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‘स्वामी दयानन्द अपूर्व सिद्ध योगी व पूर्ण वैदिक ज्ञान से संपन्न महापुरुष थे’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द जी के समग्र जीवन पर दृष्टि डालने पर यह तथ्य सामने आता है कि वह एक सिद्ध योगी तथा आध्यात्मिक ज्ञान से सम्पन्न वेदज्ञ महात्मा और महापुरुष थे। अन्य अनेक गुण और विशेषातायें भी उनके जीवन में थी जो महाभारतकाल के बाद उत्पन्न हुए संसार के अन्य मनुष्यों में नहीं पायी जाती। वस्तुतः यह दोनों उपलब्धियां ही उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य बनी थीं। आरम्भ में तो उन्हें पता नहीं था कि जिस उद्देश्य के लिए वह अपना घर व माता-पिता का त्याग कर रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा? उन्होंने सच्चे शिव संबंधी ज्ञान की प्राप्ति और मृत्यु पर विजय पाने को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। उन्हें इस बात का आभास था कि सच्चे योगियों से उनके मनोरथ पूर्ण हो सकते हैं। इसलिए हम पाते हैं कि घर से चलकर वह विद्या प्राप्ति में निपुणता प्राप्त होने तक ज्ञानियों व योगियों की ही संगति में देश भर में सभी सम्भावित स्थानों पर खोज करते रहे। उनका यह गुण था कि अपने लक्ष्यों की प्राप्ति से सम्बन्धित उन्हें जहां जिससे जितना भी ज्ञान मिलता था, उसे वह प्राप्त कर लेते थे और उससे आगे के लिए वह अन्य सम्भावित स्थानों की ओर चल पड़ते थे।

 

स्वामी दयानन्द जी ने अपने जीवन के लक्ष्य की पूर्ति में सहायता के लिए शीघ्र की ब्रह्मचर्य की दीक्षा व उसके बाद संन्यास ले लिया था। उन्होंने अपने जीवन का पर्याप्त समय गुजरात के प्रसिद्ध धार्मिक तीर्थों, मध्यप्रदेश के नर्मदा तट व नर्मदा के स्रोत अमरकण्टक, राजस्थान के आबू पर्वत सहित उत्तराखण्ड के वन व पर्वतों पर जाकर सिद्ध योगियों व ज्ञानियों की खोज में लगाया था। गुजरात की चाणोदकन्याली में उन्हें योगी ज्वालापुरी और शिवानन्द गिरी मिले जिनसे उन्हें योग के अनेक सू़क्ष्म रहस्यों का ज्ञान हुआ। उन्होंने इन योग प्रवीण गुरुओं के निर्देशन में योग का सफल अभ्यास भी किया था। इसके बाद अहमदाबाद व आबूपर्वत जाकर भी उन्होंने योगाभ्यास किया और यहां भी उन्हें योग शिक्षा के अनेक गुप्त स सूक्ष्म महत्वपूर्ण रहस्यों का ज्ञान हुआ। स्वामी दयानन्द जी ने अपने गृह पर रहकर 21 वर्ष की अवस्था तक अनेक संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन किया था। अतः यात्रा में जहां कहीं उन्हें कोई ग्रन्थ मिलता था तो वह उसको प्राप्त कर उसका अध्ययन करते थे। ज्ञान के अनुसंधान के लिए योगियों व महात्माओं से मिलना और साहित्यिक शोध के प्रति उनकी बुद्धि बड़ी प्रबल थी। पुस्तकों में जो लिखा है वह सत्य और प्रमाणित है या नहीं, इसकी वह परीक्षा किया करते थे। उनके पास कुछ तन्त्र ग्रन्थ थे। उनमें शरीर के भीतर जिन चक्रों का वर्णन था, एक बार अवसर मिलने पर नदी में बह रहे शव को बाहर निकाल कर तथा अपने चाकू से उसे चीरकर, उसका पुस्तक के वर्णन से उन्होंने मिलान किया था। जब वह वर्णन सही नहीं पाया तो उन ग्रन्थों को भी उन्होंने उस शव के साथ बांध कर नदी में बहा दिया था। इससे सत्य की खोज के प्रति उनके दृण संकल्प के दर्शन होते हैं। इस पूरे वर्णन से स्वामी दयानन्द जी का योग में प्रवीण हो जाने और उसके प्रायः सभी रहस्यों को जीवन में प्राप्त कर लेने का तो अनुभव होता है परन्तु ज्ञान प्राप्ती की उनकी आगे की यात्रा करनी अभी बाकी थी। यहां हमें इस तथ्य के भी दर्शन हो रहे हैं कि कोई भी सफल योगी सांसारिक ज्ञान, विज्ञान व वेदों के ज्ञान से सम्पन्न नहीं हो जाता जैसा कि कई लोग दावा करते है कि योग में निष्णात हो जाने पर सभी ज्ञान योगी को स्वतः सुलभ हो जाते हैं और उसे ज्ञान प्राप्ति करना शेष नहीं रहता।

 

स्वामी दयानन्द जी में ज्ञान प्राप्ति की भी तीव्र अभिलाषा व इच्छा थी। इसकी प्राप्ति का स्थान भी वह बड़े ज्ञानी योगियों को ही मानते हैं। अतः योग में पूर्णता प्राप्त कर लेने पर भी उनकी ज्ञान की पिपासा को शान्त करने के प्रयत्न जारी रहे। इसके लिए वह गुजरात के धार्मिक वा तीर्थस्थलों, नर्मदा तट व उसके उद्गम तथा राजस्थान के आबू पर्वत की तो पूर्णता से छानबीन कर चुके थे, अब उन्हें अभीष्ट की प्राप्ति के लिए उत्तराखण्ड के हरिद्वार, ऋषिकेश और वन पर्वतों के शिखरों सहित कन्दराओं व तीर्थ स्थानों में ज्ञानी योगियों के मिलने की सम्भावना थी। वह इस ओर बढ़े और अभीष्ट का अनुसंधान करने लगे। अनुसंधान करने पर यहां उन्हें भीषण कष्ट हुए परन्तु कोई विशेष उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। इसके कुछ काल बाद सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम से सारा देश किसी न किसी रूप में संघर्षरत रहा। इसके बात स्थिति कुछ सामान्य होने पर सन् 1860 में स्वामी दयानन्द जी मथुरा में प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की पाठशाला में ज्ञान की प्राप्ति हेतु पहुंचते हैं। यहां स्वामी जी को अपने निवास, पुस्तकों के क्रयण एवं भोजन आदि की समस्याओं के निवारण में कुछ समय लगता है। इसके बाद उनका अध्ययन आरम्भ होकर 3 वर्ष तक चलता है। स्वामीजी गुरु विरजानन्द जी की शिक्षा से उस ज्ञान को प्राप्त करते हैं जिसकी उन्हें तीव्र अभिलाषा थी और जिसके लिए उन्होंने अपने माता-पिता व घर का त्याग किया था। गुरु दक्षिणा का अवसर आता है। स्वामी जी गुरु जी को प्रिय कुछ लौंग लेकर पहुंचते हैं। दोनों के बीच बातचीत होती है। गुरुजी स्वामी जी को मिथ्या अज्ञान व अन्धविश्वास दूर कर वैदिक ज्ञान का प्रकाश करने का आग्रह करते हैं। स्वामी दयानन्द जी भी अपने लिए इस कार्य को सर्वोत्तम व उचित पाते हैं। अतः गुरु विरजानन्द जी की प्रेरणा, परामर्श वा आज्ञा को स्वीकार कर उन्हें इस कार्य को करने का वचन देते हैं। हमें लगता है कि स्वामी जी यदि यह कार्य न करते तो उनकी योग्यता के अनुरुप उनके पास करने के लिए दूसरा कोई कार्य भी नहीं था। अभी तक स्वामी दयानन्द जी ने योग तथा आर्ष विद्या के क्षेत्र में जो ज्ञान की उपलब्धि की व अनुभव प्राप्त किये, उससे सारा संसार अपरिचित था। सन् 1863 में वह कार्य क्षेत्र में आते हैं और धीरे धीरे वह अन्धविश्वासों का निवारण और वेदों के प्रचार प्रसार करने में सफलताओं को प्राप्त करना आरम्भ कर देते हैं। इन कार्यों में पूर्णता तब दृष्टिगोचर होती है जब वह नवम्बर, 1869 में काशी में पूरी पौराणिक विद्वतमण्डली को मूर्तिपूजा को वेद शास्त्रानुकूल सिद्ध करने के लिए शास्त्रार्थ करते हैं और अपने सिद्धान्त कि मूर्तिपूजा वेद व शास्त्र सम्मत नहीं है, सफल व विजयी होते हैं।

 

स्वामी दयानन्द जी और उनके गुरु स्वामी विरजानन्द जी दोनों ही देश की धार्मिक व सामाजिक पतनावस्था से चिन्तित थे। दोनों ने ही इसके कारणों व समाधान पर विचार किया था। इसका कारण यह था कि अवैदिक, पौराणिक व मिथ्या ज्ञान तथा आपस की फूट के कारण देश की यह दुर्दशा हुई है। इस समस्या पर विजय पाने का एक ही उपाय था कि सत्य और असत्य के यथार्थ स्वरूप का प्रचार कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कराया जाये। स्वामी जी ने गुरु विरजानन्द जी से ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, धर्म व जीवन शैली के सम्बन्ध में वेदों में निहित सत्य ज्ञान को ही प्राप्त किया था। उन्होंने मथुरा में गुरूजी से विदा लेने के बाद अपने आपको इस महत्कार्य के लिए तैयार किया था। उनके पास सभी विषयों के सभी प्रकार के प्रश्नों के सत्य उत्तर थे। उनका अपना जीवन भी सत्य के ग्रहण साक्षात उदाहरण था। उन्होंने मनुस्मृति जैसे प्रमुख ग्रन्थ में विद्यमान लाभकारी सत्यासत्य की कसौटी पर कस कर वेदानुकूल भाग को भी प्राप्त किया था जिसका इससे पूर्व किसी ने इस प्रकार से अध्ययन नहीं किया था। उनके समय तक के विद्वान पूरी मनुस्मृति को या तो स्वीकार करने वाले थे या अस्वीकार करने वाले। परन्तु इसके सत्य व लोकहितकारी ज्ञान को स्वीकार व उसमें प्रक्षिप्त वेद विरुद्ध, असत्य व मिथ्या ज्ञान वाले अंश को त्यागने की दृष्टि रखने वाले विद्वान नहीं थे। इस दृष्टि को रखने वाले स्वामी दयानन्द पहले विद्वान थे। स्वामी दयानन्द जी ने अपने समग्र ज्ञान के आधार पर देश का भ्रमण आरम्भ कर दिया। पूना पहुंच कर उन्होंने प्रवचनों से वहां के प्रबुद्ध समाज को अपनी बातों का लोहा मनवाया। मुम्बई में उनके प्रवचनों से लोग प्रभावित हुए। उन्हें सन् 1874 में वैदिक विचारों का वर्तमान व भविष्य काल में तथा उनके सम्पर्क में न आने लोगों तक उनकी सभी बातें पहुंच जायें वा पहुंचती रहे, इसका एक ग्रन्थ तैयार करने का प्रस्ताव मिला जिसे उन्होंने विश्व का अनूठा ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश लिख कर पूरा किया। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मुम्बई के प्रबुद्ध लोगों ने उन्हें एक संगठन बनाने का सुझाव दिया। उसी का परिणाम 10 अप्रैल, 1875 को आर्यसमाज की स्थापना था। इसके बाद व कुछ पूर्व उन्होंने पंचमहायज्ञ विधि, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, वेद भाष्य सहित अनेक ग्रन्थों का प्रणयन भी किया जिसका उद्देश्य सत्य का प्रचार करना व मिथ्या ज्ञान वा अन्धविश्वासों को समाप्त करना था। स्वामी जी को अपने इस कार्य में निरन्तर सफलतायें प्राप्त होती आ रही थी। अब उनका प्रभाव व सम्पर्क वर्तमान के महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि अनेक स्थानों में हो चुका था। इन सभी स्थानों पर आर्यसमाज स्थापित हो रहे थे। मुख्यतः पौराणिक लोग आर्यमत को स्वीकार कर रहे थे और अन्य मतों के प्रमुख लोग भी वैदिक धर्म से प्रभावित हुए थे। स्वामी जी ने आर्य वैदिक मत के सिद्धान्तों के प्रचार व प्रसार के लिए उपदेश व प्रवचनों सहित वार्तालाप व शास्त्रार्थों का भी सहारा लिया था। वह शास्त्रार्थों के अपराजेय व विजित योद्धा थे। महर्षि दयानन्द ने अपने कार्यों व प्रयासों से वैदिक धर्म को संसार का प्रथम व उत्कृष्ट सत्य, तर्क व विज्ञान की कसौटी पर खरा एकमात्र धर्म बना दिया था जिससे सभी मतों के आचार्यों में अपने निजी स्वार्थों के कारण असुखद स्थिति अनुभव की जाने लगी थी और वह उनके शत्रु बन रहे थे।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों के मन्त्रों में छिपे रहस्यों को खोला जिस कारण उन्हें महर्षि के नाम वा पदवी से सम्बोधित किया जाता है। उन्होंने अवतारवाद, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, जन्मना जातिवाद, बाल विवाह, सामाजिक असमानता, स्त्री व शूद्रों का वैदिक शिक्षा के अनाधिकार सहित सभी धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों का खण्डन किया और सच्चिदानन्द निराकार सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी ईश्वर की वैदिक रीति से सन्ध्योपासना, गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वैदिक वर्ण व्यवस्था, खगोल ज्योतिष, गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार पूर्ण युवावस्था में विवाह, अनिवार्य व निःशुल्क गुरुकुलीय शिक्षा व्यवस्था व वैदिक सुरीतियों का समर्थन किया। देश की आजादी में उनका व उनके आर्यसमाज का सर्वोपरि योगदान है। वह अपूर्व देशभक्त व मानवता के सच्चे पुजारी थे। संसार के सभी मनुष्यों की सांसारिक व आध्यात्मिक उन्नति ही उनको अभीष्ट थी। उन्होंने अपना कोई नया मत व सम्प्रदाय नहीं चलाया अपितु ईश्वर द्वारा सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को दिये गये वेद ज्ञान का ही प्रचार कर संसार से अज्ञानता, असमानता व भेदभावों को दूर करने का प्रयास किया। वह वेदाज्ञा कृण्वन्तो विश्वमार्यम् में विश्वास रखते थे और वैदिक धर्म से बिछुड़े हुए भाई-बहिनों को निष्पक्ष भाव से वैदिक धर्म के वट वृक्ष के नीचे लाने के समर्थक थे। वस्तुतः उन्होंने एक ऐसे विश्व का स्वप्न संजोया था जिसमें किसी के प्रति किसी प्रकार का अन्याय, भेदभाव और शोषण न हो और सब वैदिक ज्ञान से युक्त शिक्षित, विद्वान, विदुषी, निरोगी, स्वस्थ व बलवान हों। वह संसार से अशान्ति व दुःखों को समूल मिटाना चाहते थे। उनके शिष्यों पर उनके स्वप्नों को पूरा करने का भार है परन्तु उन सभी को कर्तव्यबोध भी है?, कहा नहीं जा सकता। आत्म चिन्तन और आर्यसमाज के नियम कि मनुष्य को सार्वजनिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में सब स्वतन्त्र रहें, यह और सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग ही आर्यसमाज का उन्नति का मार्ग है। हम सबको अपना आत्मनिरीक्षण करते हुए इसी मार्ग पर चलना चाहिये।

 

महर्षि दयानन्द जी की दो विशेषताओं, उनके सिद्ध योगी और वेद ज्ञान सम्पन्न होने तथा इन विशेषताओं का उपयोग कर संसार के कल्याण की भावना से वेद प्रचार करने का हमने लेख में वर्णन किया है। उनरके बाद उनके समान योगी और वेदों का विद्वान उत्पन्न नहीं हुआ। यदि होता तो विश्व को आशातीत लाभ होता। आशा है कि पाठक इस लेख को पसन्द करेंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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‘देश के लिए मर मिटने वाले देशभक्त मृत्युंजय भाई परमानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

4 नवम्बर 140 वीं जयन्ती पर

स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में भाई परमानन्द जी का त्याग, बलिदान व योगदान अविस्मरणीय है। लाहौर षड्यन्त्र केस में आपको फांसी की सजा दी गई थी। आर्यसमाज के  अन्तर्गत आपने विदेशों में वैदिक धर्म का प्रचार किया। इतिहास के आप प्रोफैसर रहे एवं भारत, यूरोप, महाराष्ट्र तथा पंजाब के इतिहास लिखे जिन्हें सरकार ने राजद्रोह की प्रेरणा देने वाली पुस्तकें माना। देशभक्ति के लिए आपको मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गई जो बाद में कालापानी की सजा में बदल दी गई। श्री एण्ड्रयूज एवं गांधी जी के प्रयासों से आप कालापानी अर्थात् सेलुलर जेल, पोर्ट ब्लेयर से रिहा हुए और सन् 1947 में देश विभाजन से आहत होकर संसार छोड़ गये। भारत माता के इस वीर पुत्र का जन्म पश्चिमी पंजाब के जेहलम जिले के करयाला ग्राम में 4 नवम्बर 1876 को मोहयाल कुल में भाई ताराचन्द्र जी के यहां हुआ था। महर्षि दयानन्द जी के बाद वैदिक धर्म के प्रथम शहीद पं. लेखराम, स्वतन्त्रता सेनानी खुशीराम जी जो 7 गोलियां खाकर शहीद हुए तथा लार्ड हार्डिंग बम केस के हुतात्मा भाई बालमुकन्द जी की जन्म भूमि भी पश्चिमी पंजाब, वर्तमान पाकिस्तान की यही झेलम नगरी थी। भाई बालमुकन्द और भाई परमानन्द जी के परदादा सगे भाई थे। भाई मतिदास भी भाई परमानन्द के पूर्वज थे जिन्हें मुस्लिम क्रूर शासक औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चैक में आरे से चिरवाया था। उनके वंशजों को भाई की उपाधि सिक्खों के गुरु श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने देते हुए कहा था कि दिल्ली में हमारे पूर्वजों का खून मतिदास जी के खून के साथ मिलकर बहा है इसलिए आप हमारे भाई हैं।

 

आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने सन् 1877 में पंजाब में वैदिक धर्म का व्यापक प्रचार किया था। उनके भक्त अमीचन्द की पंक्तियां – दयानन्द देश हितकारी, तेरी हिम्मत पे बलिहारी पंजाब के गांव-गांव में गूंज रही थी। ऐसे वातावरण में आप बड़े हुए। प्राइमरी तक की भाई परमानन्द की शिक्षा करयाला गांव में हुई। इसके बाद चकवाल के स्कूल में आपका अध्ययन हुआ। कुशाग्र बुद्धि भाई परमानन्द यहां अपने शिक्षकों के प्रिय छात्र बनकर रहे। लगभग 14 वर्ष की आयु में आपकी माता मथुरादेवी जी का देहान्त हो गया। पौराणिक पण्डित के अन्धविश्वासपूर्ण कर्मकाण्ड को देख व अनुभव कर आपने पौराणिकता छोड़ कर आर्यसमाज को अपनाया। प्रसिद्ध दयानन्दभक्त गीतकार अमीचन्द तथा रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी पश्चिमी पंजाब में आपके निकटवर्ती थे। इन दोनों आर्य प्रचारकों का आप पर विशेष प्रभाव था। चकवाल में आपने आर्यसमाज की स्थापना भी की।

 

सन् 1891 में आप लाहौर आये तथा सन् 1901 में एम.ए. करके आपने मैडिकल कालेज में प्रवेश लेकर चिकित्सक बनने का विचार किया। दयानन्द ऐंग्लो-वैदिक स्कूल व कालेज के मुख्य संस्थापक महात्मा हंसराज की प्रेरणा से आपने अपना यह विचार बदल कर दयानन्द कालेज, लाहौर का प्राध्यापक का पद ग्रहण कर लिया। इस कालेज का आजीवन सदस्य बनकर आपने 75 रुपये मासिक के नाममात्र के वेतन पर अपनी सेवायें डी.ए.वी. कालेज को प्रदान की जबकि आपको अन्यत्र कार्य करके अधिक वेतन मिल सकता था। युवावस्था में तपस्या का कठोर व्रत लेकर आपने जीवन भर उसका पालन किया। राजनीति में प्रवृत्त नेतागण हिन्दुओं के उचित हितों की बात करने वाले को साम्प्रदायिक मानते हैं। ऐसे लोगों से आपकी तालमेल नहीं बैठी। उचित अनुचित बातों को आप यथातथ्य प्रकट करते थे। हिन्दू हितों के विरोधियों को आप कहा करते थे‘‘अमर हमदर्दी निशानी कुफ्र की ठहरी। मेरा इमान लेता जा, मुझे सब कुफ्र देता जा।

 

आपका निवास लाहौर में भारत माता मन्दिर की तीसरी मंजिल पर था। सरकार को आपकी गतिविधियों पर शुरू से ही शक था। इस कारण पुलिस ने एक बार आपके निवास की तलाशी ली। आपके सन्दूक से शहीद भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह द्वारा लिखी हुई स्वतन्त्र भारत के संविधान की प्रति तथा बम बनाने के फार्मूले का विवरण बरामद हुआ। इस कारण आपको बन्दी बना लिया गया। श्री रघुनाथ सहायक जी वकील के प्रयास से आप 15 हजार रुपये की जमानत पर रिहा हुए। अभियोग में आप पर देश-विदेश में विदेशी शासन के विरुद्ध प्रचार का आरोप लगाया गया था। 22 फरवरी 1915 को लाहौर षड्यन्त्र केस में आप पुनः बन्दी बनाये गये थे। 30 सितम्बर, 1915 को विशेष ट्रिब्यूनल ने आपको फांसी का दण्ड सुनाया। आपकी पत्नी माता भाग सुधि, श्री रघुनाथ सहाय वकील तथा महामना मदनमोहन मालवीय जी के प्रयासों से 15 नवम्बर 1915 को फांसी का दण्ड दिये गये 24 में 17 अभियुक्तों की सजा को आजीवन कालापानी की सजा में बदल दिया गया। कालापानी में आपको अनेक यातनाओं से त्रस्त होना पड़ा। आपने यहां जेल में आमरण अनशन किया। लम्बी भूख हड़ताल से आप मृत्यु की सी स्थिति में पहुंच गये। सुहृद मित्रों के आग्रह पर आपने भोजन ग्रहण कर अनशन समाप्त कर दिया। बाद में श्री ऐण्ड्रयूज एवं गांधी जी के प्रयासो से आप कालापानी से रिहा किए गये।

 

सन् 1901 में आपने एम.ए. किया था। उन दिनों देश में एम.ए. शिक्षित युवकों की संख्या उंग्लियों पर गिनी जा सकती थी। इस पर भी सादगी एवं मितव्ययता आपके जीवन में अनूठी थी। सन् 1931 में आपने आर्यसमाज नयाबांस, दिल्ली की स्थापना की थी। एक बार जब आप इस समाज में आमन्त्रित किए गये और आपके मित्र श्री पन्नालाल आर्य रेलवे स्टेशन से आपको तांगे में समाज मन्दिर लाना चाहते थे तो आपने पैदल चलने की इच्छा व्यक्त कर तांगे को दिये जाने वाले चार आने बचा लिये। इस व्यय को आपने अपव्यय की संज्ञा दी थी। देश-विदेश में प्रसिद्ध एवं केन्द्रीय असेम्बली (संसद) के सदस्य भाई परमानन्द जी का यह व्यवहार आदर्श एवं पे्ररणादायक व्यवहार था।

 

भाई परमानन्द जी इतिहासवेत्ता भी थे। बीसवीं सदी के आरम्भ में आप इंग्लैण्ड गये। वहां से इंग्लैण्ड के लोगों की अपने इतिहास के प्रति प्रेम व उसकी रक्षा की प्रवृत्ति की प्रशंसा करते हुए तथा भारतीयों की अपने इतिहास की उपेक्षा के उदाहरण देते हुए आपने एक विस्तृत पत्र में स्वामी श्रद्धानन्द जी को लिखा था–‘‘हम कहते हैं कि राजस्थान का कणकण रक्तरंजित है। क्या विदेशियों से जूझते हुए बलिदान देने वाले राजस्थानी वीरों वीरांगनाओं का इतिहास सुरक्षित करने की हमें चिन्ता है?’’ यह प्रश्न स्वामी जी ने अपने पत्र ‘‘सद्धर्म प्रचारक में प्रकाशित किया था। उनके एक जीवनी लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने इस पर व्यंग करते हुए लिखा है कि “दिल्ली में जहां लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने वालों को फांसी का दण्ड दिया गया था, उसी स्थान पर आज मौलाना आजाद के नाम पर मैडीकल कालेज है। यह है हमारी इतिहास की रूचि।

 

सन् 1928 में लाला लाजपतराय के बलिदान के बाद पंजाब में कांग्रेस के पास उनकी जैसी छवि वाला कोई नेता नहीं था। कांग्रेस के एक शिष्ट मण्डल ने भाई परमानन्द जी से पंजाब में कांग्रेस की बागडोर सम्भालने का अनुरोध किया। भाई जी ने मुस्लिम तुष्टिकरण की कांग्रेस की नीति के कारण अपनी असमर्थता व्यक्त की। शिष्ट मण्डल ने लाला लाजपतराय जी की अर्थी में शामिल भारी भीड़ और उन्हें मिले सम्मान का जिक्र किया और कहा कि आप तो देश की आजादी के लिए कालापानी की सजा काट चुके हैं। देश की जनता में आपके लिए बहुत आदर है, इसलिए आप नेतृत्व करें। इस पर भाई जी ने अपनी स्वाभाविक स्पष्टवादिता की शैली में कहा–‘‘भले ही मेरी अर्थी को कंधा देने वाले चार व्यक्ति भी आयें, मेरे मरने पर कोई एक आंसू भी टपकाये, परन्तु मैं अपने सिद्धान्त छोड़कर कांग्रेस में नहीं सकता।

 

मई, 1906 में भाई परमानन्द मुम्बई से जलमार्ग से अफ्रीका महाद्वीप में वैदिकधर्म प्रचारार्थ गये। मार्ग में आपको अनेक कष्ट हुए। एक दिन अफ्रीका में भ्रमण करते हुए आप हब्शियों की बस्ती में जा पहुंचें। वहां एक पुत्री के घर से शहद चुराने के कारण क्रोधित एक मां ने उस चोर कन्या को पेड़ से बांध कर जलाने का प्रयास किया परन्तु अन्तिम क्षणों में कुछ सोच कर उसे वहां छोड़ कर जाना पड़ा। परमानन्द जी जब वहां पहुंचे तो उस कन्या की दशा को देखकर द्रवित हो गये और उसकी सहायता से स्वयं को वहां बांध कर कन्या को वहां से दूर भेज दिया और स्वयं जलने के लिए तैयार हो गये। बस्ती के एक हब्शी ने बाहर आकर जब यह देखा तो अपने साथियों को बुलाया। कन्या की मां ने आकर घटना का सारा वर्णन कह सुनाया। इस घटना से वहां के सभी हब्शी भाई परमानन्द जी के व्यवहार से अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्हें उच्च आसन पर बैठा कर उनका सम्मान किया और स्मृति चिन्ह के रूप में उन्हें हाथी दांत से बनी वस्तु देकर विदा किया। उनके एक भक्त श्री विलियम उन्हें ढूंढ़ते हुए वहां आ पहुंचे तो यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह गये। बाद में भाई जी को कालापानी भेजे जाने से श्री विलियम बहुत दुःखी हुए थे और भाईजी के मानवोपकार के कार्यो से प्रभावित होकर उन्होंने आर्यघर्म की दीक्षा ली। अफ्रीका में भाई परमानन्द ने मोम्बासा, डर्बन, जोहन्सबर्ग तथा नैरोबी आदि अनेक स्थानों पर प्रचार किया।

 

डर्बन में एक अवसर पर गांधी जी और भाई परमानन्द जी परस्पर मिले। एक सभा जिसमें भाई परमानन्द जी का व्याख्यान हुआ, उसकी अध्यक्षता गांधी जी ने की थी। भाई जी के जोहन्सबर्ग पहुंचने पर गांधी जी उन्हें अपने निवास पर ले गये थे और श्रद्धावश उनका बिस्तर अपने कंधों पर उठा लिया था। गांधी जी के निवास पर भाई जी एक माह तक रहे भी थे। 

 

डी.ए.वी. कालेज कमेटी की ओर से भाई जी को अध्ययन के लिए लन्दन भेजा गया था परन्तु वह वहां भारत की आजादी के दीवानों से ही मिलते रहे। आपने वहां सन् 1857 की भारत की आजादी की प्रथम लड़ाई के इतिहास पर पुस्तकें एकत्र की और बिना कोई डिग्री लिए पुस्तकें लेकर भारत लौंटे। आपने सारी पुस्तकें डी.ए.वी. कालेज के संस्थापक महात्मा हंसराज जी को सौंप दी जिन्हें महात्मा जी ने अपनी अलमारियों में रख लिया। आर्यसमाज के महान नेता रक्त साक्षी पं. लेखराम के अनुसार भाई परमानन्द जी ऐसे निर्भीक एवं साहसी पुरुष थे जिनमें भय वाली रग थी ही नहीं। वे प्राणों के निर्मोही थे। लाहौर में एक बार बड़ा भारी साम्प्रदायिक दंगा हुआ। भाई जी तथा आर्य समाज के उच्चकोटि के विद्वान पं. चमूपति का घर वहां असुरक्षित था परन्तु इन दोनों आर्य महापुरूषों को अपनी व अपने परिवारों की कोई चिन्ता नहीं थी। स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी ने वहां आर्य विद्वान व नेता पं. जगदेव सिंह सिद्धान्ती को दो युवकों के साथ भेजकर उनके समाचार मंगाये थे।

 

भाई जी ने जोधपुर में महाराजा जसवन्त सिंह के अनुज महाराज कुंवर प्रताप सिंह के निमन्त्रण पर राजकुमारों की शिक्षा के लिए स्थापित स्कूल में एक वर्ष एक पढ़ाने का कार्य किया। श्री प्रतापसिंह की अंग्रेजों की भक्ति एवं राजदरबार में दलबन्दी के कारण खिन्न होकर रातों-राज वह वहां से चल पड़े थे। जब लाहौर में आर्य साहित्य के प्रकाशक महाशय राजपाल जी की कुछ विधर्मियों ने हत्या कराई तो सरकार ने उनके शव की मांग करने वालों को बेरहमी से पीटा।  आप भी पुलिस की लाठियों के प्रहारों का शिकार बने। यदि वहां कुछ आर्ययुवक आपको न बचाते तो कोई अनहोनी हो जाती। भाईजी एक सिद्ध हस्त लेखक भी थे। इतिहास आपका प्रिय विषय था। भारत का इतिहास आपके द्वारा लिखी गई एक पुस्तक है जिसे न्यायालय में आपके विरुद्ध प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर अंग्रेज सरकार के सरकारी वकील ने कहा था कि यह पुस्तक विद्रोह की प्रेरणा देती है। यूरोप का इतिहास, महाराष्ट्र  का इतिहास, पंजाब का इतिहास, आपबीती एवं वीर बन्दा बैरागी आपकी कुछ अन्य प्रमुख कृतियां हैं। आपकी सभी पुस्तकों में देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा निहित है।

 

भाई परमानन्द अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के प्रधान रहे। सन् 1927 के प्रथम आर्य महासम्मेलन के अध्यक्ष पद पर आप मनोनीत किए गये थे परन्तु किसी कारण आप यह प्रस्ताव स्वीकार न कर सके। कालापानी के कारावास से रिहा होने पर एक पत्र के प्रकाशक की ओर से जब आपको 10 हजार की राशि भेंट कर सम्मान किए जाने का प्रस्ताव किया गया तो निर्लोभी स्वभाव एवं विनयशीता के कारण आपने धन्यवादपूर्वक प्रस्ताव ठुकरा दिया था। देश की आजादी के लिए समर्पित देशभक्तों की पत्नियों ने भी अपने पतियों की तरह त्याग, तपस्या व बलिदान का ही जीवन व्यतीत किया। भाई परमानन्द जी की पत्नी माता भागसुधि रावलपिण्डी के सम्पन्न किसान रायजादा किशन दयाल की पुत्री थी। विवाह के समय आप अनपढ़ थी परन्तु भाई जी ने आपको प्रयत्नपूर्वक शिक्षित किया। आप कुशाग्रबुद्धि, हंसमुख, विनोदी स्वभाव वाली तथा गृह कार्यों में दक्ष महिला थी। भाई जी के जेल के दिनों में आपने स्कूल में काम करके तथा कपड़े सिलकर अपना तथा बच्चों का जीवन निर्वाह किया। क्रूर अंग्रेजों ने आपके घर का सारा सामान यहां तक की घर के सभी बर्तन तक छीन लिए थे। लाहौर की एक बस्ती में किराये के एक ऐसे कमरे में आप रहीं जहां धूप की एक किरण तक प्रवेश नहीं कर सकती थी और न ही शुद्ध वायु भी। दीनबन्धु ऐण्ड्रयूज जब आपकी सुध लेने आये तो यह जानकारी प्राप्त कर द्रवित हो गये कि 6 महीने पहले आपकी बड़ी पुत्री तपेदिक से मर चुकी थी।

 

आपकी   पत्नी माता भागसुधि जी को अपने पति भाई परमानन्द जी के आजादी का सिपाही होने के कारण टीचर ट्रेनिगं स्कूल में प्रवेश नहीं दिया गया था। मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत अपने निर्दोष पति को फांसी से छुड़ाने के लिए आपने कहां-कहां, कैसे भागदौड़ की होगी तथा धन जुटाया होगा, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। ऐसे बुरे समय में अंधविश्वासी ससुर ने भी आपको आश्रय नहीं दिया। अपने कड़े परिश्रम से माता भागसुधि जी ने दो कमरे, रसोई एवं बरामदा बनवाया। जेल में अपने पति की तरह आपने चारपाई त्याग दी एवं भोजन वर्तनों में करना छोड़ कर मिट्टी के बर्तनों में किया। 1 जुलाई 1932 तपेदिक के रोग की तीव्रता के कारण माता भागसुधि जी को संसार छोड़ कर जाना पड़ा और वह अपने पति से हमेशा के लिए दूर चली गयी। भाई परमानन्द जी पर इसका क्या प्रभाव हुआ होगा? फिर भी वह 15 वर्षों तक जीवित रहे और देश हित के कार्य करते रहे। प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने माता भागसुधि जी पर अपने भावों को एक कविता में निम्न रूप में प्रकट किया है।

 

धन्य तुम्हारी सतत साधना, धन्य तुम्हारा जीवन दान।

धन्य तुम्हारा धीरज साहस, धन्य तुम्हारा मां बलिदान।

धन्य धरा तव जन्मदायिनी, धन्य तपस्या का वरदान।

धन्य तुम्हारा शील सुहागिन, धन्य तुम्हारा देश अभिमान।

 

देश विभाजन से भारत माता के लाखों सपूतों के नरसंहार तथा स्त्रियों के सतीत्व-हरण की घटनाओं से आहत भाई जी ने विभाजन एवं इसके परिणाम स्वरूप घटी अमानवीय घटनाओं को राष्ट्रीय अपमान की संज्ञान दी। आपने अन्न त्याग दिया था, फिर बोलना भी छोड़ दिया था। 8 दिसम्बर, 1947 को देश की आजादी के लिए तिल-तिल कर जलने वाले इस महान् देशभक्त ने अपने प्राण त्याग दिये। आज भाई परमानन्द जी के जन्म दिवस पर हम उन्हें, माता भागसुधि व उनके परिवार को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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‘गाय के प्रति माता की भावना रखना और उसकी रक्षा करना मनुष्य का धर्म’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

जब हम संसार की उत्पत्ति, मनुष्य जीवन और प्राणी जगत पर विचार करते हैं तो हम जहां संसार के रचयिता सृष्टिकर्त्ता ईश्वर के प्रति नतमस्तक होते हैं वहीं मनुष्य जीवन के सुखपूर्वक संचालन के लिए गाय को मनुष्यों के एक वरदान एवं सर्वोपरि हितकारी व उपयोगी पाते हैं। यदि ईश्वर ने संसार में गाय को उत्पन्न न किया होता तो यह संसार आगे चल ही नहीं सकता था। संसार के आरम्भ में जो मनुष्य उत्पन्न हुए थे, उनका भोजन या तो वृक्षों से प्राप्त होने वाले फल थे अथवा गोदुग्ध ही था। इन दोनों पदार्थों का भक्षण कर क्षुधा की निवृत्ति करने की प्रेरणा भी परमात्मा द्वारा ही आदि सृष्टि के मनुष्यों को की गई होगी, ऐसा हमारा अनुमान है। यदि गोदुग्ध, जो कि मनुष्य के लिए सम्पूर्ण आहार है, न होता तो फलाहार कर मनुष्य का आंशिक पोषण ही हो पाता। हम यह जानते हैं कि सृष्टि उत्पत्ति के पश्चात मनुष्यों की जो अमैथुनी सृष्टि ईश्वर ने की थी, उसमें उसने मनुष्यों को युवावस्था में उत्पन्न किया था। हम यह भी अनुमान करते हैं कि ईश्वर ने इन मनुष्यों को स्वाभाविक ज्ञान के साथ क्षुधा की निवृत्ति हेतु भोजन व पिपासा के शमन हेतु जल का पान करने का ज्ञान भी इन सभी मनुष्यों को दिया था। शतपथ ब्राह्मण के लिखित प्रमाण के अनुसार परमात्मा ने ही आदि मनुष्यों में से चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को चार वेदों का ज्ञान दिया था। इस ज्ञान से सम्पन्न होने पर इन ऋषियों ने सभी मनुष्यों को एकत्रित कर उन्हें भाषा व बोली तथा कर्तव्य वा अकर्तव्यों का ज्ञान कराया। यह इन ऋषियों का कर्तव्य भी था और अन्य मनुष्यों की प्रमुख आवश्यकता भी। इस प्रकार सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य जीवन का आरम्भ हुआ।

 

गाय का हमारे वर्तमान जीवन में क्या महत्व और उपयेागिता है? इसका उत्तर है कि गाय एक पालतू पशु होने से हमारे परिवार का सदस्य बन जाता है। गाय को हम भोजन में घास आदि वनस्पतियों का चारा और जल का ही सेवन व पान कराते हैं जो हमें प्रकृति में सर्वत्र ईश्वर द्वारा निर्मित होकर सरलता से उपलब्ध होता है। हमें इसके लिए केवल परिश्रम करना होता है। इसके प्रत्युत्तर में गाय प्रातः व सायं दो बार हमें अमृततुल्य दुग्ध देती है। बीच में आवश्यकता पड़ने पर भी दुग्ध निकाला जा सकता है। गोदुग्ध पूर्ण आहार है और माता के बाद गोदुग्ध का स्थान अन्य प्राणियों की तुलना में दूसरे स्थान पर होता है। दुग्ध से दही, मक्खन, क्रीम, घृत, छाछ, पनीर, मावा आदि अनेक पदार्थ बनते हैं जिनसे भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक स्वादों से युक्त आहार व भोजन के अनेक व्यंजन तैयार होते हैं जो सभी स्वास्थ्यवर्धक भी होते हैं। आयुर्वेद ने घृत को आयु का आधार बताया गया है जो कि वस्तुतः है। गोघृत स्वास्थ्यवर्धक होने के साथ आयुवर्धक व रोग कृमिनाशक भी होता है। मनुष्य को ईश्वर का धन्यवाद करने व पर्यावरण को शुद्ध व पवित्र रखने के श्रेष्ठतम कर्मयज्ञ को करने के लिए मुख्य अवयव गोघृत की ही आवश्यकता होती है। यज्ञ से हमें इहलोक एवं परलोक दोनों में लाभ होता है तथा हमारा अगला जीवन भी बनता सुधरता है। यज्ञ करना वेदानुसार ईश्वराज्ञा है जो संसार के सभी मनुष्यों के लिए समान रूप से पालनीय है। इसका पालन करने वाले ईश्वर से पुरस्कार के अधिकारी बनते हैं और पालन न करने वाले ईश्वर की आज्ञा भंग करने से दोषी व दण्डनीय। इस यज्ञ को करने के लिए भी गोपालन द्वारा गोदुग्ध की प्राप्ति आवश्यक है।

 

गाय से हमें बच्चों के रूप में बछिया और बछड़े मिलते हैं। बछियां कुछ समय बाद पुनः गाय बनकर हमारे लिए गोदुग्ध द्वारा उपयोगी बन जाती हैं और बछड़े कुछ ही महीनों में बड़े होकर हमारी खेती के काम आते हैं। प्राचीन काल में यदि बछड़े न होते तो खेती न हो पाती और हमारे पूर्वजों को पर्याप्त अन्न न मिलने से उनका जीवन निर्वाह कठिन होता जिससे उनके बाद की पीढि़यों अर्थात् हमारा अस्तित्व होता, या न होता कह नहीं सकते। अतः हमारे आज के अस्तित्व में गोमाता व उसके बछड़ों का सृष्टि के आदि काल से ही महत्व रहा है। गाय हमारी जीवन रेखा व प्राणदायिनी रही है। गाय के बछड़ों के द्वारा खेती करने से जो लाभ हैं, वह ट्रैक्टर आदि से नहीं होते। ट्रैक्टर पर भारी भरकम धन व्यय करने के साथ उसके रखरखाव व डीजल आदि पर नियमित व्यय करना होता है और साथ ही हम अपने वायुमण्डल को प्रदूषित कर श्वांस में प्रदूषित वायु लेते हैं जिससे अनेक रोगों से ग्रस्त होकर क्षीणकाय बनते और अल्पायु में मृत्यु का ग्रास बनते हैं। बैलों द्वारा खेती करने से हमारा बहुत धन बचने के साथ पर्यावरण सुरक्षा का लाभ मिलता है। हम बैलों की हत्या के महापाप से भी बचते हैं, वायुमण्डल शुद्ध रहता है और साथ हि बैल जो पुरीश-मल व मूत्र खेतों में विसर्जित करते हैं वह बहुमूल्य खाद का काम करता है। इससे भूमि की उर्वरा सकती बढ़ती है वा सुरक्षित रहती है। यह भी तथ्य है कि ट्रैक्टर के लिए खेतों तक जाने के लिए चैड़ी सड़क की आवश्यकता होती है जबकि बैलों के लिए किसी प्रकार की सड़कों की आवश्यकता नहीं होती। इससे सड़क की भूमि का उपयेाग भी कृषि में सम्मिलित होकर अन्न के उत्पादन में वृद्धि होती है। बैल एक चेतन प्राणी है, उससे खेती करने से एक प्राणी को जीवन देने व उसकी रक्षा व सेवा करने से किसान को जो पुण्य होता है वह ट्रैक्टर आदि किसी भी जड़ पदार्थ से सेवा करने से नहीं होता।

 

गाय का गोबर व गोमूत्र न केवल बहुमूल्य खाद व कीटनाशक का काम करता है अपितु भूमि की उर्वरा शक्ति को सुरक्षित रखते हुए उसमें वृद्धि भी करता है। गाय का गोबर व गोमूत्र पंचगव्य नामक ओषधि बनाने के काम आता है, जो गोरक्षा व गोहत्या को समाप्त किये बिना सम्भव नहीं है। गाय के घृत से एक ऐसी भी ओषधि तैयार होती है जिससे बांझ स्त्रियों को सन्तान लाभ होता है। गोघृ्त से महात्रिफलाघृत भी बनाया जाता है जो नेत्रों की अनेक रोगों से चिकित्सा में काम आता है। इन ओषधियों का विकल्प न तो एलोपैथी में है और न अन्य किसी पैथी में। गोदुग्ध के अनेक ओषधीय गुणों में आंखों व शरीर के सभी अंगों को लाभ सहित क्षय रोग व कैंसर जैसे जान लेवा रोग में भी अनेक प्रकार से लाभ होता है। गोमूत्र तो कैंसर के उपचार में प्रयोग में लाया जाता है जिससे अनेक रोगियों को प्रत्यक्ष लाभ देखा गया है। आज ऐलोपैथी की महंगी दवायें व अनेक प्रकार की कष्टकारी चिकित्सा होने पर भी रोगी स्वस्थ नहीं हो पाते वहीं गोमूत्र का सेवन बिना मूल्य की रोगियों में जीवन की आशा जगाने वाली सच्ची व यथार्थ ओषधि है और निर्धनों के लिए ईश्वर का वरदान है। गाय का गोबर जहां खाद का काम करता है वहीं यह गांवों में चूल्हे व चैके में भी प्रयोग में लाया जाता है। गाय के गोबर के उपले ईधन का काम करते हैं वहीं कच्चे घरों, झोपडि़यों व कुटियाओं में गोबर का भूमि व फर्श पर लेपन करने से वह स्वच्छ व किटाणु रहित हो जाता है। एक वैज्ञानिक रिसर्च में यह तथ्य सामने आया है कि गाय के गोबर से लीपी गई दीवारों के अन्दर रेडियोधर्मिता प्रवेश नहीं करती जिससे उसमें अध्यासित लोगों की आणविक विकिरण से रक्षा होती है। गोघृत को जलाने से वायुमण्डल पर इसका चमत्कारी प्रभाव पड़ता है। भोपाल काण्ड में गोघृत से यज्ञ करने वाले एक गृहस्थी, उसके परिवार व पालतू पशुओं की इस गोघृत के यज्ञ ने ही रक्षा की थी जबकि सहस्रों की संख्या में अन्य लोग अपने जीवन से हाथ धो बैठे थे। इसके साथ गाय का घी सर्पविष की चिकित्सा में भी एक महत्वपूर्ण ओषधि है। यदि सर्पदंश से ग्रसित मनुष्य को गोघृत का सेवन व पान कराया जाये तो विष का शरीर पर प्रभाव समाप्त हो जाता है। भारत का प्राचीन मोहनभोग स्वादिष्ट आहार गोदुग्ध से ही बनाया जाता था। गोदुग्ध से मिट्टी की हाण्डी में बनी खीर का अपना ही स्वाद व स्वास्थ्यवर्धक गुण होता है जो कि शहरों के लोगों की पहुंच से बहुत दूर हो गया है। गाय के इन सभी गुणों, महत्व, लाभों व उपयोगिताओं के कारण ही हमारे आस्तिक विचारों वाले पूर्वज गो को अवध्य, गोहत्या को महापाप, अमानवीय, गो मांसाहार को त्याज्य व निन्दनीय मानते आये हैं जो कि पूर्णतया उचित ही है। वेद गोहत्यारे को सीसे की गोलियों से बींधने का आदेश देता है।

 

गाय का देश की अर्थव्यवस्था में भी प्रमुख योगदान है। गोदुग्ध एक मधुर स्वास्थ्यवर्धक पेय होने के साथ गोदुग्ध से बने अन्य सभी पदार्थ अन्न का एक सीमा तक विकल्प भी है। गाय के बछडों से की जाने वाली खेती से जो अन्न उत्पादन होता है वह भी यदि आर्थिक दृष्टि से गणना की जाये तो देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा अंश होता है। महर्षि दयानन्द ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक गोकरुणानिधि में एक गाय की एक पीढ़ी से होने वाले दुग्ध और उसके बैलों से मिलने वाले अन्न की एक कुशल अर्थशास्त्री की भांति गणना की है और बताया है कि गाय की एक पीढ़ी से दूध और अन्न को मिला कर देखने से निश्चय है कि 4,10,440 चार लाख दश हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है। मांस से उनके अनुमान के अनुसार केवल अस्सी मांसाहारी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं। वह लिखते हैं कि ‘‘देखों, तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मारकर असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?’’ गो के दुग्ध, इससे निर्मित अन्य पदार्थों व गोबर सहित गोमूत्र के ओषधीय लाभों को इसमें सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे गोरक्षा के आर्थिक लाभ का अनुमान लगाया जा सकता है जो कि किसी अर्थशास्त्री की आशाओं से कहीं अधिक होता है। गोहत्या को बन्द करने के लिए महर्षि दयानन्द ने अपने समय में अपने प्रकार का एक अपूर्व आन्दोलन चलाया था। उन्होंने गोहत्या रोकने के मुद्दे पर 2 करोड़ भारतीयों के हस्ताक्षर कराकर इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरियां को प्रेषित करने की यायेजना बनाई थी जिस पर तीव्रता से कार्य चल रहा था और नित नई सफलातायें मिल रहीं थी। महारानी विक्टोरिया को भेजी जाने वाली गोहत्या को रोकने की मांग के इस ज्ञापन में गोरक्षा से लाभ व गोहत्या से हानि तथा मानवीय पहलुओं का उल्लेख कर कहा गया था कि इसलिए हम सब लोग प्रजा की हितैषिणी श्रीमतिराजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया की न्यायप्रणाली में जो यह अन्याय रुप बड़े बड़े उपकारक गाय आदि पशुओं की हत्या होती है, उसको इनके राज्य में से छुड़वाके अति प्रसन्न होना चाहते हैं। यह हम को पूरा विश्वास है कि विद्या, धर्म, प्रजाहित प्रिय श्रीमती राजराजेश्वरी क्वीन महारानी विक्टोरिया पार्लियामेन्ट सभा तथा सर्वोपरि प्रधान आर्यावर्तस्थ श्रीमान् गवर्नर जनरल साहब बहादुर सम्प्रति इस बड़ी हानिकारक गाय, बैल तथा भैंस की हत्या को उत्साह तथा प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र बन्द करके हम सब को परम आनन्दित करें।

 

संसार के सभी प्राणियों में केवल गोमाता का गोबर ही रोगाणुनाशक होता है। इस बारे में कहा जाता है कि चैरासी लाख योनियों के प्राणियों में गाय ही एक ऐसा प्राणी है जिसका पुरीष (गोबर) मल नहीं है, उत्कृष्ट कोटि का मलशोधक है, रोगाणु एवं विषाणुनाशक है तथा जीवाणुओं का पोषक है। इतना होने पर भी हम अनुभव करते हैं कि हमारे अंग्रेजी व अन्य शिक्षा पद्धतियों से पढ़े हुए वैदिक संस्कारविहीन लोगों को यह बातें समझ में नहीं आयेंगी क्योंकि उनका जैसी देश वैसा भेस, जैसी शिक्षा वैसी सोच के अनुसार विचारान्तरण हो चुका है। उनका यह कार्य स्वयं उनके लिए ही आत्मघाती है। इसका फल अवश्य उन्हें भोगना ही होगा। ईश्वर का कर्मफल सिद्धांत सारे संसार पर लागू है। सत्य का ग्रहण व असत्य का त्याग करना धर्म है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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‘क्या महर्षि दयानन्द को वेद की पुस्तकें धौलपुर से प्राप्त हुईं थीं?’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द जी अपने विद्यागुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से अध्ययन पूरा कर और गुरु दक्षिणा की परम्परा का निर्वाह कर गुरुजी को दिए वचन के अनुसार भावी योजना को कार्यरूप देने वा निश्चित करने के लिए मथुरा से आगरा आकर रहे थे और यहां लगभग डेढ़ वर्ष रहकर उपदेश व प्रवचन आदि के द्वारा प्रचार किया। आगरा में निवासकाल में महर्षि दयानन्द ने एक दिन पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। इसका अर्थ यह निकलता है कि स्वामीजी के पास वेद की पुस्तकें नहीं थी। पं. लेखराम जी ने इस विषय को निम्न रूप में प्रस्तुत किया है

 

वेदों की खोज में धौलपुर की ओर प्रस्थानएक दिन स्वामी जी ने पंडित सुन्दरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पुस्तक लानी चाहिए। सुन्दर लाल जी ने बड़ीखोज करने के पश्चात् पंडित चेतोलाल जी और कालिदास जी से कुछ पत्रे वेद के लाये। स्वामी जी ने उन पत्रों को देखकर कहा कि यह थोड़े हैं, इनसे कुछ काम निकलेगा। हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। आगरा में ठहरने की अवस्था में स्वामी जी समय समय पर पत्र द्वारा अथवा स्वयं मिलकर विरजानन्द जी से अपने सन्देह निवृत कर लिया करते थे। इसके बाद इस विषय में आगे लिखा है कि धौलपुर में 15 दिन रहकर लश्कर की ओरस्वामी जी कार्तिक बदि संवत् 1921 तदनुसार 1864 ईस्वी को आगरा से वेद की पुस्तक की खोज में धौलपुर पधारे और वहां 15 दिन तक निवास किया फिर ग्वालियर चले गये।  धौलपुर का वर्णन इस विषय में मौन है कि स्वामी जी को यहां धौलपुर में वेद की पुस्तक मिली या नहीं। इसके बाद के वर्णनों में भी वेद की पुस्तकों की खोज, उनके प्राप्त होने या न होने का वर्णन नहीं मिलता।

 

धौलपुर से 20 अक्तूबर 1864 को चलकर स्वामीजी ग्वालियर होते हुए किसी मार्ग से आबू पर्वत आते हैं और यहां से चलकर 85 दिन बाद लश्कर / ग्वालियर पहुंचते हैं। अनुमान किया जाता है कि स्वामीजी आबू पर्वत अपने योग विद्या सिखाने वाले गुरुओं से भेंट करने गये होंगे। आबूपर्वत से ग्वालियर आकर, यहां कुछ समय ठहर कर इसके बाद स्वामी जी 7 मई, 1865 को ग्वालियर से चलकर करौली आते हैं। करौली में निवास का वर्णन करते हुए पं. लेखराम जी अपने जीवन चरित्र में लिखते हैं कि ग्वालियर से स्वामी जी करौली पधारे और राजा साहब से धर्म विषय पर वार्तालाप होता रहा और पण्डितों से भी कुछ शास्त्रार्थ हुए और यहां पर कई मास ठहर कर वेदों का उन्होंने पुनः अभ्यास कियाफिर वहां से जयपुर चले गये। यहां करौली में स्वामी जी ने कई मास ठहर कर वेदों का पुनः अभ्यास किया, इससे संकेत मिलता है कि स्वामी जी को धौलपुर में वेद की पुस्तक प्राप्त हो गईं थी। यदि न होती तो फिर वह अभ्यास न कर पाते। धौलपुर में उनका 15 दिनों का निवास वेदों की उपलब्धि वा प्राप्ति के लिए ही व्यतीत हुआ प्रतीत होता है। करौली में स्वामी जी ने वेदों का पुनः अभ्यास किया, इन शब्दों से यह भी प्रतीत होता है कि इससे पूर्व उन्होंने सम्भवतः आबू पर्वत पर भी लगभग ढाई मास रूककर वेदों का प्रथमवार अभ्यास किया था।

 

स्वामी दयानन्द जी ने कुम्भ मेले के अवसर पर 12 मार्च सन् 1867 से हरिद्वार में प्रवास किया। पं. लेखराम जी के जीवन चरित में उन्हें केवल वेद ही मान्य थेस्वामी महानन्द सरस्वती शीर्षक से वर्णन मिलता है जिसमें कहा गया है कि स्वामी महानन्द सरस्वती, जो उस समय दादूपंथ में थे, इस कुम्भ पर स्वामी जी से मिले। उनकी संस्कृत की अच्छी योग्यता है। वह कहते हैं कि स्वामी जी ने उस समय रुद्राक्ष की माला, जिसमें एकएक बिल्लौर या स्फटिक का दाना पड़ा हुआ था, पहनी हुई थी, परन्तु धार्मिक रूप में नहीं। हमने वेदों के दर्शन वहां स्वामी जी के पास किये, उससे पहले वेद नहीं देखे थे। हम बहुत प्रसन्न हुए कि आप वेद का अर्थ जानते हैं। उस समय स्वामी जी वेदों के अतिरिक्त किसी को (स्वतः प्रमाण) मानते थे। यहां स्वामी जी के पास वेद होने का अर्थ है कि उन्हें वेद धौलपुर में ही प्राप्त हुए थे। यदि वहां प्राप्त न होते तो वहां वेदों के प्राप्त न होने और अन्यत्र से प्राप्त होने का कहीं वर्णन होता। अन्यत्र वेदों की प्राप्ति का उल्लेख न होना संकेत करता है कि स्वामी जी को वेद धौलपुर में ही प्राप्त हुए थे। यहां इतना और बता दें कि दादूपन्थी स्वामी महानन्द जी देहरादून में निवास करते थे और यहां नगर में उनका ‘‘महानन्द आश्रम के नाम से अपना आश्रम था। स्वामी जी से मिलने और प्रभावित होने के कारण वह आर्यमतानुयायी बन गये थे और उन्होंने अपने आश्रम का परवर्ती नाम भी महानन्द आश्रम् अर्थात् आर्यसमाज कर दिया था। हमारा सौभाग्य है कि हम इसी आर्यसमाज के सदस्य रहे हैं।

 

स्वामी जी को वेदों की प्राप्ति धौलपुर में ही हुई, इस सम्बन्ध में हम आर्य समाज के विद्वान महानुभावों की सम्मति जानना चाहेंगे। यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि स्वामी जी को धौलपुर में यह वेद किससे प्राप्त हुए थे? इस विषय में हम यह अनुमान करते हैं कि किसी वेदपाठी परिवार के किसी पण्डित जी वा ब्राह्मण परिवार से ही स्वामी जी को यह वेद प्राप्त हुए होंगे। किसी पुस्तकालय वा किसी पुस्तक विक्रेता के पास से मिलना तो सम्भव नहीं लगता। हमारा अनुमान है कि सन् 1865 वा 1867 से पूर्व वेद भारत में मुद्रित नहीं हुए थे। सम्भवतः पहली बार वेद मन्त्र संहिताओं का मुद्रण व प्रकाशन लाहौर से महर्षि दयानन्द भक्त पं. गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने किया था।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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देशवासियों के आदर्श एवं प्रेरणास्रोत- ‘भारत के लौह पुरुष सरदार पटेल का कृतज्ञ हमारा भारत देश’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

  माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या इस वेद की सूक्ति में निहित मातृभूमि की सेवा व रक्षा की भावना से सराबोर देश की आजादी के अविस्मरणीय योद्धा, देश के प्रथम गृहमंत्री एवं उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने देश की आजादी और और उसकी उन्नति के लिए जो सेवा की है वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।                गुजरात प्रान्त के करमसद गांव में 31 अक्तूबर सन् 1885 को आपका जन्म हुआ। आपके पिता श्री झबेर भाई पटेल दूसरे व्यक्तियो की भूमि पर खेती कर जीवनयापन करते थे। आप बहादुर एवं पक्के देश भक्त थे। श्री झबेर भाई पटेल सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महारानी लक्ष्मी बाई की सेना में भर्ती होकर आप अंग्रेजों एवं उनके भारतीय वफादारों के विरूद्ध लड़े थे। इंदौर के महाराजा ने गिरफ्तार कर आपको अपने यहां बन्दी बनाया जहां संयोग से महाराजा को शंतरज के खेल में अपनी चालों से विजय दिलवाकर आप मुक्त हुए। यहां से आप अपने गांव पहुंचे और पुनः खेती करने लगे।

 

श्री झबेर भाई के दो पुत्र थे। बड़े पुत्र श्री विट्ठल भाई ने असेम्बली के प्रधान के रूप में आश्यर्चजनक प्रतिभा का परिचय दिया। दोनों भाईयों को बहादुरी एवं युद्ध प्रियता के गुण अपने पिता से विरासत में मिले थे। वल्लभ भाई की प्रारंभिक शिक्षा माता-पिता की देखरेख में गांव में हुई। इसके बाद नदियाद एवं बड़ोदा में आपने शिक्षा प्राप्त की। मैट्रिªक की परीक्षा आपने नदियाद से पास की। बचपन में आपकी वीरता का उदाहरण तब मिला जब आपकी कांख के फोड़े को लाल गर्म लोहे की सलाखा से भोंकने वाले व्यक्ति में हिम्मत की कमी देखकर आपने स्वयं ही गर्म लाल लोहे की सलाख से फोड़े को दाग दिया। मौलाना शौकत अली ने एक बार आपके बारे में यथार्थ ही कहा था कि वल्लभ भाई बरफ से ढके ज्वालामुखी के समान हैं। उनके साथियों ने यह अनुभव किया कि उनके हृदय में हमेशा आग धधकती रहती है जो असंख्य लोगों को दग्ध करने की क्षमता रखती है। इसी कारण उनका रक्त सदैव उबाल मारता रहता था, भुजायें फड़कती रहती थी एवं वाणी सदा पाप, अन्याय व अत्याचार के विरूद्ध आग उगलने के लिए तत्पर रहती थी।

 

यद्यपि वल्लभ भाई विदेश जाकर बैरिस्टर बनना चाहते थे परन्तु पारिवारिक विपन्नता के कारण आपने अपने इस विचार को स्थगित कर मुख्तारी की परीक्षा पास करके गोधरा में प्रैक्टिस की। आपकी प्रैक्टिस अच्छी चली और अल्प-काल में ही विदेश यात्रा हेतु आवश्यक धन अर्जित कर लिया। आपके बड़े भाई विट्ठल भाई भी विलायत जाने के इच्छुक थे। स्वर्जित धन से आपने पहले बड़े भाई को विदेश भेजा एवं स्वयं उनके तीन वर्ष बाद सन् 1910 में विलायत गये। कालान्तर में बड़े भाई के राजनीतिक गतिविधियो में भाग लेने के कारण आपने उन्हें पारिवारिक दायित्वों से मुक्त कर कुटुम्ब का पालन किया। गोधरा में गांधी जी की अध्यक्षता में प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन में वल्लभ भाई को राजनीतिक कार्यों की उपसमिति का मंत्री बनाया गया। आपके महत्वपूर्ण कार्यों के कारण आप शीघ्र ही गुजरात प्रांत में लोकप्रिय हो गये। सार्वजनिक जीवन में आपको पहली सफलता गुजराज में बेगार प्रथा का उन्मूलन करने पर मिली। आपके द्वारा सत्याग्रह की धमकी से कमिश्नर घबरा गया। आपसे वार्तालाप कर उसने बेगार प्रथा के उन्मूलन की मांग स्वीकार कर ली।

 

गांधी जी के सम्पर्क में आने पर उनकी रीति-नीति के प्रति आपको विशेष रूचि नहीं हुई। आपको लगा कि अहिंसा एवं सत्याग्रह कमजोर आदमी के हथियार हैं। अहमदाबाद के मजदूरों के आन्दोलन की सफलता पर पहली बार आपको गांधी जी केे आत्मबल का परिचय मिला। गांधी जी के प्रति आपके मैत्री भाव ने ही आपको सक्रिय राजनीति में प्रविष्ट कराया। सन् 1917 में खेड़ा जिले में जब फसल खराब हो गई और सरकार द्वारा किसानों की लगान वसूल न करने की मांग को ठुकरा दिया गया तब भी गांधी जी की प्रेरणा पर आपने यह कार्य अपने हाथ में लिया। अहमदाबाद के इस कुशल बैरिस्टर ने गांव-गांव घूमकर चेतना पैदा की। किसान लगान के विरूद्ध सत्याग्रह के लिए कमर कस कर तैयार हो गये। किसानों के तेवर को देखकर सरकार झुक गई। इस सफलता ने गांधी जी के प्रति आपके आदर भाव को और बढ़ा दिया। प्रथम महायुद्ध की समाप्ति पर रालेट एक्ट का विरोध करने के लिए गांधी जी ने देशभर में हड़ताल की घोषणा की। 4 मार्च 1914 को देश ने नये युग में प्रवेश किया। अहमदाबाद में बल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में रालेट एक्ट के विरूद्ध की गई हड़ताल को मिली भारी सफलता से सरकार डर गई। जुलूस में सत्याग्रहियों पर गोलियां चलाईं गईं। दिल्ली की हड़ताल का नेतृत्व गुजरात के टंकारा गांव में जन्में महर्षि दयानंद सरस्वती के शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द ने किया। दिल्ली के चांदनी चौक पर अभूतपूर्व जुलूस को जब अंग्रेजी सरकार के गोरखे सैनिकों ने बंदूक की संगीने दिखाकर विफल करना चाहा तो इस वीर पुरूष ने संगीनों के सामने जाकर छाती खोकर ललकार कर कहा कि ‘‘हिम्मत है तो चलाओं गोली। इस घटना ने भी आजादी के आंदोलन में एक नया इतिहास रचा। सन् 1920 में कांग्रेस द्वारा असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित करने पर वल्लभभाई पटेल ने बैरिस्टरी का ही त्याग नहीं किया अपितु अपने दोनों पुत्रों को भी अध्ययन हेतु विलायत जाने से रोक दिया। आप दोनों पुत्रों की उच्च शिक्षा हेतु विलायत जाने की पूरी तैयारी कर चुके थे।

 

गांधी जी के बंदी बना लिए जाने पर गुजरात में कांग्रेस के नेतृत्व का भार आपको सौंपा गया जिसे आपने सफलतापूर्वक निभाया। असहयोग आंदोलन में स्कूल व कालेजों का बहिष्कार करने वाले विद्यार्थियों के लिए आपने ‘‘गुजरात विद्यापीठ की जुलाई 1920 में स्थापना की और इस निमित्त धनसंग्रह कार्य में भी सफलता प्राप्त की। धन संग्रहार्थ आप बर्मा भी गये। इससे पूर्व गुरूकुल कांगड़ी, हरिद्वार हेतु धन संग्रहार्थ आचार्य रामदेव एवं विद्यामार्तण्ड पं. विश्वनाथ विद्यालंकार आदि भी बर्मा गये थे। राष्ट्र  निर्माण में इन दोनों संस्थाओं ने बहुमूल्य सेवायें दी हैं। सन् 1923 में बोरसद के किसानों को एक ओर जहां डाकुओं ने परेशान किया वहीं सरकार ने पुलिस पर अतिरिक्त व्यय को भी लगान में जोड़ दिया। परेशान किसानों ने बल्लभ भाई के पास जाकर अपना रोना रोया। आपने किसानों को बढ़ा लगान देने से मना किया और बोरसद का स्वयं भ्रमण कर स्थिति का जायजा लिया। आपके प्रयास से वहां 200 स्वयं सेवक तैयार किए गए जिन्होंने डाकुओं का मुकाबला करने का संकल्प लिया। परिणाम यह हुआ कि डाकुओं के आक्रमण बंद हो गये और सरकार भी पटेल जी की हुंकार से झुक गई। इस सफलता ने भी आपको देश भर में लोकप्रिय बना दिया।

 

नागपुर के एक भाग में राष्ट्रीय झंडे पर प्रतिबन्ध एवं जमना लाल बजाज की गिरफ्तारी के बाद वल्लभ भाई ने सत्याग्रह का मोर्चा संभाला। पुलिस ने वल्लभ भाई की सक्रियता से भयभीत होकर प्रतिबंध वापिस लेकर उन्हें अजेय योद्धा सिद्ध किया। इसके बाद गुजरात में बाढ़ से हुई तबाही के अवसर पर भी आपने 2,000 स्वयं सेवक तैयार कर सहस्रों बाढ़ पीड़ितों के प्राणों की रक्षा की। इन दिनों आप गुजरात प्रदेश में कांग्रेस के प्रधान के साथ अहमदाबाद म्युनिस्पल बोर्ड के भी अध्यक्ष थे। पांच वर्षों के कार्यकाल में आपने जन कल्याण एवं नागरिकों के स्वास्थ्य संबंधी जो उपयोगी योजनायें बनाई थी, वह देश भर के लिए अनुकरणीय सिद्ध हुईं। गुजरात में जल प्रलय के बाद बाढ़ से खेतियों को हानि से अन्न के अभाव ने स्थानीय किसानों को भुखमरी के कगार पर ला खड़ा किया। इस अवसर पर भी वल्लभ भाई ने दुर्भिक्ष पीड़ितों को सरकार से एक करोड़ पचास लाख रूपयों की सहायता स्वीकृत करवाकर उसके वितरण की सराहनीय व्यवस्था की जिसमें भ्रष्टाचार की लेशमात्र भी कहीं गुंजाइश नहीं थी। सरकार ने भी आपकी प्रबंध व्यवस्था की सराहना की। इस कार्य ने वल्लभ भाई को एक सक्षम नेता के साथ योग्य व्यवस्थापक भी सिद्ध किया।

 

गुजरात के एक ताल्लुके बारदौली में सरकार द्वारा लगान में तीस प्रतिशत की वृद्धि से परेशान किसान वल्लभ भाई के पास आये और उन्हें न्याय दिलाने हेतु प्रार्थना की। वल्लभ भाई ने स्वयं छानबीन कर इस वृद्धि को अन्यायपूर्ण पाया। आपने किसानों को समझाया कि इस अन्याय के विरूद्ध संघर्ष का परिणाम सरकार द्वारा नानाविध किसानों का उत्पीड़न होगा जिसमें कुर्की, बलात्कार, बच्चों की भुखमरी भी शामिल है। किसानों द्वारा हर प्रकार के त्याग का आश्वासन देने पर आपने आंदोलन की बागडोर संभाली। सन् 1928 में गवर्नर से लगान वृद्धि पर पुनर्विचार करने को कहा गया। आपके द्वारा की गई मांग ठुकरा दिये जाने से आंदोलन आरंभ हुआ। सरकार द्वारा लगान चुकाने की तिथि निश्चित कर संवेदनाशून्य होने का परिचय दिया। इस पर वल्लभ भाई ने किसानों को लगान की एक पाई भी सरकार को न देने का एलान किया। इस एलान से मानसिक दृष्टि से असंतुलित सरकार ने उत्पीड़न के सभी साधनों का प्रयोग किया। वल्लभ भाई हर स्थिति से जूझने के लिए पहले से ही तैयार थे। बारदौली को आपने कई भागों में बांटकर वहां छावनियां स्थापित कर दी थीं जिनमें संदेशवाहक निरन्तर सम्पर्क रखते थे एवं आपके गुप्तचर सरकारी गतिविधियों की सभी सूचनायें वल्लभ भाई तक पहुंचातें थे।

 

बारदौली का यह सत्याग्रह देश भर में चर्चित हुआ। मुम्बई असेम्बली के अनेक सदस्यों ने सदस्यता से त्यागपत्र देकर सरकार के विरूद्ध अपना असन्तोष प्रकट किया। अन्ततः सरकार को झुकना पड़ा। इस सत्याग्रह की सफलता ने आपको देश का प्रथम पंक्ति का नेता बना दिया। सरदार की उपाधि भी आपको इस अवसर पर मिली। इसके बाद आप सरदार पटेल के नाम से जाने गये। 31 दिसम्बर 1929 को लाहौर कांग्रेस के अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित हुआ। इसके अनुसार गांधी जी ने डांडी यात्रा की तैयारी की। सरदार पटेल ने गुजरात के एक गांव ‘‘रास में सभा करके इलाके के कलेक्टर के प्रतिबन्ध को चुनौती दी। परिणामतः आपको गिरफ्तार किया गया और पांच सौ रूपये जुर्माने के साथ तीन माह की कैद का दंड मिला। बंदीगृह में आपका भार पन्द्रह पौण्ड घट गया। इस कारण 26 जून 1930 को आप रिहा हुए। यह आपका आजादी के आंदोलन में प्रथम कारावास था।

 

जब आप बाहर आये तो स्वतंत्रता आंदोलन पूरे यौवन पर था। आंदोलन की बागडोर पं. मोतीलाल नेहरू के हाथों में थी। उन्होंने जेल जाते समय सरदार पटेल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर देश का नेतृत्व उन्हें सौंप दिया था। मुम्बई से आपने स्वतंत्रता आंदोलन का संचालन किया। 1 अगस्त को लोकमान्य तिलक की बरसी पर लाखों लोगों की अनुशासित भीड़ ने मुम्बई में जुलूस निकाला। बोरी बंदर स्टेशन से आगे पुलिस ने जुलूस को जाने नहीं दिया। शक्ति परीक्षण हुआ। लाखों की भीड़ ने वहां रात्रि भर बैठकर मोर्चा संभाला। रूष्ट पुलिस ने लाठी और गोलियां चलाई। सैकड़ों को गोलियां लगी और लोगों के सिर फूटे। सरदार पटेल को जिम्मेदार मानकर उन्हें गिरफ्तार किया गया एवं मुकदमा चलाया। तीन माह का कारावास का आपको दंड मिला। इसी बीच गांधी-इरविन समझौता हो जाने पर 25 जनवरी 1931 को आप रिहा कर दिए गए।

 

कांग्रेस में सरदार पटेल का गांधी जी के पश्चात दूसरा स्थान बन गया। यही कारण था कि आपको कांग्रेस के अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया। कराची का मार्च 1931 का अधिवेशन घटनापूर्ण रहा। अधिवेशन से कुछ दिन पूर्व ही भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाया गया था। आर्य विद्वान अनूप सिंह का मानना था कि यदि गांधी जी चाहते तो भगत सिंह को फांसी से बचा सकते थे। अहिंसा को समर्पित बापू ने प्रसिद्ध क्रांतिकारी दुर्गा भाभी के इस संबंध में निवेदन को भी गंभीरता से नहीं लिया था। यह तथ्य भगत सिंह के साथी शहीद सुखदेव लिखित पुस्तक में दिए गए थे। भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरू की शहादत से आहत कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष सरदार पटेल ने सभापति के जुलूस का समारोह इन देशभक्तों की याद में स्थगित कर अद्भुत साहस का परिचय दिया। अध्यक्ष पद से सरदार पटेल द्वारा दिया गया भाषण ऐहितहासिक सारगर्भित एवं अनोखा था।

 

कराची कांग्रेस में सत्याग्रह की घोषणा की गई। गांधी जी विलायत से खाली हाथ लौटे थे। सरदार पटेल को सरकार ने पुनः गिरफ्तार कर लिया । जेल में आपका स्वास्थ्य अत्यधिक गिर जाने के कारण आपको रिहा कर दिया गया। स्वास्थ्य की परवाह न कर आपने चुनाव युद्ध में कांग्रेस के प्रत्याशियों को सफल बनाने के लिए देश का व्यापक दौरा किया। आप कांग्रेस पार्लियामेंटरी बोर्ड के अध्यक्ष थे। आठ प्रांतों में कांग्रेस का मंत्रिगंडल सत्तारूढ़ था। मंत्रियों पर सरदार पटेल का कड़ा अनुशासन था जिसके परिणामस्वरूप मध्य प्रांत के मुख्य मंत्री डाक्टर खरे को पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। सन् 1942 के स्वाधीनता के निर्णायक युद्ध में कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों के साथ 9 अगस्त 1942 को आपको अहमदनगर जेल में बंद कर दिया गया। 15 जून 1945 को आप जेल से मुक्त हुए। इसी दिन अंग्रेजी सरकार ने भारत को स्वतंत्रता प्रदान करने की अपने संकल्प की घोषणा भी की। मुस्लिम लीग द्वारा आजादी के रास्ते में डाली जा रही अड़चनों का आपने मुंहतोड़ करारा उत्तर दिया और जिन्ना को लताड़ते हुए कहा कि तलवारों का जवाब तलवारों से दिया जायेगा और आजादी विरोधी बातें करने वालों को कड़ी सजा दी जायेगी। सरदार पटेल ने आत्मरक्षा के लिए जनता को हथियार उठाने के उनके अधिकार की पुष्टि की और कहा कि कायर की तरह मरने से हथियार चलाते हुए स्वाभिमान से मरना अधिक अच्छा है। देश की आजादी के बाद हैदराबाद रियासत के नवाब उस्मान अली की कार पर बम फेंकने वाले दो आर्य युवकों को भी आपने दिल्ली में बुलाकर सम्मानित किया था। 21 सितम्बर 1946 को कांग्रेस मंत्री-मण्डल बनने पर आपको रियासती विभाग, गृह विभाग एवं प्रचार मंत्री के साथ उप प्रधानमंत्री बनाया गया। आपने अपनी बुद्धिमत्ता से जो सफलतायें प्राप्त कीं उसने देश विदेश के राजनीतिज्ञों को आपका प्रशंसक बना दिया। मुस्लिम लीग के विरोध एवं अंग्रेज सरकार के उसके प्रति सहयोगी रूख के बावजूद 9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा का अधिवेशन करवाकर आपने अपनी अदम्य इच्छा शक्ति, दृणता एवं दूरदर्शिता का परिचय दिया। आपने चुनौती पूर्ण शब्दों में कहा था कि आकाश चाहे गिर पड़े, पृथिवी चाहे फट जाये, विधान सभा का अधिवेशन 9 दिसम्बर से पीछे नहीं होगा। आपने अपनी चुनौती को सत्य सिद्ध कर दिखाया।

 

पाकिस्तान को पृथक राष्ट्र बनाकर लगभग 600 रियासतों को स्वतंत्रता प्रदान कर एवं मुसलमानों में हिन्दू विरोधी भावनायें भरकर अंग्रेजों ने विप्लव एवं अराजकता की स्थिति पैदा कर दी थी। सरदार पटेल ने इस विषम परिस्थिति में अपनी कूटनीतिज्ञता से देश के शत्रुओं के सभी षडयंत्रों को विफल कर भारत के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया। 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अल्पकाल में 552 रियासतों के भारत में विलय की घटना सरदार पटेल के यश को सदैव अक्षुण रखेगी। यह ऐसी घटना है जिसके लिए यह देश हमेशा सरदार पटेल का कृतज्ञ रहेगा। कश्मीर, जूनागढ़, एवं हैदराबाद रियासतों के असहयोगी रूख का भी आपने यथोचित समाधान किया। कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रमण ने कश्मीर के भारत में विलय का कार्य प्रशस्त किया। जूनागढ़ के नवाब की बुद्धि भी आपने बिग्रेडियर गुरदयाल सिंह के नेतृत्व में भारतीय सेनायें भेज कर ठिकाने लगाई। नवाब रियासत छोड़कर ही भाग गया। 12 नवम्बर, 1947 को जूनागढ़ पहुंचकर आपने हैदराबाद के नवाब को खबरदार करते हुए कहा कि उसका भी वही हश्र होगा जो जूनागढ़ का हुआ है। 17 सितम्बर, 1948 को आपने मात्र 4 दिन के पुलिस एक्शन में हैदराबाद रियासत के घुटने टिकवा दिये। इस प्रकार आपने अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्र सभी रियासतो का भारत में विलय करवाकर राष्ट्र यज्ञ को सफलतापूर्वक सम्पन्न किया।

 

सरदार पटेल ने स्वाभिमान का जीवन जीकर स्वयं में लौह पुरूष के व्यक्तित्व को चरितार्थ किया। गांधी जी के शब्दों में आपकी निमर्मता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता था कि जब अदालत में वकील की हैसियत से बहस करते हुए आपको अपनी पत्नी की मृत्यु (11 जनवरी, सन् 1909) का समाचार मिला तब भी आपने अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा और बहस जारी रखी। मृत्यु के तार को पढ़ लिया औरे मोड़कर जेब में रख लिया। बहस समाप्त होने के बाद आपने अदालत से विदा ली। 15 दिसम्बर, सन् 1950 को प्रातः 9.30 बजे मुम्बई में हृदयरोग से आपकी मृत्यु हुई। इससे पूर्व स्वास्थ्य लाभ हेतु आप देहरादून भी आये थे। आपकी मृत्यु से देश ने अपने सबसे बहुमूल्य रत्न को खो दिया। भारत की राजनीति में यह महापुरूष भूतो भविष्यति सिद्ध हुआ।

 

लौहपुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्र सभी रियासतों को भारत में मिलाकर जो उदाहरण प्रस्तुत किया उसकी संसार के इतिहास में कोई मिसाल नहीं है। आपने वह असम्भव कार्य कर दिखाया जो सम्राट अशोक और चन्द्रगुप्त भी नहीं कर सके और अन्य किसी नेता में यह क्षमता नहीं थी। उन्होंने विधर्मियों द्वारा लूटे गये सोम मन्दिर का भी पुनरूद्धार कर एक अविस्मरणीय कार्य किया। यह देश का सौभाग्य था कि उन दिनों सरदार पटेल हमारे पास थे अन्यथा इतिहास हमारे लिए अत्यन्त दुःखद होता। देश के हित में किए गए यशस्वी कार्यों के कारण यह देश उनका हमेशा ऋणी रहेगा। भारत के इतिहास में आप सदा-सदा के लिए अमर हैं और देश की राजनीति में नेताओं के प्रेरणास्रोत रहेंगे। हम यह भी कहना चाहते हैं कि श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार ने सरदार पटेल की स्मृति को अक्षुण बनाने के लिए जिन कार्यों की घोषणायें की हैं, वह स्वागत योग्य है। उनके जन्म दिवस 31 अक्तूबर, 2014 को भी केन्द्र सरकार के नेतृत्व में आजाद देश के इतिहास में पहली बार सरदार पटेल की गरिमा के अनुरूप देश की ‘‘एकता एवं अखण्डता दिवस के रूप में मनाया गया। उनकी जो 182 मीटर की देश की सबसे ऊंची और भव्य मूर्ति बनाई जा रही है वह भी सरदार की ओर से उनको यथोचित एक स्तुत्य कार्य है। किसी को भी इस कार्य को मूर्ति पूजा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। सरदार पटेल के आकार व शारीरिक रूप के अनुरूप ही यह मूर्ति बनेगी और वहां जो भवन व संग्रहालय बनेगा उसमें उनसे सम्बन्धित पुष्ट जानकारी के साथ देश भर में उनके योगदान की चर्चा होगी। पर्यटल स्थल बनने के कारण देश विदेश के लोगों सहित हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी इनकी गरिमा को जान सकेगी। हमें लगता है कि सरदार पटेल के साथ न्याय किए जाने से सीमित अर्थों में देश में अच्छे दिन आ गये हैं। सरदार पटेल की स्मृति को कोटिशः नमन। हम यह भी कहना चाहते हैं कि देश में एक व्यक्तित्व और ऐसा है जिसके साथ देश ने न्याय नहीं किया है। उसका नाम है महर्षि दयानन्द सरस्वती। उन्होंने विलुप्त वेदों के आधार पर सत्य सनातन धर्म और संस्कृति का पुनरूद्धार करने के साथ कांग्रेस की स्थापना से 10 वर्ष पूर्व सन् 1875 में अपने कालजयी ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के माध्यम से देश को स्वतन्त्रता और स्वराज्य का सर्व प्रथम मूलमन्त्र दिया था। देश से अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां व पाखण्डों को दूर कर देश को आधुनिक युग के अनुरूप बनाने में सर्वाधिक योगदान किया। देश को विधर्मियों द्वारा षडयन्त्र पूर्वक किए जा रहे धर्मान्तरण से बचाया। क्या इनके साथ देश कभी न्याय करेगा?

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

 

‘मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम सहित महर्षि वाल्मिकी भी विश्व के आदरणीय एवं पूज्य’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

हमारे पौराणिक भाईयों ने वैदिक वा आर्य गुण सम्पन्न मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चन्द्र जी को ईश्वर का अवतार स्वीकार किया है और अपने मन्दिरों में उनकी मूर्ति स्थापित कर पूजा अर्चना करते हैं। अनुमान है कि विगत ढाई हजार वर्षों में, जब भी मूर्ति पूजा का आरम्भ हुआ, सबसे पहले जिस महापुरूष की मूर्ति की पूजा आरम्भ की गई उनमें प्रथम श्री राम चन्द्र जी ही रहे हैं। योगेश्वर श्री कृष्ण जी को भी अपना आराध्य देव बनाया गया और इनकी मूर्ति की पूजा का इतिहास भी श्री राम के समान पुराना व उसके किंचित बाद का हो सकता है। 6 गुणों वा ऐश्वयों से सम्पन्न होने के कारण श्री राम भगवान कहे व माने जाते हैं। आर्यसमाज को भी श्री राम को भगवान कहने पर शास्त्रीय दृष्टि से कोई आपत्ति नहीं है। हम भी राम चन्द्र जी को भगवान कहते हैं परन्तु वह इस सृष्टि की रचना व उसका पालन करने वाले ईश्वर जो कि सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, निराकार, अनादि, अनुत्पन्न, अजन्मा, सर्वशक्तिमान तथा जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म देने वाला है, वह ईश्वर नहीं थे, अपितु सर्वश्रेष्ठ जीवात्मा थे। यजुर्वेंद के अध्याय 40 के मन्त्र 14 में ईश्वर को स्पष्ट रुप से अजन्मा बताया गया है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है और इस बात को हमारे पौराणिक बन्धु भी स्वीकार करते हैं। अब यदि ईश्वर स्वयं यह कहे कि मैं जन्म नहीं लेता या मैं अजन्मा हूं तो फिर उसका जन्म मानना, हमारी बुद्धि में विवेक न होने के कारण ही सम्भव है। महर्षि दयानन्द ने इस विषय पर सत्यार्थ प्रकाश में सम्यक प्रकाश डाला है। जो भी हो, ईश्वर सारे संसार के सभी लोगों का समान रूप से उपासनीय है। सभी को उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना प्रातः व सायं, दोनों समय तो करनी ही है। इसके साथ यदि कभी मनुष्य को खाली समय मिले तो ईश्वर के निज नाम ‘‘ओ३म् का जप मन, ज्ञान व ध्यान पूर्वक करना चाहिए। इतिहास में हुए आदर्श पुरूषों में भगवान राम के आदर्श जीवन को भी बाल्मिकी रामायण में पढ़कर उनके गुणों को अपने जीवन में ढालने का प्रयत्न करना चाहिये। यह वैदिक धर्म के सिद्धान्तों व मान्यताओं के पूर्णतया अनुरूप व अनुकूल है।

 

आज हमें भगवान राम का आदर्श जीवन यदि ज्ञात है तो उसका सारा श्रेय महर्षि वाल्मिकी जी को है। यदि वह न होते तो आज हम भगवान राम चन्द्र जी के सभी मर्यादाओं से पूर्ण आदर्श जीवन से वंचित होते। महर्षि वाल्मिकी रामचन्द्र जी के समकालीन थे। उनका रामचन्द्र जी के जीवन की घटनाओं से सीधा सम्पर्क व सम्बन्ध अवश्य रहा होगा। उन्होंने अपने विवेक व योग की सिद्धियों से भी उनके जीवन की घटनाओं को प्रत्यक्ष किया होगा, इसका अनुमान होता है। यदि ऐसा न होता तो वाल्मिकी रामायण जैसे विशाल आद्य महाकाव्य का प्रणयन व रचना सम्भव नहीं थी। महर्षि वाल्मिकी जी ने रामायण जैसे महाकाव्य की रचना कर अपनी जिस क्षमता, योग्यता व सूझबूझ का परिचय दिया है, वह बाद के विद्वानों व महापुरुषों में महर्षि वेदव्यास जी के अतिरिक्त किसी अन्य में दृष्टिगोचर नहीं हुई। यह दोनों ही महापुरूष व महात्मा मानव जाति के लिए पूज्य व स्तुत्य हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि श्री रामचन्द्र जी के युग में महर्षि वाल्मिकी जैसे महात्मा भारत की भूमि पर विद्यमान थे जिससे रामायण जैसे आद्य महाकाव्य की रचना सम्भव हो सकी। वाल्मिकी जी के रामायण की रचना के महान व अभूतपूर्व योगदान के लिए सारी धरती के मानव उनके कृतज्ञ है और उनके इस ऋण को हमें सदैव अपनी स्मृति में रखना चाहिये। हमारा कर्तव्य है कि हम रामायण का बार-बार अध्ययन व अधिकाधिक पाठ करें और रामायण में वाल्मिकी जी द्वारा दर्शाये गये श्री रामचन्द्र जी के पावन चारित्रिक गुणों को जानकर उन्हें अपने जीवन में धारण करें। यदि ऐसा नहीं करते तो हम वाल्मिकी जी के तो ऋणी रहेंगे ही, साथ हि हम श्री रामचन्द्र जी के आदर्श जीवन की अनुपस्थिति में श्रेष्ठ मनुष्य नहीं बन सकेंगे।

 

वाल्मिकी जी के नाम के साथ प्राचीन समय से महर्षि शब्द सुशोभित है जिससे ज्ञात होता है कि वह वेदों के उच्च कोटि के विद्वान महात्मा थे। महर्षि शब्द का प्रयोग वेदों के ज्ञान को आत्मसात कर उसके अनुरूप आचरण करने वाले निर्भीक साहसी मनुष्य जो कर्मों आचरण से पूर्ण धर्मात्मा, योगी आप्त पुरुष हों, के लिए ही प्रयोग में लाया जाता है। अतः महर्षि वाल्मिकी अपने समय के वेदों के उच्च कोटि के विद्वान महात्मा थे। निश्चय ही वह ईश्वर का ध्यान सन्ध्या करते थे, यज्ञ करते थे, वेदों का अध्ययन, उनका अध्यापन प्रचारप्रसार करते थे। अज्ञान का नाश और ज्ञान का प्रकाश वा प्रचार ही उनके जीवन का उद्देश्य था। वह सच्चे ब्राह्मण अपने समय के सभी ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्यादि जनों के सर्वपूज्य विद्वान वा महात्मा थे। हमें नहीं लगता कि वह शूद्र वर्ण में जन्में होंगे। यह सम्भव हो सकता है परन्तु संदिग्ध है। लाखों वर्ष पूर्व हुए महर्षि महात्मा वाल्मिकी जी के ठीक ठीक इतिहास का ज्ञान होना सम्भव नहीं है। इस पर कोई प्रामाणिक ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है। बाद में मध्यकाल में लोगों ने उनके बारे में किंवदन्तियां प्रचलित कर दी। जो सत्य भी हो सकती हैं और नहीं भी। यदि वह सत्य भी हों तो भी इससे वाल्मिकी जी की योग्यता, ऋषित्व में व उनके समस्त मानवजाति के पूज्य होने में कहीं कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती। इससे तो वह और भी अधिक गौरवान्वित होते हंै। श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होकर श्रेष्ठ बनना सरल है परन्तु निम्न कुल में उत्पन्न होकर उस श्रेष्ठता की चरम पर पहुंचना जहां श्रेष्ठ कुलों के लोग भी अपवाद स्वरूप पहुंचते हैं, यह बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। यदि ऐसा है तो यह सोने में सुहागा जैसी बात है। अतः महर्षि बाल्मिकी ब्राह्मणों, पौराणिक गुरुओं, सभी आर्य वर्णो व संसार के लोगों के पूज्य हैं। हम यद्यपि मूर्तिपूजा को वेदसम्मत व करणीय नहीं मानते फिर भी परिस्थितियों के अनुरुप हम यह आवश्यक समझते हैं कि रामचन्द्र जी के मन्दिरों में महर्षि वाल्मिकी जी का चित्र आदर व सम्मानपूर्वक रखा जाये जिससे भक्तों व दर्शकों को यह ज्ञान हो कि श्री रामचन्द्र जी के आदर्श, धवल व निष्पाप चरित्र को प्रकाश में लाने वाले महर्षि वाल्मिकी जी हैं।

 

यदा कदा ऐसी घटनायें भी सुनने को मिलती है कि किन्हीं पौराणिक मन्दिरों में ईश्वर के प्रिय हरिजन भाईयों को पण्डित-पुजारियों ने प्रवेश नहीं करने दिया। हमें यह कार्य अमानवीय लगता है। ईश्वर व उसके अवतार के पास पहुंचने का ईश्वर द्वारा उत्पन्न प्रत्येक प्राणी को स्वतः सिद्ध अधिकार है। पिता-पुत्र के संबंधों की भांति बिचैलियों की इसमें कहीं कोई आवश्यकता नहीं होती। मन्दिरों व मूर्तियों को बनाने वाले अधिकांशतः हमारे हरिजन भाई ही होते हैं। उनको ही मन्दिर में प्रवेश करने से रोकना कुछ नासमझ लोगों का अमानवीय कार्य ही कहा जा सकता है। वेद व सत्शास्त्रों से अनभिज्ञ किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि धर्म की मर्यादायें व व्यवस्थायें बताये। मनुष्य छोटा व बड़ा कर्म से होता है न कि जन्म से। जन्म से तो सभी शूद्र उत्पन्न होते है जन्मना जायते शूद्रः संस्कार द्विज उच्यते, यह शास्त्रों का कथन वा विधान है। संस्कार वा सद्गुण ही मनुष्यों को द्विज बनाते हैं। मनुस्मृति में भी कहा गया है कि शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम। क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।। अर्थात् जो शूद्रकुम में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य के समान गुण, कर्म, स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाय। वैसे ही जो ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यकुल में उत्पनन हुआ हो और उसके गुण-कर्म-स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जायं। वैसे क्षत्रिय-वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण वा शूद्र के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है। अर्थात् चारों वर्णों में जिस जिस वर्ण के सदृश जो जो पुरुष या स्त्री हो, वह वह उसी वर्ण में मानी जावें। यह भी निवेदन है कि हमारे पण्डित-पुजारियों को भी अपने जीवन व आचरण पर ध्यान देना चाहिये कि वह किस सीमा तक वेदानुकूल वा वेदसम्मत शास्त्रानुकूल हैं। बिना वेद पढ़े व उसका ज्ञान प्राप्त किये, हमारी दृष्टि में कोई पण्डित कहलाने का अधिकारी नहीं होता। यह मध्यकाल से पूर्व तक की लगभग 2 अरब वर्षों की परमपरा है जिसका दिग्दर्शन वेद मर्मज्ञ महर्षि दयानन्द ने वर्तमान युग में कराया है। हम आशा करते हैं हमारा पौराणिक समाज मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम चन्द्र जी की वैदिक पूजा के साथ समाज में महर्षि वाल्मिकी जी को भी यथोचित सम्मान देगा। यह मनुष्य के अपने हित, समाज हित व देश हित में है। इसके साथ हम यह भी अनुभव करते हैं कि प्रत्येक मूर्तिपजक व महर्षि दयानन्द भक्त को बाल्मिकी मन्दिरों में जाकर वहां के बहिन, भाईयों व बच्चों से मधुर सम्बन्ध स्थापित कर उन्हें सत्यार्थ प्रकाश व संक्षिप्त बाल्मीकि रामायण जैसी पुस्तकों को पढ़ने के साथ सन्ध्या व हवन करने की प्रेरणा भी करनी चाहिये। ऐसा करके कोई व्यक्ति छोटा नहीं होता है अपितु यही मनुष्य होने की कसौटी है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की कुछ प्रमुख मान्यतायें’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

वेदों पर आधारित महर्षि दयानन्द जी की कुछ प्रमुख मान्यताओं को पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं:

ईश्वर विषयक

ईश्वर कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षण युक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।

वेद विषयक

विद्या धर्मयुक्त ईश्वरप्रणीत संहिता मन्त्रभाग को निर्भ्रांत स्वतः प्रमाण मानता हूं। वे स्वयं प्रमाणरूप हैं कि जिनका प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं। जैसे सूर्य वा प्रदीप अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे चारों वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं, और चारों वेदों के ब्राह्मण, 6 अंग, 6 उपांग, 4 उपवेद और 1127 वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मा आदि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, उन को परतः प्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन है, उनका अप्रमाण मानता हूं।

धर्म अधर्म

जो पक्षपात रहित, न्यायाचरण, सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको धर्म और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभंग वेदविरुद्ध है, उसको अधर्म मानता हूं।

जीव, जीवात्मा अर्थात् मनुष्य का आत्मा

जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ, नित्य है, उसी को जीव मानता हूं।

देव

विद्वानों को देव और अविद्वानों को असुर, पापियों को राक्षस, अनाचारियों को पिशाच मानता हूं।

देवपूजा

उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री और स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना देवपूजा कहाती है। इस से विपरीत अदेवपूजा होती है। इन मूर्तियों को पूज्य और इतर पाषाणादि जड़़ मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूं।

यज्ञ

उसको कहते हैं कि जिस में विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिन से वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना है, उसको उत्तम समझता हूं।

आर्य और दस्यु

आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं। मैं भी वैसे ही मानता हूं।

स्तुति

गुणकीर्तन श्रवण और ज्ञान होना, इस का फल प्रीति आदि होते हैं।

प्रार्थना

अपने सामथ्र्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करना और इसका फल निरभिमान आदि होता है।

उपासना

जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, वैसे अपने करना, ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, योगाभ्यास से ऐसा निश्चय व साक्षात् करना उपासना कहाती है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।

सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना

जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उन से युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं, उन से पृथक मानकर प्रशंसा करना सगुण-निर्गुण स्तुति, शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना सगुण-निर्गुण प्रार्थना और सब गुणों से सहित सब दोषों से रहित परमेश्वर को मान कर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना सगुणनिर्गुणोपासना कहाती है।

हम आशा करते हैं कि पाठक उपर्युक्त वैदिक सत्य सिद्वान्तों को अपने ज्ञान व आचरण हेतु उपयोगी पायेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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महर्षि दयानन्द ने मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व संसार का यथार्थ परिचय कराने सहित कर्तव्य और अकर्तव्य रूपी मनुष्य धर्म का बोध कराया’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

आज दीपावली का पर्व महर्षि दयानन्द जी का बलिदान पर्व भी है। कार्तिक मास की अमावस्या 30 अक्तूबर, 1883 को दीपावली के दिन ही सायंकाल  अजमेर में उनका बलिदान हुआ था। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व महर्षि दयानन्द के जोधपुर में धर्म प्रचार से रूष्ट उनके विरोधियों ने उनको विष देकर व बाद में उनकी चिकित्सा में लापरवाही कर उनको स्वास्थ्य की ऐसी विषम स्थिति में पहुंचा दिया था जो उनके बलिदान का कारण बनी। आज दीपावली पर उनको याद करने के पीछे भी हमारा व मानव जाति का हित छिपा हुआ है। महर्षि दयानन्द के जीवन का मुख्य कार्य वेदों के ज्ञान को अर्जित करना और उसका देश व विदेश में प्रचार करना था। वेद ज्ञान का महत्व इस कारण है कि यह सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को प्रेरित व उनकी आत्माओं में स्थापित किया गया ज्ञान है जिसमें ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व सृष्टि का यथार्थ परिचय देकर कर्तव्य व अकर्तव्य अर्थात् मनुष्य धर्म का बोध कराया गया है। इस ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में जब हम मनुष्य जीवन के उद्देश्य पर विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी संसार के सभी पदार्थों को जानकर उनसे यथायोग्य उपयोग लेना, ईश्वर हमारा व सब प्राणियों का जन्मदाता है, सुखों का दाता व कर्मों का फल प्रदाता है, अतः उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना कर उससे जीवन के लक्ष्यों की सफलता के लिए उससे सहायता की विनती करना और वैदिक शिक्षाओं के अनुसार जीवन को बनाना व चलाना ही है। वैदिक पथ पर चलकर ही मनुष्य जीवन की उन्नति होकर जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति होती है। मनुष्य के लिए जीवन के उद्देश्य व लक्ष्यों को प्राप्त करने का वैदिक जीवन पद्धति व वेद विहित कर्तव्यों का पालन करने के अलावा कोई मार्ग नहीं है। यदि संसार का कोई मनुष्य वेद मार्ग पर चलकर साधना व कर्तव्यों को पालन नहीं करेगा तो उसका यह जीवन उसे भविष्य में घोर दुःखों की ओर ले जायेगा जिसका सुधार अनेक जन्मों में भी कठिनता से हो सकेगा। इसका प्रमुख कारण जीवात्मा का अविनाशी, अमर, नित्य, जन्म मरण को प्राप्त होना, कर्मों का फल भोगना आदि हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में सत्य की खोज व अनुसंधान कर कठोर साधना की थी जिसके परिणाम स्वरुप उनको वेदों का ज्ञान व योग विद्या की प्राप्ति हुई थी। अपने गुरू की आज्ञा व अपनी प्रकृति व प्रवृत्ति के अनुसार भी उन्होंने वेद अर्थात् सत्य ज्ञान के प्रचार को ही अपने जीवन का उद्देश्य निर्धारित किया था। इसकी आवश्यकता इस लिए थी कि उनके समय में संसार से सत्य ज्ञान प्रायः लुप्त हो चुका था और सभी मनुष्य जो जीवन व्यतीत कर रहे थे वह जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति से कोसों दूर था। यदि महर्षि दयानन्द वेद व सद्ज्ञान के प्रचार का कार्य न करते तो मनुष्य इस सृष्टि की शेष अवधि भर भटकता रहता तथा उसे सत्य मार्ग प्राप्त नहीं हो सकता था। मत-मतान्तरों के अज्ञानी व स्वार्थी लोग उसका पूर्ववत् शोषण करते रहते जिससे दोनों की ही अवनति होकर संसार में दुःख व अशान्ति भरी हुई होती। महर्षि दयानन्द के द्वारा वेद प्रचार करने पर भी संसार अभी भी अज्ञान व स्वार्थों में फंसा हुआ है। ऐसा देखा जाता है कि लोगों में सत्य को जानने व उसका आचरण करने के प्रति जो दृणता होनी चाहिये, उसका उनमें नितान्त अभाव है। संसार के सभी मनुष्य जीवन की समस्याओं के सरल उपाय करना चाहते हैं। इसी कारण स्वार्थी लोग उनका शोषण करते हैं और दोनों ही अधर्म को प्राप्त होकर अपना भविष्य उन्नत करने के स्थान पर अवनत होकर सुदीर्घ काल तक उनका फल भोगते हैं।

 

महर्षि दयानन्द जी का योगदान यह है कि उन्होंने ईश्वर व जीवात्मा सहित सभी विषयों का सत्य ज्ञान प्राप्त कर, उसकी परीक्षा द्वारा उसे तर्क की कसौटी पर कस कर उसका प्रचार किया। उन्होंने बताया कि ईश्वर को ब्रह्म व परमात्मा आदि भी कहते हैं। यह ईश्वर सच्चिदानन्द आदि लक्षण युक्त है। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव पवित्र हैं। वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता व सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणों से युक्त है। इसी ईश्वरीय सत्ता को सभी को परमात्मा जानना व मानना चाहिये।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों का परिचय कराते हुए बताया है कि विद्या व सत्य ज्ञान से युक्त ईश्वर प्रणीत जो मन्त्र संहितायें हैं, वह निभ्र्रान्त ज्ञान होने से स्वतः प्रमाण हैं। यह चारों वेद स्वयं प्रमाणस्वरूप हैं, कि जिनका प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा नहीं है। जैसे सूर्य वा प्रदीप अर्थात् दीपक अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे ही चारों वेद हैं। चारों वेद और वैदिक साहित्य के अन्तर्गत सभी ब्राह्मण ग्रन्थ, 6 वेदांग और 6 वेदों के उपांग अर्थात दर्शन ग्रन्थ, चार उपवेद और 1127 वेदों की शाखायें यह सभी वेदों के व्याख्यानरूप ग्रन्थ हैं और इन्हें ब्रह्मा आदि अनेक ऋषियों ने बनाया है। यह सब परतः प्रमाण की कोटि में आते हैं। परतः प्रमाण का अर्थ है कि यदि यह वेदानुकूल हों तो प्रमाण और इनकी जो बात वेदानुकूल न हो वह अप्रमाण होती है। महर्षि दयानन्द जी ने अपने जीवन में सबसे बड़ा कार्य सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि व व्यवहार भानु सहित वेदों के भाष्य का लेखन, सम्पादन व प्रकाशन है। इसके अतिरिक्त वैदिक मान्यताओं के प्रचार हेतु उपदेश, प्रवचन, व्याख्यान, वार्तालाप, शास्त्र चर्चा तथा शास्त्रार्थ आदि हैं। उनके अनुयायी अन्य वैदिक विद्वानों के वेद भाष्य भी मानव जाति की सबसे बड़ी सम्पत्ति व सम्पदायें हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने बताया कि पक्षपात रहित न्याय का आचरण तथा सत्य भाषण आदि से युक्त ईश्वर की आज्ञा जो वेदों के अनुकूल हो, उसी को धर्म कहते हैं। और जो इसके विपरीत हो वह अधर्म होता है। हमारा जीवात्मा क्या है? इस पर महर्षि दयानन्द जी बताते हैं कि जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञान आदि गुणों से युक्त, अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान वाला, नित्य पदार्थ व तत्व है, वही जीव कहलाता है। ईश्वर, वेद, धर्म, अधर्म और जीवात्मा का जो ज्ञान महर्षि दयानन्द जी ने दिया है, वह यथार्थ व पूर्ण सत्य है। अन्य मतों में समग्र रूप में इस प्रकार का ज्ञान उनके समय में उपलब्ध नहीं था। आज भी मत-मतान्तरों की पुस्तकें पढ़कर यह सत्य ज्ञान प्राप्त नहीं होता। इनमें अनेकानेक भ्रान्तियां भरी हुई हैं। इसलिए वैदिक धर्म और वेद आज भी सबसे अधिक पूर्ण प्रमाणिक एवं पठनीय ग्रन्थ हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने मनुष्यों को सच्ची ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना सिखाया। इसके लिए उन्होंने ब्रह्म यज्ञ अर्थात् वैदिक ईश्वरोपासना की विधि भी लिखी है जो एक प्रकार से योगदर्शन का निचोड़ है। इसका अभ्यास करने से जीवात्मा के सभी अवगुण दूर होकर उसमें सदगुणों का आविर्भाव होता है और आत्मा का बल इतना बढ़ता है कि मृत्यु के समान दुःख प्राप्त होने पर भी वह घबराता नहीं है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने से मनुष्य जीवन की उन्नति होती है और मृत्यु के पश्चात उसको अच्छा देव कोटि का जन्म वा मुक्ति की प्राप्ति होती है। महर्षि दयानन्द ने अपने ज्ञान व पुरूषार्थ से सृष्टि के प्रति मनुष्य के कर्तव्य के निर्वाह हेतु ‘‘अग्निहोत्र, यज्ञ वा हवन का भी विधान किया है इसको करने से भी जीवनोन्नति सहित परजन्म सुधरता व उन्नत होता है व अभीष्ट इच्छाओं व आकांक्षाओं की पूर्ति होती है। इसके साथ ही मनुष्य स्वस्थ रहते हुए ईश्वर की सहायता से अनेक विपदाओं से सुरक्षित रहता है। अतः ईश्वरोपासना और दैनिक यज्ञ को सभी मनुष्यों को करके अपने जीवन को उन्नत व लाभान्वित करना चाहिये।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्य ज्ञान व वेदों का प्रचार ही नहीं किया अपितु समाज सुधार हेतु समाज में व्याप्त अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों का खण्डन भी किया। मिथ्या मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, जन्मना जातिवाद, सामाजिक विषमता, बाल विवाह, परतन्त्रता, गोहत्या आदि का खण्डन कर इसके विपरीत सच्ची ईश्वर उपासना, यज्ञ, जन्म से सभी मनुष्यों की समानता, सबको विद्याध्ययन के समान अवसरों को प्रदान किये जाने का समर्थन भी किया। उनपकी विचारधारा से लिगं भेद व रंग भेद आदि का भी निषेध होता है। उन्होंने स्त्रियों के प्रति किये जाने वाले सभी भेदभावों को दूर कर उन्हें शिक्षित करने सहित देशोन्नति के कार्य करने के लिए प्रोत्साहित व प्रेरित किया। उन्होंने मनुस्मृति के वचन उद्धृत कर बताया कि जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं। साथ हि जहां नारियों का सम्मान नहीं होता, वहां की जाने वाली सभी अच्छी क्रियायें भी व्यर्थ होती हैं।

 

वैदिक धर्म का अध्ययन कर सभी अध्येता इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वेद ही सारी मानव जाति के सुख व समृद्धि सहित धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की सिद्धि में सहायक है। इससे परजन्म भी सुधरता है और वर्तमान जीवन भी उन्नत व सुखी होता है। इन सब ज्ञानयुक्त बातों से परिचित कराने का श्रेय महर्षि दयानन्द जी को है। उन्होंने इन सभी सिद्धान्तों को अपने जीवन में चरितार्थ कर हमारा मार्गदर्शन किया। आज उनके बलिदान दिवस पर उनको सच्ची श्रद्धाजंलि यही हो सकती है कि हम उनके सभी विचारों का अध्ययन कर उनका मनन करते हुए उन्हें अपने जीवन में अपनायें और उन पर आचरण कर जीवन को अभ्युदय व निःश्रेयस के मार्ग पर आरूढ़ करें। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में अपने वेद प्रचार कार्यों के अन्तर्गत मनुष्य को ईश्वर, जीवात्मा व संसार का यथार्थ परिचय कराने सहित कर्तव्य और अकर्तव्य रूपी मनुष्य धर्म का बोध कराया था। आज महर्षि दयानन्द जी के बलिदान दिवस पर हम उनको अपनी विनम्र श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं और सभी पाठको को दीपावली की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनायें भेंट करते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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महर्षि दयानन्द के वेद प्रचार और सर्वांगीण धार्मिक व सामाजिक उन्नति के कार्यों से समस्त विश्व उनका ऋणी हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द के बलिदान दिवस दीपावली पर

मनुष्य को यदि अपना परिचय जानना हो तो वह वेद वा वैदिक साहित्य में ही मिलता है। परिचय से हमारा तात्पर्य मनुष्य वस्तुतः क्या है,  इसका सत्य ज्ञान का होना ही मनुष्य का परिचय है। महर्षि दयानन्द जी ने मनुष्य की परिभाषा करते हुए बताया है कि जो मननशील हो और स्व-आत्मवत अर्थात् जैसे मुझे सुख प्रिय व दुःख अप्रिय है इसी प्रकार से अपने हानि व लाभ की तरह दूसरों के सुख दुःख व हानि लाभ को समझता हो। यदि इतना ही जान लिया जाये और इसी पर आचरण किया जाये मनुष्य एक श्रेष्ठ मनुष्य बन सकता है। सभी मनुष्यों में कमी यह देखी जाती है कि वह अपने सुख व दुःख को ही अपना मानते हैं दूसरों के सुख व दुःख की परवाह नहीं करते और इस कारण हम कई बार दूसरों के सुखों की हानि व दुःखों की वृद्धि कर बैठते हैं। अतः हमें मननशील होना चाहिये और इसके लिए आवश्यक है कि हम सद्ग्रन्थों का नियमित स्वाध्याय व अध्ययन करें। इससे हमें सत्य और असत्य का ज्ञान होगा जिससे सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में हमें सहायता मिलेगी। जिस प्रकार से ज्ञानहीन मनुष्य पशु के समान होता है इसी प्रकार वेदादि सद्ग्रन्थों के अध्ययन से शून्य मनुष्य भी पशु के समान ही होता है।

 

आज से लगभग 140 वर्ष पूर्व न केवल भारत देश अपितु सारा विश्व ही अज्ञान व अन्धविश्वासों से भरा हुआ था। शायद ही तब किसी को अपवाद स्वरुप पता रहा हो कि ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का स्वरूप क्या है? मनुष्य के ईश्वर, अपने प्रति और संसार व समाज के प्रति कर्तव्य क्या हैं? यदि मनुष्यों को यह पता होते तो संसार में अन्याय, शोषण, पक्षपात, अभाव, रोग व शोक आदि न होते हैं। अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने कर्तव्यों के प्रति अनभिज्ञ व लापरवाह होता है, मिथ्या पूजा व उपासना प्रचलित होती है, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, गुरूडम, असत्य व मिथ्या ग्रन्थों का अध्ययन व उनकी मिथ्या शिक्षाओं का आचरण होता है। समाज में समरसता का स्थान विषमता लेती है और अज्ञान व अन्धविश्वासों के कारण ही लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति व दूसरों के स्वार्थों की हानि कर उनका शोषण व उन पर अन्याय करते हैं। इन बुराईयों को दूर करने के लिए ज्ञान की सर्वाधिक आवश्यकता है। ज्ञान के द्वारा ही अपने कर्तव्य व पदार्थों के सत्यस्वरुप को समझा जा सकता है व दूसरों को भी समझाया जा सकता है। इस पर भी यदि कोई सत्य का आचरण न करें तो दण्ड के द्वारा उसका सुधार कर उसे सत्य मार्ग पर लाना होता है। आज भी सभी देशों में न्यूनाधिक यही परम्परा व व्यवस्था चल रही है। कहीं यह अधिक प्रभावशाली व कारगर है और कहीं यह कमजोर व प्रभावहीन है। इसको प्रभावशाली बनाने के लिए इसकी व्यवस्था करने वाले राज्याधिकारियों व न्यायव्यवस्था से जुड़े हुए व्यक्तियों को पूर्ण सत्य का आग्रही व सत्याचरण के आदर्श को धारण करना होता है। जहां ऐसा होता है वहां व्यवस्था उत्तम होती है।

 

महर्षि दयानन्द जी का जन्म आज से 190 वर्ष पूर्व  सन् 12 फरवरी, सन् 1825 को गुजरात के मोरवी जिले के टंकारा नामक ग्राम में हुआ था। उनका किशोरावस्था का गुण उनका मननशील होना था। यही कारण था कि जब पिता के कहने से उन्होंने शिवरात्रि का व्रतोपवास किया तो रात्रि में शिवलिंग पर चूहों को विचरण करता देखकर उनको शिवलिंग में एक सर्वशक्तिमान व दैवीय शक्ति के होने के विश्वास को ठेस लगी और उन्होंने निन्द्रासीन अपने पिता को उठाकर उनसे अनेक प्रश्न किये? पिता के पास उनके प्रश्नों का समाधान नहीं था, अतः उन्होंने उस व्रत को समाप्त कर दिया और सच्चे शिव को जानने का संकल्प लिया। कालान्तर में बहिन की मृत्यु होने पर उन्हें वैराग्य हो गया। अब मृत्यु से बचने और उस पर विजय पाने का एक और संकल्प उनके मन में उत्पन्न व धारण हो गया। जब तक माता पिता ने उन्हें अध्ययन करने की स्वतन्त्रता प्रदान की, वह घर पर रहे और अध्ययन करते रहे। जब उनके माता-पिता को उनके वैराग्य का ज्ञान हो गया और उन्होंने उनके विवाह का निश्चय कर दिया, तब उससे बचने के लिए और अपने संकल्पों को पूरा करने के लिए उन्होंने घर का त्याग कर दिया।

 

उन्होंने देश भर में घूम घूम कर ज्ञानी सत्पुरुषों, योगी, विद्वानों, महात्माओं और तपस्वियों की संगति की और उनसे जो भी ज्ञान प्राप्त हो सका या साधना का अभ्यास वह कर सकते थे, उसे उन्होंने जाना व प्राप्त किया। नर्मदा के तट व उसके उद्गम सहित वह उत्तराखण्ड के वन व पर्वतों के दुर्गम स्थानों में घूम घूम कर वह वहां विद्वानों और तपस्वी योगियों की तलाश करते रहे। ऐसा करके वह योग व ज्ञान में अन्यों की अपेक्षा से कहीं अधिक ज्ञानी हो गये। जितना ज्ञान वह प्राप्त कर सके थे, उससे उनका सन्तोष व सन्तुष्टि नहीं हुई। अभी भी उन्हें एक ऐसे गुरू की तलाश थी जो उनकी सभी शंकाओं व संशयों को दूर कर सके। उनकी यह तलाश भी मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द सरस्वती को पाकर पूरी हुई जिनके सान्निध्य में लगभग 3 वर्ष रहकर उन्होंने अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति से आर्ष व्याकरण, वेद व वेदादि साहित्य का अध्ययन किया। गुरु विरजानन्द ने उनकी सभी शंकाओं व संशयों की पूर्ण निवृत्ति कर दी। योग विद्या में वह पहले से ही योग गुरू शिवानन्द पुरी व ज्वालानन्द गिरी की शिक्षाओं व अभ्यास से निपुण हो चुके थे। गुरू विरजानन्द जी से विद्याध्ययन पूरा कर सन् 1863 में उन्होंने उनकी प्रेरणा से धार्मिक व सामाजिक जगत में वेदों वा सत्य के प्रचार को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया। सन् 1863 से आरम्भ कर अक्तूबर, 1883 तक उन्होंने वेद एव वैदिक मान्यताओं का प्रचार किया। इसके लिए उन्होंने असत्य, अज्ञान व अन्धविश्वासों का खण्डन किया और सभी धार्मिक व सामाजिक प्रश्नों के वेदों के आधार पर सत्य समाधान प्रस्तुत किये। उनके प्रसिद्ध कार्यों में सन् 1869 में काशी में लगभग 30 विख्यात शीर्षस्थ पण्डितों से मूर्तिपूजा के वेदानुकूल होने पर शास्त्रार्थ था जिसमें प्रतिपक्षियों द्वारा मूर्तिपूजा वेदों के अनुकूल सिद्ध न की जा सकी। स्वामी जी ने वेदों के आधार पर मूर्तिपूजा सहित मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, बाल विवाह, सामाजिक विषमता वा जन्मना जाति-वर्ण व्यवस्था आदि का पुरजोर खण्डन किया। स्त्री व शूद्रों के लिए निषिद्ध वेदों के अध्ययन का उन्होंने उन्हें अधिकार दिया।

 

मुम्बई में 10 अप्रैल, 1875 को वेदों के प्रचार व असत्य के शमन के लिए स्वामी जी ने आर्यसमाज तथा सन् 1883 को अजमेर में परोपकारिणी सभा की स्थापना की। संस्कृत की पाठशालायें खोलकर उन्होंने वेदों के अध्ययन को प्रवृत्त किया। हिन्दी रक्षा व हिन्दी को सरकारी काम काज की भाषा बनाने के लिए हस्ताक्षर अभियान का श्री गणेश किया जिसे अंग्रेज सरकार द्वारा नियुक्त हण्टर कमीशन को प्रस्तुत किया गया। सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, वेदभाष्य एवं अन्य सभी ग्रन्थ हिन्दी में लिखकर एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तंत किया। धर्म ग्रन्थ के रूप में सत्यार्थ प्रकाश तथा ईश्वरीय ज्ञान वेदों के भाष्य को हिन्दी में सर्वप्रथम प्रस्तुंत करने का श्रेय उन्हीं को है। गोरक्षा व गोवध रोकने की दिशा में भी उन्होंने गोकरूणानिधि पुस्तक लिखकर व अनेक राज्याधिकारियों से मिलकर इस दिशा में प्रशंसनीय कार्य किया। गोहत्या व गोमांस सेवन को उन्होंने महापाप की संज्ञा दी और गोरक्षा को राष्ट्र की आर्थिक उन्नति का आधार सिद्ध किया। सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय तथा वेदभाष्य में स्वराज्य व सुराज्य की चर्चा कर तथा धार्मिक व सामाजिक जागृति उत्पन्न कर देश की आजादी के आन्दोलन के लिए भूमि तैयार की। रामायण, महाभारतकालीन और उसके बाद के पूवजों के उत्कृष्ट देशहित के कार्य करने के लिए उनको सम्मान व गौरव दिया। खण्डन-मण्डन, सभी मतों के ग्रन्थों का अध्ययन और समीक्षा, शास्त्रार्थ, वार्तालाप, उपदेश व प्रवचन द्वारा भी वैदिक सत्य मान्यताओं के प्रचार का ऐतिहासिक कार्य उन्होंने किया। उनके आविर्भाव से पूर्व हिन्दुओं का अन्य मतों में लोभ, बलप्रयोग, छल व कपट आदि से धर्मान्तरण होता था। महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर हिन्दू धर्म को सत्य व ज्ञान पर प्रतिष्ठित किया तथा अन्य मतों की समीक्षा कर उनमें विद्यमान अज्ञान व अन्धविश्वासों की ओर ध्यान दिलाया जिससे एकपक्षीय धर्मान्तरण समाप्त हुआ और अन्य मत के लोग भी सहर्ष आर्य धर्म को स्वीकार करने लगे। भारतीय समाज से अज्ञान, अन्धविश्वास, सामाजिक विषमतायें दूर हुई जिससे मनुष्य परस्पर संगठित होकर वैदिक धर्म के अनुसार ईश्वरोपासना, यज्ञ हवन आदि करने लगे व माता-पिता-आचार्य आदि का सम्मान करने की प्रेरणा सबको प्राप्त हुई। मांसाहार के दुगुर्णों व हानियों से भी लोग परिचित हुए तथा बड़ी संख्या में लोगों ने इसे त्याग दिया। उनके प्रचार व प्रयत्नों से शाकाहार में वृद्धि हुई। गोदुग्ध व गोघृत की महिमा में भी वृद्धि हुई। भारतीयता व प्राचीन भारत का गौरव महर्षि दयानन्द के कार्यों से न केवल देश में ही अपितु विदेशों में भी बढ़ा। ऐसे अनेकानेक कार्य महर्षि दयानन्द जी ने किये जिससे देश को अपूर्व लाभ हुआ और उन्नति हुई।

 

महर्षि के प्रचार से सभी मतों के लोग उनके विरोधी व शत्रु बन गये थे। एक षडयन्त्र के अन्तर्गत जोधपुर में उनको विष देकर उनका जीवन समाप्त कर दिया गया। दीपावली के दिन अजमेर में सूर्यास्त के समय उन्होंने अपने प्राणों को ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करते हुए स्वेच्छा से त्याग दिया।  महर्षि दयानन्द ने वेदों के ज्ञान को प्राप्त कर पुनः संसार को उपलब्ध कराया व ईश्वर तथा जीवात्मा आदि के सत्य स्वरूप से परिचय व ईश्वर उपासना की सच्ची पद्धति हमें बताई। दीपावली पर उनके बलिदान पर्व पर हम उनको अपनी हृदय के प्रेम से सिक्त श्रद्धाजंलि प्रस्तुत करते हैं। उनके अपूर्व कार्यों से मानवता लाभान्वित हुई है, अतः सारा संसार उनका ऋ़णी है। उनका यश व कीर्ति चिरस्थाई रहेगी।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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भक्ष्य व अभक्ष्य भोजन एवं गोरक्षा पर महर्षि दयानन्द के वेदसम्मत, देशहितकारी एवं मनुष्योचित विचार’ -मनमोहन कुमार आर्य

 

मनुष्य मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं, ज्ञानी व अज्ञानी। रोग के अनेक  कारणों में से मुख्य कारण भोजन भी होता है। रोगी व्यक्ति डाक्टर के पास पहुंचता है तो कुशल चिकित्सक जहां रोगी को रोग निवारण करने वाली ओषधियों के सेवन के बारे में बताता है वहीं वह उसे पथ्य अर्थात् भक्ष्य व अभक्ष्य अर्थात् खाने व न खाने योग्य भोजन के बारे में भी बताता है जिससे रोगी का रोग दूर हो जाता है। महर्षि दयानन्द वेद एवं वैदिक साहित्य सहित वैद्यक व चिकित्सा शास्त्र आयुर्वेद के भी विद्वान थे। उन्होंने धर्माधर्म व वैद्यक शास्त्रोक्त दृष्टि से भक्ष्य व अभक्ष्य पदार्थों पर अपने विचार सत्यार्थ प्रकाश में प्रस्तुत किये हैं। उनके विचार आज भी प्रासंगिक एवं अज्ञानियों के लिए मार्गदर्शक हैं। अतः उन्हें सबके लाभ हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि भक्ष्याभक्ष्य दो प्रकार का होता है। एक धर्मशास्त्रोक्त तथा दूसरा वैद्यकशास्त्रोक्त। जैसे धर्मशास्त्र में- अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च।। मनु.।। इसका अर्थ है कि द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को मलीन विष्ठा मूत्रादि के संसर्ग से उत्पन्न हुए शाक फल मूल आदि न खाना। इसका तात्पर्य है कि शाक, फल व अन्न आदि पदार्थ शुद्ध व पवित्र भूमि में ही उत्पन्न होने चाहिये तभी वह भक्ष्य होते हैं। मलीन विष्ठा मूत्रादि से दूषित भूमि में उत्पन्न खाद्य पदार्थ भक्ष्य श्रेणी में नहीं आते। महर्षि दयानन्द आगे लिखते हैं-वर्जयेन्मधुमांसं च।। मनु.।। अर्थात् जैसे अनेक प्रकार के मद्य, गांजा, भांग, अफीम आदि। बुद्धि लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारी तदुच्यते।। वचन को उद्धृत कर वह कहते हैं कि जो-जो बुद्धि का नाश करने वाले पदार्थ हैं, उन का सेवन कभी न करें और जितने अन्न सड़े, बिगड़े दुर्गन्धादि से दूषित, अच्छे प्रकार न बने हुए और मद्य, मांसाहारी म्लेच्छ कि जिन का शरीर मद्य, मांस के परमाणुओं ही से पूरित है, उनके हाथ का (पकाया व बना) न खावें।

 

वह आगे लिखते हैं कि जिस में उपकारक प्राणियों की हिंसा अर्थात् जैसे एक गाय के शरीर से दूध, घी, बैल, गाय उत्पन्न होने से गाय की एक पीढ़ी में चार लाख पचहत्तर सहस्र छः सौ मनुष्यों को सुख पहुंचता है वैसे पशुओं को न मारें, न मारने दे। जैसे किसी गाय से बीस सेर और किसी से दो सेर दूध प्रतिदिन होवे उस का मध्यभाग ग्यारह सेर प्रत्येक गाय से दूध होता है। कोई गाय अठारह और कोई छः महीने दूध देती है, उस का भी मध्य भाग बारह महीने हुए। अब प्रत्येक गाय के जन्म भर के दूध से 24960 (चैबीस सहस्र नौ सौ साठ) मनुष्य एक बार में तृप्त हो सकते हैं। उसके छः बछियां छः बछड़े होते हैं उन में से दो मर जाये तो भी दश रहें। उनमें से पांच बछडि़यों के जन्म भर के दूध को मिला कर 124800 (एक लाख चैबीस सहस्र आठ सौ) मनुष्य तृप्त हो सकते हैं। अब रहे पांच बैल वे जन्म भर में 5000 (पांच सहस्र) मन अन्न न्यून से न्यून उत्पन्न कर सकते हैं। उस अन्न में से प्रत्येक मनुष्य तीन पाव खावे तो अढ़ाई लाख मनुष्यों की तृप्ति होती है। दूध और अन्न मिला कर 374800 (तीन लाख चैहत्तर हजार आठ सौ) मनुष्य तृप्त होते हैं। दोनों संख्या मिला के एक गाय की एक पीढ़ी से 475600 (चार लाख पचहत्तर सहस्र छः सौ) मनुष्य एक बार में पालित होते हैं और पीढ़ी परपीढ़ी बढ़़ा कर लेखा करें तो असंख्यात मनुष्यों का पालन होता है। इस से भिन्न बैलगांड़ी सवारी भार उठाने आदि कर्मों से मनुष्यों के बड़े उपकारक होते हैं तथा गाय दूध से अधिक उपकारक होती है परन्तु जैसे बैल उपकारक होते हैं वैसे भैंस भी है परन्तु गाय के दूध घी से जितने बुद्धिवृद्धि से लाभ होते हैं उतने भैंस के दूध से नहीं। इससे मुख्योपकारक आर्यों ने गाय को गिना है और जो कोई अन्य विद्वान होगा वह भी इसी प्रकार समझेगा।

 

बकरी के दूध से 25920 (पच्चीस सहस्र नौ सौ बीस) आदमियों का पालन होता है वैसे हाथी, घोड़े, ऊंट, भेड़, गदहे आदि से भी बड़े उपकार होते हैं । इन पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानियेगा।

 

देखो ! जब आर्यो (वेद के मानने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों) का राज्य था तब ये महोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त वा अन्य भूगोल देशों में बड़े आनन्द में मनुष्यादि प्राणी वर्तते थे। क्योंकि दूध, घी, बैल आदि पशुओं की बहुताई होने से अन्न व रस पुष्कल प्राप्त होते थे। जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गो आदि पशुओं के मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुए हैं तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की बढ़ती होती जाती है। क्योंकि नष्टे मूले नैव फलं पुष्पम्। जब वृक्ष का मूल ही काट दिया जाय तो फल फूल कहां से हों?

 

महर्षि दयानन्द एक काल्पनिक प्रश्न कि जो सभी अंहिसक हो जाये तो व्याघ्रादि पशु इतने बढ़ जायें कि सब गाय आदि पशुओं को मार खायें तुम्हारा पुरूषार्थ ही व्यर्थ जाय? का उत्तर देते हुए कहते हैं कि यह राजपुरुषों का काम है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों उन्हें दण्ड देवें और प्राण भी वियुक्त कर दें। (प्रश्न) फिर क्या उन का मांस फेंक दें? (उत्तर) चाहें फेंक दें, चाहें कुत्ते आदि मांसाहारियों को खिला देवें वा जला देवें अथवा कोई मांसाहारी खावे तो भी संसार की कुछ हानि नहीं होती किन्तु उस मनुष्य का स्वभाव मांसाहारी होकर हिंसक हो सकता है।

 

जितना हिंसा, चोरी, विश्वासघात, छल व कपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और अहिंसा व धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है। जिन पदार्थों से स्वास्थ्य रोगनाश बुद्धि-बल-पराक्रम-वृद्धि और आयु-वृद्धि होवे उन तण्डुलादि, गोधूम, फल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्टादि पदार्थों का सेवन यथायोग्य पाक मेल करके यथोचित समय पर मिताहार भोजन करना सब भक्ष्य कहाता है। जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध विकार करने वाले हैं, जिस-जिस के लिए जो-जो पदार्थ वैद्यकशास्त्र में वर्जित किये हैं, उन-उन का सर्वथा त्याग करना और जो-जो जिस के लिए विहित है उन-उन पदार्थों का ग्रहण करना यह भी भक्ष्य है।

 

गोकरुणानिधि पुस्तक में पशु हिंसक मनुष्य का काल्पनिक पक्ष प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि देखो ! जो शाकाहारी पशु और मनुष्य हैं वे बलवान् और जो मांस नहीं खाते वह निर्बल होते हैं, इसलिए मांस खाना चाहिये। इसका प्रतिवाद करते हुए महर्षि दयानन्द पशु रक्षक की ओर से कहते हैं कि क्यों ऐसी अल्प समझ की बातें मानकर कुछ भी विचार नहीं करते। देखो, सिंह मांस खाता और सुअर वा अरणा भैंसा मांस कभी नहीं खाता, परन्तु जो सिंह बहुत मनुष्यों के समुदाय में गिरे तो एक वा दो को मारता और एक दो गोली या तलवार के प्रहार से मर भी जाता है और जब जंगली सुअर वा अरणा भैंसा जिस प्राणि समुदाय में गिरता है, तब उन अनेक सवारों और मनुष्यों को मारता और अनेक गोली, बरछी तथा तलवार आदि के प्रहार से भी शीघ्र नहीं गिरता, और सिंह उस से डर के अलग सटक जाता है और वह अरणा भैंसा सिंह से नहीं डरता।

 

जिस देश में सिवाय मांस के अन्य कुछ नहीं मिलता, वहां आपत्काल अथवा रोगनिवृति के लिये क्या मांस खाने में दोष होता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि यह कहना व्यर्थ है क्योंकि जहां मनुष्य रहते हैं, वहां पृथिवी अवश्य होती है। जहां पृथिवी है वहां खेती वा फल-फूल आदि होते हैं और जहां कुछ भी नहीं होता, वहां मनुष्य भी नहीं रह सकते। और जहां ऊसर भूमि है, वहां मिष्ट जल और फल-आहार आदि के न होने से मनुष्यों का रहना भी दुर्घट है। आपत्काल में भी मनुष्य अन्य उपायों से अपना निर्वाह कर सकते हैं जैसे मांस के न खाने वाले करते हैं। बिना मांस के रोगों का निवारण भी ओषधियों से यथावत् होता है, इसलिये मांस खाना अच्छा नहीं।

 

महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आधार पर लिखा है कि जो मनुष्य वेदोक्त धर्म और जो वेद से अविरुद्ध मनुस्मृति युक्त धर्म का अनुष्ठान करता है वह इस लेाक में कीर्ति और मर कर सर्वोत्तम सुख को प्राप्त होता है। यहां बताया गया है कि वेद और वेदानुकूल मनुस्मृति के वचनों का पालन करने पर इस लोक में उन्नति होती है और मर कर भी जीवात्मा को सर्वोत्तम सुखों की प्राप्त होती है। हमारे मांसाहारी भाई कभी यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि मरने के बाद आत्मा का अस्तित्व रहता है वा नहीं? यदि रहता है तो उसको सुख व दुःख क्यों, कैसे व किस प्रकार से प्राप्त होते हैं व उनका आधार क्या होता है। महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं कि जो विद्या नहीं पढ़ा है वह जैसा काष्ठ का हाथी, चमड़े का मृग होता है वैसा अविद्वान मनुष्य जगत् में नाममात्र मनुष्य कहलाता है। इसलिए वेदादि विद्या को पढ़, विद्वान्, धर्मात्मा होकर निर्वैरता से सब प्राणियों के कल्याण का उपदेश करे। और उपदेश में वाणी को मधुर और कोमल बोलें। जो सत्योपदेश से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करते हैं वे पुरुष धन्य हैं।

 

महर्षि गोकरुणानिधि पुस्तक में उपदेश करते हुए कहते हैं कि ध्यान देकर सुनिये कि जैसा दुःख-सुख अपने को होता है, वैसा ही औरों को भी समझा कीजिये। और यह भी ध्यान में रखिये कि वे पशु आदि और उन के स्वामी तथा खेती आदि कर्म करने वाले प्रजा के पशु आदि और मनुष्यों के अधिक पुरुषार्थ ही से राजा का ऐश्वर्य अधिक बढ़ता और न्यून से नष्ट होता जाता है, इसीलिये राजा प्रजा से कर लेता है कि उन की रक्षा यथावत् करे न कि राजा और प्रजा के जो सुख के कारण गाय आदि पशु हैं उनका नाश किया जावे। इसलिये आज तक जो हुआ सो हुआ आगे आंखे खोल कर सब के हानिकारक कर्मों को न कीजिये और न करने दीजिये। हां हम लोगों का यही काम है कि आप लोगों को भलााई और बुराई के कामों को जता देवें, और आप लोगों का यही काम है कि पक्षपात छोड़ सब की रक्षा और उन्नति करने में तत्पर रहें। सर्वशक्तिमान जगदीश्वर हम और आप पर पूर्ण कृपा करें कि जिस से हम और आप लोग विश्व के हानिकारक कर्मों को छोड़, सर्वोपकारक कर्मों को कर के सब लोग आनन्द में रहें। इन सब बातों को सुन मत डालना, किन्तु सुन कर उसके अनुसार आचरण करना। इन अनाथ पशुओं के प्राणों को शीघ्र बचाना। हे महाराजधिराज जगदीश्वर ! जो इन (गाय आदि पशुओं) को कोई न बचावे तो आप इन की रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हुजिये।

 

लेख को विराम देने से पूर्व हम यह भी उल्लेख करना चाहते हैं कि वेद और महर्षि दयानन्द संसार के सभी मनुष्यों को एक ही ईश्वर की सन्तान के रूप में मानते हैं। वेद में किसी मत विशेष के मनुष्य के प्रति कोई पूर्वाग्रह व पक्षपात करने का विधान नहीं है जैसा कि अन्य मतों में देखा जाता है कि सब अपने अपने समुदाय के प्रति ही उन्नति आदि के इच्छुक होते हैं। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने न केवल भारतीय आर्य-हिन्दू-बौद्ध-जैन आदि के हित व लाभ के लिए ही वैदिक धर्म का प्रचार किया अपितु संसार के अन्य मतों के अनुयायियों के प्रति भी अपनी शुभेच्छा का परिचय दिया। वह संसार के सभी लोगों का एक वैदिक सत्य धर्म, एक संस्कृति, एक मत, एक भाषा, एक सुख-दुख, समानता व निष्पक्षता के पक्षधर थे। उनकी यह विशिष्टता ही वैदिक विचारधारा के कारण थी। इसी विचारधारा को अपनाकर ही संसार में सभी विवादों का हल, शान्ति व सुख का वातावरण तैयार हो सकता है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

गोरक्षा   के   लिये   क्या   करना   चाहिये?

महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय, भारतरत्न।

यदि हम गौओं की रक्षा करेंगे तो गौएं भी हमारी रक्षा करेंगी। गांव की आवश्यकता के अनुसार प्रत्येक घर में तथा घरों के प्रत्येक समूह में एक गोशाला होनी चाहिये। दूध गरीबअमीर सबको मिलना चाहिये। गृहस्थों को पर्याप्त गोचरभूमि मिलनी चाहिये। गौओं को बिक्री के लिये मेलों में भेजना बिलकुद बंद कर देना चाहिये। क्योंकि इससे कसाइयों को गायें खरीदने में सुविधा होती है। किसानों की स्थिति के सुधार के लिये दिये जाने वाले इन सुझावों तथा अन्य ऐसे सुझावों को कार्यरूप में परिणत करने के लिये ग्रामपंचायतों का निर्माण होना चाहिये।

फोनः09412985121