हिंदूइस्म धर्म या कलंक का प्रत्युतर

हिन्दू धर्म पर कटाक्ष करती ओर अंट शंट झूटे आरोपों से युक्त एक अम्बेडकरवादी ऐ आर बाली ने हिन्दू धर्म पर पुराणों के अलावा वेदों के सन्धर्भ से आरोप लगाया कि वेदों में पिता पुत्री ,माता पुत्र , भाई बहन आदि के बीच योन सम्बन्धो की छुट थी | वेसे आपको बता दे हम पुराणों को प्रमाण नही मानते क्यूंकि पुराण काफी बाद के है ओर उनमे सत्य इतिहास भी होना सम्भव नही लेकिन फिर भी आपके कुछ तथ्य पुराणों से जांचते है ..
एक बात ओर ध्यान रखिये यदि किसी एतिहासिक घटना में कोई बुद्धि विरोध या अश्लील प्रसंग आता है तो उसका ये मतलब नही कि वो उसके धर्म का या संस्कृति का अंग है ..जेसे जापान में पिता पुत्री .माँ बेटे के बीच सम्बन्ध बनाने को कानूनी मान्यता मिली है जिसे गूगल पर लीगल इन्सेक्ट लिख कर देख सकते है तो क्या हम ये माने कि बोद्ध धम्म इन सबकी आज्ञा देता है | अब आपके आरोप को देखते है –

आपका कहना है कि पिता पुत्री के सम्बन्ध वैदिक काल में उचित थे महाशय जी जरा वेदों के बारे में भी देखिये वेद इस बारे में क्या कहते है -स लक्ष्मा यद विषुरूपा भवाति -अर्थव ८/१/२ अर्थात सगे सम्बन्धियों की कन्या से सम्बन्ध रखना बड़ा ही विषम है | आप तो वैदिक काल में कुछ ओर बता रहे थे जबकि वेदों में तो मौसी की लडकी , मामी की लडकी बुआ की लडकी आदि सगे सम्बन्धियों की कन्या से सम्बन्ध का निषेध है | ओर देखिये – ” पापामाहुर य: स्वसार निग्च्छात ” अर्थव १८/१/१४ अर्थत वो पापी है जो बहन से सम्बन्ध या विवाह करता है | देखा आपने वेदों में ऐसे सम्बन्धो का निषेध है | लेकिन क्या आप जानते है कि आपके ही भगवान बुद्ध ने अपने बुआ की लडकी यशोधरा से विवाह किया था अर्थात बुद्धो में इन सबकी छुट है आर्यों में नही |
आप मनुस्मृति का निम्न श्लोक भी देखिये –
” असपिंडा च या मातुरसगोत्र च या पितु:| 
सा प्रशस्ता द्विजातीना दारकर्माणि मैथुन || मनु ३:५ || ” अर्थत जो स्त्री माता की छ पीढ़ी ओर पिता के गोत्र की न हो विवाह करने के लिए उत्तम है | 
देखो आर्यों में तो सगोत्र विवाह या सम्बन्ध तक का निषेध है फिर आप ये कहा से ले आये |
अब आपके दिए उदाहरण देखते है – आपने लिखा वशिष्ठ का विवाह शतरूपा से हुआ | वाह क्या कहना आपका ये सब जानते है कि स्वयभू मनु की पत्नि का नाम शतरूपा था | देखिये ब्रह्माण पुराण २/१/५७ में शतरूपा को मनु की पत्नि बताया है ओर धरती के पहले स्त्री पुरुष | फिर आपने लिखा इला का विवाह मनु से ,,,ये भी आपकी मुर्खता कहे या कुंठा समझ नही आता लेकिन ये भी पौराणिक बन्धु जानता है कि मनु की पुत्री इला थी ओर उसका विवाह चन्द्रमा (सोम ) के पुत्र बुद्ध से हुआ जिनका एक पुत्र पुरुरवा था जिससे पुरु वंश चला |
आपने ये भी लिखा है कि दोहित्र ने अपनी पुत्री का विवाह पिता चन्द्र से किया लेकिन उपर देखिये चन्द्र की पत्नि तारा थी जो ब्रहस्पति की पुत्री बताई है | उसी से बुध उत्पन्न हुआ था | मत्स्य पुराण में ऋषि अत्रि ओर अनसूया का पुत्र चन्द्र या सोम बताया है | आपने सूर्य की पुत्री उषा बताई लेकिन पुराणों में सूर्य के पुत्री में यमुना का उलेख है जो कि यम की बहन है | आपने अपने दिमाग के आधार पर सारा इतिहास गढ़ लिया | वेसे आप लोगो के विरोधाभास का क्या कहना एक तरफ तो हिन्दू ग्रंथो को काल्पनिक तो दूसरी तरफ अपना उल्लू सीधा करने के लिए उन्ही का साहरा लेते हो | एक बात पर रुकिए काल्पनिक है तो सब काल्पनिक ही मानिए |
आपने एक प्रथा यज्ञ में अपने मन से गढ़ ली जिसका उलेख न वेदों में है ,न श्रोतसूत्रों में ओर न ही ब्राह्मण ग्रंथो में है वामदेव विर्कत | इसी पुष्टि में आपने सत्यवती ओर पाराशर का उदाहरण भी दिया | लेकिन आपकी कुंठा का क्या कहना महाभारत में जो स्थल नौका का था क्यूंकि सत्यवती एक मछुआरिन थी ,उसे आपने यज्ञ स्थल अपनी गोबरबुद्धि से कर दिया | वो महाभारत का प्रसंग है ओर महाभारत में उतरोतर श्लोक बढ़ते गये है जिनमे हो सकता है ये पूरा प्रसंग प्रक्षेप हो फिर भी जेसा आपने यज्ञ स्थल की बात की है तो बताइए सत्यवती के पिता ने कौनसा यज्ञ का अनुष्ठान किया | ओर यदि महाभारत ,रामायण में पाराशर ओर सत्यवती आदि के जेसे कोई अनुचित सम्बन्ध मिलते है तो इसका ये अर्थ नही कि वो उस संस्कृति या धर्म का सिद्धांत हो गया जेसा मेने उपर ही बता दिया है वो एक घटना मात्र है | आपने योनि शब्द की भी कल्पना कर ली ओर अयोनि की भी पता नही कहा से आपने संस्कृत ,हिंदी का ज्ञान लिया ये तो आप ही जाने लेकिन योनि या योनिज उन्हें बोलते है जो मैथुन आदि से उत्त्पन्न हो जेसे स्तनधारी प्राणी ,सर्प आदि ओर अयोनिज उसे बोलते है जो अमेथुनी अर्थात बिना मैथुन से उत्पन्न होए जेसे क्लोन , पसीने से उत्पन्न कीट , वर्षा ऋतु में उत्त्पन्न मच्छर , मछलिय आदि | इसके लिए वैशेषिक दर्शन भी देख सकते है | अपने पक्ष की पुष्टि के लिए आपने द्रोपती ओर सीता का उदाहरण दिया | आपने बताया कि द्रोपती की उत्त्पति घर के बाहर हुई जबकि महाभारत में ही लिखा है कि एक यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा द्रोपती की उत्त्पति राजा द्रुपद के समक्ष हुई | आपने बाहर का काल्पनिक प्रसंग कहा से गढ़ लिया | आपने सीता का उदाहरण दिया | वेसे आपको बता देंवे महाभारत की तरह रामायण में भी प्रक्षेप है इसका उदाहरण है – चतुविशतिसहस्त्रानि श्लोकानाक्त्वान ऋषि:| तत: सर्गशतान पंच षटकाण्डानि तथोत्तरम ||बालकाण्ड ४/२ अर्थात रामायण का निर्माण २४००० श्लोको पांच सौ सर्ग ओर छह कांडो में कहा गया | जबकि आज प्राप्त रामायण में २५००० श्लोक ओर ७ काण्ड है इससे पता चलता है रामायण में प्रक्षेप है |
सीता जनक की ही पुत्री थी इसका प्रमाण रामायण के निम्न स्न्धर्भो से ज्ञात होता है -रामायण में अनेक जगह सीता को जनक की आत्मजा कहा है | अमरकोश २/६/२७ में आत्मज का अर्थ है जो शरीर से पैदा हो | इस तरह जनक की आत्मजा मतलब जनक से उत्त्पन्न उनकी पुत्री | रामयाण बालकाण्ड ६६/१५ में आया है वर्धमान ममातमजात ये वाक्य सीता का परिचय देते हुए जनक कहते है कि ये मेरी आत्मजा है | रघुवंश १३/७८ में सीता को जनक की आत्मजा बताया है जनकात्मजा (रघुवंश १३/७८ ) |
रामयाण में सीता की भूमि से उत्त्पति वाली काल्पनिक कथा है जिसके बारे में पौराणिक आचार्य करपात्री जी अपनी रामायण मीमासा पेज न ८९ पर लिखते है – ” पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है | जनक की पुत्री सीता का नाम स्पष्ट करने के लिए उसका सम्बन्ध वैदिक सीता ( हलकृष्ट भूमि ) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म भूमि से बता दिया | ” इन सब उपरोक्त प्रमाणों से आपके दिए काल्पनिक उदाहरणों का खंडन हो जाता है | अब आगे देखते है ये महाशय क्या लिखते है –
आप पता नही कौनसा शब्दकोष पढ़ते है जिसमे आपको कन्या का ये अर्थ मिला | कन्या को निरुक्त में दुहिता कहा है जिसका अर्थ स्पष्ट करते हुए यास्क लिखते है – ” दुहिता दुर्हिता दुरे हिता भवतीत ” अर्थात जिसका दूर (गोत्र या देश ) में विवाह होना हितकारी हो | जब आर्यों के मतानुसार उनकी कन्या का विवाह दूर होना हितकारी है फिर किसी भी पुरुष से सम्बन्ध कर ले वो कन्या ये कल्पना क्या आपको बुद्ध ने बताई थी | आपने मत्स्यगंधा का उदाहरण दिया असल में मत्स्यगन्ध सत्यवती का ही दूसरा नाम था जेसा मेने उपर बताया कि वो एक मछुआरिन थी ओर उसमे मच्छलियो जेसी गंध आना स्वभाविक है इसलिए उसका नाम मत्स्यगंधा हुआ अर्थात मछलियों जेसी गंध वाली | आपने कुंती के विवाह से पूर्व कई पुत्र बता दिए ये आपने कहा से पढ़ा महाभारत में भी ऐसा नही है | उसमे कर्ण का वर्णन है ओर यदि ये विवाह पूर्व देवता से सन्तान होना सही माना जाता तो कुंती को उसे नदी में फेकने ओर सबसे छुपाने की आवश्यकता ही न होती आपकी गोबर बुधि का ध्यान इस ओर क्यूँ नही गया क्यूंकि तार्किक नही कुंठित मानसिकता से ग्रसित थे | उस घटना से तो यही सिद्ध होता हहै कि विवाह पूर्व सन्तान उस समय अनुचित ही मानी जाती थी ओर विवाह पूर्व सम्बन्ध भी | वेदों में व्यभिचार की निंदा या विवाह पूर्व सम्बन्ध बनाने की निंदा की हुई है ऋग्वेद २/२९/१ में आये रहसूरिव की व्याख्या करते हुए सायण लिखते है – जो स्त्री अन्यो के द्वारा किये हुए गर्भ के कारण एकांत में सन्तान उत्त्पन्न करती है ,वह व्यभिचारिणी ओर पापी मानी गयी है |  ऐसे सम्बन्धो को आज का समाज लिव एंड ओपन रिलेशन नाम देता है लेकिन वेद ऐसे सम्बन्ध को व्यभिचार ओर पाप ही कहता है | अब आपके आगे के आरोप देखते है –
  आपने अश्वमेध का उदाहरण देकर अश्व ओर स्त्री के बीच सम्बन्ध को लिखा ऐसा किसी वेद संहिता में विधान नही है | ये महीधर के भाष्य में है ओर महीधर ने मन्त्रो का विनियोग कल्प सूत्रों से किया अर्थात ऐसा विधान कल्पसूतरो में है महीधर कात्यायन श्रोत सूत्र अ. २० कंडिका ६ ओर सूत्र १६ से अश्वमेध में लिंग ग्रहण करने की प्रथा का उलेख करते हुए लिखते है – ” अश्वशिश्रमुपस्ये कुरुते वृषावाजिति ” अर्थात वृषाबाजी इत्यादी मन्त्र पढ़ते हुए रानी स्वयम घोड़े का लिंग अपनी उपस्थ इन्द्रिय में धारण करे | ये विधान कल्पसूत्र से है जिसमे वाममार्गियो द्वरा काफी गडबड की हुई है | इनको वेदों के समान प्रमाणिक नही बल्कि अप्रमाणिक काफी समय से माना जाता रहा है | क्यूंकि ये सभी क्रिया कलाप उस समय भी शिष्टजनों में घ्रणित ही समझे जाते थे | जेसा की जैमिनी ने मीमासा दर्शन में स्पष्ट कहा है कि कल्पसूत्रों में वेदों के विरुद्ध कई बातें है अत: उपरोक्त बात भी वेद विरुद्ध ही थी ओर मनु के अनुसार धर्म का मूल वेद ही था | देखिये मीमासा का सन्धर्भ – पूर्व पक्ष से कोई जैमिनी से प्रश्न करता है – ” प्रयोगशास्त्रमिति चेत “(मीमासा १/३/११ ) अर्थात वेद विहित धर्मो का यथाविधि अनुष्ठान बताने वाले कल्पसूत्र भी वेद के समान स्वत: प्रमाण है यदि ऐसा कहो तो –
उत्तर में जैमिनी कहते है – ” नाsसन्नीयमात “(१/३/१२ ) अर्थात यह बात ठीक नही | कल्पसूत्र वेद के समान प्रमाणिक नही हो सकते ,क्यूंकि उसमे आवेदिक विधानों का भी निरूपण पाया जाता है | इसी कथन के पता चलता है कि कल्प सूत्रों के आवेदिक विधान उस समय ऋषि गणों में स्वीकार नही थे |
अब आपके अगले आरोप की समीक्षा करते है –
आपकी गोबरबुधि ओर कुंठित मानसकिता ने आपके दिमाग का कूड़ा कर दिया जो ऋषि दयानद जी के भाष्य को भी आपने नही छोड़ा यदि कोई आपसे कहे की मधुर रसीले आमो का भोग करो ,,मखमली गद्दों का भोग करो तो आप तो आमो से योन सम्बन्ध बनाने ओर गद्दों से मैथुन क्रिया करना शुरू कर देंगे क्यूकि आपके अनुसार भोग का अर्थ सम्भोग ही होता है जबकि संस्कृत में भोग मतलब उपयोग में लेना होता है ऋषि दयानद जी ने भी यही स्पष्ट किया है ,ऋषि ने ऋषभेन उक्षेन भूञ्जीरन लिखा है अर्थात बैल रूपी साधन से खेती व कुए आदि चला कर सुख भोगे | इसी भाष्य में म्ह्रिशी ने लिखा है कि मनुष्य छेरी आदि पशुओ के दूध आदि से प्राणपान की रक्षा के लिए चिकने ओर पके हुए पदार्थो का भोजन कर उत्तम रसो को पीकर वृद्धि को पाते है वे अच्छे सुख को प्राप्त होते है | यहा पशुओ से सम्बन्ध नही बल्कि उनका दूध पीना ,खेती आदि कार्यो में उपयोग लेने का उपदेश है वही अर्थ स्वामी जी ने भी किया है | अब आपके किये अगले मन्त्रो का अर्थ देखते है –  न सेशे ……………..उत्तर: (ऋगवेद १०.८६.१६)  ओर न सेशे………..उत्तर­. (ऋग्वेद १०-८६-१७) इन दोनों मन्त्रो का आपने बहुत अश्लील अर्थ लिखा जबकि इस मन्त्र में लिंग वाची शब्द है ही नही ये मन्त्र संवादत्मक शेली में है जिसमे तीन पात्र इंद्र उसकी पत्नि इन्द्राणी ओर मित्र वृषाकपि है | ऐसा ऐतिहासिक परख अर्थ में है ओर नेरुक्त पक्ष में इंद्र विद्युत इन्द्राणी मध्यम वाक् ओर वृषाकपि आधित्य है | (निरुक्त ११.३८ व ११.३९ ) यहा हम इनका ऐतिहासिक अर्थ लिखते है – इन्द्राणी इंद्र से कहती है – न सेशे ….. विश्वस्मादिन्द्र उत्तर: अर्थात तुम तो सबके सामने नम्र होकर सर झुका कर रहते हो ,नम्रता या सर झुकाने से कार्य निर्वाह नही होता बल्कि अपने प्रभाव को विस्तार करने से होता है | इस मन्त्र में सर झुकने की बात है उसके लिए कृपन शब्द भी आया है लेकिन आपने लिंग अर्थ ले लिया | अब इसका प्रत्युतर इंद्र देता है – न सेशे ….उत्त्तर (ऋग्वेद १० -८६ -१७ ) है इन्द्राणी तुमने जो कहा वह ठीक है | तो यह भी नियम सब पर लागू नही होता | कभी कभी ऐसा होता है की वह समर्थ नही होता जो डट कर खड़ा हो जाता है ओर सर ताने रखता है प्रतुतय वह समर्थ होता है जिसका सर दुसरो के पैरो में झुकता है या नम्र होता है | इस सम्पूर्ण काल्पनिक आख्यान में इंद्र का सखा वृषाकपि उनका सोम ले लेटा है जिसे इन्द्राणी को बहुत बुरा लगता है ओर वो अपने पति इंद्र को उससे लड़ने ,झगड़ने के लिए प्रेरित करती है लेकिन इंद्र उसे नम्रता ओर विनम्रता से वस्तु लेने का उपदेश देता है ,,इस मन्त्र द्वरा या इस आख्यान द्वरा यही उपदेश दिया है कि मित्रो ,बंधुओ से अपना कार्य करवाने के लिए झगड़ा आदि करने की जगह नम्रता से कार्य निकलवाना चाहिए क्यूंकि झगड़ा आदि से कार्य बिगड़ने की गुंजाइश ज्यादा रहती है |
अब अगले मन्त्र ऋग्वेद १०/८६/६ का भी आपने एक अश्लील अर्थ लिखा है जबकि उसका अर्थ होगा – वो भी इसी सूक्त का है उसमे वृषाकपि से क्रोधित ओर जोश में आती इन्द्राणी कहती है – “
 न मत्स्त्री………..­………………उत­्तर:(ऋग्वेद १०-८६-६) अर्थात मुझसे अधिक अन्य कोई स्त्री सुभग्या सुन्दरी नही है , न सुखनि या सुपुत्रवती है , न मुझसे बढ़ कर शत्रुओ को नाश करने वाली है न ही उद्यम करने वाली है | इस मन्त्र में वृषाकपि से क्रोधित इन्द्राणी की बात है तो इसमें वीरता आदि का ही उपदेश होगा न कि मैथुन आदि का इन्द्राणी ओर इंद्र के रूप में वीर स्त्री ओर सदाचारी पुरुष का रूपक अलंकार है | अब आपका अगला मन्त्र देखते है जिसका देवता इंद्र है | यास्क के निघंट में इंद्र को त्वष्टा कहा है ,जिसका अर्थ होता है सूर्य | मन्त्र है ताम……………..­……..शेमम. (ऋग्वेद १०-८५-३७) जिसका उचित अर्थ होगा औषधियों का पोषण करने वाले सूर्य ! जिस भूमि में मनुष्य लोग बीज बोते है जो भूमि हम पुरुषो की कामना को पूरी करती है | जिसके तल में हम आश्रय लेते है अर्थात घर बना कर रहते है | जिसके गर्भ में हल को प्रवेश कराते है ,उस अतिक्ल्याणकारी भूमि को तु वर्षा आदि करा कर प्रेरित कर | इस मन्त्र में भूमि की विशेषता ओर सूर्य द्वरा उचित वर्षा करवा कर उत्तम फसल की उत्त्पति को प्राप्त करने का उपदेश है |
उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है कि वैदिक काल में जार कर्म अच्छा नही समझा जाता था अपितु इसे व्यभिचार ओर पाप समझा जाता था | हिंदूइस्म धर्म ओर कलंक के लेखक ने यह अध्याय किसी तार्किक भावना से नही अपितु अपनी कुंठित ओर हिन्दुओ ,आर्यों को नीचा दिखने की मानसिकता से लिखी थी | जिसके कारण उनके दिमाग में ऋषि के अच्छे उत्तम भाष्य का अश्लील अर्थ आया ओर अन्य मन्त्रो का अश्लील अर्थ ही किया जबकि मन्त्रो का अध्यात्मिक ,आधिभौतिक (वैज्ञानिक ) अर्थ भी होता है |
सधर्भित ग्रन्थ या पुस्तके – (१) वेदों की वर्णन शेलिया -रामनाथ जी वेदालंकार 
                                        (२) ऋग्वेद भाष्य – जयदेव शर्मा 
                                       (३) मीरपुरी सर्वस्व – बुद्धदेव मीरपुरी 
                                        (४) निरुक्त -यास्क (भाषानुवाद -भगवतदत्त जी ) 
                                        (५) मनुस्मृति -स्वाम्भुमनु (भाषानुवाद – सुरेन्द्र कुमार )
                                        (६) ऋग्वेद में आचार सामग्री  

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