Category Archives: Acharya Somdev jI

उपदेश प्रारमभ होने से पूर्व आप एक वेदमन्त्र (ओं यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयम् कूरू…..) का उच्चारण करते हैं। मैं भी दैनिक यज्ञ में प्रतिदिन आहुति इस मन्त्र से डालती हूँ, परन्तु इसका मुझे भावार्थ पूर्ण रूप से समझ नहीं आ रहा है। कृपया, इसका भावार्थ समझाएँ।

जिज्ञासा- उपदेश प्रारमभ होने से पूर्व आप एक वेदमन्त्र (ओं यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयम् कूरू…..) का उच्चारण करते हैं। मैं भी दैनिक यज्ञ में प्रतिदिन आहुति इस मन्त्र से डालती हूँ, परन्तु इसका मुझे भावार्थ पूर्ण रूप से समझ नहीं आ रहा है। कृपया, इसका भावार्थ समझाएँ।

– सुमित्रा आर्या, 261/8, आदर्शनगर, सोनीपत, हरियाणा

समाधान- 

यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरू।

   शं नः कुरू प्रजायोऽभयं नः पशुभयः।।

-यजु. 36.22

इस मन्त्र का पदार्थ सहित भावार्थ ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में महर्षि लिखते हैं पदार्थ आर्याभिविनय पुस्तक से लिया है। (यतः+यतः) जिस-जिस देश से (समीहसे) समयक् चेष्टा करते हो (ततः) उस-उस देश से (नः) हम को (अभयम्) भय रहित (कुरू) करो (शम्) सुख (नः) हमको (कुरू) करो (प्रजायः) प्रजा से (अभयम्) भय रहित (नः) हमको (पशुयः) पशुओं से।

भावार्थ विस्तार से यह है- हे परमेश्वर! आप जिस-जिस देश से जगत् के रचना और पालन के अर्थ चेष्टा करते हैं, उस-उस देश से हमको भय से रहित करिए, अर्थात् किसी देश (स्थान) से हमको किञ्चित् भी भय न हो, वैसे ही सब दिशाओं में जो आपकी प्रजा और पशु हैं, उनसे भी हमको भयरहित करें तथा हमसे उनको सुख हो, और उनको भी हम से भय न हो तथा आपकी प्रजा में जो मनुष्य और पशुआदि हैं, उन सबसे जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पदार्थ हैं, उनको आपके अनुग्रह से हमलोग शीघ्र प्राप्त हों, जिससे मनुष्य जन्म के धर्मादि जो फल हैं, वे सुख से सिद्ध हों।। – ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका ई.प्रा.वि.

(1) मेरी शंका है कि जब जीवात्मा श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना अथवा योग बल से मोक्ष प्राप्त करके ईश्वर के साथ आनन्द भोगता है। फिर अवधि पूर्ण होने पर वापिस संसार में आकर एक सामान्य परिवार में जन्म लेता है, जबकि उसने तो श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना की है। उसे तो श्रेष्ठ तथा धार्मिक उच्च कुल में जन्म मिलना चाहिए। कृपया मेरी शंका दूर कीजिए।

(1) मेरी शंका है कि जब जीवात्मा श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना अथवा योग बल से मोक्ष प्राप्त करके ईश्वर के साथ आनन्द भोगता है। फिर अवधि पूर्ण होने पर वापिस संसार में आकर एक सामान्य परिवार में जन्म लेता है, जबकि उसने तो श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना की है। उसे तो श्रेष्ठ तथा धार्मिक उच्च कुल में जन्म मिलना चाहिए। कृपया मेरी शंका दूर कीजिए।

– सुमित्रा आर्या, 261/8, आदर्शनगर, सोनीपत, हरियाणा

समाधान- (1) मुक्ति निष्काम कर्म करते हुए विशुद्ध ज्ञान से होती है। जब जीवात्मा संसार से विरक्त होकर निष्काम कर्म करते ज्ञान, अर्थात् ईश्वर, जीव, प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को पृथक्-पृथक् समझ लेता है और अपने विवेक से अन्दर के क्लेशों को दग्ध कर शुद्ध हो जाता है, तब मुक्ति होती है। इस मुक्ति की एक निश्चित अवधि ऋषि ने कही है, जो 36 हजार बार सृष्टि प्रलय होवे, तब तक मोक्ष अवस्था का समय है। इस मुक्त अवस्था में जीवात्मा सर्वथा अविद्या से निर्लिप्त रहता है, अर्थात् विवेकी-ज्ञानी बना रहता है। जब मुक्ति की अवधि पूरी हो जाती है, तब जीव को परमेश्वर संसार में जन्म देता है। जन्म, अर्थात् शरीर धारण कराता है। इस शरीर के मिलने पर आत्मा मुक्ति की अवस्था जैसा ज्ञानी नहीं रहता। उसे जन्म भी सामान्य मनुष्य का मिलता है, अर्थात् सामान्य परिवार, सामान्य शरीर, सामान्य बुद्धि, सामान्य इन्द्रियाँ आदि। इसमें आपका कहना है कि आत्मा ने तो श्रेष्ठज्ञान, कर्म, उपासना की थी, उस ज्ञान, कर्म, उपासना के बल से अब सामान्य मनुष्य न बनाकर परमेश्वर श्रेष्ठ मनुष्य क्यों नहीं बनाता? इसमें सिद्धान्त यह है कि जीवात्मा ने जिन श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना आदि को किया था, उनका श्रेष्ठ फल मुक्ति के रूप में भोग चुका है। मुक्ति की अवधि पूरी होने के बाद उसके पास अब श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना नहीं रहे, अब वह अपनी सामान्य स्थिति में आ गया है, इसलिए उसको सामान्य मनुष्य का जन्म मिलता है।

इसको लौकिक उदाहरण से भी समझ सकते हैं, जैसे संसार में हमें कोई वस्तु शुल्क देकर प्राप्त है, शुल्क न होने पर वस्तु भी प्राप्त नहीं होती। किसी के पास एक हजार रुपये हैं, उन्हें खर्च करने पर उसको एक हजार की वस्तु मिल जाती है, अर्थात् उसने एक हजार का फल प्राप्त कर लिया। यह खर्च होने पर उसको फिर से एक हजार का फल नहीं मिलेगा। उसके लिए फिर एक-एक हजार रु. कमाने पड़ेंगे। ऐसे मुक्ति श्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना का फल है, उस फल को भोगने के बाद वह फिर से श्रेष्ठ को प्राप्त नहीं कर सकता। उसको प्राप्त करने के लिए पुनःश्रेष्ठ ज्ञान, कर्म, उपासना को करना होगा।

इसलिए आपने जो पूछा कि उसको श्रेष्ठ जन्म क्यों नहीं मिलता, उसका कारण हमने यहाँ रख दिया है, इतने में ही समझ लें।

जिज्ञासा समाधान – 104

जिज्ञासा समाधान – 104

– आचार्य सोमदेव

  1. जिज्ञासा –मनुष्य योनि, कर्म योनि व भोग योनि दोनों है, जबकि अन्य योनियाँ केवल भोग योनि हैं। मनुष्य जो भी शुभ अथवा अशुभ /मिश्रित कर्म करता है, उसके सुख/दुःखरूपी फल व कर्मों एवं फलों की वासनायें (संस्कार) कर्माशय में एकत्र होते रहते हैं। ईश्वर की न्याय प्रक्रिया से उनके तीन रूपों में जाति, आयु व भोग रूपी फल अवश्य भोगने पड़ेंगे चाहे सैकड़ों वर्ष समाप्त हो जावें। यहाँ मुझे शंका है। वेदों व वैदिक पुस्तकों में पढ़ने को मिलता है कि ईश्वर भक्ति से कर्म नष्ट हो जाते हैं।

उदाहरणार्थः- त्वं हि विश्वतोमुखः…………… शोशुचदधम्। – ऋ. अष्टक अध्याय 1-7-5-6

स्थिरा वः सन्त्वायुधा………..मर्त्यस्य मायिनः।

– ऋ. 1-3-18-2 वर्ग मन्त्र

उपरोक्त उदाहरणों के अतिरिक्त भी अन्य कई स्थानों पर ईश्वर भक्ति (विवेक खयाति अपर वैराग्य समप्रज्ञात समाधि, पर वैराग्य व असमप्रज्ञात समाधि) द्वारा पापों का नाश होना बताया गया है। कृपया, स्पष्ट करें कि अशुभ कर्मों/पाप कर्मों के फलों से क्या बचा जा सकता है? मोक्ष प्राप्ति की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों के बाद पुनःजन्म लेने पर क्या पुराने कर्म-फल-संस्कार बचे रहतेहैं? यदि मोक्ष प्राप्ति के पूर्व के कर्मफल-संस्कार बचे रहते हैं तो क्या मोक्ष प्राप्ति के बाद पुनःजन्म लेने पर उन पुराने संस्कारों को भोगना पड़ेगा?

  1. योग के आठ अंगों में प्रथम ‘यम’ के पाँच भागों में अहिंसा व सत्य बोलना भी शामिल है- सत्य बोलना स्वयं में ही हिंसा का पर्याय है। कहा जाता है कि सच बोलने में शहद मिलाकर बोले- यह संभव नहीं लगता, सच तो कड़वा ही होता है। मैं प्रतिदिन पौराणिकों से अन्धविश्वासों के वेदानुकुल सच बोलकर मेरे मित्रों को भी फटकारता रहता हूँ। कृपया, सत्य व अहिंसा का कैसे पालन किया जावे- स्पष्ट करे। मैं महर्षि के पद-चिह्नों पर चलते हुए कड़वा सच ही बोलता हूँ।

– एम.एल. गोयल, वरिष्ठ उपाध्यक्ष आर्यसमाज केसरगंज, अजमेर।

समाधान– (क) जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह चाहे मनुष्य योनि में हो या किसी और योनि में। मनुष्य योनि में यह विशेषता है कि इस योनि में मनुष्य पाप-पुण्य रूप कर्म कर सकता है, जबकि अन्य योनि में यह नहीं है। इसमें कारण है मनुष्य योनि का भोग और कर्म योनि होना और मनुष्य से इतर योनियों का भोग योनि होना। इन भोग योनियों में भोगना होते हुए भी स्वतन्त्रता है, वह स्वतन्त्रता भले ही सीमित हो, किन्तु स्वतन्त्रता तो है। एक जानवर के सामने तीन मार्ग आ जाएँ तो ऐसी स्थिति में वह जानवर किसी भी रास्ते से जा सकता है, यह उसकी अपनी स्वतन्त्रता है। ऐसे ही अन्य स्थलों पर देखा जा सकता है।

अब आपकी बात पर विचार करते हैं कि किये हुए पाप क्षमा होते हैं या नहीं? इस विषय में महर्षि दयानन्द ने प्रश्न उठाकर उत्तर दिया है- ‘‘प्रश्न ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है वा नहीं? उत्तर – नहीं क्योंकि जो पाप क्षमा करे, तो उसका न्याय नष्ट हो जाये और सब मनुष्य महापापी हो जाएँ, क्योंकि क्षमा की बात सुन के ही उनको पाप करने में निर्भयता और उत्साह हो जाये। जैसे राजा अपराध को क्षमा कर दे तो वे उत्साह पूर्वक अधिक से अधिक बड़े-बड़े पाप करें, क्योंकि राजा अपना अपराध क्षमा कर देगा और उनको भी भरोसा हो जाए कि राजा से हम हाथ जोड़ने आदि चेष्टा कर अपने अपराध छुड़ा लेंगे और जो अपराध नहीं करते वे भी अपराध करने से न डर कर पाप करने में प्रवृत्त हो जाएँगे। इसलिए सबकर्मों का फल यथावत् देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं।’’ स.प्र. 7 यहाँ महर्षि की दृढ़ मान्यता है कि किए हुए पाप कर्म क्षमा नहीं होते। उनका तो फल भोगना ही पड़ता है।

महाभारत में कहा है-

येषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रपेदिरे।

तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः।।

अर्थात पूर्व सृष्टि में जिस-जिस प्राणी ने जो-जो कर्म किये होंगे, फिर वे ही कर्म उसे यथा पूर्व प्राप्त होते रहते हैं। जब अयुक्त कर्म इतनी दूर तक पीछा करते हैं तो इसी जन्म में किये पापों से बिना भोगे निवृत्ति पा लेना कैसे समभव हो सकता है? कृतकर्म का भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता- यह परमेश्वर का नियम है। अपने इस नियम को परमेश्वर स्तुति करने वाले भक्तों के लिए शिथिल नहीं कर सकता। यदि वह पापों को क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाए और सब मनुष्य पापी हो जाएँ । हाथ-पैर जोड़ने से परमात्मा अपराधियों को छोड़ देता है, यह जानने पर लोग निःशंक होकर पाप में प्रवृत्त होंगे। ऐसी अवस्था में ईश्वर लौकिक शासकों के समान हो जायेगा। जो उसकी स्तुति (चमचागिरी) करेंगे, वे उनके अपने होंगे। उनके प्रति उसका व्यवहार दया और सहानुभूति का होगा। इसके विपरीत जो उसकी स्तुति आदि नहीं करेंगे, उनके प्रति वैर भाव नहीं तो उपेक्षा का भाव तो रखेगा ही। तब वह सब प्राणियों के लिए एक जैसा नहीं रहेगा। अपनों का उपकार करना परोक्ष रूप से अपने पर उपकार करना ही है। इसमें स्वार्थ निहित है। इस स्वार्थ के कारण परमात्मा खुशामदियों से घिरे हुए शासक के समान होगा, जिसमें राग-द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सब शेष होंगे।इस प्रकार के जगन्नियन्ता परमेश्वर से न्याय की आशा कैसे की जा सकती है? वास्तव में तो परमेश्वर तटस्थ भाव से सब जीवों के कर्मों का साक्षी रहते हुए ही न्याय परायण हो सकता है और है। उसके व्यवहार में दया और न्याय का विलक्षण सममिश्रण अथवा समन्वय है।

सामान्यतः मनुष्य दण्ड के भय से अपराध करने से डरते हैं। यदि यह विश्वास हो जाये कि अपराध करने पर पकड़े नहीं जायेंगे और पकड़े भी गये तो बिना दण्ड पाये छूट जाएँगे तो असंखय मनुष्य दुष्कर्मों-अपराधों के अभयस्त हो जायेंगे। किसी पीर पैगबर पर ईमान लाने मात्र से किये हुए कर्मों का दण्ड पाये बिना इससे कोई छूट नहीं सकता है। किये हुए पाप का फल तो भोगना ही पड़ेगा।

आपने जो प्रमाण दिये हैं, अब उस पर विचार कर लेते हैं। ‘‘स्थिरा वः सन्त्वायुधा ………मा मर्त्यस्य मायिनः।।’ ’इस मन्त्र में से पाप क्षमा वाली बात आपने कहाँ से ली, ज्ञात नहीं हो पाया। इसमें परमेश्वर की ओर से मनुष्यों को उपदेश है अथवा आशीर्वाद है कि तुमहारे आयुध शक्ति सामर्थ्य से रहें, जिससे शत्रुओं को पराजित किया जा सके और शत्रुओं का राज्यादि ऐश्वर्य कभी न बढ़े। दूसरा जो मन्त्र आपने उद्धृत किया है, उसमें जो ‘‘अप नः शोशुचदधम्’’ ये शबद आये हैं। इनके द्वारा प्रार्थना की गई है कि हमारे पाप दूर कराइये। परमेश्वर से प्रार्थना की गई है पाप दूर करने की। अब विचारणीय यह है कि यहाँ प्रार्थना किये गये (जो हो चुके ) उन पापों को दूर करने की है या पाप भावना को दूर करने की?

पाप दो स्थितियों में नष्ट होते हैं, हो सकते हैं अथवा परमात्मा पाप नष्ट करता है, कर सकता है। एक जो पाप किये हैं, उनके फल भोगने पर वे पाप नष्ट हो जाते हैं। दूसरा जो हमारे मन में पाप भावना है, उसको परमेश्वर शुद्ध भावना से उपासना करने पर नष्ट करता है। ऐसा मानने पर कोई सिद्धान्त हानि नहीं है। और यदि पाप किये जाने के बाद उनका फल न देकर परमात्मा क्षमा कर देता है। ऐसा मानते हैं तो सिद्धान्त की हानि होती है। ऐसी मान्यता किसी शास्त्र वा ऋषि ने नहीं मानी है। यह तो अवश्य है कि दयालु परमेश्वर हमारे पाप नष्ट करता है। वह हमें हमारे पापों का फल भुगाकर नष्ट करता है इसमें परमेश्वर की न्याय व दया निहित है। परमात्मा शुद्ध अन्तःकरण से की गई प्रार्थना से भी पाप अर्थात् काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक आदि की भावना को नष्ट करता है। ऐसी मान्यता को मानने में कोई हानि नहीं है। हानि तो पाप क्षमा करने में है।

(ख) समाधि से पापों का नाश होता है, इसका तात्पर्य है अविद्या आदिक्लेशों का नाश होता है। अब अविद्या आदिक्लेश क्षीण होते हैं तो काम, क्रोध आदि पाप भी क्षीण होते हैं। दूसरा, इसमें विद्वानों की दो मान्यताएँ हैं- एक जो समाधि से अविद्या आदिक्लेशों के साथ-साथ कर्माशय को भी नष्ट होना मानते हैं, जो कि शास्त्र इनकी बात को अधिक पुष्ट करता है। इस स्थिति में अर्थात्क्लेशों के नष्ट होने की स्थिति में जो भी योगी आयेगा, उसके समस्त कर्म परमेश्वर नष्ट कर देता है। (पाप-पुण्य रूप दोनों कर्म) इसमें परमेश्वर के न्याय में भी कोई दोष नहीं आयेगा, क्योंकि जो भी इस स्थिति को प्राप्त करेगा, उसी के कर्माशय को नष्ट करेगा अन्य के नहीं। दूसरी मान्यता विद्वानों की है कि मुक्ति से पहले सब कर्म नष्ट नहीं होते केवल अविद्या आदिक्लेश ही नष्ट होते हैं, इस बात को मानने वाले के पास कोई विशेष प्रमाण नहीं है। इनकी मान्यता है कि जो मोक्ष होने से पहले कर्म शेष थे, उनके आधार पर मुक्ति से लौटकर जीवात्मा उनको भोगता है। जिनकी मान्यता ये है कि समस्त क्लेशों के साथ कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। वे मुक्ति से लौटने में परमात्मा की दया को देखते हैं कि मुक्ति की अवधि पूरी होने के बाद परमेश्वर जन्म देकर मुक्ति का प्रयास करने का पुनःअवसर दे रहे हैं।

(ग) आप सत्य को हिंसा की कोटि में रख रहे हैं, हिंसा ही मान रहे हैं, जबकि ऐसा है नहीं। सत्य और अहिंसा की परिभाषा को ठीक-ठीक जानने पर ऐसा प्रतीत नहीं होगा।महर्षि पतञ्जलि ने तो सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि को अहिंसा के पोषक माना है, ये सब अहिंसा को ही सिद्ध करने वाले हैं। आपने जो यह कहा कि पौराणिकों और अन्धविश्वासियों को सत्य बोलकर फटकारता हूँ तो उनको दुःख होता है। इस दुःख होने में सत्य दोषी नहीं है, अपितु वह व्यक्ति दोषी है जो सत्य को स्वीकार नहीं कर रहा और ऊपर से दुःखी हो रहा है।

अहिंसा की परिभाषा ऋषि ने लिखी- ‘‘सब प्रकार से, सब काल में, सब प्राणियों के साथ वैर छोड़ के प्रेम-प्रीति से वर्तना। इस परिभाषा के अनुसार यदि व्यक्ति सत्य बोलता है तो सत्य हिंसक हो ही नहीं सकता । यदि व्यक्ति वैर भाव रखते हुए किसी को दुखी करने के लिए सत्य बोलता है तो निश्चित ही वह हिंसक होगा। देखना यह है सत्य किस प्रयोजन से बोला जा रहा है। सत्य का ध्येय अहिंसा है, धर्म है, परोपकार है, ईश्वर है ऐसी स्थिति में सत्य को हिंसा कहना सर्वथा असंगत ही तो है।

कोई व्यक्ति हमसे दुःखी न हो, ऐसा करने के लिए यदि हम सत्य को छोड़ असत्य बोलते हैं तो भले ही उस व्यक्ति को तात्कालिक दुःख न हो, किन्तु उस असत्य से कालान्तर में वह अवश्य पीड़ित होगा और इसके विपरीत सत्य बोलने से तात्कालिक रूप से भले ही थोड़ी देर के लिए दुःखी हो, किन्तु कालान्तर में उसको सत्य से अपार सुख मिलेगा। ऐसा होने से सत्य को हिंसा नहीं कहा जा सकता।

आपने कहा- सत्य कड़वा ही होता है सो ठीक नहीं है।सत्य को तो शास्त्र ने अमृत कहा है। हाँ, कड़वाहट तब होती है, जब कोई सत्य को सुनना और समझना न चाहता हो। यदि व्यक्ति यथार्थ में सत्य को जानना समझना चाहता है तो उसको कभी भी सत्य कड़वा नहीं लगेगा, वरन वह सत्य उसको अमृत रूप लगेगा। यदि सत्य अहिंसा न होकर हिंसा होता तो ऋषि कभी इसको योग का अंग न बनाते। वेद व शास्त्र सत्य की महिमा न कहते। वेद तो असत्य को छोड़ सत्य के प्राप्त होने को कहता है- इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि मैं असत्य से छूट सत्य को प्राप्त होऊँ। उपनिषद्में कहा है-

सत्यमेव जयति नाऽनृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।

येना क्रमन्त्पृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्।।

सर्वदा सत्य की ही विजय और झूठ की पराजय होती है, इसलिए जिस सत्य से चल के धार्मिक ऋषि लोग जहाँ सत्य की निधि – परमात्मा है, उसको प्राप्त होकर आनन्दित हुए थे और अब भी होते हैं, उसका सेवन मनुष्य लोग क्यों न करें? और भी- न हि सत्यात्परमो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।।

यह निश्चित है कि न सत्य से परे कोई धर्म और न असत्य से परे कोई अधर्म है। इससे धन्य मनुष्य वे हैं जो सब व्यवहारों को सत्य ही से करते हैं और झूठ से युक्त कर्म किञ्चित मात्र भी नहीं करते हैं। ये सत्य की महिमा है, इसलिए सत्य को निंदित रूप से न देखें। जैसे अहिंसा सुख देने वाली है, वैसे ही सत्य भी सुख देने वाला है। अस्तु।             – ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर।

. क्या वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अलावा दूसरे धर्म शास्त्रों को मानने वाले को मुक्ति मिलेगी? : आचार्य सोमदेव जी

जिज्ञासा:- . क्या वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अलावा दूसरे धर्म शास्त्रों को मानने वाले को मुक्ति मिलेगी?

समाधान

हमने लिखा-मुक्ति ज्ञान से होती है और शुद्ध ज्ञान का भण्डार वेद व वेदानुकूल शास्त्र हैं। इनके अतिरिक्त जितने भी मतवादियों ने अपने-अपने ग्रन्थ बना रखे हैं, उनमें पूर्ण सत्य नहीं है और जो सत्य है भी, वह वेदादि का ही है। अन्य मतवादियों के ग्रन्थों में सृष्टि विरुद्ध बातें प्रचुर मात्रा में हैं, पाखण्ड और अन्धविश्वास से पूर्ण बातें उनके ग्रन्थों में हैं। इस प्रकार की बातों से युक्त ग्रन्थों को मानने वाली मुक्ति कैसे हो सकती है, यह आप भी विचार कर देखें।

इसलिए वैदिक धर्म के मानने वाले शास्त्रों के अतिरिक्त अन्य मतवादियों के ग्रन्थों को मानने वालों की मुक्ति सभव नहीं है। महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका के पठन-पाठन विषय में स्पष्ट लिखा कि-

यो मनुष्यो वेदार्थान्न वेत्ति स नैव तं बृहन्तं

परमेश्वरं धर्मं विद्यासमूहं वा वेत्तुमर्हति।

कुतः सर्वासां विद्यानां वेद एवाधिकरणमस्त्यतः।

न हि तमविज्ञाय कस्यचित् सत्य विद्या प्राप्तिभवितुर्महति।।

यहाँ महर्षि का कहने का भाव है कि जो मनुष्य वेदार्थ को नहीं जानता, वह कभी उस महान् परमेश्वर, धर्म और विद्या समूह को जानने में समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि सभी सत्य विद्याओं का वेद ही आधार है, इसलिए उस वेद को जाने बिना  किसी को सत्यविद्या प्राप्त नहीं हो सकती।

Moksh

क्या नाम व शब्द सृष्टि के साथ पैदा हुए हैं?:- आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा :

क्या नाम व शब्द  सृष्टि के साथ पैदा हुए हैं? (जैसे पृथ्वी, आकाश, पानी, इन्द्रियों के नाम या पदार्थों के व वनस्पतियों के नाम)

समाधान :

सृष्टि का रचने वाला परमेश्वर है, उसी ने संसार के समस्त पदार्थ रचे हैं। परमात्मा ने जितने भी पदार्थ रचे हैं, उनके नाम पहले से ही परमात्मा के ज्ञान में सदा बने रहते हैं। जब रचना करता है तो उनका नामकरण भी परमात्मा करता है, अर्थात् जो पदार्थ उत्पन्न होता है, उसका नाम भी साथ-साथ होता चला जाता है। सृष्टि में जो भी पदार्थ हैं, उन सबके नाम उनकी उत्पत्ति के साथ ही साथ हैं। इस विषय में महर्षि मनु लिखते हैं-

सर्वेषां तु नामानि कर्माणि च पृथक्-पृथक्।

वेदशदेय एवाऽऽदौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे।। 1.21

उस परमात्मा ने सब पदार्थों के नाम पृथिवी, सूर्य, गो, अश्व और मनुष्यादि और इनके भिन्न-भिन्न कर्म- जैसे ब्राह्मण का वेदाध्ययन, अध्यापनादि, क्षत्रिय का रक्षा करना आदि, वैश्य का व्यापारादि अथवा मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के हिंस्र, अहिंस्र आदि कर्म उसी परमात्मा ने निश्चित किये हैं। सबकी भिन्न-भिन्न व्यवस्था सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने वेदों के शद से ही बनायी, अर्थात् मन्त्रों के द्वारा यह ज्ञान दिया।

इसलिए जो भी संसार में है, उसका नाम व काम परमेश्वर द्वारा नियत किया हुआ है।

Creation of universe

यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है? आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा :-

आचार्य जी, ‘‘समाधान – 93’’ में आपने जो दिया है, उसमें थोड़ी-सी शंका शेष रह गई है और वह यह है कि ईश्वर ने इस साकार जगत् की रचना प्रकृति के परमाणुओं से की है। इसका मतलब प्रकृति के परमाणुओं में साकारत्व का गुण है, तभी तो साकार जगत् बन पाया। पंचभौतिक तत्त्व भी प्रकृति के परमाणुओं से ही बने हैं, तो इन परमाणुओं से निराकार पदार्थ कैसे बन जाते हैं और फिर वे निराकार पदार्थ परस्पर मिलते हैं, तो आकार कैसे ग्रहण कर लेते हैं, अर्थात् साकार कैसे बन जाते हैं? यह भाव से अभाव तथा अभाव से भाव कैसे हो जाता है?

निम्न बिन्दुओं पर भी स्थिति स्पष्ट करने का कष्ट करें-

(1) आपने आकाश निराकार बताया है। यह प्रकृति के परमाणुओं से बना है। इसी तरह वायु भी निराकार है, अग्नि जब प्रकट होती तब साकार होती है, अन्यथा निराकार। यह क्यों है?

(2) मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है और ईश्वर तथा जीव निराकार होते ही हैं। फिर निराकार प्रकृति से साकार जगत् कैसे बना?

(3) महर्षि दयानन्द जी ने बताया है कि साकार चीजें असीम नहीं होती, बल्कि जीवात्माएँ भी संया वाली हैं, चाहे वे मनुष्य की गिनती से बाहर हों। ऐसी अवस्था में आकाश या अवकाश रूप आकाश असीम है या ससीम है?

(4) वायु ससीम है या असीम?

(5) क्या ईश्वर के अतिरिक्त अन्य भी कोई तत्त्व ऐसा है, जो असीम हो?

कृपया, समाधान करने का कष्ट करें।

– इन्द्रसिंह पूर्व एस.डी.एम. 29- नई अनाज मण्डी, भिवानी (हरियाणा) चलभाषः – 9416057813

समाधानः परमेश्वर ने यह संसार अपने सामर्थ्य से मूल प्रकृति को लेकर बनाया है। संसार के बनाने में परमेश्वर निमित्त कारण और प्रकृति उपादान कारण है। स्थूल जगत् के बनने की प्रक्रिया महर्षि कपिल ने अपने सांय दर्शन में दी है-

सत्त्वरजतमसां सायावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान्, महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिद्रियं पञ्चतन्मात्रेयः स्थूलभूतानि……।।  सां.- 1.61

सत्त्व, रज, तम- इन तीन वस्तुओं से मिलकरजो एक संघात है, उसका नाम प्रकृति है। उस प्रकृति से महतत्त्व बुद्धि, उस महतत्त्व से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्रा अर्थात् सूक्ष्म भूत- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द , दस इन्द्रियाँ तथा ग्यारहवाँ मन, पाँच तन्मात्राओं से पाँच स्थूल भूत अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और इन पाँच महाभूतों से यह दृश्य जगत्।

प्रकृति से जो कुछ भी उत्पन्न होता है, वह आकार वाला होता है, क्योंकि प्रकृति स्वयं आकार वाली है, जो गुण कारण में नहीं होते, वे कार्य में भी नहीं होते। यदि ऐसा होने लग जाये, तो अभाव से भाव की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जो द्रव्यात्मक पदार्थों में कभी घट ही नहीं सकता। महर्षि दयानन्द ने भी प्रकृति को आकार वाला माना है। महर्षि लिखते हैं-‘‘…….वह प्रकृति और परमाणु जगत् का उपादान कारण है और वे सर्वथा निराकार नहीं, किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं।’’ – स. प्र. स. 8

आपने जो कहा कि ‘‘मेरे विचार से प्रलयकाल में जब प्रकृति अपने विशुद्ध रूप में होती है, तब निराकार ही होती है।’’ यह विचार ऋषि के विचार से नहीं मिल रहा है। यदि ऐसा मान भी लें तो अभाव से भाव की उत्पत्ति वाली बात हो जायेगी, जो कि युक्त नहीं है। ऊपर जो लिखा कि प्रकृति से उत्पन्न पदार्थ आकार वाले होते हैं, इस कथन से आकाश निराकार कैसे सिद्ध होगा- यह प्रश्न खड़ा हो जायेगा। इसके लिए मेरा कथन है कि जो आपने परोपकारी के जिज्ञासा समाधान-93 की चर्चा की है, उसमें साकार निराकार की तीन परिभाषाएँ लिखी हैं, उनको यहाँ पुनः उद्धृत करता हूँ-

  1. साकार वह है, जो प्रकृति से बना हुआ, इसके अतिरिक्त निराकार।
  2. साकार वह, जिसमें रूप, रस, गन्धादि पाँचों गुण प्रकट हों, इससे भिन्न अर्थात् जिसमें पाँचों गुण प्रकट न हों, वह निराकार।
  3. साकार वह, जिसमें केवल रूप गुण प्रकट रूप में हो, अर्थात् जो आँखों से दिखाई दे वह साकार, इससे भिन्न निराकार।

इन परिभाषाओं के आधार से पहली परिभाषा के अनुसार देखें तो जो प्रकृति से बना आकाश है, वह भी साकार होगा। जहाँ आकाश को निराकार कहा है, वहाँ सापेक्ष रूप से कहा है। आकाश पाँच भूतों में सबसे सूक्ष्म है, उसको हम केवल शब्द  के आधार से अनुमान लगाकर जान पाते हैं। इसी प्रकार वायु को स्पर्श से जान पाते हैं। रूप क ी दृष्टि से तो ये निराकार ही कहलाएँगे।

हाँ, जिस अवकाश रूप आकाश की बात ऋषि करते हैं, जो कि प्रकृति से नहीं बना, वह तो निराकार ही है और यह अवकाश रूप आकाश असीम है। इन आकाश, वायु आदि के असीम-ससीम के विषय में हम इतना ही कह सकते हैं कि ये पदार्थ प्रकृति से बने होने केकारण ससीम हैं। शेष बाद में लिखेंगे।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर