पं० लेखराम की विजय: स्वामी श्रद्धानन्द जी

श्री मिर्जा गुलाम अहमद कादयानी ने अप्रेल १८८५ ईस्वी में एक विज्ञापन के द्वारा भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के विशिष्ट व्यक्तियों को सूचित किया कि दीने इसलाम की सच्चाई परखने के लिए यदि कोई प्रतिष्ठत व्यक्ति एक वर्ष के काल तक मेरे पास क़ादयान में आ कर निवास करे तो मैं उसे आसमानी चमत्कारों का उसकी आँखों से साक्षात् करा सकता हूं । अन्यथा दो सौ रुपए मासिक को गणना से हरजाना या जुर्माना दूँगा ।

इस पर पं० लेखराम जी ने चौबीस सौ रुपए सरकार में जमा करा देने की शर्त के साथ स्वीकृति दी । उस समय वह आर्यसमाज पेशावर के प्रधान थे ।

मिर्ज़ा जी ने इस पर टालमटोल से कार्य करते हुए क़ादयान, लाहौर, लुध्याना, अमृतसर और पेशावर के समस्त आर्य सदस्यों की अनुमति की शर्त लगा दी कि वह पं० लेखराम जी को अपना नेता मानकर उनके आसमानी चमत्कार देख लेने के साथ ही उनके सहित ननुनच के बिना दीनें इसलाम को स्वीकार करने की घोषणा करें । जब कि स्वयं मिर्ज़ा जी ने स्वीकार किया है कि “वह आर्यों का एक बड़ा एडवोकेट और व्याख्यान दाता था ।”

“वह अपने को आर्य जाति का सितारा समझता था और आर्य जाति भी उसको सितारा बताती थी ।”

अन्ततः मिर्ज़ा जी ने चौबीस सो रूपये सरकार में सुरक्षित न करा कर केवल पं० जी को दो तीन दिन के लिए कादयान आने का निमन्त्रण दिया और साथ ही चौबीस सौ रूपये सरकार में सुरक्षित कराने की शर्त पं० जी के लिए बढ़ा दी जिससे चमत्कार स्वीकृति से इन्कार की अवस्था में वह रूपए मिर्ज़ा जी प्राप्त कर सकें । पं० जी ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया और लिखा कि जो आसमानी चमत्कार आप दिखायेंगे, वह कैसा होगा ? उसका निश्चय पूर्व हो जाए । क्या कोई दूसरा सूर्य दिखाओगे कि जिस का उदय पश्चिम और अस्त पूर्व में होगा ? अथवा चांद के दो टुकड़े करने के चमत्कार को दोहराएंगे ? अर्थात् पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा के दो खण्ड हो जावें और अमावस्या की रात्रि को पूर्णिमा की भान्ति पूर्ण चन्द्र का उदय हो जावे । इसमें जो चमत्कार दिखाना सम्भव हो, इसकी तिथि और चमत्कार दिखाने का समय निश्चित किया जाए जिसे जनता में प्रसिद्ध कर दिया जाए ।

किन्तु मिर्ज़ा जी इस स्पष्ट और भ्रमरहित नियम को स्वीकार न कर सके । इसका उत्तर देना और स्वीकार करना इनके लिए असम्भव हो गया । स्वीकार किया कि हम यह शर्त पूरी नहीं कर सकते और न ऊपर लिखे चमत्कार दिखा सकते हैं । किन्तु हमें ज्ञात नहीं कि क्या कुछ प्रगट होगा या न होगा ? और इस आकस्मिक आपत्ति से पीछा छुड़ाना चाहा ।”

अन्ततः पं० जी ने मिर्ज़ा जी को लिखा किः—

“बस शुभ प्रेरणा के विचार से निमन्त्रण दिया जाता है …. वेद मुकद्दस पर ईमान लाईये । आप को भी यदि दृढ़ सत्यमार्ग पर चलने की सदिच्छा है तो सच्चे हृदय से आर्य धर्म को स्वीकार करो । मनरूपो दर्पण को स्वार्थमय पक्षपात से पवित्र करो । यदि शुभ सन्देश के पहुंचने पर भी सत्य की ओर (ञ) ध्यान न दोगे तो ईश्वर का नियम आपको क्षमा न करेगा …. और जिस प्रकार का आत्मिक, धार्मिक अथवा सांसारिक सन्तोष आप करना चाहें—सेवक उपस्थित और समुद्यत है ।

पत्र प्रेषकः—

लेखराम अमृतसर ५ अगस्त १८८५ ईस्वी

इस अन्तिम पत्र का उत्तर मिर्ज़ा जी की ओर से तीन मास तक न आया । तब पं० जी ने एक पोस्ट कार्ड स्मरणार्थ प्रेषित किया । उसके उत्तर में मिर्ज़ा जी का कार्ड आया कि क़ादयान कोई दूर तो नही है । आकर मिल जाएं । आशा है कि यहां पर परस्पर मिलने से शर्ते निश्चित हो जाएंगी ।

इस प्रकार से पं० जी की विजय स्पष्ट है जिसे कोई भी नहीं छिपा सकता । मिर्ज़ा जी के पत्रानुसार अन्ततः पं० जी क़ादयान पहुंचे । वहां दो मास तक रहने पर भी मिर्जा जी किसी एक बात पर न टिक सके । क़ादयान में दो मास ठहर कर वहां आर्यसमाज स्थापित करके चले आए । आर्य-समाज कादयान की स्थापना हुई तो मिर्ज़ा जी के चचेरे भाई मिर्ज़ा इमाम दीन और मुल्लां हुसैना भी आर्यसमाज के नियम पूर्वक सदस्य बने । मिर्ज़ा जी ने भी पं० जी को दो मास तक कादयान निवास को स्वीकार किया है ।

पं० जी ने कादयान में रह कर मिर्जा जी को उनके वचनानुसार आसमानी चमत्कार दिखाने के लिए ललकारा और लिखा कि आप अच्छी प्रकार स्मरण रखें कि अब मेरी ओर से शर्त पूरी हो गी । सत्य की ओर से मुख फेर लेना बुद्धिमानों से दूर है । ५ दिसम्बर १८८५ ईस्वी

मिर्ज़ा जी ने आसमानी चमत्कार दिखाने के स्थान पर आर्य धर्म और इसलाम के दो तीन सिद्धान्तों पर शास्त्रार्थ करने का बहाना किया । अन्य शर्ते निश्चित करने का भी लिखा । जिस पर पं० ने लिखा कि मेरा पेशावर से चलकर कादयान आने का प्रयोजन केवल यही था और अब तक भी इस आशा पर यहां रह रहा हूं कि आपके चमत्कार = प्राकृतिक नियमों के विरुद्ध कार्य, करामात व इलहामात और आसमानी चिह्नों का विवेचन करके साक्षात करूं । और इससे पूर्व कि किसी अन्य सिद्धान्त पर शास्त्रार्थ किया जाए यह चमत्कार दर्शन की बात एक प्रतिष्ठित लोगों की सभा में अच्छी प्रकार निर्णीत हो जानी चाहिए । और इसके सिद्ध कर सकने में यदि आप अपनी असमर्थता बतावें तो शास्त्रार्थ करने से भी मुझे किसी प्रकार का इन्कार नहीं ।

तीसरा और चौथा पत्र

पुनः पं० जी ने तीसरे पत्र में लिखा कि ….. मुझे आज यहां पच्चीस दिन आए हुए हो गए है । मैं कल परसों तक जाने वाला हूं । यदि शास्त्रार्थ करना है तो भी, यदि चमत्कार दिखाने के सम्बन्ध में नियम निश्चित करने है तो भी शीघ्रता कीजिए । अन्यथा पश्चात मित्रों में फर्रे मारने का कुछ लाभ न  होगा । किन्तु बहुत ही अच्छा होगा कि आज ही स्कूल के मैदान में पधारें । शैतान, सिफारिश, चांद के टुकड़े होने के चमत्कार का प्रमाण दें । निर्णायक भी नियत कर लीजिए । मेरी ओर से मिर्ज़ा इमामदीन जी (मिर्जा जी के चचेरे भाई) निर्णायक समझें । यदि इस पर भी आपको सन्तोष नहीं है तो ईश्वर के लिए चमत्कारों के भ्रमजाल से हट जाइए । १३ दिसम्बर १८८५ ईस्वी

पं० जी ने चतुर्थ पत्र में मिर्ज़ा जी को पूर्ण बल के साथ ललकारा और लिखा कि ….. आप सर्वथा स्पष्ट बहाना, टालमटोल और कुतर्क कर रहे है । मिर्ज़ा साहब ! शोक ! ! महाशोक ! ! ! आप को निर्णय स्वीकार नही है । किसी ने सत्य कहा है किः-

 

(ट)

उजुरे नामआकूल साबितमेकुनद तक़स़ीर रा ।

बुद्धिशून्य टालमटोल तो जुर्म को ही सिद्ध करता है ।

इसके अतिरिक्त आप द्वितीय मसीह होने का दावा करते हैं । इस अपने दावा को सिद्ध कर दिखाइए । (लेखराम कादयान ९ बजे दिन के)

अन्ततोगत्वा मिर्ज़ा जी ने समयाभाव और फारिग न होने का बहाना किया । जिससे पं० जी को दो मास कादयान रहकर लौट आना पड़ा ।

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि मिर्ज़ा  जी ने पं० लेखराम जी की भावना शुद्ध न होने का भी बहाना किया है । यह दोषारोपण हक़ीकतुल्वही पृष्ठ २८८ से खंडित हो जाता है । क्योंकि वहां उनके स्वभाव में सरलता का स्वीकरण स्पष्ट विद्यमान है । इस पर भी अहमदी मित्र यदि पं० लेखराम जी की पराजय और श्री मिर्ज़ा जी की विजय का प्रचार करते और ढ़ोल बजाकर अपने उत्सवों में घोषणा करते है तो यह उनका साहस उनकी अपनी पुस्तकों और मिर्जा जी के लेखों के ही विरुद्ध है । यदि पं० का वध किया जाना आसमानी चमत्कार समझा जाए तो भी ठीक नहीं । क्योंकि आसमानी चमत्कार दिखाने का समय एक वर्ष के अन्दर सीमित था । और इसके साथ पं० लेखराम जी के इसलाम को स्वीकार करने की शर्त बन्धी हुई थी जैसा कि मिर्ज़ा जी के विज्ञापन में लिखा गया था । इन दोनों बातों के पूरना न होने के कारण पं० जी की विजय सूर्य प्रकाशवत् प्रगट है क्योंकि मिर्ज़ा जी ने स्वयं लिखा है किः—

“यह प्रस्ताव न अपने सोच विचार का परिणाम है किन्तु हज़रत मौला करीम (दयालु भगवान्) की ओर से उसकी आज्ञा से है । ………इस भावना से आप आवेंगे तो अवश्य इन्शाअल्लाह (यदि भगवान चाहे) आसमानी चमत्कार का साक्षात् करेंगे । इसी विषय का ईश्वर की ओर से वचन हो चुका है जिसके विरुद्ध भाव की सम्भावना कदापि नहीं ।” तब्लीगे रसालत जिल्द १ पृ० ११-१२

शर्त निश्चित न हो सकने के कारण पं० जो को कादयान से वापिस लौटना पड़ा । इसका प्रमाण पं० जी और मिर्जा जी की पुस्तकों से प्रगट है ।

पं० जी ने लिखा ही तो है किः—

” ……… अन्ततोगत्वा मिर्ज़ा साहब ने एक वर्ष रहने की शर्त को भी धनाभाव के कारण बहाना साजी, क्रोध और छल कपट से टाल दिया । बाधित होकर मैं दो मास कादयान रहकर और वहां आर्य-समाज स्थापित करके चला आया ।”

इशतहार सदाकत अनवार में श्री मिर्ज़ा जी ने पं० लेखराम जी के कादयान में आकर दो मास ठहरने और शर्तें निश्चित न हो सकने का उल्लेख किया है । अतः अहमदी मित्रों को ननुनच के बिना स्वीकार कर लेने में संकोच न करना चाहिए कि आगे के घटना चक्र में हत्या का विषय चमत्कार का परिणाम नहीं किन्तु इस पराजय का परिणाम ही है जिसे भविष्यवाणी का नाम दे दिया गया है । किन्तु सत्य तो अन्ततोगत्वा सत्य ही है कि श्री मिर्ज़ा साहब सुनतानुल्क़लम (मिर्जा जी का इलहाम सुनतानुल्क़लम का है । अतः वह अपने को क़लम का बादशाह मानते थे) की लेखनी से सत्य का प्रकाश हुए बिना न रह सका । और पं० लेखराम जी के वध को केवल हत्या नहीं प्रत्युत बलिदान अर्थात् शहीद मान लिया । देखिये स्पष्ट लिखा है किः—

 

(ठ)

“सो आसमानों और जमीन के मालिक ने चाहा कि लेखराम सत्य के प्रकाश के लिए शहीद हुए हैं । शहीद शब्द अरबी भाषा का है । अतः मिर्ज़ा जी ने इसका पर्यायवाची शब्द बलिदान रखा है । वेद में अंग-२ कटा कर धर्म प्रचार की सच्चाई प्रमाण देने वाले मनुष्य को अमर पदवी की प्राप्ति होती है । इसकी मुक्ति में कोई सन्देह नहीं रहता । क़ुरान शरीफ़ में भी शहीदों, सत्य पर मिटने वालों को जीवित कहा है । जिनके लिए न कोई भय और न कोई शोक है । खुदा के समीप इनका पद उच्च से उच्च है ।

पं० लेखराम की शहादत पर संसार ने साक्षी दी कि उनका धर्म सत्य और वह सत्य के प्रचारक थे । स्वयं श्री मिर्ज़ा जी ने पं० जी के बलिदान से पूर्व वेदों को नास्तिक मत का प्रतिपादक घोषित किया था ।

नास्तिक मत के वेद हैं हामी ।

बस यही मुद्आ (प्रयोजन) है वेदों का ।।

किन्तु पं० लेखराम आर्य पथिक के महा बलिदान के पश्चात् स्पष्ट रूप से घोषणा की जब कि मिर्ज़ा जी के दिवंगत होने में चार दिन शेष थे । अतः यह उनका अन्तिम लेख और अहमदी मित्रों के लिए यह उनकी अन्तिम वसीयत है कि वह भी श्री मिर्ज़ा की भान्ति पं० जी को सच्चा शहीद और वेद मुगद्दस को पूर्ण ईश्वरीय ज्ञान स्वीकार करें ।

मिर्ज़ा जी ने अपनी अन्तिम पुस्तक में घोषणा की है— यह पूज्य पं० जी की ईश्वर से सच्चे मन से की गई प्रार्थना का परिणाम है जो इस प्रकार है किः—

………..हे परमेश्वर ! हम दोनों में सच्चा निर्णय कर और जो तेरा सत्य धर्म है उसको न तलवार से किन्तु प्यार से तर्क संगत प्रकाश से जारी कर और विधर्मी के मन को अपने सत्य ज्ञान से प्रकाशित कर जिस से अविद्या, पक्षपात, अत्याचार और अन्याय का नाश हो । क्योंकि झूठा सच्चे की भान्ति तेरे सम्मुख प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता ।” नुसखा (निदान) १८८८ ईस्वी

मिर्जाजी की प्रार्थना असफल

पं० जी की प्रार्थना से पूर्व मिर्ज़ा जी ने भी अपने विचार तथा मन्तव्य़ के अनुसार ईश्वर से प्रार्थना की थी । जो निम्न प्रकार हैः—

“……. ऐ मेरे जब्वारो कहार खुदा ! यदि मेरा विरोधी पं० लेखराम कुरआन को तेरा कलाम (वाणी) नहीं मानता । यदि वह असत्य पर है तो उसे एक वर्ष के अन्दर अजाब (दुःख) की मृत्यु दे ।”             सुरमा सन् १८८६ ईस्वी

मिर्ज़ा जी ने १८८६ ईस्वी में पं० जी के विरुद्ध ईश्वर से उन के लिये दुःखपूर्ण मौत मारने की प्रार्थना की । किन्तु यह प्रार्थना वर्ष भर बीत जाने पर भी स्वीकार नहीं हुई । अतः मिर्ज़ा जी के प्रार्थना के शब्दों में कुरान शरीफ़ ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध न हो सका । किन्तु पं० लेखराम जी ने मिर्जा जी की प्रार्थना का एक वर्ष बीत जाने पर और उस प्रार्थना के विफल सिद्ध होने पर १८८८ ईस्वी में अपनी आर्यों की गौरव पूर्ण प्रार्थना परमात्मा के समक्ष सच्चे एकाग्र मन से लिखी । जिस में एक वर्ष की अवधि की शर्त नही थी । जीवन भर में किसी समय भी इस प्रार्थना की आपूर्ति सम्भव थी जो परमात्मा की कृपा से पूर्ण सफल हुई । अतः वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने तथा पं० जी के सत्य सिद्ध होनेमें कोई सन्देह न रहा ।

इसलमा की परिभाषा में इसी का नाम “मुकाबला” है । जो दो भिन्न विचारवान् व्यक्ति भीड़ के सम्मुख शपथ पूर्वक परमात्मा से प्रार्थना करते हैं । मिर्ज़ा जी ने अन्तिम निर्णय के लिए मुकाबला की प्रस्तावना रखी थी और उस की विस्त़ृत प्रार्थना लिख कर छाप दी थी । चाहे नियम पूर्वक मुकाबला नहीं हुआ । किन्तु उस की रसम पूरी मान ली जाए । तो मिर्ज़ा जी की पराजय और आर्य गौरव पं० जी की विजय स्पष्ट सिद्ध है ।

पं० जी की प्रार्थना यह है कि “विधर्मी (मिर्ज़ा जी) के मन में सत्य ज्ञान का प्रकाश कर ।”

परमात्मा ने इसे स्वीकार किया और मिर्ज़ा जी धीरे-२ वैदिक धर्म के सिद्धान्तों के निकट आते चले गये । प्रथम मिर्ज़ा जी ने जीव तथा प्रकृति को नित्य स्वीकार किया । पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर ईमान लाए । स्वर्ग, नरक के इसलामिक सिद्धांत को परिवर्तित किया । जिहाद की समाप्ति की घोषणा की । अन्त में अपनी मृत्यु से चार दिन पूर्व ” पैगामे सुलह” (शान्ति का सन्देश) नामी पुस्तक लिखी जिस में अपने वैदिक धर्मी होने की घोषणा इन शब्दों में कीः—

(१) “हम अहमदी सिलसिला के लोग सदैव वेद को सत्य मानेंगे । वेद और उस के ऋषियों की प्रतिष्ठा करेंगे तथा उन का नाम मान से लेंगे ।”

(२) “इस आधार पर हम वेद की ईश्वर की ओर से मानते है और उस के ऋषियों को महान् और पवित्र समझते है ।

(३) ” तो भी ईश्वर की आज्ञानुसार हमारा दृढ़ विश्वास है कि वेद मनुष्य की रचना नहीं है । मानव रचना में यह शक्ति नहीं होती कि कोटि मनुष्यों को अपनी ओर खेंच ले और पुनः नित्य का क्रम स्थिर कर दे ।”

(४) “हम इन कठिनाईयों के रहते भी ईश्वर के भय से वेद को ईश्वरीय वाणी जानते हैं और जो कुछ उस की शिक्षा में भूलें हैं वह वेद के भाष्यकारों की भूले समझते हैं ।”

इस से  सिद्ध हुआ कि वेद की कोई भूल नहीं । वेद के वाम मार्गी भाष्यकारों की भूल है ।

(५) मैं वेद को इस बात से रहित समझता हूं कि उस ने कभी अपने किसी पृष्ठ पर ऐसी सिक्षा प्रकाशित की हो जो न केवल बुद्धिविरुद्ध और शून्य हो किन्तु ईश्वर की पवित्र सत्ता पर कंजूसी और पक्षपात का दोष लगाती हो ।”

अतः वेद का ज्ञान ही तर्क की कसौटी पर उत्तीर्ण है और बुद्धि विरुद्ध नहीं तथा ईश्वर की दया से पूर्ण है क्योकि ईश्वर में कंजूसी नहीं । आरम्भ सृष्टि में आया है कि जिस से सब के कल्याण के लिए हो और किसी के साथ ईश्वर का पक्षपात न हो ।

(६) “इस के अतिरिक्त शान्ति के इच्छुक लोगों के लिए यह एक प्रसन्नता का स्थान है कि जितनी इसलाम में शिक्षा पाई जाती है । वह वैदिक धर्म की किसी न किसी शाखा प्रशाखा में विद्यमान है ।”

(ढ़)

अतः सिद्ध हुआ कि इसलाम संसार में कोई पूर्ण धर्म का प्रकाश नहीं कर सकता । क्योंकि उसकी सिक्षा तो अधूरी है । वह तो वैदिक धर्म की शाखा प्रशाखा में पूर्व से लिखी हुई है । वास्तव में तो वेद का धर्म ही पूर्ण और भूलों से रहित होने से परम पावन है ।

परमात्मा आर्यावर्त, पाक, इसलामी देशों और संसार भर के अमहदी  मि6 तथा अन्य सभी लोगों को यह सामर्थ्य प्रदान करें कि वह अपने मनों को पवित्र करके स्वार्थ और पक्षपात की समाप्ति के साथ सत्य सिद्धान्त युक्त वेद के धर्म को पूर्णतः स्वीकार करें । पं० लेखराम जी ने भगवान् से यही प्रार्थना सच्चे हृदय और पवित्र मन से की ।

इस प्रार्थना की पुष्टि के लिए उन्होंने अपना जीवन वैदिक धर्म की बलिवेदी पर स्वाहा कहकर आहुत कर दिया । और सच्चे धर्म की सच्ची शहादत अपने खून से दे दी । जिस का प्रभाव यह हुआ कि मिर्ज़ा गुलाम अहमद के विचार परिवर्तित होते होते उनको वैदिक धर्म का शैदाई बना गए ।

ऐ काश ! हमारी भी शाहदत प्रभु के सम्मुख स्वीकार हो और हमें वीर लेखराम की पदवी प्राप्त हो । पदवी नहीं, गुमनामी ही सही । किन्तु वैदिक धर्म की पवित्र बलिवेदी पर हमारी आहुति भी डाली जाकर उसके किंचित् प्रकाश से संसार में उजाला और वेदों का बोलबोला हो । परमेश्वर सत्य हृदय से की गई प्रार्थना को स्वीकार करें ।

ओ३म् शम्

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