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कुल्लियाते आर्य मुसाफिर का नया संस्करणः प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

कुल्लियाते आर्य मुसाफिर का नया संस्करणः सन् 1930 तक का आर्यसमाज का इतिहास इस बात की साक्षी देता है कि आर्य समाज के अधिकांश प्रचारक व उपदेशक तथा निष्ठावान् लेखक , शास्त्रार्थ महारथी पाँच ग्रन्थों का गहन अध्ययन करके सफल उपदेशक, लेखक गवेषक तथा शास्त्रार्थ महारथी बने। ये पाँच ग्रन्थ थेः-

  1. सत्यार्थप्रकाश, 2. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, 3. कुल्लियाते आर्य मुसाफिर, 4. पं. लेखराम लिखित ऋषि जीवन तथा 5. दर्शनानन्द ग्रन्थ संग्रह। यहाँ प्रसंगवश यह भी बता दें कि आरभिक युग में मुनिवर पं. गुरुदत्त जी तथा मास्टर दुर्गाप्रसाद जी के साहित्य ने अंग्रेजी पठित वर्ग पर वैदिक धर्म का गूढ़ा रंग चढ़ाया।

वर्तमान में पुस्तकों की सूचियाँ बनाने वालों ने पं. लेखराम जी के साहित्य तथा उद्देश्य के बारे में बहुत भ्रम प्रसारित कर दिया है। यह लिखा गया कि पण्डित जी ने मिर्जाई मत के खण्डन में अनेक पुस्तकें लिखीं। यह सर्वथा मिथ्या कथन है। पण्डित जी ने अधिकतर पुस्तकें वैदिक सिद्धान्तों के मण्डन में लिखी हैं। गिनती की कुछ पुस्तकें विधर्मियों के उत्तर में लिखी हैं। उन दिनों ब्राह्मसमाज ने वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने के खण्डन तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त के खण्डन का बहुत प्रचार किया। अंग्रेजी पठित वर्ग को इस जाल से निकालने वाले सबसे बड़े विचारक पं. लेखराम जी ही थे।

एक प्रश्न का उत्तर देकर हम आगे कुल्लियाते आर्य मुसाफिर के नये हिन्दी संस्करण पर अपनी प्रतिक्रिया या विचार रखेंगे। कुछ सज्जन यह कहेंगे कि संस्कृत भाषा का विशेष ज्ञान न होने पर भी पं. लेखराम वैदिक धर्म व दर्शन के इतने बड़े और अधिकारी विद्वान् कैसे बन गये? हमारा उत्तर है कि पूर्व जन्मों के गहरे संस्कारों का यह फल था। पूज्य पं. युधिष्ठिर जी मीमांसक का भी यह मत था।

कुल्लियाते आर्य मुसाफिर के उर्दू में दो संस्करण छपे। कुछ पुस्तकें एक-एक दो बार पृथक् भी छपती रहीं। हिन्दी भाषा में पं. शान्तिप्रकाश जी की कृपा से पंजाब सभा ने दो भागों में कुछ पुस्तकें प्रकाशित कीं। इससे पहले भी कुछ सज्जनों ने पण्डित जी की कुछ पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद छपवाया। पंजाब सभा वाला हिन्दी अनुवाद अब पुनः छपेगा। इसमें प्रूफ आदि की कई भयंकर अशुद्धियाँ रह गई हैं। प्रूफ पढ़ते समय तथा सपादन करते हुए यथा साव ग्रन्थ को बढ़िया ढंग से पाठकों तक पहुँचाने का भरपूर श्रम किया जायेगा।

पण्डित जी के सूक्ष्म व मौलिक तर्क, युक्तियाँ व चिन्तन जिन पर स्वामी दर्शनानन्द जी, देहलवी जी, पं. चमूपति जी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, उपाध्याय जी, पं. लक्ष्मण जी, महाशय चिरञ्जीलाल जी प्रेम, ठाकुर अमरसिंह तथा पं. शािन्तप्रकाश जी मुग्ध थे उन युक्तियों को प्रमुखता से प्रचारित करने पर विशेष ध्यान दिया जायेगा।

पण्डित लेखराम जी की ऊहा व युक्तियों की विधर्मियों ने भी समय-समय पर बहुत प्रशंसा की है। अनेक सुयोग्य व्यक्ति पं. लेखराम जी का साहित्य पढ़कर ही धर्मच्युत होने से बचे। हैदराबाद के प्रधान मन्त्री राजा सर किशनप्रसाद को पं. लेखराम जी के तर्क देकर मुसलमान बनने से बचाया गया। सपादन में ऐसी सब महत्त्वपूर्ण घटनाओं का यथा-प्रसंग उल्लेख किया जायेगा।

महात्मा मुंशीराम जी ने ठीक ही लिखा है कि पं. लेखराम जी के साहित्य से पहले मुंशी इन्द्रमणि जी के ग्रन्थों की भी धूम थी परन्तु इन दोनों की शैली में अन्तर क्या था? यह जानने व बता सकने वाले विद्वानों व गवेषकों का आर्य समाज में अब लोप सा हो गया है। ऐसे ही सर सैयद अहमद खँा, डॉ. इकबाल की कोटि के मुस्लिम नेता भी पं. लेखराम जी की लौह लेखनी से लाभान्वित होते रहे। इस विषय की भी इस संस्करण में आवश्यक जानकारी दी जायेगी। आर्य समाज के सभी बड़े-बड़े विद्वानों के सुझावों को स्वागत किया जावेगा। ऐसे ग्रन्थ कभी-कभी ही छपते हैं सो इसे अधिक-से-अधिक उपयोगी बनाया जायेगा। पण्डित जी की तार्किकता की दो घटनायें अत्यन्त संक्षेप से देना उपयोगी रहेगा।

नागपुर में जमाते इस्लामी के एक युवा मिशनरी से इस लेखक की धर्म चर्चा की व्यवस्था की गई। तब होशंगाबाद के स्व. श्री यज्ञेन्द्र जी तथा सागर विश्वविद्यालय के एक स्वर्गीय संस्कृतज्ञ विद्वान् भी वहाँ हमें सुन रहे थे। उसे कहा गया कि तुम मिट्टी से घड़ा, घड़े से मिट््टी, प्याला व गमले का और बर्फ से जल, जल से भाप, मेघ, वर्षा और फिर पुनः बर्फ का पुनर्जन्म तो मान रहे हो। जड़ ज्ञानशून्य जल का पुनर्जन्म मानते हो परन्तु चेतन ज्ञानवान् जीव का पुनर्जन्म नहीं मानते?

इस पर विश्वविद्यालय के माननीय गुरुकुलीय स्नातक ने कहा, ‘‘मैं गुरुकुल में पढ़ा। बहुत शास्त्रीय साहित्य पढ़ा परन्तु यह तर्क पहली बार ही सुना है। यह अकाट्य है।’’

तब उस सज्जन को बताया गया कि यह पं. लेखराम जी की कृपा का प्रसाद है। ऐसे ही गुजरात के सतपंथियों के लिए कई विद्वानों से लेख मंगवाये गये। इस सेवक के लेख को विशेष उपयोगी मानकर प्रसारित किया तो प्रतिक्रियायें अच्छी मिलीं। श्री कल्याण भाई ने हमें यह जानकारी दी तो उन्हें कहा, ऐसा लेख पं. लेखराम जी की परपरा के विद्वान् मान्य शरर जी तथा जिज्ञासु जी ही लिख सकते थे। जो पं. लेखराम जी के साहित्य सागर में डुबकी लगायेगा, वही ऐसे रत्न प्राप्त कर सकेगा।

‘सिंध सभा’ पत्रिका के  सपादक ने पं. लेखराम जी पर जी भर कर लिखा है परन्तु उनकी पुस्तकों तक आर्य समाज पहुँच ही न पाया। ऐसे ही ………….., श्री अनरवरशेख, मौलाना अदुल्ला मेमार, मौलवी सनाउल्ला जी, मौलाना रफीक दिलावरी के साहित्य के महत्त्वपूर्ण अंश पाद टिप्पणियों में आने चाहिये। ऐसा हमारा मत है। जिन्होंने सेवक से यह सेवा लेने का मन बनाया है, वे क्या निर्णय लेते हैं? यह जान कर इस कार्य को जीवन की इस सांझ में सहर्ष करुँगा। इस विनीत के सामने अर्थ के लोभ व लाभ का प्रश्न ही नहीं। यह अपने लिये जीवन मरण का प्रश्न है। यह सौभाग्य का विषय है कि आर्य समाज ने यह दायित्व सौंपा है। इस संस्करण के साथ पण्डित जी के जीवन का बलिदान पर कितने पृष्ठ लिखे जायें? यह भी आर्य विद्वान् व आर्य जनता सोच कर सूचित करे।

अपने घर को भली प्रकार से जानोः पं. चमूपति जी एक युवक हवनलाल मेहता की रचनायें कुछ पत्रों में पढ़कर उससे मिलने को उत्सुक हुए। युवक का नाम ही बता रहा था कि यह आर्य समाजी होगा। पण्डित जी पेशावर गये तो उसके घर का पता करके उसे मिलने गये, वह घर पर नहीं था। मौलवी के पास अरबी पढ़ने गया था। उसे जब पता चल कि श्री पण्डित जी उसके घर उसे मिलने आये तो वह भागा-भागा उनके दर्शन करने समाज में पहुँचा। पण्डित जी ने छूटते ही कहा, ‘‘क्या दूसरों के घरों में ही घूमते हो? अपने घर को भी तो भली प्रकार से जानो।’’ यह प्रसंग हवनलाल जी ने स्वयं ही इस लेखक को सुनाया।

हमारे साथ प्रायः यही कुछ होता है । एक ने पूछा, ‘‘क्या आपने स्वामी दयानन्द और वेद, अदुल गफू र की पुस्तक देखी है। दूसरा कहता है, मुसलमानों ने हक प्रकाश व मुकदस रसूल पुस्तकें छपवा दी।’’ पता नहीं ये भाई हमारी परीक्षा लेते हैं या मुसलमानों के प्रचार तन्त्र के प्रचार में शक्ति लगाते हैं। अरे भाई! आप दिन-रात आर्य साहित्य के  सृजन व उत्तर देने के कठिन कार्य में जुटे आर्य विद्वानों के साहित्य को स्वयं पचाओ व फैलाओ फिर जो कार्य नहीं हुआ, उसे करने को कहो। गभीर अध्ययन करके स्वामी आत्मानन्द जी के स्वप्न साकार करो।

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-152116

नकारात्मक प्रचार मत करो का जवाब : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

यह सन् 1951 के आस-पास की बात है। आर्यसमाज के सबसे लोकप्रिय पत्र ‘आर्य मुसाफिर’ के पूर्व सपादक महाशय चिरञ्जीलाल जी ‘प्रेम’ लेखराम नगर (कादियाँ) पधारे। वह आर्य समाज के एक जाने माने शास्त्रार्थ महारथी थे। सायंकाल उनके साथा्रमण के लिए निकला। मैं तब कालेज का विद्यार्थी था। उनसे कहा- आर्य समाज की लेखनी व वाणी से सेवा की चाह है। आप अपने अनुभव से मार्गदर्शन कीजिये।

तब महाशय जी ने अपने दीर्घकालीन अनुाव से एक पते की बात कही कि जो मिशन की सेवा की भावना रखना चाहता है, उसे प्रत्येक मुय-मुय सिद्धान्त का ज्ञान होना चाहिये और कुछ सिद्धान्तों का व्यापक व गभीर ज्ञान होना चाहिये। अब यह देखने में आता है कि फेसबुक लिये बैठे अनुभवहीन युवक बहुत थोड़ा पढ़-सुनकर स्वयं को रिसर्च स्कॉलर व शास्त्रार्थ महारथी व योगिराज मान लेते हैं। इससे उनका अपना पतन होता है और समाज की हानि होती है।

विद्वानों की एक सभा में कुछ विचार हो रहा था। योग चार पर छह व्यायान सुनकर स्वयं को योग गुरु के रूप में स्थापित करने की इच्छा वाले एक अति उत्साही युवक ने यह टिप्पणी करके विचित्र व्यवस्था दे दी कि नकारात्मक प्रचार मत करो। सकारात्मक उपदेश प्रवचन होने चाहिये। ऐसे अधकचरे योगी रजनीश की पुस्तकें पढ़ कर ऐसी व्यवस्थायें देने के अयासी हैं।

बात व सोच सकारात्मक हो, गुणियों को यह सीख मान्य है परन्तु क्या किसी दुष्कर्म, कुकर्म व पाप से बचने के लिये कहना व रोकना, यह नकारात्मक उपदेश व पाप है? सब मत पंथों में ऐसी शिक्षायें हैं। सब देशों के विधान में ऐसे राज नियम है। मनोविज्ञान व दर्शन के ग्रन्थों में ऐसी शिक्षायें हैं। वेद, दर्शन, उपनिषद् व ऋषि के ग्रन्थों, प्रवचनों व उपदेशों में ऐसे सुविचार मिलते हैं।

‘अक्षैर्मा दीवव्य’ जुआ मत खेलो- यह वेदादेश क्या नकारात्मक होने से अमान्य है? ‘मा गृधः’ इस वेदोपदेश के लिये ऐसे अधकचरे योगी क्या कहेंगे? योग के यम-नियमों पर ही कुछ विचार किया जाता तो बात स्पष्ट हो जाती है। अहिंसा, सत्यास्तेय तथा अपरिग्रह के लिए क्या कहा जायेगा? महर्षि दयानन्द जी के आर्याभिविनय रूपी सुधा सिन्धु में ऐसी पचासों विनय या सूक्तियाँ मिलेंगी। वेद में प्रमाद आदि दोषों से बचने का आदेश है। वेद में गऊ का एक नाम ही नकारात्मक आदेश है अर्थात् जिसकी हिंसा न की जाये। वेद में सूर्योदय के समय सोने से रोका गया है। शास्त्र क्रोध न करने की भी आज्ञा देता है। आशा है कि आर्य समाज के गुणी, विद्वान् तथा अनुभवी साधु महात्मा यह नया और घातक दुष्प्रचार समय रहते ही रोक देंगे।

सद्धर्म प्रचारक उर्दू विषयक जानकारीः परोपकारी के एक गत अंक में ‘सद्धर्म प्रचारक उर्दू व हिन्दी में जन्म की तिथियों के विषय में भ्रामक लेखों का निराकरण करते हुए कुछ लिखा गया था। सद्धर्म प्रचारक उर्दू के बारे में विनीत ने यह लिखा था कि यह कब तक निकलता रहा, यह इसके अन्तिम अंक को सामने रखकर कभी फिर जानकारी दी जायेगी। स्मृति के आधार पर यह लिखा था कि लाला लाजपतराय जी के निष्कासन तक यह छपता रहा। यदि इसमें कुछाूल होगी तो इसका सुधार कर दिया जायेगा। पाठक अच्छी प्रकार से नोट कर लें कि उर्दू में फरवरी 1907 के अन्तिम सप्ताह तक ही यह छपता रहा । मार्च 1907 में जब हिन्दी में यह निकलने लगा तब उर्दू संस्करण बन्द कर दिया गया। लाला लाजपतराय को तो नौ मई को बन्दी बनाया गया था। क्रान्तिवीर अजीतसिंह को दो जून को अमृतसर में बन्दी बनाया गया। कुछ लेखकों का यह विचार सत्य नहीं कि दोनों को एक ही समय बन्दी बनाया गया। हमने ‘सद्धर्म प्रचारक’ उर्दू के प्रथम तथा अन्तिम वर्ष के अंक देखकर यह प्रामाणिक जानकारी दे दी है।’

डंके  की चोट से कहियेः- गत दिनों दिल्ली के एक उत्साही आर्य युवक ने श्री डॉ. अशोक आर्य जी के निवास पर कई ठोस प्रश्न पूछते हुए कहा कि पौराण्कि विद्वान् अब तक यह कहते व लिखते हैं कि काशी शास्त्रार्थ में महर्षि दयानन्द ही पराजित हुए थे। काशी के पण्डित तब विजयी रहे थे। उस आर्य युवक विशाल को तब कहा था कि पौराणिक तो यही कहते रहेंगे। आप इसकी चिन्ता न करें। तथ्यों से इसका प्रतिवाद करते रहे। तब उस युवक को तत्कालीन स्रोतों के कई प्रमाण दे दिये थे।

अब पुनः किसी ने इस विषय पर एक प्रश्न पूछा है। हमारे लोगों की यह चूक है कि हम कुछ महत्त्वपूर्ण प्रमाणों व तथ्यों को डंके की चोट से बार-बार प्रचारित नहीं करते। कोलकाता के अलय शास्त्रार्थ के सपादकीय में हमने लिखा था और परोपकारिणी सभा ने इसे पुनः प्रकाशित व प्रसारित भी कर दिया कि काशी शास्त्रार्थ के बारह वर्ष पश्चात्ाी कोलकाता में प्रतिमा पूजन की पुष्टि में वेद का एक भी प्रमाण तीन सौ पण्डितों का जमघट न दे सका। इससे बढ़कर ऋषि की विजय का और प्रमाण क्या चाहिये? सपूर्ण जीवन चरित्र में हमने अलय स्रोतों के कई नये प्रमाण खोद-खोद कर दिये हैं।

अमरीका में धूम मच गईः प्रतीक्षा कीजिये परोपकारिणी सभा महर्षि दयानन्द जी पर एक अनूठी व महत्त्वपूर्ण पुस्तक प्रकाशित करने वाली है। इसमें महर्षि के जीवनकाल में अमरीका के पत्र में छपा एक लबा लेख दिया जायेगा। यह लेख कोलकाता की सभा से भी पहले छपा था। इस लेख में स्पष्ट शदों में यह लिखा गया है कि देश भर का कोई भी विद्वान् स्वामी दयानन्द की इस चुनौती को स्वीकार नहीं कर सका कि मूर्तिपूजा की पुष्टि में वेद का कोई मन्त्र लाओ, दिखाओ। दयानन्द स्वामी ललकार रहा है और किसी में उससे शास्त्रार्थ करने का साहस नहीं है। कल्पित शंकाओं को उठाकर शंका समाधान की बजाये, हमें अकाट्य सामग्री का उपयोग करके अपने प्रचार को प्राावशाली बनाना चाहिये।

पं. रामचन्द्र जी देहलवी का गौरवपूर्ण इतिहासः- आर्य समाज के शास्त्रार्थ महारथियों के छोटे-छोटे जीवन चरित्र तो पहले भी छपते रहे परन्तु संस्थावाद के कीच-बीच फंसे आर्यसमाज के महर्षि के प्यारे मिशन की कीर्ति भवन के लिये शीश तली पर घर कर शास्त्रार्थ करने वाले अपने विद्वानों के उनके व्यक्तित्व व कर्तृत्व के अनुरूप खोजपूर्ण जीवन चरित्र न लिखे और न छपवाये। जिन्होंने कुछ लिखा व किया, हम उन सबके ऋणी हैं। इस सेवक  ने इस चुभने वाले अभाव का निराकरण करते हुए पं. लेखराम जी तथा स्वामी दर्शनानन्द जी पर बड़े-बड़े ग्रन्थ छपवा दिये।

आर्य समाज को उस विदेशी मुसलमान युवा स्कॉलर का आभारी होना चाहिये जिसने इस सेवक को प्रेरणा देकर पं. रामचन्द्र देहलवी पर 400 पृष्ठों का ग्रन्थ लिखवा लिया। श्री अजय आर्य जी ने समय सीमा पर इसे प्रकाशित करके अपने पितामह ला. गोविन्दराम जी की स्वर्णिम सेवाओं के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया।

आर्य समाज में पूज्य पंडित जी की प्रत्युत्पन्नमति की कुछ फुलझड़ियाँ हमारी पुस्तकों से चुन-चुनकर चुटकले से छपने लगे। हमने उनके शास्त्रार्थों के मौलिक तर्कों को खोज-खोज कर अपनी पुस्तकों में दिया। उनका उपयोग किसी विरले वक्ता ने ही किया। यह हम लोगों का दोष है।

तब हमने यह प्रश्न उठाया था कि हमने पं. भगवद्दत्त जी का एक साक्षात्कार लेते हुए पण्डित रामचन्द्र जी देहलवी के शास्त्रार्थों की दर्शनिक महत्ता का उल्लेख करते हुए, आर्यसमाज के पुराने लोगों से (विशेष रूप से दिल्ली वालों से) पूछा था कि पण्डित जी ने न्याय आदि दर्शन किससे पढ़े थे? पण्ड़ित जी से अपने सबन्धों व ऊहा के बल पर अपना मत यह दिया कि हमें यही लगता है कि आपने स्वामी दर्शनानन्द जी से दर्शन पढ़े थे।

तब मेरठ क्षेत्र से स्वामी पूर्णानन्द जी के शिष्य ग्रामीण आर्य प्रचारक श्री मंगूसिंह आर्य ने वेदपथिक श्री धर्मपाल जी द्वारा हमें अपना संस्मरण लिखकर भेजा था कि एक बार श्री पण्ड़ित जी हमारे घर पर मेरे पिता जी से धर्म चर्चा कर रहे थे। तब बातों-बातों में यह कहा था मैंने स्वामी दर्शनानन्द जी से दर्शन पढ़े थे। इसके थोड़ा समय के पश्चात् श्री पं. बिहारीलाल जी की एक पुस्तिका में भी इसकी पुष्टि पढ़कर हमें बहुत आनन्द हुआ। खेद है कि आर्य वक्ता लेखक  भूमण्डल प्रचारक मेहता जैमिनि जी तथा महात्मा नारायण स्वामी जी की शैली को छोड़कर सरकारी सन्तों के सदृश हल्के ढंग से तुक मिलाकर भाषण देने लग गये हैं। इससे न तो इतिहास की सुरक्षा हो सकेगी और न प्रामाणिकता ही रहेगी।

ठाकुर मुकन्दसिंह जी की पुस्तकः ऋषि के महान् भक्तों में से एक ठाकुर मुकन्दसिंह जी छलेसर ने ‘तहकीक उलहक’ (सत्य की खोज) नाम से एक पुस्तक अलीगढ़ से छपवाई थी। आशा थी कि यह उर्दू पुस्तक आर्यसमाज बुढ़ाना द्वार मेरठ से मिल जायेगी परन्तु वहाँ न मिली। अब मेरठ के माननीय श्री यशपाल जी इसके लिये भाग दौड़ कर रहे हैं। वह स्वयं छलेसर अलीगढ़ जायेंगे। अलीगढ़ के आर्य भाई- श्री देवनारायण जी आदि सहयोग करें तो यह कार्य हो सकता है। आर्यों! यह मत भूलें कि ठाकुर मुकन्दसिंह जी तथा ठाकुर भोपालसिंह जी ने ऋषि के देह-त्याग तक महाराज की जी भरकर सेवा की, सबसे लबे समय तक ऋषि के सपर्क में रहे। महर्षि ने उन्हें अपने साहित्य का मुतार नियत किया था। वे हमारे इतिहास पुरुष हैं। इसलिये इस पुस्तक की खोज को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर इसकी खोज कीजिये।

आर्य समाज की चक्की निरन्तर चलती चलेः कभी श्री महाशय कृष्ण जी ने अपने एक लेख में लिखा था कि आर्य समाज की चक्की चलती तो धीरे-धीरे है परन्तु पीसती बारीक है। यह वाक्य पढ़ते ही हृदय पर अंकित हो गया। अब कई युवक मिलकर व चलभाष पर मत पंथों पर, आर्य समाज के इतिहास पर प्रश्न पूछते रहते हैं। भिन्न-भिन्न विषयों की पुस्तकों के बारे में जानकारी मांगते हैं। कोई कहता है कि सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्धों व चलाये गये अभियोगों पर मैं पुस्तक लिखने लगा हूँ। कुछ पुस्तकों के नाम बता दें। एक ने पूछा कि सिखों व आर्य समाज पर मैंने लिखना है कोई एक-आध पुस्तक बता दें।

ऐसे उतावले सज्जनों को सदा यही कहा है कि 100-50 पुस्तकें पढ़कर ही कुछ लिखिये। विषय से न्याय होना चाहिये। अतिउत्साह से गड़बड़ ही होगी। आप देखिये सत्यार्थ प्रकाश पर केस तो चार-पाँच चले परन्तु प्रतिबन्ध तो एक ही बार सिंध में लगाया गया और वह भी केवल चौदहवें समुल्ललास पर। तब पुस्तकें भी छप गई। इन नादान मित्रों ने पटियाला मेंाी सन् 1920 में प्रतिबन्ध लगा दिया और निजाम राज्य में प्रतिबन्ध की कहानी गढ़ ली। सपादकों ने लेख छाप दिये। पुस्तकें भी छपने लगीं।

क्या गप्पें गढ़ने से सत्यार्थप्रकाश का गौरव बढ़ गया? अभी फिर सिखों के राजनेताओं ने लाखों के विज्ञापन छपवा कर दैनिक पत्रों में वीर वैरागी को ‘बन्दा सिंह बहादुर’ बना दिया है। पहले भी अंग्रेज इतिहासकार कनिंघम तथा सिखों के एक जाने-माने इतिहासकार के प्रमाण देकर हमने परोपकारी में इस अनर्थ का प्रतिवाद किया था। इनके बस में हो तो यह गुरुनानक जी, गुरु अंगददेव जी आदि सबको पक्का अकाली बनाने के लिए उनके नामों के साथ भी सिंह लगा दें। आश्चर्य की बात है सिखों के इतिहास पर अपनी रिसर्च का परिचय देने वाला कोई व्यक्ति अब भी नहीं बोला।

चलभाष पर और मिलने पर जो मौलाना सना उल्ला, श्री अनवरशेख, डॉ. गुलाम जेलानी, मौलाना अदुल्ला  के साहित्य व विचारों पर चर्चा करते हैं, उनको यही सीख देता हूँ निरन्तर स्वाध्याय करो, श्रम करो। रात-रात में आप पं. शन्तिप्रकाश व ठाकुर अमरसिंह नहीं बन सकते। महाशय कृष्ण जी की सीख लो। बारीक पीसने की परपरा अखण्ड बनाओ। मेरे साहित्य में से डॉ. गुलाम जेलानी का नाम तो याद कर लिया उनके उद्धरण देकर वैदिक सिद्धान्तों की जो पुष्टि की है उसको हृदयङ्गम करो। आर्य साहित्य का प्रसार करो।

-इतिहास प्रदूषण- ‘पं. लेखराम एवं वीर सावरकर के जीवन विषयक सत्य घटनाओं का प्रकाश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य अल्पज्ञ है इसलिये उससे अज्ञानता व अनजाने में यदा-कदा भूल व त्रुटियां होती रहती है। इतिहास में भी बहुत कुछ जो लिखा होता है, उसके लेखक सर्वज्ञ न होने से उनसे भी न चाहकर भी कुछ त्रुटियां हो ही जाती हैं। अतः इतिहास विषयक घटनाओं की भी विवेचना व छानबीन होती रहनी चाहिये अन्यथा वह कथा-कहानी ही बन जाते हैं। आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु आर्यसमाज के इतिहास विषयक साहित्य के अनुसंधान व तदविषयक ऊहापोह के धनी है। हिन्दी, अंग्रेजी व उर्दू के अच्छे जानकार है। लगभग 300 ग्रन्थों के लेखक, अनुवादक, सम्पादक व प्रकाशक हैं। नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखते हैं। मिथ्या आरोपों का खण्डन करते हैं। वह इतिहास विषयक एक सन्दर्भ को एक ही पुस्तक में देखकर सन्तोष नहीं करते अपितु उसे यत्र-तत्र खोजते हैं जिससे कि उस घटना की तिथियां व उसकी विषय-वस्तु में जानबूझ, अल्पज्ञता व अन्य किसी कारण से कहीं कोई त्रुटि न रहे। उनके पास प्रकाशित पुस्तकों व लेखों में जाने-अनजाने में की गईं त्रुटियों की अच्छी जानकारी है जिस पर उन्होंने इतिहास प्रदूषण नाम से एक  पुस्तक भी लिखी है। 160 पृष्ठीय पुस्तक का हमने आज ही अध्ययन समाप्त किया है। इस पुस्तक में रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी के जीवन की एक घटना के प्रदूषण की ओर भी उनका ध्यान गया है जिसे उन्होंने सत्य की रक्षार्थ प्रस्तुत किया है। हम यह बता दें कि पण्डित लेखराम महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त थे। आपने लगभग 7 वर्ष तक निरन्तर देशभर में घूम कर महर्षि दयानन्द के सम्पर्क में आये प्रत्येक व्यक्ति व संगठनों से मिलकर उनके जीवन विषयक सामग्री का संग्रह किया जिसके आधार पर उनका प्रमुख व सर्वाधिक महत्वपूर्ण जीवनचरित्र लिखा गया। 39 वर्ष की अल्प आयु में ही एक मुस्लिम युवक ने धोखे से इनके पेट में छुरा घोप कर इन्हें वैदिक धर्म का पहली पंक्ति का शहीद बना दिया था। कवि हृदय प्रा. जिज्ञासु जी ने इस शहादत पर यह पंक्तियां लिखी हैं-जो देश को बचा सकें, वे हैं कहां जवानियाँ ? जो अपने रक्त से लिखें, स्वदेश की कहानियां।। पं. लेखराम जी के जीवन की इस घटना को प्रस्तुत करने का हमारा उद्देश्य है कि पाठक यह जान सकें सच्चे विद्वानों से भी अनजाने में इतिहास विषयक कैसी-कैसी भूलें हो जाती हैं, इसका ज्ञान हो सके।

 

स्मृतिदोष की यह घटना आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान जिन्हें भूमण्डल प्रचारक के नाम से जाना जाता है, उन मेहता जैमिनी से सम्बन्ध रखती है। मेहता जैमिनी जी की स्मरण शक्ति असाधारण थी। इस कारण वह चलते फिरते इतिहास के ग्रन्थ थे। उनकी स्मरण शक्ति कितनी भी अच्छी हो परन्तु वह थे तो एक जीवात्मा ही। जीव की अल्पज्ञता के कारण उनमें भी अपवाद रूप में स्मृति दोष पाया गया है। आपकी स्मृति दोष की एक घटना से आर्यसमाज में एक भूल इतिहास बन कर प्रचलित हो गई। प्रा. जिज्ञासु जी बताते हैं कि यह सम्भव है कि इस भूल का मूल कुछ और हो परन्तु उनकी खोज व जांच पड़ताल यही कहती है कि यह भ्रान्ति मेहता जैमिनि जी के लेख से ही फैली। घटना तो घटी ही। यह ठीक है परन्तु श्री मेहता जी के स्मृति-दोष से इतिहास की इस सच्ची घटना के साथ कुछ भ्रामक कथन भी जुड़ गया। कवियों ने उस पर कविताएं लिख दीं। लेखकों ने लेख लिखे। वक्ताओं ने अपने ओजस्वी भाषणों में उस घटना के साथ जुड़ी भूल को उठा लिया। घटना तो अपने मूल स्वरूप में ही बेजोड़ है और जो बात मेहता जी ने स्मृति-दोष से लिख दी व कह दी उससे उस घटना का महत्व और बढ़ गया।

 

घटना पं. लेखराम जी के सम्बन्ध में है। इसे आर्यसमाजेतर जाति प्रेमी हिन्दू भी कुछ-कुछ जानते हैं। यह सन् 1896 की घटना है। पं. लेखराम जी सपरिवार तब जालन्धर में महात्मा मुंशीराम (बाद में स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती) जी की कोठी से थोड़ी दूरी पर रेलवे लाईन के साथ ही एक किराये के मकान में रहते थे। मेहता जैमिनि जी (तब जमनादास) भी जालन्धर में ही रहते थे। मुंशीराम जी आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे। मेहता जैमिनि जी सभा प्रधान के पास बैठे हुए थे। पण्डित लेखराम जी प्रचार-यात्रा से लौटकर आये। महात्मा मुंशी राम जी ने उन्हें बताया कि मुस्तफाबाद (जिला अम्बाला) में पांच हिन्दू मुसलमान होने वाले हैं। आपका प्रिय पुत्र सुखदेव रूग्ण है। आप तो उसको देखें, सम्भालें ( उपचार करायें) मैं हकीम सन्तराम जी (जो शाहपुरा राजस्थान भी रहे) को तार देकर वहां जाने के लिए कहता हूं।

 

मेहता जी ने अपने इस विषयक लेख में लिखा है-‘‘नहीं, वहां तो मेरा (पं. लेखराम का) ही जाना ठीक है। मुझे अपने एक पुत्र से (आर्यहिन्दू) जाति के पांच पुत्र अधिक प्यारे हैं। आप वहां तार दे दें। मैं सात बजे की गाड़ी से सायं को चला जाऊंगा। यह भी लिखा कि वह केवल दो घण्टे घर पर रुके। उनकी अनुपस्थिति में डा. गंगाराम जी ने बड़ा उपचार निदान किया, परन्तु सुखदेव को बचाया न जा सका। 18 अगस्त 1896 ई. को वह चल बसा। (द्रष्टव्यः ‘आर्यवीर’ उर्दू का शहीद अंक सन् 1953 पृष्ठ 9-10)।  ईश्वर का विधि-विधान अटल है। जन्म-मृत्यु मनुष्य के हाथ में नहीं है।

 

जिज्ञासु जी आगे लिखते हैं कि यह तो हम समझते हैं कि पण्डित जी के लौटने पर मेहता जी ने महात्मा जी पण्डित जी का संवाद अवश्य सुना, परन्तु आगे का घटनाक्रम उनकी स्मृति से ओझल हो गया। पण्डित जी पुत्र की मृत्यु के समय जालन्धर में ही थे। घर से बाहर होने की बात किसी ने नहीं लिखी। वह पुत्र के निधन के पश्चात् मुस्तफाबाद जाति रक्षा के लिए गये। अब इस सम्बन्ध में और अधिक क्या लिखा जाए? एक छोटी सी चूक से इतिहास में भ्रम फैल गया। लोक झूम-झूम कर गाते रहे-

 

लड़का तिरा बीमार था

                        शुद्धि को तू तैयार था ।।

                        मरने का पहुंचा तार था।

                        पढ़कर के तार यूं कहा।।

                        लड़का मरा तो क्या हुआ।

                        दुनिया का है यह सिलसिला ।।

 

इससे भी अधिक लिफाफे वाले गीत को लोकप्रियता प्राप्त हुई। अब तो वह गीत नहीं गाया जाता। उस गीत की ये प्रथम चार पंक्तियां स्मृति-दोष से इतिहास प्रदूषण का अच्छा प्रमाण है।

 

लिफाफा हाथ में लाकर दिया जिस वक्त माता ने।

                        लगे झट खोलकर पढ्ने दिया है छोड़ खाने को।।

                        मेरा इकलौता बेटा मरता है तो मरने दो लेकिन

                        मैं जाता हूं हजारों लाल जाति के बचाने को।।

 

इस प्रसंग की समाप्ति पर जिज्ञासु जी कहते हैं कि स्मृति दोष से बचने का तो एक ही उपाय है कि इतिहास लेखक घटना के प्रमाण को अन्यान्य संदर्भों से मिलाने को प्रमुखता देवें।

 

विद्वान लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने वीर सावरकर पर भी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। हम इस प्रसंग से पहली बार परिचित हुए हैं जिसे हम पाठकों के साथ साज्ञा कर रहे हैं। पुस्तक इतिहास प्रदूषण में लेखक ने लिखा है कि वीर सावरकर ने अपनी आत्मकथा में ऋषि दयानन्द तथा आर्य समाज से प्राप्त ऊर्जा प्रेरणा की खुलकर चर्चा की है। यदि ये बन्धु लार्ड रिपन के सेवा निवृत्त होने पर काशी के ब्राह्मणों द्वारा उनकी शोभा यात्रा में बैलों का जुआ उतार कर उसे अपने कन्धों पर धरकर उनकी गाड़ी को खींचने वाला प्रेरक प्रसंग (श्री आर्यमुनि, मेरठवैदिकपथपत्रिका में वीर सावरकर जी पर प्रकाशित अपने लेख में) उद्धृत कर देते तो पाठकों को पता चला जाता कि इस विश्व प्रसिद्ध क्रान्तिकारी को देश के लिए जीने मरने के संस्कार विचार देने वालों में ऋषि दयानन्द अग्रणी रहे। इसी क्रम में दूसरी घटना है कि मगर आर्यसमाज ने जब अस्पृश्यता निवारण के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज आयोजित किया तो आप (यशस्वी वीर सावरकर जी) विशेष रूप से इसमें भाग लेने के लिए अपने जन्मस्थान पर पधारे। इससे यह एक ऐतिहासिक घटना बन गई। इस लेखक (प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु) ने कई बार लिखा है कि भारत के राजनेताओं में से वीर सावरकर ने सर्वाधिक आर्य हुतात्माओं तथा देशभक्तों पर हृदय उड़ेल कर लेख लिखे हैं। आर्यसमाज ऋषि के विरोधियों को लताड़ने में वीर सावरकर सदा अग्रणी रहे। कम से कम भाई परमानन्द स्वामी श्रद्धानन्द जी की चर्चा तो की जानी चाहिये। आपके एक प्रसिद्ध पत्र का नाम ही श्रद्धानन्द था। यह पत्र भी इतिहास साहित्य में सदा अमर रहेगा। 

 

महर्षि दयानन्द आर्यसमाज संगठन के प्रति समर्पित अनेक विद्वान हुए हैं परन्तु जो श्रद्धा, समर्पण, इतिहास साहित्य के अनुसंधान की तड़फ पुरूषार्थ सहित महर्षि समाज के प्रति दीवानगी वर्तमान समय में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी में दिखाई देती है, वह अन्यतम एव अनुकरणीय है। नाज नखरों से रहित उनका जीवन एक सामान्य सरल व्यक्ति जैसा है। आज की हाईफाई जीवन शैली से वह कोसों दूर हैं। उन्होंने आर्यसमाज को जो विस्तृत खोजपूर्ण प्रामाणिक साहित्य प्रदान किया है वह स्वयं में एक कीर्तिमान है। पाठकों हममें उनका समस्त साहित्य प्राप्त कर अध्ययन करने की क्षमता भी नहीं है। हम उनकी ऋषिभक्ति खोजपूर्ण साहित्यिक उपलब्धियों के प्रति नतमस्तक हैं।  उनके साहित्य का अध्ययन करते हुए जबजब हमें नये खोजपूर्ण प्रसंग मिलते हैं तो हम गद्गद् हो जाते हैं और हमारा हृदय उनके प्रति श्रद्धाभक्ति से भर जाता है। कुछ अधूरे प्रसंग पढ़कर संदर्भित पुस्तक तथा प्रमाण तक हमारी पहुंच होने के कारण मन व्यथित भी होता है। उनके समस्त साहित्य में ऋषि भक्ति साहित्यिक मणिमोती बिखरे हुए हैं जो अध्येता को आत्मिक सुख देते हैं। हम ईश्वर से अपने इस श्रद्धेय विद्वान की शताधिक आयु के स्वस्थ क्रियात्मक जीवन की प्रार्थना करते हैं।

हम समझते हैं कि लेखकों से स्मृति दोष व अन्य अनेक कारणों से ऐतिहासिक घटनाओं के चित्रण व वर्णन में भूलें हो जाती हैं। इतिहास में विगत कई शताब्दियों से अज्ञानता व स्वार्थ के कारण धार्मिक व सांस्कृतिक साहित्य में परिवर्तन, प्रेक्षप, मिलावट व हटावट होती आ रही है जिसे रोका जाना चाहिये। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की इतिहास प्रदूषण पुस्तक इसी उद्देश्य से लिखी गई है। विद्वान लेखक ने अपनी इस पुस्तक में जाने-अनजाने में होने वाली भूलों के सुधार के लिए एक से अधिक प्रमाणों को देखकर व मिलान कर ही पुष्ट बातों को लिखने का परामर्श दिया है जो कि उचित ही है। इतिहास प्रदूषण से बचने के उनके द्वारा दिये गये सभी सुझाव यथार्थ व उपयोगी हैं। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

रामायण में वर्णित लक्ष्मण रेखा का मिथक – सुलक्षण रेखा की सच्चाई

हमारे महान भारत में पहले अनेको ऋषि, महर्षि, ज्ञानी, विद्वतजन होते थे जो धर्म, ग्रन्थ और इतिहास का अतिसूक्ष्म निरिक्षण करकर सत्य असत्य से जनता को सदैव परिचित करवाते रहते थे। कालांतर में ये पद्धति मृतप्राय हो गयी और अनेको मूर्खो, लालची, लोभी, कुसंगियो द्वारा धर्म और इतिहास विषयक सामग्री में मिलावट की जाने लगी। जहाँ मिलावट संभव नहीं हो सकती थी वहां मिलावट के स्थान पर लोकोक्ति के माध्यम से मिथ्या जाल प्रपंच रचा गया।

इस आर्यावर्त में दुर्भाग्य से विद्वानो की कमी होने के कारण सत्य असत्य का निर्धारण करने के ठेका ढोंगी, कपटी, चालाक, तथाकथित स्वयंभू धर्म के ठेकेदारो ने ले लिया। फिर तो मौज बन आई। महापुरषो को बदनाम किया जाने लगा। सत्य इतिहास को बदनाम किया गया। द्रौपदी का चीरहरण, हनुमान जी बन्दर स्वरुप, ब्रह्मा जी के ४ सर आदि अनेको मिथ्या कपोलकल्पित कथाये प्रचारित की जाने लगी। भारतीय जनमानस अपने ही इतिहास से रुष्ट होकर ईसाई, मुसलमान आदि पथभ्रष्ट होना स्वेच्छा से स्वीकार करने लगे। क्योंकि वो अपनी बुद्धि से ऐसे इतिहास को अपनाना नहीं चाहते थे। ऐसे ही एक कथा रामायण में जोड़ी गयी :

लक्ष्मण रेखा

जो महानुभाव लक्ष्मण ने सीता माता की रक्षा हेतु खेंची थी। लेकिन ये पौराणिक मिथ्या ज्ञान बांटने वाले कभी ये नहीं बताते की यदि ये रेखा वाकई लक्ष्मण जी ने खेंची थी तो फिर सीता माता का अपहरण कैसे हो गया ?

आइये एक नजर वाल्मीकि रामायण पर डालते हैं और इस मिथ्या कपोलकल्पित लोकोक्ति का सत्य जानते हैं :

रामायण जैसा महाकाव्य ऋषि वाल्मीकि ने लिखा है। ये महाकाव्य इतना अनूठा है की आने वाले समय के अनेको कवियों ने भी इस महाकाव्य पर अपनी अपनी पुस्तके लिखी। लेकिन हमें ये ध्यान रखना चाहिए की रामायण विषय पर प्रमाणिकता केवल वाल्मीकि ऋषि द्वारा रचित वाल्मीकि रामायण की ही होती है। देखिये ऋषि वाल्मीकि क्या लिखते हैं :

श्री राम जब मृग रूप में मारीच को पकड़ने जाते हैं और मृग (मारीच) श्री लक्ष्मण को श्री राम की आवाज़ में पुकारता है तब माता सीता द्वारा मार्मिक वचन कहे जाने पर श्री लक्ष्मण अपशकुन उपस्थित देखकर माता सीता को सम्बोधित करते हुए कहते हैं –

”रक्षन्तु त्वाम…पुनरागतः ”
[श्लोक-३४,अरण्य काण्ड , पञ्च चत्वाविंशः ]

अर्थात -विशाललोचने ! वन के सम्पूर्ण देवता आपकी रक्षा करें क्योंकि इस समय मेरे सामने बड़े भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं उन्होंने मुझे संशय में डाल दिया है . क्या मैं श्री रामचंद्र जी के साथ लौटकर पुनः आपको कुशल देख सकूंगा ?”

माता सीता लक्ष्मण जी के ऐसे वचन सुनकर व्यथित हो जाती हैं और प्रतिज्ञा करती हैं कि श्रीराम से बिछड़ जाने पर वे नदी में डूबकर ,गले में फांसी लगाकर ,पर्वत-शिखर से कूदकर या तीव्र विष पान कर ,अग्नि में प्रवेश कर प्राणान्त कर लेंगी पर ‘पर-पुरुष’ का स्पर्श नहीं करेंगी .
[श्लोक-३६-३७ ,उपरोक्त]

माता सीता की प्रतिज्ञा सुन व् उन्हें आर्त होकर रोती देख लक्ष्मण जी ने मन ही मन उन्हें सांत्वना दी और झुककर प्रणाम कर बारम्बार उन्हें देखते श्रीरामचंद्र जी के पास चल दिए .[श्लोक-39-40 ] .

स्पष्ट है इस पुरे प्रकरण में कहीं भी लक्ष्मण जी ने कोई रेखा नहीं खींची। यहाँ तर्क दृष्टि से देखा जाये तो भी “लक्ष्मण रेखा” से सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता क्योंकि यदि एक लक्ष्मण रेखा से ही माता सीता की सुरक्षा हो सकती थी तो प्रभु राम लक्ष्मण को साथ क्यों नहीं ले गए ?

या फिर दूसरा तर्क ये है जो श्री राम ने लक्ष्मण जी को निर्देश दिया :

”प्रदक्षिणेनाती ….शङ्कित: ‘
[श्लोक-५१ ,अरण्य काण्ड ,त्रिचत्वा रिनश: ] –

”लक्ष्मण ! बुद्धिमान गृद्धराज जटायु बड़े ही बलवान और सामर्थ्यशाली हैं .उनके साथ ही यहाँ सदा सावधान रहना .मिथिलेशकुमारी को अपने संरक्षण में लेकर प्रतिक्षण सब दिशाओं में रहने वाले राक्षसों की और चैकन्ने रहना .”

यहाँ भी श्रीराम लक्ष्मण जी को यह निर्देश नहीं देते कि यदि किसी परिस्थिति में तुम सीता की रक्षा में अक्षम हो जाओ तो रेखा खींचकर सीता की सुरक्षा सुनिश्चित कर देना.

तीसरा तर्क भी देखे : यदि कोई रेखा खींचकर माता सीता की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती थी तो लक्षमण माता सीता को मार्मिक वचन बोलने हेतु विवश ही क्यों करते .वे श्री राम पर संकट आया देख-सुन रेखा खेंचकर तुरंत श्री राम के समीप चले जाते।

अतः वाल्मीकि रामायण में तो लक्ष्मण रेखा का कोई औचित्य नहीं बनता। आइये अब जो अन्य रामायण के संस्करण मिलते हैं उन्हें देखे :

श्री वेदव्यास जी द्वारा रचित ”अध्यात्म रामायण’ में भी ‘सीता-हरण’ प्रसंग के अंतर्गत लक्ष्मण जी द्वारा किसी रेखा के खींचे जाने का कोई वर्णन नहीं है .माता सीता द्वारा लक्ष्मण जी को जब कठोर वचन कहे जाते हैं तब लक्ष्मण जी दुखी हो जाते हैं –

’इत्युक्त्वा ……….भिक्षुवेषधृक् ”

[श्लोक-३५-३७,पृष्ठ -१२७]

”ऐसा कहकर वे (सीता जी ) अपनी भुजाओं से छाती पीटती हुई रोने लगी .उनके ऐसे कठोर शब्द सुनकर लक्ष्मण अति दुखित हो अपने दोनों कान मूँद लिए और कहा -’हे चंडी ! तुम्हे धिक्कार है ,तुम मुझे ऐसी बातें कह रही हो .इससे तुम नष्ट हो जाओगी .” ऐसा कह लक्ष्मण जी सीता को वनदेवियों को सौपकर दुःख से अत्यंत खिन्न हो धीरे-धीरे राम के पास चले .इसी समय मौका समझकर रावण भिक्षु का वेश बना दंड-कमण्डलु के सहित सीता के पास आया .” यहाँ कहीं भी लक्ष्मण जी न तो रेखा खींचते हैं और न ही माता सीता को उसे न लांघने की चेतावनी देते हैं .

हालांकि ये प्रामाणिक ग्रन्थ मैं नहीं मानता। और नाही लक्षमण जी ऐसे आर्य थे जो ऐसे वचन सीता जी को बोलते न ही सीता जी ने ऐसे लक्षण दिखाए होंगे। फिर भी यहाँ लक्ष्मण रेखा का सिद्धांत नहीं पाया जाता न ही किसी लक्ष्मण रेखा से सीता जी की सुरक्षा संभव थी क्योंकि इस रामायण में लक्ष्मण जी सीता माता को वनदेवियो को सौंपकर चले जाते हैं।

अब अन्य रामायण से जुड़े ग्रंथो पर विचार करते हैं। एक मान्य ग्रन्थ आज हिन्दू समाज में वाल्मीकि रामायण से भी ज्यादा प्रचलित है वो है तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस। लेकिन खेद की इस ग्रन्थ में भी लक्षमण रेखा का विवरण प्राप्त न हो सका।

अरण्य-काण्ड में सीता -हरण के प्रसंग में सीता जी द्वारा लक्ष्मण जी को मर्म-वचन कहे जाने पर लक्ष्मण जी उन्हें वन और दिशाओं आदि को सौपकर वहाँ से चले जाते हैं –

”मरम वचन जब सीता बोला , हरी प्रेरित लछिमन मन डोला !
बन दिसि देव सौपी सब काहू ,चले जहाँ रावण ससि राहु !”

[पृष्ठ-५८७ अरण्य काण्ड ]

लक्ष्मण जी द्वारा कोई रेखा खीचे जाने और उसे न लांघने का कोई निर्देश यहाँ उल्लिखित नहीं है।

अब जब कहीं भी लक्ष्मण रेखा का उल्लेख किसी मान्य ग्रन्थ में नहीं तब क्यों और कैसे ये लक्ष्मण रेखा रामायण से जुड़ कर प्रचलित हुई ?

आइये एक विचार इसपर भी रखते हैं :

लक्ष्मण -रेखा का अर्थ कोई पंचवटी में कुटिया के द्वार पर खींची गयी रेखा नहीं बल्कि प्रत्येक नर-नारी के लिए ऋषियों द्वारा बनाये नियम और निर्धारित आदर्श लक्षणों से प्रतीत होता है। यह नारी-मात्र के लिए ही नहीं वरन सम्पूर्ण मानव जाति के लिए आवश्यक है कि विपत्ति-काल में वह धैर्य बनाये रखे किन्तु माता सीता श्रीराम के प्रति अगाध प्रेम के कारण मारीच द्वारा बनायीं गयी श्रीराम की आवाज से भ्रमित हो गयी। माता सीता ने न केवल श्री राम द्वारा लक्ष्मण जी को दी गयी आज्ञा के उल्लंघन हेतु लक्ष्मण को विवश किया बल्कि पुत्र भाव से माता सीता की रक्षा कर रहे लक्ष्मण जी को मर्म वचन भी बोले। माता सीता ने उस क्षण अपने स्वाभाविक व् शास्त्र सम्मत लक्षणों, धैर्य,विनम्रता के विपरीत सच्चरित्र व् श्री राम आज्ञा का पालन करने में तत्पर देवर श्री लक्ष्मण को जो क्रोध में मार्मिक वचन कहे उसे ही माता सीता द्वारा सुलक्षण की रेखा का उल्लंघन कहा जाये तो उचित होगा। माता सीता स्वयं स्वीकार करती हैं –

”हा लक्ष्मण तुम्हार नहीं दोसा ,सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा !” [पृष्ठ-५८८ ,अरण्य काण्ड ]

निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि लक्ष्मण रेखा को सीता-हरण के सन्दर्भ में उल्लिखित कर स्त्री के मर्यादित आचरण-मात्र से न जोड़कर देखा जाये। यह समस्त मानव-जाति के लिए निर्धारित सुलक्षणों की एक सीमा है जिसको पार करने पर मानव-मात्र को दण्डित होना ही पड़ता है।

तुलसीदास जी के शब्दों में –
”मोह मूल मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ”

इस आर्यावर्त में एक ऋषि ने सत्य का ज्ञान सूर्य उदय किया। ऋषि ने सभी झूठे तथ्यों और आधारहीन घटनाओ को सिरे से ख़ारिज किया। आज आर्य समाज इसी ऋषि कार्य के सिद्धांत को आगे बढ़ा रहा है। हमें चाहिए हम सत्य को जानकार असत्य को दूर फेक देवे।

आओ लौटो सत्य की और – लौटो न्याय और ज्ञान की और

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

ईश्वर की दया और न्यायः – राजेन्द्र जिज्ञासु

ईश्वर की दया और न्यायः सहस्रों वर्षों के पश्चात् संसार में पहला विचारक, दार्शनिक, ऋषि महर्षि दयानन्द ही ऐसा धर्माचार्य आया, जिसने यह जटिल गुत्थी सुलझाई कि ईश्वर की दया तथा न्याय पर्याय हैं। दोनों का प्रयोजन एक ही है। आस्तिक लोग ईश्वर को दयालु तो मानते ही हैं, परन्तु अन्यायी न मानते हुए भी मतवादी ईश्वर के दया व न्याय इन दो गुणों की संगति नहीं लगा पाते थे। पूर्व व पश्चिम में तार्किक लोगों ने एक प्रश्न उठाया कि संसार में सबसे बड़ा दुःख मौत है। यदि ईश्वर है तो उसके संसार में मृत्यु रूपी दुःख का होना उसकी क्रूरता को दर्शाता है। वह दयालु परमात्मा नहीं हो सकता। यही प्रश्न इन दिनों किसी ने महाराष्ट्र यात्रा में पूछ लिया।

एक बार काशी प्रयाग के पण्डितों को एक ऐसे ही व्यक्ति ने यह प्रश्न उठाकर परेशान कर दिया। तब जन्माभिमानी ब्राह्मणों को महर्षि के शिष्य पं. गंगाप्रसादजी उपाध्याय की शरण लेनी पड़ी थी। उपाध्याय जी ने प्रश्नकर्त्ता से कहा- मृत्यु का होनााी ईश्वर की दया को दर्शाता है, न कि क्रूरता को। यदि संसार में जन्मे प्राणियों की मृत्यु न होती, तो धरती तल पर नये जन्मे व्यक्तियों को खड़े होने को भी स्थान न मिलता। यदि हमारे पूर्वज न मरते तो फिर हमारे सिर पर सैंकड़ों व्यक्ति खड़े भी न हो सकते। उपाध्याय जी के उत्तर ने प्रश्न करने वाले को सर्वथा निरुत्तर व शान्त कर दिया।

इस्लाम में पहली बार एक विचारक नेाुलकर लिखा है- ‘‘वह रब भी है और आदिल और रहीम भी (न्यायकारी तथा दयालु भी)’’ यह और महर्षि के दया व न्याय का प्रयोजन एक ही है। इस घोष को सुनकर इस्लामी विद्वान् ने यह सिद्धान्त स्वीकार किया है। यह लेखक दया का अर्थ पाप को क्षमा होना नहीं मानता। इस लेखक ने यह लिखने का साहस दिखाया है कि ‘‘संसार में प्रत्येक कर्म का एक फल है, जो किसी भी अवस्था में उससे पृथक् नहीं हो सकता’’। यह वैचारिक क्रान्ति है। यह वैदिक इस्लाम है। ईश्वर की दया व न्याय पर विचार करने व समझने से उपरोक्त प्रश्न जैसे सब प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं।

आर्य सामाजिक साहित्य में घुसते दोषः अति उत्साही लेखकों के कारण तथा कुछ लेखकों व प्रकाशकों के प्रमाद से आर्य सामाजिक साहित्य में आपत्तिजनक दोष घुस रहे हैं। महाराष्ट्र यात्रा में एक आर्यााई ने ‘निर्णय के तट पर’ ग्रन्थ का पाँचवाँ भाग दिखाया। मुझे यह देखकर दुःख हुआ कि इसमें भी ऋषि के शास्त्रार्थ बहालगढ़ से छपे ग्रन्थ से उद्धरण लेकर दिये गये हैं, सो इनमें क ई दोष व भयङ्कर दोष घुस गये हैं। विषय पर अधिकार न होने से सपादकों ने पं. लेखराम जी सरीखे अद्वितीय शास्त्रार्थ महारथी द्वारा संग्रहीत ऋषि के शास्त्रार्थों को दोषयुक्त बना दिया है।

जालंधर में महर्षि का मौलवी अहमद अहसन से शास्त्रार्थ हुआ था। मकी पर मक्खी मारने वालों ने यहाँ मौलवी अहमद हुसैन कर दिया है। भूल स्वीकार करने का साहस कोई करता नहीं। गड़बड़ संक्रामक रोग बनकर फैल रही है। मिलान करने से और भी कई चूक मिलेंगी। ईसाइयों की एक प्रसिद्ध पुस्तक का नाम ही कुछ-का-कुछ छप रहा है। सावधान होने की आवश्यकता है। शास्त्रार्थों में प्रतिपक्षियों के महर्षि के बारे कहे गये कुछ कथन प्रमुाता से प्रचारित, करने की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता, यथा चाँदापुर के शास्त्रार्थ में पादरी जी ने कहाः-

‘‘सुनो भाई मौलवी साहबो! कि पण्डित जी इसका उत्तर हजार प्रकार से दे सकते हैं। हम और तुम हजारों मिलकर भी इनसे बात करें तो भी पण्डित जी (ऋषि दयानन्द) बराबर उत्तर दे सकते हैं।’’

आशा है, आर्यजन मेरी विनती पर ध्यान देंगे।

हिन्दू तथा हिन्दुत्ववादीः देश में हिन्दू समाज की स्थति पूर्ववत् दयनीय है। देश जाति हित चिन्तकों को बहुत जागरूक होकर धर्म रक्षा, जाति रक्षा के लिए बहुत सूझबूझ से सक्रिय होना होगा। हिन्दुत्ववादी के वक्तव्यों से भ्रमित होकर अति आशावादी व प्रमादी होना आत्मघाती नीति होगी। हिन्दू की दुर्बलता उसके अंधविश्वास तथा अनेकेश्वरवाद है। नागपुर का एक समाचार आँखें खोलने वाला है। एक उच्च शिक्षित हिन्दू अनेक भगवानों के हिन्दू चिन्तन पर विधर्मियों के पंजे में फँसकर……..। एक आर्यवीर को इसकी जानकारी मिली। ईशकृपा से उस परिवार की रक्षा हो गई। इस सेवक से भी अब उसका सपर्क हो जायेगा। हिन्दुत्ववादी नयी-नयी घोषणायें करने में मस्त हैं। शिवाजी के महाराष्ट्र में अनेक सुपठित परिवार अनेकेश्वरवाद की हिन्दुत्व फिलॉसफी से ऊबकर ईसाई मत में इन्हीं दिनों चले गये। आर्यवीर लगे हैं। देखिये, क्या परिणाम निकलता है, जब हिन्दुत्व के महानायक स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक प्रभुदूत ईसा पादरियों के हाथ में हो तो फिर अशोक सिंघल ऐसे अभियान को कैसे रोक सकता है? गीता-गीता पर सर्मन सुनने को मिलने लगे हैं। काशी (रामनगर) से विधर्मियों ने गीता के पुनर्जन्म की धज्जियाँ उड़ा दीं। हिन्दुत्ववादी गीता प्रवचनकर्त्ता सब मौन रहे। किसी से उत्तर न बन पाया। परोपकारी ने ऐसे सब लेखकों व कान्ति मासिक को उपयुक्त उत्तर देकर धर्म रक्षा की। विवेकानन्द स्वामी के नाम लेवाओं तथा गीता के गोरखपुर प्रेस की नींद तो जगाने पराी न टूटी। लेखक ने गोरखपुर जाकर उन्हें चेताया कि उत्तर दो परन्तु…… । हिन्दुओं का उपास्य कौन है? दर्शन क्या है? इसका उत्तर मिलना चाहिये।

– वेद सदन, अबोहर-252226 (पंजाब)

रामपाल का पतनः – राजेन्द्र जिज्ञासु

रामपाल देव बना बैठा था। उसको देश ने दानव के रूप में जान लिया, देख लिया। आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द के विरुद्ध विष वमन करते हुए उसने असीम धन विज्ञापनों पर फूँ का। उसके पीछे कौन-कौन सी बाहरी शक्तियाँ थीं, यह भी पता लगना चाहिये। देश विरोधी शक्तियों ने ही हिन्दू समाज के नाश के लिए आर्य समाज के विरोध में उसे खड़ा किया।

कबीर जी के नाम की आड़ में उसने आर्यसमाज के विरुद्ध अभियान छेड़ा। उसने यह प्रचार किया कि कुरान की एक आयत में कबीर जी का नाम आता है। परोपकारी में मैंने उसे हिसार में शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी। कुरान में ‘कबीर’ शद तो है, परन्तु वहाँ ‘अजीम’ शद कबीर का विशेषण है, जिसका अर्थ दारुण दुःख है। कुरान की प्रत्येक तफसीर में यही अर्थ मिलेगा। कबीर शद अरबी साहित्य में भी मिलता है। रामपाल को कौन बतावे कि कबीरः शद का अर्थ भयङ्कर अथवा बड़ा पाप है।

रामपाल को मनुष्य रूप में झज्जर के निकट भगवान मिल गया था। वह किसी और को न दिखा। बाइबिल कीाी आड़ इसने ली थी। यह हिन्दुओं को धर्मच्युत करने का षड्यन्त्र था।

कबीर पंथियों ने इस्लाम व ईसाई प्रचारकों से टक्कर लेने के लिए ऋषि दयानन्द की शरण ली। एक कबीर पंथी विद्वान् श्री शिवव्रत लाल वर्मन के शदों में पादरी व मौलवी चाँदापुर में ऋषि का सिंहनाद सुनकर भाग खड़े हुए। आर्यसमाज का यह उपकार रामपाल भूल गया। ऋण तो क्या चुकाना था, गालियाँ देता फिरता था। डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी तथा डॉ. धर्मवीर जी ने रामपाल के प्रहार का अपनी लौह लेखनी से उत्तर दिया। धर्मवीर जी प्रेस कौंसिल तक भी पहुँचे। इन्द्रजित देव जी या डॉ. धर्मवीर जी यदि टी.वी. पर बुलाये जाते तो आर्यसमाज का दृष्टिकोण देश के सामने आता, परन्तु टी.वी. पर आर्यसमाज की बात रखने वाला कोई कुशल विद्वान् था ही नहीं।

महात्मा कबीर ने मांसाहार का खण्डन करते हुए प्राणियों पर दया की शिक्षा दी। रामपाल ने तो हरियाणा में गो-वध पर कभी दो शब्द  भी न कहे। रामपाल महात्मा कबीर के नाम पर ठगी करता रहा। देश के विरुद्ध युद्ध लड़ने वाले इस पाजी सन्त ने हूडा सरकार की परोक्ष सहायता से शस्त्र तो एकत्र किये ही, सैकड़ों कमाण्डो भी प्रशिक्षित कर लिये। हूडा ने रामपाल को धर दबोचने में नई सरकार को विफल बताया, परन्तु आश्रमों के नाम पर अपार धन इकट्ठा करके बंकर आदि जो रामपाल ने निर्मित किये, यह सब कुछ हूडा के कांग्रेस राज में ही हो पाया। इसका सबसे बड़ा श्रेय हूडा के एक आर्यसमाज द्वेषी सहयोगी को प्राप्त है। देश को ललकारने वाले दैत्य रामपाल की जेल में अच्छी सेवा हो रही है। अन्त भला सो भला।

कभी सी.वाई. चिन्तामणि ने लिखा था कि प्रत्येक देशद्रोही, राष्ट्रद्वेषी की आँखों में आर्यसमाज काँटा बन कर खटकता है। रामपाल काण्ड उसी का एक नया प्रमाण है। आचार्य बलदेव जी तथा उनके सहयोगी युवक हम सबके धन्यवाद व बधाई के अधिकारी हैं।

वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए

।। ओ३म ।।

अयं त इध्म आत्मा जातवेदः।

“हे अग्ने ! तेरे लिए सबसे पहला ईंधन “अयं आत्मा” – अर्थात यह यजमान – स्वयं है।”

वेदो का विज्ञानं मानवमात्र के लिए :

क्षयरोग (TB – Tuberculosis) से बचाव और उपचार करता है यज्ञ।

सूर्य का प्रकाश मनुष्य के लिए वैसे भी लाभदायक है। इससे शरीर में विटामिन डी बनता है, जिससे हड्डियां पुष्ट होती हैं। उदय और अस्त होने वाले सूर्य की किरणे तो और भी अधिक गुणकारी होती हैं।

उद्यन्नादित्यः क्रिमिहन्तु निम्रोचन्हन्तु रश्मिभिः।
ये अन्तः क्रिमयो गवि।।

(अथर्ववेद २।३२।१)

“उदय होता हुआ और अस्त होने वाला सूर्य अपनी किरणों से भूमि और शरीर में रहने वाले रोगजनक कीटो का नाश करता है।”

सूर्य का प्रकाश कृमिनाशक है। रोबर्ट काउच ने सन १८९० में अनेको प्रयोगो द्वारा यह सिद्ध किया की क्षयरोग (फेफड़ो के क्षयरोग को छोड़कर) के कीटाणु इस प्रकाश में दस मिनट से अधिक समय तक जीवित जीवित नहीं रह सकते। इसलिए क्षयरोग से ग्रस्त व्यक्ति को धुप सेकनी चाहिए।

संभवतः जनसाधारण में इसको यह कहकर मान्यता प्रदान की जाती है की अँधेरे में क्षयरोग फूलता फलता है तथा प्रकाश में यह दम दबाकर भाग जाता है।

अतः यज्ञ के लिए सूर्योदय के पश्चात तथा सूर्यास्त से पूर्व का समय ही ठीक है।

आधुनिक विज्ञानं के अनुसार सूर्य की धुप क्षयरोग के लिए बचाव और उपचार दोनों है

http://www.dailymail.co.uk/…/Sunshine-vitamin-helps-treat-p…

अब इस समय पर यज्ञ करना लाभदायक ही होगा क्योंकि यज्ञ में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में मुख्य रूप से गौघृत, खांड अथवा शक्कर, मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फल जिनमे शक्कर अधिक होती है, चावल, केसर और कपूर आदि के संतुलित मिश्रण से बनी होती है।

अब इस विषय पर कुछ वैज्ञानिको के विचार :

१. फ्रांस के विज्ञानवेत्ता ट्रिलवर्ट कहते हैं : जलती हुई शक्कर में वायु – शुद्ध करने की बहुत बड़ी शक्ति होती है। इससे क्षय, चेचक, हैजा आदि रोग तुरंत नष्ट हो जाते हैं।

२. डॉक्टर एम टैल्ट्र ने मुनक्का, किशमिश आदि सूखे फलो को जलाकर देखा है। वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं की इनके धुंए में टायफाइड ज्वर के रोगकीट केवल तीस मिनट तथा दूसरी व्याधियों के रोगाणु घंटे – दो घंटे में मर जाते हैं।

३. प्लेग के दिनों में अब भी गंधक जलाई जाती है, क्योंकि इसमें रोगकीट नष्ट होते हैं। अंग्रेजी शासनकाल में डाकटर करनल किंग, आई एम एस, मद्रास के सेनेटरी कमिश्नर थे। उनके समय में वहां प्लेग फ़ैल गया। तब १५ मार्च १८९८ को मद्रास विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समक्ष भाषण देते हुए उन्होंने कहा था – “घी और चावल में केसर मिलकर अग्नि में जलाने से प्लेग से बचा जा सकता है।” इस भाषण का सार श्री हैफकिन ने “ब्यूबॉनिक प्लेग” नामक पुस्तक मे देते हुए लिखा है, “हवन करना लाभदायक और बुद्धिमत्ता की बात है।”

महर्षि दयानंद ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है :

“जब तक इस होम करने का प्रचार रहा ये तब तक ये आर्यवर्त देश रोगो से रहित और सुखो से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए।”

(स. प्र. तृतीय समुल्लास)

यहाँ ऋषि इसी विज्ञानं को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जो आज का आधुनिक विज्ञानं मानता है।

कृपया यज्ञ करे – राष्ट्र और पर्यावण को सुखी बनाये

आओ लौटो वेदो की और।

नमस्ते

नोट : इस पोस्ट की कुछ सामग्री “यज्ञ विमर्श” पुस्तक से उद्धृत है।

कवि और कबीर का भेद – रामपाल के पाखंड का खंडन।

।। ओ३म ।।

अग्निनाग्निः समिध्यते कविर्गृहपतिर्युवा।
हव्यवावाड्जुह्वास्यः।।

(ऋग्वेद 1.12.6)

प्रथमाश्रम में अपने में ज्ञान को समिद्ध करते हुए हम द्वितीयाश्रम में उत्तम गृहपति बने। वानप्रस्थ बनकर यज्ञो का वहन करते हुए तुरियाश्रम में ज्ञान का प्रसार करने वाले बने।

नमस्ते मित्रो – आज का विषय

कवि और कबीर का भेद – रामपाल के पाखंड का खंडन।

वेदो में प्रयुक्त कवि शब्द एक अलंकार है – किसी प्राणी का नाम नहीं, क्योंकि विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों के दृष्टा, को कवि कहते हैं – इस कारण ये अलंकार ऋषियों के लिए भी प्रयुक्त होता है और समस्त विद्या (वेदो का ज्ञान) देने वाला ईश्वर भी अलंकार रूप से कवि नाम पुकारा जा सकता है।

क्योंकि ये एक अलंकार है इससे किसी व्यक्ति प्राणी का नाम समझना एक भूल है – विसंगति है – मगर बहुत से रामपालिये चेले चपाटे अपनी मूर्खता में ये काम करने से भी बाज़ नहीं आते उन्हें कुछ शास्त्रोक्त प्रमाण दिए जाते हैं –

कवि शब्द की व्युत्पत्ति : कविः शब्द ‘कु-शब्दे’ (अदादि) धातु से ‘अच इ:’ (उणादि 4.139) सूत्र से ‘इ:’ प्रत्यय लगने से बनता है। इसकी निरुक्ति है :

‘क्रांतदर्शनाः क्रांतप्रज्ञा वा विद्वांसः (ऋ० द० ऋ० भू०)

“कविः क्रांतदर्शनो भवति” (निरुक्त 12.13)

इस प्रकार विद्याओ के सूक्ष्म तत्वों का दृष्टा, बहुश्रुत ऋषि व्यक्ति कवि होता है।

इसे “अनुचान” भी इस प्रसंग में कहा है [2.129] ब्राह्मणो में भी कवि के इस अर्थ पर प्रकाश डाला है –

“ये वा अनूचानास्ते कवयः” (ऐ० 2.2)

“एते वै काव्यो यदृश्यः” (श० 1.4.2.8)

“ये विद्वांसस्ते कवयः” (7.2.2.4)

शुश्रुवांसो वै कवयः (तै० 3.2.2.3)

अतः इन प्रमाणों से सिद्ध हुआ की वेदो में प्रयुक्त “कवि” शब्द एक अलंकार है – जहाँ जहाँ भी जिस जिस वेद मन्त्र में कवि शब्द प्रयुक्त हुआ है उसका अर्थ अलंकार से ही लेना उचित होगा, बाकी मूढ़ लोगो को बुद्धि तो खुद “कबीर” भी ना दे पाये देखिये कबीर ने अपने ग्रंथो में क्या लिखा है :

कबीर जी परमात्मा को सर्वव्यापक मानते हैं। कबीर जी के कुछ वचन देखे :

स्वयं संत कबीर दास जी ने भी ईश्वर को सर्वव्यापक माना है। (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 855)

कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥
सरब बिआपी = सर्वव्यापी
कबीर जी कह रहे हैं की हे मेरे परमात्मा तू सर्वव्यापी है।

तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी॥

तुम्हारे सामान कोई दयालु नहीं है, और मेरे सामान कोई पापी नहीं है।

कबीर जी ब्रह्म का अर्थ परमात्मा लेते है काल नहीं
कबीरा मनु सीतलु भइआ पाइआ ब्रहम गिआनु ॥ (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 1373)

ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥

सभी की उत्पत्ति ब्रह्म अर्थात ईश्वर से होती है। (गुरु ग्रन्थ पृष्ठ 324)

अब जब कबीर जी भी ईश्वर अर्थात ब्रह्म से सभी की उत्पत्ति मानते हैं ऐसा लिखते भी हैं तब ये रामपाल और उसके चेले कबीर जैसे संत की वाणी को झूठा क्यों सिद्ध करते फिरते हैं की कबीर परमात्मा हैं ?

क्या ये धूर्तता और ढोंग पाखंड नहीं ?

क्या कबीर जैसे संत की वाणी को दूषित करना और संत कबीर को ईश्वर कहना क्या संत कबीर के शब्दों और दोहो का अपमान नहीं ?

आशा है सभ्य समाज इस लेख के माध्यम से रामपालिये और उसके चेलो के पाखंड का विरोध करेंगे और बुद्धिमान व्यक्ति इस पोस्ट के माध्यम से अपने विचार रखेंगे।

लौटो वेदो की और।

नमस्ते

अनवर जमाल साहब की पुस्तक “दयानंद जी ने क्या खोया क्या पाया” के प्रतिउत्तर में :

।। ओ३म ।।जनाब अनवर जमाल साहब ऋषि के ज्ञान और वेद के विज्ञानं पर शंका उत्पन्न करते हुए लिखते हैं :

यदि दयानन्द जी की अविद्या रूपी गांठ ही नहीं कट पायी थी और वह परमेश्वर के सामीप्य से वंचित ही रहकर चल बसे थे तो वह परमेश्वर की वाणी `वेद´ को भी सही ढंग से न समझ पाये होंगे? उदाहरणार्थ, दयानन्दजी एक वेदमन्त्र का अर्थ समझाते हुए कहते हैं-
`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्‍ठ 107)
(17) परमेश्वर ने चन्द्रमा को पृथ्वी के पास और नक्षत्रलोकों से बहुत दूर स्थापित किया है, यह बात परमेश्वर भी जानता है और आधुनिक मनुष्‍य भी। फिर परमेश्वर वेद में ऐसी सत्यविरूद्ध बात क्यों कहेगा?
इससे यह सिद्ध होता है कि या तो वेद ईश्वरीय वचन नहीं है या फिर इस वेदमन्त्र का अर्थ कुछ और रहा होगा और स्वामीजी ने अपनी कल्पना के अनुसार इसका यह अर्थ निकाल लिया । इसकी पुष्टि एक दूसरे प्रमाण से भी होती है, जहाँ दयानन्दजी ने यह तक कल्पना कर डाली कि सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रादि सब पर मनुष्‍यदि गुज़र बसर कर रहे हैं और वहाँ भी वेदों का पठन-पाठन और यज्ञ हवन, सब कुछ किया जा रहा है और अपनी कल्पना की पुष्टि में ऋग्वेद (मं0 10, सू0 190) का प्रमाण भी दिया है-
`जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं पश्चात उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा सा लोक मनुश्यादि सृष्टि से भरा हुआ है तो क्या ये सब लोक शून्‍य होंगे? (सत्यार्थ., अश्टम. पृ. 156)
(18) क्या यह मानना सही है कि ईश्वरोक्त वेद व सब विद्याओं को यथावत जानने वाले ऋषि द्वारा रचित साहित्य के अनुसार सूर्य व चन्द्रमा आदि पर मनुष्‍य आबाद हैं और वो घर-दुकान और खेत खलिहान में अपने-अपने काम धंधे अंजाम दे रहे हैं?

समीक्षा : अब हमारे जनाब अनवर जमाल साहब कुरान के इल्म से बाहर निकले तो कुछ ज्ञान विज्ञानं को समझे पर क्या करे अल्लाह मिया ने क़ुरान में ऐसा ज्ञान नाज़िल किया की जमाल साहब उसे पढ़कर ही खुद आलिम हो गए। देखिये जमाल साहब ऋषि ने क्या कहा और उसका अर्थ क्या निकलता है :

ऋषि ने लिखा :

`इसीलिए ईश्वर ने नक्षत्रलोकों के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया।´ (ऋग्वेदादि0, पृष्‍ठ 107)

अब इसका फलसफा और विज्ञानं देखो – ऋषि को वेदो से जो ज्ञान और विज्ञानं मिला वो इन जमाल साहब को नजर नहीं आएगा –

आकाश में तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चन्द्रमा के पथ से जुडे हैं, पर वास्तव में किसी भी तारा-समूह को नक्षत्र कहना उचित है।

ऋषि का अर्थ है क्योंकि चन्द्रमा नक्षत्रो के पथ से जुड़ा है इसलिए अलंकार रूप में वहां लिखा है की नक्षत्रलोको के समीप चन्द्रमा को स्थापित किया –

अब इसका वैज्ञानिक प्रभाव देखो :

तारे हमारे सौर जगत् के भीतर नहीं है। ये सूर्य से बहुत दूर हैं और सूर्य की परिक्रमा न करने के कारण स्थिर जान पड़ते हैं—अर्थात् एक तारा दूसरे तारे से जिस ओर और जितनी दूर आज देखा जायगा उसी ओर और उतनी ही दूर पर सदा देखा जायगा। इस प्रकार ऐसे दो चार पास-पास रहनेवाले तारों की परस्पर स्थिति का ध्यान एक बार कर लेने से हम उन सबको दूसरी बार देखने से पहचान सकते हैं। पहचान के लिये यदि हम उन सब तारों के मिलने से जो आकार बने उसे निर्दिष्ट करके समूचे तारकपुंज का कोई नाम रख लें तो और भी सुभीता होगा। नक्षत्रों का विभाग इसीलिये और इसी प्रकार किया गया है।

चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर घूम आता है। खगोल में यह भ्रमणपथ इन्हीं तारों के बीच से होकर गया हुआ जान पड़ता है। इसी पथ में पड़नेवाले तारों के अलग अलग दल बाँधकर एक एक तारकपुंज का नाम नक्षत्र रखा गया है। इस रीति से सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर ‘नक्षत्र चक्र’ कहलाता है। नीचे तारों की संख्या और आकृति सहित २७ नक्षत्रों के नाम दिए जाते हैं।

इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं। महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहेगा उस महीने का नाम उसी नक्षत्र के अनुसार होगा, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका वा रोहिणी नक्षत्र पर रहेगा, अग्रहायण की पूर्णिमा को मृगशिरा वा आर्दा पर; इसी प्रकार और समझिए।

ये ज्ञान और विज्ञानं वेदो में ही दिखता है क़ुरान में नहीं जमाल साहब।

क़ुरान का विज्ञानं हम दिखाते हैं जरा गौर से देखिये :

1. अल्लाह मियां तो क़ुरान में चाँद को टेढ़ी टहनी ही बनाना जानता है :

और रहा चन्द्रमा, तो उसकी नियति हमने मंज़िलों के क्रम में रखी, यहाँ तक कि वह फिर खजूर की पूरानी टेढ़ी टहनी के सदृश हो जाता है
(क़ुरआन सूरह या-सीन ३६ आयत ३९)

क्या चाँद कभी अपने गोलाकार स्वरुप को छोड़ता है ? क्या अल्लाह मियां नहीं जानते की ये केवल परिक्रमा के कारण होता है ?

2. सूरज चाँद के मुकाबले तारे अधिक नजदीक हैं :

और (चाँद सूरज तारे के) तुलूउ व (गुरूब) के मक़ामात का भी मालिक है हम ही ने नीचे वाले आसमान को तारों की आरइश (जगमगाहट) से आरास्ता किया।
(सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत ६)

क्या अल्लाह मिया भूल गए की सूरज से लाखो करोडो प्रकाश वर्ष की दूरी पर तारे स्थित हैं ?

3. क़ुरान के मुताबिक सात ग्रह :

ख़ुदा ही तो है जिसने सात आसमान पैदा किए और उन्हीं के बराबर ज़मीन को भी उनमें ख़ुदा का हुक्म नाज़िल होता रहता है – ताकि तुम लोग जान लो कि ख़ुदा हर चीज़ पर कादिर है और बेशक ख़ुदा अपने इल्म से हर चीज़ पर हावी है।

(सूरह अत तलाक़ ६५ आयत १२)

क्या सात आसमान और उन्ही के बराबर सात ही ग्रह हैं ? क्या खुदा को अस्ट्रोनॉमर जितना ज्ञान भी नहीं की आठ ग्रह और पांच ड्वार्फ प्लेनेट होते हैं।

4. शैतान को मारने के लिए तारो को शूटिंग मिसाइल बनाना भी अल्लाह मिया की ही करामात है।

और हमने नीचे वाले (पहले) आसमान को (तारों के) चिराग़ों से ज़ीनत दी है और हमने उनको शैतानों के मारने का आला बनाया और हमने उनके लिए दहकती हुई आग का अज़ाब तैयार कर रखा है।

(सूरह अल-मुल्क ६७ आयत ५)

मगर जो (शैतान शाज़ व नादिर फरिश्तों की) कोई बात उचक ले भागता है तो आग का दहकता हुआ तीर उसका पीछा करता है

(सूरह सूरह अस्साफ़्फ़ात ३७ आयत १०)

क्या अल्लाह को तारो और उल्का पिंडो में अंतर नहीं पता जो तारो को शूटिंग मिसाइल बना दिया ताकि शैतान मारे जावे ? और उल्का पिंड जो है वो धरती के वायुमंडल में घुसने वाली कोई भी वस्तु को घर्षण से ध्वस्त कर देती है जो जल्दी हुई गिरती है ये सामान्य व्यक्ति भी जानते हैं इसको शैतान को मारने वाले मिसाइल बनाने का विज्ञानं खुद अल्लाह मियां तक ही सीमित रहा गया।

रही बात सूर्यादि ग्रह पर प्रजा की बात तो आज विज्ञानं स्वयं सिद्ध करता है की सूर्य पर भी फायर बेस्ड लाइफ मौजूद है। ज्यादा जानकारी के लिए लिंक देखिये :

http://www.theonion.com/article/scientists-theorize-sun-could-support-fire-based-l-34559

अब किसको ज्ञान ज्यादा रहा जमाल साहब ?

आपके क़ुरान नाज़िल करने वाले अल्लाह मिया को ?

या वेद को पढ़कर पूर्ण ज्ञानी ऋषि की उपाधि प्राप्त करने वाले महर्षि दयानंद को।

लिखने को तो और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर आपकी इस शंका पर इतने से ही पाठकगण समझ जाएंगे इसलिए अपनी लेखनी को विराम देता हु – बाकी और भी जो आक्षेप आपकी पुस्तक में ऋषि और सत्यार्थ प्रकाश पर उठाये हैं यथासंभव जवाब देने की कोशिश रहेगी

खुद पढ़े आगे बढे

लौटो वेदो की और

नमस्ते

 

सोम का वास्तविक अर्थ और सोमरस का पाखंड

अ हं दां गृणते पूर्व्यं वस्वहं ब्रह्म कृणवं मह्यं वर्धनम् ।

अ हं भुवं यजमानस्य चोदिताऽयज्वनः साक्षि विश्वस्मिन्भरे ।।

– ऋ० मं० १०। सू० ४९। मं० १।।

हे मनुष्यो! मैं सत्यभाषणरूप स्तुति करनेवाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूं। मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा और मुझ को वह वेद यथावत् कहता उस से सब के ज्ञान को मैं बढ़ाता; मैं सत्पुरुष का प्रेरक यज्ञ करनेहारे को फलप्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है उस सब कार्य्य का बनाने और धारण करनेवाला हूं। इसलिये तुम लोग मुझ को छोड़ किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो और मत जानो।

नमस्ते मित्रो,

जैसा की आप सभी जानते हों हमारे देश में अनेको विद्वान और गुरुजन होते चले आये हैं और होते भी रहेंगे क्योंकि ये देश ही विद्वान उत्पन्न करने वाला है, इसीलिए इस देश आर्यावर्त को विश्वगुरु कहा जाता है, मगर ये भी एक कटु सत्य है की इसी देश में अनेको ऐसे भी तथाकथित और स्वघोषित विद्वान होते आये हैं जिनका उद्देश्य ही धर्म अर्थात वेद और वेदज्ञान का उपहास करना रहा है, ऐसे ही एक तथाकथित विद्वान हुए थे जिनका नाम था नारायण भवानराव पावगी इन्होने कुछ पुस्तके लिखी थी जिनमे कुछ हैं

1. आर्यावर्तच आर्यांची जन्मभूमि व उत्तर ध्रुवाकडील त्यांच्या वसाहती (इ.स. १९२०)

2. ॠग्वेदातील सप्तसिंधुंचा प्रांत अथवा आर्यावर्तातील आर्यांची जन्मभूमि आणि उत्तर ध्रुवाकडील त्यांच्या वसाहती (इ.स. १९२१)

3. सोमरस-सुरा नव्हे (इ.स. १९२२)

इन पुस्तको में लेखक ने वेदो, वैदिक ज्ञान और ऋषियों पर अनेक लांछन लगाये जिनमे प्रमुखता से ये सिद्ध करने की कोशिश की गयी की वैदिक काल में ऋषि और सामान्य मानव भी होम के दौरान सोमरस का पान देवताओ को करवाते थे और अपनी इच्छित मनोकामनाओ की पूर्ति हेतु यज्ञ में पशु वध, नरमेध भी करते थे। अब इन आधारहीन तथ्यों के आधार पर अनेको विधर्मी और महामानव आदि अपनी वेबसाइट और लेखो के माध्यम से हिन्दुओ के मन में वेदज्ञान के प्रति जहर भरने का कार्य करते हैं, उनमे मुख्यत जो आरोप लगाया जाता है वो है :

वेदो और वैदिक ज्ञान के अनुसार ऋषि आदि अपनी मनोकामनाए पूरी करने हेतु अनेको देवताओ को सोमरस (शराब) की भेंट करते थे।

सोमरस बनाने की विधि वेद में वर्णित है ऐसा भी इनका खोखला दावा है।

आइये एक एक आक्षेप को देखकर उसका समुचित जवाब देने की कोशिश करते हैं।

आक्षेप 1. वेदों में वर्णित सोमरस का पौधा जिसे सोम कहते हैं अफ़ग़ानिस्तान की पहाड़ियों पर ही पाया जाता है। यह बिना पत्तियों का गहरे बादामी रंग का पौधा है। जिसे यदि उबाल कर इसका पानी पीया जाय तो इससे थोड़ा नशा भी होता है। कहते हैं यह पौरुष वर्धक औषधि के रूप में भी प्रयोग होता है।
सोम वसुवर्ग के देवताओं में हैं ।
मत्स्य पुराण (5-21) में आठ वसुओं में सोम की गणना इस प्रकार है-
आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोज्नल: ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोज्ष्टौ प्रकीर्तिता: ॥

समाधान : सोमलता की उत्पत्ति जो बिना पत्ती का पौधा है ऐसा इनका विचार है जो अफगानिस्तान की पहाड़ियों में पैदा होता है ऐसा इनका दावा है उसके लिए ये ऋग्वेद 10.34.1 का मन्त्र “सोमस्येव मौजवतस्य भक्षः” उद्धृत करते हैं। मौजवत पर्वत को आजके हिन्दुकुश अर्थात अफगानिस्तान से निरर्थक ही जोड़ने का प्रयास करते हैं जबकि सच्चाई इसके विपरीत है।

निरुक्त में “मूजवान पर्वतः” पाठ है मगर वेद का मौजवत और निरुक्त का मूजवान एक ही है, इसमें संदेह होता है, क्योंकि सुश्रुत में “मुञ्जवान” सोम का पर्याय लिखा है अतः मौजवत, मूजवान और मुञ्जवान पृथक पृथक हैं ज्ञात होता है। वेद में एक पदार्थ का वर्णन जो सोम नाम से आता है वह पृथ्वी के वृक्षों की जान है। पृथ्वी की वनस्पति का पोषक है, वनस्पति में सौम्यभाव लाने वाला औषिधिराज है और वनस्पतिमात्र का स्वामी है। वह जिस स्थान में रहता है उसको मौजवत कहते हैं। मेरी पिछली पोस्ट में गौओ के निवास को व्रज कहते हैं ये सिद्ध किया था उसी प्रकार सोम के स्थान को मौजवत कहा गया है। यह स्थान पृथ्वी पर नहीं किन्तु आकाश में है। क्योंकि वनस्पति की जीवनशक्ति चन्द्रमा के आधीन है इसलिए उसका नाम सोम है वह औषधि राज है। अलंकारूप से वह लतारूप है क्योंकि जो भी व्यक्ति शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष को समझते हैं जानते हैं उन्हें पता है की चन्द्रमा पंद्रह दिन तक बढ़ता और पंद्रह दिन तक घटता है, इसे न समझकर व्यर्थ की कोरी कल्पना कर ली गयी की शुक्लपक्ष में इस सोमलता के पत्ते होते हैं और कृष्णपक्ष में गिर जाते हैं।

सोम वसुवर्ग के देवताओ में हैं ये भी मिथ्या कल्पना इनके घर की है क्योंकि जो वसु का अर्थ भली प्रकार जानते तो ऐसे दोष और मिथ्या बाते प्रचारित ही न करते, आठ वसु में सोम भी शामिल है उसके लिए उपर्लिखित पुराण का श्लोक उद्धृत करते हैं

मत्स्य पुराण (5-21) में आठ वसुओं में सोम की गणना इस प्रकार है-
आपो ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोज्नल: ।
प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोज्ष्टौ प्रकीर्तिता: ॥

भागवत पुराण के अनुसार- द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु। महाभारत में आप (अप्) के स्थान में ‘अह:’ और शिवपुराण में ‘अयज’ नाम दिया है।

अब यदि इनसे पूछा जाए की – आठ वसुओं में सोम हैं मत्स्य पुराण के अनुसार जिसका अर्थ है मादक दृव्य यानी शराब – तो भगवत पुराण में आठ वसुओं में सोम क्यों नहीं लिखा ?

देखिये ऋषि दयानंद अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में वसु का अर्थ किस प्रकार करते हैं :

पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवास स्थान होने से आठ वसु। (स. प्र. सप्तम समुल्लास)

ऋषि ने बहुत ही सरल शब्दों में वसु का अर्थ कर दिया। अब अन्य आर्ष ग्रन्थ से आठ वसुओं का प्रमाण देते हैं :

शाकल्य-‘आठ वसु कौन से है?’
याज्ञ.-‘अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्र और नक्षत्र। जगत के सम्पूर्ण पदार्थ इनमें समाये हुए हैं। अत: ये वसुगण हैं।

(बृहदारण्यकोपनिषद, अध्याय तीन)

इन प्रमाणों से सिद्ध है की आठ वसुओं में सोम नामक कोई नाम नहीं। हाँ यदि सोम का अर्थ चन्द्र से करते हो जैसा की इस लेख से सिद्ध भी होता है तो आपकी सोमलता और सोमरस का सिद्धांत ही खंडित हो जाता है।

आक्षेप 2. सोम की उत्पत्ति के दो स्थान है- (1) स्वर्ग और (2) पार्थिव पर्वत । अग्नि की भाँति सोम भी स्वर्ग से पृथ्वी पर आया । ऋग्वेद ऋग्वेद 1.93.6 में कथन है : ‘मातरिश्वा ने तुम में से एक को स्वर्ग से पृथ्वी पर उतारा; गरुत्मान ने दूसरे को मेघशिलाओं से।’ इसी प्रकार ऋग्वेद 9.61.10 में कहा गया है: हे सोम, तुम्हारा जन्म उच्च स्थानीय है; तुम स्वर्ग में रहते हो, यद्यपि पृथ्वी तुम्हारा स्वागत करती है । सोम की उत्पत्ति का पार्थिव स्थान मूजवन्त पर्वत (गान्धार-कम्बोज प्रदेश) है’। ऋग्वेद 10.34.1

समाधान : यहाँ भी “आँख के अंधे और गाँठ के पुरे” वाली कहावत चरितार्थ होती है देखिये :

अप्सु में सोमो अब्रवीदंतविर्श्वानी भेषजा।
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः।। (ऋग्वेद 1.23.20)

यहाँ सोम समस्त औषधियों के अंदर व्याप्त बतलाया गया है। इस सोम को ऐतरेयब्राह्मण 7.2.10 में स्पष्ट कह दिया है की “एतद्वै देव सोमं यच्चन्द्रमाः” अर्थात यही देवताओ का सोम है जो चन्द्रमा है। इस सोम को गरुड़ और श्येन स्वर्ग से लाते हैं। गरुड़ और श्येन भी सूर्य की किरणे ही हैं। सोम का सौम्य गुण औषधियों पर पड़ता है, यदि स्वर्ग से गरुड़ और श्येन द्वारा उसका लाना है।

ऐसे वैदिक रीति से किये अर्थो को ना जानकार व्यर्थ ही वेद और सत्य ज्ञान पर आक्षेप लगाना जो सम्पूर्ण विज्ञानं सम्मत है निरर्थक कार्य है, क्योंकि आज विज्ञानं भी प्रमाणित करता है की चन्द्रमा की रौशनी अपनी खुद की नहीं सूर्य की रौशनी ही है यही बात इस मन्त्र में यथार्थ रूप से प्रकट होती है और दूसरा सबसे बड़ा विज्ञानं ये है की चन्द्रमा जो रात को प्रकाश देता है उससे औषधियों का बल बढ़ता है।

आशा है इस लेख के माध्यम से सोमरस, सोमलता आदि जो मिथ्या बाते फैलाई जा रही हैं उनपर ज्ञानीजन विचार करेंगे। ईश्वर कृपा से इसी विषय पर जो और आक्षेप लगाये हैं उनका भी समाधान प्रस्तुत होता रहेगा

लौटो वेदो की और

नमस्ते