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परोपकारिणी सभा का शोध कार्यःराजेन्द्र जिज्ञासु

– डॉ. वेदपाल जी सरीखे वेदज्ञ तथा कई अन्य विद्वान् हाथ पर हाथ धरे तो बैठे नहीं रहते। पूरा वर्ष शोध व धर्म प्रचार करते रहते हैं। सभा के इस सेवक की दिनचर्या ढाई तीन बजे प्रातः आरभ हो जाती है। शोध व लेखन कार्य छह और सात बजे के बीच आरा हो जाता है। सागर पार के देशों से महर्षि के जीवन सबन्धी पर्याप्त नई सामग्री पर परोपकारिणी सभा के लिए अपना नयी अनूठी परियोजना से कुछ लिखने की तैयारी करके बैठा ही था कि परमात्मा की कृपा वृष्टि से और नये-नये दस्तावेज पहुँच गये हैं। आर्य जगत् को क्या-क्या बातऊँ? क्या-क्या मिला है? यह तो आर्य जन नये ग्रन्थ में ही पढ़ेंगे।

अभी तो इतना ही बता सकता हूँ कि विदेशियों व विधर्मियों द्वारा महर्षि के व्यक्तित्व व उपलधियों पर प्राण वीर पं. लेाराम के पश्चात् प्रचुर सामग्री फिर हमारे हाथ ही लगी है। आर्य समाज की स्थापना सेाी पूर्व सन् 1870 में इंगलैण्ड के एक पत्र में यह छपा मिला है कि यह वेदज्ञ काशी में डंका बजा रहा है। इसका सामना करने का किसी को साहस नहीं है। इसका सामना करने का किसी को साहस नहीं है। भारत में एक विदेशी बिशप के पत्र से पता चलता है कि स्वामी दयानन्द के प्रादुर्भाव से उसकी सभाओं में भीड़ घट गई है। स्वामी दयानन्द सबके  लिए आकर्षण का केन्द्र है।

जब सक्रिय समाजों की संख्या  मात्र 22-24 थी तब महर्षि रेवाड़ी पधारे। न जाने रेवाड़ी क्षेत्र यादवों में क्या चेतना का संचार हुआ कि सागर पार के देशों में ऋषि के मिशन व वैचारिक क्रान्ति पर लबे-लबे लेख छपने लगे। अदूरदर्शी हिन्दू समाज तो ऋषि मूल्याकंन न कर पाया। गोरी जातियों ने ताड़ लिया कि पाषाण पूजा के इस सबसे बड़े शत्रु, एकेश्वरवाद के महान् सन्देशवाहक स्वामी दयानन्द का यह मिशन सरकार के संरक्षण व सहयोग के बिना ही फूलेगा फलेगा। बंगाल, मद्रास के पश्चात् चर्च की, साम्राज्यवािदयों की गिद्ध की दृष्टि छत्रपति शिवाजी के प्रदेश पर के न्द्रित थी। दस्तावेज जो अभी-अभी हाथ लगे हैं, उनसे पता चलता है कि श्री महाराज के मुबई पहुँचते ही गोरों को प्रार्थना समाज व ब्राह्य समाज की चिन्ता सताने लगी। कारण? वे खुलकर यह स्वीकर करते थे कि ऋषि से पहले की ये संस्थायें व संगठन ईसाइयत की और पश्चिम की पैदावार (देन) हैं परन्तु, स्वामी दयानन्द न तो अंग्रेजी जाने और न कभी अमरीका और लंदन की यात्रा की। कोई विदेशी भाषा वह न जाने।

यह सुधारक विचारक तो वेदज्ञ है। वेद को ही स्वतः प्रमाण मानता है। यह विशुद्ध भारतीय हिन्दू आन्दोलन है। यह सार्वभौमिक धर्म को मानने वाला प्रखर राष्ट्रवादी निर्भीक, निर्भीड़ सत्यवक्ता है। अमरीका के ………….में सन् 1868 में मेरे ऋषि का भव्य फोटो छपा। यह आर्य समाज का शैशव काल था। तब तक किसी भारतीय सुधारक, विचारक का अमरीका में फोटो नहीं छपा था। ऋषि न तो शिकागो गया और न न्यूयार्क ही गया। अंगेजी वह जानता नहीं था।

जिस सामग्री (मत पंथों के बारे) में अस्सी वर्ष से हमारे पूर्वज खोज कर रहे थे, वह भी मेरे पास पहुँच गई है। इसमें हमारी क्या बड़ाई है यह तो पं. लेखराम, पं. गणपति शर्मा, स्वामी दर्शनानन्द, पं. रामचन्द्र देहलवी से लेकर पं. शान्तिप्रकाश तक की सतत साधना का प्रसाद है जो परोपकारिणी सभा आर्य जाति को परोसने वाली है।

गुजरात यात्रा में कई एक ने बड़ी श्रद्धा से मुझ पर दबाव बनाया कि ऋषि मेला तक इस ग्रन्थ का विमोचन हो जाना चाहिये। मैंने उत्तर में कहा कि मैं श्रद्धा से भरपूर हृदय से सोच विचार कर इस ग्रन्थ का सृजन करुँगा। दिन रात मेरे मस्तिष्क में यही ग्रन्थ अब घूमता है। हडबड़ी में, शीघ्रता से कुछ नहीं करुँगा। परोपकारिणी सभा इसके महत्त्व को समझती है। यदि ऋषि मेला तक इसका विमोचन न हो सका तो एक विशेष महोत्सव करके पं. लेखराम जी के 119 वें बलिदान पर्व पर इसका विमोचन करवाने की मैं आर्य जगत् से भिक्षा मागूँगा । लौकैषणा और वित्तैषणा से बहुत ऊपर उठकर जिस आर्यवीर ने अपने साथियों से मिलकेर इस सामग्री की खोज का ऐतिहासिक कार्य किया है उसका परिचय किसी अगले अंक में दिया जायेगा।

दयानन्द भक्त और क्रान्तिकारियों के प्रथम गुरू पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा’ -मनमोहन कुमार आर्य

गुजरात की भूमि में महर्षि दयानन्द के बाद जो दूसरे प्रसिद्ध क्रान्तिकारी देशभक्त महापुरूष उत्पन्न हुए, वह पं. श्यामजी  कृष्ण वर्म्मा के नाम से विख्यात हैं। पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ने देश से बाहर इंग्लैण्ड, पेरिस और जेनेवा में रहकर देश को अंग्रेजों की दासता से पूर्ण स्वतन्त्र कराने के लिए अनेक विध प्रशंसनीय कार्य किये। उनका जन्म 4 अक्तूबर, सन् 1857 को गुजरात के कच्छ भूभाग के माण्डवी नामक कस्बे में श्री कृष्णजी भणसाली के यहां एक निर्धन वैश्य परिवार में हुआ था। आप आयु में महर्षि दयानन्द जी से लगभग साढ़े बत्तीस वर्ष छोटे थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा माण्डवी की ही एक प्राइमरी पाठशाला में हुई। जब आप 10 वर्ष के हुए तो आपकी माताजी का देहान्त हो गया। इसके बाद आपका पालन-पोषण ननिहाल में हुआ। आपने ननिहाल भुजनगर में रहकर वहां के हाईस्कूल में अपनी शिक्षा को जारी रखा। आप 12 वर्ष की आयु में एक विदुषी संन्यासिनी माता हरिकुंवर बा के सम्पर्क में आये। उनकी प्रेरणा से आपने संस्कृत भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया। कच्छ निवासी सेठ मथुरादास भाटिया आपकी प्रतिभा से प्रभावित होकर आपको अध्ययनार्थ मुम्बई ले गये और वहां विलसन हाईस्कूल में प्रविष्ट कराया। यहां सर्वोच्च अंक प्राप्त कर आपने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया और आपको सेठ गोकुलदास काहनदास छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। इस छात्रवृत्ति के आधार पर आपने मुम्बई के प्रसिद्ध एल्फिंस्टन हाईस्कूल में अध्ययनार्थ प्रवेश ले लिया। बम्बई के एक धनी सेठ श्री छबीलदास लल्लू भाई का पुत्र रामदास श्यामजी का सहपाठी था। दोनों में मित्रता हो गई। सेठ छबीलदास जी को इसका पता चला तो पुत्र को कहकर श्यामजी को अपने घर पर बुलाया। आप श्यामजी के व्यक्तित्व, सौम्य व गम्भीर प्रकृति तथा आदर भाव आदि गुणों से प्रभावित हुए और आपने उन्हें अपना जामाता-दामाद बनाने का निर्णय ले लिया। इसके कुछ दिनों बाद उनकी 13 वर्षीय पुत्री भानुमति जी से 18 वर्षीय श्यामजी का सन् 1875 में विवाह सम्पन्न हो गया।

 

मुम्बई आकर श्यामजी कृष्ण वर्मा प्रार्थना समाज के समाज सुधार आन्दोलन से जुड़ गये थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 29 जनवरी से 20 जून, 1875 तक वेदों का प्रचार करते हुए मुम्बई में प्रवास किया था। मुम्बई में उन दिनों बुद्धिजीवी लोगों में उनके प्रवचनों की चर्चा होती थी। आप स्वामीजी के सम्पर्क में आये और उनके न केवल व्यक्तित्व व वैदिक ज्ञान से ही परिचय प्राप्त किया अपितु उनकी सर्वांगीण विचारधारा व कार्यों को जान कर वह उनके अनुयायी बन गये। 10 अप्रैल, सन् 1875 को जब मुम्बई के गिरिगांवकाकड़वाड़ी मोहल्ले में प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की गई तो वहां उपस्थित लगभग 100 से कुछ अधिक लोगों में पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा सहित उनके श्वसुर श्री छबीलदास जी श्याला श्री रामदास बतौर संस्थापक सदस्य उपस्थित थे। 12 जून, सन् 1875 को महर्षि दयानन्द जी का रामानुज सम्प्रदाय के आचार्य पं. कमलनयन के साथ मूर्तिपूजा विषय पर शास्त्रार्थ होने के अवसर पर भी आप इस शास्त्रार्थ में श्रोता व दर्शक के रूप में उपस्थित थे। इस शास्त्रार्थ में दयानन्द जी की विद्वता का लोहा सभी ने स्वीकार किया था। इसके प्रभाव से आप महर्षि दयानन्द के और निकट आये और उनकी प्रेरणा व अपनी इच्छा से आपने वैदिक सहित्य का अध्ययन किया तथा उनके शिष्य बन गये। स्वामी दयानन्द जी के सान्निध्य से उनका संस्कृत का ज्ञान और अधिक परिष्कृत, परिपक्व व समृद्ध हुआ। स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ने नासिक की यात्रा कर 1 व 2 अप्रैल, 1877 को वहां संस्कृत में वेदों पर व्याख्यान दिये। लोग एक ब्राह्मणेतर व्यक्ति से संस्कृत में धारा प्रवाह व्याख्यान की अपेक्षा नहीं रखते थे। इन व्याख्यानों का वहां की जनता पर गहरा प्रभाव हुआ। इसके बाद आपने अहमदाबाद, बड़ौदा, भड़ौच, भुज और माण्डवी सहित लाहौर में जाकर वेदों पर व्याख्यान दिये। आपके संस्कृत व्याख्यानों से घूम मच गई और श्रोताओं ने आपकी भूरि भूरि प्रशंसा की। पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ने स्वामी दयानन्द जी के यजुर्वेद व ऋग्वेद भाष्य के प्रकाशन व उसके डाक से प्रेषण के प्रबन्धकत्र्ता का कार्य भी पर्याप्त अवधि तक किया। इंग्लैण्ड जाने तक आप यह कार्य करते रहे थे।

 

आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, लन्दन में संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष सर मोनियर विलियम सन् 1878 में भारत आये थे। महर्षि के निकटवर्ती शिष्य श्री गोपाल हरि देशमुख की अध्यक्षता में पूना में उनका व्याख्यान आयोजित किया गया था। पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा इस व्याख्यान में न केवल सम्मिलित ही हुए अपितु उनका भी धारा प्रवाह संस्कृत में व्याख्यान हुआ जिसका गहरा प्रभाव सर मोनियर विलियम और श्रोताओं पर भी हुआ। उन्होंने पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा को आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के सहायक प्रोफेसर के पद का प्रस्ताव दिया। वह इस प्रस्ताव से सहमत हुए। स्वामी दयानन्द जी को भी पंण्डित जी ने जानकारी दी। स्वामी दयानन्द जी ने न केवल अपनी सहमति व्यक्त की अपितु उन्हें इंग्लैण्ड जाकर करणीय कार्यों के बारे में मार्गदर्शन दिया। बाद में स्वामीजी ने उन्हें जो पत्र लिखे उससे भी स्वामीजी के श्यामजी के मध्य गहरे गुरू शिष्य संबंध का अनुमान होता है। श्यामजी ने लन्दन पहुंच कर 21 अप्रैल, सन् 1879 को पदभार सम्भाला था। लन्दन में आपने बैरिस्ट्री की परीक्षा पास करने हेतु भी इनर टैम्पल में प्रवेश लिया। आपने सन् 1881 के आरम्भ में रायल एशियाटिक सोसायटी के निमन्त्रण पर भारत में लेखन कला का आरम्भ विषय पर अपना शोध प्रबन्ध पढ़ा। इस प्रस्तुति से प्रभावित होकर आपको रायल एशियाटिक सोसायटी का सदस्य बना लिया गया। इंग्लैण्ड एम्पायर क्लब एक ऐसा क्लब था जिसमें राज परिवार के लोग ही सदस्य बन सकते थे। श्री श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ऐसे पहले भारतीय थे जिन्हें क्लब की सदस्यता दी गई थी। सन् 1881 में ही इंग्लैण्ड में भारत मंत्री ने आपको प्राच्य विद्या विशारदों के बर्लिन सम्मेलन में भाग लेने के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजा था। सन् 1883 में आपने लन्दन में बी.ए. की परीक्षा पास की और भारत आ गये। स्वामी दयानन्द जी ने अपने इच्छा पत्र में श्यामजी कृष्ण वर्म्मा को अपनी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का सदस्य मनोनीत किया था। 28-29 दिसम्बर, 1883 को हुए सभा की अजमेर के मेवाड़दरबार की कोठी में आयोजित प्रथम बैठक में आप सम्मिलित हुए। मार्च, 1884 में आप सपत्नीक लन्दन लौट गये थे और नवम्बर, 1884 में आपने बैरिस्ट्री की सम्मानजनक परीक्षा उत्तीर्ण की। आप पहले भारतीय थे जिन्होंने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, लन्दन से बैरिस्ट्री पास की थी। आप जनवरी, 1885 में पुनः स्वदेश लौट आये थे।

 

भारत आकर श्यामजी कृष्ण वर्मा रतलाम राज्य के सन् 1885 से सन् 1888 तक दीवान रहे। इसके बाद उन्होंने अजमेर में वकालत की। उदयपुर के महाराणा फतेहसिंह जी ने उन्हें दिसम्बर 1892 में अपने राज्य की मंत्रि परिषद में सदस्य मनोनीत किया। उदयपुर में आप दो वर्षों तक राज्य कौंसिल के सदस्य रहे। 6 फरवरी 1894 को आप जूनागढ़ रियासत के दीवान बने परन्तु जूनागढ़ के कुछ कटु अनुभवों से अंग्रेज जाति के प्रति उनके विश्वास को गहरी चोट लगी। इंडियन नेशलन कांग्रेस की दब्बू नीति उन्हें पसन्द नहीं थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी से उनकी मैत्री थी। चापेकर बन्धुओं द्वारा जब प्लेग कमिश्नर मिस्टर रैण्ड और लेफ्टिनेंट अर्येस्ट की हत्या की गई, तब अंग्रेज सरकार ने तिलक जी को अठारह मास का कारावास का दण्ड दिया। इससे श्यामजी का अंग्रेजों के प्रति विश्वास समाप्त हो गया। श्याम जी का महर्षि दयानन्द के वेद सम्मत राजनीतिक विचारों में पूर्ण विश्वास था। इसका क्रियान्वयन उन दिनों कांग्रेस द्वारा किंचित परिवर्तन के साथ किया जा रहा था जिससे पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा सहमत थे एवं इसके द्वारा शुभपरिणामों की आशा भी रखते थे।

 

पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपने विवेक से विदेश में जाकर भारत की स्वतन्त्रता के लिए कार्य करने का निर्णय किया। वह उदारवादी विचारों से स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थे। अतः सन् 1897 के अन्तिम दिनों में वह इंग्लैण्ड आ गये। यहां रहकर आपने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जिन्हें पूर्णरूपेण इस संक्षिप्त लेख में प्रस्तुत करना कठिन है। प्रमुख कार्यों में से एक कार्य आपके द्वारा लन्दन में एक मकान खरीदा जिसे इण्डिया हाउस का नाम दिया। यह मकान क्रामवेल एवेन्यू हाईगेट का मकान नं. 65 था। यह इण्डिया हाउस ही हमारे क्रान्तिकारियों का इंग्लैण्ड में मुख्य निवास स्थान व क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बना। पं. श्याम जी ने  भारत से इंग्लैण्ड जाने वाले विद्यार्थियों को छात्रवृतियां देना भी आरम्भ किया जिसमें एक शर्त यह होती थी कि छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाला व्यक्ति अंग्रेजों की नौकरी नहीं करेगा और न उनसे कोई लाभ प्राप्त करेगा। डा. सत्यकेतु विद्यालंकार के अनुसार यह इण्डिया हाउस इंग्लैण्ड में भारतीय क्रान्तिकारी गतिविधियों और क्रिया-कलापों का सबसे बड़ा केन्द्र बना रहा। जिन लोगों ने छात्रवृत्ति प्राप्त कर इंग्लैण्ड में आकर इण्डिया हाउस में निवास किया। इन छात्रों में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी वीर विनायक दामोदर सावरकर भी थे जो सन् 1906 में वहां पहुंचे थे। इंग्लैण्ड में रहते हुए सन् 1905 में पं. श्यामी जी कृष्ण वर्मा ने एक अंगे्रजी मासिक पत्रिका इंडियन सोशियोलोजिस्ट का प्रकाशन आरम्भ किया जिसका उद्देश्य उन्होंने भारत में राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सुधार घोषित किया। अपने आरम्भिक लेख में आपने लिखा कि यह पत्र बताएगा कि ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में भारतीयों के साथ कैसा दुर्व्यवहार किया जाता है और उस शासन के प्रति भारतीयों के मन में क्या भावनाएं हैं। पंण्डित जी ने यह पत्र इंग्लैण्ड व विदेशों में लोकमत को जाग्रत करने की दृष्टि से आरम्भ किया था। पं. श्यामजी का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य इंग्लैण्ड में इंडियन होमरूल सोसायटी की स्थापना करना था। यह सोसायटी 18 फरवरी, 1905 को स्थापित की गई थी। इसका पहला उद्देश्य भारत में होमरूल अर्थात् स्वशासन स्थापित करना था। दूसरा उद्देश्य पहले लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इंग्लैण्ड में रहकर सभी आवश्यक कार्य करना था जिससे स्वशासन का अधिकार प्राप्त हो सके। संस्था का तीसरा उद्देश्य देशवासियों में स्वाधीनता तथा राष्ट्रीय एकता से संबंधित बौद्धिक सामग्री व ज्ञान को उलब्ध कराना था। श्यामजी कृष्ण वम्र्मा इस सोसायटी के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष सरदार सिंह राणा, जे. एम. पारीख, अब्दुल्ला सुहरावर्दी और गोडरेज तथा मन्त्री जे. सी. मुखर्जी बनाये गये थे। इन सभी लोगों द्वारा यह घोषणा की गई थी कि उनका उद्देश्य ‘‘भारतीयों के लिए, भारतीयों के द्वारा और भारतीयों की सरकार स्थापित करना है। एक प्रकार से सन् 1905 में उठाया गया यह कदम पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति की दिशा मे बहुंत बड़ा निर्णय व कार्य था जिसे कांग्रेस ने बहुत बाद में अपनाया। वम्र्मा जी की गतिविधियां दिन प्रतिदिन तीव्रतर होती जा रही थी। मई और जून 1907 में पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा के इण्डियन सोशियोलोजिस्ट में लेखों से समूचे इंग्लैण्ड में खलबली मच गई। इसका परिणाम विचार कर जून, 1907 में वह पेरिस चले गए और वहीं से भारत के क्रान्तिकारियों का मार्गदर्शन करने लगे। उनके पेरिस जाने के कारण इंडियन होमरूल सोसायटी का मुख्यालय भी उनके पास पेरिस स्थानान्तरित हो गया। 19 सितम्बर, 1907 को इण्डियन सोशियोलोजिस्ट पत्र पर अंगे्रज सरकार ने पाबन्दी लगा दी। इस पत्र के मुद्रकों श्री आर्थर बोर्सले और एल्फ्रेड एल्ड्रेड को गिरफतार कर लिया गया और उन्हें एक एक वर्ष के कारावास का सजा सुनाई गई। श्यामजी पेरिस में रह रहे थे और वहीं इण्डियन सोशियोलोजिस्ट का प्रकाशन कर रहे थे। सन् 1914 में पेरिस में भी परिस्थितियां उनके लिए प्रतिकूल हो गईं अतः वह पेरिस छोड़कर जून, 1914 में जेनेवा (स्विटजरलैण्ड) चले गये। यहां रहते हुए भी आप अपना पत्र अंग्रेजी व फ्रेंच भाषाओं में निकालते रहे। इसी बीच दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। राजनैतिक कारणों से आपको अपने पत्र का प्रकाशन स्थगित करना पड़ा। इस प्रकार निरन्तर कार्य करते रह कर वह आप वृद्ध हो गये थे। अब आप अधिक सक्रिय भूमिका नहीं निभा सकते थे। अतः देश में चल रहे सत्याग्रह आन्दोलन को आपने अपना समर्थन दिया। 31 मई, 1930 को लगभग 73 वर्ष की आयु में जेनेवा में ही महर्षि दयानन्द के इस शिष्य और भारत माता के योग्य पुत्र पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा का निधन हो गया। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी नेता श्री सरदार सिंह राणा, मैडम भीखाजी रूस्तम जी कामा, जे.एम. पारीख, लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, मौलवी मोहम्मद बर्कतुल्लाह, नीतिसेन द्वारकादास, मिर्जा अब्बाज उर्फ मुहम्मद अब्बास आदि उनके देशभक्ति के कार्यों में उनके सहयोगी रहे।

 

श्री श्यामजी कृष्ण वर्म्मा महर्षि दयानन्द जी के योग्य शिष्य, संस्कृत व वैदिक साहित्य के विद्वान होने के साथ भारत की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले तथा क्रान्ति को स्वतन्त्रता प्राप्ति का साधन मानने वाले प्रथम चिन्तक, विचारक व अपने विचारों को क्रियात्मक रूप देने वाले आद्य महापुरूष थे। देश की आजादी में उनका योगदान प्रशंसनीय एवं महत्वपूर्ण है। उनके विचारों की अग्नि व कार्यों से देश को अनेक क्रान्ति धर्मी युवक मिले जिन्होंने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश किया था। उनकी आज 159 वीं जयन्ती पर उन्हें शत शत नमन है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

पं० लेखराम की विजय: स्वामी श्रद्धानन्द जी

श्री मिर्जा गुलाम अहमद कादयानी ने अप्रेल १८८५ ईस्वी में एक विज्ञापन के द्वारा भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के विशिष्ट व्यक्तियों को सूचित किया कि दीने इसलाम की सच्चाई परखने के लिए यदि कोई प्रतिष्ठत व्यक्ति एक वर्ष के काल तक मेरे पास क़ादयान में आ कर निवास करे तो मैं उसे आसमानी चमत्कारों का उसकी आँखों से साक्षात् करा सकता हूं । अन्यथा दो सौ रुपए मासिक को गणना से हरजाना या जुर्माना दूँगा ।

इस पर पं० लेखराम जी ने चौबीस सौ रुपए सरकार में जमा करा देने की शर्त के साथ स्वीकृति दी । उस समय वह आर्यसमाज पेशावर के प्रधान थे ।

मिर्ज़ा जी ने इस पर टालमटोल से कार्य करते हुए क़ादयान, लाहौर, लुध्याना, अमृतसर और पेशावर के समस्त आर्य सदस्यों की अनुमति की शर्त लगा दी कि वह पं० लेखराम जी को अपना नेता मानकर उनके आसमानी चमत्कार देख लेने के साथ ही उनके सहित ननुनच के बिना दीनें इसलाम को स्वीकार करने की घोषणा करें । जब कि स्वयं मिर्ज़ा जी ने स्वीकार किया है कि “वह आर्यों का एक बड़ा एडवोकेट और व्याख्यान दाता था ।”

“वह अपने को आर्य जाति का सितारा समझता था और आर्य जाति भी उसको सितारा बताती थी ।”

अन्ततः मिर्ज़ा जी ने चौबीस सो रूपये सरकार में सुरक्षित न करा कर केवल पं० जी को दो तीन दिन के लिए कादयान आने का निमन्त्रण दिया और साथ ही चौबीस सौ रूपये सरकार में सुरक्षित कराने की शर्त पं० जी के लिए बढ़ा दी जिससे चमत्कार स्वीकृति से इन्कार की अवस्था में वह रूपए मिर्ज़ा जी प्राप्त कर सकें । पं० जी ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया और लिखा कि जो आसमानी चमत्कार आप दिखायेंगे, वह कैसा होगा ? उसका निश्चय पूर्व हो जाए । क्या कोई दूसरा सूर्य दिखाओगे कि जिस का उदय पश्चिम और अस्त पूर्व में होगा ? अथवा चांद के दो टुकड़े करने के चमत्कार को दोहराएंगे ? अर्थात् पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा के दो खण्ड हो जावें और अमावस्या की रात्रि को पूर्णिमा की भान्ति पूर्ण चन्द्र का उदय हो जावे । इसमें जो चमत्कार दिखाना सम्भव हो, इसकी तिथि और चमत्कार दिखाने का समय निश्चित किया जाए जिसे जनता में प्रसिद्ध कर दिया जाए ।

किन्तु मिर्ज़ा जी इस स्पष्ट और भ्रमरहित नियम को स्वीकार न कर सके । इसका उत्तर देना और स्वीकार करना इनके लिए असम्भव हो गया । स्वीकार किया कि हम यह शर्त पूरी नहीं कर सकते और न ऊपर लिखे चमत्कार दिखा सकते हैं । किन्तु हमें ज्ञात नहीं कि क्या कुछ प्रगट होगा या न होगा ? और इस आकस्मिक आपत्ति से पीछा छुड़ाना चाहा ।”

अन्ततः पं० जी ने मिर्ज़ा जी को लिखा किः—

“बस शुभ प्रेरणा के विचार से निमन्त्रण दिया जाता है …. वेद मुकद्दस पर ईमान लाईये । आप को भी यदि दृढ़ सत्यमार्ग पर चलने की सदिच्छा है तो सच्चे हृदय से आर्य धर्म को स्वीकार करो । मनरूपो दर्पण को स्वार्थमय पक्षपात से पवित्र करो । यदि शुभ सन्देश के पहुंचने पर भी सत्य की ओर (ञ) ध्यान न दोगे तो ईश्वर का नियम आपको क्षमा न करेगा …. और जिस प्रकार का आत्मिक, धार्मिक अथवा सांसारिक सन्तोष आप करना चाहें—सेवक उपस्थित और समुद्यत है ।

पत्र प्रेषकः—

लेखराम अमृतसर ५ अगस्त १८८५ ईस्वी

इस अन्तिम पत्र का उत्तर मिर्ज़ा जी की ओर से तीन मास तक न आया । तब पं० जी ने एक पोस्ट कार्ड स्मरणार्थ प्रेषित किया । उसके उत्तर में मिर्ज़ा जी का कार्ड आया कि क़ादयान कोई दूर तो नही है । आकर मिल जाएं । आशा है कि यहां पर परस्पर मिलने से शर्ते निश्चित हो जाएंगी ।

इस प्रकार से पं० जी की विजय स्पष्ट है जिसे कोई भी नहीं छिपा सकता । मिर्ज़ा जी के पत्रानुसार अन्ततः पं० जी क़ादयान पहुंचे । वहां दो मास तक रहने पर भी मिर्जा जी किसी एक बात पर न टिक सके । क़ादयान में दो मास ठहर कर वहां आर्यसमाज स्थापित करके चले आए । आर्य-समाज कादयान की स्थापना हुई तो मिर्ज़ा जी के चचेरे भाई मिर्ज़ा इमाम दीन और मुल्लां हुसैना भी आर्यसमाज के नियम पूर्वक सदस्य बने । मिर्ज़ा जी ने भी पं० जी को दो मास तक कादयान निवास को स्वीकार किया है ।

पं० जी ने कादयान में रह कर मिर्जा जी को उनके वचनानुसार आसमानी चमत्कार दिखाने के लिए ललकारा और लिखा कि आप अच्छी प्रकार स्मरण रखें कि अब मेरी ओर से शर्त पूरी हो गी । सत्य की ओर से मुख फेर लेना बुद्धिमानों से दूर है । ५ दिसम्बर १८८५ ईस्वी

मिर्ज़ा जी ने आसमानी चमत्कार दिखाने के स्थान पर आर्य धर्म और इसलाम के दो तीन सिद्धान्तों पर शास्त्रार्थ करने का बहाना किया । अन्य शर्ते निश्चित करने का भी लिखा । जिस पर पं० ने लिखा कि मेरा पेशावर से चलकर कादयान आने का प्रयोजन केवल यही था और अब तक भी इस आशा पर यहां रह रहा हूं कि आपके चमत्कार = प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कार्य, करामात व इलहामात और आसमानी चिह्नों का विवेचन करके साक्षात करूं । और इससे पूर्व कि किसी अन्य सिद्धान्त पर शास्त्रार्थ किया जाए यह चमत्कार दर्शन की बात एक प्रतिष्ठित लोगों की सभा में अच्छी प्रकार निर्णीत हो जानी चाहिए । और इसके सिद्ध कर सकने में यदि आप अपनी असमर्थता बतावें तो शास्त्रार्थ करने से भी मुझे किसी प्रकार का इन्कार नहीं ।

तीसरा और चौथा पत्र

पुनः पं० जी ने तीसरे पत्र में लिखा कि ….. मुझे आज यहां पच्चीस दिन आए हुए हो गए है । मैं कल परसों तक जाने वाला हूं । यदि शास्त्रार्थ करना है तो भी, यदि चमत्कार दिखाने के सम्बन्ध में नियम निश्चित करने है तो भी शीघ्रता कीजिए । अन्यथा पश्चात मित्रों में फर्रे मारने का कुछ लाभ न  होगा । किन्तु बहुत ही अच्छा होगा कि आज ही स्कूल के मैदान में पधारें । शैतान, सिफारिश, चांद के टुकड़े होने के चमत्कार का प्रमाण दें । निर्णायक भी नियत कर लीजिए । मेरी ओर से मिर्ज़ा इमामदीन जी (मिर्जा जी के चचेरे भाई) निर्णायक समझें । यदि इस पर भी आपको सन्तोष नहीं है तो ईश्वर के लिए चमत्कारों के भ्रमजाल से हट जाइए । १३ दिसम्बर १८८५ ईस्वी

पं० जी ने चतुर्थ पत्र में मिर्ज़ा जी को पूर्ण बल के साथ ललकारा और लिखा कि ….. आप सर्वथा स्पष्ट बहाना, टालमटोल और कुतर्क कर रहे है । मिर्ज़ा साहब ! शोक ! ! महाशोक ! ! ! आप को निर्णय स्वीकार नही है । किसी ने सत्य कहा है किः-

 

(ट)

उजुरे नामआकूल साबितमेकुनद तक़स़ीर रा ।

बुद्धिशून्य टालमटोल तो जुर्म को ही सिद्ध करता है ।

इसके अतिरिक्त आप द्वितीय मसीह होने का दावा करते हैं । इस अपने दावा को सिद्ध कर दिखाइए । (लेखराम कादयान ९ बजे दिन के)

अन्ततोगत्वा मिर्ज़ा जी ने समयाभाव और फारिग न होने का बहाना किया । जिससे पं० जी को दो मास कादयान रहकर लौट आना पड़ा ।

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि मिर्ज़ा  जी ने पं० लेखराम जी की भावना शुद्ध न होने का भी बहाना किया है । यह दोषारोपण हक़ीकतुल्वही पृष्ठ २८८ से खंडित हो जाता है । क्योंकि वहां उनके स्वभाव में सरलता का स्वीकरण स्पष्ट विद्यमान है । इस पर भी अहमदी मित्र यदि पं० लेखराम जी की पराजय और श्री मिर्ज़ा जी की विजय का प्रचार करते और ढ़ोल बजाकर अपने उत्सवों में घोषणा करते है तो यह उनका साहस उनकी अपनी पुस्तकों और मिर्जा जी के लेखों के ही विरुद्ध है । यदि पं० का वध किया जाना आसमानी चमत्कार समझा जाए तो भी ठीक नहीं । क्योंकि आसमानी चमत्कार दिखाने का समय एक वर्ष के अन्दर सीमित था । और इसके साथ पं० लेखराम जी के इसलाम को स्वीकार करने की शर्त बन्धी हुई थी जैसा कि मिर्ज़ा जी के विज्ञापन में लिखा गया था । इन दोनों बातों के पूरना न होने के कारण पं० जी की विजय सूर्य प्रकाशवत् प्रगट है क्योंकि मिर्ज़ा जी ने स्वयं लिखा है किः—

“यह प्रस्ताव न अपने सोच विचार का परिणाम है किन्तु हज़रत मौला करीम (दयालु भगवान्) की ओर से उसकी आज्ञा से है । ………इस भावना से आप आवेंगे तो अवश्य इन्शाअल्लाह (यदि भगवान चाहे) आसमानी चमत्कार का साक्षात् करेंगे । इसी विषय का ईश्वर की ओर से वचन हो चुका है जिसके विरुद्ध भाव की सम्भावना कदापि नहीं ।” तब्लीगे रसालत जिल्द १ पृ० ११-१२

शर्त निश्चित न हो सकने के कारण पं० जो को कादयान से वापिस लौटना पड़ा । इसका प्रमाण पं० जी और मिर्जा जी की पुस्तकों से प्रगट है ।

पं० जी ने लिखा ही तो है किः—

” ……… अन्ततोगत्वा मिर्ज़ा साहब ने एक वर्ष रहने की शर्त को भी धनाभाव के कारण बहाना साजी, क्रोध और छल कपट से टाल दिया । बाधित होकर मैं दो मास कादयान रहकर और वहां आर्य-समाज स्थापित करके चला आया ।”

इशतहार सदाकत अनवार में श्री मिर्ज़ा जी ने पं० लेखराम जी के कादयान में आकर दो मास ठहरने और शर्तें निश्चित न हो सकने का उल्लेख किया है । अतः अहमदी मित्रों को ननुनच के बिना स्वीकार कर लेने में संकोच न करना चाहिए कि आगे के घटना चक्र में हत्या का विषय चमत्कार का परिणाम नहीं किन्तु इस पराजय का परिणाम ही है जिसे भविष्यवाणी का नाम दे दिया गया है । किन्तु सत्य तो अन्ततोगत्वा सत्य ही है कि श्री मिर्ज़ा साहब सुनतानुल्क़लम (मिर्जा जी का इलहाम सुनतानुल्क़लम का है । अतः वह अपने को क़लम का बादशाह मानते थे) की लेखनी से सत्य का प्रकाश हुए बिना न रह सका । और पं० लेखराम जी के वध को केवल हत्या नहीं प्रत्युत बलिदान अर्थात् शहीद मान लिया । देखिये स्पष्ट लिखा है किः—

 

(ठ)

“सो आसमानों और जमीन के मालिक ने चाहा कि लेखराम सत्य के प्रकाश के लिए शहीद हुए हैं । शहीद शब्द अरबी भाषा का है । अतः मिर्ज़ा जी ने इसका पर्यायवाची शब्द बलिदान रखा है । वेद में अंग-२ कटा कर धर्म प्रचार की सच्चाई प्रमाण देने वाले मनुष्य को अमर पदवी की प्राप्ति होती है । इसकी मुक्ति में कोई सन्देह नहीं रहता । क़ुरान शरीफ़ में भी शहीदों, सत्य पर मिटने वालों को जीवित कहा है । जिनके लिए न कोई भय और न कोई शोक है । खुदा के समीप इनका पद उच्च से उच्च है ।

पं० लेखराम की शहादत पर संसार ने साक्षी दी कि उनका धर्म सत्य और वह सत्य के प्रचारक थे । स्वयं श्री मिर्ज़ा जी ने पं० जी के बलिदान से पूर्व वेदों को नास्तिक मत का प्रतिपादक घोषित किया था ।

नास्तिक मत के वेद हैं हामी ।

बस यही मुद्आ (प्रयोजन) है वेदों का ।।

किन्तु पं० लेखराम आर्य पथिक के महा बलिदान के पश्चात् स्पष्ट रूप से घोषणा की जब कि मिर्ज़ा जी के दिवंगत होने में चार दिन शेष थे । अतः यह उनका अन्तिम लेख और अहमदी मित्रों के लिए यह उनकी अन्तिम वसीयत है कि वह भी श्री मिर्ज़ा की भान्ति पं० जी को सच्चा शहीद और वेद मुगद्दस को पूर्ण ईश्वरीय ज्ञान स्वीकार करें ।

मिर्ज़ा जी ने अपनी अन्तिम पुस्तक में घोषणा की है— यह पूज्य पं० जी की ईश्वर से सच्चे मन से की गई प्रार्थना का परिणाम है जो इस प्रकार है किः—

………..हे परमेश्वर ! हम दोनों में सच्चा निर्णय कर और जो तेरा सत्य धर्म है उसको न तलवार से किन्तु प्यार से तर्क संगत प्रकाश से जारी कर और विधर्मी के मन को अपने सत्य ज्ञान से प्रकाशित कर जिस से अविद्या, पक्षपात, अत्याचार और अन्याय का नाश हो । क्योंकि झूठा सच्चे की भान्ति तेरे सम्मुख प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता ।” नुसखा (निदान) १८८८ ईस्वी

मिर्जाजी की प्रार्थना असफल

पं० जी की प्रार्थना से पूर्व मिर्ज़ा जी ने भी अपने विचार तथा मन्तव्य़ के अनुसार ईश्वर से प्रार्थना की थी । जो निम्न प्रकार हैः—

“……. ऐ मेरे जब्वारो कहार खुदा ! यदि मेरा विरोधी पं० लेखराम कुरआन को तेरा कलाम (वाणी) नहीं मानता । यदि वह असत्य पर है तो उसे एक वर्ष के अन्दर अजाब (दुःख) की मृत्यु दे ।”             सुरमा सन् १८८६ ईस्वी

मिर्ज़ा जी ने १८८६ ईस्वी में पं० जी के विरुद्ध ईश्वर से उन के लिये दुःखपूर्ण मौत मारने की प्रार्थना की । किन्तु यह प्रार्थना वर्ष भर बीत जाने पर भी स्वीकार नहीं हुई । अतः मिर्ज़ा जी के प्रार्थना के शब्दों में कुरान शरीफ़ ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध न हो सका । किन्तु पं० लेखराम जी ने मिर्जा जी की प्रार्थना का एक वर्ष बीत जाने पर और उस प्रार्थना के विफल सिद्ध होने पर १८८८ ईस्वी में अपनी आर्यों की गौरव पूर्ण प्रार्थना परमात्मा के समक्ष सच्चे एकाग्र मन से लिखी । जिस में एक वर्ष की अवधि की शर्त नही थी । जीवन भर में किसी समय भी इस प्रार्थना की आपूर्ति सम्भव थी जो परमात्मा की कृपा से पूर्ण सफल हुई । अतः वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने तथा पं० जी के सत्य सिद्ध होनेमें कोई सन्देह न रहा ।

इसलमा की परिभाषा में इसी का नाम “मुकाबला” है । जो दो भिन्न विचारवान् व्यक्ति भीड़ के सम्मुख शपथ पूर्वक परमात्मा से प्रार्थना करते हैं । मिर्ज़ा जी ने अन्तिम निर्णय के लिए मुकाबला की प्रस्तावना रखी थी और उस की विस्त़ृत प्रार्थना लिख कर छाप दी थी । चाहे नियम पूर्वक मुकाबला नहीं हुआ । किन्तु उस की रसम पूरी मान ली जाए । तो मिर्ज़ा जी की पराजय और आर्य गौरव पं० जी की विजय स्पष्ट सिद्ध है ।

पं० जी की प्रार्थना यह है कि “विधर्मी (मिर्ज़ा जी) के मन में सत्य ज्ञान का प्रकाश कर ।”

परमात्मा ने इसे स्वीकार किया और मिर्ज़ा जी धीरे-२ वैदिक धर्म के सिद्धान्तों के निकट आते चले गये । प्रथम मिर्ज़ा जी ने जीव तथा प्रकृति को नित्य स्वीकार किया । पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर ईमान लाए । स्वर्ग, नरक के इसलामिक सिद्धांत को परिवर्तित किया । जिहाद की समाप्ति की घोषणा की । अन्त में अपनी मृत्यु से चार दिन पूर्व ” पैगामे सुलह” (शान्ति का सन्देश) नामी पुस्तक लिखी जिस में अपने वैदिक धर्मी होने की घोषणा इन शब्दों में कीः—

(१) “हम अहमदी सिलसिला के लोग सदैव वेद को सत्य मानेंगे । वेद और उस के ऋषियों की प्रतिष्ठा करेंगे तथा उन का नाम मान से लेंगे ।”

(२) “इस आधार पर हम वेद की ईश्वर की ओर से मानते है और उस के ऋषियों को महान् और पवित्र समझते है ।

(३) ” तो भी ईश्वर की आज्ञानुसार हमारा दृढ़ विश्वास है कि वेद मनुष्य की रचना नहीं है । मानव रचना में यह शक्ति नहीं होती कि कोटि मनुष्यों को अपनी ओर खेंच ले और पुनः नित्य का क्रम स्थिर कर दे ।”

(४) “हम इन कठिनाईयों के रहते भी ईश्वर के भय से वेद को ईश्वरीय वाणी जानते हैं और जो कुछ उस की शिक्षा में भूलें हैं वह वेद के भाष्यकारों की भूले समझते हैं ।”

इस से  सिद्ध हुआ कि वेद की कोई भूल नहीं । वेद के वाम मार्गी भाष्यकारों की भूल है ।

(५) मैं वेद को इस बात से रहित समझता हूं कि उस ने कभी अपने किसी पृष्ठ पर ऐसी सिक्षा प्रकाशित की हो जो न केवल बुद्धिविरुद्ध और शून्य हो किन्तु ईश्वर की पवित्र सत्ता पर कंजूसी और पक्षपात का दोष लगाती हो ।”

अतः वेद का ज्ञान ही तर्क की कसौटी पर उत्तीर्ण है और बुद्धि विरुद्ध नहीं तथा ईश्वर की दया से पूर्ण है क्योकि ईश्वर में कंजूसी नहीं । आरम्भ सृष्टि में आया है कि जिस से सब के कल्याण के लिए हो और किसी के साथ ईश्वर का पक्षपात न हो ।

(६) “इस के अतिरिक्त शान्ति के इच्छुक लोगों के लिए यह एक प्रसन्नता का स्थान है कि जितनी इसलाम में शिक्षा पाई जाती है । वह वैदिक धर्म की किसी न किसी शाखा प्रशाखा में विद्यमान है ।”

(ढ़)

अतः सिद्ध हुआ कि इसलाम संसार में कोई पूर्ण धर्म का प्रकाश नहीं कर सकता । क्योंकि उसकी सिक्षा तो अधूरी है । वह तो वैदिक धर्म की शाखा प्रशाखा में पूर्व से लिखी हुई है । वास्तव में तो वेद का धर्म ही पूर्ण और भूलों से रहित होने से परम पावन है ।

परमात्मा आर्यावर्त, पाक, इसलामी देशों और संसार भर के अमहदी  मि6 तथा अन्य सभी लोगों को यह सामर्थ्य प्रदान करें कि वह अपने मनों को पवित्र करके स्वार्थ और पक्षपात की समाप्ति के साथ सत्य सिद्धान्त युक्त वेद के धर्म को पूर्णतः स्वीकार करें । पं० लेखराम जी ने भगवान् से यही प्रार्थना सच्चे हृदय और पवित्र मन से की ।

इस प्रार्थना की पुष्टि के लिए उन्होंने अपना जीवन वैदिक धर्म की बलिवेदी पर स्वाहा कहकर आहुत कर दिया । और सच्चे धर्म की सच्ची शहादत अपने खून से दे दी । जिस का प्रभाव यह हुआ कि मिर्ज़ा गुलाम अहमद के विचार परिवर्तित होते होते उनको वैदिक धर्म का शैदाई बना गए ।

ऐ काश ! हमारी भी शाहदत प्रभु के सम्मुख स्वीकार हो और हमें वीर लेखराम की पदवी प्राप्त हो । पदवी नहीं, गुमनामी ही सही । किन्तु वैदिक धर्म की पवित्र बलिवेदी पर हमारी आहुति भी डाली जाकर उसके किंचित् प्रकाश से संसार में उजाला और वेदों का बोलबोला हो । परमेश्वर सत्य हृदय से की गई प्रार्थना को स्वीकार करें ।

ओ३म् शम्

संसार में मनुष्यों के कर्तव्य संबंधी ज्ञान-विज्ञान का सर्वोत्तम ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

कबीर दास जी ने सत्य की महिमा को बताते हुए कहा है कि सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप, जाके हृदय सांच है ताके हृदय आप वस्तुतः संसार में सत्य से बढ़कर कुछ नहीं है। ईश्वर, जीव व प्रकृति सत्य हैं अर्थात् इनका संसार में अस्तित्व है। बहुत से सम्प्रदायों व स्वयं को ज्ञानी मानने वाले लोग आज भी न तो ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं और न ही जीवात्मा को। ऐसी स्थिति में सत्य क्या है? इसे जानने की प्रत्येक मनुष्य को, चाहे वह किसी भी मत व सम्प्रदाय का क्यों न हो, स्वाभाविक इच्छा होती है। इच्छा रखने पर भी उसे उसके प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते तो विवश होकर वह परम्पराओं का दास बन जाता है। महर्षि दयानन्द के जीवन में भी समय आया जब उन्होंने ईश्वर, मूर्तिपूजा व मृत्यु विषयक कुछ प्रश्नों को जानने की जिज्ञासा की परन्तु उन्हें कहीं से इसका समाधान नहीं मिला। इस पर उन्होंने स्वयं ही सत्य की खोज करने का निश्चय किया और कालान्तर में घोर तप व पुरुषार्थ के बाद वह अपने मिशन में सफल रहे। उनके गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द की प्रेरणा हुई कि उन्होंने जीवन में जिन सत्यों की खोज की है, उससे संसार को लाभान्वित करें तो यही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया। इसी का एक परिणाम उनके द्वारा संसार संबंधी सभी सत्य मान्यताओं को बताने वाले ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश का प्रणयन है। मानव जाति का यह परम सौभाग्य है कि आज महर्षि दयानन्द की कृपा से उसे वह सत्य ज्ञान प्राप्त है जिसके प्रति विगत लगभग पांच हजार वर्षो तक हमारे देश व विश्व के सभी लोग अनजान व भ्रमित थे। आईये, सत्यार्थ प्रकाश से जुड़े कुछ प्रश्नों को जानते हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ की रचना क्यों की? इसे उन्हीं के शब्दों में जानते हैं। वह सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में लिखते हैं कि मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्यसत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय। किन्तु जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्याऽसत्य का स्वरूप समर्पित कर दें, पश्चात् वे स्वयम् अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके सदा आनन्द में रहें। महर्षि दयानन्द ने इन पंक्तियों में सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ लिखने का अपना आशय स्पष्ट व प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत किया है। यहां उन्होंने सत्य के प्रचार प्रसार में आने वाली कठिनाईयों व समस्याओं का भी संकेत किया है। उनके समय व आजकल की धार्मिक परिस्थितियों में कुछ विशेष अन्तर नहीं आया है। आज भी सभी मत-मतान्तर अपने अपने मतों की सत्याऽसत्य मान्यताओं पर किंचित विचार व मनन न करके उसकी एक-एक पंक्ति को सत्य मानकर अन्धश्रद्धा से ग्रसित ही दिखाई देते हैं जिससे सत्याऽसत्य का निर्णय न होने में बाधायें उपस्थित हैं। इस कारण से देश व विश्व के मनुष्यों को आध्यात्मिक सुख प्राप्त न होकर उनके लोक-परलोक बिगड़ रहे हैं जिसकी चिन्ता किसी को भी नहीं है। आज का युग विज्ञान का युग है। बहुत अधिक समय तक कोई किसी को सत्य से अपरिचित व दूर नहीं रख सकता। समय आयेगा जब लोग सत्य को प्राप्त करेंगे। इसमें समय लग सकता है। सत्य अविनाशी व अमर है और असत्य अस्थिर व अन्धकार की तरह से शीघ्र नष्ट होने वाला होता है। अतः मत-मतान्तरों का असत्य भविष्य में अवश्य ही दूर होगा, यह निश्चित है।

 

सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में महर्षि दयानन्द ने अनेक महत्वपूर्ण बातों का प्रकाश करते हैं। ज्ञानवर्धक एवं उपयोगी होने के कारण इन पर एक दृष्टि डाल लेते हैं। वह लिखते हैं कि मनुष्य का आत्मा सत्याऽसत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु इस ग्रन्थ (सत्यार्थ प्रकाश) में ऐसी बात नहीं रक्खी है और किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जान कर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है। इन पंक्तियों में महर्षि दयानन्द ने पहली महत्वपूर्ण बात यह लिखी है कि मनुष्य का आत्मा सत्याऽसत्य को जानने वाला होता है। दूसरी यह कि सत्य के अर्थ का प्रकाश करने के पीछे उनका उद्देश्य किसी का मन दुःखाना व हानि करना कदापि व किंचित मात्र नहीं है। और अन्त में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह कहते हैं कि मनुष्य जाति की उन्नति में सहायता के लिए वह सत्य असत्य का प्रकाश कर रहें हैं क्योंकि सत्योपदेश ही एकमात्र मनुष्य जाति की उन्नति का कारण हैं। अतः मनुष्य जाति की उन्नति के लिए ही सत्यार्थ प्रकाश का प्रणयन महर्षि दयानन्द ने किया था, यह उनके यहां दिए शब्दों व सत्यार्थ प्रकाश को आद्योपान्त पढ़कर सिद्ध होता है। इसकी साक्षी पं. लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती आदि रहे हैं। यह भी निवेदन है कि आत्मा सत्य को जानते हुए भी अज्ञान रूपी पर्दें को प्रयत्न्पूर्वक न हटाने के कारण सत्य से वंचित रहता है।

 

इसके बाद महर्षि दयानन्द जगत का पूर्ण हित कैसे हो सकता है, उसकी बात करते हैं और उसका उपाय भी बताते हैं। उन्होंने मत-मतान्तरों से मनुष्यों को होने वाले सुख-दुःख की चर्चा भी की है। उनके द्वारा कहे गये यह शब्द भी अनमोल होने के कारण प्रस्तुत हैं। वह कहते हैं कि यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान् प्रत्येक मतों में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् जोजो बातें सब के अनुकूल सब में सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध बातें हैं, उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्त्ते वर्तावें तो जगत् का पूर्ण हित होवे। क्योंकि (अन्य अन्य मतों के) विद्वानों के विरोध से अविद्वानों (सामान्य जनों) में विरोध बढ़ कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है। इस हानि ने, जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःखसागर में डूबा दिया है। यहां महर्षि दयानन्द सभी मत वालों से पक्षपात छोड़कर सर्वतन्त्र सिद्धान्त को अपनाने की अपील कर रहे हैं किन्तु खेद है कि आज तक किसी ने उनकी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया।

 

सत्यार्थप्रकाश की भूमिका से ही महर्षि दयानन्द लिखित कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख करते हैं। वह कहते हैं कि इनमें से जो कोई सार्वननिक हित लक्ष्य में धर प्रवृत्त होता है, उससे स्वार्थी लोग (मतमतान्तर वाले) विरोध करने में तत्पर होकर अनेक प्रकार विघ्न करते हैं। परन्तु सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः। अर्थात् सर्वदा सत्य का विजय ओर असत्य का पराजय और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है। इस दृढ़ निश्चय के आलम्बन से आप्त लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी सत्यार्थप्रकाश करने से नहीं हटते। आगे वह कहते हैं कि यह बड़ा दृढ़ निश्चय है कि यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्। यह गीता का वचन है। इसका अभिप्राय यह है कि जो-जो विद्या और धर्मप्राप्ति के कर्म हैं, वे प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात् अमृत के सदृश होते हैं। ऐसी बातों को चित्त में धरके मैंने इस ग्रन्थ को रचा है। श्रोता या पाठकगण भी प्रथम प्रेम से देख के इस ग्रन्थ का सत्य-सत्य तात्पर्य जान कर यथेष्ट करें।’ इन पंक्तियों में उन्होंने आप्त लोगों के देश-समाज हित व परोपकार की भावना से कर्तव्य कर्म करने और ग्रन्थ के प्रयोजन पर भी एक अन्य प्रकार से अपना मत प्रकट किया है और कहा है कि इसका परिणाम अमृत के सृदश होगा। वस्तुतः जिसने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से लाभ उठाया है, उसके लिए इसका परिणाम निश्चय ही अमृत तुल्य हुआ है।

 

अपनी निष्पक्षता को बताते हुए महर्षि दयानन्द ने कहा है कि यद्यपि मैं आर्यावर्त्त देश में उत्पन्न हुआ और वसता हूं, तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात कर याथातथ्य प्रकाश करता हूं, वैसे ही दूसरे देशस्थ वा मत वालों के साथ भी वर्त्तता हूं। जैसा स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में वर्त्तता हूं, वैसा विदेशियों के साथ भी तथा सब सज्जनों को भी वर्त्तता योग्य है। क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता तो जैसे आजकल के स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते और दूसरे मत की निन्दा, हानि और बन्ध करने में तत्पर होते हैं, वैसे मैं भी होता, परन्तु ऐसी बातें मनुष्यपन से बाहर हैं। क्योंकि जैसे पशु बलवान् होकर निर्बलों को दुःख देते और मार भी डालते हैं, जब मनुष्य शरीर पाके वैसा ही कर्म करते हैं तो वे मनुष्य स्वभावयुक्त नहीं, किन्तु पशुवत् हैं। और जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है वही मनुष्य कहाता है और जो स्वार्थवश होकर परहानिमात्र करता रहता है, वह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है।  

 

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश को 14 समुल्लासों में लिखा है। प्रथम 10 समुल्लास पूर्वार्ध के हैं जिसमें वैदिक मान्यताओं का पोषण व मण्डन है। उत्तरार्ध के 4 समुल्लासों में क्रमशः आर्यवर्त्तीय मतमतान्तरों, बौद्ध व जैन मत, ईसाईमत और मुसलमानों के मत की सत्य व असत्य मान्यताओं का सत्याऽसत्य के निर्णयार्थ खण्डन-मण्डन किया गया है। हम यह अनुभव करते हैं कि यदि महर्षि दयानन्द के समय में मत-मतान्तरों में सत्य और असत्य मान्यतायें, विचार व सिद्धान्त न होते, केवल सत्य ही सत्य होता, तो उनको खण्डन व मण्डन करने की आवश्यकता न पड़ती। उन्होंने ईश्वर की आज्ञा से असत्य के दमन दलन तथा सत्य की प्रतिष्ठा के लिए एक महान कार्य किया है जिस ओर विगत 5 हजार वर्षों में किसी का ध्यान नहीं गया था और ही उनकी योग्यता वाला मनुष्य विगत पांच हजार वर्षों में उत्पन्न ही हुआ जो इस कार्य को कर सकता। महर्षि दयानन्द की एक अनुपम देन यह है कि उन्होंने अपने समय सन् 1825-1883 में प्रचलित सभी भ्रान्तियों को मिटाकर ईश्वर, वेद, जीवात्मा, प्रकृति मनुष्य जीवन के कर्तव्यों यथा ईश्वर उपासना, पंचमहायज्ञ आदि का विस्तार से परिचय कराया जिसको लोग भूल चुके थे और अविद्याग्रस्त होकर अन्धकार में विचर रहे थे। महर्षि दयानन्द की सभी मान्यतायें एवं विचार वेद, तर्क और युक्तियों पर आधारित होने से विज्ञानसम्मत हैं। हम यह अनुमान करते हैं कि जिस प्रकार विज्ञान की पुस्तकें सारे संसार के लोगों द्वारा बिना पक्षपात के उत्सुकता से पढ़ी जाती है, उसी प्रकार से एक दिन सत्यार्थप्रकाश को विश्व में मान्यता प्राप्त होगी। यह दिन हमारे जीवन में भले ही न आये, परन्तु आयेगा अवश्य क्योंकि सत्यमेव जयते नानृतं। सत्य व असत्य के संघर्ष में सदा सर्वदा सत्य की ही विजय होती है। यह भी कहना समीचीन है कि महर्षि दयानन्द ने अपने समय में धर्म के क्षेत्र में विलुप्त सत्य विचारों व सिद्धान्तों को विश्व के सामने रखा था। वह चाहते थे कि लोग असत्य छोड़ कर सत्य का ग्रहण करें। उनके जीवन काल में उनका उद्देश्य पूरा न हो सका और आज भी नहीं हुआ है। भविष्य में यह अवश्य होगा और ईश्वर की भी इसमें विशेष भूमिका होगी। इसका कारण ईश्वर का सत्य में प्रतिष्ठित होना है। उसका कर्म फल सिद्धान्त भी सत्य और असत्य के आधार पर ही चलता है जिसमें सत्य पुरुस्कार के योग्य और असत्य दण्डनीय है। उसका यह सिद्धान्त सब मतों व सम्प्रदायों पर लागू है जिसका दिग्दर्शन हमें प्रतिदिन प्रतिक्षण होता है।  यही सिद्धान्त सत्य मत की संवृद्धि का आधार है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

योगेश्वर श्री कृष्ण और १६ कलाएं तथा जन्माष्टमी

नमस्ते मित्रो,

५००० वर्ष और उससे भी पूर्व अनेको मनुष्य उत्पन्न हुए मगर इतिहास में याद केवल कुछ ही लोगो को किया जाता है, इतिहास में केवल उनके लिए जगह होती है जो कुछ अनूठा करते हैं, कुछ लोग अपने द्वारा की गयी बुराई से अपना नाम इतिहास में दर्ज करवाते हैं, और कुछ अपने सदगुणो, सुलक्षणों और महान कर्तव्यों से अपना नाम अमर कर जाते हैं, क्योंकि आज कृष्ण जैसा सुलक्षण नाम अपने पुत्र का तो कोई भी रखना चाहेगा, मगर रावण, कंस आदि दुर्गुणियो के नाम कोई भी अपने पुत्र का न रखना चाहेगा, इसी कारण कृष्ण अमर हैं, राम अमर हैं, हनुमान अमर हैं, मगर रावण, कंस आदि मृत हैं।

आर्यावर्त में उत्पन्न हुए अनेको ऐतिहासिक महापुरषो में से एक महापुरुष, ज्ञानी, वेदवेत्ता योगेश्वर श्री कृष्ण का आज ही के दिन जन्म हुआ था, इस दिन को आज जन्माष्टमी कहते हैं, क्योंकि आज भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि है, इसी दिन कृष्ण महाराज का जन्म हुआ था। इसलिए इस दिन को जन्माष्टमी के नाम से जाना जाता है।

हमारे बहुत से बंधू कृष्ण महाराज को पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं। यहाँ हम अवतार का अर्थ संक्षेप में बताना चाहेंगे, “अवतार का शाब्दिक अर्थ “जो ऊपर से नीचे आया” और “पूर्ण” “पुरुष” इस हेतु कहते हैं पूर्ण कहते हैं जो अधूरा न रहा, और पुरुष शब्द के दो अर्थ हैं :

1. पुरुष शब्द का अर्थ सामान्य जीव को कहते हैं जिसे आत्मा से सम्बोधन करते हैं।

2. पुरुष शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए भी किया जाता है जिसने इस सम्पूर्ण ब्राह्मण की रचना, धारण और प्रलय आदि का पुरषार्थ किया और करता है।

हम सभी जीव जो इस धरती पर व अन्य लोको पर विचरण कर रहे वो सभी अवतारी हैं क्योंकि हम सब ऊपर से ही नीचे आये क्योंकि मरने के बाद हमारी आत्मा यमलोक (यम वायु का नाम है अतः वायुलोक यानी अंतरिक्ष में जाती है) तब नीचे आती है। और हम सभी अपनी आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण नहीं कर पाते अर्थात मोक्ष को ग्रहण करने योग्य गुणों को धारण नहीं कर पाते और कुछ ही गुणों को आत्मसात कर पाते हैं। इसलिए हम आवागमन के चक्र में फंसे रह जाते हैं। अतः इसी कारण हम अवतार होते हुए भी मृतप्राय रह जाते हैं अमर नहीं हो पाते।

अब हम आते हैं कृष्ण को १६ कलाओ से युक्त पूर्ण अवतारी क्यों कहते हैं यहाँ हमारे कुछ पौराणिक बंधू पहले इस तथ्य को भली भांति समझ लेवे की परमात्मा जो पुरुष है वह अनेको कलाओ और विद्याओ से पूर्ण है, जबकि जीव पुरुष अल्पज्ञ होने से कुछ कलाओ में निपुण हो पाता है, यही एक बड़ा कारण है की जीव ईश्वर नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का दायित्व है की ईश्वर के गुणों को आत्मसात करे इसीलिए कृष्ण महाराज ने योग और ध्यान माध्यम से ईश्वर के इन्ही १६ गुणों (कलाओ) को प्राप्त किया था इस कारण उन्हें १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष कहते हैं।

अब आप सोचेंगे ये १६ कलाएं कौन सी हैं, तो आपको बताते हैं, देखिये :

इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, आकाश, दशो इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह के स्वामी को प्रजापति कहते हैं।

ये प्रश्नोपनिषद में प्रतिपादित है।

(शत० 4.4.5.6)

योगेश्वर कृष्ण ने योग और विद्या के माध्यम से इन १६ कलाओ को आत्मसात कर धर्म और देश की रक्षा की, आर्यवर्त के निवासियों के लिए वे महापुरष बन गए। ठीक वैसे ही जैसे उनसे पहले के अनेको महापुरषो ने देश धर्म और मनुष्य जाति की रक्षा की थी। क्योंकि कृष्ण महाराज ने अपने उत्तम कर्मो और योग माध्यम से इन सभी १६ गुणों को आत्मसात कर आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण किया इसलिलिये उन्हें पूर्ण अवतारी पुरुष की संज्ञा अनेको विद्वानो ने दी, लेकिन कालांतर में पौरणिको ने इन्हे ईश्वर की ही संज्ञा दे दी जो बहुत ही

अब यहाँ हम सिद्ध करते हैं की ईश्वर और जीव अलग अलग हैं देखिये :

यस्मान्न जातः परोअन्योास्ति याविवेश भुवनानि विश्वा।
प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणी ज्योतींषि सचते स षोडशी।

(यजुर्वेद अध्याय ८ मन्त्र ३६)

अर्थ : गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषो को चाहिए की जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोको का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात सदा ऐसा ही बना रहता है, सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम व जिसके सामान नहीं है, उसकी उपासना करे।

यहाँ मन्त्र में “सचते स षोडशी” पुरुष के लिए आया है, पुरुष जीव और परमात्मा दोनों को ही सम्बोधन है और दोनों में ही १६ गुणों को धारण करने की शक्ति है, मगर ईश्वर में ये १६ गुण के साथ अनेको विद्याए यथा (त्रीणि) तीन (ज्योतिषी) ज्योति अर्थात सूर्य, बिजली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थो में स्थापित करता है। ये जीव पुरुष का कार्य कभी नहीं हो सकता न ही कभी जीव पुरुष कर सकता क्योंकि जीव अल्पज्ञ और एकदेशी है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है, इसी हेतु से जीव पुरुष को जो गृहाश्रम की इच्छा करने वाला हो, ईश्वर ने १६ कलाओ को आत्मसात कर मोक्ष प्राप्ति के लिए वेद ज्ञान से प्रेरणा दी है, ताकि वो जीव पुरुष उस परम पुरुष की उपासना करता रहे।

ठीक वैसे ही जैसे १६ कला पूर्ण अवतारी पुरुष योगेश्वर कृष्ण उस सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान, परम पुरुष परमात्मा की उपासना करते रहे।

आइये हम भी इन गुणों को अपना कर कृष्ण के सामान अपने को अमर कर जाए। हम १६ कला न भी अपना पाये तो भी वेद पाठी होकर कुछ उन्नति कर पाये।

आइये सत्य को अपनाये और असत्य त्याग कर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी का त्यौहार मनाये। आप सभी मित्रो, बंधुओ को योगेश्वर कृष्ण के जन्मदिवस जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाये।

लौटिए वेदो की और।

नमस्ते।

नोट : अब स्वयं सोचिये जो पुरुष (जीव) इन १६ कलाओ (गुणों) को योग माध्यम से प्राप्त किया क्या वो :

कभी रास रचा सकता है ?

क्या कभी गोपिकाओं के साथ अश्लील कार्य कर सकता है ?

क्या कभी कुब्जा के साथ समागम कर सकता है ?

क्या अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य महिला से सम्बन्ध बना सकता है ?

क्या कभी अश्लीलता पूर्ण कार्य कर सकता है ?

नहीं, कभी नहीं, क्योंकि जो इन कलाओ (गुणों) को आत्मसात कर ले तभी वो पूर्ण कहलायेगा और जो इन सोलह कलाओ को अपनाने के बाद भी ऐसे कार्य करे तो उसे निर्लज्ज पुरुष कहते हैं, पूर्ण अवतारी पुरुष नहीं।

इसलिए कृष्ण का सच्चा स्वरुप देखे और अपने बच्चो को कृष्ण के जैसा वैदिक धर्मी बनाये।

योगेश्वर महाराज कृष्ण की जय।

धन्यवाद

वेशों का ईद मुबारक : प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

माननीय सपादक जी, परोपकारी,

सप्रेम नमस्ते।

 

वेशपंथियों ने सार्वदेशिक सभा के भवन के बाहर ‘ईद मुबारक’ के बैनर लगाकर यह प्रमाणित कर दिया है कि उनके मन में क्या है। इनके मन में कुछ भी  हो सकता है परन्तु आर्यसमाज और वैदिक धर्म के प्रति लेशमात्र भी कोई भावना नहीं।

जब नेपाल में सायवादी प्रधानमन्त्री सत्तासीन हुआ तो श्री अग्निवेश ने ब्र. नन्दकिशोर जी से कहा, ‘‘लो नेपाल में मेरा राज हो गया।’’

सत्यार्थप्रकाश के विरुद्ध अमृतसर में जो कुछ कहा, उस समय के दैनिक पत्रों में छपा मिलता है।

समलैङ्गिकता का समर्थन, बिग बॉस में जाकर साधुवेश की शोभा बढ़ाने वाले ने अब याकूब की रक्षा के लिए झण्डा उठा लिया है।

जिन लोगों ने कभी अग्निवेश के अपमान पर रोष प्रकट करते हुए दिल्ली में कभी जलूस निकाला था, उन्हें अब अग्निवेश के नेतृत्व में बकर ईद (गो-मांस वाली ईद) पर नारे लगाते हुए जलूस निकालना चाहिये।

पं. लेखराम, वीर राजपाल, वीर नाथूराम, हुतात्मा श्यामलाल और वीर धर्मप्रकाश वेदप्रकाश के बलिदान पर्व पर तो इन्होंने कभी बैनर लगाया नहीं।

ये लोग ईद, रोजे व क्रिसमिस मनाने में हाजियों से भी आगे-आगे रहेंगे। इस पंथ का जन्म ही आर्य जाति के विनाश के प्रयोजन से हुआ- यह अब सर्वविदित है।

इन्होंने तो कभी अपने दीक्षा-गुरु स्वामी ब्रह्ममुनि जी का भी कभी नाम नहीं लिया।

– राजेन्द्र जिज्ञासु, वेद सदन, अबोहर, पंजाब

रक्षाबंधन – स्वाध्याय द्वारा जीव और प्रकृति का रक्षण।

रक्षा बंधन, ये शब्द सुनते ही भाई और बहन का वो पवित्र रिश्ता आँखों के दिखना शुरू हो जाता है जो एक धागे से बंधा होता है।

इस दिन श्रावण मास की पूर्णमासी को ये धागा एक बहिन द्वारा अपने भाई की कलाई में बाँध कर भाई से अपनी रक्षा का वचन लेना बहन का कर्तव्य और भाई का अपनी बहन की रक्षा करने का वचन देना करने से ही पूर्ण हो जाता है ऐसा समझा जाता है, और इस कार्य की इतिश्री करके धागा बंधने से पूर्ण कर दिया जाता है। मगर क्या यही सनातन संस्कृति है ?

ऐसे अनेको प्रमाण मिलते हैं की इस प्रकार का रक्षा बंधन सनातन संस्कृति नहीं है बल्कि ये एक ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित कार्य है। इसके पीछे जो ऐतिहासिक तथ्य है उनमे पौराणिक बंधू इन्हे प्रमुखता देते हैं :

1. द्रौपदी का कृष्ण की आकस्मिक अंगुली कटने पर साडी व दुपट्टा का टुकड़ा बाँध देना।

2. कुंती का अपने पौत्र अभिमन्यु को महाभारत युद्ध में कलाई पर रक्षा कवच बाँध देना।

3. पौराणिक दानी दैत्य राजा बलि का रक्षा बंधन से रक्षा होना।

इन प्रमुख कारणों पर यदि ध्यान से देखा जाए तो भी ये रक्षा बंधन यानी बहन का भाई की कलाई पर राखी बांधना और रक्षा का वचन लेना सनातन संस्कृति सिद्ध नहीं होती। क्योंकि ये सभी ऐतिहासिक तथ्य हैं और ऐतिहासिक तथ्य कभी सनातन नहीं हो सकते हैं।

आखिर क्या कारण है की एक दिन के लिए ही भाई अपनी बहन की रक्षा का वचन देता है ? क्या पुरे साल उसे याद दिलाते रहने के लिए ?

मुझे तो नहीं लगता, लेकिन यदि कुछ सालो पीछे जाये तो याद आएगा की हमारे देश में मुगलो का राज था जिसमे महिलाओ की अस्मत और आबरू खतरे में थी, मुझे ऐसा लगता है की ये त्यौहार भाई बहन के लिए उस समय ज्यादा प्रचलन में आया ताकि सामाजिक तौर पर प्रत्येक हिन्दू जाती की महिला को सुरक्षा का भाव मिले। केवल अपने भाई से ही नहीं वरन सभी पुरुषो से।

अब सवाल उठेगा की फिर ये श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन क्यों मनाते हैं ? इसका जवाब हमें अपने भारतीय जनजीवन और भौगोलिक परिस्थियों अनुरूप मिलता है। देखिये हमारा देश कृषि प्रधान राष्ट्र है, और कृषि प्रधान राष्ट्र होने के नाते हमारे देश में कृषक समुदाय अधिक हैं या वो लोग जो कृषि से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। इसलिए यदि आप ध्यान देवे तो आप पाएंगे की हमारे देश में आषाढ से लेकर सावन तक फ़सल की बुआई सम्पन्न हो जाती है। ये क्रम आज भी वैसा ही है जैसे पूर्व काल में होता था मगर बदला है आज का साधु समाज क्योंकि वैदिक काल में ॠषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गांव के निकट आकर रहने लगते थे। जो गाँव वालो को वेद धर्म की शिक्षा देते थे। क्योंकि इस समय कृषक समाज अपनी खेती आदि कार्यो से फारिग हो जाता था इसलिए इस धार्मिक कृत्य में प्रमुखता से जुड़ता था जिससे देश और धर्म दोनों का ही कल्याण होता था। इसमें पारस्कर गृह सूत्र का प्रमाण है :

अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “ (2/10/2-2)

इसके पीछे जो रहस्य है वो ऊपर बताने और समझाने का प्रयास किया है।

वर्षा ऋतु में वेद के पारायण का विशेष आयोजन इसलिए भी किया जाता था क्योंकि वर्षा के दौरान बीमारिया फ़ैलाने वाले जीवाणु अधिक उतपन्न होते हैं इसलिए इनके निवारण हेतु यज्ञ अधिकमात्रा में होते थे जिसमे विशेष सामग्रियाँ डाली जाती थी।

यही रक्षाबंधन था उस यज्ञ का और जीव का जिससे प्रकृति की रक्षा होती थी और इसी स्वाध्याय के आधार पर यज्ञ होते थे जिससे वर्षा ऋतु में उत्पन्न हुए अनेको विषाणुओं का जो गंभीर बीमारियां उत्पन्न करते थे उनसे यज्ञ द्वारा जीव और प्रकृति की रक्षा होती थी, स्वाध्याय करते हुए नित नए औषधि युक्त सामग्रियों का निर्माण करना और यज्ञ करते हुए प्रकृति, कृषि और जीव इनकी रक्षा करना यही बंधन को ऋषि समझते थे, ज्ञान देते थे।

आज भी अनेको गुरुकुलों में पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश हुआ करता है। इस दिन को विशेष रुप से विद्यारंभ दिवस के रुप में मनाया जाता है। बटूकों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा को पुराने यज्ञोपवीत को धारण करके नए यज्ञोपवीत को धारण करने की परम्परा भी रही है।

भले ही इस पवित्र परंपरा को आज लोग भूल गए क्योंकि वो वेदो से विमुख होकर अनार्ष ग्रंथो के अध्यन में रत हुए मगर ये भी सत्य है की पूरी तरह से सिद्धांतो को न बदल पाये, मुगल काल में महिलाओ की रक्षा हेतु रक्षाबंधन का वचन देकर अपनी बहनो माताओ की रक्षण करना, यज्ञोपवीत धारण करना आदि अनेको भ्रान्तिया भी चली मगर सत्य सनातन वैदिक मत यही है की हम वेद और विज्ञानं आधारित बातो को माने क्योंकि सत्य वही है।

केवल भाई बहन तक सीमित न रहकर, इस पवित्र त्यौहार को पुरे विश्व बंधुत्व की और ले जाए, अग्रसर हो इस पवित्र त्यौहार को वैदिक रीति से मनाने के लिए, क्योंकि ये केवल भाई बहन तक सीमित नहीं रखा जा सकता।

आइये लौटियो उसी सनातन संस्कृति की और, लौटिए उस विज्ञानं की और जो ऋषियों ने वेदो के द्रष्टा बनकर हमें दिया। आइये लौटियो वेदो की और।

नमस्ते।

आर्य और ईस्वी महीनो की तुलना – आर्य महीनो का वैज्ञानिक दृष्टिकोण

पाठकगण ! इस लेख द्वारा हम यूरोपीय (ईसाई) तथा पंचांगों की तुलना करना चाहते हैं और यह दिखाना चाहते हैं की आर्य पंचांग में विशेषता और गुण क्या हैं।

ये जानना आज इसलिए भी आवश्यक है की हमारे देश में एक ऐसी प्रजाति भी विकसित हो रही है जो ईसाइयो के अवैज्ञानिक और पाखंडरुपी चुंगल में फंसकर अपनी वैदिक संस्कृति जो पूर्ण वैज्ञानिक आधार पर है उसे नकार कर अन्धविश्वास में लिप्त होकर देश व धर्म का अहित करते जा रहे हैं।

देखिये जो हमारे आर्य महीनो के वैदिक आधार पर पंचांगानुसार नाम हैं वो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कितना उन्नत और व्यवस्थित रूप है जबकि ईसाइयो के महीनो का कच्चा चिटठा हम इस पोस्ट के माध्यम से रखेंगे। आशा है आप सत्य को जान असत्य को त्याग देंगे।

ईसाई महीनो के नाम :

जनवरी (January) : यह वर्ष का प्रथम मास (Astronomy) ज्योतिष है जिसे रोमननिवासियो ने एक देवता जेनस को समर्पित किया और उसके नाम पर महीने का नाम रखा। उनका विश्वास था की इस देवता के दो शीश (सर) थे, इसलिए यह दोनों और (आगे, पीछे) देख सकता था। यह देव आरम्भ देव था जिसको प्रत्येक काम के आरम्भ में मनाया जाता था। चूँकि जनवरी वर्ष का प्रथम मास है इसलिए इसका नाम जेनसदेव के नाम पर रखा गया।

फ़रवरी – प्रायश्चित का महीना।

मार्च – लड़ाई के देवता “मार्स” के नाम पर रखा गया।

अप्रैल – यह महीना जब पृथ्वी से नए नए पत्ते, कलियाँ और फल फूल उत्पन्न होते हैं। यह नाम उस महीने की ऋतु का द्योतक है।

मई – यह महीना प्रारंभिक भाग। भावार्थ यह है की इस मास में ऋतु ऐसी शोभायमान होती है जैसे नवयुवक और नवयुववतिया।

जून – छठा महीना जो आरम्भ में केवल २६ दिन का होता था इसके नाम का शब्दार्थ छोटा महीना है। महाराज जूलियस सीज़र के समय से इस महीने की अवधि ३० दिन की मानने लगे हैं।

जुलाई : जूलियस सीज़र के नाम पर, जो इस महीने मैं पैदा हुआ था यह नाम रखा गया।

अगस्त : महाराज अगस्टस सीज़र के नाम पर यह नाम रखा गया। चूंकि जूलियस सीज़र के नाम पर रखा जाने वाला जुलाई का महीना ३१ दिन का होता था और है, इसलिए अगस्टस सीज़र ने अगस्त का महीना भी उतने ही अर्थात ३१ दिन का रखा। और यह महीना तब से ३१ दिन का चला आता है।

सितम्बर : शब्दार्थ सातवां महीना क्योंकि रोमनिवासी अपना वर्ष मार्च से प्रारम्भ करते थे।

अक्तूबर : शब्दार्थ आठवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार आठवां महीना।

नवम्बर : शब्दार्थ नवां महीना। रोमनिवासीयो के अनुसार नवां महीना।

दिसम्बर : शब्दार्थ दसवां महीना। रोमनिवासियो के अनुसार दसवां महीना।

तो मेरे मित्रो ऊपर दिए शब्दार्थो से आपको विदित होगा की अंग्रेजी महीनो के कुछ के नाम देवताओ के नाम पर, कुछ के ऋतु के अनुसार, कुछ के महाराजाओ के नाम पर और शेष के क्रम के अनुसार नाम रखे गए हैं। यानी कोई वैज्ञानिक आधार इस अंग्रेजी वर्ष और उसके दिए महीनो में नहीं निकलता।

अब हम आपको आर्य महीनो के नाम जो वैदिक पंचाग व्यवस्थानुसार सम्पूर्ण वैज्ञानिक रीति पर आधारित हैं उनसे परिचय करवाते हैं।

इन आर्य महीनो के नामो के शब्दार्थ समझने से पहले हमें कुछ ज्योतिष सिद्धांत समझ लेने चाहिए तभी इन महीनो का वैज्ञानिक आधार और नामो का शब्दार्थ पूर्ण रूप से समझ आएगा। पोस्ट बड़ी न हो इसलिए थोड़ा ही समझाया जा रहा है।

1. आर्य ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में ३६५-२४ दिन में घूमती है। यह अंडाकार मार्ग बारह भागो में विभाजित है और उन १२ भागो के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन हैं। इन १२ भागो नाम भी १२ राशियों के नाम से विख्यात हैं। इसी ज्योतिष गणना को यदि विस्तार से बतलाओ तो लेख बहुत लम्बा हो जाएगा इसके बारे में किसी अन्य पोस्ट पर विस्तार से बताया जाएगा।

जिस प्रकार पृथ्वी सूर्य के चारो और एक अंडाकार वृत्त में घूमती है। इसी प्रकार चन्द्रमा भी पृथ्वी के चारो और एक अंडाकार वृत्त में २७ दिन ८ घंटे में घूम आता है। इसका मार्ग २७ भागो में विभाजित है और प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहते हैं। २७ नक्षत्रो के नाम इस प्रकार हैं :

1. अश्विनी 2. भरणी 3. कृत्तिका 4. रोहिणी 5. मृगशिरा 6. आर्द्रा 7. पुनर्वसु 8. पुष्य ९. अश्लेषा 10. मघा 11. पूर्वाफाल्गुनी 12. उत्तराफाल्गुनी 13. हस्त 14. चित्रा 15. स्वाती 16. विशाखा 17. अनुराधा 18. ज्येष्ठा 19. मुल 20. पुर्वाषाढा 21. उत्तरषाढा 22. श्रवण 23. धनिष्ठा 24. शतभिषा 25. पूर्वभाद्रपद 26. उत्तरभाद्रपद 27. रेवती

आज पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र है इसका अभिप्राय है की आज चन्द्रमा पृथ्वी के चारो और के मार्ग के पूर्वाषाढ़ा नामक भाग में है।

हम पृथ्वी पर रहने वाले हैं पृथ्वी के साथ साथ घुमते हैं। इस कारण हमको पृथ्वी स्थिर प्रतीत होती है और सूर्य तथा चन्द्रमा दोनों घुमते दिखते हैं।

जब सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथ्वी होती है तो चन्द्रमा का वह अर्थ भाग जिस पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है पृथ्वी की और होता है। इसी कारण ऐसी अवस्था में चन्द्रमा सम्पूर्ण प्रकाशवान दीखता है अतः पूर्णमासी को जब चन्द्रमा पूर्ण प्रकाशित होता है, चन्द्रमा और सूर्य पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।

आर्य महीनो के नाम नक्षत्रो के नाम पर रखे गए हैं। पूर्णमासी को जैसा नक्षत्र होता है उस महीने का नाम उसी नक्षत्र पर रखा गया है, क्योंकि पूर्णिमा को सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी के दोनों और उलटी दिशा में होते हैं।*

महीनो के नाम नक्षत्रानुसार इस प्रकार हैं :

1. चैत्र – चित्रा

2. वैशाख – विशाखा

3. ज्येष्ठ – ज्येष्ठा

4. आषाढ़ – पूर्वाषाढ़

5. श्रावण – श्रवण

6. भाद्रपद – पूर्वाभाद्रपद

7. आश्विन – अश्विनी

8. कार्त्तिक – कृत्तिका

9. मार्गशिर – मृगशिरा

१० पौष – पुष्य

11. माघ – मघा

12. फाल्गुन – उत्तरा फाल्गुन

इसी आधार पर हमें अंतरिक्ष में सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि सभी ग्रहो की चाल, और अभी वो किस जगह स्थित हैं ये पूर्ण जानकारी इसी विज्ञानं के आधार पर मिलती जाती है।

सर डब्ल्यू जोंस की यह भी सम्मति है की आर्यो के महीनो के नाम इत्यादि से पूरा पता लगता है की आर्य ज्योतिष अत्यंत पुरानी है। आर्यो में प्राचीन काल में वर्ष पौष मास से आरम्भ होता था जब दिन अत्यंत छोटा और रात अत्यंत बड़ी होती है। इसी कारण मार्गशिर मास का द्वितीय नाम अग्र्ह्न्य था, जिसका अर्थ यह है की वह महीना जो वर्ष आरम्भ होने से पहले हो।

मेरे सभी हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई भाइयो से निवेदन है की वो इस अंग्रेजी महीने जो देवता, महाराज ऋतु इत्यादि के नाम पर रखे गए हैं त्याग देवे और अपने पूर्ण विज्ञानी रीति से जो आर्य महीने हैं उनकी प्रतिष्ठा को जान लेवे।

प्राचीन आर्य पुरुष ज्योतिष में अवश्य विशेष ज्ञान प्राप्त कर चुके थे और उनके ज्ञान के टूटे फूटे चिन्ह ही आज तक आर्य समाज में पाये जाते हैं। क्या अच्छा हो यदि हम प्राचीन आर्य सभ्यता का मान करे और उसके बचे बचाये चिन्हो से नयी नयी खोज कर समाज के सामने रखे जिससे देश व धर्म का कल्याण हो।

ये केवल संक्षेप में बताया गया फिर भी इतनी बड़ी पोस्ट हो गयी, लेकिन इसे नजरअंदाज न करे और वेद धर्म का प्रचार करे ताकि हमारे अन्य हिन्दू भाई ईसाइयो के अन्धविश्वास में न पड़े।

आओ लौटो वेदो की और

नमस्ते।

* इसमें सूर्य सिद्धांत प्रमाण है :

भचक्रं भ्रमणं नित्यं नाक्षत्रं दिनमुच्यते।
नक्षत्र नाम्ना मासास्तु क्षेयाः पर्वान्त योगतः।

अर्थात दैनिक भचक्र का भ्रमण करना ही नाक्षत्रिक दिन है।

पूर्णिमानताधिष्ठित नक्षत्र के नाम से मास का नाम जानना चाहिए।

परोपकारिणी सभा की (गुजरात) वेद प्रचार यात्रा (21-06-2015 से 09-07-2015) – श्री सत्येन्द्र सिंह आर्य

परोपकारिणी सभा के कार्यकारी प्रधान श्री डॉ. धर्मवीर जी एवं मन्त्री श्री ओममुनि जी के नेतृत्व में 30 से अधिक आर्यों का एक दल वेद प्रचारार्थ 21 जून 2015 (रविवार) को अपराह्न में गुजरात के लिए रवाना हुआ। इस कार्यक्रम की पृष्ठभूमि के विषय में कुछ जानकारी देना उचित होगा। परोपकारिणी सभा के सदस्य और आर्यजगत् के प्रतिष्ठित विद्वान्, लेखक, वक्ता और इतिहासज्ञ प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी पिछले तीन चार वर्षों से महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के जीवन चरित पर कार्य कर रहे हैं। दो खण्डों में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का सपूर्ण जीवन चरित्र (मा. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक द्वारा लिखित उर्दु जीवन चरित्र का अनुवाद)जिज्ञासु जी के अथक प्रयास का ही सुफल है। इस जीवन-चरित का आज तक उर्दु से हिन्दी में अनुवाद नहीं हुआ था। इस कार्य को करते हुए ऋषि-जीवन विषयक बहुत से नये तथ्य प्रकाश में आए। ईसवी सन् 1874 के सितबर मास के बाद की अवधि की घटनाओं का अध्ययन करते हुए यह तथ्य सामने आया कि अपना गृह-राज्य गुजरात त्यागने के 28 वर्ष पश्चात् स्वामी दयानन्द जी गुजरात गये थे और गुजरात का यह उनका अन्तिम दौरा था। समाज सुधार और पाखण्ड-खण्डन का कार्य ऋषिवर पूर्ण उत्साह से कर रहे थे। उनके जीवन का यह समय बड़ा घटनापूर्ण था। अप्रैल 1875 में आर्यसमाज की स्थापना भी हो गयी । जिज्ञासु जी ने डॉ. धर्मवीर जी से कहा कि अब से 140 वर्ष पूर्व ऋषि ने आर्य समाज की स्थापना सहित समाज सुधार के जो कार्य किये थे उनकी वर्तमान स्थिति वहाँ जाकर देखनी चाहिए और उन आर्यजनों से मिलना चाहिए जो इस समय ऋषि – मिशन का कार्य कर रहे हैं। वेद प्रचार के कार्य के लिए डॉ. धर्मवीर जी की ओर से हर समय हाँ ही हाँ है। उन्होंने तुरन्त सहमति दे दी। 30-35 लोगों का दल साथ लेकर एक मध्यम साइज की बस सहित चार वाहनों से यह प्रचार यात्रा आरभ हुई। यह कार्य लाखों रूपये के व्यय का था। अन्य राज्यों में बस ले जाने पर तीस हजार से ऊपर की राशि तो टैक्स के ही रूप में देनी पड़ी। चुनौतीपूर्ण कार्य करने में डॉ. धर्मवीर जी सदैव उत्साहित और प्रसन्न रहते हैं। सभा ने यह प्रचार कार्य नासिक से आरभ किया क्योंकि स्वामी दयानन्द 1874 के अक्टूबर मास के उत्तरार्द्ध में नासिक पहुँचे थे और महाराजा होल्कर के सबन्धियों के आवास में ठहरे थे। वहां पर स्वामी जी ने पंचवटी में तथा एक नदी के किनारे पर भी व्यायान दिये और कहा कि यदि रामचन्द्र जी अपनी वनवास की अवधि में पंचवटी में ठहरे थे तो उससे यह स्थान तीर्थ कैसे बन गया। पंचवटी को तीर्थ बताकर जो पण्डा वहाँ पर लोगों को ठगते थे उन्हें स्वामी जी ने शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी। परन्तु कोई पण्डित सामने नहीं आया। तब बबई के ‘‘इन्दुप्रकाश’’ समाचार पत्र ने यह समाचार प्रकाशित किया था-

‘‘हमारे शास्त्री न तो सत्य की खोज करते हैं और न उसे स्वीकार करने के इच्छुक हैं इसलिए इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं कि वे स्वामी जी के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए सामने नहीं आए। उनकी अदूरदर्शिता और मूर्खतापूर्ण चुप्पी से यही स्पष्ट हुआ कि स्वामी दयानन्द के विचार, विश्वास और सुधार की बातें उन्हें अच्छी नहीं लगीं। स्वामीजी की बौद्धिक शक्ति असाधारण है, उनके व्यायान प्रभावशाली होते हैं और उनकी स्मृति विलक्षण है। अपने सुधार कार्य वे पवित्र शास्त्रों (वेद) के आधार पर करते हैं और संस्कृत के अपने गभीर वैदुष्य का स्वामी जी उपयोग करते हैं। जिस विषय पर वे व्यायान करते हैं तो वेद और धर्म शास्त्रों से इतने प्रमाण देते हैं कि उतने अन्य ग्रन्थों में नहीं है। किसी साधारण पुस्तकालय से इस प्रकार के प्रमाण नहीं मिल सकते।’’

(यह समाचार मूल रूप में अंग्रेजी में है)

“Our Sastris are neither seekers of truth nor willing to accept it. It is therefore, not surprising that they avoided a sastrath with Swamiji. Their shortsightedness and contemptible silence only showed that they disliked Swami Dayanand’s beliefs and reformed views. Swamiji’s mental powers are extraordinary and his speeches are very impressive: his memory is unfailing. In his work of reform, he always relies on the sacred books of the Hindus and makes good us of his profound Sanskrit scholarship. He quotes far more Veda Mantras and the various Dharma Sastras in his lectures than one will find in any treatise on the subject. It is not easy to collect them from an average good library.

उस काल में महर्षि की इसी दिग्विजय की स्मृति में सभा ने यह वेद प्रचार यात्रा निकाली।

यात्रा का आरभ ऋषि उद्यान से 21 जून को अपराह्न हुआ। उस समय अच्छी वर्षा हो रही थी। यात्रा-दल ने 21 जून की रात्रि को उदयपुर में विश्राम किया और 22 जून को वहाँ से चलकर 23 जून को प्रातः नासिक पहुँचा। इस कार्यक्रम में समिलित आर्य जनों में सभा के सदस्य प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी, श्री कन्हैयालाल जी (गुडगाँव), गुरुकुल ऋषि उद्यान के 6-7 विद्यार्थियों को साथ लिए हुए आचार्य श्री सोमदेव जी तथा आचार्य कर्मवीर जी, श्री वासुदेव जी आर्य, ब्र. आचार्य नन्दकिशोर जी और प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री भूपेन्द्र सिंह आदि थे। विक्रय हेतु एवं निःशुल्क वितरण हेतु सभा लाखों रुपये का वैदिक साहित्य साथ लेकर गयी थी। विभिन्न स्थानों पर वेद प्रचार के कार्य को मूर्तरूप देने के लिए यज्ञादि कार्यों को कराने में कुशल ब्रह्मचारीगण, आचार्यगण, एवं भजन-प्रवचन के लिए विद्वज्जन साथ में थे। कार्यक्रम का शुाारभ नासिक से हुआ। आगे का पूरा विवरण माननीय जिज्ञासु जी के शब्दों  में अगले अंक में आपको पढ़ने को मिलेगा।

‘मैं और मेरा आचार्य दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

देश व संसार में अनेक मत-मतान्तर हैं फिर हमें उनमें से ही किसी एक मत को चुन कर उसका अनुयायी बन जाना चाहिये था। यह वाक्य कहने व सुनने में तो अच्छा लगता है परन्तु यह एक प्रकार से सार्थक न होकर निरर्थक है। हमें व प्रत्येक मनुष्य को यह ज्ञान मिलना आवश्यक है कि वह कौन है, कहां से आया है, मरने पर कहां जाता है, किन कारणों से उसे अपने माता-पिता से जन्म मिला, किसी धनिक के यहां जन्म क्यों नहीं हुआ, धनिक का निर्धन के यहां क्यों नहीं हुआ, किसने इस संसार को बनाया है और कौन इसका धारण, पोषण व संचालन करता है? संसार को बनाने वाली वह सत्ता कहां है, दिखाई क्यों नहीं देती, उसका नाम क्या है? क्या किसी ने कभी उसको देखा है? हम स्वयं अपनी मर्जी से पैदा नहीं हुए हैं, जिसने हमें उत्पन्न किया है, उसका हमें जन्म देने का उद्देश्य क्या था व है? ऐसे अनेकानेक प्रश्नों के सही समाधानकारण उत्तर जहां से प्राप्त हों जिनसे जीवन का उद्देश्य जानकर उसकी प्राप्ति के सरल समुचित साधनों का ज्ञान मिलता है, मनुष्य को उसी धर्म का धारण पालन करना चाहिये। ऐसा न करके मनुष्य अपने जीवन का सदुपयोग नहीं करता और हो सकता है व होता है, वह सुदीर्घ काल, सैकड़ों, हजारों व लाखों वर्ष तक नाना प्रकार के दुःखों व निम्न से निम्न योनियों में जन्म लेकर दुःखों से आक्रान्त रहे।

हमने अपने मित्रों की प्रेरणा से पौराणिक परिवार में जन्म लेने पर भी आर्यसमाज के सत्संगों में भाग लेना आरम्भ किया और उसके साहित्य मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश, पंच-महायज्ञविधि आदि का अध्ययन किया। वैदिक विद्वानों व सच्चे महात्माओं के प्रवचनों को सुनकर व साहित्य को पढ़कर हमारे उपर्युक्त सभी प्रश्नों वच भ्रमों का समाधान हो गया जो अन्यथा नहीं हो सकता था। अतः हमारा कर्तव्य बनता था कि हमें जो सत्य ज्ञान मिला है, उससे हम अपने मित्रों व अन्यों को भी लाभान्वित करें। अतः इस कर्तव्य भावना से अधिकारी विद्वान न होने पर भी हमने अपना स्वाध्याय जारी रखा और लेखन के द्वारा अनेकानेक विभिन्न विषयों पर, जो जो हमें सत्य प्रतीत हुआ, उसे लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया। आज हम अपने बारे में यह कह सकते हैं कि हम स्वयं से परिचित हैं। मैं कौन हूं, क्या हूं, कहां से आया हूं, कहां-कहां जा सकता हूं, मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है, उसकी प्राप्ति के साधन क्या हैं, यह संसार किससे बना और कौन इसे चला रहा है? ऐसे सभी प्रश्नों का उत्तर मिला जिसका पूर्ण श्रेय मेरे आचार्य महर्षि दयानन्द सरस्वती को है। संक्षेप में हम इन सभी प्रश्नों के उत्तर इस संक्षिप्त लेख में देने का प्रयास करते हैं।

मैं जीवात्मा हूं जो कि एक चेतन तत्व है। चेतन होने के कारण ही मुझे सुख व दुःख की अनुभूति होती है। मैं एकदेशी हूं अर्थात् व्यापक नहीं हूं। शास्त्रों ने जीवात्मा का परिमाण बताया है। यह अत्यन्त सूक्ष्म है। एक शास्त्रकार ने कहा है कि हमारे सिर के बाल का अग्रभाग लें, फिर उसके 100 टूकड़े करें, फिर इन सौ में से एक टुकडें के भी सौ टुकड़े करें, इसका एक टुकड़ा अर्थात् सिर के बाल के अग्रभाग का दस सहस्रवां टुकड़ा जीवात्मा के लगभग बराबर व उससे भी सूक्ष्म होगा। यह बात विचार, चिन्तन व गवेषणा से सत्य सिद्ध होती है। मैं अर्थात् जीवात्मा अनादि, नित्य, अजर, अमर, अविनाशी सत्यासत्य का जानने वाला होता है परन्तु अविद्यादि कुछ दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। ज्ञान कर्म जीवात्मा के दो लक्षण कहे जा सकते हैं। सृष्टिकाल में सभी जीवात्माओं को उनके पूर्व कर्मानुसार जन्म भोग प्राप्त होते हैं। इस जन्म में हमें जो माता-पिता, संबंधीं व अन्य परिस्थितियां, सुख-दुःख आदि मिले हैं वह अधिकांशतः पूर्व जन्मों के कर्मों के फलों जिसे प्रारब्ध कहते हैं व इस जन्म के क्रियमाण कर्मों के कारण प्राप्त हुए  हैं। हमें जन्म, सुख-दुःख रूपी भोगों को देने वाली, वस्तुतः एक सत्ता ईश्वर है। ईश्वर ही सृष्टि को बनाने व धारण-पोषण अर्थात् संचालित करने वाली सत्ता है। ईश्वर परम धार्मिक है। वह सत्य, दया व करूणा से सराबोर है। उसके गुण, कर्म, स्वभाव सर्वदा समान रहते हैं, उनमें विपरीतता कभी नहीं आती। संसार में ईश्वर से इतर अत्यन्त सूक्ष्म मूल प्रकृति है, यह चेतन न होकर जड़ है।  यह प्रकृति ईश्वर व जीव की ही तरह अनादि, नित्य, अविनाशी है तथा अत्यन्त सूक्ष्म, सत्व-रज-तम गुणों वाली है। यइ ईश्वर के अधीन होती है। इसे सृष्टि का उपादान कारण कहते हैं। ईश्वर इस सृष्टि का निमित्त कारण है। इस प्रकृति को ही ईश्वर परिवर्तित कर वर्तमान सृष्टि अर्थात् नाना सूर्य, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, पृथिवी आदि का निर्माण सृष्टि काल के आरम्भ में करता है। इसी प्रकार के निर्माण वह इससे पूर्व के कल्पों में करता रहा है तथा इस कल्प के बाद के कल्पों में भी करेगा। यह सृष्टि 4 अरब 32 करोड़ वर्षों तक इसी प्रकार से विद्यमान रहती है। इस गणना का आरम्भ ईश्वर द्वारा सृष्टि का निर्माण करने के दिन से होता है। इसके बाद पुरानी हो जाने के कारण इसकी प्रलय अवस्था आती है जब यह छिन्न भिन्न होकर अपनी मूल अवस्था, जो सत्व, रज व तम गुणों वाली अत्यन्त सूक्ष्म होती है, में परिवर्तित हो जाती है। यह प्रलयावस्था भी 4 अरब 32 करोड़ वर्षों तक रहती है, जो कि ईश्वर की रात्रि कहलाती है तथा जिसके पूरा होने पर ईश्वर पुनः सृष्टि बनाता है और प्रलय से पूर्व की जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार वा प्रारब्ध के अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के रूप में जन्म देता है।

 

ईश्वर के बारे में यह जानना भी उचित होगा कि ईश्वर सत्य, चित्त व आनन्द स्वरूप है। वह निराकार व सर्वव्यापक है। वह किसी एक स्थान, आसमान, समुद्र आदि में नहीं रहता अपितु सर्वव्यापक है। वह सर्वज्ञ अर्थात् सभी विषयों का पूर्ण ज्ञान रखता है और सर्वशक्तिमान है। वह न्यायकारी व दयालु भी है। वह सनातन, नित्य, अनादि, अनुत्पन्न, अजर, अमर, अभय, नित्य व पवित्र है। वह सर्वव्यापक व अतिसूक्ष्म होने के कारण सब जीवात्माओं के भीतर भी विद्यमान व प्रविष्ट है। अतः जीवात्मा का कर्तव्य है कि वह स्वयं व ईश्वर के सत्य स्वरूप को जाने। यह सत्य स्वरूप हमने सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों से ही जाना है। अन्य सभी ग्रन्थों व मत-मतान्तरों की पुस्तकों को पढ़ने से अनेक सन्देह उत्पन्न होते हैं जिनका वहां निवारण नहीं होता। सत्यार्थ प्रकाश में सभी बातें, मान्यतायें व सिद्धान्त महर्षि दयानन्द जी ने वेदों व वैदिक ग्रन्थों से लेकर मानवमात्र के हित व सुख के लिए सरल आर्यभाषा हिन्दी में वेद प्रमाण, युक्ति व प्रमाणों आदि सहित प्रस्तुत की हैं। यदि वह यह ग्रन्थ संस्कृत में लिखते तो फिर हम संस्कृत जानने के कारण उससे लाभान्वित हो पाते और तब हम अज्ञानी ही रहते और मतमतान्तरों का अपना कारोबार यथापूर्व चलता रहता। हमारा कर्तव्य है कि हम ईश्वर को जानकर उसकी उपासना करें। यद्यपि ईश्वर हमारी आत्मा में व्यापक है, अतः उपासना अर्थात् वह हमारे निकट तो सदा से है परन्तु उपासना में ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना भी सम्मिलित है। यह स्तुति, प्रार्थना व उपासना ईश्वर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन ही है जैसे कि किसी से उपकृत होने पर हम धन्यवाद कहते हैं। उपासना करने से हमारे गुण-कर्म-स्वभाव सुधर कर ईश्वर के गुणों के अनुरूप यथासम्भव हो जाते हैं। ईश्वर ने हमारे लिये यह विशाल संसार बनाया, इसे चला रहा है, इसमें हमारे सुख के लिए नाना प्रकार की भोग सामग्री बनाई है और हमें मानव जन्म व माता-पिता-बन्धु-बान्धव-इष्टमित्र-आचार्य-ऋषि आदि प्रदान किये हैं। अतः कृतज्ञता ज्ञापन करना हमारा कर्तव्य है अन्यथा हम कृतघ्न होंगे। यदि हम किसी की कोई सहायता करते हैं तो हम भी चाहते हैं कि वह हमारे प्रति कृतज्ञता का भाव रखे। इस भावना की अभिव्यक्ति का नाम ही उपासना है जिसमें स्तुति व प्रार्थना भी सम्मिलित है। नियमित यथार्थ विधि से उपासना करने से ही ईश्वर का जीवात्मा में साक्षात्कार भी होता है। यह अतिरिक्त फल उपासना का होता है। ईश्वर साक्षात्कार की अवस्था के बाद जीवन मुक्ति का काल होता है जिसमें मनुष्य उपकार के कार्यों को करता हुआ कर्मों के बन्धन में नहीं फंसता और मृत्यु आने पर जन्म मरण से मुक्त होकर ब्रह्मलोक अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति करके ईश्वर के सान्निध्य से आनन्द का भोग करता है। यही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है जो सच्चे ईश्वर को जानकर उपासना करने से प्राप्त होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ही हमारा जन्म हुआ है। सृष्टि के आरम्भ से सभी ऋषिमुनि विद्वान इस पथ पर चले हैं और हमें भी उनका अनुकरण अनुसरण करना है। इस पथ पर चलने के लिए महर्षि दयानन्द की शिक्षा है कि हमारे सभी कार्य व व्यवहार सत्य पर आधारित होने चाहिये। वह सत्याचार को ही मनुष्यों का यथार्थ व अनिवार्य धर्म बताते हैं। इसके विपरीत असत्य व दुष्टाचार ही अधर्म है।

 

ईश्वर, जीव व प्रकृति विषयक यह समस्त ज्ञान सृष्टि क्रम के अनुकूल व साध्य कोटि का है और वेदों व ऋषि मुनियों के जीवन व उनके सत्य उपदेशों से प्रमाणित है। इसके विपरीत ज्ञान व क्रियायें अज्ञान व मिथ्याचार हैं। यह ज्ञान मुझे मेरे आचार्य महर्षि दयानन्द सरस्वती से प्राप्त हुआ है। महर्षि दयानन्द का जन्म गुजराज के राजकेाट जिले के एक कस्बे टंकारा में पिता श्री कर्षनजी तिवारी के यहां 12 फरवरी, सन् 1825 को हुआ था। 14 वर्ष की आयु में शिवरात्रि के दिन उन्होंने पिता के कहने से कुल परम्परा के अनुसार शिवरात्रि का व्रत किया था। देर रात्रि शिवलिंग पर चूहों को उछलते-कूदते देखकर उन्हें मूर्तिपूजा की असारता व मिथ्या होने का ज्ञान हुआ था। कुछ काल बाद उनकी एक बहिन व चाचा की मृत्यु होने पर उन्हें वैराग्य हो गया था। 21 वर्ष तक उन्होंने माता-पिता के पास रहते हुए संस्कृत, यजुर्वेद व अन्य ग्रन्थों का अध्ययन किया था। 22 वर्ष की अवस्था में वह सच्चे ईश्वर व मुक्ति के उपायों की खोज व उनके पालन के लिये गृहत्याग कर देशभर में विद्वानों, साधु-सन्यासियों, योगियों के सम्पर्क में आये। मथुरा में प्रज्ञाचक्षु गुरू विरजानन्द से उन्होंने आर्ष संस्कृत व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त प़द्धति से अध्ययन कर सन् 1863 में गुरू की आज्ञा से संसार से धार्मिक व सामाजिक क्रान्ति सहित समग्र अज्ञान व अन्धकार दूर करने के लिये कार्य क्षेत्र में प्रविष्ट हुए। उन्होंने मौखिक प्रवचन, उपदेश, व्याख्यान, शास्त्रार्थ, शंका समाधान, ग्रन्था लेखन द्वारा देश भर में घूम घूम कर प्रचार किया। प्रचार के निमित्त ही उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य संस्कृत व हिन्दी में, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु, गोकरूणानिधि आदि अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन किया। नवम्बर, 1869 में उन्होंने काशी के 30 से अधिक शीर्षस्थ सनातनी विद्वानों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया था। मूर्तिपूजा वेद सम्मत सिद्ध नहीं हो सकी थी न ही आज तक हो पायी है। उनके अनेक विरोधियों ने उन्हें जीवन में अनेक बार विष दिया। ऐसी ही विष देने की एक घटना जोधपुर में घटी। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती के अनुसार इस षडयन्त्र में अंग्रेज सरकार भी सम्मिलित रही हो सकती है। इसके परिणाम स्वरूप 30 अक्तूबर, 1883 को दीपावली के दिन अजमेर में उनका देहावसान हो गया। उन्होंने जिस प्रकार से अपने प्राण त्यागे उससे लगता है कि यह कार्य उन्होंने शरीर के जीर्ण होने पर ईश्वर की प्रेरणा से स्वतः किया। स्वामी जी ने अज्ञान, अंधविश्वासों का खण्डन किया, सामाजिक विषमता को दूर किया, स्त्री व शूत्रों को वेदाध्ययन का अधिकार दिया, विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार तथा समाज से सामाजिक विषमता और अस्पर्शयता को समाप्त किया। लोगों को ईश्वर व जीवात्मा का ज्ञान कराकर सच्ची ईश्वर भक्ति सिखाई और जीवन मुक्ति के लिए मृत्यु व मोक्ष के सत्य स्वरूप का प्रचार किया। देश की आजादी भी उनके प्रेरणाप्रद विचारों व आर्यसमाज के सदस्यों वा अनुयायियों के पुरूषार्थ की देन है।

 

 मेरे आचार्य दयानन्द मेरे ही नहीं अपितु सम्पूर्ण संसार के आचार्य हैं। उन्होंने अज्ञानान्धकार में डूबे विश्व को सत्य ज्ञान रूपी अमृत ओषधि का पान कराया और उसे मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा की। मैं अपने आचार्य का कोटि कोटि ऋणी हूं। संसार के सभी लोग भी उनके ऋणी हैं परन्तु अपनी अविद्या, अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ दुराग्रह आदि कारणों से उससे लाभ नहीं ले पा रहे हैं। संसार के प्रत्येक मनुष्य को महर्षि दयानन्द रचित साहित्य का अध्ययन कर, मतमतान्तरों अज्ञानी धर्मगुरूओं के चक्र में फंस कर, अपने जीवन को सफल करना चाहिये। ईश्वर सबको सदबुद्धि प्रदान करें। महर्षि दयानन्द को कोटिशः नमन।

मनमोहन कुमार आर्य

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