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तप से सब प्रकार के दुर्भावों का नाश होता है : डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली

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ओउम
तप से सब प्रकार के दुर्भावों का नाश होता है
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है ,किन्तु काम एसे करता है कि वह अपनी करनी के कारण सुखी हो नहीं पाता | वास्तव में आज के प्राणी दुर्भावनाओं से भरे हैं | प्रत्येक व्यक्ति अन्यों से किसी न किसी बहाने द्वेष रखता है | वह चाहता है कि उसे स्वयं को कोई सुख चाहे न मिले किन्तु किसी दुसरे को सुख नहीं मिलना चाहिए | इस प्रयास में वह अपने आप को ही भूल जाता है | अपने दु:ख से इतना दु:खी नहीं है , जितना दुसरे के सुख से | इस के दु:ख का मुख्य कारण है किसी दुसरे का सुखी होना | उस को स्वयं को सर्दी से बचने के लिए बिजली के हीटर की आवश्यकता है | वह इस हीटर को खरीदने के स्थान पर इस बात से अधिक दु:खी है कि उसके पडौसी के पास हीटर क्यों है ? बस इस का नाम ही दुर्भाव है | मनुष्य को सुखी रहने के लिए सब प्रकार के दुर्भावों से हटाने की आवश्यकता होती है | इस के लिए तप की आवश्यकता है | यह तप ही है ,जो मनुष्य को दुर्भावों से दूर कर सकता है | मानव को चाहिए की वह दुर्भावों से बचने के लिए तप की ओर लगे | अथर्ववेद के मन्त्र संख्या ८.३.१३ तथा १०. ५.४९ में भी इस भावना पर ही बल दिया गया है | मन्त्र इस प्रकार है : – परा श्रनिही तपसा यातुधानान
पराग्ने रक्षो हरसा श्रीनिही |
परार्चिषा मूरदेवान श्रीनिही
परासुत्रिपा: शोशुचत: श्रीनिही ||
शब्दार्थ : –
( हे अग्ने) हे अग्नि (यातुधानान) राक्षसों अथवा कपट व्यवहार करने वालों को ( तपसा) तप से (परा श्रीनिही ) दूर से ही नाशत करो ( रक्ष: ) राक्षसों या कुकर्मियों को (हरसा) अपनी शक्ति से (परा श्रीनिही) नष्ट करो (मूरदेवान) मूढ़ देवों को अथवा जड़ देवों के उपासकों को (अर्चिषा )अपने तेज से (परा श्रीनिही) नष्ट करो (असुत्रिषा:) दूसरों के प्राणों से अपनी तृप्ति करने वाले ( शोशुचत:) शोकग्रस्त दुर्जनों को (परा श्रीनिही ) नष्ट करो |
भावार्थ :
– हे अग्निरूप प्रभो ! तुम कपट व्यवहार करने वालों को अपने तप से, राक्षसों तथा कुकर्मियों को अपनी शक्ति से , जड़ देवों के उपासकों को अपने तेज से तथा जीव हत्या करने वाले और सदा शोकग्रस्त दुष्टों को नष्ट कर दो |
अथर्ववेद के इस मन्त्र में चार प्रकार के पापियों को नष्ट करने के लिए चार ही प्रकार से नष्ट ल्कराने की व्यवस्था की गयी है | ये चारों इस प्रकार हैं : –
१. यातुधानों को तप से :-
यातुधानों को तप से नष्ट करने का विधान दिया है | जब तक हम यातुधान का अर्थ ही नहीं जानते तब तक इसे समझ नहीं सकते | अत:पहले हम इस के अर्थ को समझाने का प्रयास करते हैं | जो माया , छल , कपट आदि कुटिल व्यवहारों से अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं , उन्हें ” यातु ” कहते हैं ,धान का अर्थ है – रखने वाले | अत: जो छल. कपट,माया आदि कुटिल व्यवहार रखते हैं , उन्हें यातुधान कहते हैं | मन्त्र में उपदेश किया गया है कि हे तपस्वी मानव ! छल , कपट व मायावी व्यवहार रखने वालों को कठोर से कठोर दंड द्वारा संताप दे कर उन्हें नष्ट कर दें | इस में ही भला है |
२. राक्षसों को हरस से :-
जो राक्षस वृति वाले हैं , उन्हें हरस अथवा अपने तेज से नष्ट कर दो , क्योंकि तेज के सम्मुख कभी राक्षस ठहर ही नहीं सकते | प्रश्न यह उठाता है कि राक्षस है कौन , जिसे यहाँ तेज से नष्ट करने को कहा गया है | राक्षस उसे कहते हैं जो सदैव दुसरे का अहित करने वाले तथा उन्हें दू:ख व संताप देने वाले होते हैं | यह लोग दूसरों को संताप देने में ही आनंद का अनुभव करते हैं | ऐसे लोग तेज से ही नष्ट हो जाते हैं | दूसरों को यातना देकर अपना हित साधने वालों को क्रोध कि अग्नि में जला देना चाहिए |
३. मूरदेवों को अर्चिष से :
इस का वर्णन करने से पूर्व मुरदेव का अर्थ भी समझना आवश्यक है | मुर कहते हैं जड़ को | अत: जो जड़ पदार्थों को अपना देवता मानते हैं, उन्हें मुर्देव कहते हैं | इस प्रकार के लोग जड़ कि पूजा करते हैं, अन्धविश्वासी होते हैं, विद्या रहित होने के कारण यह लोग विवेक से भी बहुत दूर होते हैं | होते हैं बुद्धि नाम कि वास्तु इन के पास नहीं होती | ऐसे लोगों को लापत अर्थात तेज से नष्ट करने का इस मन्त्र में विधान किया गया है |
४. असूत्रिप को शोक से :-
असुत्रिप का अभिप्राय: समझाने से पता चलता है कि इस श्रेणी में कौन लोग आते हैं | असू का अर्थ होता है प्राण तथा त्रिप का अर्थ है पिने वाले या हरण करने वाले या मारने वाले | इस से स्पष्ट है जो लोग दूसरों को मार कर खा जाते हैं, उनका खून पि जाते हैं अथवा दूसरों कि जान लेने में जिन्हें आनंद आता है , ऐसे लोग इस श्रेणी में आते हैं | वेड कहता है कि यह लोग सदा भयभीत रहनते हैं, शोक व क्लेश कभी इन का पीछा नहीं छोड़ते , सदा चिंता में ही रहते हैं | न स्वयं सुखी होते हैं न दूसरों को सुल्ही देख सकते हैं | उन कि यह भावना अंत में पर ह्त्या, आत्महनन या आत्म हिंसा के रूप में परिणित होती है | यह सदा दूसरों के मार्ग में कांटे ही पैदा करने का प्रयास करते हैं , इस करना इन्हें समाज के शत्रु कि श्रेणी में रखा जाता है | अत: वेड मन्त्र एइसे लोगों को नष्ट करने का आदेश देता है |
इस प्रकार प्रस्तुत मन्त्र में यह सन्देश दिया गया है कि दुष्ट, छल, कपट व माया से अन्यों को दू:ख देने वाले तथा दूसरों को मार देने कि इच्छा रखने वाले राक्षसी प्रवृति के लोग समाज के शत्रु होते हैं | जब तक यह लोग जीवित रहते हैं, तब तक समाज के मार्ग को काँटों से भारटा रहते हैं, दू:ख , क्लेश खड़े करने के मार्ग खोजते रहते हैं , इन से सुपथगामी लोगों को सदा ही भय बना रहता है | एइसे लोगों का विनाश ही समाज को सुखी
बना सकता है | इओस लिए ओप्रानी को अकारण वह दू:ख न दे सकें | यह सब केवल तप से ही संभव है | अत: यह तप सी है जो दुर्भावों को नष्ट क्रोध से, तेज से एइसे लोगों को नष्ट कर देना चाहिए , उन्हें मार देना चाहिए | जिससे समाज के किसी भी करने कि क्षमता रखता है | ताप से ही सुखों कि वृष्टि होती है | यदि विनाश से बचना है तो हमें तप करना चाहिए |

डा. अशोक आर्य,मण्डी डबवाली
१०४ – शिप्रा अपार्टमेंट ,कौशाम्बी
जिला गाजिया बाद ,उ. प्र.भारत
चल्वार्ता : 09718528068

पृथ्वी के समान माता पिता भी दानी व मृदुभाषी हों

ओउम

पृथ्वी के समान माता पिता भी दानी व मृदुभाषी हों
डा. अशोक आर्य ,
माता पिता सदा संतान का सुख चाहते हैं | संतान का पालन करते हुए कोई भी माता या पिता प्रतिफल की इच्छा नहीं रखता | इतना ही नहीं प्राय: सब माता पिता अपने बच्चों का हट चाहते है तथा उन्स म्र्दुभाषा में ही बात करते हैं | यह माता पिता का यूँ कहा जा सकता है की संतान के लिए एक महान दान है | दुसरे सब्दों में हम कह सकते हैं कि यह माता पिता कि दान कि प्रवृति है | एक प्रकार से बच्चों का पालन अराते हुए जब बिना किसी प्रतिफल कि भावना से बच्चों का भरण पोषण करते हैं , उनकी सब आवस्यकताओं को पूरा करते हैं , उनको सुशिक्षा देने कि न केवल व्यवस्था जी करते हैं अपितु उनकी से ऊँची शिक्षा दिलाने का भी प्रयास करते हैं | सदा उनसे मीठा ही बोलते हैं | इस प्रकार माता पिता के सम्बन्ध में ऋग्वेद के अध्याय ५ मंडल ४३ के मन्त्र २ में इस प्रकार कहा गया है : –
आ सुष्टुति नमसा वर्तायध्ये ,
द्यावा वाजाय पृथ्वी अम्रिघ्रे |
पिता माता मधुवचा: सुहस्ता
भरेभरे नो यशासावविष्टाम || ऋग्वेद ५.४३.२ ||
शब्दार्थ : –
( अहं } मैं (सुष्टुति } उत्तम स्तुति से (नमसा) नमस्ते से (अम्रिध्रे )अजेय (द्यावा पृथ्वी) द्युलोक ओर पृथ्वी (वाजाय) बल या शक्ति हेतु (आ वर्त्यध्ये इच्छामि ) अपनी ओऊ लाने कि इच्छा से (यशसौ } यशस्वी (पिता माता ) पिता माता सम (म्रिधुवचा:) मीठा बोलने वाले (सुहस्ता ) सुन्दर हाथ वाले (भरे भरे ) प्रत्येक संकट मैं (न:) हमारी (अविष्टाम) रक्षा करें |
इस मन्त्र में माता पिता के कर्तव्यों का बड़े ही सुन्दर व सरल ढंग से उल्लेख किया गया है | मन्त्र कहता है कि माता पिता सदा मधुर बोलें , बड़े ही सुन्दर ढंग के दानी बनें, वह यशस्वी हों तथा संकट में पड़े अपनी सन्तान की रक्षा करें | यह माता पिता के मुख्य कर्तव्य इस मन्त्र में बताये गए हैं | |

मन्त्र कहता है कि माता पिता मधुर भाषी हों | मधुर भाषण से हमें अनेक विशेषताओं का ज्ञान होता है | जैसे मधुर भाषण करने वाला सदैव प्रसन्न रहता है | यह मीठा बोलने की विशेषता है कि जो मीठा बोलता है , उसे किसी के विरोध का सामना नहीं करना पड़ता| इसलिए उसे कोई कष्ट होता ही नहीं | जब कष्ट नहीं होता तो वह सदा प्रसन्न ही तो रहेगा | न तो उसे कोई दु:ख होगा तथा न ही उसे कोई तंग करेगा जिससे उसकी प्रसन्नता निरंतर बढती चली जाती है | अत: स्पष्ट है की म्रदुभाशी सदा प्रसन्न रहता है | जब वह मीठा बोलता है तो उसके वचनों से किसी को भी कष्ट नहीं होता अपितु उसके वचनों से सुख ही मिलता है | जिस के द्वारा किसी को सुख मिलता है तो वह निश्चित रूप से उसकी अच्छई कि चर्चा अनेक स्थानों पर करता है | इस प्रकार उसकी ख्याति भी दूर दूर तक फैलाती है | इस का नाम है वशीकरण | अर्थात मीठा बोलने से सब लोग स्वयं ही उस कि और खींचे चले आते हैं | इसा के अतिरिक्त मीठा बोलकर जीतनी सरलता से दुसरे को जीता जा सकता है, जीतनी सरलता से दुसरे को अपने बश में किया जा सकता है , उतनी सरलाता से दुसरे को वश में करने का कोई एनी उपाय नहीं | अत: मीठा बोलने को वशीकरण मन्त्र भी कहा जा सकता है और मीठा बोलने से संतान सुसंतान बनाकर माता पिता का अनुगमन करते हुए माता पिता के सामान ही मृदुभाषी बनेगी |

डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
१०४ – शिप्रा अपार्टमेन्ट ,कोशाम्बी
जिला गाजियाबाद ,उ.प्र.
चल्वार्ता :: ०९७१८५२८०६८