Category Archives: पाखण्ड खंडिनी

महर्षि दयानन्द दर्शन का विश्वव्यापी प्रभाव : प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

महर्षि दयानन्द दर्शन का विश्वव्यापी प्रभावःसस्ता साहित्य मण्डल ने ‘हमारी परम्परा’ नाम से एक ग्रन्थ का प्रकाशन किया है। इसके संकलनकर्ता अथवा सम्पादक प्रसिद्ध गाँधीवादी श्री वियोगीहरि जी ने आर्यसमाज विषय पर भी एक उ      ाम लेख देने की उदारता दिखाई है। उनसे ऐसी ही आशा थी। वे आर्यसमाज द्वेषी नहीं थे। इन पंक्तियों के लेखक से भी उनका बड़ा स्नेह था। प्रसंगवश यहाँ बता दें कि आप स्वामी सत्यप्रकाश जी का बहुत सम्मान करते थे।

इस ग्रन्थ में छपे आर्यसमाज विषयक लेख के लेखक आर्य पुरुष यशस्वी हिन्दी साहित्यकार स्वर्गीय श्री विष्णु प्रभाकर जी हैं। आपने इसमें एक भ्रमोत्पादक बात लिखी है जिसका निराकरण करना हम अपना पुनीत व आवश्यक कर्     ाव्य मानते हैं। आपने लिखा है कि आर्यसमाज के समाज सुधार सम्बन्धी कार्यों का जितना प्रभाव पड़ा है वैसा प्रभाव आर्यसमाज के दर्शन का नहीं पड़ा। हम इस भ्रमोत्पादक कथन के लिए मान्य विष्णु प्रभाकर जी को कतई दोष नहीं देते। उनका कथन इस दृष्टि से यथार्थ है कि ऋषि-दर्शन का जितना प्रचार होना चाहिए था उतना प्रचार इस समय नहीं हो रहा है। एक भावनाशील आर्य होने के नाते आपने जो अनुभव किया सो ठीक है। तथ्य यही है कि आर्यसमाज के नेताओं की तीन पीढ़ियों ने असह्य दुःख कष्ट झेलकर, जानें वारकर, रक्तरंजित इतिहास रचकर ऋषि दर्शन की संसार पर अमिट व गहरी छाप लगाई। चौथी पीढ़ी आन्तरिक शत्रु की घेराबन्दी में फंसकर हतोत्साहित ही नहीं हुई पूर्णतया पराजित व असहाय हो गई।

पराभव कैसे हुआ?ः- यह घेराबन्दी संस्थावादियों या स्कूल पन्थियों ने की। आर्यसमाज संस्थावाद के कीच-बीच फंसकर शिक्षा व्यापार मण्डल का रूप धारण कर गया। वैदिक दर्शन का प्रचार तो कुछ व्यक्ति तथा कुछ ही संस्थायें कर रही हैं। यहाँ पहली तीन पीढ़ी के महापुरुषों के कुछ नाम देकर उनके प्रति कृतज्ञता का प्रकाश करना हमारा कर्     ाव्य बनता है।

तीन पीढ़ियों के आग्नेय नेताः पं. गुरुद     ा विद्यार्थी और वीर शिरोमणि पं. लेखराम प्रथम पीढ़ी की दो विभूतियाँ थीं।

श्री स्वामी नित्यानन्द महाराज, स्वामी श्रद्धानन्द महाराज, स्वामी दर्शनानन्द महाराज, स्वामी योगेन्द्रपाल, पं. गणपति शर्मा, आचार्य रामदेव दूसरी पीढ़ी के तपस्वी सर्वस्व त्यागी मिशनरी नेता थे।

महात्मा नारायण स्वामी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, पं. धर्मभिक्षु, पं. रामचन्द्र देहलवी, भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि, पं. गंगाप्रसाद द्वय, आचार्य चमूपति, वीर शिरोमणि श्याम भाई, क्रान्तिवीर नरेन्द्र, कर्मवीर लक्ष्मण आर्योपदेशक, कुँवर सुखलाल, स्वामी अभेदानन्द, पं. अयोध्याप्रसाद तीसरी पीढ़ी के समर्पित नेता थे।

चौथी पीढ़ी के नेता जोड़-तोड़ वादी कुर्सी भक्त, चुनाव तनाव के चक्करों में उलझकर मिशन को गौण बनाने का कलङ्क लेकर संसार से गये। ये लोग शिक्षा व्यापार मण्डल के सुनियोजित संगठन का सामना न कर पाये। गुरुकुल भी निष्प्राण हो गये। बड़ों से सम्पदा तो अपार मिल गई परन्तु न तो श्रीमद्दयानन्द उपदेशक विद्यालय लाहौर का स्थान कोई संस्था ले पाई और न स्वामी स्वतन्त्रानन्द के रिक्त स्थान की पूर्ति ही समाज कर पाया।

भूमि के गुरुत्व आकर्षण का नियमःतथापि यह मानना पड़ेगा कि पहली तीन पीढ़ियों ने इतना ठोस और व्यापक प्रचार किया कि सकल विश्व के वैचारिक चिन्तन तथा व्यवहार में भूमि के गुरुत्व आकर्षण के नियम के सदृश महर्षि दयानन्द के गुरुत्व आकर्षण का नियत ओतप्रोत है। जैसे यह नियम सब मानवीय गतिविधियों में ओतप्रोत है परन्तु दिखाई नहीं देता ठीक इसी प्रकार सब मत पन्थों के मानने वालों की सोच और व्यवहार में महर्षि दयानन्द का दर्शन ओतप्रोत है। यह छाप और प्रभाव भले ही देखने वालों को दिखाई न दे परन्तु इतिहास इसकी साक्षी दे रहा है। यह सब कुछ आपके सामने है। हाँ! हमें यह तो मान्य है कि अन्धविश्वासों की अन्धी आँधी सब मत पन्थों को उड़ाकर ले जाती दीख रही है। लीजिये महर्षि दयानन्द जी महाराज के वैदिक दर्शन को दिग्विजय के कुछ तथ्य कुछ बिन्दु इस लेखमाला में देते हैंः-

शैतान कहाँ है?ः- ईसाई तथा इस्लामी दर्शन का आधार शैतान के अस्तित्व पर है। शैतान सृष्टि की उत्प      िा के समय से शैतानी करता व शैतानी सिखलाता चला आ रहा है। उसी का सामना करने व सन्मार्ग दर्शन के लिए अल्लाह नबी भेजता चला आ रहा है। मनुष्यों से पाप शैतान करवाता है। मनुष्य स्वयं ऐसा नहीं सोचता। पूरे विश्व में आज पर्यन्त किसी भी कोर्ट में किसी ईसाई मुसलमान जज के सामने किसी भी अभियुक्त ईसाई व मुसलमान बन्धु ने यह गुहार नहीं लगाई कि मैंने पाप नहीं किया। मुझ से अपराध करवाया गया है। पाप के लिए उकसाने वाला तो शैतान है।

किसी न्यायाधीश ने भी कहीं यह टिप्पणी नहीं की कि तुम शैतान के बहकावे में क्यों आये? दण्ड कर्ता को ही मिलता है। कर्ता की पूरे विश्व के कानूनविद् यही परिभाषा करते हैं जो सत्यार्थप्रकाश में लिखी है अर्थात् ‘स्वतन्त्रकर्ता’ कहिये शैतान कहाँ खो गया? फांसी पर तो इल्मुद्दीन तथा अ    दुल रशीद चढ़ाये गये। क्या यह महर्षि दयानन्द दर्शन की विजय नहीं है? अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इरान, पाकिस्तान व मिश्र में इसी नियम के अनुसार अपराधी फांसी पर लटकाये जाते हैं और कारागार में पहुँचाये जाते हैं।

सर सैयद अहमद का लेख याद कीजियेः मुसलमानों के सर्वमान्य नेता तथा कुरान के भाष्यकार सर सैयद अहमद खाँ ने अपने ग्रन्थ में एक कहानी दी है। एक मौलाना को सपने में शैतान दीख गया। मौलाना ने झट से उसकी दाढ़ी को कसकर पकड़ लिया। एक हाथ से उसकी दाढ़ी को खींचा और दूसरे हाथ से शैतान की गाल पर कस कर थप्पड़ मार दिया। शैतान की गाल लाल-लाल हो गई। इतने में मौलाना की नींद खुल गई। देखता क्या है कि उसके हाथ में उसी की दाढ़ी थी जिसे वह खींच रहा था और थप्पड़ की मार से उसी का गाल लाल-लाल हो गया था।

इस पर सर सैयद की टिप्पणी है कि शैतान का अस्तित्व कहीं बाहर नहीं (खारिजी वजूद) है। तुम्हारे मन के पाप भाव ही तुम से पाप करवाते हैं। अब प्रबुद्ध पाठक अपने आपसे पूछें कि यह क्रान्ति किसके पुण्य प्रताप से हो पाई? यह किसका प्रभाव है? मानना पड़ेगा कि यह उसी ऋषि का जादू है जिसने सर्वप्रथम शैतान वाली फ़िलास्फ़ी की समीक्षा करके अण्डबण्ड-पाखण्ड की पोल खोली।

‘जवाहिरे जावेद’ के छपने परः- देश की हत्या होने से पूर्व एक स्वाध्यायशील मुसलमान वकील आर्य सामाजिक साहित्य का बड़ा अध्ययन किया करता था। उस पर महर्षि के वैदिक सिद्धान्त का गहरा प्रभाव पड़ता गया परन्तु एक वैदिक मान्यता उसके गले के नीचे नहीं उतर रही थी। जब जीव व प्रकृति भी अनादि हैं, इन्हें परमात्मा ने उत्पन्न नहीं किया तो फिर परमात्मा इनका स्वामी कैसे हो गया? प्रभु जीव व प्रकृति से बड़ा कैसे हो गया? तीनों ही तो समान आयु के हैं। न कोई बड़ा और न ही छोटा है।

आचार्य चमूपति की मौलिक दार्शनिक कृति ‘जवाहिरे जावेद’ के छपते ही उसने इसे क्रय करके पढ़ा। पुस्तक पढ़कर वह स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पास आया। महाराज के ऐसे कई मुसलमान प्रेमी भक्त थे। उसने स्वामी जी से कहा कि आर्यसमाज की सब मान्यताएँ मुझे जँचती थीं, अपील करती थीं परन्तु प्रकृति व जीव के अनादि व का सिद्धान्त मैं नहीं समझ पाया था। पं. चमूपति जी की इस पुस्तक को पढ़कर मेरी सब शंकाओं का उ ार मिल गया।

मित्रो! कहो कि यह किस की दिग्विजय है। इसी के साथ यह बता दें कि दिल्ली के चाँदनी चौक बाजार में किसी गली में एक प्रसिद्ध मुस्लिम मौलाना महबूब अली रहते थे। मूलतः आप चरखी दादरी (हरियाणा) के निवासी थे। आपने भी यह अद्भुत पुस्तक पढ़ी। फिर आपने एक बड़ा जोरदार लेख लिखा। श्री सत्येन्द्र सिंह जी ने हमें उस लेख का हिन्दी अनुवाद करने की प्रेरणा दी। अब समय मिलेगा तो कर देंगे। इस लेख में पण्डित जी के एतद्विषयक तर्कों को पढ़कर मौलाना ने सब मौलवियों से कहा था कि यदि प्रकृति व जीव के अनादित्व को स्वीकार न किया जावे तो कुरान वर्णित अल्लाह के सब नाम निरर्थक सिद्ध होते हैं। मौलाना की यह युक्ति अकाट्य है। कैसे? अल्लाह के कुरान में ९९ नाम हैं यथा न्यायकारी, पालक, मालिक, अन्नधन (रिजक) देने वाला आदि। अल्लाह के यह गुण व नाम भी तो अनादि हैं। जब जीव नहीं थे तो वह किसका पालक, मालिक था? किसे न्याय देता था? प्रकृति उत्पन्न नहीं हुई थी तो जीवों को देता क्या था? तब वह स्रष्टा (खालिक) कैसे था? किससे सृजन करता था? मौलाना की बात का प्रतिवाद कोई नहीं कर सका। अब प्रबुद्ध पाठक निर्णय करें कि यह किस की छाप है? यह वैदिक दर्शन की विजय है या नहीं?

मरयम कुमारी थी क्या?ः- मुसलमान व ईसाई दोनों ही हज़रत ईसा का जन्म कुमारी मरयम से मानते आये हैं। अब विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रैण्ड रस्सल तथा सर सैयद की कोटि के विचारक ऐसा नहीं मानते। सर सैयद अहमद खाँ ने तो लाहौर के एक पठित मुस्लिम युवक के प्रश्न का उत्तर  देते हुए श्री ईसा के जन्म विषयक तर्क भी वही दिया जो पं. लेखराम जी ने कुल्लियात आर्य मुसाफिर में दिया है। अमेरिका से प्रकाशित एक पुस्तक में कई युवा पादरियों ने अनेक ऐसे-ऐसे वैदिक विचारों को स्वीकार किया है।

पुराण व्यासकृत नहींः हरिद्वार के सन् १८७९ के कुम्भ तक ऋषि विरोधियों का सबसे बड़ा सनातनी सेनापति पं. श्रद्धाराम फिलौरी था। वह ऋषि की शत्रुता में काशी वालों से भी तब तक कहीं आगे था। उसने लिखा है कि १८ पुराण व्यासकृत नहीं। यह सन्देश इस युग में सर्वप्रथम ऋषि ने सुनाया। यह छाप ऋषि की वैदिक विचारधारा की नहीं तो किसकी है?

वेद संहितायें चार ही हैंःपौराणिक तो उपनिषद् ब्राह्मण ग्रन्थ सबको वेद ही मानते थे। महर्षि का घोष था कि चार संहितायें ही ईश्वरीय वाणी हैं। त्रिवेदी और चतुर्वेदी ब्राह्मण तो पाये जाते हैं परन्तु कई विद्वानों को सात उपनिषदें कण्ठाग्र हैं फिर वे सप्तवेदी और आठ-दस उपनिषदों के विद्वान् अष्टवेदी, दशवेदी और एकदशवेदी क्यों नहीं? अमेरिका से प्रकाशित स्द्गष्ह्म्द्गह्ल ञ्जद्गड्डष्द्धद्बठ्ठद्दह्य शद्घ ञ्जद्धद्ग ङ्कद्गस्रड्डह्य के ईसाई लेखक ने तथा डॉ. अविनाशचन्द्र वसु सरीखे सब लेखकों ने चार संहिताओं को ही वेद माना है। यह किसके पुण्य प्रताप का फल है।

वेद के यौगिक अर्थः वेद भाष्यकारों को महर्षि ने आर्ष ग्रन्थों के आधार पर वेदभाष्य करने के लिये यौगिक अर्थों की कुञ्जी दी। ॥…….. पुस्तक के अमेरिकन लेखक ने भी डंके की चोट से महर्षि की वेदभाष्य की इस विधा को स्वीकार किया है। कौन है जो इस मूलभूत आर्ष मान्यता की इस दिग्विजय को महर्षि दयानन्द का विश्वव्यापी प्रभाव न मानेगा?

न्याय की रात या न्याय का दिनः ईसाई मुसलमान सभी प्रलय की रात (या दिन) को ईश्वरीय न्याय के सिद्धान्त को मानते आये हैं। इसी को अंग्रेजी में —— कहा जाता है। अब डॉ. गुलाम जेलानी की लोकप्रिय पुस्तकों में इस्लाम का नया दार्शनिक दृष्टिकोण सामने आया है। वह यह घोषणा कर रहे हैं कि अल्लाह ताला प्रतिपल न्याय करता है। जिसकी आँखें हैं वे देख रहे हैं कि सारे संसार पर ऋषि की दार्शनिक छाप का गहरा प्रभाव है। आर्यसमाज की वेदी से ही दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रचार बन्द होने से स्कूल खोले, नारी उद्धार किया, स्वराज्य के मन्त्र द्रष्टा की रट लगाने वालों के दुष्प्रचार को प्रमुखता मिलने से भ्रामक विचार फैल गया कि आर्यसमाज के दार्शनिक विचारों का संसार पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा।

टिप्पणी

. द्रष्टव्य सत्यामृतप्रवाह लेखक पं. श्रद्धाराम जी।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-१५२११६

अवतारवाद का अन्त होगा? रामनिवास गुणग्राहक

अवतारवाद की अनिष्टकारी कल्पना जिसने भी कभी की होगी, तब उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन कोई भी यूँ ही मुँह उठाकर स्वयं को परमात्मा का अवतार घोषित कर देगा। अवतारवाद की अवधारणा चाहे जब से चली हो, लेकिन प्रतीत होता है कि विगत ५०-६० वर्षों के कालखण्ड में इस अवतारवाद ने कुछ अधिक ही उन्नति कर ली है। एक समय था जबकि शंकराचार्य से लेकर सन्त तुलसी तक सब साधु-महात्मा भक्त बनकर ही आनन्द की अनुभूति कर लेते थे, स्वामी विवेकानन्द तक को भगवान बनने की न सूझी। आज की बात करें तो लगता है भक्त बनने में कोई अधिक सुख शेष नहीं रहा, जिसे देखो भगवान बनने में लगा हुआ है। सम्भवतः पुरानी पीढ़ी के धर्मशील लोगों को स्मरण हो कि सन् १९७० के आस-पास एक पूरा परिवार ही विभिन्न परमात्माओं का अवतार बनकर भक्त मण्डली की सर्वमनोकामनाएँ पूर्ण कर रहे थे। सन् १९५४ में एक व्यक्ति ने- ‘स्वामी हंस महाराज’ नाम रखकर स्वयं को श्री कृष्ण का अवतार घोषित कर दिया। इनकी पत्नी को ‘जगत् जननी’ की उपाधि मिल गई। इस जगत् -जननी ने चार पुत्रों को जन्म दिया और चारों ही अवतार बन गये। बड़ा पुत्र सत्यपाल- ‘बाल भगवान’ बनकर ‘सन्तलोक के स्वामी’ कहलाये। दूसरे महीपाल ‘शंकर के अवतार’ बनकर ‘भोले भण्डारी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। तीसरे धर्मपाल-प्रजापति ब्रह्म के अवतार बनकर भक्त मण्डली में चक्रवर्ती राजा के नाम से विख्यात हुए। सबसे छोटे प्रेमपाल ने स्वयं को ‘पूर्ण परमात्मा’ घोषित करके देश-विदेशों में मनमानी लीलाएँ कीं।

इनकी लीला स्थलियों में इंग्लैण्ड और अमेरिका का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। वैसे तो ये गोरे भक्त-भक्तिनों के साथ देश-विदेश में खूब आते-जाते रहते थे, लेकिन नवम्बर १९७२ में लगभग ९०० गौरांग भक्त-भक्तिनों के साथ पालम हवाई अड्डे पर उतरे तो स्वयं तो कुछ विशेष शिष्य-शिष्याओं के साथ राल्स रॉयस कार में निकल गए। इनका निजी सचिव बिहारीसिंह कस्टम अधिकारियों से सामान लेने गया तो कस्टम वालों ने एक बक्स की चाबी माँगी। चाबी तो पूर्ण परमात्मा ले उड़े थे, जब उनसे मँगाकर बॉक्स खोला गया तो उसमें दस लाख रुपये के सोना, हीरे व डॉलर आदि निकले। परमात्मा की चोरी पकड़ी गई। इतना ही नहीं एक वर्ष पूर्व १९७१ में इनके भक्तों ने भगवान की एक पत्रकार वार्ता रखी जिसमें आपने स्वयं को ‘पूर्ण परमात्मा’ कहते हुए यह भी घोषणा की कि ‘मैं हिन्दू नहीं हूँ।’ अगले दिन समाचार पत्रों में इस वार्ता का विवरण छापा तो नवभारत टाइम्स में छपे कुछ श     दों को लेकर इनके भक्त कुपित हो गये और नवभारत टाइम्स के कार्यालय पर पथराव किया जिसमें कई घायल हुए और एक सिपाही का प्राणान्त हो गया।

हमारे अवतारवादी बन्धु तो धन्य हो गये होंगे, इतने भगवानों को एक ही समय व एक ही परिवार में पाकर। पता नहीं क्यों सनातन धर्म वालों को यह सब अच्छा नहीं लगा। मेरठ के कट्टर सनातनधर्मी भक्त श्री रामशरण दास जी लिखते हैं- ‘भारत में लगभग ढ़ाई सौ से ऊपर अवतार हैं और मैं सैकड़ों से भेंट कर चुका हूँ….. जो अपने को भगवान श्री राम का अवतार तो कोई अपने को भगवान श्री कृष्ण का, कोई अपने को भगवान श्री शंकर का, तो कोई स्वयं को भगवती श्री दुर्गा का अवतार बता-बताकर डोल रहे हैं और लूट रहे हैं स्वयं पर ब्रह्म परमात्मा बनकर।….. हाय-हाय कैसे रक्षा होगी मेरे इस देश की? इस महान् परम पवित्र हिन्दू जाति की इन महान् कालनेमि पाखण्डी नकली अवतारों से?’ सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा पंजाब के महामन्त्री और केन्द्रीय सनातन धर्म सभा के मन्त्री स्वामी चरणदास जी महामण्ड़लेश्वर ने गाँधी मैदान में एक सार्वजनिक सभा के अध्यक्षीय भाषण में अपनी व्यथा प्रकट करते हुए कहा था- केवल दिल्ली में पिछले ८-१० वर्षों से १४ ढ़ोंगी व्यक्ति हिन्दुओं में बड़े हो गये हैं जो अपने को अवतार कहते हैं और हिन्दू धर्म पर कुठाराघात कर रहे हैं।

भक्त रामशरण दास जी- ‘धर्म कालनेमि पाखण्डी नकली अवतारों की चर्चा करते हैं। प्रश्न होता है कि क्या कोई असली अवतार भी होता है? क्या कोई भी सनातनधर्मी विद्वान्, साधु-संन्यासी या धर्माचार्य सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् आदि गुणों से युक्त परमात्मा का असली अवतार प्रमाणित कर सकता है? जब से हमारे कथित सनातनधर्मी सच में पुराणपन्थी धर्म गुरुओं ने पूर्ण परमात्मा को भौतिक शरीरधारी बना दिया, तब से इस अवतारवाद के पाखण्ड ने संसार के विभिन्न क्षेत्रों में ईश्वर पुत्रों, पीर-पैगम्बरों की एक नई शृंखला का बीजारोपण कर दिया यही बीजारोपण आज विकृति की सीमा पार करता हुआ कथित सन्त रामपालदास पर आकर पहुँच गया। अगर अब भी हमारे सनातनधर्मी इस पाखण्ड के विरुद्ध खड़े न हुए तो आगे चलकर इसका और भी कुत्सित चेहरा हमारे सामने आकर रहेगा। भर्तृहरि ने सच कहा है-

विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः।

अर्थात् विवेक भ्रष्ट व्यक्ति व समाज का हर दिशा व हर दृष्टि से पतन ही होता है। इस संसार का एक अनुभव सिद्ध सिद्धान्त है कि कोई वस्तु हमारे लिए जितनी उपयोगी, लाभदायक व कल्याणकारी होती है, उसका दुरुपयोग उतना ही घातक व अकल्याणकारी होता है। आयुर्वेद के ऋषि लिखते हैं-

प्राणाः प्राणभृतां अन्नं तद् अयुक्त्या निहन्ति असून्।

विषं प्राणहरं तत् च, युक्तियुक्तं रसायनम्।।

अर्थात् अन्न प्राण का भरण-पोषण करने वाला है। अन्न गलत ढंग से खाया जाये तो विष बनकर प्राणघातक बन जाता है और युक्तियुक्त ढंग से खाया जाये तो रसायन का काम करता है।

अन्न हमारे जीवन का आधार है- ‘अन्नं वै प्राणिनां प्राणः’, ‘अन्नं वै ब्रह्म तद् उपासीत्’ जैसे ऋषि वचन इसकी पुष्टि करते हैं। सोचने की बात है कि ऋषियों की दृष्टि में अन्न का दुरुपयोग प्राण-पोषण के स्थान पर प्राण-घातक परिणाम देता है। हम जाने-अनजाने में अन्न का दुरुपयोग करके अनेक प्रकार की भयंकर बीमारियों का शिकार होते रहते हैं। यही स्थिति धर्म और ईश्वर के सम्बन्ध में है। सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् परमात्मा को देह के बन्धन में डालकर, एक देशी बनाकर पिछले तीन-चार हजार वर्षों से हमारे धर्मगुरु, धर्माचार्य ईश्वर और धर्म का जो निजी स्वार्थों के लिए जो भयंकर दुरुपयोग कर रहे थे, उसका परिणाम तो आसाराम और रामपाल के रूप में आना ही था। सारे सनातनधर्मी कहलाने वाले हिन्दू पौराणिक यह बता दें कि श्रीराम और श्रीकृष्ण परमात्मा का अवतार हो सकते हैं तो आसाराम और रामपाल क्यों नहीं हो सकते? जब पुराणपन्थी बिना सिद्धान्त, बिना तर्क और बिना वेद शास्त्रों के प्रमाण दिये, श्री राम-श्री कृष्ण को परमात्मा का अवतार मानकर पूजा कर-करा सकते हैं तो कबीरपन्थी रामपाल को परमात्मा का अवतार मानकर क्यों नहीं पूज सकते?

हम यहाँ रामपाल और आसाराम की श्रीराम और श्री कृष्ण से तुलना नहीं कर रहे। निःसन्देह मर्यादा पुरुषो      ाम श्री राम और योगेश्वर श्री कृष्ण का जीवन पूर्णतः पवित्र था, वे हर दृष्टि से महापुरुष थे, हम सबके आदर्श थे। प्रश्न यह है कि क्या कोई शरीरधारी परमात्मा हो सकता है? अगर सच में एक घड़े या लोटे में समुद्र का सम्पूर्ण जल आ सकता है तो इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि घड़ा सोने का है या लोहे का। सृष्टि में सर्वत्र नियम-सिद्धान्त ही काम करते हैं, सिद्धान्ततः मनुष्य सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् आदि गुणों से युक्त नहीं हो सकता। निष्कर्षतः हम यह कहना चाहते हैं कि रामपाल और आसाराम का परमात्मा होना निश्चित रूप से एक बहुत बड़ा पाखण्ड है, अन्धविश्वास है तो श्री राम और श्री कृष्ण को परमात्मा का अवतार कहना-मानना भी बहुत बड़ा पाखण्ड और अन्धविश्वास है। हम सबको एक बात गाँठ बाँध लेनी चाहिये कि जब तक श्री राम और श्री कृष्ण आदि महापुरुषों को परमात्मा का अवतार मानकर पूजने, भक्ति करने के पाखण्ड को जीवित रखा जाएगा, तब तक देश और दुनियाँ से बाल योगेश्वर हंस, आसाराम और रामपाल जैसे पाखण्डियों की परम्परा को मिटाया नहीं जा सकेगा। बीज रहेगा तो बेल भी उगेगी-बढ़ेगी और उस पर फूल-फल भी लगेंगे जो आगे बीज भी पैदा करेंगे।

आर्यो! तनिक आप भी अपनी अकर्मण्यता-असफलता पर विचार करना सीख लो। ‘‘हम ये कर रहे हैं, हम वो कर रहे हैं।’’ कहकर अपनी पीठ थपथपाने वालो। ‘हम क्या नहीं कर पा रहे’ का भी कभी चिन्तन कर लिया करो। ऋषि दयानन्द और स्वामी श्रद्धानन्द के हृदय की आग की एक चिनगारी को अपने हृदय में सुलगने-धधकने का अवसर देकर देखो। वे कोई दूसरी दुनियाँ के पुरुष नहीं थे। इसी समाज और राष्ट्र की ऐसी ही परिस्थिति में पल-बढ़ कर उनका व्यक्ति  व बना था। उन्होंने जो कुछ लिया यही से लिया। समाज व राष्ट्र की लगभग ऐसी ही दुर्दशा तब थी, जिसे देखकर वे चैन की नींद तक नहीं ले पाते थे। एक हम हैं कि सब कुछ देख-सुनकर भी कबूतर की तरह आँख बन्द कर लेते हैं, शतुरमुर्ग की तरह धरती में मुँह धँसा लेते हैं- सोचते हैं संकट टल गया। आर्यो! हमारी अनदेखी से संकट टल जाता तो धरती तल पर कभी कोई समस्या, कोई संकट रहता ही नहीं। आप मानो या न मानो, सच यह है कि भारत की हर समस्या, हर संकट आर्यों के अनार्यपन की उपज हैं। ऋषि दयानन्द के अनुयायी कहलाने वाले सिद्धान्तहीन लोगों के कारण ही वेद विद्या के प्रचार-प्रसार का अभियान निष्प्राण होकर रह गया है। यह कोई छोटा अपराध नहीं है, आर्यो! अपने जीवन की उपल    िधयों का सच्चे हृदय से आंकलन करो। देखो कि हमने झूठे और खोखले मान-सम्मान के अलावा आर्यसमाज में आकर क्या पाया?

पत्थर जोड़ने (भवन बनाने) और पत्थरों पर नाम लिखाने से आगे बढ़कर जीवन-निर्माण के क्षेत्र में हमारी उपल  िध क्या रही? आर्यो! जीवन को घाटे का सौदा मत बनाओ, भवन-निर्माण से जीवन-निर्माण अधिक पुण्यप्रद कर्म है। देश में व्याप्त धार्मिक-पाखण्ड, अन्धविश्वास, भ्रष्टाचार, हिंसा, जातिगत विद्वेष और पारिवारिक बिखराव- उन सब रोगों की एक ही अमोघ औषधि है और वह है वेद विद्या का प्रचार-प्रसार। यह काम केवल और केवल आर्यसमाज ही कर सकता है। संकल्प लो कि हम स्वयं वेद पढ़ेंगे और वेद विद्या के प्रचार-प्रसार में ही अपना तन, मन, धन और समय लगायेंगे। ध्यान रखें जब तक हम स्वयं वेद पढ़ना प्रारम्भ नहीं करेंगे मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि तब तक हम वेद के लिए कुछ भी नहीं कर सकते। वेद प्रचार करने-कराने का दिखावा तो कोई भी कर सकता है, लेकिन सच्चे अर्थों में वेद विद्या के प्रचार-प्रसार में सक्रिय सहयोग व समर्थन देकर आर्य होने का सच्चा प्रमाण, सच्चा आदर्श वही प्रस्तुत कर सकता है जो स्वयं नित्य वेद स्वाध्याय करते हो। मित्रो! क्या आप वेद-स्वाध्याय का व्रत लेकर अपने व विश्व के कल्याण करने की दिशा में छोटा-सा दिखने वाला एक बड़ा कदम उठा रहे हो? यदि हाँ तो लेखक की हर्दिक शुभकामनाएँ सदा आपके साथ हैं, ईश्वर की कृपा, करुणा और दया सदैव आपका मार्ग प्रशस्त करें!!

– महर्षि दयानन्द स्मृति भवन, जोधपुर, राजस्थान

चलभाष– ०७५९७८९४९९१

डा अम्बेडकर का खंडन प. शिवपूजन सिंह कुशवाह द्वारा भाग २

पिछले लेख में शिवपूजन सिंह जी द्वारा अम्बेडकर साहब के अछूत कौन ओर केसे का खंडन हमने प्रकाशित किया था अब शुद्रो की खोज की उन बातो के खंडन का अंश जो अम्बेडकर जी ने वैदिक विचारधरा पर आक्षेप किया था उसका प्रत्युतर है |
डा. अम्बेडकर – पुरुष सूक्त ब्राह्मणों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रक्षिप्त किया है | कोल बुक का कथन है कि पुरुष सूक्त छंद तथा शैली में शेष ऋग्वेद से सर्वथा भिन्न है |अन्य भी विद्वानों का मत है कि पुरुष सूक्त बाद का बना है |
शिवपूजन सिंह जी – आपने जो पुरुष सूक्त पर आक्षेप किया है ये आपकी वेद की अनभिज्ञता प्रकट करता है |आधिभौतिक दृष्टि से चारो वर्णों के पुरुषो का समुदाय एक पुरुष रूप है | इस समदाय पुरुष या राष्ट्र पुरुष के यथार्थ परिचय के लिए पुरुष सूक्त के मुख्य मन्त्र -ब्राह्मणोंsस्य मुखमासीत …(यजु ३९/११)
पर विचार करना चाहिय | उक्त मन्त्र में कहा है ब्राह्मण मुख है, क्षत्रिय भुजाय, वैश्य जंघाए,शुद्र पैर ,,केवल मुख पुरुष नही ,भुजाय पुरुष नही ,जंघाए पुरुष नही ,पैर पुरुष नही अपितु मुख ,भुजाय ,जंघाए ,पैर इन सबका समुदाय पुरुष है | वह समुदाय भी यदि असंगत ,या क्रमरहित अवस्था में है तो उसे हम पुरुष नही कह सकते है | उसे पुरुष तभी कहेंगे जब वो एक विशेष प्रकार के क्रम में हो ओर विशेष प्रकार से संगठित हो |राष्ट्र में मुख के स्थापन ब्राह्मण है ,भुजाओं के क्षत्रिय ,जंघाओं के वैश्य ओर पैरो के शुद्र | राष्ट्र के ये चारो वर्ण जब शरीर के मुख आदि अवयवो की तरह व्यवस्थित ओर सुसंगत हो जाते है तभी इनकी पुरुष संज्ञा है | अव्यवस्थित तथा छीनभिन अवस्था में स्थित मनुष्य समुदाय को पुरुष नही पुकार सकते है | आधिभौतिक दृष्टि में यह सुव्यवस्थित तथा एकता के सूत्र में पिरोया हुआ ज्ञान ,क्षात्र , व्यवसाय तथा परिश्रम – मजदूरी इनका निर्दशक जनसमुदाय ही एक पुरुष रूप है |
चर्चित मन्त्र का मह्रिषी दयानद इस प्रकार अनुवाद करते है ” इस पुरुष की आज्ञा के अनुसार विद्या आदि उत्तम गुण तथा सत्य भाषण ओर सत्योपदेश आदि श्रेष्ट कर्मो से ब्राह्मण वर्ण उत्पन्न होता है |इन गुण कर्मो के सहित होने से वह पुरुष उत्तम कहलाता है और ईश्वर ने बल पराक्रमयुक्त आदि पूर्वोक्त गुणों से क्षत्रिय को उत्पन्न किया | इस पुरुष के उपदेश से खेती,व्यापर ओर सब देशो की भाषाओ को जानना तथा पशुपालन आदि मध्यम गुणों से वैश्य वर्ण सिद्ध होता है | जैसे पग सबसे नीचे का गुण है वैसे मुर्खता आदि गुणों से शुद्र वर्ण सिद्ध होता है |
आपका लिखना की पुरुष सूक्त बहुत बाद में वेदों में जोड़ दिया गया सर्वथा भ्रमपूर्ण है | चारो वेद ईश्वर का ज्ञान है पुरुष सूक्त बाद का नही है | मैंने अपनी पुस्तक ऋग्वेद के १० मंडल पर पाश्चताप विद्वानों का कुठाराघात में सम्पूर्ण ” पाश्चताय और प्राच्य विद्वानों का खंडन किया है |
डा. अम्बेडकर – शुद्र क्षत्रियो के वंशज होने से क्षत्रिय है | ऋग्वेद में सुदास, शिन्यु, तुरवाशा, त्र्प्सू , भरत आदि शुद्रो के नाम आये है |
प.शिवपूजन सिंह जी – वेदों के सभी शब्द यौगिक है रूढ़ नही | आपने ऋग्वेद में जिन नामो को प्रदर्शित किया है | वे ऐतिहासिक नाम नही है| वेद में इतिहास नही है क्यूंकि वेद सृष्टि के आरम्भ में दिया ज्ञान है|
डा.अम्बेडकर – छत्रपति शिवाजी शुद्र तथा राजपूत हूणों की सन्तान है |
प.शिवपूजन सिंह जी – शिवाजी शुद्र नही वरन क्षत्रिय थे | इसके लिए अनेको प्रमाण इतिहास में भरे पड़े है | राजस्थान के प्रख्यात इतिहासक ,महोपाध्याय डा. गौरी शंकर हरीचंद औझा लिखते है – मराठा जाति दक्षिणी हिन्दुस्तान की रहने वाली है | इनके प्रसिद्ध राजा क्षत्रपति शिवाजी का मूल मेवाड़ का सिसोदिया राज्य वंश ही है | कविराज श्यामलदासजी लिखते है कि -शिवाजी महाराणा अजयसिंह के वंश में थे | यहो सिद्धांत बालकृष्ण ,लिट् आदि का है | इसी प्रकार राजपूत हूणों की सन्तान नही शुद्ध क्षत्रिय थे | श्री चिंतामणी विनायक वेद्य ऍम ए ,श्री ई.बी.कावेल ,श्री शेरिंग, श्री वहीलर, श्री हंटर, श्री क्रुक ,पंडित नागेब्द्र भट्टाचार्य आदि विद्वान् राजपूतो को शुद्ध क्षत्रिय मानते है| प्रिवी कौंसिल ने निर्णय किया है कि जो क्षत्रिय भारत में रहते है और राजपूत एक ही श्रेणी के है |
इस तरह उन्होंने अपने खंडन अम्बेडकर जी को भी पंहुचाय लेकिन अम्बेडकर जी इसके ५ साल ओर ३ माह बाद चल बसे | उन्होंने इसका प्रत्युतर भी नही दिया ओर ना ही अपनी जिद्द के कारण अपनी उन दोनों किताबो में कोई परिवर्तन किया |

डा . अम्बेडकर का खंडन प. शिवपूजन सिंह कुशवाह (आर्य समाज ) द्वारा

डा . शिवपूजन सिंह जी आर्य समाज के एक उत्क्रष्ट विद्वान् थे तथा अच्छे वैदिक सिद्धांत मंडन कर्ता थे | उन्होंने अम्बेडकर जी की दो किताब शुद्रो की खोज ओर अच्छुत कौन ओर केसे की कुछ वेद विरुद्ध विचारधारा का उन्होंने खंडन किया था | ये उन्होंने अम्बेडकर जी के देह्वास के ५ साल पूर्व भ्रान्ति निवारण एक १६ पृष्ठीय आलेख के रूप में प्रकाशित किया ओर अम्बेडकर साहब को भी इसकी एक प्रति भेजी थी | हम यहा उसके कुछ अंश प्रस्तुत करते है –
डा. अम्बेडकर – आर्य लोग निर्विवाद से दो संस्कृति ओर दो हिस्सों में बटे थे जिनमे एक ऋग्वेद आर्य ओर दुसरे यजुर्वेद आर्य थे ,जिनके बीच बहुत बड़ी सांस्कृतिक खाई थी | ऋग्वेदीय आर्य यज्ञो में विश्वास करते थे ओर अर्थ्व्वेदीय जादू टोनो में |
प. शिव पूजन सिंह जी – दो आर्यों की कल्पना आपके ओर आप जेसे कुछ मष्तिस्क की उपज है ,ये केवल कपोल कल्पना ओर कल्पना विलास है केवल | इसके पीछे कोई एतिहासिक प्रमाण नही है | कोई एतिहासिक विद्वान् भी इसका समर्थन नही करता है | अर्थववेद में किसी प्रकार का जादू टोना नही है |
डा. अम्बेडकर – ऋग्वेद में आर्य देवता इंद्र का सामना उसके शत्रु अहि वृत्र (सर्प देवता ) से होता है ,जो कालान्तर में नाग देवता के नाम से प्रसिद्ध हुआ |
प.शिव पूजन सिंह जी – वैदिक संस्कृत ओर लौकिक संस्कृत में रात दिन का अंतर है | यहा इंद्र का अर्थ सूर्य ओर वृत्र का अर्थ मेघ है यह संघर्स आर्य देवता ओर नाग देवता का न हो कर सूर्य ओर मेघ का है | वैदिक शब्दों के पीछे नेरुक्तिको का ही मत मान्य होता है नेरुक्तिक प्रक्रिया से अनभिज्ञ होने के कारण आपको यह भ्रम हुआ |
डा. अम्बेडकर – महोपाध्याय डा. काणे का यह मत है कि – ” गाय की पवित्रता के कारण ही वाजसेनी संहिता में गौ मॉस भक्षण की प्रथा थी |
प.शिवपूजन सिंह जी – काणे जी ने कोई प्रमाण नही दिया है ओर न ही आपने यजुर्वेद पढने का कष्ट उठाया | जब आप यजुर्वेद का स्वाध्याय करेंगे तो स्पष्ट आपको गौ वध निषेध के प्रमाण मिलेंगे |
डा. अम्बेडकर – ऋग्वेद से ही स्पष्ट है कि तत्कालीन आर्य गौ वध करते थे ओर गौ मॉस भक्षण करते थे |
प. शिवपूजन सिंह जी – कुछ प्राच्य एवम पश्चमी विद्वान् आर्यों पर गौ मॉस भक्षण का दोषारोपण करते है किन्तु कुछ विद्वान् इस मत का खंडन भी करते है | वेद में गौ मॉस भक्षण का विरोध करने वाले २२ विद्वानों का मेरे पास स सन्धर्भ प्रमाण है | ऋग्वेद में आप जो गौ मॉस भक्षण का विधान आप कह रहे है वो लौकिक संस्कृत ओर वैदिक संस्कृत से अनभिज्ञ होने के कारण कह रहे है | जेसे वेद में उक्ष बल वर्धक औषधि का नाम है भले ही लौकिक अर्थ उसका बैल ही क्यूँ न हो |
डा. अम्बेडकर – बिना मॉस के मधु पर्क नही हो सकता है | मधुपर्क में मॉस और विशेष रूप से गौ मॉस एक आवश्यक अंश होता है |
प.शिवपूजन सिंह जी – आपका यह विधान वेद पर नही अपितु गृहसूत्रों पर आधारित है | गृहसूत्रों के वचन वेद विरोध होने से मान्य नही है | वेद को स्वत: प्रमाण मानने वाले मह्रिषी दयानद के अनुसार – दही में घी या शहद मिलाना मधुपर्क कहलाता है | उसका परिमाण १२ तौले दही में ४ तौले शहद या घी मिलाना है |
डा. अम्बेडकर – अतिथि के लिए गौ हत्या की बात इतनी समान्य हो गयी थी कि अतिथि का नाम ही गौघन पड़ गया था अर्थात गौ की हत्या करने वाला |
Image result for अम्बेडकर
प. शिवपूजन सिंह जी – ” गौघ्न”का अर्थ गौ की हत्या करने वाले नही है | यह शब्द गौ और हन दो के योग से बना है | गौ के अनेक अर्थ है – वाणी,जल ,सुखविशेष ,नेत्र आदि | धातुपाठ में मह्रिषी पाणिनि हन का अर्थ गति ओर हिंसा बतलाते है | गति के अर्थ है – ज्ञान ,गमन ,प्राप्ति | प्राय सभी सभ्य देशो में जब कभी किसी के घर अतिथि आता है तो उसके स्वागत करने के लिए ग्रह पति घर से बहार आते हुए कुछ गति करता है ,उससे मधुर वाणी में बोलता है | फिर उसका जल से स्वागत करता है , फिर उसके लिए कुछ अन्य सामग्री प्रस्तुत करता है ,यह जानने के लिए की प्रिय अतिथि इन सत्कारो से प्रसन्न है या नही गृहपति की आँखे भी उसकी ओर टकटकी लगाये होती है | गौघ्न  का अर्थ हुआ – गौ: प्राप्यते दीयते यस्मै स गौघ्न: अर्थत जिसके लिए गौदान दी जाती है , वह गौघ्न कहलाता है |
डा. अम्बेडकर- हिन्दू चाहे ब्राह्मण हो या अब्राह्मण ,न केवल मासाहारी थे अपितु गौमासाहार भी थे |
प.शिवपूजन सिंह जी -ये बात आपकी भ्रम है , वेदों में गौ मॉस भक्षण का विधान की बात जाने दीजिये मॉस भक्षण भी नही है |
डा. अम्बेडकर – मनु ने भी गौ हत्या पर कोई कानून नही बनाया बल्कि विशेष अवसरों पर उसने गौ मॉस भक्षण को उचित ठहराया है |
प.शिवपूजन सिंह जी – मनु स्मृति में कही भी मॉसभक्षण का विधान नही है ओर जो है वो प्रक्षिप्त है | आपने भी इस बात का कोई प्रमाण नही दिया की मनु ने कहा पर गौ मॉस भक्षण उचित ठहराया है | मनु (५/५१) के अनुसार मॉस खाने वाला ,पकाने वाला ,क्रय ,विक्रय करने वाला इन सबको घातक कहा है |
ये उपरोक्त खंडन के कुछ अंश थे इसमें पूर्व पक्ष अम्बेडकर का अछूत कौन ओर कैसे से था |
अब इस लेख का अगला अंश दूसरी पोस्ट में प्रसारित किया जाएगा जिसमे शिवपूजन सिंह जी द्वारा अम्बेडकर जी की शुद्र कौन पुस्तक के खंडन का कुछ अंश होगा |

ब्रह्मकुमारी का सच : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा मैं परोपकारी का लगभग ३० वर्षों से नियमित पाठक हूँ। आपसे मैं आशा करता हूँ कि तथाकथित असामाजिक तत्वों  व संगठनों द्वारा आर्यसमाज व महर्षि दयानन्द की विचारधारा पर किए जा रहे हमलों व षड्यन्त्रों का आप जवाब ही नहीं देते, उन्हें शास्त्रार्थ के लिए चुनौती देने में भी सक्षम हैं। ऐसी मेरी मान्यता है। ऐसे ही एक पत्र मेरे (आर्यसमाज सोजत) पते पर दुबारा डाक से प्राप्त हुआ है। इस पत्र की फोटो प्रति मैं आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह पत्र ब्रह्माकुमारी संस्था से जुड़ा किसी व्यक्ति का है, मैंने उससे फोन पर बात भी की है तथा उसे कठोर शब्दों  में आमने-सामने बैठकर चर्चा के लिए चुनौती दी है। परन्तु फोन पर उसने कोई जवाब नहीं दिया।

आपकी जानकारी हेतु पत्र की फोटो प्रति पत्र के साथ संलग्न है। पत्र लिखने वाले ने नीचे अपना नाम के साथ चलभाष संख्या भी लिखी है। कृपया आपकी सेवा में प्रस्तुत है –

धर्माचार्य जानते हैं कि वे भगवान् से कभी नहीं मिले, वे यह भी जानते हैं कि वेदों शास्त्रों द्वारा भगवान् को नहीं जाना जा सकता, फिर यह किस आधार से भगवान् को सर्वव्यापी कहते हैं? कुत्ते  बिल्ली में भी भगवान् हैं, ऐसा कहकर, भगवान् की ग्लानि क्यों करते हैं? यदि इन्हें कोई कुत्ता कहे तो कैसा लगेगा? धर्माचार्य यह भी कहते हैं कि सब ईश्वर इच्छा से होता है। जरा सोचे! कि क्या छः माह की बच्ची से बलात्कार, ईश्वर इच्छा से होता है? क्या यही है ईश्वर इच्छा? अरे मूर्खों, निर्लज्जों, राम का काम, रामलीला करना है या रावण लीला? राम की आड़ में रावण लीला करने वाले राक्षसों, सम्भल जाओ, क्योंकि राक्षसों से धरती को मुक्त कराने राम आए हैं।

-अर्जुन, दिल्ली, मो.-०९२१३३२४१३४

– हीरालाल आर्य, मन्त्री आर्यसमाज सोजत नगर, जि. पाली, राज.-३०६१०४

समाधान वर्तमान में भारत देश के अन्दर हजारों गुरुओं ने मत-सम्प्रदाय चला रखे हैं, जो कि प्रायः वेद विरुद्ध हैं। ईसाई, मुस्लिम, जैन, बौद्ध, नारायण सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, राधास्वामी, निरंकारी, धन-धन सतगुरु (सच्चा सौदा), हंसा मत, जय गुरुदेव, सत्य साईं बाबा, आनन्द मार्ग, ब्रह्माकुमारी आदि मत ये सब वेद विरोधी हैं। सबके अपने-अपने गुरु हैं, ये सम्प्रदायवादी ईश्वर से अधिक मह    व अपने सम्प्रदाय के प्रवर्तक को देते हैं, वेद से अधिक मह व अपने सम्प्रदाय की पुस्तक को देते हैं।

आपने ब्रह्माकुमारी के विषय में जानना चाहा है। ब्रह्माकुमारी मत वाले हमारे प्राचीन इतिहास व शास्त्र के घोर शत्रु हैं। इस मत के मानने वाले १ अरब ९६ करोड़ ८ लाख, ५३ हजार ११५ वर्ष से चली आ रही सृष्टि को मात्र ५ हजार वर्ष में समेट देते हैं। ये लाखों वर्ष पूर्व हुए राम आदि के इतिहास को नहीं मानते हैं। वेद आदि किसी शास्त्र को नहीं मानते, इसके प्रमाण की तो बात ही दूर रह जाती है। वेद में प्रतिपादित सर्वव्यापक परमेश्वर को न मान एक स्थान विशेष पर ईश्वर को मानते हैं। अपने मत के प्रवर्तक लेखराम को ही ब्रह्मा वा परमात्मा कहते हैं।

इनके विषय में स्वामी विद्यानन्द जी ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ भास्कर में विस्तार से लिखा है, उसको हम यहाँ दे रहे हैं।

‘‘ब्रह्माकुमारी मत- दादा लेखराज के नाम से कुख्यात खूबचन्द कृपलानी नामक एक अवकाश प्राप्त व्यक्ति ने अपनी कामवासनाओं की तृप्ति के लिए सिन्ध में ओम् मण्डली नाम से एक संस्था की स्थापना की थी। सबसे पहले उसने कोलकाता से मायादेवी नामक एक विधवा का अपहरण किया। उसी के माध्यम से उसने अन्य अनेक लड़कियों को अपने जाल में फंसाया। इलाहाबाद के एक साप्ताहिक के द्वारा पोल खुलने पर सन् १९३७ में लाहौर में रफीखां पी.सी.एस. की अदालत में मुकदमा चला। मायादेवी ने अपने बयान में बताया कि ‘‘गुरु जी ने हमसे कहा कि तुम जनता में जाकर कहो कि मैं गोपी हूँ और ये भगवान् कृष्ण हैं। मैं बड़ी पापिनी हूँ। मैंने कितनी कुँवारी लड़कियों को गुमराह किया है। कितनी ही बहनों को उनके पतियों से दूर किया है……’’ (आर्य जगत् जालन्धर २३ जुलाई १९६१)। कलियुगी कृष्ण ने अदालत में क्षमा मांगी और भाग निकला। १३ अगस्त, १९४० में उसने बिहार में डेरा डाल दिया। चेले-चेलियाँ आने लगे। एक दिन एक बूढ़े हरिजन की युवा पत्नी धनिया को लेकर भाग खड़े हुए। फिर मुकदमा चला। धनिया ने अपने बयान में कहा- ‘‘इस गुरु महाराज ने हमें कहा था कि मैं आपका पति हूँ। ब्रह्माजी ने मुझे आपके लिए भेजा है।’’ इसी प्रकार नाना प्रकार के अनैतिक कर्म करते हुए दादा लेखराम हैदराबाद (सिन्ध) में जम गये और देवियों को गोपियाँ बनाकर रासलीलाएँ रचाने लगे। रासलीला की ओर से होने वाले व्यभिचार का पता जब प्रसिद्ध विद्वान्, ओजस्वी वक्ता और समाजसेवी साधु टी.एल. वास्वानी को चला तो वे उसके विरुद्ध मैदान में कूद पड़े। इससे सामान्यतः देशभर में और विशेषतः सिन्ध में तहलका मच गया। ओम् मण्डली के काले कारनामे खुलकर सामने आने लगे। यहाँ पर भी मुकदमा चला। पटना के ‘योगी’ पत्र से ‘सरस्वती’ (भाग ३९, संख्या खण्ड ६१, मई १९३८) का यह विवरण द्रष्टव्य है- ‘‘ओम् मण्डली पर पिकेटिंग शुरू हो गई है। सी.पी.सी. की धारा १०७ के अनुसार सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पिकेटिंग करवाने वालों के साथ ओम् मण्डली के संस्थापक और चार अन्य सदस्यों पर मुकदमा चल रहा है।’’ दादा लेखराज को कारावास का दण्ड मिला।

भारत विभाजन के बाद से ब्रह्माकुमारी मत का मुख्यालय आबू पर्वत पर है। जनवरी १९६९ में दादा लेखराज की मृत्यु के बाद से दादी के नाम से चर्चित प्रकाशमणि इस सम्प्रदाय की प्रमुख रही हैं। वर्तमान में इस संस्था या सम्प्रदाय की लगभग दो हजार से अधिक शाखाएँ संसार के अनेक देशों में स्थापित हैं। मैट्रिक तक पढ़ी प्रकाशमणि आबू से विश्वभर में फैले अपने धर्म साम्राज्य का संचालन करती रही। समस्त साधक या साधिकाएँ, प्रचारक या प्रचारिकाएँ ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी कहाती हैं। प्रचारिकाएँ प्रायः कुमारी होती हैं। विवाहित स्त्रियाँ अपने पतियों को छोड़कर या छोड़ी जाकर इस सम्प्रदाय में साधिकाएँ बन सकती हैं। ये भी ब्रह्माकुमारी ही कहाती हैं। पुरुष, चाहे विवाहित अथवा अविवाहित, ब्रह्मकुमार ही कहाते हैं। ब्रह्माकुमारियों के वस्त्र श्वेत रेशम के होते हैं। …..प्रचारिकाएँ विशेष प्रकार का सुर्मा लगाती हैं, जो इनकी सम्मोहन शक्ति को बढ़ाने में सहायक होता है। सात दिन की साधना में ही वे साधकों को ब्रह्म का साक्षात्कार कराने का दावा करती हैं।

अनुभवी लोगों के अनुसार –

‘तप्तांगारसमा नारी घृतकुम्भसमः पुमान्’

अर्थात् स्त्री जलते हुए अंगारे के समान और पुरुष घी के घड़े के समान है। दोनों को पास-पास रखना खतरे से खाली नहीं है। गीता में लिखा है-

यततो ह्यापि कौन्तये पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।

अर्थात् यत्न करते हुए विद्वान् पुरुष के मन को भी इन्द्रियाँ बलपूर्वक मनमानी की ओर खींच ले जाती हैं। भर्तृहरि ने कहा है-

विश्वामित्र पाराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि

स्त्रीमुखपङ्कजे सुललितं दृष्ट्वैव मोहंगता।

अन्नं घृतदधिपयोयुतं भुञ्जति ये मानवाः,

तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरम्।।

अर्थात्- विश्वामित्र, पाराशर आदि महर्षि जो प ाों, वायु और जल का ही सेवन करते थे, वे भी स्त्री के सुन्दर मुखकमल को देखते ही मुग्ध हो गये थे। फिर घी, दुग्ध, दही आदि से युक्त अन्न खाने वाले मनुष्य यदि इन्द्रियों को वश में कर लें तो विन्ध्यपर्वत समुद्र में तैरने लगे।

इसलिए भगवान् मनु ने एकान्त कमरे में भाई-बहन के भी सोने का निषेध किया है।

वस्तुतः ब्रह्माकुमारों और कुमारियों का समागम मध्यकालीन वाममार्गियों के भैरवी चक्र जैसा ही प्रतीत होता है। दादा लेखराज तो ब्रह्माकुमारियों के साथ आलिंगन करते, मुख चूमते तथा…..। भक्तों का कहना है कि ब्रह्माकुमारियाँ तो उनकी पुत्रियों के समान हैं और दादा उनके पिता के समान। जैसे बच्चे उचक कर पिता की गोद में जा बैठते हैं, वैसे ही ब्रह्माकुमारियाँ दादा लेखराज की गोद में जा बैठती थीं और वे उन्हें पिता के  समान प्यार  करते थे।

बिठाकर गोद में हमको बनाकर वत्स सेते हैं, जरा सी बात है।

बनाने को हमें सच्चा समर्पण माँग लेते हैं।

हमें स्वीकार कर वस्तुतः सम्मान देते हैं।

लोकलाज कुल मर्यादा का, डुबा चलें हम कूल किनारा।

हमको क्या फिर और चाहिए, अगर पा सकें प्यार तुम्हारा।।

– भगवान् आया है, पृ. ५०, ५१, ६९

इनके धर्मग्रन्थ ‘सच्ची गीता’ पृष्ठ ९६ पर लिखा है-

‘‘बड़ों में भी सबसे बड़ा कौन है, जो सर्वोत्तम ज्ञान का सागर और त्रिकालदर्शी कहा जाता है। मेरे गुण सर्वोत्तम माने जाते हैं। इसलिए मुझे पुरुषो      ाम कहते हैं।’’

पुरुषो      ाम श द की दो निरुक्तियाँ होती हैं- एक है-

‘पुरुषेषु उ       ामः इति पुरुषो ामः।’

जो व्यक्ति परस्त्रियों के साथ रमण करता है, उन्हें अपनी गोद में बैठाता है और उनके….. उसे इन अर्थों में तो पुरुषो    ाम नहीं कहा जा सकता।

दूसरी निरुक्ति-

‘पुरुषेषु ऊतस्तेषु उ  ाम इति पुरुषो ामः’

के अनुसार दादा लेखराज को पुरुषो  ाम मानने में किसी को कोई आप      िा नहीं होनी चाहिए।

आश्चर्य की बात है कि अपनी सभाओं और सम्मेलनों में देश-परदेश के राजनेताओं, शासकों, न्यायाधीशों, पत्रकारों, शिक्षा शास्त्रियों तक को आमन्त्रित करने वाली ब्रह्माकुमारी संस्था मूल सिद्धान्तों, दार्शनिक मान्यताओं तथा कार्यकलापों को ये अभ्यागत लोग नहीं जानते। हो सकता है, वे ब्रह्माकुमारियों के….. खिंचे चले आते हों। आज तक निश्चित रूप से यह पता नहीं चल सका कि इस संस्था के करोड़ों रुपये के बजट को पूरा करने के लिए यह अपार राशि कहाँ से आती है। कहा जाता है कि ब्रह्माकुमारियाँ ही अपने घरों को लूट कर लाती हैं। पर उतने से काम बनता समझ में नहीं आता। कुछ स्वकल्पित चित्रों और चार्टों तथा रटी-रटाई श     दावली में अपने मन्तव्यों का परिचय देने वाली ब्रह्माकुमारियाँ और ब्रह्मकुमार राजयोग, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण, गीता आदि की बातें तो करते हैं, परन्तु सुपठित व्यक्ति जल्दी ही भाँप जाता है कि महर्षि पतञ्जलि द्वारा प्रतिपादित राजयोग तथा व्यासरचित गीता का तो ये क, ख, ग भी नहीं जानते। ये विश्वशान्ति और चरित्र निर्माण के लिए आडम्बरपूर्ण आयोजन करते हैं, शिविर लगाते हैं, कार्यशालाएँ संचालित करते हैं, किन्तु उनमें से किसी का भी कोई प्रतिफल दिखाई नहीं देता।’’

पाठक, ब्रह्माकुमारी के मूल संस्थापक के चरित्र को इस लेख से जान गये होंगे, आज के रामपाल और उस समय के लेखराज में क्या अन्तर है? आर्यसमाज सदा से ही गलत का विरोधी रहा है, आज भी है। ब्रह्माकुमारी वाले अपने मूल सिद्धान्तों के लिए आर्यसमाज से चर्चा वा शास्त्रार्थ करना चाहे, तो आर्यसमाज सदा इसके लिए तैयार है।

आपने जो इनका पत्र संकलित कर भेजा है उसी से ज्ञात हो रहा है कि ये वेद-शास्त्र के निन्दक व वेदानुकूल ईश्वर को न मानने वाले हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

आखिर क्या है वैलेंटाइन डे? शिवदेव आर्य

images

 

 

भारतीय संस्कृति एवं परम्परा को समाज में इस प्रकार तोड़ा जा रहा है जिसका कोई बखान नहीं कर सकता और यदि लेखनी भारतीयता की व्यथा को व्यक्त करने की कोशिश भी करे तो उसे चारों ओर से कुचलने का प्रयास किया जाता है। पुनरपि ये लेखनी अपने कतव्र्य को कैसे भूल सकती है। ये तो अपने कर्म के प्रति सदैव कटिबद्ध रहती है। इसी लिए इसे ब्राह्मण की गौ कहा गया है अर्थात् ब्राह्मण की वाणी। ब्राह्मण को वेद सदैव आदेश देता है कि तू अपने कर्तव्य (जागृति) का विस्तार सदा करता रहे। जब-जब भी समाज में अन्धकार का वर्चस्व फैला है तब-तब लेखनी ने सूर्य के अद्वितीय प्रकाश के समान अन्धकार का दमन किया है।

आज भी कुछ इसी प्रकार हो रहा है। सभी को घोर अन्धकार ने इसप्रकार घेर लिया है जैसे किसी व्यक्ति के पास अपनी श्रेष्ठ वस्तु है किन्तु वह दूसरे की तुच्छ वस्तु से इतना आकृष्ट हो जाता है कि अपनी श्रेष्ठ वस्तु को भूला देता है।

हमारे देश में ऋतुओं के अनुसार पर्व तथा उत्सव मनाने की अद्वितीय परम्परा है । वसन्त पंचमी, मकर संक्रान्ति, माघ पूर्णिमा, श्रावणी उपाक्रम, होलिकोत्सव, दीपोत्सव आदि अनेक पर्व इस देश में एक नवीन ऊर्जा का संचार करते है किन्तु दुर्भाग्य है इस भारतवर्ष की युवा पीढ़ी का, जिसने अपने ऊर्जावान् पर्वों को भूला दिया और पाश्चात्य पर्वों को मनाने की प्रथा शुरू कर दी। पाश्चात्य देशों में उन पर्वों को मनाने के पीछे कोई न कोई कारण जरुर रहा होगा, जिसकी वहां आवश्यकता होगी। किन्तु बिना किसी कारण को जाने हमारे भारतवासी भाई लोग इन पर्वों को अपनी मन-मर्जी से मनाते हैं। मनाने के साथ-साथ कभी यह भी विचार नहीं करते कि हम जो ये पर्व मना रहे है, इसका उद्देश्य क्या है? क्या लाभ होगें? इत्यादि।

वैलेंटाइन डे, फ्रैंडशिप डे आदि अनेक पाश्चात्य पर्वों को मनाने के लिए हम सदैव उद्यत रहते हैं किन्तु अपने पर्वों को मनाने के लिए जगाना पड़ता है, शोभायात्राएं निकालनी पड़ती हैं, लोगों को भारतीय पर्वों की ओर आकृष्ट करने के लिए प्रलोभन दिये जाते हैं। फिर भी भारतीय पर्वों के प्रति निराशा भरा वातावरण चहु ओर दृष्टिगोचर होता है।

अभी हाल में ही फरवरी मास में युवाओं को अपनी ओर सर्वाधिक आकृष्ट करने वाला पाश्चात्य सभ्यता का पर्व वैलेंटाइन डे आ रहा है। जिस पर्व के सत्यार्थ को न समझ लोग मौज-मस्ती में निमग्न हो सब कुछ गलत कर बैठते है। बिना शादी-सुदा हुए ही भोग-विलासता की सभी हदें पार कर देते हैं। आखिर क्या कारण है, जो इस पर्व को मनाया जाता है? इसके पीछे क्या रहस्य छिपा हुआ है? क्योंकि पर्व मनाने के पीछे कोई न कोई उद्देश्य एवं रहस्य अवश्य छिपा होता है। इस वैलेंटाइन डे की भी बहुत लम्बी कहानी है।

सुहृद पाठकों!

आज से कई वर्षों पूर्व यूरोप की दशा वर्तमान यूरोप से बहुत निम्नस्तर की थी। यूरोप में पहले शादियां नहीं होती थी। लोग रखैलों में विश्वास रखते थे। पूरे यूरोप भर मे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिल सकता, जिसकी एक शादी हुई हो अथवा जिसका एक स्त्री के साथ सम्बन्ध रहा हो। ये परम्परा उनके यहां आज से ही प्रचलित नहीं है अपितु कई हजार वर्षों से  यही होता चला आ रहा है। यूरोप के बड़े-बडे़ लेखक, विचारक तथा दार्शनिक भी इन्हीं परम्पराओं में संलिप्त थे। वे भी  ऐसे ही मौज-मस्ती भरे जीवन को जीना पसन्द करते थे। प्लूटो जैसा दार्शनिक भी एक स्त्री से सम्बन्ध नहीं रखता प्रत्युत अनेक स्त्रीयों से  रखता था। प्लूटो खुद इस बात को इस प्रकार लिखता है कि  ‘ मेरा 20-22 स्त्रीयों से सम्बन्ध रहा है।’ अरस्तु, रुसो आदि पाश्चात्य विचारक इसी प्रकार के थे। इन सभी पाश्चात्य दार्शनिकों ने हैवानियत की सभी हदें पार करते हुए मातृतुल्य पूजनीय स्त्रीयों के सन्दर्भ में एकमत होकर कहते हैं कि- ‘ स्त्री में तो आत्मा होती ही नहीं है। स्त्री तो मेज और कुर्सी के समान है, जब पुरानी से मन भर जाये तो नयी का प्रयोग करो’।

ऐसी घृणित मान्यता को देख कई बार लोगों का पत्थर दिल भी पिघल कर विद्रोह की भावना को जन्म देता है। ऐसे अनेक यूरोपियन हुए जिन्होंने बीच-बीच में इस प्रचलन का विरोध किया। ऐसे ही विरोधियों में एक वैलेंटाइन नामक  व्यक्ति भी था। जिसने इस कुप्रथा के प्रति आवाज उठायी। उसका कहना था कि हम लेग जो शारीरिक सम्बन्ध रखते हैं, वह  कुत्तों की तरह, जानवरों की तरह का है, ये अच्छा व्यवहार नहीं है। इससे शारीरिक रोग होते हैं। इसका सुधार करो, एक पति एक पत्नी के साथ विवाह करके ही रहे, विवाह के बाद ही शारीरिक सम्बन्धों को स्थापित करें। ऐसी बातों को वैलेंटाइन ने घूम-घूम कर लोगों को बताया और लोग भी जागृत हुए।संयोगवश वह एक चर्च के पादरी बन गये। चर्च में आने वाले प्रत्येक नागरिक को ऐसी ही सलाह देने लगे तो लोग प्रायः पूछ लेते कि आप ऐसा क्यों कर रहे हो? अपनी परम्पराओं को क्यों तोड़ना चाहते हो? दोष युक्त होने पर भी अपनी संस्कृति तो अच्छी होती है, पुनरपि आप ये सब क्यों कर रहे हो? इसके उत्तर में वह कहते कि आज-कल मैं भारतीय सभ्यता और दर्शन का अध्ययन कर रहा हूं और मुझे लगता है कि भारतीय सभ्यता तथा भारतीय जीवन श्रेष्ठ हैं और इसे स्वीकार करने में कोई हनि भी नहीं है। इसीलिए आप लोग मेरी बात को स्वीकार करो, कुछ लोग उनकी उस बात को स्वीकार करते और कुछ लोग अस्वीकार कर देते। धीरे-धीरे चर्च में ही शादीयां कराने लगे। सैकड़ों की संख्या में शादी होने लग गई तथा अनेक लोग इस घृणित कार्य से रुक गये। वैलेंटाइन के इस कार्य की सूचना पूरे रोम में जगह-जगह होने लगी। धीरे-धीरे ये बात रोम के राजा क्लौड़ीयस तक भी पहुंच गयी। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। राजा ने तुरन्त वैलेंटाइन को बुलाकर कहा कि – तुम ये क्या गलत काम कर रहे हो? तुम अधर्म क्यों फैला रहे हो? अपसंस्कृति को अपना रहे हो? हम बिना शादी के रहने वाले लोग हैं, मौज-मस्ती में डूबे रहने वाले लोगों को तू बन्धन में बांधना चाहते हो, ये सब गलत है। वैलेंटाइन ने कहा – महाराज! मुझे लगता है कि ये ठीक नहीं है। ये बोलते ही राजा ने एक न सुनी और तुरन्त ही उसे फांसी की सजा सुना दी। क्लौड़ीयस ने उन सब को बुलाया, जिनकी वैलेंटाइन ने शादी करायी थी।

14 फरवरी 498 ई.वी को खुले मैदान में, सार्वजनिक रूप से वैलेंटाइन को सजा दे दी गई। जिन लोगों की वैलेंटाइन ने शादी करायी थी, वो लोग बहुत दुःखी हुए, इसी दुःख की याद में वैलेंटाइन डे मनाना शुरु हुआ।

आज ये वैलेंटाइन डे भारत में भी आ गया है पर ये बिल्कुल विपरीत है। जिस भारतवर्ष को वैलेंटाइन ने एक आदर्शवादी देश के रूप में स्वीकार कर अपने देश को भी उसी प्रकार बनाने का विचार किया था। जिस देश में शादी होना एक मान्य बात है, आज वहीं बिना शादी के घुमना तो एक आमबात (सामान्य) है। कहां हम किसी के आदर्शवादी थे और आज हम अपने देश को उसी गर्त में ले जाना चाह रहे हैं, जिस  गर्त से वैलेंटाइन अपने देश को बचाना चाहता है।

भारतीय लोग पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण मात्र ही नहीं कर रहे अपितु उसका अन्धानुकरण कर रहे हैं। वैलेंटाइन डे का यह दिवस बड़ा विचित्र है। जो दिवस उस पाश्चात्य महापुरुष के दुःख के रूप में स्वकीर किया जाता है। आज वही दिवस उसके सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीति होता जा रहा है। भारतवर्ष में शादी के पवित्र बन्ध को तोड़ने के लिए इस दिवस को मनाया जाता है।

अब ये वैलेंटाइन हमारे स्कूलों, काॅलेजों व विश्वविद्यालयों में आ गया है, बड़ी धूम-धाम के साथ इसे मनाया जा रहा है। लड़के-लड़कियां बिना कुछ सोचे-विचारे एक दूसरे को वैलेंटाइन डे का कार्ड दे रहे हैं। और जो कार्ड होता है उसमें लिखा होता है कि- “Would You Be My Valentine” । इसका मतलब  किसी को मालूम नहीं होता है और अन्धी दौड़ में बस भागते ही रहते हैं। वो समझते हैं कि हम जिस किसी से प्यार करते हैं उसको ये कार्ड दिया जाता है, इसलिए इस कार्ड को वो सभी को दे देते हैं। ये कार्ड एक या दो लोगों को नहीं देते अपितु दस-बीस लोगों को दे देते हैं। कोई उनको इस कार्ड में लिखे वाक्य का तात्पर्य भी नहीं समझाता।

इस कार्य को बढ़ावा देने के लिए टेलीविजन चैनल इसका बहुत प्रचार तथा प्रसार करते हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनियां अपने काम-धंधे को विस्तृत करने के लिए कार्ड, गिफ्ट, चाॅकलेट आदि को दुगुनी अथवा तीगुनी रकम में बेचते हैं।

यदि किसी लड़की को गुलाब दिया जाये और वह लड़की उस गुलाब को स्वीकार कर ले तो वैलेंटाइन और न स्वीकार करे तो उसी क्षण उसके चहरे पर तेजाब डाल दिया जाता है। ये कैसी परम्परा है? जिस कन्या को देवी के तुल्य समझा जाता है, उसी देवी के साथ खिलवाड़  हो रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि नारी ने बहुत तरक्की की है, लेकिन यह भी सच है कि हमारे पुरुष प्रधान देश में आज भी नारी को दबाया जाता है। समय आ गया है कि हम नारी का सम्मान करें। क्योंकि कहा भी गया है- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्त रमन्ते तत्र देवता’। आओ! हम सब मिलकर नारी का सम्मान करें। देश को पुनः विश्वगुरु बनाने का यत्न करें।

 

Author can be reached at:

शिवदेव आर्य

गुरुकुल-पौन्धा, देहरादून-248007

shivdevaryagurukul@gmail.com

 

अम्बेडकर वादी का गलत गायत्री मन्त्र का अर्थ और उसका प्रत्युत्तर

कुछ दिन पहले एक अंबेडकरवादी नवबौद्ध मूलनिवासी  ने एक पोस्ट मे गायत्री मन्त्र का अत्यन्त गंदा और असभ्य अर्थ किया था और कुछ दुष्ट मुल्लों ने उस पोस्ट को बहुत अधिक शेयर किया था।
उस पोस्ट मे उस अम्बेडकरवादी   ने प्रचोदयात् शब्द को प्र+चोदयात को अलग कर के अत्यन्त असभ्य अर्थ किया है। इस मन्त्र पर विचार करने से पहले संस्कृत के कुछ शब्दो पर विचार करे जो हिन्दी मे बिलकुल अलग अर्थों मे प्रयोग करते हैं।संस्कृत के अनेक शब्द हिन्दी में अपना अर्थ आंशिक या पूर्ण रूप से बदल चुकें हैं।
पूरण रूप से अर्थ परिवर्तन- उदाहरण-
1-अनुवाद- (हिन्दी)-भाषान्तर, Translation
(संस्कृत)- विधि और विहित का पुनःकथन (विधिविहितस्यानुवचनमम्नुवादः -न्यायसूत्र 4।2।66),
प्रमाण से जानी हुई बात का शब्द द्वारा कथन( प्रमाणान्तरावगतस्यार्थस्य शब्देन सङ्कीर्तनमात्रमनुवादः -काशिका)
2-जयन्ती- (हिन्दी)- जन्म तिथि (संस्कृत)—पताका,आयुर्वेद में औषधि
3- प्रकाशन- (हिन्दी)किसी पुस्तक को छपना या छपवाना, Publication (संस्कृत) – उजाला, प्रकट करना
4-सौगन्ध-(हिन्दी)- कसम (संस्कृत)- सुगन्धि, सुगन्धि युक्त
5-कक्षा- (हिन्दी)- विद्यालय की श्रेणि (संस्कृत)- रस्सी, हाथी को बान्धने की जंजीर, परिधि
6-निर्भर-(हिन्दी)- आश्रित (संस्कृत)-अत्याधिक, जैसे निर्भरनिद्रा= गहरी नींद (हितोपदेश)
7- विश्रान्त- (हिन्दी) थका हुआ (संस्कृत) – विश्राम किया हुआ
आंशिक रूप से अर्थ परिवर्तन – उदाहरण-
1- धूप- (हिन्दी)- सूर्य का ताप, सुगंधित धुंआ (संस्कृत)-सुगन्धित धुंआ, सूर्य ताप संस्कृत में नहीं है
2- वह्नि- (हिन्दी)- आग (संस्कृत)- आग, ले जानेवाला
3- साहस- (हिन्दी) – हिम्मत, कठिन कार्य में दृढता, उत्साह,वीरता, हौसला आदि।
(सस्कृत) संस्कृत में साहस के ये अर्थ भी हैं परन्तु संस्कृत में साहस शब्द लूट, डाका, हत्या आदि के अर्थों में प्रयोग होता है।4 प्रजा- (हिन्दी)- राजा के अधीन जनसमूह (संस्कृत)- राजा के अधीन जनसमूह, सन्तान

पुरानी हिन्दी पुस्तकों मे भी ऐसे शब्दों का प्रयोग मिलता है जो आधुनिक हिन्दी के अर्थों के प्रतिकूल और संस्कृत के शब्दों के अनुकूल है —-उदाहरण –
गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस –

1- मुदित महीपति मंदिर आए । सेवक सचिव सुमंत बुलाए ॥ यहाँ मंदिर का अर्थ देवालय न होकर राजमहल है।
2- करहूँ कृपा प्रभु आस सुनी काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥ – यहाँ पर निर्भर का अर्थ आश्रित न हो कर भरपूर है ।
3- खैर खून खांसी खुशी क्रोध प्रीति मद पान। रहिमन दाबे न दबे जानत सकल जहान॥
यहाँ पर पान का अर्थ हिन्दी मे पान का पत्ता (ताम्बूल) न होकर पीना है। आधुनिक हिन्दी मे पान का प्रयोग पौधे के पत्ते के लिए होता है ।
हिन्दी मे बहुत से शब्द ऐसे हैं जो देशज शब्द कहलाते हैं जो संस्कृत से कोई सम्बंध नहीं रखते जैसे लड़का, छोरा, लुगाई, चारपाई, कुर्सी आदि।
********************
यदि मैं इंगलिश के CAT का अर्थ कुत्ता , RAT का अर्थ हाथी करूँ और यह जिद्द करूँ कि सभी इंगलिश जानने वाले गधे हैं। केवल मेरा अर्थ ही सही माना जाए तो क्या यह कोई स्वीकार करेगा। इसलिए गायत्री मंत्र का अर्थ भी वेद व संस्कृत के विशेषज्ञों द्वारा किया गया ही स्वीकार किया जाएगा।

********************************

नीचे वेद के विद्वान महर्षि दयानन्द जी द्वारा सत्यार्थ प्रकाश मे गायत्री मंत्र का जो अर्थ किया है वह दिया जा रहा है।

ओ३म् भूर्भुवः स्व: । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
इस मन्त्र में जो प्रथम (ओ३म्) है उस का अर्थ प्रथमसमुल्लास में कर दिया है, वहीं से जान लेना। अब तीन महाव्याहृतियों के अर्थ संक्षेप से लिखते हैं-‘भूरिति वै प्राणः’ ‘यः प्राणयति चराऽचरं जगत् स भूः स्वयम्भूरीश्वरः’ जो सब जगत् के जीवन का आवमार, प्राण से भी प्रिय और स्वयम्भू है उस प्राण का वाचक होके ‘भूः’ परमेश्वर का नाम है। ‘भुवरित्यपानः’ ‘यः सर्वं दुःखमपानयति सोऽपानः’ जो सब दुःखों से रहित, जिस के संग से जीव सब दुःखों से छूट जाते हैं इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है। ‘स्वरिति व्यानः’ ‘यो विविधं जगद् व्यानयति व्याप्नोति स व्यानः’ । जो नानाविध जगत् में व्यापक होके सब का धारण करता है इसलिये उस परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है। ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक के हैं। (सवितुः) ‘यः सुनोत्युत्पादयति सर्वं जगत् स सविता तस्य’। जो सब जगत् का उत्पादक और सब ऐश्वर्य का दाता है । (देवस्य) ‘यो दीव्यति दीव्यते वा स देवः’ । जो सर्वसुखों का देनेहारा और जिस की प्राप्ति की कामना सब करते हैं। उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) ‘वर्त्तुमर्हम्’ स्वीकार करने योग्य अतिश्रेष्ठ (भर्गः) ‘शुद्धस्वरूपम्’ शुद्धस्वरूप और पवित्र करने वाला चेतन ब्रह्म स्वरूप है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग (धीमहि) ‘धरेमहि’ धारण करें। किस प्रयोजन के लिये कि (यः) ‘जगदीश्वरः’ जो सविता देव परमात्मा (नः) ‘अस्माकम्’ हमारी (धियः) ‘बुद्धीः’ बुद्धियों को (प्रचोदयात्) ‘प्रेरयेत्’ प्रेरणा करे अर्थात् बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे।
यहाँ ओ३म का अर्थ – सर्वव्यापक रक्षक आदि है
************

जो चित्र मैंने पोस्ट के साथ लगाया है उसमे सायण (SY) महीधर (Mah) उदगीथ (U ) व आचार्य सायण की भाष्य भूमिका (BB) का उदाहरण दिया है।
प्रचोदयात् के अर्थ को रेखांकित किया है

(नोट – आंबेडकर वादी के वेदों के अश्लील अर्थ के  किया है ये सिर्फ उसी व्यक्ति के लिए है )
जिसे यहाँ देखे –

इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ-अब्दुल अज़ीज़ की शुद्धिः : राजेंद्र जिज्ञासु परोपकारी पत्रिका Dec II, 14

1234

 

इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ-अब्दुल अज़ीज़ की शुद्धिः- गत दो-तीन वर्षों में कुछ सज्जनों ने News Valueसमाचार या मीडिया प्रचार शैली से शुद्ध किये गये मुसलमानों में से दो-चार को चुनकर कुछ लेख लिखे फिर एक सज्जन ने मुझ से कुछ ऐसे और नाम सुझाने को कहा। कोई विशेष जानकारी तो कोई दे न सका। शुद्धि आन्दोलन को बढ़ाने के लिए स्वामी चिदानन्द जी, अनुभवानन्द जी, ठाकुर इन्द्र वर्मा जी, पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. गोपालदेव कल्याणी जी, श्याम भाई जी, पं. नरेन्द्र जी की तपस्या पर तो कोई लिखता नहीं। मैंने तब हैदराबाद के ऋषि भक्त मौलाना हैदर शरीफ जी के सबन्ध में कुछ  खोजकर लिखने का सुझाव दिया परन्तु कोई आगे न आया। ऋषि ने देहरादून के महाशय मुहमद उमर को स्वयं शुद्धकर उन्हें आर्य धर्म में दीक्षित कर अलखधारी नाम दिया। यह थी किसी मुसलमान की पहली शुद्धि। इसके पश्चात् दूसरी ऐतिहासिक शुद्धि मौलाना अदुल अज़ीज़ की थी। वह अरबी भाषा व इस्लाम के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उन दिनों ऐक्स्ट्रा असिस्टैण्ट कमिश्नर सबसे बड़ा पद था जो किसी भारतीय को मिल सकता था। आप इस उच्च पद पर गुरदासपुर आदि कई नगरों में कार्यरत रहे। इस शुद्धि का श्रेय पं. लेखराम जी तथा परोपकारिणी सभा को प्राप्त है।

महर्षि दयानन्द जी के बलिदान के पश्चात् यह सब से महत्त्वपूर्ण शुद्धि थी। महात्मा हंसराज इस घटना को बड़ा महत्त्व दिया करते थे। वास्तव में यह घटना हमारे लिए ऊर्जा का स्रोत है। मौलाना अदुल अज़ीज़ कभी कुसंग में पड़कर धर्मच्युत हो गये। वह उत्तर पश्चिमी पंजाब के एक प्रतिष्ठित कुल में जन्मे थे। उनकी पुत्रियाँ ही थीं। जयपुर के प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध आर्यसमाजी बलभद्र जी ने मेरे एक ग्रन्थ में इनकी शुद्धि की चर्चा पढ़कर मुझसे पत्र व्यवहार करके पूछा था कि हमारे एक कुटुबी युवक को पं. लेखराम जी ने शुद्ध किया था। क्या यह वही तो नहीं? मैंने उन्हें सारी जानकारी देते हुए कहा कि जी हाँ, यह मेधावी आर्य पुरुष आप ही के कुल का था। इस शुद्धि पर कड़ा और बड़ा संघर्ष हुआ था। इस कारण शुद्धि का संस्कार लाहौर में करना पड़ा। विचित्र बात तो यह रही कि पौराणिकों ने विरोध तो डटकर किया परन्तु पौराणिकों का एक वर्ग आर्यसमाज के पक्ष में भी खड़ा हो गया। ऐसा आर्य इतिहासकार पं. विष्णुदत्त जी ने लिखा है। तब एक और विचित्र दृश्य देखने को मिला। स्वामी दर्शनानन्द जी के पिता पं. रामप्रताप आर्यसमाज के विरोधी शिविर में थे और स्वामी जी पं. लेखराम की सेना में थे।

परोपकारिणी सभा का योगदानः इस शुद्धि का श्रेय परोपकारिणी सभा को पं. लेखराम जी ने तो दिया परन्तु इसका प्रमाण कोई नहीं मिल रहा  था। पं. लेखराम जी का लेख मिथ्या नहीं हो सकता सो पूर्ण श्रद्धा से मैंने 35 वर्ष इसके प्रमाण की खोज में लगा दिये। यह घटना ऋषिवर के बलिदान के कुछ ही मास के भीतर घटी। पं. लेखराम जी ने इस उच्च शिक्षित युवक के मन में वैदिक धर्म तथा ऋषि के प्रति ऐसी श्रद्धा उत्पन्न कर दी कि अदुल अज़ीज़ जी बहुत धन व्यय करके लबी यात्रा करके परोपकारिणी सभा के प्रथम अधिवेशन में अजमेर पहुँचे। पं. गुरुदत्त, राव बहादुरसिंह मसूदा, कविराजा श्यामलदास तथा मेरठ आदि दूरस्थ नगरों के नेता उस अधिवेशन में उपस्थित थे। उन्होंने महर्षि की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा से आर्य धर्म की दीक्षा लेने की प्रार्थना की। पाठक इसका प्रमाण मांगेंगे। इसके प्रमाण के लिए ‘देशहितैषी’ मासिक अजमेर की फाईल सभा को भेंट की जा रही है।1 अमृतसर के पौराणिकों ने ऋषि पर पत्थर वर्षा की। इस शुद्धि में अमृतसर से ही विशेष समर्थन मिला। पं. विष्णुदत्त जी ने लिखा है कि उनकी पुत्रियाँ अमृतसर के प्रतिष्ठत परिवारों में याही गईं। अदुल अज़ीज़ जी को अब लाला हरजसराय के नाम से जाना जाने लगा। वह जहाँ-जहाँ रहे आर्यसमाज की शोभा बढ़ाई।

हीरालाल गाँधी विषयक प्रश्नः हीरालाल गाँधी विषयक एक लेख पढ़कर कुछ उत्साही युवकों ने मुझसे कई प्रश्न पूछे हैं। प्रश्न लेखक से पूछे जायें तो यही अच्छा होगा। मैं कल्पित बातों का क्या उत्तर दूँ। हाँ! कुछ नई बातें जो सुनाता तो रहा परन्तु लिखी कभी नहीं वे आज लिखने लगा हूँ। पहले यह नोट कर लें कि मैंने भाई परमानन्द जी की जीवनी में प्रत्यक्षदर्शी आर्य पुरुष श्री ओमप्रकाश जी कपड़े वाले दिल्ली की साक्षी से लिखा है कि हिन्दुओं का मनोबल बढ़ाने के लिए आर्यसमाज नया बांस में भी सोत्साह हीरालाल की शुद्धि का एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस कथन की प्रामाणिकता को कोई नहीं झुठला सकता। श्रीयुत् धर्मपाल आर्य दिल्ली इस तथ्य के साक्षी हैं कि आर्य नेता श्री ओमप्रकाश आर्यसमाज के इतिहास का ज्ञानकोश थे। उनकी स्मृति असाधारण थी। वह उस समारोह के आयोजकों में से एक थे।

हीरालाल ने श्री रघुनाथ प्रसाद पाठक आदि को सार्वदेशिक सभा में बताया था गाँधी जी के व्यवहार से चिढ़कर बाप को अपयश देने के लिए हीरालाल मुसलमान बना था। वह इस्लाम की शिक्षा से प्रभावित होकर मुसलमान नहीं बना था। वह लबे समय तक बलिदान भवन में ठहरा था। यहीं उसका भाई देवदास उसे मिलने आता रहा। ये बातें मुझे पाठक जी ने सुनाईं। लाला रामगोपाल शालवाले ने भी उसके मुख से सुनी कई बातें सुनाई थीं। जिन्हें आज नहीं लिखूँगा। एक बार हजूरी बाग श्रीनगर  में हीरालाल ने चौ. वेदव्रत जी को वही कुछ बताया जो बलिदान भवन में पाठक जी को कहा था। हैदराबाद सत्याग्रह के समय जवाहरलाल नेहरू के एक हानिकारक व्यक्तव्य का हीरालाल ने कड़ा उत्तर लिखा। आर्य नेता समझते थे कि इसे पढ़कर नेहरू आर्यसमाज को और हानि पहुँचा सकता है। हीरालाल को बहुत कहा गया कि वह अपनी प्रतिक्रिया न छपवाये परन्तु वह नहीं मान रहा था, तब आर्य नेता देवदास गाँधी को बुलाकर लाये। देवदास की बात हीरालाल मान जाता था। देवदास आर्य सत्याग्रह का समर्थन करता ही था। उसके कहने पर हीरालाल ने अपना वह व्यक्तव्य रोका। हीरालाल  की शुद्धि के समय गाँधी परिवार में से कौन-कौन मुबई में था? इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दूँगा। पाठक स्वयं जानने का प्रयत्न करे।

जवाहिरे जावेद का नया हिन्दी अनुवादः पंजाब के एक उदीयमान सुशिक्षित युवक से कुछ वर्ष पूर्व मेरा सपर्क हुआ। वह आर्यसमाज से जुड़ गया। स्वाध्याय में बहुत रुचि है। वह कुछ सप्ताह अजमेर रहकर न्यायदर्शन पढ़ा रहा था। निरन्तर स्वाध्याय, निरन्तर सेवा और निरन्तर सपर्क से ही संगठन सुदृढ़ होता है। इस युवक ने सभा को पं. चमूपति जी की बेजोड़ दार्शनिक कृति ‘जवाहिरे जावेद’ का नया हिन्दी अनुवाद छपवाने का प्रस्ताव दिया है। अर्थ की व्यवस्था यही युवक करेगा। श्री धर्मवीर जी ने इस विषय में मुझसे विचार किया। यह कार्य अत्यावश्यक व करणीय है। मैंने दिन रैन व्यस्त होते हुए भी सभा के लिये इस कार्य को सिरे चढ़ाने का आश्वासन दे दिया है। श्री सत्येन्द्रसिंह जी ने मुझे इसके लिए प्रेरित किया है। पं. चमूपति जी के साहित्य ने इस्लाम का रंग रूप ही बदल डाला है। एक ओर इस्लामी आतंकवाद कट्टरवाद है तो साथ के साथ ‘वैदिक इस्लाम’ का उदय हो रहा है। सूचियाँ बनाने वाले एक भाई ने पण्डित जी के योगेश्वर कृष्ण को उनका कालजयी ग्रन्थ बताया है। यह सस्ता मत है। मेरे कहने पर ही स्वामी दीक्षानन्द जी ने शरर जी से इसका अनुवाद करवाया और मुझसे दो बार इस पुस्तक की गौरव गरिमा पर विस्तार से लिखवाया गया। किसी कारण से मेरा निबन्ध साथ न छप सका। शरर जी ने जवाहिर जावेद के एक-एक बिन्दू पर अपनी मार्मिक टिप्पणी कहीं भी नहीं दी। वह बहुत कुछ जानते थे। यह उनकी भूल थीं।

मैं इसका मुद्रण भी ऐसा चाहता हूँ कि पुस्तक के शीर्षक, उपशीर्षक व टिप्पणियाँ देखकर अपने-पराये मुग्ध हो जायें। पण्डित चमूपति अपने समकालीन विद्वानों के मन मस्तिष्क पर तो छाये ही थे उनकी छाप नये इस्लामी साहित्य पर कितनी गहरी है, यह इस नये संस्करण में बताया जायेगा। पाकिस्तान के एक दैनिक ‘कोहिस्तान’ का एक लेख मेरे पास सुरक्षित है, वह लेख इस बात का प्रमाण है कि अनेक मौलवियों पर पण्डित जी का रोब व दबदबा है। श्वह्लद्गह्म्ठ्ठद्बह्लब् (नित्यता) पर एक मुसलमान विद्वान् ने परपरा से हटकर पहली बार एक पुस्तक लिखने का साहस किया है। मृत्यु को ‘ह्रश्चद्गठ्ठद्बठ्ठद्द शद्घ ड्ड स्रशशह्म् ह्लश ठ्ठद्गख् द्यद्बद्घद्ग’ नये जन्म का द्वार बताने का यह साहस वन्दनीय है। ‘कुरान में पैगबर के एक भी चमत्कार का वर्णन नहीं’ यह कई एक ने खुलकर लिखा है।

पैगबर को मुक्ति का तवस्सुल (मध्यस्थ) मानने वाले मदरसों में पढ़ाई जाने वाली एक पुस्तक में हमारे भक्तराज अमींचन्द जी का एक गीत पढ़ाया जा रहा है। अजमेर, दिल्ली, हैदराबाद, मालाबार के मदरसों में जाकर देख लो। यह पं. लेखराम, पं. चमूपति की कृपा का प्रसाद है। यह पढ़कर आर्यजन को कैसा लगेगा कि श्वह्लद्गह्म्ठ्ठद्बह्लब् (नित्यता) नाम का ग्रन्थ स्वयं लेखक ने मुझे सप्रेम भेंट किया। आर्यो! सर्व सामर्थ्य से पं. लेखराम की परपरा के विद्वानों के साहित्य का प्रसार प्रकाशन करो। वह दिन दूर नहीं अलीगढ़, देवबन्द और अजमेर के मुसलमान यह पुकारेंगे- ‘पं. शान्तिप्रकाश हमारा है, वह तुहारा नहीं।’ मैं अभी से कहता हूँ कि आपने भक्तराज अमींचन्द के गीत को लिया, कुल्लियाते आर्य मुसाफिर ले ली, जवाहिर जावेद और चौदहवीं का चाँद अपनाया, आप पं. शान्तिप्रकाश, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय भी लेते हो तो ले लो। हम तो सच्चे हृदय से कह रहे हैंः-

कौन कहता है कि हम तुम में जुदाई होगी।

यह हवाई किसी दुश्मन ने उड़ाई होगी।।

ऋषि जीवन पर नई खोजः मेरे बहुत से पत्र-पत्रिकायें दबी पड़ी रह गईं। उनके प्रमाण तो कण्ठाग्र थे परन्तु सामने पुस्तक व पत्रिका रखकर ऋषि जीवन में उनको उद्धृत करना चाहता था। ऐसा हो न सका। अतः श्री रमेशकुमार जी मल्होत्रा ने परोपकारिणी सभा के लिए एक नया, छोटा परन्तु अनूठा ऋषि जीवन लिखने की प्रेरणा दी है। ‘जीवन पल पल क्षण क्षण बीता जाये’ तो भी जी जान से जो कुछ भी मेरे सीने में, मेरे मन व मस्तिष्क में सुरक्षित है सब कुछ आर्यसमाज की नई पीढ़ी को सौंप रहा हूँ। लीजिये! कुछ नई जानकारी। जोधपुर के राजघराने के, सर प्रतापसिंह के आपने बड़े किस्से पढ़ लिये। नन्हीं भगतन को चरित्र का प्रमाण पत्र देने वाले भी देखे। अब सुनिये! ‘देशहितैषी’ में ऋषि के शाहपुरा में कार्यरत होने का समाचार तो मिलता है परन्तु उसके आगे जोधपुर का एक भी समाचार नहीं मिलता। ये सब अंक परोपकारिणी सभा को सौंप दूँगा। नये युवा विद्वान् इस विषय पर विचार करके कारण तो बतावें कि जोधपुर से कोई समाचार क्यों न निकलने दिया गया। मेवाड़ के तो सब समाचार मिल गये।

घोर विरोधी ने स्वीकार कियाः महर्षि के बलिदान पर ‘क्षत्री हितकारी’ पत्र के संया चार पृष्ठ पाँच पर ‘शोक! शोक!! शोक’ शीर्षक देकर ये पंक्तियाँ पढ़ने को मिलती हैं, ‘‘हम को शोक है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ऐसा पण्डित इस काल में होना कठिन है, यह एक पुरुष बड़ा विलक्षण बुद्धि और परमोत्साही उद्योगी था। यह सामर्थ्य इसी महाशय में था कि श्रुति, स्मृति के अर्थ को यथार्थ जाने, यह पुरुष पूर्ण आयु को पहुँचने के योग्य था परन्तु काल यह कब सोचता है।’’ इस पत्र के सपादक वीरसिंह वर्मा ऋषि के घोर विरोधी को उनकी विद्वत्ता व व्यक्तित्त्व पर ये शद लिखने पड़े परन्तु इसी लेख में वह ऋषि पर वार भी करता है। न जाने उसकी क्या विवशता थी। चलो! यह तो मानना पड़ा कि श्रुति, स्मृति के यथार्थ अर्थ को जानने का सामर्थ्य इसी महात्मा में है। ‘देशहितैषी’ पत्र से यह अवतरण यहाँ उद्धृत किया है।

भूल सुधारःअल्पज्ञ जीव से भूल का होना सभव है। जब कभी लिखने-बोलने में जाने-अनजाने या मुद्रण दोष से हमसेाूल हो गई, हम ने पता लगने पर झट से क्षमा माँगते हुए भूल का सुधार करना अपना कर्त्तव्य जाना। अभी ‘तड़प झड़प’ में इन दिनों लातूर (महाराष्ट्र) के ठाकुर शिवरत्न जी का नाम देना था परन्तु भूलवश हरगोविन्द सिंह लिखा गया। उनके भाई का नाम गोविन्दसिंह था। वह कलम (मराठवाड़ा) के जाने माने आर्य पुरुष थे। इन दोनों की चर्चा मेरे ग्रन्थों में है। ‘तड़प झड़प’ डाक में भेजते ही चूक का पता चल गया। मैंने तत्काल चलभाष करके धर्मवीर जी को इसे ठीक करने को कहा। व्यस्ततायें उनकी भी इतनी हैं कि वह ऐसा न कर सके। फिर बता दें कि ठाकुर शिवरत्नसिंह जी ने पंजाब के पं. विष्णुदत्त से अपनी पुत्री का विवाह किया तो पौराणिकों के प्रचण्ड बहिष्कार के कारण उन्हें विदर्भ से पंजाब पलायन करना पड़ा।

एक दुःखद लेखः‘आर्यजगत्’ के 25 मई अंक में माननीय कृष्णचन्द्र जी गर्ग पंचकूला का ‘जगन्नाथ’ विषयक एक लेख छपने की जानकारी मिली। यह लेख किस प्रयोजन से लिखकर छपवाया? यह मैं समझ न पाया। ऋषि के हत्यारे का नाम जगन्नाथ नहीं, यह कहानी झूठी है इत्यादि बातें लिखने की क्या आवश्यकता पड़ गई? श्रीराम शर्मा, लक्ष्मीदत्त दीक्षित आदि बहुत निब घीसा चुके। महत्त्व हत्यारे के नाम का नहीं, मुय बात ऋषि के विषपान की, ऋषि को मरवाने के षड्यन्त्र की है। इस विषय पर प्रमाणों के ढेर लगा कर लक्ष्मण जी के ग्रन्थ में जितनी जानकारी दी गई है, किसी भी ग्रन्थ में इतनी खोज नहीं मिलेगी।

ऋषि की जोधपुर यात्रा के समाचार क्यों बाहर न निकलने दिये गये? यह ऊपर हम बता चुके। श्री कृष्णसिंह बारहट का ग्रन्थ छप चुका है। क्या देखा है? आपके घर के पास से दित्तसिंह ज्ञानी के कथित शास्त्रार्थों की कल्पित कहानी छपी, नन्हीं वेश्या को चरित्र की पावनता का प्रमाण पत्र देते हुए लिखा गया। श्री गर्ग जैसे सब सयाने यह चुपचाप पढ़ते-सुनते रहे। स्वामी आत्मानन्द जी को ऋषि ने चित्तौड़ में गुरुकुल खोलने के लिए कहा, अन्त समय में नाई को पाँच रुपये दिये गये। इन दो प्रेरक प्रसंगों को झुठलाया गया। तैलंग स्वामी की आड़ में ऋषि पर वार प्रहार किया गया। अब शाहपुरा के रसोइये की दुहाई देकर आर्यजन को क्या सन्देश देना चाहते हैं? आपकी भावना शुद्ध है, यह मैं जानता हूँ।

श्री पं. लेखराम जी ने सर्वप्रथम सर नाहरसिंह के नाम ऋषि का एक पत्र छापा कि शाहपुरा के दिये सब नौकर बड़े निकमे थे। इस पत्र का प्रमाण देकर हमने श्रीराम और प्रिं. लक्ष्मीदत्त को चुप करवाया। स्वामी सत्यानन्द जी के ग्रन्थ की विशेषतायें भी हैं, कुछ कमियाँ भी हैं। जगन्नाथ की कहानी झूठी का शोर मचाकर इस ग्रन्थ का अवमूल्यन न करें। मूलराज के गीत गा-गाकर उसे ऋषि का कर्मठ साथी बता कर आर्य इतिहास प्रदूषित किया गया। आप चुप बैठे रहे, यह चिन्ता का विषय है। परोपकारी के धर्म रक्षा महाभियान में जुड़िये।

स्वामी बलेश्वरानन्द जी द्वारा समान के लिए आभारः पुण्डरी के स्वामी श्री ब्रह्मानन्द आश्रम के स्तभ प्रिय आर्यवीर राजपाल स्वामी बलेश्वरानन्द जी का सन्देश लेकर आये कि हम इस वर्ष आपका समान करना चाहते हैं। स्वीकृति दें। मैं प्रायः हर व्यक्ति व संस्था का ऐसा प्रस्ताव अब सुनकर अनसुना कर देता हूँ। माँगने की, धन संग्रह की प्रवृत्ति न बन जावे। लोकैषणा की सर्पिणी न डस जावे, सो समान से बचता हूँ परन्तु स्वामी जी का प्रस्ताव मैंने स्वीकार करके तत्काल निर्णय कर लिये कि वह जो कुछ देंगे उसमें कुछ और धन मिलाकर श्रीमती वेद जिज्ञासु के नाम की स्थिर निधि स्थापित करके अभी 50.000/- की राशि परोपकारिणी सभा को भेंट करूँगा।

स्वामी जी ने तो मेरे मनोभाव न जाने कैसे जान लिये कि समान राशि ही 51000/- की भेंट कर दी। मैंने यह राशि सभा को पहुँचा दी है और इसमें जो कुछ हो सकेगा और राशि मिला दी जावेगी। मैं स्वामी जी का, आश्रम का और स्वामी जी के भक्तों का हृदय से आभार मानता हूँ। यह आश्रम वेद प्रचार का वैदिक धर्म का और आर्यसमाज का सुदृढ़ दुर्ग बने, ऐसा हम सबका प्रयास होना चाहिये।

कहानीकार सुदर्शन जी तथा हरियाणाः स्वर्गीय चौ. मित्रसेन जी बहुत दूरदर्शी थे। आपने चौधरी छोटूराम जी की एक उर्दू पुस्तक (लेखमाला) का हिन्दी अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की। मैंने उन की इच्छा शिरोधार्य कर प्राक्कथन स्वरूप चौधरी छोटूराम तथा आर्यसमाज पर कुछ खोजपूर्ण सामग्री देने का सुझाव रखा। चौधरी जी को मेरा सुझाव जँच गया। छपने पर मुझे कुछ प्रतियाँ भेजना वे भूल गये। एक ठोस काम वे कर गये। इसमें मैंने एक घटना दी कि चौधरी छोटूराम जी ने कहानीकार सुदर्शन जी को जाट गज़ट का सपादक  बनाया। केवल इसलिये कि वह पक्के आर्यसमाजी हैं। एक गोरे पादरी के साथ टक्कर लेने से गोरा शाही सुदर्शन जी से चिढ़ गई। चौ. छोटूराम, चौ. लालचन्द से आर्यसमाजी सपादक को हटाने का दबाव बनाया। चौ. छोटूराम अड़ गये। सरकार की यह बात नहीं मानी। यह घटना प्रथम विश्व युद्ध के दिनों की है। वर्ष का स्मरण मुझे नहीं था हरियाणा के किसी भी आर्य ने, जाट ने, अजाट ने इस घटना के समय का पता लगाने में कतई रुचि नहीं दिखाई। अब सुदर्शन जी की एक पुस्तक से प्रमाण मिल गया कि आप 1916-1917 में रोहतक में कार्यरत थे।

टिप्पणी

1. द्रष्टव्य देशहितैषी मासिक का मार्च 1884 का अंक।

सेक्युलरिज्म या इस्लामिक तुष्टिकरण

123

 

भारतीय संविधान के अनुसार यह देश सनातनी नहीं सेक्युलर देश है, विश्व का एकमात्र देश, जिसमें सनातनी (हिन्दू) बहुसंख्यक है, ऐसा देश जो सनातनियों का है, वो आज उनका ना होकर हर मत-मजहब वालों का है, यह सब हमारी चुप्पी और एक गंभीर ना दिखने वाली बिमारी की वजह से है,
जी हां !!!
एक गंभीर ना दिखने वाली बिमारी जिसका नाम है सेक्युलरिज्म !

हर मत मजहब सम्प्रदाय वालों का भाईचारा, जहाँ कोई ऊँचा निचा नहीं, भेदभाव नहीं, सब भाई- भाई की सोच से रहे, पर ऐसा कुछ है नहीं, भारत में सेक्युलरिज्म की परिभाषा बड़ी अजीब और एक मत सम्प्रदाय मात्र को खुश रखने की निति के अनुसार है

भारत में हिन्दुइज्म की बात करना अर्थात सेक्युलरिज्म को खतरा, और इस्लाम हित की बात करना सेक्युलरिज्म है
धार्मिक स्थल का उद्घाटन करने जाने पर आजाद भारत (जो सही मायनों में है नहीं) के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने हमारे राष्ट्रपति को इसलिए उदघाटन में ना जाने के लिए समझाया की इससे सेक्युलरिज्म को ख़तरा है ! अजीब बात है किसी हिन्दू धार्मिक स्थल के उद्घाटन से सेक्युलरिज्म को खतरा कैसे ? इसका जवाब और कुछ नहीं मुसलमानों की ख़ुशी को बनाये रखना है, आज तक जितनी सरकारें आई है, वे मुसलमानों को खुश रखने के लिए इस सेक्युलरिज्म को सबसे बड़ा हथियार बनाती आई है, जिसकी परिभाषा बिलकुल इसके नाम से विपरीत और निराली है,

और हिन्दू भी इन शिकारियों के जाल में फसता जा रहा है, हिन्दू मुस्लिम भाई भाई का राग अलापे जा रहा है, हिन्दू और मुस्लिम दो अलग अलग, विपरीत और विरोधी विचारधारा से जुड़े हुए है, दो अलग अलग और विरोधी विचार वाले भाई कैसे हो सकते है ? ये सोचनीय है |

हिन्दू संस्कृति (वैदिक संस्कृति) उदारता से भरी है, हमें कभी जिहादी या हिंसक बनने की शिक्षा नहीं दी जाती, मनुस्मृति में मनु मजहबी नहीं, मनुष्य बनने की सलाह देते है, वेद भी कभी यह नहीं सिखाता की गैर हिन्दू का कत्ल करो या वे तुम्हारे दुश्मन है, यहाँ तक की प्राणी मात्र को ना मारने की सलाह हमें वेद देते है, जितना भाईचारा या उदारता की शिक्षा हमें वेदों से मिलती है वो अन्य किसी से नहीं मिल सकती

वही दूसरी और जिस मजहब को हमें भाई बनाने के लिए यह सरकारें और नए नए संगठन सलाह देते है, उन्होंने कभी या तो यह जानने की कोशिश नहीं की या जानते हुए भी चुप्प रहे की यह मजहब जिस किताब को खुदाई बताता है उसमें गैर इस्लाम के लिए क्या क्या आज्ञा दी गई है, इस्लामिक खुदाई पुस्तक कुरान, गैर इस्लामी को किसी भी तरह से भाई बनाने की सलाह नहीं देती अपितु उन्हें भाई ना बनाने की सलाह देती है, और यदि कोई भावावेश में आकर भाई बना भी ले तो वो मुसलमान नहीं रहता वो भी काफिर हो जाता है,

आइये पहले यह जान लें की काफिर क्या होता है?

काफिर एक अरबी शब्द है यदि google पर सर्च किया जाए तो आपको इसके कई मतलब मिलेंगे और वो मतलब भी सही है, मैंने यहाँ google पर जाने के लिए इसलिए कहाँ है की हमारी मानसिकता ही कुछ ऐसी हो चुकी है, लोगों को अपनों से ज्यादा आजकल परायों पर विशवास है, इसलिए उचित है उन्हें विशवास दिलाने के लिए वहां भेजना !

इसका साधारण सा अर्थ है गैर इस्लामी !!! जो इस्लाम को ना माने जो अल्लाह को ना माने जो इस्लाम में बताई उपासना पद्दति के अलावा किसी और पद्दति को मानता हो और जो नास्तिक हो

गैर इस्लामी को कुरान में नास्तिक ही माना जाता है क्यूंकि इस्लाम के अनुसार दुनिया में इस्लाम ही ऐसा धर्म (किसी प्रकार से इस्लाम धर्म नहीं है ये केवल एक मत का, समूह का नाम है) है जो खुदा का बनाया गया है तो इनके अनुसार गैर इस्लामिक अर्थात “काफिर” होता है |

अब आप जब कुरान पर नजर डालेंगे तो हर दूसरी आयत आपको आपकी विरोधी प्रतीत होगी जो की वाकई में विरोधी है, कुरान में किसी प्रकार के गैर इस्लामी से भाईचारे की कोई सलाह नहीं है, तो आप सोच रहे होंगे की फिर ये मुसलमान हर समय भाईचारे, अमन का राग क्यों अलापते है, तो इसके लिए आपको बड़े ध्यान से भारत के आज की और आजादी से पहले के भारत की जनसंख्या को धर्म के आधार पर बाँट कर देखना होगा

मोहम्मद का एक ही सपना था की उसका बनाया हुआ यह समूह बहुत बड़ा विस्तार करें उसी का परिणाम है की आज इस्लामिक लोग गैर इस्लामी को हर तरीका उपयोग लेकर उन्हें इस्लाम कबुलवाने में लगे है जिसके कई जरिये है, उन पर भी आगामी लेखों में नजर डालेंगे जो आपको हमारी वेबसाइट www.aryamantavya.in पर मिलेंगे

जब मुसलमान कुरान को पूरी तरह से मानते है और उसका अनुशरण भी करते है तो यह सर्वविदित होना चाहिए की मुसलमान गैर मुस्लिम को भाई मान ही नहीं सकते और यदि मानते भी है तो यह “मुहं में राम बगल में छुरी वाली बात होगी

आइये आपको कुछ आयते बताते है जो साफ़ तौर पर काफिरों को मारने का हुक्म देती है अर्थात ऐसी आयते जो मुसलमानों के अजीम दोस्त हिन्दू को मारने के लिए कहती है:-

ला यतखिजिल-मुअमिनुनल……………….|
(कुरान मजीद पारा ३ सुरा आले इमान रुकू ३ आयत २८)

मुसलमानों को चाहिए की मुसलमानों को छोड़कर काफिरों को अपना दोस्त न बनावें और जो वैसा करेगा तो उससे और अल्लाह का कोई सरोकार नहीं है |

या अय्युह्ल्ल्जी-न आमनू ला ……||
(कुरान मजीद पारा ५ सुरा निसा रुकू १८ आयत १४४)
अय ईमान वालों !! तुम ईमान वालों को छोड़कर काफिरों को दोस्त मत बनाओ | क्या तुम जाहिर खुदा का अपराध अपने ऊपर लेना चाहते हो |

कातिलुल्ल्जी-न ला यअमिनू-न………||
कुरान मजीद पारा १० सूरा तोबा रुकू ४ आयत २९)

किताब वाले जो न खुदा को मानते है और न कयामत को और न अल्लाह और उसके पैगमबर की हराम की हुई चीजों को हराम समझते है और न सच्चे दींन अर्थात इस्लाम को मानते है, इनसे लड़ों और यहाँ तक की जलील होकर (अपने) हाथों जजिया दें |

जब अल्लाह ने भाईचारा रखने पर अपना रिश्ता समाप्त करने की धमकी दे रखी है तो यह विचार करने की बात है की मुसलमान अपने परवरदिगार से आपके लिए कैसे नाता तोड़ सकते है बिलकुल नहीं तोड़ेंगे तो आपसे भाईचारा क्यों ?? यह सवाल दिमाग में आना स्वाभाविक है !!

इस भाईचारे के पीछे कई वजह है इसी भाईचारे को जानने के लिए मैंने आपसे जनसंख्या का धर्म के आधार पर बांटने के लिए कहा था

कश्मीर, जहाँ पर कश्मीरी पंडित और मुसलामानों का भाईचारा ही था, फिर अचानक क्या हुआ की सहस्त्रों कश्मीरी पंडितों को मार डाला गया या भगा दिया गया यह विचार करने से पहले ही लोग तर्क देते है की वहां के मुसलमान अच्छे नहीं है तो उनसे मेरा सवाल है की अन्य देशों में रह रहे हिन्दू भी क्या अलग अलग है क्या उनका मत भारतीय हिन्दुओं से अलग है आपका जवाब होगा नहीं !! फिर ये कश्मीर के और बाकी भारत के मुसलमान में अंतर कैसे ??

ये भाईचारे के दुश्मनी में बदलने का कारण है इस्लाम और खुदाई आज्ञा !! जिस समय हिन्दू मुसलमानों में कश्मीर में भाईचारा और अमन चरम पर था, उस समय मुस्लिम वहां अल्पसंख्यक थे और हिन्दू बहुसंख्यक चूँकि हिन्दू हमेशा से उदारता से परिपूर्ण रहा है तो इसी उदारता के कारण उसने मुसलमानों को अपना भाई ही माना जो गलत भी नहीं है क्यूंकि भारतीय मुस्लिम वास्तव में हमारे भाई ही है, जिनके पूर्वजों को ब्लात्पुर्वक हिन्दू से मुस्लिम बनाया गया था और उसी दबाव को आज भी वो सहता हुआ मुस्लिम ही बना हुआ है, और खुदा के डर में जी रहा है

जब कश्मीर में मुस्लिम अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक हुए तो इनका भाईचारा दुश्मनी में परिवर्तित होने लगा और छुट पूट लड़ाई झगड़े शुरू हुए खत्म हुए और इन्हीं झगड़ों और परस्पर विरोधी मान्यताओं के चलते और इस्लाम के विस्तार के अपने लक्ष्य को पूरा करने की चाह में मुसलमानों ने हिन्दुओ को कश्मीर से भगाया और मार भी डाला

और यही परिद्रश्य आपको आसाम, बंगाल, केरल और हैदराबाद में भी देखने को मिलेगा इन कारणों पर हमें विचार करना ही होगा, अन्यथा आने वाली पीढ़ी आपको पूरी जिन्दगी कोसती रहेगी

ये भाईचारा आपको भी कश्मीरी पंडितों के दर्द से परिचय कराएगा यह सार्वभौमिक सत्य है यह होगा यदि आपका यह भाईचारा इसी तरह रहा

इस्लाम को जानिये की यह वास्तव में क्या है, क्या यह धर्म है ?? क्या ये अमन और शान्ति का मजहब है ??

नहीं ये केवल और केवल आतंक का दुसरा नाम है, इस्लाम में भाईचारे, अमन, शान्ति और नारी की कोई जगह नहीं है

सेक्युलरिज्म का यह जहर आपको धीरे धीरे खा रहा है और आप इससे अपरिचित बने रह रहे हो आज समय की जरुरत है की हमें धर्म के प्रति निष्ठावान होना होगा

आपसे विनम्र निवेदन है की हमें झगडा कराने वाला ना समझे हम तो स्वयं चाहते है की देश में अमन और शान्ति बने पर ताली एक हाथ से नहीं बजती, वैदिक धर्म तो जन्म से उदार है और हम इस ओर पहल भी करने को तैयार है पर क्या हमारे मुस्लिम भाई इस काफिर दुश्मन कुरान को त्यागने का माद्दा रखते है ??????????

यदि मुस्लिम कुरान भी नहीं त्याग सकते और हमसे भाईचारे की उम्मीद भी रखते है तो यह दोगलापन लगता है इसमें बड़ी साजिश की बू आती है

इसलिए सजग रहिये सतर्क रहिये, समझदार बनिए क्यूंकि भोले दिखने वाले गजब के गोले होते है

आपके विचार रखिये, प्रश्न कीजिये, सुझाव दीजिये आपका स्वागत है और आगामी लेख की थोड़ी सी प्रतीक्षा कीजिये

तब तक के लिए आज्ञा दीजिये

नमस्ते
आर्यमंतव्य

 

 

भस्मासुर बनते सन्त : आचार्य धर्मवीर जी

10928616_4809034281879_2136200442_n

 

भारतीय परपरा में धर्म का सबन्ध शान्ति के साथ है। जहाँ धर्म है वहाँ शान्ति और सुख अनिवार्य है परन्तु आज के वातावरण में धर्म अशान्ति और परस्पर संघर्ष का पर्याय होता जा रहा है। धार्मिक स्थान पर रहने वाले लोगों को साधु, सन्त आदि शदों से पहचाना जाता था। साधु का अर्थ ही अच्छा होता है, संस्कृत भाषा में जो दूसरों के कार्यों को सिद्ध करने में अपने जीवन की सार्थकता समझता है उसे ही साधु कहते हैं। जिसका स्वभाव शान्त है वही सन्त होता है। आजकल इन शदों का अर्थ ही बदल गया है, जो स्वार्थ सिद्ध करने में लगा है वह साधु है, जो अशान्ति फैला रहा है वह सन्त है। जो जनता को मूर्ख बना रहा है वह योगी है। पुराने समय में साधु लोग जिन स्थानों पर निवास करते थे उन स्थानों को आश्रम कहा जाता था। वहाँ जाकर सबको विश्राम मिलता था। वहाँ किसी के आने-जाने पर प्रतिबन्ध नहीं होता था, उनके यहाँ मनुष्य क्या, पशु-पक्षीाी निर्भय होकर विचरते थे। उनके निवास स्थान का गर्मी-सर्दी, शारीरिक कष्ट, पशुओं के द्वारा हानि न पहुँचे इतना ही उद्देश्य था। इसके लिए उन्हें न तो बड़े-बड़े महलों की आवश्यकता थी, न सुरक्षा के लिए किले जैसे आश्रम बनाने की जरूरत, न अपनी फौज, कमाण्डो रखने का झंझट। जब वैराग्य हो गया तो किसका भय, किससे द्वेष, फिर आश्रम की ऊँची-ऊँची दीवारें किसकेाय से बनाई जायें।

आज सन्त वह है जो अशान्त हुआ घूम रहा है। ठग संन्यासी हो गया, विलासी-विरक्त कहला रहा है, यह सब क्यों हो रहा है? क्यों होने दिया जा रहा है? आज हमारे पास ऐसे बहुत उदाहरण हैं जिनसे इन दुर्घटनाओं के कारणों को समझ सकते हैं। सन्त रामपाल दास चौबीसों घण्टे दूरदर्शन और समाचार-पत्रों का विषय बना हुआ है। आज तात्कालिक समस्या के समाधान के रूप में सरकार ने उसे गिरतार कर लिया परन्तु इससे समस्या का समाधान होने वाला नहीं है। यह समस्या सरकार और समाज की बनाई हुई है, यदि इसके कारणों पर विचार करके उसके समूल विनाश का प्रयास नहीं किया गया तो यह समस्या प्रतिदिन खड़ी रहेगी।  केवल उसके नाम बदलते रहेंगे। कभी यह समस्या भिण्डरावाला के रूप में, कभी आसाराम बापू के रूप में, कभी राम-रहीम के रूप में, कभी रामपाल दास के रूप में। इन सन्तों में और चन्दन तस्कर वीरप्पन में भौतिक अन्तर इतना है कि एक आदमी डाकू बनकर डकैती करता है दूसरा सन्त या गुरु बनकर डकैती या ठगी करता है। एक जंगलों में छिपता है तो दूसरा नगरों में किलेनुमा महल बनाकर रहता है। एक बदनाम है और दूसरे की चरण वन्दना होती है। परिणाम दोनों का एक जैसा होता है। जब इनसे जनता का दुःख बढ़ जाता है, सरकार के अस्तित्व पर संकट आता है तब दोनों को अपराधी मानकर पुलिस, फौज, प्रशासन उनको गिरतार करने, दण्ड देने में जुट जाता है। इन दोनों के बनाने के लिए सरकार और समाज ही पूर्ण रूप से उत्तरदायी हैं।

रामपाल दास को सन्त किसने बनाया? समाज के समानित समझे जाने वाले लोगों ने। रामपाल दास हरियाणा सरकार की सेवा में एक जूनियर इञ्जीनियर था, गबन के कारण उसे सरकारी नौकरी से निष्कासित कर दिया गया। वह आज इतना बड़ा सन्त बन बैठा। वह अपने को कबीर का अवतार मानता है। जब दुष्ट व्यक्ति धार्मिकता का आडबर करता है तो जनता को मूर्ख बनाता है। धर्म के क्षेत्र में भक्त सन्तों को बड़ा बनाने का कार्य करते हैं। रामपाल दास कबीरदासी मठ में रहते हुए अपने दुराचरण के कारण अपनी मण्डली में निन्दा का पात्र बना, इसके एक चेले ने इसकी पोल खोलते हुए एक पुस्तक लिखी ‘शैतान बण्यो भगवान’ इस पुस्तक से क्रोधित होकर रामपाल दास ने उसे गुण्डों से पिटवाया। उसने अपनी कहानी अपने परिचितों में अपने क्षेत्र के लोगों को सुनाई। रामपाल दास की दुष्टता से गाँव के लोग  भी तंग थे, वहाँ की महिलाओं से दुर्व्यवहार की घटनाओं से ग्रामवासी उत्तेजित थे। आश्रम के पास खेती करने वालों के खेतों पर कजा करने के उसके प्रयास से वहाँ के किसान भी परेशान थे। सरकार में सन्त की पहुँच बढ़ गई थी, लोगों की सुनवाई नहीं हो रही थी, तब आचार्य बलदेव जी के नेतृत्व में ग्रामवासियों ने संघर्ष किया। सरकार को बाध्य होकर कार्यवाही करनी पड़ी। एक युवक का बलिदान भी हुआ। रामपाल दास को सरकार ने गिरतार भी किया, वह जेल में भी रहा, जमानत पर छूटा, सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को उसका आश्रम उसे लौटाने का निर्देश दिया। ग्रामीणों के लिए फिर संकट आ गया, रोष बढ़ता रहा, बलदेव जी के नेतृत्व में फिर संघर्ष हुआ। इसमें तीन लोगों का बलिदान हुआ। रामपाल दास से आश्रम खाली कराया गया फिर उसने वही सब हिसार के बरवाला आश्रम में करना प्रारभ किया, आज उसी घटना का अगला दृश्य जनता के सामने है।

इस घटनाचक्र में रामपाल दास ने समाचार पत्र और दूरदर्शन के माध्यम से ऋषि दयानन्द को गालियाँ देना, पुस्तकों के उद्धरण को गलत तरीके से प्रस्तुत करना, समाचार पत्रों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द की निन्दा करने का अभियान जारी रखा। आर्यसमाज ने अपने सीमित साधनों से उसका उत्तर देने का प्रयास किया परन्तु उसके साधनों के सामने यह बहुत स्वल्प था। जब मनुष्य का दुर्भाग्य आता है तो दुर्बुद्धि साथ लाता है। रामपाल दास अपने मुकद्दमे की पेशी पर जाने से बचता रहा और वह दिन आ गया जब न्यायालय ने किसी भी स्थिति में उसे गिरतार कर न्यायालय में प्रस्तुत करने का आदेश दिया। एक सप्ताह तक पुलिस प्रयास करने पर भी उसे गिरतार करने में सफल नहीं हो सकी तब आश्रम तोड़कर, बिजली, पानी बन्द कर उसे पकड़ने का प्रयास किया और 14 दिन बाद उसे गिरतार किया जा सका।

इस घटना में विचारणीय बिन्दु है कि इसके लिए दोषी कौन है? क्या रामपाल दास दोषी है? इसका उत्तर है नहीं। क्या जनता दोषी है? इसका भी उत्तर है नहीं। फिर इसका दोषी कौन है? इसका उत्तर है सरकार, प्रशासन, पुलिस अधिकारी, राजनेता और समाज के धनी लोग इसके लिए उत्तरदायी हैं। जब समाज के लोग ऐसे व्यक्ति को माध्यम बनाकर अपने काम सिद्ध करते हैं तो वे ही लोग समाज में ऐसे लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ाते हैं। इन बड़े सपन्न प्रतिष्ठित लोगों को इन साधुओं की पूजा करते देखते हैं तो सामान्य जनता इनके भँवरजाल में फंस जाती है। समाज में अधिकांश लोग आज भी धर्म, अधर्म, झूठ-सच इसका अन्तर करने में समर्थ नहीं है। वे तो किसी को भी इस स्थान पर सन्त की वेशभूषा में देखकर उस पर सहज विश्वास कर लेते हैं, अपना सबकुछ उसको सौंपने के लिए तैयार हो जाते हैं, यही कारण है कि इन धार्मिक ठगों के भक्तों, अनुयायियों की संया हजारों में नहीं, लाखों में पहुँच गई है। इनकी बढ़ती भीड़ लोगों को अपनी ओर इतना आकर्षित करती है कि सामान्य व्यक्ति उस भीड़ का हिस्सा बनकर अपने को धन्य समझ लेता है। भक्तों के धन से ये सन्त कुबेर बन जाते हैं, इनकी झोपड़ियाँ महलों में बदल जाती हैं। इनके भक्तों की भीड़ से समाज में इनका महत्त्व बढ़ता जाता है। पुलिस इनसे डरती है, सरकारी अधिकारी इनकी सेवा करते हैं, मन्त्री इनको प्रणाम करते हैं और निर्वाचन के समय इनके भक्तों के वोट प्राप्त करने के लोभ में इनके चरण छूकर आशीर्वाद लेते हैं। ऐसे में वे अपने को सर्वशक्तिमान् समझने लगें तो आश्चर्य की क्या बात है?

रामपाल दास के प्रसंग में भी यही कुछ हुआ है। रामपाल दास का बचाव पहले से सरकारी अधिकारी करते आ रहे हैं, पुलिस कमिश्नर का वक्तव्य ध्यान देने योग्य है, उन्होंने पत्रकारों से कहा कि पुलिस के दस प्रतिशत लोग रामपाल दास के प्रभाव में हैं, इसी कारण पुलिस को अपने कार्य में सफलता नहीं मिल रही। इस तथ्य की जानकारी मिलने पर कार्य-नीति बदली गई और अपरिचित पुलिस को इस कार्य में लगाया गया तब जाकर पुलिस को सफलता मिली। स्मरण रखने की बात है कि भूतपूर्व मुयमन्त्री भूपेन्द्रसिंह हुड्डा की पत्नी रामपाल दास के ट्रस्ट की ट्रस्टी है, यह भी समाचार पत्रों में आ चुका है। मनोहर लाल खट्टर नये मुयमन्त्री हैं, उन्हें प्रशासन को निर्देशित करने में कठिनाई है। यह स्वाभाविक है परन्तु मुयमन्त्री स्वयं रोहतक के रहने वाले हैं, अतः यह समझना चाहिए कि वे रामपाल दास और उसके साथ घटी घटनाओं से भलीभांति परिचित हैं फिर भी इस घटनाक्रम में लोगों को ऐसा लगा कि सरकार जानबूझकर कार्यवाही करने से बचना चाहती है। आलोचकों और पत्रकारों की दृष्टि में ऐसी सोच का ठोस कारण है, खट्टर सरकार ने रामपाल दास से चुनाव में उसका समर्थन माँगा था और भक्तों से भाजपा को मत देने की माँग की गई थी।

राजनीति में एक-एक मत का और मतदाता का मूल्य होता है। मतदाता मतदाता है, वह चोर है, डाकू है, सन्त है, दादा है, जिसके साथ जितने मत जुड़े हैं वह उतना ही महत्त्वपूर्ण है। ऐसी परिस्थिति में राजनेता भूल जाते हैं कि वह कौन है, उन्हें तो बस मतदाता की चरण-वन्दना करनी होती है। रामपाल दास के साथ-साथ भाजपा ने राम-रहीम बाबा का चुनाव में समर्थन लिया। उसके भक्तों के मत ही भाजपा को विजयी बनाने में समर्थ हुए, पिछले दिनों एक बड़े कांग्रेसी नेता ने स्वीकार किया कि कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण, राम रहीम बाबा का भाजपा को समर्थन देना है। इस का समर्थन, कांग्रेस को भी चाहिए, चौटाला को भी चाहिए, फिर राजनीति में रहना है तो भाजपा कैसे पीछे रह सकती है। बाबा राम रहीम के समर्थन का धन्यवाद मनोहर लाल खट्टर ने अपने मन्त्रीमण्डल के सहयोगियों के साथ बाबा के आश्रम में पहुँचकर चरण-वन्दना करके किया। ध्यान देने की बात है कि बाबा राम रहीम रामपाल दास से बड़ा बाबा है, उसके आश्रम में होने वाले अवैध कार्यों की जाँच पड़ताल करने का साहस पहली सरकारों मेंाी नहीं था वर्तमान सरकार में भी नहीं है। वहाँ पत्रकार की हत्या का प्रसंग बहुत चर्चित रहा है, समय-समय पर आलोचनायें होती हैं। सरकारें अपने स्वार्थ और दुर्बलता के कारण सार्थक कार्यवाही करने में समर्थ नहीं हो सकी हैं। जो भी कार्यवाही देखने में आई वे न्यायालय द्वारा की गई है। अभी बाबा राम रहीम के डेरे का एक वाद न्यायालय में लबित है। बाबा ने अपने अन्तरंग कार्यकर्त्ताओं को बड़ी संया में बलपूर्वक नपुंसक बना दिया जिससे अन्तरंग कार्यों में उनसे कोई बाधा नहीं पहुँचे। न्यायालय इस बात की जाँच कर रहा है। सरकार में यह साहस नहीं है कि आश्रम के विषय में आई शिकायतों की जाँच कर कार्यवाही कर सके।

बाबा लोग अपने कार्यक्रमों में राजनेताओं को बुलाकर अपना प्रभाव प्रदर्शित करते हैं और राजनेता उनके कार्यक्रमों में जाकर आशीर्वाद लेते हैं। इन बाबाओं में कई तो निपट मूर्ख होते हैं और इन बाबाओं के भक्तों कीाीड़ में बड़े शिक्षाविद्, प्रशासक, राजनेता हाथ बांधे पंक्ति में खड़े रहते हैं। कुछ वर्ष पहले शेखावत मुयमन्त्री थे, आसाराम का जयपुर में कार्यक्रम था, आसाराम ने अनेक स्थानों से सिफारिश दबाव डालकर मुयमन्त्री को अपने कार्यक्रम में बुलाया था।

राजनेताओं को भीड़ ऐसे लुभाती है जैसे ठेका शराबियों को। फिर कौन, किसे दोष दे? आसाराम ने आश्रम बनाये, भूमि पर अवैध कजे किये, महिलाओं का शोषण किया, भक्तों के धन से धनपति बन बैठा, प्रायः करके हर बाबा-सन्त की यही कहानी है।

भिण्डरावाला की कहानी से इस देश के नेताओं ने कोई शिक्षा नहीं ली। इन्दिरा गाँधी ने उसे अपने विरोधियों को परास्त करने के लिए आगे किया था परन्तु भारत सरकार के लिए वह कितना बड़ा सिरदर्द बना और इन्दिरा गाँधी की हत्या का कारण बना। आजकल एक नहीं दर्जनों सन्त इसी कार्य में लगे हुए हैं, ये पाखण्ड फैलाकर जनता के विश्वास को दिन-रात लूटने में लगे हुए हैं। मोदी की जन-धन योजना तो सफल हो या न हो पर इन पाखण्डियों की जन-धन योजना शत-प्रतिशत सफल है। एक निर्मल बाबा, हरी-लाल चटनी खिलाकर लोगों का भाग्य बदल रहा है। कुमार स्वामी ब्रह्मर्षि बनकर बीज-मन्त्र दे रहा है और ऐसे लोगों को इन राजनेताओं से खूब सहयोग और समर्थन मिलता है। दक्षिण का सोना स्वामी हो या नित्यानन्द स्वामी, सभी लोग जनता को मूर्ख बनाकर लूटते हैं और कामिनी काञ्चन के स्वामी बनते हैं, अपनी प्रवृत्तियों का स्वामित्व तो इन्हें न मिला और न ही मिलेगा।

इन सारी घटनाओं को देखने से एक बात साफ होती है कि जनता को समझदार और जागरूक किये बिना इसका सुधार सभव नहीं है। आर्यसमाज इन्हीं लोगों की ऐसी बातों का खण्डन करता है तो नासमझ लोग कहते हैं सभी को अपनी आस्था चुनने का अधिकार है, सबको अपने विचारों का प्रचार करने की स्वतन्त्रता है परन्तु आर्यसमाज भी तो विचार ही दे रहा है। क्या गलत बातों से सावधान करना, विचार का प्रचार करना नहीं है? क्योंकि गलत विचारों के निराकरण के बिना सद्विचारों को स्थान नहीं मिल सकता। रामपाल दास के दुष्कृत्यों के विरोध में आर्यसमाज ने आवाज उठाई, आन्दोलन किया, आज उसी का परिणाम है कि रामपाल दास का यथार्थ रूप जनता के सामने आ सका।

इस घटनाक्रम में बाबा की ओर से गोलीबारी में पुलिस वाले और कुछ लोग घायल हुए परन्तु पुलिस को गोली नहीं चलानी पड़ी। रामपाल दास को पुलिस ने गिरतार किया या रामपाल दास ने समर्पण किया यह तो प्रशासन और सरकार की नीयत को बतायेगा। परन्तु एक दुर्घटना का अन्त हुआ। पुलिस को बधाई, ईश्वर का धन्यवाद। इस घटनाक्रम पर पञ्चतन्त्र की पंक्ति सटीक लगती है-

प्रथमस्तावदहं मूर्खो द्वितीयः पाशबन्धकः।

ततो राजा च मन्त्री च सर्वं वै मूर्खमण्डलम्।।

– धर्मवीर