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प्रभु प्रेरणा से हम परमेष्ठी बनें

प्रभु प्रेरणा से हम परमेष्ठी बनें
डा. अशोक आर्य
यजुर्वेद का आरम्भ यह उपदेश देते हुए होता है की जो व्यक्ति प्रभु की दी गयी प्रेरणा पर चलता है वह पर्मेष्थि बनता है अर्थात वाहप्रभु के आदेश कॅया पालन करने वाला , उस प्रभु के मार्ग – दर्शन मे रहने वाला होता है | मंत्र का मूल पाठ इस प्रकार है : –
|| ओ3म || ईशे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो व: सविता प्रार्पयतु श्रेष्टतमाय कर्मणा&आप्याय्ध्वमघ्ण्या&इंद्राय भागम् प्राजावॅतीरनमिवा&अयक्ष्मा मा व स्टेन&ईशत माघश्नसो ध्रुवा&अस्मिन गोपतौ स्यात् बग्विर्यजमानॅस्य पशून पाहि || यजुर्वेद 1.1 ||
इस मंत्र में जीव ने परम् पिता परमात्मा से प्रार्थना करते हुए कहा है कि हे प्रभु ! मुझे प्रेरणा दो | अपने भक्त की इच्छा पूर्ण करने के लिए प्रभु उसे उपदेश देते हुए 13 प्रकार की प्रेरणा देते हुए कहता है कि हे जीव ! यदि तू परमेष्ठी बनना चाहता है तो तू इन प्रेरणाओ को अपने जीवन का अंग बना ले , इन्हें अपना ले | इन्हें अपनाने पर ही तू इस उतम पद को पा सकेगा | यह प्रेरणाएं इस प्रकार हैं : –
1. तू गतिशील हो :-
प्रभु वायव:स्थ श्ब्द के माध्यम से जीव को प्रथम प्रेरणा देते हुए कहता है कि अकर्मण्यता से कोई भी प्राणी कभी उपर नही उठ सकता | उपर उठने के लिए सक्रिय होना आवश्यक है , पुरुषार्थी होना आवश्यक है , मेहनती होना आवश्यक है | इस लिए हे जीव ! तू सदा गतिशील रह , क्रियाशील रह , पुरुषार्थ मे लगा रह | यह पुरुषार्थ ही तेरे काम आवेगा | अकर्मण्यता को तू अपने पास भी न आने दे | तू आत्मा है | आत्मा का अर्थ है सतत, निरन्तर गतिशील होना | जब जीव आत्मा के इस अर्थ को भूल कर अकर्मण्यता को अपना लेता है तो यह अकर्मण्यता उसे जीर्ण शीर्ण कर देती है , उस का नाश कर देती है | इस के उलट यदि जीव पुरुषार्थी है ,गतिशील है, क्रियाशील है तो इससे उस में विकास का उदय होता है , यह विकास का कारण बनती है | इससे स्पष्ट होता है कि जीव के लिए जिसे जीवन माना गया है , वह है क्रियाशीलता | क्रियाशीलता ही उसके लिए जीवन है |
2. सुप्रेरक बनाने की विद्वान लोग चेष्टा करे : –
प्रभु सविता देव: व:श्रेष्टमाय कर्माने प्रापयतु के माध्यम से उपदेश करते है कि हे जीव ! बस तुम् अपने अंदर एसी अनुकूलता पैदा करो कि विद्वान लोग , ग्यानी पुरुष , जो सदा प्रेरणा देने वाले प्रेरक होते है, वह लोग तुम्हें सदा श्रेष्ट ही नही अपितु श्रेष्टतम कर्मों की ओर प्रेरित करें क्योंकि इन कर्मों से ही तू उंचा उठेगा |
3. तुम प्रतिदिन बढ़ो :-
प्रभु मंत्र में आए शब्द आप्यायध्वम् के द्वारा पुन: प्रेरणा देते हुए उपदेश करते हैं कि हे जीव ! तुम प्रतिदिन बढ़ो | तुम प्रतिदिन उपर उठो, उन्नति करो | यह सबका पुरुषार्थ होगा | इस सब के लिए एक मात्र मार्ग यह है कि हम निरंतर पुरुषार्थ करें , क्रियाशील रहें , उन्नति के पाथ को न छोडे | हम ने यह जो अपने को स्क्रिय बनाया है ,यह हमारी क्रियाशीलता हमें उत्तम कमों की ओर झुकाने वाली हो |
4. अहिंसकों में उतम बनो :-
प्रभु अघण्या शब्द से उपदेश करते हैं कि हे जीव ! तू कभी हिंसक न बनना तथ कभी किसी की हिंसा न करने वालों में तुम उतम होना | स्पष्ट है कि प्रभु अहिंसक को उतम मानते है इस कारण वह माँसाहार के भी विरुद्ध है तथा किसी को भी माँसाहार की स्विक्रती नहीं देते | इस के साथ ही प्रभु का उपदेश है कि मानव का जो भी कार्य हो वह निर्माण के लिए , विकास के लिए , जन कल्याण के लिए हो , दूसरों के हिट अहित का ध्यान रखते हुए किया जावे तथा जन क्ल्याण के लिए हो | इस सब के साथ ही यह बात भी स्पष्ट की गयी है कि तुम्हारा कोई भी काम ध्वन्स के लिए , विनाश के लिए , जन उपहास के लिए नहीं होना चाहिए |
5. तुम मेरे उतम आदेशों को ही स्वीकारना :-
हमारे प्रभु नही चाहते की उनके किसी गल्त आदेश को स्वीकार करने के लिए कोई जीव बाध्य हो,( प्रभु चाहे कभी गलत उपदेश देते ही नहीं । तो भी ) इस लिए वह आदेश देते है कि इंद्रा भागम् अर्थात तुम लोग मुझ पर एश्वर्यशाली होने के कारण मेरे प्रत्येक आदेश का पालन करने के लिए बाध्य नही हो बल्कि मेरे केवल उस आदेश को ही स्वीकार करना जो जनहितकारी हो , कल्याणकारी हो , सर्वहितकारी हो , जो आदेश आपको अच्छा न लगे उसे आप किसी भी किसी भी अवस्था में स्वीकार न करना | यहां प्रभु जीव को कर्म की स्वतन्त्रता दे रहा है । हां ! यह ध्यान रखना की तू अपने में प्रक्रति का आधिक्य न होने देना, केवल प्रभु का ही आधिक्य तेरे अंदर हो अर्थात प्रेम मार्ग पर न चलकर श्रेय मार्ग को अपनाना | श्रेय मार्ग पर चलने वाले का सदा व सर्वत्र सम्मान होता है , जिसे पाने के लिए मानव यत्न शील रहता है | यदि तुम अपने जीवन को एसा बना पाए तो निश्च्य ही तुम :
6. उतम संतानों वाले :-
जब तुम्हारा जीवन सबका सम्मान पाने में सफल होगा तो तुम निश्चय ही उतम संतानों वाले उतम प्रजा वाले बनोगे | जिस की संतान उतम न हो , जिसकी संतान आग्याकारी कार्य न हो , जिस की संतान दुर्गुणों से भरी हो ,वह व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकता , इस कारण सब लोग उतम संतान की कामना करते है | इसलिए हमारे श्रेय मार्ग का अवलंबन आवश्यक है , यह मार्ग ही उतम संतान प्राप्ति का साधन है |
7. रोगो से बचना : –
प्रभु अनमिवा के माध्यम से उपदेश देते हैं कि हे जीव ! तू रोगों से ग्रसित मत होना तथा सदा एसे उपाय करना कि रोग तेरे को ग्रसित न कर सकें | अपने इस शरीर रूपी रथ से तूने बहुत से काम सम सम्पन्न करने हैं , भूत सी सफलताएं प्राप्त करनी है , कहीं यह टूट न जावे | इसे तोड़ने वाले रोग ही होते है | इसलिए किसी भी रोग को तू अपने शरीर मे प्रवेश न करने देना | यदि तू रोग ग्रस्त हो गया तो तेरे जीवन की यह यात्रा बीच में ही रूक जावेगी , पूर्ण न हो सकेगी | इस के साथ ही जो पांचवां उपदेश किया था इंद्रा भागामर्तात जब तुम इंद्रा भागम का भी ध्यान रखोगे तो तुम कभी भी रोगी न हो पाओगे |
यह सब कहने का भाव है कि उस पिता का कोई भी पुत्र, उस पिता का कोई भी भक्त कभी भी किसी रोग का ग्रास नहीं बनता , अस्वस्थ नहीं होता तथा वह प्रक्रती में आसक्त नहीं होता | इस कारण रोग उसके पास आ ही नहीं पाते |
8. यक्ष्मा आदि भयंकर रोगोँ से बचें :-
मानव बहुत स्वार्थी प्राणी है | वह जीवन की सुख सुविधाएं बढ़ाने के लिए प्रकृति के नियमों को भी तोड़ता रहता है | इस से अनेक बार वह भयंकर बीमारियों मे भी फँस जाता है | प्रभु इस से बचाने के लिए प्रेरित करते हुए इस मंत्र के माध्यम से कहते हैं अयक्ष्मा अर्थात हे प्राणी ! तुझे कभी यक्ष्मा जैसे श्वास के भयंकर रोग न हों | इस रोग को राज योग भी कहते हैं क्योंकि इस के उपचार पर अत्यधिक व्यय करना होता है , (जो साधारण व्यक्ति नहीं कर सकते ,) तो भी इसका निदान नहीं हो पाता | गरीब व्यक्ति तो इस के निदान के लिए धन की व्यवस्था भी नहीं कर सकता | इस रोग में रोगी का श्वास तेज चलने लगता है तथा उसे श्वास क्रिया में भारी कठिनाई होती है | यह रोग प्रकृति के नियमों को तोड़ने से होता है । इसलिए प्रभु का आदेश है कि प्रकृति के नियमों का संतुलन बनाए रखैं , इन्हें अस्त व्यस्त न होने दें तो तुम इस भ्यंकर रोग से बच सकते हो | अत; प्रकृति का सदा स्न्तुलित प्रयोग करो |
9. बिना पुरुषार्थ कुच्छ प्राप्त ना करें :-
जब मानव अपने पुरुषार्थ से , श्रम से कुछ पाता है तो उसे अत्यधिक आनंद का अनुभव भी होता है | किन्तु आलसी, प्रमादी व्यक्ति बिना किसी प्रकार की मेहनत के ही धनवान बनने की कामना करता है | इस प्रकार ज़ब उसे कुछ मिल जाता है तो वह आलसी बन जाता है , प्रमादी हो जाता है तथा अन्याय पूर्ण कार्य करने लगता है | इस लिए इस मंत्र के माध्यम से ईश्वर आदेश देता है कि मया व: स्टेन ईषत अर्थात हे मानव ! तू अपने मेहनत से , पुरुषार्थ से ही धन को प्राप्त कर आलसी को कभी अपना स्तेन अर्थात बिना पुरुषार्थ के धन पाने का साधन न बनने देना | इस प्रकार अनेक प्रकार के सटटा, जुआ, लाटरी आदि का कभी प्रयोग न करना क्योंकि यह सब बिना श्रम के धन प्राप्ति के साधन होते हैं | इस प्रकार से धन पाने वाला व्यक्ति काम चोर, प्रमादी , आलसी, आराम पसंद बनाकर अनेक बिमारियों में फंस जाता है |
10. अपने कुकृत्यों को छुपा नहीं :-
प्रभु का आदेश है कि मानव को अपने कुकृत्यों को कभी झुठलाने का , इन्हें छुपाने का प्रयास नहीं करना चाहिये | एसा व्यक्ति को अपनी कमियों को , भूलों को न्याय संगत ठहराने के लिए अनेक झूठ बोलने पड़ते हैं , अनेकों के हितों की हानि करनी होती है | इसलिए प्रभु मया आगशन्स: के भाव में कह रहे हैं अपने पाप को कभी भी अच्छे रुप में प्रकट न करना | इतना ही नही कोई अन्य व्यक्ति भी तुम्हारे विकारों पर शासन न करे अर्थात आप स्वाधीन हो अपना कार्य करें तथा अपने विचार रखें किसी ओर के आदेश पर अपने विचार न बनावें|
११. तुम सदा अटल , ध्रुव रहना :-
प्रभु कहते हैं कि हे मानव ! तू इस गोपतौ में , इस जगत में सदा ध्रुव के समान स्थिर रहना , अटल रहना | इस संबंध में वेद के यह श्ब्द प्रयोग करते हुए कहते हैं ध्रुवाअस्मिन गोपतौ स्यात् अर्थात तू सदा अटल रहना | गोवें ही हमारी इन्द्रियाँ हैं तथा इन इंद्रियों का रक्षक स्वयम् प्रभु होता है | हम गोओं को वेदवाणी के रूप में भी ले सकते है | हम यह भी जानते हैं की वेदवाणी का पति , मालिक हमारे वह पिता ही तो होता है | यदि तुम उतम वेदवाणी के प्रकाश से प्रकाशित होना चाहते हो तो वेदवाणी के मालिक प्रभु में ध्रुव के समान स्थिर होकर रहना | प्रभु हमारे चक्की की धुरी है | चक्की में पड़ा हुआ वह दाना ही बच पाता है जो इस की धुरी को पकड़ लेता है | ठीक इस प्रकार ही इस जगत मे वह प्राणी ही बच पाता है जो चक्की की धुरी रुप प्रभु को पकड़ लेता है , उसे छोड़ता नहीं |
12. समाज मे रहते हुए ओरों का सहयोगी बनना :-
प्रभु जीव को वह्नि अर्थात दूसरों का सहयोगी बनने का उपदेश देते हैं तथा कहते है कि हे प्राणी ! तू कभी भी आत्मकेंद्रित न होना , केवल अपने ही बारे में न सोचना , कभी स्वार्थी न बनना | तू एक सामाजिक प्राणी है इस लिए सदा अधिक से अधिक लोगों से संपर्क बनाने का प्रयास करते रहना | दूसरों के संपर्क में रहना | इस बात का सदा ध्यान रखना कि मैं एक न रहूं बल्कि एक से बहुत हो जाऊं | केवल स्वयम् ही सुखी होने का यत्न न करना बल्कि दूसरों के सुखों को बढ़ाने के लिए उन के दु:खों को भी दूर करने का प्रयत्न करते रहना |
13. कामादि को सुरक्षित रखना :-
आप जानते हैं कि इस संसार की किसी भी उतम वस्तु की रक्षा करने की व्यवस्था नहीं करनी होती वह स्वयमेव ही वितरित होती रहती है किन्तु हानि कारक पदार्थों को छुपाना पड़ता है ताकि यह बुरी वस्तु किसी के हाथ में आकर हानि का कारण न बन जावे | यजमानस्य शब्द के माध्यम से प्रभु इ
स वेद मंत्र मे यह भी अन्तिम आदेश या अन्तिम प्रेरणा दे रहे हैं कि हम काम , क्रोध आदि हमारे अंदर के शत्रुओं को , इन पाश्विक वृतियों को गुप्त स्थान पर सुरक्षित कर के रखें किसी के हाथ न लगाने दें | यदि यह दुष्ट वृतियां किसी ने प्रयोग में ले लीं तो भारी विनाश का कारण बन जावेंगी | हम उपयोगी वस्तुओं को तो खुले में रखते है किंतु हानि देने वाले पदार्थों तेज़ाब आदि को अलमारी में ही रखते है क्योंकि इस से भारी हानि की संभावना होती है | हम चिड़ियाघर देखने जाते है ,वहां देखते है कि साधारण जीव तो खुले में घूम रहे होते है किन्तु बाघ आदि को बड़े भारी पिंजरों में रखा होता है | कुछ एसा ही हमारी बुराईयों के लिए भी होता है | काम – क्रोध आदि भी हमारे जीवन का भाग होते हैं किन्तु इन्हें संभालने की आवश्यकता होती है | कामादि संसार को चलाने की क्रिया है | इस की संसार में आवश्यकता है किन्तु इस के अनियंत्रित होने पर शक्ति का विनाश होता है , शक्ति का क्षय होता है | इसे संतुलित व संयमित करना भी आवश्यक है | इस प्रकार ही कोश भी जीवन में आवश्यक है किन्तु इस का भी संतुलित होना आवश्यक है अन्यथा विनाश होगा |
इस मंत्र के आरंभ में जीव ने परम पिता परमात्मा से उसे प्रेरणा देने की प्रार्थना की थी | पिता अपने पुत्र की इच्छा को कैसे टाल सकता था | अत: प्रभु ने उसे इस मंत्र के ही माध्यम से विभिन्न प्रकार से प्रेरित किया | उसे प्रेरित करने के लिए उस ने उसे सत्य के तेरह स्वरूप दिखाए | इन तेरह उपदेशों को अपनाने वाला जीव ही अंत में परम् स्थान में स्थित होता है | यह जीव अपनी प्रजा की रक्षा करने के कारण प्रजापति भी कहलाता है | जो भी जीव इस तेरह उपदेशों पर चलेगा , वह निश्चय ही उन्नति की लहरों की छाती पर तैरेगा, पर्वतों की चोटी के समान ऊंचा उटेगा |

डा. अशोक आर्य