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सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें

ओउम
सुखी होने के लिए बुराईयों को छोडें
डा. अशोक आर्य
मानव प्रतिक्षण बुराईयों से घिरा रहता है . बुरा मार्ग जीवन का एक सरल मार्ग होता है , जिस प्र चलाकर वह शीघ्र ही धनपति बनाना चाहता है क्योंकि वह जानता है की सुखों की प्राप्ति धन से होती है . जब धन की प्राप्ति ताप से, पुरुषार्थ से होती है . ताप व पुरुषार्थ से उतना धन नहीं मिलता, जितना पाने की वह अभिलाषा रखता है , इसलिए उसे बुराई का मार्ग पकड़ना होता है . बुरे मार्ग से वह शीघ्र ही अपार धनो का स्वामी हो जाता है किन्तु यह अपार धन भी उसे सुखी नहीं होने देता . उसका मन उसे प्रत्येक समय धिक्कारता रहता है की तुने यह धन किसी से छिना है, किसी को दुःख देकर पाया है, यह किसी दुसरे का अधिकार था जिसे तुने ले लिया, इससे आशीर्वाद नहीं मिला सकता, यह धन कभी अपमान का , कभी तिरस्कार का कारण बन सकता है . इन विषयों को मन में ला कर वह सदा दुखी रहता है , रुग्न हो जाता है . चिकित्सक उसे दूध घी आदि पदार्थों के सेवन से ओकते हैं . इस प्रकार द्वार प्र कड़ी सैंकड़ों गाय धन के होते हुए भी वह दूध, घी, मक्कन आदि का उपभोग नहीं कर सकता . इसलिए ही कहा गया है की हम अपने अन्दर से बुराईयों को निकल बाहर करें. यजुर्वेद में भी इस विषय में ही चर्चा करते हुए इस प्रकार कहा गया है :-
माँ भेर्मा संचिक्या उर्ज घत्स्व ,
घिषने विड्वी सति विड्येथाम ,
उर्ज दधाथाम .
पाप्मा हटो न सोमा .. यजुर्वेद ६ .३५ ..
मन्त्र का भाव है कि : –
हे मानव ! तुम न तो डरो और न ही कांपो . अपने अंदर साहस ( शक्ति विशेष ) ग्रहण करो . हे द्युलोक और पृथ्वीलोक ! जिस प्रकार तुम दोनों दृढ हो, उस प्रकार हमें भी दृढ़ता दो .हमें शक्ति दो ताकि हमारे पाप नष्ट हों किन्तु सद्गुण नष्ट न हों .
यह मन्त्र हमें दो उत्तम शिक्षाएं देता है : –
१). हम कभी दरें नहीं : –
मन्त्र सर्वप्रथम यह उपदेश देता है कि हम कभी डरें नहीं तथा हम साहसी हों . स्प्सष्ट है कि जहाँ डर नहीं , वहां साहस ही काम करता है . जब तक डर है , जब तक भय है , तब तक साहस को ह्रदय मंदिर का प्रवेश द्वार बंद ही मिलता है, इस कारण वह मनुष्य के हृदयों में प्रवेश कर ही नहीं सकता . ज्यों ही भय बाहर आता है तो प्रवेश द्वार खुल जाता है तथा साहस तत्काल इसमें प्रवेश कर जाता है . इस लिए ही मानव को कहा गया है कि हे मानव ! तुम डरो नहीं सदा साहसी बने रहो. जिस प्रकार भयभीत व्यक्ति के अन्दर साहस प्रवेश नहीं कर सकता, उस प्रकार ही साहसी के अंदर भय भी प्रवेश नहीं कर सकता .
डरपोक व भीरु व्यक्ति तो प्रतिक्षण भय से ही भयभीत रहता है . जो दुःख आ गया, जो कष्ट आ गया, उस से तो प्रत्येक व्यक्ति ही डरता है, उसके भय से बचने का यत्न करता है किन्तु जो भयभीत व्यक्ति होता है, वह न आये कष्ट से ही भयभीत होता रहता है . उसे इस बात का कष्ट होता है कि कहीं उसे हानि न हो जावे, कहीं कोई चोर उसकी सम्पति का न उडा ले जावे, कहीं कोई उसको चोट न पहुंचा देवे , इस प्रकार के भय से वह प्रति घड़ी भयभीत रहता है . इस का कारण भी है , उसके पास जो भी आकूत धन वैभव होता है वह दूसरे से छीना होता है, दूसरे के अधिकार पर अतिक्रमण कर पाया होता है, दूसरे के कष्टों का परिणाम होता है . स्वयं का इसमें कुछ भी पुरुषार्थ नहीं होता. अत: जिस प्रकार उसने यह धन अर्जित किया होता है, कोई अन्य उससे भी अधिक शक्तिशाली व्यक्ति उससे भी छीन सकता है, यह भय ही उसे सदा सताता रहता है . जो अभी जीवन में देखा नहीं , कहीं वह सामने न आ जावे , इस अनागत भय से वह भयभीत रहते हुए धीरे धीरे रोग ग्रस्त हो जाता है तथा कई बार तो अपनी जीवन लीला भी इस कारण समाप्त कर बैठता है .
इस लिए वेद मन्त्र कहता है कि हे मानव ! तू जीवन में ऐसे काम कर कि भय तेरे पास न आवे . यदि तू अच्छे साधन अपनावेगा तो सदा सुखी रहेगा, किसी प्रकार का भय तेरे पास तक भी न आवेगा, अच्छे काम करने से सब लोग तेरे बताये मार्ग पर बढेंगे , तेरी मित्र मंडली में भी अच्छे लोगों की वृद्धि होगी, जो तेरे यश व कीर्ति को दूर दूर तक ले जाने का कारण बनेंगे . इस लिए बुराईयों को छोड़ तथा साहसी बन .
२). पापों को नष्ट करें :-
मनुष्य जो प्रति क्षण अनागत भय से सदा कांपता रहता है, अनागत भय से ही सदा भयभीत रहता है , उसका कारण होता है उसका अपना ही पाप से भरपूर आचरण . वह अपने आचरण को पाप पूर्ण मार्ग पर चलाता है ,प्रति घडी वह दूसरों का अहित सोचता रहता है . वह स्वयं तो पुरुषार्थ करता नहीं, स्वयं तो मेहनत करता नहीं किन्तु अत्यधिक धन वैभव को प्राप्त करने के लिए दूसरों के पुरुषार्थ से प्राप्त धन को बलात छीनने का यत्न करता है . दूसरे की सम्पति को स्वयं पाने के लिए गलत मार्ग पर चलता है. इस निमित लुट – पाट तथा मार – काट तक की चिंता नहीं करता. अनेक बार तो वह अपने ही सगे – सम्बन्धियों की सम्पति पाने के लिए उनका बध तक करने में भी संकोच नहीं करता . अर्थात रिश्तों से अधिक वह संपत्ति को , धन को अधिमान देने लगता है . इस प्रकार से हस्तगत हुयी सम्पति ही उसकी चिंता का कारण बन जाती है .एसा कोई क्षण नहीं होता, जब उसको यह चिंता न सता रही हो कि उसने जो सम्पति दूसरे से अर्जन की है, वह अपनी इस सम्पति को वापस पाने के लिए अपने आप को सशक्त कर अथवा किसी शक्तिशाली का सहयोग ले उसे भी हानि न पहुंचा देवें, उससे अपनी सम्पति पुन: वापिस न छीन लेवें, उसका किसी सभा मैं अपमान न कर देवें . यह चिंता उसे अन्दर ही अंदर खाते हुए रोगी कर देती है, अन्दर से खोखला कर देती है ,जिस कारण वह खाना पीना तक छोड़ देता है . फिर इस प्रकार से अर्जित की संपत्ति का उसे क्या लाभ .?
जब वह इस सम्पति को बिना पुरुषार्थ के प्राप्त करता है तो अनेक प्रकार के दुर्व्यसन भी उसे घेर लेते हैं . भयभीत अवस्था में रहने के कारण वह इस भय से मुक्त होने के लिए प्रयास करता है किन्तु भय है कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ता . इस भय से बचने के लिए तथा उडी हुयी नींद को पाने के लिए उसे अनेक प्रकार की बुराईयों का सहारा लेने के लिए बाधित होना पड़ता है . इन बुराईयों में जो बुराई उसे सबसे सरल लगती है ,सर्वप्रथम उसे अपने जीवन का अंग बना लेता है , इस बुराई का नाम है नशा. वह नशा करने लगता है . नशा में वह आरम्भ तो शराब व तम्बाकू से करता है किन्तु धीरे धीर सब प्रकार के नशों का वह आदि हो जाता है . उसकी मित्र मण्डली में भी इस प्रकार के लोग ही आ जाते हैं जो तम्बाकू, शराब, स्मैक का नशा लेते हैं तथा जुआ व वेश्यागमन भी करते हैं , वह भी उन सब का साथ बखूबी निभाने लगता है, जिससे उसके अन्दर से दया की भावना चली जाती है तथा जो धन उसने दूसरे पर क्रूरता करके छीना था , वह भी धीरे धीरे लुप्त होने लगता है. उसके परिवार व मित्रों में भी उसके साथ लडाई -झगडा व कलह होने लगती है . परिवार की शान्ति भी नष्ट हो जाती है . शान्ति के नष्ट होने का प्रभाव स्वास्थ्य पर भी पड़ने लगता है, स्वास्थ्य भी धीरे धीरे गिरने लगता है , इन्द्रियां शिथिल होने लगती हैं तथा चारपाई ही उसका सहारा बन जाती है .
जब वह दुर्व्यसनों में फंस जाता है तो उसकी सात्विक वृति नष्ट हो जाती है . जिससे उसका ह्रदय निर्बल हो जाता है . उसका मनोबल भी धीरे धीरे गिरता ही चला जाता है . इतना ही नहीं उसके शरीर के मुख्य अंग कांपने लगते हैं . जिसमें मनोबल ही नहीं रहा , शरीर के सब बल , सब शक्तियां निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति का साथ छोड़ जाती हैं . इस लिए यह मन्त्र शिक्षा देता है कि : –
यदि अपने ह्रदय को साहस से भरपूर रखोगे , अपने शरीर में शक्ति तथा उत्साह बनाए रखोगे तथा आने वाली विपत्ति का प्रतिकार करने के लिए तैयार रहोगे , तो तुम्हारा कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता . कहा भी है कि जब मनुष्य में साहस आ जाता है, जब मानुष में शौर्य आ जाता है, जब उसमें वीरता आ जाती है तो उसका सब भय स्वयं ही काफूर हो जाता है . इसलिए नीतिशास्त्र यह शिक्षा देता है कि भय से तब तक ही डरो , जब तक वह दूर है . किन्तु भय के समीप आने पर उससे छुपने से वह हमारे नाश का कारण होता है अत: भय समीप आने पर उसका तत्काल प्रतिकार करो . प्रतिकार के लिए हमारी बुद्धि तत्काल जो भी उपाय बताये , उस पर चलते हुए उसका प्रतिकार करो , उसका मुकाबला करो . साहसी बन कर जब मुकाबला करोगे तो भय टिक न पावेगा तथा आपसे दूर भाग जावेगा .
आचार्य विष्णु शर्मा ने एक राजा के बिगड़े हुए राजकुमारों को शिक्षित करने के लिए एक नीति ग्रन्थ की रचना की थी, जिसका नाम रखा था हितोपदेशे . संस्कृत में लिखे इस ग्रन्थ में उसने पशुओं व पक्षियों की कहानियों के माध्यम से नीति के गहन विषयों को बड़ी सरल भाषा से समझाया है . इस ग्रन्थ में ही एक स्थान पर लिखा है :
तावद भयस्य भेतव्यं , यावत् भायामानागातम
जागतं तू भयं बिक्ष्य , नर , कुर्याद यशोचितम . .,हितोपदेशे मित्र . .. ५६..
मन्त्र जो अन्य शिखा देता है , वह है :-
पाप नष्ट हों : –
मन्त्र कहता है कि मानव के सुखी जीवन के लिए उसे पापमुक्त होना आवश्यक है . हमने देखा है कि पापपूर्ण आचरण ही उसके दुखों का कारण होता है जबकि सद्गुण उसके धन एश्वर्य व कीर्ति को बढाने वाला होता है . इसलिए मन्त्र कहता है कि हे प्रभु ! हमारे पापाचरण को दूर कर हमारे सद्गुणों को बढाईये . ताकि हम सब प्रकार के भय से मुक्त हो निर्भय हो जावें . हम जानते हैं क़ि पाप का भय से सीधा सम्बन्ध होता है . हम देखते हैं कि एक कुते को भी जब हम रोटी डालते हैं तो वह दुम हिलाते हुए हमारे समीप बैठ कर बड़े चाव से उस रोटी को खाता है किन्तु वही रोटी जब वह् पाप पूर्ण आचरण को अपनाते हुए कहीं से चुरा कर लाता है तो वह रोटी को उठा कर कही दूर किसी कोने में छुप कर खाता है क्योंकि वह जानता है कि यदि पकड़ा गया तो मार पड़ेगी . एक कुता जब पाप के मार्ग से इतना भयभीत है तो मनुष्य क्यों न होगा . इसलिए प्रभु से प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पाप के मार्ग से हटा कर सद्मार्ग पर लावे , हमें निर्भय बनावे. पापों को नष्ट करने से ही मानव निर्भय होता है . हम अपने जीवन से पाप पूर्ण आचरण को निकाल कर निर्भय हो कर जब जीवन व्यापार करेंगे तो हम मन्त्र की धारणा के अनुसार जीवन यापन कर सुखों को पाने में सफल होंगे .
डा. अशोक आर्य

अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें

ओउम
अमृत्व को पाने के लिए सदाचार के मार्ग पर चलें
डा. अशोक आर्य
प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा होती है की वह दु:खों से दूर रहे, सदा सुखों की छाया उस पर बनी रहे | वह ऐसे काम करे जिस से उसका नाम सर्वदिक हो | दुर्गुण उसके पास न आवें | सद्गुणों से निरंतर वह अपना जीवन सुखी बनाए तथा संसार को भी सुखी बनाने में उसकी भूमिका स्पष्ट दिखाई दे, एसा प्रयास उस का रहता है क्योंकि वह अमृत्व को पाने की अभिलाषा रखता है , उत्कृष्ट , सुन्दर व लम्बी आयु पाने की अभिलाषा के साथ वह निरंतर देवों की और बढ़ना चाहता है , अमृत्व को प्राप्त करना चाहता है | यजुर्वेद के अध्याय ४ के मन्त्र संख्या २८ में इस ओर ही संकेत किया गया है ,जो इस प्रकार है : –
परि माग्ने दुश्चरिताद बाधस्वा माँ सुचरिते भव |
उदायुषा स्वायुशोदस्थाममृतान्म अनु || यजु. ४.२८||
शब्दार्थ : –
हे अग्ने ) अग्नि स्वरूप परमात्मा (मा) मुझे (दुश्चरितात) दुर्गुणों से (परि बाधस्व ) हटाईये (मा ) मुझे (सुचरिते) सद्गुणों की ओर (आ भज ) स्थापित कीजिये (उदायुष) उतम गुणों से भरपूर आयु से (स्वायुषा ) सुन्दर आयु से ( अमृतान अनु ) उठूँ |
भावार्थ –
हे अग्नि स्वरूप परमात्मा ! मुझे दुर्गुणों से हटा कर सद्गुणों की ओर लगाईये |सुन्दर व उत्कृष्ट आयु से मैं देवत्व अर्थात अमृत्व की ओर उठूँ |
इस मन्त्र में यह प्रार्थना की गयी है कि वह हमें पापों से बचा कर , दुर्गुणों से बचाकर पुण्य मार्ग पर सद्गुणों के मार्ग पर प्रवृत करे | प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि उसका नाम संसार में सर्वत्र आदर व सन्मान से लिया जावे | जब अच्छे लोगों कि गणना हो तो उसका नाम सर्वोपरि हो | क्या यह दुर्गुणों से युक्त प्राणी के लिए संभव है ? दुर्गुणों से युक्त व्यक्ति तो कटुता से भरा होता है | ऐसे व्यक्ति को आदर, सन्मान कौन देगा ? कौन उसका नाम आदर से लेगा ? कोई नहीं | वह देवत्व को कभी प्राप्त नहीं कर सकता, उसका नाम अच्छे लोगों की सूची में कभी नहीं आ सकता सन्मान तो अच्छे लोगों का होता है अत: सन्मानित स्थान पाने के लिए काम भी ऐसे करने होंगे जिससे लोग सन्मान करें | इस लिए ही इस मन्त्र में अग्निरूप परमात्मा से प्रार्थना की गयी है कि हे प्रभु ! मैं दुर्गुणों को ,दुर्व्यसनों को पाप के मार्ग को छोड़ कर सद्गुणों को ग्रहण करूँ , सुखों के पुण्य के मार्ग को प्राप्त करूँ | यह सब आत्मिक शक्ति से ही संभव है | यह शक्ति परम पिटा परमात्मा की दया से ही प्राप्त होती है | यह आत्मिक शक्ति ही हमें दुगुनों व दुर्विचारों से रोकती है, इन से हमें बचाती है |
आत्मिक शक्ति कहाँ से आती है :-
आत्मिक शक्ति उसे ही मिलाती है, जिस पर उस परम पिता परमात्मा की कृपा हो | परमात्मा की दया दृष्टि के बिना हम आत्मिक शक्ति नहीं पा सकते | जब हम प्रभु की प्रार्थना करते हैं , उस की उपासना करते है , दूसरे शब्दों में जब हम प्रभु के गुणों को समझ कर उस के समीप बैठ कर उससे कुछ उपदेश लेते हैं तथा उस उपदेश के अनुरूप अपने आप को बनाते हुए अपने दुर्गुणों , दुर्विचारों, कुटिल विचारों व पापों को छोड़ देते हैं तो हम स्वयमेव ही सद्गुणों की ओर प्रवृत होते हैं , सद्गुण हमारे ह्रदय में अपना डेरा जमाते चले जाते हैं | इससे हमारा काया कल्प ही हो जाता है |
ईश्वर के आशीर्वाद से जिस मानव का कायाकल्प हो जाता है , वह फिर दुर्विचारों पर मंत्रणा कर ही नहीं सकता, दुर्विचार अब उस के अन्दर प्रवेश कर ही नहीं सकते | अब वह सदैव उत्तम चर्चा में ही लीन्र रहता है | उत्तम चर्चा से न केवल स्वयं ही उत्तम बनने का प्रयास करता है अपितु अन्यों को भी उत्तम मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है | इस प्रकार उसके प्रयास से न केवल अपना ही जीवन उन्नत होता है अपितु साथ ही साथ समाज भी उन्नति की ओर अग्रसर होता है | इस को ही उदायुषा तथा स्वायुषा कहा गया है | इसे ही उत्तम व सुन्दर आयु कहा गया है |
मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है मोक्ष की प्राप्ति | यह उत्तम आयु का ही फल होता है | जब मनुष्य सदैव उत्तम कर्म करता है तो उस को सर्वत्र यश व कीर्ति की प्राप्ति होती है , सर्वत्र उस का नाम सन्मान से लिया जाता है , यह यश कीर्ति व सन्मान ही तो उस के जीवन का सजीव समारक है , जिसे पा कर वह अपने आप को धन्य अनुभव करता है | यह सन्मान , यह , यश , यह कीर्ति अच्छे कर्मों से , अच्छे कामों से ही प्राप्त होती है | इस को ही मानव जीवन में अमृत्व का मार्ग बताया गया है | इस मार्ग को ही देवत्व का मार्ग बताया गया है | देवत्व की साधना के लिए हमें अमृतत्व की प्राप्ति करनी होगी | तब ही हम जीवन के अंतिम लक्ष्य को पा सकेंगे |
इस प्रकार मन्त्र हमें बताता है की हे मानव, यदि तू सद्गुणों को अपनावेगा तो तू अपने जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को पा सकता है | मोक्ष को पाने के लिए तुझे देवत्व की प्राप्ति करनी होगी | देवत्व को पाने के लिए अमृत्व को पाना होगा तथा अमृत्व को पाने के लिए तुझे दुर्गुणों का त्याग कर अच्छे गुणों को , सद्गुणों को अपने अन्दर लाना होगा | अत: हे मानव तू अपने दुर्गुणों को, पापाचारों को छोड़ तथा सद्गुणों को अपना ताकि तुझे मोक्ष की प्राप्ति हो सके | मोक्ष प्राप्त करने के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है | अत: निरंतर इस मार्ग पर ही आगे बढ़ , सफलता निश्चित रूप से मिलेगी |
डा. अशोक आर्य

प्रतिदिन प्रभु के चरणों में बैठ कर उसकी प्रार्थना करें

ओउम
प्रतिदिन प्रभु के चरणों में बैठ कर उसकी प्रार्थना करें
डा. अशोक आर्य
जिस परमपिता परमात्मा की असीम कृपा से हम इस संसार में आये हैं | उस प्रभु ने हमें ज्ञान का सागर दिया है | इस में हम डुबकी लगाकर प्रतिदिन मोती चुनने का प्रयास करते रहते हैं | इस प्रभु की ही अपार कृपा से हमें अनेक प्रकार की सुख सुविधाएं प्राप्त की हैं | जिस प्रभु ने हमें अपार धन – दौलत, सुख – शान्ति तथा बुद्धि दी है ,हमारा भी कर्तव्य है कि हम प्रतिदिन उस प्रभु के समीप बैठ कर उसकी प्रार्थना करें | यजुर्वेद के अध्याय ३ मन्त्र २२ में भी यही श्हिक्षा दी गयी है | मन्त्र इस प्रकार है : –
मन्त्र : –

उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयं |
नमो भरन्त एमसि || यजुर्वेद ३.२२ ||
शब्दार्थ : –
(अग्ने) हे अग्नि स्वरूप परमात्मा ( वयं) हम ( दिवे दिवे ) प्रतिदिन (दोषावस्त:) रात्री और दिन में (धिया) बुद्धि से (नाम: ) नमस्ते (भरन्त:) करते हुए ( त्वा) तेरे (उप) समीप (एमसि) आते हैं |
भावार्थ : –

हे अग्निरूप परमपिता परमात्मा ! हम प्रतिदिन प्रात: सायं अत्यंत श्रद्धा पूर्वक बुद्धि से आपको अभिवादन अर्थात नमस्ते करते हुए आपके समीप आवें |
मानव प्रतिक्षण उन्नति देखना चाहता है | वह जिस भी क्षेत्र में कार्यशील है, उस क्षेत्र में प्रति- दिन उन्नति चाहता है | वह आगे बढ़ने की अभिलाषा रखता है | वह दूसरों को अपना प्रतिद्वंद्वी समझता है तथा उसकी यह इच्छा रहती है कि वह अन्य सब लोगों से आगे निकल जावे | इस निमित उसे अत्यधिक परिश्रम की , पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है | अनेक बार केवल मेहनत, केवल पुरुषार्थ ही काम नहीं आता | असफलता की अवस्था में वह अपने आप को धिक्कारता है | उस में हीन भावना आ जाती है | इस हीन भावना के वशीभूत अनेक बार तो वह अपने आप को समाप्त तक करने की ठान लेता है | इस अवसर पर उसे आवश्यकता होती है किसी सहायक की, जो उसे इस संकट काल में दिलासा देकर पुन: परिश्रम की प्रेरणा दे |

आज का मानव इस बात को जानते हुए भी भूल गया है की जिस प्रभु ने हमें जन्म दिया है , वह प्रभु बड़ा महान है | उस की इच्छा के बिना तो किसी वृक्ष का पता भी नहीं हिल सकता | मानव को यह जानना होगा कि जिस प्रकार हम अपने जन्मदाता माता – पिता तथा बुद्धि के भंडार गुरुजनों के समीप बैठ कर ज्ञान को प्राप्त करते है , दिशा – निर्देश लेते हैं , ठीक उस प्रकार ही उस प्रभु के समीप बैठ कर उससे भी मार्ग – दर्शन व निर्देशन प्राप्त करें | प्रतिदिन प्रात: व सायं ईश्वर के समीप बैठकर उसकी उपासना करें | यह ही मानव की उन्नति का सर्वश्रेष्ठ साधन है | अत: जिस प्रकार माता पिता व गुरुजन के समीप बैठ कर हमें अपार आनंद मिलता है, स्नेह व ज्ञान मिलता है, ठीक उस प्रकार ही जब हम प्रभु के समीप अपना आसन लगा कर , उसके समीप बैठकर प्रतिदिन दोनों काल उसे स्मरण करेंगे तो वह प्रभु भी दयावान है | हमारे पर अवश्य ही दया करेगा, हमे अवश्य ही दिशा – निर्देश देगा , | इस प्रकार उस प्रभु के समीप बैठ कर उस की उपासना पूर्वक स्तुति करने से हमारा मनोबल बढेगा, आत्मिक शक्ति प्राप्त होगी , आत्मिक शक्ति मिलने से हम ज्ञान विज्ञान को बड़ी सरलता से प्राप्त करने में सफल होंगे | जब हम सब प्रकार के ज्ञान विज्ञान के अधिपति हो जावेंगे तो हमें अत्यंत हर्षोल्लास अर्थात आनंद मिलेगा |
इस संसार में आनंद का स्रोत यदि कोई है तो वह एक मात्र परमात्मा ही है | वह परमात्मा ही आनंद को देने वाला है , वह प्रभु ही सब प्रकार के ज्ञान का देने हारा है | इतना ही नहीं वह परमपिता परमात्मा ही हमें शक्ति देने वाला है | अत- अपने जीवन को सुखद बनाने के लिए , सब प्रकार की सम्पति, ज्ञान ,विज्ञान , मनोबल, आत्मिक शक्ति व आनंद को पाने के लिए हमें उस प्रभु की गोदी को पाना आवश्यक हो जाता है | उस परमात्मा के समीप बैठना आवश्यक हो जाता है | परमात्मा के समीप बैठने की भी एक विधि हमारे ऋषियों ने हमें दी है | इस विधि को संध्या कहा गया है | अत: यदि हम अपने जीवन में मधुरता भरना चाहते हैं , अपने जीवन को सुखमय बनाना चाहते हैं , अपने जीवन को आनंदित रखना चाहते है , आत्मिक शक्ति से भरपूर रखना चाहते हैं तथा प्रत्येक प्रकार के ज्ञान विज्ञान के स्वामी बन उन्नति पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं तो प्रतिदिन प्रात: व सायं संध्या काल में उस परम पिता परमात्मा की साधाना करने के लिए उस प्रभु के पास अपना आसन लगायें, उसके समीप बैठ कर उस से प्रार्थना करें तो हम अपने कार्य में सिद्ध हस्त हो कर अनेक सफलताएं पा कर उन्नति को प्राप्त होंगे | अत: प्रतिदिन दोनों काल ईश्वर के समीप बैठ कर उस का आराधन आवश्यक है |

डा. अशोक आर्य

स्वर्गिक आनन्द के लिए पति पत्नि क्रोधित न हों

ओ३म
स्वर्गिक आनन्द के लिए पति पत्नि क्रोधित न हों
डा. अशोक आर्य
पति पत्नि दोनों ही सपत्नक्षित अर्थात शत्रुओं का नाश करने वाले बनें । कभी तैश या गुस्से में न आवें । इससे घर स्वर्ग बन जाता है । इस बात को यजुर्वेद अध्याय १ का मन्त्र संख्या २९ इस प्रकार कह रहा है :-
प्रत्युष्ट ^M\ प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्ट्प्त ^M\ रक्शो निष्टप्ताऽअरातय: ।
अनिशितोऽसि सपत्नक्शिद्वाजिनं त्वा वाजेध्यायै सम्मार्ज्म ।
प्रत्युष्ट ^M\ रक्श:प्रत्युष्टाऽअरातयो निष्ट्प्त ^M\रक्शोनिष्टप्ताऽ अरातय: |
अनिश्चिताऽअसि सपत्नक्शिद्वाजिनी त्वा वजेध्यायै सम्मार्ज्मि ॥
यजुर्वेद १.२९ ॥
इस मन्त्र में परमपिता परमात्मा तीन बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए उपदेश करते हैं कि :-
१. हम सपत्न बनें :-
इस मन्त्र में शत्रुओं का नाश करने वाले पति पत्नि का , घर के दोनॊं मुखियाओं का उल्लेख किया गया है ।
हमारे घर में शत्रु कौन हो सकता है । मन्त्र कहता है कि कोई भी पत्नी नहीं चाहती कि उसकी कोई सौत हो । सौतिया डाह घर की बहुत बडी शत्रु होती है तथा नाश का कारण होती है । इस सौतिया विरोध से अनेक घरों का नाश होते देखा गया है । प्रत्येक क्षण घर में लडाई – झगडा कलह क्लेश मचा रहता है । कभी काम के नाम से , कभी बात चीत में मीन मेख निकालने से तो कभी वस्त्राभूषण आदि की इच्छा से यह झगडा निरन्तर होता ही रहता है । इस झगडे के कारण घर में कोई भी काम ठीक से सम्पन्न नहीं हो पाता और यदि कोई काम सम्पन्न हो भी जाता है तो भी उसमें अनेक प्रकार की कमियां रह जाती हैं इस लिए परिवार में सपत्नी ही होना चाहिये । एक से अधिक पत्नियों का रखना विनाश को निमन्त्रण देने के समान ही होता है । कुछ एसी ही अवस्था पुरूष की भी होती है । जो पुरुष स्पत्न होता है अर्थात जो पत्नि अनेक पतियों वाली होती है , उसके घर पर भी कभी शान्ति की आशा सम्भव नहीं होती । एक से अधिक पति होने से भी झगडे ही होते रहते हैं । इसलिए मन्त्र कहता है कि घर में पति पत्नि मिल कर शत्रुओं का नाश करें अर्थात एक पति तथा एक पत्नि व्रत लेकर घर के सब काम शान्ति से करने का संकल्प लें ।
२. एक पत्नि व्रत से शक्ति का दीपन :-
क).
मन्त्र कहता है कि हमें चाहिये कि हम अपनी सब राक्षसी प्रव्रितियां नष्ट करें , इन्हें जला दें, दग्ध करदें । इस के लिए हमें निरन्तर प्रयास रखना होता है ताकि हम एक एक कर इन्हें नष्ट करते चले जावें । राक्षसी प्रवृतियां क्या होती हैं ? , कौन सी होती है । हमारी जिस चेष्टा से किसी को हानि पहुंचे , किसी को दु:ख हो , किसी को क्लेष हो , इस प्रकार के सब कार्य राक्षसी प्रवृतियों के क्षेत्र में आते हैं । हमारे काम , क्रोध , मोह , लोभ , अहंकार आदि भी इन बुरी आदतों का ही भाग होते हैं । हम यत्न से इन सब को त्याग कर अपने घर को स्वर्ग बना सकते हैं ।
ख).
दान की वृति मानव के लिए दान की प्रवृति मुक्ति का उत्तम साधन है । अदानी अर्थात जो दान नहीं करते , वह अच्छे नहीं माने जाते । दान करने की ख्याति तो चतुर्दिक जाती ही है , उसका समाज में सम्मान भी बढता है । इस के साथ ही साथ ,जिनके पास साधन कम होते हैं , उनको भी सुख पूर्वक जीने का अवसर मिलता है । इस लिए हम एसा प्रयास करें कि हमारी अदान की वृतियां भी भस्म हो जावें , नष्ट हो जावें ।
घ).
हम प्रभु सेवा में रहें , कठोर तप करें । तप हमारी सब प्रकार की बुराईयों को दग्ध करने का कार्य करता है , हमारी बुराईयों को जलाने का कार्य करता है । इसलिए हम तप द्वारा भी धीरे धीरे अपनी अदानता की आदतों को नष्ट कर दें , भस्म कर दें , जला दें और फ़िर इस के स्थान पर दान की आदतों को ग्रहण करें ।
ड).
हम कभी भी अपने व्यवहारिक जीवन में तेजी न आने दें । क्रोध विनाश का कारण होता है । जब परिवार में क्रोध किया जाता है तो परिजनों का दिल दुखता है । दुखित दिल से कभी कोई उत्तम काम नहीं हो पाता । दु:खित मन से किया कार्य भी सुख देने वाला नहीं होता । सुख की कमना के लिए उतेजित जीवन , झगडालु वृति, बात बात पर तैश में आना उत्तम नहीं है । विशेष रुप से पत्नि से तो माधुर्य बना कर ही व्यवहार करना चहिये क्योंकि घर के अन्दर के सब व्यवहार पत्नि ही करती है । वह प्रसन्न होगी तो घर के अन्दर वह सुख पूर्वक हंसते हुए सब काम करेगी । ख़ुशी से सुखी रहते हुए बनाये गए पदार्थों का उपभोग करने वाले भी सुखी रहेंगे , प्रसन्न रहेंगे ।
च).
अनेक बार एसा होता है कि घर मे कभी कुछ मनमुटाव हुआ तो पति ने पत्नि से बोलना ही बन्द कर दिया तथा उसे दु:ख देने के लिए दूसरी पत्नी ले आये । यह विधि विनाश की होती है । कई बार पत्नि भी एसी ही भूल कर बैठ्ती है । इस से घर का झगडा और भी बढ जाता है । कभी तलाक तथा कभी आत्म हत्या अथवा हत्या का कारण बनती है । सप्तनियों का होना परिवार के लिए सदा हानि क कारणहोता है , दु:ख का कारण होता है , इससे सदा बचना चहिये । इसे परिवार में प्रवेश ही नहीं करने देना चाहिये ।
छ).
जब हम एक पत्नि तथा एक पति का व्रत लेते हैं तो हमारे चित मे खुशी की लहर रहती है , कुछ निर्माण की इच्छा होती है किन्तु अनेक पति या अनेक पत्नि से चित की शान्ति नष्ट हो जाती है । अनेक पति अथवा अनेक पत्नि शारीरिक दुर्बलता का कारण भी बनती है । कुछ तो कामुक वृतियों से तथा कुछ झगडों के कारण शक्ति क्षीण हो जाती है । अत: एक पत्नी व्रत ही सम्यक रूप से शुद्धि का कारक होता है । यह शक्ति को दीप्त करता है ।
३.
यह सब जो पति के लिए कहा गया है , पत्नि के लिए भी समान रूप से पालनीय होता है । यथा :-
क)
हे वधु !, हे पत्नि ! तेरे अन्दर जितनी भी दुष्ट प्रवृतियां हैं , जितनी भी बुरी आदतें है, जितने भी काम क्रोध आदि हैं , वह सब नष्ट हो जावे , वह सब जल कर समाप्त हो जावें , द्ग्ध हो जावें ।
ख)
नारी में तो वैसे ही दान की अत्यधिक भावना होती है तो भी हे गृह्पत्नि ! तेरे अन्दर कभी क्रपणता के दर्शन न हो , कभी अदान की व्रति न आवे , सदा दान शील ही बनी रह्रे , यज्ञय भावना हो , दूसरों की सेवा व सहायता की तूं देवी हो । इससे तेरी एश्वर्यता स्थापित होगी तथा सब लोग तेरा सम्मान करेंगे ।
घ). एक पति व्रत से सुख सम्रद्धि :-
यदि तेरे अन्दर अदान की वृति है तो इसे अत्यधिक सन्तप्त करो ताकि यह दूर हो जावें ।
ड).
तूं गृह लक्षमी है । इसलिए यह तेरा कर्तव्य है कि तूं कभी तेज मत बोल , तूं कभी क्रोध मत कर । एसे मीठे वचन बोलो कि जिससे सब का मन हर्षित हो , खुश हो । इस से सब लोग तेरी प्रशंसा करने वाले बनेंगे , तेरे प्रशंसक बनेंगे ।
च).
तूं सदा पतिव्रत धर्म का पालन करते हुए एक पति में ही प्रसन्न रह । अपने पति के अतिरिक्त किसी को सपत्न नहीं बनाना । एक पति व्रत से सदा खुश रहेगी तथा सब को खुश रखेगी भी । अन्यथा घर जो है , वह कलह , क्लेश का केन्द्र बन जावेगा ।
छ).
जब तूं पतिव्रत धर्म का पालन कर रही होगी तो तेरा जीवन स्वयमेव ही संयमी बन जावेगा । इस तथ्य को जान ले कि संयमी जीवन जीने वाले के शरीर में ही सब प्रकार की शक्तियों का निवास होता है । इस प्रकार प्रभु इस मन्त्र के माध्यम से कह रहे हैं कि हे शक्तिशालिनी देवी रुपा नारी ! मैं तुझे शक्ति की दीप्ति के लिए , शक्ति के अवतार स्वरुप , शक्ति की देवी स्वरुप शुद्ध करता हूं तथा तुझे शक्ति से दीप्त करता हूं । में तुझे शक्ति से सम्पन्न करता हूं । जहां वासना नहीं है , वहां शक्ति का निवास होता है । जब तेरा जीवन वासना शून्य होगा तो निश्चय ही इस जीवन में शक्ति होगी और तूं सब शक्तियों की स्वामी होगी । इस के उलट यदि तूं वासनाओं में लिप्त रहेगी तो तूं यह समझ ले कि तूं ने मृत्यु का मार्ग चुना है , विनाश का मार्ग चुना है । अत: तेरा नाश निश्चित है । इसलिए नाश से बचने के लिए वासना शून्य बनना ।

डा. अशोक आर्य

प्रेम से रहने से सुख , शान्ति व समृद्धि

ओउम
प्रेम से रहने से सुख , शान्ति व समृद्धि
डा. अशोक आर्य
जो लोग ज्ञान से युक्त होते हैं , वह अपने जीवन को यज्ञमय बनाते हैं तथा अन्य लोगों को लडाई आदि से दूर रखते हुए उन्हें प्रेम , शान्ति से रहने की शिक्षा देते हैं । इस प्रकार ही हमारी पृथ्वी शान्ति स्वरुप चन्द्र में स्थित होगी , यह सुख ,. शान्ति व समृद्धि से भर जावेगी । इस बात को मन्त्र इस प्रकार समझा रहा है :-
पुरा क्रूरस्य विस्रपो विरप्शिन्नुदादाय प्रथिम जीवदानुम । यमैरयंश्चन्द्रमसि स्वधाभिरस्ताम धीरासोऽअनुदिश्य यजन्ते प्रोक्शणीरासादय द्विषतो वधोऽसि ॥ यजु. १.२८ ॥
हम अपने जीवन में अनेक प्रकार के युद्ध करते हैं । वास्तव में हमारा जीवन है ही एक संग्राम । इस जीवन संग्राम में हम जो अनेक प्रकार के युद्ध करते हैं , उन युद्धों में कुछ तो अपने अन्दर के शत्रुओं यथा काम , क्रोध आदि से तथा कुछ बाहर के शत्रुओं , हमारे विरोधियों या देश व धर्म के शत्रुओं से होते हैं । मन्त्र कहता है कि हम इन युद्धों से दूर रखने के लिए अपने जीवन को यज्ञमय बनावें । इस से स्पष्ट होता है कि यज्ञमय जीवन हमें युद्धों से रोकता है , लडाई झगडे की और प्रवृत करने के स्थान पर इन से बचाता है । इसलिए हम, अपने जीवन को यज्ञ बनावें । मन्त्र के आलोक में जब हम विचार करते हैं कि अपने जीवन को यज्ञमय बनावें तो पहले हमे यह जानना आवश्यक हो जाता है कि यह यज्ञा है क्या ,जिसके समान हमें अपना जीवन बनाने के लिए यहां कहा गया है ?
यज्ञ क्या है ? :-
यज्ञ क्या है ?, इसे जानने के लिए हमें अग्निहोत्र की सब क्रियाओं को समझना होता है , जो कि इस यज्ञा का ही एक मुख्य स्वरुप है । जब हम नित्य प्रति हवन करते हैं तो हम जानते हैं कि इस हवन को भी वेद में यज्ञ कहा है । यह हवन भी देव है , देवता है । इस सब को देखते हुए , इस के भाव को समझते हुए हम कह सकते हैं कि जो देता है वह देव है अथवा वह देवता है । हम यज्ञ कुण्ड में समिधा रखते हैं । इन समिधाओं को जला कर इन पर अनेक प्रकार की आहुतियां देते हैं । यह आहुतियां घी , सामग्री , फ़ल , दूध या पौष्टिक पदार्थ हो सकते हैं । इसमें अनेक रोग नाशक , अनेक सुगन्धित व अनेक प्रकार के पौष्टिक पदार्थ डाले गये होते हैं । इन पदार्थों को डालने का उद्देश्य चाहे कोई भी रहा हो किन्तु एक बात स्पष्ट होती है कि इस में जो डाला गया है , वह तो यज्ञ कुण्ड ने लिया है , दिया कुछ भी नहीं , फ़िर यह देव कैसे हुआ ? देने वाला कैसे हुआ ? इसे जानने के लिए यज्ञ की , हवन की कुछ विषद व्याक्या को देखना आवश्यक हो जाता है ।
विज्ञान कहता है कि मैटर न तो कभी जलता है , न कभी सूखता है तथा न ही समाप्त होता है । इस आलोक में हम समझ जाते हैं कि जो कुछ भी हमने यज्ञ में डाला है , वह न तो जल कर नष्ट होता है , न गल कर तथा न ही किसी अन्य ढ̇ग से नष्ट होता है । तो फ़िर यह जाता कहां है ? इस के लिए हमें एक प्रयोग करना होगा । हम अग्नि में एक मिर्च का छोटा सा टुकडा डाल देवें । यह टुकडा डालने पर जितनी दूरी तक के लोगों को नीछें आने लगती हैं , कम से कम उतनी दूरी तक तो यज्ञ में डाले घी और सामग्री का प्रभाव तो जाता ही है । इतनी दूर तक के लोगों को यज्ञ के लाभ मिलते हैं , इसमें डाले पदार्थों का प्रभाव होता है तथा वह रोग रहित हो कर सुगन्ध व पौष्टिकता का लाभ उठाते हैं । इस प्रकार यज्ञ मे जो कुछ डाला गया उसे अग्नि ने स्वयं न खा कर सूक्षम करके वायु मण्डल को दे दिया तथा वायु मण्डल ने इसे दूर दूर तक के लोगों में बांट दिया , प्रसाद रूप में दे दिया । अत: यज्ञ का लाभ दूर दूर तक के लोगों को जाता है । अब हम इस स्थिति में हैं कि यज्ञ से लडाईयां कैसे रुकती हैं ?
मन्त्र कहता है कि अपने जीवन को यज्ञमय बना कर युद्धों को रोकें । जब हम यज्ञ करते हैं तो इससे हमारा बहुत सा समय यज्ञ में लग जाता है तथा लडाई – झगडे के लिए समय ही नहीं बचता । इस प्रकार यह एक विधि है , जिससे युद्ध रुकते हैं । दूसरे यज्ञ नाम है दान का । यज्ञ का भाव है दूसरों की सहायता करना , भूखे को रोटी देना , वस्त्र हीन को वस्त्र देना , अशिक्षित को शिक्षा देकर सहायता देना । अत: किसी भी प्रकार हम जब किसी दूसरे के काम आते हैं तो यह यज्ञ कहा जाता है । जब हम दान करते हैं , किसी को रोटी , कपडा या मकान आदि के लिए सहायता देते हैं तो इसका नाम भी यज्ञ है । अन्धे को सडक पार कराने का नाम यज्ञ है अर्थात वह सब कार्य जिससे दूसरे के लिए सहायता होती है, उसे सुपथ पर लाया जाता है , उसे जीवन दिया जाता है , तो उसे हम यज्ञ कह सकते हैं ।
इस प्रकार जो व्यक्ति दान देता है , दूसरे की सहायता करता है तो उसके विरोधी धीरे धीरे विरोध की भावना से दूर होते चले जाते हैं तथा एक दिन एसा भी आता है कि जिस दिन यह विरोधी ही उसकी रक्षा के लिए आगे आते हैं । जब विरोधी ही रक्षक बन जाते हैं तो युद्ध की तो सम्भावना ही नहीं रहती । इस प्रकार दूसरों की सहायता से हम अपने दुशमन को भी अपना बना लेते हैं तथा यज्ञ के कारण लडाई को हम रोक पाने में सफ़ल हो जाते हैं । इस सब के आलोक में मन्त्र के माध्यम से परम पिता परमात्मा हमें तीन बिन्दुओं के द्वारा इस प्रकार उपदेश कर रहे हैं :-
१. अंगभंग करने वाले युद्ध को दूर कर :-
हमारे युद्ध भी अनेक प्रकार के होते हैं । कुछ युद्ध तो गाली गलोच तक ही सीमित होते हैं तो कुछ एसे भयंकर होते हैं कि जिस से किसी का बाजू कट जाता है तो किसी का पैर कट जाता है या कोई शरीर के किसी अन्य स्थान से घायल हो जाता है | इस प्रकार के युद्ध प्राणी के लिए बहुत भयानक होते हैं । इससे बचना प्राणी मात्र के लिए अत्यन्त आवश्यक हो जाता है । आज तो एसे भयानक यन्त्र बन गये हैं , गये , जिनका प्रभाव आज भी जापान के लोगों को घेरे हुए है जब कि बम गिरे को पौन शताब्दी से भी अधिक समय निकल चुका है ।
इस लिए मन्त्र कह रहा है कि इस प्रकार के युद्धो के फ़ैलने से पूर्व ही इनका समाधान निकाल कर लोगों को इन से बचाओ । इन युद्धों से बचाने के लिए ज्ञान का उपदेश दो । शास्त्रों की चर्चा करो । कथा , कीर्तन करो । इन सब साधनों से लोगों के दिलों को ठीक दिशा में लाकर उनके दिल को जीतो और युद्ध के उन्माद से बचाओ । आप विशाल ह्रद्य वाले तथा ज्ञानी हो | अपने प्रयास से लडाईयों के बोझ से इस पृथ्वी को बचाओ । यह पृथिवि अन्न दान कर जीवन देने वाली है किन्तु जब इस पृथ्वी पर युद्ध के बादल छा जाते हैं तो उगी हुई फ़सलें भी नष्ट हो जाती हैं । जब फ़सल ही नहीं होगी तो भूख की तृप्ति कैसे होगी ? इस लिए अन्न के भण्डार भरने के लिए भी युद्ध से पृथ्वी को बचाओ । जब अन्न भरपूर होंगे तो लोगों की प्रसन्नता भी बढ जावेगी ।
हमारे पास हिमांशु , ओषधीश आदि है । जहां चन्द्र सुख शान्ति का प्रतीक है । जिस प्रकार चन्द्र्मा की चान्दनी शीतलता देने वाली होती है , प्रसन्नता देने वाली होती है , सुख देने वाली होती है । उस प्रकार ही ज्ञानी लोग भी सुख व शान्ति का साम्राज्य दूर दूर तक ले जाने वाले होते हैं । जब वह यत्न करते हैं , प्रयास करते हैं , तो कोई न कोई मार्ग निकल ही आता है ,कोई न कोई समाधान निकल ही आता है । इस लिए ज्ञानी लोगों को सदा इस प्रकार का प्र॒यास करते रहना चहिये कि किसी प्रकार की लडाई , युद्ध आदि न होने पावें । युद्धों से इस पृथिवी को बचाते हुए सब और सुख और शान्ति का प्रसार करना चाहिये । जब पृथिवी सब प्रकार के अन्न आदि देकर हमें जीवन देती है तो युद्ध के द्वारा इस पृथिवी को कष्ट न देना चाहिये कहीं एसा न हो कि युद्ध की विषम स्थिति में यह पृथिवी कुछ पैदा न कर सके तथा भोजन के अभाव में हमारा जीवन ही कठिनाई में पड जावे । इस के परिणाम स्वरूप अत्यधिक होने वाली महंगई से हमारी खरीद शक्ति प्रभावित हो और हम कुछ खरीद ही न पावें तथा हमारी आवश्यकताएं ही पूरा करना कठिन हो जावे ।
२. विद्वान लोग उपदेश से लडाई को रोकते हैं :-
यह ही कारण है कि विद्वान, स्वाध्याय शील , ज्ञानी लोग अपने जीवनों को वेदानुकूल बनाते हुए संसार में सुख व शान्ति स्थापित करते हुए इस पृथिवी को भी सुखी वा शान्तमयी बनाते हैं । इस प्रकार पृथिवी को वह अपना लक्षय बना कर इस पृथ्वी की रक्षा के लिए अपने जीवन को यग्यीय बनाते हैं । यह बुद्धिमान पुरुष, यह ज्ञानी लोग , यह धीर लोग सदा एसे कार्य करते हैं , जिस मे लोकहित छुपा हो , जो जनहित के हों , सर्वहितकारी कार्य ही उनके जीवन का ध्येय होता है । दूसरों की सेवा करने में तथा दूसरों को सुखी करने में उन्हें आनन्द आता है । यह सदा लोगों को ज्ञान का पाठ पढाते हैं , जीवन में सुख के साधन लोगों को बांटते रहते हैं तथा इस प्रकार की शिक्षा देते हुए यह लोगों को प्रेम से जीवन यापन करने की शिक्षा देते रहते हैं । इस प्रकार के उपदेशों के द्वारा उन्हें लडाई के उन्माद से बचाए रखते हैं ।
३. विद्वान लोगों को सन्मार्ग दिखावे:=
वेद का इस मन्त्र के माध्यम से उपदेश देते हुए परमपिता परमात्मा कहते हैं कि हे बुद्धिमान पुरुष ! तूं बुद्धि का स्वामी है , तेरे अन्दर धीरता है , तूं ज्ञान का भण्डार है , इस नाते तूं प्रकर्षेण ज्ञान का सेवन करने वाली क्रियाओं को , गतिविधियों को सेवन कर अर्थात प्रयोग में ला । इन्हें ग्रहण कर । यदि हम यज्ञ को एक चम्मच मानें तो उपदेश है कि यज्ञ के चम्मच को तूं मजबूती से अपने हाथ से पकड । लोगों के मनों में ज्ञान को दीप्त करना एक प्रकार का यज्ञ ही है । अत: जिस प्रकार इस चम्मच से यज्ञग्नि में घी डाला जाता है , उस प्रकार ही तूं लोगों के मनों में , लोगों के ह्रदयों में , लोगों के मस्तिष्क में ज्ञान की अग्नि को दीप्त करने के लिए अपने उपदेश रुपि घी से सेचन कर । हे ज्ञानी पुरुष ! तूं विनाशक प्रवृतियों व युद्धोन्मादी शत्रुओं का नाश करने वाला है । इतना ही नहीं तूं लोगों के ह्रदय के मनोमालिन्य को धोकर उनके अन्दर की द्वेष भावना को दूर करने वाला है । तूं अपने उपदेशों के द्वारा अज्ञानी लोगों में निरन्तर ज्ञान का उपदेश देता रह , ज्ञान की वर्षा करते रह , उनके मालिन्य को धोने का कार्य करता रह । लोगों पर एसी ज्ञान की वर्षा करते हुए उन सब मालिन्य , द्वेष की भावना रुपी अग्नि को बुझा दो और उसके स्थान पर लोगों को प्रेम की शिक्षा देकर , प्रेम का पाठ देकर उन्हें सन्मार्ग पर लाने का काम कर ।

डा. अशोक आर्य

ओ देव दयानंद, देख लिया तेरे कारण,

ओ देव दयानंद, देख लिया तेरे कारण,
ओ देव दयानंद, देख लिया तेरे कारण,
जन जन को….हम सब को मिला है ये नव जीवन,
तुझे है सौ सौ वंदन, करें तेरा अभिनन्दन…
छुआ छूत तुने जड़ से उखाड़ा,
बगिया मैं नए फूल खिले तेरे कारण,
जन जन को….हम सब को मिला है ये नव जीवन,
तुझे है सौ सौ वंदन, करें तेरा अभिनन्दन…
बहुत भाइयों से भाई बिछड़ चुके थे,
बरसों बाद फिर आये मिले तेरे कारण,
जन जन को…. हम सब को मिला है ये नव जीवन,
तुझे है सौ सौ वंदन, करें तेरा अभिनन्दन…!!

सब के गुण अपनी हमेशा गलतियाँ देखा करो

सब के गुण अपनी हमेशा गलतियाँ देखा करो
जिन्दगी की हुबहू तुम झलकियाँ देखा करो

हसरतें महलों की तुमको गर सताएं आनकर
कुछ गरीबों की भी जाकार बस्तियां देखा करो

खाने से पहले अगर तुम हक़ पराया सोच लो
कितने भूखों की है इन में रोटियां देखा करो

आ दबोचें, गर कहीं तुम को सिकंदर सा गरूर
हाथ खाली आते जाते अर्थियां देखा करो

ये जवानी की अकाद सब ख़ाक में मिलाजावेगी
जल चुके जो शव हैं उनकी अस्थियाँ देखा करो

जिंदगी में चाहते हो सुख अगर अपने लिए
दूसरों के गम में अपनी सिसकियाँ देखा करो

हम कौन थे, क्या हो गये

हम कौन थे, क्या हो गये
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है

यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े

वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा

संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में

वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे।

वनस्पतिक भोजन व सूर्य किरणों का सेवन करें

वनस्पतिक भोजन व सूर्य किरणों का सेवन करें
डा. अशोक आर्य
हमारे पास सात्विक बुद्धि होगी तब ही हमारे सात्विक गुणॊं में, वृद्धि सम्भव है। इस सात्विक बुद्धि के लिए वनस्पतियों वाला भोजन उत्तम है । इसके साथ ही सूर्य की किरणों का सेवन भी लाभप्रद होता है | इस तथ्य को यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का यह बीसवां मन्त्र इस प्रकार उपदेश करता है :-
धान्यमसि धिनुहि देवान प्राणय त्वोदानाय त्वा व्यानाय त्वा । दीर्घामनु प्रसितिमायुषे धां देवो व: सविता हिरण्यपाणि: प्रतिग्रभ्णत्वच्छिद्रेण पाणिना चक्शुषे त्वा महीनां पयोऽसि ॥ यजुर्वेद १.१.२० ॥

मन्त्र में यह बताया गया है कि प्रकाश की हमारे आधारभूत, जीवन में सद्गुण अर्थात उत्तम गुणों को पूर्ण करने वाली बुद्धि की आवश्यकता होती है । यह बुद्धि सात्विक आहार से ही बनती है यह सत्विक आहार क्या होता है ? आओ इस मन्त्र के पांच बिन्दुओं पर चिन्तन करते हुए सात्विक आहार के समबन्ध में जानने का यत्न करें :-
१. पौषण में उत्तम धान्य :-
मन्त्र में कहा गया है कि तूं धान्यम असि अर्थात तूं धान्य है अर्थात तूं वनस्पति है । वनस्पति होने के कारण तेरे अन्दर पौषण की अद्वितीय शक्ति है । इस पौषणीय शक्ति के कारण ही तूं मानव शरीर का बडी उत्तमता से पौषण करता है । तेरे सेवन से ही मानव का यह शरिर स्वस्थ बनता है , स्वस्थ शरीर से ही मन निर्मल होता है जब मानव का शरीर स्वस्थ तथा मन निर्मल हो तो उसकी बुद्धि भी तीव्र हो जाती है । जब खुशी की अवस्था हो तो बुद्धि तेजी से कार्य करती है किन्तु शरीर दुर्बल होने से मन की निर्मलता नही रहती । कष्ट – क्लेष बने रहते हैं, यह सब बुद्धि को तीव्र नहीं होने देते । इस लिए यह मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे प्राणी ! तेरे अन्दर बुद्धि की तीव्रता आवश्यक है । बुद्धि की तीव्रता के लिए मन को निर्मल बना । मन को निर्मल बनाने के लिए एसे उपाय कर कि तेरा यह शरीर स्वस्थ बन सके तथा शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है कि तूं वनस्पतियों से युक्त आहार का सेवन कर क्योंकि इन वनस्पतिक आहार से ही शरीर को पौषण मिलता है ।
क) इस प्रकार अपनी बुद्दि को तीव्र बना कर हे प्राणि! तूं अपने अन्दर दिव्य गुणों को प्रणीत कर , उत्पन्न कर । तूं जब अपने अन्दर सत्व की शुद्धि कर लेगा तब ही सात्विक गुणों का विकास होगा ।
ख) हे वनस्पतियो ! हम तुझे प्राण के विकास के लिए स्वीकार करते हैं । तेरे द्वारा हमारी प्राण शक्ति बढे । हम तुम्हारा सेवन इस लिए करते हैं कि हमारे प्राणों की शक्ति की वृद्धि हो , तेरे सेवन से ही तो हमारे प्राणॊं को गति मिलती है । तूं ही हमारी उदान वायु कॊ ठीक करने वाली है , इस लिए हम तेरा सेवन करते हैं । तेरे उपभोग से ही हमारे गले के अन्दर यह उदान वायु तीक से गति करने वाली होती है । जब हमारे शरर में यह उदान वायु संतुलित हो कर कार्य करती है , तब ही मानव की लम्बी आयु सम्भव हो पाती है ।
इसलिए हे वनस्पतियो ! हम तुझे ग्रहण करते हैं, पूरे शरीर में व्याप्त करते हैं क्योंकि तेरे प्रयोग से ही हमारे समग्र शरीर में व्यान वायु को पैदा करना होता है , जिसके निर्माण का आधार तेरे अन्दर ही होता है । हम जानते हैं कि वनस्पतियों के प्रयोग से हमारा सम्पूर्ण नस – नाडी का जो संस्थान है वह ठीक से कार्य करने लगता है । इससे ही मानवीय मस्तिष्क ठीक से कार्य करने की क्षमता पाता है , अर्थात ठीक बना रहता है ।
२. दीर्घायु के लिए वनस्पतिक भोजन करें :-
मानव को परम पिता परमात्मा ने सौ वर्ष की आयु देकर इस धरती पर भेजा है । इस के साथ ही यह भी आदेश दिया हे कि हे प्राणी ! मैं तुझे इस धरती पर भेज रहा हूं , इस आश्य से कि तूं इस धरती पर कम से कम एक सौ वर्ष तक का जीवन व्यतीत कर सके और वह जीवन भी एसा हो कि जो पूर्ण स्वस्थ रहते हुए हंसी – खुशी के साथ व्यतीत हो , कर्म करते हुए व्यतीत हो । स्पष्ट है कि प्रभु ने सौ वर्ष तक कर्म करने योग्य जीवन मानव को दिया है । इस लिए ही मानव इन वनस्पतियों को प्रयोग में लाता है ताकि उसका यह जीवन स्वस्थ रहते हुए कर्म करते हुए व्यतीत हो । मानव की कामना है कि वह जीवन पर्यन्त स्वस्थ रहते हुए कर्म करते हुए इस जीवन को व्यतीत करे । इसके लिए आवश्यक है कि वह वनस्पतिक भोजन करे । यह वनस्पतिक आहार ही है जो लम्बी आयु देने के साथ ही साथ जीवन को क्रियाशील भी रखता है । इसलिए मन्त्र वनस्पतियों से युक्त भोजन करने का आदेश देता है , सन्देश देता है , उपदेश देता है ।
३. हम प्रतिदिन प्रात: सूर्य किरणों का सेवन करें :-
मन्त्र में जो तीसरी बात कही गई है वह है कि हम मात्र वस्पतियों से युक्त भोजन करके ही सुखी नहीं रह सकते । इसके साथ ही साथ हम सूर्य की किरणॊं के साथ अपना सम्पर्क स्थापित कर अपने आप को स्वस्थ बनावें । इस पर हम विचार करें । प्रभु ने इस मन्त्र के माध्यम से हमें धान्य अर्थात वनस्पतियों के उपभोग की प्रेरणा करते हुए सूर्य किरणों के सम्पर्क में रहने का भी उपदेश किया है । जब तक सूर्य की किरणों का सम्पर्क नहीं हो पाता कोई वनस्पति तब तक पैदा ही नहीं हो सकती । आप अपने बन्द कमरे के अन्दर किसी भी वनस्पति के बीज डाल दीजिये । इन बीजों को उत्तम से उत्तम खाद भी दीजिये तथा प्रति दिन यथा आवश्यक जल भी दीजिये किन्तु आप देखेंगे कि इन बीजों का बडी कठिनाई से अंकुर फ़ूटता है । यह अंकुर भी मुरझाया सा ,टेढा मेढा सा होकर बडे धीरे से चलता है तथा कुछ दिनों के अन्दर ही मर जाता है , सूख जाता है । इससे यह तथ्य सामने आता है कि वनस्पतियों को पैदा करने , बढने व फ़ूलने फ़लने के लिए सूर्य की किरणों के दर्शन आवश्यक है । इसके बिना यह अपने जीवन के परिणाम तक नहीं पहुंच सकतीं ।
कुछ एसा ही मानव जीवन के साथ भी होता है । हम देखते हैं कि जब एक व्यक्ति को बन्द कमरे में रखा जाता है , जिसमें सूर्य की किरणें प्रवेश नहीं कर सकतीं तो यह व्यक्ति कुछ दिनों में ही कमजोर होते हुए पीला पड जाता है तथा धीरे धीरे इस के शरीर में रोग प्रवेश कर जाता है ,उसके अंग ढीले पडने लगते हैं तथा रोगी हो कर कुछ काल में ही उसकी मृत्यु हो जाती है । इसलिए मन्त्र कहता है कि हे प्राणी ! तूं अपने शरीर को सूर्य की किरणॊं के साथ जोड । जब तूं सूर्य के सामने जाता है तो यह सूर्य अपने किरण रुपी निर्दोष हाथों से ( सूर्य की किरणें सब प्रकार के दोषों को , रोगाणुओं को समेट कर नष्ट करने वाली होती हैं , इसलिए इसे निर्दोष हाथों वाली कहा गया है ) जो हितकारक तथा प्राणशक्ति दायी तत्वों को लिए हुए है , वह सब तुझे दे ।
इस प्रकार मन्त्र कहता है कि हे प्राणी ! तूं प्रात; उठ , प्रात; उठकर सुर्याभिमुख हो कर इस की किरणों को ग्रहण कर तथा परम पिता का ध्यान कर , उसका स्मरण । इन हितकारक किरणों से तेरा शरीर रोग मुक्त हो कर स्वस्थ हो जावेगा । स्वस्थ्य उत्तम होने से तूं खुश रहेगा तथा तेरी दीर्घायु होगी और प्रभु की समीपता भी मिलेगी । यह तो हम जानते हैं कि उदय हो रहे सूर्य की किरणों में सब प्रकर के रोगाणुओं का नाश करने की अत्यधिक शक्ति होती है । फ़िर हम निश्चय ही इन किरणों का सेवन करने के लिए प्रात: सूर्योदय के साथ ही अपनी शैय्या को छोड निकल जावें ।
४. हम प्रात: अपनी आंखों को सूर्य किरणें दिखावें :-
सूर्य की यह किरणें हमारी दृष्टी के लिए भी उत्तम होती हैं । इस लिए ही मन्त्र कह रहा है कि हे सूर्य देव ! मैं तुझे अपनी द्रष्टी शक्ति की रक्शा के लिए ग्रहण करता हूं । जब हम इस पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि वास्तव में सूर्य हमारी आंखों में ही निवास करता है । यह ही हमारी आंखों का स्वामी है । यदि सूर्य न हो तो हमारी आंखों का भी कोई प्रयोजन नहीं रह जाता क्योंकि हमारी आंख तब ही देख पाती है , जब प्रकाश हो । अन्धेरे में तो यह देख ही नहीं सकती । जब प्रात; काल की सूर्य की शीतल किरणें इन आंखों पर पडती हैं तो आंखों को भी शीतलता मिलती है । इन्हें भी आराम मिलता है तथा इन में देखने की शक्ति बढती है ।
सूर्य की किरणों से हमारी आंखों की देखने की शक्ति बढती है इसलिए ही मन्त्र के माध्यम से मैं यह कह रहा हूं कि जब मैं सूर्य की किरणों को देखता हूं तो मेरी आंखों की ज्योति बढती है। अत: मैं सूर्य की और मुंह करके बैठ जाता हूं तो सूर्य की यह निर्मल , पवित्र किरणें मेरी आंखों में मेरी दृष्टी शक्ति का प्रवेश करवाती हैं । जब हम ठीक प्रकार से अपनी आंखों को सूर्य की किरणों का प्रवेश कराते हैं तो हमारी आंख की सब निर्बलताएं , सब दोष , सब रोग दूर हो जाते हैं ।
५. सूर्य किरणों से हमारे सब अंगों में शक्ति आती है :-
यह सूर्य ही है , जो माननीय है , तूं पूजनीय है , तूं ही मानव की सब प्रकार की शक्तियों को बढाने वाला है ।
इन शब्दों में यह मन्त्र हमें बता रहा है कि सूर्य के माधयम से ही जीव मात्र जीवित है । जीव को जीव तब ही कहा जाता है क्योंकि उसमें जीवन है । यदि इस में जीवन न हो तो इसे जीव कह ही नहीं सकते । जीव में जो जोवनीय शक्ति है , उस शक्ति का प्रमुख आधार सूर्य ही है । इस लिए यहां कहा गया है कि तूं ही सब शक्तियों को देने वाला है ।
जब हम वेद के इस तथ्य पर विचार करते हैं तो हम पाते हैं कि हमारे जितने भी भोज्य पदार्थ हैं , जिन के उपभोग से हमारी क्षुधा शान्त होती है तथा हमारा जीवन आगे बढता है , उन सब की उत्पति इस सूर्य की किरणों ही के कारण होती है । हम जो प्रतिदिन अपनी दिनचर्या करते हैं , स्वाध्याय करते हैं , व्यापार करते हैं अथवा अपने जीवन का कोई भी व्यवसाय करते हैं तो वह भी इन किरणों के सहयोग से ही करते हैं । हम जो कुछ भी देखते हैं , वह सब भी सूर्य की इन किरणों का ही परिणाम है । इस सब से एक तथ्य जो सामने आता है , वह यह है कि सूर्य ही हमारे सब कार्यों का केन्द्र है । यदि सूर्य न होता तो हम अपने यह क्रिया क्लाप तो क्या , हम अपने जीवन के विषय में भी कुछ नहीं कह सकते , कुछ नहीं सोच सकते ।
सूर्य हमारी सब शक्तियों का अध्यापन करने वाला है । सूर्य ही हमारी सब शक्तियों को बढाने वाला है । इस की किरणों के सम्पर्क में आने से ही हमारे शरीर के सब अंग प्रत्यंग बढते हैं , फ़लते फ़ूलते हैं तथा टीठी क से कार्य करते हैं । इन को शक्ति मिलती है । इस लिए सूर्य का सेवन सूर्य का सम्पर्क हमारे लिए आवश्यक है ।

डा अशोक आर्य

मेरी कलम से..

मेरी कलम से..
“जितनी ज़मीन बख़्शी है तुम्हें,
उतनी तो संभलती नहीं..
डंसते हो भारत को रोज़,
बलूच को तुम प्यार देते नहीं..
सर्जिकल अटैक के बाद,
31,000 पाक सैनिकों ने छुट्टी माँग ली,
तुममें तो सामना भी करने का हौसला नहीं..!
टुक-टुक करके ऊरी और पठानकोट खेलते हो,
किस हैसियत से कश्मीर-कश्मीर भौंकते हो जनाब…
क्या 1965 और 1971 से पेट भरा नहीं…!
तुम हो वो साँप के पिल्ले जिसे,
“फुफकारना है किसे और,
डंसना किसे” ये पता नहीं..!
फैला लो आतंक खूब जहाँ में सारे,
शामत आएगी तुम पर भी किसी रोज़,
इसका तुम्हें अंदाज़ा नहीं..!
छोड़ भागेंगे तुम्हारे ही डरपोक सैनिक तुम्हें,
अपनों से ही हारोगे तुम, गैरों से नहीं..!
कि है वक़्त अब भी
मना लो खैरियत, मांग लो दुआ तुम्हारे खुदा से
नहीं, जिस क़दर उड़ाते हो मासूम बकरों को चुन-चुनकर ईद पर
हश्र होगा तुम्हारा भी फिर वही..!
सदा बख्शता आया है भारत तुम्हें बड़े भाई की तरह,
इसका मतलब हम कोई कायर नहीं..!
ढूँढ लो अब सारे जहाँ में कितने ही हमराज़-ओ-हमदर्द,
पर अब कोई तुम्हारे काम आनेवाला नहीं..!
क्योंकि है घर तुम्हारा शीशे का,
किलों पर पत्थर फेंकना ठीक नहीं..!
पड़ोसी हो करीबी हो फिर भी,
जाना नहीं भारत को तुमने अब तक,
उसे समझ पाने की तुम्हारी औकात भी नहीं…!”