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अवतारवाद का अन्त होगा? रामनिवास गुणग्राहक

अवतारवाद की अनिष्टकारी कल्पना जिसने भी कभी की होगी, तब उसने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन कोई भी यूँ ही मुँह उठाकर स्वयं को परमात्मा का अवतार घोषित कर देगा। अवतारवाद की अवधारणा चाहे जब से चली हो, लेकिन प्रतीत होता है कि विगत ५०-६० वर्षों के कालखण्ड में इस अवतारवाद ने कुछ अधिक ही उन्नति कर ली है। एक समय था जबकि शंकराचार्य से लेकर सन्त तुलसी तक सब साधु-महात्मा भक्त बनकर ही आनन्द की अनुभूति कर लेते थे, स्वामी विवेकानन्द तक को भगवान बनने की न सूझी। आज की बात करें तो लगता है भक्त बनने में कोई अधिक सुख शेष नहीं रहा, जिसे देखो भगवान बनने में लगा हुआ है। सम्भवतः पुरानी पीढ़ी के धर्मशील लोगों को स्मरण हो कि सन् १९७० के आस-पास एक पूरा परिवार ही विभिन्न परमात्माओं का अवतार बनकर भक्त मण्डली की सर्वमनोकामनाएँ पूर्ण कर रहे थे। सन् १९५४ में एक व्यक्ति ने- ‘स्वामी हंस महाराज’ नाम रखकर स्वयं को श्री कृष्ण का अवतार घोषित कर दिया। इनकी पत्नी को ‘जगत् जननी’ की उपाधि मिल गई। इस जगत् -जननी ने चार पुत्रों को जन्म दिया और चारों ही अवतार बन गये। बड़ा पुत्र सत्यपाल- ‘बाल भगवान’ बनकर ‘सन्तलोक के स्वामी’ कहलाये। दूसरे महीपाल ‘शंकर के अवतार’ बनकर ‘भोले भण्डारी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। तीसरे धर्मपाल-प्रजापति ब्रह्म के अवतार बनकर भक्त मण्डली में चक्रवर्ती राजा के नाम से विख्यात हुए। सबसे छोटे प्रेमपाल ने स्वयं को ‘पूर्ण परमात्मा’ घोषित करके देश-विदेशों में मनमानी लीलाएँ कीं।

इनकी लीला स्थलियों में इंग्लैण्ड और अमेरिका का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। वैसे तो ये गोरे भक्त-भक्तिनों के साथ देश-विदेश में खूब आते-जाते रहते थे, लेकिन नवम्बर १९७२ में लगभग ९०० गौरांग भक्त-भक्तिनों के साथ पालम हवाई अड्डे पर उतरे तो स्वयं तो कुछ विशेष शिष्य-शिष्याओं के साथ राल्स रॉयस कार में निकल गए। इनका निजी सचिव बिहारीसिंह कस्टम अधिकारियों से सामान लेने गया तो कस्टम वालों ने एक बक्स की चाबी माँगी। चाबी तो पूर्ण परमात्मा ले उड़े थे, जब उनसे मँगाकर बॉक्स खोला गया तो उसमें दस लाख रुपये के सोना, हीरे व डॉलर आदि निकले। परमात्मा की चोरी पकड़ी गई। इतना ही नहीं एक वर्ष पूर्व १९७१ में इनके भक्तों ने भगवान की एक पत्रकार वार्ता रखी जिसमें आपने स्वयं को ‘पूर्ण परमात्मा’ कहते हुए यह भी घोषणा की कि ‘मैं हिन्दू नहीं हूँ।’ अगले दिन समाचार पत्रों में इस वार्ता का विवरण छापा तो नवभारत टाइम्स में छपे कुछ श     दों को लेकर इनके भक्त कुपित हो गये और नवभारत टाइम्स के कार्यालय पर पथराव किया जिसमें कई घायल हुए और एक सिपाही का प्राणान्त हो गया।

हमारे अवतारवादी बन्धु तो धन्य हो गये होंगे, इतने भगवानों को एक ही समय व एक ही परिवार में पाकर। पता नहीं क्यों सनातन धर्म वालों को यह सब अच्छा नहीं लगा। मेरठ के कट्टर सनातनधर्मी भक्त श्री रामशरण दास जी लिखते हैं- ‘भारत में लगभग ढ़ाई सौ से ऊपर अवतार हैं और मैं सैकड़ों से भेंट कर चुका हूँ….. जो अपने को भगवान श्री राम का अवतार तो कोई अपने को भगवान श्री कृष्ण का, कोई अपने को भगवान श्री शंकर का, तो कोई स्वयं को भगवती श्री दुर्गा का अवतार बता-बताकर डोल रहे हैं और लूट रहे हैं स्वयं पर ब्रह्म परमात्मा बनकर।….. हाय-हाय कैसे रक्षा होगी मेरे इस देश की? इस महान् परम पवित्र हिन्दू जाति की इन महान् कालनेमि पाखण्डी नकली अवतारों से?’ सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा पंजाब के महामन्त्री और केन्द्रीय सनातन धर्म सभा के मन्त्री स्वामी चरणदास जी महामण्ड़लेश्वर ने गाँधी मैदान में एक सार्वजनिक सभा के अध्यक्षीय भाषण में अपनी व्यथा प्रकट करते हुए कहा था- केवल दिल्ली में पिछले ८-१० वर्षों से १४ ढ़ोंगी व्यक्ति हिन्दुओं में बड़े हो गये हैं जो अपने को अवतार कहते हैं और हिन्दू धर्म पर कुठाराघात कर रहे हैं।

भक्त रामशरण दास जी- ‘धर्म कालनेमि पाखण्डी नकली अवतारों की चर्चा करते हैं। प्रश्न होता है कि क्या कोई असली अवतार भी होता है? क्या कोई भी सनातनधर्मी विद्वान्, साधु-संन्यासी या धर्माचार्य सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् आदि गुणों से युक्त परमात्मा का असली अवतार प्रमाणित कर सकता है? जब से हमारे कथित सनातनधर्मी सच में पुराणपन्थी धर्म गुरुओं ने पूर्ण परमात्मा को भौतिक शरीरधारी बना दिया, तब से इस अवतारवाद के पाखण्ड ने संसार के विभिन्न क्षेत्रों में ईश्वर पुत्रों, पीर-पैगम्बरों की एक नई शृंखला का बीजारोपण कर दिया यही बीजारोपण आज विकृति की सीमा पार करता हुआ कथित सन्त रामपालदास पर आकर पहुँच गया। अगर अब भी हमारे सनातनधर्मी इस पाखण्ड के विरुद्ध खड़े न हुए तो आगे चलकर इसका और भी कुत्सित चेहरा हमारे सामने आकर रहेगा। भर्तृहरि ने सच कहा है-

विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः।

अर्थात् विवेक भ्रष्ट व्यक्ति व समाज का हर दिशा व हर दृष्टि से पतन ही होता है। इस संसार का एक अनुभव सिद्ध सिद्धान्त है कि कोई वस्तु हमारे लिए जितनी उपयोगी, लाभदायक व कल्याणकारी होती है, उसका दुरुपयोग उतना ही घातक व अकल्याणकारी होता है। आयुर्वेद के ऋषि लिखते हैं-

प्राणाः प्राणभृतां अन्नं तद् अयुक्त्या निहन्ति असून्।

विषं प्राणहरं तत् च, युक्तियुक्तं रसायनम्।।

अर्थात् अन्न प्राण का भरण-पोषण करने वाला है। अन्न गलत ढंग से खाया जाये तो विष बनकर प्राणघातक बन जाता है और युक्तियुक्त ढंग से खाया जाये तो रसायन का काम करता है।

अन्न हमारे जीवन का आधार है- ‘अन्नं वै प्राणिनां प्राणः’, ‘अन्नं वै ब्रह्म तद् उपासीत्’ जैसे ऋषि वचन इसकी पुष्टि करते हैं। सोचने की बात है कि ऋषियों की दृष्टि में अन्न का दुरुपयोग प्राण-पोषण के स्थान पर प्राण-घातक परिणाम देता है। हम जाने-अनजाने में अन्न का दुरुपयोग करके अनेक प्रकार की भयंकर बीमारियों का शिकार होते रहते हैं। यही स्थिति धर्म और ईश्वर के सम्बन्ध में है। सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् परमात्मा को देह के बन्धन में डालकर, एक देशी बनाकर पिछले तीन-चार हजार वर्षों से हमारे धर्मगुरु, धर्माचार्य ईश्वर और धर्म का जो निजी स्वार्थों के लिए जो भयंकर दुरुपयोग कर रहे थे, उसका परिणाम तो आसाराम और रामपाल के रूप में आना ही था। सारे सनातनधर्मी कहलाने वाले हिन्दू पौराणिक यह बता दें कि श्रीराम और श्रीकृष्ण परमात्मा का अवतार हो सकते हैं तो आसाराम और रामपाल क्यों नहीं हो सकते? जब पुराणपन्थी बिना सिद्धान्त, बिना तर्क और बिना वेद शास्त्रों के प्रमाण दिये, श्री राम-श्री कृष्ण को परमात्मा का अवतार मानकर पूजा कर-करा सकते हैं तो कबीरपन्थी रामपाल को परमात्मा का अवतार मानकर क्यों नहीं पूज सकते?

हम यहाँ रामपाल और आसाराम की श्रीराम और श्री कृष्ण से तुलना नहीं कर रहे। निःसन्देह मर्यादा पुरुषो      ाम श्री राम और योगेश्वर श्री कृष्ण का जीवन पूर्णतः पवित्र था, वे हर दृष्टि से महापुरुष थे, हम सबके आदर्श थे। प्रश्न यह है कि क्या कोई शरीरधारी परमात्मा हो सकता है? अगर सच में एक घड़े या लोटे में समुद्र का सम्पूर्ण जल आ सकता है तो इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता कि घड़ा सोने का है या लोहे का। सृष्टि में सर्वत्र नियम-सिद्धान्त ही काम करते हैं, सिद्धान्ततः मनुष्य सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् आदि गुणों से युक्त नहीं हो सकता। निष्कर्षतः हम यह कहना चाहते हैं कि रामपाल और आसाराम का परमात्मा होना निश्चित रूप से एक बहुत बड़ा पाखण्ड है, अन्धविश्वास है तो श्री राम और श्री कृष्ण को परमात्मा का अवतार कहना-मानना भी बहुत बड़ा पाखण्ड और अन्धविश्वास है। हम सबको एक बात गाँठ बाँध लेनी चाहिये कि जब तक श्री राम और श्री कृष्ण आदि महापुरुषों को परमात्मा का अवतार मानकर पूजने, भक्ति करने के पाखण्ड को जीवित रखा जाएगा, तब तक देश और दुनियाँ से बाल योगेश्वर हंस, आसाराम और रामपाल जैसे पाखण्डियों की परम्परा को मिटाया नहीं जा सकेगा। बीज रहेगा तो बेल भी उगेगी-बढ़ेगी और उस पर फूल-फल भी लगेंगे जो आगे बीज भी पैदा करेंगे।

आर्यो! तनिक आप भी अपनी अकर्मण्यता-असफलता पर विचार करना सीख लो। ‘‘हम ये कर रहे हैं, हम वो कर रहे हैं।’’ कहकर अपनी पीठ थपथपाने वालो। ‘हम क्या नहीं कर पा रहे’ का भी कभी चिन्तन कर लिया करो। ऋषि दयानन्द और स्वामी श्रद्धानन्द के हृदय की आग की एक चिनगारी को अपने हृदय में सुलगने-धधकने का अवसर देकर देखो। वे कोई दूसरी दुनियाँ के पुरुष नहीं थे। इसी समाज और राष्ट्र की ऐसी ही परिस्थिति में पल-बढ़ कर उनका व्यक्ति  व बना था। उन्होंने जो कुछ लिया यही से लिया। समाज व राष्ट्र की लगभग ऐसी ही दुर्दशा तब थी, जिसे देखकर वे चैन की नींद तक नहीं ले पाते थे। एक हम हैं कि सब कुछ देख-सुनकर भी कबूतर की तरह आँख बन्द कर लेते हैं, शतुरमुर्ग की तरह धरती में मुँह धँसा लेते हैं- सोचते हैं संकट टल गया। आर्यो! हमारी अनदेखी से संकट टल जाता तो धरती तल पर कभी कोई समस्या, कोई संकट रहता ही नहीं। आप मानो या न मानो, सच यह है कि भारत की हर समस्या, हर संकट आर्यों के अनार्यपन की उपज हैं। ऋषि दयानन्द के अनुयायी कहलाने वाले सिद्धान्तहीन लोगों के कारण ही वेद विद्या के प्रचार-प्रसार का अभियान निष्प्राण होकर रह गया है। यह कोई छोटा अपराध नहीं है, आर्यो! अपने जीवन की उपल    िधयों का सच्चे हृदय से आंकलन करो। देखो कि हमने झूठे और खोखले मान-सम्मान के अलावा आर्यसमाज में आकर क्या पाया?

पत्थर जोड़ने (भवन बनाने) और पत्थरों पर नाम लिखाने से आगे बढ़कर जीवन-निर्माण के क्षेत्र में हमारी उपल  िध क्या रही? आर्यो! जीवन को घाटे का सौदा मत बनाओ, भवन-निर्माण से जीवन-निर्माण अधिक पुण्यप्रद कर्म है। देश में व्याप्त धार्मिक-पाखण्ड, अन्धविश्वास, भ्रष्टाचार, हिंसा, जातिगत विद्वेष और पारिवारिक बिखराव- उन सब रोगों की एक ही अमोघ औषधि है और वह है वेद विद्या का प्रचार-प्रसार। यह काम केवल और केवल आर्यसमाज ही कर सकता है। संकल्प लो कि हम स्वयं वेद पढ़ेंगे और वेद विद्या के प्रचार-प्रसार में ही अपना तन, मन, धन और समय लगायेंगे। ध्यान रखें जब तक हम स्वयं वेद पढ़ना प्रारम्भ नहीं करेंगे मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि तब तक हम वेद के लिए कुछ भी नहीं कर सकते। वेद प्रचार करने-कराने का दिखावा तो कोई भी कर सकता है, लेकिन सच्चे अर्थों में वेद विद्या के प्रचार-प्रसार में सक्रिय सहयोग व समर्थन देकर आर्य होने का सच्चा प्रमाण, सच्चा आदर्श वही प्रस्तुत कर सकता है जो स्वयं नित्य वेद स्वाध्याय करते हो। मित्रो! क्या आप वेद-स्वाध्याय का व्रत लेकर अपने व विश्व के कल्याण करने की दिशा में छोटा-सा दिखने वाला एक बड़ा कदम उठा रहे हो? यदि हाँ तो लेखक की हर्दिक शुभकामनाएँ सदा आपके साथ हैं, ईश्वर की कृपा, करुणा और दया सदैव आपका मार्ग प्रशस्त करें!!

– महर्षि दयानन्द स्मृति भवन, जोधपुर, राजस्थान

चलभाष– ०७५९७८९४९९१