हम क्रोध, काम ओर असत्य कार्यों से बचें

हम क्रोध, काम ओर असत्य कार्यों से बचें
डा. अशोक आर्य
प्रभु सुरुपकत्नु है । एसे प्रभु का हम प्रतिदिन आराधन करें ,
जिससे हमारी वाणी मस्तिष्क मन तथा हाथ , सब सुन्दर बनें । हमारी वाणियां
क्रोध रहित हों, मन में काम की सत्ता न आने पावे तथा हाथ लोभ सरीखे असत्य कार्यों में कभी न लगें मन्त्र बडे सुन्दर टंग से इस प्रकार उपदेश कर रहा है: -। इस बात को रिग्वेद के चतुर्थ मण्ड्ल का यह
सुरुपक्रत्नुमूतये सुदुघामिव गोदुहे ।
जुरूमसि द्यविद्य || रिग्वेद १.४.१ ॥
सुक्त तीन्में सरस्वती व ग्यान के सागर के उल्लेख किया था तथा इस
के साथ ही इस सुक्त की समाप्ति हुई थी । इस में बताया गया था कि हम
सरस्वती को अधिष्थाटा बनकर ग्यान रूपी सागर का रूप धारण करें । इस मन्त्र में इस तथ्य से ही आगे बटने के लिए उप[देश्करते हुए तीन बातों की ओर
द्यान दिलाते हुए कहा गया है कि : –
१. वह प्रभु ग्यान स्वरूप व परम एशवर्य से युक्त है । हम लोग उस
ग्यान स्वरुप तथा परमएश्वर्य वाले प्रभु की आराधना , उस पवित्र पावन
प्रभु का स्मरण करते हुए इस प्रकार कहते हैं कि हम उस ग्यान के द्वारा (
जो ग्यान विगत सूक्त के मन्त्रों के माध्यम से हम ने प्रभु से प्राप्त
किया था) उत्तम रुप का निर्माण करने वाले परमात्मा को हम प्रतिदिन
पुकारते है । परम पिता स्वयं ग्यान स्वरुप है । वह प्रभु ग्यान स्वरुप ,
ग्यान का भण्डारी होने के कारण हमें भी सदा ग्यान बांटता रहता है किन्तु
वह ग्यान देता उसे ही है , जो उसके ग्यान को पाने के लिए यत्न करता है ।
जो उस प्रभु से ग्यान की भिक्शा मांगता है । जो किसी वस्तु की कामना ही
नहीं करता, जो किसी वस्तु को पाने का यत्न ही नहीं करता, जो किसी वस्तु
को पाने के लिए स्वयं को योग्य ही नहीं बनाता , उसे प्रभु कुछ देता भी
तो नहीं है । इस लिए मन्त्र कहता है कि हम प्रतिदिन उस प्रभू की आराधना
करते हैं । मन्त्र स्पष्ट कर रहा है कि आवश्यकता पडने पर प्रभु के चारणों
में जा कर बैट जाना तथा जरुरत पूर्ण होने पर प्रभु को याद भी न करना ,
एसे लोगों को प्रभु का आशीर्वाद मिलने वाला नहीं है । यदि हम ने उस पिता
से कुछ पाना है तो नियमित रुप से उस के चरणों में बैटना होगा , नियमित
रुप से उसे याद करना होगा , नियमित रुप से उसकी प्रार्थना ,उसकी आराधना
करना होगा । तब ही वह प्रभु हमारी सुनेगा अन्याथा नहीं । इस लिए हम
प्रतिदिन उस प्रभु के समीप बैटकर अराधना करें ।
अब प्रश्न उटता है के हम प्रतिदिन प्रभु का आराधन क्यों करें ?
क्योंकि वह प्रभु हमारी वाणी को सुन्रत वचनों से , एसे वचनों से जो उतम
हों , मीटे हों , सब को आनन्द देने वाले हों , हर्षित करने वाले हों ,
एसे सुन्दर वचनों का उच्चारण करने वाली हमारी वाणी को बना कर सुरूप बना देते हैं , उत्तम रूप से युक्त करते हैं । इतना ही नहीं वह प्रभु हमारे
मस्तिष्क को भी , मस्तिष्क के साथ ही साथ ही साथ हमारे मन को भी सुमतियों से , उत्तम मतियों से भर देते हैं , परिपूर्ण कर देते हैं , सुविचार ,
उत्तम विचार से लबालब कर देते हैं । इस प्रकार हमारे मस्तिष्क व मन को
उत्तम मति वाला बनाते हैं तथा उत्तम विचारों के चिन्तन करने वाला बना कर
वास्तव में इसे सुरुप करते हैं तथा जो प्रभु हमारे हाथों से भी सदा उत्तम
कार्य कराते हैं , उत्तम कार्यों की ओर प्रेरित करते हैं । उत्तम कार्य
कॊन से होते हैं , जिन्हें हाथों से करने के लिए प्रभु प्रेरित करते हैं
। उत्तम कार्य यग्यों को कहा गया है , उत्तम कार्य परोपकार के कार्यों को
कहा गया है तथा उत्तम कार्य अग्निहोत्र को कहा गया है, जिससे अपने साथ ही साथ अन्यों का भी कल्याण होता है ,वह प्रभु हमारे हाथों को एसे कार्यों
को करने वाले बनाते हैं तथा हाथों से इस प्रकार के उत्तम कार्य कराते हुए
इन्हें भी सुन्दर अर्थात सुरुपता प्रदान करते हैं ।
२. इस प्रकार के कार्य करने के कारण हम उस प्रभु को सुरुपक्रत्नु
कहते हैं । एसे सुरुपक्रत्नु प्रभु को हम रक्शा के लिए पुकारते हैं । जब
हम संकट में होते हैं तो हम अपने सम्बन्धी , अपने मित्र व अपने रक्शक को
पुकारते हैं ताकि संकट के समय वह हमारा सहायक बनकर , हमारा रक्शक बन कर हमारा सह्योग करे , हमारी रक्शा करे । पुकारते समय हम देखते हैं कि हमारी रक्शा का सामर्थ्य किस में है ,उसे ही हम पुकारते हैं , जिसमे एसा
सामर्थ्य है ही नहीं , उसे बुलाने का कुछ लाभ नहीं होता । हमारा वह
प्रभू सुरुपक्रत्नु है , इस कारण ही हम उस प्रभु को पुकारते हैं । वह
प्रभु हमारी रक्शा के लिए जो आवश्यक गुण हैं , उन सब का मालिक है , हम
इसलिए उसे पुकारते हैं , ताकि वह हमारी रक्शा कर सके ।
मानव अपने स्वार्थ के लिए तथा अनेक बार दूसरों की कमियों के कारण
, दूसरों की गल्तियों के कारण क्रोध कर बैटता है । इस अवसर पर वह एसी
कडवी वाणी बोल जाता है , जिससे सुनने वाले के साथ ही साथ बोलने वाले की
भी हानि होती है । इस क्रोध से बचना आवश्यक होता है किन्तु इस से कैसे
बचा जावे ? जब हम उत्तम गुणों को पाने के लिए सुरुपक्रत्नु बनने की यत्न
करते हैं तो वह सुक्रत्नु प्रभु हमें क्रोध रहित कर कडवे वचन बोलने से
बचाते हैं । इतना ही नहीं वह प्रभू हमें कामवासना से भी बचाते हैं ।
कामवासना से भी बुद्धि नष्ट हो जाती है । प्रभु इस से भी हमें बचाकर सदा
सुविचारिं से युक्त करते हैं , सुविचार वाला बनाते हैं । इस सब के होते
हुए भी यदि हमारे अन्दर लोभ आ जाता है तो हम इन उत्तम व्रितियों के होने
पर भी इनका प्रयोग उत्तम कार्यों में करने के स्थान पर बुरी व्रितियों
में ही लिप्त होकर धन एकत्र करने लगते हैं , दूसरों का धन छीनने लगते हैं
। इस प्रकार हमारी उत्तम व्रितियां दूषित हो जाती हैं , बुराईयों से टक
जाती हैं । इन उत्तम व्रतियों का हम कुछ भी उपयोग नहीं कर पाते । अत: वह
प्रभू हमें लोभ की व्रति से बचा कर यग्यीय वरिति वाला बनाते हैं , हमें
परिपकार करने वाला बनाते हैं , दूसरों की सहायता करने वाला, दूसरों को
दान् देने वाला बनाते हैं ।
३. जिस प्रकार हम एक गो दुग्ध निकालने वाले ग्वाले के लिए उस गाय
को ही लाते हैं , जो दुग्ध से लबालब भरी हो। जब ग्वाला दूध निकालने के
लिए आता है तो हम यदि उसे एसी गाय के समीप ले जावें , जिसका दूहन पहले से ही किया जा चुका हो तो एसी गाय का ग्वाला ओर दूहन क्या करेगा ,एसी गाय से तो कुछ भी दूध प्राप्त नही हो सकता । अत: हम उसे एसी उत्तम गाय पेश करते हैं , जो दूहन के लिए उपयुक्त हो । जिस प्रकार यह गाय दूह कर अम्रत तुल्य उत्तम दुध उस ग्वाले के माध्यम से गाय हमे देती है , उस प्रकार ही वह प्रभु भी काम , क्रोध , लोभ आदि से हमारी रक्शा करने वाले हैं , जब हम
उन्हें प्रतिदिन पुकारते है तो वह प्रभु आ कर उस प्रकार ही आराधक के लिए
, उसके लिए , जो उन्हें प्रतिदिन स्मरण करता है , उसे उत्तम ग्यान से
परिपूर्ण कर देते है । जिस प्रकार गाय का दूध हमारे शरीर का पौषण करता है
, उस प्रकार ही प्रभु का दिया हुआ यह ग्यान , यह आध्यात्मिक ग्यान का
पोष्ण करता है ।

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