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रचकर नया इतिहास कुछ : राजेन्द्र ‘जिज्ञासु

रचकर नया इतिहास कुछ
जब तक है तन में प्राण तू
कुछ काम कर कुछ काम कर।
जीवन का दर्शन है यही
मत बैठकर विश्राम कर॥
मन मानियाँ सब छोड़ दे,
इतिहास से कुछ सीख ले।
पायेगा अपना लक्ष्य तू,
मन को तनिक कुछ थाम ले॥
जीना जो चाहे शान से,
मन में तू अपने ठान ले।
ये वेद का आदेश है,
अविराम तू संग्राम कर॥
रे जान ले तू मान ले,
कर्•ाव्य सब पहचान ले।
रचकर नया इतिहास कुछ,
तू पूर्वजों का नाम कर॥
भोगों में सब कुछ मानना,
जीवन यह मरण समान है।
इस उलटी-पुलटी चाल से,
न देश को बदनाम कर॥
रचयिता—राजेन्द्र ‘जिज्ञासु

वे दिल जले : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

बीसवीं शताज़्दी के पहले दशक की बात है। अद्वितीय

शास्त्रार्थमहारथी पण्डित श्री गणपतिजी शर्मा की पत्नी का निधन

हो गया। तब वे आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के उपदेशक थे।

आपकी पत्नी के निधन को अभी एक ही सप्ताह बीता था कि आप

कुरुक्षेत्र के मेला सूर्याग्रहण पर वैदिक धर्म के प्रचारार्थ पहुँच गये।

सभी को यह देखकर बड़ा अचज़्भा हुआ कि यह विद्वान् भी

कितना मनोबल व धर्मबल रखता है। इसकी कैसी अनूठी लगन

है। उस मेले पर ईसाई मिशन व अन्य भी कई मिशनों के प्रचारशिविर

लगे थे, परन्तु तत्कालीन पत्रों में मेले का जो वृज़ान्त छपा

उसमें आर्यसमाज के प्रचार-शिविर की बड़ी प्रशंसा थी। प्रयाग के

अंग्रेजी पत्र पायनीयर में एक विदेशी ने लिखा था कि

आर्यसमाज का प्रचार-शिविर लोगों के लिए विशेष आकर्षण

रखता था और आर्यों को वहाँ विशेष सफलता प्राप्त हुई।

आर्यसमाज के प्रभाव व सफलता का मुज़्य कारण ऐसे गुणी

विद्वानों का धर्मानुराग व वेद के ऊँचे सिद्धान्त ही तो थे।

 

‘आर्यसमाज की स्थापना और इसके नियमों पर एक दृष्टि’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) उन्नीसवीं शताब्दी के समाज व धर्म-मत सुधारकों में अग्रणीय महापुरुष हैं। उन्होंने 10 अप्रैल सन् 1875 ई. (चैत्र शुक्ला 5 शनिवार सम्वत् 1932 विक्रमी) को मुम्बई में आर्यसमाज की  स्थापना की थी। इससे पूर्व उन्होंने 6 या 7 सितम्बर, 1872 को वर्तमान बिहार प्रदेश के आरा स्थान पर आगमन पर भी वहां आर्यसमाज स्थापित किया था। उपलब्ध इतिहास व जानकारी के अनुसार यह प्रथम आर्यसमाज था। महर्षि दयानन्द सरस्वती की जीवनी के लेखक पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित जीवन चरित में इस विषय में उल्लेख है कि नगर के सभी सम्भ्रान्त पुरुष महाराज के दर्शनार्थ आते थे और सन्ध्यासमय उनके पास अच्छी भीड़ लग जाती थी। स्वामीजी ने आरा में एक सभा की भी स्थापना की थी जिसका उद्देश्य आर्यधर्म और रीतिनीति का संस्कार करना था, परन्तु उसके एकदो ही अधिवेशन हुए। स्वामी जी के आरा से चले जाने के पश्चात् थोड़े ही दिन में उसकी समाप्ती (गतिविधियां बन्द) हो गई। जिन दिनों आर्यसमाज आरा की स्थापना हुई, तब न तो सत्यार्थप्रकाश प्रकाशित हुआ था और न हि संस्कारविधि, आर्याभिविनय वा अन्य किसी प्रमुख ग्रन्थ की रचना ही हुई थी। आरा में स्वामीजी का प्रवास मात्र 1 या 2 दिनों का होने के कारण आर्यसमाज के नियम आदि भी नहीं बनाये जा सके थे। यहां से स्वामीजी पटना आ गये थे और यहां 25 दिनों का प्रवास किया था। आरा में स्वामीजी ने पं. रुद्रदत्त और पं. चन्द्रदत्त पौराणिक मत के पण्डितों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ किया था। प्रसंग उठने पर आपने बताया था कि सभी पुराण ग्रन्थ वंचक लोगों के रचे हुए हैं। आरा में स्वामी जी के दो व्याख्यान हुए जिनमें से एक यहां के गवर्नमेंट स्कूल के प्रांगण में हुआ था। व्याख्यान वैदिक धर्म विषय पर था जिसमें बोलते हुए स्वामी जी ने कहा था कि प्रचलित हिन्दूधर्म और रीतिरिवाज वेदानुमोदित नहीं हैं, प्रतिमापूजा वेदप्रतिपादित नहीं है, विधवा विवाह वेदसम्मत और बालविवाह वेदविरुद्ध है। व्याख्यान में स्वामी जी ने कहा था कि गुरुदीक्षा करने की रीति आधुनिक है तथा मन्त्र देने का अर्थ कान में फूंक मारने का नहीं है, जैसा कि दीक्षा देने वाले गुरू करते थे।

 

स्वामी दयानन्द जी ने 31 दिसम्बर 1874 से 10 जनवरी 1875 तक राजकोट में प्रवास कर वैदिक धर्म का प्रचार किया। यहां जिस कैम्प की धर्मशाला में स्वामी ठहरे, वहां उन्होंने आठ व्याख्यान दिये जिनके विषय थे ईश्वर, धर्मोदय, वेदों का अनादित्व और अपौरुषेयत्व, पुनर्जन्म, विद्याअविद्या, मुक्ति और बन्ध, आर्यों का इतिहास और कर्तव्य। यहां स्वामीजी ने पं. महीधर और जीवनराम शास्त्री से मूर्तिपूजा और वेदान्त-विषय पर शास्त्रार्थ भी किया। स्वामीजी का यहां राजाओं के पुत्रों की शिक्षा के कालेज, राजकुमार कालेज में एक व्याख्यान हुआ। उपदेश का विषय था ‘‘अंहिसा परमो धर्म यहां स्कूल की ओर से स्वामीजी को प्रो. मैक्समूलर सम्पादित ऋग्वेद भेंट किया गया था। राजकोट में आर्यसमाज की स्थापना के विषय में पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित में निम्न विवरण प्राप्त होता है-स्वामीजी ने यह प्रस्ताव किया कि राजकोट में आर्यसमाज स्थापित किया जाए और प्रार्थनासमाज को ही आर्यसमाज में परिणत कर दिया जाए। प्रार्थनासमाज के सभी लोग इस प्रस्ताव से सहमत हो गये। वेद के निभ्र्रान्त होने पर किसी ने आपत्ति नहीं की। स्वामीजी के दीप्तिमय शरीर और तेजस्विनी वाणी का लोगों पर चुम्बक जैसा प्रभाव पड़ता था। वह सबको नतमस्तक कर देता था। आर्यसमाज स्थापित हो गया, मणिशंकर जटाशंकर और उनकी अनुपस्थियों में उत्तमराम निर्भयराम प्रधान का कार्य करने के लिए और हरगोविन्ददास द्वारकादास और नगीनदास ब्रजभूषणदास मन्त्री का कर्तव्य पालन करने के लिए नियत हुए। आर्यसमाज के नियमों के विषय में इस जीवन-चरित में लिखा है कि स्वामीजी ने आर्यसमाज के नियम बनाये, जो मुद्रित कर लिये गये। इनकी 300 प्रतियां तो स्वामीजी ने अहमदाबाद और मुम्बई में वितरण करने के लिए स्वयं रख लीं और शेष प्रतियां राजकोट और अन्य स्थानों में बांटने के लिए रख ली गई जो राजकोट में बांट दी र्गइं, शेष गुजरात, काठियावाड़ और उत्तरीय भारत के प्रधान नगरों में भेज दी गईं। उस समय स्वामी जी की यह सम्मति थी कि प्रधान आर्यसमाज अहमदाबाद और मुम्बई में रहें। आर्यसमाज के साप्ताहिक अधिवेशन प्रति आदित्यवार को होने निश्चित हुए थे। यह ध्यातव्य है कि राजकोट में आर्यसमाज की स्थापना पर बनाये गये नियमों की संख्या 26 थी। इनमें से 10 नियमों को आगे प्रस्तुत किया जा रहा है।

 

इसके बाद मुम्बई में 10 अप्रैल, सन् 1875 को आर्यसमाज की स्थापना हुई। इससे सम्बन्धित विवरण पं. लेखराम रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्र से प्रस्तुत है। वह लिखते हैं कि ‘स्वामीजी के गुजरात की ओर चले जाने से आर्यसमाज की स्थापना का विचार जो बम्बई वालों के मन में उत्पन्न हुआ था, वह ढीला हो गया था परन्तु अब स्वामी जी के पुनः आने से फिर बढ़ने लगा और अन्ततः यहां तक बढ़ा कि कुछ सज्जनों ने दृढ़ संकल्प कर लिया कि चाहे कुछ भी हो, बिना (आर्यसमाज) स्थापित किए हम नहीं रहेंगे। स्वामीजी के लौटकर आते ही फरवरी मास, सन् 1875 में गिरगांव के मोहल्ले में एक सार्वजनिक सभा करके स्वर्गवासी रावबहादुर दादू बा पांडुरंग जी की प्रधानता में नियमों पर विचार करने के लिए एक उपसभा नियत की गई। परन्तु उस सभा में भी कई एक लोगों ने अपना यह विचार प्रकट किया कि अभी समाज-स्थापन न होना चाहिये। ऐसा अन्तरंग विचार होने से वह प्रयत्न भी वैसा ही रहा (आर्यसमाज स्थापित नहीं हुआ)।’ इसके बाद पं. लेखराम जी लिखते हैं, और अन्त में जब कई एक भद्र पुरुषों को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब समाज की स्थापना होती ही नहीं, तब कुछ धर्मात्माओं ने मिलकर राजमान्य राज्य श्री पानाचन्द आनन्द जी पारेख को नियत किए हुए नियमों (राजकोट में निर्धारित 26 नियम) पर विचारने और उनको ठीक करने का काम सौंप दिया। फिर जब ठीक किए हुए नियम स्वामीजी ने स्वीकार कर लिए, तो उसके पश्चात् कुछ भद्र पुरुष, जो आर्यसमाज स्थापित करना चाहते थे और नियमों को बहुत पसन्द करते थे, लोकभय की चिन्ता करके, आगे धर्म के क्षेत्र में आये और चैत्र सुदि 5 शनिवार, संवत् 1932, तदनुसार 10 अप्रैल, सन् 1875 को शाम के समय, मोहल्ला गिरगांव में डाक्टर मानक जी के बागीचे में, श्री गिरधरलाल दयालदास कोठारी बी.., एल.एल.बी. की प्रधानता में एक सार्वजनिक सभा की गई और उसमें यह नियम (28 नियम) सुनाये गये और सर्वसम्मति से प्रमाणित हुए और उसी दिन से आर्यसमाज की स्थापना हो गई।

 

हम अनुमान करते हैं कि पाठक आर्यसमाज के उन 28 नियमों को अवश्य जानने को उत्सुक होंगे जो मुम्बई में स्थापना के अवसर पर स्वीकार किये गये थे। यदि इन सभी नियमों को प्रस्तुत करें तो लेख का आकार बहुत बढ़ जायेगा अतः चाहकर भी हम केवल 10 नियम ही दे रहे हैं। पाठकों से निवेदन है कि वह इन नियमों को पं. लेखराम रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित में देख लें। महर्षि दयानन्द के पत्र और विज्ञान के दूसरे भाग में तृतीय परिशिष्ट के रूप में यह 28 नियम महर्षि दयानन्द कृत हिन्दी व्याख्या सहित दिये गये हैं। वहां इन्हें देख कर भी लाभ उठाया जा सकता है। 28 में से प्रथम 10 नियम हैं। 1-सब मनुष्यों के हितार्थ आर्यसमाज का होना आवश्यक है। 2-इस समाज में मुख्य स्वतःप्रमाण वेदों का ही माना जायेगा। साक्षी के लिए तथा वेदों के ज्ञान के लिए और इसी प्रकार आर्य-इतिहास के लिए, शतपथ ब्राह्मणादि 4, वेदांग 6, उपवेद 4, दर्शन 6 और 1127 शाखा (वेदों के व्याख्यान), वेदों के आर्ष सनातन संस्कृत ग्रन्थों का भी वेदानुकूल होने से गौण प्रमाण माना जायगा। 3- इस समाज में प्रति देश के मध्य (में) एक प्रधान समाज होगा और दूसरी शाखा प्रशाखाएं होंगीं। 4- प्रधान समाज के अनुकूल और सब समाजों की व्यवस्था रहेगी। 5- प्रधान समाज में वेदोक्त अनुकूल संस्कृत आर्य भाषा में नाना प्रकार के सत्योपदेश के लिए पुस्तक होंगे और एक आर्यप्रकाश पत्र यथानुकूल आठ-आठ दिन में निकलेगा। यह सब समाज में प्रवृत्त किये जायेंगे। 6-प्रत्येक समाज में एक प्रधान पुरुष, और दूसरा मंत्री तथा अन्य पुरुष और स्त्री, यह सब सभासद् होंगे। 7- प्रधान पुरुष इस समाज की यथावत् व्यवस्था का पालन करेगा और मंत्री सबके पत्र का उत्तर तथा सबके नाम व्यवस्था लेख करेगा। 8- इस समाज में सत्पुरुष सत्-नीति सत्-आचरणी मनुष्यों के हितकारक समाजस्थ (सदस्य बन सकेंगे) किये जायेंगे। 9- जो गृहस्थ गृहकृत्य से अवकाश प्राप्त होय सो जैसा घर के कामों में पुरुषार्थ करता है उससे अधिक पुरुषार्थ इस समाज की उन्नति के लिए करे और विरक्त तो नित्य इस समाज की उन्नति ही करे, अन्यथा नहीं। 10- प्रत्येक आठवें दिन प्रधान मंत्री और सभासद् समाज स्थान में एकत्रित हों और सब कामों से इस काम को मुख्य जानें।

 

28 नियमों के बाद पं. लेखराम जी लिखते हैं कि फिर अधिकारी नियत किये गए। तत्पश्चात् प्रति शनिवार सायंकाल की आर्यसमाज के अधिवेशन होने लगे, परन्तु कुछ मास के पश्चात् शनिवार का दिन सामाजिक पुरुषों के अनुकूल न होने से रविवार का दिन रखा गया जो अब तक है।

 

मुम्बई के बाद लाहौर में स्थापित आर्यसमाज का विशेष महत्व है। यहां न केवल महर्षि दयानन्द जी द्वारा आर्यसमाज की स्थापना ही की गई अपितु मुम्बई में जो 28 नियम स्वीकार किए गये थे उन्हें संक्षिप्त कर 10 नियमों में सीमित कर दिया गया और 8 सितम्बर, सन् 1877 को उन्हें विज्ञापित भी कर दिया गया। इससे सम्बन्धित विवरण पं. लेखराम रचित जीवन में मिलता है। वहां लिखा है कि ‘विदित हो कि जब स्वामी जी डाक्टर रहीम खां साहब की कोठी (जो नगर के बाहर छज्जू भगत के चैबारे से लगी हुई थी) में उतरे थे, उस समय उन्होंने लोगों को बतलाया कि आर्यधर्म की उन्नति तभी हो सकती है जब नगरनगर और ग्रामग्राम में आर्यसमाज स्थापित हो जावें। चूंकि स्वामीजी के उपदेशों से लोगों के विचार अपने धर्म पर दृढ़ हो चुके थे, सब लोगों ने इस बात को स्वीकार किया और 24 जून, सन् 1877, रविवार तदनुसार जेठ सुदि 13 संवत् 1934 वि. आषाढ़ 12, संक्रान्ति के दिन लाहौर नगर में आर्यसमाज स्थापित हुआ। चूंकि इससे पहले बम्बई और पूना में आर्यसमाज स्थापित हो चुका था और नियम भी निश्चित हो चुके थे किन्तु वे बहुत विस्तृत थे, उन विस्तृत नियमों को पंजाब में यहां के कुछ लोगों के कहने से उनकी सम्मति से स्वामीजी ने संक्षिप्त कर दिया और वे नियम 8 सितम्बर, सन् 1877 के समाचार पत्र खैरख्वाह और स्टार आफ इण्डिया खंड 12, संख्या 17, पृष्ठ 8 सियालकोट नगर में प्रकाशित हुए। यह संक्षिप्त किये गये 10 नियम वर्तमान में भी प्रचलित हैं। यह नियम हैं, 1-सब सत्यविद्या और विद्या से जो पदार्थ जाने जाते हैं उनका सबका आदिमूल परमेश्वर है। 2-ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है। 3-वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। 4- सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। 5- सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहियें। 6-संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। 7- सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिये। 8-अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। 9- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिये किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये। तथा 10-सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।

 

आर्यसमाज लाहौर की स्थापना का आर्यसमाज में उल्लेखनीय स्थान है। इस आर्यसमाज से ही आर्यसमाज को लाला साईं दास, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय और लाला जीवनदास जैसे प्रमुख विद्वान व नेता मिले। गुरुकुल कांगड़ी जैसी विश्व विख्यात राष्ट्रीय शिक्षा संस्था और डी.ए.वी. आन्दोलन में भी आर्यसमाज लाहौर व पंजाबस्थ आर्यसमाजों की ही महत्वपूर्ण भूमिका है। महर्षि दयानन्द जी का पं. लेखराम रचित विस्तृत जीवन चरित भी पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा की ही देन है। महर्षि दयानन्द की मृत्यु के बाद महर्षि के यश व गौरव को बढ़ाने और समाज सुधार व धर्म सुधार व प्रचार का जो कार्य आर्यसमाज लाहौर और पंजाब की आर्य प्रतिनिधि सभा ने किया वह इससे पूर्व स्थापित आर्यसमाजों और प्रादेशिक सभाओं से नहीं हो सका। हम आशा करते हैं कि इस लेख से पाठकों को आर्यसमाज की स्थापना और आर्यसमाज के नियमों की इतिहास व निर्णय संबंधी जानकारी मिलेगी। इसी के साथ लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2, देहरादून-248001

प्राणोपासना – तपेन्द्र कुमार

इस संसार में तीन नित्य पदार्थ हैं- ईश्वर, जीव व प्रकृति। प्रकृति सत्तात्मक है, जीव सत्तात्मक तथा चेतन हैं। ईश्वर सत्तात्मक, चेतन तथा आनन्दस्वरूप है। परमपिता परमात्मा ने सृष्टि की रचना आत्मा के भोग तथा अपवर्ग के लिए की है। पूर्व जन्मों के प्रबल संस्कारवान् व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम से सीधे ही साधना की ओर अग्रसर हो जाते हैं तथा जिनके उतने सुदृढ़ संस्कार नहीं होते, वे गृहस्थ आश्रम आदि में संसार के भोगों में दुःख मिश्रित सुख का अनुभव करके साधना का मार्ग अपनाते हैं। जीव स्वभावतः आनन्द चाहता है तथा आनन्द केवल परम पिता परमात्मा में है, अतः परमात्मा की उपासना करके ही आनन्द को प्राप्त किया जा सकता है। परमपिता परमात्मा को प्राप्त करने के कई साधन तथा प्रक्रियाएँ संसार में प्रचलित है, उनसे मन की कुछ एकाग्रता भी सभव है, परन्तु सीधा व सही मार्ग तो वेदसमत मार्ग ही है।

महर्षि स्वामी दयानन्द जी महाराज ने ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका के उपासना विषय में मुण्डकोपनिषद् का सन्दर्भ देते हुए लिखा है-

तपः श्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये शान्ता विद्वांसो भैक्ष्यचर्य्यां चरन्तः।

सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्यात्मा।

– मुण्डक. ख. 2 मं.।।

‘‘(तपः श्रद्धे.) जो मनुष्य धर्माचरण से परमेश्वर एवं उसकी आज्ञा में अत्यन्त प्रेम करके अरण्य अर्थात् शुद्ध हृदयरूपी वन में स्थिरता के साथ निवास करते हैं, वे परमेश्वर के समीप वास करते हैं। जो लोग अधर्म के छोड़ने और धर्म के करने में दृढ़ तथा वेदादि सत्य विद्याओं में विद्वान् हैं, जो भिक्षाचर्य्य आदि कर्म करके संन्यास वा किसी अन्य आश्रम में हैं, इस प्रकार के गुण वाले मनुष्य प्राणद्वार से परमेश्वर के सत्य राज्य में प्रवेश करके (विरजाः) अर्थात् सब दोषों से छूट के परमानन्द मोक्ष को प्राप्त होते हैं, जहाँ कि पूर्ण पुरुष सबमें भरपूर, सबसे सूक्ष्म (अमृतः) अर्थात् अविनाशी और जिसमें हानि-लाभ कभी नहीं होता, ऐसे परमेश्वर को प्राप्त होके, सदा आनन्द में रहते हैं।’’ पुञ्जन्ति ब्रह्ममरुषं चरन्तं परितस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि।।(ऋग्वेद 1, 1, 11, 9) का अर्थ करते हुए महर्षि लिखते हैं- ‘‘सब पदार्थों की सिद्धि का मुय हेतु जो प्राण है, उसको प्राणायाम की रीति से अत्यन्त प्रीति के साथ परमात्मा में युक्त करते हैं। इसी कारण वे लोग मोक्ष को प्राप्त होके सदा आनन्द में रहते हैं।’’ सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वितन्वते पृथक्। धीरा देवेषु सुनया।। (यजु. 12.67) की संस्कृत व्याया में महर्षि स्पष्ट करते हैं- ‘‘(सीराः) योगायासोपासनार्थं नाडीर्युञ्जन्ति, अर्थात् तासु परमात्मानं ज्ञातुमयस्यन्ति…..(सुनया) सुखेनैव स्थित्वा परमानन्दं (युञ्जन्ति) प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।’’ पुनक्त सीरा वि युगा तनुध्वं…. यजु. 12.68 के भाषार्थ में महर्षि लिाते हैं कि…. हे उपासक लोगो! तुम योगायास तथा परमात्मा के योग से नाड़ियों में ध्यान करके परमानन्द को (वितनुध्वं) विस्तार करो।

इस प्रकार महर्षि ने स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि प्राणद्वार से परमेश्वर को प्राप्त किया जा सकता है, प्राणनाड़ियों में ध्यान करके परमानन्द की प्राप्ति की जा सकती है, प्राण को परमात्मा में युक्त करके मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। प्राण नाड़ियों में ही परमात्मा को जानने प्राप्त करने का अयास करणीय है।

परमेश्वर की उपासना करके उसमें प्रवेश करने की रीति भी महर्षि दयानन्द जी महाराज ने उपासना विषय में ही स्पष्टतः प्रतिपादित की है- ‘‘(अथ यदिद.) कण्ठ के नीचे, दोनों स्तनों के बीच में और उदर के ऊपर जो हृदय देश है, जिसको ब्रह्मपुर अर्थात् परमेश्वर का नगर कहते हैं, उसके बीच में जो गर्त है, उसमें कमल के आकार का वेश्म अर्थात् अवकाश रूप एक स्थान है और उसके बीच में जो सर्वशक्तिमान् परमात्मा बाहर-भीतर एकरस होकर भर रहा है, वह आनन्दस्वरूप परमेश्वर उसी प्रकाशित स्थान के बीच में खोज करने से मिल जाता है। दूसरा उसके मिलने का कोई उत्तम स्थान वा मार्ग नहीं है।’’ इस प्रकार स्पष्ट उल्लेख है कि हृदय देश में परमेश्वर की प्राप्ति/दर्शन होते हैं, उस परमपिता परमात्मा के मिलने का कोई दूसरा उत्तम स्थान व मार्ग नहीं है।

उपासना विषय के ऊपर उद्धृत उद्धरणों में तीन शद विशेषतः आये हैं- प्राण, प्राणनाड़ियाँ तथा हृदय। अतः इन तीनों पर मनन किया जाना समीचीन होगा।

प्राण अचेतन एवं भौतिक तत्त्व है। प्राण जीवात्मा के साथ संयुक्त होकर सब चेष्टा आदि व्यवहारों को सिद्ध करता है तथा समस्त शरीर को धारण करता है। प्राण हवा या गैस नहीं है। प्राण विशिष्ठ प्रकार की शुद्ध ऊर्जा है।1 आत्मनः एष प्राणो जायते। यथैषा पुरुषे छायेतस्मिन् नेतदाततं मनोकृतेनाऽऽयात्यस्मिं शरीरे। प्रश्न. 3.3। प्राण की उत्पत्ति आत्मा से होती है जैसे पुरुष के साथ छाया लगी है, इसी प्रकार आत्मा के साथ प्राण लगा है।

अव दिवस्तारयन्ति सप्त सूर्यस्य रश्मयः।

आपः समुद्रियाधारास्तास्ते शल्यमसिस्रसन्।।

-अथर्ववेद 7.10.7.1

सूर्य की सात किरणें आकाश से अन्तरिक्ष में रहने वाले धारा रूप प्राणों को उतारती हैं। प्रश्नोपनिषद् 1-6 के अनुसार-

अथादित्य उदयन्यत्प्राचीं दिशं प्रविशति तेन प्राच्यान् प्राणान् रश्मिषु संनिधत्ते….. यत् सर्वं प्रकाशयति तेन सर्वान् प्राणान् रश्मिषु सन्निधत्ते।

जिस समय सूर्य उदय होकर पूर्व दिशा में प्रवेश करता है तो उसके द्वारा पूर्व दिशा में प्राणों को अपनी किरणों के अन्दर सयक् रूप से निरन्तर धारण करता है….. उन सभी दिशाओं में प्राणों को अपनी किरणों के अन्दर सयक् रूप से निरन्तर धारण करता हुआ प्रकाशित होता है।

आदित्यो ह वै बाह्य,

प्राण उदयत्येष हनेन चाक्षुषं प्राणमनुगृह्णनः।

– प्रश्नो. 3.8

निश्चय ही आदित्य ही बाह्य प्राण है, यह चाक्षुष प्राण पर अनुग्रह करता हुआ उदित होता है। इस प्रकार सूर्य की प्रकाश किरणों के अन्दर रखे हुए तथा किरणों के माध्यम से ऊर्जाकण निरन्तर प्राप्त हो रहे हैं, वे बाह्य प्राण हैं। छान्दोग्य. 6.5.2 के अनुसार-

आपः पीतास्त्रेधा विधीयन्ते तासां यः स्थविष्ठो धातुस्तन्मूत्रं

भवति यो मध्यमस्तल्लोहितं योऽणिष्ठः स प्राणः।।

आहार के द्वारा जीवों के शरीरों में पाचन क्रिया द्वारा जल का अणुतम भाग प्राण रूपी ऊर्जा में परिणत हो जाता है।

प्राण जीवों को दो तरह से प्राप्त होता है, एक बाह्य प्राण कहलाता है, जो सूर्य रश्मियों से प्राप्त होता है तथा सर्वत्र व्याप्त है। यह जीवों के नेत्रों द्वारा प्राप्त होता है। दूसरा जठराग्नि द्वारा जल से उत्पन्न प्राण ऊपर उठकर हृदय में बाह्य प्राण से मिल जाता है। हृदय शरीरों में प्राण का केन्द्र है।

प्राणनाड़ियों के सबन्ध में उपनिषदों में स्पष्ट प्रमाण है। प्रश्नोपनिषद् प्रश्न 3/6-

हृदि ह्येष आत्मा। अत्रैतदेकशतं नाडीनां तासां शतं शतमेकैकस्यां द्वासप्ततिर्द्वासप्ततिः प्रतिशाखानाडीसहस्राणि भवन्त्यासु व्यानश्चरति।

– कठोपनिषद् षष्ठ वल्ली 16

शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तानासां मूर्धनमभिनिःसृतैका।

तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति।।

……यदेतदन्तहृदये जालकमिवाथैनयोरेषा सृतिः संचरणी यैषा हृदयादूर्ध्वा नाड्युच्चरति यथा केशः सहस्रधा भिन्न एवमस्यैता हिता नाम नाड्योऽन्तर्हृदये प्रतिष्ठिता भवन्त्येताभिर्वा एतदास्रवदास्रवति…..।

– बृहदारण्यक 4.2.3

उपनिषदों के ऊपरलिखित कुछेक प्रमाणों से स्पष्ट है, हृदय में एक सौ एक नाड़ियाँ हैं, इनमें से एक नाड़ी मूर्धा को वेधकर कपाल शीर्ष तक गई है, बृहदारण्यक उपनिषद् में इस नाड़ी को संचरणी कहा गया है। शेष सौ नाड़ियों का नाम हिता है। इन सौ हिता प्राण-नाड़ियों से प्रत्येक से एक सौ और भी सूक्ष्म उपनाड़ियाँ निकलती हैं। प्रत्येक उपनाड़ी से भी और भी सूक्ष्म बहत्तर-बहत्तर हजार उप-उपप्राण-नाड़ियाँ निकलती हैं। हृदय से निकली हुई ये प्राणनाड़ियाँ सपूर्ण शरीर में व्याप्त हो रही हैं। इन नाड़ियों को पुरीवत प्राणनाड़ियाँ कहा जाता है। हिता नाड़ियों की मोटाई बाल के हजारवें हिस्से जितनी है, अर्थात् ये प्राणनाड़ियाँ बहुत सूक्ष्म हैं।

स वा एष आत्मा हृदि तस्यैतदेवं निरुक्तं हृदयामिति। -छान्दो. 8.3.3 के अनुसार देह में जीवात्मा का मुयालय हृदय है जो एक गुह्य रहस्यमय स्थान है। यह शरीर का स्थूल इन्द्रिय नहीं है। यह रक्तप्रेषण करने वाला हृदय भी नहीं है। यह हृदय गुहा, ब्रह्मपुर, दहर, परमव्योम आदि नामों से भी कहा गया है। मनुष्य के शरीर में छाती के बीच में अंगुष्ठमात्र परिणाम वाला गड्ढा-सा है, जिसमें व्योम=आकाश है। यह हृदय हिता नामक प्राणनाडियों से बना हुआ है। बृहदारण्यक 4.2.4 के अनुसार हृदय में सब ओर प्राण ही प्राण हैं। छान्दोग्य उपनिषद् 3.14.3 एष म आत्मा अन्तर्हृदयेऽणीयान् व्रीहेर्वा….. से स्पष्ट है कि आत्मा का स्थान हृदय है।

अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्यः। स एषोऽन्तश्चरते बहुधा जायमानः। ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानं स्वस्ति वः पाराय तमसः परस्तात्।।

– मुण्डक. 2.2.6

जैसे भिन्न-भिन्न अरे रथ की नाभि में जुड़े होते हैं, वैसे भिन्न-भिन्न नाड़ियाँ हृदय में संहत हो जाती है। अनेक रूपों में प्रकट होने वाला विराट् पुरुष हृदय के भीतर ही विचरता है।

दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योनि आत्मा प्रतिष्ठितः।

मुण्डक 2.2.7 के अनुसार यह दिव्य आत्मा ब्रह्मपुर-ब्रह्म की नगरी-हृदयाकाश रूपी ब्रह्मपुर में स्थित है। शंकराचार्य उक्त की व्याया करते हुए लिखते हैं-

………….पुरं हृदयपुण्डरीकं तस्मिन्यद्व्योम तस्मिन् व्योन्याकाशे हृत्पुण्डरीकं मध्यस्थे, प्रतिष्ठित इवोपलयते।

…..हृदय कमल ब्रह्मपुर है, उसमें जो आकाश है, उस हृदयपुण्डरीकान्तर्गत आकाश में प्रतिष्ठित (स्थित) हुआ-सा उपलध होता है।

अणोरणीयान् महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।

-कठो. 2.20

जो व्यक्ति प्राणी के हृदय गुहा में स्थित सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा महान् से महान् परमेश्वर को देख पाता है…..।

अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति। ईशानो भूतभाव्यस्य न ततो विजुगुप्सते। एतद्वैतत्।। -कठो. 4.12। हुए और होने वाले जगत् का अध्यक्ष पूर्ण परमात्मा अँगूठे के बराबर हृदयाकाश में रहने वाले जीवात्मा के मध्य में रहता है, उसके ज्ञान से कोई ग्लानि को नहीं पाता, यही वह ब्रह्म है।2

प्राणैश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानाम्

यस्मिन्विशुद्धे विभवत्येष आत्मा।

-मुण्डक. 3.1.9

सभी जीवों के चित्त प्राणों से ओतप्रोत हैं, उन्हीं प्राणों में यह आत्मा विशुद्ध रूप से प्रकाशित होता है।

स वा एष महानज आत्मा योऽयं विज्ञानमयः प्राणेषु य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिञ्छेते।

– बृहद. 4.4.22

यह महान् तथा अजन्मा आत्मा विज्ञानमय है, प्राणों में रहता है और हृदय के भीतर जो आकाश है, उसमें विश्राम करता है।3

स यथा शकुनिः प्रबद्धो दिशं दिशं पतित्वान्यत्रायतनमलध्वा बन्धनमेवोपश्रयत एवमेव खलु सोय तन्मनो दिशं दिशं पतित्वान्यत्रायतनमलध्वा प्राणमेवोपाश्रयते प्राणबन्धनं हि सौय मन इति।

– छान्दोग्य. 6.8.2

जिस प्रकार डोरी से बँधा हुआ पक्षी दिशा-विदिशाओं में उड़कर अन्यत्र स्थान न मिलने पर बन्धन स्थान का ही आश्रय लेता है, इसी प्रकार यह मन दिशा-विदिशाओं में उड़कर अन्यत्र स्थान न मिलने से प्राण का ही आश्रय लेता है, क्योंकि मन प्राणरूप बन्धनवाला ही है।

इस प्रकार प्राण अचेतन ऊर्जा है, बाह्यप्राण सूर्य से व अन्तःप्राण भुक्त जल से प्राप्त होता है। हृदय प्राण का केन्द्र है, प्राणों में आत्मा प्रतिष्ठित है तथा परमात्मा हृदयाकाश में रहने वाले जीवात्मा के मध्य रहता है। अतः प्राणों में उपासना करके आत्मा तथा परमात्मा का साक्षात्कार या दर्शन किया जा सकता है, जो मानव जीवन का परम पुरुषार्थ है।

सन्दर्भ

  1. ब्रह्मोपासना और उसका विज्ञान- स्वामी सत्यबोध सरस्वती
  2. महात्मा नारायण स्वामी जी भाष्य

– 53/203, मानसरोवर, जयपुर, राज.

‘यज्ञ का महत्व एवं याज्ञिकों को इससे होने वाले लाभ’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

चार वेद, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, ईश्वरीय ज्ञान है जिसे सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को दिया था। ईश्वर प्रदत्त यह ज्ञान सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद सभी मनुष्यों के लिए यज्ञ करने का विधान करते हैं। ऋग्वेद के मन्त्र 1/13/12 मेंस्वाहा यज्ञं कृणोतनकहकर ईश्वर ने स्वाहापूर्वक यज्ञ करने की आज्ञा दी है। ऋग्वेद के मन्त्र 2/2/1 मेंयज्ञेन वर्धत जातवेदसम्कहकर यज्ञ से अग्नि को बढ़ाने की आज्ञा है। इसी प्रकार यजुर्वेद के मन्त्र 3/1 मेंसमिधाग्निं दुवस्यत धृतैर्बोधयतातिथिम्कहकर समिधा से अग्नि को पूजित करने घृत से उस अग्निदेव अतिथि को जगाने की आज्ञा है।सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन’ (यजुर्वेद 3/2) के द्वारा आज्ञा है कि सुप्रदीप्त अग्निज्वाला में तप्त घृत की आहुति दो। यह संसार ईश्वर का बनाया हुआ है और सभी मनुष्यों प्राणियों को उसी ने जन्म दिया है। अतः ईश्वर सभी मनुष्यादि प्राणियों का माता, पिता आचार्य  है। उसकी आज्ञा का पालन करना ही मनुष्य का धर्म है और करना ही अधर्म है। इस आधार पर यज्ञ करना मनुष्य धर्म और जो नहीं करता वह अधर्म करता है।

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेधपर्यन्त यज्ञों की चर्चा की है। अग्निहोत्र एक नैत्यिक कर्तव्य है जो शास्त्र-मर्यादा के अनुसार सभी को करना होता है। अन्य यज्ञों को करने के सभी अधिकारी हों, ऐसा नहीं है। लाभों का ज्ञान होने पर भी वैदिक विधान होने से ही अग्निहोत्र सबको करणीय है। लाभ जानकर किया जाए तो उसमें अधिक श्रद्धा होती है। उन लाभों को प्राप्त करने की प्रेरणा भी मिलती है और उसके लिए मनुष्य प्रयत्न भी करता है। अतः वेदादि शास्त्रों ने भी तथा स्वामी दयानन्द जी ने भी यज्ञ एवं अग्निहोत्र के अनेकानेक लाभ बताए हैं। इन लाभों में अनागत रोगों से बचाव, प्राप्त रोगों का दूर होना, वायु-जल की शुद्धि, ओषधि-पत्र-पुष्प-फल-कन्दमूल आदि की पुष्टि, स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, बल, इन्द्रिय-सामथ्र्य, पाप-मेाचन, शत्रु-पराजय, तेज, यश, सदविचार, सत्कर्मों में प्रेरणा, गृह-रक्षा, भद्र-भाव, कल्याण, सच्चारित्र्य, सर्वविध सुख आदि दर्शाए गए हैं। वन्ध्यात्व-निवारण, पुत्र-प्राप्ति, वृष्टि, बुद्धिवृद्धि, मोक्ष आदि फलों का भी प्रतिपादन किया गया है। यहां शंका यह हो सकती है कि क्योंकि प्रत्येक अग्निहोत्री को ये फल प्राप्त नहीं होते, अतः यह फल श्रुति मिथ्या है। इसलिए इसका विवचेन किया जाना आवश्यक है।

 

यज्ञ, अग्निहोत्र या होम के लाभों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम प्रकार के वे लाभ हैं, जो होम से स्वतः प्राप्त हो सकते हैं, यथा वायुशुद्धि, जलशुद्धि, स्वास्थ्य-प्राप्ति, इन्द्रिय-सामथ्र्य, दीर्घायुष्य आदि। यदि अग्नि में यथोचित मात्रा में सुगन्धित, मिष्ट, पुष्टिप्रद एवं रोगहर द्रव्यों का होम किया गया है, तो यजमान चाहे या न चाहे, इन लाभों के प्राप्त होने का अवसर रहता ही हैं। शीत ऋतु में गुड़, मेथी, सोंठ, अजवाइन, गूगल जैसी साधारण वस्तुओं के होम से ही गृह-सदस्यों को सर्दी के अनेक रोगों से बचाव और छुटकारा मिलता देखा गया है। दूसरे प्रकार के लाभ वे हैं, जो अग्निहोत्री यजमान के इच्छा, प्रेरणाग्रहण एवं प्रयत्न पर निर्भर हैं। यदि यजमान मन्त्रों के अर्थ का अनुसरण करता हुआ परमेश्वर के एवं परमेश्वररचित यज्ञाग्नि के परमेश्वरकृत गुण-कर्म-स्वभाव का चिन्तन करता हुआ उन्हें अपने अन्दर धारण करने का व्रत लेता है और तदर्थ प्रयत्न करता है, तो वह सन्मार्ग पर चलने की सद्बुद्धि प्राप्त करेगा, पापकर्मों से बचेगा, सदाचारी बनेगा, तेजस्वी एवं यशस्वी होगा और मोक्षप्राप्ति के अनुरूप कर्म करने की प्रेरणा लेगा, तो मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। यदि कोई यजमान इन लाभों को पाने का प्रयत्न ही नहीं करता, सूखे मन से आहुतिमात्र देता है, फलतः उसे यह लाभ प्राप्त नहीं होते, तो उसमें यज्ञ का दोष नही है।

 

जहां तक बड़े-बड़े रोगों को दूर करने, महामारियां रोकने आदि का प्रश्न है, प्राचीन काल में इस प्रकार के यज्ञ होते रहे हैं। पुत्र-प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टियां भी की जाती रही हैं। इनकी सफलता कुछ तो मनोबल, श्रद्धा एवं आशावादिता पर निर्भर है, दूसरे अधिक योगदान इस बात का है कि कौन-सी ओषधियों से होम किया जाता है। जैसे अन्य चिकित्सा-पद्धतियों आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, जल-चिकित्सा, ऐलोपैथी, होम्योपैथी आदि हैं, वैसे ही अग्निहोत्रचिकित्सा भी एक वैज्ञानिक पद्धति है। अग्निहोत्र-चिकित्सा द्वारा वेदोक्त रोगकृमि-विनाश, ज्वर-चिकित्सा, उन्माद-चिकित्सा, गण्डमाला-चिकित्सा एवं गर्भदोष-चिकित्सा की जाती है जो सफल परिणामदायक होती है। इस विषय में मार्गदर्शन हेतु यज्ञ विषयक ग्रन्थों का अनुशीलन किया जाना चाहिये। इस विषय से सम्बन्धित आर्यजगत के विद्वान डा. रामनाथ वेदालंकार जी की यज्ञ मीमांसा पुस्तक विशेष रूप से लाभदायक है। इस पुस्तक में विद्वान लेखक ने यज्ञ के विभिन्न पक्षों पर सात अध्यायों में बहुमूल्य जानकारी दी है। पहला अध्याय यज्ञ और अग्निहोत्र विषय में सामान्य विचार से सम्बन्धित है। दूसरा अध्याय वैदिक यज्ञ-चिकित्सा पर है। तीसरा अग्निहोत्र के प्रेरक तथा लाभ-प्रतिपादक वेदमन्त्रों पर, चौथा अग्निहोत्र की विधियों तथा मन्त्रों की व्याख्या, पांचवा अध्याय बृहद् यज्ञ के विशिष्ट मन्त्रों पर तथा षष्ठ अध्याय आत्मिक अग्निहोत्र एवं अग्निहोत्र के भावनात्मक लाभों पर है। अन्तिम सातवां अध्याय यज्ञ एवं अग्निहोत्र-विषयक सूक्तियों पर है। इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से यज्ञ विषयक सभी पक्षों का ज्ञान होता है। यह ग्रन्थ सभी यज्ञ प्रेमी पाठकों के लिए पढ़ने योग्य है। यज्ञ के प्रति पाठकों में जागृति उत्पन्न हो और वह स्वस्थ रहते हुए यशस्वी जीवन व्यतीत करें और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हों, इस लिए यह कुछ संक्षिप्त उल्लेख किया है। इस लेख की समस्त सामग्री डा. रामनाथ वेदालंकार जी की पुस्तक यज्ञमीमांसा पर आधारित है। उनका पुण्यस्मरण कर उनका हार्दिक धन्यवाद करते हैं।

 

दैनिक अग्निहोत्र नैत्यिक कर्तव्य है। कुछ लोग घरों में नियम से दोनों समय या एक समय दैनिक अग्निहोत्र करते हैं। कुछ लोग आर्यसमाजों में होनेवाले सामूहिक दैनिक या साप्ताहिक अग्निहोत्र में सम्मिलित होते हैं, घर पर अग्निहोत्र नहीं करते। स्वामी दयानन्द ने अपनी संस्कारविधि पुस्तक में घृत की प्रत्येक आहुति न्यूनतम छः माशे की लिखी है। वह धृत भी कस्तूरी, केसर, चन्दन, कपूर, जावित्री, इलायची आदि से सुगन्धित किया होना चाहिए। इसके अतिरिक्त सुगन्धि, मिष्ट, पुष्ट एवं रोगनाशक द्रव्यों की हवन-सामग्री होनी चाहिये। समिधाएं भी चन्दन, पलाश, आम आदि की होनी चाहिएं। उन्होंने अग्निहोत्र के जो लाभ अपने ग्रन्थों में लिखे हैं, वे घर-घर होने वाले इसी प्रकार के अग्निहोत्र की दृष्टि में रखकर हैं। इस प्रकार का अग्निहोत्र हो, तो उसमें दोनों समय का मिलाकर काफी दैनिक व्यय होने का अनुमान है। इतना व्यय करने का सामथ्र्य और उत्साह विरलों का ही हो सकता है। ऐसी स्थिति में श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार जैसा भी बन पड़े होम करना उचित है। हव्य चारों प्रकार के होने चाहिएं, जिसमें वायु मण्डल सुगन्धित तथा रोगहर ओषधियों के अणुओं से युक्त हो तथा उसमें श्वास लेने से लाभ पहुंचे। जो एक काल के ही व्रत का निर्वाह करना चाहें, वे वैसा कर सकते हैं। अग्नि प्रज्जवलित रहे ओर धुआं न उठे, ऐसा प्रयास होना चाहिए। यह विचार पूज्य आचार्यप्रवर पं. रामनाथ वेदालंकार जी के हैं। आशा है कि पाठक यज्ञ विषयक इस लेख में प्रस्तुत विचारों से लाभान्वित होंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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मेरे साथ बहुत लोग थे : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

पन्द्रह-सोलह वर्ष पुरानी बात है। अजमेर में ऋषि-मेले के

अवसर पर मैंने पूज्य स्वामी सर्वानन्दजी से कहा कि आप बहुत

वृद्ध हो गये हैं। गाड़ियों, बसों में बड़ी भीड़ होती है। धक्के-पर-धक्के

पड़ते हैं। कोई चढ़ने-उतरने नहीं देता। आप अकेले यात्रा मत किया

करें।

स्वामीजी महाराज ने कहा-‘‘मैं अकेला यात्रा नहीं करता।

मेरे साथ कोई-न-कोई होता है।’’

मैंने कहा-‘‘मठ से कोई आपके साथ आया? यहाँ तो मठ

का कोई ब्रह्मचारी दीख नहीं रहा।’’

स्वामीजी ने कहा-‘‘मेरे साथ गाड़ी में बहुत लोग थे। मैं

अकेला नहीं था।’’

यह उत्तर  पाकर मैं बहुत हँसा। आगे क्या  कहता? बसों में,

गाड़ियों में भीड़ तो होती ही है। मेरा भाव तो यही था कि धक्कमपेल

में दुबला-पतला शरीर कहीं गिर गया तो समाज को बड़ा अपयश

मिलेगा। मैं यह घटना देश भर में सुनाता चला आ रहा हूँ।

जब लोग अपनी लीडरी की धौंस जमाने के लिए व मौत के

भय से सरकार से अंगरक्षक मांगते थे। आत्मा की अमरता की

दुहाई देनेवाले जब अंगरक्षकों की छाया में बाहर निकलते थे तब

यह संन्यासी सर्वव्यापक प्रभु को अंगरक्षक मानकर सर्वत्र विचरता

था। इसे उग्रवादियों से भय नहीं लगता था। आतंकवाद के उस

काल में यही एक महात्मा था जो निर्भय होकर विचरण करता

था। स्वामीजी का ईश्वर विश्वास सबके लिए एक आदर्श है।

मृत्युञ्जय हम और किसे कहेंगे? स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज

‘अपने अंग-संग सर्वरक्षक प्रभु पर अटल विश्वास’ की बात अपने

उपदेशों में बहुत कहा करते थे। स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज के

उस कथन को जीवन में उतारनेवाले स्वामी सर्वानन्दजी भी धन्य

थे। प्रभु हमें ऐसी श्रद्धा दें।

 

‘महर्षि दयानन्द द्वारा लिखित व प्रकाशित ग्रन्थों पर एक दृष्टि’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

देहरादून।

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ने सन् 1863 में अपने गुरू दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती की मथुरा स्थित कुटिया से आगरा आकर वैदिक धर्म का प्रचार आरम्भ किया था। धर्म प्रचार मुख्यतः मौखिक प्रवचनों, उपदेशों व व्याख्यानों द्वारा ही होता है। इसके अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों के साथ अपने व उनकी मान्यताओं व सिद्धान्तों की चर्चा करने तथा कुछ विवादास्पद विषयों पर तर्क, युक्तियों व मान्य प्रमाणों द्वारा शास्त्रार्थ भी किया जाता है। महर्षि दयानन्द ने अन्य सभी प्रमुख मतों के आचार्यों वा धर्माचार्यों से अनेक शास्त्रार्थ भी किये। प्राचीन काल में किसी लिखित शास्त्रार्थ का उल्लेख नहीं मिलता। महर्षि दयानन्द ने लिखित शास्त्रार्थ की परम्परा डाली जिसका उद्देश्य यह था कि शास्त्रार्थ सम्पन्न होने के बाद किसी मत के आचार्य वा उनके अनुयायी शास्त्रार्थ में कही गई बातों से अपने आपको पृथक कर सकें। महर्षि दयानन्द का प्रसिद्धतम शास्त्रार्थ काशी में मंगलवार 16 नवम्बर, सन् 1869 में हुआ था। इस शास्त्रार्थ में महर्षि दयानन्द मूर्तिपूजा पर वेदानुसार अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए अकेले विद्वान थे जबकि विपक्षियों की ओर से लगभग 30 वा उससे अधिक शीर्ष पौराणिक विद्वान सम्मिलित हुए थे। शास्त्रार्थ के समय तो इस शास्त्रार्थ का विवरण लिखा नहीं गया था परन्तु इसके बाद स्वयं स्वामी दयानन्द जी ने इस विवरण को लिखकर प्रकाशित किया। इस शास्त्रार्थ के बाद उनके अनेक मतों के विद्वानों से अनेक विषयों पर शास्त्रार्थ हुए जिनका लिखित विवरण उपलब्ध है जो धार्मिक जगत में सत्य के निर्णयार्थ महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

 

धर्म प्रचार में किसी मत व धार्मिक आन्दोलन के प्रवर्तक को अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों के प्रचारार्थ एक या अधिक ग्रन्थों को लिखकर प्रकाशित करना भी आवश्यक होता है। महर्षि दयानन्द ने भी अपने वैदिक सिद्धान्तों के प्रचारार्थ एक नहीं अपितु छोटे-बड़े 27 व उससे अधिक ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने वेदांगप्रकाश के अन्तर्गत भी 14 ग्रन्थों की रचना की वा कराई है। यह ग्रन्थ हैं वर्णोच्चरणशिक्षा, सन्धिविषय, नामिक, कारकीय, सामासिक, स्त्रैणतद्धित, अव्ययार्थ, आख्यातिक, सौवर, पारिभाषिक, धातुपाठ, गणपाठ, उपादिकोष और निघण्टु। वेदांगप्रकाश ग्रन्थों की रचना के प्रयोजन पर ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास नामी महनीय पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने लिख है कि हम संस्कृतवाक्यप्रबोध (महर्षि दयानन्द का एक लघु ग्रन्थ) के प्रकरण में लिख चुके हैं कि महर्षि ने अपने कार्यकाल में संस्कृत भाषा के प्रचार और उन्नति के लिए महान् प्रयत्न किया था। उन्हीं की प्रेरणा से प्रभावित होकर अनेक व्यक्ति संस्कृत सीखने के लिए लालायित हो उठे थे। उन्होंने स्वामी जी से संस्कृत सीखने के लिये उपयोगी ग्रन्थों की रचना की प्रार्थना की। उसी के फलस्वरूप ऋषि ने संस्कृतवाक्यप्रबोध रचा और वेदंगप्रकाश के विविध भागें में (चैदह) ग्रन्थों की रचना कराई। स्वामी दयानन्द ने अपने जीवन में अनेक शास्त्रार्थ किये। इन शास्त्रार्थों में से 7 शास्त्रार्थों का लिखित विवरण भी उपलब्ध होता है जो आर्यसमाज के साहित्य के प्रकाशन जुड़ी संस्थाओं द्वारा समय-समय पर प्रकाशित होते आ रहे हैं। इन शास्त्रार्थों में प्रश्नोत्तर हलधर, काशी शास्त्रार्थ, हुगली शास्त्रार्थ और प्रतिमापूजनविचार, सत्यधर्म विचार मेला चांदापुर, जालन्धर शास्त्रार्थ, सत्यासत्यविवेकशास्त्रार्थ बेरली और उदयपुर शास्त्रार्थ सहित शास्त्रार्थ अजमेर और मसूदा सम्मिलत हैं। पं. मीमांसक जी ने महर्षि दयानन्द के शास्त्रार्थ एवं प्रवचन नाम से भी एक पृथक ग्रन्थ का प्रणयन किया है जिसमें उनके सभी उपलब्ध शास्त्रार्थों व प्रवचनों का समावेश किया है। इस श्रृंखला में स्वामी दयानन्द जी का समस्त उपलब्ध पत्रव्यवहार भी चार भागों में प्रकाशित है जिसमें पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. भगवद्दत्त, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, महाशय मामराज और पं. चमूपति जी आदि का महत्वपूर्ण योगदान है। इस पत्रव्यवहार से भी महर्षि दयानन्द के जीवन, कृतित्व व उनकी वेदोक्त विचारधारा पर प्रकाश पड़ता है और अनेक बातों का रहस्योद्घाटन व स्पष्टीकरण भी होता है। महर्षि दयानन्द जी के कुछ ऐसे अमुद्रित ग्रन्थ भी हैं जो महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से बने। इन ग्रन्थों में कुरान का हिन्दी अनुवाद, शतपथ क्लिष्ट प्रतीक सूची, निरुक्त शतपथ की मूल सूची, वार्तिकपाठ-संग्रह, महाभाष्य का संक्षेप, ऋग्वेद के 61 सूक्तों का अनेकार्थ सम्मिलित हैं।

 

वेदांगप्रकाश के 14 ग्रन्थों से इतर महर्षि दयानन्द के वृहत एवं लघु ग्रन्थों की संख्या 27 है। स्वामीजी ने सन् 1863 से 1873 तक के 10 वर्षों में चार लघु ग्रन्थ सन्ध्या, भागवत-खण्डन, अद्वैतमत और गर्दभतापिनी उपनिषद् लिखे व प्रकाशित कराये। यह ग्रन्थ विलुप्त हैं परन्तु सन् 1962 में इन चार में से एक भागवत-खण्डन ग्रन्थ पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी को उपलब्ध हो गया था जिसको उन्होंने प्रकाशित करा दिया और अब यह उपलब्ध है। स्वामी दयानन्द जी की सबसे प्रमुख कृति सत्यार्थप्रकाश है। इसमें ग्रन्थकार ने अपनी वेद विषयक सभी मान्यताओं को प्रथम दस समुल्लास में सविस्तार, युक्ति, तर्क, वेद व शास्त्रीय प्रमाणों, प्रश्नोत्तर शैली में शंका समाधान व आख्यानों सहित प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ में सृष्टि, वेद व धर्म संबंधी अनेक तथ्यों का प्रथम बार उद्घाटन हुआ है। इस ग्रन्थ के अन्त के चार समुल्लासों में आर्यावर्तीय मतों सहित बौद्ध, जैन, बाइबिल व कुरान आधारित मतों की समीक्षा की गई है। यह ग्रन्थ एक प्रकार से विश्व धर्म कोष है जिसे पढ़कर संसार के सभी मतों वा धर्मों का गम्भीर व साधारण ज्ञान सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के पाठक को होता है। हमारा अनुमान है कि विश्व में इस ग्रन्थ के समान धर्म व मत-मतान्तर विषयक दूसरा प्रामाणिक व सत्य मान्यताओं का अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। इस ग्रन्थ का प्रथम संस्करण सन् 1875 में तथा द्वितीय संशोधित व परिवर्धित संस्करण सन् 1884 में प्रकाशित हुआ था। इस समय सन् 1884 वाला संस्करण ही सर्वत्र प्रचारित व प्रसारित है। इस ग्रन्थ के अनेक भारतीय भाषाओं सहित अंग्रेजी व अनेक विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं।

 

सन् 1875-76 में ही स्वामी दयानन्द जी ने पंचमहायज्ञ विधि, वेदभाष्य का नमूना (प्रथम), वेदविरुद्धमतखण्डन, वेदान्तिध्वान्तनिवारण लघु ग्रन्थों की रचना व प्रकाशन किया। इसके बाद स्वामीजी ने दो प्रमुख ग्रन्थों आर्याभिविनय व संस्कारविधि की रचना कर इन्हें संवत् 1932 विक्रमी में प्रकाशित किया। स्वामी दयानन्द जी के जीवन का प्रमुख कार्य वेदों का प्रचार और वेदभाष्य की रचना है। आपने संवत् 1932 अर्थात् सन् 1876 में वेदभाष्य का प्रथम नमूना, इसके बाद चतुर्वेद-विषय-सूची, पश्चात दूसरा वेदभाष्य का नमूना, ऋग्वेदभाष्यभूमिका, ऋग्वेदभाष्य तथा यजुर्वेदभाष्य की रचना की। ऋग्वेदभाष्य का कार्य सन् 1883 में उनकी मृत्यु पर्यन्त चलता रहा। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, यजुर्वेद का कार्य पूरा हो चुका था तथा ऋग्वेद के सातवें मण्डल का कार्य चल रहा था। अभी उन्होंने सातवें मण्डल के 61 वे सूक्त का भाष्य पूर्ण किया था। वह बासठवें सूक्त के दूसरे मन्त्र का भाष्य कर चुके थे कि उन्हें जोधपुर में विष दिये जाने व उसके कारण कुछ समय रूग्ण रहकर दिवंगत हो जाने के कारण ऋग्वेद और उसके बाद सामवेद तथा अथर्ववेद के भाष्य का कार्य अवरुद्ध हो गया। महर्षि दयानन्द ने जितना भाष्य किया वह संस्कृत भाष्य व भाषानुवाद के संस्करणों सहित अनेक प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित होकर उप्लब्ध हैं। महर्षि दयानन्द वेदों के जितने भाग का भाष्य नहीं कर सके उन पर भी अनेक आर्यविद्वानों के भाष्य वा टीकायें उपलब्ध हैं।

 

सन् 1977-78 में महर्षि दयानन्द ने आर्येाद्देश्यरत्नमाला, भ्रान्तिनिवारण तथा अष्टाध्यायीभाष्य की रचना की। इसके बाद के वर्षों में उन्होंने आत्मचरित्र, संस्कृतवाक्यप्रबोध, व्यवहारभानु, गौतम अहल्या की कथा, भ्रमोच्छेदन, अनुभ्रमोच्छेदन तथा गोकरुणानिधि की रचना कर इनका प्रकाशन किया। गौतम अहल्या की कथा का वर्णन उनके पत्रों व ग्रन्थों में प्रकाशित विज्ञापनों से मिलता है परन्तु सम्प्रति यह पुस्तक उपलब्ध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य विलुप्त पुस्तकों की तरह यह भी विलुप्त हो गई।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदोक्त धर्म विषयक उपर्युक्त जो साहित्य लिखा है वह संसार के सभी मताचार्यों में सर्वाधिक है। ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि विषयक शायद् ही कोई ऐसा विषय या प्रश्न हो, जिसकों उन्होंने स्वयं प्रस्तुत कर उसका समाधान न किया हो। स्वामीजी संसार में केवल एक वेदोक्त धर्म को ही ईश्वर प्रदत्त, पूर्ण सत्य व संसार के लिए सभी मनुष्यों के लिए कल्याणकारी व आचरणीय मानते थे। उन्हें उपासना की भी एक ही पद्धति वैदिक योग पद्धति मान्य थी। अन्य किसी पद्धति से उपासना करने पर वह फल प्राप्त नहीं हो सकता जो कि योग की ध्यान व समाधि विधि के द्वारा उपासना करने से होता है। महर्षि दयानन्द ने जो विपुल धर्म विषयक साहित्य लिखा है वह आज भी प्रासंगिक व उपयोगी है और हमेशा रहेगा। न केवल भारत के सभी लोग अपितु विश्व के सभी लोग श्रद्धाभाव से उसका अनुशीलन कर उसे आचरण में लाकर अपने जीवन को उपासना के मार्ग पर अग्रसर कर इससे मनुष्य जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। जीवन की लक्ष्य प्राप्ति का एक ही मार्ग है और वह है महर्षि दयानन्द प्रदर्शित वेदोक्त मार्ग। इस लेख में हमने महर्षि दयानन्द जी के ग्रन्थों का परिचय कराने का प्रयास किया है। आशा है कि पाठक इससे लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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स्तुता मया वरदा वेदमाता : डॉ धर्मवीर

सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोयेकश्नुष्टीन्त्संवनेन सर्वान्।

एक परिवार एक साथ सुखपूर्वक कैसे रह सकता है, यह इस सूक्त का केन्द्रीय विचार है। सामनस्य सूक्त का यह अन्तिम मन्त्र है। इस मन्त्र में परिवार को एक साथ सौमनस्यपूर्वक रहने के लिये उसको धार्मिक होने की प्रेरणा दी गई है। मन्त्र में एक शद है ‘सध्रीचीनान्’। परिवार के जो लोग एक साथ रह रहे हैं, वे ‘संमनसः’ समान मत वाले होने चाहिएँ। समान मन एक दूसरे के लिये अनुकूल सोचने वाले होते हैं। परस्पर हित की कामना करते हैं, तभी समान बनते हैं। वेद कहता है- समान हित सोचने के लिये ‘एकश्नुष्टीन्’- एक धर्म कार्य में प्रवृत्त होने वाला होना चाहिए। जो धार्मिक नहीं है, वे शान्त मन वाले, परोपकार की भावना वाले नहीं हो सकते। परिवार को सुखी और साथ रखने के लिये परिवार के सदस्यों का धार्मिक होना आवश्यक है। परिवार के सदस्य धार्मिक हैं, तो उनमें शान्ति और सहनशीलता का गुण होगा। धार्मिक व्यक्ति स्वाभाविक रूप से उदार और सहनशील होता है।

आज समाज में जहाँ भी संघर्ष है, पारिवारिक विघटन है, वहाँ सहनशीलता का अभाव देखने में आता है। हम क्रोध करने को, विरोध करने को, असहमति को अपना सामर्थ्य मान बैठे हैं, जबकि वस्तुस्थिति यह है कि जिस मनुष्य को जितनी शीघ्रता से क्रोध आता है, प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, वह उतना ही दुर्बल होता है। सामर्थ्यवान व्यक्ति का सहज गुण क्रोध न आना है, जिसे क्रोध नहीं आता, वही सहनशील होता है। परिवार के सदस्य धार्मिक होते हैं तो वे सहनशील और उदार होते हैं। परिवार के बड़े सदस्यों में उदारता तथा छोटे सदस्यों में नम्रता और बड़ों के प्रति आदर का भाव होता है। ये गुण धर्म की कसौटी है। परिवार में धार्मिकता होने से ईश्वर-भक्ति का भाव सभी सदस्यों में रहता है। अच्छे कार्यों में मन लगने से बुरे कार्यों और स्वार्थ भावना से मनुष्य दूर रहता है।

धार्मिक होना मनुष्य के लिये आवश्यक है, अधार्मिक व्यक्ति में स्वार्थ और अन्याय का भाव आता है। परिवार के किसी भी सदस्य में स्वार्थ का भाव उत्पन्न हो जाता है तो मनुष्य अन्याय करने में संकोच नहीं करता। एक गाँव में दो भाई एक साथ रहते थे। परिवार में सामञ्जस्य था, अच्छी प्रगति हो रही थी। दोनों भाई दुकान में बैठे थे। बच्चे बाहर से खेलते हुए आये। बड़े भाई के पास आम रख थे, बड़े भाई ने बच्चों में आम बाँट दिये। बच्चे आम लेकर खेलने चले गये। दो दिन बाद छोटे भाई ने बड़े भाई को प्रस्ताव दिया- भाई अब हमें अपना व्यवसाय, घर बाँट लेना चाहिए। बड़े भाई ने पूछा- तुहारे मन में ऐसा विचार क्यों आया, तो छोटे भाई ने बड़े भाई से कहा- भैया जब परसों बच्चे दुकान पर आये, आपने बच्चों को आम बाँटे, परन्तु आपने अपने बेटे को क्रम तोड़कर आम का बड़ा फल दिया, तभी मैंने निर्णय कर लिया था कि अब हमें अलग हो जाना चाहिए। बड़ा भाई कुछ नहीं बोल सका और दोनों भाई अलग हो गये।

इस प्रकार धर्म उचित व्यवहार का नाम है। जो लोग धर्म को अनावश्यक या वैकल्पिक समझते हैं, उन्हें जानने की आवश्यकता है कि धर्म विकल्प नहीं, जीवन का अनिवार्य अंग है।

मनुष्य को स्वार्थ, अन्याय से दूर रहने के लिये धार्मिक होना चाहिए। धार्मिक व्यक्ति परोपकार करने में प्रवृत्त होता है। जिस परिवार के सदस्य धार्मिक आचरण और परोपकार की भावना वाले होते हैं, वही परिवार सुखी और संगठित रह सकता है।

 

और लो, यह गोली किसने मारी : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

अब तो चरित्र का नाश करने के नये-नये साधन निकल आये

हैं। कोई समय था जब स्वांगी गाँव-गाँव जाकर अश्लील गाने

सुनाकर भद्दे स्वांग बनाकर ग्रामीण युवकों को पथ-भ्रष्ट किया करते

थे। ऐसे ही कुछ माने हुए स्वांगी किरठल उज़रप्रदेश में आ गये।

उन्हें कई भद्र पुरुषों ने रोका कि आप यहाँ स्वांग न करें। यहाँ हम

नहीं चाहते कि हमारे ग्राम के लड़के बिगड़ जाएँ, परन्तु वे न माने।

कुछ ऐसे वैसे लोग अपने सहयोगी बना लिये। रात्रि को ग्राम के

एक ओर स्वांग रखा गया। बहुत लोग आसपास के ग्रामों से भी

आये। जब स्वांग जमने लगा तो एकदम एक गोली की आवाज़

आई। भगदड़ मच गई। स्वांगियों का मुख्य  कलाकार वहीं मञ्च

पर गोली लगते ही ढेर हो गया। लाख यत्न किया गया कि पता

चल सके कि गोली किसने मारी और कहाँ से किधर से गोली आई

है, परन्तु पता नहीं लग सका। ऐसा लगता था कि किसी सधे हुए

योद्धा ने यह गोली मारी है।

जानते हैं आप कि यह यौद्धा कौन था? यह रणबांकुरा

आर्य-जगत् का सुप्रसिद्ध सेनानी ‘पण्डित जगदेवसिंह

सिद्धान्ती’ था। तब सिद्धान्तीजी किरठल गुरुकुल के आचार्य थे।

आर्यवीरों ने पाप ताप से लोहा लेते हुए साहसिक कार्य किये हैं।

आज तो चरित्र का उपासक यह हमारा देश धन के लोभ में अपना

तप-तेज ही खो चुका है।

 

इतिहास प्रदूषण – प्राक्कथन : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु  

आर्य समाज के इतिहास में मिलावट की दुखद कहानी 

इस विनीत ने इस पुस्तक को कालक्रम से नहीं लिखा। न ही

निरन्तर बैठ कर लिखा। जब-जब समय मिला जो बात लेखक के

ध्यान में आई अथवा लाई गई, उसे स्मृति के आधार पर लिखता

चला गया। इन पंक्तियों के लेखक ने आर्यसमाज से ऐसे संस्कार

विचार पाये कि अप्रामाणिक कथन व लेखन इसे बहुत अखरता है।

बहुत छोटी आयु में पं0 लेखराम जी, आचार्य रामदेव जी, पं0

रामचन्द्र जी देहलवी, पं0 शान्तिप्रकाश जी, पं0 लोकनाथ जी

आदि द्वारा दिये जाने वाले प्रमाणों व उद्धरणों की सत्यता की चर्चा

अपने ग्राम के आर्यों से सुन-सुन कर लेखक ने इस गुण को अपने

में पैदा करने की ठान ली।

भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी, स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी

और स्वामी वेदानन्द जी महाराज को जब पहले पहल सुना तो उन्हें

बहुत सहज भाव से विभिन्न ग्रन्थों को उद्धृत करते सुना। उनकी

स्मरण शज़्ति की सब प्रशंसा किया करते थे। उनको बहुत कुछ

कण्ठाग्र था। उनके द्वारा दिये गये प्रमाणों, तथ्यों तथा अवतरणों

(Quotations) में आश्चर्यजनक शुद्धता ने इन पंक्तियों के लेखक

पर गहरी व अमिट छाप छोड़ी। पुराने आर्य विद्वानों की यह विशेषता

आर्यसमाज की पहचान बन गई। अप्रमाणिक कथन को आर्य नेता,

विद्वान् व संन्यासी तत्काल चुनौती दे देते थे।

इतिहास केसरी पं0 निरञ्जजनदेव जी अपने आरंभिक  काल

का एक संस्मरण सुनाया करते थे। देश-विभाजन के कुछ समय

पश्चात् आर्यसमाज रोपड़ (पंजाब) के उत्सव पर पं0 निरञ्जनदेव

जी ने व्याज़्यान देते हुए दृष्टान्त रूप में एक रोचक घटना सुनाई।

दृष्टान्त तो अच्छा था, परन्तु यह घटना घटी ही नहीं थी। यह तो एक

गढ़ी गई कहानी थी। पूज्यपाद स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने अपने

शिष्य का व्याख्यान  बड़े ध्यान से सुना।

बाद में पण्डित जी से पूछा-‘‘यह घटना कहाँ से सुनी? क्या

कहीं से पढ़ी है?’’

पं0 निरञ्जनदेव ने झट से किसी मासिक के अंक का पूरा अता

पता तथा पृष्ठ संख्या  बताकर गुरु जी से कहा-‘‘मैंने उस पत्रिका

में छपे लेख में इसे पढ़ा था।’’

शिष्य से प्रमाण का पूरा अता-पता सुनकर महाराज बड़े प्रसन्न

हुए और कहा-‘‘प्रेरणा देने के लिए यह दृष्टान्त है तो अच्छा,

परन्तु यह घटना सत्य नहीं है। ऐसी घटना घटी ही नहीं।’’

स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, स्वामी आत्मानन्द जी, श्री महाशय

कृष्ण जी नये-नये युवकों से भूल हो जाने पर उन्हें ऐसे ही सजग

किया करते थे।

अंजाने में भूल हो जाना और बात है, परन्तु जानबूझ कर और

स्वप्रयोजन से इतिहास प्रदूषित करने के लिए चतुराई से मनगढ़न्त

कहानियाँ, बढ़ा-चढ़ाकर, घटाकर हदीसें गढ़ना यह देश, धर्म व

समाज के लिए घातक नीति है।

आर्यसमाज के आरम्भिक  काल में ऋषि दयानन्द जी के सुधार

के कार्यों से प्रभावित होकर कई बड़े-बड़े व्यक्ति  आर्यसमाज में

आए। वे ऋषि के धार्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्तों में आस्था विश्वास

नहीं रखते थे। इन्होंने अपने परिवारों में, अपने व्यवहार, आचार में

वैदिक धर्म का प्रवेश ही न होने दिया। इन बड़े लोगों को न समझने

से आर्यसमाज की बहुत क्षति हुई। इनमें से कई प्रसिद्धि पाकर

समाज को छोड़ भी गये। इतिहास-प्रदूषण का यह भी एक कारण

बना।

मेहता राधाकिशन द्वारा लिखित आर्यसमाज का इतिहास (उर्दू)

में क्या  इतिहास था? लाला लाजपतराय जी ने अपनी अंग्रेज़ी

पुस्तक में कुछ संस्थाओं व पीड़ितों की सहायता पर तो लिखा है,

परन्तु पं0 लेखराम जी, वीर तुलसीराम, महात्मा नारायण स्वामी

आदि हुतात्माओं, महात्माओं का नाम तक नहीं दिया। इसे आप

क्या  कहेंगे?

कुछ वर्षों से पुराने विद्वानों और महारथियों के उठ जाने से

वक्ता  लेखक जो जी में आता है लिख देते हैं और जो मन में आता

है बोल देते हैं। कोई रोकने-टोकने वाला रहा नहीं। इस आपाधापी

व मनमानी को देखकर मन दुखी होता है। सम्पूर्ण आर्य जगत् से

आर्यजन मनगढ़न्त हदीसों को पढ़कर लेखक को प्रश्न पूछते रहते हैं।

इतिहास की यह तोड़-मरोड़ एक सांस्कृतिक आक्रमण

है। बहुत ध्यान से इस पर विचारा तो पता चला कि सन् 1978 से

ऋषि दयानन्द जी की जीवनी की आड़ लेकर डॉ0 भवानीलाल जी

ने आर्यसमाज के इतिहास को प्रदूषित करने का अभियान छेड़ रखा

है। ‘आर्यसन्देश’ साप्ताहिक दिल्ली में एक लेख देकर स्वयं को

धरती तल पर आर्यसमाज का सबसे बड़ा इतिहासकार घोषित

करके जो जी में आता है लिखते चले जा रहे हैं।

आस्ट्रेलिया के डॉ0 जे0 जार्डन्स ने अंग्रेज़ी में लिखी अपनी

पुस्तक में कोलकाता की आर्य सन्मार्ग संदर्शिनी सभा की चर्चा

करते हुए महर्षि के बारे दो भ्रामक, निराधार व आपत्तिजनक  बातें

लिखी हैं। श्रीमान् जी ने आज तक इन पर दो पंक्तियाँ  नहीं लिखीं।

डॉ0 जार्डन्स ने ऋषि को उद्देश्य से भटका हुआ भी लिखा है।

डॉ0 महावीर जी मीमांसक ने इस आक्षेप का अवश्य उत्तर  दिया है।

स्वामी श्रद्धानन्द जी पर एक मौलाना ने एक लाञ्छन लगाया

था। वह तो स्वामी जी पर अपनी पुस्तक में डॉ0 जार्डन्स महोदय ने

दिया, परन्तु उसका उत्तर नहीं दिया। न हम जैसों से पूछा। डॉ0

भारतीय जी स्वप्रयोजन से, डॉ0 जार्डन्स का अपने ‘नवजागरण के

पुरोधा’ में चित्र देते हैं। उत्तर  ऐसे आक्षेपों का आज तक नहीं दिया।

किसी वार प्रहार का कभी सामना किया? विरोधियों के

आपज़िजनक लेखों पर मौन साधने की आपकी नीति रही है।

आर्यसमाज में भी ‘योगी का आत्म चरित’ के प्रतिवाद के लिए

दीनबन्धु, आदित्यपाल सिंह जी व सच्चिदानन्द जी पर तो लेख पर

लेख दिये, परन्तु इन सबको आशीर्वाद देने वाले महात्मा आनन्द

स्वामी जी से उनकी इस महाभयंकर भूल पर कुछ कहने व लिखने

का साहस ही न बटोर सके। अपना हानि लाभ देखकर ही आप

लिखते चले आये हैं।

आर्यसमाज के बलिदानी संन्यासियों, विद्वानों, लेखकों

तथा शास्त्रार्थ महारथियों ने ऋषि को समझा, उनके सिद्धान्तों

को समझा, उनके जीवन से प्रेरणा पाकर ऋषि के मिशन की

रक्षा, वैदिक धर्म के प्रचार के लिए अपने शीश कटवाये,

प्राण दिये और लहू की धार देकर एक स्वर्णिम इतिहास बनाया।

मत-पन्थों से ऋषि की विचारधारा का लोहा मनवाया। ऐसे

गुणियों, मुनियों, प्राणवीरों को नीचा दिखाते हुए भारतीय जी

ने लिखा है-‘‘मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि उस महामानव

के जीवन एवं कृतित्व तथा उसके वैचारिक अवदान का

वस्तुनिष्ठ, तलस्पर्शी तथा मार्मिक, साथ ही भावना प्रवण

विश्लेषण जैसा आर्यसमाजेतर अध्येताओं ने किया है, वैसा

वे लोग नहीं कर सके हैं, जो दयानन्द के दृढ़ अनुयायी होने

का दावा करते हैं, अथवा जो उनकी विचारधारा से अपनी

प्रतिबद्धता की कसमें खाते नहीं थकते।’’1

श्रीमान् जी रौमाँ रौलाँ, दीनबन्धु सी0एफ़0 एण्ड्रयूज़ को ऋषि

की विचारधारा का मार्मिक विश्लेषण करने के लिए अपूर्व बताते

हैं। इसी प्रकार भारतीय लेखकों में देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, श्री

अरविन्द घोष तथा साधु टी0एल0 वास्वानी जैसी योग्यता व क्षमता

इस प्रमाणपत्र प्रदाता को किसी भी आर्यसमाजी लेखक में दिखाई

नहीं दी।1 जिनके नाम श्रीमान् ने लिये हैं उन्होंने आर्यसमाज को

कौनसा ज्ञानी, बलिदानी और समर्पित सेवक दिया? कोई गुरुदत्त ,

कोई लेखराम या कोई गंगाप्रसाद, अरविन्द जी आदि ने दिया क्या ?

इन्हें क्या  पता कि श्री वास्वानी तो पं0 चमूपति जी की लेखन

शैली, विद्वज़ा व ऋषि-भज़्ति पर मुग्ध थे।

कुँवर सुखलाल जी ने कभी लिखा था-

सब मज़ाहब में ऐसी मची खलबली,

गोया महशर का आलम बपा कर गया।

तर्क के तीर बर्साय इस ज़ोर से,

होश पाखण्डियों के हवा कर गया॥

फिर लिखा-

नमस्ते लब पै आते ही मुख़ालिफ़ चौंक पड़ते थे।

समाजी नाम से पाखण्डियों के होश उड़ते थे॥

विरोधियों, विधर्मियों पर ऋषि की विचारधारा की धाक किन्होंने

बिठाई? मत पन्थों में खलबली मचाने वाले कौन थे? ऋषि की

सजीली ओ3म् पताका पहराने वाले कौन थे? ऋषि के सिद्धान्तों व

मन्तव्यों को समझकर ऋषि मिशन पर जानें वारने वाले, सर्वस्व

लुटाने वाले तथा दुःख-कष्ट झेलने वाले कौन थे?

सब जानकार पाठक कहेंगे कि यह पं0 लेखराम का वंश था।

जो स्वामी दर्शनानन्द जी से लेकर पं0 नरेन्द्र और पं0 शान्तिप्रकाश

जी तक इस मिशन के लिए तिल-तिल जले व जिये। क्या  ऋषि को

समझे बिना उसकी राह पर शीश चढ़ाने वाले, यातनाएँ सहने वाले

स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द,

स्वामी वेदानन्द, पं0 रामचन्द्र देहलवी, पं0 गंगाप्रसाद सब मूर्ख थे

जो बिना सोचे समझे ऋषि मिशन पर जवानियाँ वार गये?

अरविन्द घोष महान् थे, परन्तु अन्त तक काली माता के ही

पूजक रहे। वास्वानी जी बहुत अच्छे अंग्रेज़ी लेखक थे, परन्तु

अपने मीरा स्कूल के बच्चों को उनकी परीक्षा के समय उनका पैन

छू कर आशीर्वाद देते थे। बच्चों में पैन स्पर्श करवाने के लिए होड़

लग जाती थी। क्या  वास्वानी जी ने किसी को वैदिक धर्मी बनाया?

जब जब विरोधियों ने महर्षि दयानन्द जी के निर्मल-जीवन पर

कोई आक्षेप किया, कोई आपज़िजनक पुस्तक लिखी तो उज़र

किसने दिया? ऋषि के नाम लेवा उत्तर  देने के लिए आगे आये

अथवा रोमा रोलाँ, श्री अरविन्द व वास्वानी महात्मा ने जान

जोख़िम में डालकर उत्तर  दिया? अन्धविश्वासों का, पाखण्ड-

खण्डन का और वैदिक धर्म के मण्डन का कठिन कार्य शीश तली

पर धर कर स्वामी दर्शनानन्द, पं0 गणपति शर्मा, स्वामी नित्यानन्द,

पं0 धर्मभिक्षु, पं0 चमूपति, लक्ष्मण जी, पं0 लोकनाथ, पं0 नरेन्द्र,

पं0 गंगाप्रसाद उपाध्याय करते रहे अथवा उन लोगों ने किया

जिनका नाम लेकर डॉ0 भारतीय ‘कसमें खाने’ की ऊटपटांग

बात बनाकर आर्य महापुरुषों को लताड़ लगा रहे हैं।

हम श्रीमान् की करनी कथनी को देखते रहे। ऋषि जीवनी का

सर्वज्ञ बनकर प्राणवीर पं0 लेखराम तथा सब आर्यों को नीचा

दिखाने का कुकर्म करने वाले इस देवता ने महाराणा सज्जनसिंह

जी, केवल कृष्ण जी आदि पर तो दो-दो पृष्ठ लिख कर अपनी

नीतिमज़ा दिखा दी और अंग्रेज़ भज़्त प्रतापसिंह पर 47 पृष्ठ लिखकर

अपने को धन्य-धन्य माना। ‘अवध रीवियु’ में प्रतापसिंह ने अपनी

जीवनी छपवाई उसमें ऋषि का नाम तक नहीं। राधाकिशन

लिखित प्रतापसिंह की जीवनी जोधपुर राजपरिवार ने छापी

है। इस पुस्तक में भी ऋषि के जोधपुर आगमन पर कुछ नहीं।

फिर भी उसके शिकार के, गोरा भज़्ति के चित्र व प्रसंग न देकर

प्रतापसिंह का गुणगान करके राजपरिवार को तो रिझा ही लिया।

नन्ही वेश्या को चरित्र की पावनता का प्रमाण पत्र देकर इतिहास

को प्रदूषित करने की रही सही कमी पूरी कर दी।

सत्य का गला घोंटना इनका स्वभाव है। हम सर्वज्ञ नहीं हैं।

अल्पज्ञ जीव से भूल तो हो ही जाती है, परन्तु हम जानबूझ कर भूल

करना पाप मानते हैं। देश व जाति को भ्रमित करना तो और भी पाप

है। हम अपनी प्रत्येक भूल से जो भी अनजाने से हो जाये, सुधार के

लिए व खेद प्रकट करने के लिए हर घड़ी तत्पर हैं।

इतिहास प्रदूषण अभियान के हीरो श्री भवानीलाल जी को

पता चला कि यति मण्डल इस लेखक से आर्य संन्यासियों पर एक

ग्रन्थ लिखवा रहा है। तब आप बिन बुलाये पहली व अन्तिम बार

यति मण्डल की बैठक में पहुँच गये और कहा, मैंने आर्यसमाज के

साधुओं पर एक पुस्तक लिखी है, यति मण्डल इसे छपवा दे। इस

पर स्वामी सर्वानन्द जी बोले, ‘‘यह कार्य तो जिज्ञासु जी को सौंपा

जा चुका है, वे लिखेंगे। इस पर भवानीलाल जी बोले, ‘‘जिज्ञासु

जी तो लिखेंगे, मैंने तो पुस्तक लिख रखी है।’’ स्वामी सर्वानन्द जी

यह दुस्साहस देखकर दंग रह गये। स्वामी जी ने आचार्य नन्दकिशोर

जी से इनके बारे जो बात की, वह यहाँ क्या  लिखें। तब स्वामी

ओमानन्द जी ने भी इन्हें कुछ सुनाईं। प्रश्न यह है कि इनका वह

महज़्वपूर्ण इतिहास ग्रन्थ फिर कहाँ छिप गया? वह अब तक छपा

क्यों  नहीं? जिज्ञासु ने तो एक के बाद दूसरे और दूसरे के पश्चात्

तीसरे चौथे संन्यासी पर नये-नये ग्रन्थ दे दिये।

गंगानगर आर्यसमाज ने इस लेखक का सज़्मान रखा। हमने

स्वीकृति देकर भी सम्मान  लेना अस्वीकार कर दिया। समाज वालों

ने यहां आकर सस्नेह दबाव डाला।

‘‘यह प्रेम बड़ा दृढ़ घाती है’ ’

हमें स्वीकृति देनी पड़ी। सम्मान  वाले दिन श्रीमान् ने श्री

अशोक सहगल जी प्रधान को घर से सन्देश भेजा, ‘‘मैं जिज्ञासु जी

के साहित्य पर बोलूँगा, मुझे बुलवाओ।’’ उन्होंने कहा, ‘‘आ जाओ।

रिक्शा  का किराया दे दिया जायेगा।’’ समाज ने मेरे विषय में (मेरे

रोकने पर भी) एक स्मारिका निकाली। उसमें भारतीय जी ने लेख

दिया कि ‘गंगा ज्ञान सागर’ जो चार भागों में छपा है निरुद्देश्य (At Random)  है। इनकी  उत्तम पवित्र सोच पर कवि की ये पंज़्तियाँ

याद आ गईं-

ख़ुदा मुझको ऐसी ख़ुदाई न दे।

कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे॥

देश की आध दर्जन प्रादेशिक भाषाओं में इस ग्रन्थमाला का

अनुवाद मेरी अनुमति से किसी न किसी रूप में छपता चला आ

रहा है। आर्य विद्वानों ने, समाजों ने इनके उपर्युज़्त फ़तवे की

धज्जियाँ उड़ा कर रख दी हैं। मैंने अनुवाद छपवाने वालों से किसी

पारिश्रमिक की कोई माँग ही नहीं की।

हिण्डौन में पुरोधा के विमोचन के लिए यह ट0न0चतुर्वेदी जी

को लेकर गये। या तो चतुर्वेदी जी बोले या यह स्वयं अपने ग्रन्थ पर

बोले। डॉ0 श्री कुशलदेव जी तथा यह लेखक भी वहीं उपस्थित

थे। ऋषि जीवन पर कुछ जानने वालों में हमारी भी गिनती है।

भारतीय जी को अपनी रिसर्च की पोल खुलने का भय था। अपराध

बोध इन्हें कंपा  रहा था। इन्हें हम दोनों को बोलने के लिए कहने

की हिज़्मत ही न पड़ी। इनको डर था कि इनके इतिहास प्रदूषण का

कच्चा चिट्ठा न खुल जाये। उस कार्यक्रम का संयोजन अपने आप

हाथ में ले लिया। हृदय की संकीर्णता व सोच की तुच्छता को सबने

देख लिया। हम आने लगे तो कुशलदेव जी ने अपने ग्रन्थ के

विमोचन के लिए हमें रोक लिया। यह अपना कार्यक्रम करके फिर

नहीं रुके। गंगानगर व हिण्डौन की घटना दिये बिना इतिहास

प्रदूषण अभियान का इतिहास अधूरा ही रहता।

सत्य की रक्षा के लिए, इतिहास-प्रदूषण को रोकने के लिए,

पं0 लेखराम वैदिक मिशन के लिए यह पुस्तक लिखी है। मिशन

के कर्मठ युवा कर्णधारों के स्नेह सौजन्य के लिए हम हृदय से

आभार मानते हैं। हम जानते हैं कि जहाँ कुछ महानुभाव आर्यसमाज

के इतिहास को विकृत व प्रदूषित करने वालों के अपकार की पोल

खुलने पर हमें जी भर कर कोसेंगे, वहाँ पर सत्यनिष्ठ, इतिहास प्रेमी

और ऋषि भज़्त आर्यजन हमारे साहस व प्रयास के लिए हमारी

सेवाओं व तथ्यों की ठीक-ठीक जानकारी देने के लिए धन्यवाद भी

अवश्य देंगे। कुछ शुभचिन्तक यह भी कहेंगे कि आपको इतिहास

प्रदूषित करने वालों के विकृत इतिहास का खण्डन करने से ज़्या

मिला? इससे क्या  लाभ? देखो तो! युग कैसा है-

सच्च कहना हमाकत है और झूठ ख़िुरदमन्दी

इक बाग़ में इक कुमरी गाती यह तराना थी

वोह और ज़माना था, यह और ज़माना है

ऐसा कहने वालों की बात भी अपने स्थान पर ठीक है। सत्य

लिखना बोलना आज मूर्खता है और असत्य लिखना ख़िरदरमंदी

(बुद्धिमज़ा) है। एक वाटिका में एक कोकिला ठीक ही तो गा रही

थी कि यह और युग है। पहले और युग था। हमारा किसी से

व्यज़्तिगत झगड़ा नहीं। हमने जो कुछ लिखा है ऋषि मिशन की

रक्षा के लिए लिखा है।

आर्यजाति का एक सेवक

राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’

स्वामी श्रद्धानन्द बलिदान पर्व वेद सदन, गली नं0 6

संवत् 2071 वि0 नई सूरज नगरी, अबोहर-152116