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तप से मेरा ह्रदय विशाल हो

तप से मेरा ह्रदय विशाल हो
डा. अशोक आर्य
मैं अपनी राक्षसी आदतों को छोडकर दनशील बनूं । सदा तप करता रहूं तथा इस तप से अपनी इन बुराईयोण को जला कर राख कर अपने ह्रदय को विशाल करुं । इस भावना क उप्देश यह मन्त्र इस प्रकार कर रहा है :-
प्रत्युष्टंरक्श: प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्टप्तंरक्शो निष्ट्प्ताऽअरातय: ।
उर्वुन्त्रिक्शमन्वेमि ॥ रिग्वेद १.७ ||
इस मन्त्र मे चार बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुये उपासक प्रभु से इस प्रकार प्रार्थना कर रहा है :-
१. राक्षसी प्रवृतियों का नाश हो :-
राक्षसी प्रव्रतिया प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर खैंचती हैं । यह प्रव्रतियां बहुत खतरनाक होती हैं ,जिस में भी घुसती हैं ,जिसे भी घेरती हैं , उसका अल्प काल में ही नाश हो जाता है । उसका अपना ही नाश नहीं होता , जो इस के आसपास होते है या जो इस के परिजन व मित्र होते हैं वह भी कलह – कलेष में फ़ंसकर नष्ट हो जाते हैं । इस लिए प्रभु से विनती की है कि हे प्रभु यह जो राक्शसी प्रव्रतियां हैं यह मेरे अन्दर न घुसने पावें तथा आप की सहायता से मैं इन्हें जला कर नष्ट कर दूं । इन्हें अपने अन्दर प्रवेश न करने दूं ।
भाव यह है कि अपने हित के लिए ओरों को हानि देने वाली जितनी भी भावनाएं हैं , वह मुझ में प्रवेश न कर सकें , मुझ में पैदा ही न होने पावें । मैं अपने सुख साधनों को बटाने के लिए किसी भी रूप में दूसरों को हानि न होने दूं । सब के हित का ही सदा ध्यान रखूं ।
२. दान देने के पश्चात ही खाऊं :-
इस मन्त्र में जिस दूसरे बिन्दु पर विचार किया गया है , वह है दान की वृति । जीव नहीं चाहता कि वह सदा अपने ही हित साधन में लगा रहे । वह पर हित का भी ध्यान रखना चाहता है । इस लिए प्रभु से प्रार्थना करता है कि , वह उसे इतनी शक्ति दे कि वह अपनी दान न देने वाली आदतों को नष्ट करदे तथा अपने ही हित का ध्यान न रखते हुए अपनी सब सम्पति अपने ही हित में व्यय न कर ओरों के ह्त का भी ध्यान रखे , ओरों को भी उपर उटाने का यत्न करे । जीव चाहता है कि वह सदा त्यागपूर्वक प्रभु की दी हुई सम्पतियों का भोग करे, उपभोग करे । इसके लिए वह अपने जीवन को यग्य मय बनाने की इच्छा रखता है । जिस प्रकार यग्य में डाला पदार्थ दूर दूर तक न जाने कितने लोगों का ओर न जाने किस किस का हित करता है । उस प्रकार भी जीव चाहता है कि उसके द्वारा किस किस का हित हुआ है , इसका भी उसे पता न चले , वह जो भी दे गुप्त रुप से ही दे , गुप्त दन्के रुप से ही दे ।
इस प्रकार जीव चाहता है कि जिस प्रकार यग्य शेष को सब में बांट कर फ़िर बचा हुआ ही अपने लिए उपभोग किया जाता है । इस प्रकार मैं सब में बांटने के पश्चात बचे हुए धन का ही अपने लिए प्रयोग करूं । जो मेरे पास है उससे जन हित के कार्य करूं तथा बचे हुए शेष को ही अपने लिए प्रयोग करुं ।
३. तप से दान की वृतियां आती हैं :-
मन्त्र कहता है कि तप दो कार्य करता है (क) यह रक्शी तथा अदान की आदतों को जला कर राख कर देता है तथा (ख) दान की आदतों को बटाता है । इसे ही ध्यान में केन्द्रित कर मन्त्र कह रहा है , उपदेश कर रहा है कि राक्शसी व्रतियों को दूर करने के लिए तपश्चर्या करें तथा दान न देने की आदतों का भी विनाश करने के लिए तप करें । तपश्चर्या, प्रभु का स्मरण , प्रभु के समीप आसन लगाने से हमारी जितनी भी रक्शसी आदतें हैं, वह जल कर नष्ट हो जाती हैं , दान न देने की भावना भी दूर हो जाती हैं तथा हम दूसरों के सहायक बन कर उन्हें भी अपने ही समान उपर उटाने के लिए सहयोग करते हैं , अपने धन को दान स्वरुप ,सहयोग के लिए उन्हें दे देते हैं । जब हमारे अन्दर की भोग की , वासना की व्रतियां ही नष्ट हो जावेंगी तो ओरों को हानि देने का तो कभी सोच भी नहीं सकते ।
४. ह्रदय की विशालता से देव बनते हैं :-
ह्रदय की विशालता हमें देवत्व की ओर ले जाती है , उन्नति की ओर ले जाती है । इस कारण ही तप करने वाला व्यक्ति सदा अपने ह्रदय को विशाल बनाने का प्रयास करता है । उस के जीवन का कोई भी कार्य कभी भी स्वार्थी बनकर , ह्रदय को संकुचित करके नहीं किया जाता । वह सदा खुले मन से , दूसरे के हित को सामने रखते हुए सब कार्य काता है । उस के अन्दर की यह विशालता ही उसके ह्रदय को पवित्र बनाती है , पवित्र रखती है । यह ही कारण है कि उसके अन्दर भोग की इच्छाएं कभी जन्म ही नहीं ले पातीं । जब हम अपने से पहले दूसरे का हित चाहते हैं तो हम पवित्र हो जाते हैं तथा एसा पवित्र व्यक्ति ही मानवत्व से उपर उटकर देव बनता है । अत: हम भी देव अर्थात दूसरों को कुछ देने वाले बन जाते हैं ।

डा. अशोक आर्य

सत्यव्रती बन देवत्व पा प्रभु दर्शन के अधिकारी बनें

सत्यव्रती बन देवत्व पा प्रभु दर्शन के अधिकारी बनें
डा. अशोक आर्य
प्रभु क उपदेश है इ हम सत्य का व्रत लें ,इसका पालन्कर देवत्व को प्राप्त करें । देवत्व को प्राप्त कर ही हम प्रभु प्रप्ति के अध्करी बनते हैं । यह मन्त्र इस तथ्य पर इस प्रकार प्रकाश डालता है :-
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिश्यामि तच्छेकेयं तन्मे रध्यताम ।
इदमहम्न्रतात सत्मुपैमि ॥यजुर्वेद १.५ ॥
यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के चतुर्थ मन्त्र पर विचार करते हुए बताया गया था कि वेदवणी हमारे सब प्रकार के कर्तव्यों का प्रतिपादन करती है । प्रस्तुत मन्त्र इस तथ्य को ही आगे बटाते हुए तीन बिन्दुओं के माध्यम से उपदेश काते हुए बताता है कि :-
१.हमारे सब कर्य सत्य पर आश्रित हों :-
मन्त्र कहता है कि विगत मन्त्र के अनुसार जो स्पष्ट किया गया थ कि हमारा अन्तिम ध्येय परम पिता की प्राप्ति है । इस पित को पाने का माध्यम वेदवाणियों के अनुरुप अपने आप को चलाना है , इसके आदेशों को मानना है । इस के बिना हम प्रभु तक नहीं जा पाते । वेद में इस मार्ग के अनुगामी व्यक्ति के लिए कुछ कर्तव्य बताए हैं । इन कर्तव्यों में एक है सत्य मार्ग पर आश्रित होना ,सत्य मार्ग पर चलना ।
मन्त्र के आदेशानुसार प्रभु की समीपता पाने के लिए हमारे सब कर्तव्यों के अन्दर एक सूत्र का ओत – प्रोत होना बताया गया है तथा कहा गया है कि हमारे सब कर्तव्य सत्य पर ही आधरित हों । सत्य के बिना हम किसी भी कर्तव्य की इति श्री न कर सकें , पूर्ति न कर सकें । भाव यह है कि हम सदैव सत्य का आचरण करें , सत्य का ही प्रयोग करें ओर सत्य मार्ग पर ही चलें ।
सत्य के इस कर्तव्य को सम्मुख रखते हुए हम प्रार्थना करते हैं कि हे इस संसार के संचालक !, हे पग पग पर सांसारिक प्राणी को मार्ग दर्शन देने वाले , रास्ता दिखाने वाले प्रभो ! मैं एक व्रत धारण करूंगा , मैं एक प्रतिग्या लेता हूं कि मैं लिए गए व्रतों का सदैव पालन कर सकूं , उस लिए गए व्रत के अनुरुप अपने आप को टाल लूं , तदनुरुप अपने आप को चलाउं । जो व्रत मैने लिया है , उसके अनुसार ही कार्य व्यवहार करुं । इस प्रकार प्रभु मेरा यह व्रत सिद्ध हो , जो मैंने प्रतिग्या ली है उस पर चलते हुए मेरी वह प्रतिग्या पूर्ण हो । मैं उसे सफ़लता पूर्वक इति तक ले जा सकूं ।
इस प्रकार हे प्रभो ! मैं सदा व्रती रहते हुए , उस पर आचरण करते हुए , इस सत्य मार्ग पर चलते हुए मैं अन्रत को , मैं गल्त मार्ग को , मैं झुट के मार्ग को छोड कर इस सत्य मार्ग का , इस सज्जनों के मार्ग का आचरण करूं ओर इस में विस्त्रत होने वाले , इस मार्ग पर व्यापक होने वाले सत्य को मैं अति समीपता से , अति निकटता से प्राप्त होऊं ।
२. सत्य की प्राप्ति व्रस्त का स्वरुप :-
प्रश्न उटता है कि हमने जो व्रत लिया है , जो प्रतिग्या ली है , उसका स्वरुप क्या है ? विचार करने पर यह निर्णय सामने आता है कि हम ने जो व्रत लिया है इस व्रत का संक्शेपतया स्वरूप यह है कि हम अन्रत को छोड दें, हम पाप के मार्ग को छोड दें । हम बुरे मार्ग पर चलना छोड दें । यह अन्रत का मार्ग हमें उन्नति की ओर नहीं ले जाता । यह मार्ग हमें ऊपर उटने नहीं देता । यह सुपथ नहीं है । यह गल्त मार्ग है । हमने अपने जिस ध्येय को पाने की प्रतिग्या ली है , यह पाप का मार्ग हमें उस ध्येय के निकट ले जाने के स्थान पर दूर ले जाने वाला है । इसलिए हमने इस मार्ग पर न जा कर सत्य के मार्ग पर चलना है । मानो हम ने गाजियाबाद से दिल्ली जाना है । इसके लिए आवश्यक है कि हम दिल्ली की सडक पकडें । यदि हम मेरट की सडक पर चलने लगें तो चाहे कितना भी आगे बटते जावें , चलते जावें, कभी दिल्ली आने वाली नहीं है । इस लिए हम ने जो उस पिता को पाने की प्रतिग्या ली है , उसकी पूर्ति के लिए आवश्यक है कि हम असत्य मार्ग को छोड सत्य मार्ग को प्राप्त हों , तब ही हमें उस पिता की समीपता मिल पावेगी ।
३.सत्य से उत्तरोत्तर तेज बटता है :-
परमपिता परमात्मा को व्रतपति कहा गया है । वह प्रभु हमारे सब्व्रतों के स्वामी हैं । हमारे किसी भी व्रत की इति श्री , हमारे कीसी भि व्रत की पुर्ति , उस प्रभु की दया द्रष्टि के बिना, उस प्रभु की क्रपा द्रष्ट के बिना पूर्ण होने वाली नहीं है । जब प्रभु की दया हम पर बनेगी तो ही हम अपने किए गए व्रतों को सिद्ध कर सकेंगे । इस लिए हमने जो सत्य पथ का पथिक बनने का जो व्रत लिया है , उसको सफ़लता तक ले जाने के लिए हमने सत्य – व्रत का पालन करना है तथा सुपथ गामी बनना है । प्रभु का उपासन , प्रभु की समीपता , प्रभु के निकट आसन लगाना ही हमारी शक्ति का स्रोत है । इसलिए हमने प्रभु के निकट जाकर बैटना है । तब ही हम अपने लिए गए व्रत का पालन करने में सफ़ल हो सकेंगे । जब हम सत पर चलते हैं , जभम सत्य्व्रती हो , इस व्रत की पूर्ति का यत्न करते हैं तो धीरे धीरे हमारा तज भी बटता है जब कि अन्रत माअर्ग पर चलने से , बुराईयों के , पापों के माग पर चलने से हमारा तेज क्शीण होता है , नष्त होता है । इसलिए अपने तेज को बटाने के लिए हमें सत्य मार्ग पर ही आगे बटना है । यह उपदेश ही यह मन्त्र दे रहा है ।
डा. अशोक आर्य

सोम से हम स्वस्थ हो छोटे प्रभु बनते हैं

सोम से हम स्वस्थ हो छोटे प्रभु बनते हैं –

डा. अशोक आर्य
सम्पूर्ण जीवन वेदवाणी के विचार का विषय है तथा वह कर्म व पुरुषार्थ प्रधान है । हमें ज्ञान देती है । सोम से हम छोटे प्रभु का रुप लेते हैं, उन्नति करते हुए, ह्व्य की रक्शा करते हुए, हम अपने जीवन को यग्यमय बनावें । इस की चर्चा इस मन्त्र में इस प्रकार की गई है :-
सा विश्वायु: सा विश्वकर्मा सा विश्वधाया:।
इन्द्रस्य त्वा भागंउसोमेनातनच्पि विश्णो ह्व्यंउरक्श॥यजुर्वेद १.४ ॥
इस मन्त्र में चार बातों पर उपदेश करते हुए बताया गया है कि :-
१. वेदवाणी सम्पूर्ण जीवन का वर्णन करती है : –
विगत मन्त्र में वेदवाणी के दोहन का विस्तार से वर्णन किया गया है , यह वेदवाणी हमारे सम्पूर्ण जीवन का वर्णन करने वाली है । इससे स्पष्ट है कि मानव जीवन के आदि से अन्त तक के जीवन के सम्बन्ध में वेद में चर्चा आती है । वेद में जीवन के विभिन्न अवसरों पर मानव के करणीय कार्यों व कर्तव्यों की बडे विस्तार से चर्चा की है तथा उपदेश किया है कि हे मानव ! यह वेद मार्ग ही तेरे सुख का मार्ग है , तेरे धन एश्वर्य की प्राप्ति का साधन है , तेरे लिए श्रेय प्राप्ति का साधन है । इसलिए तूं सदा वेद के अनुसार ही अपने जीवन को चला । जब कभी तूं वेद मार्ग से भटकेगा , तब ही तेरे लिए विनाश का मार्ग खुल जावे गा , अवन्ति के गढे में गिरता चला जावेगा । इस लिए वेदवाणी की शरण में ही रहना , इसके आंचल को कभी अपने से हटने मत देना ।
वेद में ब्राह्मण आदि वर्णों तथा ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के लिए क्या करणीय है तथा उनके क्या क्या कर्तव्य हैं , सामाजिक स्थितियों में पति – पत्नि ,बहिन – भाई , पिता – पुत्र , शिष्य – आचार्य, राजा – प्रजा , ग्राहक – दुकानदार आदि के कार्यों , कर्तव्यों , करणीय कार्यों आदि की बडे ही विस्तार से चर्चा की गई है । समाज के प्रत्येक व्यक्ति , प्रत्येक वर्ग के लिए बडा ही सुन्दर उपदेश करते हुए , उनके कर्तव्यों विष्द प्रकाश डाला गया है । इस प्रकार वेद ही समाज के प्रत्येक प्राणी का मार्ग – दर्शक है । इस पर चलने पर ही क्ल्याण का मार्ग खुलता है ।
२. वेदवाणी सब के कार्यों का वर्णन करती है :-
समाज में अनेक खण्ड हैं , समाज के कार्यों का विभाजन करते हुए , प्रत्येक आश्रम , प्रत्येक वर्ण के कार्यों व कर्तव्यों पर भी इस वेदवाणी में चर्चा की गयी है । वेद्वाणी का उपदेश है कि अपने कर्तव्यों को अवश्यम्भावी समझते हुए उसे तत्काल करना आरम्भ कर दो तथा तब तक उन पर कार्य करते रहो , जब तक सम्पन्न न हो जावें किन्तु अधिकारों की मांग कभी भी मत करें । जब तक प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्तव्यों को सम्पन्न करने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , तब तक समाज उपर नहीं उठ सकता , उन्नति नहीं कर सकता । अत: समाज की उन्नति के लिए ही नहीं , अपनी स्वयं की उन्नति के लिए भी पुरुषार्थ द्वारा अपने कर्तव्यों की इति श्री आवश्यक है । इससे ही जीवन सुन्दर बनता है । इसके साथ ही हम कभी अपने अधिकारों की चर्चा तक न करें। जब हम अधिकारों को मांगने लगेंगे तो समाज का ताना बाना ही बिगड जावेगा । यह सत्य है कि जब हम अपने कर्तव्यों को सम्पन्न करने में लगते हैं तो यह अधिकार स्वयमेव ही प्राप्त होते जाते हैं । इन पर अलग से कार्य करने की आवश्यकता ही नहीं होती । तब ही तो गीता में भी उपदेश किया गया है कि ” तुम्हारा अधिकार कर्म का ही है फ़ल का नहीं ।” कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन ॥
३. वेदवाणी समग्र ज्ञान का पान कराती है :-
वेद सब प्रकार का ज्ञान देते हैं , यह सब प्रकार के ज्ञानों का पान कराते है । एसा कोई ज्ञान नहीं है , जिसका वर्णन इस वेदवाणी में न हो । वेदवाणी द्वारा दिये इस ज्ञान से ही हमारी कर्तव्य भावना का उदय होता है , जागरण होता है । इस ज्ञान को दूध मानते हुए , इस समग्र ग्यान के दूध का हमें यह वेदवाणी हमें पान कराती है । वेदवाणी में सब सत्य विद्याओं का ज्ञान प्रकाशित किया गया है । इस कारण यह प्राणी मात्र को व्यापक ज्ञान देती है । अनेक विद्वानों ने वेदवाणी को गौ के नाम से तथा इस के उपदेश को गाय के दूध के नाम से सम्बोधन किया है क्योंकि यह मानव के जीवन को श्रेष्ठ व उत्तम बनाने वाले गाय के दूध के ही समान जगत के सब प्राणियों को धारण करती है तथा इन सब का पालन भी करती है ।
इस वेदवाणी की चर्चा के साथ ही परम पिता परमात्मा कहते हैं कि हे जीव इस वेदवाणी का स्वाध्याय करने के कारण मैं तुझे अपने छोटे रुप में तैयार कर देता हूं , तुझे अपने छॊटे रुप में बना देता हूं , ताकि तूं भी मेरे ही समान अपने से छोटे , अपने से अग्यानी लोगों में इस वेदवाणी के ज्ञान को बांट सके । इस प्रकार मैं तुझे ठीक कर देता हूं , ठीक बना देता हूं ।
मानव जीवन में जो कुछ भी खाता है , उस आहार का अन्तिम रस अथवा सार रुप हमारा यह वीर्य होता है । इस वीर्य के द्वारा ही हमारे यह पिता हमारे शरीर को स्वस्थ बनाते हैं । इस सोम रक्षा से जहां हमारा स्वास्थ्य उत्तम बनता है , वहां हमारे मन से सब प्रकार के विकार , सब प्रकार के दोष धुल जाने के कारण इस में ईर्ष्या , द्वेष आदि को स्थान ही नहीं मिलता । सोम की रक्षा करने से हमारे शरीर में इतनी शक्ति आ जाती है कि इस में किसी प्रकार की इर्ष्या , किसी प्रकार का राग, किसी प्रकार का द्वेष स्थान ही नहीं पा सकता । इस प्रकार हम अपना समय राग – द्वेष में न लगा कर निर्माण के कार्यों में लगाते हैं । इससे हमें अत्यधिक धन एश्वर्य की प्राप्ति होती है । हम सोम रुप हो जाते हैं । सोम रुप होने से हम में ज्ञान की अग्नि भडक उठती है । ज्ञान प्राप्त करने की अद्भुत इच्छा शक्ति पैदा होती है । इस ज्ञाणाग्नि रुपी ईंधन को पा कर यह अग्नि , यह इच्छा शक्ति ओर भी तीव्र हो जाती है तथा इससे हमारा मस्तिष्क तीव्र हो जाता है , दीप्त हो जाता है । इस में ज्ञान का अत्यधिक प्रकाश हो जाता है , जिस प्रकाश का तेज हमारे आभा – मण्ड्ल को भी दमका देता है,चमका देता है । इस सोम से मानव का जहां मस्तिष्क दीप्त होता है वहां शरीर व मन आदि सब कुछ ही ठीक हो जाता है, पुष्ट हो जता है ।
४. मानव विष्णु बन जाता है :-
मानव जब सब प्रकार की उन्नति करने वाला बन जाता है तो इस प्रकार की उन्नति को त्रिविध उन्नति कहते हैं तथा इस प्रकार की उन्नति करने में सफ़लता पाने वाले मानव को त्रिविक्रम कहते हैं । इस त्रिविक्रम प्राणी को विश्णु भी कहा जाता है । इस प्रकार तीनों विधियों से उन्नत होने के कारण यह विष्णु बन जाता है । जो विष्णु बन जाता है , उससे परम पिता उपदेश करते हुए कहते हैं कि हे सब प्रकार से व्यापक उन्नति करने वाले प्राणी ! तुम अपने जीवन से , अपने श्वासों से ,अपने कर्मों से इस यज्ञ की सदा रक्षा करना अर्थात सदा यज्ञ आदि कर्म करते रहना तथा अपने जीवन को भी यज्ञमय ही बना देना । यज्ञ को अपने जीवन से कभी अलग मत होने देना , विलुप्त मत होने देना । तेरे यह प्रभु यग्य रुप ही हैं । इस प्रकार जीवन पर्यन्त यज्ञ करने से ही तूं वास्तव मे इस यज्ञरुप प्रभु की निकटता पा सकेगा , उस प्रभु के समीप अपना आसन लगा सकेगा, उसकी उपासना कर सकेगा ।
डा. अशोक आर्य

प्रभु प्रेरणा से हम परमेष्ठी बनें

प्रभु प्रेरणा से हम परमेष्ठी बनें
डा. अशोक आर्य
यजुर्वेद का आरम्भ यह उपदेश देते हुए होता है की जो व्यक्ति प्रभु की दी गयी प्रेरणा पर चलता है वह पर्मेष्थि बनता है अर्थात वाहप्रभु के आदेश कॅया पालन करने वाला , उस प्रभु के मार्ग – दर्शन मे रहने वाला होता है | मंत्र का मूल पाठ इस प्रकार है : –
|| ओ3म || ईशे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो व: सविता प्रार्पयतु श्रेष्टतमाय कर्मणा&आप्याय्ध्वमघ्ण्या&इंद्राय भागम् प्राजावॅतीरनमिवा&अयक्ष्मा मा व स्टेन&ईशत माघश्नसो ध्रुवा&अस्मिन गोपतौ स्यात् बग्विर्यजमानॅस्य पशून पाहि || यजुर्वेद 1.1 ||
इस मंत्र में जीव ने परम् पिता परमात्मा से प्रार्थना करते हुए कहा है कि हे प्रभु ! मुझे प्रेरणा दो | अपने भक्त की इच्छा पूर्ण करने के लिए प्रभु उसे उपदेश देते हुए 13 प्रकार की प्रेरणा देते हुए कहता है कि हे जीव ! यदि तू परमेष्ठी बनना चाहता है तो तू इन प्रेरणाओ को अपने जीवन का अंग बना ले , इन्हें अपना ले | इन्हें अपनाने पर ही तू इस उतम पद को पा सकेगा | यह प्रेरणाएं इस प्रकार हैं : –
1. तू गतिशील हो :-
प्रभु वायव:स्थ श्ब्द के माध्यम से जीव को प्रथम प्रेरणा देते हुए कहता है कि अकर्मण्यता से कोई भी प्राणी कभी उपर नही उठ सकता | उपर उठने के लिए सक्रिय होना आवश्यक है , पुरुषार्थी होना आवश्यक है , मेहनती होना आवश्यक है | इस लिए हे जीव ! तू सदा गतिशील रह , क्रियाशील रह , पुरुषार्थ मे लगा रह | यह पुरुषार्थ ही तेरे काम आवेगा | अकर्मण्यता को तू अपने पास भी न आने दे | तू आत्मा है | आत्मा का अर्थ है सतत, निरन्तर गतिशील होना | जब जीव आत्मा के इस अर्थ को भूल कर अकर्मण्यता को अपना लेता है तो यह अकर्मण्यता उसे जीर्ण शीर्ण कर देती है , उस का नाश कर देती है | इस के उलट यदि जीव पुरुषार्थी है ,गतिशील है, क्रियाशील है तो इससे उस में विकास का उदय होता है , यह विकास का कारण बनती है | इससे स्पष्ट होता है कि जीव के लिए जिसे जीवन माना गया है , वह है क्रियाशीलता | क्रियाशीलता ही उसके लिए जीवन है |
2. सुप्रेरक बनाने की विद्वान लोग चेष्टा करे : –
प्रभु सविता देव: व:श्रेष्टमाय कर्माने प्रापयतु के माध्यम से उपदेश करते है कि हे जीव ! बस तुम् अपने अंदर एसी अनुकूलता पैदा करो कि विद्वान लोग , ग्यानी पुरुष , जो सदा प्रेरणा देने वाले प्रेरक होते है, वह लोग तुम्हें सदा श्रेष्ट ही नही अपितु श्रेष्टतम कर्मों की ओर प्रेरित करें क्योंकि इन कर्मों से ही तू उंचा उठेगा |
3. तुम प्रतिदिन बढ़ो :-
प्रभु मंत्र में आए शब्द आप्यायध्वम् के द्वारा पुन: प्रेरणा देते हुए उपदेश करते हैं कि हे जीव ! तुम प्रतिदिन बढ़ो | तुम प्रतिदिन उपर उठो, उन्नति करो | यह सबका पुरुषार्थ होगा | इस सब के लिए एक मात्र मार्ग यह है कि हम निरंतर पुरुषार्थ करें , क्रियाशील रहें , उन्नति के पाथ को न छोडे | हम ने यह जो अपने को स्क्रिय बनाया है ,यह हमारी क्रियाशीलता हमें उत्तम कमों की ओर झुकाने वाली हो |
4. अहिंसकों में उतम बनो :-
प्रभु अघण्या शब्द से उपदेश करते हैं कि हे जीव ! तू कभी हिंसक न बनना तथ कभी किसी की हिंसा न करने वालों में तुम उतम होना | स्पष्ट है कि प्रभु अहिंसक को उतम मानते है इस कारण वह माँसाहार के भी विरुद्ध है तथा किसी को भी माँसाहार की स्विक्रती नहीं देते | इस के साथ ही प्रभु का उपदेश है कि मानव का जो भी कार्य हो वह निर्माण के लिए , विकास के लिए , जन कल्याण के लिए हो , दूसरों के हिट अहित का ध्यान रखते हुए किया जावे तथा जन क्ल्याण के लिए हो | इस सब के साथ ही यह बात भी स्पष्ट की गयी है कि तुम्हारा कोई भी काम ध्वन्स के लिए , विनाश के लिए , जन उपहास के लिए नहीं होना चाहिए |
5. तुम मेरे उतम आदेशों को ही स्वीकारना :-
हमारे प्रभु नही चाहते की उनके किसी गल्त आदेश को स्वीकार करने के लिए कोई जीव बाध्य हो,( प्रभु चाहे कभी गलत उपदेश देते ही नहीं । तो भी ) इस लिए वह आदेश देते है कि इंद्रा भागम् अर्थात तुम लोग मुझ पर एश्वर्यशाली होने के कारण मेरे प्रत्येक आदेश का पालन करने के लिए बाध्य नही हो बल्कि मेरे केवल उस आदेश को ही स्वीकार करना जो जनहितकारी हो , कल्याणकारी हो , सर्वहितकारी हो , जो आदेश आपको अच्छा न लगे उसे आप किसी भी किसी भी अवस्था में स्वीकार न करना | यहां प्रभु जीव को कर्म की स्वतन्त्रता दे रहा है । हां ! यह ध्यान रखना की तू अपने में प्रक्रति का आधिक्य न होने देना, केवल प्रभु का ही आधिक्य तेरे अंदर हो अर्थात प्रेम मार्ग पर न चलकर श्रेय मार्ग को अपनाना | श्रेय मार्ग पर चलने वाले का सदा व सर्वत्र सम्मान होता है , जिसे पाने के लिए मानव यत्न शील रहता है | यदि तुम अपने जीवन को एसा बना पाए तो निश्च्य ही तुम :
6. उतम संतानों वाले :-
जब तुम्हारा जीवन सबका सम्मान पाने में सफल होगा तो तुम निश्चय ही उतम संतानों वाले उतम प्रजा वाले बनोगे | जिस की संतान उतम न हो , जिसकी संतान आग्याकारी कार्य न हो , जिस की संतान दुर्गुणों से भरी हो ,वह व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकता , इस कारण सब लोग उतम संतान की कामना करते है | इसलिए हमारे श्रेय मार्ग का अवलंबन आवश्यक है , यह मार्ग ही उतम संतान प्राप्ति का साधन है |
7. रोगो से बचना : –
प्रभु अनमिवा के माध्यम से उपदेश देते हैं कि हे जीव ! तू रोगों से ग्रसित मत होना तथा सदा एसे उपाय करना कि रोग तेरे को ग्रसित न कर सकें | अपने इस शरीर रूपी रथ से तूने बहुत से काम सम सम्पन्न करने हैं , भूत सी सफलताएं प्राप्त करनी है , कहीं यह टूट न जावे | इसे तोड़ने वाले रोग ही होते है | इसलिए किसी भी रोग को तू अपने शरीर मे प्रवेश न करने देना | यदि तू रोग ग्रस्त हो गया तो तेरे जीवन की यह यात्रा बीच में ही रूक जावेगी , पूर्ण न हो सकेगी | इस के साथ ही जो पांचवां उपदेश किया था इंद्रा भागामर्तात जब तुम इंद्रा भागम का भी ध्यान रखोगे तो तुम कभी भी रोगी न हो पाओगे |
यह सब कहने का भाव है कि उस पिता का कोई भी पुत्र, उस पिता का कोई भी भक्त कभी भी किसी रोग का ग्रास नहीं बनता , अस्वस्थ नहीं होता तथा वह प्रक्रती में आसक्त नहीं होता | इस कारण रोग उसके पास आ ही नहीं पाते |
8. यक्ष्मा आदि भयंकर रोगोँ से बचें :-
मानव बहुत स्वार्थी प्राणी है | वह जीवन की सुख सुविधाएं बढ़ाने के लिए प्रकृति के नियमों को भी तोड़ता रहता है | इस से अनेक बार वह भयंकर बीमारियों मे भी फँस जाता है | प्रभु इस से बचाने के लिए प्रेरित करते हुए इस मंत्र के माध्यम से कहते हैं अयक्ष्मा अर्थात हे प्राणी ! तुझे कभी यक्ष्मा जैसे श्वास के भयंकर रोग न हों | इस रोग को राज योग भी कहते हैं क्योंकि इस के उपचार पर अत्यधिक व्यय करना होता है , (जो साधारण व्यक्ति नहीं कर सकते ,) तो भी इसका निदान नहीं हो पाता | गरीब व्यक्ति तो इस के निदान के लिए धन की व्यवस्था भी नहीं कर सकता | इस रोग में रोगी का श्वास तेज चलने लगता है तथा उसे श्वास क्रिया में भारी कठिनाई होती है | यह रोग प्रकृति के नियमों को तोड़ने से होता है । इसलिए प्रभु का आदेश है कि प्रकृति के नियमों का संतुलन बनाए रखैं , इन्हें अस्त व्यस्त न होने दें तो तुम इस भ्यंकर रोग से बच सकते हो | अत; प्रकृति का सदा स्न्तुलित प्रयोग करो |
9. बिना पुरुषार्थ कुच्छ प्राप्त ना करें :-
जब मानव अपने पुरुषार्थ से , श्रम से कुछ पाता है तो उसे अत्यधिक आनंद का अनुभव भी होता है | किन्तु आलसी, प्रमादी व्यक्ति बिना किसी प्रकार की मेहनत के ही धनवान बनने की कामना करता है | इस प्रकार ज़ब उसे कुछ मिल जाता है तो वह आलसी बन जाता है , प्रमादी हो जाता है तथा अन्याय पूर्ण कार्य करने लगता है | इस लिए इस मंत्र के माध्यम से ईश्वर आदेश देता है कि मया व: स्टेन ईषत अर्थात हे मानव ! तू अपने मेहनत से , पुरुषार्थ से ही धन को प्राप्त कर आलसी को कभी अपना स्तेन अर्थात बिना पुरुषार्थ के धन पाने का साधन न बनने देना | इस प्रकार अनेक प्रकार के सटटा, जुआ, लाटरी आदि का कभी प्रयोग न करना क्योंकि यह सब बिना श्रम के धन प्राप्ति के साधन होते हैं | इस प्रकार से धन पाने वाला व्यक्ति काम चोर, प्रमादी , आलसी, आराम पसंद बनाकर अनेक बिमारियों में फंस जाता है |
10. अपने कुकृत्यों को छुपा नहीं :-
प्रभु का आदेश है कि मानव को अपने कुकृत्यों को कभी झुठलाने का , इन्हें छुपाने का प्रयास नहीं करना चाहिये | एसा व्यक्ति को अपनी कमियों को , भूलों को न्याय संगत ठहराने के लिए अनेक झूठ बोलने पड़ते हैं , अनेकों के हितों की हानि करनी होती है | इसलिए प्रभु मया आगशन्स: के भाव में कह रहे हैं अपने पाप को कभी भी अच्छे रुप में प्रकट न करना | इतना ही नही कोई अन्य व्यक्ति भी तुम्हारे विकारों पर शासन न करे अर्थात आप स्वाधीन हो अपना कार्य करें तथा अपने विचार रखें किसी ओर के आदेश पर अपने विचार न बनावें|
११. तुम सदा अटल , ध्रुव रहना :-
प्रभु कहते हैं कि हे मानव ! तू इस गोपतौ में , इस जगत में सदा ध्रुव के समान स्थिर रहना , अटल रहना | इस संबंध में वेद के यह श्ब्द प्रयोग करते हुए कहते हैं ध्रुवाअस्मिन गोपतौ स्यात् अर्थात तू सदा अटल रहना | गोवें ही हमारी इन्द्रियाँ हैं तथा इन इंद्रियों का रक्षक स्वयम् प्रभु होता है | हम गोओं को वेदवाणी के रूप में भी ले सकते है | हम यह भी जानते हैं की वेदवाणी का पति , मालिक हमारे वह पिता ही तो होता है | यदि तुम उतम वेदवाणी के प्रकाश से प्रकाशित होना चाहते हो तो वेदवाणी के मालिक प्रभु में ध्रुव के समान स्थिर होकर रहना | प्रभु हमारे चक्की की धुरी है | चक्की में पड़ा हुआ वह दाना ही बच पाता है जो इस की धुरी को पकड़ लेता है | ठीक इस प्रकार ही इस जगत मे वह प्राणी ही बच पाता है जो चक्की की धुरी रुप प्रभु को पकड़ लेता है , उसे छोड़ता नहीं |
12. समाज मे रहते हुए ओरों का सहयोगी बनना :-
प्रभु जीव को वह्नि अर्थात दूसरों का सहयोगी बनने का उपदेश देते हैं तथा कहते है कि हे प्राणी ! तू कभी भी आत्मकेंद्रित न होना , केवल अपने ही बारे में न सोचना , कभी स्वार्थी न बनना | तू एक सामाजिक प्राणी है इस लिए सदा अधिक से अधिक लोगों से संपर्क बनाने का प्रयास करते रहना | दूसरों के संपर्क में रहना | इस बात का सदा ध्यान रखना कि मैं एक न रहूं बल्कि एक से बहुत हो जाऊं | केवल स्वयम् ही सुखी होने का यत्न न करना बल्कि दूसरों के सुखों को बढ़ाने के लिए उन के दु:खों को भी दूर करने का प्रयत्न करते रहना |
13. कामादि को सुरक्षित रखना :-
आप जानते हैं कि इस संसार की किसी भी उतम वस्तु की रक्षा करने की व्यवस्था नहीं करनी होती वह स्वयमेव ही वितरित होती रहती है किन्तु हानि कारक पदार्थों को छुपाना पड़ता है ताकि यह बुरी वस्तु किसी के हाथ में आकर हानि का कारण न बन जावे | यजमानस्य शब्द के माध्यम से प्रभु इ
स वेद मंत्र मे यह भी अन्तिम आदेश या अन्तिम प्रेरणा दे रहे हैं कि हम काम , क्रोध आदि हमारे अंदर के शत्रुओं को , इन पाश्विक वृतियों को गुप्त स्थान पर सुरक्षित कर के रखें किसी के हाथ न लगाने दें | यदि यह दुष्ट वृतियां किसी ने प्रयोग में ले लीं तो भारी विनाश का कारण बन जावेंगी | हम उपयोगी वस्तुओं को तो खुले में रखते है किंतु हानि देने वाले पदार्थों तेज़ाब आदि को अलमारी में ही रखते है क्योंकि इस से भारी हानि की संभावना होती है | हम चिड़ियाघर देखने जाते है ,वहां देखते है कि साधारण जीव तो खुले में घूम रहे होते है किन्तु बाघ आदि को बड़े भारी पिंजरों में रखा होता है | कुछ एसा ही हमारी बुराईयों के लिए भी होता है | काम – क्रोध आदि भी हमारे जीवन का भाग होते हैं किन्तु इन्हें संभालने की आवश्यकता होती है | कामादि संसार को चलाने की क्रिया है | इस की संसार में आवश्यकता है किन्तु इस के अनियंत्रित होने पर शक्ति का विनाश होता है , शक्ति का क्षय होता है | इसे संतुलित व संयमित करना भी आवश्यक है | इस प्रकार ही कोश भी जीवन में आवश्यक है किन्तु इस का भी संतुलित होना आवश्यक है अन्यथा विनाश होगा |
इस मंत्र के आरंभ में जीव ने परम पिता परमात्मा से उसे प्रेरणा देने की प्रार्थना की थी | पिता अपने पुत्र की इच्छा को कैसे टाल सकता था | अत: प्रभु ने उसे इस मंत्र के ही माध्यम से विभिन्न प्रकार से प्रेरित किया | उसे प्रेरित करने के लिए उस ने उसे सत्य के तेरह स्वरूप दिखाए | इन तेरह उपदेशों को अपनाने वाला जीव ही अंत में परम् स्थान में स्थित होता है | यह जीव अपनी प्रजा की रक्षा करने के कारण प्रजापति भी कहलाता है | जो भी जीव इस तेरह उपदेशों पर चलेगा , वह निश्चय ही उन्नति की लहरों की छाती पर तैरेगा, पर्वतों की चोटी के समान ऊंचा उटेगा |

डा. अशोक आर्य

हे जीव! तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन

ओउम
हे जीव! तूं सूर्य और चन्द्र के समान निर्भय बन
डा. अशोक आर्य
इस सृष्टि में सूर्य और चंद्रमा दो एसी शक्तियां हैं, जो कभी किसी से भयभीत नहीं
होतीं | सदैव निर्भय हो कर अपने कर्तव्य की पूर्ति में लगी रहती हैं | यह सूर्य और चन्द्र निर्बाध रूप से
निरंतर अपने कर्तव्य पथ पर गतिशील रहते हुए समग्र संसार को प्रकाशित करते हैं |इतना ही नहीं ब्राह्मन व क्षत्रिय ने भी कभी किसी के आगे पराजित होना स्वीकार नहीं किया | विजय प्राप्त
करने के लिए वह सदा संघर्षशील रहे हैं | जिस प्रकार यह सब कभी पराजित नहीं होते उस प्रकार ही हे प्राणी ! तूं भी निरंतर अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ कभी स्वप्न में भी पराजय का वर्ण मत कर | इस तथ्य को अथर्ववेद के मन्त्र संख्या २.१५.३,४ में इस प्रकार कहा है : –
यथा सूर्यश्च चन्द्रश्च , न विभीतो न रिष्यत: |
एवा में प्राण माँविभे : !! अथर्व. २.१५.३ ||
यथा ब्रह्म च क्षत्रं च , न विभीतो न रिच्यत |
एवा में प्राण माँविभे : !! अथर्व. २.१५.४ ||

यह मन्त्र मानव मात्र को निर्भय रहने की प्रेरणा देता है | मन्त्र कहता है कि हे मानव ! तूं सदा असकता है पने जीवन में निर्भय हो कर रह | किसी भी परिस्थिति में कभी भयभीत न हो | मन्त्र एतदर्थ udaharn देते हुए कहता है कि जिस प्रकार कभी किसी से न डरने के कारण ही सूर्य और चन्द्र कभी नष्ट नहीं होते , जिस प्रकार ब्रह्म शक्ति तथा क्षात्र शक्ति भी कभी किसी से न डरने के कारण ही कभी नष्ट नहीं होती | जब यह निर्भय होने से कभी नष्ट नहीं होते तो तूं भी निर्भय रहते हुए नष्ट होने से बच |
हम डरते हैं डर क्या है ? भयभीत होते हैं , भय क्या है ? जब हम मानसिक रूप से किसी समय शंकित हो कर कार्य करते हैं इसे ही भय कहते हैं | स्पष्ट है कि मनोशक्ति का ह्रास ही भय है | किसी प्रकार की निर्बलता , किसी प्रकार की शंका ही भय का कारण होती है , जो हमें कर्तव्य पथ से च्युत कर भयभीत कर देती है | इससे मनोबल का पतन हो जाता है तथा भयभीत मानव पराजय की और अग्रसर होता है | मनोबल क्यों गिरता है — इस के गिरने का कारण होता है पाप , इसके गिरने का कारण होता है अनाचार , इस के गिरने का कारण होता है मानसिक दुर्बलता | जो प्राणी मानसिक रूप से दुर्बला है , वह ही लोभ में फंस कर अनाचार करता है , पाप करता है , अपराध करता है , अपनी ही दृष्टि में गिर जाता है , संसार मैं सम्मानित कैसे होगा ? कभी नहीं हो सकता |
मेरे अपने जीवन में एक अवसर आया | मेरे पाँव में चोट लगी थी | इस अवस्था में भी मै अपने निवास के ऊँचे दरवाजे पर प्रतिदिन अपना स्कूटर लेकर चढ़ जाता था | चढ़ने का मार्ग अच्छा नहीं था | एक दिन स्कूटर चढाते समय मन में आया कि आज में न चढ़ पाउँगा, गिर जाउंगा | अत: शंकित मन ऊपर जाने का साहस न कर पाया तथा मार्ग से ही लौट आया | पुन: प्रयास किया किन्तु भयभीत मन ने फिर न बढ़ने दिया , तीसरी बार प्रयास कर आगे बढ़ा तो गिर गया | इस तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि जब भी कोई कार्य भ्रमित अवस्था में किया जाता है तो सफलता नहीं मिलती | इसलिए प्रत्येक कार्य निर्भय मन से करना चाहिए सफलता निश्चय ही मिलेगी | प्रत्येक सफलता का आधार निर्भय ही होता है |
हम जानते हैं की मनोबल गिरने का कारण दुर्विचार अथवा पापाचरण ही होतेहैं|जब हमारे
ह्रदय में पापयुक्त विचार पैदा होते हैं , तब ही तो हम भयभीत होते हैं | जब हम किसी का बुरा करते हैं तब ही तो हमें भय सताने लगता है कि कहीं उसे पता चल गया तो हमारा क्या होगा ? इससे स्पष्ट
होता है कि छल पाप तथा दोष पूर्ण व्यवहार से मनोबल गिरता है , जिससे भय की उत्पति होती है तथा
यह भय ही है जो हमारी पराजय का कारण बनता है | जब हम निष्कलंक हो जावेंगे तो हमें किसी प्रकार का भय नहीं सता सकता | जब हम निष्पाप हो जावेंगे तो हमें किसी प्रकार से भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं रहती | जब हम निर्दोष व्यक्ति पर अत्याचार नहीं करते तो हम किस से भयभीत हों ? जब हम किसी का बुरा चाहते ही नहीं तो हम इस बात से भयभीत क्यों हों की कहीं कोई हमारा बुरा न कर दे , अहित न कर दे | यह सब तो वह व्यक्ति सोच सकता है , जिसने कभी किसी का अच्छा किया ही नहीं , सदा दूसरों के धन पर , दूसारों की सम्पति पर अधिकार करता रहता है | भला व्यक्ति न तो एसा सोच सकता हो तथा न ही भयभीत हो सकता है |
इसलिए ही मन्त्र में सूर्य तथा चंद्रमा का udaharn दिया है | यह दोनों सर्वदा निर्दोष हैं | इस कारण सूर्य व चंद्रमा को कभी कोई भय नहीं होता | वह यथाव्स्त अपने दैनिक कार्य में व्यस्त रहते हैं , उन्हें कभी कोई बाधा नहीं आती | इस से यह तथ्य सामने आता है कि निर्दोषता ही निर्भयता का मार्ग है , निर्भयता की चाबी है , कुंजी है | अत: यदि हम चाहते हैं कि हम जीवन पर्यंत निर्भय रहे तो यह आवश्यक है कि हम अपने पापों व अपने दुर्गुणों का त्याग करें | पापों , दुर्गुणों को त्यागने पर ही हमें यह संसार तथा यहाँ के लोग मित्र के समान दिखाई देंगे | जब हमारे मन ही मालिन्य से दूषित होंगे तो भय का वातावरण हमें हमारे मित्रों को भी शत्रु बना देता है , क्योंकि हमें शंका बनी रहती है कि कहीं वह हमारी हानि न कर दें | इस लिए हमें निर्भय बनने के लिए पाप का मार्ग त्यागना होगा, छल का मार्ग त्यागना होगा तथा सत्य पथ को अपनाना होगा | यही सत्य है , यही निर्भय होने का मूल मन्त्र है , जिस की और मन्त्र हमें ले जाने का प्रयास कर रहा है |
वेद कहता है कि मित्र व शत्रु , परिचित व अपरिचित , ज्ञात व अज्ञात , प्रत्यक्ष व परोक्ष , सब से हम निर्भय रहे | इतना ही नहीं सब दिशाओं से भी निर्भय रहे | जब सब और से हम निर्भय होंगे तो सारा संसार हमारे लिए मित्र के सामान होगा | अत: संसार को मित्र बनाने के लिए आवश्यक है कि हम सब प्रकार के पापों का आचरण त्यागें तथा सब को मित्र भाव से देखें तो संसार भी हमें मित्र समझने लगेगा | जब संसार के सब लोग हमारे मित्र होंगे तो हमें भय किससे होगा , अर्थात हम निर्भय हो जावेंगे | इस निमित वेदादेश का पालन आवश्यक है |
डा. अशोक आर्य

हम क्रोध, काम ओर असत्य कार्यों से बचें

हम क्रोध, काम ओर असत्य कार्यों से बचें
डा. अशोक आर्य
प्रभु सुरुपकत्नु है । एसे प्रभु का हम प्रतिदिन आराधन करें ,
जिससे हमारी वाणी मस्तिष्क मन तथा हाथ , सब सुन्दर बनें । हमारी वाणियां
क्रोध रहित हों, मन में काम की सत्ता न आने पावे तथा हाथ लोभ सरीखे असत्य कार्यों में कभी न लगें मन्त्र बडे सुन्दर टंग से इस प्रकार उपदेश कर रहा है: -। इस बात को रिग्वेद के चतुर्थ मण्ड्ल का यह
सुरुपक्रत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे ।
जुरूमसि द्यविद्य || रिग्वेद १.४.१ ॥
सुक्त तीन्में सरस्वती व ग्यान के सागर के उल्लेख किया था तथा इस
के साथ ही इस सुक्त की समाप्ति हुई थी । इस में बताया गया था कि हम
सरस्वती को अधिष्थाटा बनकर ग्यान रूपी सागर का रूप धारण करें । इस मन्त्र में इस तथ्य से ही आगे बटने के लिए उप[देश्करते हुए तीन बातों की ओर
द्यान दिलाते हुए कहा गया है कि : –
१. वह प्रभु ग्यान स्वरूप व परम एशवर्य से युक्त है । हम लोग उस
ग्यान स्वरुप तथा परमएश्वर्य वाले प्रभु की आराधना , उस पवित्र पावन
प्रभु का स्मरण करते हुए इस प्रकार कहते हैं कि हम उस ग्यान के द्वारा (
जो ग्यान विगत सूक्त के मन्त्रों के माध्यम से हम ने प्रभु से प्राप्त
किया था) उत्तम रुप का निर्माण करने वाले परमात्मा को हम प्रतिदिन
पुकारते है । परम पिता स्वयं ग्यान स्वरुप है । वह प्रभु ग्यान स्वरुप ,
ग्यान का भण्डारी होने के कारण हमें भी सदा ग्यान बांटता रहता है किन्तु
वह ग्यान देता उसे ही है , जो उसके ग्यान को पाने के लिए यत्न करता है ।
जो उस प्रभु से ग्यान की भिक्शा मांगता है । जो किसी वस्तु की कामना ही
नहीं करता, जो किसी वस्तु को पाने का यत्न ही नहीं करता, जो किसी वस्तु
को पाने के लिए स्वयं को योग्य ही नहीं बनाता , उसे प्रभु कुछ देता भी
तो नहीं है । इस लिए मन्त्र कहता है कि हम प्रतिदिन उस प्रभू की आराधना
करते हैं । मन्त्र स्पष्ट कर रहा है कि आवश्यकता पडने पर प्रभु के चारणों
में जा कर बैट जाना तथा जरुरत पूर्ण होने पर प्रभु को याद भी न करना ,
एसे लोगों को प्रभु का आशीर्वाद मिलने वाला नहीं है । यदि हम ने उस पिता
से कुछ पाना है तो नियमित रुप से उस के चरणों में बैटना होगा , नियमित
रुप से उसे याद करना होगा , नियमित रुप से उसकी प्रार्थना ,उसकी आराधना
करना होगा । तब ही वह प्रभु हमारी सुनेगा अन्याथा नहीं । इस लिए हम
प्रतिदिन उस प्रभु के समीप बैटकर अराधना करें ।
अब प्रश्न उटता है के हम प्रतिदिन प्रभु का आराधन क्यों करें ?
क्योंकि वह प्रभु हमारी वाणी को सुन्रत वचनों से , एसे वचनों से जो उतम
हों , मीटे हों , सब को आनन्द देने वाले हों , हर्षित करने वाले हों ,
एसे सुन्दर वचनों का उच्चारण करने वाली हमारी वाणी को बना कर सुरूप बना देते हैं , उत्तम रूप से युक्त करते हैं । इतना ही नहीं वह प्रभु हमारे
मस्तिष्क को भी , मस्तिष्क के साथ ही साथ ही साथ हमारे मन को भी सुमतियों से , उत्तम मतियों से भर देते हैं , परिपूर्ण कर देते हैं , सुविचार ,
उत्तम विचार से लबालब कर देते हैं । इस प्रकार हमारे मस्तिष्क व मन को
उत्तम मति वाला बनाते हैं तथा उत्तम विचारों के चिन्तन करने वाला बना कर
वास्तव में इसे सुरुप करते हैं तथा जो प्रभु हमारे हाथों से भी सदा उत्तम
कार्य कराते हैं , उत्तम कार्यों की ओर प्रेरित करते हैं । उत्तम कार्य
कॊन से होते हैं , जिन्हें हाथों से करने के लिए प्रभु प्रेरित करते हैं
। उत्तम कार्य यग्यों को कहा गया है , उत्तम कार्य परोपकार के कार्यों को
कहा गया है तथा उत्तम कार्य अग्निहोत्र को कहा गया है, जिससे अपने साथ ही साथ अन्यों का भी कल्याण होता है ,वह प्रभु हमारे हाथों को एसे कार्यों
को करने वाले बनाते हैं तथा हाथों से इस प्रकार के उत्तम कार्य कराते हुए
इन्हें भी सुन्दर अर्थात सुरुपता प्रदान करते हैं ।
२. इस प्रकार के कार्य करने के कारण हम उस प्रभु को सुरुपक्रत्नु
कहते हैं । एसे सुरुपक्रत्नु प्रभु को हम रक्शा के लिए पुकारते हैं । जब
हम संकट में होते हैं तो हम अपने सम्बन्धी , अपने मित्र व अपने रक्शक को
पुकारते हैं ताकि संकट के समय वह हमारा सहायक बनकर , हमारा रक्शक बन कर हमारा सह्योग करे , हमारी रक्शा करे । पुकारते समय हम देखते हैं कि हमारी रक्शा का सामर्थ्य किस में है ,उसे ही हम पुकारते हैं , जिसमे एसा
सामर्थ्य है ही नहीं , उसे बुलाने का कुछ लाभ नहीं होता । हमारा वह
प्रभू सुरुपक्रत्नु है , इस कारण ही हम उस प्रभु को पुकारते हैं । वह
प्रभु हमारी रक्शा के लिए जो आवश्यक गुण हैं , उन सब का मालिक है , हम
इसलिए उसे पुकारते हैं , ताकि वह हमारी रक्शा कर सके ।
मानव अपने स्वार्थ के लिए तथा अनेक बार दूसरों की कमियों के कारण
, दूसरों की गल्तियों के कारण क्रोध कर बैटता है । इस अवसर पर वह एसी
कडवी वाणी बोल जाता है , जिससे सुनने वाले के साथ ही साथ बोलने वाले की
भी हानि होती है । इस क्रोध से बचना आवश्यक होता है किन्तु इस से कैसे
बचा जावे ? जब हम उत्तम गुणों को पाने के लिए सुरुपक्रत्नु बनने की यत्न
करते हैं तो वह सुक्रत्नु प्रभु हमें क्रोध रहित कर कडवे वचन बोलने से
बचाते हैं । इतना ही नहीं वह प्रभू हमें कामवासना से भी बचाते हैं ।
कामवासना से भी बुद्धि नष्ट हो जाती है । प्रभु इस से भी हमें बचाकर सदा
सुविचारिं से युक्त करते हैं , सुविचार वाला बनाते हैं । इस सब के होते
हुए भी यदि हमारे अन्दर लोभ आ जाता है तो हम इन उत्तम व्रितियों के होने
पर भी इनका प्रयोग उत्तम कार्यों में करने के स्थान पर बुरी व्रितियों
में ही लिप्त होकर धन एकत्र करने लगते हैं , दूसरों का धन छीनने लगते हैं
। इस प्रकार हमारी उत्तम व्रितियां दूषित हो जाती हैं , बुराईयों से टक
जाती हैं । इन उत्तम व्रतियों का हम कुछ भी उपयोग नहीं कर पाते । अत: वह
प्रभू हमें लोभ की व्रति से बचा कर यग्यीय वरिति वाला बनाते हैं , हमें
परिपकार करने वाला बनाते हैं , दूसरों की सहायता करने वाला, दूसरों को
दान् देने वाला बनाते हैं ।
३. जिस प्रकार हम एक गो दुग्ध निकालने वाले ग्वाले के लिए उस गाय
को ही लाते हैं , जो दुग्ध से लबालब भरी हो। जब ग्वाला दूध निकालने के
लिए आता है तो हम यदि उसे एसी गाय के समीप ले जावें , जिसका दूहन पहले से ही किया जा चुका हो तो एसी गाय का ग्वाला ओर दूहन क्या करेगा ,एसी गाय से तो कुछ भी दूध प्राप्त नही हो सकता । अत: हम उसे एसी उत्तम गाय पेश करते हैं , जो दूहन के लिए उपयुक्त हो । जिस प्रकार यह गाय दूह कर अम्रत तुल्य उत्तम दुध उस ग्वाले के माध्यम से गाय हमे देती है , उस प्रकार ही वह प्रभु भी काम , क्रोध , लोभ आदि से हमारी रक्शा करने वाले हैं , जब हम
उन्हें प्रतिदिन पुकारते है तो वह प्रभु आ कर उस प्रकार ही आराधक के लिए
, उसके लिए , जो उन्हें प्रतिदिन स्मरण करता है , उसे उत्तम ग्यान से
परिपूर्ण कर देते है । जिस प्रकार गाय का दूध हमारे शरीर का पौषण करता है
, उस प्रकार ही प्रभु का दिया हुआ यह ग्यान , यह आध्यात्मिक ग्यान का
पोष्ण करता है ।

वह प्रभु महान सुपार तथा यग्यशीलों के मित्र है

वह प्रभु महान सुपार तथा यग्यशीलों के मित्र है
डा. अशोक आर्य
रिग्वेद के प्रथम मण्डल ए सूक्त चार के समबन्ध मेम प[रकाश डालते
हुए बताया गया है कि प्रभु सरुपक्रत्नु है । इस प्रभुकी प्रार्थना करते
हुए उपदेश किया गया है कि हम सदा यग्योइं को करने वाले बनें , जीवन भर
सोम की रक्शा करते रहेम , हम दान देने में आनन्द आ अनुभव करेम , सदा
ग्यानियों से ग्यान्प्राप्त करते रहेम , किसी की निन्दा कदापि न करेम ,
व्यर्थ ए कामों में कभी अपना समय नष्ट न करेम , सदा प्रभु की चर्चा में
ही अपना समय लगावें क्योंकि वह प्रभु महान , सुपार तथा यग्य्शीलों के
मित्र होते हैं । इन सब बातों का इस सूक्त के विभिन्न मन्त्रों के
द्वारा चर्चा करते हुए बडे विस्तार से इस प्रकार वर्णन किया गय है । आओ
इस सूक्त के माध्यम से हम यह सब ग्यान प्रप्त अरने का यत्न करें ।

विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना आवश्यक

ओ३म्
विद्यार्थी का चरित्र उत्तम होना आवश्यक
डा.अशोक आर्य
शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं पर विचार करते हुए वेद कहता है कि प्रत्येक शिक्षार्थी , जिसे आज हम विद्यार्थी के नाम से जानते हैं , उसका चरित्र उच्च होना आवश्यक है | चरित्रवान होने से गुणों को ग्रहण करने की शक्ति बढ़ जाती है | कम समय में अधिक काम किया जा सकता है | एकाग्र बुद्धि होने से पढ़ा हुआ पाठ शीघ्र ही स्मरण हो जाता है | इस लिए वेद प्रत्येक ब्रह्मचारी के लिए उच्च चरित्र को उसका आवश्यक गुण मानता है | अथर्ववेद के अध्याय नो के सूक्त पांच के मन्त्र संख्या तीन में इस विषय पर ही चर्चा करते हुए बताया गया है कि :
प्र पदोउव नेनीग्धी दुश्चरितं यच्चचार शुद्ध: शफेरा क्रमता प्रजानन |
तीर्त्वा तमांसी बहुधा विपश्यन्न्जो नाकमा क्रमता त्रतियम || अथर्व.९.५.३||
इस मन्त्र के द्वारा परम पिता परमेश्वर मानव मात्र को उपदेश करते हुए कह रहा है कि हे मानव ! जिव होने के कारण गल्तियाँ करना तेरा स्वभाव है | इस सवभाव के कारण तु अपनेजीवन में अनेक ईएसआई गलतियां क र लेता है , जीना के कारन तेरे जीवन की उन्नति रुक जाती है | तेरा आगे बढ़ने का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है , बंद हो जाता है | इसलिए तेरे लिए यह आवश्यक हो जाता है की तुन जो भी कार्य करे , बड़ी सावधानी से क र | अपनी किसी भी गतिविधि में किसी प्रकार की गलती न कर , कोई दोष , कोई न्यूनता न आने दे | कोटी सी गलती भी तेरी उन्नति में बाधक हो सकती है | इसलिए तुन जो भी कार्य हाथ में ले उसमें किसी प्रकार की कमिं न रहने दे , किसी प्रकार की गलती न आने दे |
हे मानव ! तूने अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुराचार किये होंगे , अनेक प्रकार के भ्रिष्ट आचरण किये होंगे , अनेक प्रकार की गल्तियां की होंगी किन्तु तेरे पास अवसर है | तु अपने उत्तम कर्मों से , उत्तम व्यवहारों से , सद्विचार से इन सब प्रकार के दुराचार , सब प्रकार के भृष्ट आचरण को धो कर साफ़ कर दे | इन सब को धो कर उज्ज्वल कर दे | इस प्रकार सब दुराचारों , भ्रिष्ट आचरणों को उज्ज्वल , शुद्ध व निर्मला करने के पश्चात अपने आप को सब प्रकार के उत्तम ज्ञान से सम्पन्न कर | इन उत्तम ज्ञानों का स्वामी बनकर उन्नति के मार्ग पर आगे को बढ़ , उन्नति को प्राप्त कर | सब जानते हैं कि सब दुराचारों से रहित व्यक्ति ही सुशिक्षा का उत्तम अधिकारी होता है |
जब किसी व्यक्ति में दुराचार होते हैं . किसी प्रकार का कपट व्यवहार करता है , किसी को अकारण ही कष्ट देता है तो दूसरे के ह्रदय को तो पीड़ा होती ही है , इसके साथ ही साथ जो अकारण कष्ट देता है , उसकी अपनी स्वयं की आत्मा भी उसे दुत्कारती है, उसे उपदेश करती है कि यह कार्य अच्छा नहीं है , इसे तु न कर किन्तु दुष्ट व्यक्ति अपनी आत्मा की आवाज जो इश्वर के आदेश पर आत्मा उसे देती है , को न सुनकर अपनी दुष्टता पर अटल रहता है तथा बुरा कार्य कर ही देता है तो उसकी अपनी शांति ही भंगा हो जाती है | यह तो वही बात हुयी कि कोई व्यक्ति अपने पडौसी को कष्ट देने के लिए स्वयम दो गुणा कष्ट भी सहने को तयार मिलता है | पडौसी की दो आँखें फुटवाने के लिए अपनी एक आँख का बलिदान करने को भी तैयार रहता है | ऐसे व्यक्ति को सदा यह चिंता सताती रहती है कि कहीं किसी को मेरी इस दुष्टता का पता न चल जावे | इस सोच में डूबा वह अपने भले के लिए भी कुछ नहीं कर पाता | इस चिंता में रहने वाला विद्यार्थी अपना पाठ याद करने के लिए भी समय नहीं निकाल पाता | यदि किसी प्रकार वह कुछ समय निकाल भी लेता है तो उसका शैतान मन पाठ में न लग कर जो बुरा आचरण किया है , उसमें ही उलझा रहता है | जब ध्यान अपनी पढाई में न होकर अपने गलत आचरण पर है तो पाठ कैसे याद हो सकता है ? अर्थात नहीं होता और वह ज्ञान प्राप्त करने में अन्यों सो पिछड़ जाता है | इसलिए ही मन्त्र ने उपदेश किया है कि हे मानव ! अपनी उन्नति के लिए अपने अन्दर के सब भृष्ट आचरण को धो कर साफ सुथरा बना ले | साफ़ मन ही कुछ ग्रहण करेगा | यदि वह मलिनता से भरा है तो जोक उछ भी अन्दर जावेगा ,वह मलिन के साथ मिलाकर मलिन ही होता जावेगा | कूड़े की कडाही में जितना चाहे घी डालो , वह कूड़ा ही बनता जाता है | इस लिए मन को मलिनता रहित करना आवश्यक है |
मानव जीवन अज्ञान के अंधकर से भरा रहता है | अपने जीवन के अन्दर विद्यमान सब प्रकार के अज्ञान के अँधेरे को दूर करने के लिए ज्ञान का दीपक अपने अंदर जलाना आवश्यक है | इसके लिए निरंतर ध्यान लगाना होगा | इस को शुद्ध करने के लिए एक लम्बे समय तक समाधि लगानि होगी, एकाग्रता पैदा करनी होगी | जब इस प्रकार तू अपने दुरितों को धोने का यत्न करेगा तो तुझे मोक्ष का मार्ग मिलेगा | मोक्ष का मार्ग उस जीव को ही मिलता है , जो अपने जीवन के कलुष धोकर सब प्रकार की उन्नतियों को पाने का यत्न करता है | बिना यतन के , बिना पुरुषार्थ के , बिना मेहनत के किसी को कभी कुछ नहीं मिला करता | इस लिए मन्त्र कहता है की हे जीव ! उठ , साहस कर , पुरुषार्थ कर , भरपूर मेहनत से अपने अंदर के सब दोषों को धो डाला | जब सब मलिनताएँ नष्ट हो जाने से तेरा अंदर खाली हो जावेगा तो इस खाली स्थान को भरने के लिए शुभ कर्म , उत्तम कर्म तेरे अन्दर प्रवेश करेंगे | जब तेरे अंदर सब शुभ ही शुभ होगा तो मोक्ष मार्ग की और तेरे कदम स्वयमेव ही चलेंगे |
इस सुंदर तथ्य पर प्रकाश डालते हुए पंडित धर्मदेव विद्यामार्तंड जी अपनी पुस्तक वेदों द्वारा समस्त समस्याओं का समाधान के पृष्ट १६ पर इस प्रकार लिखते हैं पुन: अनेक बार अज्ञानान्धकार को ज्ञान ,दयां, समाधि के द्वारा पार करता हुआ तेरा अजन्मा अमर आत्मा सुख दू:ख की सामान्य अवस्था से परे तथा दू:ख रहित मोक्ष को प्राप्त करे |
वैदिक शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण :
ऊपर वर्णित तथ्यों से यह बात स्पष्ट होती है की वेदों के अनुसार यदि हम शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं , यदि हम वेदानुसार शिक्षा पाना चाहते हैं तो हमारे लिए आवश्यक है कि हम उच्च चरित्र के स्वामी बनें | हमारी शिक्षा जो वेद आधारित होती है , उसका सबसे मुख्य उद्देश्य चरित्र का निर्माण ही है | चरित्र ही है जो एक व्यक्ति को बहुतु ऊँचा उठा सकता है तो इस का नाश होने पर यह उसे मिटटी में भी मिलाने की शक्ति रखता है | इसलिए चरित्र के उच्च अथवा स्वच्छ होने पर ही हम उन्नति के पथ पर बढ़ सकते हैं, मुक्ति के मार्ग पर चल सकते हैं |
सदाचार का पाठ पढ़ाने वाला ही आचार्य :
आज हम अपने स्कूलों में पढ़ने वालों को अध्यापक कहते हैं | यह अध्यापक लोग हमें पढ़ाते तो हैं किन्तु सिखाते नहीं | जो आचरण हमारे जीवन में होने आवश्यक हैं , जो आचरण हमारे जीवन में आवश्यक होते हैं , उन्हें पाने के लिए एक उत्तम, एक अच्छे आचार्य की शरण में जाना आवश्यक है | जिस प्रकार हम जानते हैं की धन सब सुखों का साधन है किन्तु वह धन ही सुख दे सकता है , जो पुरुषार्थ से कमाया जावे | जिस धन को लुट पाट कर प्राप्त किया गया हो , वह चिंता का कारण होता है ,सुख नहीं दे सकता | इस लिए किसी कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में कहा है की :
जागो रे , जागो रे , हे दौलत के दीवानों
धन से बिस्तर मिल सकता
पर नींद कहाँ से लाओगे |
दौलत स्त्री दे सकती
पर पत्नी नहीं दिला सकती |
इसलिए केवल धन के पीछे भागना भी उत्तम नहीं है | जीवन के वास्तविक सार को पाने के लिए आवश्यक है कि हम अपने जीवन को भय रहित बनावें| जीवन भय रहित तब ही बनेगा जब हम अपने जीवन के सब क्लुशों को , सब पापों को धोकर शुद्ध, साफ कर लेंगे | इन कलुशों को धोने के लिए ज्ञान पाने को लिए ही आचार्य की आवश्यकता होती है | हम इन सन्मार्ग पर ले जाने वालों को इस लिए ही तो आचार्य कहते हैं क्योंकि वह हम सदाचार का पाठ पढ़ाते हुए हमें सदाचार की और ले जाते हैं , सदाचारी बनाते हैं | उनका हमारे लिए किया गया यह कार्य ही उन्हें आचार्य बनाता है | आचरण शब्द से ही आचार्य शब्द सामने आता है | अत; हम कह सकते हैं जो हमें सदाचार के मार्ग पर लेकर जावे , वह आचार्य है |
चरित्र निर्माण ही शिक्षा :
जिस साधन से हमारे चरित्र का निर्माण हो , हम उसे शिक्षा के नाम से जानते हैं | इस से स्पष्ट है कि हम ने चाहे स्कूलों अथवा कालेजों में जा कर कितनी भी शिक्षा पा ली , कितने ही बड़े बड़े प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिए किन्तु हमारे अंदर सदाचार नहीं आया तो हमारी यह सब शिक्षा बेकार है | वास्तव में शिक्षा सदा चरित्र निर्माण का कार्य करती है तथा चरित्र निर्माण की और ही ध्यान देती है | ध्यान ही नहीं देती अपितु विशेष ध्यान देती है | इसलिए ही इसे शिक्षा की कोटि में रखा जाता है | इस कारण ही जब हम विश्व के मानचित्र पर अनेक प्रकार के शिक्षा शास्त्रियों का अवलोकन करते हैं तो हम पाते हैं कि समग्र विश्व का शिक्षाविद इस वैदिक धारणा के सामने नत है तथा एक मत से कह रहा है कि वह इस वेदोक्त शिक्षा के इस चरित्र निर्माण के उद्देश्य से पूर्णतया सहमत होने के साथ ही साथ इस के उद्देश्य का बड़ी प्रबलता से समर्थान करता हैं |
महर्षि दयानंद के अनुसार शिक्षा का लक्षण :
महर्षि दयानंद सरस्वती ने स्वमंत्व्यमंतव्य प्रकाश के अंतर्गत सत्यार्थ प्रकासा में शिक्षा के लिए बड़े सुंदर लक्षण दिए हैं जो इस प्रकार हैं :
जिससे विद्या ,सभ्यता ,धर्मात्मा ,जितेन्द्रियतादि की बढती होवे और अविद्यादी दोष छूटें , उसको शिक्षा कहते हैं |
इससे स्पष्ट होता है की स्वामी जी ने उसे ही शिक्षा सविक र किया है ,जिस से हमें उत्तम विद्या की प्राप्ति हो , जिस से हम सबी समाज के अंग होने के योग्य स्वयं मो बना सकें , जिसके ज्ञान से हम धर्म का पालन क रने वाले बनें , जिस से हम जितेन्द्रिय अर्थात अपने अंदर के सोम के रक्षण करने वाले बनें , वह सब ही विद्या अथवा शिक्षा क हलाने के योग्य है अन्य कुछ नहीं | कुछ इस प्रकार के उदगार ही देश विदेश के अन्य महापुरुषों ने भी दिए हैं |
इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री हर्बर्ट स्पेंसर ने तो पूर्णतया स्वामी जी की बात को ही शिक्षा के रूप में स्वीकार करते हुए इस प्रकार लिखा है एजुकेशन हस इट्स ऑब्जेक्ट्स ऑफ़ करैक्टर | जिस का भाव यह है की शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण है |

डा. अशोक आर्य

चिंत, मनन ही मन का कार्य

ओउम
चिंत, मनन ही मन का कार्य
डा. अशोक आर्य
मानव का मन ही उसके सब क्रिया कलापों का आधार है | शुद्ध व पवित्र मन से सब कार्य उतम होते हैं तथा जिसका मन अशुद्ध होता है , जिसका मन अपवित्र होता है उसके कार्य भी अशुद्ध व अपवित्र ही होते हैं | मानव का मुख्य उद्देश्य भगवद प्राप्ति है , जो शुद्ध मन से ही संभव है | सब प्रकार के ज्ञान प्राप्ति का स्रोत भी शुद्ध मन ही होता है | मानव में विवेक की जाग्रति का आधार भी मन की शुद्धता ही होती है | यह शुद्ध मन ही होता है, जिससे शुद्ध कार्य होता है तथा उसके द्वारा किये जा रहे शुद्ध कार्यों के कारण उसकी मित्र मंडली में उतामोतम लोग जुड़ते चले जाते हैं | यह सब मित्र ही उसकी ख्याति , उसकी कीर्ति, उसके यश को सर्वत्र पहुँचाने का कारण होते हैं | अथर्ववेद के प्रस्तुत मन्त्र में इस विषय पर ही चर्चा की गयी है : –
मनसा सं कल्पयति , तद देवां अपि गच्छति |
अथो ह ब्राह्माणों वशाम, उप्प्रयान्ति याचितुम ||
मन से ही मनुष्य संकल्प करता है | वह माह देवों अर्ह्थात ज्ञानेन्द्रियों तक जाता है | इसलिए विद्वान लोग बुद्धि को माँगने के लिए देवों अर्थात गुरु के पास जाते हैं |
इस मन्त्र में बताया गया है कि मन का मुख्य कार्य मनन है , चिंतन है , सोच – विचार है | जब मानव अपना कार्य पूर्ण चिंतन से ,पूर्ण मनन से , पूर्ण रूपेण सोच. विचार कर करता है तो उसे सब प्रकार की सफलताएं, सब प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है | इन सुखों को पा कर मनुष्य की प्रसन्नता में वृद्धि होती है तथा उसकी आयु भी लम्बी होती है | यह मनन व चिंतन मन का केवल कार्य ही नहीं है अपितु मन का धर्म भी है | जब हम कहते हैं कि यह तो हमारा कार्य था जो हम ने किया किन्तु कार्य में मानव कई बार उदासीन होकर उसे छोड़ भी बैठता है | इसलिए मन्त्र कहता है कि यह मन का केवल कार्य ही नहीं धर्म भी है तो यह निश्चित हो जाता है कि धर्म होने के कारण मन के लिए अपनी प्रत्येक गति विधि को आरम्भ करने से पूर्व उस पर मनन चिंतन आवश्यक भी होता है |
मनन चिंतन पूर्वक जो भी कार्य किया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह नहीं रह जाता | मनन चिंतन से उस कार्य में जो भी नयुन्तायें दिखाई देती हैं , उन सब का निवारण कर, उन्हें दूर कर लिया जाता है | इस प्रकार सब गतिविधियों व व्यवस्थाओं को परिमार्जित कर उन्हें शीशे की भाँती साफ़ बना कर उससे जो भी कार्य लिया जाता है , उसकी सफलता में कुछ भी संदेह शेष नहीं रह पाता | परिणाम स्वरूप प्रत्येक कार्य में सफलता निश्चित हो जाती है | अत: मन के प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व उसके मनन व चिंतन रूपी धर्म का पालन आवश्य ही करना चाहिए अन्यथा इस की सफलता में , इस के सुचारू रूपेण पूर्ति में संदेह ही होता है |
मन के कार्यों को संचालन के लिए जब धर्म को स्वीकार कर लिया गया है तो यह भी निश्चित है कि इस के संचालन का भी तो कोई साधन होगा ही | इस विषय पर विचार करने से पता चलता है कि इसके संचालन के लिए ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रमुख भूमिका निभाती है | ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन भी कहा जा सकता है | जब तक किसी कार्य को करने सम्बन्धी ज्ञान ही नहीं होगा तब तक उस कार्य की सम्पन्नता में, सफलता पूर्वक पूर्ति में संदेह ही बना रहेगा | जब तक मानव की क्षुधा ही शांत न होगी तब तक वह कोई भी कार्य करने को तैयार नहीं होता | अत: मन का भोजन ज्ञान है , जिसे पा कर ही वह उस कार्य को करने को अग्रसर होता है | इस लिए ज्ञानेन्द्रियों को मन का भोजन कहा है | इन ज्ञानेन्द्रियों से मन दो प्रकार का सहयोग प्राप्त करता है | प्रथम तो ज्ञानेन्द्रियों के सहयोग से मन वह सब सामग्री एकत्रित करता है , जो उस कार्य की सम्पन्नता में सहायक होती है दूसरा इस सामग्री को एकत्र करने के पश्चात प्रस्तुत सामग्री को किस प्रकार संगठित करना है , किस प्रकार जोड़ना है तथा किस प्रकार उस कार्य की सपन्नता के लिए उस सामग्री का प्रयोग करना है , यह सब कुछ भी उसे मन ही बताता है | अत: बिना सोच विचार , चिन्तन ,मन व मार्ग दर्शन के मन कुछ भी नहीं कर पाता, चाहे इस निमित उपयुक्त सामग्री उसने प्राप्त कर ली हो | अत: किसी भी कार्य को संपन्न करने के लिए साधन स्वरूप सामग्री का एकत्र करना तथा उस सामग्री को संगठित कर उस कार्य को पूर्ण करना ज्ञानेन्द्रियों का कार्य है | इस लिए ही मनको प्रत्येक कार्य का धर्म व ज्ञानेन्द्रियों को प्रत्येक कार्य को करने का साधन अथवा भोजन कहा गया है कहा गया है |
इस जगत में परमपिता परमात्मा ने अनेक प्रकार के फल ,फूल, नदियाँ नाले, जीव जंतु ,स्त्री पुरुष को बनाया है, पैदा किया है , उत्पन्न किया है | इन सब के सम्बन्ध में मन जो कुछ भी देखता व सुनता है, वह सब देखने व सुनने के पश्चात ज्ञानेन्द्रियों के पास जाता है | मन द्वारा कुछ भी निर्णय लेने के लिए जब यह सब सामग्री, सब द्रश्य बुद्धि को दे दिये जाते हैं तो बुद्धि सब को जांच , परख कर जो भी निर्णय लेती है, वह उस निर्णय से मन को अवगत करा देती है तथा आदेश भी देती है कि अब यह कार्य करणीय है | अब मन पुन: ज्ञानेन्द्रियों को अपने निर्णय से अवगत कराते हुए आदेश देता है कि प्रस्तुत कार्य की परख हो चुकी है | यह कार्य उतम है , करने योग्य है , इस को तत्काल सम्पन्नं किया जावे | इस आदेश के साथ मन ज्ञानेन्द्रियों को यह भी बताता है कि इस कार्य को किस रूप में संपन्न करना है ? इस प्रकार मन अपने प्रत्येक कार्य को संपन्न करने के लिए ज्ञानेन्द्रियों का सहयोग प्राप्त करता है तथा उनके सहयोग से ही सब कार्य संपन्न करता है | मन के संकल्प क्या हैं तथा उस कार्य के विकल्प क्या हैं यह सब ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ही निर्धारित किये जाते हैं , प्रस्तुत किये जाते है | अत: ज्ञानेन्द्रियों के साह्योग से ही मन के सब कार्यों को व्यवस्थित कर उनकी दिशा निर्धारित की जाती है तथा इन के द्वारा ही उन्हें सम्पन्नं किया जाता है |
इस सब से जो बात स्पष्ट होती है वह यह है कि प्रत्येक कार्य को करने के लिए मन चुन कर उस पर ज्ञानेन्द्रियाँ मनन व चिन्तन कर अपने सुझावों के साथ मन को लौटा देती हैं | मन उस पर निर्णय लेकर उसे करने के अनुमोदन के साथ पुन: करने का आदेश देते हुए पुन: ज्ञानेन्द्रियों को लौटा देता है तथा ज्ञानेन्द्रियाँ उस आदेश का पालन करते हुए उस कार्य को संपन्न ती है | अत: कोई भी कार्य करने से पूर्व उस पर मनन चिन्तन सुचारू रूप से होता है तब ही वह उतम प्रकार से सफल हो पाता है |
डा. अशोक आर्य

देवता पुरुषार्थी के सहायक

ओउम
देवता पुरुषार्थी के सहायक .. अथर्वेद २०.१८.३
डा.अशोक आर्य

विशव का प्रत्येक प्राणी आनंदमय रहना चाहता है , सुखी रहना चाहता है | प्रत्येक व्यक्ति विशव में ख्याति चाहता है | यह सब पाने के लिए अत्यधिक मेहनत कि आवश्यकता होती है , पुरुषार्थ कि आवश्यकता होती है,जिससे बच्जाने का वह प्रयास करता है |इलाता उसे ही है जो मेहनत करता है | बिना प्रयास किये कुछ किस्से मिल सकता है | इस तथ्य को अथर्ववेद में इस प्रकार बताया गया है : –

इच्छन्ति देवा: सुन्वनतम न स्वप्राया न स्प्रिहंती |
यन्ति प्रमादामातान्द्रा: || अथर्ववेद २०.१८.३ ||
देवता यज्ञकर्ता या कर्मठ को चाहते हैं , आलसी को नहीं चाहते हैं | पुरुषार्थी व्यक्ति ही श्रेष्ठ आनंद को प्राप्त करते हैं | :-
पुरुषार्थ मानव जीवन का एक आवश्यक अंग है | जो पुरुषार्थी है , उसकी सहायता परमात्मा करता है | देवता भी पुरुशारथी को ही चाहते हैं | संसार भी पुरुषार्थी को ही चाहता है | जिस पुरुषार्थी को सब चाहते हैं, वह पुरुषार्थ वास्तव में है क्या ? जब तक हम पुरुषार्थ शब्द को नहीं जान लेते तब तक इस सम्बन्ध में और कुछ नहीं कह सकते | अत: आओ पहले हम जानें की वास्तव में पुरुषार्थ से क्या अभीप्राय है :=
पुरुषार्थ से अभिप्राय से :-
पुरुषार्थ से अभिप्राय है मेहनत | जो व्यक्ति चिंतन करता है , मनन करता है, एक निश्चित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यत्न करता है , प्रयास करता है , वह व्यक्ति पुरुषार्थी होता है | इससे स्पष्ट होता है कि मेहनत करने वाला पुरुषार्थी है | जो किसी विषय पर मनन, चिंतन कर उसे भली प्रकार समझ कर उसे पाने का यत्न करता है वह पुरुषार्थी है | अत: हम कह सकते हैं की पुरुषार्थ से भाव मेहनत करने से है, यत्न करने से है , एक निर्शारित उद्देश्य को पाने के लिए जो भी यत्न किया जाता है , उसे पुरुषार्थ कहते हैं |
पुरुषार्थ के इस इतने उच्चकोटि के भाव से पुरुषार्थ का महत्व भी स्पष्ट हो जाता है | मेहनती व्यक्ति को पुरुषार्थी कहा गया है | जो अपाने लक्ष्य को पान्ने के लिए न्हारपुर यत्न करता है , उसे पुरुषार्थी कहा गया है | उसका उद्देश्य चाहे धन प्राप्ति का हो ,छह शारीर के गठन का, शिक्षा प्राप्ति का हो चाहे प्रभु प्राप्ति का | किसी भी क्षेत्र में वह उपलब्धियां पाना चाहता हो तथा इन उपलब्धियों को पाने के लिए जब वह सच्चे मन से यत्न करता है तो उसे पुरुषार्थी कहते हैं , मेहनती कहते हैं, लहं शील कहते हैं |
इस प्रकार का मेहनती व्यक्ति जब अपनी मेहनत के फलसवरूप कुछ उ[अलाब्धियाँ पा लेता है तो उसका अपना मन तो प्रफुल्लित होता ही है साथ में उसक्द परिजनों को भी अपार ख़ुशी प्राप्त होती है | ऐसे क्यक्ति को देवता ही नहीं प्रभु भी पसंद करते हैं | जिस व्यक्ति को परमात्मा का आशीर्वाद मिला जाता है, उस कि ख्याति समग्र संसार में फ़ैल जाती है | सब और उसकी चर्चा होने लगाती है, जिस से उसका ही नहीं उसके परिवार कि यश व कीर्ति भी दूर दूर तक चली जाती है | इस प्रकार वह अपने परिवार का नाम उंचा करने का कारण बनाता है |
जो पुरुषार्थ नहीं करता. उसे निष्क्रिय कहते हैं , उसे कर्महीन कहते हैं ,उसे आलसी कहते हैं, उसे अकर्मण्य कहते हैं | जो कुछ काम ही नहीं करता, उसे उपलब्धियां कहाँ से मिलेंगी ? , उसे ख्याति कहाँ से मिलेंगी , उसे यश कहाँ से मिलेगा ? उसकी कीर्ति कैसे फ़ैल सकती है ? उसकी कहीं भी पहचान कैसे बन सकती है ? अर्थात निष्क्रिय व्यक्ति को कोई पसंद नहीं करता | न तो इस संसार में तथा न ही देवताओं में और न ही ईश्वरीय शक्तियों में उसे कोई पसंद करता है | वह पशुओं कि भाँती इस संसार में आता है , खाता है तथा कीड़े मकोड़ों कि भाँती इस संसार से चला जाता है | न तो जीवन काल में ही उसे कोई चाहने वाला होता है तथा न ही जीवन के पश्चात भी |
अत: आलसी व कर्म हिन् व्यक्ति को कहीं भी भी सन्मान नहीं मिलता | वह अपने लिए भी भार है और परिवार के लिए भी | जिसे परिजन ही पसंद नहीं करेंगे , उसे अन्य क्या चाहेंगे | इस लिए मन्त्र में कहा गया है कि देवता पुरुशरथी को ही चाहते हैं | संस्कृत के एक सुभाषित में भी इस तथ्य का ही अनुमोदन करते हुए इस प्रकार कहा है :-
” उद्यम: साहसं धैर्यं बुद्धि: शक्ति: पराक्रम: |
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवा : सहायकृत ||
अर्थात उद्यम ,साहस, धैर्य , बुद्धि, शक्ति और पुरुषार्थ से गुण जहाँ रहते हैं , वहां परमात्मा भी सहायता करता है | पुरुषार्थी ही समाज और राष्ट्र का निर्माण करते हैं | वे संसार का कल्याण करते हैं और संसार उनका गुणगान करता है | पुरुषार्थ , आलस्य का त्याग तथा निरंतर अपने कर्तव्य में तत्पर रहना समृद्धि का मूल है , सफलता का रहस्य है | पुरुषार्थ और स्वावलंबन का महत्त्व बताते हुए अंग्रेजी में कहा गया है :-
” GOD HELPS THOSE WHO HELP THEMSELVES. ”
परमात्मा उनकी सहायता करता है , जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं | जो अपने सामने पड़ी थाली में परोसे भोजन को स्वयं अपने हाथ से उठा कर अपने ही मुंह में नहीं डालते तो उन्हें भोजन कारने कौन आवेगा ? उनकी तृप्ति कैसे हो सकती है ? अत: प्रभु का आशीर्वाद पाने के लिए हमें अपनी सहायता स्वयं करनी होगी | स्पष्ट है कि यहाँ भी पुरुषार्थ करने कि ही प्रेरणा कि गयी है |
मन्त्र के आरम्भ में ही इस सत्य को कहा गया है कि देवता पुरुषार्थी को ही चाहते हैं, मेहनत करने वालों को ही चाहते हैं, जिनका जीवन यज्ञमय होता है, उसे ही चाहते हैं अकर्मण्य अथवा आलसी को नहीं | अत: हे मानव ! यदि तुन देवताओं को प्रसन्न रखते हुए प्रभु का आशीर्वाद लेना चाहता हे , धनधान्य का स्वामी बन यश व कीर्ति को पाना चाहता है तो पुरुशारती बन |

डा.अशोक आर्य