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भगवानों की सूची जारी करोः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

राजनेताओं की धार्मिकता व भक्ति भावना देख-देख कर आश्चर्य होता है। लोकसभा के चुनाव के दिनों काशी में गंगा स्नान और गंगा जी की आरती की प्रतियोगिता देखी गई। केजरीवाल भी धर्मात्मा बनकर साथियों सहित गंगा में डुबकियाँ लगाते हुए मोदी को गंगा की आरती में सम्मिलित होने के लिए ललकार रहा था। अजमेर की कबर-यात्रा पर एक-एक करके कई नेता पहुँचे। चुनाव समाप्त होते ही दिग्विजय के गुरु स्वरूपानन्द जी ने साई बाबा भगवान् का विवाद छेड़ दिया। सन्तों का सम्मेलन होने लगा। स्वरूपानन्द जी संघ परिवार विरोधी माने जाते हैं। इन्हें हिन्दू हितों का ध्यान आ गया। हिन्दुओं को जोड़ने व हिन्दुओं की रक्षा के लिए कभी कोई आन्दोलन छेड़ा?

क्या ब्राह्मणेतर कुल में जन्मे किसी व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी  बनाने का साहस आप में है? क्या दलित वर्ग में जन्मे किसी भक्त से जल लेकर आचमन कर सकते हैं?

हिन्दुओं के कितने भगवान् हैं? यह उमा जी ने चर्चा छेड़ी है। संघ परिवार को और स्वरूपानन्द जी को हिन्दुओं के भगवानों की अपनी-अपनी सूची जारी करनी चाहिये। यह भी बताना होगा कि भगवान् एक है या अनेक? भगवानों की संख्या निश्चित है या घटती-बढ़ती रहती है। अमरनाथ यात्रा वाले अब लिंग की बजाय ‘बर्फानी बाबा’ का शोर मचाने लगे हैं। यात्री बम-बम भोले रटते हुए ‘ऊपर वाले’ की दुहाई देते हैं। क्या भगवान् सर्वत्र नहीं? ऊपर ही है? यह संघ व स्वरूपानन्द जी को स्पष्ट करना चाहिये। अमरनाथ यात्री टी.वी. में बता रहे थे कि ऊपर वाले की कृपा से हमें कुछ नहीं होगा। यदि भगवान् ऊपर ही है तो ‘ईशावास्य’ यह ऋचा ही मिथ्या हो गई। प्रभु कण-कण में है- यह मान्यता निरर्थक हो गई। हिन्दुओं को हिन्दू साधु, आचार्य, सन्त भ्रमित कर रहे हैं। धर्म रक्षा व धर्म प्रचार कैसे हो? एकता का कोई सूत्र तो हो।

मन्नतें पूरी होती हैंः साई बाबा विवाद में उमा जी ने यह भी कहा है कि अनेक भक्तों की मन्नतें साई बाबा ने पूरी कीं। मन्नतें पूरी करने वाले देश में सैकड़ों ठिकाने हैं। उमा जी जैसे भक्तों को राम मन्दिर निर्माण, कश्मीर के हिन्दुओं का पुनर्वास, धारा ३७०, निर्धनता निवारण, आतंकवाद से छुटकारे के लिए मन्नत माँग कर देश में सुख चैन का युग लाना चाहिए।

मन्नतों का अन्धविश्वास फैलाकर देश को डुबोया जा रहा है। केदारनाथ, बद्रीनाथ यात्रा की त्रासदी को कौन भूल सकता है? मन्नतें माँगने गये सैकड़ों भक्त जीवित घरों को नहीं लौटे। कई भगवान् बाढ़ में बह गये। इससे क्या सीखा? आँखें फिर भी न खुलीं।

भावुकता से अन्धे होकरः जामपुर (पश्चिमी पंजाब) में एक आर्य कन्या ने आर्यसमाज के सत्संग में एक कविता सुनाई। उसकी एक पंक्ति थी-

मेरी मिट्टी से बूये वफ़ा आयेगी।

अर्थात् मरने के पश्चात् मेरी कबर से निष्ठा की गन्ध आयेगी। पं. चमूपति जी ने वहीं बोलते हुए कहा, क्या शिक्षा दे रहे हो? क्या मेरी यह पुत्री मुसलमान के रूप में मरना चाहती है? चिता की, दाहकर्म की बजाय कबर की बात जो कर रही है। बोलते और लिखते समय अन्धविश्वास तथा भ्रामक विचार फैलाने से बचने के लिए सद्ग्रन्थों के आधार पर ही कुछ लिखना-बोलना चाहिए।

आर्यसमाज की हानिः संघ का गुरु दक्षिणा उत्सव था। संघ वाले स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पास अपने कार्यक्रम की अध्यक्षता करने का प्रस्ताव लेकर आये। लोकैषणा से कोसों दूर महाराज ने यह कहकर उनकी विनती ठुकरा दी कि इसमें आर्यसमाज की हानि है।

उन्होंने पूछा, ‘क्या हानि है?’

स्वामी जी ने कहा, ‘मेरी अध्यक्षता में आप जड़ पूजा करेंगे। झण्डे को गुरु मानकर दक्षिणा चढ़ायेंगे, इससे आर्यसमाज में क्या सन्देश जायेगा?’

आर्यसमाज अपनी मर्यादा, अपने इतिहास को भूलकर योगेश्वर नामधारी थोथेश्वरों को अपना पथ प्रदर्शक मानकर भटक रहा है। एक योग गुरु ने मिर्जापुर में मजार पर चादर चढ़ाई। कोई गंगा की आरती उतार रहा है तो कोई म.प्र. जाकर मूर्ति पर जल चढ़ा रहा है।

ऋषि ने लिखा है, उसी की उपासना करनी योग्य है। यही वेदादेश है।

 

 

हनुमान जी बन्दर नहीं थे

भारतीय इतिहास में अनेक विद्वान् तथा बलवान् हुए हैं। हनुमान उनमें से एक                       व्यक्ति थे। उनकी सेवक के रूप में बहुत अच्छी      है। उनका जीवन आदर्श ब्रह्मचारी का भी रहा है परन्तु हमारे नादान पौराणिक भाइयों ने उन्हें बन्दर मानकर उनके साथ अन्याय किया हैः-
एक वे हैं जो दूसरों की छवि को देते हैं सुधार।
एक हम हैं लिया अपनी ही सूरत को बिगाड़।।
वे बन्दर न थे, अपितु पूर्णतः ऊपरोक्त गुणों से युक्त एक प्रेरक, आदर्श तथा कुलीन महापुरुष थे। कुछ प्रमाणों से हम इसे स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। मर्यादा                                           राम से उनकी प्रथम भेंट तब हुई थी, जब राम व लक्ष्मण भगवती सीता की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे। खोजते-खोजते वे दोनों ऋष्यमूक पर्वत पर- सुग्र्रीव की ओर गए तो सुग्रीव उन्हें दूर से देखकर भयभीत हो गया। उसने अपने मन्त्रियों से यह कहा कि ये दोनों वाली के ही भेजे हुए हैं ऐसा प्रतीत होता है। हे वानर शिरोमणी हनुमान! तुम जाकर पता लगाओ कि ये कोई दुर्भावना लेकर तो नहीं आये हैं।
सुग्रीव की इस बात को सुनकर हनुमान जहाँ अत्यन्त बलशाली श्री राम तथा लक्ष्मण थे, उस स्थान के लिए तत्काल चल दिये। वहाँ पहुँचने से पूर्व उन्होंने अपना रूप त्यागकर भिक्षु (=सामान्य तपस्वी) का रूप धारण किया तथा श्री राम व लक्ष्मण के पास जाकर अपना परिचय दिया तथा उनका परिचय लिया।
तत्पश्चात् श्री राम ने अनुज लक्ष्मण से कहा-
नानृग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः।
नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्।।
वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक २८
जिसे ऋग्वेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का                           नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान् नहीं है, वह इस प्रकार सुन्दर भाषा में वार्तालाप नहीं कर सकता।
नूनं व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधा श्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचिदपश    िदतम्।।
-वा. रा., किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग श्लोक २९
अर्थः- निश्चय ही इन्होंने                                   व्याकरण का अनेक बार अध्ययन किया है। यही कारण है कि इनके इतने समय बोलने में इन्होंने कोई भी त्रुटि नहीं की है।
न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे च भ्रुवोस्तथा।
अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित्।।
-वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, तृतीय सर्ग, श्लोक ३०
अर्थः-                               के समय इनके मुख, नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अंगों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नहीं हुआ।
इससे स्पष्ट है कि हनुमान वेदों के विद्वान् तो थे ही, व्याकरण के उत्कृष्ट ज्ञाता भी थे तथा उनके शरीर के सभी अंग अपने-अपने करणीय कार्य उचित रूप में ही करते थे। शरीर के अंग जड़ पदार्थ हैं व मनुष्य का आत्मा ही अपने उच्च संस्कारों से उच्च कार्यों के लिए शरीर के अंगों का प्रयोग करता है।                   किसी बन्दर में यह योग्यता हो सकती है कि वह वेदों का विद्वान् बने? व्याकरण का विशेष ज्ञाता हो? अपने शरीर की उचित देखभाल भी करे?
रामायण का दूसरा प्रमाण इस विषय में प्रस्तुत करते हैं। यह प्रमाण तब का है, जब अंगद,                                   व हनुमान आदि समुद्रतट पर बैठकर समुद्र पार जाकर  सीता जी की खोज करने के लिए विचार कर रहे थे। तब                                  ने हनुमान जी को उनकी उ                                  कथा सुनाकर समुद्र लङ्घन के लिए उत्साहित किया। केवल एक ही श्लोक वहाँ से उद्धृत है-
सत्वं केसरिणः पुत्रःक्षेत्रजो भीमविक्रमः।
मारुतस्यौरसः पुत्रस्तेजसा चापि तत्समः।।
-वा. रामायण, किष्किन्धा काण्ड, सप्तषष्टितम सर्ग, श्लोक २९
अर्थः- हे वीरवर! तुम केसरी  के क्षेत्रज पुत्र हो। तुम्हारा पराक्रम शत्रुओं के लिए भयंकर है। तुम वायुदेव के औरस पुत्र हो, इसलिए तेज की दृष्टि से उन्हीं के समान हो। इससे सिद्ध है कि हनुमान जी के पिता केसरी थे परन्तु उनकी माता अंजनी ने पवन नामक पुरुष से नियोग द्वारा प्राप्त किया था। इस सत्य को स्वयं हनुमान जी ने भी स्वीकार किया, जब वे लंका में रावण के दरबार में प्रस्तुत किए गए थे-
अहं तु हनुमान्नाम मारुतस्यौरसः सुतः।
सीतायास्तु कृते तूर्णं शतयोजनमायतम्।।
– वा. रामायण, सुन्दरकाण्ड, त्रयस्त्रिंश सर्ग
अर्थः- मैं पवनदेव का औरस पुत्र हूँ। मेरा नाम हनुमान है। मैं सौ योजन पार कर सीता जी की खोज में आया हूँ।
हनुमान को मनुष्य न मानकर उन्हें बन्दर मानने वालों से हमारा निवेदन है कि इन दो प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध है कि हनुमान जी बन्दर न थे, अपितु वे एक नियोगज पुत्र थे। नियोग प्रथा मनुष्य समाज में अतीत में प्रचलित थी। यह प्रथा बन्दरों में प्रचलित होने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। रामायण के इस प्रबल प्रमाण के होते हुए हनुमान जी को मनुष्य मानना ही पड़ेगा।
रामायण में से ही हम तीसरा प्रमाण भी प्रस्तुत करते हुए सिद्ध कते हैं कि हनुमान मनुष्य ही थे, न कि वे बन्दर थे। यह प्रमाण तब का है, जब हनुमान लंका में पहुँच तो गए थे किन्तु बहुत प्रयास करने पर भी सीता जी का पता न कर पाए तो वे सोचने लगे थे कि बिना सीता जी का अता-पता पाए मैं यदि लौटूँगा तो राम जी तथा स्वामी सुग्रीव जी को                   सूचना दूँगा? वहाँ हा हाकार मचेगा। वाल्मीकि ऋषि के                शब्द्दों मेंः-
सोऽहं नैव गमिष्यामि किष्कि न्धां नगरीमितः।
वानप्रस्थो भविष्यामि ह्यदृष्ट्वा जनकात्मजाम्।।
वा. रा., सुन्दरकाण्ड, सप्तम सर्ग
अर्थः- मैं यहाँ से लौटकर किष्किन्धा नहीं जाऊँगा। यदि मुझे सीता जी के दर्शन नहीं हुए तो मैं वानप्रस्थ धारण कर लूँगा। हनुमान जी को मनुष्य न मानकर बन्दर घोषित करने वाले अपने पौराणिक भाई-बहनों से निवेदन है कि वे अपना हठ त्याग कर यह तथ्य तुरन्त स्वीकार कर लें कि हनुमान सच्चे वैदिक धर्मी मनुष्य थे, न कि वे बन्दर थे क्योंकि वानप्रस्थी बनने की बात सोचना तो दूर क ी बात है, वानप्रस्थ                       होता है, बन्दरों को यह भी ज्ञात नहीं होता। हनुमान को बन्दर मानने वाले लोग तुलसीदास गोस्वामी द्वारा रचित ‘‘हनुमान चालीसा’’ का पाठ करते हैं परन्तु उसमें भी एक प्रमाण ऐसा है जो हमारी बात का समर्थन करता हैः-
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजे।
कान्धे मूँज जनेऊ साजे।।
काश! ऐसे लोग इस चालीसा में                                   यह पाँचवा पद बोलते-पढ़ते समय इतना समझ पाते कि इसके अनुसार हनुमान जी अपने कन्धे पर जनेऊ धारण किए फिरते थे तथा बन्दर नहीं, अपितु जनेऊ (= यज्ञोपवीत) तो मनुष्य ही धारण करते हैं।
हनुमान दूरस्थ किसी पर्वत पर जाकर मूर्च्छित लक्ष्मण के उपचार के लिए संजीवनी बूटी लाए थे। यह कार्य भी कोई बन्दर नहीं कर सकता अपितु कोई मनुष्य ही कर सकता था जिसे जड़ी-बूटियों का पर्याप्त ज्ञान हो।
हनुमान से हटकर अब थोड़े विचार उनके समकालीन रामायण के कुछ अन्य पात्रों के विषय में भी प्रस्तुत हैं। इनमें एक प्रसंग वाली की पत्नी तारा से                               है। जब सुग्रीव दूसरी बार वाली को युद्ध के लिए ललकारने गया तो वाली की पत्नी तारा ने अपने पति को राम जी से मैत्री कर लेने की प्रार्थना की परन्तु वाली ने ऐसा न करके सुग्रीव का सामना करने, सुग्रीव का घमण्ड चूर-चूर करने, परन्तु सुग्रीव के प्राण हरण न करने का वचन देकर तारा को वापिस राजप्रसाद में चले जाने को कहा तो-
ततः स्वस्त्ययनं कृत्वा मन्त्रविद् विजयैषिणी।
अन्तःपुरं सह स्त्रीभिः प्रविष्टा शोकमोहिता।।
-वा.रा. किष्किन्धा काण्ड, षोडश सर्ग श्लोक १२
अर्थः- वह पति की विजय चाहती थी तथा उसे मन्त्र का भी ज्ञान था। इसलिए उसने वाली की मंङ्गल-कामना से स्वस्तिवाचन किया तथा शोक से मोहित होकर वह अन्य स्त्रियों के साथ अन्तःपुर को चली गई।
मन्त्र का ज्ञान बन्दरों को अथवा बन्दरियों को नहीं होता, न ही हो सकता है। अतः सिद्ध है कि हनुमान का जिन से मिलना-जुलनादि था, उनकी पत्नियाँ भी मनुष्य ही थीं। यही तारा जब अपने पति वाली को प्राण त्यागते देख रही थी तो अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी बोली-
यद्यप्रियं किंचिदसम्प्रधार्य कृतं मया स्यात् तव दीर्घबाहो।
क्षमस्व मे तद्धरिवंशनाथ व्रजामि मूर्धा तव वीरपादौ।।
– वा. रा. किष्किन्धाकाण्ड, एकविंश सर्ग, श्लोक २५
अर्थः- ‘‘महाबाहो! यदि नासमझी के कारण मैंने आपका कोई अपराध किया हो तो आप उसे क्षमा कर दें। वानरवंश के स्वामी वीर आर्यपुत्र! मैं आपके चरणों में मस्तक रखकर यह प्रार्थना करती हूँ।’’ इस श्लोक से सिद्ध है कि वाली आर्यों के एक वंश वानर में जन्मा  मनुष्य ही था। इसी प्रकार तारा को भी महर्षि वाल्मीकि ने आर्य पुत्री ही घोषित कियाः-
तस्येन्द्रकल्पस्य दुरासदस्य महानुभावस्य समीपमार्या।
आर्तातितूर्णां व्यसनं प्रपन्ना जगाम तारा परिविह्वलन्ती।।
– वा. रा. किष्किंधा काण्ड, चतुर्विंश सर्ग श्लोक २९
अर्थः- ‘‘उस समय घोर संकट में पड़ी हुई शोक पीड़ित आर्या तारा अत्यन्त विह्वल हो गिरती-पड़ती तीव्र गति से महेन्द्र तुल्य दुर्जय वीर महानुभाव श्री राम के समीप गई।’’
वाली की मृत्यु के पश्चात् अङ्गद व सुग्रीव ने वाली के शव का अन्त्येष्टि-संस्कार शास्त्रीय विधि से कियाः-
ततोऽग्ंिन विधिवद् द    वा सोऽपसव्यं चकार ह।
पितरं दीर्घमध्वानं प्रस्थितं व्याकुलेन्द्रियः।।
संस्कृत्य वालिनं तं तु विधिवत् प्लवगर्षभाः।
आजग्मुरुदकं कर्तुं नदीं शुभजलां शिवाम्।।
– वा. रा. किष्किंधा काण्ड, षड्विंश सर्ग, श्लोक ५०-५१
अर्थः- ‘‘फिर शास्त्रीय विधि के अनुसार उसमें आग लगाकर उन्होंने उसकी प्रदक्षिणा की। इसके बाद यह सोचकर कि मेरे पिता लम्बी यात्रा के लिए प्रस्थित हुए हैं, अङ्गद की सारी इन्द्रियाँ शोक से व्याकुल हो उठीं। इस प्रकार विधिवत् वाली का दाह संस्कार करके सभी वानर जलाञ्जलि देने के लिए पवित्र जल से भरी हुई कल्याणमयी तुङ्गभद्रा नदी के तट पर आए।’’
इस प्रमाण से सिद्ध होता है कि वाली, सुग्रीव, अङ्गद आदि वेद विहित शास्त्रीय कार्य करते थे। यह भी उनके मनुष्य होने का प्रमाण है।
उपर्युक्त तथ्यों के बाद हम अब सामान्य विश्लेषण करते हुए पौराणिकों से पूछते हैं कि वाली की पत्नी तारा, सुग्रीव की पत्नी रुमा हनुमान की माँ अंजनि मनुष्य योनि की स्त्रियाँ थीं तो उनके माताओं-पिताओं ने उन्हें बन्दरों अर्थात् वाली, सुग्रीव तथा केसरी के सङ्ग                                             दिया था? बन्दरों व स्त्रियों से बन्दरों का जन्म होना अव्यवहारिक व अवैज्ञानिक है। अतः यह सर्वथा अमान्य है कि उक्त पुरुष बन्दर थे। यह भी निवेदन है कि बन्दरों, उनकी पत्नियों, उनके पिताओं तथा उनकी माताओं के नाम नहीं होते, उनके जीवन का कोई इतिहास नहीं होता, खाने-पीने व सोने-जागने के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य वे करते नहीं। फिर ऊपरोक्त पात्रों के नामकरण                       हुए? उनके कार्य-व्यवहार मनुष्यों जैसे-कैसे                   हुए?
वास्तविकता यह है कि वानर एक जाति है। इसे आंग्ल भाषा में सरनेम भी कहते हैं। हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा व हमीरपुर जिलों में नाग जाति के कुछ मनुष्य आपको मिल सकते हैं। नाग                  का अर्थ सर्प है परन्तु वे इस                  को अपने नाम के साथ सहर्ष लिखते हैं। पिछले वर्ष के न्द्र सरकार में कार्यरत एक उच्चाधिकारी जब सेवानिवृ    ा हुए था तो किसी विशेष कारण वश उसका नाम भी दैनिक पत्रों में छपा था। तब पता चला कि वह भी ऊपरोक्त नाग जाति का ही सदस्य था। सन् १९६९ में भारत के राष्ट्रपति पद पर वी.वी. गिरि नामक एक दक्षिण भारतीय व्यक्ति आसीन हुआ था। गिरि                  का अर्थ पर्वत है परन्तु वह पर्वत न होकर मनुष्य ही था। गिरि उसका सरनेम था या उसकी जाति थी। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, उ    ारप्रदेश तथा कुछ अन्य प्रदेशों में बहुत-से लोग (अधिकतर जन्मना क्षत्रिय) अपने नाम के साथ सिंह                  का प्रयोग करते हैं, जिसका अर्थ शेर है। हरियाणा में बहुत-से लोग मोर जाति से सम्बद्ध हैं और उनके नाम के पीछे मोर                  लिखा होता है। पंजाब के एक राज्यपाल जयसुख लाल हाथी हुए हैं। हरियाणा में सिंह मार नामक जाति के कई व्यक्ति आपको मिल सकते हैं।
इस वर्णन के आधार पर हमारा निवेदन है कि जिस प्रकार नाग, गिरि, मोर, सिंह, हाथी व सिंह मार नामक जातियाँ मनुष्यों की ही हैं, न कि सर्पों, पर्वतों, शेरों, हाथियों व शेरों के हत्यारों आदि की हैं, हालांकि इनके शा    िदक अर्थ ऊपरोक्त ही है। इसी प्रकार रामायण के हनुमान, सुग्रीव, बाली, तारा, रुमा, जाम्बवान व अङ्गद आदि वानर नामक मनुष्य जाति के सदस्य थे, न कि ये बन्दर थे। यह उनके कार्यों व इतिहास से प्रमाणित किया गया है।
– चूना भट्ठियाँ, सिटी सेन्टर के निकट, यमुनानगर (हरियाणा)

नरक, स्वर्ग व मोक्ष क्या हैं ? – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा मैं आपसे अपनी ही नहीं अपितु आम व्यक्तियों की जिज्ञासा हेतु कुछ जानना चाहता हूँ। कृपया समाधान कर कृतार्थ करें-

(क) तमाम कथावाचक, उपदेशक, साधु व सन्त नरक, स्वर्ग व मोक्ष की बातें करते हैं। आप इन को विस्तृत रूप से समझायें और अपने विचार दें।

समाधन– (क) वेद विरुद्ध मत-सम्प्रदायों ने अनेक मिथ्या कल्पना कर, उन कल्पनाओं को जन सामान्य में फैलाकर पूरे समाज को अविद्या अन्धकार में फँसा रखा है, जिससे जगत् में दुःख की ही वृद्धि हो रही है। ये मत-सम्प्रदाय ऊपर से अध्यात्म का आवरण अपने ऊपर डाले हुए मिलते हैं। यथार्थ में देखा जाये तो जो वेद के प्रतिकूल होगा वह अध्यात्म हो ही नहीं सकता। कहने को भले ही कहता रहे। महर्षि दयानन्द के काल में व उनसे पूर्व और आज वर्तमान में इन मत-सम्प्रदायों की संख्या देखी जाये तो हजारों से कम न होगी। उन हजारों में शैव, शाक्त, वैष्णव, वाममार्ग, बौद्ध, जैन, ईसाई, इस्लाम आदि प्रमुख हैं। महर्षि दयानन्द के समय से कुछ पूर्व स्वामी नारायण सम्प्रदाय, रामस्नेही सम्प्रदाय, वल्लभ सम्प्रदाय, गुसाईं मत आदि और महर्षि के बाद राधास्वामी मत, ब्रह्माकुमारी मत, हंसा मत, सत्य सांई बाबा पंथ (दक्षिण वाले), आनन्द मार्ग, महेश योगी, माता अमृतानन्दमयी, डेरा सच्चा सौदा, आर्ट ऑफ लिविंग, निरंकारी, विहंगम योग, शिव बाबा आदि कितनों के नाम लिखें। ये सब अवैदिक मान्यता वाले हैं। इन्होंने अपने-अपने मत की पुस्तकें भी बना रखी हैं। इन पुस्तकों में इन मत वालों ने अपनी मनघड़न्त कल्पनाओं के आधार पर ही अधिक लिख रखा है। स्वर्ग, नरक, मोक्ष, आकाश में देवताओं का निवास स्थान, यमराज, यमदूत आदि की व्याख्याएँ अविद्यापरक ही हैं।

आपने स्वर्ग, नरक, मोक्ष के विषय में जो आज के तथाकथित उपदेशक, कथावाचक, साधु-सन्त कहते-बतलाते हैं, उसके सम्बन्ध में जानना चाहा है। यहाँ हम महर्षि की मान्यता को लिखते हैं व इन तथाकथित कथावाचकों की इन विषयों में क्या दृष्टि है उसको भी लिखते हैं। ‘‘स्वर्ग- जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है वह स्वर्ग कहाता है। नरक- जो विशेष दुःख और दुःख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है उसको नरक कहते हैं।’’ आर्योद्दे. १४-१५ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश में महर्षि इनके विषय में लिखते हैं- ‘‘स्वर्ग- नाम सुख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति का है। नरक- जो दुःख विशेष भोग और उनकी सामग्री प्राप्ति को प्राप्त होना है।’’ सत्यार्थप्रकाश ९वें सम्मुल्लास में महर्षि लिखते हैं- ‘‘…….सुख विशेष स्वर्ग और विषय तृष्णा में फँसकर दुःख विशेष भोग करना नरक कहाता है। ‘स्वः’ सुख का नाम है, स्व सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः, अतो विपरीतो दुःखभोगो यस्मिन् स नरक इति। जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर की प्राप्ति में आनन्द है, वही विशेष स्वर्ग कहाता है।’’

महर्षि की इन परिभाषाओं के आधार पर (परमेश्वर की प्राप्ति रूप विशेष स्वर्ग को छोड़) स्वर्ग-नरक किसी लोक विशेष या स्थान विशेष पर न होकर, जहाँ भी मनुष्य आदि प्राणी हैं, वहाँ हो सकते हैं। जो इस संसार में सब प्रकार से सम्पन्न है अर्थात् शारीरिक स्वस्थता, मन की प्रसन्नता, बन्धु जन आदि का अनुकूल मिलना, अनुकूल साधनों का मिलना, धन सम्प   िा पर्याप्त मिलना आदि है, जिसके पास ये सब हैं वह स्वर्ग में ही है। इसके विपरीत होना नरक है, नरक में रहना है। वह नरक भी इसी संसार में देखने को मिलता है।

नरक के विषय में किसी नीतिकार ने लिखा है

अत्यन्तकोपः कटुका च वाणी, दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्।

नीचप्रसङ्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्।।

अत्यन्त क्रोध, कटुवचन, दारिद्र्य, अपने स्वजनों से वैर-भाव, नीच-दुर्जनों का संग और कुलहीन की सेवा, ये चिह्न नरकवासियों की देह में होते हैं। ये सब चिह्न इसी संसार में देखने को मिलते हैं। इस आधार पर स्वर्ग अथवा नरक के लिए कोई लोक पृथक् से हो ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा। यह काल्पनिक ही सिद्ध हो रहा है।

जिस स्वर्ग लोक की कल्पना इन लोगों ने कर रखी है, वह तो इस पृथिवी पर रहने वाले एक साधन सम्पन्न व्यक्ति से अधिक कुछ नहीं है।

मोक्ष निराकार परमेश्वर को प्राप्त कर, उसके आनन्द में रहने का नाम है अर्थात् जब जीव अपने अविद्यादि दोषों को सर्वथा नष्ट कर, शुद्ध ज्ञानी हो जाता है तब वह सब दुःखों से छूट कर परमेश्वर के आनन्द में मग्न रहता है, इसी को मोक्ष कहते हैं। वहाँ आत्मा अपने शरीर रहित अपने शुद्ध स्वरूप में रहता है। कथावाचकों के मोक्ष की कल्पना और उसके साधनों की कल्पना सब मिथ्या है। किन्हीं का मोक्ष गोकुल में, किसी का विष्णु लोक क्षीरसागर में, किसी का श्रीपुर में, किसी का कैलाश पर्वत में, किसी का मोक्षशिला शिवपुर में, तो किसी का चौथे अथवा सातवें आसमान आदि पर। इस प्रकार के मोक्ष के उपाय भी मिथ्या एवं काल्पनिक हैं। जैसे-

गङ्गागङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति।।

– ब्रह्मपुराण. १७५.९२/पप.पु.उ. २३.२

अर्थात् जो सैकड़ों सहस्रों कोश दूर से भी गंगा-गंगा कहे, तो उसके पाप नष्ट होकर वह विष्णु-लोक अर्थात् वैकण्ठ को जाता है।

हरिर्हरति पापानि हरिरित्यक्षरद्वयम्।।

अर्थात् हरि इन दो अक्षरों का नामोच्चारण सब पापों को हर लेता है, वैसे ही राम, कृष्ण, शिव, भगवती आदि नामों का महात्म्य है।

इसी तरह

प्रातः काले शिवं दृष्ट्वा निशि पापं विनश्यति।

आजन्म कृतं मध्याह्ने सायाह्ने सप्तजन्मनाम्।।

अर्थात् जो मनुष्य प्रातः काल में शिव अर्थात् लिंग वा उसकी मूर्ति का दर्शन करे तो रात्रि में किया हुआ, मध्याह्न में दर्शन से जन्मभर का, सायङ्काल में दर्शन करने से सात जन्मों का पाप छूट जाता है।

इस प्रकार के उपाय पाप छूटाने मोक्ष दिलाने के मिथ्या ग्रन्थों में लिखे हैं और इन्हीं प्रकार के उपाय आज का तथाकथित कथावाचक बता रहा है। पाठक स्वयं देखें, समझें कि ये उपाय पाप छुड़ाने वाले हैं या अधिक-अधिक पाप कराने वाले। भोली जनता इन साधनों से ही अपना कल्याण समझती है, जिससे लोक में अविद्या अन्धकार, अन्धविश्वास, पाखण्ड और अधिक फैल रहा है।

वेद व ऋषियों द्वारा मुक्ति व उसके उपाय ऐसे नहीं हैं। वहाँ तो सब बुरे कामों और जन्म-मरण आदि दुःख सागर से छूटकर सुखस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होकर सुख ही में रहना मुक्ति कहाती है। और ऐसी मुक्ति के उपाय महर्षि दयानन्द लिखते हैं ‘‘…..ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का करना, धर्म का आचरण और पुण्य का करना, सत्संग, विश्वास, तीर्थ सेवन (विद्याभ्यास, सुविचार, ईश्वरोपासना, धर्मानुष्ठान, सत्य का संग, ब्रह्मचर्य, जितेन्द्रियतादि उत्तम कर्मों का सेवन), सत्पुरुषों का संग और परोपकारादि सब अच्छे कामों का करना तथा सब दुष्ट कर्मों से अलग रहना, ये सब मुक्ति के साधन कहाते हैं।’’ इन मुक्ति के साधनों को देख पाठक स्वयं विचार करें कि यथार्थ में मुक्ति के साधन, उपाय ये महर्षि द्वारा कहे गये हैं वा उपरोक्त मिथ्या ग्रन्थों व तथाकथित कथावाचकों द्वारा कहे गये हैं वे हैं। निश्चित रूप से ऋषि प्रतिपादित ही मुक्ति के उपाय हो सकते हैं, दूसरे नहीं।

मिथ्या पुराणों जैसी ही मुक्ति ईसाइयों व मुसलमानों की भी है। ईसाइयों के यहाँ खुदा का बेटा जिसे चाहे बन्धन में डलवा दे। ईसाई जगत् में तो जीवितों को मुक्ति के पासपोर्ट मिल जाते हैं। समय से पूर्व अपना स्थान सुरक्षित कराया जाता है। जितना कुछ चाहिए उससे पूर्व उतना धन चर्च के पोप को पूर्व में जमा कराया जाता है।

मुसलमानों के यहाँ भी ‘नजात’ होती है और वहाँ पहुँच कर सब सांसारिक ऐश परस्ती के साधन विद्यमान हैं, मोहम्मद की सिफारिश के बिना उसकी प्राप्ति नहीं है अर्थात् उन पर ईमान लाये बिना। कबाब, शराब, हूरें, गितमा आदि सभी ऐय्याशी के साधन मिलते हैं। क्या यह भी कभी मुक्ति कहला सकती है? अर्थात् ऐय्याशी करना कभी मुक्ति हो सकती है? इस मुक्ति पर मुसलमानों का विश्वास भी है। वे कहते हैं-

अल्लाह के पतले में वहदत के सिवाय क्या है।

जो कुछ हमें लेना है ले लेंगे मोहम्मद से।।

इतना सब लिखने का तात्पर्य यही है कि जो वेद व ऋषि प्रतिपादित नरक, स्वर्ग व मोक्ष की परिभाषाएँ हैं, वही मान्य हैं इससे इतर नहीं। स्वर्ग व मोक्ष के उपाय भी वेद व ऋषियों द्वारा कहे गये ही उचित हैं। इन मिथ्या पुराणों व इनके कथावाचकों द्वारा कहे गये नहीं।

हिंदूइस्म धर्म या कलंक का प्रत्युतर

हिन्दू धर्म पर कटाक्ष करती ओर अंट शंट झूटे आरोपों से युक्त एक अम्बेडकरवादी ऐ आर बाली ने हिन्दू धर्म पर पुराणों के अलावा वेदों के सन्धर्भ से आरोप लगाया कि वेदों में पिता पुत्री ,माता पुत्र , भाई बहन आदि के बीच योन सम्बन्धो की छुट थी | वेसे आपको बता दे हम पुराणों को प्रमाण नही मानते क्यूंकि पुराण काफी बाद के है ओर उनमे सत्य इतिहास भी होना सम्भव नही लेकिन फिर भी आपके कुछ तथ्य पुराणों से जांचते है ..
एक बात ओर ध्यान रखिये यदि किसी एतिहासिक घटना में कोई बुद्धि विरोध या अश्लील प्रसंग आता है तो उसका ये मतलब नही कि वो उसके धर्म का या संस्कृति का अंग है ..जेसे जापान में पिता पुत्री .माँ बेटे के बीच सम्बन्ध बनाने को कानूनी मान्यता मिली है जिसे गूगल पर लीगल इन्सेक्ट लिख कर देख सकते है तो क्या हम ये माने कि बोद्ध धम्म इन सबकी आज्ञा देता है | अब आपके आरोप को देखते है –

आपका कहना है कि पिता पुत्री के सम्बन्ध वैदिक काल में उचित थे महाशय जी जरा वेदों के बारे में भी देखिये वेद इस बारे में क्या कहते है -स लक्ष्मा यद विषुरूपा भवाति -अर्थव ८/१/२ अर्थात सगे सम्बन्धियों की कन्या से सम्बन्ध रखना बड़ा ही विषम है | आप तो वैदिक काल में कुछ ओर बता रहे थे जबकि वेदों में तो मौसी की लडकी , मामी की लडकी बुआ की लडकी आदि सगे सम्बन्धियों की कन्या से सम्बन्ध का निषेध है | ओर देखिये – ” पापामाहुर य: स्वसार निग्च्छात ” अर्थव १८/१/१४ अर्थत वो पापी है जो बहन से सम्बन्ध या विवाह करता है | देखा आपने वेदों में ऐसे सम्बन्धो का निषेध है | लेकिन क्या आप जानते है कि आपके ही भगवान बुद्ध ने अपने बुआ की लडकी यशोधरा से विवाह किया था अर्थात बुद्धो में इन सबकी छुट है आर्यों में नही |
आप मनुस्मृति का निम्न श्लोक भी देखिये –
” असपिंडा च या मातुरसगोत्र च या पितु:| 
सा प्रशस्ता द्विजातीना दारकर्माणि मैथुन || मनु ३:५ || ” अर्थत जो स्त्री माता की छ पीढ़ी ओर पिता के गोत्र की न हो विवाह करने के लिए उत्तम है | 
देखो आर्यों में तो सगोत्र विवाह या सम्बन्ध तक का निषेध है फिर आप ये कहा से ले आये |
अब आपके दिए उदाहरण देखते है – आपने लिखा वशिष्ठ का विवाह शतरूपा से हुआ | वाह क्या कहना आपका ये सब जानते है कि स्वयभू मनु की पत्नि का नाम शतरूपा था | देखिये ब्रह्माण पुराण २/१/५७ में शतरूपा को मनु की पत्नि बताया है ओर धरती के पहले स्त्री पुरुष | फिर आपने लिखा इला का विवाह मनु से ,,,ये भी आपकी मुर्खता कहे या कुंठा समझ नही आता लेकिन ये भी पौराणिक बन्धु जानता है कि मनु की पुत्री इला थी ओर उसका विवाह चन्द्रमा (सोम ) के पुत्र बुद्ध से हुआ जिनका एक पुत्र पुरुरवा था जिससे पुरु वंश चला |
आपने ये भी लिखा है कि दोहित्र ने अपनी पुत्री का विवाह पिता चन्द्र से किया लेकिन उपर देखिये चन्द्र की पत्नि तारा थी जो ब्रहस्पति की पुत्री बताई है | उसी से बुध उत्पन्न हुआ था | मत्स्य पुराण में ऋषि अत्रि ओर अनसूया का पुत्र चन्द्र या सोम बताया है | आपने सूर्य की पुत्री उषा बताई लेकिन पुराणों में सूर्य के पुत्री में यमुना का उलेख है जो कि यम की बहन है | आपने अपने दिमाग के आधार पर सारा इतिहास गढ़ लिया | वेसे आप लोगो के विरोधाभास का क्या कहना एक तरफ तो हिन्दू ग्रंथो को काल्पनिक तो दूसरी तरफ अपना उल्लू सीधा करने के लिए उन्ही का साहरा लेते हो | एक बात पर रुकिए काल्पनिक है तो सब काल्पनिक ही मानिए |
आपने एक प्रथा यज्ञ में अपने मन से गढ़ ली जिसका उलेख न वेदों में है ,न श्रोतसूत्रों में ओर न ही ब्राह्मण ग्रंथो में है वामदेव विर्कत | इसी पुष्टि में आपने सत्यवती ओर पाराशर का उदाहरण भी दिया | लेकिन आपकी कुंठा का क्या कहना महाभारत में जो स्थल नौका का था क्यूंकि सत्यवती एक मछुआरिन थी ,उसे आपने यज्ञ स्थल अपनी गोबरबुद्धि से कर दिया | वो महाभारत का प्रसंग है ओर महाभारत में उतरोतर श्लोक बढ़ते गये है जिनमे हो सकता है ये पूरा प्रसंग प्रक्षेप हो फिर भी जेसा आपने यज्ञ स्थल की बात की है तो बताइए सत्यवती के पिता ने कौनसा यज्ञ का अनुष्ठान किया | ओर यदि महाभारत ,रामायण में पाराशर ओर सत्यवती आदि के जेसे कोई अनुचित सम्बन्ध मिलते है तो इसका ये अर्थ नही कि वो उस संस्कृति या धर्म का सिद्धांत हो गया जेसा मेने उपर ही बता दिया है वो एक घटना मात्र है | आपने योनि शब्द की भी कल्पना कर ली ओर अयोनि की भी पता नही कहा से आपने संस्कृत ,हिंदी का ज्ञान लिया ये तो आप ही जाने लेकिन योनि या योनिज उन्हें बोलते है जो मैथुन आदि से उत्त्पन्न हो जेसे स्तनधारी प्राणी ,सर्प आदि ओर अयोनिज उसे बोलते है जो अमेथुनी अर्थात बिना मैथुन से उत्पन्न होए जेसे क्लोन , पसीने से उत्पन्न कीट , वर्षा ऋतु में उत्त्पन्न मच्छर , मछलिय आदि | इसके लिए वैशेषिक दर्शन भी देख सकते है | अपने पक्ष की पुष्टि के लिए आपने द्रोपती ओर सीता का उदाहरण दिया | आपने बताया कि द्रोपती की उत्त्पति घर के बाहर हुई जबकि महाभारत में ही लिखा है कि एक यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा द्रोपती की उत्त्पति राजा द्रुपद के समक्ष हुई | आपने बाहर का काल्पनिक प्रसंग कहा से गढ़ लिया | आपने सीता का उदाहरण दिया | वेसे आपको बता देंवे महाभारत की तरह रामायण में भी प्रक्षेप है इसका उदाहरण है – चतुविशतिसहस्त्रानि श्लोकानाक्त्वान ऋषि:| तत: सर्गशतान पंच षटकाण्डानि तथोत्तरम ||बालकाण्ड ४/२ अर्थात रामायण का निर्माण २४००० श्लोको पांच सौ सर्ग ओर छह कांडो में कहा गया | जबकि आज प्राप्त रामायण में २५००० श्लोक ओर ७ काण्ड है इससे पता चलता है रामायण में प्रक्षेप है |
सीता जनक की ही पुत्री थी इसका प्रमाण रामायण के निम्न स्न्धर्भो से ज्ञात होता है -रामायण में अनेक जगह सीता को जनक की आत्मजा कहा है | अमरकोश २/६/२७ में आत्मज का अर्थ है जो शरीर से पैदा हो | इस तरह जनक की आत्मजा मतलब जनक से उत्त्पन्न उनकी पुत्री | रामयाण बालकाण्ड ६६/१५ में आया है वर्धमान ममातमजात ये वाक्य सीता का परिचय देते हुए जनक कहते है कि ये मेरी आत्मजा है | रघुवंश १३/७८ में सीता को जनक की आत्मजा बताया है जनकात्मजा (रघुवंश १३/७८ ) |
रामयाण में सीता की भूमि से उत्त्पति वाली काल्पनिक कथा है जिसके बारे में पौराणिक आचार्य करपात्री जी अपनी रामायण मीमासा पेज न ८९ पर लिखते है – ” पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है | जनक की पुत्री सीता का नाम स्पष्ट करने के लिए उसका सम्बन्ध वैदिक सीता ( हलकृष्ट भूमि ) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म भूमि से बता दिया | ” इन सब उपरोक्त प्रमाणों से आपके दिए काल्पनिक उदाहरणों का खंडन हो जाता है | अब आगे देखते है ये महाशय क्या लिखते है –
आप पता नही कौनसा शब्दकोष पढ़ते है जिसमे आपको कन्या का ये अर्थ मिला | कन्या को निरुक्त में दुहिता कहा है जिसका अर्थ स्पष्ट करते हुए यास्क लिखते है – ” दुहिता दुर्हिता दुरे हिता भवतीत ” अर्थात जिसका दूर (गोत्र या देश ) में विवाह होना हितकारी हो | जब आर्यों के मतानुसार उनकी कन्या का विवाह दूर होना हितकारी है फिर किसी भी पुरुष से सम्बन्ध कर ले वो कन्या ये कल्पना क्या आपको बुद्ध ने बताई थी | आपने मत्स्यगंधा का उदाहरण दिया असल में मत्स्यगन्ध सत्यवती का ही दूसरा नाम था जेसा मेने उपर बताया कि वो एक मछुआरिन थी ओर उसमे मच्छलियो जेसी गंध आना स्वभाविक है इसलिए उसका नाम मत्स्यगंधा हुआ अर्थात मछलियों जेसी गंध वाली | आपने कुंती के विवाह से पूर्व कई पुत्र बता दिए ये आपने कहा से पढ़ा महाभारत में भी ऐसा नही है | उसमे कर्ण का वर्णन है ओर यदि ये विवाह पूर्व देवता से सन्तान होना सही माना जाता तो कुंती को उसे नदी में फेकने ओर सबसे छुपाने की आवश्यकता ही न होती आपकी गोबर बुधि का ध्यान इस ओर क्यूँ नही गया क्यूंकि तार्किक नही कुंठित मानसिकता से ग्रसित थे | उस घटना से तो यही सिद्ध होता हहै कि विवाह पूर्व सन्तान उस समय अनुचित ही मानी जाती थी ओर विवाह पूर्व सम्बन्ध भी | वेदों में व्यभिचार की निंदा या विवाह पूर्व सम्बन्ध बनाने की निंदा की हुई है ऋग्वेद २/२९/१ में आये रहसूरिव की व्याख्या करते हुए सायण लिखते है – जो स्त्री अन्यो के द्वारा किये हुए गर्भ के कारण एकांत में सन्तान उत्त्पन्न करती है ,वह व्यभिचारिणी ओर पापी मानी गयी है |  ऐसे सम्बन्धो को आज का समाज लिव एंड ओपन रिलेशन नाम देता है लेकिन वेद ऐसे सम्बन्ध को व्यभिचार ओर पाप ही कहता है | अब आपके आगे के आरोप देखते है –
  आपने अश्वमेध का उदाहरण देकर अश्व ओर स्त्री के बीच सम्बन्ध को लिखा ऐसा किसी वेद संहिता में विधान नही है | ये महीधर के भाष्य में है ओर महीधर ने मन्त्रो का विनियोग कल्प सूत्रों से किया अर्थात ऐसा विधान कल्पसूतरो में है महीधर कात्यायन श्रोत सूत्र अ. २० कंडिका ६ ओर सूत्र १६ से अश्वमेध में लिंग ग्रहण करने की प्रथा का उलेख करते हुए लिखते है – ” अश्वशिश्रमुपस्ये कुरुते वृषावाजिति ” अर्थात वृषाबाजी इत्यादी मन्त्र पढ़ते हुए रानी स्वयम घोड़े का लिंग अपनी उपस्थ इन्द्रिय में धारण करे | ये विधान कल्पसूत्र से है जिसमे वाममार्गियो द्वरा काफी गडबड की हुई है | इनको वेदों के समान प्रमाणिक नही बल्कि अप्रमाणिक काफी समय से माना जाता रहा है | क्यूंकि ये सभी क्रिया कलाप उस समय भी शिष्टजनों में घ्रणित ही समझे जाते थे | जेसा की जैमिनी ने मीमासा दर्शन में स्पष्ट कहा है कि कल्पसूत्रों में वेदों के विरुद्ध कई बातें है अत: उपरोक्त बात भी वेद विरुद्ध ही थी ओर मनु के अनुसार धर्म का मूल वेद ही था | देखिये मीमासा का सन्धर्भ – पूर्व पक्ष से कोई जैमिनी से प्रश्न करता है – ” प्रयोगशास्त्रमिति चेत “(मीमासा १/३/११ ) अर्थात वेद विहित धर्मो का यथाविधि अनुष्ठान बताने वाले कल्पसूत्र भी वेद के समान स्वत: प्रमाण है यदि ऐसा कहो तो –
उत्तर में जैमिनी कहते है – ” नाsसन्नीयमात “(१/३/१२ ) अर्थात यह बात ठीक नही | कल्पसूत्र वेद के समान प्रमाणिक नही हो सकते ,क्यूंकि उसमे आवेदिक विधानों का भी निरूपण पाया जाता है | इसी कथन के पता चलता है कि कल्प सूत्रों के आवेदिक विधान उस समय ऋषि गणों में स्वीकार नही थे |
अब आपके अगले आरोप की समीक्षा करते है –
आपकी गोबरबुधि ओर कुंठित मानसकिता ने आपके दिमाग का कूड़ा कर दिया जो ऋषि दयानद जी के भाष्य को भी आपने नही छोड़ा यदि कोई आपसे कहे की मधुर रसीले आमो का भोग करो ,,मखमली गद्दों का भोग करो तो आप तो आमो से योन सम्बन्ध बनाने ओर गद्दों से मैथुन क्रिया करना शुरू कर देंगे क्यूकि आपके अनुसार भोग का अर्थ सम्भोग ही होता है जबकि संस्कृत में भोग मतलब उपयोग में लेना होता है ऋषि दयानद जी ने भी यही स्पष्ट किया है ,ऋषि ने ऋषभेन उक्षेन भूञ्जीरन लिखा है अर्थात बैल रूपी साधन से खेती व कुए आदि चला कर सुख भोगे | इसी भाष्य में म्ह्रिशी ने लिखा है कि मनुष्य छेरी आदि पशुओ के दूध आदि से प्राणपान की रक्षा के लिए चिकने ओर पके हुए पदार्थो का भोजन कर उत्तम रसो को पीकर वृद्धि को पाते है वे अच्छे सुख को प्राप्त होते है | यहा पशुओ से सम्बन्ध नही बल्कि उनका दूध पीना ,खेती आदि कार्यो में उपयोग लेने का उपदेश है वही अर्थ स्वामी जी ने भी किया है | अब आपके किये अगले मन्त्रो का अर्थ देखते है –  न सेशे ……………..उत्तर: (ऋगवेद १०.८६.१६)  ओर न सेशे………..उत्तर­. (ऋग्वेद १०-८६-१७) इन दोनों मन्त्रो का आपने बहुत अश्लील अर्थ लिखा जबकि इस मन्त्र में लिंग वाची शब्द है ही नही ये मन्त्र संवादत्मक शेली में है जिसमे तीन पात्र इंद्र उसकी पत्नि इन्द्राणी ओर मित्र वृषाकपि है | ऐसा ऐतिहासिक परख अर्थ में है ओर नेरुक्त पक्ष में इंद्र विद्युत इन्द्राणी मध्यम वाक् ओर वृषाकपि आधित्य है | (निरुक्त ११.३८ व ११.३९ ) यहा हम इनका ऐतिहासिक अर्थ लिखते है – इन्द्राणी इंद्र से कहती है – न सेशे ….. विश्वस्मादिन्द्र उत्तर: अर्थात तुम तो सबके सामने नम्र होकर सर झुका कर रहते हो ,नम्रता या सर झुकाने से कार्य निर्वाह नही होता बल्कि अपने प्रभाव को विस्तार करने से होता है | इस मन्त्र में सर झुकने की बात है उसके लिए कृपन शब्द भी आया है लेकिन आपने लिंग अर्थ ले लिया | अब इसका प्रत्युतर इंद्र देता है – न सेशे ….उत्त्तर (ऋग्वेद १० -८६ -१७ ) है इन्द्राणी तुमने जो कहा वह ठीक है | तो यह भी नियम सब पर लागू नही होता | कभी कभी ऐसा होता है की वह समर्थ नही होता जो डट कर खड़ा हो जाता है ओर सर ताने रखता है प्रतुतय वह समर्थ होता है जिसका सर दुसरो के पैरो में झुकता है या नम्र होता है | इस सम्पूर्ण काल्पनिक आख्यान में इंद्र का सखा वृषाकपि उनका सोम ले लेटा है जिसे इन्द्राणी को बहुत बुरा लगता है ओर वो अपने पति इंद्र को उससे लड़ने ,झगड़ने के लिए प्रेरित करती है लेकिन इंद्र उसे नम्रता ओर विनम्रता से वस्तु लेने का उपदेश देता है ,,इस मन्त्र द्वरा या इस आख्यान द्वरा यही उपदेश दिया है कि मित्रो ,बंधुओ से अपना कार्य करवाने के लिए झगड़ा आदि करने की जगह नम्रता से कार्य निकलवाना चाहिए क्यूंकि झगड़ा आदि से कार्य बिगड़ने की गुंजाइश ज्यादा रहती है |
अब अगले मन्त्र ऋग्वेद १०/८६/६ का भी आपने एक अश्लील अर्थ लिखा है जबकि उसका अर्थ होगा – वो भी इसी सूक्त का है उसमे वृषाकपि से क्रोधित ओर जोश में आती इन्द्राणी कहती है – “
 न मत्स्त्री………..­………………उत­्तर:(ऋग्वेद १०-८६-६) अर्थात मुझसे अधिक अन्य कोई स्त्री सुभग्या सुन्दरी नही है , न सुखनि या सुपुत्रवती है , न मुझसे बढ़ कर शत्रुओ को नाश करने वाली है न ही उद्यम करने वाली है | इस मन्त्र में वृषाकपि से क्रोधित इन्द्राणी की बात है तो इसमें वीरता आदि का ही उपदेश होगा न कि मैथुन आदि का इन्द्राणी ओर इंद्र के रूप में वीर स्त्री ओर सदाचारी पुरुष का रूपक अलंकार है | अब आपका अगला मन्त्र देखते है जिसका देवता इंद्र है | यास्क के निघंट में इंद्र को त्वष्टा कहा है ,जिसका अर्थ होता है सूर्य | मन्त्र है ताम……………..­……..शेमम. (ऋग्वेद १०-८५-३७) जिसका उचित अर्थ होगा औषधियों का पोषण करने वाले सूर्य ! जिस भूमि में मनुष्य लोग बीज बोते है जो भूमि हम पुरुषो की कामना को पूरी करती है | जिसके तल में हम आश्रय लेते है अर्थात घर बना कर रहते है | जिसके गर्भ में हल को प्रवेश कराते है ,उस अतिक्ल्याणकारी भूमि को तु वर्षा आदि करा कर प्रेरित कर | इस मन्त्र में भूमि की विशेषता ओर सूर्य द्वरा उचित वर्षा करवा कर उत्तम फसल की उत्त्पति को प्राप्त करने का उपदेश है |
उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वैदिक काल में जार कर्म अच्छा नही समझा जाता था अपितु इसे व्यभिचार ओर पाप समझा जाता था | हिंदूइस्म धर्म ओर कलंक के लेखक ने यह अध्याय किसी तार्किक भावना से नही अपितु अपनी कुंठित ओर हिन्दुओ ,आर्यों को नीचा दिखने की मानसिकता से लिखी थी | जिसके कारण उनके दिमाग में ऋषि के अच्छे उत्तम भाष्य का अश्लील अर्थ आया ओर अन्य मन्त्रो का अश्लील अर्थ ही किया जबकि मन्त्रो का अध्यात्मिक ,आधिभौतिक (वैज्ञानिक ) अर्थ भी होता है |
सधर्भित ग्रन्थ या पुस्तके – (१) वेदों की वर्णन शेलिया -रामनाथ जी वेदालंकार 
                                        (२) ऋग्वेद भाष्य – जयदेव शर्मा 
                                       (३) मीरपुरी सर्वस्व – बुद्धदेव मीरपुरी 
                                        (४) निरुक्त -यास्क (भाषानुवाद -भगवतदत्त जी ) 
                                        (५) मनुस्मृति -स्वाम्भुमनु (भाषानुवाद – सुरेन्द्र कुमार )
                                        (६) ऋग्वेद में आचार सामग्री  

क्या भारत में गोहत्या कभी पुण्यदा थी यश आर्य

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2015/04/150331_beef_history_dnjha_sra_vr

वैदिक साहित्य में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि उस दौर में भी गोमांस का सेवन किया जाता था. जब यज्ञ होता था तब भी गोवंश की बली दी जाती थी.

उत्तर: प्रमाण कहां  है ?

धर्मशास्त्रों में यह कोई बड़ा अपराध नहीं है इसलिए प्राचीनकाल में इसपर कभी प्रतिबंध नहीं लगाया गया.

उत्तर :ये  झूठ है।वेद में गो वध निषेध है ।
सारा विवाद 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ जब आर्य समाज की स्थापना हुई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने गोरक्षा के लिये अभियान चलाया. और इसके बाद ही ऐसा चिह्नित कर दिया गया कि जो ‘बीफ़’ बेचता और खाता है वो मुसलमान है. इसी के बाद साम्प्रदायिक तनाव भी होने शुरू हो गए. उससे पहले साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते थे.

उत्तर: ऋषि द्यानंद ने कहां कहा है  कि गो  मांस भक्षक केवल मुसल्मान होता है , और   ईसाइ आदि  नहीं ? क्या  साम्प्रदायिक दंगे अंग्रेज़ सरकार आदि ने नहीं भडकाए ? बंगाल विभाजन क्यों हुआ ?

सारांश :  द्विजेंद्र नारायण झा  एक मांसाहारी  समाज का सदस्य है । उसका समाज तंत्र [शक्ति ] को मानता है । तंत्र अवैदिक मत है,मांसाहार करने देता है । वह स्वयम कार्ल मार्क्स का पुजारी है ।  यदि वह वेद मंत्र लिखता  तो मैं  खंडित करता ।  सारा लेख झा जी की कल्पना पर आधारित है । अत: लेख निराधार है । क्या यह व्यक्ति यह सिद्ध  कर सकता है, कि वेदिक संहिताओं में गोहत्या  करने पर अमुक पुण्य प्राप्त होगा ,  ऐसा लिखा है  ?  देखो वेद क्या कह्ता है :
http://www.onlineved.com/yajur-ved/?language=2&adhyay=14&mantra=8

बैल से बिजली

मार्क्स वाद के  कारनामे:

author may be reached at https://yasharya.wordpress.com/

you may read another article related to ban on  beef on the below links

http://www.aryamantavya.in/beef-ban-strengthens-secularism-by-yash-arya/

http://www.aryamantavya.in/beef-eating-in-ancient-time/

http://www.aryamantavya.in/whether-beef-was-allowed-in-vedic-time/

you may visit out different websites for more information

http://satyarthprakash.in/

Beef ban strengthens secularism by Yash Arya

http://www.bbc.com/news/world-asia-india-32172768

Mr Justin Rowlatt argues that beef ban endangers secularism. He cites the following reasons:

1. The Hindu majority – 80% of the country’s 1.2 billion people – regard cows as divine; the 180 million-strong Muslim minority see them as a tasty meal.

2. Secularism in India means something a little different from elsewhere. It doesn’t mean the state stays out of religion, here it means the state is committed to supporting different religions equally.

3. India’s secularism was a response to horrors of the partition when millions of people were murdered as Hindus and Muslims fled their homes. The country’s first prime minister, Jawaharlal Nehru, argued equal treatment was a reasonable concession to the millions of Muslims who’d decided to risk all by staying in India.

4. India’s triumph has been forging a nation in which Hindus and Muslims can live happily together. The fear is that the beef ban is part of a process that is gradually undermining the compromises that made that possible.

My anwer is as follows.

a1. U have not cited any evidence from the quran along with the authentic tafseer as to how beef ban is anti-islam.

a2. The state is right in supporting the beef ban till u answer a1 above.

a3. The horrors of partition were engineered by the British Imperialists and their Jesuit teachers. They experimented with it during the bengal partition and perfected it in 1947. Just look at Korea, Ottoman empire, etc for the records of european catholic brand imperialism.

a4. The mughal king Babar does not agree with your insinuation that ‘The fear is that the beef ban is part of a process that is gradually undermining the compromises that made that possible.’ Read what ur own website says:
“His [Mughal King Babar] first act after conquering Delhi was to forbid the killing of cows because that was offensive to Hindus.” [http://www.bbc.co.uk/religion/religions/islam/history/mughalempire_1.shtml]

Mr Rowlatt further says that :

Unfortunately for India’s buffaloes, they aren’t regarded as close enough to God to deserve protection. Buffalo is banned in just one of the country’s 29 states. [ I am for banning the slaughter of buffaloes too. Why dont u join PETA and espouse their cause].

There is an economic issue here.

Beef is significantly cheaper than chicken and fish and is part of the staple diet for many Muslims, tribal people and dalits – the low caste Indians who used to be called untouchables. It is also the basis of a vast industry which employs or contributes to the employment of millions of people.

A: People can be employed in areas where they dont have to murder animals. Whenn u murder animals, the habit carries on with u and u find it easy to murder humn beings too.

http://en.wikipedia.org/wiki/St._Bartholomew%27s_Day_massacre

http://www.gutenberg.org/ebooks/20321

–And yes we had untouchability. U have slaveryhttp://www.religioustolerance.org/sla_bibl3.htm

— The fact is that the european settlers are committing genocide on the native american people. And one of the methods employed to decimate the population of the red indians was destruction of cattle [http://indiancountrytodaymedianetwork.com/2011/05/09/genocide-other-means-us-army-slaughtered-buffalo-plains-indian-wars-30798%5D . In India the british imperialists used muslims to do this job.

In this video one can see how a living non-milk producing cow is more beneficial to the Indians than a dead cow’s meat. And how the mouthpiece of the urea/pesticide corporates r trying to mislead the populations. This misinformation and the urea/pesticide/bank-credit causes the farmer suicides.

Again, we can produce electricity using animal power and stop paying the germans for solar cells.

onclusion:

Why should we killl our animals so that the west is able to eat cheap meat ?

Secularism will be strengthened by the beef ban since murders will be reduced on our land. Ahimsa paramo dharma….

We will work towards import substitution to reduce our dependence on the west. That will give more jobs to the indians.

 

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http://www.aryamantavya.in/beef-eating-in-ancient-time/

http://www.aryamantavya.in/whether-beef-was-allowed-in-vedic-time/

you may visit out different websites for more information

http://satyarthprakash.in/

http://onlineved.com/

क्या हिन्दू गौ मांस खाते थे ?

हाल ही में बीबीसी वालों ने डॉ भीमराव आंबेडकर के अवैदिक लेख को प्रस्तुत कर बड़ा मूर्खतापूर्ण कार्य किया है 

भारतीय संस्कृति और वैदिक धर्म को चोट पहुंचाने में बीबीसी आजकल बड़ी भूमिका निभा रहा है,

               चाहे वह दिल्ली गेंग रेप के अपराधियों के इंटरव्यू से यहाँ के लोगों की मानसिकता को घटिया बताना हो या वेदों में गाय के मांस खाने को सही बताना हो,

इन धूर्त विदेशियों ने आज तक केवल यही काम किया है, फुट डालो और राज करो और भारतीय इतिहास को नष्ट करके देश का भविष्य बर्बाद करो ,

भारतीय संविधान के निर्माता (जो वास्तविक रूप से लगते नहीं है क्यूंकि यह संविधान “कही की इंट कही का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा” को ज्यादा चरितार्थ करता है) Dr. B.R.A. ने वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन किराए की आँखों से किया है अर्थात उनकी बातों से उनकी पुस्तकों से और उक्त गौ मॉस वाले लेख से स्पष्ट है कि  उन्होंने स्वयं कभी वैदिक ग्रन्थों को पढ़ा नहीं है, अपितु दुसरे लेखकों की पुस्तक पढ़ कर उन पर विशवास कर अपने द्वेष भाव से पीड़ित होकर लेख लिखा है,

 

Dr. B.R.A. ने वैदिक धर्म को शायद ही कभी दुराग्रह छोड़ कर समझा होगा यदि समझते तो आज अपने अनुयायियों के साथ मिलकर वैदिक धर्म से दुश्मनी न करते, वे स्वयं तो चले गए परन्तु अपने कर्मों का फल आज सभी को भुगतता हुआ छोड़कर चले गए

खैर Dr. B.R.A. के बारे में ज्यादा लिखने की जरुरत नहीं है फिर भी हमें आज उनकी बुद्धि पर तरस आता है, की इतना पढने लिखने के बाद भी ये बुद्धि से उपयोग ना कर पाए हमेशा किताबी कीड़े ही रहे जो किसी ने लिखा उसकी प्रमाणिकता जाने बिना उस पर विशवास कर लिया, मनु के प्रति इनका द्वेष देखते ही बनता है, यही द्वेष आज सारा भारत आरक्षण के रूप में झेल रहा है, इन्होने मनु को समझने का जतन कभी नहीं किया बस जो किसी लेखक ने लिख दिया

                उसे रटकर उसकी प्रमाणिकता जाने बिना मनु को दुश्मन समझ बैठे, परन्तु उनके अनुयायियों पर तरस आता है, जो आज भी अंधभक्ति की बिमारी से ग्रस्त होकर उनका समर्थन किये जा रहे है, हमारा उन सभी अनुयायियों से निवेदन है की अपनी बुद्धि का प्रयोग करके सत्य असत्य का निर्णय करे

अब आते है Dr. B.R.A. के बुद्धिहीन लेख पर

 

 

प्राचीन काल में हिन्दू गोमांस खाते थे’

भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से एक डॉक्टर बीआर अंबेडकर अच्छे शोधकर्ता भी थे. उन्होंने गोमांस खाने के संबंध में एक निबंध लिखा था, ‘क्या हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया?’

यह निबंध उनकी किताब, ‘अछूतः कौन थे और वे अछूत क्यों बने?’ में है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम ने इस निबंध को संपादित कर इसके कुछ हिस्से बीबीसी हिंदी के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाए हैं.

पवित्र है इसलिए खाओ

अपने इस लेख में अंबेडकर हिंदुओं के इस दावे को चुनौती देते हैं कि हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया और गाय को हमेशा पवित्र माना है और उसे अघन्य (जिसे मारा नहीं जा सकता) की श्रेणी में रखा है.

अंबेडकर ने प्राचीन काल में हिंदुओं के गोमांस खाने की बात को साबित करने के लिए हिन्दू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा लिया.

उनके मुताबिक, “गाय को पवित्र माने जाने से पहले गाय को मारा जाता था. उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों के विख्यात विद्वान पीवी काणे का हवाला दिया. काणे ने लिखा है, ऐसा नहीं है कि वैदिक काल में गाय पवित्र नहीं थी, लेकिन उसकी पवित्रता के कारण ही बाजसनेई संहिता में कहा गया कि गोमांस को खाया जाना चाहिए.” (मराठी में धर्म शास्त्र विचार, पृष्ठ-180).

डॉ. पांडुरंग वमन काणे भी एक शौधकर्ता ही है, इन्होने वही लिखा जो इन्होने पढ़ा या सुना परन्तु वेदों में ऐसी कोई बात का उल्लेख नहीं है जैसा इन्होने प्रमाण दिया है, महाभारत, रामायण में भी कही भी मांस भक्षण का विवरण नहीं है, तो गौमास खाना तो बहुदूर की बात है, और जिस वैदिक काल की ये बात कर रहे है वह शायद वामपंथियों के समय के लिए वैदिक काल शब्द उपयोग में ले रहे है, गौ मॉस का भक्षण वामपंथियों द्वारा किया जाता था, ना वैदिक धर्मियों द्वारा !!

अंबेडकर ने लिखा है, “ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है.”

ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं, “उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए’. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था.”

Dr. B.R.A. जी ने वेदों से गौ मांस खाने का प्रमाण दिया है इतना पढने मात्र से ही इस लेख पर संदेह उत्पन्न हो जाता है

           पता नहीं इंसान उस जगह हाथ पैर क्यों मारता है जिसका उसे रति भर ज्ञान नहीं होता है, वेदों को पढने से पहले कई ग्रन्थ व्याकरण, निरुक्त आदि पढने पड़ते है, उसके बाद ही वेदों को समझा जा सकता है अन्यथा उसे भाष्यकारों के भाष्य पर ही निर्भर रहना पड़ता है, कुछ इस निर्भरता के चलते Dr. B.R.A. जी ने यह अनर्गल आरोप वैदिक धर्म पर मंड दिया की वे गौ मांस खाते थे

इन्होने ऋग्वेद के १० मंडल से कुछ प्रमाण प्रस्तूत किये है, जिसमें इंद्र के एक बार मांस पकाने के बारे में बताया है, यदि आज Dr. B.R.A. जी जीवित होते तो शायद आज इस आर्य से लज्जित होकर जाते परन्तु ईश्वर इच्छा से वे इस पुण्य कार्य से बच गए

Dr. B.R.A. जी आपके ज्ञान का क्या कहे, क्या आपको इतना ज्ञान भी नहीं था की वेदों में कही भी इतिहास या भविष्य नहीं है ??

पता भी होता तो आप अपने द्वेष के चलते इस बात को स्वीकार नहीं करते क्यूंकि आप पर नास्तिकता हावी थी और इसी नास्तिकता के चलते आप वेदों को ईश्वरीय ज्ञान ना मान कर मनुष्यकृत मानते थे, यही आपकी सबसे बड़ी गलती थी

चलिए आपको आपके प्रमाणों का आपके मृत्यु पश्चात सही अर्थ आपके अनुयायियों को बता देते है, ताकि आपके किये गए कार्यों पर उन्हें थोड़ी बहुत तो लज्जा आये

 

ऋग्वेद १०:८६:१४ में क्या लिखा है :-
भावार्थ :- विषय व्यावृत इन्द्रियों व प्राणसाधना से वीर्य का परिपाक होकर आत्मिक शक्ति का विकास होता है, प्रसंगवश यह वीर्य का परिपाक गुर्दे आदि के कष्टों से भी हमें बचाता है

इस मन्त्र से हमें यही शिक्षा मिलती है की हमें वीर्य क्षति से बचना चाहिए क्यूंकि इससे शरीर में अनेक प्रकार की दुर्बलता आती है और गुर्दे आदि की बिमारी होने की संभावना बढती है, इसमें कही भी इंद्र द्वारा मांस भक्षण नहीं बताया है

दूसरा प्रमाण ऋग्वेद १०:९१:१४ :–
भावार्थ:– हम ‘अश्व, ऋषभ, उक्षा, वश व मेष’ बनकर प्रभु के प्रति चलें, उसके प्रति अपना अर्पण करें | वे प्रभु हमारी शक्ति का रक्षण करने वाले, हमें सौम्यता को प्राप्त कराने वाले व हमारी सब शक्तियों का निर्माण कराने वाले है | उस प्रभु की प्राप्ति के लिए हम श्रद्धा से ज्ञानोत्पादिनी बुद्धि को अपने में उत्पन्न करते हैं |

इस मन्त्र में भी कही भी Dr. B.R.A. के बताये अनुसार घोड़े सांड आदि के मारकर भक्षण के बारे में नहीं बताया है अपितु उनके समांनातर बनकर प्रभु क्र प्रति समर्पण के लिए कहा है, जैसे इस मन्त्र में अश्व शब्द से तात्पर्य सदा कर्म में व्याप्त रहने वाले से है, जैसे घोडा सदैव कर्म करने में व्याप्त रहता है जैसा उसका मालिक उससे कार्य करवाता है वैसे ही वह करता है ठीक उसी प्रकार मनुष्यों को प्रभु की शरण में रहकर कर्म करने की बात कही है ना की अश्व आदि के भक्षण की !!

अब तीसरा प्रमाण ऋग्वेद १०:७२:६ को देखते है
भावार्थ:– आकाश में वर्तमान ये सब पिण्ड अलग-अलग होते हुए भी परस्पर व्यवस्था में सम्बद्ध है | कभी-कभी इनका कोई शिथिल भाग तीव्र –गति होकर दुसरे पिण्ड की ओर चला जाता है

इस मन्त्र में कहीं भी तलवार कुल्हाड़ी नहीं दिखती यह मन्त्र उल्कापात की जानकारी देता है

उपरोक्त तीनों प्रमाण Dr. B.R.A. जी द्वारा उनके अनुयायियों को उन्होंने गलत बताये, तीनों प्रमाणों को पढ़कर आज एक बात तो समझ आई की यह पंक्तियाँ क्यों कही गई थी
“सावन के गधे को हर जगह हरा ही हरा दीखता है”
सुधि पाठकगण इतना कहने मात्र से मेरी भावनाए समझ जाए

उपरोक्त सभी मन्त्र के भावार्थ और मेरे द्वारा काट की गई बातों की प्रमाणिकता अर्थात इन मन्त्रों के सही अर्थ जानने के लिए आप www.aryamantavya.in पर जाए और वहां वैदिक कोष में वेद डाउनलोड करें और स्वयं जांचे मेरे द्वारा कही बात का विशवास करने से उत्तम है आँखों देखि पर विशवास किया जाए

अतिथि यानि गाय का हत्यारा

अंबेडकर ने वैदिक ऋचाओं का हवाला दिया है जिनमें बलि देने के लिए गाय और सांड में से चुनने को कहा गया है.

अंबेडकर ने लिखा “तैत्रीय ब्राह्मण में बताई गई कामयेष्टियों में न सिर्फ़ बैल और गाय की बलि का उल्लेख है बल्कि यह भी बताया गया है कि किस देवता को किस तरह के बैल या गाय की बलि दी जानी चाहिए.”

वो लिखते हैं, “विष्णु को बलि चढ़ाने के लिए बौना बैल, वृत्रासुर के संहारक के रूप में इंद्र को लटकते सींग वाले और माथे पर चमक वाले सांड, पुशन के लिए काली गाय, रुद्र के लिए लाल गाय आदि.”

“तैत्रीय ब्राह्मण में एक और बलि का उल्लेख है जिसे पंचस्रदीय-सेवा बताया गया है. इसका सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, पांच साल के बगैर कूबड़ वाले 17 बौने बैलों का बलिदान और जितनी चाहें उतनी तीन साल की बौनी बछियों का बलिदान.”

अंबेडकर ने जिन वैदिक ग्रंथों का उल्लेख किया है उनके अनुसार मधुपर्क नाम का एक व्यंजन इन लोगों को अवश्य दिया जाना चाहिए- (1) ऋत्विज या बलि देने वाले ब्राह्मण (2) आचार्य-शिक्षक (3) दूल्हे (4) राजा (5) स्नातक और (6) मेज़बान को प्रिय कोई भी व्यक्ति.

कुछ लोग इस सूची में अतिथि को भी जोड़ते हैं.

मधुपर्क में “मांस, और वह भी गाय के मांस होता था. मेहमानों के लिए गाय को मारा जाना इस हद तक बढ़ गया था कि मेहमानों को ‘गोघ्न’ कहा जाने लगा था, जिसका अर्थ है गाय का हत्यारा.”

उपरोक्त प्रमाणों को पढ़कर इतना मात्र कहना चाहूँगा की तेत्रिय ब्राह्मण आदि वेद नहीं है, कुछ लोग इसे वेद मानते है, परन्तु यह वेद ना होकर उसकी शाखा है जो ईश्वरीय ज्ञान नहीं है, यह मनुष्यकृत होने से इसमें वे वे बाते ही मान्य है जो वेदोक्त है, तेत्रिय ब्राह्मण में काफी भाग अवैदिक है जो मान्य नहीं है

सब खाते थे गोमांस

इस शोध के आधार पर अंबेडकर ने लिखा कि एक समय हिंदू गायों को मारा करते थे और गोमांस खाया करते थे जो बौद्ध सूत्रों में दिए गए यज्ञ के ब्यौरों से साफ़ है.

अंबेडकर ने लिखा है, “कुतादंत सुत्त से एक रेखाचित्र तैयार किया जा सकता है जिसमें गौतम बुद्ध एक ब्राह्मण कुतादंत से जानवरों की बलि न देने की प्रार्थना करते हैं.”

अंबेडकर ने बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय(111. .1-9) के उस अंश का हवाला भी दिया है जिसमें कौशल के राजा पसेंडी के यज्ञ का ब्यौरा मिलता है.

संयुक्त निकाय में लिखा है, “पांच सौ सांड, पांच सौ बछड़े और कई बछियों, बकरियों और भेड़ों को बलि के लिए खंभे की ओर ले जाया गया.”

अंत में अंबेडकर लिखते हैं, “इस सुबूत के साथ कोई संदेह नहीं कर सकता कि एक समय ऐसा था जब हिंदू, जिनमें ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण दोनों थे, न सिर्फ़ मांस बल्कि गोमांस भी खाते थे.”

इस प्रमाण में Dr. B.R.A. जी ने जिन ग्रन्थों का उल्लेख किया है वह वामपंथियों के लिए है ना की वैदिक धर्मियों के लिए, गौ मास का भक्षण केवल विधर्मी और मलेछ किया करते थे और करते है उन्हें कभी हिन्दू नहीं माना गया है, परन्तु Dr. B.R.A. जी ने अपनी उदारता दिखाते हुए इन्हें भी हिन्दू मानकर यह सोच बना ली की हिन्दू अर्थात सनातन वैदिक धर्मी भी गौ मास खाते थे, जबकि वेदों में इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है, Dr. B.R.A. जी ने अपने द्वेष और वैदिक ग्रन्थों के अनर्गल अर्थ निकाल कर गलतफहमी बना ली थी, की ये ग्रन्थ ऊँच नीच जैसी बातों को जन्म देते है, और यह गलतफहमी केवल उनके गलत अर्थ निकालने के कारण बनी जिसका परिणाम यह हुआ की उन्होंने अपने अनुयायियों को वैदिक धर्म से अलग कर दिया, आरक्षण की जड़ उनकी यह गलतफहमी ही बनीं की पिछड़ी जातियों के विकास के लिए आरक्षण जरुरी है और यह आरक्षण आज एक बहुत बड़े झगड़े का मूल बन चूका है

वेदों में कही भी मांसाहार को उचित नहीं बताया है अपितु गौ हत्यारों को कई प्रकार के दंड देने का विधान है और गौमास भक्षण का विरोध भी है

ऋग्वेद 8:101:१५

ऋग्वेद 8:101:२७

अथर्ववेद १०:१:२७

अथर्ववेद 12:४:३८

ऋग्वेद ६:२८:४

अथर्ववेद 8:3:२४

यजुर्वेद १३:४३

अथर्ववेद ७:5:5

यजुर्वेद ३०:१८

 

इन प्रमाणों को जांचने के लिए आप www.onlineved.in पर जाए और स्वयं पढ़े

प्राचीन काल में हिन्दू गौ मांस खाते थे – BBC का खंडन यश आर्य

भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माताओं में से एक डॉक्टर बीआर अंबेडकर अच्छे शोधकर्ता भी थे. उन्होंने गोमांस खाने के संबंध में एक निबंध लिखा था, ‘क्या हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया?’

यह निबंध उनकी किताब, ‘अछूतः कौन थे और वे अछूत क्यों बने?’ में है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम ने इस निबंध को संपादित कर इसके कुछ हिस्से बीबीसी हिंदी के पाठकों के लिए उपलब्ध करवाए हैं.

‘पवित्र है इसलिए खाओ’

अपने इस लेख में अंबेडकर हिंदुओं के इस दावे को चुनौती देते हैं कि हिंदुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया और गाय को हमेशा पवित्र माना है और उसे अघन्य (जिसे मारा नहीं जा सकता) की श्रेणी में रखा है.

अंबेडकर ने प्राचीन काल में हिंदुओं के गोमांस खाने की बात को साबित करने के लिए हिन्दू और बौद्ध धर्मग्रंथों का सहारा लिया.

उनके मुताबिक, “गाय को पवित्र माने जाने से पहले गाय को मारा जाता था. उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों के विख्यात विद्वान पीवी काणे का हवाला दिया. काणे ने लिखा है, ऐसा नहीं है कि वैदिक काल में गाय पवित्र नहीं थी, लेकिन उसकी पवित्रता के कारण ही बाजसनेई संहिता में कहा गया कि गोमांस को खाया जाना चाहिए.” (मराठी में धर्म शास्त्र विचार, पृष्ठ-180).

अंबेडकर ने लिखा है, “ऋगवेद काल के आर्य खाने के लिए गाय को मारा करते थे, जो खुद ऋगवेद से ही स्पष्ट है.”

ऋगवेद में (10. 86.14) में इंद्र कहते हैं, “उन्होंने एक बार 5 से ज़्यादा बैल पकाए’. ऋगवेद (10. 91.14) कहता है कि अग्नि के लिए घोड़े, बैल, सांड, बांझ गायों और भेड़ों की बलि दी गई. ऋगवेद (10. 72.6) से ऐसा लगता है कि गाय को तलवार या कुल्हाड़ी से मारा जाता था.”

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ये झूठ है । देखो

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download the original from here

http://www.aryamantavya.in/rigveda-7-7-harisharan-siddhantalankar/
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‘अतिथि यानि गाय का हत्यारा’

अंबेडकर ने वैदिक ऋचाओं का हवाला दिया है जिनमें बलि देने के लिए गाय और सांड में से चुनने को कहा गया है.

अंबेडकर ने लिखा “तैत्रीय ब्राह्मण में बताई गई कामयेष्टियों में न सिर्फ़ बैल और गाय की बलि का उल्लेख है बल्कि यह भी बताया गया है कि किस देवता को किस तरह के बैल या गाय की बलि दी जानी चाहिए.”
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माध्यंदिनी सन्हिता ही यजुर्वेद है । तैत्तिरीय  वेद  नहीं है ।
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वो लिखते हैं, “विष्णु को बलि चढ़ाने के लिए बौना बैल, वृत्रासुर के संहारक के रूप में इंद्र को लटकते सींग वाले और माथे पर चमक वाले सांड, पुशन के लिए काली गाय, रुद्र के लिए लाल गाय आदि.”

“तैत्रीय ब्राह्मण में एक और बलि का उल्लेख है जिसे पंचस्रदीय-सेवा बताया गया है. इसका सबसे महत्वपूर्ण तत्व है, पांच साल के बगैर कूबड़ वाले 17 बौने बैलों का बलिदान और जितनी चाहें उतनी तीन साल की बौनी बछियों का बलिदान.”

अंबेडकर ने जिन वैदिक ग्रंथों का उल्लेख किया है उनके अनुसार मधुपर्क नाम का एक व्यंजन इन लोगों को अवश्य दिया जाना चाहिए- (1) ऋत्विज या बलि देने वाले ब्राह्मण (2) आचार्य-शिक्षक (3) दूल्हे (4) राजा (5) स्नातक और (6) मेज़बान को प्रिय कोई भी व्यक्ति.

कुछ लोग इस सूची में अतिथि को भी जोड़ते हैं.

मधुपर्क में “मांस, और वह भी गाय के मांस होता था. मेहमानों के लिए गाय को मारा जाना इस हद तक बढ़ गया था कि मेहमानों को ‘गोघ्न’ कहा जाने लगा था, जिसका अर्थ है गाय का हत्यारा.”

‘सब खाते थे गोमांस’

इस शोध के आधार पर अंबेडकर ने लिखा कि एक समय हिंदू गायों को मारा करते थे और गोमांस खाया करते थे जो बौद्ध सूत्रों में दिए गए यज्ञ के ब्यौरों से साफ़ है.

अंबेडकर ने लिखा है, “कुतादंत सुत्त से एक रेखाचित्र तैयार किया जा सकता है जिसमें गौतम बुद्ध एक ब्राह्मण कुतादंत से जानवरों की बलि न देने की प्रार्थना करते हैं.”

अंबेडकर ने बौद्ध ग्रंथ संयुक्त निकाय(111. .1-9) के उस अंश का हवाला भी दिया है जिसमें कौशल के राजा पसेंडी के यज्ञ का ब्यौरा मिलता है.

संयुक्त निकाय में लिखा है, “पांच सौ सांड, पांच सौ बछड़े और कई बछियों, बकरियों और भेड़ों को बलि के लिए खंभे की ओर ले जाया गया.”

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यहाँ  बौद्ध लोगों ने वाम मार्गी लोगों की चर्चा की  है। सच्चे  ब्राह्मणों की नहीं  ।

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अंत में अंबेडकर लिखते हैं, “इस सुबूत के साथ कोई संदेह नहीं कर सकता कि एक समय ऐसा था जब हिंदू, जिनमें ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण दोनों थे, न सिर्फ़ मांस बल्कि गोमांस भी खाते थे.”

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अ‍ॅम्बेद्कर और  B B C  और   दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर शम्सुल इस्लाम  और  गो मांस भक्षक हिंदुओं का मत असत्य है ।

You may reach the writer on https://yasharya.wordpress.com

क्या शंकराचार्य जी ने बोद्ध धम्म को भारत से नष्ट करा था ?

अक्सर हम सुनते है बोद्धो ओर सनातनियो से की शंकराचार्य जी ने भारत से बोद्ध धम्म को खत्म किया | कुछ लोग इसे शास्त्रार्थ द्वारा बताते है ,लेकिन माधव शंकर दिग्विजय में राजा सुधन्वा आदि की सेना द्वारा उनका संहार करने का वर्णन है .. क्या शंकराचार्य जी की वजह से बोद्ध धम्म का नाश हुआ ..क्या शंकराचार्य जी ने हत्याये करवाई इस विषय में हम अपने विचार न रखते हुए एक महान बोद्ध पंडित राहुल सांस्कृत्यन जी की पुस्तक बुद्ध चर्या के प्रथम संस्करण १९३० की जिसका प्रकाशन गौतम बुक सेंटर दिल्ली से हुआ के अध्याय भारत में बोद्ध धम्म का उथान और पतन ,पेज न १०-११ से उधृत करते है –
इसमें बोद्धो के पतन का कारण तुर्की आक्रमण कारी ओर उनका तंत्रवाद को प्रबल प्रमाणों द्वारा सिद्ध करते हुए शंकराचार्य विषय में निम्न पक्ष रखते है –

” एक ओर कहा जाता है ,शंकर ने बोद्धो को भारत से मार कर भगाया और दूसरी ओर हम उनके बाद गौड़ देश में पालवंशीय बोद्ध नरेशो का प्रचंड प्रताप फैला देखते है ,तथा उसी समय उदन्तपूरी और विक्रमशीला जेसे बोद्ध विश्वविद्यालयों को स्थापित देखते है | इसी समय बोद्धो को हम तिब्बत पर धर्म विजय करते भी देखते है | ११ वि सदी में जब कि ,उक्त दंत कथा अनुसार भारत में कोई भी बोद्ध न रहना चाहिए , तब तिब्बत से कितने ही बोद्ध भारत आते ओर वे सभी जगह बोद्ध ओर भिक्षुओ को पाते है | पाल काल के बुद्ध ,बोधिसत्व ओर तांत्रिक देवी देवताओं की गृहस्थो हजारो खंडित मुर्तिया उतरी भारत के गाँव तक में पायी जाती है | मगध ,विशेष कर गया जिले में शायद ही कोई गाँव होगा ,जिसमे इस काल की मुर्तिया न हो (गया -जिले के जहानाबाद सब डिविजन के गाँव में इन मूर्तियों की भरमार है ,केस्पा .घेजन आदि गाँव में अनेक बुद्ध ,तारा ,अवलोकितेश्वर आदि की मुर्तिया उस समय के कुटिलाक्षर में ये धर्मा हेतुप्रभवा …..श्लोक से अंकित मिलती है ) वह बतला रही है कि उस समय किसी शंकर ने बोद्ध धम्म को नस्तनाबुत नही किया था | यही बात सारे उत्तर भारत से प्राप्त ताम्र लेखो ओर शिलालेख से मालुम होती है | गौडनपति तो मुसलमानों के बिहार बंगाल विजय तक बोद्ध धर्म और कला के महान संरक्षक थे ,अंतिम काल तक उनके ताम्र पत्र बुद्ध भगवान के प्रथम धर्मोपदेश स्थान मृगदाव (सारनाथ ) के लांछन दो मृगो के बीच रखे चक्र से अलंकृत होते थे | गौड़ देश के पश्चिम में कन्याकुब्ज राज था ,जो कि यमुना से गण्डक तक फैला था | वहा के प्रजा जन और नृपति गण में भी बोद्ध धम्म का खूब सम्मान था | यह बात जयचंद के दादा गोविंदचद्र के जेतवन बिहार को दिए पांच गाँवों के दानपात्र तथा उनकी रानी कुमारदेवी के बनवाये सारनाथ के महान बौद्ध मन्दिर से मालुम होती है | गोविंद चन्द्र के बेटे जयचन्द्र की एक प्रमुख रानी बौद्धधर्मावलम्बिनी थी ,जिसके लिए लिखी गयी प्रज्ञापारमिता की पुस्तक अब भी नेपाल दरबार पुस्तकालय में मौजूद है | कन्नौज में गहडवारो के समय की कितनी ही बोद्धमुर्तिया निलती है ,जो आज किसी देवी देवता के रूप में पूजी जाती है |
कालिंजर के राजाओ के समय की बनी महोबा आदि से प्राप्त सिंहनाद अवलोकितेश्वर आदि की सुंदर मुर्तिया बतला रही है कि .तुर्कों के आने के समय तक बुन्देलखंड में बोद्धो की संख्य काफी थी | दक्षिण भारत में देवगिरी के पास एलोरा के भव्य गुहा प्रसादों में भी कितनी ही बोद्ध गुहये ओर मुर्तिया .मालिक काफूर से कुछ पहले तक की बनी हुई है | यही बात नासिक के पांडववेलिनी की गुहाओ के विषय में है | क्या इससे सिद्ध नही होता कि .शंकर द्वारा बोद्ध का निर्वसन एक कल्पना मात्र है | खुद शंकर की जन्मभूमि केरल से बोद्धो का प्रसिद्ध तन्त्र मन्त्र ग्रन्थ ” मंजूष मूलकल्प संस्कृत में मिला है ,जिसे वही त्रिवेन्द्रम से स्व महामहोपाध्याय गणपतिशास्त्री जी ने प्रकाशित कराया था | क्या इस ग्रन्थ की प्राप्ति यह नही बतलाती कि ,सारे भारत से बोद्धो का निकलना तो अलग केरल से भी वह बहुत पीछे लुप्त हुए है | ऐसी बहुत सी घटनाओं ओर प्रमाण पेश किये जा सकते है जिससे इस बात का खंडन हो जाता है |
राहुल जी की इस बात से न्व्बोद्धो ओर कुछ सनातनियो की इस बात का खंडन हो जाता है कि शंकराचार्य जी ने भारत से बोद्ध धम्म को नष्ट किया ..माधव दिग्विजय एक दंत कथा मात्र है | बोद्ध धम्म भारत से बोद्धो के अंधविश्वास ओर तुर्क आक्रमण कारियों के कारण नष्ट हुआ ,,,

 

स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व (स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)

स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुत्व

(स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती की दृष्टि में)

– नवीन मिश्र

स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती एक वैज्ञानिक संन्यासी थे। वे एक मात्र ऐसे स्वाधीनता सेनानी थे जो वैज्ञानिक के रूप में जेल गए थे। वे दार्शनिक पिता पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के एक दार्शनिक पुत्र थे। आप एक अच्छे कवि, लेखक एवं उच्चकोटि के गवेषक थे। आपने ईशोपनिषद् एवं श्वेताश्वतर उपनिषदों का हिन्दी में सरल पद्यानुवाद किया तथा वेदों का अंग्रेजी में भाष्य किया। आपकी गणना उन उच्चकोटि के दार्शनिकों में की जाती है जो वैदिक दर्शन एवं दयानन्द दर्शन के अच्छे व्याख्याकार माने जाते हैं। परोपकारी के नवम्बर (द्वितीय) एवं दिसम्बर (प्रथम) २०१४ के सम्पादकीय ‘‘आदर्श संन्यासी- स्वामी विवेकानन्द’’ के देश में धर्मान्तरण, शुद्धि, घर वापसी की जो चर्चा आज हो रही है साथ ही इस सम्बन्ध में स्वामी सत्यप्रकाश जी के ३० वर्ष पूर्व के विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इसी क्रम में स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘अध्यात्म और आस्तिकता’’ के पृष्ठ १३२ से उद्धृत स्वामी जी का लेख  पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत है-

‘‘विवेकानन्द का हिन्दुत्व ईसा और ईसाइयत का पोषक है।’’

‘‘महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अवतारवाद और पैगम्बरवाद दोनों का खण्डन किया। वैदिक आस्था के अनुसार हमारे बड़े से बड़े ऋषि भी मनुष्य हैं और मानवता के गौरव हैं, चाहे ये ऋषि गौतम, कपिल, कणाद हों या अग्नि, वायु, आदित्य या अंगिरा। मनुष्य का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से है मनुष्य और परमात्मा के बीच कोई बिचौलिया नहीं हो सकता- न राम, न कृष्ण, न बुद्ध, न चैतन्य महाप्रभु, न रामकृष्ण परमहंस, न हजरत मुहम्मद, न महात्मा ईसा मूसा या न कोई अन्य। पैगम्बरवाद और अवतारवाद ने मानव जाति को विघटित करके सम्प्रदायवाद की नींव डाली।’’

हमारे आधुनिक युग के चिन्तकों में स्वामी विवेकानन्द का स्थान ऊँचा है। उन्होंने अमेरिका जाकर भारत की मान मर्यादा की रक्षा में अच्छा योग दिया। वे रामकृष्ण परमहंस के अद्वितीय शिष्य थे। हमें यहाँ उनकी फिलॉसफी की आलोचना नहीं करनी है। सबकी अपनी-अपनी विचारधारा होती है। अमेरिका और यूरोप से लौटकर आये तो रूढ़िवादी हिन्दुओं ने उनकी आलोचना भी की थी। इधर कुछ दिनों से भारत में नयी लहर का जागरण हुआ-यह लहर महाराष्ट्र के प्रतिभाशाली व्यक्ति श्री हेडगेवार जी की कल्पना का परिणाम था। जो मुसलमान, ईसाई, पारसी नहीं हैं, उन भारतीयों का ‘‘हिन्दू’’ नाम पर संगठन। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना हुई। राष्ट्रीय जागरण की दृष्टि से गुरु गोलवलकर जी के समय में संघ का रू प निखरा और संघ गौरवान्वित हुआ, पर यह सांस्कृतिक संस्था धीरे-धीरे रूढ़िवादियों की पोषक बन गयी और राष्ट्रीय प्रवित्तियों  की विरोधी। यह राजनीतिक दल बन गयी, उदार सामाजिक दलों और राष्ट्रीय प्रवित्तियों  के विरोध में। देश के विभाजन की विपदा ने इस आन्दोलन को प्रश्रय दिया, जो स्वाभाविक था। हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की पराकाष्ठा का परिचय १९४७ के आसपास हुआ। ऐसी परिस्थिति में गाँधीवादी काँग्रेस बदनाम हुई और साम्प्रदायिक प्रवित्तियों  को पोषण मिला। आर्य समाज ऐसा संघटन भी संयम खो बैठा और इसके अधिकांश सदस्य (जिसमें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब के विशेष रूप से थे) स्वभावतः हिन्दूवादी आर्य समाजी बन गए। जनसंघ की स्थापना हुई जिसकी पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ था। फिर विश्व हिन्दू परिषद् बनी। पिछले दिनों का यह छोटा-सा इतिवृत्त  है।

हिन्दूवादियों ने विवेकानन्द का नाम खोज निकाला और उन्हें अपनी गतिविधियों में ऊँचा स्थान दिया। पिछले १००० वर्ष से भारतीयों के बीच मुसलमानों का कार्य आरम्भ हुआ। सन् ९०० से लेकर १९०० के बीच दस करोड़ भारतीय मुसलमान बन गये अर्थात् प्रत्येक १०० वर्ष में एक करोड़ व्यक्ति मुसलमान बनते गये अर्थात् प्रतिवर्ष १ लाख भारतीय मुसलमान बन रहे थे। इस धर्म परिवर्तन का आभास न किसी हिन्दू राजा को हुआ, न हिन्दू नेता को। भारतीय जनता ने अपने समाज के संघटन की समस्या पर इस दृष्टि से कभी सूक्ष्मता से विचार नहीं किया था। पण्डितों, विद्वानों, मन्दिरों के पुजारियों के सामने यह समस्या राष्ट्रीय दृष्टि से प्रस्तुत ही नहीं हुई।

स्मरण रखिये कि पिछले १००० वर्ष के इतिहास में महर्षि दयानन्द अकेले ऐेसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने इस समस्या पर विचार किया। उन्होंने दो समाधान बताए- भारतीय समाज सामाजिक कुरीतियों से आक्रान्त हो गया है- समाज का फिर से परिशोध आवश्यक है। भारतीय सम्प्रदायों के कतिपय कलङ्क हैं, जिन्हें दूर न किया गया तो यहाँ की जनता मुसलमान तो बनती ही रही है, आगे तेजी से ईसाई भी बनेगी। हमारे समाज के कतिपय कलङ्क ये थे-

१. मूर्तिपूजा और अवतारवाद।

२. जन्मना जाति-पाँतवाद।

३. अस्पृश्यता या छूआछूतवाद।

४. परमस्वार्थी और भोगी महन्तों, पुजारियों, शंकराचार्यों की गद्दियों का जनता पर आतंक।

५. जन्मपत्रियों, फलित ज्योतिष, अन्धविश्वासों, तीर्थों और पाखण्डों का भोलीभाली ही नहीं शिक्षित जनता पर भी कुप्रभाव। राष्ट्र से इन कलङ्कों को दूर न किया जायेगा, तो विदशी सम्प्रदायों का आतंक इस देश पर रहेगा ही।

दूसरा समाधान महर्षि दयानन्द ने यह प्रस्तुत किया कि जो भारतीय जनता मुसलमान या ईसाई हो गयी है उसे शुद्ध करके वैदिक आर्य बनाओ। केवल इतना ही नहीं बल्कि मानवता की दृष्टि से अन्य देशों के ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, जैनी सबसे कहो कि असत्य और अज्ञान का परित्याग करके विद्या और सत्य को अपनाओ और विश्व बन्धुत्व की संस्थापना करो।

विवेकानन्द के अनेक विचार उदात्त  और प्रशस्त थे, पर वे अवतारवाद से अपने आपको मुक्त न कर पाये और न भारतीयों को मुसलमान, ईसाई बनने से रोक पाये। यह स्मरण रखिये कि यदि महर्षि दयानन्द और आर्य समाज न होता तो विषुवत रेखा के दक्षिण भाग के द्वीप समूह में कोई भी भारतीय ईसाई होने से बचा न रहता। विवेकानन्द के सामने भारतीयों का ईसाई हो जाना कोई समस्या न थी।

आज देश के अनेक अंचलों में विवेकानन्द के प्रिय देश अमेरिका के षड़यन्त्र से भारतीयों को तेजी से ईसाई बनाया जा रहा है। स्मरण रखिये कि विवेकानन्द के विचार भारतीयों को ईसाई होने से रोक नहीं सकते, प्रत्युत मैं तो यही कहूँगा कि यदि विवेकानन्द की विचारधारा रही तो भारतीयों का ईसाई हो जाना बुरा नहीं माना जायेगा, श्रेयस्कर ही होगा। विवेकानन्द के निम्न श     दों पर विचार करें- (दशम् खण्ड, पृ. ४०-४१)

मनुष्य और ईसा में अन्तरः अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणि के रूप में तुम ईसा कभी नहीं हो सकते। ब्रह्म, ईश्वर और मनुष्य दोनों का उपादान है। …… ईश्वर अनन्त स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं, स्वामी विवेकानन्द के विचार से ईसा ईश्वर है और हम और आप साधारण व्यक्ति हैं। हम सेवक और वह स्वामी है।

इसके आगे स्वामी विवेकानन्द इस विषय को और स्पष्ट करते हैं, ‘‘यह मेरी अपनी कल्पना है कि वही बुद्ध ईसा हुए। बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी, मैं पाँच सौ वर्षों में पुनः आऊँगा और पाँच सौ वर्ष बाद ईसा आये। समस्त मानव प्रकृति की यह दो ज्योतियाँ हैं। दो मनुष्य हुए हैं बुद्ध और ईसा। यह दो विराट थे। महान् दिग्गज व्यक्ति      व दो ईश्वर समस्त संसार को आपस में बाँटे हुए हैं। संसार में जहाँ कही भी किञ्चित ज्ञान है, लोग या तो बुद्ध अथवा ईसा के सामने सिर झुकाते हैं। उनके सदृश और अधिक व्यक्तियों का उत्पन्न होना कठिन है, पर मुझे आशा है कि वे आयेंगे। पाँच सौ वर्ष बाद मुहम्मद आये, पाँच सौ वर्ष बाद प्रोटेस्टेण्ट लहर लेकर लूथर आये और अब पाँच सौ वर्ष फिर हो गए हैं। कुछ हजार वर्षों में ईसा और बुद्ध जैसे व्यक्तियों का जन्म लेना एक बड़ी बात है। क्या ऐसे दो पर्याप्त नहीं हैं? ईसा और बुद्ध ईश्वर थे, दूसरे सब पैगम्बर थे।’’

कहा जाता है कि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म को भारत से बाहर निकाल दिया और आस्तिक धर्म की पुनः स्थापना की। महात्मा बुद्ध (अर्थात् वह बुद्ध जो ईश्वर था) को भी मानिये और उनके धर्म को देश से बाहर निकाल देने वाले शंकराचार्य को भी मानिये, यह कैसे हो सकता है? विश्व  हिन्दू परिषद् वाले स्वामी शंकराचार्य का भारत में गुणगान इसलिए करते हैं कि उन्होंने भारत को बुद्ध के प्रभाव से बचाया, वरना ये ही विश्व हिन्दू परिषद् वाले सनातन धर्म स्वयं सेवक संघ की स्थापना करके बुद्ध की मूर्तियों के सामने नत मस्तक होते। यह हिन्दुत्व की विडम्बना है। यदि स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में बुद्ध और ईसा दोनों ईश्वर हैं तो भारत में ईसाई धर्म के प्रवेश में आप क्यों आपत्ति करते हैं। पूर्वोत्तर भारत में ईसाइयों का जो प्रवेश हो रहा है, उसका आप स्वागत कीजिये। यदि विवेकानन्द को तुमने ‘‘हिन्दुत्व’’ का प्रचारक माना है तो तुम्हें धर्म परिवर्तन करके किसी का ईसाई बनना किसी को ईसाई बनाना क्यों बुरा लगता है?

मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ कि विवेकानन्दी हिन्दू (जिन्हें बुद्ध और ईसा दोनों को ईश्वर मानना चाहिए) देश को ईसाई होने से नहीं बचा सकते। भारतवासी ईसाई हो जाएँ, बौद्ध हो जायें या मुसलमान हो जाएँ तो उन्हें आपत्ति  क्यों? ईसा और बुद्ध साक्षात् ईश्वर और हजरत मुहम्मद भी पैगम्बर!

महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज की स्थिति स्पष्ट है। हजरत मुहम्मद भी मनुष्य थे, ईसा भी मनुष्य थे, राम और कृष्ण भी मनुष्य थे। परमात्मा न अवतार लेता है न वह ऐसा पैगम्बर भेजता है, जिसका नाम ईश्वर के  साथ जोड़ा जाए और जिस पर ईमान लाये बिना स्वर्ग प्राप्त न हो।

भारत को ईसाइयों से भी बचाइये और मुसलमानों से भी बचाइये जब तक कि यह ईसा को मसीहा और मुहम्मद साहब को चमत्कार दिखाने वाला पैगम्बर मानते हैं।

– आर्यसमाज, अजमेर