manner of slaughter and plundering proceed. And at night the shrieks of the women captives who were being raped, deafened the ears of the people…All those heads that had been cut off were built into pillars, and the captive men upon whose heads those bloody bundles had been brought in, were made to grind corn, and then their heads too were cut off. These things went on all the way to the city of Agra, nor was any part of the country spared.”

कितने ही प्रमाण दिए जा सकते हैं, जो सिद्ध करते हैं, की हिन्दू महिलाओ पर मुस्लिम आक्रंताओ द्वारा कितना अत्याचार किया गया, की इससे हमारी सभ्यता और संस्कृति में अनेको परिवर्तन आ गए। जिनमे मुख्य रूप से :

पर्दा कुप्रथा का भारतीय महिलाओ द्वारा अपनाना मुख्य है।
बाल विवाह, ताकि हिन्दू महिलाओ को शोषण से बचा सके।
सती प्रथा, ये जौहर का परिणाम था जिसे स्वेच्छा से अपनाया जाने लगा ताकि मृत हिन्दू पति के बाद हिन्दू महिला की आबरू बच सके।

इसके अतरिक्त सतीशचंद गुप्ता से पूछना चाहेंगे की, जो पर्दा प्रथा हालिया हिन्दू समाज में पायी जाती है, वह केवल घूंघट या सर पर पल्लू रख कर देखि जाती है, लेकिन जो पर्दा प्रथा का समर्थन आक्षेपकर्ता ने किया वो बुरखा है, वो किसी भी लिहाज से घूँघट का कार्य तो करता नहीं, फिर बुरखा की बराबरी घूँघट से करना मानसिक दिवालियापन ही है। क्योंकि हालिया समय में हिन्दू समाज में घूँघट या सर पर पल्लू रखना एक नजरिये से देखे तो आदर सूचक ही लगता है जो बड़े बुजुर्गो के सम्मान हेतु रखते हैं, लेकिन बुरखा घूँघट या पर्दा की बराबरी नहीं कर सकता, फिर क्यों बराबर जोड़ा गया ?

अब हम इस लेख में ज्यादा तो अब नहीं लिख सकते, क्योंकि बड़ा हो जाएगा, अतः अब हम अगले लेख में देखेंगे, कि :

बुरका प्रथा मुस्लिम समाज में कैसे आया ?

बुरखे की हानिया और आज का आतंकवाद

बुरखे से महिलाओ को होने वाली बीमारियां तथा बुरखे पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण

बुरखे के कारण मुस्लिम महिलाओ की स्थति

महिला विकास में अवरोधक बुरखा

और क्या बुरखा महिलाओ के प्रति छेड़ छाड़ और बलात्कार रोक पाता है ?

अगले लेख में।

आओ लौट चले वेदो की और।

नमस्ते

मूक पशु भैंसों की हत्या रोकने पर महर्षि दयानन्द और उदयपुर नरेश महाराणा सज्जन सिंह के बीच वार्तालाप और उसका शुभ परिणाम’

ओ३म्

स्वामी दयानन्द जी सितम्बर, 1882 में मेवाड़ उदयपुर के महाराजा महाराणा सज्जन सिंह के अतिथि थे। नवरात्र के अवसर पर वहां भैंसों का वध रोकने की एक घटना घटी। इसका वर्णन महर्षि के 10 से अधिक प्रमुख जीवनीकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों में किया है। हम यहां मास्टर लक्ष्मण आर्य द्वारा महर्षि दयानन्द के उर्दू जीवन चरित में प्रस्तुत घटना को प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु कृत हिन्दी अनुवाद से प्रस्तुत कर रहें हैं:

स्वामी जी मूक पशुओं के वकील बनेजब विजयादशमी पर्व आया तो स्वामी जी बग्घी पर बैठकर दशहरा देखने गये तो नवरात्र पर्व पर बलि के लिए भैंसें बहुत मारे जा रहे थे। इस पर स्वामी जी ने उदयपुर के राजदरबार से एक तार्किक विवाद किया। एक अभियोग के रुप में कहा कि भैंसों ने हमें वकील किया है। आप राजा हैं। हम आपके सामने इनका केस (अभियोग) करते हैं। पुरातन प्रथाओं के नएनए रूप दिखाते हुए अन्त में स्वामी जी ने उन्हें समझा दिया कि भैंसों के मारने से पाप के अतिरिक्त कुछ भी लाभ नहीं। यह अत्यन्त क्रूरता है, अन्याय है। तत्पश्चात् स्वामी जी ने उन्हें इससे रोका। तब महाराणा जी (उदयपुर नरेश महाराणा सज्जन सिंह) ने स्वीकार किया और कहा कि हम अविलम्ब तो बन्द नहीं कर सकते, ऐसा करना उचित है। लोग क्रुद्ध होंगे। तब स्वामी जी ने कहा, अच्छा शनैः शनैः घटा दो। तदनुसार वहीं सूची बनाई गई। राणा जी ने प्रतिज्ञा की कि मैं धीरेधीरे इसे घटाने का प्रयास करूंगा।

 

दयानन्द जी गायों के समान भेंस, बकरी, भेड़ इत्यादि सभी उपकारी पशुओं की सुरक्षा व संवर्धन के पक्ष में तथा उनकी हत्या कर मांसाहार के विरुद्ध थे। वह कहते थे कि पशुओं की हत्या वा मांसाहार से मनुष्य का स्वभाव हिंसक बन जाता है और वह योग विद्या के लिए पात्र वा योग्य  नहीं रहता।  योग विद्या का मुख्य लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति और उसका साक्षात्कार है जिसके लिए योगी को बहुत कम मात्रा में शुद्ध शाकाहारी भोजन ही लेना होता है।  मांसाहार करने वालों को अपने इन कर्मों का फल ईश्वर की व्यवस्था से कालांतर में भोगना ही होता है।  अवश्यमेव ही भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम। मनुष्य को मनुष्य मननशील  होने के कारण व सत्य व असत्य को विचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करने के कारण कहते हैं।

 

स्वामी दयानंद द्वारा दी गई मनुष्य की परिभाषा भी पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत है: 

  ‘मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुखदुःख और हानिलाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं, की चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरुप धर्म से पृथक कभी होंवे।स्वामी जी ने इन पंक्तियों में जो कहा है, उसका उन्होंने अपने जीवन में सदैव पूर्णतः पालन किया और विरोधियों के षडयन्त्र का शिकार होकर दीपावली 30 अक्तूबर, 1883 ई. को अपना जीवन बलिदान कर दिया।

हम आशा करते हैं कि पाठक इससे उचित शिक्षा ग्रहण करेंगे।

 

प्रस्तुतकर्तामनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

 

 

धर्म विषयक सत्य व यथार्थ ज्ञान को ग्रहण करना व कराना कठिन कार्य है’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज का चतुर्थ नियम यह बनाया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। इस नियम को सभी मनुष्य चाहे वह किसी भी धर्म के अनुयायी क्यों न हों, सत्य मानते व स्वीकार करते हैं परन्तु व्यवहार में वह ऐसा करते हुए अर्थात् असत्य को छोड़ते और सत्य को ग्रहण करते हुए दीखते नहीं है। महर्षि दयानन्द ने लगभग समस्त धार्मिक सत्य सिद्धान्तों व मान्यताओं से युक्त ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश लिखा। आज भी यह ग्रन्थ देश-विदेश में प्रचारित व प्रसारित है। होना तो यह चाहिये था कि सभी पठित व विवेकी लोग इसको पढ़ते, असत्य को छोड़ते व सत्य को स्वीकार कर लेते। परन्तु अपवादों को छोड़कर ऐसा नहीं हुआ। अनुमान है कि सभी मतों व सम्प्रदायों के आचार्यों व उनके अनेक अनुयायियों ने इसे पढ़ा व जाना भी है परन्तु सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़़ने के सिद्धान्त को मानते हुए भी शायद ही किसी ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखित सत्य मान्तयाओं व सिद्धान्तों को अपनाया हो। ऐसा नहीं कि सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ का कुछ प्रभाव नहीं हुआ, संसार के मुख्यतः धार्मिक लोगों ने तर्क व युक्ति को अपनाया और तर्क का स्थान कुछ सीमा तक कुतर्क ने ले लिया है। इसका कारण जानना विचारणीय एवं महत्वपूर्ण हैं। इसी पर आगे विचार करते हैं।

 

सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को लिखने के लेखक के आशय व लोग सत्य मान्यताओं को स्वीकार क्यों नहीं करते, इस पर महर्षि दयानन्द की ग्रन्थ में लिखी भूमिका पर दृष्टि डाल लेते हैं। वह कहते हैं कि मेरा इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन (मुख्यतः धर्म मतमतान्तर संबंधी) सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है। अर्थात् जो सत्य है, उसको सत्य और जो मिथ्या है, उसको मिथ्या ही प्रतिपादन करना, सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाये। किन्तु जो पदार्थ जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिये वह सत्य मत को प्राप्त नही हो सकता। इसीलिए विद्वान आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरुप समर्पित कर दें, पश्चात वे स्वयं अपना हिताहित समझकर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहे। यहां महर्षि दयानन्द ने यह बताया है कि सभी मतों व धर्म के पक्षपाती लोग अपने असत्य को नहीं छोड़ते और दूसरे मत के सत्य को ग्रहण नहीं करते हैं, ऐसे लोग सत्य मत व धर्म को कभी प्राप्त नहीं हो सकते। वह अपनी हानि तो करते ही हैं, अपने उन अनुयायियों की जो उन पर आंखें बन्द कर विश्वास रखते हैं, उनकी भी हानि करते हैं। यह भी एक वा प्रमुख कारण समाज, देश व विश्व में अशान्ति का होता है।

 

इसके आगे महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि ’मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु, इस ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में ऐसी बात नहीं रक्खी है और किसी का मन दुखाना या किसी की हानि पर तात्पर्य है। किन्तु, जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें। क्योंकि, सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। यहां महर्षि दयानन्द ने मनुष्य के असत्य में झुक जाने का कारण उसकी स्वार्थ की प्रवृत्ति, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों को बताया है। यहां जो कारण बतायें गये हैं, वह निर्विवाद है। यही कारण है कि आज संसार में एक धर्म के स्थान पर अनेकानेक धर्म वा मत-मतान्तर आदि फैले हुए हैं।

 

सभी मत-मतान्तरों के लोग अपने-अपने मत की सत्य व असत्य मान्यताओं पर विवेकरहित होकर विश्वास रखते व आचरण करते हैं, इस कारण वह न तो ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरुप को जान पाते हैं और न हि ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान के महत्व को समझ पाते हैं। ईश्वर के ज्ञान वेद से लाभ उठाना तो बहुत दूर की बात है। मनुष्य को अपने सभी काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य व असत्य को विचार करके करने चाहिये, इससे भी यह मताग्रही लोग वंचित रहते हैं जिससे वर्तमान व परजन्म में अनेक हानियां उठाते हैं। संसार का उपकार करना अर्थात् सभी मनुष्यों की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना भी मनुष्य का धर्म है, इससे भी यह मताग्रही लोग दूर ही रहते हैं। इन मताग्रहियों का अज्ञानपूर्वक अपने मत को उत्तम मानने के कारण ऐसा देखने को नहीं मिलता कि कि इनका व्यवहार दूसरे मतों के लोगों के प्रति प्रीति का, धर्मानुसार व यथायोग्य है, इस कारण ये यथार्थ धर्म के आचरण से भी दूर ही रहते हैं। संसार का श्रेष्ठ सिद्धान्त है कि मनुष्यों को अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। हम समझते हैं कि शायद् इस मान्यता का कोई भी विरोघी नहीं हो सकता व है। विज्ञान भी इसी सिद्धान्त पर कार्य करता है और उसने इस सिद्धान्त को अपनाकर ही असम्भव दीखने वाले कार्यों को सम्भव बना दिया है। यदि धर्म में भी अविद्या के नाश और विद्या की वृद्धि के इस सिद्धान्त का प्रवेश होता व अब भी हो जावें, तो सभी धर्मों वा मतों से असत्य, अज्ञान, अविद्या व अभद्र दूर हो सकते हैं। मताग्रहियों द्वारा इस सिद्धान्त का यथार्थ रूप में पालन न करने से वह अविद्या से ग्रसित रहते हैं व हैं। मत-मतान्तरों के व्यवहार के कारण अविद्या की भविष्य में भी दूर होने की कोई सम्भावना नहीं है। वेदों का एक सर्वमान्य सिद्धान्त यह है कि सभी मनुष्यों को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट नहीं रहना चाहिये अपितु संसार के सभी मनुष्यों की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझनी चाहिये। यह सभी मत-मतान्तर इस उद्देश्य की पूर्ति में भी बाधक सिद्ध हो रहे हैं जिसका कारण सत्य को व्यवहार व आचरण में न लाना वा स्वीकार न करना है। मत-मतान्तरों में निहित अज्ञान के कारण इनके सभी अनुयायी सामाजिक सर्वहतकारी नियम पालन करने में परतन्त्र रहने के सिद्धान्त के विपरीत भी आचरण करते हुए स्पष्ट दिखाई देते हैं जिससे सभी मनुष्यों की सर्वांगीण उन्नति में बाधा उपस्थित होती है।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने समय में ईश्वर पूजा और मूर्तिपूजा को एक दूसरे का पर्याय समझने का खण्डन करते हुए मूर्तिपूजा को अकरणीय व त्याज्य सिद्ध किया था। अवतारवाद, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जाति और सामाजिक विषमता, बाल विवाह, बेमेल विवाह, सती प्रथा, अशिक्षा, अन्धविश्वास व अज्ञान का विरोध कर उन्हें वेद, तर्क व युक्तियों से खण्डित किया था जिसके प्रमाण आजतक किसी को नहीं मिले। इस पर भी इन सबका किसी न किसी रूप में व्यवहार हो रहा है जो कि देश व समाज के लिए हितकर नहीं है। अन्य मत के लोग भी हिन्दुओं का छल, प्रपंच, प्रलोभन, छद्म सेवा, बल प्रयोग व भय से धर्मान्तरण करने के नये-नये तरीके अपनाते रहते हैं। इतिहास में जो हुआ है वह सबके सामने है परन्तु लगता है कि इससे हमारे धर्म व संस्कृति के ठेकेदारों ने कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की। मनुस्मृति में चेतावनी दी गई है कि धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है तथा जो मनुष्य व समाज धर्म का पालन करके उसकी रक्षा नहीं करता, धर्म भी उसकी रक्षा नहीं करता। अतीत में ऐसा हो चुका है कि हमारे पूर्वजों ने जिस पौराणिक मत का पालन किया, उसने उसकी रक्षा नहीं की। गुलामी व देशविभाजन सहित हमारे पूर्वजों, माताओं व बहिनों को अपमानित किया गया व होना पड़ा और अपना धर्म तक गंवाना पड़ा। ऐसा ही कुछ-कुछ वर्तमान व भविष्य में भी हो सकता है। अतः सभी मनुष्यों को वेदों का अध्ययन कर अपने अज्ञान को दूर कर अन्धविश्वासपूर्ण धार्मिक व सामाजिक मान्यताओं, विचारों व आस्थाओं को बदलना ही होगा। जो पदार्थ लचीला न हो वह टूट जाता है। हमें व संसार के सभी लोगों को लचीला होने का परिचय देना है। सत्य का आचरण ही मनुष्य धर्म है। इसी से मानवता की रक्षा होगी। आईये, सत्य के ग्रहण व असत्य के छोड़ने वा सत्य व असत्य को जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ के अध्ययन का व्रत लें। अविद्या के नाश व विद्या की उन्नति द्वारा स्वयं की उन्नति के लिए यह अति आवश्यक है। यदि ऐसा कर लाभ नहीं उठायेंगे तो पछताना होगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

श्राद्ध और गरुड़ पुराण की वास्तविकता: डॉ धर्मवीर परोपकारिणी सभा

 

पुराण और गप्प दोनों शब्द अन्योन्याश्रित हैं। जब गप्पे अधिक हो जायें तो पुराण बन जाता है। पुराण है तो गप्पों की भरमार होनी है। सामान्य रूप से सभी धार्मिक लोग धर्म में चमत्कार बताने के लिये गप्पों का आश्रय लेते ही हैं। इसी कारण धर्मग्रन्थों में गप्पों की कमी नहीं मिलती। पुराण और जैन ग्रन्थ तो गप्पों में एक से एक बढ़कर हैं। गरुड़ पुराण में भी गप्पों की कमी नहीं है। गरुड़ पुराण में यमलोक के मार्ग का वर्णन करते हुए मार्ग में पड़ने वाली वैतरणी नदी की चौड़ाई शत योजन विस्तीर्ण अर्थात् सौ योजन चौड़ी बताई है, एक योजन में चार कोस होते हैं, एक कोस में दो मील होते हैं। यह नदी कोई पानी की नदी नहीं है, यह नदी पूय शोणित वाहिनी अर्थात् जिसमें खून और पस बहती है। ऐसी कोई नदी संसार में है नहीं परन्तु पुराणकार के नक्शे में तो है। एक आर्यसमाजी को गरुड़ पुराण का परिचय सत्यार्थप्रकाश की निन पंक्तियों से मिलता है, जो अन्यों के लिए भी उतना ही सटीक है-

प्रश्न- क्या गरुड़ पुराण भी झूठा है?

उत्तर- हाँ, असत्य है।

प्रश्न- फिर मरे हुए जीव की क्या गति होती है?

उत्तर- जैसे उनके कर्म हैं।

प्रश्न- जो यमराज राजा, चित्रगुप्त मन्त्री, उसके बड़े भयङ्कर गण कज्जल के पर्वत के तुल्य शरीरवाले जीव को पकड़ कर ले जाते हैं, पाप-पुण्य के अनुसार नरक-स्वर्ग में डालते हैं। उसके लिये दान, पुण्य, श्राद्ध, तर्पण, गोदानादि वैतरणी नदी तारने के लिये करते हैं। ये सब बात झूठ क्योंकर हो सकती हैं।

उत्तर- ये सब बातें पोपलीला के गपोड़े हैं। जो इस लोक से भिन्न लोकों के जीव वहाँ जाते हैं, उनका धर्मराज, चित्रगुप्त आदि न्याय करते हैं तो यदि यमलोक के जीव पाप करें तो दूसरा यमलोक मानना चाहिये कि वहाँ के न्यायाधीश उनका न्याय करें और पर्वत के समान यमगणों के शरीर हों तो दीखते क्यों नहीं? और मरनेवाले जीव को लेने में छोटे द्वार में रुक जाते। जो कहो कि वे सूक्ष्म देह भी धारण कर लेते हैं तो प्रथम पर्वतवत् शरीर के बड़े-बड़े हाड़ पोपजी विना अपने घर के कहाँ धरेंगे? जब जङ्गल में आगी लगती है तब एकदम पिपीलिकादि जीवों के शरीर छूटते हैं। उनको पकड़ने के लिये असंय यम के गण आवें तो वहाँ अन्धकार हो जाना चाहिये और जब आपस में जीवों को पकड़ने को दौड़ेंगे तब कभी उनके शरीर ठोकरें खा जायेंगे तो जैसे पहाड़ के बड़े-बड़े शिखर टूटकर पृथिवी पर गिरते हैं, वैसे उनके बड़े-बड़े अवयव गरुड़पुराण के बाँचने-सुनने वालों के आँगन में गिर पड़ेंगे तो वे दब मरेंगे वा घर का द्वार अथवा सड़क रुक जायगी तो वे कैसे निकल और चल सकेंगे? श्राद्ध, तर्पण, पिण्ड-प्रदान उन मरे हुए जीवों को तो नहीं पहुँचता, किन्तु मृतकों के प्रतिनिधि पोपजी के घर, उदर और हाथ में पहुँचता है। जो वैतरणी के लिये गोदान लेते हैं, वह तो पोपजी के घर में अथवा कसाई आदि के घर में पहुँचता है। वैतरणी पर गाय नहीं जाती, पुनः किसकी पूँछ पकड़ कर तरेगा? और हाथ तो यहीं जलाया वा गाड़ दिया गया, पूँछ को कैसे पकड़ेगा? यहाँ एक जाट का दृष्टान्त इस बात में उपयुक्त है-

एक जाट था। उसके घर में बीस सेर दूध देनेवाली गाय थी। दूध बड़ा स्वादिष्ट होता था। कभी-कभी पोपजी के मुख में भी पड़ता था। उसका पुरोहित यही ध्यान कर रहा थ कि जब जााट का बुड्ढा बाप मरने लगेगा तब इस गाय का सङ्कल्प करा लेंगे। दैवयोग से उसके बाप का मरण समय आया। जीभ बन्द हो गई और खाट से नीचे उतार सुवाया। बहुत से जाट के सबन्धी उपस्थित थे। उस समय पोपजी पुकारा- ‘‘लो यजमान! इसके हाथ से गोदान कराओ।’’ जाट ने दश रुपया निकाल, पिता के हाथ में रखकर बोला- ‘‘पढ़ो सङ्कल्प!’’ पोपजी बोले- ‘‘वाह! बाप वारवार मरता है? साक्षात् गाय लाओ, वह दूध भी देती हो, बुड्ढी न हो और सब प्रकार उत्तम हो।’’

जाट- एक गाय हमारे है, उसके विना हमारे लड़के-बालों का निर्वाह नहीं हो सकता, उसको न दूंगा। लो ये बीस रुपये का सङ्कल्प। तुम दूसरी गाय ले लेना।

पोपजी- वाहजी वाह! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो? अपने पिता को वैतरणी में डुबा, दुःख देना चाहते हो? तुम अच्छे सुपुत्र हुए! तब तो पोपजी की ओर सब कुटुबी हो गये, क्योंकि उन सबको पहिले ही से पोपजी ने बहका रक्खा था और उस समय भी इशारा कर दिया। सबने मिलकर हठ से उसी गाय का दान पोपजी को दिला दिया। उस समय जाट कुछ भी न बोला। उसका पिता मर गया। पोपजी गाय, बछड़ा और दूध दोहने की बटलोही लेकर, घर में जा, गाय-बछड़े को बांध, बटलोही को धर, यजमान के घर आया, श्मशान में ले जा, दाह किया। वहाँाी कुछ-कुछ पोपलीला चलाई। पश्चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उसको मूंडा। महाब्राह्मणों ने भी लूटा, भुक्खड़ों ने भी बहुत-सा माल पेट में भरा। जब सब हो चुका, तब जाट ने जिस-किसी के घर से दूध माँग-मूंग निर्वाह किया। चौदहवें दिन प्रातःकाल पोपजी के घर पहुँचा। देखा तो गाय को दुह, बटलोई भर, पोपजी की उठने की तैयारी थी। इतने ही में जाटजी पहुँचे। पोपजी ने कहा आइये बैठिये!

जाटजी- तुम भी इधर आओ।

पोपजी- अच्छा दूध धर आऊँ।

जाटजी- नहीं, दूध की बटलोई इधर लाओ। पोपजी जो, बटलोई सामने धर, बैठे।

जाटजी- तुम बड़े झूठे हो।

पोपजी- क्या झूठ किया?

जाटजी-गाय किसलिये ली थी?

पोपजी- तुहारे बाप के वैतरणी तरने के लिये।

जाटजी- फिर तुमने वैतरणीके किनारे क्यों न पहुँचाई? हम तुहारे भरोसे पर रहे। न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे?

पोपजी- नहीं-नहीं, वहाँ इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बन गई। तुहारे बाप को पार उतार दिया।

जाटजी- वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है?

पोपजी- अनुमान तीस क्रोड़ कोश दूर है। क्योंकि उनञ्चास कोटि योजन पृथिवी है और दक्षिण नैर्ऋत दिशा में वैतरणी नदी है।

जाटजी- इतनी दूर से तुहारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो, उसका उत्तर आया हो कि वहाँ पुण्य की गाय बन गई, अमुक के पिता को पार उतार दिया, दिखलाओ?

पोपजी- हमारे पास ‘गरुड़पुराण’ के लेख के विना डाक वा तारवर्की दूसरी कोई नहीं।

जाटजी- इस गरुड़पुराण को हम सच्चा कैसे मानें?

पोपजी- जैसे सब मानते हैं।

जाटजी- यह पुस्तक तुहारे पुरुखाओं ने तुहारी जीविका के लिये बनाया है। क्योंकि पिता को विना अपने पुत्रों के कोई प्रिय नहीं। जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी-पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी के किनारे गाय पहुँचा दूँगा और उनको पार उतार, पुनः गाय को घर में ले आ, दूध को मैं और मेरे लड़के-बाले पिया करेंगे, लाओ! दूध की भरी हुई बटलोई, गाय, बछड़ा लेकर जाटजी अपने घर को चला।

पोपजी- तुम दान देकर लेते हो, तुहारा सत्यनाश हो जायगा।

जाटजी- चुप रहो! नहीं तो तेरह दिन तक दूध के विना जितना दुःख हमने पाया है, सब कसर निकाल दूँगा। तब पोपजी चुप रहे और जाटजी गाय-बछड़ा ले, अपने घर पहुँचे।

जब ऐसे ही जाटजी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले।

सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 11, पृ. 408-411

इसी प्रकार इक्कीस प्रकार के नरकों का वर्णन किया गया है। गरुड़ पुराण अन्य पुराणों की भांति यज्ञों में पशु हिंसा का भी उल्लेख करता है, वेदोक्त यज्ञ की हिंसा के अतिरिक्त अपने लिये पशु मारता है, ऐसा ब्राह्मण वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में शूद्र द्वारा वेद पढ़े जाने पर दण्ड विधान है, वेद पढ़ने वाला शूद्र भी वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में लिखा है जो शूद्र होकर वेद पढ़ता है, जो शूद्र कपिला गाय का दूध पीता है, यज्ञोपवीत धरण करता है, ब्राह्मणों से संसर्ग करता है, ऐसा वेद पढ़ने वाला शूद्र वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में लिखा है- दूसरी नदियाँ स्नान करने से पापी पुरुष को पवित्र करती हैं। यह गंगा नदी दर्शन तथा स्पर्श से, पान करने से, गंगा शब्द के उच्चारण मात्र से हजारों पापी पुरुषों को पवित्र कर देती है। यदि प्राण कण्ठ में आ गये हों फिर भी यदि मनुष्य गंगा-गंगा ऐसा उच्चारण करे तो वह विष्णु लोक को प्राप्त होता है। इसी प्रकार गरुड़ पुराण में सती-प्रथा का भी महत्व बताते हुए कहा गया है- यदि पतिव्रता स्त्री पति के साथ परलोक जाने की इच्छा करे, तब वह पति के मरने के बाद स्नानकर, रोली, केसर, अंजन, सुन्दर वस्त्र, आभूषण धारण कर ब्राह्मण व बन्धु वर्ग को यथायोग्य दान करे। गुरुजनों को नमस्कार करे, मन्दिर में देवता के दर्शन करे, पहने हुए आभूषण उतारकर विष्णु को अर्पित कर दे। श्रीफल लेकर सब मोह छोड़ श्मशान पहुँचे। सूर्य को नमस्कार कर चिता की परिक्रमा कर चिता को पुष्प शय्या समझकर उस पर बैठकर पति को अपनी गोदी में लिटाये। हाथ का श्रीफल सखि को दे अग्नि जलाने का आदेश दे और इस अग्निदाह को गंगा-स्नान समझे। स्त्री गर्भवती हो तो पति के साथ शरीर दाह न करे। पति के साथ चिता में जलने वाली स्त्री का शरीर तो जल जाता है परन्तु आत्मा को कुछ भी कष्ट नहीं होता, सती होने पर नारी के पाप वैसे ही दग्ध हो जाते हैं, जैसे अग्नि में धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं। पतिव्रता स्त्री को अग्नि उसी प्रकार नहीं जलाती जैसे सत्य बोलने वाले मनुष्य को अग्नि नहीं जलाती। पुराणकार कहता है- यदि स्त्री पति के साथ दग्ध हो जाती है तो वह फिर कभी स्त्री शरीर धारण नहीं करती, अन्यथा हर जन्म में वह स्त्री ही बनती है। सती होने वाली स्त्री अरुन्धती सदृश होकर स्वर्ग लोक में पूजनीय बन जाती है। स्वर्गलोक में चौदह इन्द्र के राज्य करने तक अपने पति के साथ आनन्द मनाती हुई, अप्सराओं के द्वारा स्तुति को प्राप्त होती है। सती होने होने वाली स्त्री माता-पिता-पति तीनों कुलों का उद्धार करती है। मनुष्य के शरीर पर साढ़े तीन करोड़ रोम हैं, इतने वर्षों तक सती स्त्री स्वर्ग में रहती है, सूर्य-चन्द्र के रहने तक पतिलोक में निवास करती है। सती स्त्री अपनी इच्छा से पुनः लक्ष्मीवान कुल में जन्म धारण करती है। पुराण गप्पकार अन्त में कहता है- जो स्त्री क्षणमात्र अग्निदाह के दुःख से भयभीत अपने को नहीं जलाती, वह जन्मपर्यन्त वियोग अग्नि में जलती है और दुःखी होती है। अतः स्त्री को उचित है कि पति को रुद्र रूप जानकर उसके साथ अपने शरीर का दाह करे।

गरुड़ पुराण में सोलह अध्याय हैं परन्तु इस पुराण का मन्तव्य नौवें अध्याय से तेरहवें अध्याय में पूर्ण हो जाता है। प्रारभ के अध्यायों में यम मार्ग की चर्चा है। यमालय, वैतरणी का वर्णन है। आगे किस पाप को करने से मनुष्य कौनसी योनि को प्राप्त करता है, बताया गया है। गर्भ के दुःख किस प्रकार के हैं, यह बताकर अपने प्रयोजन को सिद्ध करने की भूमिका  में कहा गया है- मनुष्य पाप करके भी कैसे पाप के दुःखों से बच सकता है, उसके उपाय के रूप में पुत्र-प्राप्ति और पुत्र द्वारा किया श्राद्ध मनुष्य को सभी दुःखों से छुड़ा देता है, यहाँ भूमिका के रूप में एक कथा कही गई है, जो राजा एक प्रेत का और्ध्व दैहिक कर्म करके उसे दुःखों से मुक्ति दिला देता है।

मनुष्य मरने लगे तो उसे शैय्या से उतार कर तुलसी दल के पास गोबर से लिपे स्थान पर लिटा दे। पास में शालीग्राम रखे। इससे निश्चित मुक्ति होती है। तिलदान, दर्भ का स्पर्श, शालीग्राम का जल पिलाना, गंगाजल मुख में डालना। जो मनुष्य धर्मात्मा होता है, उसके प्राण शरीर के उपरि छिद्र से निकलते हैं। जो पापी होता है, उसके प्राण देह के निन छिद्रों से निकलते हैं। विष्णुलोक से विमान आकर उस आत्मा को विष्णु लोक ले जाता है।

दसवें अध्याय में मृत्यु के बाद, पुत्र मुण्डन कराये, गंगा की मिट्टी का शरीर पर लेप करे, शव को स्नान कराकर चन्दन का लेप करे, नवीन वस्त्र से ढककर पिण्डदान करे, परिवार के लोग शव की प्रदिक्षणा कर सर्वप्रथम  पुत्र अर्थी को कन्धा देवे। अग्नि की प्रार्थना कर श्मशान में चिता बनावे, पिण्ड बनाकर चिता में रखे, सपिण्ड श्राद्ध करे। जो पञ्चक में मरता है, उसकी सद्गति नहीं होती, पञ्चक पांच नक्षत्रों को कहते हैं। इनमें मरने पर पहले नक्षत्रों की पूजा करे, पत्नी सती होना चाहे तो सती हो जाये। शव का दाह कर कपाल क्रिया करे। स्त्रियाँ स्नान कर तिलाञ्जलि देवें। घर आकर स्नानकर गो ग्रास दे, जो भोजन अपने घर न पका हो, उसका पत्तल में भोजन करे। बारह दिन तक मृतक के स्थान पर घृत का दीपक जलाये। चौराहे पर दूध पानी रखे। तीसरे या चौथे दिन श्मशान जाकर अस्थि का चयन करे। दूध का जल छिड़क कर अग्नि को शान्त करे। तीन दिशा में तीन पिण्ड दान करे। चिता भस्म को इकट्ठा कर उसपर पानी भरा घड़ा रखे, श्मशान में प्रथम गड्ढे में अस्थि-पात्र रखे फिर जलाशय में ले जावे, फिर यथाविधि गंगा में प्रक्षेप करे। जिसकी अस्थियाँ जितने वर्ष गंगा में रहती हैं, वह उतने वर्ष स्वर्ग लोक में रहता है। संन्यासियों को जल में बहा दे या भूमि में गाड़ दे।

ग्यारहवें अध्याय में दशगात्र विधि का वर्णन है। मरे व्यक्ति का पाक्षिक, मासिक, फिर वार्षिक श्राद्ध करे। दशरात्रि प्रेत के नाम पर दूध, दीप, नैवेद्य, सुपारी, पान, दक्षिणा, दूध, पानी आदि देवे, जो प्रेत के नाम से देते हैं, वह प्रेत को प्राप्त हो जाता है। इस में पहले दिन से दसवें दिन तक प्रतिदिन क्या करे, इसका वर्णन है। दसवें दिन सब परिवार वाले मुण्डन कराके स्नान कर ब्राह्मणों को दसों दिन तक मिष्टान्न भोजन कराये, गो ग्रास दे कर भोजन करें।

ग्यारहवें दिन वृषोत्सर्ग करे, शय्यादान करे, शय्या में विष्णु की स्वर्ण प्रतिमा बनाकर दान करें, प्रेत के लिये गौ, वस्त्र, वाहन, आभूषण, घर जो भी जितना देने में समर्थ हो, उतना ब्राह्मणों को दान करे। ब्राह्मणों के चरण धोये, लड्डू मिष्टान्न आदि देवें। वृषोत्सर्ग करने से मनुष्य सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। इसमें अड़तालीस प्रकार के श्राद्ध बताये गये हैं।

अगले तेरहवें अध्याय में सूतक का वर्णन है। किस दुर्घटना से किस सबन्ध को कितने दिन का सूतक होता है, यह विस्तार से बताया गया है। हर स्थान पर शय्या दान, पददान का विधान है। पददान में छाता, जूता, वस्त्र, अंगूठी, कमण्डल, आसन, पञ्चपात्र, इन सात वस्तुओं का नाम पद है। इसके बाद तेरह ब्राह्मण को भोजन करावें। फिर तीर्थ-श्राद्ध, गया-श्राद्ध, पितृ-श्राद्ध करने का विधान है। इस प्रकार श्राद्ध करने से पितर तृप्त और प्रसन्न होते हैं।

गरुड़ पुराण में बहुत सारी बाते प्रसंगवश उद्धृत हैं, उनपराी दृष्टि डालना उचित होगा। एक लबी सूची दी गई है, क्या-क्या करने से मनुष्य नरक को प्राप्त होते हैं, पूरा चौथा अध्याय ऐसा है, जिसका शीर्षक है- ते वै नरक गामिनः। ब्राह्मण यदि यज्ञ न करे, अखाद्य खाये तो अगले जन्म में व्याघ्र बनेगा। पाँचवें अध्याय में क्या करने से कौन-सी योनि प्राप्त होती है, इसका वर्णन किया गया है। जैसे जो बाहर से ब्राह्मण वेषधारी है, सन्ध्या नहीं करता, वह अगले जन्म में बगुला बनता है। मनुष्य के शुभाशुभ कर्म समान होने पर पुनः मनुष्य जन्म मिलता है- ‘‘मानुषं लभते पश्चात् समी भूते शुभाऽशुभे। 5/52’’ छठे अध्याय में मनुष्य के तीन ऋण की चर्चा की गई है। गर्भ में वृद्धि किस प्रकार होती है, इसकी प्रसंग से चर्चा की गई है। जीवन की नश्वरता बताते हुए धर्माचरण करने की प्रेरणा दी गई है। कर्मफल के अनुसार मनुष्य पुनर्जन्म को प्राप्त करता है। ग्यारहवें अध्याय में शरीर की अनित्यता का सुन्दर वर्णन है। मरने वाले के लिये रोना व्यर्थ है, वह कभी लौटकर नहीं आता। चौदहवें अध्याय में स्वर्ग की धर्मसभा का वर्णन है, इसमें लबी चौड़ी गप्पें लगाई गई हैं। उस धर्म सभा में वेद-पुराण का पारायण करने वालों को स्थान मिलने की चर्चा है। इसी अध्याय में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासियों का भी उल्लेख मिलता है। नवीन वेदान्त की चर्चा में अध्यारोप अपवाद से ब्रह्म चिन्तन करने का विधान किया गया है। शरीर के पारमार्थिक और व्यावहारिक दो रूपों का वर्णन किया गया है। शरीर के अन्दर सात लोक कौनसे हैं? इस की चर्चा है। मोक्ष प्राप्ति के लिये अजपा गायत्री जप का विधान किया है। धर्मात्मा स्वर्ग का सुख पाकर पुनः गर्भ में कैसे आता है, इसका वर्णन करते हुए सुन्दर शदों में मनुष्य के शरीर का महत्त्व बताया गया है।

गरुड़ पुराण मुय रूप से और्ध्व दैहिक क्रियाओं के विधि विधान का ग्रन्थ है। जिसमें ब्राह्मणों ने अपने काल्पनिक भय दिखा कर मनुष्य को मृतक के निमित्त से भोजन, दानादि कराने की व्यवस्था है, जिससे परपरा से ब्राह्मणों के अधिकारों का संरक्षण देखने को मिलता है, जैसा कहा गया है-

यह संसार देवताओं के आधीन है, देवता मन्त्रों के आधीन है, मन्त्र ब्राह्मण के आधीन है, अतः सारा संसार ब्राह्मणों के आधीन होता है।

देवाधीनं जगत्सर्वं, मन्त्राधीनाश्च देवताः।

ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनाः, तस्मात् ब्राह्मण दैवतम्।।

– धर्मवीर

‘गोरक्षा-आन्दोलन और गोपालन का महत्व’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आर्य विद्वान और नेता लौह पुरूष पं. नरेन्द्र जी, हैदराबाद की आत्मकथा जीवन की धूपछांव से गोरक्षा आन्दोलन विषयक उनका एक संस्मरण प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘सन् 1966 ईस्वी में पुरी के  जगद्गुरु शंकराचार्य के नेतृत्व में गोरक्षा आन्दोलन चलाया गया था। पांच लाख हिन्दुओं का एक ऐतिहासिक जुलूस लोकसभा तक निकाला गया था। वहां पहुंचकर प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री श्री गुलजारी लाल नन्दा को गोरक्षा नियम बनाने के लिए ध्यानाकर्षण के निमित्त ज्ञापन दिया गया। भारत सरकार ने अपनी शक्ति के द्वारा इस आन्दोलन को समाप्त करने का प्रयत्न आरम्भ कर दिया। सत्याग्रह आन्दोलन उभरता ही गया। हजारों आर्य समाजियों ने सत्याग्रह में भाग लिया। हैदराबाद में पुरी के शंकराचार्य ने 1968 ई. में गोरक्षा-सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए कहा था – ‘‘गोरक्षा आन्दोलन में आर्यसमाज ने अपना जो योगदान दिया है, उसके लिए मैं आर्यसमाज का जन्म भर आभारी रहूंगा। इस आन्दोलन में 21 गोभक्त शहीद हुए। कांग्रेसी राज्य के अत्याचार अनाचार, मारपीट के बावजूद भारत के कोनेकोने से लगातार जत्थे देहली पहुंचकर अपनेआपको गिरफ्तार कराते रहे। ऐसे अवसर पर चुप्पी साधकर बैठना मेरी (पं. नरेन्द्र की) प्रकृति के विरुद्ध था। मैंने उस समय दिल्ली पहुंच कर 112 सत्याग्रहियों के साथ चांदनी चैक, दिल्ली में हजारों हिन्दुओं और आर्यों की उपस्थिति में सत्याग्रह किया। हम सबको तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया, जहां मजिस्ट्रेट ने एकएक मास की सजा सुनाई। हैदराबाद से श्री मुन्नालाल मिश्र, श्री गोपाल देवशास्त्री, श्री सोहनलाल वानप्रस्थी और श्री बंसीलाल जी के अतिरिक्त जालना, गुलबर्गा के आर्य समाजियों ने इसमें बढ़-चढ़ के भाग लिया था। श्री करपात्री जी के त्रुटिपूर्ण नेतृत्व के कारण यह आन्दोलन सफलता के द्वार तक पहुंचने से पूर्व ही सरकार की कूटनीति का शिकार हो गया।’

 

ईश्वरीय ज्ञान वेद में ईश्वर ने गोमाता को ‘‘गो सारे संसार की मां है कहकर सम्मान दिया है। यजुर्वेद के पहले ही मन्त्र में गो की रक्षा करने का निर्देश ईश्वर की ओर से दिया गया है। गोदुग्ध पूर्ण आहार है। जिस  बच्चे व अति वृद्ध के मुंह में दांत नहीं होते उनका पालन पोषण भी गो दुग्ध के द्वारा होता है। हमने पढ़ा था कि भूदान यज्ञ के नेता विनोबा  भावे जी को उदर रोग था जिस कारण अन्न का सेवन उनके लिए निषिद्ध था और वह गो दुग्ध पीकर ही जीवन निर्वाह करते थे। पं. प्रकाशवीर शास्त्री ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक गोहत्या राष्ट्र हत्या में लिखा है कि अनुसंधान में यह पाया गया है कि यदि गो को कई दिनों तक चारा न भी दिया जाये तब भी वह कई दिनों तक भूखी रहकर दूध देती रहती है। हमने स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी की पुस्तक गोदुग्ध अमृत है। में पढ़ा था कि एक निर्धन व असहाय किसान की आंखों की रोशनी चली गयी। उसके घर में एक गाय की बछिया थी जिसे उसका पुत्र पाल रहा था। कुछ महीनों बाद वह गाय बियाई तो घर में दुग्ध की प्रचुरता हो गई। कुछ ही दिनों में उस परिवार में चमत्कार हो गया। उस वृद्ध की आंखों की रोशनी गाय का दूध पीने से लौट आई। आज के समय का सबसे भयंकर रोग कैंसर है। इस रोग में भी गाय का मूत्र कारगर व लाभप्रद सिद्ध होता है। गोसदन में यदि क्षय रोगी को रखा जाये तो उसका रोग भी ठीक हो जाता है। महर्षि दयानन्द ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक गोकरुणानिधि में एक गाय की एक पीढ़ी से होने वाले दुग्ध और उसके बैलों से मिलने वाले अन्न की एक कुशल अर्थशास्त्री की भांति गणना की है और बताया है कि गाय की एक पीढ़ी से दूध और अन्न को मिला कर देखने से निश्चय है कि 4,10,440 चार लाख दश हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है।’ मांस से उनके अनुमान के अनुसार केवल अस्सी मांसाहारी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं। वह लिखते हैं कि ‘‘देखों, तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?’’

 

महर्षि दयानन्द ने अपने समय में गोरक्षा का आन्दोलन भी चलाया था। वह अनेक बड़े अंग्रेज राज्याधिकारियों से मिले थे और गोरक्षा के पक्ष में अपने तर्कों से उन्हें गो हत्या को बन्दर करने के लिए सन्तुष्ट वह सहमत किया था। उन्होंने करोड़ों लोगों के हस्ताक्षर कराकर महारानी विक्टोरिया को भेजने की योजना भी बनाई थी जो तेजी से आगे बढ़ रही थी परन्तु विष के द्वारा उनकी हत्या कर दिये जाने के कारण गोरक्षा का कार्य अपने अन्तिम परिणाम तक नहीं पहुंच सका।

 

ईश्वर से गोरक्षा की प्रार्थना करते हुए वह गोकरुणानिधि पुस्तक की भूमिका में महर्षि दयानन्द कहते हैं कि ‘ऐसा सृष्टि में कौन मनुष्य होगा जो सुख और दुःख को स्वयं न मानता हो? क्या ऐसा कोई भी मनुष्य है कि जिसके गले को काटे वा रक्षा करें, वह दुःख और सुख का अनुभव करे? जब सब को लाभ और सुख ही में प्रसन्नता है, तो बिना अपराध किसी प्राणी का प्राण वियोग करके अपना पोषण करना यह सत्पुरुषों के सामने निन्दित कर्म क्यों होवे? सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर इस सृष्टि में मनुष्यों के आत्माओं में अपनी दया और न्याय को प्रकाशित करे कि जिससे ये सब दया और न्याययुक्त होकर सर्वदा सर्वोपकारक काम करें और स्वार्थपन से पक्षपातयुक्त होकर कृपापात्र गाय आदि प्शुओं का विनाश करें कि जिससे दुग्ध आदि पदार्थों और खेती आदि क्रियाओं की सिद्धि से युक्त होकर सब मनुष्य आनंद में रहे।

 

हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह गो का मांस खाने वाले मनुष्यों के हृदयों में सत्य ज्ञान का प्रकाश करे जिससे वह गोहत्या व गोमांस भक्षण का त्याग करके गो हत्या के महापाप और ईश्वर के दण्ड से बच सकंे तथा उनका अगला जन्म, जो कि निःसन्देह होना ही है, उसमें उन्हें निम्न जीवयोनियों में पड़कर दूसरों जीवों को लिए दुःख के समान स्वयं दुःख न भोग पड़े।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘संसार के सभी मनुष्यों का धर्म क्या एक नहीं है?’ -मनमोहन कुमार आर्य

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संसार में सम्प्रति अनेक मत-मतान्तर फैले हुए हैं जिनकी अनेक मान्यतायें समान, कुछ भिन्न व कुछ एक दूसरे के विपरीत भी हैं। यह सभी मत किसी एक ऐतिहासिक पुरुष द्वारा चलाये गये हैं। यही भी सत्य है कि मनुष्य अल्पज्ञ होता है। यह भी तथ्य है कि सभी मतों के प्रवर्तक वेद ज्ञान से शून्य थे। सब मतों का अपना-अपना एक व एक से अधिक ग्रन्थ हैं जिसे वह धर्म ग्रन्थ कहते हैं और उसकी शिक्षाओं को मानना ही अपना धर्म समझते हैं। यदि सभी मतों की सभी बातें सत्य होती, परस्पर विरोधी न होती, पूर्ण निष्पक्ष होती, तो किसी को कुछ कहने के लिए नहीं था। सभी मतों में प्रायः एक समान्य बात देखने को मिलती है और वह यह है कि वह अपने मतों की समीक्षा, परीक्षा व मूल्याकंन कि वह सभी सत्य हैं तथा उनमें कहीं कोई बात असत्य तो नहीं है, इसका विचार नहीं करते। इनका यह विचार व स्वभाव ज्ञान की उन्नति व विज्ञान के सिद्धान्तों के सर्वथा विपरीत होने से विचारणीय प्रतीत होता है। दूसरी ओर सृष्टि के आरम्भ से चला आ रहा वैदिक धर्म, जिसका आधार ग्रन्थ चार वेद हैं, अपने अनुयायियों को सभी ग्रन्थों के स्वाध्याय, मनन, विचार, चिन्तन, सत्यान्वेषण, सत्य व भद्र के ग्रहण व असत्य-अभद्र के त्याग की पूरी अनुमति व स्वतन्त्रता देता है। इस वैदिक धर्म का पुनरुद्धार करने वाले महर्षि दयानन्द (1825-1883) सभी सत्य मान्यताओं व उनके आचरण को ही धर्म मानते हैं। उनका कहना है कि सभी मतों में जो सत्य है, वह सबमें एक समान होने से धर्म है और उनमें जो सत्य नहीं है, वह उनका अपना है, वह धर्म नहीं हैं। महर्षि दयानन्द वेदों को ईश्वर प्रदत्त होने से स्वतः प्रमाण मानते हैं और अन्य सभी ऋषियों के रचित शास्त्रों के वेदानुकूल होने पर सत्य व विरुद्ध होने पर संशोधनीय, उसमें सुधार करने वा उन्हें त्याज्य मानते हैं। उनके अनुसार जिस मत में सत्य व असत्य दोनों प्रकार की न्यूनाधिक मान्यतायें व सिद्धान्तों हों, उसे वह मत, सम्प्रदाय, मजहब ही स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में धर्म वह है, जो शत-प्रतिशत सत्यासत्य की दृष्टि से विवेचित, तर्क व युक्तियों से पोषित, समीक्षा किया गया, सृष्टिक्रम के पूर्णरूपेण अनुकूल, मनुष्यों में किसी प्रकार के भेदभाव से रहित, सबकी समानता का पोषक, हिंसा, छल, कपट, प्रलोभन से रहित तथा साथ हि जो विचार व चिन्तन कर असत्य पाये जाने पर उसमें संशोधन की अनुमति देता हो।

 

धर्म को समझने के लिए हमें यह जानना है कि संसार में तीन सत्य, नित्य व अनादि पदार्थ है जिनमें एक चेतन ईश्वर है, दूसरा चेतन जीवात्मा व तीसरा जड़ प्रकृति है। इन तीनों में एक हम व संसार के सभी प्राणी चेतन जीवात्मा होते हैं जिनकी संख्या अनन्त हैं। चेतन तत्व में ज्ञान व गति होती है। गति को कर्म के नाम व रूप में भी जान सकते हैं। जीवात्मा का एक गुण व स्वभाव, जन्म व मृत्यु, फिर जन्म और फिर मृत्यु को प्राप्त होना है। यह जन्म व मृत्यु तथा अनेक प्राणी योनि में से एक समय में किसी एक योनि विशेष में इसका जन्म इसके द्वारा पूर्व व वर्तमान मनुष्य योनि में किये गये व किए जाने वाले शुभ व अशुभ कर्मों का परिणाम होता है। परमात्मा का कर्तव्य है कि वह जीव को करणीय व अकरणीय कर्तव्यों का ज्ञान कराये। यह ज्ञान वह सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में चार ऋषियों व अनेक स्त्री-पुरूषों की रचना कर करता है। परमात्मा द्वारा कर्तव्य व अकर्तव्यों का ज्ञान ही ‘‘चार वेद अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। यही कारण है कि विगत लगभग 2 अरब वर्षों से यह ज्ञान हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों की कृपा से आज तक मूल रूप में सुरक्षित है। चारों वेदों की भाषा दिव्य संस्कृत है जो ईश्वर व ऋषियों की भाषा है। समय के साथ अनेक उतार चढ़ाव देश व समाज में आये। अतः ऋषियों ने वेदों को समझाने के लिए उसके अंग व उपांग रूप ग्रन्थों की रचना की। इसके बाद भी जब लोगों ने वेद समझने में कठिनाईयों का अनुभव किया तो ईश्वर प्रदत्त क्षमता से ऋषि और वैदिक विद्वानों ने संस्कृत व हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में वेदों का तात्पर्य समझाने के लिए भाष्य व टीकायें लिखी जिसे पढ़कर भी वेदों में निहित मनुष्यों के कर्तव्य व अकर्तव्यों को जाना जा सकता है। वेदों में निर्दिष्ट कर्तव्य ही धर्म कहलाते हैं और निषिद्ध व कर्तव्यों के विपरीत कार्य व क्रियाओं को ही अधर्म कहा जाता है। संसार के मत व सम्प्रदायों की पुस्तकें जिस सीमा तक वेदों के अनुकूल मान्यताओं व सिद्धान्तों से युक्त हैं, वहां तक वह धर्मयुक्त हैं और जो बातें, कहीं की व किसी की भी, वैदिक शिक्षाओं, मान्यताओं व सिद्धान्तों के विपरीत हैं, वह धर्म नहीं हैं और कहीं-कहीं अधर्म भी हैं। धर्म का पालन करने से सभी मनुष्यों की उन्नति होती है, हानि किसी भी मुनष्य या प्राणी की नहीं होती और अधर्म वह है जो अज्ञान के कारण अपने लाभ के लिए किया जाता है जिससे दूसरों को हानि पहुंचने से वह धर्म न होकर अधर्म ही होता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि सभी संसार के लोग वेदों की शिक्षाओं को पूर्णतः मानें जो कि सबके लाभ व हित के लिए हैं अथवा वह अपने-अपने मत की पुस्तकों का वेदों से मिलान कर उसे संशोधित व परिष्कृत करें। यह संसार व संसार के सभी मनुष्यों के हित में है। यदि ऐसा करते हैं तो विश्व में प्रेम व भ्रातृभाव में वृद्धि होगी अन्यथा हानि ही होगी व हो रही है।

 

धर्म के विषय में यदि हम सामान्य रूप से विचार करें तो धर्म किसी पदार्थ के गुणों को कहते हैं जो सदैव एक समान रहते हैं। अग्नि का गुण जलाना, ताप देना व प्रकाश करना है। साथ ही हम आंखों से जिन आकारवान पदार्थों को देखते हैं वह उनमें अग्नि की उपस्थिति व उसके व्याप्त होने के कारण ही दिखाई देती हैं। यह ताप, जलना, प्रकाश व दर्शन अग्नि का धर्म है। जल का गुण शीतलता देना, मनुष्यों की पिपासा को शान्त करना, अन्न उत्पत्ति में सहायक होना, वर्षा द्वारा स्थान-स्थान पर ओषधियों, अन्न व फलों को उत्पन्न करना व अनेक प्रकार से सभी प्राणियों के लिए उपयोगी होता है। जल का मुख्य गुण शीतलता है। इसी प्रकार से वायु का गुण स्पर्श, पृथिवी का अपना मुख्य गुण गन्ध तथा आकाश का शब्द है। इसी प्रकार से जब जीवात्मा वा मनुष्य की बात करते हैं तो मनुष्य के धर्म में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति को जानना, ईश्वरोपासना करना, यज्ञ करना, माता-पिता-आचार्य- अतिथियों का आदर व सत्कार करना आदि कर्तव्य होते हैं। प्राणी मात्र को प्रेम व मित्र की दृष्टि से देखना और उनके प्रति किसी प्रकार की हिंसा का भाव अपने अन्दर न लाना, वेदों का अध्ययन, गृहस्थ आश्रम के वेद प्रतिपादित कर्तव्यों का पालन, सबसे प्रीतिपूर्वक, यथायोग्य, धर्मानुसार व्यवहार करना ही मनुष्य का धर्म निश्चित होता है। मनुष्य का यह भी कर्तव्य व धर्म है कि स्वयं धर्म को जानकर धर्म को न जानने वाले व विपरीत आचरण करने वालों को यथायोग्य व्यवहार और साम, दाम, दण्ड व भेद की सहायता से उन्हें धर्म का ज्ञान व पालन करना सिखाये। धर्म में हिंसा, अत्याचार, बल प्रयोग, छल, कपट, प्रलोभन आदि का व्यवहार करना अनुचित होता है। जो भी व्यक्ति इनको करता है वह धार्मिक कदापि नहीं हो सकता। इससे यह भी ज्ञात होता है कि संसार के सभी मनुष्यों का धर्म केवल और केवल एक ही है। जिस मत में सब सत्य गुणों का समावेश हो वह धर्म और जिसमें असत्य व दूसरों के प्रति अनुचित व्यवहार व ज्ञान पूर्वक कर्मों का अभाव व न्यूनता हो वह धर्म न होकर मत, पन्थ व सम्प्रदाय की श्रेणी में ही होते हैं। इस दृष्टि से संसार में धर्म तो एक ही सत्याचरण है। यह धर्म वैदिक धर्म है। यदि कोई अपने आप को वैदिक धर्मी कहे और आचरण वेदों के विरुद्ध करे तो वह वैदिक धर्मी होकर भी आचरण की दृष्टि से धार्मिक न होकर उस सीमा तक अधार्मिक ही होता है जिस सीमा तक उसका व्यवहार वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के विपरीत होता है।

 

धर्म का एक आवश्यक अंग ईश्वरोपासना है। ईश्वरोपासना क्या है? यह मनुष्यों द्वारा ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव को जानकर ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, ईश्वर का ध्यान, दुष्ट व बुरे कर्मों का त्याग व सत्याचरण का ग्रहण, प्राणिमात्र पर दया व परोपकार आदि को कहते हैं। इस प्रकार के कर्म व पुरुषार्थ करके अपने सभी शुभकर्मों को ईश्वर को समर्पित करना और ईश्वर का ध्यान व चिन्तन कर स्वयं को अहंकार शून्य करना ही ईश्वरोपासना है और सभी मनुष्यों का धर्म है। ईश्वर को जान लेने और उपासना करने से ईश्वर से हमें प्रारब्ध और पुरुषार्थ के अनुसार सुख व दुःख आदि मिलते ही हैं, उपसना का अतिरिक्त फल भी प्राप्त होता है। महर्षि दयानन्द ने बताया है कि ईश्वर की उपासना का अतिरिक्त फल यह मिलता है कि जिस प्रकार अग्नि के पास जाने से शीत निवृत हो जाता है उसी प्रकार ईश्वर का ध्यान व उपासना करने से जीवात्मा के सभी अभद्र गुण-कर्म-स्वभाव दूर होकर, ईश्वर के अनुरुप भद्र होते जाते हैं। इतना ही नहीं, आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि मृत्यु के समान बड़े से बड़ा दुःख प्राप्त होने पर भी मनुष्य घबराता नहीं है और उसे सहन कर लेता है। यह छोटी बात नहीं है। अन्य किसी प्रकार से यह आत्मिक बल प्राप्त नहीं होता, अतः सभी को अष्टांग योग की विधि से ईश्वर की सत्य व शुभ परिणामदायक उपासना अवश्य करनी चाहिये।

 

सृष्टि उत्पत्ति के कुछ समय बाद मनुष्यों को नियम में रखने के लिए एक राजा, राज परिषद व राज नियमों की आवश्यकता हुई थी। यह कार्य वेदों के ऋषि महर्षि मनु ने किया था और संसार को एक अद्वितीय ग्रन्थ ‘‘मनुस्मृति दिया। अपने आरम्भ काल से लेकर महाभारत व उसके बाद की कई शताब्दियों तक मनुस्मृति अपने शुद्ध स्वरुप में विद्यमान रही। उसके बाद उत्पन्न अनेक सम्प्रदायों के लोगों ने इसमें अपनी-अपनी अशुद्ध व वेद विरुद्ध मान्यताओं के श्लोक बनाकर मिला दिये। इस प्रकार मनुस्मृति अनेक प्रक्षेपों से युक्त हो गई। इस मनुस्मृति में धर्म के लक्षण विषयक एक मूल श्लोक है जिसमें उन्होंने कहा है कि धर्म के दश प्रमुख लक्षण धृति अर्थात् धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, सदबुद्धि, विद्या, सत्य व अक्रोध हैं। जिस मनुष्य में यह लक्षण हों वही धार्मिक होता है। धर्म के यह दश लक्षण सभी मनुष्यों में कुछ-कुछ पाये जाते हैं, किसी में कुछ कम व किसी में कुछ अधिक, परन्तु धर्म के दसों लक्षणों से पूर्णतया युक्त व उसके विपरीत गुणों व लक्षणों से सर्वथा रहित मनुष्यों का मिलता दूभर है। हमें मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण और महर्षि दयानन्द आदि में यह लक्षण पूर्ण रुप से विद्यमान दिखाई देते हैं। यह तीनों महात्मा वस्तुतः पूर्ण धार्मिक थे। इनके बाद इतिहास में इनके समान इन दस लक्षणों से युक्त व इनका सर्वात्मा प्रचार करने वाला मनुष्य वा महापुरुष हमें दृष्टिगोचर नहीं होता। यह धर्म के लक्षण भी सार्वभौमिक एवं सार्वजनीन है। इनसे भी मनुष्यों का एक धर्म होना सिद्ध होता है। इन लक्षणों को मानने वाले सभी मनुष्य वैदिक धर्मी वा मनु-मत के अनुयायी ही सिद्ध होते हैं जिसमें संसार के सभी मनुष्य आ जाते हैं। इन लक्षणों के अनुरुप जीवन के निर्माण के लिए वैदिक शिक्षा पूर्ण सहायक है। वर्तमान की स्कूली शिक्षा में इन धार्मिक लक्षणों के अनुरुप शिक्षा न होने के कारण वास्तविक धर्म हमारे जीवन में न्यूनतम हो गया है।

 

संसार में जितनी भी मनुष्यों की भौगोलिकि दृष्टि से जातियां, मत व सम्प्रदाय हैं उसके सभी मनुष्यों को सुख समान रूप से प्रिय लगते हैं व दुःख सबको समान रुप से सताते हैं। ऐसा कोई नहीं कि भारत में किसी को सुई चुभायें तो उसे दुःख होता हो और यूरोप व अन्य किसी देश-प्रदेश में ऐसा ही किया जाये तो वहां सुख होता हो। इससे तो यही सिद्ध हो रहा है कि संसार के सभी मनुष्यों के गुण-कर्म-स्वभाव, कर्तव्य व धर्म एक ही वा एक प्रकार के हैं। सत्य बोलना, सत्य का आचरण करना, ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव रखना और बड़ों का आदर सभी मतों में एक समान हैं। यदि सभी धर्मों व मतों की मौलिक शिक्षायें एक ही प्रकार की हैं, तो यह सभी मनुष्यों का एक धर्म होने का संकेत कर रही हैं। संसार के सभी मनुष्यों को उनके एक समान धर्म के अधिकार से वंचित किया जाना उनके प्रति व मानवता के प्रति न्याय नहीं है। हम सभी मत व सम्प्रदायों के आचार्यों से यह कहना चाहते हैं कि वह स्वयं से ही प्रश्न करें कि क्या संसार के लोगों के धर्म व मत अलग-अलग मानना उचित है? हमें लगता है कि उत्तर नहीं में मिलेगा। यह बात इससे भी सिद्ध है कि कुछ मतों के लोग दूसरे मतों व धर्मों के लोगों का लोभ, बल प्रयोग, छल-कपट व हिंसा आदि से धर्म-परिवर्तन करते हैं। इतिहास इस प्रकार की घटनाओं से भरा पड़ा है। यदि एक व्यक्ति का एक व अधिक बार अन्य अन्य मतों में धर्म परिवर्तन हो सकता है तो यह सम्प्रदाय परिवर्तन ही कहा जा सकता है, धर्म परिवर्तन नहीं। इस धर्म परिवर्तन से उस व्यक्ति में गुणों व लक्षणों की दृष्टि कुछ मौलिक परिवर्तन होता हुआ देखा नहीं जाता। जैसा वह पहले होता है, वैसा ही बाद में भी रहता है। हां, उसके कपड़े, रहन-सहन के तरीके व पूजा पद्धति में किंचित बदलाव होता है परन्तु उसके सुख-दुःखों में कोई अन्तर आता हो, इसका पता नहीं चलता। सुख में वृद्धि तो सत्याचरण व ईश्वर के निकट जाने से ही मिलती है और उस ईश्वर से दूरी होने पर दुःख, अवनति व विनाश ही होता है। हमारा विनम्र निवेदन है कि सभी मतों व धर्मों के लोग सच्चे मन से विचार करें कि क्या सभी मनुष्यों का धर्म एक ही है या नहीं? अगर किसी से कोई नई बात पता चलती है, तो हम अनुग्रहीत होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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फोनः09412985121