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परोपकारिणी सभा द्वारा किये जा रहे अनुसन्धान कार्य में एक और कीर्तिमान

परोपकारिणी सभा द्वारा किये जा रहे अनुसन्धान कार्य में एक और कीर्तिमान

-सत्येन्द्र सिंह आर्य

परोपकारी पाक्षिक के वर्ष 2015 के जून द्वितीय अंक में मैंने एक लेख में परोकारिणी सभा द्वारा किये जा रहे अनुसन्धान विषयक कार्य की चर्चा की थी। अनुसन्धान का कार्य सभा द्वारा निरन्तर किया जा रहा है, उसमें समय लगता है, परन्तु देर-सबेर सफलताएँ मिलती रहती हैं।

सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी जी ने ईसाई मत की भी समीक्षा तेरहवें समुल्लास में की है। इस्लाम मतावलमबियों की भाँति ईसाई विद्वान् भी कभी-कभी कहते रहते हैं कि स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश में बाइबिल के जिन-जिन स्थलों की समीक्षा की है, वह बातें बाइबिल में ज्यों की त्यों नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश के प्रभाव से बाइबिल में भी धीरे-धीरे विभिन्न संस्करणों में बहुत परिवर्तन हुए हैं और वर्तमान संस्करणों में शबद वैसे नहीं हैं, जैसे स्वामी जी ने आयत, पर्व और क्रमांक लिखकर पता दर्शाते हुए लिखे हैं। मेरे मित्र प्रा. कुशलदेव जी बाईबिल के उस पुराने संस्करण की खोज में जीवन भर लगे रहे, परन्तु 19 वीं शताबदी का संस्करण उन्हें नहीं मिल सका। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने कुरान का पुराना भाष्य खोज कर परोपकारिणी सभा को सौंपकर आर्य जगत् को निश्चिन्त कर दिया, परन्तु बाइबिल का पुराना संस्करण उन्हें भी नहीं मिला। उस पुराने संस्करण की एक प्रति पूज्य श्री अमरस्वामी जी (पूर्व नाम ठा. अमर सिंह आर्य पथिक) के पास थी। उनके निधन के पश्चात् प्रो. रतन सिंह जी ने जिज्ञासु जी को अपने यहाँ बुलाया था और बाइबिल की वह प्रति वे जिज्ञासु जी को सौंपना चाहते थे, परन्तु जब जिज्ञासु जी उन्हें मिलने गए तो जिस व्यक्ति के पास उस पुस्तकालय की चाबी थी, वह उस दिन वहाँ नहीं था। जिज्ञासु जी अबोहर वापस आ गए। बात आई-गई हो गयी। प्रो. रतन सिंह जी दिवंगत हो गए। वह कार्य अपूर्ण ही रहा।

बाईबिल की उस पुराने संस्करण की प्रति प्राप्त करने का प्रयत्न मैंने भी किया, परन्तु मुझे भी बाईबिल का लन्दन से वर्ष 1948 में Bible Society of Great Britain द्वारा प्रकाशित संस्करण मिल सका था। वर्तमान समय में वह प्रति प्रियवर श्री राजवीर आर्य जी के पुस्तकालय में है।

पुराने प्रामाणिक ग्रन्थों के महत्त्व को जो लोग समझते हैं, प्रिय राजवीर जी उन्हीं ऋषि भक्तों में से एक हैं। बाइबिल के पुराने संस्करण की वे भी खोज में थे और निरन्तर प्रयासरत रहे। आर्य जगत के लिए यह प्रसन्नता की बात है कि 19 वीं शताबदी के अन्तिम चतुर्थांश (क्वार्टर) में इलाहाबाद से मुद्रित बाइबिल के उस संस्करण की प्रति श्रीराजवीर जी को प्राप्त हो गयी है, जिसकी भाषा शबदशः उन सन्दर्भों से पूर्णतः मिलती है, जो महर्षि जी ने सत्यार्थ प्रकाश में उद्धृत किए हैं। यह अमूल्य प्रति भी अब परोपकारिणी सभा की समपत्ति होगी। विरोधियों द्वारा किये जा रहे वार-प्रहार का उत्तर देने के लिए ऐसे ग्रन्थों की आवश्यकता पड़ती है। इस दृष्टि से यह एक कीर्तिमान है।

कुछ वर्षों पूर्व आर्य समाज की शिरोमणि सभा के एक स्वयंभू प्रधान सिख नेताओं की सभा में जाकर यह आश्वासन दे आये थे कि सत्यार्थ प्रकाश में उस स्थल पर भाषा में परिवर्तन कर दिया जाएगा, जिस पर उनका कहना है कि गुरु ग्रन्थ साहब में वैसा नहीं लिखा है- यथा- ‘‘वेद पढ़े ब्रह्मा मुए सारे वेद कहानी’’, परन्तु वास्तव में इस प्रकार का भाव वहाँ है। इस प्रकरण का उत्तर पूज्य स्वामी स्वतंत्रानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थ वैदिक धर्म और सिख गुरु में पहले ही दिया हुआ है। गुरु ग्रन्थ साहब में ऐसे कई प्रकरण हिन्दू धर्म के समबन्ध में हैं, जो हिन्दुओं के ग्रन्थों में है ही नहीं, परन्तु सिख नेता और विद्वान् उन स्थानों पर गुरु ग्रन्थ साहब में भाषा-परिवर्तन के लिए सहमत नहीं होंगे। अनुसन्धान का यह कार्य उस समय परोपकारिणी सभा ने ही किया था। वेद, आर्य समाज एवं ऋषि दयानन्द पर वार-प्रहार का उत्तर देने में परोपकारिणी सभा सदैव अग्रणी रही है।

प्रियवर राहुल जी जो पुरानी सामग्री महर्षि के समबन्ध में खोज-खोज कर सभा को दे रहे हैं, उस पर प्रा. जिज्ञासु जी कार्य कर रहे हैं। उस शोध-कार्य का सुफल भी आर्य जनों को देखने को मिलेगा।   – जागृति विहार, मेरठ

परोपकारिणी सभा का शोध कार्यःराजेन्द्र जिज्ञासु

– डॉ. वेदपाल जी सरीखे वेदज्ञ तथा कई अन्य विद्वान् हाथ पर हाथ धरे तो बैठे नहीं रहते। पूरा वर्ष शोध व धर्म प्रचार करते रहते हैं। सभा के इस सेवक की दिनचर्या ढाई तीन बजे प्रातः आरभ हो जाती है। शोध व लेखन कार्य छह और सात बजे के बीच आरा हो जाता है। सागर पार के देशों से महर्षि के जीवन सबन्धी पर्याप्त नई सामग्री पर परोपकारिणी सभा के लिए अपना नयी अनूठी परियोजना से कुछ लिखने की तैयारी करके बैठा ही था कि परमात्मा की कृपा वृष्टि से और नये-नये दस्तावेज पहुँच गये हैं। आर्य जगत् को क्या-क्या बातऊँ? क्या-क्या मिला है? यह तो आर्य जन नये ग्रन्थ में ही पढ़ेंगे।

अभी तो इतना ही बता सकता हूँ कि विदेशियों व विधर्मियों द्वारा महर्षि के व्यक्तित्व व उपलधियों पर प्राण वीर पं. लेाराम के पश्चात् प्रचुर सामग्री फिर हमारे हाथ ही लगी है। आर्य समाज की स्थापना सेाी पूर्व सन् 1870 में इंगलैण्ड के एक पत्र में यह छपा मिला है कि यह वेदज्ञ काशी में डंका बजा रहा है। इसका सामना करने का किसी को साहस नहीं है। इसका सामना करने का किसी को साहस नहीं है। भारत में एक विदेशी बिशप के पत्र से पता चलता है कि स्वामी दयानन्द के प्रादुर्भाव से उसकी सभाओं में भीड़ घट गई है। स्वामी दयानन्द सबके  लिए आकर्षण का केन्द्र है।

जब सक्रिय समाजों की संख्या  मात्र 22-24 थी तब महर्षि रेवाड़ी पधारे। न जाने रेवाड़ी क्षेत्र यादवों में क्या चेतना का संचार हुआ कि सागर पार के देशों में ऋषि के मिशन व वैचारिक क्रान्ति पर लबे-लबे लेख छपने लगे। अदूरदर्शी हिन्दू समाज तो ऋषि मूल्याकंन न कर पाया। गोरी जातियों ने ताड़ लिया कि पाषाण पूजा के इस सबसे बड़े शत्रु, एकेश्वरवाद के महान् सन्देशवाहक स्वामी दयानन्द का यह मिशन सरकार के संरक्षण व सहयोग के बिना ही फूलेगा फलेगा। बंगाल, मद्रास के पश्चात् चर्च की, साम्राज्यवािदयों की गिद्ध की दृष्टि छत्रपति शिवाजी के प्रदेश पर के न्द्रित थी। दस्तावेज जो अभी-अभी हाथ लगे हैं, उनसे पता चलता है कि श्री महाराज के मुबई पहुँचते ही गोरों को प्रार्थना समाज व ब्राह्य समाज की चिन्ता सताने लगी। कारण? वे खुलकर यह स्वीकर करते थे कि ऋषि से पहले की ये संस्थायें व संगठन ईसाइयत की और पश्चिम की पैदावार (देन) हैं परन्तु, स्वामी दयानन्द न तो अंग्रेजी जाने और न कभी अमरीका और लंदन की यात्रा की। कोई विदेशी भाषा वह न जाने।

यह सुधारक विचारक तो वेदज्ञ है। वेद को ही स्वतः प्रमाण मानता है। यह विशुद्ध भारतीय हिन्दू आन्दोलन है। यह सार्वभौमिक धर्म को मानने वाला प्रखर राष्ट्रवादी निर्भीक, निर्भीड़ सत्यवक्ता है। अमरीका के ………….में सन् 1868 में मेरे ऋषि का भव्य फोटो छपा। यह आर्य समाज का शैशव काल था। तब तक किसी भारतीय सुधारक, विचारक का अमरीका में फोटो नहीं छपा था। ऋषि न तो शिकागो गया और न न्यूयार्क ही गया। अंगेजी वह जानता नहीं था।

जिस सामग्री (मत पंथों के बारे) में अस्सी वर्ष से हमारे पूर्वज खोज कर रहे थे, वह भी मेरे पास पहुँच गई है। इसमें हमारी क्या बड़ाई है यह तो पं. लेखराम, पं. गणपति शर्मा, स्वामी दर्शनानन्द, पं. रामचन्द्र देहलवी से लेकर पं. शान्तिप्रकाश तक की सतत साधना का प्रसाद है जो परोपकारिणी सभा आर्य जाति को परोसने वाली है।

गुजरात यात्रा में कई एक ने बड़ी श्रद्धा से मुझ पर दबाव बनाया कि ऋषि मेला तक इस ग्रन्थ का विमोचन हो जाना चाहिये। मैंने उत्तर में कहा कि मैं श्रद्धा से भरपूर हृदय से सोच विचार कर इस ग्रन्थ का सृजन करुँगा। दिन रात मेरे मस्तिष्क में यही ग्रन्थ अब घूमता है। हडबड़ी में, शीघ्रता से कुछ नहीं करुँगा। परोपकारिणी सभा इसके महत्त्व को समझती है। यदि ऋषि मेला तक इसका विमोचन न हो सका तो एक विशेष महोत्सव करके पं. लेखराम जी के 119 वें बलिदान पर्व पर इसका विमोचन करवाने की मैं आर्य जगत् से भिक्षा मागूँगा । लौकैषणा और वित्तैषणा से बहुत ऊपर उठकर जिस आर्यवीर ने अपने साथियों से मिलकेर इस सामग्री की खोज का ऐतिहासिक कार्य किया है उसका परिचय किसी अगले अंक में दिया जायेगा।